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तुष्टिकरण और इसके नतीजे

504650292_af3f37111c क्या मुस्लिम तुष्टिकरण संघ परिवार द्वारा अपने राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए दशकों से गढ़ा एक तथ्य है या कल्पित शब्द? इस प्रसंग में तुष्टिकरण का अर्थ क्या है और क्या इससे आम मुस्लिम का भला हुआ है? और तुष्टिकरण की नीति से राष्ट्र के रूप में भारत तथा अन्य समुदायों पर क्या प्रभाव पड़ा?

सर विंस्टन चर्चिल ने कहा था, ‘एक तुष्टिकर्ता वह है जो मगरमच्छ को भोजन देता है और यह उम्मीद करता है कि वह उसे एक दिन निगल लेगा।’ मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ नरम रवैये के भारतीय अनुभवों पर यह एक पूर्णतया उचित कथन है। इसकी शुरूआत गांधीजी के उस समर्थन से हुई थी, जब उन्होंने 1920 में पूरे मन से सुदूर तुर्की में ‘खिलाफत’ की बहाली का समर्थन किया था। तुष्टिकरण की यह प्रक्रिया तीसरे और चौथे दशक में भी अबाधित रूप से जारी रही और 1947 में भारत के बंटवारे व पाकिस्तान के निर्माण के साथ शिखर पर पहुंची। तब से पाकिस्तान वैश्विक आतंकवाद के केंद्र के रूप में उभरा, जिसका मुख्य निशाना ‘शेष’ भारत को बनाया गया।

जनवरी 2004 और मार्च 2007 के बीच जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत और वामपंथी आतंकवादी हिंसक घटनाओं में कुल 3,647 बेगुनाह लोग मारे गए, जिसके कारण भारत को इराक के बाद विश्व के दूसरे सबसे खतरनाक क्षेत्र के रूप में विशेष पहचान मिली। पिछले एक दशक में भारत में 53,000 से ज्यादा लोग आतंकवादी हिंसा के शिकार हुए, जबकि कारगिल समेत सभी युध्दों में महज 8,023 लोग मारे गए।

यह सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं हैं, बल्कि उसके बाद की गई अथवा न की गई कार्यवाही से तुष्टिकरण की नीति और अधिक स्पष्ट हो जाती है। टाइम्स ऑफ इंडिया की जांच-पड़ताल (अगस्त 2007 के आखिरी सप्ताह में प्रकाशित हुई थी) जिस से पता चला कि अधिकांश जिहादी वारदातों में चाहे कितने ही बड़े पैमाने पर हिंसा क्यों न हुई हो और चाहे कितनी ही संपत्ति क्यों न नष्ट हुई हो-मामले दर्ज नहीं किए गए। अधिकांश मामलों की जांच किसी न किसी बहाने से रोक दी गई, क्योंकि खोज के सूत्र किसी खास समुदाय की ओर बढ़ रहे थे। यह तुष्टिकरण है। क्या यह किसी प्रकार राष्ट्रवादी मुस्लिमों की सहायता करता है, जो मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा है।

हैदराबाद के लुंबिनी पार्क विस्फोट के तीन महीने पहले ठीक इसी तरह का विस्फोट मक्का मस्जिद में हुआ था। अभी तक इसकी जांच-पड़ताल एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी। दरअसल, जैसा कि आडवाणीजी ने संसद में (मानसून सत्र 2007) उल्लेख किया था, तीन संदेहास्पद व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया था। बाद में उन्हें छोड़ दिया गया, वह इसलिए नहीं कि वे बेगुनाह थे, बल्कि ऐसा करने के लिए राजनैतिक दबाव पड़ा। अर्थशास्त्री विवेक राय ने उल्लेख किया कि हालिया हैदराबाद के विस्फोट से महज कुछ दिन पहले इस्लामिक चरमपंथी गुट एआईएमआईएम ने, जिसके पास महज एक संसद सदस्य एवं चार विधान सभा सदस्य हैं, मक्का मस्जिद विस्फोट की जांच तथा आतंकवादियों के खिलाफ आतंक निरोधी दस्ते की कठोर रवैये की निंदा की। तत्पश्चात् जांच सीबीआई के हवाले कर दी गई।

टाइम्स ऑफ इंडिया की खोजबीन से मालूम हुआ कि जांच का एक हिस्सा ही सीबीआई को सौंपा गया, इसलिए जांच आगे नहीं बढ़ सकी। परिणामस्वरूप संपूर्ण जांच ठंडी पड़ गई। यह भी उल्लेखनीय है कि गृह मंत्री शिवराज पाटिल, आडवाणीजी द्वारा लगाए गए आरोपों का उत्तर देने में असफल रहे कि मक्का मस्जिद मामले में संदेहास्पद राजनैतिक कारणों से छोड़े गए थे। न तो इस केस में और न ही मालेगांव विस्फोट में तथा न ही मुंबई टे्रन धमाके के अभियुक्तों की धर-पकड़ अभी तक हो सकी है। और असल में सभी पूर्व जांच को स्थगित कर दिया गया है। कारण बिल्कुल साफ है। जांच की सुई मुस्लिम समुदाय वाले इलाकों की ओर संकेत करती है। जाहिर है कि वोट बैंक के कारण वे आधिकारिक निगरानी से पूर्णतया सुरक्षित हैं कि उनके बीच कौन से संदेहास्पद व्यक्ति आते-जाते हैं।

टाइम्स ऑफ इंडिया अपने संपादकीय में कहता है कि आतंकवादियों के प्रति भारत की कमजोर व ढुलमुल (दफ्तरी) प्रतिक्रिया, ज्यादा आतंकी घटनाओं का प्रमुख कारण है और वास्तव में यह तुष्टिकरण नीति के स्वाभाविक नतीजे हैं। केंद्रीय गृह-मंत्री पोटा जैसे कठोर आतंकविरोधी कानून की मांग को इंकार करते हैं। जैसा कि हम जानते है कि पोटा को वर्तमान सरकार ने सत्ता में आते ही रद्द कर दिया था। उनकी प्रतिक्रिया थी कि इस तरह का कानून, राक्षसी कानून होगा। टाइम्स ऑफ इंडिया ने लोकतांत्रिक देशों की एक फेहरिस्त दी है, जिन्होंने कठोर आतंक विरोधी कानूनों का निर्माण किया है, जिसके जरिए जांच अधिकारी संदेहास्पद व्यक्तियों की धर-पकड़, उनके ठिकाने की जांच और साइबर आधारित प्रमाणों को हासिल करते हैं। अधिकांश मामलों में आतंकी गतिविधियों की सजा आजीवन कारावास से कम नहीं होती, वह भी इसलिए कि अधिकांश यूरोपियन देशों ने मौत की सजा रद्द कर दी है। यहां के सेक्युलर इस तरह के कानूनों को राक्षसी कानून कहकर खारिज करते हैं। इस प्रकार जेहादी आतंकी गुटों को पहले ही नोटिस भेज दी जाती है कि उनके साथ सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया जाएगा।

सत्ताधारी गठबंधन-
क्या इनकी गतिविधियों को देखकर हम इन्हें माफिया कहें?- ने आतंकवादी गतिविधियों पर आंखें मूंद ली हैं और इसे महज दिग्भ्रमित बच्चों का कारगुजारी बताया हैं। दरअसल, सत्ताधारी गठबंधन आतंक के खिलाफ युध्द छेड़ने से जानबूझकर अलग है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने ठीक ही कहा कि बहुत लंबे समय से हम आतंक को राजद्रोह की तरह निपटने में असफल रहे। फिर कैसे हम आतंकवादियों के खिलाफ लोगों को एकजुट खड़े होने के लिए प्रेरित कर सकते हैं?

तुष्टिकरण नीति उस वक्त बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है, जब हम आतंकी घटनाओं से निपटने के वर्तमान सरकार के दृष्टिकोण की तुलना अंतराष्ट्रीय प्रयासों मसलन- अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया की नीतियों से करते हैं। यहां तक कि सऊदी अरब, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश भी इसे अंतर्राष्ट्रीय समस्या मानते हैं। लेकिन भारत ऐसा नहीं मानता। पेट्रियाट एक्ट (जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है) आतंकवादियों को आम आदमी से भिन्न व्यवहार करता है। यह कानून आतंकवादियों, उनको समर्थन देने वालों व उन्हें वित्तीय मदद मुहैया कराने वालों के साथ कठोर है। लगभग सभी देशों ने आतंकवादियों को वित्तीय मदद से रोकने के लिए कदम उठाए हैं, लेकिन हमारी सरकार सुस्त है। आखिर क्यों? माक्र्सवादियों द्वारा समर्थित जेहाद का भयानक चेहरा यूपीए सरकार व कांग्रेस के पीछे छिपा है।

आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर कांग्रेस ने कैसे अपने आप को एआईएमआईएम के हवाले कर दिया। बांग्लादेश के सीमा पर पकड़े गए एक व्यक्ति से खुफिया एजेंसी को पहले ही सूचना प्राप्त हो चुकी है कि बांग्लादेश और पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर आरडीएक्स न केवल पहुंच चुका है, बल्कि उसका वितरण भी हो चुका है। समाचार-पत्रों की रिपोर्ट के अनुसार वे इसकी जांच करना चाहते थे और ठिकानों का पता भी लगाना चाहते थे। लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि आंध्र प्रदेश की कांग्रेसी सरकार ने अधिकारियों को ऐसा करने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि उन्हें डर था कि इससे मुस्लिम भावनाएं भड़केगी। मुसलमानों की प्रतिक्रिया की डर से पकड़े गए इन लोगों को छोड़ दिया गया। आशंका के मुताबिक हैदराबाद का दूसरा विस्फोट इसी का नतीजा था।

ये तुष्टिकरण नीति के पुरूस्कार हैं। लेकिन मामला यहीं पर खत्म नहीं होता। अफजल गुरू की फांसी पर टाल-मटोल रवैये को देखें। एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री खुले रूप से कहता है कि वह चाहता है कि सरकार फांसी की सजा को क्रियान्वित न करे। केंद्रीय गृह मंत्री यह बताने में असफल रहे हैं कि किस परिस्थिति बस संसद पर हमले की योजना में शामिल व्यक्ति की फांसी में देरी हो रही है। वामपंथी और स्वयंभू समाजवादी बड़े मसले को उठा रहे हैं कि एक समुदाय की भावना किस तरह प्रभावित होगी, यदि कोर्ट द्वारा दी गई फांसी के आदेश का क्रियान्वयन नहीं होता है। इसका अर्थ है कि इस देश में दो कानून हैं। एक गैर मुस्लिमों के लिए और दूसरा मुस्लिमों के लिए तथा अपराधियों मुस्लिम कानूनन मिलने वाले दण्ड से भी मुक्त रहते हैं मुस्लिम समुदाय के डर से आतंकी सौदागरों के प्रति अनिच्छुक कार्यवाही, धर्मनिरपेक्ष गुटों की एक रणनीति है, जो तुष्टिकरण नीति के रूप से लगातार जारी है। दूसरे अर्थों में इसका मतलब यह भी है कि मुस्लिम समुदाय का तथाकथित गुस्सा और इस गुस्से के कारण आतंक का सहारा लेने वालों के प्रति प्रदर्शित सहानुभूति को न्याय-संगत बनाता है।

अनेकमुंही शैतान
आतंकवाद के प्रति नरम रवैया दरअसल, तुष्टिकरण की सौ-मुंही नीति का महज एक भाग है। नेहरू की सेक्यूलर छूट जिसमें जम्मू-कश्मीर को धारा 370 व हिंदू कोड बिल कानून (लेकिन समान नागरिक संहिता नहीं) के जरिए स्वायत्तता दी गई। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत धर्म-परिवर्तन व अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान जारी रहे। गौ-हत्या प्रतिबंध मखौल की वस्तु बना और हज सब्सिडी दी गई। इनको आस्था की वस्तु के रूप में (राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में) देखा गया और इन सेक्युलर प्रावधानों के बुरे नतीजे अब हमारे सामने स्पष्ट हैं।

समय के साथ, बीमारी बढ़ती ही गई। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की कि भारत के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक है। 2001 की जनगणना के धर्म आधारित आंकड़ों की मनचाही व्याख्या, पोटा को निरस्त करना, मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति में सुधार की सिफारिश के लिए सच्चर कमेटी की नियुक्ति, मुस्लिमों को 5 प्रतिशत आरक्षण देने की वकालत, अल्पसंख्यक संस्थाओं को अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण से बाहर रखना, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा, आईएमडीटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने की कोशिश, अल्पसंख्यकों के लिए एक अलग मंत्रालय का गठन, हज सब्सिडी में बढ़ोत्तरी, मदरसों को यूनिवर्सिटी से संबध्द करने के इरादे की घोषणा आदि तुष्टिकरण नीति के विविध रूप हैं।

छद्म-भावना, छद्म-सहानुभूति और पवित्र संवेदनशीलता ने सेक्युलरवाद के चारों तरफ एक तिलिस्म तैयार किया है। यह भी एक आकस्मिक घटना है कि पूरा विश्व अमेरिका से लेकर यूरोप और आस्ट्रेलिया तक एक ही समय में एक साथ एक ही समस्या से जूझ रहा है। भारत इससे केवल एक विचित्र संतुष्टि प्राप्त कर सकता है कि उत्तर औपनिवेशिक काल में समस्त विश्व की तुलना में भारत मुस्लिम समस्या को समझने में ज्यादा गलती नहीं की।

पश्चिम में पिछले कुछ समय में आतंकवाद पर तमाम पुस्तकें लिखी गई, जिसमें इस्लामिक आतंकवाद के उभार व उनके कारण पश्चिम में मडंराते खतरों पर चर्चा हुई। मुख्य प्रकाशक, यूनिवसिर्टी प्रेस व मुख्य मीडिया ने इस समस्या पर काफी गौर किया और काफी विवेचना की। उन्होंने इसका खुलासा किया कि पश्चिम के उदारवादी मूल्यों, मसलन बहु-सांस्कृतिकवाद, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्लामिक चरमपंथी उद्देश्यों के लिए किस तरह दुरूपयोग किया गया। वहीं भारत की मीडिया, शैक्षणिक समुदाय व राजनीतिज्ञों ने शायद ही इस प्रकार की खोजबीन की। ऐसे प्रश्नों पर चर्चा चलाने मात्र से ही, हालांकि अकादमिक तौर पर ही, उसे सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। ऐसा क्यों?

इस सेक्युलर उद्योग में कुछ निहित स्वार्थ संलग्न हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यह उद्योग जहरीले उत्पाद बना रहा है, जो आने वाले समय में सभ्यता का गला घोट देगी। धर्मनिरपेक्षवाद के ये झंडाबरदार सांप्रदायिकता के सबसे वीभत्स रूप को पोषित कर रहे हैं। हम नैतिक रूप से सही हैं या गलत, यह बहस अब काफी पीछे छूट चुकी है। अब हम एक ऐसे समय में हैं जब इसके द्वारा किए भयानक कृत्यों का उधार चुकाना है। केवल अच्छी-अच्छी बात करके हम राष्ट्रीय बैचेनी को नहीं ढक सकते। विस्फोटकों को ढेर किसी भी समय विस्फोट कर सकता है और इसके नतीजे बहुत ही भयानक होंगे।

स्वतंत्र भारत की नीतियों के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि धर्मनिरपेक्षवादी किस तरह मुस्लिम चरमपंथियों के जहरीले वृक्ष का पोषित किए। इस दोष का बहुत बड़ा हिस्सा निम्न कारणों से कांग्रेस के सिर पर है। गांधीयुग में हिंदू-मुस्लिम एकता के नाम पर धर्मनिरपेक्षता की मीठी-मीठी बातें हुईं, लेकिन अनैतिक बंटवारे के बाद भी कुछ भी बेहतर हाथ नहीं लगा। ब्रिटिश से सत्ता हासिल करने व अगले तीन दशकों तक शासन संभालने के कारण इसने (कांग्रेस) संवैधानिक प्रावधानों की नींव रखी। आजाद भारत के अधिकांश वर्षों में इसने ही शासन किया। भाजपा, शिवसेना और अकाली दल को छोड़कर दूसरी पार्टियों ने भी मुस्लिम चरमपंथियों की खुशामद करके कांग्रेस को बाहर करने की कोशिश की।

हिंदू-मुस्लिम संबंधों का इतिहास
यदि कोई 1300 वर्षों के हिंदू-मुस्लिम संबंधों की वस्तुपरक जानकारी लेने का इच्छुक है, तो उसे इतिहास के पन्नों में झांकना होगा। नौ-परिवहन (व्यापार) के जरिए दक्षिण भारत के तटों पर इस्लाम के पहुंचने की घटना कोई उल्लेखनीय बात नहीं थी। लेकिन जब वे मध्‍यकाल में आक्रमणकारी के रूप में उत्तर-भारत के रास्ते आए, तब उनका संघर्ष उस हिन्दू धर्म के साथ हुआ, जो कि धर्म का विरोध नहीं करता है। मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों ने 712 ईसवी में सिंध पर आक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया और हिंदू राजा दहीर 20 जून को मारा गया। राजा की मृत्यु के बाद रानी और दूसरी औरतों ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर कर लिया। 17 वर्ष से ज्यादा के जिन पुरूषों ने इस्लाम स्वीकार करने से इनकार किया वे मौत के घाट उतार दिए गए।

बाद के सभी युध्दों में, जिसमें मुस्लिम विजेताओं ने गैर-मुस्लिमों को रौंदा, पराजितों को भयानक अपमान सहना पड़ा। सच तो यह है कि मध्‍यकाल का इतिहास निशंस हत्या, मारकाट, लूटपाट, जबरन धर्म-परिवर्तन, हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार से भरा पड़ा है, जैसा कि मुस्लिम इतिहासकारों ने भी उल्लेख किया है। मध्‍यकालीन भारत ने ऐसे सांस्कृतिक संघर्ष को देखा, जिसमें मुस्लिम काफी भारी पड़े। लेकिन शिवाजी और गुरू गोविंद के उदय के बाद (दोनों पंथ निरपेक्ष राजा थे) हिंदू अस्मिता को काफी बल मिला।

20 फरवरी 1707 को औरंगजेब की मृत्यु के बाद हिंदू-मुस्लिम संबंधों का एक युग खत्म हो गया। उस समय मुगल साम्राज्य अपने रक्तरंजित इतिहास के आधो-काल खंड से जब आगे बढ़ चुका था, तब इसका मुस्लिम वर्चस्व टूटने लगा था। औरंगजेब की मृत्यु से पहले के 180 सालों में में 6 मुगल शासक- बाबर, हुमायूं, अकबर, शाहजहां, जहांगीर और औरंगजेब ने शासन किया। सभी शासक शक्तिशाली थे। अकबर को छोड़कर शेष सभी बहुत हद तक इस्लामी धर्मान्धाता के शिकार थे। जबकि अगले 52 सालों में (1707 से लेकर 1759 तक) आठ मुगल शासक रहे, जिसमें से चार की हत्या कर दी गई, एक को अपदस्थ कर दिया और महज तीन ही शांतिपूर्ण मृत्यु हासिल कर सके। जून 1757 में प्लासी के युध्द में क्लायु के हाथों सिराजुद्दौला की हार के बाद मुगल साम्राज्य का पतन तेजी से होना शुरू हो गया।

भारतीय इस्लाम
18वीं शताब्दी में मराठा-सिख-जाट और राजपूतों के नेतृत्व में स्थानीय शक्तियों ने विदेशी शक्तियों पर अपना अधिकार (क्षेत्रीय-सांस्कृतिक दोनों) जमाना शुरू कर दिया। अंतिम मुगल बादशाह भारतीय मूल्यों से काफी प्रभावित थे। एक खास तरह के इस्लाम का तेजी से विकास हुआ, जिसने अन्य धर्मों के साथ सामंजस्य बैठाया। अवध का नबाव वाजिद अली शाह औरंगजेब से कोसों दूर था। भारत के 95 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम धर्म-परिवर्तन (हिंदुओं) से बने हैं। मेरा विश्वास है कि यह आपसी आदान-प्रदान यदि अंग्रेजों द्वारा बाधित नहीं किया गया होता, तो यहां के मुस्लिम अपने धर्म पर विश्वास करते हुए भी देश की संस्कृति में रच-बस जाते। अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर मराठों का पेंशनर था। दूसरे आंग्ल-मराठा युध्द में पटपड़गंज की लड़ाई में मराठा, ब्रिटिश जनरल लेक के हाथों पराजित हो गए। युध्द की याद में पत्थर का एक छोटा सा स्मारक बना, जो दिल्ली के निकट नोयडा गोल्फ कोर्स के आज भी मौजूद है।

ब्रिटिश के साथ मुठभेड़ मुस्लिमों ने नहीं बल्कि हिंदुओं ने शुरू की। 1857 में पहली गोली बा्रहमण, मंगल पांडे ने चलाई। प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में शामिल अधिकांश शासक हिंदू ही थे, लेकिन उनका मकसद बहादुर शाह द्वितीय को बतौर बादशाह गद्दी पर बैठाना था। दिल्ली की गद्दी पर बैठते ही बहादुर शाह का प्रथम आदेश गौ-हत्या पर प्रतिबंध था और जिसके न होने पर फांसी की सजा का प्रावधान था।

बांटो और राज करो
1857 के विद्रोह को दबाने के बाद परिस्थितियों में भारी बदलाव आया। अपने साम्राज्यवादी हितों को सुरक्षित करने के लिए ब्रिटिश ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति का अनुसरण किया और दो धाराओं की मिलन प्रक्रिया को उलट दिया। एक ब्रिटिश अफसर, कर्नाटिकश ने एशियाटिक रिव्यू में लिखा है कि भारतीय प्रशासन-राजनीतिक, नागरिक व सैनिक- का सिध्दांत Divide et impera होना चाहिए। लार्ड एलफिंस्टोन ने 1859 में एक आफिशियल रिकॉर्ड में दर्ज किया कि क्पअपकम मज पउचमतं रोमन का पुराना सिध्दांत है और यह हमारा भी होना चाहिए। (Lord Elphinstone, Governor of Bombay, Minute of May 14, 1859)। 1888 में सर जान स्ट्राचे लिखते हैं, ‘विशुध्द सत्य यह है कि दो विरोधी धर्मों का एक साथ अस्तित्व भारत में हमारी राजनीतिक स्थिति का एक मजबूत आधार है।’ (Sir John Strachey, India, 1888, p.255½

द्वि-राष्ट्रीय सिध्दांत व अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
‘बांटो और राज्य करो’ की नीति के तहत अंगरेजों ने सर सैयद अहमद खान को प्रोत्साहित करना शुरू किया, जो 1857 की क्रांति से काफी पहले ही ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में शामिल हो चुके थे। 1857 के गदर के दौरान वे अंग्रेजों के साथ रहे। बाद में चलकर वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की (1920), जो बाद में मुस्लिम राजनीति (पाकिस्तान मूवमेंट) का केंद्र बिंदु बना।

सर सैयद इस बात को बखूबी समझते थे कि ब्रिटिश मालिकों की सेवा करके वे मुस्लिमों के हितों की रक्षा बेहतर ढंग से कर सकते हैं। पिछले व वर्तमान शासकों के बीच की मैत्री हिंदुओं के खिलाफ थी। परंपरागत मुस्लिम समुदाय के लिए उन्होंने अपने विचारों को सैध्दांतिक जामा पहनाया। उन्होंने मुस्लिमों व ईसाइयों की मित्रता को इस्लामिक करार दिया। सर सैयद अहमद खान, मुहम्मद एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज फंड कमेटी के अवैतनिक आजीवन सचिव रहे और चंदे निश्चित तौर पर मुस्लिम व ईसाइयों से ही लिए गए न कि किसी अन्य से।

उन्होंने यह भगीरथ प्रयास किया कि मुसलमान व ब्रिटिश सबसे अच्छे मित्र हैं। मुस्लिम राजनीति में सर सैयद की परंपरा मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) के रूप में उभरी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885 में स्थापित) के विरूध्द उनका प्रोपेगंडा था कि कांग्रेस हिंदू आधिापत्य पार्टी है और प्रोपेगंडा आजाद-पूर्व भारत के मुस्लिमों में जीवित रहा। कुछ अपवादों को छोड़कर वे कांग्रेस से दूर रहे और यहां तक कि वे आजादी की लड़ाई से भी हिस्सा नहीं लिया। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ब्रिटिश-भारत के मुस्लिम बहुल राज्यों मसलन-बंगाल, पंजाब में लगभग सभी स्वतंत्रता सेनानी हिंदू या सिख थे।

सर सैयद अहमद की सफलता में अंगरेजों का अपना निहित स्वार्थ था, क्योंकि उन्हें कांग्रेस के प्रतिकार के रूप में देखा गया, क्योंकि ए ओ ह्यूम द्वारा स्थापना के तीन वर्षों के अंदर अंग्रेजों को इस बात का अंदेशा हो गया था कि यह सेटी वाल्व की जगह भस्मासुर साबित होगा। अलीगढ़ कालेज का प्रधानाचार्य अंगरेज, मसलन-थिओडोर बेक व मोरीसन बने, जो सर सैयद अहमद की नीतियों के सक्रिय प्रवक्ता बने। इंग्लैंड में अपने जीवन व कैरियर को त्याग चुके बेक ने भारत में मुसलमानों की सेवा में अपने आप को समर्पित कर दिया। वह अलीगढ़ कालेज की ‘इंस्टीटयूट गजेट’ के कार्यकारी संपादक बने और अपने अनेक संपादकीय और लेखों में कहा कि भारत द्वि-राष्ट्र या अनेक राष्ट्र हैं और इसलिए संसदीय सरकार भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। यदि यह सौंपी जाती है तो बहुसंख्यक हिंदू ही शासक होंगे और कोई मुस्लिम शासक नहीं होगा।

बेक कहते हैं, ‘कांग्रेस का उद्देश्य यह है कि देश की राजनीतिक सत्ता को हस्तांतरण ब्रिटिश से हिंदुओं के हाथ में हो। यह आर्म्स एक्ट को रद्द करने की मांग करती है और सेना के खर्च में कटौती चाहती है। जिससे परिणामस्वरूप सीमाप्रांत की रक्षा कमजोर होगी। मुसलमानों की इस मांग से कोई भी सहानुभूति नहीं है। इसलिए मुसलमानों व अंगरेजों को एकजुट रहना जरूरी है ताकि इन आंदोलनकारियों से लड़ा जा सके और लोकतांत्रिक सरकार को आने से रोका जा सके। इसलिए हम सरकार के प्रति स्वामीभक्ति व एंग्लो-मुस्लिम मित्रता की वकालत करते हैं।’

यहां पर, मार्च 16, 1888 को मेरठ में दिए गए सर सैयद अहमद के भाषण का संक्षिप्त उल्लेख जरूरी है:

क्या इन परिस्थितियों में संभव है कि दो राष्ट्र-मुसलमान व हिंदू-एक ही गद्दी पर एक साथ बैठे और उनकी शक्तियां बराबर हों। ज्यादातर ऐसा नहीं। ऐसा होगा कि एक विजेता बन जाएगा और दूसरा नीचे फेंक दिया जाएगा। ऐसी उम्मीद रखना कि दोनों बराबर होंगे, असंभव और समझ से परे है। साथ ही इस बात को भी याद रखना चाहिए कि हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की संख्या कम है। हालांकि उनमें से काफी कम लोग उच्च अंग्रेजी शिक्षा हासिल किए हुए हैं, लेकिन उन्हें कमजोर व महत्वहीन नहीं समझना चाहिए। संभवत: वे अपने हालात स्वयं संभाल लेंगे। यदि नहीं, तो हमारे मुसलमान भाई, पठान, पहाड़ों से असंख्य संख्या में टूट पड़ेंगे और उत्तरी सीमा-प्रांत से बंगाल के आखिरी छोर तक खून की नदी बहा देंगे। अंग्रेजों के जाने के बाद कौन विजेता होगा, यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करेगा। लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे को नहीं जीत लेगा और उसे आज्ञाकारी नहीं बना लेगा, तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकेगी। यह निष्कर्ष ऐसे ठोस प्रमाणों पर आधारित है कि कोई इसे इनकार नहीं कर सकता।

आगा खां ने 1954 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों को निम्न शब्दों में भेंट दी:
‘प्राय: विश्वविद्यालय ने राष्ट्र के बौध्दिक व आध्‍यात्मिक पुनर्जागरण के लिए पृष्ठभूमि तैयार की है।…अलीगढ़ भी इससे भिन्न नहीं है। लेकिन हम गर्व के साथ दावा कर सकते हैं कि यह हमारे प्रयासों का फल है न कि किसी बाहरी उदारता का। निश्चित तौर यह माना जा सकता है कि स्वतंत्र, सार्वभौम पाकिस्तान का जन्म अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ही हुआ था।’

फखरूद्दीन अली अहमद के जीवनीकार रहमानी बंटबारे में अलीगढ़ की भूमिका के बारे में कहते हैं, ‘… 1940 के बाद मुस्लिम लीग ने अपने राजनैतिक सिध्दांतों के प्रसार के लिए इस यूनिवर्सिटी को एक सुविधाजनक और उपयोगी मीडिया के रूप में इस्तेमाल किया और द्विराष्ट्र सिध्दांत का जहरीली बीज बोया।… यूनिवर्सिटी के अध्‍यापक व छात्र सारे देश में फैल गए और मुसलमानों को यह समझाने की कोशिश की कि पाकिस्तान बनने का उद्देश्य क्या है और उससे फायदे क्या हैं।

अक्टूबर 1947 में ऐसा पाया गया कि पाकिस्तानी सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से अपनी सेना के लिए अफसरों की नियुक्ति की। उस समय उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति को आदेश देना पड़ा कि कोई पाकिस्तानी अफसर यूनिवर्सिटी न आने पाए। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संदिग्ध इतिहास के बावजूद सेक्युलर गुट कानून बनवाने में व्यस्त हैं कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए। यह हास्यास्पद लगता है, क्योंकि अल्पसंख्यक दर्जा के बिना ही यूनिवर्सिटी के 90 प्रतिशत छात्र और शिक्षक मुस्लिम हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस सेक्युलर प्रयासों पर विराम लगा चुकी है।

मुस्लिम अलगाववाद का विस्तार
मुस्लिम समस्या (मुस्लिम अलगाववाद) प्रत्येक संवैधानिक सुधारों के बाद बढ़ती गई, जिसे ब्रिटिश सरकार ने उत्तरदायी सरकार बनाने के मकसद से किया। भारतीय परिषद् कानून (1892) ने पहली बार गवर्नर की विधान परिषद् में मुस्लिमों को अलग से प्रतिनिधिात्व मिला। मुसलमानों को ऐसे वर्ग के रूप में चिह्नित किया गया, जिसका प्रतिनिधित्व होना था। यह बात अलग है कि उनका प्रतिनिधि मुसलमानों के द्वारा नहीं, बल्कि गवर्नर जनरल के द्वारा चुना जाना था। मार्ले-मिंटो सुधार से पहले के बहस-मुबाहिसे के लिए 1906 में एच. एच. खान के नेतृत्व में विशिष्ट मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल लार्ड मिंटो से शिमला में मिला।

उसने मांग की नगरपालिका तथा जिला परिषदों में पृथक निर्वाचन मंडल द्वारा मुसलमानों की निश्चित भागीदारी सुनिश्चित की जाय। प्रांतीय परिषदों में मुस्लिम समुदाय के राजनीतिक महत्व के अनुरूप हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाय। यह भागीदारी एक ऐसे निर्वाचक मंडल के द्वारा तय की जाय, जिसमें केवल मुसलमान हों। इसी तरह की व्यवस्था इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए भी की जाय।

1909 का मार्ले-मिंटो सुधार, जिसने केंद्रीय व प्रांतीय विधान परिषदों का विस्तार किया, ने कुछ सदस्यों के चुनाव की व्यवस्था की। प्रत्येक परिषद् में अतिरिक्त मुस्लिम सदस्यों रखे गए। ये सदस्य पृथक मुस्लिम निर्वाचक मंडल से चुन कर आते थे। पृथक निर्वाचक मंडल मद्रास और असम प्रांतीय परिषद् के लिए छह, बांबे, बिहार, उड़ीसा और संयुक्त पांत के लिए चार और बंगाल के लिए पांच सदस्य चुनने का अधिकार था। साथ ही, मुस्लिमों को यह भी अधिकार था वे आम मतदाता के साथ चुनाव में हिस्सा ले सकें। वास्तव में अंग्रेजों द्वारा पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था पाकिस्तान के निर्माण की तरफ पहला कदम था। 1946 के प्रांतीय चुनावों में उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत को छोड़कर, मुस्लिम लीग ने मुस्लिम क्षेत्रों में कांग्रेस को रौंद दिया।

सिविल सोसाइटी मूवमेंट में मुस्लिम विरोध
मुस्लिमों की राष्ट्रीय राजनीति से जानबूझकर अलगाव बंगाल में पहली बार देखने को मिला। 1851 में बंगाल में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की स्थापना हुई, जिसके अध्‍यक्ष राजा राधाकांत देब और सचिव देवेंद्र नाथ टैगोर बने। धर्म, जाति व भाषा के भेदभाव के बिना कोई भी भारतीय इसका सदस्य बन सकता था। शुरूआत से ही अखिल भारतीय दृष्टिकोण रखा गया और मद्रास व पुणे में इसी तरह के संगठनों से सहयोग भी किया गया।

एसोसिएशन की मांगों में क्या सांप्रदायिक हो सकता था। देश के स्थानीय प्रशासन में सुधार, कानूनों व नागरिक प्रशासन में आवश्यक सुधार ताकि भारतीयों की भलाई सुनिश्चित हो सके, कर में कमी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा, ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार से राहत, स्थानीय उद्योगों का विकास, लोगों की शिक्षा व उच्च प्रशासनिक सेवाओं में प्रवेश के लिए प्रोत्साहन या विधान सभा की दो-तिहाई सीटें भारतीयों के लिए सुरक्षित करना उनकी मांगें थीं।

लेकिन मुस्लिम इन आंदोलनों से यह बहाना बनाकर दूर रहे कि इसमें धनी जमीदारों का आधिपत्य है और यह वर्गीय हितों को देखता है। यह मुसलमानों के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, क्योंकि अधिकांश मुसलमान रैयत या किसान हैं। इसलिए मुसलमानों ने 1856 में मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना की। संगठन का नाम समुदाय को दर्शाता है न कि किसी वर्ग को। लेकिन ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने यह कहकर मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना का स्वागत किया कि यह राष्ट्रीय समस्या को हल करने में मदद करेगा। 1859 में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने रैयत की मांगों का समर्थन किया और शोषक नील उत्पादकों के उस प्रयास में हिस्सा नहीं, जिसमें 1859 के एक्ट-ग् को रद्द कराने का प्रयास किया था। 1860 में इसने सरकार से अनुरोध किया कि इंडिगो प्लांटेशन संबंधी प्रश्नों को हल करने के लिए एक जांच कमेटी नियुक्ति की जाए। यह राष्ट्रीय हित में काम कर रही थी, हालांकि यह उसके वर्गीय हित के खिलाफ भी था। फिर भी मुहम्मडन एसोसिएशन की तरफ से कोई मदद नहीं मिली।

1867 में आनंदमोहन बोस और सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की तरह यह किसी उच्च वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं करता था, बल्कि इसका काम पढ़े-लिखे मध्‍यवर्गीय लोगों में राजनीतिक चेतना फैलाना था। इंडियन एसोसिएशन ने जनहित के लिए अनेक मुद्दों-जैसे आर्म्स एक्ट, वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट, बंगाल टीनैंसी एक्ट 1885 के पक्ष या विरोध में आंदोलन किया। इसने अर्थव्यवस्था, स्थानीय स्वशासन, वैधानिक व्यवस्था तथा प्रेस की स्वतंत्रता जो सभी भारतीयों की हितों से संबंधित थे, के लिए जनमत तैयार किया। हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच दोस्ताना संबंध बनाना एसोसिएशन का एक प्रमुख उद्देश्य था।

परंतु, मुसलमानों की कृपा से यह केवल स्वप्न ही रह गया। 1877 में बंगाल का एक मुसलमान सैयद आमीर अली, जिसे अपने ईरानी वंशज होने का अभिमान था, ने सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना की। इसका घोषित लक्ष्य भारत पर मुसलमानों का सभी वैध और संवैधानिक तरीकों से कल्याण करने का था। उसने तर्क दिया कि मुसलमान शिक्षा और धन में पीछे हैं। इसलिए हिंदू-मुस्लिम भाई-चारा की बात करने के बावजूद कोई भी हिंदू वर्चस्व वाली संस्था मुस्लिम समाज के हितों को प्रतिबिंबित नहीं कर सकती। इसलिए मुसलमानों एक अलग मंच की जरूरत थी।

विचित्र बात यह थी कि जो मुसलमान सैयद आमीर अली का सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन से जुड़ रहे थे, उनकी सामाजिक आर्थिक स्थित उन हिंदुओं के समकक्ष थी, जो इंडियन एसोसिएशन के सदस्य थे। परंतु जब कि इंडियन एसोसिएशन समान भारतीय हितों का पहरेदार था, सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन केवल मुस्लिम हितों की बात करती है। पांच वर्षों के अंदर सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन की सदस्यता 100 से बढ़कर 500 हो गई। आमीर अली चतुराई से पचास शाखाओं का विस्तार बंगाल, बिहार, बांबे प्रेसीडेंसी, संयुक्त प्रांत, पंजाब से लेकर सुदूर लंदन तक किया। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन अपना विलय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में उसकी स्थापना के समय कर दिया। लेकिन सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन ने कांग्रेस से दूरी बनाए रखा।

कांग्रेस की भर्त्सना करते हुए इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ, लाहौर, मद्रास तथा अन्य शहरों के मुसलमानों ने प्रस्ताव पारित किए। द् मुहम्मडन आब्जर्वर, द् विक्टोरिया पेपर, द् मुस्लिम हेराल्ड, द् रफीक ए हिंद तथा द् इंपीरियल पेपर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आलोचना करने में एकजुट थे। इन समाचार पत्रों की कतरनें उत्तर भारत की एक प्रतिष्ठित मुस्लिम प्रकाशन, अलीगढ़ इंस्टीटयूट गजट में लगातार प्रकाशित होती रही।

सर सैयद के समय से लेकर जिन्ना के समय तक मुसलमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहकर आलोचना करते रहे। क्रांग्रेस ने मुसलमानों की आम भागीदारी अल्प रही। 1946 का अंतरिम चुनाव ने मुस्लिम मतदाताओं का मुस्लिम लीग के प्रति भारी समर्थन दर्शाया। मुस्लिम लीग साधारणत: अग्रेजों का वफादार रहा। फिर भी क्या कारण है कि मुस्लिम लीग स्वतंत्र भारत में कई दशकों तक यह मुसलमानों का सर्वाधिक प्रिय पार्टी बनी रही। यह बात तय हैं कि स्वतंत्रता-सह-बंटवारा की सुबह मुसलमान हिंदुओं के प्रति कोई विशेष प्रेम विकसित नहीं कर पाए। कांग्रेस शासन के दौरान अनेक बड़े दंगे भारत को अपने चपेट में लेता रहा। इस विरोधाभास का उत्तर तब मिलता है, जब हम सुविधा के गठजोड़ की तरफ देखें।

युवराज कृष्ण (भारत-विद्या के महान विद्वान एवं सेवानिवृत्ता सिविल अधिकारी) ने अपनी पुस्तक ‘अण्डरस्टैण्डिंग पार्टिशन’ में कहा है: अपने प्रस्तावों में, मंचों पर और प्रेस में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस, विशेष रूप से 8 प्रांतों में कांग्रेसी सरकार के खिलाफ जमकर प्रचार किया। कांग्रेस पर आरोप लगाया गया कि उसने हिन्दू राज्य की स्थापना और भारत के मुसलमानों की संस्कृति एवं धर्म तथा उनके राजनीतिक व आर्थिक अधिकारों को मिटा डालने का इरादा कर रखा है। आरोपकर्ताओं को बार-बार चुनौती दी गई कि वे साम्प्रदायिक अत्याचार और मुसलमानों पर प्रभुत्व जमाने के कुछ तो उदाहरण पेश करें। इस चुनौती के जवाब में उन्होंने बड़े अस्पष्ट और अनिश्चित प्रकार के आरोपों, एक-तरफा कहानियां बनाने, विकृत भ्रांतियां और अतिश्योक्तिपूर्ण बातें ही कहीं। उन्होंने मुस्लिम संस्कृति को कुचलने के प्रयासों के उदाहरण पेश किए, उनमें वन्देमातरम् गान, सार्वजनिक संस्थानों पर राष्ट्रीय ध्‍वज फहराने, हिन्दुस्तानी का प्रचार करने जैसी बातें शामिल है। इस प्रकार की गतिविधियां कोई नई नहीं थी। 1920 से ही राष्ट्रीय ध्‍वज विदेशी शासन के खिलाफ और राष्ट्रीय अखण्डता का प्रतीक रहा है। वर्तमान शताब्दी के आरम्भ से ही ऐतिहासिक एसोसिएशनों ने राष्ट्रीय गीत के रूप में वन्देमातरम् का गान करती रही है और विभाजन से पहले से ही चलता आ रहा था। इसके खिलाफ मुस्लिम आन्दोलन एक नई बात थी। यहां भी, कांग्रेस ने केवल इस गीत के उस अंश को गाने की अनुमति दी थी जिस पर किसी को कोई आपत्ति हो ही सकती थी। कांग्रेस ने जिस आम भाषा की वकालत की थी, वह हिन्दुस्तानी थी, जिसे उत्तरी भारत में बोला और नागरी अथवा देवनागरी लिपि में लिखा जाता था। ये सभी गतिविधियां बहुत पुरानी थीं परन्तु इनके बारे में लीग का विरोध नया था। फिर भी, हर जगह जहां भी विरोध हुआ, कांग्रेसजनों और कांग्रेस सरकार संघर्ष से बचती रही।

मुस्लिम लीग की परिषद ने कांग्रेसी सरकारों के खिलाफ ऐसे सभी तथा अन्य अस्पष्ट से आरोपों को इकट्ठा करने के लिए एक विशेष समिति बनाई। एक रिपोर्ट पेश हुई जो पीरपुर रिपोर्ट के नाम से विख्यात है। इसके शीघ्र बाद ही संसदीय उप-समिति के अध्‍यक्ष श्री वल्लभभाई पटेल ने कांग्रेसी मंत्रियों से प्रत्येक आरोप की जांच करने और रिपोर्ट देने को कहा। कांग्रेसी सरकारों ने इन सभी आरोपों का ब्यौरेवार उत्तार तैयार कर उन्हें बेबुनियाद बताते हुए विज्ञप्तियां जारी कीं। क्या आज भी ये परिचित सी नहीं लगती हैं? अब जरा कांग्रेस के स्थान पर भाजपा को और विभाजन पूर्व मुस्लिम लीग के स्थान पर कांग्रेस और अन्य सेक्युलर पार्टियों को रख कर देखें तो आपको महसूस होगा कि जैसे इतिहास फिर से दोहराया जा रहा है।

गांधी और मुस्लिम तुष्टीकरण
कांग्रेस के नेता सदा ही मुस्लिमों को अपने साथ जुटाने के लिए लालायित थे। कुछ मुस्लिम पुरुष जैसे बदरूद्दीन तैयबजी (1887), रहिमतुल्ला एम. सायानी (1896) और नवाब सैय्यद मौहम्मद बहादुर (1919) इसके अध्‍यक्ष भी बने। परन्तु एक समुदाय के रूप में मुस्लिम कांग्रेस से अलग ही रहे। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने लिखा है: ”हम इस महान राष्ट्रीय कार्य में अपने मुसलमान देशवासियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रहे हैं। कभी-कभी तो हमने मुसलमान प्रतिनिधियों को आने-जाने का किराया तथा अन्य सुविधाएं भी प्रदान कीं।”

मुस्लिम सहयोग पाने के लिए जरूरत से ज्यादा झुक जाने की परम्परा गांधीवादी कांग्रेस की विशेषता बन गई थी। गांधी ने मजहबी-नैतिक दृष्टि से ‘हिन्दू-मुस्ल्मि एकता’ मुद्दे को देखा। उन्होंने इसे अपने सिध्दांत हिंसा की तरह स्वतंत्रता आंदोलन के लिए अपनी आस्था का मुद्दा बना लिया, हालांकि उनके इस सम्पर्क प्रयास को बहुत कुछ सफलता नहीं मिली। सम्भवत:, शायद ही कुल चार प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या ही कांग्रेस की तरफ आकर्षित हो पाई।

वस्तुत: गांधी पहले ऐसे कांग्रेसी नेता थे जिन्होंने मुसलमानों को सुधारने की कोशिश की और उन्होंने निष्क्रिय पड़े खलीफाओं के संस्थानों को बचाने के लिए भी कट्टरवादियों के साथ हाथ मिलाया। मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) शिक्षित कंजर्वेटिव लोगों का केन्द्र थी, परन्तु ये ऐसे दकियानुसी मुस्लिम नहीं थे, जिन्होंने मुस्लिम हितों को आधुनिक आधार पर आगे न बढ़ाया हो। लीग बड़ी कड़ाई से खलीफा आन्दोलन से दूर रहे क्योंकि वे मानते थे कि इससे कट्टरवादियों को शह मिलेगी। परन्तु गांधीजी ने खिलाफत का चैम्पियन बनकर जबरदस्त परिवर्तन ला दिया। उनके सुप्रसिध्द असहयोग आन्दोलन 1 अगस्त 1920 (जैसा कि उसी दिन की तारीख के वाइसराय को लिखे उनके पत्र से स्पष्ट है) निजी स्तर पर शुरू हुआ, जो वास्तव में खिलाफत प्रश्न पर था, जिसका उल्लेख 4 सितम्बर 1920 के कांग्रेस प्रस्ताव में हुआ था। उक्त प्रस्ताव को पढ़ने से स्पष्ट है कि असहयोग आन्दोलन खिलाफत की बहाली के लिए शुरू किया गया और स्वराज की बात तो जैसे सरसरी तौर पर कही गई हो।

गांधी जी का खिलाफत आन्दोलन
खिलाफत तथा असहयोग आन्दोलन ने मुस्लिम दकियानूसी ताकतों को भारतीय राजनीति में फिर से ले आया जो 1857 के बाद से कभी संभव नहीं हो पा रहा था। बहुत से मुस्लिमों के लिए जो सामान्यतया अनपढ़ होते हैं, स्वराज भारत में मुस्लिम शासन की पुन: स्थापना का पर्याय बन गया। मालाबार (केरल) में भयावह माफला नरसंहार इसका उदाहरण है। खिलाफत आंदोलन से उपजी सर्व-इस्लामी सरगर्मी में हताश होने का आक्रोश हिन्दुओं पर उतरा। दंगों की लहर दौड़ गई जिसमें हिन्दुओं को भारी नुकसान उठाना पड़ा। फिर भी गांधी जी ने (6 दिसम्बर 1924 के) ‘यंग इण्डिया’ अंक में लिखा: ”हिन्दू-मुस्लिम एकता किसी भी तरह चरखा-कताई से कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह हमारे जीवन की श्वास-रेखा है।”

गांधी जी ने भारतीय मानस को चकाचौंध कर दिया, परन्तु ये हिन्दू ही थे जिन्होंने गांधी को एक राजनीतिक नेता से कहीं अधिक उनका ‘ईश्वरीय रूप’ स्वीकार कर लिया। परन्तु गांधी में हिन्दुओं की इस आस्था का शोषण हुआ, क्योंकि उनकी यह आस्था अंध-विश्वासी थी। क्या हिन्दुओं को 23 मार्च 1940 के ‘हरिजन’ में गांधी जी ने जो कुछ कहा था, उसे मान लेना चाहिए था- ”यह मुस्लिम ही थे, जिन्होंने अकेले जोर-जबर्दस्ती से या अंग्रेजों की सहायता से अशांति भारत पर लाद दी थी।” यदि कांग्रेस को अपने पक्ष में कर सकता हूं तो मैं मुसलमानों को ताकत का उपयोग नहीं करने दूंगा। मैं उन्हें अपने ऊपर शासन करने दूंगा क्योंकि आखिर फिर भी यह भारतीय शासन ही होगा।” (देखिए कलेक्टेड वक्र्स आफ महात्मा गांधी, खण्ड 78, पृ. 66)।

गांधी जी ने बहुत पहले राष्ट्र के पीठ पीछे 1944 में विभाजन पर बातचीत की थी, जब वे जिन्ना से मालाबार हिल्स, बम्बई के निवास पर चौदह बार मिले थे। फिर भी, वे 1947 तक विभाजन की संभावना से इंकार करते रहे, परन्तु उन्होंने इसे रोकने के लिए जरा कुछ नहीं किया। गांधी जी ने ‘मुस्लिम प्रश्न’ पर सबसे बड़ा नुकसान किया जब उन्होंने यह कह कर इतिहास को झुठला दिया कि ब्रिटिश शासन से पहले हिन्दु-मुस्लिम वैर-भाव नहीं था और अंग्रेजों ने इसकी शुरूआत की। गांधी जी के हिन्दू-मुस्लिम एकता के सिध्दांत ने हिन्दुओं के साथ धोखा किया क्योंकि उनके शांतिवाद ने हिन्दुओं को कमजोर कर दिया।

कम्युनिस्ट और तुष्टिकरण
भारतीय राजनीति में सबसे अधिक पथ भ्रष्ट लोग कम्युनिस्ट हैं। 1943 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मास्को-आधारित कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल का भारतीय अध्‍याय बनी रही।

एम.एन. राय की ‘दि हिस्टोरिकल रोल आफ इस्लाम’ (1937) में लिखा है कि कम्युनिस्टों का दृष्टिकोण इस्लाम को क्रांतिकारी और हिन्दू धर्म को पश्चगामी बताया गया है, जबकि अपने आवरण परिचय में राय ने लिखा है कि ‘इस्लाम की अपार सफलता के पीछे प्रमुख कारण यह रहा है कि इस्लाम ने ग्रीस, रोम, पर्शिया तथा चीन एवं भारत की प्राचीन सभ्यताओं के पतन से उत्पन्न अत्यंत निराशाजनक स्थितियों से लोगों को बाहर निकालने की क्रांतिकारी क्षमता रही है।”

राय का कहना है कि आज भारत, विशेष रूप से हिन्दुओं में मानव संस्कृति के अंशदान में इस्लाम की जो ऐतिहासिक भूमिका रही है, उसको समुचित ढंग से समझने का सर्वोच्च राजनीतिक महत्व बन गया है।” राय का मानना है कि मुस्लिमों के प्रति हिन्दुओं की पूर्वाग्रह की जड़ में इतिहास की गुलामी के संस्मरण पीड़ा पहुंचाते हैं।

राय मुस्लिम हमलावरों मंदिर-विध्‍वंस की कार्रवाई को न्यायसंगत मानते हैं। ”युगों से, थानेश्वर, मुत्तारा, सोमनाथ आदि प्रसिध्द मंदिरों की जा रही दैवीय चमत्कारिक शक्तियों से लाखों लोगों को राहत मिली। इन मन्दिरों के पुजारियों ने लोगों की भावना के आसरे पर विशाल धन-सम्पत्ति जमा कर ली थी। अचानक ही, इन कू्रर हमलावरों के आघात से कार्ड के पत्तो की तरह यह आस्था और परम्परा का सम्पूर्ण ढांचा टूट गया। जब मौहम्मद की सेना हमला करने आई तो पुजारियों ने लोगों को बताया कि हमलावर ईश्वर के भयानक आक्रोश का शिकार हो जाएंगे। लोगों को चमत्कार की आशा थी, जो पूरी नहीं हुई। बल्कि हमलावरों के ईश्वर ने चमत्कार कर दिखाया। चमत्कार पर आधारित होने के कारण आस्था भी उसी चमत्कारिक ढंग से बदल गई। मजहब के सभी पारम्परिक स्तरों की हिसाब से उस संकट के समय जिन लोगों ने इस्लाम कबूल कर लिया, उन्हें सबसे अधिक धार्मिक माना जाने लगा।” राय के अनुसार इस्लाम में आस्था मजहब है, परन्तु हिन्दू धर्म में आस्था मात्र अंधविश्वास बन कर रह गया।

बाद में उसी वर्ष मुस्लिम लीग ने लाहौर में (1940) के विभाजन या पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित हुआ तो कम्युनिस्टों ने आल इण्डिया स्टूडेण्ट्स फेडरेशन के सम्मेलन में मल्टीपल विभाजन प्रस्ताव पेश कर दिया। वहां हिरेन मुकर्जी और के एस अशरफ ने पूरे भारत की ओर से कांग्रेस को चुनौती दे डाली। प्रस्ताव पारित किया गया कि ”भारत के भविष्य को पारस्परिक विश्वास के आधार पर क्षेत्रीय राज्यों का स्वैच्छिक परिसंघ होना चाहिए।” इस प्रकार कम्युनिस्टों ने भारत के आदर्शों को मल्टी नेशनल राज्यों के रूप में स्वीकार किया। जहां जिन्ना ने ‘द्विराष्ट्रीय सिध्दांत’ का प्रचार किया, वहीं कम्युनिस्टों ने ‘मल्टीनेशनल थियोरी’ का प्रतिपादन कर दिया।

कम्युनिस्टों ने इसी थियोरी पर चलते हुए पाकिस्तान के हितों का समर्थन किया। सच तो यह है कि कम्युनिस्टों ने जिन्ना के हाथों में ‘आत्म-निर्णय के उस अधिकार’ को सौंप कर जिन्ना की वह आवश्यकता पूरी कर दी जो उसे आधुनिक भाषा के रूप में पाकिस्तान बनाने की युक्तिपूर्ण ठहराने के लिए जरूरी थी। सितम्बर 1942 में सीपीआई के केन्द्रीय समिति ने प्रस्ताव पारित किया।

स्वतंत्रता के बाद की कम्युनिस्ट रणनीति
स्वतंत्र भारत में कम्युनिस्टों ने बुध्दिजीवियों (मीडिया) पर कब्जा कर लिया। नेहरू की कृपा से वे ऐसा करने में सफल रहे क्योंकि नेहरू का कम्युनिज्म के प्रति गहन आकर्षण था, नेहरू सोवियत संघ के प्रशंसक और चीन के मित्र थे। जबकि कम्युनिस्ट सभी धर्मों को खारिज करते हैं या उनसे बराबर की दूरी बनाकर रखते हैं, परन्तु वास्तव में उनका झुकाव मुस्लिमों के प्रति रहा। वामपंथियों ने मुस्लिमों के मूर्ति भंजन और मध्‍ययुग में उनके अत्याचारों को तो सराहा परन्तु मीडिया में हिन्दुओं के झगड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया और मुस्लिम कट्टरपंथियों पर ध्‍यान नहीं दिया और ‘हिन्दुओं की छवि फासीवाद’ बना डाली।

स्वतंत्र भारत के मुस्लिम कांग्रेसी की तरफ क्यों झुके?
भारत के विभाजन का मतलब था कि दो तिहाई मुस्लिम पाकिस्तान का हिस्सा बन गए। बाकी एक तिहाई मुस्लिम हिन्दु-बहुल भारत में जनसांख्यिकी रूप से कमजोर थे। पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू और सिखों की दर्दनाक गाथा ने भारत में मुस्लिम विरोधी मिजाज तैयार कर दिया था। भारत के मुसलमान स्वयं को मुसीबत में महसूस कर रहे थे। ब्रिटिश शासन के स्वर्ण युग में उन्होंने जिस कांग्रेस की भर्त्सना की थी, अब वह कांग्रेस धोती-धारिया वाली, संघर्ष करने वाली पार्टी नहीं रह गई थी, अब तो वह सत्ता में थी और देश के शासन पर पूरा अधिकार था। इसके अलावा, सेना और पुलिस में, जहां ब्रिटिश शासन में मुस्लिमों का प्रभुत्व था, अब यहां हिन्दू विराजमान थे। अब इन मुस्लिमों ने खत्म हो जाने की बजाए घास खाना पसंद किया। उन्होंने कांग्रेस की छत्रछाया में जाना उचित समझा। यह सर सैयद अहमद खां की नीति जैसा था कि अगर आप शत्रु को हरा नहीं सकते तो उसके साथ जा मिलो। इस व्यक्ति ने 1857 से पहले ब्रिटिश और मुस्लिम, जो दोनों एक दूसरे के जानलेवा का दुश्मन थे, के बीच न केवल आपस में मेल मिलाप कर दिया, बल्कि, एक विशेष सम्बंध भी बनवा दिए। इस कारण यह था कि वे दोनों स्थितियों में जीत की हालत में थे।

यह पूछा जा सकता है कि स्वतंत्र भारत में कांग्रेस को मुस्लिमों से क्या लाभ हुआ? स्पष्ट है कि इसे चुनावी लोकतंत्र में उन्हें मत प्राप्त हुए। इसके अलावा, हालांकि मुस्लिमों ने सदा ही कांग्रेस को दुलारा है, फिर भी कांग्रेस उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने में लगी रहती है, चाहे इसके लिए उन्हें कितना ही झुकना न पड़े। कांग्रेस को विभाजन की प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टियों से भय था कि कहीं वे उसे चुनौती देकर अपना एकाधिकार न कर लें। हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी जनसंघ ने भारत के प्रथम आम चुनाव में भाग लिया। नेहरू चुनाव परिणामों में असफल नहीं होना चाहते थे, इसीलिए वे मुस्लिम मतों की तरफ झुके। नेहरू मुस्लिम मतों के बिना भी जीत सकते थे। परन्तु पूरे के पूरे मुस्लिम मतों को अपनी तरफ आता देख कर वह उन मतों की तरफ झुक गए। चुनावों में मुस्लिम मतों से अतिरिक्त लाभ लेने के लिए ‘सेक्युलरिज्म’ की बात कही जाने लगी।

नेहरू हिन्दू धर्म को अवमानना की दृष्टि से देखते थे और मानते थे कि वह संयोग से ही हिन्दू हैं। उन्होंने एक थियोरी निकाली कि फासीवाद हिन्दू राष्ट्रवाद के माध्‍यम से आ सकता है। वह कांग्रेस में हिन्दू प्रवृत्ति की तरफ झुकने वाले लोगों से परेशान थे जैसे राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभभाई पटेल, पीडी टण्डन, केएम मुंशी आदि। नेहरू की मृत्यु पर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि नेहरू जन्म से ब्राह्मण, शिक्षा में यूरोपीय और आस्था में मुसलमान थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू को भारत का राष्ट्रवादी मुसलमान बताया था। वे हिन्दू राष्ट्रवाद के खिलाफ इस लड़ाई में मुस्लिमों को स्वाभाविक विदेशी मानते थे। मुस्लिमों के लिए इसका अर्थ सर सैयद अहमद बनाम अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल की गई प्रतिकृति थी।

मदरसे
कांग्रेस एकाधिकार की कब्रगाह से निकली अन्य पार्टियों ने सेक्युलरिज्म को राजनीतिक अनिवार्यता बना दिया। हर पार्टी ने ‘सेक्युलर’ की गलत राह पर चलने के लिए कांग्रेस को मात देने की कोशिश की। इमाम, मौलाना और मौलवियों पर उनकी निर्भरता के कारण मदरसों, उर्दू आदि की प्रगति के लिए दी जाने वाली राशि ने एक विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी है। आज भारत में स्वतंत्रता के बाद कुछ हजार मदरसों की तुलना में लाखों-लाखों मदरसे खड़े कर दिए हैं।

अच्छे से अच्छे वातावरण में भी मदरसों की पाठयचर्या में दीने-तालीम केन्द्रित रहता है अर्थात् यहां कुराने-पाक, अदीस, शरीयत लॉ, इस्लामिक धर्मशास्त्र, अरबी, फारसी और उर्दू की पढ़ाई की मजहबी शिक्षा दी जाती है। विद्यार्थियों को भारत में इस्लाम के आगमन और इसके अरबिया, पार्शिया, मिस्र और टर्की आदि में फैलाव का इतिहास पढ़ाया जाता है। मदरसे की पाठयचर्या से शायद ही आज के विश्व से कोई जुड़ाव रहता है और सच तो यह है कि इसके कारण उनके यहां जन्म लेने वाले देश तथा अन्य समुदायों की संस्कृति से उनका कोई नाता नहीं रहता है।

अलगाव की प्रक्रिया
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुस्लिम राष्ट्र की आकांक्षाओं तथा चिंताओं की मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ गए हैं, जिसकी शुरूआत ब्रिटिश इण्डिया से हुई थी और अब उसकी गति ‘सेक्युलर षडयंत्र’ की सक्रिय मदद से स्वातंत्र्योत्तार युग में बढ़ गई है।

1969 में मुस्लिम लीग के दबाव में मालापुरम के मुस्लिम बहुल इलाकों को कुछ अन्य जिलों की भौगोलिक सीमाओं का पुनर्गठन कर बनाया गया। एक सेक्युलर राज्य द्वारा मजहबी आधार पर एक नया जिला बनाया गया ताकि मुस्लिम गैर मुस्लिम काफिरों के प्रभुत्व से मुक्त होकर रह सके।

तुष्टिकरण की कीमत चुकानी पड़ती है। कांग्रेस सरकार ने 1959 में मुस्लिमों की हज सब्सिडी शुरू की थी। 57 मुस्लिम देशों में से कोई भी ऐसी सब्सिडी नहीं देता है। तुष्टिकरण नीति के अन्तर्गत राजीव सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित किया और शाहबानो जजमेंट को शून्यीकृत बना दिया। गांधीजी की कांग्रेस ने 1932 में ‘कम्युनल एवार्ड’ खारिज कर दिया था। परन्तु अब सोनिया गांधी की कांग्रेस ने सरकारी नौकरियों में मुस्लिम आरक्षण की शुरूआत कर दी है। कांग्रेस पार्टी उस मुस्लिम लीग के साथ सरकार बनाने पर खुश है, जिसने पाकिस्तान की मांग की और वह बन भी गया। ‘सेक्युलर षडयंत्र’ आतंक के प्रति नरम रूख अपनाए है और यूपीए सरकार ने 1995 में बने टाडा की तरह ही पोटा को भी निरस्त कर दिया है। युध्द में लिप्त कश्मीर से सुरक्षा बलों को हटाने की योजना बन रही है। सेक्युलर प्रचार की कृपा से देश ने जनसांख्यिकीय हमलों को भुला दिया है, जिससे देश की सुरक्षा और भविष्य को गम्भीर खतरा पैदा हो गया है।

द्वितीय विश्व युध्द के आरम्भ होने से पहले ब्रिटिश द्वारा अपनाई गई जर्मनी के बारे में तुष्टिकरण की नीति की आलोचना करते हुए सर विंस्टन चर्चिल ने कहा था- ”अब भी, अगर आप उन अधिकारों के लिए नहीं लड़ेंगे, जबकि आप बिना खून खराबे के जीत सकते हैं; यदि आप उस विजय के लिए नहीं लड़ेंगे जो निश्चित ही आपको मिलेगी और यह विजय महंगी भी नहीं रहेगी; तो फिर आप ऐसे क्षण पर पहुंच जाएंगे जब आपको अपने ही खिलाफ हर प्रकार की मुसीबत का सामना करना पड़ेगा और आपके लिए जिंदा रहने का बहुत कम अवसर रह जाएगा।” क्या यही कथन आज हमारे लिए भी प्रासंगिक नहीं है?

लेखक- बलबीर के. पुंज

अंतिम जय का अस्त्र बनाने नव दधीचि हड्डियां गलाएं

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चावल के बारे में एक अदभुत प्रसंग है, कृष्ण और सुदामा का। ऊहापोह की स्थिति है सुदामा के पास, वे कृष्ण से मिलने जाना चाहते हैं लेकिन अपने बाल सखा के लिए उपहार लेकर क्या जाएं यही समझ में नहीं आ रहा है उन्हें। अंतत: दो मुठ्ठी चावल कांख में दबाए द्वारिकाधीश से मिलने निकल पड़े थे सुदामा। कहते हैं कि उसी चावल के बदले जनार्दन ने राज-पाट से संपन्न कर दिया था अपने गुरु भाई को।
लोकतंत्र, सत्ता के शीर्षासन का भी नाम है। यहां पर जनार्दन की भूमिका जनता को मिली होती है और जब विकास यात्रा से लेकर चुनाव प्रचार यात्रा डॉ. रमन सिंह अपने जनार्दन से मिलने निकले थे तो उनकी पोटली में भी वही चावल था। वही सुदामा सुलभ संकोच एवं सेवा करने का अवसर दुबारा देने का याचना भाव लेकर उनके सामने थे। प्रतिसाद भी उसी तरह मिला और दुबारा में भाजपा की सरकार सुनिश्चित हो गई। 1 नवंबर 2000 की अर्धरात्रि को छत्तीसगढ़ का निर्माण हुआ था और 8 दिसंबर को भरोसे का निर्माण हुआ है। इस जीत को भरोसे की जीत में तब्दील करने की महती जिम्मेदारी डा. रमन सिंह को नियति ने दी है। अपने पुराने अनुभवों से सीख एवं गलतियों से सबक लेकर, अपनी स्वाभाविक सरलता, सहजता, विनम्रता एवं भरोसे के साथ राय को विकास के पथ पर सरपट दौड़ाना उनकी चुनौती होगी।
विजय मिली, विश्राम नहीं, इसी अटल उद्धोष को उन्हें मूलमंत्र बनाना होगा। नक्सलवाद, गरीबी, अशिक्षा, जनोपयोगी औद्योगीकरण, पिछड़ापन, पलायन ये सभी ऐसे मुद्दे सरकार के सामने होंगे जिसे इसी क्रम में प्राथमिकता बनानी होगी। नक्सलवाद पर एक सुस्पष्ट संदेश छत्तीसगढ़जनों को देना होगा कि अपने आदिवासी बंधुओं की जान से यादा महत्वपूर्ण शासन के लिए कुछ भी नहीं है। बस्तरजनों की गरदन की तरफ बढ़े हर हाथ को काट देना सरकार अपना धर्म समझती रहेगी। दण्डकारण्य की 12 सीटों में से 11 पर भाजपा की विजय और वामपंथ का नेस्तनाबूद हो जाना इसका प्रमाण है कि सभी बस्तर बंधु भाजपा के साथ हैं। मुखिया को ये याद रखकर एक स्पष्ट और कड़ा कदम उठाना होगा कि कांग्रेस को वन क्षेत्रों में सबसे ज्‍यादा खामियाजा उसकी ढुलमुल नीतियों के कारण ही उठाना पड़ा है। सभी तरह के अमानवाधिकारवादियों को कुचलना (जी हां कुचलना ही) इस बार का जनादेश है। इसी तरह औद्योगीकरण का सबसे यादा फायदा यहीं के लोगों को मिले, प्रदेश की खनिज संपदा के सबसे पहले लाभार्थी यहां के माटी पुत्र ही हों, ऐसी नीति का निर्धारण सरकार को करना होगा। इसके अलावा समूचे भारत को अपना घर मानकर देश के किसी भी कोने में सम्मानजनक रोजगार के लिए प्रदेशजनों का प्रवास करना पलायन ना समझा जाए, ऐसी परिभाषा भी शासन को विकसित करनी होगी। इस हेतु लोगों को शिक्षित-प्रशिक्षित करने का कार्य सरकार की प्राथमिकता में शामिल करना होगा।
यदि मुख्यधारा के चारों रायों के परिणाम पर नजर डालें तो (जातीय संघर्षों के कारण राजस्थान के अपवाद को छोड़कर) मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि सरकारें अब अच्छा काम करने लगी हैं। लोगों का समर्थन व्यवहारकुशल एवं विनम्र प्रतिनिधि को मिलने लगा है। रमन, शिवराज और शीला में यह समानता तो है ही कि इन तीनों की भलमनसाहत इनकी आदमीयत पर विपक्षियों को भी कभी कोई संदेह नहीं रहा है….आदमी में आदमीयत है, चलो यूं ही सही। लेकिन हमारे लिए लोगों को यह संदेश भी देना समीचीन होगा कि अपनी भलमनसाहत केवल साधुजनों के लिए ही है। परित्राणाय साधुनाम, विनाशाय च दुष्कृताम।

2008 के चुनाव परिणाम ने भाजपा के मार्ग को सुगम जरूर बनाया है, उसके कार्यों पर मुहर अवश्य लगायी है, लेकिन यह एक पड़ाव है, मंजिल नहीं। दण्डकारण्य के ही रामायण प्रसंग से कलम विराम को प्राप्त होगी। यहीं पर साधुजनों की हड्डियों का ढेर देख भगवान राम ने पृथ्वी को राक्षसों से विहीन करने का संकल्प लिया था। छत्तीसगढ़ में जनादेश शायद उस संकल्प को दोहराने का भी है। इस संकल्प की पूर्ति में खुद को दधीचि बनना पड़े तो इसे अपना सौभाग्य मानना होगा। मुख्यमंत्री समेत तमाम भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए यह विजय अवसर अटल संकल्प दोहराने का है कि हम पड़ाव को मंजिल समझ लक्ष्य को ओझल नहीं होने दें। और लक्ष्य है छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा के द्वारा माँ भारती को वैभव के चरमात्कर्ष पर पुनर्स्थापित करना। यह समय नवजागरण और पुनर्जागरण का है!

जयराम दास

jay7feb@gmail.com

भारत में चर्च के पैसे से चलाया जा रहा है माओवादी तोड-फोड

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उडीसा के कंधमाल में संत लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की जिम्मेदारी माओवादियों ने अपने ऊपर लेकर साबित कर दिया है कि माओवादी भारतीय सनातन मान्यताओं के खिलाफ और चर्च परस्त है। हालांकि जिस व्यक्ति ने अपने ऊपर हत्या की जिम्मेवारी ली है वह माओवादी है या नहीं यह भी खोज का विषय है लेकिन चर्च और चर्च समर्थित मीडिया द्वारा किये गये प्रचार से साबित हो गया है कि लक्ष्मणानंद कि हत्या चर्च के इशारे पर माओवादियों के द्वारा की गयी है।
माओपंथियों का चर्च समर्थित व्यक्तित्व कोई एक दो दिनों में नहीं गढा गया है। याद रहे भारतीय उपमहाद्वीप में माओवादियों का नेतृत्व सदा से चर्च समर्थकों के हाथ में ही रहा है। 70 के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी से चरम वामपंथियों के अलग होने के पीछे सारे कारणों के अलावे एक कारण ईसाइयत एप्रोच भी था। कानू सन्याल या फिर चारू मोजुमदार के व्यक्तित्व से साफ झलकता है कि वह भारतीय परंपराओं के खिलाफ और ईसाइयत का हिमायती था। यही नहीं बिहार के एक कैथोलिक ईसाई पादरी को योजनाबद्ध तरीके से माओवादियों के साथ लगाया गया कि वह वहां चर्च की मान्यताओं को सिखाए। कई माओपंथियों को चर्च में शरण लेते देखा गया है। माओवादियों की चर्च परस्ती कोई नई बात नहीं है। ऐसे भी ईसाइयत, इस्लाम और मार्क्सवाद तीनों भोग के प्रति समान विचार रखता है। यही कारण है कि साम्यवाद, इस्लाम और ईसाइयत से अपने आप को निकट महसूस करता है जबकि भारतीय चिंतन से कोसों दूर महसूस करता है।
चर्च भारत को एक राजनीतिक स्वरूप में नहीं देखना चाहता है। यही कारण है कि जहां जहां चर्च की ताकत बढी है वहां-वहां पृथकतावादी मानसिकता का उदय हुआ है। गंभीरता से विचार करने और भारत, नेपाल, वर्मा, श्रीलंका आदि देशों में साम्यवाद के चरमपंथ की ठीक से मीमांसा करने पर स्पष्ट हो जाता है कि माओवादी चर्च से ही प्रेरणा लेते हैं। झारखंड, छतीसगढ, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, उडीसा आदि राज्यों के माओवादी अध्यन से पता चला है कि आला माओपंथी नेता चर्च में शरण लेते हैं। वर्ष 2002 में झारखंड में दो पादरी को माओवादी गतिविधियों में संलिप्त होने के कारण गिरफ्तार किया गया था। इधर के दिनों में लगातार झारखंड, छतीसगढ, बंगाल और उडीसा के अलावा बिहार में माओवादियों ने इमानदार और हिन्दू आस्था पर श्रध्दा रखने वाले लोगों की हत्या की। यही नहीं कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं को जंगल में काम करने से माओवादियों के द्वारा रोका भी गया है।
विकास भारती के संचालक अशोक भगत, गांधी आश्रम से जुडे कई कार्यकर्ताओं को आदिवासी हितचिंतक होने के बावजूद पीपुल्स वार ग्रुप के चरमपंथियों ने कई बार अपहरण किया है। हालांकि सामाजिक पकड होने के कारण उन्हें छोडना पडा लेकिन जंगल में काम करने वाले, आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान के लिए लडने वालों पर आज भी माओवादी खतरा मंडरा रहा है। कई बार छतीसगढ में हिन्दु संतों पर आक्रमण हो चुका है। इन तमाम आक्रमणों में एक भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता जिससे यह साबित हो कि माओवादी चर्च के भी उतने ही दुश्मन हैं जितने हिन्दुत्व के। उक्त प्रदेशों में पादरी या चर्च से संबंधित लोगों की हत्या अगर हुई भी है तो आपसी षड्यंत्र के कारण न कि बाहरी हस्तक्षेप के कारण। वर्ष 2000 में लोहरदग्गा(ततकालीन बिहार अब झारखंड) के जिला पुलिस अधीक्षक अजय कुमार सिंह की हत्या माओवादियों ने कर दी। उक्त अधिकारी जंगल में चर्च के नाजायज गतिविधियों पर अंकुश लगाने का काम किया था। मिशनरियों को अबैध गतिविधियां चलाने में परेशानी होने लगी और चर्च के इशारे पर माओवादियों ने अजय को मौत की घट उतार दिया। यही हस्र भभुआ (बिहार) डीएफओ संजय सिंह के साथ हुआ। उसने भी चर्च की गतिविधयों पर अंकुश लगाने का प्रयास किया था लेकिन उसकी भी हत्या कर दी गयी। डीएफओ संजय के कारण तो जंगल के आदिवासी सजग होने लगे थे। चर्च की गतिविधियों और षडयंत्रों को समझने भी लगे थे। चर्च को अपने काम में हो रहे अवरोधों के कारण चर्च ने संजय की हत्या का षड्यंत्र किया। दोनों होनहार अधिकारी माओवादियों के हाथों मारा गया लेकिन इसके पीछे चर्च के हाथों से इन्कार नहीं किया जाना चाहिए।
तमाम आंकडों को एकत्र कर समीक्षा की जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप का माओवादी पूर्णरूपेण चर्च के इशारे पर काम कर रहा है। नेपाल से लेकर उत्तराखंड तक जो भी माओवादी, प्रत्यक्ष या परोक्ष गतिविधि में लगे हैं कहीं न कहीं चर्च से प्रभावित है। लगभग एक साल पहले राही नामक माओवादी उत्तराखंड से गिरफ्तार किया गया था। राही का मनोविज्ञान भी चर्च से मेल खाता है। बगहा (बिहार) के जंगल में ओशो नामक माओवादी पकडा गया था। उसका भी चर्च के साथ मधुर संबंध था। अपने बयान में ओशो ने यहां तक कहा कि वह हरनाटार के चर्च में रहा करता थ। इस प्रकार भारतीय मान्यताओं तथा आस्थाओं पर चोट करने वाले माओवदियों को धर्मनिरपेक्ष कहकर प्रचारित करना बिल्कुल गलत है। ये माओवादी चर्च के चिंतन का ही विस्तार है। इन्हें न केवल चर्च से धन मुहैया कराया जाता है अपितु इनके माध्यम से हिन्दु मान्यताओं के खिलाफ मोर्चेबंदी भी की जा रही है। चर्च के पृथकीय व्यक्तित्व का हिसाब-किताब भारतीय खुफिया एजेंसी के पास भी है लेकिन भारत में चर्च का जाल इतना मजबूत हो गया है कि उसके खिलाफ कार्रवाई करना कठिन हो गया है। लक्ष्मणानंद जी की हत्या ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि चर्च और माओपंथी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। चर्च के पैसे से माओवादी भारत में तोड-फोड कर रहा है।
भारत सरकार को इस दिशा में सोचना चाहिए तथा चर्च और माओवादियों के बीच के संबंध पर जांच होनी चाहिए। ऐसा नहीं किया गया तो चर्च पैसे के बल पर पृथकतावाद को हवा देता रहेगा। तब फिर देश को एक रखना कठिन हो जाएगा। चर्च से माओवादियों के संबंध तो हैं लेकिन हालिया घटना पूज्य लक्ष्मणानंद जी कि हत्या ने एक बार फिर चर्च और माओवादियों के नापाक संबंधों को उजागर कर दिया है।

लेखक- गौतम चौधरी

(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

विधानसभा चुनावों से उभरे संकेत

राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम विधानसभा के चुनाव परिणाम आ गये हैं। इन पॉच राज्यों में से तीन पर भाजपा का कब्जा था। दिल्ली में कांग्रेस काबिज थी और मिजोरम में एम0एन0एफ0 की सरकार थी। इन चुनाव परिणामों को लेकर इसलिए ज्यादा उत्सुकता थी क्योंकि इसके कुछ महीनों के बाद ही लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं। इसलिए यह कहा जाता था कि इन पॉच विधानसभाओं के चुनाव परिणाम केन्द्र की राजनीति को प्रभावित करेंगे।

 

इन परिणामों में भाजपा का कितना कुछ ही दांव पर लगा हुआ था। क्योंकि तीन राज्यों में भाजपा की सत्ता थी और ऐसा माना जाता है कि सत्ता विरोधी लहर के कारण दूसरी पारी में सरकार बनाये रखना मुश्किल हो जाता है। इसी सत्ता विरोधी लहर के कारण लगभग साल भर पहले उतराखंड और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी है। यदि इस पैमाने से इन चुनाव परिणामों का आकलन किया जाये तो यह मानना पड़ेगा कि भाजपा इस क्षेत्र में सफल रही है। उसने तीन में से दो राज्यों मसलन मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में दोबारा अपनी जीत का परचम लहरा दिया है।

 

राजस्थान में सत्ता जरूर उसके हाथ से निकल गयी है लेकिन वहॉ भी पक्ष और विपक्ष में केवल 20 सीटों का ही अन्तर है। निर्दलीयों में से भी कुछ लोग ऐसे हैं जो भाजपा से बगावत करके आजाद खड़े हो गये थे और जीत गये। इसे पार्टी की मिसमनेजमैंट माना जा सकता है पराजय नहीं। राजस्थान में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी पराजित हो गये और कुछ दिन पहले ही भाजपा छोड़कर कांग्रेस में गये भरतपुर के महाराजा विश्वेन्द्र सिंह भी धूल चाटते नजर आये। मीणा जाति की राजनीति करने वाले किरोड़ी लाल मीणा भी पराजित हो गये।

 

मिजोरम में भाजपा की उपस्थिति लगभग नगण्य है। वहाँ का चुनाव एक प्रकार से चर्च ही नियंत्रित करता है। जीतने वाले दलों की आस्था भी चर्च की और ही रहती है। परन्तु इस बार सत्ता धारी एम0एन0एफ0 पराजित हो गया और सोनिया गॉधी की कांग्रेस वहॉ से जीत गयी। उसका एक बड़ा कारण यह भी रहा कि सोनिया गांधी की कैथोलिक चर्च और वेटिकन से साम्प्रदायिक संबध हैं इसलिए लम्बी रणनीति के तहत चर्च को यही लगा होगा कि सोनिया गांधी की पार्टी को ही जिताया जाये। यहॉ यह भी ध्यान रखना होगा कि मिजोरम में जो आर्कबिशप चर्च पर नियंत्रण करते हैं उनकी नियुक्ति इटली में वैटिकन सरकार ही करती है इसलिए वहॉ कांग्रेस का जीतना चर्च की भविष्य की रणनीति की और ही संकेत करता है जो जाहिर है पूर्वोत्तर भारत के लिए खतरनाक है।

 

दिल्ली का चुनाव परिणाम सचमुच चौंकाने वाला कहा जा सकता है। भाजपा को आशा थी कि दिल्ली वह इस बार कांग्रेस को परास्त कर देगी। क्योंकि पिछले दस सालों से दिल्ली पर कांग्रेस ने ही कब्जा जमाया हुआ है। साल भर पहले दिल्ली नगर निगम के लिए हुए चुनावों में भाजपा ने कांग्रेस को बुरी तरह पराजित किया था। इसी आधार पर भाजपा विधानसभा में भी जीतने की आशा लगाये हुए थी। लेकिन कांग्रेस ने तीसरी बार जीत कर हैटि्क बना दी है। अब कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि नगर निगम चुनावों में भी दिल्ली की कांग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने जान बूझ कर कांग्रेस को ही हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। शीला दीक्षित को भय था कि यदि नगर निगम में कांग्रेस जीत गई तो निश्‍चय ही महापौर के पद पर बैठे व्यक्ति का कद भी बढ़ जायेगा। शीला दीक्षित अपने होते हुए प्रदेश कांग्रेस में किसी दूसरे को उभरने का अवसर नहीं देना चाहती। भाजपा नगर निगम के चुनावों से उत्साहित होकर विधानसभा चुनावों में अपनी जीत पक्की मानने लगी। जब पक्की जीत की धारणा बन जाये तो टिकट बाँटने के मामले में कुव्यवस्था फैलना लाजिमी होता है। टिकट लेने के लिए दरबारी किस्म के लोग घेराबंदी कर लेते हैं और टिकट ले भी जाते हैं। जनता और सब कुछ सह सकती है लेकिन दरबारियों की अकड़नुमा हरकतें नहीं। दिल्ली की पराज्य के बाद भाजपा को भीतर झांकने की शायद पहले से भी ज्यादा जरूरत है। वैसे तो दिल्ली चुनाव परिणामों के जरूरत से ज्यादा अर्थ नहीं निकाले जाने चाहिए क्योंकि कुल मिलाकर ये एक शहर की मानसिकता को और पार्टी की मिस मनैजमैंट को इंगित करते हैं। इसे प्रतिनिधि रूप नहीं स्वीकारना चाहिए।

 

भाजपा के लिए यह भी तसल्ली की बात है कि छत्‍तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में उसे जनजातीय क्षेत्रों में आशातीत सफलता मिली है। जनजातीय क्षेत्र ही ऐसे हैं जिस पर चर्च सबसे ज्यादा दावा करता है और भाजपा को जनजातीय क्षेत्रों का शत्रु बताता है। जनजातीय क्षेत्रों में भाजपा की जीत से स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती के हत्यारों की ऑखे खुल जानी चाहिए। चर्च जनजातीय समाज को धनबल और बंदूक बल के जोर पर बंधक बनाना चाहता है। छतीसगढ़ के जनजातीय समाज ने भाजपा को जिताकर चर्च के इस षडयंत्र का भी पर्दाफाश कर दिया है। भाजपा की इस जीत से एक और संकेत भी मिलता है कि नेतृत्व यदि ईमानदार और आम आदमी से जुड़ा हुआ होगा तो जनता उसकी कदर भी करती है और उसे दोबारा सत्ता में बैठाती भी है। मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में भाजपा की विजय में शिवराज सिंह चौहान और डा0 रमण सिंह का सहज सरल व्यक्तित्व और आम आदमी से जुड़े होने की क्षमता की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। हिमाचल प्रदेश के चुनावों में प्रो0 प्रेम कुमार धूमल के व्यक्तित्व ने भी इसी प्रकार की भूमिका निभाई थी।

 

इन चुनाव परिणामों की सबसे आश्चर्यजनक बात यह कही जा सकती है कि आम भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करने का दंभ पालने वाला साम्यवादी टोला इन पॉचों राज्यों में कहीं दूर दूर तक दिखाई नहीं देता। वैसे वे तर्क दे सकते हैं कि दास कैपिटल के शिष्यों को बेलट पर नहीं बुलेट पर विश्वास है क्योंकि माओ कह गये थे सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। आखिर नक्सलबादी माओवादी साम्यवादी टोले के वैचारिक सहोदर ही तो हैं। परन्तु इसे सीताराम येचुरी और प्रकाश करात का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि छतीसगढ़ के नक्सलवादी क्षेत्रों में लोगों ने भाजपा को जिता दिया है। यह साम्यवादी राजनीति का भीतरी खोखलापन भी जाहिर करती है।

लेखक- डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

पिछड़े नहीं हैं भारत के मुसलमान

लेखक- दिलीप मिश्राहमारे देश के ही नहीं बल्कि दुनिया के मुसलमानों को आर्थिक, शैक्षणिक व सामाजिक रूप से पिछड़ा माना जाता है। क्योंकि मुसलमान आर्थिक रूप से कमजोर और शैक्षणिक रूप से अशिक्षित हैं, इस कारण वह आतंकवादी बने या मजबूरी में बनाए जा रहे हैं। जबकि आज की वर्तमान स्थिति के अनुसार न तो अब भारत का मुसलमान गरीब है और न ही अशिक्षित। परंतु वह कट्टरवादी ताकतों के बंधन से अभी तक मुक्त नहीं हुआ है। आधुनिक शिक्षा और तकनीकी ज्ञान में वह देश के अन्य सभी समुदायों के बराबर अपना स्थान बना चुका है, परंतु उसकी इस योग्यता व ज्ञान का कट्टरवादी दुरूपयोग कर उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। दुनियाभर के साम्यवादी, जिसमें विशेष रूप से भारत के सेक्युलरवादी यह प्रचारित करते रहते हैं कि क्योंकि मुसलमान पिछड़े हुए हैं और आर्थिक रूप से कमजोर हैं, इस कारण वह जेहादी या आतंकवादी होते जा रहे हैं, परंतु यह तथ्य अभी हाल ही में पकड़े गए ‘सिमी’ और इंडियन मुजाहद्दीन संगठनों के युवा आतंकवादियों ने झुठला दिया है। इनमें से सभी आतंकवादी आधुनिक तकनीक और शिक्षा से परिपूर्ण होने के साथ-साथ आर्थिक रूप से भी बहुत मजबूत है। परंतु धार्मिक कट्टरता के कारण देशद्रोही ताकतों के हाथ के खिलौने बने हुए हैं।

आज के आधुनिक भारत के युवा मुसलमान को अपने ऊपर से इन्हीं कट्टरवादी ताकतों के चंगुल से मुक्त होना होगा और इस देश के संसाधनों के बल पर उन्होंने जो योग्यता और सम्पन्नता अर्जित की है, उसका भरपूर उपयोग देश के अन्य धर्मांलंबियों के युवाओं के समान देश के हित में करना होगा और दामन पर जो आतंकवादी होने का दाग लगा है उसको साफ करना होगा। भारत के मुसलमान युवकों को अब पिछड़ा हुआ मानना इन युवकों और उनकी योग्यता का अपमान है और यह अपमान देश के छद्मवाद राजनेता और मजहबी कट्टरवादी शक्तियां अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए कर रही हैं। इस दुष्‍प्रचार के पीछे इन ताकतों का उद्देश्य मुसलमानों को लगातार यह एहसास कराते रहना है कि वह पिछड़े और उपेक्षित, देश के हिन्दुओं के कारण है। यही कारण और भय बता कर इन ताकतों ने मुलसमानों का साठ सालों तक दोहन किया है और उन्हें दिया कुछ भी नहीं है। कट्टरवादी मदरसों में पढ़ कर कोई मुसलमान देश के शीर्ष पदों पर नहीं पहुंचा है। उसे भारतीय शिक्षा पध्दति और साधनों का लाभ ही उठा कर अपनी योग्यता बड़ानी पड़ी है। आज जो तकनीकी, सूचना और कम्प्यूटर क्रांति भारत में हुई उसका लाभ मुसलमानों ने भी उतना ही उठाया है जितना देश धर्मों और वर्गों के युवकों ने भारत के वह मुस्लिम युवक देश में तरक्की और उन्नति कर गए जो अपने धर्मों की सामाजिक कुरूतियों और रूड़ियों के बंधनों को काटने में सफल हुए इसमें वह मुसलमान भी थे जो भारत के राष्ट्रपति, न्यायाधीश डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और उच्च पदों पर व्यापार में उन्नति कर पाए। परंतु वह मुसलमान युवक लगातार पिछड़ते चले गए जो कट्टरपंथियों के हाथ की कठपुतली ही बने रहे या जिनको इन कठमुल्लाओं, मोलवियों और उलेमाओं ने धार्मिक कट्टरता तथा भारतविरोध की जन्मघुट्टी लगातार पिलाई। भारत के मुसलमानों के पिछड़ेपन का कारण कोई अन्य धर्मावलंबी कभी नहीं है। इस बात को एक छोटे से उदाहरण से भी समझा जा सकता है। भारत में सन् 1835 में लार्ड विलियम बेटिंग ने कतकत्ले में पहला मेडिकल कॉलेज खोला तो वहां अन्य धर्मों और समाजों के युवकों की भीड़ लग गई। इस कॉलेज में दाखिला लेने के लिए मुस्लिम समाज ने इसे इस्लाम के विरूध्द ब्रिटिश सरकार का षड्यंत्र करार देकर, इस का विरोध कर रैलियां निकालीं और आधुनिक शिक्षा के विरूध्द जोरदार प्रदर्शन किए। इस नकारात्मक रवैये से कारण वह लगातार पिछड़ते चले गए अन्य समाज के लोगों ने ब्रिटिश साधनों का लाभ उठाकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त की। आज भी देश की नागरिक योजनाएं, स्वास्थ्य परियोजनाएं, कला संगीत व्यापार का अक्सर कट्टरवादी ताकतें विरोध करती रहती हैं। पोलियो, जनसंख्या नियंत्रण, सिनेमा में मुस्लिम युवकों-युवतियों का काम करने, सानिया मिर्जा का देश के लिए खेलने का विरोधकर यह कट्टरवादी शक्तियां किस का नुकसान कर रही हैं? मुसलमानों का ही। फिर मुसलमान यदि पिछड़े जाते हैं तो छद्मवादी इस पिछड़ेपन पर अन्य समाज के लोगों या योजनाकारों को दोष क्यों देते हैं। यह केवल इस कारण कि मुस्लिम युवक उनके हाथ ही कठपुतली बने रहें।

आज पूरी दुनिया का सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। पूरी दुनिया वैश्विक युग और समुदाय के रूप में बदल रही है। ऐसे समय में भारतीय मुसलमानों को राष्ट्र की प्रगतिधारा में जुड़ कर देश के साथ-साथ अपनी उन्नति के नए द्वार खोलना ही होंगे। इसके बिना उन्नति, प्रगति तथा सम्पन्नता संभव नहीं है। जिन मुसलमानों ने इस सत्य को स्वीकार कर लिया है वह अपने बच्चों को प्रगति के नए-नए क्षितिज में उड़ा भी रहे हैं और अच्छा जीवन स्तर बना रहे हैं। रूढियों की जंजीरों को तोड़कर और सकारात्मक सोच बना कर ही हम अपने दामन पर पिछड़ेपन और आतंकवादी होने का दाग धो सकते हैं और वह आज भी जरुरी आवश्कता है जिसे नए मुस्लिम युवकों को समय रहते समझना होगा।
(हिन्दुस्थान समाचार)

अंटार्कटिक बर्फ के नीचे जीव

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10 साल पहले आम आदमी तो क्या वैज्ञानिकों ने भी कल्पना नहीं की थी कि पृथ्वी पर बर्फ के सबसे बडे भंडार अंटार्कटिक आइस सीट्स के नीचे जीव हो सकते हैं। लेकिन लुसिआना स्टेट यूनिवर्सिटी के बॉयोलॉजिकल साइंसेज के असिस्टेंट प्रोफेसर ब्रेंट क्रिस्नर ने हाल ही में यह खोज की है कि अंटार्कटिक आइस सीट्स के नीचे जीव (माइक्रोब्स) मौजूद हैं। दरअसल, अभी तक अंटार्कटिक आइस सीट्स के नीचे जीव न होने का अनुमान इस आधार पर लगाया जाता रहा है कि दो मील से ज्यादा मोटी बर्फ की चट्टान के नीचे अत्यंत विपरीत परिस्थिति में जीव की मौजूदगी नामुमकिन है। लेकिन प्रॅफेसर क्रिस्नर ने अनुसार लाखों सालों तक अत्यंत ठंडी बर्फ के बीच में माइक्रोब्स की उपस्थिति की दो वजहें हो सकती हैं। पहली, माइक्रोब्स बर्फ में सुप्तावस्था में लंबे समय तक पडे रहे और उनका रिपेयर मैनेजमेंट काफी प्रभावकारी था। यह रिपेयर मैनेजमेंट तभी सक्रिय होता है, जब ग्रोथ का माहौल मिलता है। इस तरह माइक्रोब्स कठोर परिस्थिति में जीवित बने रहते हैं। वहीं, माइक्रोब्स के जीवित रहने की दूसरी वजह यह हो सकती है कि माइक्रोब्स बर्फ की तहों में दबे होने के बावजूद उनका मेटॉबालिज्म सक्रिय था और उनके सेल्स रिपेयर होते रहते थे। लुसिआना स्टेट यूनिवर्सिटी द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार अंटार्कटिका में बर्फ की मोटी सतह के नीचे 150 से ज्यादा झीलों की खोज हो चुकी है और इनका जल कम से कम 1 करोड पचास लाख साल से बर्फ से ढंका है। यहां का वातावरण व अति कोल्ड बॉयोस्फियर पृथ्वी की सतह से काफी भिन्न है और यहां के जीव पृथ्वी के सामान्य जीवों से काफी भिन्न हैं।

रेड टाइड का रहस्य
हाल ही में प्रतिष्ठित अमेरिकी तकनीकी संस्थान एमआईटी के केमिस्टों ने यह खोज की है कि कैसे अति सूक्ष्म समुद्री जीव जहरीले रेड टाइड को उत्पन्न करते हैं। उल्लेखनीय है कि रेड टाइड समय-समय पर डिनोफ्लैग्लैट्स नामक एल्गी से उत्पन्न होता है। यह इतना जहरीला होता है कि इसके प्रभाव से न सिर्फ मछलियां जहरीली हो जाती हैं, बल्कि समुद्री किनारों की गतिविधियां भी ठप्प हो जाती हैं। रेड टाइड की वजह से करोडों डॉलर का नुकसान होता है और समुद्री किनारों पर बसे समुदायों की गतिविधियां बंद हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर 2005 में आए रेड टाइड के कारण न्यूजीलैंड की सेलफिश इंडस्ट्री का करोडों डॉलर नुकसान हुआ और इस साल फ्लोरिडा में 30 दुर्लभ जीवों का खात्मा हो गया। हालांकि, यह अभी तक मालूम नहीं है किन कारणों से डिनोफ्लैग्लैट्स एल्गी, रेड टाइड टॉक्सिन पैदा करता है, लेकिन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ऐसा एल्गी के डिफेंस मेकेनिज्म के कारण होता है, जो समुद्री उफानों, तापमान में परिवर्तन व अन्य वातावरणीय दबावों के कारण प्रेरित होता है। दरअसल, 20 साल पहले कोलंबिया के केमिस्ट कोजी नाकानिसी ने रेड टाइड टॉक्सिन को तमाम प्रयोगों के जरिए सिंथेसाइज करने की कोशिश की थी, लेकिन वे काफी प्रयासों के बाद असफल रहे। हालांकि बाद में यह समझा जाने लगा कि नाकानिसी हाइपोथिसिस को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। लेकिन एमआईटी के केमिस्ट जेमिसन और विलोटिजेविक ने यह पहली बार साबित किया कि नाकानिसी की हाइपोथिसिस को प्रमाणित करना संभव है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस रिसर्च से प्रभावकारी ड्रग की खोज और तेज होगी तथा रेड टाइड के टॉक्सिन प्रभाव को कम करने में मदद मिलेगी।

रामनयन सिंह

दिल के रोगी रखें खानपान पर ध्यान

हृदय के प्रति थोड़ी सी भी लापरवाही काफी नुकसानदेह साबित हो सकती है। आमतौर पर धूम्रपान व शराब के सेवन एवं मोटापे की वजह से दिल की बीमारियां पैदा होती हैं। दिल के रोगों से बचने के लिए खानपान पर भी ध्यान देना जरूरी है।हृदय के रोगी को ऐसा भोजन करना चाहिए जिसमें शुगर कम एवं फाइबर की मात्रा अधिक हो। सब्जियाँ, अनाज, दालें, अण्डे की जर्दी , स्किम्ड मिल्क , खिचड़ी, उबला चावल, फ्रूट कस्टर्ड, पीले फल, कार्नफ्लेक्स, दलिया, हरी पत्तेदार सब्जियां, फलों का रस , अंकुरित दालें, पालक का सूप, उबले आलू, केला, बीन्स, टमाटर, खीरा, मूली, गाजर, लस्सी (नमक वाली), धनिया व पोदीना की चटनी फायदेमंद है। मक्खन, मलाई वाला दूध, मीट, अंडे का पीला हिस्सा, गीम, चीज, खोया, आइसक्रीम, पनीर, मिठाई उपरोक्त सभी चीजें कम या बिल्कुल न खाएं।

इन बातों पर ध्यान दें: * हर रोज निर्धारित समय पर ही भोजन करे। * खाना हल्का और जल्दी पचने वाला होना चाहिए। * भोजन को स्वादिष्ट बनाने के लिए नींबू, सिरका, इमली, हर्ब्स (जडी बूटियों), हल्के मसाले प्याज, लहसुन का इस्तेमाल कर सकते है। * भोजन धीरे-धीरे एवं चबाकर खायें। * अपने वजन पर नियंत्रण रखें। * अगर भूख नहीं है तो खाना न खाएं। * आपके दोपहर व रात के खाने का तीन चौथाई हिस्सा सब्जियाँ, फल व अनाज का होना चाहिए। * हर रोज 30 मिनट हृदय संबंधी कसरत करें। चाहें, तो यह कसरत एक साथ कर लें या फिर थोड़े-थोड़े अंतराल में करें। * शारीरिक गतिविधियां बढायें जैसे ऑफिस या स्टोर तक पैदल जायें, सीढियों का इस्तेमाल करें, सैर या जॉगिंग करें।
(हिस/ॠचा/राजीव /31 अक्टूबर 2008)

भारत विजयी होगा लेकिन इस्लामी आतंकवाद की शिनाख्त जरुरी है

लेखक- डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्रीआतंकवादियों ने मुंबई पर पूरी योजना से आक्रमण कर दिया और देखते ही देखते उन्होंने मानो पूरी मुंबई को बंधक बना लिया हो। विश्वविख्यात ताज होटल, ओबराय होटल के अतिरिक्त उन्होंने अस्पतालों में जा कर भी गोलियां बरसाईं। छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन पर उन्होंने अंधाधुध गोलियां बरसाईं। सारी मुंबई को दहला देने के बाद उन्होंने ताज होटल और ओबराय होटल में मोर्चा संभाल लिया। उसके बाद एनएसजी और सेना के लडाकुओं के साथ उनकी लगभग 40 घंटे भिडंत होती रही। ये आतंकवादी समुद्र के रास्ते कराची से आये थे और अपनी योजना को अंजाम देने के लिए लगभग एक साल से मोर्चाबंदी कर रहे थे। कुछ सूत्रों का यह भी कहना है कि एक अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसी ने भारत सरकार को अरसा पहले यह बता दिया था कि इस्लामी आतंकवादी भारत पर समुद्र के रास्ते से आक्रमण कर सकते हैं। अंततः सशस्त्र बलों ने स्थिति पर काबू पा लिया। इस आक्रमण में डेढ सौ से भी ज्यादा लोग मारे गये और चार सौ से भी ज्यादा गंभीर रुप से घायल हुए। हालात पर काबू पाने के लिए नौ सेना और वायु सेना की भी सहायता लेनी पडी। सशस्त्र बलों के अनेक जांबाज इस आक्रमण में शहीद भी हुए।
देश को इस बात का फख्र है कि सशस्त्रबल के सपूतों ने अपनी जान पर खेल कर भारत पर हुए इस आक्रमण को विफल कर दिया है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे भारत पर आक्रमण बताते हुए देश के खिलाफ छेडा गया युध्द कहा है। भारत सरकार ने भी इस युध्द से लडने का संकल्प दोहराया है। लेकिन यह सब कुछ तथ्यों का विवरण मात्र है। यह महज समाचार हैं। मीडिया ने यह समाचार अपने अपने ढंग से देश की जनता तक भी पहुंचा दिये। इस दृष्टि से उसने भी अपने कर्तव्य की पूर्ति कर ली है। यह अलग बात है कि जब मुठभेड चल रहे थी तो किसी चैनल की किसी नगमा ने इस आक्रमण के पीछे अंडरवर्ल्ड का हाथ होने का शगूफा भी छोडना शुरु कर दिया था। यह आक्रमणकारियों और इस पूरे आक्रमण में पाकिस्तान की भूमिका को हल्का करने का एक बढिया तरीका था। एक अंग्रेजी अखबार के बहुत ही बडे स्वनामधन्य संपादक जिनका नाम गुप्त रखना ही श्रेयस्कर होगा क्योंकि वह अपने आप को पत्रकारिता के शिखर पर मानते हैं अपने संपादकीय में सारा जोर यह बताने में लगा दिया कि यह आक्रमण कुछ व्यक्तिवादी गुंडों या ठगों द्वारा किया गया आक्रमण था। यह अलग बात है कि संपादक महोदय ने उसके बाद यह संकल्प भी दोहराया कि सारा राष्ट्र मिल कर साहस से इसका मुकाबला करेगा।
कांग्रेस के प्रवक्ता और सांसद राजीव शुक्ला का इस आक्रमण को लेकर एक महत्वपूर्ण बयान पाकिस्तान के अखबार डेली टाइम्स में छपा है। राजीव शुक्ला का कहना है कि भारतीय मीडिया को रिपोर्टिंग करते हुए संयम का परिचय देना चाहिए और इस आक्रमण में पाकिस्तान का नाम घसीटने की जरुरत नहीं है क्योंकि इससे पाकिस्तान और भारत दोनों के संबंध खराब होने का खतरा पैदा हो जाता है। भारत सरकार की सबसे बडी दिक्कत यह है कि वह आतंकवाद व आतंकवादियों से लडना तो चाहती है लेकिन आतंकवाद के इस आंदोलन और इसके उद्देश्य और इसमें संलग्न व्यक्तियों व ताकतों की शिनाख्त करने से बचना चाहती है। हो सकता है कि भारत सरकार ने शिनाख्त कर भी ली हो, लेकिन राजनीतिक कारणों से वह उनका नाम भी नहीं चाहती और वह उनसे प्रत्यक्ष रुप से लडना भी नहीं चाहती। आखिर बिना ऐसे किये इस आतंकवाद से कैसे लडा जाएगा?
आतंकवाद का यह इस्लामी जेहादी आंदोलन है। भारत इसका शिकार आठवीं शताब्दी से ही हो रहा है। जब इस्लाम की अरबी सेनाओं ने भारत पर आक्रमण किया था। यह आक्रमण उस समय और उसके बाद के वर्षों में सैनिक दृष्टि से सफल रहा और भारत पर इस्लामी ताकतों का कब्जा हो गया। सात-आठ सौ सालों में उसने भारत के जितने हिस्से का इस्लामीकरण कर दिया 1947 में उतने हिस्से को भारत से अलग करवा दिया। लेकिन यह आक्रमण रुका नहीं। इसका स्वरुप बदलता गया। 20वीं शताब्दी उत्तरार्ध में जब इस्लाम का यह आंदोलन पूरी दुनिया में पुनः जागृत हो गया तो भारत पर उसने अपना आक्रमण पुनः प्रारंभ कर दिया। यह आक्रमण भारत को इस्लामी देश बनाने के लिए किया गया आक्रमण है और जिहादी इसके लिए अपने प्राण तक न्योछाबर करने के लिए तैयार हैं। यह कुछ सिरफिरे भटके हुए दुःसाहसी मुसलमान युवकों का आतंक मचाने के लिए किया गया कारनामा मात्र नहीं है जैसा की भारत सरकार और अंग्रेजी पत्रकारिता के संपादक विश्वास करने के लिए कहते हैं। इस आंदोलन के पीछे एक पूरा वैचारिक दर्शन है, यह इस्लाम का दर्शन है। इस दर्शन के पीछे उसे क्रियान्वित करने के लिए मुसलमान युवकों की सेना है जो अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्राण देने तक के लिए नहीं हिचकती। यह उद्देश्य भारत को दारुल हरब की श्रेणी से निकाल कर दारुल इस्लाम की श्रेणी में लाना है। जब तक ऐसा हो नहीं जाता तब तक 8वीं शताब्दी से चला हुआ इस्लामी आक्रमण का यह आंदोलन सफल नहीं कहला सकता। इसे इस्लाम का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इस्लामी आक्रामक सेना दुनिया के जिस देश में भी गई, उसे कुछ ही वर्षों में इस्लामी देश में परिवर्तित कर दिया। परंतु भारत में उसे आंशिक सफलता ही मिली। भारत के कुछ हिस्से तो इस्लामी हो गये, लेकिन भारत का बडा हिस्सा इस्लामीकरण से बचा रहा और अपने मूल भारतीय स्वरुप में ही बना रहा। इस्लामी आतंकवाद का यही दर्द है। पुराने युग में बाकायदा इस्लाम की सेनाएं इस काम को पूरा करने के लिए भारत में आती थीं, लेकिन आधुनिक युग में आक्रमण का स्वरुप व स्वभाव दोनों ही बदल गये हैं।
अब इस्लाम की शक्तियां आतंकवाद के माध्यम से भारत पर परोक्ष आक्रमण कर रही है। क्या भारत सरकार की इच्छा आक्रमणकारियों को पहचानने और उनके वैचारिक आधार पर आक्रमण करने की है। इन आतंकवादी हमलों के कारण और उद्देश्य इस्लामिक इतिहास में ही देखने होंगे क्या भारत सरकार की संकल्प शक्ति है? शायद ऐसा नहीं है। अभी भी भारत सरकार इस्लाम के मूल स्वरुप को पहचान नहीं सकी है। सरकार की और कांग्रेस की अपनी राजनीतिक विवशता हो सकती शायद इसी विवशता के चलते भारत सरकार असली आतंकवादियों को छोड कर साधुसंतों में और भारतीय सेना में आतंकवादियों की तलाश कर रहीं है। यह कांग्रेस की राजनीतिक विवशता हो सकती है कि उसे वोटों की खातिर येन-तेन प्रकारेण कुछ हिन्दू आतंकवादी चाहिए। इतना ही नहीं वह कुछ व्यक्तियों की सत्य असत्य गतिविधयों को प्रचारित करके यथार्थ इस्लामी आतंक के मुकाबले काल्पनिक हिन्दू आतंकवाद का हौआ खड़ा कर रही है हो। हो सकता है कांग्रेस को कुछ वोटें मिल जाए लेकिन देश मुंबई बनने की ओर अग्रसर हो जाएगा भारत सरकार मुंबई को तो बचाना चाहती है लेकिन इस्लामी आतंकवाद के राक्षस से लड़ने से कतरा रही है इतना ही नहीं वह उसे आतंकवादी मानने से ही कुछ सीमा तक इंकार कर रही है। शायद यही कारण था जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अफगानिस्तान गए तो वहां बाबर की कब्र पर भी वह श्रध्दा सुमन अर्पित कर आए। भारत तो बच ही जाएगा। उसने 800 सालों तक इस्लामी आतंकवाद को झेलते हुए अपनी अस्मिता को बचाए रखा और अपनी निरंतरता में विद्यमान है।
भारत अपनी भीतरी उर्जा से बचेगा लेकिन भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी की कलंक गाथा इतिहास में उसी तरह अमर हो जाएगी जिस तरह जयचंद और मीरजाफर की कलंक गाथा अमर हो गई है। एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिए कि यदि कल इस्लामी आतंकवाद के कारण भारत की भीतरी स्थिति में कुछ परिवर्तन होता है तो वे लोग जो इस्लामी आतंकवाद को कुछ सिरफिरे व्यक्तिवादी युवकों का दुसाहस बता रहे हैं, उनको नये शासकों के दरबारी बनने में पल भर का समय भी नहीं लगेगा। भारत माता ने मुगलकाल और ब्रिटिशकाल में ऐसे ही नवरत्नों को उस समय के विदेशी राजाओं के दरबारों में शोभित होते हुए देखा है। लडाई अंततः भारत के लोगों को ही लडनी है और मुंबई के आक्रमण के समय भारतीयों ने उसी संकल्प शक्ति का परिचय दिया है। यकीनन भारत विजयी होगा और इस्लामी आतंकवाद पराजित होगा। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

भारतीय संविधान और राष्ट्रीय एकता

लेखक- लालकृष्ण आडवाणी

 भारत अगस्त 1947 में स्वतंत्र हुआ था। यह देश के इतिहास का महान क्षण था। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के साथ ही देश का विभाजन भी हुआ। इससे भी अधिक दुख की बात यह थी कि द्वि-राष्ट्र सिध्दांत के समर्थकों के कारण देश को विभाजन का मुंह देखना पड़ा।

भारत के नेतागण पाकिस्तान निर्माण के लिए सहमत हुए, परंतु भारत ने द्वि-राष्ट्र सिध्दांत को स्वीकार नहीं किया। स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण करते समय संविधान सभा दृढ़ता से उसी सिध्दांत पर अटल रही, जिस पर संपूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन चलता रहा था, अर्थात् अनन्त काल से भारत एक देश रहा है, और सभी भारतीय, चाहे वह किसी धर्म, जाति या भाषा के हों, एक जन हैं। हम मानते हैं कि हमारी एकता का आधार हमारी संस्कृति है।

लोकमान्य बाल गंगाधार तिलक का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था; महर्षि अरविन्द घोष बंगाल से थे; महात्मा गांधी गुजरात के थे। परंतु स्वतंत्रता आंदोलन के इन महान नेताओं का संपूर्ण उद्यम, संपूर्ण तपस्या, भारत माता के लिए थी।

संघ ही क्यों-परिसंघ क्यों नहीं

इस प्रसंग में जब संविधान सभा में देश के नाम पर विचार किया जा रहा था तो वहां एक महत्वपूर्ण चर्चा हुई। क्या भारत को राज्यों का संघ कहा जाए या इसे राज्यों का परिसंघ कहें? संविधान के मूल प्रारूप में इसे राज्यों का परिसंघ कहा गया था। बाद में प्रारूप में इस शब्द को बदल कर ‘संघ’ शब्द का प्रयोग किया गया।

संविधान के प्रमुख निर्माता डा. अम्बेडकर ने प्रारूप में इस परिवर्तन के लिए मूलाधार प्रस्तुत करते हुए कहा था:
”कुछ आलोचकों ने संविधान के प्रारूप के अनुच्छेद 1 में भारत को राज्यों का संघ कहने पर आपत्ति की है। कहा गया है कि सही शब्दावली ‘राज्यों का परिसंघ’ होनी चाहिए। यह ठीक है कि दक्षिण अफ्रीका, जो एकात्मक राज्य है, को संघ कहा जाता है, परंतु कनाडा जो परिसंघ है, उसे भी एक ‘संघ’ कहा जाता है।

इस प्रकार भारत को एक ‘संघ’ कहने से इसके संविधान के परिसंघीय स्वरूप के बावजूद ‘संघ’ शब्द के प्रयोग से कोई उल्लंघन नहीं होता है। परंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि संघ शब्द का प्रयोग जानबूझकर किया है। मैं नहीं जानता कि कनाडा के संविधान में ‘संघ’ शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है, परंतु मैं आपको बता सकता हूं कि प्रारूप में इसका प्रयोग क्यों किया।

प्रारूप समिति यह स्पष्ट कर देना चाहती थी कि यद्यपि भारत परिसंघ होगा, परंतु परिसंघ राज्यों द्वारा परिसंघ में शामिल होने के किसी अनुबंधा का परिणाम नहीं है और क्योंकि परिसंघ किसी अनुबंधा का परिणाम नहीं है, इसलिए किसी राज्य को उससे अलग होने का अधिकार नहीं है। परिसंघ एक संघ है क्योंकि इसे समाप्त नहीं किया जा सकता। यद्यपि देश और लोगों को प्रशासन की सुविधा के लिए राज्यों में बांटा जा सकता है, परंतु देश संपूर्ण एक भाग होता है, इसके लोग एक जन होते हैं जो एक ही स्रोत से प्राप्त एक सत्ता के अधीन रहते हैं।

अमरीकियों को यह स्थापित करने के लिए सिविल युध्द छेड़ना पड़ा था कि राज्यों को अलग होने का अधिकार नहीं है और उनका परिसंघ अमिट है। प्रारूप समिति ने सोचा कि बेहतर यही है कि आरंभ से ही इसे स्पष्ट कर दिया जाये, इसकी बजाय कि बाद में किसी तरह के अनुमान या विवाद का स्थान बना रहे।’

अनेक परिसंघीय संविधानों में, उदाहरण के लिए अमरीका के संविधान में, दोहरी नागरिकता को स्वीकार किया गया है-एक परिसंघीय और दूसरी राज्यों की नागरिकता। अत: इस प्रकार की भिन्नता ऐसी स्थितियों में अस्वाभाविक नहीं है, जहां कोई परिसंघ उसमें शामिल होने वाले राज्यों के बीच एक अनुबंधा के आधार पर बना हो। भारत में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एकदम अलग है। प्राचीन काल में उस समय भी जब देश विभिन्न साम्राज्यों में विभाजित था, तब भी देश की समान संस्कृति ने एकता और एकत्व के भाव को बनाए रखा था।

विविधता पर बल देने के खिलाफ अम्बेडकर की चेतावनी

‘विविधाता में एकता’ को भारतीय राष्ट्रवाद का प्रमाण-चिन्ह माना गया है। मेरे विचार में यह उक्ति हमारे जैसे किसी भी विशाल देश पर लागू हो सकती है।

संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए डा. अम्बेडकर ने सावधान किया था कि यदि दोहरी राज्यव्यवस्था में सत्ता के विभाजन से उदभूत विविधाता एक निश्चित सीमा को पार कर जाती है तो उससे अव्यवस्था फैल सकती है। उन्होंने आगे कहा था:
‘संविधान के प्रारूप में ऐसे उपाय और प्रणाली रखने का प्रयास किया है जिससे भारत एक परिसंघ होगा और साथ ही देश की एकता को बनाए रखने के लिए अनिवार्य सभी बुनियादी मामलों में एकरूपता रहेगी। संविधान के प्रारूप में इसके लिए तीन उपाय किए हैं:
1. एक ही न्यायपालिका;
2. नागरिक तथा दाण्डिक – सभी मूल विधियों में एकरूपता; और
3. महत्वपूर्ण पदों पर एक समान अखिल भारतीय सिविल सेवा की व्यवस्था।’

स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व हम सभी ने एकता पर जोर देने का सजग प्रयास किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विविधाता पर बल दिया जा रहा हैं। कभी-कभी यह बल खतरनाक स्थिति तक पहुंच जाता है।

‘पृथक स्व-राज्य’ सिध्दांत खतरनाक

कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने केंद्र राज्यों के संबंधों पर रिपोर्ट देने तथा इन पर सिफारिश देने के लिए सरकारिया आयोग को एक ज्ञापन प्रस्तुत कर कहा था:
”……भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के बाद ऐतिहासिक रूप से अधिकांश समय से चली आ रही देश की सीमाओं के विभाजन का आधार मात्र प्रशासनिक नहीं रह गया है। अब ये विभिन्न भाषायी सांस्कृतिक समूहों के समझ-बूझ कर बनाए गए ‘स्व-राज्य’ हैं। वस्तुत: इन समूहों की अलग राष्ट्रीयताएं बनती जा रही हैं।”

मैं इस पृथक ‘स्व-राज्य’ के सिध्दांत को बहुत खतरनाक सिध्दांत मानता हूं। इस ‘द्वि-राष्ट्र सिध्दांत’ के कारण भारत का विभाजन हुआ, इस बहुराष्ट्रीय सिध्दांत के कारण देश छोटे छोटे टुकड़ों में बंट सकता है।

यह प्रशंसनीय है कि सरकारिया आयोग ने इस सिध्दांत को साफ-साफ अस्वीकार कर दिया है और पुष्टि की है कि ‘संपूर्ण भारत देश के प्रत्येक नागरिक का ‘स्व-राज्य’ है; किंतु यह उक्ति जम्मू कश्मीर प्रदेश के मामले में दुखद रूप से अपवाद प्रतीत होती है।

अस्थायी अनुच्छेद 370 को स्थायी बनाने का प्रयास

संविधान सभा में सरकार की ओर से बोलते हुए, स्वयं श्री गोपालस्वामी आयंगर ने खेद प्रगट किया था कि जब सभी राजा-महाराजाओं की रियासतों का देश के साथ पूरी तरह विलय हो गया है, जम्मू और कश्मीर को एक अपवाद बनाया जा रहा है। परंतु उन्होंने आगे इस बात पर बल दिया कि यह व्यवस्था अस्थायी है तथा जल्दी ही जम्मू और कश्मीर का भी अन्य प्रदेशों की तरह संघ के साथ पूरी तरह से विलय हो जाएगा। त्रासदी यह है कि संविधान सभा में जो विधिवत् आश्वासन दिया गया था उसे राजनीतिक इष्टसिध्दि के कारणों से आज तोड़ा जा रहा है तथा अस्थायी प्रावधान को स्थायी बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

इस प्रसंग में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) द्वारा सरकारिया आयोग को दिये ज्ञापन का संदर्भ देना चाहूंगा, जिसका चिंतन भारतीय राष्ट्रवाद के मुकाबले द्वि-राष्ट्र सिध्दांत या शेख अब्दुल्ला के त्रि-राष्ट्र सिध्दांत की सीमा भी पार कर जाता है। वादियों का सदैव यह दृष्टिकोण रहा है कि भारत एक बहुराष्ट्रीय राज्य है।

संविधान निर्माताओं की नेकनीयती पर संदेह

संविधान में जो ‘एकात्मवादी प्रवृत्ति’ दिखाई पड़ती है, उसकी आलोचना करते हुए मार्क्‍सवादियों के ज्ञापन में भारत के संविधान निर्माताओं की नेकनीयती पर ही संदेह किया है। वे लिखते हैं:
”स्वतंत्रता के बाद जो संविधान बनाया गया उसमें विकास के लिए पूंजीवादी मार्ग की आवश्यकताओं को ध्‍यान में रखा गया, जिसके लिए एकीकृत एकल, सजातीय बाजार की आवश्यकता होती है। इसमें जमींदारों के साथ सम्बध्द बड़े-बड़े पूंजीपतियों की आवश्यकताओं की झलक मिलती है…”

उपर्युक्त विश्लेषण में यह कथन कि संविधान की एकात्मवादी प्रवृत्ति का दरअसल कारण यह है कि इसके निर्माताओं ने बड़े जमींदारों और पूंजीपतियों के हितों को धयान में रखा, अनर्गल और दुराग्रहपूर्ण है। यह विकृत दृष्टिकोण का एक विशिष्ट उदाहरण है जिससे पता चलता है कि यदि वैचारिक मताग्रह के काले चश्मे से देखने का हठ रखा जाए तो निश्चय ही इतिहास की प्रमुख घटनाएं भी विकृत रूप में सामने आएंगी।

संविधान सभा में हुई चर्चा को देखने से सहज ही पता चलता है कि इस प्रतिष्ठित निकाय ने पूरी तरह माना है कि भारतीय समाज बहु-वर्णी है और इसका एक रंग नहीं है, परंतु साथ ही वह इस विविधता में निहित सांस्कृतिक एकता के प्रति सक्रिय रूप से सजग थी। उसने देश के लिए जो राजनीतिक दस्तावेज बनाया उसमें इस एकता को रेखांकित किया है तथा एक राष्ट्र पर बल दिया है।

विकेंद्रीकरण के लिए सुदृढ़ आधार

मुझे यह महसूस होता है कि संविधान बनाते समय संविधान निर्माताओं को स्पष्ट रूप से परिकल्पना नहीं थी कि आगे आने वाले समय में राज्यों को अपने विकास संबंधी दायित्वों का निर्वाह करने के लिए कितना बोझ सहना पड़ेगा।

अब राज्यों को दिए गए संसाधन अत्यंत कम हैं और उनमें लचीलापन भी नहीं है। केंद्र को आवंटित संसाधन अपार हैं। इसका परिणाम यह है कि राज्यों को अपनी सामाजिक तथा औद्योगिक आधारभूत संरचना जो कि तेजी से सामाजिक आर्थिक विकास के लिए पूर्वपेक्षित है, तैयार करने की प्रारंभिक जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए केंद्र की आर्थिक सहायता पर लगातार निर्भर करना पड़ता है। मेरा विचार है कि यह मामला स्पष्ट है कि राज्यों को और अधिक वित्तीय सहायता दी जानी चाहिए।

प्रशासनिक तथा विधायी मामलों के बारे में भी सरकारिया आयोग ने ठीक ही कहा है कि बहुत समय से शक्तियों के केंद्रीयकरण की सामान्य प्रवृत्ति अधिकाधिक बढ़ती गई है।’ उसने आगे लिखा है: ‘इस बात में पर्याप्त सच्चाई है कि अनावश्यक केंद्रीयकरण से केंद्र का रक्तचाप बढ़ता है और उसकी परिधि में रक्त की कमी रहती है।’ इसका अनिवार्यत: परिणाम रूग्णता और अकुशलता में परिणत होता है।’ इससे भी खराब बात यह है कि हम महसूस करते हैं कि इस अतिकेंद्रीकरण ने राष्ट्रीय एकता को कमजोर बनाने में योगदान किया है। अत: राष्ट्रीय एकता के हित में हमारे लिए आवश्यक है कि राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों शक्तियों का और अधिक विकेंद्रीकरण किया जाये।

कश्मीर मामले में समझौतावादी प्रवृत्ति से राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ेगी।

पश्चिमी पर्यवेक्षक हमें बिना बात कश्मीर के बारे में परामर्श देते रहते हैं और स्वायत्ताता देने की समस्या से निपटने से लेकर यह राज्य पाकिस्तान अथवा भारत के साथ मिले या स्वतंत्र बना रहे, इस बारे में मतसंग्रह कराने के सुझाव देते रहते हैं। वे सामान्य रूप से इसे केवल भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद की समस्या समझते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार उनके पहले प्रस्ताव को स्वीकार करने की इच्छुक है और वह ‘आजादी से कम’ कुछ भी रियायत देने की बात कर रही है।

किंतु हमें समझ लेना चाहिए कि हम इस समस्या का समाधान किस ढंग से करते हैं, इसका प्रभाव देश की एकता पर पड़ेगा। जैसा मैंने पहले कहा है कि राज्यों को और अधिक शक्तियां देने के औचित्य का आधार सुदृढ़ है। परंतु इसे केवल जम्मू और कश्मीर के मामले में ही लागू करना और वह भी इन यंत्रणापूर्ण पांच वर्षों में वहां फैली हिंसा तथा तोड़-फोड़ की गतिविधियों के आगे झुक कर, इसका अर्थ यह होगा कि हम विद्रोही गतिविधियों को शह दे रहे हैं। कश्मीर में समझौतावादी प्रवृत्ति अपनाने से पूरे देश पर अप्रत्यक्ष रूप से बुरा प्रभाव पड़ेगा और विधवंसकारी ताकतों को हर तरह से बढ़ावा मिलेगा।

डा. राजेन्द्र प्रसाद का विवेकपूर्ण परामर्श

मैं मानता हूं कि एकता के परिप्रेक्ष्य में भारत के संविधान की पर्याप्त अच्छे ढंग से रचना हुई है। फिर भी यदि स्वतंत्रता के लगभग छह दशकों के बाद आज देश में पृथकतावाद और विद्रोही गतिविधियों, आतंकवाद और हिंसा से एकता को गंभीर खतरा है तो इसमें दोष संविधान का नहीं, अपितु प्रमुख रूप से दोष इस बात में है कि जो संविधान को कार्यान्वित करने के लिए जिम्मेदार हैं वे गलत ढंग से इसे अमल में ला रहे हैं।

जब 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा में औपचारिक रूप से संविधान स्वीकार किया गया था तो संविधान सभा के अधयक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने समापन भाषण में कहा था:
”यदि निर्वाचित प्रतिनिधि योग्य होंगे तथा चरित्रवान और निष्ठावान होंगे तो वे दोषपूर्ण संविधान का भी सर्वश्रेष्ठ उपयोग कर सकेंगे। यदि उनमें अपनी ही कमी हुई तो संविधान किसी भी देश के लिए मददगार नहीं बन सकता। आखिरकार संविधान तो मशीन की तरह निर्जीव है, इसमें प्राण तो वह व्यक्ति डालता है जो यंत्र को नियंत्रित करता और चलाता है तथा आज भारत की सर्वाधिक आवश्यकता ईमानदार व्यक्तियों की है, जिनके सामने देश का हित सर्वोपरि हो।’

हम संविधान में ऐसे परिवर्तन और संशोधन करने के बार में सोच सकते हैं, जिनसे संविधान राष्ट्रीय एकता को और अधिक प्रभावकारी ढंग से कारगार बना सके, परंतु हमें सदैव डा. राजेन्द्र बाबू के अत्यंत बुध्दिमत्तापूर्ण परामर्श को धयान में रखना होगा।

(लेखक लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं)

(यह लेख डॉ. मुकर्जी स्मृति न्यास द्वारा प्रकाशित संकल्प विशेषांक से साभार यहां प्रस्तुत है)

सरस्वती से लेकर रामसेतु तक टूटता पश्चिम का इतिहास तिलिस्म

लेखक: जयप्रकाश सिंह

 भारतीय गुलामी के हजार साल के कालखण्ड को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम कालखण्ड का सम्बंध इस्लाम से है जबकि द्वितीय कालखण्ड का सम्बंध इसाईयत से है। इस्लामिक गुलामी मूल रुप से राजनीतिक गुलामी थी। इस गुलामी का सामाजिक सांस्कृतिक स्तर पर रिसाव नहीं हुआ था। कुछ इतिहासकार हिंदुओं को जबरन इस्लाम में मतांतरित करने और सूफीवाद के उदय को सामाजिक सास्कृतिक परिदृश्य से जोड़कर देखते है। लेकिन मतांतरण के पीछे भी काम करने वाली शक्ति मूलरुप से राजनीतिक थी। इसके पीछे कोई वैचारिक आंदोलन काम नहीं कर रहा था।

सूफीवाद के उभार का राजनीतिक शक्ति से कुछ लेनादेना नहीं था। यह हिंदुत्व की सांस्कृतिक सबलता के कारण अस्तित्व में आया। सूफीवाद भारत की प्रबल सांस्कृतिक जठराग्नि की देन है। असीम बौद्विक और सांस्कृतिक पाचन क्षमता के कारण भारत सभी वाह्य प्रवृत्तियों को आत्मसात कर लेता है, और अपने पकृति के अनुरुप नई प्रवृत्तियां को जन्म देता है। यही सनातन भारत की महान आंतरिक और अमिट ताकत है।

इस बिंदु पर यह भी स्मरणीय है कि इस कालखण्ड में समाज की धारा ही मूल धारा थी। राजनीति की भूमिका एक सहायक की भूमिका तक सीमित थी। इसी कारण तत्कालीन राजनीतिक प्रक्रिया में बहुत कम लोगों की सहभागिता होती थी और बहुत कम ही लोग उससे प्रभावित भी होते थे।

अंग्रेजों के समय की गुलामी राजनीतिक के साथ-साथ सांस्कृतिक और सामाजिक भी थी। अंग्रेजों ने भारत की राजनीतिक संरचना और संस्थानों के साथ ही समाज और संस्कृति की बनावट तथा बुनावट को भी प्रभावित किया। उन्होंने भारतीय जनमानस और उसके शक्तिकेंन्द्रों का बहुत बारीकी से अध्ययन किया। सामाजिक सांस्कृतिक समझ की इस कवायद से अग्रेंजों को भारत की नब्ज और तासीर को समझने में मदद मिली। उनके ध्यान में आया कि भारतीय जनमानस राज से नहीं बल्कि समाज से चलता है और भारतीय अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। भारतीयों में इस विरासत को लेकर एक गौरव भाव भी है। अंग्रेजों को यह बात भी समझ में आयी कि आत्मगौरव की भावना राजनीतिक गुलामी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। और इस भाव के बने रहने पर भारतीयों पर अधिक समय तक शासन नहीं किया जा सकता।

भारत की नब्ज और तासीर को समझने के बाद अंग्रेजों ने भारतीयों में आत्महीनता भरने के प्रयास शुरु किए। उन्होंने कुछ ऐसी मान्यताएं और अवधारणाएं गढ़ी जो नितांत भ्रामक थीं। और जिसका उद्देश्य केवल और केवल भारतीयों के बीच आत्महीनता और आत्म दैन्यता का भाव भरना था। इन प्रवृत्तियों को पैदा करने का साधन इतिहास को बनाया गया। भारत का इतिहास अंगेजों द्वारा लिखा गया और यह शायद अब तक पूरी दुनिया में लिखा गया सबसे विकृत इतिहास है। भारत पर आर्यो का आक्रमण एक ऐसी ही झूठी कहानी है। जिसका आज तक भारतीय इतिहासकार रट्टा मारते आ रहे हैं।

सरस्वती नदी को कपोलकल्पना बताने को भी को भी इतिहास के रचा गया एक सामाजिक सांस्कृतिक षडयंत्र कहा जा सकता है। जिसका कभी अस्तित्व ही नहीं रहा है। लेकिन हाल में किए उत्खनन और उपग्रहों के जरिए लिए गए चित्रों ने यह बात साबित कर दी है कि सरस्वती नदी एक सच्चाई थी। इस नदी को फिर से एक सच्चाई बनाने का प्रयास भी शुरु कर दिए गए हैं।

सरस्वती नदी शोधयात्रा की एक लम्बी कहानी है। इस नदी के शोध में पहला कदम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक मारोपंत पिंगले और विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैनी के पुरातत्वविद् स्व. डा.विष्णु श्रीधर वाकणकर ने उठाया। इन दोनों महानुभावों ने अन्त:सलिला सरस्वती नदी के सम्भावित मार्ग का खाका तैयार किया और प्रवाह के मार्ग को खोजने के लिए लगभग तीन हजार किलोमीटर का प्रवास किया।

इन दोनों महानुभावों ने 1985 में सरस्वती नदी के मार्ग के सटीक निर्धारण के लिए सरस्वती शोधसंस्थान, जोधपुर की स्थापना की। उन्होंने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन से भी इस कार्य में सहयोग देने की अपील की और इसरो ने इस नदी के पुनर्खोज में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस नदी के मार्ग के शोध में महाभारत के शल्य पर्व से भी सहायता मिली। महाभारत के इस खण्ड में भगवान बलराम के यात्रा विवरण का प्रयोग सरस्वती के मार्ग की खोज में किया गया।

आज भी प्रयाग में गंगा और यमुना दो नदियों का संगम को त्रिवेणी कहा जाता है। भारतीय जनमानस में सरस्वती नदी से जुड़ी स्मृतियों के कारण ही प्रयाग को त्रिवेणी कहा जाता है। वैज्ञानिक अध्ययनों से साबित हो चुका है कि पोंटा साहब के समीप करीबन तीन हजार पांच सौ साल पूर्व हुए भूचाल के कारण शिवालिक पर्वत में खिसकाव आ गया और यहां यमुना नदी का प्रवाह पश्चिम दिशा के स्थान पर दक्षिण हो गया। प्रवाह में हुए इस परिवर्तन से यमुना नदी ने सरस्वती के पानी को भी अपने में समाहित कर लिया। प्रयाग में यमुना गंगा में समाहित हो जाती है। प्रयाग को इसी कारण त्रिवेणी भी कहा जाता है।

सरस्वती की पुनर्खोज का महत्व केवल आस्था और विश्वास के स्तर तक नहीं है। इसके ऐतिहासिक आयाम भी हैं। यह आयाम अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के उपर थोपी गई सांस्कृतिक गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम में हमारी मदद दे सकते है। यह लड़ाई अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण और अधिक जरुरी है।

अंग्रेजो ने अपने द्वारा गढ़ी गई मान्यताओं से यह स्थापित करने का बलपूर्वक प्रयास किया कि राम और कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नही है। रामायण और महाभारत कपोल कल्पनाएं हैं, ऐसी कहानियां है जो कभी भी इस धरती पर घटी नहीं। भारत के सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्शों का निर्माण भगवान राम और भगवान कृष्ण के चरित्रों से पैदा होता है। और उन मूल्यों और आदर्शो का संचरण रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों के जरिए आज तक समाज में होता रहा है। अंग्रेजों ने इसको कपोल कल्पना बताकर भारतीयों को अपनी जड़ों से काटने का प्रयास किया। वेदों को गड़रियों का गीत बताए जाने को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

सरस्वती नदी की खोज ने अंग्रेजों द्वारा गढ़ी गयी अनेक विकृति और कुत्सित अवधारणाओं को एक ही झटके में खत्म कर दिया है। सरस्वती नदी शोध तथा द्वारिका, लोथल, धौलवीरा, कालीबंगा आदि स्थलों पर हुए उत्खनन से महाभारत की ऐतिहासिकता सिद्व हो गई है। साथ ही खम्बात की खाड़ी के उत्खनन से तो भारतीय इतिहास दस हजार वर्षो से भी अधिक पुराना होने के प्रमाण मिले हैं। प्रवासी भारतीय अमेरिका विद्वान डा. नरहर आचार्य ने तारामंडल साफ्टवेयर के आधार पर महाभारत युध्द की तिथि का अकाटय प्रमाण प्रस्तुत किया है।

सरस्वती नदी शोध के परिणामस्वरुप भारतीय इतिहास की अत्यंत प्राचीनता सिध्द होने से अंग्रेजो द्वारा गढ़ा गया ‘आर्य आक्रमण का सिध्दांत’ भी ध्वस्त हो चुका है। अंग्रेजों की मान्यता है कि आर्यो ने लगभग 1500 ईसापूर्व भारत पर आक्रमण किया। यदि ऐसा है तो महाभारत में सरस्वती नदी का उल्लेख कैसे सम्भव है और मंत्रद्रष्टा ऋषियों द्वारा वेदों की रचना की सरस्वती के तट पर कैसे सम्भव हुई।

आज जरुरत इस बात की है हम सरस्वती नदी शोधयात्रा के निष्कर्षों को लेकर समाज में जाएं। भारत में पढ़ाए जाए रहे विकृत इतिहास के तथ्यों को सरस्वती नदी के खोज के आलोक में फिर से कसने की जरुरत है। समाज को बताने की जरुरत है कि अग्रेजों द्वारा इतिहास से जरिए भारत का जो चित्र खींचा है, वह विकृत है। भारत दीन -हीन कभी नहीं रहा। भारत का अपना एक गौरवपूर्ण इतिहास और उज्जवल सांस्कृतिक परम्परा है।

सरस्वती नदी शोधयात्रा आस्था को ऐतिहासिक मान्यता प्रदान करने की एक आधारभूत कड़ी का काम किया है। इसलिए सरस्वती का खोज को भारतीय आस्था और इतिहास का संगम कहा जा सकता है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए की यह एक शुरुआत मात्र है।

इसी संदर्भ में सेतुसमुद्रम परियोजना से उपजे विवाद पर नजर डालने से यह सिध्द होता है कि रामसेतु से भी आस्था और इतिहास के मिलन की व्यापक संभावनाएं खुलती हैं। रामसेतु भगवान राम के काल की अभियांत्रिकी का अद्भुत उदाहरण है। सरस्वती नदी शोध की तरह यदि भारतीयता को समर्पित लोगों ने रामसेतु को लेकर भी काम शुरु किया तो पश्चिम के विज्ञान और इतिहास की सीमाएं अपने आप टूट जाएंगी। क्योंकि भारतीय कालगणना का विशाल सागर पश्चिम के संकीण खांचे में नहीं फिट हो सकता। इतिहास और विज्ञान की सीमाओं के टूटने के साथ ही हमारे उपर अंग्रेजो द्वारा गलत अवधारणा के जरिए थोपी गई सांस्कृतिक गुलामी की कडियां भी स्वत:टूट जाएगी। भारतीय मानसिकता पर जमी गाद अपने आप साफ हो जाएगी। भारत के नवोत्थान में इस क्षेत्र में काम किया जाना सबसे महत्वपूर्ण और दूरगामी होगा।

भारत को भारतीय आंखों से देखने और भारतीय नजरिए से समझने का समय अब आ गया है। सरस्वती नदी शोध ने इस काम की शुरुआत की है और रामसेतु में इसको नई उंचाईंया प्रदान करने की सम्भावनाएं और सामर्थ्य है। जरुरत है तो केवल दृ ढ़तापूर्वक आगे बढ़ने की। अगर हम आगे बढ़ते हैं तो प्राचीन के साथ साथ भावी इतिहास भी अपना ही होगा।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

समुद्री सतह पर नासा की नजर – रामनयन सिंह

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भयंकर तूफानों से बचाव के लिए नासा ने एक एनिमेशन सिस्टम विकसित किया है, जो समुद्री सतह के तापमान को विभिन्न रंगों में प्रदर्शित करेगा। नासा स्पेस फ्लाइट सेंटर द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार इस एनिमेशन डिस्प्ले से तूफान के बारे में सूचना देने वाली प्रणाली को काफी लाभ पहुंचेगा। रिपोर्ट के अनुसार 80 डिग्री फॉरेनहाइट या इससे ज्यादा तापमान वाली समुद्री सतह को येलो, ऑरेंज और रेड कलर से दर्शाया जाता है। उल्लेखनीय है कि तापमान के ये आंकडे एडवांस माइक्रोवेव स्कैनिंग रेडियो मीटर द्वारा लिए जाते हैं और इस एनिमेशन को प्रत्येक 24 घंटे में अपडेट किया जाता है। जैसा कि हम जानते हैं कि समुद्री सतह के गर्म होने से चक्रवात या तूफानी बवंडर पैदा होते हैं, जो समुद्री किनारों पर भयंकर तबाही मचाते हैं। नासा द्वारा प्राप्त आंकडों के अनुसार मैक्सिको की खाडी में समुद्री जल सतह का तापमान 80 डिग्री फॉरेनहाइट (जून के आखिरी दिनों में) से ज्यादा था और मौसम विज्ञानियों ने इन आंकडों का जमकर उपयोग किया। गौरतलब है कि समुद्री तल का 80 फॉरेनहाइट से ज्यादा तापमान होने पर समुद्री दबाव भयंकर तूफान में बदल सकता है।

क्या जीवन धूमकेतु से आया!
पृथ्वी पर जीवन का प्रारंभ कैसे हुआ? क्या पृथ्वी पर जीव अंतरिक्ष से आए या इसकी शुरुआत समुद्री किनारों पर स्माल मॉलिक्यूल के जरिए हुई। जो भी हो, लेकिन पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के बारे में वैज्ञानिकों के बीच अभी भी मतभेद हैं। साइंस पोर्टल न्यू साइंटिस्ट में प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत धूमकेतु के जरिए हुई। ब्रिटेन की कार्डिफ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक चंद्र विक्रमसिंघे ने कहा कि धूमकेतु पर सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी पहले से ही थी और धूमकेतु के जरिए ये जीव पृथ्वी पर आए। उन्होंने कहा कि यही वजह है कि पृथ्वी के निर्माण के लगभग 4.5 अरब वर्ष बाद पृथ्वी पर जीवन तेजी से पनपा। विक्रमसिंघे के अनुसार यह थ्योरी अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के डीप इंपैक्ट प्रोब से भी प्रमाणित होती है। उल्लेखनीय है कि डीप इंपैक्ट प्रोब के लिए धूमकेतु टेम्पेल 1 को जुलाई, 2005 में एक प्रोजेक्टाइल के जरिए ब्लास्ट किया गया था। विस्फोट के दौरान वैज्ञानिकों ने धूमकेतु के अंदर से गीली मिट्टी बाहर निकलते देखा था। विक्रमसिंघे ने कहा कि इससे प्रमाणित होता है कि धूमकेतु के भीतर कभी गर्म द्रव मौजूद थे और इसकी वजह रेडियो एक्टिव आइसोटोप थे, जो इन्हें हीट करते थे। रिपोर्ट के अनुसार गीली मिट्टी में वे आवश्यक परिस्थितियां मौजूद थीं, जो सिंपल ऑर्गेनिक मॉलिक्यूल को जटिल बॉयोपॉलिमर्स में बदलने में सहायक थीं। यही नहीं, विक्रमसिंघे व उनके सहयोगियों का तर्क है कि धूमकेतु में मौजूद गीली मिट्टी की काफी मात्रा भी इस थ्योरी को बल देती है कि पृथ्वी पर जीवन अंतरिक्ष से आया। उन्होंने कहा कि पृथ्वी के शुरुआती दिनों में जीव महज 10,000 घन किलोमीटर में ही पनपे, जबकि सिर्फ एक 10 किलोमीटर चौडे धूमकेतु में इस तरह की परिस्थितियां 1000 घन किलोमीटर मौजूद थीं। हालांकि, ऐसे धूमकेतु बाहरी सोलर सिस्टम में अनगिनत थे।

रामनयन सिंह

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के बहाने भारत को घेरने की साजिश

लेखक : डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

चर्च और अमेरिका दोनों ही भारत को घेरने की साजिश में जुटे हुए हैं। चर्च का उद्देश्य बहुत स्पष्ट है। वेटिकन के राष्ट्र्पति पोप के अनुसार इस शताब्दी में उन्हें भारत का काम निपटाना है। क्योंकि पिछली दो सहस्राब्दियों में चर्च ने पूरे यूरोप और अफ्रीका के इतिहास, विरासत और संस्कृति को नष्ट करके वहाँ ईसाई मत को स्थापित कर दिया है। एशिया के अधिकांश हिस्से पर भी चर्च ने अपना मजहबी आधिपत्य जमा लिया है। शुरू में तो यूरोप ने ईसाइकरण का विरोघ किया लेकिन कालांतर में वही यूरोप अफी्रका और एशिया में मजहबी साम्राज्यवाद का हरावल दस्ता बना। जिन लोगों ने चर्च के इन अभियानों का विरोध किया उन्हें निर्दयता पूर्वक कुचल दिया गया। चर्च के दुर्भाग्य से भारत उसके इस विश्वव्यापी अभियान के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ा हो गया। अपनी इस सम्राज्यवादी लिप्सा में बींसवी शताब्दी में ही चर्च और अमेरिका एक जुट हो गये थे। इसलिए बचे-खुचे देशों में ईसाई मजहब को स्थापित करने में अमेरिका अग्रणी भूमिका में उपस्थित हो गया है। परन्तु अमेरिका को इस प्रकार के देशों में दखलअंदाजी के लिए कोई न कोई तार्किक बहाना चाहिए। कोई ऐसा बहाना जिस पर लोग सहज ही विश्वास कर लें। अमेरिका ने इसके लिए आतंकवाद को बहाना भी बनाया और हथियार भी। अमेरिका का ऐसा कहना है कि दुनिया इस्लामी आतंकवाद का प्रहार झेल रही है और अमेरिका क्योंकि नवविचार और नवचेतना का देश है इसलिए वह इस्लामी आतंकवाद को समाप्त करना अपना कर्तव्य समझता है। चाहे इसमें उसके अपने सैनिक भी मर रहे हैं परन्तु इसके बावजूद अमेरिका मानवता के हित में इस्लामी आतंकवाद से लड़ रहा है। केवल अमेरिका में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में। वैसे केवल रिकार्ड के लिए अमेरिका को विश्व का सबसे पहला आतंकवादी देश कहा जा सकता है। सी0आई0ए0 ने कितने लोगों की हत्या करवाई और कितने ही देशों की सरकारों को उल्टा पुल्टा किया इसका लेखा जोखा उसकी पुरानी फाईलों में से निकल आयेगा। आज जिस इस्लामी आतंकवाद को लेकर इतना हल्ला मचा हुआ है उसको जन्म भी अमेरिका ने, अफगानिस्तान में रूस को उत्तर देने के लिए, दिया था। बाद में इसी आतंकवाद के बहाने अमेरिका अपने आर्थिक हितों के लिए इराक में घुसा, फिर अफगानिस्तान में और अब उसकी सेनाएं आतंकवाद की खोज करते-करते अपनी इच्छा से पाकिस्तान में भी चली जाती हैं। लेकिन चर्च और अमेरिका का निशाना तो भारत है। पर इस्लामी आतंकवाद के बहाने अमेरिका भारत में नहीं घुस सकता क्योंकि भारत इस्लामी आतंकवाद से पीड़ित देश है।

भारत में घुसने के लिए अमेरिका को हिन्दू आतंकवाद की जरूरत ह,ै इस्लामी आतंकवाद की नहीं। जब तक भारत में कांग्रेस की निर्बाध सत्ता रही तब तक न ज्यादा अमेरिका को चिंता थी न ही चर्च को क्योंकि भारत को मतांतरित करने की चर्च की योजनाओं में कांग्रेस सरकार सहायक रही, बाधक नहीं। परन्तु पिछले तीन दशकों से भारत का राजनैतिक घटना क्रम तेजी से परिवर्तित हुआ है। कांग्रेस केन्द्रीय सत्ता से पदच्युत हो गई है। यदि नहीं भी हुई है तो उसकी सत्ता में बने रहने की निरंतरता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। इसी अर्से में राष्ट्रवादी शक्तियाँ भारतीय राजनीति के केन्द्र में पहुँच गई हैं। अमेरिका और चर्च दोनों को लगता है यदि देर-सवेर राष्ट्रवादी ताकतें भारत की सत्ता के केन्द्र में स्थापित हो गई तो भारत के ईसाईकरण में निश्चय ही बाधा उपस्थित हो जायेगी। इसका सामना करने के लिए विदेशी मूल की सोनिया गाँधी को कांग्रेस के केन्द्र में स्थापित करने की रणनीति बुनी गई। यह ताकतें अपनी इस रणनीति में तो कामयाब हो गई लेकिन इनके दुर्भाग्य से कांग्रेस स्वयं ही सत्ता के केन्द्र से च्युत होने की स्थति में पहँच रही है। यदि कल चर्च और अमेरिका के आगे ऐसा संकट उपस्थित हो जाता है तो उनके आगे भारत में दखलंदाजी का कौन सा रास्ता बचता है ? यह रास्ता भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी घोषित करने का ही है। भविष्य में यदि राष्ट्रवादी शक्तियाँ भारत का शासन सूत्र संभाल लेती हैं तो अमेरिका को यह कहने का अवसर मिल जायेगा कि भारत में आतंकवादी शक्तियों ने कब्जा कर लिया है। यह अमेरिका ने स्वयं ही घोषित किया हुआ है कि दुनिया में जहां भी आतंकवादी शक्तियाँ होंगी अमेरिका उनका पीछा करते हुए वहां तक जायेगा। और वैसे भी सोनियॉ गांधी और चर्च को अमेरिका के आगे यह गुहार लगाते हुऐ कितनी देर लगेगी कि अमेरिका आगे बढ़ कर भारत को आतंकवादी शक्तियों के चगुंल से मुक्त करे।

राष्ट्रवादी शक्तियों को और प्रकारान्तर से हिन्दु संगठनों को आतंकवादी के रूप में चित्रित करने की कड़ी में ही कांची कामकोटी मठ के शंकराचार्य को दीपावली की रात्रि को गिरफ्तार कर लिया गया था। दुनिया भर के मीडिया ने अमेरिका और इंग्लैंड की न्यूज एजेंसियों के माध्यम से हल्ला मचाया कि हिन्दु साधु संत और राष्ट्रवादी शक्तियाँ हत्यारे और गुंडे हैं। उसके बाद चर्च ने राष्ट्ीय संत वेदान्त केसरी स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की जन्माष्टमी के दिन पूर्व घोषणा करके हत्या कर दी। लक्ष्मणानन्द सरस्वती चर्च के मतांतरण आंदोंलन में बाधा थे। यह एक प्रकार से राष्ट्र्वादी शक्तियों को चर्च की चेतावनी थी कि जो उसके रास्ते में आयेगा उसका यही हश्र होगा। हत्या से पूर्व चर्च की रणनीति और योजना इतनी छिद्र रहित थी कि हत्या के बाद भी मीडिया मैनेजमेंट के माध्यम से दुनिया भर में यह प्रचारित किया गया कि संघ परिवार मतांतरित इसाईयों को आतंकित कर रहा है। मोमबत्ती ब्रिगेड के एक नख दंत हीन सदस्य कुलदीप नैयर ने तो लक्ष्मणानन्द सरस्वती को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने का घटिया प्रयास किया। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी इसी पूरे घटनाक्रम की एक कड़ी के रूप में देखी जानी चाहिए। साध्वी के खिलाफ सरकार के पास अभी तक कोई सबूत नहीं है। इसलिए उनका बार बार नारको टैस्ट और दुसरे टेस्ट करवाये जा रहे हैं। लेकिन सरकार को न सबूतों से कुछ लेना देना है और न ही सत्यता से। उसे किसी एक साधु को पकड़ कर उस पर राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी ठहराने का पूरा तानाबाना बुनना है। साध्वी भूमिगत नहीं है। वह अफजल गुरू भी नहीं है। वह कश्मीर के उन मुस्लिम आतंकवादियों में से भी नहीं है जो छिप कर नहीं बल्कि खुलकर आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। वह जाकिर हुसेन कालेज की प्रो0 गिलानी भी नहीं है जो मोमबत्ती ब्रिगेड के कंधों पर बैठकर भारत को बांटने की वकालत करते हैं। उनके हाथ में पाकिस्तान का झंडा भी नहीं है जिसे असम में फहराते हुए देखकर भी तरूण गोगोई ईद का झंडा बताते हैं।

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने देशहित के लिए अपने सामान्य सुख को त्यागा ह,ै लेकिन महाराष्ट्र् की कांग्रेसी सरकार की ए0टी0एस0 साध्वी के मोबाईल फोन के नम्बरों को लेकर इस प्रकार चिल्ला रही है जैसे उसे आतंकवादियों की पूरी-पूरी सूची ही मिल गई हो। साध्वी ने जिसे भी फोन किया है महाराष्ट् सरकार की दृष्टि में वही आतंकवादी हो गया है। ताज्जुब है कि सरकार योगी आदित्य नाथ और यहाँ तक की स्वामी असीमानन्द को भी आतंकवादियों की सूची में रख रही है। स्वामी असीमानन्द के पीछे पड़ना तो सोनिया गांधी के चेलों के लिए और भी जरूरी था क्योंकि जिस प्रकार स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती उड़ीसा में चर्च के मतांतरण आंदोंलन में बाधा बने हुए थे। स्वामी असीमानन्द उसी प्रकार गुजरात में चर्च के मतांतरण आंदोलन का विरोध कर रहे थे। न जाने क्यूं अभी तक चर्च ने उन्हें भी स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की तरह गोली नहीं मारी। पर चर्च ने शायद इसकी जरूरत नहीं समझी हागी। क्योंकि उसे पता था कि सरकार जल्दी ही असीमानन्द को आतंकवादी घोषित करके उनके पीछे पड़ जायेगी। आश्चर्य न होगा यदि कल ए0टी0एस0 के लोग स्वामी असीमानन्द को गोली मार कर कह दें कि वे मुठभेड़ में मारे गये और मोमबत्ती ब्रिगेड के लोग इंडिया गेट पर भंगड़ा डालना शुरू कर दें।

यदि कल राष्ट्रवादी शक्तियों की सरकार बनती है तो सोनियॉ गांधी, कांग्रेस और चर्च तीनों को कहते देर नहीं लगेगी कि आतंकवादी शक्तियाँ सत्ता पर काबिज हो गयी हैं। महाराष्ट् की कांग्रेसी सरकार इसी लिए अभी से अशोक सिंहल से लेकर भाजपा नेताओं को आतंकवादी प्रचारित करने के काम में लग गई है। सोनियाँ गांधी ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करके उसकी भारत में दखलअंदाजी का रास्ता पहले ही खोल दिया है। राष्ट्र्वादी शक्तियों के सत्ता में आ जाने से अमेरिका यह भी कह सकता है कि गैर जिम्मेदार लोगों के हाथ में भारत के परमाणु अस्त्र आ गये हैं।ये लोग गैर जिम्मेदार हैं इसकी एक रिर्हसल अमेरिका नरेन्द्र मोदी को वीजा न देकर कर ही चुका है। जो आरोप अमेरिका ने मोदी पर लगाये थे वे कमोबेश राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवाद के आस पास ठहराने जैसे ही थे। अब साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को घेरे में लेकर कुछ शक्तियाँ हिन्दु आतंकवाद का काल्पनिक राक्षस खड़ा करना चाहती हैं ताकि उस राक्षस को मारने के लिए अमेरिका या खुद चला आये या फिर उसे बुलाया जा सके। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के किस्से को देखते हुए जरूरी हो गया है कि सोनिया गांधी और वेटिकन के रिश्तों की गहराई से जांच की जाये ताकि उन ताकतों का पर्दा फाश हो सके जो राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी घोषित करके अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगी हुई है। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)