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महाबल और मुखी के समर्थक आपस में भिड़े, भाजपा कार्यकर्ता को किया चाकू से घायल

एक निजी टी.वी.चैनल द्वारा राजधानी के ली मेरिडियन होटल में आयोजित चुनावी कार्यक्रम पश्चिमी दिल्ली लोकसभा क्षेत्र से भाजपा और कांग्रेस उम्मीदवारों के समर्थकों के बीच हाथापाई हो गई। हाथापाई में भाजपा का एक कार्यकर्ता सुनील जिंदल घायल हो गया, जिसका इलाज स्थानीय राम मनोहर लोहिया अस्पताल में हो रहा है।घटना कि जानकारी पत्रकारों को देते हुए भाजपा नेता जगदीश मुखी ने बताया कि कार्यक्रम के दौरान उनके सवालों से बौखलाए महाबल मिश्रा ने उनको धमकाते हुए कहा कि मैं आपको बाहर नहीं निकलने दूंगा। उन्होंने कहा कि महाबल के इतना कहने के साथ उनके समर्थक स्टेज पर चढ गये, तथा उनके एक कार्यकार्ता सुनील जिंदल पर चाकू से हमला कर दिया जिसमें उसकी हथेली कट गई। बाद में सुनील जिंदल को पुलिस की सुरक्षा में अस्पताल ले जाया गया। श्री मुखी ने बताया कि घटना कि प्राथमिकी पार्लियामेंट स्ट्रीट थाने में दर्ज कर ली गई है। सुनील विकासपुरी से भाजपा की निगम पार्षद सरिता जिंदल के पति है। श्री मुखी ने कहा वे अब तक छः चुनाव लड़ चुके है लेकिन राजनीति में ऐसी गुण्डागर्दी पहले कभी नहीं देखी।

विधानसभा में विपक्ष के नेता श्री विजय कुमार मल्होत्रा ने कहा कि भाजपा इस तरह के गुण्डागर्दी का सामना करने में सक्षम है लेकिन हम ऐसा करना नहीं चाहते। श्री मुखी ने बताया कि न तो चैनल वालों ने और न ही होटल के प्रबंधकों ने पुलिस को इस सम्बंध में सूचना दी थी।

तीसरे चरण में हुआ 50 फीसदी मतदान

advani3पंद्रहवें लोकसभा चुनाव के तीसरे दौर में 9 राज्यों और दो केन्द्रशासित प्रदेशों की 107 लोकसभा सीटों के लिए मतदान गुरुवार को सम्पन्न हो गया। तीसरे चरण के मतदान में 50 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग कर 1567 उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला ईवीएम में बंद कर दिया। सबसे अधिक 65 प्रतिशत मतदान सिक्किम में और सबसे कम 30 प्रतिशत मतदान जम्मू-कश्मीर में हुआ। तीसरे चरण में उत्तर प्रदेश में 45, मध्यप्रदेश में 45, कर्नाटक में 57, महाराष्ट्र में 45, गुजरात में 50, दमन एवं दीव में 60, दादरा और नागर हवेली में 60, जम्मू कश्मीर में 25, बिहार में 48, पश्चिम बंगाल में 64 और सिक्किम में 65 प्रतिशत मतदान की सूचना है।इसके साथ ही अब तक लोकसभा की 372 सीटों के लिए मतदान सम्पन्न हो चुका है। तीसरे चरण के मतदान के साथ ही सिक्किम की 32 विधानसभा सीटों के लिए भी मतदान लोकसभा चुनाव के तीसरे दौर के साथ ही सम्पन्न हो गया।

नौ राज्यों में बिहार में 11, कनार्टक की 11, मध्य प्रदेश(16), महाराष्ट्र (10), उत्तर प्रदेश (15), पश्चिम बंगाल (14), जम्मू में 01, गुजरात में 26, सिक्किम में 01 तथा दादर तथा नगर हवेली एवं दमन और दीप की एक-एक सीटों पर मतदान सम्पन्न हो गया।

107 सीटों के लिए कुल 1,65,112 मतदान केन्द्रों की व्यवस्था की गई थी, जिसके लिए 6,60 हजार से ज्यादा चुनावी कर्मी तैनात थे।

लोकसभा तथा विधानसभा के कार्यकाल स्थायी हों: आडवाणी

advani2भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने बृहस्पतिवार को लोकसभा तथा विधानसभाओं का स्थाई कार्यकाल निर्धारित किए जाने की मांग की। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि मतदान सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य बनाया जाए और चुनाव फरवरी के महीने में करवाएं जाएं।आडवाणी ने अहमदाबाद में मतदान के बाद कहा, ‘मेरा सुझाव है कि राजनीतिक दलों तथा निर्वाचन आयोग को इस पर सोचना चाहिए कि क्या हम लोकसभा तथा विधानसभाओं के स्थाई कार्यकाल के लिए संविधान में परिवर्तन कर सकते हैं।’ उन्होंने यहां संवाददाताओं से कहा, ‘हम ब्रिटिश पद्धति का अनुसरण कर रहे हैं जो हमारे अनुकूल नहीं है और हमें इसमें बदलाव करना चाहिए।’

आडवाणी के सुझाव के अनुसार, यदि कोई सरकार लोकसभा में बहुमत खो देती है तो सदन को भंग नहीं किया जाना चाहिए और नई सरकार को पदभार संभालना चाहिए। उन्होंने कहा कि कई यूरोपीय संसदीय लोकतांत्रिक देश हैं जहां सांसद का स्थायी कार्यकाल होता है।

गर्मियों के महीने में आ रही दिक्कतों की ओर इशारा करते हुए आडवाणी ने कहा, ‘गर्मी के मौसम में मतदान का प्रतिशत गिर जाता है और चुनाव फरवरी में होने चाहिए।’ वह गांधीनगर से दोबारा चुनाव लड़ रहे हैं। वरिष्ठ भाजपा नेता ने यह भी कहा कि मतदान को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए राजनीतिक दलों तथा निर्वाचन आयोग को विचार विमर्श करना चाहिए।’

तीसरे चरण में 107 सीटों पर मतदान जारी

लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण में नौ राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों की 107 सीटों पर मतदान जारी है। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में बारुदी सुरंग में विस्फोट होने से एक जवान घायल गया हो गया।

 

 

पश्चिम बंगाल के नक्सल प्रभावित पुरुलिया जिले में गुरुवार को बारुदी सुरंग  में विस्फोट होने से अर्धसैनिक बल का एक जवान घायल हो गया। तीसरे चरण में कुल 1,567 उम्मीदवार चुनावी मैदान में हैं।  उत्तर प्रदेश की 15, बिहार की 11, गुजरात की 26, मध्य प्रदेश की 16, महाराष्ट्र की 10, पश्चिम बंगाल की 14, कर्नाटक की 11, जम्मू एवं कश्मीर, सिक्किम , दादरा तथा नगर हवेली, और दमन एवं दीव में एकएक सीट पर मतदान हो रहा है।

 

तीसरे चरण में जिन प्रमुख नेताओं के भाग्य का फैसला होना है, उनमें रायबरेली से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, गांधीनगर से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणीपूर्व प्रधानमंत्री एच.डी.देवगौड़ा, भाजपा नेता जसवंत सिंह, सैय्यद शहनवाज हुसैन, कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया, श्रीप्रकाश जायसवाल, जनता दल (युनाइटेड) के अध्यक्ष शरद यादव और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एस.बंगरप्पा शामिल हैं।

voting_booth-766906gif11जम्मू एवं कश्मीर में शुरुआत  में मतदान की रफ्तार धीमी रही। मुंबई में शांतिपूर्ण मतदान के लिए 22,000 से अधिक सुरक्षाकर्मियों को तैनात किया गया है।

व्यंग्य/ आ वोटर, जूते मार!!

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cap1उनका भाषण था कि समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था। एक घंटा…. दो घंटे… यार क्या इस बंदे ने एक ही जगह चुनावी रैली को संबोधित करना होगा? हद है यार, पानी पर पानी पिए जा रहा है और जो मन में आए बकी जा रहा है।’….मैं हूं ही इसी काबिल, चाहे तो मुझे जूते मारो।’ पर सभी न जाने कहां खोए हुए।

अपनी पार्टी की उपलब्धियों को गिनाने के बदले यार ये तो विपक्ष की पार्टियों की उपलब्धियों को भी गिनाने लग गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि भीड़ के पैसे विपक्ष से भी ले लिए हों और हमें एक के ही पैसे दे दूसरे पैसे मार गया हो? नेता जी थे कि बिना लगाम के घोड़े की तरह दौड़े जा रहे थे।

‘….आप मुझे जूते भी मारेंगे तो मैं हसंके सह लूंगा।’ पर सबके सब बुत की तरह। किसीने जूता मारना तो दूर, अपने जूते की ओर देखा भी नहीं।

वे कहते-कहते बीच बीच में इधर-उधर कुछ देखते और फिर चेहरे का पसीना पोंछ निराश हो बकने लग जाते। हद है यार! इतना कुछ बकने के बाद भी कहीं से जूता आने की कोई उम्मीद नहीं। किराए पर जो बड़ी मुश्किल से भाषण सुनने के लिए लाए थे अब वे भी बोर हो चले थे। भाषण सुनने के पैसे ही दिए है तो यार इसका मतलब ये तो नहीं होता कि जो मर्जी हो सुनाए जाओ, जितना मर्जी हो सुनाए जाओ। ऐसा तो नहीं था कि वे लोग पहली बार किसी का भाषण सुनने के लिए किराए पर आए हों। बूढ़े हो गए यार चुनाव के दिनों में भाषण सुनने के लिए किराए पर जाते हुए।

‘यार ये बंदा कर क्या रहा है? इसके वर्कर ने तो कहा था कि बस आधे घंटे की बात है पर ये तो रूकने का नाम ही नहीं ले रहा है। साला जीतने से पहले ही शोषण शुरू! काम चार घंटे का और पगार आधे घंटे की। अब दूसरी जगह इतनी जल्दी कैसे पहुंचूगा।’

‘क्या कहूं यार! मैं भी फंस गया। अब साली बीच में उठते हुए भी शरम सी लग रही है। उसको तो शरम आ नहीं रही।’

‘मन करता है कि जूता उतार कर दे मारूं।’

‘अगली रैली के लिए नंगे पांव जाना है क्या! देखता नहीं कितनी गरमी है। पांव झुलस गए तो? इन दिनों वोटर का और चाहे सब कुछ खराब हो जाए पर पांव सलामत रहने चाहिएं।’

‘तो??’

‘तो क्या! बैठा रह। बाद में हिसाब करेंगे बंदे के साथ। अनपढ़ तो हम भी नहीं।’

पर वे थे कि अभी भी उसी तूफानी वेग में कहे जा रहे थे। बिजली जा चुकी थी। उनके लिए लाया पानी खत्म हो चुका था,पर इस सबकी चिंता थी किस मुए को।

आखिर किराए पर लाए सुनने वालों का धैर्य टूटने लगा। वे एक एक कर खिसकने लगे। सुनने की भी एक हद होती है। माना कि यहां सुनने का मतलब एक कान से सुनना तो दूसरे कान से निकालना है,पर फिर भी बेकार के शोर को सहना ही है। जितने पैसे उन्होंने दिए हैं उससे ज्यादा तो कान साफ करवाने में लग जाएंगे। तो फिर बंदे ने कमाया क्या!

पर वे थे कि उधर इधर देखने के बाद निराश हो कहे जा रहे थे। क्या कहे जा रहे थे ये उन्हें भी मालूम नहीं।

किराए के सुनने वाले एक एक कर आखिर जा उठे। रह गए तो बस सुनने वालों के बीच बीच में बैठे दस बीस नारे लगाने वाले। पर उन्हें उसकी भी चिंता नहीं।

बीच में एक वर्कर ने टोका,’ नेता जी!’

‘हां!! क्या है?’

‘सुनने वाले चले गए। सबके रूमालों से आप पसीना पोंछ चुके।’

‘तो??’ वे फिर निराश हो इधर उधर देखने लगे।

‘अब बस कीजिए, नहीं तो???’

‘पर ये बंदे???’

‘इनमें सभी तो किराए के हैं।’

‘पर टोपी तो इन्होंने हमारी पहन रखी थी।’

‘खोल गए हैं। इनका दूसरी टोपी लगाने का टाइम शुरू हो गया है।’

‘पर यार! खेद है कि मैं इतनी देर हर कुछ बोला और उनमें से एक ने भी…..’

‘एक ने भी क्या…’

‘जूता मुझ पर फेंक कृतार्थ नहीं किया।’ कह उनका रोना निकल आया।

‘आप और जूता …आखिर आप चाहते क्या हैं?’

‘यार जूता खाकर मैं पहले ही चुनाव में नेशनल, इंटरनेशनल लेवल का लीडर होना चाहता हूं। कबसे इंतजार कर रहा हूं कि कोई मुझ पर जूता उछाले।

‘पर सर इन्हें पैसे तो भाषण सुनने के दिए गए थे, जूता उछालने के नहीं। ये बहुत गंदे लोग हैं सर! जितना पैसा दो उतना ही काम करते हैं उससे आगे रत्ती भी नहीं।’

‘तो तुम ही जूता उछाल दो न! पत्रकार कबसे इंतजार कर रहे हैं। इनके आगे मेरी इज्जत तो रख लो प्लीज!’

‘सर, हमने आपका नमक खाया है। हम नमक हलाली कैसे करें?’

उधर पत्रकार थे कि बराबर गुस्सा हुए जा रहे थे,’बेकार में टाइम खराब करवाया। पहले बता देते तो कहीं और जाते।’ वे मुंह लटकाए जा उठे।

वे दोनों हाथ भगवान की ओर जोड़ गिड़गिड़ाए, ‘हे भगवान! आप ही ऊपर से जूता फेंक कृतार्थ कर दो! आप का अहसान मैं सात जन्मों तक नहीं भूलूंगा।’ पर चिलचिलाती धूप में उस वक्त भगवान पता नहीं कहां आराम फरमा रहे थे?

-अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड
नजदीक मेन वाटर टैंक,सोलन-173212 हि.प्र.

पहली से चौदहवीं लोकसभा तक सदस्‍यों की औसत आयु

लोकतंत्र में आम मतदाताओं का जागरूक होना जरूरी है। तभी भारत सशक्‍त लोकतांत्रिक देश बन सकता है। इसी को ध्‍यान में रखते हुए हम प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर गम्भीर, तथ्यपूर्ण एवं तर्कपूर्ण बहस को आगे बढाने की दृष्टि से प्रमुख समाचार, विश्‍लेषण और आंकडें प्रस्‍तुत कर रहे हैं-

लोकसभा

 

सदस्यों की औसत आयु

 

पहली

 

46.5

 

दूसरी

 

46.7

 

तीसरी

 

49.4

 

चौथी

 

48.7

 

पांचवीं

 

49.2

 

छठी

 

52.1

 

सातवीं

 

49.9

 

आठवीं

 

51.4

 

नवीं

 

51.3

 

दसवीं

 

51.4

 

ग्यारहवीं

 

52.8

 

बारहवीं

 

46.4

 

तेरहवीं

 

55.5

 

चौदहवीं

 

52.63

 

 

नैनो का प. बंगाल से बाहर आने के लिए माकपा जिम्मेदार: आडवाणी

ca0s8lszभाजपा के वरिष्ट नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बुधवार ने टाटा कंपनी की लाख टके वाली नैनो कार परियोजना के पश्चिम बंगाल से बाहर जाने के लिए  वामपंथी सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा है कि औद्योगिक गतिविधियों के लिए किसानों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।पश्चिम बंगाल की स्थिति की तुलना गुजरात से करते हुए आडवाणी ने कहा कि गुजरात में कोई समस्या नहीं है। वहां एक भी किसान नाराज नहीं है। सभी नैनो परियोजना का समर्थन कर रहे हैं।

राज्य के उलुबेरिया लोकसभा सीट से पार्टी प्रत्याशी राहुल चक्रवर्ती के पक्ष में प्रचार करने पहुंचे आडवाणी ने कहा कि औद्योगीकरण के लिए किसानों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। यदि किसानों की उपेक्षा होगी तो उसका भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।

सिंगुर की घटा के लिए भी भी उन्होंने माकपा की गलत नीतियों को जिम्मेदार ठहराया। भविष्य में वामपंथियों द्वारा राज्य में कंप्यूटरीकरण का विरोध करने का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि दक्षिण भारतीय राज्य कंप्यूटरीकरण के मामले में आगे निकल गए, जबकि पश्चिम बंगाल पीछे रह गया है।

क्वोत्रोची मामले में सीबीआई के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती

untitled3इटली के व्यापारी आतोवियो क्वोत्रोची को बोफोर्स दलाली मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा बरी किए जाने का मामला गरमा रहा है। राजधानी दिल्ली के एक वकील ने सीबीआई के इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है।वकील अजय के.अग्रवाल ने क्वात्रोची के खिलाफ इंटरपोल की तरफ से जारी रेड कार्नर नोटिस को वापस लेने के निर्णय के खिलाफ स्थगन आदेश जारी करने की मांग की है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय चर्चा में आए बोफोर्स तोप सौदे में कथित तौर पर दलाली लेने के मामले में क्वात्रोची भारत में वांछित रहा है।

अग्रवाल ने इसके पहले लंदन में स्थित क्वात्रोची के बैंक खातों को मुक्त करने के सरकार के निर्णय के खिलाफ भी सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।
उन्होंने अदालत से मांग की है कि वह सरकार को आदेश दे कि क्वात्रोची को अति वांछित सूची से बरी करने के बदले उसे गिरफ्तार करे और भारत लाए।

मध्य प्रदेश में 16 सीटों के लिए 19 करोड़पति मैदान में

mp1पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण में मध्य प्रदेश से 19 करोड़पति अपनी किस्तमत आजमाने जा रहे हैं। इनमें से ज्यादातर कांग्रेसी हैं। यहां 16 संसदीय क्षेत्रों में मतदान होना है। राज्य के कुल 29 संसदीय क्षेत्रों में से 13 सोटों पर 23 अप्रैल को मतदान हो चुका है। बाकी 16 क्षेत्रों में 30 अप्रैल को मतदान होना है। इन क्षेत्रों में 231 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं, उनमें 19 करोड़पति हैं। इनमें 12 करोड़पति कांग्रेस की टिकट पर, जबकि भाजपा के तीन और बहुजन बसपा का एक उम्मीदवार है। इसके अतिरिक्त तीन अन्य करोड़पति उम्मीदवार भी मैदान में डटे हैं।

इंदौर से कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार सत्यनारायण पटेल प्रदेश के सबसे रईस प्रत्याशी है। इनके पास 38 करोड़ 75 लाख से भी अधिक की सम्पत्ति है। वहीं राजपरिवार से जुड़े केन्द्रीय राज्यमंत्री एवं गुना से कांग्रेस प्रत्याशी ज्योतिरादित्य सिंधिया की संपत्ति 14 करोड़ 90 लाख के आस-पास है। इसके अलावा ग्वालियर से अशोक सिंह, उज्जैन से प्रेमचंद्र गुड्डू, खंडवा से अरूण यादव, रतलाम से कान्तिलाल भूरिया, जैसे कई उम्मीदवार हैं जिनके पास करोड़ों की चल-अचल की संपत्ति है।

दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की टिकट पर ग्वालियर की प्रत्याशी यशोधरा राजे सिंधिया, राजगढ़ से लक्ष्मण सिंह और सागर से भूपेन्द्र सिंह करोड़पति है, मुरैना से बहुजन समाज पार्टी के बलवीर सिंह दंडोतिया ऐसे प्रत्याशी है, जिनके पास करोड़ों की सम्पत्ति है।

प्रदेश के इलेक्शन वाच की ओर से जारी दस्तावेज में बताया गया है कि तीसरे चरण में मध्य प्रदेश के जिन 16 संसदीय क्षेत्रों में मतदान हो रहा है उनमें छह उम्मीदवार ऐसे है जिनके पास एक रुपया तक नहीं है। इनमें सागर से अरविन्द डांगी, सिद्घार्थ अहिरवार व अशोक मिश्रा, दमोह से काशीराम तथा इन्दौर से रामसिंह व एस़ आऱ मंडलोई ऐसे प्रत्याशी हैं, जिनके पास एक रुपया भी नहीं है।

बोफोर्स मामले में सोनिया के आगे झुके मनमोहन : आडवाणी

advanijiगांधीनगर (गुजरात) में 28 अप्रैल, 2009 को आयोजित संवाददाता सम्मेलन में श्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा जारी वक्तव्य

प्रधानमंत्री बोफोर्स घोटाले की सच्चाई को हमेशा के लिए दफनाने हेतु श्रीमती सोनिया गांधी के दबाव में झुक गए हैं। इस और दूसरे पापों के लिए देश का मतदाता कांग्रेस को उसी तरह सजा देगा जैसी उसने सन् 1989 में दी थी।

मैंने आज के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में एक मुख्य रिपोर्ट देखी, ”कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार के आखिरी दिनों में ओटावियो क्वात्रोचि का नाम सीबीआई की वांछित सूची में से हटा दिया गया है।” इसमें कहा गया है कि महान्यायवादी ने इटली के व्यापारी के विरूध्द जारी किए गए रेड कॉर्नर नोटिस को एक ‘परेशानी’ की संज्ञा दी है, ”जिसे हमेशा के लिए सूची में बनाए नहीं रखा जा सकता।”

यह यूपीए सरकार द्वारा अपने दलीय हितों के लिए सरकारी संस्थानों विशेषकर केन्द्रीय जांच ब्यूरो के दुरूपयोग के शर्मिन्दगीपूर्ण कारनामों की एक लम्बी कड़ी में नवीनतम घटना है। सभी लोग जानते हैं कि बोफोर्स घोटाला स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक सर्वाधिक राजनीतिक विस्फोटक भ्रष्टाचार काडं रहा है। सन् 1989 में इसके चलते राजीव गांधी की सरकार का पतन हुआ था जो 1984 में संसद में भारी बहुमत हासिल करने के बावजूद सत्ता से बाहर निकाल दी थी।

अप्रैल 1987 में बोफोर्स घोटाले का पर्दाफाश होने के बाद से ही कांग्रेस पार्टी सच्चाई को बाहर आने से रोकने हेतु हर तरह के प्रयास करती रही है। 10 जनपथ के दबाव में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने क्वात्रोचि को भारत से भाग जाने दिया। तथापि, यूपीए सरकार के कार्यकाल में न्याय का गला घोटं ने के और अत्यतं निर्लज्ज कारनामे देखने में आए। सबसे पहले इसने इटली के बिचौलिए क्वात्रोचि जोकि इस घोटाले का प्रमुख अभियुक्त है और जो श्रीमती सोनिया गांधी के परिवार और 10 जनपथ का नजदीकी समझा जाता है, के बैंक खातों को फिर से चालू रखने की अनुमति दे दी। बाद में सरकार ने उसे अर्जेंटीना में गिरफ्तार किए जाने के पश्चात सही-सलामत भाग जाने दिया। न्यायिक कार्यवाही के ताबूत में आखिरी कील तब गाढ़ी गई जब यह समाचार मिला कि यूपीए सरकार क्वात्रोचि का नाम केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की ”वांछित” सूची में से हटाना चाहती है।

मैं यूपीए सरकार के इस निर्णय की अत्यंत कड़े शब्दों में भर्त्सना करता हूं। मैं बोफोर्स घोटाले की सच्चाई को दबाने के इस षडयंत्र में सांठ-गांठ करने के लिए सीधे प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह तथा श्रीमती सोनिया गांधी को जिम्मेदार ठहराता हूं। यह स्पष्ट है कि उन्होंने और उनकी सरकार ने यह कार्य 10 जनपथ के इशारों पर किया है। पिछले पांच वर्षों में सीबीआई और विधि मंत्रालय के लगातार दुरूपयोग पर उनकी चुप्पी से उनके दोष की पुष्टि होती है। इससे मेरे मूल्यांकन की भी पुष्टि होती है कि डा0 मनमोहन सिंह एक कमजोर और अयोग्य प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने अपने पद को 10 जनपथ का मातहत बनाकर इसका अवमूल्यन किया है।

इस कांड और अन्य पापों के लिए मतदाता कांग्रेस पार्टी को उसी तरह से सजा देगा
जिस तरह से उसने सन् 1989 में दी थी।

इस सन्दर्भ में, मैं एक और महत्वपूर्ण बात कहना चाहता हूं। भारतीय जनता पार्टी ने स्विस बैंकों के गुप्त खातों और दूसरे टैक्स हेवन्स में भारी मात्रा में अवैध रूप से जमा भारतीय धन को वापस लाने का वादा किया है। यह ध्यान देने की बात है कि बोफोर्स घोटाले में रिश्वत के तौर पर दिए गए धन को भी गुप्त स्विस बैंक खातों में जमा किया गया था। भारतीय जनता पार्टी की पहल को जनता से भारी समर्थन मिलने पर कुछ कांग्रेसी नेता अब दबी जबान में कहने लगे हैं कि वे भी इस काले धन को वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं। फिर भी, बोफोर्स मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच पूर्ण विपरीत रूखों में अंतर को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। कांग्रेस नेतृत्व जिसने बोफोर्स कांड के मुख्य आरोपी को करोड़ों रूपये की रिश्वत के धन को विदेशी बैंक में जमा करने के साथ-साथ सही सलामत भाग जाने दिया, पर कैसे विश्वास किया जा सकता है कि वह विदेशों के टैक्स हेवन्स में जमा भारतीय धन को वापस ले आएगी?

समाजवाद के बियावान में अकेले पडे जॉर्ज

george1समाजवाद के बियावान में एक खांटी समाजवादी अकेला पड गया है। एक बार वह फिर चुनाव लड रहा है। इस बार उसकी लडाई किसी विरोधियों से नहीं है अपितु अपनों से है। फिलहाल वह इतना मजबूत भी नहीं है कि चुनाव जीत जाये लेकिन अक्खड़ समाजवादी जो ठहरा। अपनी जिद के सामने उसने किसी की नहीं सुनी। समाजवादी राजनेता समझाते रहे। कहते रहे कि जॉर्ज साहब हमारे समाजवादी खेमा के अभिभावक है। यह भी कहते रहे कि आपके स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर टिकट नहीं दिया जा रहा है लेकिन जॉर्ज को अपनी टिकट की कब चिंता रही। उन्हें तो चिंता उन समाजवादी मूल्यों की है जिसे किसी जमाने में डॉ0 राम मनोहर लोहिया, रामावतार शर्मा, कपिलदेव सिंह, किशन पटनायक, मधु लिमये, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर, आचार्य कृपलाणी, जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादियों ने स्थापित किया था। जॉर्ज को टिकट और राजसत्ता की चिंता होती तो वे लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, नवीन पटनायक जैसे कथित समाजवादियों की तरह कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिये होते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे लडते रहे, भारतीय राजनीति में सामंतवाद, परिवारवाद, नवपूंजीवाद के प्रतीक कांग्रेस से, वे लडते रहे उन विदेशी कंपनियों के खिलाफ जिसने भारत की ओर कुदृष्टि डालने की कोशिश की।

समाजवाद के बियावान में एक खांटी समाजवादी अकेला पड गया है। एक बार वह फिर चुनाव लड रहा है। इस बार उसकी लडाई किसी विरोधियों से नहीं है अपितु अपनों से है। फिलहाल वह इतना मजबूत भी नहीं है कि चुनाव जीत जाये लेकिन अक्खड़ समाजवादी जो ठहरा। अपनी जिद के सामने उसने किसी की नहीं सुनी।

समाजवादी मूल्यों के लिए जॉर्ज ने कभी समझौता नहीं किया। लगातार अपनों के खिलाफ कई लडाइयां लडी। जब उन्हें लगा कि लालू जैसे छद्म समाजवादी समाजवाद का बंटाधार कर रहे हैं तो जॉर्ज ने लालू के खिलाफ झंडा उठा लिया। बिहार की राजनीति में अपरिहार्य हो गये लालू प्रसाद यादव के खिलाफ सबसे पहला प्रतिरोध जॉर्ज ने ही प्रारंभ किया। जब जॉर्ज को लगा कि विदेशी चिंतनों को संपोषित करने वाली कांग्रेस और साम्यवादी पार्टियों को परास्त करना है तो उन्होंने समाजवाद की मान्यताओं के इतर जाकर राष्ट्रहित में भारतीय जनता पार्टी के साथ समझौता किया। इस समझौते ने जहां एक ओर साम्यवादी जमीन को सिकुड़ने के लिए मजबूर कर दिया वहीं कांग्रेस कमजोर होती चली गयी। बिहार की दुर्दशा से आहत जॉर्ज ने अपने प्रिय शिष्य को भाजपा के साथ चुनावी तालमेल की छूट दी। यह जॉर्ज का बड़प्पन था। राजनीति में नीतीश को आगे किया और न केवल प्रदेश की राजनीति में अपितु देश की राजनीति में भी स्थापित किया। समाजवादी मूल्यों की रक्षा के लिए जॉर्ज ने नितीश को लालू और रामविलास पासवान के समानांतर लाकर खडा कर दिया। जिस नीतीश के कंधों पर उन्होंने समाजवादी मूल्यों के संरक्षण की जिम्मेवारी सौंपी आज वही नीतीश समाजवाद को सामंतों की सभा का विदूषक बना दिया है। जॉर्ज हाशिए पर ढकेल दिये गये और समाजवाद टुकड़ों में बटा कांग्रेस की चाकरी में लगा है। हां, कभी कभी अवधेश कुमार, रामबहादुर राय, सच्चिदानंद सिन्हा आदि कुछ संवेदनशील लेखकों की लेखनी में समाजवाद दिख जाता है लेकिन किसी जमाने में देश को झकझोर कर रख देने वाला भारतीय मूल का लोहियावादी समाजवाद जॉर्ज की तरह नीतीश जैसे मौकापरस्तों के साथ मुठभेड़ के लिए बाध्य हो गया है।

जॉर्ज मुजफ्फरपुर की जनता से यही कह रहे है कि यह लडाई उनकी अंतिम लोकसभा की लडाई है। इस बार हारे या जीतें अगली बार वे खडा नहीं होंगे। मुजफ्फरपुर की जनता उन्हें कितना सहयोग करेगी यह तो वक्त बताएगा लेकिन जिस प्रकार के समीकरण उभरकर सामने आ रहा है वह यही साबित कर रहा है कि जॉर्ज इस बार मुजफ्फरपुर से चुनाव हार भी सकते हैं।

हालांकि शरद यादव ने भी कभी समाजवादी मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया लेकिन शरद यादव में एक खास जाति के प्रति सॉफ्ट कारनर होने के कारण शरद कभी जॉर्ज की कद-काठी प्राप्त नहीं कर सके। जॉर्ज का इतिहास बडा रोचक रहा है। जॉर्ज मंगलोर के निकट एक गांव में गरीब कैथोलिक मछुआरा परिवार में जन्म लिये। गरीबी के कारण जॉर्ज को त्रिचुनापल्ली के ईसाई सेमिनरी में डाल दिया गया, जहां उन्हें ईसाई धार्मिक शिक्षा दिया जाने लगा। पांचवीं कक्षा तक पढाई करने के बाद जॉर्ज मुम्बई भाग आए और बंदरगाह पर मजदूरी करने लगे। वहां इनकी मुलाकाल मजदूर नेता राबॉट डीमैलो से हुई। राबॉट से मुलाकात के बाद जॉर्ज के जीवन में परिवर्तन आया। डीमैलो के यहा पहले रसोइया फिर अंगरक्षक, फिर गाडी चालक, उसके बाद राबॉट के निजी सचिव बने। कुछ दिनों के बाद डीमैलो की हत्या हो गयी और जॉर्ज ने मुजफ्फरपुर के समाजवादी विचारक साच्चिदानन्द सिन्हा के साथ मिलकर डॉक मजदूर, ऑटो रिक्शा मजदूर, बंदरगाह मजदूरों के बीच संगठन खडा किया। संगठन का नाम रखा गया हिन्द मजदूर किसान सभा। इसी दौरान पत्रकार हमायु कबीर की बेटी लैला से उन्होंने शादी कर ली। जॉर्ज साहब के नेतृत्व में ही रेलवे में सबसे बडा रेल मजदूर आन्दोलन हुआ। फिर जॉर्ज राजनीति में आए और दक्षिण मुम्बई से कांग्रेस के नेता एस0 के0 पाटिल को हराकर पहली बार संसद पहुंचे। आपालकाल के दौरान बहुचर्चित बडोदा डायनामाईट कांड के अभियुक्त बनाए गये। आपात काल के दौरान ही कोलकात्ता के एक चर्च से उनकी गिरफ्तारी हुई और जेल भेज दिए गये। सन 77 में जॉर्ज फिर मुजफ्फरपुर से चुनाव जीते और मोरारजीभाई देसाई की सरकार में उद्योगमंत्री बनाए गये। उस समय भी जॉर्ज साहब चर्चा में रहे और अमेरिकी शीतल पेय कंपनी को देश से बाहर कर दिया। रेल मंत्रालय के अलावा उन्हें वाजपेयी सरकार में प्रतिरक्षा जैसे अहम मंत्रालय की जिम्मेवारी दी गयी। चीन के खिलाफ बयानबाजी के कारण जॉर्ज फिर चर्चा में आए।

आजादी के बाद लोकतंत्रात्मक राजनीति के आधार पुरूष जॉर्ज आज अपनों के बीच बेगाने हो गये हैं। कालांतर में जॉर्ज साहब ने समाजवाद के कई रूपों को देखा और जब कांग्रेस के मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस से बगावत कर राष्ट्रीय मोर्चा बनाया तो जॉर्ज उनके साथ हो गये। सन 1989 में साम्यवादियों को छोड कर कांग्रेस विरोधी सारे दल एक मंच पर आ गये। राष्ट्रीय मोर्चा का गठन हुआ और जॉर्ज उसमें शामिल हो गये। फिर कांग्रेस हारी और भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से केन्द्र में जनता दल की सरकार बनी। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह बने और जॉर्ज को प्रतिरक्षा मंत्रालय दिया गया। कई अन्तरविरोधों के कारण यह कांग्रेस विरोधी सरकार भी पांच साल तक नहीं चली और कांग्रेस के सहयोग से पुन: चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बन गये। जॉर्ज ने उस समय भी मूल्यों की राजनीति का परिचय दिया और चन्द्रशेखर की सरकार में शामिल नहीं हुए। मात्र चार महीने में चन्द्रशेखर सरकार गिर गयी और चुनाव कराया गया। चुनाव में फिर जॉर्ज जीत गये। कांग्रेस के नेता राजीव गांधी की हत्या हो गयी और केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी। इस सरकार के मुखिया पामूलापति वेंकटेश नरसिंहराव को भारत का प्रधानमंत्री बनाया गया। सरकार चली और ठीक से चली। फिर सन 1994 के चुनाव में एनडीए को बहुमत मिला और उस सरकार में भी जॉर्ज केन्द्रीय मंत्री बने।

जॉर्ज ने लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव को छोड कमजोर और चिंतनशील युवा नीतीश कुमार को आगे किया। नीतीश कुमार को जॉर्ज ने राष्ट्रीय पहचान दिलाई लेकिन नीतीश आज बिहार के सामंतवादी ताकतों के साथ खेल रहे हैं। लालू प्रसाद यादव की तरह ही नीतीश ने राजनीति को एक व्यक्ति विशेष के इर्दगीर्द घूमने को मजबूर कर दिया है। नीतीश के साथ वे आज की तारीख में एक भी समाजवादी नेता नहीं है। नीतीश कुमार भले अपने आप को कर्पूरी जी का शिष्य कह ले लेकिन नीतीश आज ललन सिंह, मुन्ना शुक्ला, रामाश्रय प्रसाद सिंह, प्रभुनाथ सिंह, रामप्रवेश राय, अनंत सिंह सरीखे खांटी अपराधियों के हाथों खेल रहे हैं।

जॉर्ज साहब का विरोध अपनी टिकट के लिए नहीं है अपितु जॉर्ज का विरोध समाजवाद के नाम पर हो रही गुंडागर्दी से है। जॉर्ज की हार तय मानी जा रही है लेकिन जिसको नीतीश ने टिकट दिया है उसकी कसौटी क्या है। जॉर्ज साहब का टिकट काट कर नीतीश भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय जोड दिया है। नीतीश के जीवन की यह सबसे बडी भूल है। जिस प्रकार लालू पूजनीय होते होते रह गये उसी प्रकार नीतीश ने बिहार में काम भी किया साथ ही उनकी छवि एक विकास पुरूष के रूप में बनी लेकिन जॉर्ज के पंगे ने नितीश के सारे किये कराये पर पानी फेर दिया है। जॉर्ज की हार भारतीय राजनीति में मूल्यों की हार है। जॉर्ज की हार आदर्श की हार होगी। जॉर्ज की हार समाजवाद की हार होगी। शरद यादव ईमानदार नेता हैं लेकिन जॉर्ज की हार उनके सफेद धवल वस्त्र पर भी एक दाग के समान होगा।

लेखक: गौतम चौधरी
(लेखक हिंदुस्थान समाचार से संबंद्ध हैं)

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अर्थ

images1शाब्दिक तौर पर राष्ट्रवाद एक आधुनिक ‘पद’ है। ऐसा माना जाता है कि आधुनिक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा फ्रांस की क्रांति (1789) के बाद विकसित हुई। सामाजिक विकास या राजनैतिक सिध्दांत के तौर पर राष्ट्रवाद की संकल्पना आधुनिकता की ऐतिहासिक व्याख्या हो सकती है, लेकिन मूल स्वीकार्य बात यह है कि राष्ट्रों का अस्तित्व प्राचीन काल से था।

किसी राष्ट्र की पहचान एक राष्ट्र के रूप में कैसे होती है? या दूसरे शब्दों में वे क्या घटक हैं, जिनसे राष्ट्र का निर्माण होता है? राजनैतिक विचारक एंथोनी डी. स्मिथ (जिन्होंने राष्ट्रवाद की संकल्पना पर काफी कुछ लिखा है) ने राष्ट्र को कुछ इस तरह परिभाषित किया है, ‘मानव समुदाय जिनकी अपनी मातृभूमि हो, जिनकी समान गाथाएं और इतिहास एक जैसा हो, समान संस्कृति हो, अर्थव्यवस्था एक हो और सभी सदस्यों के अधिकार व कर्तव्य समान हों।’ रूपर्ट इमर्सन ने राष्ट्र को इस तरह परिभाषित किया है, ‘एक संबध्द समुदाय जिसकी विरासत समान हों और जो एक जैसा भविष्य पसंद करते हैं।’

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी ने राष्ट्र-जन के विभिन्न घटकों का उल्लेख किया है: समान इतिहास, समान पंरपरा, शत्रु-मित्रता का भाव समान, भविष्य की आकांक्षा समान ऐसी भूमि का पुत्र संबंध समाज राष्ट्र कहलाता है।

फ्रांसीसी लेखक अर्नेस्ट रेनन(1882) के अनुसार ‘आधुनिक राष्ट्र केंद्राभिमुख घटकों की ऐतिहासिक परिणति है।’ एक जैसा अतीत गौरव, वर्तमान की एकसमान इच्छा तथा एक साथ महान कार्य के निष्पादन व उसे बेहतर करने की इच्छा, ये सभी घटक ‘जन’ बनने की आवश्यक शर्त है और ऐसे ‘जन’ की आत्मा राष्ट्र है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी ने राष्ट्र-जन के विभिन्न घटकों का उल्लेख किया है: समान इतिहास, समान पंरपरा, शत्रु-मित्रता का भाव समान, भविष्य की आकांक्षा समान ऐसी भूमि का पुत्र संबंध समाज राष्ट्र कहलाता है।

हालांकि, जब हम विश्व के इतिहास पर नजर डालते हैं, तो बहुत कुछ यह राजवंशों व साम्राज्य का इतिहास मिलता है। हम स्वतंत्र संप्रभु राजनैतिक इकाई के रूप से राष्ट्र नहीं पाते। हालांकि राष्ट्र, सांस्कृतिक अस्तित्व में रूप नहीं रहा, लेकिन पिछले पांच सौ सालों के दौरान इसका अस्तित्व स्वीकार किया जाने लगा। यूरोप पवित्र रोमन साम्राज्य के अधीन था। रोमन साम्राज्य के अधीन स्वतंत्र इकाई के रूप में फ्रांस की स्वीकृति की शुरूआत 1648 की वेस्टफेलिया संधि से मानी जाती है। इस संधि के तहत फ्रांस के राजा को पवित्र सामाज्य से धर्म की स्वतंत्रता और अपनी भाषा इस्तेमाल करने की छूट मिली। 19वीं और 20वीं शताब्दी में आधुनिक यूरोप व राज्य केंद्रित विश्व के लिए ‘वेस्टफेलियन’ एक विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। ऐसा माना जाता है कि 1648 की वेस्टफेलिया की संधि ने आधुनिक अंतर-प्रादेशीय व्यवस्था की आधारशिला रखी। यहां तक कि जब राष्ट्र-राज्य के रूप में ब्रिटेन का उदय नहीं हुआ था और इंग्लैंड में केवल राज्यतंत्र था, पिट द् यंगर ने अपील की, ‘our existence as a nation………. our very name as Englishmen.’ 1775 के अपने शब्दकोश में जॉनसन ने राष्ट्र को इस तरह परिभाषित किया है, ‘लोग जो अपनी भाषा, उत्पत्ति या सरकार के मामले में दूसरे लोगों से अलग हैं।’

प्रवासी राज्य – आस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, सिंगापुर
देशी राज्य – इंडोनेशिया, मलेशिया
प्राचीन स्थापित राज्य और आधुनिक राष्ट्र – फ्रांस और ब्रिटेन
प्राचीन राज्य और आधुनिक राष्ट्र – जापान, चीन और भारत
राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र विनाश – रूस और यूगोस्लाविया

गौरतलब है कि राष्ट्र का अस्तित्व तब भी था, जब संप्रभु राज्य नहीं थे (जैसा कि हम इस समय समझते हैं)। सरकार की अनुपस्थिति में भी राष्ट्रीय समाज का निर्माण करने वाली एक सामान्य जन संस्कृति और भाइचारे की भावना थी। ये राष्ट्रीय समुदाय सिर्फ ऐसे समुदाय नहीं थे, जिनके वंश एक समान थे, बल्कि उनकी सामान्यजन संस्कृति भी समान थी, जो उनके सामाजिक नियमों व आदर्शों को परिभाषित करती थी।

आधुनिक राष्ट्रवाद फ्रांस की क्रांति के बाद विकसित हुआ, जहां राजनैतिक इकाई के रूप में फ्रांस राष्ट्र-राज्य का उदय स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे स्पष्ट राजनीतिक सिध्दांतों पर हुआ। राष्ट्रवाद पर संपूर्ण चिंतन राष्ट्र का एक राजनैतिक इकाई के रूप में मानने लगा। यह दृष्टिकोण, राष्ट्र/राष्ट्र राज्य को आधुनिक इतिहास का उत्पाद कहने लगा। राष्ट्र राज्य के उदय से पहले राष्ट्रों के अस्तित्व को केवल जातीय ग्रुपों के रूप में माना गया। इस पर भी जोर दिया गया कि विश्व के अधिकांश राष्ट्र बहु-जातीय राष्ट्र हैं और इन्हें सोशल नेशंस के रूप में माना गया। Leo Suryadinata द्वारा संकलित पुस्तक ‘Nationalism and Globalization East and west’ में एक अमेरिकी विद्वान की टिप्पणी है कि ‘चीन वास्तव में एक ‘सिविलाइजेशन’ है, जो राष्ट्र होने का बहाना करता है।

इन परिस्थितियों में नागरिकता को राष्ट्रीयता के बराबर माना जाता है, लेकिन यहां मूलभूत अंतर है। जब कोई राष्ट्रीय समुदाय के अंग के रूप अपनी राष्ट्रीयता प्राप्त करता है, तो वह इसे जन्मजात प्राप्त करता है। यह एक सामाजिक-राजनैतिक दर्जा है। वहीं दूसरी तरफ नागरिकता कानूनी प्रक्रिया के तहत सरकार के जरिए हासिल की जाती है। जन्मजात नागरिकता मुल्क के कानूनी प्रावधानों से ही संभव है। इस प्रकार यह राजनैतिक-विधिक दर्जा है। लेकिन आज के राष्ट्र-राज्य के दौर में दोनों ‘शब्द’ एक ही अर्थ में प्रयुक्त किए जाते हैं।

संपूर्ण आधुनिक चिंतन इस दिशा में है कि केवल राष्ट्र-राज्य ही राष्ट्र हैं। संयुक्त राष्ट्र, 1945 का चार्टर सरकारों के समझौतों पर आधारित दस्तावेज है। बाद के सभी चार्टर या परिपाटी सदस्य राज्यों या सहमत सरकारों द्वारा स्वीकार किए गए। इस दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में राज्यों का हम एक रोचक वर्गीकरण एडीटर Leo Suryadinata द्वारा पुस्तक ‘Nationalism and Globalization East and west’ में पाते हैं:

चीन, भारत और जापान को प्राचीन राज्य व आधुनिक राष्ट्र के रूप में वर्गीकृत करते समय वर्गीकरण का दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है, जबकि वास्तविक वर्गीकरण इस प्रकार है, ये सभी प्राचीन राष्ट्र व नए राज्य हैं।

पूर्ववर्ती दृष्टिकोण, भारतीय इतिहास की अज्ञानता तथा वर्तमान भारत की अस्पष्ट समझ के कारण राष्ट्र के रूप में भारत की मान्यता हमेशा प्रभावित रही है। ब्रिटिश राज के दौरान हमें यह बताया गया कि उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश राज की स्थापना के कारण ‘भारत’ राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में है। साम्यवादी हमेशा यह कहते रहे कि भारत बहुत से राष्ट्रों का समुच्च है। यह बहुधा कहा गया कि भारत की कोई सामान्य संस्कृति नहीं है, बल्कि तमाम संस्कृतियों का मिलन है, जो अपनी-अपनी पहचान को बरकरार रखे हुए है। इसलिए यह कहा गया कि भारत एक समान धरोहर पर आधारित राष्ट्र नहीं है, बल्कि यह ‘सामाजिक व नागरिक’ राज्य है।

इसे भंलीभांति समझ लेना चाहिए कि यह सर्वव्यापक रूप से स्वीकार किया जा चुका है कि ‘भारत की संस्कृति चिरंतन है, जो 5000 वर्षों से भी अधिक पहले विकसित हुई। इसने आने वाली भारतीय पीढ़ियों के मानसिक क्षितिज, मूल्य व्यवस्था और जीवन शैली को विकसित किया, जो आज भी अनेक विदेशी आक्रांताओं व विपुल जनसंख्या विस्तार के बाद आश्चर्यजनक रूप से बरकरार है। यह आज भी भारतीयों व भारत के मूल लोगों को एक अलग व्यक्तित्व प्रदान करती है, जैसा कि पहले देती आई है।’
‘कल्चर एंड डेमोक्रेसी इन इंडिया- आर. सी. अग्रवाल’

सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. प्रदीप जैन के मामले में इस वास्तविकता की पहचान की है, जब न्या. पी. एन. भगवती ने टिप्पणी की, ‘इतिहास का यह रोचक तथ्य है कि राष्ट्र के रूप में भारत का निर्माण न तो एकसमान भाषा के आधार पर हुआ और न ही इसके भू-भाग पर एक राजनैतिक सत्ता के निरंतर अस्तित्व के कारण, बल्कि इसका आधार सदियों से विकसित हुई एक समान संस्कृति के कारण हुआ। यह एक सांस्कृतिक एकता है, देश के लोगों को एकजुट रखने वाले दूसरे बंधनों से ज्यादा मजबूत व आधारभूत, जिसने इस देश का राष्ट्र में पिरोया।’ इतिहासकार सर विसेंट स्मिथ लिखते हैं, ‘बिना किसी संदेह के, भारत के पास अन्तर्निहित मूलभूत एकता है, जो राजनैतिक प्रभुता या भौगोलिक विगलन से ज्यादा शक्तिशाली है। यह एकता जाति, धर्म, वंश, रंग, भाषा व रीति-रिवाज की तमाम विभिन्नताओं को पार करती है। यह वेद काल से ही एक पवित्र घोषणा है: ‘पृथिव्यै समुद्र पर्यन्ताया: एकराट।’

यह अन्तर्निहित सांस्कृतिक एकता, हमारी राष्ट्रीय पहचान की सभ्यतामूलक आधार के साथ-साथ चरम जीवन मूल्य हैं। यह हमारे जीवन शैली की व्याख्या करते हैं और हमारी राष्ट्रीयता की आधारशिला है। अतएव राष्ट्रवाद, जिसका हम उद्धोष करते हैं, वास्तव में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है।

यहां पर सिध्दांत व विचारधारा के रूप राष्ट्रवाद के विकास का संक्षिप्त हवाला देना उचित होगा, ‘राष्ट्रवाद की विचारधारा राष्ट्र की संस्कृति से ओतप्रोत होती है- इतिहास की पुन:खोज, देशी भाषाओं का पुनरूज्जीवन, साहित्य का विकास (खास तौर पर कविता और नाटक) और संगीत, लोकनृत्य व लोकगीत के साथ-साथ देशज कला तथा शिल्प की पुन:स्थापना।’ (एंथनी डी स्मिथ)

यह राष्ट्रवाद राजनैतिक सिध्दांत के रूप विकसित हुआ, जिसने राष्ट्र को ऐसे सामाजिक संरचना के रूप में देखा, जो एक समुदाय द्वारा एकसमान कानूनों के आधार एक निश्चित भू-भाग पर निर्मित की जाती है। इसे ‘सिविक नेशन’ के तौर पर देखा गया और लोगों के राष्ट्रप्रेम की प्रकृति को राष्ट्रवाद, जो समुदाय की बंधुत्व भावना से ज्यादा शासन की व्यवस्था से प्रेरित था।

सिध्दांत के तौर पर राष्ट्रवाद का विकास दो स्थितियों पर आधारित हैं:
• राष्ट्र के प्रति निष्ठा।
• स्वशासित राष्ट्रों का समुदाय विश्व शांति का आधार है।

विश्व में हुए हाल के बदलाव, राष्ट्रों के सांस्कृतिक आधार की नई समझ को दर्शाते हैं। पिछली शताब्दी में खासतौर पर शुरूआती दशकों में पांच साम्राज्यों के ढहने के बाद नक्शों पर लकीरें खींचकर अनेक राष्ट्रों का उदय हुआ। इसके बाद कुछ राष्ट्र साम्यवादी आधिपत्य में चले गए। सोवियत संघ के विघटन के बाद कृत्रिम सीमाएं टूटी और एकसमान धरोहर, रीति-रिवाज व मूल्यों के आधार पर बनी ऐतिहासिक एकता से नए राष्ट्रों का उदय हुआ। यह सिर्फ विखंडन नहीं था, बल्कि राष्ट्रों का उदय था, जो राष्ट्र राज्यों के भीतर अव्यक्त थे।

चीन के बारे में यह कहा जाता है कि यहां पर राष्ट्रवाद (राजनैतिक अर्थ में) एक नई अवधारणा थी और इसका उभार 19वीं शताब्दी के मध्‍य से शुरू हुआ। बतौर राष्ट्र चीन शुरू से ही समुदायों का ढीला-ढाला बंधा था, जो एकसमान जीवन शैली से जुड़ा था न कि किसी मसीहा की अपील से। अनेक विभिन्न वर्गों के साथ वे एक लोग हैं। चीन में राष्ट्रवाद की सबसे प्रमुख विशेषता है कि यह राजनैतिक से ज्यादा सांस्कृतिक है। यूगोस्लाविया का उदाहरण सुप्त राष्ट्रीय पहचान को रेखांकित करता है। सोवियत साम्राज्य के विघटन के बाद सर्ब व क्रोएट की तमाम राष्ट्रीय पहचान सामने आई। उसके बाद की हिंसा व संघर्ष तथा अमेरिकी हस्तेक्षप की चर्चा किए बगैर जो बात गौरतलब है वह है सर्ब की चेतना।

यह सर्व चेतना कोसोवा के उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है। कुछ शताब्दी पहले सर्ब तुर्कों के हाथों 1389 में कोसोवो की निर्णायक लड़ाई में पराजित होने पर दुखी थे। उस दौरान तत्कालीन यूगोस्लाविया तुर्की साम्राज्य का हिस्सा बन गया। आज भी सर्ब उसे याद करते हैं और पराजय के दिन को राष्ट्रीय शोक के रूप में मनाते हैं। यूगोस्लाविया के विघटन के बाद तीन राज्यों का उदय दरअसल, एक अलग अध्‍ययन का मामला है। लेकिन उल्लेखनीय पहलू यह है कि शताब्दियों तक राष्ट्रीय पहचान जीवित रही, हालांकि कोई राज्य इसका प्रतिनिधित्व नहीं करता था।

वैश्वीकरण के शोरगुल के बावजूद राष्ट्रवाद विश्व के राष्ट्रों के लिए एक प्रधान विचारधारा है। संसार भले ही ‘सम’ हो जाए, लेकिन राष्ट्रों की व्यक्तिगत पहचान राष्ट्रवाद की आधारशिला पर सर्वशक्तिमान सत्ता के आधिपत्य से बचाए रखेगी।

फ्रांस के नए राष्ट्रपति की घोषणा इसका उदाहरण है। चुनाव के बाद अपने पहले बयान में निकोलस सारकोजी ने वादा किया कि वह फ्रांस की पहचान व स्वाधीनता को को सुरक्षित रखेंगे। (वैश्वीकरण के आवरण में अमेरिकी आधिपत्य से देष की स्वतंत्रता की रक्षा व आतंकवाद के दबाव में बढ़ते इस्लामीकरण से देष की अस्मिता की रक्षा) यह ऐतिहासिक स्थापित तथ्य है कि एक राष्ट्र का अस्तित्व भूमि, जन व संस्कृति के त्रि-आधार पर टिका होता है। यही त्रि-आधार एक जन, एक भूमि व एक संस्कृति से राष्ट्र का निर्माण होता है। भारतीय संदर्भ में विषेशकर यही सच है कई अवसरों पर अस्पष्ट सोच के कारण संस्कृति की अवधारणा तथा धर्मनिरेपक्षता के सिध्दांत पर धुंध छा जाती है।

बाहर से आए अनेक मत भारत में पले हैं और तमाम कारणों से कुछ वर्गों ने इन्हें अपनाया भी, जिसकी कारणों की व्याख्या हम यहां पर नहीं करेंगे। लोग यह भूल जाते हैं कि हजारों छोटी, बड़ी नदियों के समागम के बाद भी गंगा की मूल धारा वही रहती है। इस देश में पूर्णरूपेण आध्‍यात्मिक स्वतंत्रता है और रीति-रिवाजों की वैभिन्यता है, लेकिन सभी में मानवीय संबंधों को निर्धारित करने वाले जीवन-मूल्य एक ही है। इस अनोखी परंपरा का आप कुछ भी नामकरण कर सकते हैं। आप इसे हिन्दू कह सकते हैं, भारतीय कह सकते हैं या सनातन या इंडियन का नाम भी दे सकते है। लेकिन वह एक ही है यह तथ्य है।

हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक भारत सर्वदा से ही एक भूमि है। वे उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत के जरिए आए हों या दक्षिणी-पश्चिम से, खैबर से आए हों या केरल के जरिए, सभी ने इसे इंडिया कहा, जिसका अर्थ भारत-भूमि है। इस भूमि की चर्चा वेदों, पुराणों और बाद के साहित्यों में हुई है। महान एकीकर्ता आदि शंकराचार्य ने इस धरती के चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की।

इस राष्ट्र व राष्ट्र के प्रति विशुद्व प्रेम ही हमारा मूल सिध्दांत है। हम इसके लिए जीते हैं और इसके लिए मरने को सिध्द हैं। हमारी संस्कृति हमारे अस्तित्व को परिभाषित करती है, जैसा कि दीनदयाल जी ने कहा था, ‘हमारी राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक सोच का आधार हमारी संस्कृति ही है।’

हम इसका पहले ही उल्लेख कर चुके हैं कि हमारी सांस्कृतिक एकता हमारी राष्ट्रीय पहचान की सभ्यतामूलक आधारशिला है, साथ ही ये अपरिवर्तनीय जीवन मूल्य भी हैं। इस समस्त भारतीय क्षेत्र की राष्ट्रीय पहचान को हम भारतमाता के रूप में आदर देते हैं, जिसे पिछले हजारों सालों से यहां आए लोगों ने समझा।

हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक भारत सर्वदा से ही एक भूमि है। वे उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत के जरिए आए हों या दक्षिणी-पश्चिम से, खैबर से आए हों या केरल के जरिए, सभी ने इसे इंडिया कहा, जिसका अर्थ भारत-भूमि है। इस भूमि की चर्चा वेदों, पुराणों और बाद के साहित्यों में हुई है। महान एकीकर्ता आदि शंकराचार्य ने इस धरती के चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की।

संस्कृति की आधारशिला हमारे जीवन शैली का निर्माण करती है। यह हमें मानव-मानव के बीच, मानव व राज्य के बीच, मानव व प्रकृति के बीच तथा मानव व उदात्त ईश्वर के बीच के संबंधों के बारे में निर्देशित करती है। यह मूल्यों, व्यवहारों और सामाजिक समरसता की अलिखित संहिता का उल्लेख करती है। यहां पर हमारे अस्तित्व व उद्देश्यों में अन्तर्निहित एकता है और ऐसा हमेशा महसूस होता है। यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि मानवीय व्यवहारों की यह संहिता, जो धर्म है, विश्व में शांति व प्रसन्नता की राह दिखाएगी। यह विशाल उद्धोष है, लेकिन इस देश की यही नियति है। हटिंगटन, ‘जिन्होंने ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशनस’ लिखी, का दावा है कि वर्तमान शताब्दी भी अमेरिकी शताब्दी होगी।

वे कहते हैं कि यदि पिछली शताब्दी सैनिक ताकत से अभिभूत थी, तो इस शताब्दी में अमेरिका अपनी जीवन शैली का विस्तार शक्ति से नहीं, बल्कि 1-व्यक्तिगत स्वतंत्रता, 2-लोकतंत्र, 3-मुक्त बाजार इन सिध्दांतों के जरिए करेगा। हमारा विश्वास देश की संस्कृति में है, जो विश्व को निर्देशित करेगी।

यह चार सिध्दांतों पर आधारित है:
1- विश्व के समस्त चर या अचर में जीव है, जिसमें एक ही चेतना और ऊर्जा का निवास है। 2-धर्म मानवीय व्यवहारों का दिव्य आदेश है। 3-परिवार, कुटुंब 4-सहमति। इन मान्यताओं में हर आह्वान का समाधान है- पर्यावरण व उसकी रक्षा, नागरी कर्तव्य व सामाजिक समरसता, सामंजस्य व संघर्ष का निराकरण, कल्याण और षासन।

लेखक: प्रा. बाळ आपटे
(लेखक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व सांसद हैं)

अनुवादक: रामनयन सिंह