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मध्य प्रदेश में भी एक बंगरप्पा?

लेखक- अम्बा चरण वशिष्ठ

सशक्त भारतीय जनतंत्र की एक कमजोरी देश में बढ़ रही राजनीतिक दलों की संख्या पर नियंत्रण कर पाने में विफलता है। जिस प्रकार हमारी प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या का कारण अनियंत्रित यौन संबंध है उसी प्रकार लगभग प्रतिदिन पैदा होने वाले नये राजनीतिक दलों का कारण हमारे नेताओं के मन में पनपता अनियंत्रित अहम और महत्वाकांक्षा है। एक कारण यह भी है कि पिछले 61 वर्षों में भारत में ऐसा कोई भी दल नहीं हुआ जो डाले गये मतों का 50 प्रतिशत से अधिक प्राप्त कर सत्ता में आया हो। भारत में अब तक चुनाव में कभी भी 70 प्रतिशत से अधिक मत नहीं पड़े। इसका यही अर्थ निकलता है कि भारत पर जिस भी राजनीतिक दल/गठबंधन ने शासन किया उसे मत संख्या का एक-तिहाई से अधिक कभी भी वोट नहीं मिला।

हमारे नेता जन्म तो किसी दल विशेष में लेते हैं और उसी में पालन-पोषण के बाद बड़े होते हैं। पर ज्यों ही वह पार्टी उनकी सनक के अनुसार काम नहीं कर पाती तो उनके दम्भ और अहंकार की आग भड़क उठती है जिसे उनके चमचे हवा देते हैं और इस अहम् और महत्वाकांक्षा के सम्भोग से जन्म लेता है एक नया राजनीतिक दल। सच तो यह भी है कि हमारे राजनीतिक दलों में व्यक्तियों से सदैव न्याय नहीं होता और न ही योग्यता को सम्मान ही मिलता है। पर यह भी तो सच है कि यदि हम पार्टी के अंदरूनी गणतंत्र में विश्वास रखते हैं तो हमें अपने गिले-शिकवे पार्टी के अंदर रह कर ही दूर करने चाहिए और भीतर से ही न्याय की लड़ाई लड़नी चाहिए। पर ऐसा नहीं होता। अहम् में आगबबूला हमारे नेता पार्टी और इसके नेतृत्व को अपने साथ हुयें अन्याय के लिए सबक सिखाने का प्रण ले बैठते हैं। कई तो यहां तक समझ बैठते हैं कि यदि वह है तो पार्टी है और यदि वह नहीं तो कुछ भी नहीं।

तुलना प्रिय तो नहीं होती पर इससे बचना भी मुश्किल है। कर्नाटक के श्री एस. बंगरप्पा और मध्यप्रदेश की सुश्री उमा भारती के उदाहरण काफी कुछ एक समान हैं। दोनों ही अपने-अपने प्रदेशों के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। दोनों ही, ठीक या गलत, अपने-अपने पार्टी के नेतृत्व से संतप्त हैं और वे समझते हैं कि पार्टी ने उनके साथ न्याय नहीं किया।

जब श्री बंगरप्पा कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे तो हाईकमान ने उन्हें त्यागपत्र के लिए बाध्य किया। 1989 के चुनाव के समय उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी, अलग कर्नाटक कांग्रेस पार्टी का गठन किया और 224 में से 218 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए। तब सत्ताासीनं कांग्रेस सरकार सत्ता विरोधी लहर और बंगरप्पा के विरोध के नीचे ढह गयी और वह 178 विधायकों के स्थान पर केवल 34 सीट ही जीत सकी और मत प्रतिशत 43.76 से गिर कर 26.95 रह गया। जहां कांग्रेस का मत प्रतिशत 16.81 घटा, वहीं भाजपा ने अपना मत प्रतिशत 4.14 से बढ़ाकर 16.99 प्रतिशत कर लिया और उसके विधायकों की संख्या 4 से बढ़कर 40 हो गयी। जनता दल का मत प्रतिशत 27.08 (24 विधायक) से बढ़कर 33.54 (115 विधायक) हो गया और वह सत्ताा में आ गयी। बंगरप्पा की कर्नाटक कांग्रेस ने सत्तााधारी कांग्रेस के 7.31 प्रतिशत (विधायक केवल 10) वोट काटे पर उसे सत्तााविहीन होना पड़ा।

राजनेता अपनी एक टांग कटवाने के लिए सदा तत्पर रहते हैं यदि इससे उनके विरोधी की दोनोें टांगें कट जाएं। यही हुआ कर्नाटक में। बंगरप्पा तो पहले ही सत्ता खो बैठे थे और इसके आगे उनके पास खोने के लिए कुछ था नहीं। इसलिए उनका तो बड़ा सूक्ष्म संकीर्ण लक्ष्य था: ”अगर वह नहीं, तो कांग्रेस भी नहीं।” जब कांग्रेस के हाथ से सत्तााछिन गयी तो बंगरप्पा के हाथ तो सत्ता नहीं आयी पर वह इस बात से ही खुश थे कि उन्होंने कांग्रेस को सत्ता में आने नहीं दिया।

राजनीति में या तो व्यक्ति को स्वयं जीत जाना चाहिए या फिर उसकी पार्टी जीत जानी चाहिए। उसके कारण यदि किसी तीसरे व्यक्ति या पक्ष को लाभ हो जाये, यह तो दिलेरी और बहादुरी की बात नहीं हुई। यदि ऐसा होता है तो यह तो बंदरबांट का ही उदाहरण बन जाता है जिसमें दो व्यक्तियों की लड़ाई में तीसरा लाभ उठा जाता है।

अंतत: हुआ क्या? राजनीति के अकेले राही श्री बंगरप्पा विभिन्न पार्टियों में मेढक की कूद लगा चुके थे । अंतत: उन्हें मिली स्वयं और अपने पुत्रों के लिए कर्नाटक विधानसभा में एक अशोभनीय हार। 2008 के कर्नाटक चुनाव तक श्री बंगरप्पा एक अविजित नायक थे जिसने कभी कोई चुनाव नहीं हारा था। पर महत्वाकांक्षा की भूख और बदले की भावना ने उन्हें कहीं का न छोड़ा। न सत्ता मिली और न ही सम्मान।

वर्तमान स्थिति में ऐसा लगता है कि मध्यप्रदेश में भी बंगरप्पा का इतिहास दोहराया जा सकता है। सुश्री उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी प्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है। अपने स्वार्थी उद्देश्य और मंन्सूबों की पूर्ति के लिए सुश्री भारती के अहम् और दम्भ को हवा देने वालों की कमी नहीं है। विधानसभा चुनाव में उनकी उपस्थिति से किसी को लाभ होने वाला है तो किसी को हानि। पर वह तो अपनी पुरानी पार्टी को सबक सिखाने के लिए आतुर हैं: ”अगर मैं नहीं, तो वह भी नहीं”।

सुश्री भारती के अपने भाई उनका साथ छोड़ गए हैं। उनके अपने ही दल में काफी उठाहपोह है। ऐसी स्थिति में उन जैसा व्यक्तित्व सत्ता में आने का दिवास्वप्न देखता है तो यह समझ के बाहर की बात है। वह भाजपा को अवश्य सजा देना चाहती हैं। पर यह भी सच है कि सदा सभी की सब मुरादें पूरी नहीं होती। अभी यह भविष्यवाणी कर देना एक टेढ़ी खीर लगती है कि भाजपा अवश्य सत्ता में आ जाएगी या कांग्रेस जीत जाएगी। चुनाव विश्लेषण को एक विज्ञान तो अवश्य माना जा रहा है पर इसकी विश्वसनीयता पर अभी तक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। और चुनाव विशेषज्ञ भी अभी यह यह भविष्यवाणी करने की जोखिम नहीं उठा पा रहे कि सुश्री भारती भाजपा को हराकर सत्ताा के गलियारे पर काबिज हो जाएंगी या कांग्रेस सत्ता में आ जाएगी।

चुनाव परिणाम कुछ भी निकलें, पर आज इतना तो आसानी से कहा ही जा सकता है कि कर्नाटक में श्री एस. बंगरप्पा की तरह मध्यप्रदेश में उमा भरती भी अंतत: घाटे में ही रहेंगी। यदि भाजपा अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने में कामयाब हो जाती है तो राज्य के राजनीतिक परिदृश्य से उनका अस्त हो जाएगा। यदि कांग्रेस सत्ताा में आ जाती है तो भी आगे सुश्री भारती का कोई रोल नहीं बचेगा क्योंकि जिस सुश्री भारती के कंधों की शक्ति पर कांग्रेस सत्ता में आएगी वह उनके कंधों की मालिश कर सशक्त नहीं बनाना चाहेगी। जब जनता दल कर्नाटक में श्री बंगरप्पा और कांग्रेस के वोट काटने के कारण सत्ताा में आया था तो जनता दल श्री बंगरप्पा के प्रति कभी कृतज्ञ नहीं रहा।

आज श्री बंगरप्पा कहां हैं? वह राजनीतिक परिदृश्य से ओझल हैं। आज राजनीति में उनकी कोई गिनती नहीं है। तो क्या 8 दिसंबर को चुनाव परिणाम निकलने पर मध्यप्रदेश में भी एक और एस. बंगरप्पा उभरेगा?

(लेखक स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं)

सब ‘सभ्य’ – हम, हमारा समाज और मीडिया

लेखक- अम्बा चरण वशिष्ठ
ठीक ही तो कहते हैं कि किसी सभ्य समाज में फांसी की सज़ा उस समाज के नाम पर एक कलंक है। पर साथ ही यह कोई नहीं कहता कि यदि वह समाज सभ्य है तो उस में हत्या केलिये भी कोई स्थान नहीं है। जब हत्या नहीं होगी तो फांसी की सज़ा का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।

प्रत्येक हत्या के पीछे होता है एक उत्प्रेरक कारण जिसके निराकरण का प्रावधान सभ्य समाज की न्याय व्यवस्था में उपलब्ध होता है। फिर भी इस ‘सभ्य’ समाज के व्यक्ति न्याय व्यवस्था का सहारा न लेकर कानून अपने हाथ में ले लेते हैं और जिस व्यक्ति से उन्हें मतभेद, द्वेष या गुस्सा होता है उसे वह न्याय व्यवस्था के अधीन दण्ड दिलाने की बजाय न्याय का डण्डा स्वयं अपने हाथ में उठा कर उसे अपने हाथों से दण्डित करते हैं। यह दण्ड मारपीट, हाथ-पांव तोड़ने तक ही सीमित नहीं रहता। कई बार तो यह हत्या तक का अमानुषिक दण्ड बन कर रह जाता है हालांकि उसका अपराध इतना घोर नहीं होता कि उसे न्याय व्यवस्था के अधीन उसके अपराध केलिये उसे फांसी ही मिलती। अपराधी इसे ‘आदर्श’ न्याय और सज़ा की संज्ञा दे देते हैं।

इसी प्रकार किसी सभ्य समाज में न आतंकवाद केलिये कोई स्थान होना चाहिये और न आतंकवादी हिंसा का व हत्याओं के लिये। आतंकवादी एक दम्भी व्यक्ति होता है जो स्वयं को सही और बाकी सब को गलत मानता है जो उससे सहमत नहीं होते। उसका सामाजिक व न्याय व्यवस्था में कोई विश्वास नहीं होता। जनतन्त्र व बहुमत में उसकी आस्था नहीं होती। वह बात मानता है तो बस अपनी। कानून मानता है तो अपना। न्याय मानता है तो उसे जिसे वह दूसरों को देता है। तर्क के आधार पर नहीं, वह अपनी बात आतंक के बल पर सैकड़ों-हज़ारों से मनवाना चाहता है। जो उससे सहमत नहीं वह सब उसे मूर्ख, समाज व देश के दुश्मन और उसके अपने शत्रु दिखते हैं। चुनाव व्यवस्था में उसका विश्वास नहीं होता क्योंकि वह इतना अवश्य जानता है कि बहुमत उसके साथ नहीं है।

आतंकवादी अपने आतंक द्वारा दूसरों के मानवाधिकारों को बड़ी बेरहमी से कुचलता है। आग-फूंक करना और निर्दोष जनता और कानून की रक्षा कर रहे रक्षाकर्मियों की हत्या कर देना वह अपना अधिकार और इसे अपनी न्याय व्यवस्था का अभिन्न अंग समझता है। पिछले 17 वर्षों में लगभग एक लाख निर्दोष आतंकवाद की बलि चढ़ चुके हैं जिस में से लगभग 75,000 अकेले जम्मू-कश्मीर से हैं। यह संख्या पाकिस्तान से कारगिल समेत चार युध्दों और चीन के साथ 1962 के युध्द में शहीद हुये लोगों से चार गुणा से अधिक हैं। देश द्वारा इतनी कुर्बानी दे देने के बाद भी आतंकवाद के दानव की हिंसा की पिपासा बढ़ती ही जा रही है।

उधर जब दस-पचास निर्दोष आतंकी हिंसा का शिकार हो जाते हैं तो दो दिन तो मीडिया अवश्य समाचार देता है पर बाद में इस समाचार को आया-गया बना दिया जाता है। कोई नहीं पूछता कि जो बच्चे अनाथ हो गये, जो महिलायें विधवा हो गईं, जिन बूढ़ों की इस उम्र में सहारे की लाठी छीन ली गई, उनका क्या बना। आतंकी हिंसा तो आज इतनी साधारण बात हो गई है कि कई बार तो समाचारपत्र इस खबर को विशेष महत्व ही नहीं देते और कहीं कोने में छोटी से खबर लगा देते हैं । इलैक्ट्रानिक मीडिया की भी यही हालत है । घटना के बाद बेचारे निरीह सन्तप्त परिवार की कोई सुध नहीं लेता।

वास्तविकता तो यह है कि अव्वल तो कोई आतंकबादी पकड़ा ही नहीं जाता। यदि पकड़ा भी जाये तो उसे सज़ा नहीं होती क्योंकि कोई गवाही देने आगे नहीं आता क्योंकि सब को अपनी और अपने परिवार के जीवन से प्यार है। गल्ती से अगर कभी-कभार कोई आतंकवादी पकड़ा जाये तो उसके अपराध से पहले उसकी रक्षा का कवच बन जाते हैं उसके मानवाधिकार। वह व्यक्ति मानवाधिकारों का सुपात्र बन जाता है जिसने अनगिनत हत्यायें की हैं और सैंकडों के मानवाधिकारों को अपने पांव तले रोंदा है। हमारी मानवाधिकार संस्थाओं केलिये उन व्यक्तियों के मानवाधिकार बहुत पावन हैं जो दूसरों के मानवाधिकारों की हत्या करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों इन संस्थाओं के दृष्टि में मानवाधिकर केवल अपराधियों और आतंकवादियों के ही होते हैं जिनकी रक्षा करना उनका धर्म है। बेचारे निर्दोष व्यक्तियों के तो कोई मानवाधिकार होते ही नहीं और न ही उनकी रक्षा करना मानवाधिकारों की रक्षा में लगी लोग व संस्थायें अपना कर्तव्य व धर्म ही मानते है। ऐसा लगता है कि मानवाधिकार संस्थाओं की दृष्टि में वह तो मानव नहीं गली के कीड़े-मकोड़े हैं जो तो बस मरने केलिये ही पैदा हुये हैं और आतंकवादी तो उनका नरसंहार कर उन्हें इस नरकीय जीवन से मुक्ति दिला कर पुण्य ही कमाते हैं। यदि ऐसा न होता तो मानवाधिकार संस्थायें आम जनता के मानवाधिकारों के प्रति भी उतनी ही चिन्तित नज़र आतीं जितनी कि वह अपराधियों और आतंकवादियों के प्रति दिखती हैं। यही बात बहुत हद तक हमारे मीडिया के बारे भी सच है। कई बार तो ऐसा लगता है कि पावन मानवाधिकार अर्जित करने केलिये तो व्यक्ति विशेष केलिये अपराध करने और आतंकवादी बनने की तपस्या करना अनिवार्य योग्यता है।

हमारे मीडिया की पैनी नज़र व कलम इस खोज खबर के पीछे कभी नहीं दौड़ती कि हमारे आतंकवादियों को शरण प्रदान करने वाले कौन हैं, उन्हें आर्थिक सहायता कौन प्रदान करते हैं, उनके छुपने के ठिकाने कहां हैं, किस प्रकार आतंकवाद से निपटा जा सकता है और अपराधियों को पकड़ा जा सकता है ताकि निर्दोष हत्यायें न हों। अपने राष्ट्रीय कर्तव्यपालन में डटे किसी सुरक्षाकर्मी की यदि कोई आतंकवादी निमर्म हत्या कर देता है तो हमारी मानवाधिकार संस्थाओं के कान पर जूं नहीं रेंगती। पर यदि मुठभेड़ में कोई आतंकवादी अपनी जान गंवा बैठता है तो इनके कान खड़े हो जाते हैं और इसमें फर्जी मुठभेड़ की बू आने लगती है। तब वह इस मुठभेड़ को फर्जी साबित करने केलिये दिन-रात लगा देते हैं। ऐसा आभास मिलता है कि उनकी दृष्टि में आतंकवादी द्वारा किसी सुरक्षाकर्मी की हत्या उसका एक पावन अधिकार है और जवाब में अपनी सुरक्षा करते-करते सुरक्षाकर्मी के हाथों किसी आतंकवादी का मारा जाना घोर दण्डनीय अपराध। तब सारे मीडिया और मानवाधिकार संस्थाओं में कोहराम मच जाता है।

ज्यों ही किसी आतंकवादी के पुलिस हिरासत में प्रताड़ना या मौत की सूंघ उन तक पहुंचती है तो मीडिया विद्युत गति से हरकत में आ जाता है और अपनी खोज-खबर की दक्षता के प्रमाण देने में एक दूसरे के साथ होड़ में आ जाता है। मोटी-मोटी सुर्खियां लगती हैं, ब्रेकिंग न्यूज़ बनती है। सारा-सारा दिन समाचार चलते रहते हैं। दुर्दान्त अपराधियों और आतंकवादियों के पिछले सारे काले कारनामें धुल जाते हैं और वह जनता के सामने उभर आते हैं सच्ची-सुच्ची पीड़ित-प्रताड़ित आत्मायें जिनके साथ इस ‘सभ्य’ समाज में बड़ा अन्याय हुआ है। वह महान बन जाते हैं, शूरवीर शहीद।

इसमें कोई दो राय नहीं कि सभ्य समाज में किसी भी दोषी को बिना मुकद्दमा चलाये सज़ा नही दी जा सकती। पर क्या आतंकवादियों को निर्दोष महिलाओं, वच्चों और बूढ़ों को – और कई बार धर्म के आधार पर – मौत के घाट उतार देने का मानवीय अधिकार है? यदि नहीं, तो हमारी मानवाधिकार संस्थाओं ने इसे रोकने और अपराधियों को दण्ड दिलाने में क्या योगदान दिया है? इनका पावन कर्तव्य क्या केवल असमाजिक व आपराधिक तत्वों के मानवाधिकारों की ही रक्षा करना है और उन्हें अपने पापों की सज़ा दिलाना नहीं?

आजकल तो हमारा समाज इतना ‘सभ्य’ बन चुका है कि हमारी पुस्तकों में सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरू सरीखे महान् स्वतन्त्रता सेनानी व शहीद तो आतंकवादी बन चुके हैं और अफज़ल गुरू सरीखे आतंकवादी जिसने संसद पर हमला बोला उसे निर्दोष और शहीद बनाने की क्वायद की जा रही है। देश के प्रति अपना कर्तव्य निभा रहे आठ सुरक्षाकर्मी जिन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया वह मानो गाजर-मूलीं थे और यह आतंकवादी उनसे महान् हो गया। उच्चतम् न्यायालय ने जिसे अपने कुकर्म केलिये मृत्युदण्ड दिया उसे जीवनदान देने के प्रयास हो रहे हैं। न्यायालय के निर्णय पर प्रश्न उठाये जा रहे हैं। यदि उसे भारत की न्याय व्यवस्था में न्याय नहीं मिला तो किसी अन्य देश में मिलेगा?

यह है भारत के ‘सभ्य’ समाज का यथार्थ!

(लेखक स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं)

सरस्वती को धरती पर लाने की कवायद

लेखिका- फ़िरदौस ख़ान

हरियाणा में आदि अदृश्य नदी सरस्वती को फिर से धरती पर लाने की कवायद शुरू कर दी गई है। इसके लिए राज्य के सिंचाई विभाग ने सरस्वती की धारा को दादूपुर नलवी नहर का पानी छोड़ने की योजना बनाई है। देश के अन्य राज्य में भी इस पर काम चल रहा है। अगर यह महती योजना सिरे चढ़ जाती है तो इससे हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के तकरीबन 20 करोड़ लोगों की काया पलट जाएगी। इस नदी से जहां राज्यों के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध हो सकेगा, वहीं सिंचाई जल को तरस रहे खेत भी लहलहा उठेंगे।काबिले-गौर है कि सरस्वती नदी पर चल रहे शोध में सैटेलाइट से मिले चित्रों से पता चला है कि अब भी सरस्वती नदी सुरंग के रूप में मौजूद है। बताया जाता है कि हिमाचल श्रृंगों से बहने वाली यह नदी करीब 1600 किलोमीटर हरी-की दून से होती हुई जगाधरी, कालिबंगा और लोथल मार्ग से सोमनाथ के समीप समुद्र में मिलती है। सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन के मुताबिक सैटेलाइट चित्रों से प्राचीन सरस्वती नदी के जलप्रवाह की जानकारी मिलती है। साथ ही यह भी पता चलता है कि यह सिंधु नदी से भी ज्यादा बड़ी और तीव्रगामी थी। नदी का प्रवाह शिवालिक पर्वतमालाओं से जगाधरी के समीप आदिबद्री से शुरू होता है, जिसका मूल स्त्रोत हिमालय में है। नदी तटों के साथ इसकी ईसा पूर्व 3300 से लेकर ईसा पूर्व 1500 तक 1200 से भी ज्यादा पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं।

गौरतलब है कि हरियाणा के सिंचाई विभाग ने मुर्तजापुर के पास सरस्वती नदी की बुर्जी आरडी 36284 से 94000 तक पक्का करके इसमें दादूपुर नलवी नहर का पानी प्रवाहित करने की योजना बनाई है। राज्य के सिंचाई मंत्री कैप्टन अजय यादव का कहना है कि सरस्वती नदी में नहर का पानी आ जाने के बाद इससे रजबाहे निकाले जाएंगे, ताकि लोगों को पानी मिल सके। सैटेलाइट से मिले सरस्वती के चित्र के आधार पर काम शुरू किया जाएगा।

काबिले-गौर है कि सरस्वती नदी पर चल रहे शोध में सैटेलाइट से मिले चित्रों से पता चला है कि अब भी सरस्वती नदी सुरंग के रूप में मौजूद है। बताया जाता है कि हिमाचल श्रृंगों से बहने वाली यह नदी करीब 1600 किलोमीटर हरी-की दून से होती हुई जगाधरी, कालिबंगा और लोथल मार्ग से सोमनाथ के समीप समुद्र में मिलती है। सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन के मुताबिक सैटेलाइट चित्रों से प्राचीन सरस्वती नदी के जलप्रवाह की जानकारी मिलती है। साथ ही यह भी पता चलता है कि यह सिंधु नदी से भी ज्यादा बड़ी और तीव्रगामी थी। नदी का प्रवाह शिवालिक पर्वतमालाओं से जगाधरी के समीप आदिबद्री से शुरू होता है, जिसका मूल स्त्रोत हिमालय में है। नदी तटों के साथ इसकी ईसा पूर्व 3300 से लेकर ईसा पूर्व 1500 तक 1200 से भी ज्यादा पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं।

योजना की कामयाबी के लिए कुछ विदेशी भू-विज्ञानी और नासा भी योगदान दे रहे हैं। इस अनुसंधान में सरस्वती शोध संस्थान, रिमोट सैंसिंग एजेंसी, भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर, सेंट्रल वाटर कमीशन, स्टेट वाटर रिसोर्सेज, सेंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीटयूट, हरियाणा सिंचाई विभाग, अखिल भारतीय इतिहास संगठन योजना और इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (अहमदाबाद ) आदि काम कर रहे हैं।

केंद्र सरकार ने 2000 में सरस्वती नदी को प्रवाहित करने के लिए तीन परियोजनाओं को चालू करने का काम अपने हाथ में लिया था, जो राज्य सरकारों की मदद से पूरा किया जाना है। चेन्नई स्थित सरस्वती सिंधु शोध संस्थान के अधिकारियों के मुताबिक इस दिशा में पहली परियोजना हरियाणा के यमुनानगर जिले में सरस्वती के उद्गम माने जाने वाले आदिबद्री से पिहोवा तक उस प्राचीन धारा के मार्ग की खोज है। दूसरी परियोजना का संबंध भाखड़ा की मुख्य नहर के जल को पिहोवा तक पहुंचाना है। इसके लिए कैलाश शिखर पर स्थित मान सरोवर से आने वाली सतलुज जलधारा का इस्तेमाल किया जाएगा। सर्वे ऑफ इंडिया के मानचित्रों में आदिबद्री से पिहोवा तक के नदी मार्ग को सरस्वती मार्ग दर्शाया गया है। तीसरी परियोजना सरस्वती नदी के प्राचीन जलमार्ग को खोलने और भू-जल स्त्रोतों का पता लगाना है। इसके लिए मुंबई के भाभा परमाणु अनुसंधान संस्थान और राजस्थान के जोधपुर के रिमोट सैंसिंग एप्लीकेशन केंद्र के विज्ञानी काम में जुटे हैं। इसके अलावा सरस्वती घाटी में पश्चिम गढ़वाल में स्थित हर-की दून ग्लेशियर से सोमनाथ तक प्रवाहित होने वाली प्राचीन जलधारा मार्ग की खोज पर भी जोर दिया जा रहा है।

तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी ) राजस्थान के थार रेगिस्तान में सरस्वती नदी की खोज का काम कर रहा है। निगम के अधिकारियों का कहना है कि सरस्वती की खोज के लिए पहले भी कई संस्थाओं ने काम किया है और कई स्थानों पर खुदाई भी की गई है, लेकिन 250 मीटर से ज्यादा गहरी खुदाई नहीं की गई थी। निगम जलमार्ग की खोज के लिए कम से कम एक हजार मीटर तक खुदाई करने पर जोर दे रहा है। दुनिया के अन्य हिस्सों में रेगिस्तान में एक हजार मीटर से भी ज्यादा नीचे स्वच्छ जल के स्त्रोत मिले हैं।

सरस्वती नदी को फिर से प्रवाहित किए जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद इसके शोध में जुटी संस्थाएं सरकार से काफी खफा हैं। सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन का कहना है कि आदिबद्री और कलायत में सरस्वती नदी का पानी मौजूद होने के बावजूद इसमें नहर का पानी प्रवाहित करना दुख की बात है। सरकार को चाहिए सरस्वतीकि कलायत में फूट रही सरस्वती की धाराओं को जमीन के ऊपर लाया जाए। महज नदी के एक हिस्से को पक्का करने की बजाय आदिबद्री से लेकर सिरसा तक नदी को पक्का कर पानी प्रवाहित किया जाए। साथ ही कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड की तर्ज पर सरस्वती विकास प्राधिकरण का गठन किया जाए। उनका यह भी कहना है कि अगर सरकार चाहे तो तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम अपने खर्च पर हरियाणा में सरस्वती नदी खुदाई करने को तैयार है।

(लेखिका स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं)

आरक्षण का सामाजिक जीवन में महत्व

रमेश पतंगे

समता के विषय में इसाप की एक सुंदर कथा है। एक बार जंगल में शेर, सियार, भेड़िया और जंगली गधा इन चारों ने मिलकर सामूहिक शिकार करने का निर्णय लिया। शिकार के लिए वो चले गए। चारों ने मिलकर एक जंगली भैंसे की शिकार की। शिकार करने के बाद भक्ष्य को चार समान हिस्सों में बांटा जाएगा ऐसा पहले से ही तय था। शेर ने गधे को कहा, “इस शिकार को हम चारों में बांट दो।” गधे ने शिकार को चार समान हिस्सों में बांट दिया। शेर के सामने शेर का हिस्सा रखा गया। इतना छोटा सा हिस्सा देखकर शेर को क्रोध आया और वह बोला, “अबे गधे, तू तो गधे का गधा ठहरा। समानता इस प्रकार की होती है क्या?” ऐसा कहकर उसने गधे के गर्दन पर जोर से तमाचा मारा। शेर के तीक्ष्ण नाखून गधे के गले में घुसने के कारण वो मर गया। फिर शेर ने सियार को कहा, “अब तू इस शिकार का समान बंटवारा कर।” सियार ने चारों हिस्सों को इकट्ठा किया। उसमें से आधे से अधिक शेर को दिया और जो बचा था उसका भी आधे से अधिक हिस्सा भेड़िये को दिया और छोटा सा हिस्सा अपने पास रखा। बंटवारे का यह तरीका देखकर शेर प्रसन्न हुआ। उसने सियार से पूछा, “समता तत्व की इतनी अच्छी सूझ-बूझ तूने कहां से सीखी?” उत्तर में सियार कहता है, “मरे हुए गधे ने समता का सही अर्थ मुझे सिखलाया है।”

इसाप ने जब यह कहानी लिखी होगी तब शायद समता तत्व की चर्चा आज जिस प्रकार चलती है उस प्रकार नहीं चलती होगी। लेकिन इसाप की महानता इसमें है कि उसने समाज जीवन के एक शाश्वत सच्चाई को बहुत सुन्दर ढंग से अधोरेखित किया है। समाज में जो बलवान होता है उसकी समता की परिभाषा शेर जैसी रहती है। सोवियत रशिया में आर्थिक समता का एक प्रयोग किया गया। उसकी परिणति अंत में आर्थिक विषमता में हुई। इस संदर्भ में अंग्रेजी का एक वाक्य बहुत प्रसिध्द है। “All men are equal, but some are more equal” राजर्षि शाहूमहाराज आरक्षण नीति के पुरोधा माने जाते हैं। अपने छोटे से संस्थान में उन्होंने शासकीय सेवा में 50 प्रतिशत आरक्षण का घोषणापत्र प्रकाशित किया। उसकी तिथि थी 26 जुलाई 1902। इसे अब 105 बरस पूर्ण हो चुके हैं। उनके जीवन का एक प्रसंग है। किसी एक समय अभ्यंकर नाम के एक सज्जन महाराजा शाहूजी के साथ विवाद कर रहे थे कि आरक्षण के कारण गुणवत्ता (Merit) को खतरा पहुंचता है। आरक्षण के कारण क्षमतावान व्यक्ति, गुणवान व्यक्ति पीछे रह जाएगा। उसका अवसर (opporiturity) छीन लिया जायेगा। महाराज सब सुनते रहे। उस समय वे कुछ नहीं बोले। श्री अभ्यंकर को अपने साथ लेकर वे अश्वशाला में आए। उन्होंने अश्वशाला के प्रमुख को कहा, “सब घोड़ों के लिए खुराक (चंदी) रखी जाए और सब घोड़ों को छोड़ दो।” खुराक खाने के लिए सभी घोड़े दौड़ पड़े। जो तगड़े घोड़े थे उन्होंने दुर्बलों को खुराक के नजदीक आने नहीं दिया। दुर्बल घोड़े भूखे रह गये। अभ्यंकर की ओर मुड़कर महाराज ने कहा, “समाज में भी ऐसा ही होता है। जो सशक्त है वह कमजोरों को आगे आने नहीं देता। वह सब चीजों पर स्वामित्व निर्माण करने की चेष्टा करता है। इसी कारण दुर्बलों का भी संरक्षण हो, उन्हें भी अवसर मिले ऐसी Positive action करनी पड़ती है।”

समाज में व्यक्ति किस कारण सशक्त बनता है? व्यक्ति को सशक्त करने वाले कारण इस प्रकार हैं-

व्यक्ति की जन्मजाति: व्यक्ति का जन्म अगर उच्च जाति में होता है तो जन्म के कारण ही वह सशक्त बनता है। समाज में उसे मान सम्मान प्राप्त होता है।

धनशक्ति: धनवान व्यक्ति के बारे में एक सुभाषितकार लिखता है, “जिसके पास विपुल धन है वह विद्यावान, कुलवान माना जाता है।” धनशक्ति के कारण सभी चीजें उसे आसानी से प्राप्त होती हैं।

राजशक्ति: व्यक्ति का जन्म किसी राजपरिवार में होता है तो राजसत्ता का बल उसे जन्मना प्राप्त हो जाता है। सत्ता स्थान पर पहुंचने के लिए उसे विशेष प्रयास या संघर्ष करने नहीं पड़ते हैं। इंदिराजी का पुत्र होने के कारण राजीव गांधी आसानी से प्रधानमंत्री बन गए। उनके पुत्र राहुल गांधी बिना प्रयास कांग्रेस के नेता बन गए।

धर्मसत्ता: धर्मसत्ता समाज में बहुत शक्तिशाली होती है। पुरोहित वर्ग धर्मसत्ता का अंग है। उसे मान-सम्मान, धन आदि प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। मठाधिपति, साधु-संत, प्रवचनकार जनता के आदर और स्नेह के पात्र होते हैं।

ज्ञानशक्ति: व्यक्ति को प्रतिष्ठा देने में ज्ञानशक्ति का योगदान बहुत बड़ा है। सामान्य जीवन में पढ़ा लिखा आदमी आदर का पात्र होता है। अनपढ़ों में एकाध पढ़ा हुआ व्यक्ति बहुत विद्वान समझा जाता है। जिसके पास विज्ञान का, अर्थशास्त्र का, समाजशास्त्र का, Managment शास्त्र का, सूचना तथा प्रौद्योगिकी का, आधुनिक तंत्रज्ञान का, व्यापार का ज्ञान होता है वह आज के जमाने में बहुत शक्तिशाली व्यक्ति समझा जाता है।

Media शक्ति: आधुनिक काल में Print Media तथा Electronic Media शक्तिशाली माना जाता है। उसकी शक्ति से राजनेता से लेकर धर्मनेता तक सभी डरते हैं। इस शक्ति के कारण राजसत्ता भी पलट जाती है। बोफोर्स कांड इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। पिछले साल कुछ विधायकों को घुसखोरी कांड में फंसाया गया। Media जिस के हाथ में है उसकी समाज पर सत्ता होती है। ‘Media rules the world‘ यह आज का मंत्र है।

संघटनशक्ति: अपना समाज जाति तथा पंथों में बंटा है। जिस जाति या पंथ के पास संघटन शक्ति होती है वह जाति या पंथ राजसत्ता को भी झुका देते हैं। ऐसे जाति या पंथ का अंग होने के कारण व्यक्ति के खिलाफ उंगली उठाना आसान बात नहीं होती।

यह सात कारण व्यक्ति को सशक्त बनाते हैं। इन सात शक्तिकेन्द्रों का बंटवारा समाज में समता के तत्तव के अनुसार कभी नहीं होता। जिसके पास शक्ति है वह उस शक्ति को कभी छोड़ना नहीं चाहता। शक्ति का एक समान गुणधर्म है Concentration करने का। राजपरिवार हमेशा यही चाहेगा कि सत्ता उसके परिवार के बाहर कभी न जाए। धनवान व्यक्ति भी यही चाहेगा कि धन उसके परिवार में ही सीमित रहे। डॉक्टर चाहेगा कि अपना बेटा या बेटी ही डाक्टर बने। इंजीनियर भी यही चाहेगा। धर्मसत्ता भी इसके लिए अपवाद नहीं है। जो गृहस्थी धर्माचार्य है वे अपनी बेटी या बेटे को ही उत्ताराधिकारी बनाते हैं। पूज्य पांडुरंग शास्त्रीजी की विरासत उनके बेटी के पास गई। यह स्वभाविक मनुष्य प्रवृत्ति है। इसे दुनिया की कोई भी ताकत या तत्तवज्ञान बदल नहीं सकता।

जिसके पास अल्पमात्रा में भी शक्ति या ज्ञान होता है वह उसे किसी के साथ बांटना नहीं चाहता। इसका एक रोचक उदाहरण मैं देना चाहूंगा। कुछ साल पहले लोनावाला में (पूना के पास) हम बैठक के लिए गए थे। बैठक समाप्त होने के पश्चात् घूमने के लिए एक सुमो चाहिए थी। एक सज्जन ने बताया, फलाने गली में सुमो का अड्डा है, वहां सुमो मिलेगी। उस जगह का पता पूछने के लिए आठ-दस दुकानवालों को हमने पूछा। उनका जवाब था, “हम आपको सुमो देते हैं। सुमो का अड्डा कहां हैं, पता नहीं।” दुकानकार ऐसा इसलिए कह रहे थे कि सुमो पर उसे कमीशन मिलने वाला था। उसे वह गंवाना नहीं चाहता था। यह प्रवृत्ति सभी क्षेत्र में रहती है। मैंने अगर ज्ञान दिया या information दी तो मेरा घाटा होगा। मेरे लिए Competitor खड़ा होगा यह भय रहता है।

व्यक्ति को सशक्त करने वाले केन्द्र तक पहुंचना समाज के दुर्बल और पिछड़े वर्ग के लिए महा कठिन काम है। जन्म के कारण जो विषमता पैदा होती है उसे दूर करना और भी कठिन कार्य है। समाज का कोई भी सशक्त वर्ग समता का तत्वज्ञान पढ़कर उसकी आवश्यकता महसूस कर समतायुक्त व्यवहार नहीं करेगा। समतायुक्त व्यवहार का अर्थ होता है Sharing of power, sharing of benifits of power. वह दयाभाव से दान देगा। पुण्य प्राप्ति के लिए या प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए सेवा कार्य में हाथ बढ़ाएगा लेकिन अपने मर्म की बात वह किसी के साथ Share नहीं करेगा।

शक्ति का दूसरा गुणधर्म है शोषण का और यह गुणधर्म जागतिक (Universal) है। जिसके पास शक्ति है वह जाने या अनजाने में भी शोषण करते रहता है। शोषण विषमता की जननी है। विषमता के 5 प्रकार हैं। (1) सामाजिक विषमता, (2) आर्थिक विषमता, (3) राजनैतिक विषमता, (4) धार्मिक विषमता, (5) सांस्कृतिक विषमता। जातिभेद सामाजिक विषमता को जन्म देता है। जातिभेद के कारण Graded inequality की उपज है। जो जिस जाति में जन्मा है वह अंत तक वही रहता है। डॉ. बाबासाहब जी के शब्दों में कहना हो तो, “हिन्दू समाज अनेक मंजिलों की इमारत है और उसकी कोई सीढ़ी नहीं। आर्थिक विषमता धन के विषम बंटवारे के कारण होती है। मार्क्‍स का Surplus value का सिध्दांत यहां पर काम करता है। श्रमिक का धन श्रम होता है। लेकिन उसका मूल्य धनवान व्यक्ति तय करता है। इसी प्रकार का विश्लेषण अन्य कारणों का भी किया जा सकता है। परन्तु विस्तार भय के कारण हम इन विषयों को यहीं छोड़ देते हैं।

सब प्रकार की विषमता के कारण समाज पुरूष को Cancer जैसी भयंकर बीमारी लग जाती है। Cancer ग्रस्त व्यक्ति का एक ही भवितव्य सुनिश्चित है- मृत्यु! जिस समाज पुरूष के शरीर में सब प्रकार की विषमता का Cancer घुसा है उसकी मृत्यु को कोई टाल नहीं सकता। भारत सहित दुनिया के समाज के इतिहास का अगर हम अवलोकन करे तो इस सत्य को समझने में कठिनाई नहीं होगी। बंगाल के संदर्भ में स्वामी विवेकानन्दजी ने लिखा है कि आप धनिक और उच्चवर्गीय लोग सोने की थाली में खाना खा रहे थे। गरीब, दीनदुखी, भूखे, कंगाल अपने ही बांधवों की ओर ध्‍यान देने के लिए आपके पास समय नहीं था। अन्न के कारण लोग भूखे मर रहे हैं। इस पीड़ा को भगवान को सहा नहीं गया। ईश्वर न्याय किया और आपको सबक सिखाने के लिए मुस्लिम आक्रामकों को भेज दिया। विवेकानंदवाणी ऐसे समय बहुत कड़वी होती है।

पांच प्रकार की विषमता व्यक्ति को दस प्रकार से दुर्बल बनाती है। (1) सब प्रकार के ज्ञान से उसे वंचित रखती है।, (2) उसे निर्धन बनाती है।, (3) उसे अंधविश्वासी बना देती है।, (4) उसका सांस्कृतिक अध:पतन करती है।, (5) निर्धन और गरीब होने के कारण उसका जीवन पशुतुल्य बन जाता है।, (6) सब प्रकार की पराधीनता का वो शिकार बन जाता है।, (7) आत्मविश्वास, आत्मतेज खो बैठता है।, (8) समाज की सभी प्रकार की व्यवस्था में वह उदासीन बन जाता है।, (9) जब परकीय आक्रमण होता है तब उसके खिलाफ लड़ने की उसकी मानसिकता नहीं रहती।, (10) परधर्मियों का वह आसानी से शिकार बन जाता है।

समाज की उदासीनता के संदर्भ में इसाप की कहानी याद आती है। एक धोबी था। उसका एक गधा था। एक दिन उस गांव में परचक्र आया। लोग भागने लगे। धोबी गधे को कहता है, “अरे तू भी भाग जा। आक्रमणकारी तुझे पकड़ ले जाएंगे।” तब गधा कहता है, इसे मुझमें क्या फरक पड़ने वाला है? मालिक बदल जाएगा; बोझा तो वही ढोना है। बोझ ही ढोना है तो मेरे लिए मालिक कौन है, इसका कोई मतलब नहीं रहता। इसाप फिर से विदारक सत्य की बात करता है। पूने के पास कोरे गांव में अंग्रेजों की पेशवा के साथ 1918 में अंतिम लड़ाई हुई। जिसमें पेशवा हार गए। मराठी राज्य की इतिश्री हो गई। अंग्रेजों की फौज यहां के ही अस्पृश्यवर्ग के महार जाति की थी। उत्तर पेशवाई में अस्पृश्य वर्ग पर जो अनन्वित अत्याचार किये गए इसके कारण महारों को यह राज्य अपना राज्य है ऐसा नहीं लगा।

व्यक्ति को दुर्बल बनाने वाले दस कारणों का निराकरण करने की सबसे बड़ी शक्ति राज्य यंत्रणा में (State power) होती है। राज्य का यह काम है कि वह समाज के दुर्बल वर्ग को सबल बनाए। आरक्षण इसका एक तरीका है। आरक्षण के कारण दुर्बल वर्गों को अवसर उपलब्ध होता है। आरक्षण के बिना अवसर उपलब्ध होना असंभव है। आरक्षण के कारण Participatory role बढ़ता है। सहभागिता के बिना समरसता असंभव है। सहभागिता के कारण जो कार्य चलता है उसके विषय में आत्मभाव निर्माण होता है। संस्था जीवन में सहभागिता है तो वह संस्था अपनी लगेगी। गांव के ग्रंथालय से लेकर संसद तक समाज के सभी वर्गों की सहभागिता रहेगी तब इन सभी संस्थाओं के संदर्भ में आत्मीय भाव जगेगा। संस्था व्यक्तियों के कारण बनती है। एरवाद विचार जीवनमूल्य और ध्‍येय संस्था की आधारशिला होती है। आत्मीयता का मतलब होता है व्यक्तियों के प्रति आत्मीय भाव, मूल्यों के प्रति आत्मीयभाव, ध्‍येय के प्रति आत्मीयभाव विशेष अवसर देकर और हर स्थान पर आरक्षण की व्यवस्था कर सहभागिता की भावना को बढ़ावा देना चाहिए।

राजसत्ता को यह काम कैसे करना चाहिए इस विषय में एक पुरानी कहानी है। वह कहानी करूणा सागर भगवान गौतम बुध्द ने बताई है। वाराणसी का एक राजा था। उसके पास थोड़ा धन जमा हो गया। वह यज्ञ करना चाहता था। राजपुरोहित को उसने यज्ञ के बारे में पूछा। राजपुरोहित ने उसे कहा, “महाराज यज्ञ करने के लिए यह समय अनुकूल नहीं है। अपने राज्य में युवक बेकार हैं। खेती की उपज बहुत कम है। राज्य का व्यापार घटता जा रहा है। मेरी सलाह है कि जो धन राजकोष में जमा हुआ है उसका सदुपयोग करना चाहिए। कास्तकारों को उत्तम बीज, खाद तथा खेती के अवसर देने चाहिए। इसके कारण खेती की उपज बढ़ेगी और राजस्व भी बढेग़ा। जो युवा अपना निजी व्यवसाय करना चाहते हैं उन्हे पूंजी देनी चाहिए। सरकारी कामों को बढ़ाकर बेरोजगारों को काम देना चाहिए। उसके कारण भी राजस्व बढ़ेगा। व्यापार के लिए व्यापारियों को धन देना चाहिए। अच्छी सड़कें बनानी चाहिए। सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध करने चाहिए। इससे भी राजस्व बढ़ेगा।” राजा ने वैसे ही किया। संपत्ति निर्माण के कारण धन बढ़ गया। लोग खुशहाल हो गए। राज्य का विकास हो गया।

आज के राज्य शासन को इस कथा से सबक सीखना चाहिए। धनपति के लिए सेज निर्माण करने से विषमता बढ़ेगी। दुर्बल वर्गों को प्रशिक्षित कर उनको पूंजीपति बनाने की योजना बनानी चाहिए। शिक्षा के निजीकरण के कारण दुर्बल वर्ग आधुनिक शिक्षा से वंचित रहेगा। आवश्यकता है शिक्षा के वंचितीकरण करने की। वंचित वर्ग के लिए केवल विद्यमान शिक्षा प्रणाली में आरक्षण पर्याप्त नहीं। उनके सक्षमीकरण के लिए विशेष शिक्षण संस्था University बनाने की आवश्यकता है। Banking क्षेत्र, आई.टी. Biotechnology, Hoteling, पर्यटन, Marketing इत्यादि आधुनिक क्षेत्र में प्रशिक्षित कर हमारे पिछडे बंधुओं को प्रगति का विशेष अवसर देना चाहिए। किसी एक जमाने में समाजवादी समाजरचना यह अपना नारा था। उसके कुछ अच्छे-बुरे दोनों पहलू हैं। अब हमारा नारा होना चाहिए समरसतावादी समाजरचना। समाज के सभी शक्ति केन्द्रों में समाज के दुर्बल पिछड़े वंचित वर्गों का सहभाग बढ़ाने की नीति अपनानी पड़ेगी। ऐसी नीति का एक vision document तैयार करना चाहिए और उसे कठोरता से क्रियान्वित करना चाहिए।

जैसा कि हम पहले ऊपर लिख चुके हैं Sharing of power vkSj sharing of benefits of power इसके लिए व्यक्ति तथा व्यक्ति समूह कभी तैयार नहीं होता। जो व्यवस्था बनी रहती है उसमें एक जबरदस्त vested interest lobby तैयार हो जाती है। समाज का उच्चवर्णीय हमेशा आरक्षण का विरोध ही करेगा। समाज का पूंजीपति वर्ग आर्थिक समता को कभी स्वीकार नहीं करेगा। समाज का राजनीतिक वर्ग power sharing के लिए तैयार नहीं होगा। (महिला आरक्षण विधेयक इसका ज्वलंत उदाहण है।) आरक्षण का जिनको लाभ हो रहा है ऐसा वर्ग भी क्रीमी लेअर की संकल्पना को स्वीकार नहीं करता। उसका भी vested interest group बन गया है। सभी के विरोध को पैरों तले दबा कर जिस प्रकार राजर्षि शाहू महाराज ने समाज के वंचितों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया उसी नीति का कड़ाई से पालन करना चाहिए। आरक्षण का प्रश्न केवल मात्र शिक्षा, रोजगार, सक्षमीकरण तक ही सीमित नहीं, आज यह विषय अपने अस्तित्व के साथ जुड़ा है। जब तक हमारे समाज के अंतिम पंक्ति का अंतिम व्यक्ति सबल नहीं बनता तब तक हम किसी भी प्रकार के आतंकवाद से लड़ नहीं सकते। अन्तरराष्ट्रीय Eco-terrorism से नहीं लड़ सकते, अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक आक्रमण से नहीं लड़ सकते; इस तथ्य पर शांत चित्त से हमें विचार करना चाहिए।

(लेखक सुप्रसिध्द चिंतक व ‘विवेक’ मराठी साप्ताहिक पत्रिका के संपादक हैं)

राष्ट्रवाद बनाम महा-राष्ट्रद्रोह

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लेखक- जयराम दास

देश के छ: राज्‍यों में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। चुंकि मुख्यधारा के चार राज्‍यों में मोटे तौर पर भाजपा बनाम कांग्रेस का ही विकल्प है, तो यह सवाल मौजूद है कि आखिर मतदाता किसका समर्थन करें, इस लेखक के नजर में चुनाव के तीन मुख्य मुद्दे इस बार चर्चा में रहना चाहिए वो है राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद और राष्ट्रवाद। हालांकि इसके अलावा भी ढेर सारी भौतिक उपलब्धियां और योजनायें ऐसी है जो जनमत के लिहाज से महत्‍वपूर्ण है लेकिन राष्ट्रवाद तो एक ऐसा मुद्दा है जो जन अस्तित्‍व से जुड़ा हुआ है। और निश्चय ही इसके आगे सारे मुद्दे गौण… नीरज के शब्‍दों में कहूं तो…. जब ना ये बस्ती रहेगी तू कहाँ रह पायेगा।

राष्ट्र नाम के भावनात्‍मकता पर आधारित इस पौराणिक इकाई-जिसे हम भारत के नाम से जानते हैं- को चुनौती है नक्‍सलवाद से, क्षेत्रवाद, जातिवाद, अलगाववाद, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद, छद्म-पंथनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकवाद आदि विभिन्‍न अवसरवादों से…. कुछ झलकियाँ देखें, नक्‍सलवाद की बात करें।

राष्ट्र नाम के भावनात्‍मकता पर आधारित इस पौराणिक इकाई-जिसे हम भारत के नाम से जानते हैं- को चुनौती है नक्‍सलवाद से, क्षेत्रवाद, जातिवाद, अलगाववाद, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद, छद्म-पंथनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकवाद आदि विभिन्‍न अवसरवादों से….

देखिये कितना अच्‍छा कर रहे हैं कांग्रेस के लोग? ‘चोर से कहो चोरी कर और साहूकार से कहो जागते रह’….छत्‍तीसगढ़ के आदिवासियों द्वारा शुरू किये अपने प्राण रक्षा के आंदोलन ‘सलवा जुडूम’ को विपक्ष के ही कांग्रेसी नेता द्वारा नेतृत्‍व और दूसरे गुट द्वारा विरोध। यानि चित हुआ नक्‍सलवाद तो सलवा जुडूम को नेतृत्‍व के लिए कांग्रेस का श्रेय, पट्ट हुए आदिवासी तो आप कहो कि हमने तो पहले ही विरोध किया था। और इससे भी मन नहीं भरा तो आंध्रा में जाकर पीडब्‍ल्यूजी से चुनावी समझौता। वाह, कितना प्‍यारा लगता है, मजलूमों-निर्दोषों के खून में सनी कुर्सिंया, करते रहो राजनीति भाई।

न केवल नक्‍सलवाद अपितु देश को तोड़ने वाले कुछ अन्‍य विचारों और घटनाओं का विश्‍लेषण करें। बिहार में आप टेबल पर बैठकर जातियों की सूची बना उसके प्रतिशतता एवं समीकरण के आधार पर चुनावी परिणाम की भविष्यवाणी कर सकते हैं। अभी एक ब्‍लॉग पर एक ‘विद्वान’ लेखक का आलेख पढ़ने को मिला जिसका आशय था कि बिहार में बाढ़ नीतिश कुमार की साजिश थी क्‍योंकि बाढ़ पीड़ित इलाका यादव बहुल है अत: नीतिश ने हिटलर की तरह पानी चेंबर (याद कीजिए गैस चेंबर) का इस्तेमाल कर गोप वंश का सफाया कर दिया। अब आप सोचे…….ऐसे बेहूदे तर्क रखने वाले की मानसिकता कितनी जहरीली होगी? वहाँ पर कांग्रेस की लाश पर पनपे उस लालूवादी भस्मासुर को आप क्‍या कहेंगे। इस तरह की सोच क्‍या किसी भी देशभक्त का हाड़ कंपा देने को काफी नहीं है? उत्‍तरप्रदेश की बात करें एक तरफ दौलत की बेटी मायावती हैं, कितने कसीदे पढ़ा जाय उनके शान में? फिर मुलायम हैं, उनके लिए सिमी से बढ़कर भारत भक्‍त संगठन और कोई नहीं। विस्फोट दर विस्फोट हर आतंकवादी हमले, हर पुलिसिया शहादत के बाद उस कुर्सीभक्‍त की सिमी पर आस्था और मजबूत होती जाती है। अमर रहे बेचारे अबू बशर, जिंदाबाद आजमगढ़। दिल्‍ली को देखें। महान अर्जुन अब जामिया से गिरफ्प्तार आरोपी की पैरवी करवायेंगे… मुशीरूल हसन अब विश्वविद्यालय की गांठ ढीली कर वकीलों की फीस भरेंगे। वाह… कितना प्‍यारा होगा हमारा वह देश…जहाँ किसी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी पर लगे हत्‍या, किसी स्कूल के छात्रा पर बलात्‍कार, किसी आफिस क्‍लर्क पर लगे घुसखोरी, आदि सभी तरह के आरोपों का बोझ अब अपनी गाठें ढीली कर संस्थानें उठायेगी। वाह जन्नत बन जायेगा भारत जन्नत और रहने वाले नागरिक ‘स्वर्गवासी’ बन ऐश करेंगे।

अब तो आप किसी भी तरह के अपराध करने से पहले किसी वयस्क शिक्षा केंद्र में प्रवेश ले लें….वकीलों के फीस की झंझट से मुक्ति और बोनस में आपके लिए लाबिंग करने का काम आपके उस्तादों पर, मेरा भारत महान। अफजल को जिंदा रखना हमारा मजहब, उसे भारत रत्न की उपाधि दे दिया जाना उचित ताकि यह शस्‍य श्यामला धरती ‘हरी’ भरी रह सके। आखिर बाबर को अयोध्‍या में प्रतिष्ठित कर ही तो नाम कमाया था हमने सहिष्‍णुता, संवदेनशीलता सौमनस्यता का। अभी तो मात्र तीन टुकड़ा में बटा है देश, आजादी से अब तक। कुछ छोटी-छोटी इकाइयाँ और खड़ी हो जाए कश्मीर टाईप तो झंडा उँचा होता हमारा। उड़ीसा में देखें। बड़े आये थे स्वामी बनने हुह! भले ही पांच लाख लोग जुटे हो आपकी अंतिम यात्रा में, इसको आपकी लोकप्रियता का नमूना मान लिया जाए? तो क्‍या आप लाट साहब हो गये?

ईसाई राज की स्थापना के पुण्‍य कार्य में लगे गोरे भोले-भाले लोगों का विरोध करने का साहस किया आपने? 200 साल तक वे हमें सभ्य बनाने की जी तोड़ कोशिश की, फिर भी आपने भगा दिया था उन्‍हें देश से बाहर। इतनी मिहनत से अर्जित राज-पाट की समाप्ति के बाद भी, बेचारे लगे हुए हैं, मसीही राज की स्थापना में और आपकी इतनी हिमाकत, कि वहाँ हिंदू धर्म की बात करें? कौन बरदाश्त करेगा आपको? पश्चिम से ‘धर्म’ लेकर आने वाले आपको मारेंगे ही और धर्म को अफीम मानने वाले माओवादी उसकी जिम्मेदारी लेंगे, उसको बचायेंगे। चलिये अच्‍छा हुआ अब सीख मिली होगी आपके शिष्यों को। भारत में रहकर भारतीय विचार की बात, आदिवासी बंधुओं के बीच विकास के कार्य? आपकी इतनी हिम्मत?

महाराष्ट्र की बात करें। पिट गये बेचारे परीक्षार्थी फिर महाराष्ट्र में, अरे बेवकूफ तुमने मुबंई को भी भारत का ही अंग समझ लिया था? राज के डंडे से तुम्हारा कलम मुकाबला करता वहाँ पर? रेलवे की परीक्षा दोगे तुम? भुर्ता बना देंगे मार-मार के। अभी तक तुमने पढ़ा था, कि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा ही सफलता का मूलमंत्र होता है, जिस दीये में जान होगी वो दिया जल जायगा को ही सच मान लिया था तुमने।

कुछ कुत्‍ते बिल्‍ली हैं और शेष बिल्‍ली टमाटर……… जैसे रिजनिंग के सवालों को तुम हल कर लोगे ढिबरी की रोशनी या लालटेन की विलासिता में। हलाल होने जाती मुर्गी के तरह ट्रेनों में जगह भी पा लोगे, लेकिन मुबंई में? क्‍या सोचते हो राज साहब छोड़ देंगे तुम्हें? और विलासराव जी छोड़ने देंगे तम्हें? कुछ कुत्‍ते बिल्‍ली पाल लो अगर जी गये वापस आकर तो, लेकिन मुगालते मत पालो।

खैर! उपरोक्त जैसी ढेर सारी बिडंबनाओं के लिए केवल कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीतियाँ ही जिम्मेदार है। बिजली, पानी, सड़क, अधोसंरचना, गांव, गरीब, किसान इन सबकी बातें अपनी जगह है। सरकारों ने ढेर सारे विकास कार्य किये भी हैं। इस चुनाव की एक मुख्य बात यह है कि मुख्यधारा के इन चार राज्‍यों में कमोवेश द्विदलीय व्यवस्था जैसी ही है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि जहाँ भी भाजपा सत्‍ता में है या जहाँ उसका प्रभाव है वहाँ कोई क्षेत्रीय दुर्भावनायें सर नहीं उठा पायी है। केवल राष्ट्रीय दलों का उन-उन राज्‍यों में प्रभुत्‍व भाजपा की सफलता ही कही जाएगी। तो जब भी अब कहीं भी चुनाव हो केवल राष्ट्रवाद ही पब्‍लिक एजेंडा होनी चाहिए और मतदाताओं के चयन का मानदंड भी शायद यही बातें होंगी और इस मायने में भाजपा अपने प्रतिद्वंद्वी से मीलों आगे हैं।

(लेखक छत्‍तीसगढ़ भाजपा के कार्यसमिति के सदस्य एवं पार्टी के मुखपत्र दीपकमल के संपादक हैं)

विदेशी भाषा और भारतीय भाषाओं के मीडिया की प्राथमिकताएं

लेखक : डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

भारत में मीडिया की दो समांतर धाराएं प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। एक धारा है विदेशी भाषा के मीडिया की और दूसरी धारा है भारतीय भाषाओं के मीडिया की। भारत में विदेशी भाषा का मीडिया मुख्य तौर पर अंग्रेजी भाषा तक ही सीमित है। पुदुच्चेरी और में फ्रांसीसी भाषा का भी थोड़ा बहुत मीडिया है और गोआ दमन दीव में पुर्तगाली भाषा की कुछ पत्र-पत्रिकाएं भी निकलती हैं। गोवा से प्रकाशित पुर्तगाली दैनिक ‘ओ हेराल्डो’ पिछले कुछ दिनों से अब अंग्रेजी में भी प्रकाशित होने लगा है। भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता में सभी भारतीय भाषाओं की शमूलियत है।

पिछले दिनों की तीन घटनाओं को आधार बनाकर विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया की प्राथमिकताओं का विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। ये तीन घटनाएं हैं गुजरात के विधानसभा चुनाव, रामसेतु आंदोलन, विशेषकर 30 दिसंबर को दिल्ली में रामेश्वरम रामसेतु रक्षा मंच की ओर से की गई विशाल राष्ट्रीय महासभा और उड़ीसा के कंधमाल जिला में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी महाराज पर क्रिसमस के दिन ईसाई संगठनों द्वारा किया गया घातक आक्रमण। इन तीनों घटनाओं का मीडिया में विवरण जिस प्रकार छपा या छप रहा है वह अपने आप में विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया की प्राथमिकताओं को स्पष्ट करता है। गुजरात के विधानसभा के चुनावों की घटना और उड़ीसा में स्वामी जी पर आक्रमण की घटना का विश्लेषण दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी एवं गुजरात/उड़ीसा से प्रकाशित गुजराती और उड़िया भाषा के समाचार पत्रों में प्रकाशित विवरण को आधार बनाया गया है। जबकि रामसेतु की विशाल राष्ट्रीय सभा के लिए दिल्ली से ही प्रकाशित अंग्रेजी और हिन्दी भाषा के समाचार पत्रों को आधार बनाया गया है। दिल्ली में तीन प्रमुख अंग्रेजी समाचार पत्रों टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस के हिन्दी संस्करण भी नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान और जनसत्ता के नाम से निकलते हैं। ये समाचार पत्र ज्यादातर अंग्रेजी संस्करणों के अनुवाद पर ही आधारित है और अपने मूल अंग्रेजी अखबार की रसगंध को हिन्दी भाषा में परोसने को दोयम दर्जे का प्रयास है। इसलिए इन तीनों हिन्दी अखबारों का शुमार उनके अंग्रेजी संस्करणों में ही कर लिया है। अलग से उन्हें भारतीय भाषा के मीडिया में शामिल नहीं किया गया है।

सबसे पहले गुजरात के विधानसभा के चुनावों की घटना का विश्लेषण करें। उस काल के दो महीने के निम्न चार अंग्रेजी अखबारों, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस और दि हिन्दू को विश्लेषण के लिए प्रयुक्त किया जाएगा और इसी प्रकार गुजरात से प्रकाशित गुजराती भाषा के अखबारों-संदेश, गुजरात समाचार, दिव्य भास्कर, जय हिन्द और प्रभात को आधार बनाया गया है। उस विश्लेषण के आधार पर निम्न निष्कर्ष सहज ही स्पष्ट दिखाई देते हैं। इस विश्लेषण में अंग्रेजी और गुजराती के उपरोक्त समाचार पत्रों में प्रकाशित संपादक के नाम पत्रों को भी शामिल किया गया है।

निष्कर्ष :- अंग्रेजी भाषा के उपरोक्त समाचार पत्रों के आधार पर

1. नरेन्द्र मोदी घोर सांप्रदायिक व्यक्ति है।

2. वे गुजरात में मुसलमानों का विरोध करते हैं।

3. गुजरात में सरकार द्वारा मुसलमानों को प्रताड़ित किया जा रहा है और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक माना जा रहा है।

4. सोहराबुद्दीन की पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु राज्य सरकार द्वारा किया गया एक कत्ल ही है।

5. मोदी की दृष्टि में मुसलमान आतंकवादी है जबकि ऐसा नहीं है।

6. मोदी गुजरात को हिन्दू और मुस्लिम के आधार पर बांट रहे हैं।

7. मोदी हिन्दुत्व का एजेंडा लागू कर रहे हैं।

8. नरेन्द्र मोदी जनजातिय क्षेत्रों में चर्च और इस्लाम का कार्य दूभर कर रहे हैं।

9. नरेन्द्र मोदी तानाशाह है।

10. नरेन्द्र मोदी अफजल गुरु और सोहराबुद्दीन का प्रश्न उठाकर मुसलमानों को अन्यायपूर्ण ढंग से बदनाम कर रहे हैं।

इसके विपरीत गुजराती भाषा के मीडिया के आधार पर निम्न निष्कर्ष सहज ही निकलते हैं।

1. नरेन्द्र मोदी ने गुजरात से आतंकवाद को समाप्त किया है।

2. नरेन्द्र मोदी के सख्त प्रशासन के कारण ही आतंकवादी गुजरात में घुसने और कोई घटना करने से घबराते हैं।

3. सोहराबुद्दीन की घटना के बाद दूसरे आतंकवादी गुजरात में कोई वारदात करने से डरने लगे।

4. तथाकथित सेकुलर पार्टियां मुसलमानों और आतंकवादियों को शह भी देती हैं और वोट की खातिर उनका तुष्टिकरण भी करती है। लेकिन मोदी वोट की खातिर किसी का तुष्टिकरण नहीं करते।

5. आतंकवाद से मुकाबला सख्ती से किया जा सकता है तुष्टिकरण से नहीं। गुजरात इस विषय में राह दिखा रहा है।

6. अफजल गुरू को फांसी न देकर कांग्रेस और सीपीएम मुसलमानों को राष्ट्रीय हितों को दरकिनार करते हुए भी प्रसन्न करने की कोशिश कर रही है।

इन दोनों निष्कर्षों के अवलोकन से प्रश्न उठता है कि एक ही घटना पर विदेशी भाषा का मीडिया और भारतीय भाषाओं का मीडिया लगभग परस्पर विरोधी खेमे में ही खड़ा क्याें दिखाई देता है? ऐसा क्यों है कि सोहराबुद्दीन की मुठभेड़ की घटना को लेकर गुजराती भाषा के अखबार और अंग्रेजी भाषा के अखबार अलग प्रकार से करते हैंघ् इसका मुख्य कारण विभिन्न मुद्दों और विभिन्न स्थितियों को लेकर अंग्रेजी मीडिया की मानसिकता जिस धरातल पर अवस्थित है वह गुजराती भाषा के मीडिया से या फिर भारतीय भाषा के मीडिया से बिल्कुल अलग है। एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिए कि भारतीय भाषाओं के मीडिया और विदेशी भाषाओं के मीडिया के पाठक वर्ग भी लगभग अलग-अलग ही है। भारतीय भाषाओं के मीडिया का पाठक आम आदमी है जिसमें खबर की भूख दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। विदेशी भाषा के मीडिया का वर्ग खास आदमी है, उसकी संख्या सीमित है परंतु उसका प्रभाव ज्यादा है। विभिन्न मुद्दों से संबंधित अवधारणाओं के स्तर पर भी ये दोनों पाठक वर्ग काफी अलग-अलग है। उदाहरण के लिए सांप्रदायिकता को लेकर इन दोनों वर्गों की अवधारणा में जमीन आसमान का फर्क है। विदेशी भाषा के मीडिया का पाठक वर्ग ऐसी जगहों पर रहता है जहां आदमी-आदमी के बीच संपर्क भी कम है और संबंधों के स्तर पर एक और औपचारिकता बनी रहती है। इन स्थानों पर भीड़ कम है स्थान ज्यादा है। एक खुलापन भी है। आपसी संपर्क और संबंध न्यूनतम स्तर पर ही विद्यमान है। इसलिए इस वर्ग के लिए सांप्रदायिकता किताबों में पढ़ा हुआ शब्द है जिसको उसके समग्र रूप में देखपाना इनके लिए संभव ही नहीं है। यदि और ढंग से कहें तो कहा जा सकता है यह पाठक वृंद गांधीनगर का पाठक वृंद है। इसके विपरीत भारतीय भाषाओं के अथवा गुजराती भाषाओं के मीडिया का पाठक वृंद ठेठ अहमदाबाद में रहता है। उसके लिए सांप्रदायिकता महज कागज पर छपा हुआ शब्द नहीं है बल्कि नित्यप्रति के परस्पर व्यवहार और अनुभव के भीतर से उपजा और निर्मित एक यथार्थ है। उस यथार्थ में सोहराबुद्दीन नित्यप्रति मूर्त रूप में घूमता है। अफजल गुरू भी घूमता है। उनकी ऑंखें घूरती हैं और कर्म भय पैदा करते हैं। इस सांप्रदायिकता के बीच में से ही उसे नित्यप्रति गुजरना है। इसलिए उससे वह बच भी नहीं सकता। ये नित्यप्रति की संकरी गलियां हैं। जहां सांप्रदायिकता से नित्य-नित्य मुठभेड़ होती है। इन पाठकों का क्रोध इस बात से उपजता है। यह सांप्रदायिक चेहरा कभी हाजी मस्तान के रूप में प्रकट होता है, कभी दाऊद अब्राहिम के रूप में प्रकट होता है, कभी सोहराबुद्दीन के रूप में प्रकट होता है और कभी अफजल गुरू के रूप में प्रकट होता है। कभी यह तस्लीमुद्दीन बनकर आता है और कभी ईश्रतजहां बनकर रात्रि के अंधकार में निशाचरों की तरह घूमता है। राज्यसत्ता इन निशाचरों से वोट की खातिर हाथ मिला लेती है। आम आदमी का यह पाठक वर्ग इस मिलते हुए हाथ को देखता भी है और उससे सहमता भी है। आम आदमी का इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि सोहराबुद्दीन को किसने मारा और कैसे मारा? उसके मरने की खबर पर वह राहत महसूस करता है जैसे गली-मोहल्ले में घूमता हुआ कोई पागल कुत्ता मरता है तो लोग खुश होते हैं कि जीवन सुरक्षित हो गया है। लेकिन जब जीवजंतुओं के प्रति करूणा की वकालत करने वाला कोई संगठन पागल कुत्ते को मारने के खिलाफ अभियान चला दे तो स्वभाविक है यह पाठक वृंद अभियान चलाने वालों की ओर आश्चर्य भरी नजरों से ही देखेगा। विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषाओं के मीडिया की प्राथमिकताओं और दृष्टिकोण के अलग होने का रहस्य भी यही है। दूर से बैठकर पागल कुत्ते के प्रति करूणा की मांग करना एक बात है और उस कुत्ते के साथ रहते हुए एक दिन उसे मरा हुआ देखकर भयमुक्त होने के एहसास से प्रसन्न होना दूसरी बात है। अंग्रेजी भाषा का मीडिया इस देश में घट रही घटनाओं को दूर बैठकर केवल द्रष्टा के रूप में देखता है और भारतीय भाषाओं का मीडिया उन स्थितियों को भोक्ता के रूप में देखता है। इसका कारण भी स्पष्ट है। पहले मीडिया का पाठक केवल द्रष्टा है और दूसरे मीडिया का पाठक स्वयं भोक्ता है।

रामसेतु बचाने के लिए दिल्ली में विशाल राष्ट्रीय महासभा-दूसरी घटना 30 दिसंबर 2007 को दिल्ली के स्वर्णजयंती पार्क में रामसेतु को बचाने के लिए की गई विशाल राष्ट्रीय महासभा है। इस सभा में देश के प्रत्येक हिस्से से लाखों लोगों ने शिरकत की। लद्दाख से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक के लोग आए थे। केरल से लेकर पंजाब तक से लोग स्वयं अपना किराया खर्च कर इस राष्ट्रीय सभा में भागीदारी करने के लिए आए थे। हजारों दिल्लीवासी भक्तिभाव से इन रामभक्तों के लिए भोजन तैयार करने में लगे हुए थे। अनेक मोहल्लों में रामभक्तों को रोक-रोक कर लोग आग्रहपूर्वक फल खाने को दे रहे थे। इस पूरे घटनाक्रम की रपट विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया में बिल्कुल ही अलग-अलग प्रकार से हुई। टाइम्स ऑफ इंडिया की रपट इस प्रकार की थी कि लाखों लोगों के आ जाने से दिल्लीवासियों को बहुत कष्ट हुआ, सड़कों पर जाम लग गया और लोग रविवार का आनंद नहीं मना सके। दिल्ली शोर शराबे को माहौल में डूब गई। परिवहन व्यवस्था में अफरा-तफरी मच गई। टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक करोड़ की आबादी वाले दिल्ली प्रदेश में से किसी एक महिला से इस राष्ट्रीय सभा के बारे में पूछा भी। उसने कहा कि मैं हर रविवार को मेट्रो से अपनी बहन को मिलने के लिए शाहदरा जाती हूँ लेकिन इस अव्यवस्था के कारण नहीं जा सकी। रपट का स्वर कुछ ऐसा था कि इस महिला के अपनी बहन से न मिल पाने के कारण इस राष्ट्रीय महा सभा ने बड़ा ही अहित किया है। एक अन्य अंग्रेजी अखबार ने मानो एक बहुत बड़ा रहस्योद्धाटन किया। एक सज्जन ट्रेन पकड़ने के लिए आए थे। टिकट लेना उनकी आदत में शुमार नहीं था। वे टीटी को कुछ पैसे देकर सुखपूर्वक यात्रा करूँगा यह सोच कर चले थे। लेकिन रामसेतु पर हो रही इस राष्ट्रीय सभा में भाग लेने वालों की भीड़ के कारण टीटी इन सज्जन की सहायता नहीं कर सके। अंग्रेजी अखबार के अनुसार इस राष्ट्रीय सभा के कारण जनता को हो रहे कष्ट की यह पराकाष्ठा है।

इसके विपरीत दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी भाषा के समाचार पत्रों पंजाब केसरी और दैनिक जागरण की रपट का स्वर बिल्कुल भिन्न था। इनके अनुसार इस राष्ट्रीय सभा से सारी दिल्ली राममय हुई। रामभक्तों का स्वागत करने के लिए उमड़ पड़े हजारों दिल्लीवासी। दिल्ली में जगह-जगह उनका स्वागत हो रहा था और लोग उनके ठहरने और भोजन की व्यवस्था में संलग्न थे। दिल्ली की भारतीय भाषाओं के अखबारों ने तो कई दिन पहले से ही खबरें देनी शुरू कर दी थी कि इस राष्ट्रीय सभा में भाग लेने के लिए आ रहे रामभक्तों का स्वागत करने के लिए दिल्ली के लोग किस प्रकार की तैयारियाँ कर रहे हैं।

इन दोनों रपटों को पढ़ने के बाद प्रश्न पैदा होता है कि क्या कारण है एक ही घटना पर रपट देते हुए मीडिया का एक वर्ग कहता है कि इससे दिल्ली के लोग प्रसन्न हो रहे हैं और दूसरा वर्ग कहता है कि इससे दिल्ली के लोगों का कष्ट बढ़ रहा है। इसका कारण भी उसी मानसिकता में खोजना होगा जो विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया के पाठक वर्ग को अलग-अलग करती है। विदेशी भाषा के मीडिया का पाठक वर्ग नई कालोनियों में है। डिफे न्स कालोनी, डीएलएफ कालोनी में है, अंसल प्लाजा में है, टीडीआई में है और सरकारी बाबुओं में है। (बाबुओं से हमारा अभिप्राय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों से है।) जैसा कि ऊपर हमने संकेत किया है कि दोनों वर्गों की अवधारणाओं में स्पष्ट ही अंतर है। एक वर्ग ऐसा है जो प्रात: काल ब्रह्ममुहर्त में समीप के मंदिर में हो रही आरती को सुनकर प्रसन्न होता है और दूसरा वर्ग ऐसा है जो उसी आरती को सुनकर नाक भौं सिकोड़ता है कि इससे सुबह की नींद में खलल पड़ता है। यह वही वर्ग है जो रामजन्मभूमि पर मंदिर बनाने को नकार कर वहां एकता के लिए पार्क बनाने का सुझाव देता है। लेकिन वह यह नहीं जानता कि पार्क से उपजी एकता एक ही खुरचन में खत्म हो जाती है। आरती से उपजी एकता लंबे अरसे तक चलती है। अंग्रेजी अखबारों और भारतीय भाषाओं के अखबारों द्वारा इस राष्ट्रीय महा सभा पर की गई रपट उनकी प्राथमिकता भी निश्चित करती है। अंग्रेजी मीडिया के लिए भारतीयता से जुड़ी चीजें और क्रियाकलाप अंग्रेजों द्वारा स्थापित सभ्यता और जीवन पध्दति में खलल पैदा करती है।

उड़ीसा के कंधमाल की घटना-उड़ीसा के कंधमाल में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी महाराज पर 24 दिसंबर को ईसाई संगठनों ने घातक आक्रमण कर दिया। स्वामी जी घायल हुए और उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। स्वभाविक ही उड़ीसा के लोगों में इस पर प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने 4 घंटे का शांतिपूर्ण बंद रखा। गुस्से में आए कुछ लोगों ने चर्च की कुछ झोपड़ियां भी जला दीं। इन झोपड़ियों पर सलीव का निशान भी लगा हुआ था। इसलिए इनको चर्च का जलाना कहा गया। ब्राह्मणी गांव में ईसाइयों ने दो सौ लोगों के घर जला दिए। इस घटना की रपट अंग्रेजी मीडिया और उड़िया भाषा के मीडिया में बिल्कुल अलग-अलग प्रकार से आनी प्रारंभ हुई और अभी तक आ रही है। दिल्ली में स्थित लगभग विदेशी भाषा का समग्र मीडिया (एक आध अपवाद को छोड़कर) की रपट का मुख्य स्वर निम्न प्रकार से सारणीबध्द किया जा सकता है।

1. उड़ीसा में ईसाइयों पर अत्याचार हो रहे हैं। उनके घरों को जलाया जा रहा है और चर्च फूंके जा रहे हैं।

2. सरकार ईसाइयों की रक्षा करने में बुरी तरह असफल रही है।

इसके विपरीत उड़ीसा के उड़िया भाषी समाचार पत्रों यथा-संवाद, समाज, धरित्री, प्रजातंत्र, अमरी कथा, उड़ीसा भास्कर, पर्यवेक्षक इत्यादि में कंधमाल की घटना को लेकर जो रपटें छप रही है उनका मुख्य स्वर निम्न प्रकार से है।

1. ईसाई मिशनरियां व्यापक स्तर पर उड़ीसा के जनजातीय लोगों के घरों को जला रही है। लोगों को धमकाया जा रहा है।

2. मंदिरों में तोड़फोड़ की जा रही है।

3. सरकार उड़ीसा के लोगों की ईसाई मिशनरियों के आक्रमणों से रक्षा नहीं कर पा रही।

4. ईसाई मिशनरियों के इशारे पर एक सांसद इन आक्रमणों को भड़का रहा है।

5. माओवादी और चर्च उड़ीसा के लोगों पर आक्रमण करने में आपस में मिल गए हैं।

6. जनजाति के लोगों पर आधुनिक हथियारों से आक्रमण किये जा रहे हैं।

विदेशी भाषा के मीडिया की प्राथमिकताएं और भारतीय भाषाओं के मीडिया की प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए जब किसी मंदिर में लोग भजन कीर्तन के लिए एकत्रित होते हैं तो भारतीय भाषा के मीडिया के लिए यह भक्ति का ज्वार उमडना है लेकिन अंग्रेजी मीडिया के लिए यह शोर शराबा और सामान्य जीवन में होने वाला खलल है। उसका कारण शायद भारत में अंग्रेजों के शासन काल से ही खोजना होगा। अग्रेजों के लिए मंदिर के भीड खलल भी है और खतरा भी है। उसी मानसिकता को आज तक विदेशी भाषा अंग्रेजी का मीडिया ढो रहा है और इसी प्राथमिकता के आधार पर अंग्रेजी मीडिया किसी भी घटना की रपट करता है।

इस मानसिकता और प्राथमिकता का एक और कारण भी है। जिन दिनों अंग्रेज इस देश पर राज करते थे, वे यहां के भारतीय समाज को अपने लिए खतरा समझते थे और मुस्लिम समाज एवं ईसाई समाज को अपना पक्षधर मानते थे। इसलिए बहुसंख्यक भारतीय समाज का कोई भी कृत्य उनकी दृष्टि में निंदनीय और ईसाई व मुस्लिम समाज के लिए खतरनाक माना जाता था। अंग्रेजी मीडिया आज भी उसी मानसिकता को ढो रहा है। यही कारण है कि गुजरात का जननिर्णय,रामसेतु को लेकर हुई राष्ट्रीय महासभा और उडिया अस्मिता के लिए संघर्षरत ओडिया लोग अंग्रेजी मीडिया की दृष्टि में खतरनाक कृत्य हैं और मुस्लिम व ईसाई समाज के हितों के विपरीत हैं।

सारत: विदेशी भाषा के मीडिया की जडें ब्रिटिश शासनकाल की मानसिकता में गहरे धंसी हुई हैं। इसके विपरीत भारतीय भाषाओं के मीडिया की जडें उसी संघर्ष में से उपजी हैं जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ आम भारतीय ने किया था।

(लेखक हिंदुस्‍थान समाचार एजेंसी से जुडे हैं)

सूचना का अधिकार और पारंपरिक जनसमाज

लेखिका- डा. स्मिता मिश्र

लोकतांत्रिक व्यवस्था को समृद्ध और सुरक्षित बनाने के लिए नागरिकों के अधिकारों में एक और अधिकार जुड़ गया है; `सूचना पाने का अधिकार।´ इसका अर्थ है कि प्रत्येक नागरिक को अपने जीवन के लिये जरूरी सूचना प्राप्त करने का अधिकार है। ऐसा माना जा रहा है, इस अधिकार से जहां शासन की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता आने की संभावना है वहीं नागरिकों की लोकतांत्रिक सक्रियता बढ़ाने का सर्वाधिक कारगर उपाय भी सिद्ध होगा।

भारतीय पारंपरिक ग्रामीण जनसमाज जहां सूचना का अधिकार तो दूर की बात है `अधिकार´ शब्द की ही व्याप्ति नहीं है। और यदि है तो वह प्रभुता संपन्न लोगों तक ही सीमित है। तो यह सोचने की बात है कि `सूचना का अधिकार´ नामक कानून किस तरह उन लाखों-असंख्य लोगों तक पहुंचेगा और वे लोग किस प्रकार इससे लाभान्वित हो सकेंगे! लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कस्बों और गांवों के लोग नगरों या महानगरों से जागरूक नहीं होते। कस्बों और गांवों से ही अनेक नेता निर्वाचित होकर शहरों में आते हैं, विचार मंथन में शिरकत करते हैं और उसका प्रभाव लेकर वापिस गांव या कस्बे लौटते रहते हैं तो उन्हें भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए वहां के लोगों में विचार-मंथन निष्कर्षों को संप्रेषित करते रहना पड़ता हैं। ग्रामीण शैक्षिक संस्थाओं के व्यक्ति पुस्तकों, समाचार-पत्रों, शहरी संपर्कों के द्वारा नयी चेतना से संपन्न होते रहते हैं। तीसरे पंचायतों में भी अब शिक्षित, विवेकवान लोग शामिल होते हैं। वे भी नये विचारों के संवाहक हो सकते हैं। इनके ही द्वारा जनता की पारंपरिक विचार जड़ता को तोड़ा जा सकता है। और विचार मंथन के क्षेत्र में जो कुछ नया हो रहा है उसकी सूचना से उसे जोड़ा जा सकता है।

अब विचारणीय है कि यह कार्य किस-किस स्वरूप में हो सकता है। ज़ाहिर है कि उपदेश या आदेश का प्रभाव स्थाई नहीं होता। जरूरत इस बात की है कि जनता को प्रीतिकर ढंग से नवचेतना की ओर उन्मुख करना है। और इस कार्य के लिये वे माध्‍यम अधिक कारगर होंगे जो जनता की पारंपरिकता से जुड़े हों। इनमें सर्वप्रथम मैं लोकगीतों की भूमिका को रूपायित करना चाहूंगी। लोकगीतों का लोकजीवन में अत्यंत व्यापक महत्व है। इनमें उनके सुख-दु:ख, अभाव-संघर्ष, समस्याएं, वर्गचेतना, वर्णचेतना, नर-नारी की अद्भुत प्रभावशाली व्याप्ति दिखाई पड़ती है। ये लोकगीत जीवन के सुख दु:ख, उल्लास-विषाद्, ऋतु मौसम, क्रिया-कलाप आदि अनेक संदर्भों से जुड़े होने के कारण संवेदना और रूप के वैविध्‍य से आभोक्ति होती है। ऐसे शक्तिशाली माध्‍यम का उपयोग नये कानून, नयी चेतना के विकास के लिये निश्चित रूप से किया जा सकता है। यहां सरकार और एनजीओ की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है कि वह लोगगायकों को फैलोशिप आदि देकर नयी चेतना के गाने बनाये और उनका प्रसार करे। जैसे एक लोकगीत में बांझ स्‍त्री अपने बांझपन के कारण घर-परिवार और समाज से प्रताडित होती है। और आत्महत्या करने के लिये नदी, बाघिन, आग आदि के पास जाती है और प्रार्थना करती है कि वे उसे मार दे किन्तु सभी यह कहकर मना कर देती हैं कि उसे मारने से वे भी बांझिन हो जाएंगी। अंत में धरती के पास जाती है। धरती तो मां है। वह उसे अपने में समा लेती है। अब यहां पर धरती के माध्‍यम से स्‍त्री की नयी ऊर्जा को जाग्रत करने का संदेश दिया जा सकता है कि धरती उस स्‍त्री को स्वाभिमान से जीने को प्रेरित करती है। बेटी ससुरा में रहिह तू चांद बनकर सबकि पुतरि के विचवा, पुरान बनकर भिनइ सबसे पहिले उठिह, ननद के मुंह से कबहु त लगिह ससुराजी के बाजे खरऊह, पानी लेके पहिले जइह। इस तरह के गीतों में जहां लड़की को ससुराल में मर्यादापालन सिखाया जा रहा है वहीं कर्तव्यबोध, आत्मसम्मान भी जाग्रत किया जा सकता है। इन गायकों के अनेक मंच हो सकते हैं। गांव-गांव में छोटे-छोटे कवि सम्मेलन, सरकार के अनुदाद से बाजार, हाट, मेला, उत्सव, स्कूल, पंचायत आदि में मजमा इकट्ठा कर अपनी बात कह सकते हैं। रेडियो, टीवी के माध्‍यम से इन गीतों को निरंतर प्रसारित किया जा सकता है। एक बहुत शक्तिशाली माध्‍यम है नुक्कड़ नाटक का। नाट्य मंडलियां जगह-जगह नुक्कड़-नाटक आयोजित कर नयी चेतना का प्रसार करती रहती है। ये मंडिलियां देहात जाकर नये अधिकार, नये कानून का प्रचार प्रसार करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इसी प्रकार कठपुतली या बंदरों का खेल तमाशा में लोककथा का प्रसार होता है। इस लोककथा के ढांचे भी पारंपरिक स्वर के स्थान पर नये स्वर को प्रमुखता दी जा सकती है। इसके लिये सरकारी तंत्र इन लोक कलाकारों को आर्थिक रूप से सहायता करके प्रचार माध्‍यम के रूप में प्रयोग कर सकती है। पंचायत का भी विभिन्न तरीकों से इस्तेमाल हो सकता है। पंचों को सरकार नयी सूचनाओं से अप-टु-डेट करे। उनके वर्कशॉप हों ताकि वही पंच गांव को नयी सूचनाओं से अप-टू-डेट कर सके। इस अवसर पर आगे-पीछे मनोरंजक माध्‍यमों का प्रयोग किया जा सकता है। यहां फिल्म भी दिखाई जा सकती है। फिल्म एक अत्यंत सशक्त माध्‍यम है। ऐसी फिल्में जहां ग्रामीणों ने, महिलाओं ने एकजुट होकर अपने हक की लड़ाई लड़ी हो चाहे वह मंथन हो, लगान हो या मिर्च मसाला।

इसी प्रकार समाचार पत्रों की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण है। जैसे कुछ वर्ष पहले मध्‍यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले की पीपरा बिमारी ग्राम पंचायत की अनुसूचित जाति की सरपंच गुंदिया बाई को वहां के प्रभावशाली लोगों ने स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने से रोकने पर वहां समाचार पत्रों ने इस घटना को भरपूर प्रचारित किया। परिणामस्वरूप आगामी स्वतंत्रता दिवस पर मुख्यमंत्री ने स्वयं गुंदिया बाई के हाथों टीकमगढ़ जिला मुख्यालय पर झंडा फहरवाया। इस दिशा में कथित राष्ट्रीय समाचार पत्रों की अपेक्षा छोटे पत्र-पत्रिकाएं बेहतर सिद्ध हो रहे हैं। यहां एनजीओ की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। कई एनजीओ के द्वारा छोटी-छोटी जगहों से बेहतर समाचार-पत्र-पत्रिका निकाल रहे हैं। जैसे मध्‍यप्रदेश में देवास जिले से एकलव्य संस्था – `पंचतंत्र´ पत्रिका, पीआईआई `ग्रासरूट´ निकालती है। `खबर लहरिया´ समाचार पत्रा को `चमेली देवी´ पुरस्कार मिला। तब इसकी संपादक मीरादेवी व संवाददाता दुर्गा मिथिलेश आज के पत्रकारों की तरह नहीं हैं, न इनके शरीर पर ग्लैमरस ड्रेस पोशक है न मेकअप। उप अपनी जमीन की भाषा में समाचार प्रस्तुत करने का जो अंदाज देवगांव वह बड़े-बड़े समाचारपत्रों में नहीं दिखाई पड़ती। आज हमारे अखबारी भाषा में जो तेवर गायब होते जा रहे हैं वे यहां पूरी ताकत के साथ मौजूद हैं। इनके विषयों में जहां विकासमूलक, स्थानीय मुद्दे हावी रहते हैं, वहीं राष्ट्रीय स्तर की हलचलों से भी ये नावाकिफ नहीं रहते। इसे वायन की सहायता से भी प्रस्तुत किया जा सकता है। एफएम पर इसे डाला जा सकता है। गांववालों की ही आवाज में गांव से जुड़े मुद्दों पर सूचना प्राप्त करने, उनपर विश्लेषण करने तथा राय बनाने में ये अखबार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके अतिरिक्त धार्मिक सत्संग, अभियान जत्था, स्वयं सहायता ग्रुप आदि भी सूचना के अधिकार को ग्रामीणों तक पहुंचाने में अत्यंत सहायक सिद्ध होंगे। ये नारी संबंधी मुद्दे जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, अधिकार, स्वरोजगार आदि पर जागरूकता लाने के काफी कारगर सिद्ध होंगे।

आखिर में एक कविता से बात खत्म करूंगी। आकाश से बहती है एक नदी और ऊपर ही ऊपर पी लेता कोई उसे, धरती प्यासी की प्यासी रहती है और कहने को आकाश से नदी बहती है। यदि सूचना का अधिकार नामक कानून आकाश से उतरकर प्यासी धरती तक पहुंचेगा तभी लोकतंत्र की सही पहचान होगी अन्यथा कागजी कानूनों की सूची में एक कानून और जुड़कर रह जाएगी।

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यलय मे लेक्चरर और मीडिया विश्लेषक हैं)

रंगभूमि का नायक

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लेखक- विकास कौशिक

मैं मुन्ना भाई नहीं हूं…मुझे मेरे सामने जीते जागते महात्मा गांधी नजर नहीं आते…लेकिन सच कहूं…सपने में मुंशी प्रेमचंद से मेरी मुलाकात होती है। और सुनिये ये मामला किसी कैमीकल लोचे का नहीं मामला सचमुच इस वक्त के सबसे बड़े लोचे का है। बहरहाल आपको बताउं मुंशी जी ने मुझसे क्या कहा…वो मुझे रंगभूमि में ले गए…अरे वही रंगभूमि जिसे आप हम सभी कभी ना कभी पढ़ चुके हैं..सब कुछ याद नहीं रख सकते इसीलिए भूल भी चुके हैं। वैसे मुंशी जी अपने साथ पिछले कुछ दिनों की अखबारी कतरने लिए घूम रहे थे..बोले- यार हालात अब भी नहीं बदले…रंगभूमि में भी यही हुआ था। गरीबों की बस्ती में कई एकड़ जमीन पर मालिकाना हक रखने वाला अंधा भिखारी सूरदास अमीर पूंजीपति और स्थानीय प्रशासकों की मिलीभगत से अपनी ज़मीन गंवा देता है..सूरदास की जमीन हड़पने में मदद करने वाले सूरदास के वही पड़ोसी होते हैं जिनके भले के लिए ही सूरदास किसी भी कीमत पर अपनी जमीन देने के लिए राजी नही होता। सूरदास और उसके साथियों में फूट पड जाती है और फिर होता वही है जो किसी भी समाज में सर्वजन के हित में नहीं होना चाहिए। यानि लालच…राजनीति…क्षुद्र भावनाओं की चपेट में आकर समाज टूटता है…झूठ की जय जयकार होती है और सच अपना मुहं छिपाकर रोता है।

इसके बाद प्रेमचंद बाबू रोआंसे कम और आक्रामक ज्ञानी ज्यादा हो गए…बोले …ये सिर्फ इसी कहानी का नहीं पूरी दुनिया में होने वाली ज्यादातर ज्यादतियों का लब्बो-लुबाव है। जब आपस में प्यार से जुड़ी हुई कड़िया खुलने लगती है…जब हम एक दूसरे को खलने लगते हैं…स्वार्थों के लिए आपस में जलने लगते हैं। तब हमारा इतिहास हमारी बर्बादी की गवाही देने की तैयारी करने लगता है। हजारों साल से हिंदुस्तान के इतिहास में भी यही तो होता आया है। पहले शासक आपस में लड़कर रियासतों में बंट गए। अंग्रेज आए तो उन्हें पहले से बंटे इन रजवाड़ों को उखाड़ने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी फिर भी उन्होंने जो कोशिशें की उसे उनकी क््क्ष्ज्क्ष्क््क ॠक्् ङछक घ्क्ष्क् के रुप में प्रसिध्दि मिली। 300 सालों तक उनके शासन का इतिहास देखकर तो यही लगता है कि दुनिया में शायद ही राज करने की ऐसी कोई दूसरी नीति रही होगी।

मैंनें भी प्रेमचंद जी की हां में हां मिलाई। वो और एक्साइटिड होकर बोले….

लेकिन विकास जी मैं तो ये मानता हूं कि 300 साल तक रहे इस जुल्मी ब्रितानी शासन का श्रेय अंग्रेजो की तोड़कर राज करने की नीति को नही बल्कि हमारी टूटते जाने…बिखरकर कमजोर होते जाने और आखिर में घुटने टेक देने की रीति को जाता है।

चुप होकर एक ठंडी आह भरकर कहा ….स्साला…जब दुनिया भर में राजनैतिक सामाजिक चेतना का विकास हो रहा था तक हमारे यहां देश को अंग्रेजों के हाथों बेचने की तैयारी हो रही थी। प्लासी की लड़ाई से लेकर जिन्ना की अलग मुल्क की मांग और उसके लिए मचे खून खराबे तक हमारे इतिहास में जयचंदों की कहीं कोई कमी नहीं रही। इतिहास गवाह है कि समाज को तोड़ने वालों को बार बार विजय इसलिए मिलती रही क्योंकि हम कमजोर नहीं अपितु विभाजित थे। इसलिए अपने ही देश में हम शासक नहीं बल्कि शासित बने रहे।

हूं………मेरे मुहं से आवाज निकली। और उन्होंनें लपक ली। बोलते गए….

हम विभाजित थे इसलिए हमे हराना आसान था सो हम हारते गए और शत्रु जीतते गए…यही रंगभूमि में हुआ और यही मुल्क में।

लेकिन सुनों बाबू सिर्फ यही तस्वीर नहीं है….इसका भी दूसरा पहलू है जब हमने अपनी ताकत को पहचाना और हमारी खुली और बिखरी हथेली एकजुट होकर बंद मुठ्ठी बन गई तब हमें देश की आजादी भी मिल गई। ये एकता का ही प्रभाव है कि आजादी की लड़ाई लड़ने और जीतने का श्रेय हमें धर्म जाति के नाम पर तोड़ने वाली किसी मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा को नहीं बल्कि महात्मा गांधी की राष्ट्रीय एकता को बल देने वाली शक्ति को जाता है। एकता की सफलता का ये इतिहास सिर्फ हमारा नहीं वरन दुनिया भर में एक झंडे के तले इकठ्ठा होकर अपना हक मांगने के लिए लडी लड़ाइयों का गर्वीला अतीत है। चाहें फ्रांसीसी क्रांति हो या रुस की बाल्शेविक क्रांति या फिर रंगभेद के खिलाफ दुनियाभर में चले आंदोलन।

पुरानी बातें कहते कहते अचानक उनका हाथ झोले में कुछ पुरानी आखबारी कतरनों की तरफ चला गया मुझे दिखाते हुए बोले और ये देखो हालिया ही..हमारे पड़ोसी नेपाल में जनता का राजशाही के खिलाफ चला जन आंदोलन …और ये देखो पाकिस्तान में लोग कैसे मुर्शरफ के पुतले जलाकर जस्टिस चौधरी जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं…देखो इन्हें सिया सुन्नी के नाम पर बंट जाने वाले लोग कैसे जस्टिस चौधरी यानि लोकतंत्रवाद के लिए निरंकुश ताकत के सामने कैसे खड़े हो गए हैं।

जान लो बेटा…दुनिया भर में किसी भी जनआंदोलन को तभी सफलता मिली जब पूरा जनसमुदाय पूरे मन से उसका हिस्सा रहा। सियासतदानों ने चाहे जितना कुचलने की कोशिश की हो लेकिन एक एक से ग्यारह होने वालों के सामने उनकी बारुदी तोपे भी ज्यादा टिक नहीं सकी।…

अब तक मैं भी प्रेमचंद जी के साथ फ्रेंक हो चुका था…लगा अपना भी साहित्य ज्ञान बघार लूं..तो मैंने भी बचपन से सुनी कहानी ठोंकते हुए बोला…सर आप ठीक कह रहे हैं…लेकिन परेशानी ये है कि हम कुछ याद नहीं रखते अब देखिये ये कहानी कितनी फेमस थी जिसमें एक किसान अपने लड़ते झगड़ते रहने वाले लड़को को एकता का सबक सिखाने के लिए उन्हें पहले एक एक लकड़ी को तोड़ने को देता है और फिर लकडियों को एक गठ्ठर में मजबूती से बांधकर उन्हें ये बताता है कि जब आप एक साथ हो तो इन लकडियों की तरह कोई आपको भी नहीं तोड़ पायेगा।और तो और पचतंत्र में भी कहा गया है कि एकता से कार्य सिध्द होते हैं। लेकिन अफसोस हमारी पुरानी पीढ़ी ने अपने वक्त की इन कहानियों से कुछ नहीं सीखा….मैंने कहा।

अचानक प्रेमबाबू को ताव आ गया…तुनक कर बोले ..बस कर दी ना हताशों वाली बात…पुरानों को गरियाकर अपना पल्ला झाड़ लिया ना। मैं तुमसे पूछता हूं। तुम्हारी पीढ़ी ने क्या सीखा..लगान देखकर..बहुत सीटियां बजाई थी सिनेमा हॉल में बैठकर। वाह, क्या चमत्कारिक कहानी थी…सिर्फ एकीकरण की ताकत के आधार पर दबे कुचले किसानों ने अंग्रेजो को उन्हीं के खेल में हरा दिया था। बोलो हीरो… क्या ये एकता की ताकत का उदाहरण नहीं है जो किसी को भी मजबूती से किसी के भी सामने खड़ा सिखा दे।

कहकर वो थोड़े नर्म हो गए….बेटा…पीढ़ी नई हो या पुरानी वो ना कहानियों से सीखती है और ना ही गलतियों से। इसी का नतीजा है कि तीन सौ सालों तक गुलाम रहने के बावजूद कभी द्रविड़ राज्यों में भाषा के नाम पर ,कभी दूसरे राज्यों में धर्म.जाति के नाम पर आपस में लड़ते रहते हो। हाल ही में उत्तर भारत को हिला कर रखने वाले गुर्जर मीणा आरक्षण विवाद और डेरा सच्चा सौदा -अकाल तख्त विवाद जैसी घटनाएं क्यूं सामने आई…क्या तुम्हारी धार्मिक भावनाएं,तुम्हारे विश्वास आस्था इतनी कमजोर हैं कि कोई भी अपने ढ़ंग से कोई बात कहें तो तुम्हें अपने धर्म समाज पर आंच नजर आने लगती हैं तुम लड़ने मरने को तैयार हो जाते हो…क्यूं आरक्षण जैसी व्यवस्थाएं देश के एकीकरण से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है।

शायद इसलिए कि हमारे लिए तत्काल लाभ ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं…दूरगामी दृष्टि का पतन हो जाता है…मेरे मुंह से निकल गया।

ठीक कह रहे हो…इसी चक्कर में सब भूल जाते हैं, कि विकास, आधुनिकीकरण और आकांक्षाओं की अंधी उडान ने तुमसे तुम्हारे परिवार भी छीन लिए हैं। एकता की भावना हमारे समाज से ही नहीं हमारे परिवारों से भी लुप्त होती जा रही है…न्यूकिलीयर फैमिली…यही कहते हो ना तुम। हम दो हमारे दो…और मां-बाप को गोल कर दो। यही एजेंडा होता है ना तुम्हारा। अरे तम्हारी इसी सोच ने सब कुछ छीन लिया है तुमसे। बुर्जुगों का आशीर्वाद ,उनकी छाया,प्यार सब कुछ। और नतीजा सामाजिक पारिवारिक बिखराव के रुप में तुम्हें हर कहीं मिलेगा।क्या सचमुच ये विभाजन से जन्मा पतन नहीं है।क्या ये पतन हमें उन्ही पुरानी गलतियों की तरफ नहीं धकेल रहा जिनकी वजह से कभी हम गुलाम हुऐ थे…क्या समाज टूटने के कारण तब कुछ अलग थे …नहीं बिल्कुल नहीं सच बिल्कुल अलग है। दरअसल हम भूल गए थे कि जहां आपस में संघर्ष होने लगता है वहां समाज टिक नहीं पाता। इसलिए अपने विद्वान पूर्वजों ने भी भी चेतावनी दी है कि जिस प्रकार जंगल में हवा के प्रकोप से एक ही वृक्ष की शाखाएं आपस में रगड़ कर अग्नि पैदा करती है और उसमें वो वृक्ष ही नही वरन पूरा वन ही जलकर भस्म हो जाता है। उसी प्रकार समाज भी आपसी कलहाग्नि और द्वेषाग्नि से भस्म हो जाता है। जहां आपसी कलह है वहां शक्ति का क्षय अवश्यभामी है। क्या तुम अंदाजा भी लगा सकते हो आज तक देश में जितने दंगे और विवाद हुए हैं उनमें कितने रुपयों की हानि हुई होगी…उतने पैसे में जनकल्याण और तरक्की के कितने काम हो सकते थे…

ये सोचने से पहले ही मेरा दिमाग चकरा गया…

उन्होंनें फिर बोलना शुरु किया’——

इन्ही सब वजहों से देश पहले कमजोर हुआ था और कमजोरों को दबाने लूटने की इच्छा सभी को होती है। पहले भी कोई राज्य अपने पड़ोसी पर आक्रमण होने पर मदद के लिए ना दौड़ता था…और ना ही आज हम दौडते हैं। और तुम अपनी क्यों नही कहते…सड़क चलते किसी ऑटो शिव खेड़ा का कथन देखते हो….यदि आपके पडोसी पर अत्याचार हो रहा है और आपको नींद आ जाती है तो अगला नंबर आपका है —पढ़ते ही कितना सोचते हो…कितना जोश में आ जाते हो…और कुछ मिनटों बाद जब बस में कोई कंडक्टर किसी मामूली से बात पर किसी सहयात्री को बेइज्जत करता है, मारपीट करता है या उसे बस से उतारने पर आमादा हो जाता है तो तुम्हें क्या हो जाता है…क्यूं तुम उसका साथ नहीं देते।

क्या ये नपुंसकता…ये एकता का अभाव ये सामाजिक बिखराव,अपनी और पराई पीर के बीच का ये विभाजन हमारे पतन के लिए जिम्मेदार नहीं है। खैर छोड़….वैसे एक बात और बताता हूं…आजकल तुम्हारे यहां ये सोशल इंजीनियरिंग बहुत पॉपुलर हो रहा है….उन्होंनें फिर गहरी सांस ली और अपने आप से बुदबुदाते हुए बोले …ठाकुर का कुआं लिखते वक्त मैने कुछ गलत नहीं सोचा था वाकई सोशल इंजीनियरिंग कमाल की चीज है।

ठाकुर का कुंआ से सोशल इंजीनियरिंग का क्या ताल्लुक् है… मैने पूछा ।वो बोले मेरे लाल…ठाकुर के कुएं से दलितो और शाषितों ने स्वर्णो के साथ मिलकर पानी निकाला था…ठीक वैसे ही जैसे मायावती ने सरकार बना ली। जब उन्हें तिलक तराजू और तलवार को जूते मार कर कुछ नहीं मिला तो एकछत्र राज की खातिर सबको गले लगा लिया…सबको साथ लेकर चलने का फार्मूला अपना लिया।नतीजा सबके सामने है…आज वो अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनाने की स्थिति में है…हो सकता है कल खुद प्रधानमंत्री बनने की हैसियत में हो।

मैंने सोचा सच है। वक्त बदला है ,समाज बदला है हम ना बदले तो मिट जायेंगे।

ठीक सोच रहे हो….. ऐं…..ये तो सोचते को भी पकड़ लेते हैं…

पर अब वो फिर बोलने के मूड़ में थे…बोले …बिन सहकार नहीं उध्दार,सब साथ नहीं चलेंगे तो भला कैसे होगा। तुलसीदास जी ने कहा था– गगन चढ़हि रज पवन प्रसंगा। यानि हवा का साथ पाकर घूल का कण भी आसमान छू लेता है। ना मालूम हम में से कौन कौन धूल का कण हो और कौन हवा का झोंका।अगर आसमान छूना है तो सबको एक दूसरे का साथ देकर आगे बढ़ना होगा।तभी सूरज उगेगा तभी उम्मीदों का सवेरा होगा।

सूरज के सातों रंग मिलते हैं एक साथ —तभी होता है प्रकाश।

इकाइयों से खिसककर दहाइयों, सैंकडो हजारों में ,जब होती है एकाकार, तभी तो होता है, राष्ट्रीय एकता का जीवंत प्रतिबिंब साकार।

ये कहते ही जोर की हवा चली और मुंशी जी साकार से निराकार हो गये…और रंगभूमि बुकशेल्फ से मेरे मुहं पर गिरकर मुझे जगा गया।

(लेखक एक इलेक्‍ट्रॉनिक न्‍यूज चैनल से जुडे है)

हिन्दी पत्रकारिता के भविष्य की दिशा

लेखक- डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

आज जब हम हिन्दी पत्रकारिता की बात करते हैं तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का विश्वामित्र ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी.पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलनी शुरू हुई उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबारें शासकों की भाषा में निकलती थीं इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। चैन्नई का हिन्दू, कोलकाता का स्टेटसमैन मुम्बई का टाईम्स आफ इंडिया, लखनऊ का नेशनल हेराल्ड और पायोनियर, दिल्ली का हिन्दुस्तान टाईम्स और बाद में इंडियन एक्सप्रेस भी। ये सभी अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासको की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुख भोगते रहे।

परंतु पिछले दो दशकों में ही हिन्दी अखबारों ने प्रसार और प्रभाव के क्षेत्र में जो छलांगे लगाई हैं वह आश्चर्यचकित कर देने वाली हैं। जालंधर से प्रारंभ हुई हिन्दी अखबार पंजाब केसरी पूरे उत्तरी भारत में अखबार न रहकर एक आंदोलन बन गई है। जालंधर के बाद पंजाब केसरी हरियाणा से छपने लगी उसके बाद धर्मशाला से और फिर दिल्ली से।

जहां तक पंजाब केसरी की मार का प्रश्न है उसने सीमांत राजस्थान और उत्तर प्रदेश को भी अपने शिकंजे में लिया है। दस लाख से भी ज्यादा संख्या में छपने वाला पंजाब केसरी आज पूरे उत्तरी भारत का प्रतिनिधि बनने की स्थिति में आ गया है ।

जागरण तभी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से छपता था और जाहिर है कि वह उसी में बिकता भी था परंतु पिछले 20 सालों में जागरण सही अर्थो में देश का राष्ट्रीय अखबार बनने की स्थिति में आ गया है। इसके अनेकों संस्करण दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार झारखंड, पंजाब, जम्मू कश्मीर, और हिमाचल से प्रकाशित होते हैं। यहां तक कि जागरण ने सिलीगुडी से भी अपना संस्करण प्रारंभ कर उत्तरी बंगाल, दार्जिलिंग, कालेबुंग और सिक्किम तक में अपनी पैठ बनाई है।

अमर उजाला जो किसी वक्त उजाला से टूटा था, उसने पंजाब तक में अपनी पैठ बनाई । दैनिक भास्कर की कहानी पिछले कुछ सालों की कहानी है। पूरे उत्तरी और पश्चिमी भारत में अपनी जगह बनाता हुआ भास्कर गुजरात तक पहुंचा है। भास्कर ने एक नया प्रयोग हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशन शुरू कर किया है। भास्कर के गुजराती संस्करण ने तो अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। दैनिक भास्कर ने महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी नागपुर से अपना संस्करण प्रारंभ करके वहां के मराठी भाषा के समाचार पत्रों को भी बिक्री में मात दे दी है।

एक ऐसा ही प्रयोग जयपुर से प्रकाशित राजस्थान पत्रिका का कहा जा सकता है, पंजाब से पंजाब केसरी का प्रयोग और राजस्थान से राजस्थान पत्रिका का प्रयोग भारतीय भाषाओं की पत्रिकारिता में अपने समय का अभूतपूर्व प्रयोग है। राजस्थान पत्रिका राजस्थान के प्रमुख नगरों से एक साथ अपने संस्करण प्रकाशित करती है। लेकिन पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई संस्करण प्रकाशित करके दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रयोग को लेकर चले आ रहे मिथको को तोड़ा है। पत्रिका अहमदाबाद सूरत कोलकाता, हुबली और बैंगलूरू से भी अपने संस्करण प्रकाशित करती है और यह सभी के सभी हिंदी भाषी क्षेत्र है। इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया मध्य भारत की सबसे बड़ा अखबार है जिसके संस्करण्ा अनेक हिंदी भाषी नगरों से प्रकाशित होते हैं।

यहां एक और तथ्य की ओर संकेत करना उचित रहेगा कि अहिंदी भाषी क्षेत्रों में जिन अखबारों का सर्वाधिक प्रचलन है वे अंग्रेजी भाषा के नहीं बल्कि वहां की स्थानीय भाषा के अखबार हैं। मलयालम भाषा में प्रकाशित मलयालम मनोरमा के आगे अंग्रेजी के सब अखबार बौने पड़ रहे हैं। तमिलनाडु में तांथी, उडिया का समाज, गुजराती का दिव्यभास्कर, गुजरात समाचार, संदेश, पंजाबी में अजीत, बंगला के आनंद बाजार पत्रिका और वर्तमान अंग्रेजी अखबार के भविष्य को चुनौती दे रहे हैं। यहां एक और बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि हिन्दी भाषी राज्यों में अंग्रेजी अखबारों की खपत हिंदी अखबारों के मुकाबले दयनीय स्थिति में है। अहिंदी भाषी क्षेत्रों की राजधानियों यथा गुवाहाटी भुवनेश्वर, अहमदाबाद, गांतोक इत्यादि में अंग्रेजी भाषा की खपत गिने चुने वर्गों तक सीमित है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि राजधानी में यह हालत है तो मुफसिल नगरों में अंग्रेजी अखबारों की क्या हालत होगी? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अंग्रेजी अखबार दिल्ली, चंडीगढ़, मुम्बई आदि उत्तर भारतीय नगरों के बलबूते पर खड़े हैं। इन अखबारों को दरअसल शासकीय सहायता और संरक्षण प्राप्त है। इसलिए इन्हें शासकीय प्रतिष्ठा प्राप्त है। ये प्रकृति में क्षेत्रिय हैं (टाइम्स ऑफ इंडिया के विभिन्न संस्करण इसके उदाहरण है।) मूल स्वभाव में भी ये समाचारोन्मुखी न होकर मनोरंजन करने में ही विश्वास करते हैं । लेकिन शासकीय व्यवस्था ने इनका नामकरण राष्ट्रीय किया हुआ है। जिस प्रकार अपने यहां गरीब आदमी का नाम कुबेरदास रखने की परंपरा है। जिसकी दोनों ऑंखें गायब हैं वह कमलनयन है। भारतीय भाषा का मीडिया जो सचमुच राष्ट्रीय है वह सरकारी रिकार्ड में क्षेत्रीय लिखा गया है। शायद इसलिए कि गोरे बच्चे को नजर न लग जाए माता पिता उसका नाम कालूराम रख देते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि इतिहास में क्रांतियाँ कालूरामों ने की हैं। गोरे लाल गोरों के पीछे ही भागते रहे हैं। अंग्रेजी मीडिया की नब्ज अब भी वहीं टिक-टिक कर रही है। रहा सवाल भारतीय पत्रकारिता के भविष्य का, उसका भविष्य तो भारत के भविष्य से ही जुड़ा हुआ है। भारत का भविष्य उज्जवल है तो भारतीय पत्रकारिता का भविष्य भी उज्ज्वल ही होगा। यहां भारतीय पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का समावेश भी हो जाता है।

(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं व हिंदुस्थान समाचार एजेंसी से जुड़े हैं.)

हिन्दुत्व…एक दृष्टि और जीवन पध्दति

क्या हिंदुत्व को सच्चे अर्थों में धर्म कहना सही है? इस प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय ने -‘शास्त्री यज्ञपुरूष दासजी और अन्य रूदि्ध मूलदास भूरदास वैश्य और अन्य [1966 (3) एस.सी.आर. 242] के प्रकरण का विचार किया। इस प्रकरण में प्रश्न उठा था कि क्या स्वामी नारायण संप्रदाय हिंदुत्व का भाग है अथवा नहीं है?’ इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री गजेन्द्र गड़कर ने अपने निर्णय में लिखा- जब हम हिंदू धर्म के

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

लेखक- डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम समुन्नत संस्कृतियों में से एक है। इसकी सुदीर्घ परंपरा में अनेक मनीषी विद्वानों, मंत्र द्रष्टा ऋषियों तथा तत्ववेत्ता मुनियों के जीवनानुभवों के शाश्वत निष्कर्षों की संचित निधि जुड़ी है। इसकी वरेण्यता आप्त ऋषियों ने ‘सा संस्कृति विश्ववारा’ कहकर रेखांकित की है। इसी संस्कृति के आचरित चरित्र ने सर्व मानवों को प्रशिक्षित कर संस्कारित किया है। प्रमाण में यह श्लोक उध्दृत कर सकते हैं-

एतद्येश प्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मना,
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:।

संस्कृति सभ्यता नहीं है। सभ्यता जहां आचरण का बाह्य पक्ष है, वहां संस्कृति जीवन का आंतरिक सौन्दर्य है। जीवन जीने की दृष्टि है। शाश्वत मूल्यों की मंजूषा है। औदात्य की प्रतिष्ठा है। पवित्रता की लेखनी से लिखा जागतिक कर्मों का पावन संविधान है। उच्चासन पर विराजमान सारस्वत मूर्ति संतों का संभाषण है। अभ्युदय का विज्ञान तथा नि:श्रेयस का ज्ञान है। नैर्ष्कम्य का उपनिषद तथा जीवन मुक्ति का आरण्यक है। माधुर्य की भागवत ही नहीं, कर्म की गीता भी है। जीवन का सत ही नहीं, सृष्टि का ऋण भी है। सुख का श्वास ही नहीं, सिध्दि का विन्यास भी है। नवजागरण का शंखनाद ही नहीं, प्रगति एवं समृध्दि का पांचजन्य भी है। अत: गुणात्मक है। सर्व श्रध्देय है। इसके विपरीत सभ्यता सभाओं में बैठने की शिष्टता का मानदंड भर है। सृष्टि व्यवहार का औचित्य है। संस्कृति जहां आध्यात्मिक मूल्य है, वहां सभ्यता विज्ञानात्मक संचेतना है। संस्कृति जहां शाश्वत सत्यों को सहेजे है, वहां सभ्यता यांत्रिक परिणामात्मक उपयोगी सत्यों को सहेजे है। दोनों के वैभिन्य के बीच अंतर्बाह्यता की तथा आध्यात्मिक एवं भौतिकता की अति सूक्ष्म झीनी-सी पारदर्शी पट्टिका है, जिसे सरलता से पृथक करना कठिन है।

जब हम राष्ट्र के आगे सांस्कृतिक शब्द का प्रयोग करते हैं, तब तत्काल हमारा ध्यान, राष्ट्र जनों के उन जीवन-मूल्यों की ओर जाता है जो शाश्वत ही नहीं, राष्ट्र जीवन को अहम् से वयम् की ओर तथा सयम् से ओम तत्सत् की ओर ले जाने वाले हैं। राष्ट्र जीवन को पूर्ण एवं सार्थक बनाने वाले हैं। राष्ट्रजनों की अंतश्चेतना को विकसित एवं सृदृढ़ बनानेवाले हैं। इन्हीं सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आस्था जनित निष्ठा ही राष्ट्रजनों को राष्ट्रीय बनाती है। इस तरह राष्ट्रीयता का मूल स्वरूप राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक है। निश्चित भू भाग तथा निश्चित निष्ठावान जन तो भौतिक उपकरण हैं। संस्कृति ही आध्यात्मिक, गुणात्मक तथा शाश्वत जीवन-मूल्य है, जिनका अनुसरण करती प्रजा उसे राष्ट्र का रूप प्रदान करती है। मातृभूमि के प्रति भक्ति तथा जन के प्रति आत्मीयता का भाव सांस्कृतिक मूल्य हैं। यही तीनों मिलकर राष्ट्र को राष्ट्र बनाती हैं। राष्ट्र किन्हीं संप्रदायों तथा जन-समूहों का समुच्चय न होकर, एक जीवमान इकाई है। ऐसे राष्ट्र पुरूष का सजीव व्यक्तित्व है, जिसमें भूमि, जन एवं संस्कृति की जीवंत एकता का सतत निवास वर्तमान रहता है। दशम मंडल में ऋग्वेद के ऋषि से शिष्य पूछता है कि राष्ट्र पुरूष के जो विविध रूप दिए गए हैं वे कितने प्रकार से व्यकल्पित किए जा सकते हैं? मंत्र है-

यत् पुरूषं व्यवर्धु: कति धा व्यकल्पन्
मुखं किमस्य कौ बाहु का ऊरू पादा उच्यते? 10-8-11

तब ऋग्वेद का ऋषि उत्तर देता है-

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:

उरू तदस्य यद्वैश्य पद्मयां शूद्रो अजायत्। (10-9-92)

अर्थात् राष्ट्र पुरूष का मुख ब्राह्मण, बाहु राजन्य, उरू वैश्य तथा पादशूद्र है। चारों वर्णों के संघात से ही राष्ट्र प्रमुख का निर्माण होता है। इनमें कौन बड़ा है और कौन छोटा, यह कहना अपराध ही होगा। कर्म निष्ठा ही चारों के लिए मुक्ति प्रदाता बनती है। इस मंत्र के आशय को इस प्रकार भी व्याख्यायित कर सकते हैं कि समाज जीवन में चार प्रकार की मनुष्य प्रवृत्तिायां कार्यरत हैं, बुध्दि, सूक्ति, अर्थ तथा श्रम शक्ति। बुध्दि ज्ञान का पथ प्रशस्त करती है। शक्ति सीमाओं की रक्षा करती है आंतरिक अराजकता का शमन करती है। अर्थ औद्यौगिक एवं व्यापारिक विकास का हेतु है तथा श्रम विकास की योजनाओं की सम्पूर्ति का एकमेव साधन है।

स्वीकृत सांस्कृतिक जीवन दृष्टि ही एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से पृथक करती है। प्रत्येक राष्ट्र उसकी स्वीकृत जीवन दृष्टि से ही पहिचाना जाता है। पृथकता की यह स्वीकृति तथा इसका सैध्दांतिक पक्ष ही राष्ट्रवाद को जन्म देता है। कोई भी विचार तभी वाद का रूप लेता है जब उसके आचरण कर्ता उस विचार को जीवन का एक अंग बना लेते हैं। राष्ट्र को सामने रखकर जब कोई सिध्दांत या चिंतन निरूपित होता है, तब वह विचार राष्ट्रवाद के नाम से अभिहित किया जाता है। राष्ट्रवादी हर कार्य को राष्ट्र की तात्कालिक परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए निर्धारित एवं व्यवहारित करता है। फिर चाहे वह प्रश्न राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा का हो या जन के मौलिक अधिकारों की संरक्षा का या संस्कृति की गरिमापूर्ण मर्यादा को सुरक्षित रखने का। राष्ट्रवादी पहले अपने राष्ट्र का हित देखता है। उसके पश्चात् ही नीति निर्धारित करता है तथा आवश्यक संरक्षात्मक कदम उठाता है।

यहां यह प्रश्न उपस्थित हो आना स्वाभाविक है। जब राष्ट्र की परिभाषा में संस्कृति शब्द समाहित है तब राष्ट्रवाद के आगे अतिरिक्त सांस्कृतिक शब्द लगाने की क्यों आवश्यकता पड़ी। सच में यह एक गंभीर प्रश्न है तथा गहराई से विवेचन की अपेक्षा रखता है। संस्कृत शब्द में ‘ठक्’ प्रत्यय लगकर ‘कितिच’ सूत्रानुसार सांस्कृतिक शब्द बनता है। इसे हम संस्कृति का भाववाचीकरण कह सकते हैं। सांस्कृतिक शब्द अपनी परिधि की व्यापकता में संस्कृति के सभी उपादानों एवं उपकरणों को समेटे होता है। हम जानते हैं संस्कृति शब्द ‘कृ’ धातु से ‘सम’ उपसर्ग पूर्वक ‘सुट्’ आगम करके ‘क्तिन’ प्रत्यय के योग से निष्पन्न है। ‘सम’ उपसर्ग जहां भी जुड़ता है वह वहां संस्कारित अथवा सुन्दरीकृत का अर्थ देता है। ‘सम’ के सभी अर्थ पश्चात्वर्ती शब्द को विशेषित करते हैं। विद्वान उसके दो ही अर्थ मुख्य रूप से ग्रहण करते हैं। एक तो संस्कारित सम्यक कृति और दूसरा संभूय कृति के रूप में। संघश: कृति सम्भूय कृति कहलाती है। इस तरह संस्कृति संस्कार युक्त सम्भूय कृति है। संस्कार, सामाजिक विद्रूपताओं के साथ मनीषियों के बौध्दिक संघर्ष का सुपरिणाम है। मनुष्य उन पर विजय के पश्चात जिन तात्विक एवं सात्विक निष्कर्षों पर पहुंचता है, वे निष्कर्ष ही शनै:-शनै: संस्कृति बनते चलते हैं। मानवीय जीवन मूल्य बन जाते हैं। कह सकते हैं मानव के जीवनानुभवों का नवनीत ही संस्कृति है। समाज से संघर्ष का क्रम निरंतर बना ही रहता है। इस कारण संस्कृति में नैरंतर्य बना रहता है। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित रहेगा कि संस्कृति की स्वीकृत जीवन-दृष्टि में कहीं कोई बदलाव नहीं आता। ऐसे निष्कर्ष संस्कृति के आचरण पक्ष के उपादानों एवं उपकरणों में अभिवृध्दि ही करते हैं। प्रत्येक राष्ट्र अपनी सांसकृतिक परंपरा के शाश्वत मूल्यों से जब तक जुड़ा चलता है, तब तक वह जीवंत एवं समुन्नत बना रहता है। स्खलन उसकी गरिमा तथा प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाता है। मर्यादाओं को नष्ट ही नहीं करता, उपेक्षा तथा तिरस्कार का भाव जगा, परिणामगत दुर्बलताओं को स्वीकारने में भी संकोच नहीं करता। हम जानते हैं सांस्कृतिक स्खलन के कारण ही विश्व के अनेक राष्ट्र मिट गये। इकबाल ने कहा भी है-

यूनान मिश्र रोमां सब मिट गये जहां से
अब तक मगर है बाकी नामोनिशा हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।

यह जो ‘कुछ बात है’ यह हमारी सांस्कृतिक निष्ठा ही है। अपनी सनातन संस्कृति के साथ अटूट जुड़ाव ही है। इसी से अनेकों झंझावातों के बीच भारत-तरणी विपत्तिा समुद्र को पार करने में सक्षम एवं समर्थ सिध्द हुई है। इसकी पृष्ठभूमि में भारतीय राष्ट्रीय जीवन का अपनी मूल्यवान आध्यात्मिक संस्कृति को जड़ से दृढ़ता से पकड़े रहना ही है। इसी सत्य को बार-बार उजागर करने के हेतु से मनीषियों को राष्ट्रवाद के आगे सांस्कृतिक शब्द जोड़ने की आवश्यकता अनुभव हुई है। एक और भी कारण हो सकता है। जब राष्ट्रवाद के आगे सांस्कृतिक शब्द जुड़ जाता है तब वह सोच का एकमेव सांस्कृतिक अधिष्ठान भी निर्धारित कर देता है। तब मनीषि, जीवन के समस्त व्यवहारों में संस्कृति को सामने रखकर ही नीति निर्धारित नही ंकरते, आचरण तक भी सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में ही तय करते हैं। तब लक्ष्य का ही नहीं, साधनों की पवित्रता का भाव भी सामने रहता है। इसी कारण तो महाभारत में धर्मराज का यह कथन ‘अश्वत्थामा हतौ नरो वा कुंजरौ’ कभी अभिशंसित नहीं हुआ। यह किसी अपवाद को सहन नहीं करता। तीसरा कारण यह भी हो सकता है राष्ट्र के उपादान तत्व भू और जन के साथ संस्कृति अपनी पृथक सत्ताा के साथ अलग विचार की अपेक्षा रखती है। जब सांस्कृतिक शब्द राष्ट्रवाद के आगे जुड़ जाता है तब किसी अवमूल्यन, किसी गिरावट अथवा किसी अपवाद के लिए कोई स्थान शेष नहीं रहता। तब राष्ट्र हित चिंतन की एकमात्र कसौटी सांस्कृतिक बोध ही रह जाती है। राष्ट्रवाद की अवधारणा का एक मात्र निकष सांस्कृतिक अधिष्ठान पर अवस्थित विचार ही रह जाता है। इस तरह यह जोड़ निरर्थक नहीं सार्थक ही कहा जाएगा। इसका परिणामात्मक लाभ भी राष्ट्र को मिला है। इसी बल पर आज भारत विपत्तियों की भारी चट्टानों के बोझ को शीश से उतार फेंकने में, पराधीनता की बेड़ियों को काटने में, धर्मांधता की आंधी को रोकने में तथा मतांतरण के षडयंत्रों को उध्वस्त करने में पूरी तरह सफल हो, विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आने का व्यग्र खड़ा है।

इसी संदर्भ में एक और प्रश्न अंतर्राष्ट्रीयतावादियों ने उठा, राष्ट्रवाद के आगे प्रश्नवाचक लगाने का दुस्साहस किया है। अंतर्राष्ट्रीयतावादी तथा छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी राष्ट्रवाद का नाम सुनते ही नाक भौंह सिकोड़ते हुए कानों में अंगुलियां नहीं, शीशा डाल लेते हैं। मानों राष्ट्रवाद का शब्द प्रयोग, कोई एक बड़ा अपराध हो। ऐसा सोचने वाले स्वयं वर्गवादी हैं। ‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ’ यह कहने वाले स्वयं द्वैतवादी हैं। जो श्रमिक नहीं हैं उन्हें वे शोषक की संज्ञा देते हुए शत्रुवत मान, उनके विनाश तक की भयंकर कामना लिए होते हैं। समाज तक से उनका बहिष्कार तथा तिरस्कार का भाव लिए होते हैं। जबकि राष्ट्रवादी सोच वाला मानव मात्र के हित को अपने राष्ट्र हित से पृथक नहीं मानता। वे भूल जाते हैं, राष्ट्रवादी भारत के मंत्र द्रष्टा ऋषियों ने ही गाया है ‘माता भूमि पुत्रोहम् पृथिव्या:। इन्होंने ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ तथा ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ जैसे विश्वात्मक वैश्विक मंत्र दिए हैं। इन मंत्रों की पृष्ठभूमि में वही भारतीय सांस्कृतिक अवधारणा कार्यरत है जिसका अधिष्ठान अध्यात्म है। सारी सृष्टि एक ही चेतन सत्ताा का विस्तार है। कहीं कोई भेद नहीं है। कोई द्वैत नहीं है। यह अभेदात्मक अद्वैत दृष्टि ही उपर्युक्त वैश्विक सोच की नींव में है। दुनिया के मजदूरों को एक करने का नारा देने वाले रूस और चीन आज भी अलग-अलग राष्ट्र हैं। ये बहुत समय तक सीमा संघर्ष में उलझे भी रहे हैं। इनने अपनी प्रादेशिकता का त्याग कब किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ को ही लें। यह राष्ट्रों का संघ है। राष्ट्रों की सापेक्षता स्वीकार कर चला है। अपने को अंतर्राष्ट्रीय कहने वाले भूल जाते हैं कि इस शब्द प्रयोग में ही राष्ट्रों की उपस्थिति अनिवार्य है। सारा विश्व राष्ट्रों में बंटा है। हर राष्ट्र की अपनी संस्कृति है। हर राष्ट्र की अपनी भाषा है। जिन राष्ट्रों ने परकीय भाषा एवं संस्कृति अपना रखी है, वे पूर्व में उस राष्ट्र के प्रमुख में पराधीन रह चुके हैं वे राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र होकर भी सांस्कृतिक एवं भाषाई दृष्टि से आज भी पराधीन ही हैं। जिन राष्ट्रों की अपनी भाषा संस्कृति नहीं होती निश्चय ही वे राष्ट्र कहलाने के योग्य पात्र नहीं है।

कई राष्ट्रों की संस्कृति को संप्रदायों ने संकुचित कर कट्टरतावादी रूप दे दिया है। कट्टरता ने गर्हित हिंसा तक के सामने अपना घृणित एवं गर्हित चेहरा उजागर कर दिया है। इससे उनका घृणा भरा आत्मघाती रूप सामने आया है। इससे मानवता का उदारचरित प्रभावित हुआ है। आज सांप्रदायिक कट्टरता ने आतंकवाद का स्वरूप ग्रहण कर, जन जीवन को भयाक्रांत कर दिया है। सांप्रदायिकता तब और भयावह हो जाती है जब वह अपने चिंतन को ही अंतिम मान कर चलती है। तब वह दूसरों के प्रति कहर ढाने लगती है। विष विमन करती हुई दूसरे राष्ट्रों को खंडित तक करने को तुल जाती है। आज इस सांप्रदायिक कट्टरता की आग से विश्व का कोई भी राष्ट्र अछूता नहीं बचा है। सांप्रदायिक कट्टरता धर्म के उदार चरित्र को भूल आज रक्त से सड़कें रंगने में लगी है। यह संस्कृति नहीं, विकृति है अपकृति है। भारत के ऋषियों ने इस कट्टरता का विरोध करते हुए यही कहा है-

अयं निज: परोवेति गणना लघु चेहसाम्
उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुंबकम्।

उपर्युक्त श्लोक के संदर्भित परिप्रेक्ष्य में तो राष्ट्रवाद के आगे सांस्कृतिक शब्द प्रयोग और भी आवश्यक हो जाता है। यह शब्द प्रयोग राष्ट्रवाद के विरूध्द उद्धोषित लघु चेतस घोषणाओं को जड़ से निर्मूल कर, चिंतन को उदार सहिष्णु मान-संपदा से परिपुष्ट कर देता है। प्रकाश का नंदादीप बन मानवता का पथ प्रशस्त करता है। तब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मानवता का पर्याय, औदात्य का कल्पतरू तथा सर्व हित की चिंतामणि बन जाता है।

भारतीय साहित्य के अवलोकन से हमें इस सत्य के दर्शन होते हैं कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही सदा सर्वदा साहित्य का आदर्श रहा है। क्या संस्कृत साहित्य, प्राकृत साहित्य, पाली साहित्य, अपभ्रंश साहित्य और क्या लोकभाषा साहित्य, सभी ने संस्कृति और राष्ट्रीयता को ही अपना कथ्य बनाया है। प्रगतिवाद जनवाद के नाम से जो अभारतीय चिंतन भारतीय साहित्य में साम्य का नारा लेकर अनुप्रविष्ट हुआ, ऐसे समाज ने कुछ काल के भ्रम के बाद ही नकार दिया। समाज को वह नग्न यथार्थ कहे, या भोगा हुआ यथार्थ कभी स्वीकार नहीं हुआ। सामाजिक सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों पर साहित्य के माध्यम से कभी स्वीकार नहीं हुआ। सामाजिक सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों पर साहित्य के माध्यम से किया जाता यह सीधा आक्रमण भारतीय समाज को भी गले नहीं उतरा। उस साहित्य के लेखकों को पाठकों की खोज के उपाय अपनी बैठकों में सोचने पड़ रहे हैं। इसी तरह से भारतीय समाज ने अस्तित्ववादी, क्षणवादी आधे-अधूरे पाश्चात्य दर्शन को भी कभी स्वीकार नहीं किया है। भले ही इन्होंने प्रयोगवाद, नई कविता आदि के नाम लेकर कितने ही बड़े नाटक क्यों न हों। इनके समकालीन प्रयास समय की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं।

इसका कारण भी है। साहित्य और संस्कृति का अन्योन्याश्रित संबंध रहा है। साहित्य संस्कृति का संवाहक है और संस्कृति साहित्य की आशा है। संस्कृति साहित्य में लिपटी रहती है। कभी कथानक के रूप में, तो कभी शिल्प के रूप में। वही साहित्य श्रेष्ठता अर्जित करता है जो संस्कृति को अधिकाधिक आत्मसात् किये होते हैं। संस्कृति विहीन साहित्य की कल्पना शशक श्रृंगवत है। संस्कृति भी वही जीवित रहती है जिसका विपुल परिमाण में साहित्य उपलब्ध होता है। जिस संस्कृति का साहित्य नहीं होता, वह संस्कृति कालांतर में अकाल काल कवलित हो जाती है।

मानवता को उजागर करनेवाला साहित्य ही है। साहित्य मनुष्य और समाज की मनोभावनाओं को शब्द के स्तर पर प्रभासित करता हुआ, मानवीय आदर्श की प्रतिष्ठापना करता है। साहित्य के शब्द-शब्द में भावोद्रेक की अप्रतिम शक्ति होती है। यह व्यक्ति को उसकी वास्तविक स्थिति से परिचित करा, उन उदात्ता विश्वासों से जोड़ता है जो उसे महामानव बनाते हैं। सामाजिक धरातल पर मानव का यह उदात्ता की ओर आरोहण है। व्यक्ति के धरातल पर जीवन प्रवृत्तियों का उन्नयत भी साहित्य ही करता है। साहित्य मानवीय संवेदना जगा, मानव संबंधों में सघनता उपजाता है। यह मनुष्य के भीतर चल रहे आंतरिक संघर्ष को तीव्र कर स्वस्थ एवं सही पथ पर अग्रसर करता है। साहित्य की परिधि में जहां सामाजिक संबंधों का नैकटय आता है वहीं सांस्कृतिक परंपरा की पहचान को नवीनतम रूपों से ग्रहण करने की प्रेरणा भी आती है।

साहित्य सृजन इस तरह एक सांस्कृतिक कर्म है। यह संस्कृति को अक्षुण्ण रखता है। संस्कृति साहित्य को अनुप्राणित करती है। साहित्य की जीवनीशक्ति के मूल में उसकी गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा ही होती है। साहित्य, संस्कृति का संवाहक होकर भी सदैव संस्कृत्योन्मुख रहता है। संस्कृति विमुख साहित्य की स्थिति उस रोगी की तरह होती है जिसे मृत्यु-मुख में जाने से कोई उपचार नहीं रोक पाता। जब भी साहित्य संस्कृति विमुख हुआ है, वह या तो दिग्भ्रम की स्थिति जीने लगता है अथवा मृत्यु का ग्रास बना है।

संस्कृति की प्रभविष्णुता अति सूक्ष्म किंतु अति तीव्र होती है। ऐसे समय में वह साहित्य को ही नहीं समय को भी नियंत्रित करती है। संस्कृति की यह प्रभविष्णुता कभी प्रत्यक्ष दिखती है तो कभी नहीं। प्रत्यक्षता की स्थिति में इसे सांस्कृतिक शक्तियां बलशाली हुई समय-रथ की वल्गा थामें दिखाई देती है। आज समय साहित्य के सम्मुख चुनौती बनकर खड़ा है। ऐसी स्थिति में तो साहित्य को समय से आगे निकलने का सामर्थ्य अर्जित करना ही चाहिए। इस हेतु उसे अपने सांस्कृतिक अधिष्ठान पर अंगद चरण जमा खड़ा होना है। तभी वह प्रतिगामी शक्तियों के चेहरों पर चढ़े मुखौटों को हटाने की शक्ति स्वयं में जगा सकेगा। इन दिनों प्रतिभागी शक्तियों ने विश्व-अराजकता के कर्णणारों के साथ दुरभि संधि कर रखी है। ऐसे प्रयासों को कुंठित कर विश्वमंच पर साहित्य को सत्यं शिवं सुंदरम् से अभिमंडित अपनी श्रेष्ठ सांस्कृतिक छवि उपस्थित करनी है। इस सांस्कृतिक समर में भारत को साहित्य के साथ-साथ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भी ध्येय े रूप में अंगीकार कर आलोक की नवीनतम दीपशिखा के साथ विश्वमंच पर खड़ा होना है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अपनाव आज राजनीति के लिए जितना आवश्यक है उससे कम साहित्य के लिए नहीं है। साहित्य का इतिहास अथ से आज तक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ही इतिहास है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ध्येय वाक्य के रूप में जब तक अंगीकार नहीं करेंगे, भारत वैभव के उन्नतम शिखरों का स्पर्श कदापि नहीं कर सकेगा। कालजयी साहित्य नहीं लिखा जा सकेगा। वर्तमान के संकटापन्न इस काल में यदि प्रतिगामी शक्जियों को दुर्बल समझ, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दुर्लक्ष्य किया तो निश्चय ही यह स्थिति भारत को महंगी पड़ सकती है। इसलिए राजनीति और साहित्य दोनों को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को दृष्टि-पथ में रख, औपनिषदिक मंत्र ‘चरैवेति चरैवेति’ का घोष गुंजाते हुए त्वर गति से आगे बढ़, भारत को विकसित राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा करना है।

(लेखक सुप्रसिध्द साहित्यकार हैं।)

आपका व्यवहार और जीवन दृष्टि

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लेखक- तरूण विजय

बहुत आसान है वेद, पुराण, मनुस्मृति और अन्य शास्त्रीय ग्रंथ उठाकर सामने रखना और कहना कि इनमें कहीं भी अस्पृश्यता को मान्य नहीं किया गया है और व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार समाज में सम्मान पाता है अत: जाति और जन्म के अनुसार जो सामाजिक स्थान का निरुपण करते हैं वे गलत हैं। अक्सर यह कहने के बाद सब वही करने लग जाते हैं जो नहीं करने के लिए कहकर वे मंच से नीचे उतरे होते हैं। इससे बढ़कर चुभने वाली बात और क्या होगी? क्या वेद और पुराण पढ़कर कोई अस्पृश्यता का व्यवहार तय करता है या उसके विरुध्द खड़ा होता है? वेदों में वह लिखा है या नहीं लिखा है, इसकी बहस करने वाले स्वयं अपने जीवन-व्यवहार में अस्पृश्यता का सबसे अधिक व्यवहार करने वाले देखे जाते हैं। हमारे खून में, हमारी रगों में, हमारी मानसिकता में इतने गहरे बैठ गए हैं ये भेद कि सार्वजनिक मंच की आवश्यकता के अनुसार माइक पर हम भले ही समरसता की बात करें या उसके बारे में पुस्तकें लिख दें, लेकिन धरातल पर तो उसका कोई अंश उतरता नहीं। समरसता की पुस्तकें कर्मकांड के नाते सिर्फ उन्हीं वर्गों में लिखी और पढ़ी जाती हैं जो केवल अपनी ही जाति के अहंकारी दायरों में विचरण करते हैं। समरसता के संकल्प भी इन्हीं दायरों में लिए जाते हैं। आप किसी भी ऐसे बड़े कार्यक्रम में जाएं, मंच से लेकर श्रोताओं की अंतिम कुर्सी तक नजर घुमा लीजिए, 95 प्रतिशत तो वही मिलेंगे जिनके कारण जाति भेद और स्पृश्य- अस्पृश्य का व्यवहार जिंदा है।

कहानियां, कथाएं, उध्दरण, गीता, रामायण, महाभारत और वेदों से लिए गए श्लोक तथा ऋचाएं, सब इकट्ठा करके अगर आप यह बता भी दें कि अस्पृश्यता कभी हिन्दू धर्म का अंग नहीं रही है तो भी क्या हरिद्वार, वृंदावन, द्वारका और रामेश्वरम में बैठे संत, महात्मा, प्रवचनकार और विभिन्न संगठनों के नकचढ़े नेता दलितों को अपनाने लगेंगे? उनसे रोटी-बेटी का संबंध वैसा ही स्वाभाविक होगा जैसे व्यापारी, राजपूत, ब्राह्मण आपस में करते हैं? ये तो बहुत दूर की बात है। अपने निजी कार्यक्रमों के निमंत्रण पत्रों की सूची ही देख लीजिए। सच्चाई यह है कि यह हमारे दायरे, पैसा, प्रभाव और अपनी ही जाति का वृत्त परिभाषित करती हैं। निमंत्रण सूची में दलितों का नाम है या नहीं, यह तो इस बात पर निर्भर करेगा कि दलितों में हमारी मित्रता है या नहीं और मित्रता के दो ही कारण होते हैं, स्वाभाविक प्रेम या कामकाज और रिश्तेदारी का साथ। यह स्थिति यदि नहीं है तो आप लाख कहते रहें संग-साथ होगा नहीं और यह बात जबरन नहीं की जा सकती। समझाने और समझने का ही मामला है। मन बदलेगा तो बात बदलेगी।

बालक तिण्ण की कथा है। आंध्र में एक पर्वत में शिव मंदिर था। हर रोज पुजारी पूजा करता, साफ सफाई करता और रात को घर लौटता। कुछ दिनों से वह देखने लगा कि हर रोज शिवलिंग पर सुअर का मांस चढ़ा होता है। शिव-शिव कहते हुए पुजारी ने कान पकड़ लिए, प्रभु यह तो घोर अनर्थ हो गया। आपका घोर अपमान हो गया। खूब चौकीदारी करता, बैठा रहता लेकिन फिर भी जरा सी आंख लग जाती। घर जाकर लौटता तो वापस सुअर का मांस और गंदा सा पानी वहां चढ़ा दिखता। यह जन्म तो मेरा गया ही यह सोचकर पुजारी ने ठान लिया कि दिन रात वहीं कहीं छुपकर बैठा रहेगा और देखेगा कि कौन पापी यह अधर्म कर रहा है। और फिर अचानक सुबह 4 बजे के अंधेरे में उसे दिखा कि एक वनवासी बालक दोनों हाथों में कुछ लिए आया वह उसने शिव लिंग पर चढ़ाया और अपने मुंह में भरा पानी शिव पर अर्पित कर दिया। पुजारी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। तुरंत उतरा और लगा उस वनवासी बालक को पीटने। अरे मूर्ख, अधर्मी तू यह क्या कर रहा है। वनवासी बालक हतप्रभ होकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। पुजारी ने उसे कभी न आने की हिदायत दी। मंदिर की सफाई की और शिव शिव करता घर लौटा। दुख के मारे भोजन भी नहीं किया और सो गया। रात को शिव जी ने दर्शन दिए और कहा कि अरे मूर्ख उस वनवासी बालक को तुमने पीट कर मुझे चोट पहुंचाई। वह जितनी श्रध्दा से मांस लाता था और जब उसके पास कोई पात्र नहीं तो प्रेम के कारण अपने मुंह में ही नदी का जल भरकर नियमित रुप से सुबह ब्रह्ममर्ूहुत्त में चढ़ाने आता तो उसकी भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न होता था। जाओ उससे क्षमा मांगो।

इस कथा का मर्म क्या? यह क्या तथाकथित ऊंची जाति का अहंकार रखते हुए सिर्फ और सिर्फ बुध्दि विलास, वाणी विलास और शब्द विलास करने वाले तीर्थयात्रियों को गंगा तट पर ही धर्महीन लूट से संत्रस्त करने वाले पंडे और नकचढ़े समझेंगे? आज तक वे काशी में तो न शिव मंदिर के आसपास सफाई रख सके न गंगा तट पर। कभी उन्होंने सोचा है कि दुनिया भर से तीर्थ दर्शन के लिए आने वाले हिन्दू यात्रियों पर क्या बीतती है? जब तक हम शिव मार्ग से वंचित दलितों का पाद पूजन कर उन्हें गंगा के अभिषेक का चंदन नहीं बनाएंगे तब तक हमारा प्रायश्चित भी पूरा नहीं होगा और न काशी न हिन्दू समाज विषमता के दंश से मुक्त होगा।

हमारे यहां उदाहरणों की कमी नहीं है। आदि शंकर ने श्वान, श्वपच, वंचित और ब्राह्मण में गज और अश्व में एक ही गोविंद के दर्शन किए और उन्हीं गोविंद के अनुयायियों ने समाज को सनातन सत्य की मुख्य धारा में समाहित करते हुए आगे बढ़ने की अपेक्षा रुढ़ियों और कर्मकांडों की बेड़ियों में जकड़ दिया। दुख इस बात का है कि जो लोग फिल्म में विद्रूपता के विरोध में खड़े हुए वे मंदिरों में स्वच्छता, सामान्य तीर्थयात्री के लिए सुव्यवस्था, मंदिर तक जाने वाली गली को तो कम से कम थोड़ा साफ सुथरा और नंगे पांव पैदल चलने लायक बनाने की ओर ध्यान देने का काम जरुरी क्यों नहीं मानते? उनके लिए सौंदर्य प्रतियोगिताओं और वेलेनटाइन डे का विरोध जरूरी है, पर दहेज हत्याओं, कन्या भ्रूण हत्याओं, जानवरों की तरह पढ़े-लिखे लड़कों की शादी में नीलामी का विरोध महत्वपूर्ण क्यों नहीं? हमें सावधान रहना होगा कि समरसता की बात गोहत्या पर विरोध की तरह पर्चों और बयानों का विषय मात्र बनकर न रह जाए। इस देश में गोहत्या में सर्वाधिक संलिप्तता सवर्ण हिन्दुओं की है। भले ही उनका कामकाज, आचरण अक्सर घिनौने अपराधों का हो, लेकिन हम तो इतने गिर चुके हैं कि कई बार अपराधी की जात देखकर सजा के फैसले तय करते हैं। वह तो ‘छोटी जात’ का है ‘शडूलकास्ट’ है, ‘आदिवासी’ है इतना भर नाक सिकोड़कर फुसफुसाहट के साथ कहना पीढ़ियों को लांछित और मर्माहत कर देता है इसका अहसास तक नहीं किया जाता।

वे भूल जाते हैं कि राम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे और जिन रामानुजाचार्य ने मोक्षदायी मंत्र छत पर चढ़कर दीन दलितों को सुनाया था और जिन मीरा ने जूते बनाने वाले संत कवि रैदास को अपना गुरु माना, उनका भक्त होने का अर्थ यह नहीं होता कि हम सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाकर अपनी मनोकामनाएं पूरी करवाते रहें। जो सौदेबाजी का मामला है वह धर्म नहीं है बल्कि क्षुद्र और संकीर्ण कर्मकांड है। धर्म तो वह है जो चर्म के भेद को नकार कर कर्म के मर्म से रिश्ता जोड़े। एक दिन तो इसी अग्नि में स्वयं को परम पावन प्रात: स्मरणीय मानने वाले भी समर्पित होंगे और श्मशान में काम करने वाले सेवक भी। सिर्फ चमड़ी और जन्म के भेद को जो माने वह न कान्हा का हो सकता है न रघुवर का। तय आपको करना है कि आप किसके हैं?

हमारी शूरता, वीरता, समाज के प्रति चिंता सिर्फ शब्दों के गलियारों तक सिमट गई है। इस अंक के लिए हमने अनेक प्रांतों से जानकारी चाही कि क्या उनके क्षेत्र में कोई ऐसा मंदिर है जहां सामान्यत: गांव, नगर के सभी लोग जाते हों लेकिन जहां का पुजारी वह पूर्वकालीन हरिजन हो जो मंदिर का कामकाज भी संभाल रहा हो। हमें इस जानकारी की अभी तक प्रतीक्षा है।

पैसा और पद आ जाए तो समाज में सब कुछ ठीक हो जाता है ऐसा भी कहा जाता है। कुछ स्थितियों में ऐसे बहुत अच्छे उदाहरण भी हमें मिलते हैं लेकिन वे उदाहरण अपवाद ही बने हुए हैं।

ऐसा नहीं है कि काम नहीं हो रहा है या लोगों के मन नहीं बदल रहे या विषमता के खिलाफ हिन्दू समाज में उबाल नहीं उठ रहा है।

परिवर्तन के इस दौर में अग्रगामी ध्वजवाहक निश्चय ही रा0स्व0संघ के साधारण स्वयंसेवक हैं। आज भी भारत में जाति भेद से परे उठकर दहेज रहित सर्वाधिक विवाह स्वयंसेवक परिवारों में ही होते हैं। वे स्वयंसेवक ही हैं जो जाति का आग्रह छोड़ते हुए केवल भारत भक्ति के आधार पर एक धर्म हिन्दू, एक जात हिन्दू, एक गोत्र हिन्दू, एक पथ हिन्दू, एक स्वप्न, समरस समृध्द सशक्त हिन्दू समाज का भाव लेकर चल रहे हैं। एक ओर जहां विश्व हिन्दू परिषद् के माध्यम से गांव-गांव में शिक्षा, समरसता और रामकथाओं के अमृत संदेश पहुंचाए जा रहे हैं वहीं वनवासी कल्याण आश्रम समरसता के अमृत अधिष्ठान के रुप में उभर कर सामने आया है। पूर्वांचल से पश्चिमांचल तक और लेह से लोहरदगा और लोहरदगा से पोर्टब्लेयर तक जनजातीय और गैर जनजातीय समाज के मध्य सेतुबंध का दूसरा नाम कल्याण आश्रम स्वाभाविक रुप से कहा जा सकता है। इस प्रकार माता अमृतानंदमयी जो स्वयं मछुआरा जाति से होते हुए भी विश्व भर में सनातन धर्म के संदेश की सर्वाधिक प्रमुख व्याख्याता बनी हैं समरस हिन्दू समाज का अमृतोपम उदाहरण है। साध्वी ऋतम्भरा का वात्सल्य ग्राम समरसता का प्रकाश स्तम्भ बना है। स्वामिनारायण पंथ तथा स्वाध्याय परिवार, निरंकारी समाज और श्री श्री रविशंकर की प्रखर हिन्दू निष्ठ समरस जीवन दृष्टि का नूतन स्वरुप ही एक आशादायी भविष्य का संकेत देता है। काशी में विश्व हिन्दू परिषद् ने डोम राजा का स्वागत किया, उनके घर पर देश के पूज्यपाद संतों ने भोजन किया, शंकराचार्य जी ने नागपुर में दीक्षाभूमि जाकर डा. अम्बेडकर को भावपुष्प अर्पित किए- यह सब सत्य सनातन समरस जीवन के सूर्योपमउदाहरण हैं जिनकी पृष्ठभूमि में एक ही नाम है-माधवराव सदाशिवराव गोलकर। ये सभी उदाहरण हमें परम पूज्य श्री गुरुजी के समरस हिन्दू समाज के स्वप्न को साकार करने का बल देते हैं। परंतु अभी भी ये उदाहरण ही हैं। हमें प्रयास तो यह करना है कि ऐसे उदाहरण बताए जाने की आवश्यकता भी न रहे।

(लेखक डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी शोध संस्थान के निदेशक हैं.)