Home Blog Page 2719

मीडिया लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ

आधुनिक युग सूचना का युग है! इसीलिये इस युग में संचार माध्यमों की उपयोगिता बहुत बढ़ गई है ! आज चारों तरफ मीडिया का बोलबाला है ! मीडिया या फिर पत्रकारिता एक ऐसा पेशा हो रहा है जिसका उद्देश्य  लोकतन्त्र के तीनों स्तम्भों को रोशनी दिखाना रहा है ! इसके साथ ही आम समाज की वे सभी बातें जो समाज के सामने आनी चाहिये, उसे उजागर करना इस पेशे का कर्तव्य रहा है लेकिन आज मीडिया बिकाऊ हो गया है ! वो सिर्फ उन्ही लोगो को कवरेज देता है जो कही न कही से उसे फायदा पहुचाएंगे!
 
भारत एक विशाल देश है,  इस देश में हर तरह के लोग रहते हैं, अमीर, गरीब, व्यापारी, किसान, मजदूर आदि लेकिन हमारा मीडिया इस विशालता को नहीं देख पाता ! वो तो बस कुछ शहरों में ही सिमटा हुआ है ! दो के अनेक भाग तो ऐसे हैं जिन्हें शायद मीडिया देश का हिस्सा मानता ही नहीं इसीलिये उनसे संबधित समाचार तो दिखाते ही नहीं !
भारत में 60: से ज्यादा लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती करना है लेकिन शायद ही ऐसा कोई समाचार पत्र या खबरिया चैनल है जहाँ इसके लिये कोई संवाददाता नियुक्त हो ! अखबारों में खेती से संबंधित आधा पेज भी तय नहीं है ! इस नाम से कोई बीट ही नहीं है ! लेकिन जब कोई फैशन शो होता है तब सभी अखबारों और चैनलों से कोई न कोई जरूर जाता है ! उस शो को कवर करने के लिये मीडिया की भीड लगी होती है ! यहाँ ये बात गौरतलब है की भारत में ब्रान्डेड कपडे पहनने वाले मात्र 0.003 : है ! स्पष्ट हो जाता है की हमारा मीडिया कितना व्यस्क और जिम्मेदार है !
इसी प्रकार गरीब और दलित लोगों के लिये भी भारतीय मीडिया में कोई स्थान नहीं है ! यदि कोई युवराज अपनी राजनीति चमकाने के लिये किसी कलावती के घर जाये तब तो सभी कैमरे तुरंत किसी गाँव में चमकने लगते हैं ! लेकिन जब कोई दलित 21 सदी में भी मल खाने को मजबूर हो जाता है तो उसे राष्ट्रीय मीडिया में ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता क्योकि वहाँ कोई युवराज नहीं गया ! तमिलनाडु के एक जिले में कुछ ईसाइयों ने ( जो जाति आदि को नहीं मानते और उसे समाप्त करने के लिये भारत में धमारंतरण करते है ! ) मिलकर एक दलित युवक को मल खिला दिया लेकिन वो समाचार पूरे देश तक नहीं पहुच पाता !
आज मीडिया को अपनी गिरेबान में झाक कर देखने कि जरुरत है ! लोकतन्त्र के तीन स्तम्भों को प्रकाश दिखाने वाला यदि खुद ही अन्धा हो जायेगा तो लोकतन्त्र का क्या होगा इसका हम सहज ही अन्दाजा लगा सकते हैं !  

चीन का अनजाना सच

चीन के अमीरों और कम्युनिस्टों के बीच घनिष्ठ संबंध हैं। चीन के अमीरों में ज्यादातर लोग वे लोग हैं जो कभी सेना में वफादार रह चुके हैं अथवा कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं अथवा किसी कम्युनिस्ट के रिश्तेदार अथवा दोस्त हैं। अथवा कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति वफादार हैं। नयी संपदा के उदय ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की भाषा और सैध्दान्तिकी को बदल दिया है। पहले कम्युनिस्टों का कहना था कि उनका लक्ष्य है सर्वहारा के हितों की रक्षा करना। नया नारा है सत्ता में रहो, ” चीन की अतिविकसित उत्पादक शक्तियों” के हितों का संरक्षण करो। ‘अतिविकसित उत्पादक शक्ति’ से यहां तात्पर्य अमीरों और मध्यवर्ग से है। यह पुराने नजरिए का एकदम उलटा है जिसमें मजदूरों, किसानों और सैनिकों के हितों की रक्षा करने की बात कही गयी थी।

आज चीन में सामाजिक असंतुलन और अव्यवस्था के जो रूप नजर आ रहे हैं वैसे पहले कभी नहीं देखे गए। अचानक समाज में लड़कियों की जन्मदर कम हो गयी है। समाज में बेटा पाने की चाहत और एक संतान के नियम के कारण लड़कियों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। आज स्थिति इतनी भयावह है कि चीन में चार करोड़ लोगों की शादी के लिए कोई लड़की उपलब्ध नहीं है। लिंग असंतुलन का इतना व्यापक कहर पहले कभी चीन में नहीं देखा गया। अनेक समाजविज्ञानी मानते हैं कि लड़कियों की अचानक कमी का प्रधान कारण है औरतों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैयया।

चीनी लोग अमूमन परंपरागत बच्चे और आज्ञाकारी बच्चे पसंद करते हैं। लड़की की तुलना में लड़के को तरजीह देते हैं। चूंकि एक ही संतान का नियम है अत: पहली संतान के रूप में लड़का ही चाहते हैं इसके कारण असंतुलन और भी बढ़ा है। समाजविज्ञानियों का अनुमान है कि यदि यही सिलसिला जारी रहा तो सन् 2020 तक आते-आते लड़कों के लिए लड़कियां मिलना मुश्किल हो जाएंगी। चीनी लोगों में लड़के की चाहत का एक अन्य

कारण यह मान्यता भी है कि लड़कियों की तुलना में लड़के श्रेष्ठ होते हैं। इस मान्यता को बदलना बेहद मुश्किल है।

किसी भी देश में नव्य उदारतावादी अर्थव्यवस्था लागू होगी तो आम लोगों का सेक्स और औरत के प्रति नजरिया भी बदलेगा। किसी भी देश में सेक्स और स्त्री के प्रति क्या नजरिया है यह अर्थव्यवस्था की प्रकृति से तय होता है। अर्थव्यवस्था और सेक्स के अन्तस्संबंध को विच्छिन्न भाव से नहीं देखना चाहिए। चीन में आए आर्थिक खुलेपन ने सेक्स के प्रति खुलेपन को, ज्यादा उदार नजरिए को हवा दी है।

माओ के जमाने में सेक्स टेबू था, आज चीन में सेक्स टेबू नहीं है। बल्कि टेबू से बाहर निकलने की कोशिशें ज्यादा हो रही हैं। आम लोगों में टेबुओं के प्रति घृणा सामान्य बात है।

‘चाइना डेली'(12मई 2008) में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि विशेषज्ञों की नजर में चीनी लोग सेक्स के प्रति ज्यादा उदार हैं। पेन सुई मिंग (निदेशक, इंस्टीट्यूट ऑफ सैक्सुअलिटी एंड जेण्डर, रींमीन विश्वविद्यालय ,चीन) ने कहा है आज चीन में एकाधिक व्यक्ति से शारीरिक संबंध रखने वालों की चीन में संख्या पच्चीस फीसद है। इसके कारा यह बहस छिड़ गयी है कि क्या चीनी नैतिक तौर पर भ्रष्ट होते हैं ?

पेन का कहना है एकाधिक सेक्स पार्टनर का होना सेक्स क्रांति का प्रतीक है। चीनी नागरिकों में खुला और पारदर्शी कामुक रवैयया पैदा हो रहा है। सन् 2000-2006 के बीच में किए गए सेक्स सर्वे बताते हैं कि आम लोगों में सेक्स और समलैंगिक सेक्स दोनों में ही इजाफा हुआ है। जिस तरह दो अंकों में अर्थव्यवस्था की विकास दर बढ़ी है उसी तरह दो अंकों में सेक्सदर में भी इजाफा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में एक से अधिक के साथ सेक्स करने की परंपरा में इजाफा हुआ है। सन् 2000 में ऐसे लोगों की संख्या 16.9 प्रतिशत थी, इसमें सन् 2006 तक सात फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। सन् 1980 में जब आर्थिक सुधार लागू किए गए थे तो उस समय ऐसे लोगों की संख्या छह प्रतिशत थी। महज तीस सालों में एक से अधिक स्त्री या पुरूष के साथ शारीरिक संबंध रखने वालों की संख्या का छह प्रत%

मैं होली हूँ – सतीश सिंह

1

सदियों से मैं खुशियों की तस्वीर होली हूँ .
अमराई की खुशबू हूँ, सबके दिल की धड़कन हूँ .
रंगों का त्यौहार हूँ
जो रंगों से कतराए
उसके लिए शैतान हूँ
जीवन के सफ़र में मैं बरगद की छावं हूँ
अमराई की खुशबू हूँ, सबके दिल की धड़कन हूँ .
फागुन की मेहरबानियाँ
कछुए भी खरगोश हो गए
जनमानस फाग गाकर
मस्ती के रंग में सराबोर हो गए
मैं ही महुआ हूँ, मैं ही पलाश हूँ

अमराई की खुशबू हूँ , सबके दिल की धड़कन हूँ .
मैंने ख़ुशी बांटी है
अपने हाथों दिल खोलकर
मेरे दर से न कोई खाली लौटे
फरदीन हो या समर
मैं फागुन की आखों का अंजन हूँ
अमराई की खुशबू हूँ, सबके दिल की धड़कन हूँ .
तिजारत करने बैठे हैं
कुछ लोग भूलकर मेरा मान
इस धरा पर ऐसा कौन है
जो खरीद सके मेरा स्वाभिमान
सत्य, अहिंसा, भाईचारा, ख़ुशी की फसल हूँ
अमराई की खुशबू हूँ, सबके दिल की धड़कन हूँ

प्रख्यात समाजसेवी नानाजी देशमुख नहीं रहे

3

प्रख्यात समाजसेवी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक, पद्मविभूषण नानाजी देशमुख नहीं रहे। उनका चित्रकूट स्थित उनके निवास स्थान सियाराम कुटीर में निधन हो गया। वह 94 वर्ष के थे और पिछले काफी समय से आयुवार्धक्य के कारण अस्वस्थ चल रहे थे। सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, उन्होंने 27 फरवरी को लगभग सायंकाल 5 बजे अंतिम सांस ली।

नई दिल्ली में नानाजी के निधन का समाचार मिलते ही संघ एवं सहयोगी संगठनों के कार्यालयों में शोक छा गया। झण्डेवाला स्थित दीनदयाल उपाध्याय शोध संस्थान भवन में दिल्ली के कार्यकर्ताओं ने उनके चित्र के समक्ष पुष्पांजलि देकर श्रद्धांजलि समर्पित की। बड़ी संख्या में लोग चित्रकूट रवाना भी हुए हैं जहां 28 फरवरी को उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।

भारत में लोकतंत्र को सफल करने और उसे आम आदमी के प्रति उत्तरदायी बनाने वाले अग्रणी नायकों में नानाजी को शुमार किया जाता रहा है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए चले आपात विरोधी आंदोलन के अग्रणी नेताओं में नानाजी एक थे। उन्होंने लोकनायक जयप्रकाश नारायण को आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए राजी करने से लेकर उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संख के निकट लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। नानाजी को देखकर एक बार जेपी ने कहा था कि जिस संगठन ने देश को नानाजी जैसे रत्न दिए हैं वह संगठन कभी सांप्रदायिक और कट्टरवादी नहीं हो सकता।

वस्तुतः नानाजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उस पीढ़ी के कार्यकर्ता थे जिन्हें संघ संस्थापक एवं आद्य सरसंघचालक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने अपने हाथों से दीक्षित किया था। 11 अक्तूबर, सन् 1916 में उनका जन्म महाराष्ट्र के परभणी जिले के कदोली नामक एक छोटे से कस्बे के एक निर्धन परिवार में हुआ था। उनका बचपन घोर अभावों में बीता। यहां तक कि उनकी स्कूली शिक्षा भी ठीक से पूरी नहीं हो पाती थी। उन्होंने जीवन के प्रारंभिक दिनों में ट्यूशन पढ़ाने और ठेले पर फल-सब्जी बेचकर आजीविका कमाने का कार्य भी किया। देशभक्ति उनके जीवन में कूट-कूटकर भरी हुई थी। वे लोकमान्य तिलक के अनन्य भक्त थे। और बाद में डॉ. हेडगेवार ने उनके जीवन को नई दिशा दिखाई। सन् 1940 में जब डॉ. हेडगेवार का निधन हो गया, नानाजी ने अपना संपूर्ण जीवन संघ प्रचारक के रूप में देश को समर्पित करने का मन बना लिया।

वह प्रचारक बनकर कुछ दिन आगरा में रहे जहां उनकी मुलाकात पंडित दीनदयाल उपाध्याय से हुई। उसके बाद संघ कार्य के विस्तार के लिए उन्होंने पूर्वी उत्तरप्रदेश को चुना और गोरखपुर आए। यहां कई महीनों तक भटकने के बाद दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक विख्यात महानुभाव के घर घरेलु नौकर के रूप में उन्होंने काम शुरू किया। लेकिन चूंकि उनके मन और मिशन में संघ कार्य के विस्तार की ललक थी, अतएव वह खाली समय में संघ की शाखा का नियमित संचालन करने लगे। बच्चों में संस्कार निर्माण के इस अनूठे कार्य को देखकर लोग-बाग उनकी ओर खिंचे चले आए। धीरे-धीरे उन्होंने गोरखपुर समेत आस-पास के अनेक जनपदों में संघकार्य का विस्तार किया। शिक्षा के प्रति उनके मन में बचपन से ही तीव्र अनुराग था। यही कारण है कि उन्होंने गोरखपुर में नौनिहालों की शिक्षा के लिए देश के पहले सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना की।

नानाजी देशमुख भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक थे। सन् 1975 में आपातकाल के समय गठित जनता पार्टी के वे संस्थापक महासचिव नियुक्त हुए। आपात विराधी आंदोलन में उन्होंने केंद्रीय भूमिका का निर्वहन किया। पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में आयोजित आपातकाल विरोधी रैली में उनके साहस को आज भी लोग बरबस याद करते हैं। तब बाबू लोकनायक जयप्रकाश नारायण को पुलिस लाठियों की बर्बरता से बचाने के लिए लाठियों के प्रहारों को अपने ऊपर झेल लेने का उत्कट एवं लोमहर्षक साहस प्रदर्शित कर उन्होंने जेपी और उनके समाजवादी समर्थकों को सदा के लिए अचंभित कर दिया था। वह आपात काल के बाद हुए आम चुनावों में गोण्डा से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद उन्हें केबिनेट मंत्री बनने का प्रस्ताव मिला लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया और सन् 1978 में स्वप्रेरणा से राजनीति का पथ त्यागकर लोकसेवा के उदात्त पथ की यात्रा पर निकल पड़े।

सामाजिक सेवा एवं ग्रामीण विकास के क्षेत्र में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरूजी की प्रेरणा से दीनदयाल शोध संस्थान नामक एक अद्वितीय संगठन की नींव डाली। उनके जीवन पर भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक पंडित दीनदयाल उपाध्याय और संपूर्ण क्रांति के दिग्दर्शक नेता बाबू लोकनायक जयप्रकाश नारायण का अद्भुत प्रभाव था। संभवतः इन दोनों महानुभावों के वैचारिक और प्रेरक जीवन का प्रभाव था कि उन्होंने इनके विचारों के अनुरूप स्वावलंबी ग्राम और स्वराज को असली मायनों में जिन्दा करने के लिए राजनीतिक पथ से विरत हो अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। इसके माध्यम से उन्होंने गोण्डा में बाबू लोकनायक जयप्रकाश नारायण एवं उनकी धर्मपत्नी प्रभावती के नाम पर जयप्रभा ग्राम को विकास के आदर्श के रुप में स्थापित किया। उन्होंने पुणे के बीड़ और कालांतर में चित्रकूट में समग्र विकास के अनूठे प्रकल्प हाथ में लिए और एक दशक के भीतर ही उन्हें रोजगार, कृषि, स्वास्थ्य, पेयजल, अवस्थापना सुविधाओं से सुसज्जित कर ग्रामीण विकास को नवीन आयाम दिए।

सन् 1991 में उन्होंने चित्रकूट में ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की। सन् 1999 में देश को समर्पित सेवाओं के लिए उन्हें पद्म विभूषण के सम्मान से नवाजा गया। देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने राष्ट्रपति के रूप में नानाजी के चित्रकूट प्रकल्प को देखने के बाद सार्वजनिक रूप से उनके कार्य का चतुर्दिक बखान किया। नानाजी सन् 1999 में राज्यसभा में मनोनीत किए गए। सांसद पद का सदुपयोग करते हुए उन्होंने चित्रकूट में विकास कार्यों को नई बुलंदियों तक पहुंचाया। राज्यसभा के सदस्य के रूप में उन्होंने देश में फैले आकंठ भ्रष्टाचार और राजनीतिक अकर्मण्यता पर जमकर चोट की। वे सांसदों को मिलने वाले भत्तों और विशेष सुविधाओं के सख्त विरोधी थे और उनके कार्यकाल में जब सांसदो के वेतन-भत्तों में वृद्धि की गई, उन्होंने उसे लेने से इनकार कर उसे प्रधानमंत्री सहायता कोश में जमा करवाने का निर्देश दिया।

दिल्ली में दीनदयाल शोध संस्थान की छठवीं मंजिल पर ही उनका निवास स्थान था, जहां वह दिल्ली प्रवास के समय ठहरते थे।
चित्र विवरण- ऊपर से प्रथम- लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ नानाजी देशमुख, द्वितीय चित्र में-पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर, उद्योगपति रामनाथ गोयनका एवं डॉ. शांति पटेल के साथ 24 मार्च, 1979 को जेपी के स्वास्थ्य के लिए मुंबई में प्रार्थना करते हुए नानाजी देशमुख)

वीएवी ब्यूरो। नई दिल्ली। 27 फरवरी, 2010

2010/2/27 Samanwaya Nanda <samanwaya.nanda@gmail.com>
 
 
रंगों का त्यौहार होली की हार्दिक शुभकामनाये.
 
समन्वय नंद
भुवनेश्वर

पाकिस्तान में हिन्दु और सिखों की स्थिति

पिछले दिनों पाकिस्तान में पेशावर के पास इस्लामी जिहादियों ने जसपाल सिंह और महल सिंह के सिर काट कर उनकी हत्या कर दी। कटे हुए सिर नेजों पर टांग गर उन्हें गलियों बाजारों में घुमाया और फिर उनको गुरूद्वारे में भेज दिया। राक्षसी बर्बता का यह इस्लामी नमूना है जिसका सामाना मध्यकाल से ही विश्व के अनेक हिस्सों ने किया है और भारत ने जिसको मुहम्मद बिल कासिम के आक्रमणों के बाद से ही देखा और भोगा है। प्रश्न यह है कि इन लोगों को किस कारण से मारा गया? उनका दोष केवल इतना ही था कि उन्होंने भारत पाक विभाजन के बाद पाकिस्तान में रह जाने का निर्णय भी किया और अपने पंथ अथवा मजहब को भी न छोड़ने का निर्णय किया

स्पीड युग का नायक नरेन्द्र मोदी

मासमीडिया दुधारी तलवार है। दर्शकों के लिए बिडम्बनाओं की सृष्टि करता है। मासमीडिया के द्वारा सृजित अर्थ वहीं पर नहीं होता जहां बताया जा रहा है बल्कि अर्थ अन्यत्र होता है। अर्थ वहां होता है जहां विचारधारा होती है और विचारधारा को लागू करने वाले संगठन होते हैं। चूंकि गुजरात में संघ परिवार की सांगठनिक संरचनाएं बेहद पुख्ता हैं अत: टीवी के अर्थ का लाभ उठाने की संभावनाएं भी वहां पर ज्यादा हैं। मासमीडिया अदृश्य हाथों को लाभ पहुँचाता है अत: हमें देखना होगा मोदी के संदर्भ में अदृश्य शक्ति कौन है? मीडिया जब एक बार किसी चीज को अर्थ प्रदान कर देता है तो उसे अस्वीकार करना बेहद मुश्किल होता है। इसबार मीडिया ने यही किया उसने मोदी को नया अर्थ दिया, मोदी को विकासपुरूष बनाया। विकास को मोदी की इमेज के साथ जबर्दस्ती जोड़ा गया जबकि विकास का मोदी से कोई संबंध नहीं बनता। इसने मोदी का दंगापुरूष का मिथ तोड़ दिया। मोदी का दंगापुरूष का मिथ जब एकबार तोड़ दिया गया तो उसका कोई संदर्भ नहीं बचता था और इसी शून्य को सचेत रूप से विकासपुरूष और गुजरात की अस्मिता के प्रतीक के जरिए भरा गया। विकासपुरूष और गुजराती अस्मिता की धारणा असल में गुजराती जिंदगी के यथार्थ के नकार पर टिकी है। यह ऐसी धारणा है जिसे मीडिया ने पैदा किया है,यह गुजरात की ठोस वास्तविकता के गर्भ से पैदा नहीं हुई है। वरना यह सवाल किया ही जा सकता था कि मोदी ने राज्य में क्या कभी कोई ऐसा कारखाना खुलवाया जिसकी कीमत दस हजार करोड़ रूपसे से ज्यादा हो !

मोदी की जो छवि मीडिया ने बनायी वह मोदी निर्मित छवि है। असली मोदी छवि नहीं है। यह छवि कर्ममयता का संदेश नहीं देती। बल्कि भोग का संदेश देने वाला मोदी है। मीडिया निर्मित मोदी को हम असली मोदी मानने लगे हैं। विकास और गुजराती अस्मिता के प्रतीक मोदी को मीडिया ने निर्मित किया। यह आम लोगों को दिखाने के लिए बनाया गया मोदी है। यह दर्शकों के लिए बनाया गया मोदी है। इसमें सक्रियता का भाव है,यह मुखौटा है,बेजान है।यह ऐसा मोदी है जिसका गुजरात की दैनन्दिन जिंदगी के यथार्थ के साथ कोई मेल नही ंहै। यह मीडिया के जरिए संपर्क बनाता है। मीडिया के जरिए यह संदेश देता है। हम जिस मोदी को जानते हैं वह कोई मनुष्य नहीं है। बल्कि पुतला है। हाइपररीयल पुतला है। जिसके पास न दिल है, न मन है, उसके न दुख हैं और न सुख हैं। उसका न कोई अपना है और न उसके लिए कोई पराया है। वह पांच करोड़ गुजरातियों का था ,उसमें पांच करोड़ गुजराती थे और वह फासिस्ट था। वह कोई मानवीय व्यक्ति नहीं है। अमेरिकी पापुलर कल्चर के फ्रेमवर्क में उसे सजाया गया है। पापुलरकल्चर में मनुष्य महज एक विषय होता है। प्रोडक्ट होता है। जिस पर बहस कर सकते हैं, विमर्श किया जा सकता है। मोदी इस अर्थ में मानवीय व्यक्ति नहीं है। वह तो महज एक प्रोडक्ट है। विमर्श की वस्तु है।

मोदी के जिस विजुअल को बार-बार टीवी से प्रक्षेपित किया गया है उसमें हम मोदी के इतिहास को नहीं देख पाते, वैविध्य को नहीं देख पाते। मोदी का सिर्फ सीने से ऊपर का हिस्सा ही बार-बार देखते हैं। इसका ही मुखौटे के तौर पर व्यापक प्रचार के लिए इस्तेमाल किया गया। मोदी का प्रत्यक्षत: टीवी में सीने के ऊपर का हिस्सा और मुखौटा एक ही संदेश देते हैं कि मोदी कोई व्यक्ति नहीं है। बल्कि ऐसा व्यक्ति है जिसका इकसार सार्वभौम रूप बना दिया गया है। इकसार सार्वभौमत्व मोदी की इमेज को पापुलरकल्चर, मासकल्चर और मासमीडिया के सहयोग से प्रचारित प्रसारित किया गया। यह एक तरह से मोदी की जीरोक्स प्रतिलिपियों का वितरण है। मुखौटे मूलत: मोदी की जीरोक्स कॉपी का कामकर रहे थे। यह नकल की नकल है। किंतु यह ऐसी नकल है जिसका मूल से अंतर करना मुश्किल है। बल्कि अनेक सभाओं में तो मोदी के डुप्लीकेट का भी प्रचार के लिए इस्तेमाल किया गया। संभवत: भारत में पहलीबार ऐसा हुआ है कि किसी राष्ट्रीय दल ने अपने नेता के प्रचार के लिए उसके डुप्लीकेट का इस्तेमाल किया हो साथ ही इतने बड़े पैमाने पर नेता के मुखौटों का इस्तेमाल किया गया हो। इससे यथार्थ और नकली मोदी का अंतर ही धूमिल हो गया।

मोदी को नायक बनाने के लिए जरूरी था कि मोदी के मोनोटोनस अनुभव से दर्शकों को बचाया जाए इसलिए तरह-तरह के रोमांचक,भडकाऊ भाषण भी कराए गए। दर्शकों को जोड़े रखा गया। ध्यान रहेमीडिया कभी भी सारवान अर्थ सृष्टि नहीं करता बल्कि बल्कि हाइपररीयल अर्थ की सृष्टि करता है। वह ऐसी चीजें को उभारता है जिसे दर्शक हजम करें।

मोदी ने जिस तरह की हाइपररीयल राजनीति का इसबार प्रदर्शन किया है उसने समूचे राजनीतिक परिवेश और राजनीतिमात्र के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिया है। मोदी की इस तरह की राजनीति का हिन्दुओं की मुक्ति अथवा गुजरात के पांच करोड़ लोगों की अस्मिता की मुक्ति के सपने से कोई लेना-देना नहीं है। हाइपरीयल राजनीति की विशेषता यही है कि किसी को भी नहीं मालूम होता कि सूचनाएं जनता में कैसे जा रही हैं। हम सब जानते हैं कि कोई रिमोट कंट्रोल है जो सूचनाओं और प्रचार को नियंत्रित कर रहा है किंतु कौन है इसका किसी को पता नहीं है। मोदी का नया रूप ट्रांसप्लांटेशन की पध्दति की देन है। अभी तक हम संप्रेषण के जिस रूप के आदी थे वह रूप परिवहन और संचार के जरिए प्राप्त हुआ था। ठोस रूप हुआ करता था। किंतु मोदी हाइपररीयलिटी की देन है। संप्रेषण ट्रांसप्लांटेशन की देन है।

मुखौटा संस्कृति की देन है। वह वास्तव समय और स्थान के साथ जल्दीएकीकृत हो जाता है। मोदी अपने विचारों और चरित्र का एक ही साथ ,एक ही क्षेत्र में और एक ही समय में एकीकरण करने में सफल रहा है। इसके साथ उसने परिवहन और संचार के संप्रेषण रूपों का भी उपयोग किया है। इसके कारण वह अपनी वैद्युतकीय चुम्बकीय इमेज बनाने में सफल रहा। इस तरह का मोदी तो सिर्फ निर्मित करके ही उतारा जा सकता है।

मोदी का प्रचार अभियान रेसकार में भाग लेने वाली कार की तेज गति से हुआ है। यह कार इतनी तेज गति से दौड़ती है कि इसमें एक्सीडेंट भी उतना ही तेज होता है जितना तेज वह दौड़ती है। यह एक तरह का इनफार्मेशन शॉक पैदा करती है। मोदी ने भी यही किया है। उसने अनेक को इनफार्मेशन शॉक दिया है। मोदी ने जिस गति से गुजरात को चलाया है उसमें काररेस की तरह लगातार तकड़े एक्सीडेंट होते रहे हैं। किंतु एक्सीडेंट की खबरें तो खबरें ही नहीं बन पायीं क्योंकि कार रेस का एक्सीडेंट कोई खबर नहीं होता है। बल्कि उसे सामान्य एक्सीडेंट के रूप में पेश किया जाता है। उसे सामाजिक खतरा नहीं माना जाता। मोदी के शासन में जिस तरह की कार रेस चली है उसने यह बोध भी निर्मित किया है कि मोदी से कोई सामाजिक खतरा नहीं है। क्योंकि मोदी हाइपररीयल है, काररेस का हिस्सा है। काररेस में एक्सीडेंट होना सामान्य बात है, इसे गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है।

मोदी ने अपनीहाइपरीयल राजनीति के जरिए व्यक्ति को ‘डि-लोकलाइज’किया है। व्यक्ति को जब ‘डी-लोकलाइज’ कर देते हैं तो वह कहीं पर ही नहीं होता। मोदी ने जब राजनीति को हाइपरीयल बनाया तो राजनीति और समाज के बीच वर्चुअल दूरी बनायी और इस वर्चुअल दूरी में ले जाकर लोगों को कैद कर दिया। वर्चुअल दूरी में आप वास्तव के साथ नहीं होते किंतु मजा ले सकते हैं। यह एकदम वर्चुअल सेक्स की तरह है।

इसके गर्भ से एकदम नए किस्म के नजरिए और नैतिक सवाल उठ रहे हैं। आप पूरी तरह वर्चुअल नजरिए से देख रहे होते हैं। मोदी को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि उसने वर्चु अल तकनीक को मनुष्य के अंदर उतार दिया और उसके नजरिए का वर्चुअलाइजेशन कर दिया। नजरिए का वर्चुअलाइजेशन व्यक्ति को समाज से दूर ले जाता है साथ ही नजरिए का भी रूपान्तरण कर देता है। वर्चुअल राजनीति में हमें दूर से देखने में मजा आता है। दूर से ही भूमिका अदा करते हैं। यह बिलकुल साइबरसेक्स की तरह है।

संघ के हिन्दुत्व को देखना है तो उसे किताबों से नहीं देख और समझ सकते। बल्कि आप गुजरात जाकर ही महसूस कर सकते हैं। हिन्दुत्व ने गुजरात का कायाकल्प किया है। गुजरात को व्याख्या और मिथों (गांधी के मिथ) के जरिए नहीं समझा जा सकता। उसके लिए गुजरात जाना होगा और उसे करीब से महसूस करना होगा तब ही संघ का हिन्दुत्व समझ में आएगा। अब तक गुजरात को हमने कहानियों और व्याख्याओं के जरिए ही

देखा है उसके वास्तव संसार को महसूस नहीं किया। वास्तव गुजरात न तो रूपान्तरणकारी है और न कल्याणकारी है। वह जितना ही रंगीन है,दरिद्र है,भोगी है,बर्बर है उतना ही वर्चुअल है असुंदर है। आज गुजरात सांस्कृतिक रेगिस्तान की ओर तेजी से प्रयाण कर रहा है।

बुध्दिजीवियों-लेखकों-संस्कृतिकर्मियों की इसमें बलि देदी गयी है। बौध्दिकता की अब गुजरात में कोई कदर नहीं है। जनता का बुध्दिजीवियों पर कोई भरोसा नहीं रहा। यह मोदी की सबसे बड़ी उपलब्धि है। मौलिक विचार ,मौलिक सृजन करने वालों को,सत्ताा का प्रतिवाद करने वालों को रेगिस्तान में गाड़ दिया गया है। अब हमारे पास गुजरात के गरबा और मंदिरों और हीरों के प्रतीक भर रह गए हैं। इन्हें ही हम अपनी समृध्दि का प्रतीक मान रहे हैं। मोदी की आंधी ने सभी रंगों को धो दिया है। सभी इमेजों को साफ कर दिया है। संभवत: ऐसा महात्मा गांधी भी नहीं कर पाए थे। क्योंकि गांधी मनुष्य थे। मोदी वर्चुअल मनुष्य है। मोदी के पास मीडिया और तकनीक का तंत्र है जबकि गांधी के पास न तो मीडिया था और न सूचना तकनीक ही थी अगर कुछ था तो सिर्फ रामनाम और आंदोलनकारी जनता थी। मोदी के पास न तो राम हैं और न आन्दोलनकारी जनता है। बल्कि जनता के ऐसे बर्बर झुंड हैं जिनको जनसंहार करने में कोई परेशानी नहीं होती, बुध्दिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों पर हमले करने में परेशानी नहीं होती। निन्दा से परेशानी नहीं होती। अपने दुष्कर्मों पर लज्जित नहीं होते। वे वीडियोगेम के खिलाड़ी की तरह व्यवहार करते हैं। खेलते हैं।

मोदी ने गुजरात को सांस्कृतिक रेगिस्तान बनाया है। मोदी के लिए हिन्दू संस्कृति ही सब कुछ है और कुछ भी नहीं है। यह निर्भर करता है कि आप हिन्दू संस्कृति की किस तरह व्याख्या करते हैं। मोदी के राज्य में संस्कृति नहीं है। किसी भी किस्म का सांस्कृतिक विमर्श नहीं है। कोई मंत्रालय नहीं है। सिर्फ एक ही मंत्रालय है और एक ही मंत्री है वह है मुख्यमंत्री। मोदी ने निर्मित संस्कृति का वातावरण तैयार किया है। निर्मित संस्कृति के वातावरण का भारत की सांस्कृतिक परंपरा और उसके वातवरण से कोई लेना-देना नहीं है। गुजरात में अब हर चीज उत्तोजक और उन्मादी है। संस्कृति के रेगिस्तान को उपभोक्ता वस्तुओं से भर दिया गया है। मोदी के लिए संस्कृति का अर्थ है सिनेमा, तकनीक, हिन्दुत्व और तेज भागमभाग वाली औद्योगिक जिंदगी। मोदी के लिए स्पीड महान है। तकनीक महान है। हर चीज इन दो के आधार पर ही तय की जा रही है। मोदी के भाषणों में इसी बात पर जोर था कि उसने वे सारे काम मात्र पांच साल में कर दिखाए जो विगत पचपन वर्षों में कोई नहीं कर पाया। इस दावे के पीछे जो चीज सम्प्रेषित की जा रही है वह है स्पीड। मोदी के काम की स्पीड। मोदी स्पीड का नायक है और स्पीड का अत्याधुनिक वर्चुअल सूचना तकनीक के साथ गहरा रिश्ता है। तकनीक,हिन्दुत्व और स्पीड के त्रिकोण के गर्भ से पैदा हुई संस्कृति है,हाइपररीयल संस्कृति है,इसे हिन्दू संस्कृति समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। मोदी जैसा सोचता है मीडिया भी वैसा ही सोचता है। इस अर्थ में मोदी हाइपररीयल है।

मोदी ने गुजरात के यथार्थ पर कब्जा जमा लिया है हम वही यथार्थ देख रहे हैं जिसकी वह अनुमति देता है ऐसी स्थिति में यथार्थ को व्याख्यायित करने वाले मोदी के मानकों को निशाना बनाया जाना चाहिए। मोदी आज जिस हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व कर रहा है। वह 1980 के बाद में पैदा हुआ हिन्दुत्व है इसका संघ परिवार के पुराने हिन्दुत्व से कम से कम संबंध है। भूमंडलीकरण से ज्यादा संबंध है। यह अत्याधुनिक तकनीक और अत्याधुनिक बर्बरता के अस्त्रों से लैस है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

मंदी व मंहगाई की मार झेलती जनता हो रही है ठगी का भी शिकार

0

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर छाई मंदी जहां बड़े -बडे उद्योगों तथा कारपोरेट जगत से जुडे लोगों को आर्थिक संकट से ठीक तरह से उबरने नहीं दे रही है वहीं बेतहाशा बढ़ती महंगाई ने भी आम लोगों की कमर तोड़ कर रख दी है। हालांकि सरकार द्वारा मंदी व महंगाई को लेकर तरह तरह के तर्क पेश किए जा रहे हैं परंतु हकीकत तो यही है कि अब आम जनता पर इन आर्थिक हालात का प्रभाव पड़ता सांफ दिखाई दे रहा है। आम लोगों के खाने की थाली में या तो दाल व सबियों की कटोरी की संख्या में कमी आते देखी जा रही है या फिर इनकी मात्रा घटती जा रही है। कोई नाश्ता करना बंद कर महंगाई से जूझने के तरीके अपना रहा है तो कोई भोजन की मात्रा में ही कमी करने को ही मजबूर है। परंतु इन्हीं हालात के बीच देश में एक वर्ग ऐसा भी सक्रिय है जिस पर मंदी या मंहगाई का कोई असर नहीं देखा जा रहा है। और यह वर्ग जनता में लालच पैदा कर तथा उन्हें तरह तरह के विज्ञापनों के माध्यम से अपनी ओर आकर्षित कर उनकी जेब पर डाका डालने का काम कर स्वयं ख़ूब धन कमा रहा है। इनके द्वारा मंहगाई व मंदी की परवाह किए बिना जनता से मोटे नोट वसूले जा रहे हैं।

ठग सम्राट नटवर लाल के एक कथन का यहां उल्लेख करना उचित होगा। कांफी पहले नटवर लाल ने पूरे आत्मविश्वास के साथ यह कथन प्रस्तुत किया था कि जब तक संसार में लालच जिंदा है तब तक ठग कभी भूखा नहीं मर सकता। निश्चित रूप से आज चारों ओर उसी कथन की पुष्टि होती दिखाई दे रही है। रोजमर्रा के प्रयोग में आने वाली अधिकांश दैनिक उपयोगी वस्तुओं की बिक्री हेतु जो ऑंफर दिए जाते हैं उनमें फ्री शब्द का उल्लेख बड़े मोटे अक्षरों में किया जाता है। उदाहरण के तौर पर यदि आप एक टूथ पेस्ट खरीदते हैं तो उसके साथ टूथब्रश फ्र ी होने का लालच कंपनी द्वारा दिया जाता है। इस प्रकार के अनेकों उत्पाद ऐसे हैं जो दो के साथ एक फ्री या चार के साथ एक फ्री आदि अलग-अलग शर्तों व नियमों के हिसाब से बेचे जा रहे हैं। यहां तक कि अब तो ग्राहक स्वयं ऐसी फ्री योजनाओं वाली वस्तुओं की मांग करने लगा है। लगता है भारतीय बांजार की इस नब्ंज की न के वल बड़े व मध्यम वर्गीय उद्योगों द्वारा पहचान कर ली गई है बल्कि छोटे स्तर पर भी उपभोक्ताओं की इसी कमंजोरी का फायदा उठाया जाने लगा है।

इसी प्रकार फर्जी व ठगी से परिपूर्ण कारोबार में लालच में फसाने की शुरुआत टोल फ्री टेलींफोन नंबर का आकर्षण दिखाकर शुरु होती है। आम जनता टोल फ्री नंबर के झांसे में आकर सम्बद्ध कंपनी से बात तो कर लेती है परंतु इसके पीछे के इस रहस्य को वह अनदेखा कर देती है कि कंपनी अपने ऑंफिस या उद्योग का पूरा पता प्रकाशित या प्रसारित करने के बजाए केवल टोल फ्री नंबर से ही आख़िर क्यों अपना काम चलाना चाह रही है। और यही टोल फ्री नंबर किसी भी ग्राहक को अपनी ओर आकर्षित करने में वही भूमिका अदा करता है जोकि मछली फंसाने हेतु कांटे में लगाए गए चारे की होती है। आईए अपनी बात की शुरुआत प्रसिद्ध स्काईशॉप द्वारा विभिन्न टी वी चैनल्स पर प्रसारित होने वाले विभिन्न सांजो-सामानों के विज्ञापनों में से एक की करते हैं। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मैं स्वयं ऐसी एक घटना की भुक्तभोगी हूं। स्काईशॉप द्वारा किसी चैनल पर बार-बार एक विद्युत संबंधी सामग्री के दिए जाने वाले विज्ञापन ने मुझे आकर्षित किया। बहुत अच्छे व तर्कपूर्ण तरीकों से विज्ञापन द्वारा यह समझाया जा रहा था कि अमुक यंत्र खरीदने से तथा उसे अपनी विद्युत लाईन में लगाने से आपके घर की बिजली की खपत में 30 से लेकर 40 प्रतिशत तक की कमी आ जाएगी। टोल फ्री नंबर पर मैंने बात की। दूसरी ओर से भी मुझे पूरी तरह से यह समझा दिया गया कि यह दुनिया का सबसे अधिक बिकने वाला प्रॉडक्ट है तथा इसकी पूरी गारंटी भी है। कोई एडवांस भी नहीं है। मैंने उस व्यक्ति को अपना नाम व पता सब कुछ बता दिया। मात्र एक सप्ताह के भीतर हमारा पोस्टमैन एक गत्ते के डिब्बे में वी पी पी डाक लेकर हांजिर हो गया। डिब्बा देखने में तो अवश्य कुछ आकार घेरने वाला अर्थात् लगभग पंखे के पुराने टाईप के रेगयूलेटर जैसे साईंज का था। परंतु हाथ में लेने पर उसका वंजन 50 ग्राम भी प्रतीत नहीं हो रहा था। बहरहाल चूंकि हमारा नियमित रूप से आने वाला पोस्टमैन हमारे ही दिये हुए आर्डर की वी पी पी लाया था अत: उसे छुड़ाना लांजमी था। लगभग 2500 रुपये अर्थात् निर्धारित कीमत देकर मैंने वह वी पी पी छुड़ा ली। डिब्बा खोला तो उसमें प्लास्टिक के डिब्बे का एक सील बंद बाक्स नंजर आया। उसमें दो इंडिकेटर लगे थे। उसे लगाने हेतु निर्देश पत्र भी साथ था। बहरहाल मैंने मिस्त्री बुलाया, उसे उक्त यंत्र दिखाया तथा उसने कुछ सामान मंगाकर उक्त यंत्र लगा दिया।

विज्ञापन में प्रदर्शित यंत्र के अनुसार उसमें लाल बत्ती जलनी चाहिए थी। जोकि नहीं जली। जब मैंने इस बात का जिक्र पुन: टोल फ्री नंबर पर किया तब उसने पहले तो मुझसे ही कई प्रश्न ऐसे कर डाले जिससे लगा कि मैंने ही यह यंत्र ख़रीदकर गलती की है। बाद में उक्त व्यक्ति ने फोन पर मुंबई का एक पता बताते हुए कहा कि इस पते पर वह यंत्र तथा उसके साथ भेजी गई मूल रसीद आदि सब कुछ पार्सल द्वारा भेज दें। यहां मुझे यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा कि पैसे ख़र्च करने के बाद जब नया यंत्र काम नहीं कर रहा है फिर आख़िर इस यंत्र व उसकी रसीद मुंबई वापस भेजने के बाद हमें क्या राहत मिल सकेगी। मुझे तब यह यकीन हो गया कि मेरे साथ ठगी हो चुकी है और मैं आज भी बिजली बचाने की लालच में 2500 रुपये ख़र्च कर वह इलेक्ट्रिक सेवर जैसा बोझ लेकर घर में बैठी हूं। अफसोस तो इस बात का है कि इलेक्ट्रिक सेवर को लेकर मेरे जेहन में यह बात बाद में आई कि यदि कोई ऐसा यंत्र सरकार तथा वैज्ञानिकों द्वारा प्रमाणित किया गया होता तो ऐसी चींज बांजार में बिजली के सामान संबंधी दुकानों पर उपलब्ध होती तथा मंहगी बिजली के इस दौर में घर-घर में लगी दिखाई दे रही होती।

इसी प्रकार के टोल फ्री नंबर देकर आज कल सेक्स संबंधी दवाएं बेचने का दावा किया जा रहा है। कोई गंजों के सिरों पर बाल उगा रहा है तो कोई मर्दाना ताकत बढ़ाने की दवाई बेच रहा है। कोई दवाईयों से मोटापा कम कर रहा है तो कोई शरीर की लंबाई बढ़ाने की लालच दे रहा है। कोई बालों का झड़ना रोक रहा है तो कोई काली चमड़ी को गोरी करने के उपाय बता रहा है। जादू टोना, ज्योतिष, बेऔलाद को औलाद, पत्थरी का शर्तिया इलाज जैसे तमाम फ़ंर्जी विज्ञापनों की तो मानों होड़ लगी हुई है। ज्योतिषियों तथा नग-पत्थर आदि के विक्रे ताओं के नेटवर्क ने तो हद ही ख़त्म कर दी है। इनके विज्ञापन देखिए तो आपको लगेगा कि मात्र एक नग धारण करने से ही आपको आपकी मनचाही हर वह चींज मिल जाएगी जोकि आपको आपके अथक प्रयासों के बावजूद अब तक नहीं मिल सकी है। चाहे वह नौकरी हो या वर-वधू,स्वास्थ्य हो या अन्य किसी बड़ी समस्या से छुटकारा। यहां तक कि धन संपत्ति,रोंजगार और तो और प्रेम-प्रसंग में सफलता का झंडा गाड़ने का दावा भी ज्योतिषियों के यह विज्ञापन करते हैं।

जनता के हित में यहां मैं एक रहस्योदघाट्न यह करना चाहती हूं कि टोल फ्री फोन नंबर अथवा किसी विज्ञापन के समर्थन में प्रकाशित होने वाले ग्राहकों के बयानों से आप पूर्णतया सचेत रहें। क्योंकि जिस ग्राहक की फोटो, किसी विशेष दवा अथवा अन्य प्रॉडक्ट के पक्ष में उसे प्रयोग में लाने का दावा करने वाला उसका वक्तव्य तथा उसका ंफोन नंबर आदि जो कुछ भी आप देख रहे हैं वह सब कुछ फर्जी हो सकता है। काल सेंटर में काम करने वाले युवक युवतियों की तरह ही ठगी के धंधे में लगी कंपनियां ऐसे साधारण पढ़-लिखे बेराजगार युवकों की बांकायदा भर्ती करती हैं जो समाचार पत्र में किसी उत्पाद के समर्थन में प्रकाशित फोन नंबर व नाम की फोन काल लेते हैं। उन्हें इस बात की टे्रनिंग दी जाती है कि वे किस प्रकार फोन कर्ता को यह बताकर संतुष्ट करें कि अमुक दवाई या उत्पाद बिल्कुल सटीक, फायदेमंद तथा तुरंत परिणाम देने वाला है। और इसी झांसे में आकर कोई भी सीधा-सादा परेशान हाल ग्राहक मजबूरी में इनका शिकार हो जाता है और यदि मामला सेक्स अथवा गुप्त रोग संबंधी हो फिर तो वह ग्राहक शर्म के मारे किसी से कुछ बताने अथवा शिकायत करने योग्य भी नहीं रह जाता।

लिहाजा जनता को चाहिए कि वह ऐसे फर्जी विज्ञापनों के झांसे में हरगिज न आएं। आज ऐसे धंधों को संचालित करने वाले लोग सैकड़ों करोड़ की संपत्ति के मालिक बन बैठे हैं जबकि देश का आम आदमी मंहगाई के बोझ तले निरंतर दबता जा रहा है। और दुर्भागयवश यही आम आदमी ठगी का नेटवर्क चलाने वाले सरगनाओं के निशाने पर भी है।

-निर्मल रानी

छोटी खबर बडा असर!

राजस्थान के एक दैनिक समाचार पत्र के स्थानीय संस्करण में छोटी सी खबर प्रकाशित हुई कि राजस्थान के पूर्व में स्थित करौली जिले के एक गाँव के युवक की इस कारण से मौत हो गयी, क्योंकि उसकी आँख में चेंपा घुस गया, जिसके चलते उसने मोटरसाईकल का सन्तुलन खो दिया और वह पत्थरों से जा टकराया। एक आम व्यक्ति के लिये यह खबर छोटी हो सकती है, लेकिन मरने वाले के माता-पिता से जाकर पूछें तो पता चलेगा कि एक पुत्र को खो देने का दर्द क्या होता है? उनके लिये तो दुःखों का पहाड टूट पडा। हम लोग इस प्रकार की छोटी-छोटी खबरों को पढकर कुछ ही दिनों में भुला देते हैं। इसीलिये इस खबर को यहाँ छोटी लिखा गया है, परन्तु इस छोटी बात या छोटी खबर को गहराई से समझने के लिये इसे विवेचनात्मक रूप से लिखना असल मकसद है।

विचारणीय बात यह है कि यदि उक्त युवक ने एक घटिया सा चश्मा भी पहन रक्खा होता तो उसकी आँख में चेंपा नहीं गया होता और मोटरसाईकल का सन्तुलन भी नहीं बिगडता एवं माता-पिता के बुढापे का सहारा नहीं छिनता या यदि उक्त युवक ने हेलमेट पहन रखा होता तो भी सन्तुलन बिगड जाने के बाद भी उसका सिर पत्थरों की चोटों से बच सकता था। यदि ग्लास वाला हेलमेट पहना होता तो चेंपा आँख में ही नहीं जाता। इस प्रकार छोटी सी सावधानी जीवन को बचाने के लिये बहुत बडा योगदान दे सकती है।

इस घटना के प्रकाश में हमारे लिये समझने और अपने स्वजनों को समझाने वाली बात यह है कि चेंपा के मौसम में ही नहीं, अपितु हमेशा ही बाइक या साईकल चलाते समय चश्मा पहनें या ग्लास वाला हेलमेट पहनने की आदत डालें। क्योंकि चेंपा तो मौसम के कारण फरवरी-मार्च के महिने में ही उडता है, लेकिन मच्छर और कचरे व धूल के कण तो हर क्षण हवा में तैरते रहते हैं, जो कभी भी और किसी भी क्षण किसी भी बाइक या साईकल चालक की आँख में घुसकर जान लेवा सिद्ध हो सकते हैं।

इस घटना से हमें यह भी सीखना चाहिये कि छोटी-छोटी बातों को, छोटी-छोटी चीजों को और छोटी-छोटी घटनाओं को गम्भीरता से लेना चाहिये। यदि एक छोटी सी चिडिया वेग से उडते हवाई जहाज से टकराकर दुर्घटना का कारण बन सकती है और उसमें सवार सैकडों लोगों की असमय मृत्य का कारण बन सकती है तो चेंपा, मच्छर या कचरे के छोटे से कण के कारण एक बाइक चालक की आँख को तकलीफ पहूँचना तो सुनिश्चित है। जिस प्रकार से हवा में उडती चडियाओं से आसमान को मुक्त करना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार से धरती से कुछ फिट की उंचाई पर उडते चेंपा तथा मच्छर एवं हवा में तैरते धूल या कचरे के कणों को भी रोका नहीं जा सकता है। यह सब प्राकृतिक है।

हमें स्वयं ही इन सबसे बचाव के रास्ते खोजने होंगे। हमें अपनी आँखों पर से लापरवाही का चश्मा हटाकर, समझदारी का परिचय देते हुए, अच्छा सा चश्मा खरीद बाइक या साईकल चलाते समय हमेशा पहनना चाहिये। जिससे हमारी आँखों की ही नहीं, बल्कि हमारे जीवन की भी सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। दैनिक जीवन के अन्य अपरिहार्य कार्यों की भांति यदि हम चश्मा एवं हेलमेट पहनने को भी अपनी आदत में शामिल कर लें तो हम बाइक चलते समय अपने अपने जीवन और हम पर निर्भर हमारे परिवारजनों की आशाओं को लम्बे समय तक जिन्दा रख सकते हैं।

इसलिये सबक सीखने वाली बात यही है कि बाइक चलते समय हमेशा चश्मा लगाना और हेलमेट पहनना नहीं भूलें। फैशन या दिखावे से अधिक महत्वपूर्ण है, आपका जीवन। परमात्मा की अमूल्य सौगात मानव जीवन की रक्षा की जिम्मेदार स्वयं मानव की है। यदि हम अपनी लापरवाही से अपने जीवन को विपदा में डालते हैं तो इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं है। परमात्मा ने बाइक या साईकल नहीं बनाई, इसलिये परमात्मा ने चेंपा और मच्छर को खुले आसमान में उडने का हक प्रदान किया, लेकिन मानव ने तेजी से दौडती बाइक का निर्माण किया है, जिसके कारण चेंपा हमसे नहीं, बल्कि हम चेंपा से जाकर टकराते हैं। इसलिये चेंपा तथा मच्छर और कचरे एवं घूल के कणों से अपनी आँखों और अपने जीवन की रक्षा करने की जिम्मेदारी भी हमारी अपनी ही है।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा “निरंकुश”

‘तेरा’ ‘मेरा’ ग्लोबल प्रेत

प्रेत कभी अकेले नहीं आते हमेशा अनेक के साथ आते हैं। यह वर्णशंकर प्रेत है। यह आधा भारतीय है और आधा विलायती है। इसका राजनीतिक शरीर भी वर्णशंकर है। आधा ”हमारा” और आधा ”तुम्हारा”। यह अद्भुत मिश्रित क्लोन है। ग्लोबल कल्चर की उपज है। इसके कपड़े और मुखौटे जरूर राजनीतिक दलों के हैं किंतु इसकी आत्मा ठेठ अमरीकी है। ग्लोबल है।

कहने को इसका शरीर भारतीय है किंतु मन-मिजाज, स्वभाव, भाव-भंगिमा, बयान, चाल- ढाल, संगठनशैली सब अमरीकी हैं। यह नयी विश्वव्यापी जनतंत्र स्थापना की अमरीकी मुहिम के सभी लक्षणों से युक्त है। नया अमरीकी जनतंत्र जबरिया थोपा जनतंत्र है, लाठी का जनतंत्र है। इसमें सत्ता जैसा चाहेगी वैसा ही विपक्ष भी होगा। पश्चिम बंगाल या भारत के लिए यह पराया जनतंत्र है।

प्रेतों के वचनों में हमेशा मानवीय भाषा होती है जैसे झगड़े का समाधान बातचीत से होना चाहिए, हमें झगड़ा पसंद नहीं है। हम चाहते हैं कि सब लोग शांति से रहें, प्रेम से रहें, भाईचारे के साथ रहें। हमारे प्रशासन का काम है लोगों को सुरक्षा देना। मानवीय मंगलवचनों का इनके मुख से निरंतर पाठ चलता रहता है। यह वैसे ही है जैसे अमरीकी विदेश विभाग सारी दुनिया में अपने नेताओं के मुँह से मंगलवचनों को उगलवाता रहता है।

मंगलवचन की राजनीति नए अमरीकी जनतंत्र की राजनीति है,यह ‘तेरे’ ,‘मेरे’ के प्रेतों की निजी खूबी है। प्रेतों ने यह भाषा अमरीकी तंत्र से सीखी है। यह लोकल भाषा नहीं है। ग्लोबलाईज जनतंत्र की ग्लोबल भाषा है। ग्लोबल प्रेतों का दादागुरू नव्य-उदारतावाद है। यह अचानक नहीं हैं कि नव्य-उदारतावादी प्रेतों के साथ हैं, प्रेतों के ताण्डव के साथ हैं।

ग्लोबल प्रेत सिर्फ अंधविश्वासी, पुनर्जन्म विश्वासी नहीं है, वह यदि संघियों के शरीर में प्रवेश कर सकता है तो वैज्ञानिक नजरिए के कायल कम्युनिस्टों के अंदर भी प्रवेश कर सकता है।

ग्लोबल प्रेत की कोई विचारधारा नहीं होती। वह कहीं भी और कभी भी किसी के अंदर प्रवेश कर सकता है और उसके अंदर स्थायी और अस्थायी डेरा जमा सकता है। प्रेत की कोई जाति नहीं होती, धर्म नहीं होता, राजनीति नहीं होती, चेहरा नहीं होता, प्रेत तो प्रेत है उसे मनुष्य समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।

प्रेत का धर्म ही अलग होता है। प्रेत वर्चुअल होता है। अनुपस्थिति होता है। प्राणरहित होता है। प्रेत में मानवता की खोज संभव नहीं है। प्रेत कोई व्यक्ति नहीं है। प्रेत ग्लोबल बहुराष्ट्रीय निगम व्यवस्था का प्रतीक है। इस प्रेत को साक्षात किसी ने देखा नहीं है। सिर्फ इसके उत्पात देखे हैं,प्रेत के ताण्डव देखे हैं, प्रेत की हिंसा और प्रतिहिंसा देखी है। इलाका दखल देखा है।

ग्लोबल प्रेत को किसी के घर में आग लगाते,बलात्कार करते, बंदूक से गोलियां बरसाते देखा गया है, उसकी बंदूकों की आवाजें सुनी हैं, दनदनाती मोटर साईकिलों पर हथियारबंद जुलूसों की दहशत महसूस की है, प्रेतों के द्वारा किए गए अत्याचारों के आख्यान सुने हैं। बलात्कार की शिकार औरतों के आख्यान सुने हैं। किंतु किसी ने प्रेतों को देखा नहीं है। आश्चर्य की बात है कि इन प्रेतों को कोई पंडित, कोई ओछा, कोई तांत्रिक बोतल में कैद नहीं कर पाया। कोई पुलिस वाला, सेना वाला,टीवी वाला पकड़ नहीं पाया, प्रेतों को हम देख नहीं पाए किंतु उनके आख्यान और महाख्यान को लगातार सुनते रहे हैं।

काश प्रेतों के चेहरे होते। प्रेतों के पैर होते। शरीर होता तो कितना अच्छा होता हम साक्षात् प्रेतों को देख पाते, हमारे पास टीवी द्वारा पेश किया गया प्रेतों का आख्यान है किंतु रियलिटी शो नहीं है। प्रेतों की रियलिटी नहीं है। प्रेतों के द्वारा सताए लोगों के यथार्थ बाइट्स हैं, यथार्थ आख्यान नहीं हैं। हम यथार्थ बाइट्स से ही काम चला रहे हैं। अधूरे यथार्थ से ही काम चला रहे हैं। काश प्रेतों का रियलिटी शो कोई अपने कैमरे में कैद कर पाता !

सवाल यह है कि जब प्रेतों के ताण्डव के आख्यान हम जानते हैं तो प्रेतों को खोजने का काम क्यों नहीं करते, प्रेतों को दण्डित कराकर उन्हें प्रेत योनि से मुक्ति क्यों नहीं दिलाते? क्या हमें ‘ हमारे’ और ‘तुम्हारे’ सभी प्रेतों को दण्डित कराने का प्रयास नहीं करना चाहिए? क्या लोकतंत्र की वैज्ञानिकचेतना यही कहती है कि प्रेतों को आराम से रहने दो?

हमारे देश में जिस प्रेत ने कब्जा जमाया है वह वर्णशंकर प्रेत है, हाइपररीयल प्रेत है। इच्छाधारी प्रेत है। जब इच्छा होती है तो किसी शरीर में प्रवेश कर जाता है और जब इच्छा होती है गायब हो जाता है। यह ऐसा प्रेत है जिसे इच्छामृत्यु वर प्राप्त है। यह सत्ताधारी प्रेत है। इसी अर्थ में इच्छाधारी है। इच्छाधारी प्रेत बड़ा खतरनाक होता है। वह कभी भी किसी के भी अंदर प्रवेश कर जाता है और अभीप्सित लक्ष्य को प्राप्त करके गायब हो जाता है। हमने गली, मुहल्लों से लेकर गांवों-शहरों में ऐसे असंख्य प्रेत पाले हुए हैं। ये जनतंत्र के नए संरक्षक और भक्षक हैं।

इच्छाधारी प्रेत के पास वैचारिक हिमायती भी हैं,ये ज्ञान-विज्ञान और समाजविज्ञान के धुरंधर हैं। इन लोगों ने अनेक प्रेताख्यान लिखे हैं। असल में ये विद्वान ही हैं जो इसे मंत्रोच्चारण करके प्रेतों को जिंदा रखे हुए हैं। यह विलक्षण संयोग है कि प्रेत मंत्रों से मरते नहीं है,प्रेत में क्लोनकल्चर होती है। यह भी कह सकते हैं प्रेत हमेशा क्लोन कल्चर के जरिए ही निर्मित किए जाते हैं, प्रेत एक जैसे होते हैं। प्रेतों की हरकतें एक जैसी होती हैं, भाषा एक जैसी होती है, संस्कृति एक जैसी होती, विचारधारा एक जैसी होती है। प्रेत के आख्यान लेखक भी एक जैसे होते हैं। काश हम प्रेत को देख पाते।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

नए अभिजातों के हथकंडे

मनुष्य ख़ुद से अनजान उन चीजों का सृजन करता है, जिनकी मांग उसके वर्ग हित करते हैं। ऐसा सृजन वह क्रांति के नाम पर भी करता है। क्रांतिकारी आंदोलन के संसाधन उसके हाथ आए नहीं कि भूमिगत रहने के नाम पर, गुप्त कार्यों को अंजाम देने के नाम पर, वह अपने लिए एक ऐसी जीवन शैली गढ़ लेता है, जो अच्छे ख़ासे पूँजीपतियों को भी बमुश्किल ही नसीब होती है। मनुष्य ही वह जीव है, जिसमें ऐसा करने की क्षमता है।

आप उनसे कहेंगे – “यह विभाजित व्यक्तित्व का चरमोत्कर्ष है” वह नहीं मानेंगे। उल्टे तर्क प्रस्तुत करेंगे कि “चोरी छिपे क्रांतिकारी कार्य करने का सबसे बेहत्तर तरीक़ा यही है। आपर अगर अभिजात वर्ग की जीवन शैली अपनाएँगे, तब किसी को आप पर शक़ नहीं होगा कि आप क्रांतिकारी कार्य भी करते होंगे। लेकिन उस जीवनशैली की आदत जो आपको लग जाएगी, उसका क्या होगा? वह आपकी बात की तौहीन करेंगे और कहेंगे- “आपकी सोच पुरानी क़िस्म की है, चीज़ों की समझ आपको नहीं है। चीज़ों की समझ आपको नहीं है। क्रांति के बाद सबकी जीवन शैली मेरी जैसी ही हो जाएगी। तब फिर दिक्कत कहाँ? ”

मार्क्स द्वारा ईजाद किए गए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत का दुरूपयोग इस प्रकार भी किया जाएगा, यह शायद मार्क्स ने भी कभी नहीं सोचा था। उन्होंने अपना जीवन घोर ग़रीबी में गुज़ारा, अपनी विचारधारा के कारण कई मुल्कों से निकाले गए, उन्होंने अपने बच्चों को आँखों के सामने मरते देखा। लेकिन एक बार भी उन्हें इस प्रलोभन ने विचलित नहीं किया कि वैचारिक घालमेल कर अपनी ज़िंदगी बेहत्तर बना लें। इस मामले में उनकी ईमानदारी प्रश्नों से परे थी।

इसके विपरीत आज के क्रांतिकारियों को देखें, हाल में, पटना में एक माओवादी नेता पुलिस के हत्थे चढ़ गए। उनके पास से 18 लाख रुपए बरामद हुए हैं। मीडिया का कहना है – उन्होंने इसी महीने 1.23 करोड़ की वसूली की थी। वसूली व्यापारियों, ठेकेदारों तथा कंपनीवालों से की गई थी। कहने की ज़रूरत नहीं कि संपन्न कारोबारी, भय के कारण की रक़म उनके हवाले किए थे। नेताजी ने इस राशि को विभिन्न लोगों के बीच आबंटित किया। यह क्रांति करने का सर्वाधुनिक तरीक़ा है, मार्क्स और माओ से अलग। माओ का अपना इतिहास असीम त्याग का है। आधुनिक चीन की कहानी माओ के बग़ैर पूरी नहीं होती।

लेकिन मुश्किल है कि नाम माओ का ही लिया जाता है। दावा किया जाता है कि वे माओ के मार्ग पर चल रहे हैं। इस विरोधाभास का कोई ओर-छोर पता नहीं चलता। उनके ख़ुद के कार्यकर्ता तंगहालती की ज़िंदगी जीते हैं। गर्मी से झुलसते हुए, जाड़े में ठिठुरते हुए, उन्हें दुःसाहसिक कार्यों को अंजाम देना पड़ता है, बहुत थोड़े से रक़म से वे गुज़र बसर करते हैं, जबकि नेताजी उच्च मध्यमवर्गीय रिहाइशी इलाके में बैठकर हुक्मनाम जारी करते हैं, ऐसा वर्ग-विभेद कम्युनिस्टों को शोभा देता है क्या?

संसदीय वामपंथियों से इनकी नफ़रत की तो पुछिए ही नहीं। संसदीय या मुख्यधारा के वामपंथियों क्रांति का सौदा कर चुके हैं – ऐसा इनका मानना है। ऐसा मानने पर उन्हें ग़लत भी नहीं ठहराया जा सकता है। क्रांति के भी क़िस्म या प्रकार होते हैं, इनके क़िस्म की क्रांति संसदीय वामपंथियों को रास नहीं आती। दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं, इसके अलावा संसदीय वामपंथियों में भी कुछ लोगों की रहन-सहन कोई बहुत सराहनीय नहीं है। संसदीय वामपंथी दलों के कार्यकर्ता भी ग़रीबी की जिंदगी जीने को मज़बूर हैं। लेकिन वहाँ जो भी है, बिलकुल आर-पार दिखता है। इसीलिए उनकी खुली आलोचना की जा सकती है। लेकिन माओवादियों के साथ बात ऐसी नहीं है। वहाँ नेतृत्व की आलोचना करने पर, कम से कम उत्पीड़न के साथ मौत के घाट उतार दिया जाना सबसे रहमदिल सज़ा मानी जाती है।

रूस क बोलशेविक क्रांति को घटित हुए 93 वर्ष गुजर गए। 7 वर्षों के बाद बोलशेविक क्रांति की शतीपूर्ति मनाई जाएगी। लोकतांत्रिक समाजवादी विचार को कार्यरत देखने का हमारा सपना क्या धरा का धरा रह जाएगा? समाजवादी आंदोलन के अंतःस्थल मे एक नए अभिजात वर्ग के उदय का विरोध करते हुए लेनिन ने बोलशेविक पार्टी की नींव डाली थी, उनके उदाहरण से प्रेरणा लेते हुए कब हमारी जनता इन नए अभिजातों को नकारेगी? समय काफ़ी हो चुका है। अब स्पष्ट बात को स्पष्ट तरीक़े से कहने की ज़रूरत है।

-विश्वजीत सेन

पूर्व अध्यक्ष, बिहार बांग्ला अकादमी

पटना

मध्य प्रदेश बजट 2010: एक विश्‍लेषण

0

राज्य में भाजपा सरकार के दूसरे कार्यकाल में निरंतर सातवां बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री राघव जी ने कुल 51 570 करोड़ रुपए का बजट पेश किया है। गुरूवार को पारित इस बजट में2010-2011 के लिए 128 करोड का घाटा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी और नगरीय निकायों के लिए इस बार रकम कुछ ज्यादा खर्च की गई है.साथ प्रदेश में किसानों की गिरती माली हालात को देखते हुए इस बार के बजट में किसानों के कर्ज की ब्याज सीमा पांच फीसदी से घटाकर तीन फीसदी कर दिया है. इस फैसले से किसानों केचेहरे पर खुशी तो साफ झलक जायेगी. लेकिन पुराने कर्जों की माफी को लेकर उन्होंने कोई बात नहीं की है। साथ ही किसानों के लिए बिजली ,बीज और खाद्य को लेकर क्या तैयारी की जायेगी यह स्पष्‍ट करने से चूकते नजर आये। पूरे बजट को देखने के बाद एक बात बिल्कुल साफ है कि यह बजट लोगों की जेब में भारी पडने वाला साबित हुआ है। रोटी औऱ कपड़ो को अपने कोप से दूर रखा लेकिन मकान के लिए मूल्य वृद्धि के संकेत भी दे डाले। खाद्यान्‍न को छोडकर बाकी सभी उपभोग की चीजों पर प्रवेश कर दुगना कर दिया गयाहै। इस कर की मार से महिलाओं और बच्चों की चीजों को भी नहीं छोडा गया है।

भाई जी की माने तो इस मंदी के दौर मे यह बजट राहत देने वाला है लेकिन किस दृष्टि से यह बताना शायद वे भूल गये?बजट में कुल 51507 करोड रूपये का प्रावधान किया गया है। भैया जी लगातार इस बात को कहते रहे कि यह बजट लोगों को राहत देने वाला है लेकिन भवन निर्माण की सामग्री पर बढ़े कर के बाद मकानों के मूल्यों में आने वाली बढ़ोत्तरी के लिए क्या किया जायेगा येबताना वो भूल गये. प्रदेश माली सडकों की हालात को देखते हुए सडको के लिए मौजूदा बजट में 11 फीसदी की बढोत्तरी की बात कहकर भैया जी प्रदेश की इन सड़को की नरक यात्रा से लोगों को राहत देने का शिगूफा जरूर छोड दियाहै। इस बजट में सड़को के लिए 28529 करोड दिया गया है। गांवों की बारहमासी सडको से जोडने की बातकही है। प्रदेश में कभी कभी रहने वाली बिजली व्यवस्था के लिए 2214 करोड तो उन्होंने दे दिये लेकिन छत्तीसगढ़ बनने के बाद प्रदेश में गहराय़े बिजली संकट से उबरनेके धराशायी प्रय़ासों के बीच इन रूपयों का क्या होगा यह तो आने वाला साल ही बता पायेगा। इस समय प्रदेश में बिजली कंपनियों और नगर निगमों के बीच चल आ रही लड़ाई का अभी तक कोई हल शासन के पास नहीं है। प्रदेश के 14 महानगरों में 03 बिजली वितरण कंपनियां है जिनके बीच बिजली के बिल को लेकर बबाल मचा हुआ है।साथ ही साथ सेवाक्षेत्र के पेशेवर व्यक्तियों को भी प्रोफेशनल टैक्स के दायरे में लाने की कवायद की गई है जिसके तहत तीन से पांच लाख की आमदानी वाले व्यक्ति पर सालाना एक हजार, पांच लाख से आठ लाख की आमदनी पर दो हजार और आठ हजार से अधिक आमदनी पर वृत्तिकर लगाना प्रस्तावित है। प्रधानमंत्री सड़क योजना की तर्ज पर मुख्यमंत्री सड़क योजना का प्रावधान भी किया गया है जिसके तहत 200 करोड़ रूपये दिये गये है। इसके तहत साल भर दौ सो से पांच सौ की आबादी बाले गांवों को जोड़ा जायेगा इस योजना के तहत तीन सालों 19 हजार किमी सड़को का निर्माण किया जाना है। साक्षर भारत योजना के तहत् प्रदेश में 14 जिलों में नए महाविद्यायलयों और 9 जिलों में पॉलिटेक्निक कालेज खोलने की बात भी बजट में रखी गई है। कानून व्यवस्था को औऱ अधिक दुरूस्त करने के लिए एक हजार 917 करोड रूपयें का प्रावधान किया गया है. साथ ही पुलिस बल में 1500 और पदों की स्वीकृति देने की बात कहकर बेरोजगार युवकों केलिए रोजगार के द्वार भी खोल दिये हैं। प्रदेश के उद्योगों के लिए कोई खास प्रावधान इस बजट में कहीं भी नज़र नहीं आया। लोहा और स्टील पर घटाये गये इंट्री टैक्स के बाबजूद यह बजट उद्योग जगत के लिए खास नही कहा जा सकताहै। बजट में किये गये प्रावधानों के बाद भी प्रदेश के उद्योगों को कोई फायदा पहुंचेगा ऐसा नहीं लगता। कुल मिलाकर इस बार बजट गरीबों को छोडकर बाकी सभी की जेबों में भारी पडने वाला है।

-केशव आचार्य

निराशा असमय मृत्यु और आशा जीवन की वीणा है

मित्रों, हममें से अधिकतर लोग इस कारण से दुःखी, परेशान और तनावग्रस्त रहते हैं, क्योंकि हम जाने-अनजाने अपने वर्तमान को, स्वयं ही नष्ट कर रहे हैं। कोई भी सामान्य व्यक्ति यदि ईमानदारी से स्वयं का आकलन करेगा तो वह पायेगा कि गुजर चुका समय और आने वाला समय हमेशा उसे परेशान रखता है और भूत एवं भविष्य की उधेडबुन में ऐसा व्यक्ति अपने वर्तमान को भी ठीक से नहीं जी पाता है। परन्तु इसे लोगों का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि वे कभी न लौटाये जा सकने वाले भूतकाल को लेकर रोते और पछताते रहते हैं। काश मैंने ऐसा कर लिया होता! काश मैंने वह सौदा नहीं किया होता तो मैं लाखों के घाटे के सौदे से बच जाता! काश मैंने अपनी बेटी की शादी करने से पहले, लडके वालों के बारे में सारी जानकारी कर ली होती तो! काश मैंने शराब पीने की आदत तीन वर्ष पहले छोड दी होती तो!

भूतकाल को लेकर भी दो प्रकार की तकलीफें होती हैं, एक होती हैं जो गुजर चुके समय को स्वयं की गलतियों के चलते सही से उपयोग नहीं करने की। जबकि दूसरी में व्यक्ति किन्हीं परिस्थितियों के कारण अपने भूत का मनचाहा उपयोग नहीं कर पाता है, जिसका पछतावा उसे सताता रहता है। हालांकि दोनों ही स्थितियों में गुजर चुका समय तो वापस नहीं आ पाता है, लेकिन दूसरी स्थिति में व्यक्ति अधिक दुःखी रहता है और उसे उन लोगों या हालातों पर गुस्सा करने का बहाना मिलता रहता है, जिनके चलते वह अपने भूत का मनचाहा उपयोग नहीं कर सका होता है।

कुछ लोग आने वाले कल अर्थात्‌ भविष्य को लेकर आशंकित और भयभीत रहते हैं। उन्हें अपने आने वाले कल में असुरक्षा और आशंकाएँ ही आशंकाएँ नजर आती हैं। जिसके चलते वे अपने वर्तमान को छोडकर भविष्य की उधेडबुन में ही लगे रहते हैं। उन्हें भविष्य अन्धकारमय नजर आता है। इसके अलावा अनेक लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने भूत और भविष्य दोनों में बुरी तरह से उलझे रहते हैं। जिसके चलते उनके लिये अपने वर्तमान में कोई रस नहीं रहता है। ऐसे लोग किसी भी तरह से अपने भूतकाल के अधूरे सपनों को फिर से साकर करने के सपने देखते रहते हैं। हालांकि इस तरह से वे न तो भूत को लौटा सकते हैं, न वर्तमान को जी पाते हैं और ऐसे लोगों का भविष्य निश्चय ही अनिश्चित और दुःखों से भरा हुआ होता है।

अतः समझने वाली महत्वूपर्ण बात यही है कि “हो गया सो गया, अब सोच करना व्यर्थ है।” जो गुजर चुका उसे तो लौटाया नहीं जा सकता, लेकिन हम अपने वर्तमान को अपने हिसाब से जीकर, अपने आने वाले भविष्य को अवश्य संवार सकते हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि जिन लोगों को वर्तमान को जीने का सलीका नहीं आता, उनका भविष्य निश्चय ही अन्धकारमय है। जबकि जिन लोगों ने वर्तमान को सम्पूर्णता से जीना सीख लिया है, वे इस बात की आशा अवश्य कर सकते हैं कि उनका भविष्य सुन्दर और सुखद ही होगा।

इसलिये निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि बेहतर तो यही है कि हम अपने गुजर चुके जीवन से सबक सीखें और वर्तमान को पूर्णता से जियें, जिससे कि हमारा भविष्य संवर सके। जिनके पास आज को जीने का कारण है, उनके पास आने वाले सुन्दर कल की अपार सम्भावनाएँ हैं। परन्तु दुःख तो इस बात का है कि सौ में से नब्बे लोगों के पास गुजर चुके समय को वापस लौटाने के हजारों कारण हैं, लेकिन उनको अपने वर्तमान को रस लेकर और शान्ति से जीने का कोई कारण नजर नहीं आता है! जबकि उनके आसपास जीने के अनेक सुन्दर-सुन्दर कारण बिखरे पडे हैं। जीवन उनका स्वागत करने को बेताब है। आवश्यकता इस बात की है कि परमात्मा के अनुपम उपहार इस जीवन रूपी उपहार का हम स्वयं स्वागत करना सीखें। हम जब तक जीवन का स्वागत एवं सत्कार नहीं करेंगे। तब तक हमें खुशियों के बजाय दुःखों का ही समाना करना पडेगा।

अतः मित्रों सब कुछ भूलकर अपने वर्तमान को जियो। वर्तमान ही सत्य है। एक क्षण बाद क्या होने वाला है, कुछ नहीं कहा जा सकता। यद्यपि वर्तमान को पूर्णता से जीने के बाद इस बात की उम्मीद एवं आशा अवश्य की जा सकती है कि हमारा आने वाला कल भी सुन्दर और सुखद होगा। अतः वर्तमान को सम्पूर्णता से जियें। आज से और इसी क्षण से अपने वर्तमान में रस लेना शुरू करें। वर्तमान को पूर्णता और सम्पूर्णता से जीन के लिये, अपने दैनिक जीवन में कुछ परिवर्तन लाने होंगे :-

1. सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन होगा अपने आपके प्रति, अपने अपनों के प्रति और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति सकारात्मक विचार और सोच रखें।

2. आशावादी बनें। निराशाओं को त्यागें। उम्मीद करें कि दुनियाँ अच्छी है और अधिक अच्छी बन सकती है।

3. दूसरों की बातों को सुनें। दूसरों के अनुभवों से सीखें। जरूरी नहीं कि आप स्वयं ही हर बात को सिद्ध करें। लोगों ने जिन बातों को अपने अनुभव से बार-बार सिद्ध किया है, उनमें आस्था पैदा करें।

4. चीजों या परिस्थितियों को कोसना छोडें और उन्हें जैसी हैं, वैसी ही स्वीकारना शुरू करें। अस्वीकार नकारात्मकता और स्वीकार सकारात्मकता है।

5. निराशा असमय मृत्यु और आशा जीवन की वीणा है।

6. निराशा और नकारात्मकता दोनों ही चिन्ता, तनाव, क्लेश और बीमारियों की जननी हैं, जबकि आशा और सकारात्मकता जीवन में आनन्द, प्रगति, सुख, समृद्धि और शान्ति का द्वार खोलती हैं। जिससे जीवन जीने का असली मकसद पूरा होता है।

7. अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम किसका चुनाव करते हैं? निराशा का सन्नाटा या आशा की वीणा की झंकार? चुनाव हमारे अपने हाथ में है।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा “निरंकुश”