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भारत में चर्च के पैसे से चलाया जा रहा है माओवादी तोड-फोड

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उडीसा के कंधमाल में संत लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की जिम्मेदारी माओवादियों ने अपने ऊपर लेकर साबित कर दिया है कि माओवादी भारतीय सनातन मान्यताओं के खिलाफ और चर्च परस्त है। हालांकि जिस व्यक्ति ने अपने ऊपर हत्या की जिम्मेवारी ली है वह माओवादी है या नहीं यह भी खोज का विषय है लेकिन चर्च और चर्च समर्थित मीडिया द्वारा किये गये प्रचार से साबित हो गया है कि लक्ष्मणानंद कि हत्या चर्च के इशारे पर माओवादियों के द्वारा की गयी है।
माओपंथियों का चर्च समर्थित व्यक्तित्व कोई एक दो दिनों में नहीं गढा गया है। याद रहे भारतीय उपमहाद्वीप में माओवादियों का नेतृत्व सदा से चर्च समर्थकों के हाथ में ही रहा है। 70 के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी से चरम वामपंथियों के अलग होने के पीछे सारे कारणों के अलावे एक कारण ईसाइयत एप्रोच भी था। कानू सन्याल या फिर चारू मोजुमदार के व्यक्तित्व से साफ झलकता है कि वह भारतीय परंपराओं के खिलाफ और ईसाइयत का हिमायती था। यही नहीं बिहार के एक कैथोलिक ईसाई पादरी को योजनाबद्ध तरीके से माओवादियों के साथ लगाया गया कि वह वहां चर्च की मान्यताओं को सिखाए। कई माओपंथियों को चर्च में शरण लेते देखा गया है। माओवादियों की चर्च परस्ती कोई नई बात नहीं है। ऐसे भी ईसाइयत, इस्लाम और मार्क्सवाद तीनों भोग के प्रति समान विचार रखता है। यही कारण है कि साम्यवाद, इस्लाम और ईसाइयत से अपने आप को निकट महसूस करता है जबकि भारतीय चिंतन से कोसों दूर महसूस करता है।
चर्च भारत को एक राजनीतिक स्वरूप में नहीं देखना चाहता है। यही कारण है कि जहां जहां चर्च की ताकत बढी है वहां-वहां पृथकतावादी मानसिकता का उदय हुआ है। गंभीरता से विचार करने और भारत, नेपाल, वर्मा, श्रीलंका आदि देशों में साम्यवाद के चरमपंथ की ठीक से मीमांसा करने पर स्पष्ट हो जाता है कि माओवादी चर्च से ही प्रेरणा लेते हैं। झारखंड, छतीसगढ, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, उडीसा आदि राज्यों के माओवादी अध्यन से पता चला है कि आला माओपंथी नेता चर्च में शरण लेते हैं। वर्ष 2002 में झारखंड में दो पादरी को माओवादी गतिविधियों में संलिप्त होने के कारण गिरफ्तार किया गया था। इधर के दिनों में लगातार झारखंड, छतीसगढ, बंगाल और उडीसा के अलावा बिहार में माओवादियों ने इमानदार और हिन्दू आस्था पर श्रध्दा रखने वाले लोगों की हत्या की। यही नहीं कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं को जंगल में काम करने से माओवादियों के द्वारा रोका भी गया है।
विकास भारती के संचालक अशोक भगत, गांधी आश्रम से जुडे कई कार्यकर्ताओं को आदिवासी हितचिंतक होने के बावजूद पीपुल्स वार ग्रुप के चरमपंथियों ने कई बार अपहरण किया है। हालांकि सामाजिक पकड होने के कारण उन्हें छोडना पडा लेकिन जंगल में काम करने वाले, आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान के लिए लडने वालों पर आज भी माओवादी खतरा मंडरा रहा है। कई बार छतीसगढ में हिन्दु संतों पर आक्रमण हो चुका है। इन तमाम आक्रमणों में एक भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता जिससे यह साबित हो कि माओवादी चर्च के भी उतने ही दुश्मन हैं जितने हिन्दुत्व के। उक्त प्रदेशों में पादरी या चर्च से संबंधित लोगों की हत्या अगर हुई भी है तो आपसी षड्यंत्र के कारण न कि बाहरी हस्तक्षेप के कारण। वर्ष 2000 में लोहरदग्गा(ततकालीन बिहार अब झारखंड) के जिला पुलिस अधीक्षक अजय कुमार सिंह की हत्या माओवादियों ने कर दी। उक्त अधिकारी जंगल में चर्च के नाजायज गतिविधियों पर अंकुश लगाने का काम किया था। मिशनरियों को अबैध गतिविधियां चलाने में परेशानी होने लगी और चर्च के इशारे पर माओवादियों ने अजय को मौत की घट उतार दिया। यही हस्र भभुआ (बिहार) डीएफओ संजय सिंह के साथ हुआ। उसने भी चर्च की गतिविधयों पर अंकुश लगाने का प्रयास किया था लेकिन उसकी भी हत्या कर दी गयी। डीएफओ संजय के कारण तो जंगल के आदिवासी सजग होने लगे थे। चर्च की गतिविधियों और षडयंत्रों को समझने भी लगे थे। चर्च को अपने काम में हो रहे अवरोधों के कारण चर्च ने संजय की हत्या का षड्यंत्र किया। दोनों होनहार अधिकारी माओवादियों के हाथों मारा गया लेकिन इसके पीछे चर्च के हाथों से इन्कार नहीं किया जाना चाहिए।
तमाम आंकडों को एकत्र कर समीक्षा की जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप का माओवादी पूर्णरूपेण चर्च के इशारे पर काम कर रहा है। नेपाल से लेकर उत्तराखंड तक जो भी माओवादी, प्रत्यक्ष या परोक्ष गतिविधि में लगे हैं कहीं न कहीं चर्च से प्रभावित है। लगभग एक साल पहले राही नामक माओवादी उत्तराखंड से गिरफ्तार किया गया था। राही का मनोविज्ञान भी चर्च से मेल खाता है। बगहा (बिहार) के जंगल में ओशो नामक माओवादी पकडा गया था। उसका भी चर्च के साथ मधुर संबंध था। अपने बयान में ओशो ने यहां तक कहा कि वह हरनाटार के चर्च में रहा करता थ। इस प्रकार भारतीय मान्यताओं तथा आस्थाओं पर चोट करने वाले माओवदियों को धर्मनिरपेक्ष कहकर प्रचारित करना बिल्कुल गलत है। ये माओवादी चर्च के चिंतन का ही विस्तार है। इन्हें न केवल चर्च से धन मुहैया कराया जाता है अपितु इनके माध्यम से हिन्दु मान्यताओं के खिलाफ मोर्चेबंदी भी की जा रही है। चर्च के पृथकीय व्यक्तित्व का हिसाब-किताब भारतीय खुफिया एजेंसी के पास भी है लेकिन भारत में चर्च का जाल इतना मजबूत हो गया है कि उसके खिलाफ कार्रवाई करना कठिन हो गया है। लक्ष्मणानंद जी की हत्या ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि चर्च और माओपंथी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। चर्च के पैसे से माओवादी भारत में तोड-फोड कर रहा है।
भारत सरकार को इस दिशा में सोचना चाहिए तथा चर्च और माओवादियों के बीच के संबंध पर जांच होनी चाहिए। ऐसा नहीं किया गया तो चर्च पैसे के बल पर पृथकतावाद को हवा देता रहेगा। तब फिर देश को एक रखना कठिन हो जाएगा। चर्च से माओवादियों के संबंध तो हैं लेकिन हालिया घटना पूज्य लक्ष्मणानंद जी कि हत्या ने एक बार फिर चर्च और माओवादियों के नापाक संबंधों को उजागर कर दिया है।

लेखक- गौतम चौधरी

(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

विधानसभा चुनावों से उभरे संकेत

राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम विधानसभा के चुनाव परिणाम आ गये हैं। इन पॉच राज्यों में से तीन पर भाजपा का कब्जा था। दिल्ली में कांग्रेस काबिज थी और मिजोरम में एम0एन0एफ0 की सरकार थी। इन चुनाव परिणामों को लेकर इसलिए ज्यादा उत्सुकता थी क्योंकि इसके कुछ महीनों के बाद ही लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं। इसलिए यह कहा जाता था कि इन पॉच विधानसभाओं के चुनाव परिणाम केन्द्र की राजनीति को प्रभावित करेंगे।

 

इन परिणामों में भाजपा का कितना कुछ ही दांव पर लगा हुआ था। क्योंकि तीन राज्यों में भाजपा की सत्ता थी और ऐसा माना जाता है कि सत्ता विरोधी लहर के कारण दूसरी पारी में सरकार बनाये रखना मुश्किल हो जाता है। इसी सत्ता विरोधी लहर के कारण लगभग साल भर पहले उतराखंड और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी है। यदि इस पैमाने से इन चुनाव परिणामों का आकलन किया जाये तो यह मानना पड़ेगा कि भाजपा इस क्षेत्र में सफल रही है। उसने तीन में से दो राज्यों मसलन मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में दोबारा अपनी जीत का परचम लहरा दिया है।

 

राजस्थान में सत्ता जरूर उसके हाथ से निकल गयी है लेकिन वहॉ भी पक्ष और विपक्ष में केवल 20 सीटों का ही अन्तर है। निर्दलीयों में से भी कुछ लोग ऐसे हैं जो भाजपा से बगावत करके आजाद खड़े हो गये थे और जीत गये। इसे पार्टी की मिसमनेजमैंट माना जा सकता है पराजय नहीं। राजस्थान में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी पराजित हो गये और कुछ दिन पहले ही भाजपा छोड़कर कांग्रेस में गये भरतपुर के महाराजा विश्वेन्द्र सिंह भी धूल चाटते नजर आये। मीणा जाति की राजनीति करने वाले किरोड़ी लाल मीणा भी पराजित हो गये।

 

मिजोरम में भाजपा की उपस्थिति लगभग नगण्य है। वहाँ का चुनाव एक प्रकार से चर्च ही नियंत्रित करता है। जीतने वाले दलों की आस्था भी चर्च की और ही रहती है। परन्तु इस बार सत्ता धारी एम0एन0एफ0 पराजित हो गया और सोनिया गॉधी की कांग्रेस वहॉ से जीत गयी। उसका एक बड़ा कारण यह भी रहा कि सोनिया गांधी की कैथोलिक चर्च और वेटिकन से साम्प्रदायिक संबध हैं इसलिए लम्बी रणनीति के तहत चर्च को यही लगा होगा कि सोनिया गांधी की पार्टी को ही जिताया जाये। यहॉ यह भी ध्यान रखना होगा कि मिजोरम में जो आर्कबिशप चर्च पर नियंत्रण करते हैं उनकी नियुक्ति इटली में वैटिकन सरकार ही करती है इसलिए वहॉ कांग्रेस का जीतना चर्च की भविष्य की रणनीति की और ही संकेत करता है जो जाहिर है पूर्वोत्तर भारत के लिए खतरनाक है।

 

दिल्ली का चुनाव परिणाम सचमुच चौंकाने वाला कहा जा सकता है। भाजपा को आशा थी कि दिल्ली वह इस बार कांग्रेस को परास्त कर देगी। क्योंकि पिछले दस सालों से दिल्ली पर कांग्रेस ने ही कब्जा जमाया हुआ है। साल भर पहले दिल्ली नगर निगम के लिए हुए चुनावों में भाजपा ने कांग्रेस को बुरी तरह पराजित किया था। इसी आधार पर भाजपा विधानसभा में भी जीतने की आशा लगाये हुए थी। लेकिन कांग्रेस ने तीसरी बार जीत कर हैटि्क बना दी है। अब कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि नगर निगम चुनावों में भी दिल्ली की कांग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने जान बूझ कर कांग्रेस को ही हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। शीला दीक्षित को भय था कि यदि नगर निगम में कांग्रेस जीत गई तो निश्‍चय ही महापौर के पद पर बैठे व्यक्ति का कद भी बढ़ जायेगा। शीला दीक्षित अपने होते हुए प्रदेश कांग्रेस में किसी दूसरे को उभरने का अवसर नहीं देना चाहती। भाजपा नगर निगम के चुनावों से उत्साहित होकर विधानसभा चुनावों में अपनी जीत पक्की मानने लगी। जब पक्की जीत की धारणा बन जाये तो टिकट बाँटने के मामले में कुव्यवस्था फैलना लाजिमी होता है। टिकट लेने के लिए दरबारी किस्म के लोग घेराबंदी कर लेते हैं और टिकट ले भी जाते हैं। जनता और सब कुछ सह सकती है लेकिन दरबारियों की अकड़नुमा हरकतें नहीं। दिल्ली की पराज्य के बाद भाजपा को भीतर झांकने की शायद पहले से भी ज्यादा जरूरत है। वैसे तो दिल्ली चुनाव परिणामों के जरूरत से ज्यादा अर्थ नहीं निकाले जाने चाहिए क्योंकि कुल मिलाकर ये एक शहर की मानसिकता को और पार्टी की मिस मनैजमैंट को इंगित करते हैं। इसे प्रतिनिधि रूप नहीं स्वीकारना चाहिए।

 

भाजपा के लिए यह भी तसल्ली की बात है कि छत्‍तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में उसे जनजातीय क्षेत्रों में आशातीत सफलता मिली है। जनजातीय क्षेत्र ही ऐसे हैं जिस पर चर्च सबसे ज्यादा दावा करता है और भाजपा को जनजातीय क्षेत्रों का शत्रु बताता है। जनजातीय क्षेत्रों में भाजपा की जीत से स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती के हत्यारों की ऑखे खुल जानी चाहिए। चर्च जनजातीय समाज को धनबल और बंदूक बल के जोर पर बंधक बनाना चाहता है। छतीसगढ़ के जनजातीय समाज ने भाजपा को जिताकर चर्च के इस षडयंत्र का भी पर्दाफाश कर दिया है। भाजपा की इस जीत से एक और संकेत भी मिलता है कि नेतृत्व यदि ईमानदार और आम आदमी से जुड़ा हुआ होगा तो जनता उसकी कदर भी करती है और उसे दोबारा सत्ता में बैठाती भी है। मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में भाजपा की विजय में शिवराज सिंह चौहान और डा0 रमण सिंह का सहज सरल व्यक्तित्व और आम आदमी से जुड़े होने की क्षमता की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। हिमाचल प्रदेश के चुनावों में प्रो0 प्रेम कुमार धूमल के व्यक्तित्व ने भी इसी प्रकार की भूमिका निभाई थी।

 

इन चुनाव परिणामों की सबसे आश्चर्यजनक बात यह कही जा सकती है कि आम भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करने का दंभ पालने वाला साम्यवादी टोला इन पॉचों राज्यों में कहीं दूर दूर तक दिखाई नहीं देता। वैसे वे तर्क दे सकते हैं कि दास कैपिटल के शिष्यों को बेलट पर नहीं बुलेट पर विश्वास है क्योंकि माओ कह गये थे सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। आखिर नक्सलबादी माओवादी साम्यवादी टोले के वैचारिक सहोदर ही तो हैं। परन्तु इसे सीताराम येचुरी और प्रकाश करात का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि छतीसगढ़ के नक्सलवादी क्षेत्रों में लोगों ने भाजपा को जिता दिया है। यह साम्यवादी राजनीति का भीतरी खोखलापन भी जाहिर करती है।

लेखक- डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

पिछड़े नहीं हैं भारत के मुसलमान

लेखक- दिलीप मिश्राहमारे देश के ही नहीं बल्कि दुनिया के मुसलमानों को आर्थिक, शैक्षणिक व सामाजिक रूप से पिछड़ा माना जाता है। क्योंकि मुसलमान आर्थिक रूप से कमजोर और शैक्षणिक रूप से अशिक्षित हैं, इस कारण वह आतंकवादी बने या मजबूरी में बनाए जा रहे हैं। जबकि आज की वर्तमान स्थिति के अनुसार न तो अब भारत का मुसलमान गरीब है और न ही अशिक्षित। परंतु वह कट्टरवादी ताकतों के बंधन से अभी तक मुक्त नहीं हुआ है। आधुनिक शिक्षा और तकनीकी ज्ञान में वह देश के अन्य सभी समुदायों के बराबर अपना स्थान बना चुका है, परंतु उसकी इस योग्यता व ज्ञान का कट्टरवादी दुरूपयोग कर उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। दुनियाभर के साम्यवादी, जिसमें विशेष रूप से भारत के सेक्युलरवादी यह प्रचारित करते रहते हैं कि क्योंकि मुसलमान पिछड़े हुए हैं और आर्थिक रूप से कमजोर हैं, इस कारण वह जेहादी या आतंकवादी होते जा रहे हैं, परंतु यह तथ्य अभी हाल ही में पकड़े गए ‘सिमी’ और इंडियन मुजाहद्दीन संगठनों के युवा आतंकवादियों ने झुठला दिया है। इनमें से सभी आतंकवादी आधुनिक तकनीक और शिक्षा से परिपूर्ण होने के साथ-साथ आर्थिक रूप से भी बहुत मजबूत है। परंतु धार्मिक कट्टरता के कारण देशद्रोही ताकतों के हाथ के खिलौने बने हुए हैं।

आज के आधुनिक भारत के युवा मुसलमान को अपने ऊपर से इन्हीं कट्टरवादी ताकतों के चंगुल से मुक्त होना होगा और इस देश के संसाधनों के बल पर उन्होंने जो योग्यता और सम्पन्नता अर्जित की है, उसका भरपूर उपयोग देश के अन्य धर्मांलंबियों के युवाओं के समान देश के हित में करना होगा और दामन पर जो आतंकवादी होने का दाग लगा है उसको साफ करना होगा। भारत के मुसलमान युवकों को अब पिछड़ा हुआ मानना इन युवकों और उनकी योग्यता का अपमान है और यह अपमान देश के छद्मवाद राजनेता और मजहबी कट्टरवादी शक्तियां अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए कर रही हैं। इस दुष्‍प्रचार के पीछे इन ताकतों का उद्देश्य मुसलमानों को लगातार यह एहसास कराते रहना है कि वह पिछड़े और उपेक्षित, देश के हिन्दुओं के कारण है। यही कारण और भय बता कर इन ताकतों ने मुलसमानों का साठ सालों तक दोहन किया है और उन्हें दिया कुछ भी नहीं है। कट्टरवादी मदरसों में पढ़ कर कोई मुसलमान देश के शीर्ष पदों पर नहीं पहुंचा है। उसे भारतीय शिक्षा पध्दति और साधनों का लाभ ही उठा कर अपनी योग्यता बड़ानी पड़ी है। आज जो तकनीकी, सूचना और कम्प्यूटर क्रांति भारत में हुई उसका लाभ मुसलमानों ने भी उतना ही उठाया है जितना देश धर्मों और वर्गों के युवकों ने भारत के वह मुस्लिम युवक देश में तरक्की और उन्नति कर गए जो अपने धर्मों की सामाजिक कुरूतियों और रूड़ियों के बंधनों को काटने में सफल हुए इसमें वह मुसलमान भी थे जो भारत के राष्ट्रपति, न्यायाधीश डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और उच्च पदों पर व्यापार में उन्नति कर पाए। परंतु वह मुसलमान युवक लगातार पिछड़ते चले गए जो कट्टरपंथियों के हाथ की कठपुतली ही बने रहे या जिनको इन कठमुल्लाओं, मोलवियों और उलेमाओं ने धार्मिक कट्टरता तथा भारतविरोध की जन्मघुट्टी लगातार पिलाई। भारत के मुसलमानों के पिछड़ेपन का कारण कोई अन्य धर्मावलंबी कभी नहीं है। इस बात को एक छोटे से उदाहरण से भी समझा जा सकता है। भारत में सन् 1835 में लार्ड विलियम बेटिंग ने कतकत्ले में पहला मेडिकल कॉलेज खोला तो वहां अन्य धर्मों और समाजों के युवकों की भीड़ लग गई। इस कॉलेज में दाखिला लेने के लिए मुस्लिम समाज ने इसे इस्लाम के विरूध्द ब्रिटिश सरकार का षड्यंत्र करार देकर, इस का विरोध कर रैलियां निकालीं और आधुनिक शिक्षा के विरूध्द जोरदार प्रदर्शन किए। इस नकारात्मक रवैये से कारण वह लगातार पिछड़ते चले गए अन्य समाज के लोगों ने ब्रिटिश साधनों का लाभ उठाकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त की। आज भी देश की नागरिक योजनाएं, स्वास्थ्य परियोजनाएं, कला संगीत व्यापार का अक्सर कट्टरवादी ताकतें विरोध करती रहती हैं। पोलियो, जनसंख्या नियंत्रण, सिनेमा में मुस्लिम युवकों-युवतियों का काम करने, सानिया मिर्जा का देश के लिए खेलने का विरोधकर यह कट्टरवादी शक्तियां किस का नुकसान कर रही हैं? मुसलमानों का ही। फिर मुसलमान यदि पिछड़े जाते हैं तो छद्मवादी इस पिछड़ेपन पर अन्य समाज के लोगों या योजनाकारों को दोष क्यों देते हैं। यह केवल इस कारण कि मुस्लिम युवक उनके हाथ ही कठपुतली बने रहें।

आज पूरी दुनिया का सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। पूरी दुनिया वैश्विक युग और समुदाय के रूप में बदल रही है। ऐसे समय में भारतीय मुसलमानों को राष्ट्र की प्रगतिधारा में जुड़ कर देश के साथ-साथ अपनी उन्नति के नए द्वार खोलना ही होंगे। इसके बिना उन्नति, प्रगति तथा सम्पन्नता संभव नहीं है। जिन मुसलमानों ने इस सत्य को स्वीकार कर लिया है वह अपने बच्चों को प्रगति के नए-नए क्षितिज में उड़ा भी रहे हैं और अच्छा जीवन स्तर बना रहे हैं। रूढियों की जंजीरों को तोड़कर और सकारात्मक सोच बना कर ही हम अपने दामन पर पिछड़ेपन और आतंकवादी होने का दाग धो सकते हैं और वह आज भी जरुरी आवश्कता है जिसे नए मुस्लिम युवकों को समय रहते समझना होगा।
(हिन्दुस्थान समाचार)

अंटार्कटिक बर्फ के नीचे जीव

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10 साल पहले आम आदमी तो क्या वैज्ञानिकों ने भी कल्पना नहीं की थी कि पृथ्वी पर बर्फ के सबसे बडे भंडार अंटार्कटिक आइस सीट्स के नीचे जीव हो सकते हैं। लेकिन लुसिआना स्टेट यूनिवर्सिटी के बॉयोलॉजिकल साइंसेज के असिस्टेंट प्रोफेसर ब्रेंट क्रिस्नर ने हाल ही में यह खोज की है कि अंटार्कटिक आइस सीट्स के नीचे जीव (माइक्रोब्स) मौजूद हैं। दरअसल, अभी तक अंटार्कटिक आइस सीट्स के नीचे जीव न होने का अनुमान इस आधार पर लगाया जाता रहा है कि दो मील से ज्यादा मोटी बर्फ की चट्टान के नीचे अत्यंत विपरीत परिस्थिति में जीव की मौजूदगी नामुमकिन है। लेकिन प्रॅफेसर क्रिस्नर ने अनुसार लाखों सालों तक अत्यंत ठंडी बर्फ के बीच में माइक्रोब्स की उपस्थिति की दो वजहें हो सकती हैं। पहली, माइक्रोब्स बर्फ में सुप्तावस्था में लंबे समय तक पडे रहे और उनका रिपेयर मैनेजमेंट काफी प्रभावकारी था। यह रिपेयर मैनेजमेंट तभी सक्रिय होता है, जब ग्रोथ का माहौल मिलता है। इस तरह माइक्रोब्स कठोर परिस्थिति में जीवित बने रहते हैं। वहीं, माइक्रोब्स के जीवित रहने की दूसरी वजह यह हो सकती है कि माइक्रोब्स बर्फ की तहों में दबे होने के बावजूद उनका मेटॉबालिज्म सक्रिय था और उनके सेल्स रिपेयर होते रहते थे। लुसिआना स्टेट यूनिवर्सिटी द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार अंटार्कटिका में बर्फ की मोटी सतह के नीचे 150 से ज्यादा झीलों की खोज हो चुकी है और इनका जल कम से कम 1 करोड पचास लाख साल से बर्फ से ढंका है। यहां का वातावरण व अति कोल्ड बॉयोस्फियर पृथ्वी की सतह से काफी भिन्न है और यहां के जीव पृथ्वी के सामान्य जीवों से काफी भिन्न हैं।

रेड टाइड का रहस्य
हाल ही में प्रतिष्ठित अमेरिकी तकनीकी संस्थान एमआईटी के केमिस्टों ने यह खोज की है कि कैसे अति सूक्ष्म समुद्री जीव जहरीले रेड टाइड को उत्पन्न करते हैं। उल्लेखनीय है कि रेड टाइड समय-समय पर डिनोफ्लैग्लैट्स नामक एल्गी से उत्पन्न होता है। यह इतना जहरीला होता है कि इसके प्रभाव से न सिर्फ मछलियां जहरीली हो जाती हैं, बल्कि समुद्री किनारों की गतिविधियां भी ठप्प हो जाती हैं। रेड टाइड की वजह से करोडों डॉलर का नुकसान होता है और समुद्री किनारों पर बसे समुदायों की गतिविधियां बंद हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर 2005 में आए रेड टाइड के कारण न्यूजीलैंड की सेलफिश इंडस्ट्री का करोडों डॉलर नुकसान हुआ और इस साल फ्लोरिडा में 30 दुर्लभ जीवों का खात्मा हो गया। हालांकि, यह अभी तक मालूम नहीं है किन कारणों से डिनोफ्लैग्लैट्स एल्गी, रेड टाइड टॉक्सिन पैदा करता है, लेकिन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ऐसा एल्गी के डिफेंस मेकेनिज्म के कारण होता है, जो समुद्री उफानों, तापमान में परिवर्तन व अन्य वातावरणीय दबावों के कारण प्रेरित होता है। दरअसल, 20 साल पहले कोलंबिया के केमिस्ट कोजी नाकानिसी ने रेड टाइड टॉक्सिन को तमाम प्रयोगों के जरिए सिंथेसाइज करने की कोशिश की थी, लेकिन वे काफी प्रयासों के बाद असफल रहे। हालांकि बाद में यह समझा जाने लगा कि नाकानिसी हाइपोथिसिस को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। लेकिन एमआईटी के केमिस्ट जेमिसन और विलोटिजेविक ने यह पहली बार साबित किया कि नाकानिसी की हाइपोथिसिस को प्रमाणित करना संभव है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस रिसर्च से प्रभावकारी ड्रग की खोज और तेज होगी तथा रेड टाइड के टॉक्सिन प्रभाव को कम करने में मदद मिलेगी।

रामनयन सिंह

दिल के रोगी रखें खानपान पर ध्यान

हृदय के प्रति थोड़ी सी भी लापरवाही काफी नुकसानदेह साबित हो सकती है। आमतौर पर धूम्रपान व शराब के सेवन एवं मोटापे की वजह से दिल की बीमारियां पैदा होती हैं। दिल के रोगों से बचने के लिए खानपान पर भी ध्यान देना जरूरी है।हृदय के रोगी को ऐसा भोजन करना चाहिए जिसमें शुगर कम एवं फाइबर की मात्रा अधिक हो। सब्जियाँ, अनाज, दालें, अण्डे की जर्दी , स्किम्ड मिल्क , खिचड़ी, उबला चावल, फ्रूट कस्टर्ड, पीले फल, कार्नफ्लेक्स, दलिया, हरी पत्तेदार सब्जियां, फलों का रस , अंकुरित दालें, पालक का सूप, उबले आलू, केला, बीन्स, टमाटर, खीरा, मूली, गाजर, लस्सी (नमक वाली), धनिया व पोदीना की चटनी फायदेमंद है। मक्खन, मलाई वाला दूध, मीट, अंडे का पीला हिस्सा, गीम, चीज, खोया, आइसक्रीम, पनीर, मिठाई उपरोक्त सभी चीजें कम या बिल्कुल न खाएं।

इन बातों पर ध्यान दें: * हर रोज निर्धारित समय पर ही भोजन करे। * खाना हल्का और जल्दी पचने वाला होना चाहिए। * भोजन को स्वादिष्ट बनाने के लिए नींबू, सिरका, इमली, हर्ब्स (जडी बूटियों), हल्के मसाले प्याज, लहसुन का इस्तेमाल कर सकते है। * भोजन धीरे-धीरे एवं चबाकर खायें। * अपने वजन पर नियंत्रण रखें। * अगर भूख नहीं है तो खाना न खाएं। * आपके दोपहर व रात के खाने का तीन चौथाई हिस्सा सब्जियाँ, फल व अनाज का होना चाहिए। * हर रोज 30 मिनट हृदय संबंधी कसरत करें। चाहें, तो यह कसरत एक साथ कर लें या फिर थोड़े-थोड़े अंतराल में करें। * शारीरिक गतिविधियां बढायें जैसे ऑफिस या स्टोर तक पैदल जायें, सीढियों का इस्तेमाल करें, सैर या जॉगिंग करें।
(हिस/ॠचा/राजीव /31 अक्टूबर 2008)

भारत विजयी होगा लेकिन इस्लामी आतंकवाद की शिनाख्त जरुरी है

लेखक- डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्रीआतंकवादियों ने मुंबई पर पूरी योजना से आक्रमण कर दिया और देखते ही देखते उन्होंने मानो पूरी मुंबई को बंधक बना लिया हो। विश्वविख्यात ताज होटल, ओबराय होटल के अतिरिक्त उन्होंने अस्पतालों में जा कर भी गोलियां बरसाईं। छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन पर उन्होंने अंधाधुध गोलियां बरसाईं। सारी मुंबई को दहला देने के बाद उन्होंने ताज होटल और ओबराय होटल में मोर्चा संभाल लिया। उसके बाद एनएसजी और सेना के लडाकुओं के साथ उनकी लगभग 40 घंटे भिडंत होती रही। ये आतंकवादी समुद्र के रास्ते कराची से आये थे और अपनी योजना को अंजाम देने के लिए लगभग एक साल से मोर्चाबंदी कर रहे थे। कुछ सूत्रों का यह भी कहना है कि एक अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसी ने भारत सरकार को अरसा पहले यह बता दिया था कि इस्लामी आतंकवादी भारत पर समुद्र के रास्ते से आक्रमण कर सकते हैं। अंततः सशस्त्र बलों ने स्थिति पर काबू पा लिया। इस आक्रमण में डेढ सौ से भी ज्यादा लोग मारे गये और चार सौ से भी ज्यादा गंभीर रुप से घायल हुए। हालात पर काबू पाने के लिए नौ सेना और वायु सेना की भी सहायता लेनी पडी। सशस्त्र बलों के अनेक जांबाज इस आक्रमण में शहीद भी हुए।
देश को इस बात का फख्र है कि सशस्त्रबल के सपूतों ने अपनी जान पर खेल कर भारत पर हुए इस आक्रमण को विफल कर दिया है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे भारत पर आक्रमण बताते हुए देश के खिलाफ छेडा गया युध्द कहा है। भारत सरकार ने भी इस युध्द से लडने का संकल्प दोहराया है। लेकिन यह सब कुछ तथ्यों का विवरण मात्र है। यह महज समाचार हैं। मीडिया ने यह समाचार अपने अपने ढंग से देश की जनता तक भी पहुंचा दिये। इस दृष्टि से उसने भी अपने कर्तव्य की पूर्ति कर ली है। यह अलग बात है कि जब मुठभेड चल रहे थी तो किसी चैनल की किसी नगमा ने इस आक्रमण के पीछे अंडरवर्ल्ड का हाथ होने का शगूफा भी छोडना शुरु कर दिया था। यह आक्रमणकारियों और इस पूरे आक्रमण में पाकिस्तान की भूमिका को हल्का करने का एक बढिया तरीका था। एक अंग्रेजी अखबार के बहुत ही बडे स्वनामधन्य संपादक जिनका नाम गुप्त रखना ही श्रेयस्कर होगा क्योंकि वह अपने आप को पत्रकारिता के शिखर पर मानते हैं अपने संपादकीय में सारा जोर यह बताने में लगा दिया कि यह आक्रमण कुछ व्यक्तिवादी गुंडों या ठगों द्वारा किया गया आक्रमण था। यह अलग बात है कि संपादक महोदय ने उसके बाद यह संकल्प भी दोहराया कि सारा राष्ट्र मिल कर साहस से इसका मुकाबला करेगा।
कांग्रेस के प्रवक्ता और सांसद राजीव शुक्ला का इस आक्रमण को लेकर एक महत्वपूर्ण बयान पाकिस्तान के अखबार डेली टाइम्स में छपा है। राजीव शुक्ला का कहना है कि भारतीय मीडिया को रिपोर्टिंग करते हुए संयम का परिचय देना चाहिए और इस आक्रमण में पाकिस्तान का नाम घसीटने की जरुरत नहीं है क्योंकि इससे पाकिस्तान और भारत दोनों के संबंध खराब होने का खतरा पैदा हो जाता है। भारत सरकार की सबसे बडी दिक्कत यह है कि वह आतंकवाद व आतंकवादियों से लडना तो चाहती है लेकिन आतंकवाद के इस आंदोलन और इसके उद्देश्य और इसमें संलग्न व्यक्तियों व ताकतों की शिनाख्त करने से बचना चाहती है। हो सकता है कि भारत सरकार ने शिनाख्त कर भी ली हो, लेकिन राजनीतिक कारणों से वह उनका नाम भी नहीं चाहती और वह उनसे प्रत्यक्ष रुप से लडना भी नहीं चाहती। आखिर बिना ऐसे किये इस आतंकवाद से कैसे लडा जाएगा?
आतंकवाद का यह इस्लामी जेहादी आंदोलन है। भारत इसका शिकार आठवीं शताब्दी से ही हो रहा है। जब इस्लाम की अरबी सेनाओं ने भारत पर आक्रमण किया था। यह आक्रमण उस समय और उसके बाद के वर्षों में सैनिक दृष्टि से सफल रहा और भारत पर इस्लामी ताकतों का कब्जा हो गया। सात-आठ सौ सालों में उसने भारत के जितने हिस्से का इस्लामीकरण कर दिया 1947 में उतने हिस्से को भारत से अलग करवा दिया। लेकिन यह आक्रमण रुका नहीं। इसका स्वरुप बदलता गया। 20वीं शताब्दी उत्तरार्ध में जब इस्लाम का यह आंदोलन पूरी दुनिया में पुनः जागृत हो गया तो भारत पर उसने अपना आक्रमण पुनः प्रारंभ कर दिया। यह आक्रमण भारत को इस्लामी देश बनाने के लिए किया गया आक्रमण है और जिहादी इसके लिए अपने प्राण तक न्योछाबर करने के लिए तैयार हैं। यह कुछ सिरफिरे भटके हुए दुःसाहसी मुसलमान युवकों का आतंक मचाने के लिए किया गया कारनामा मात्र नहीं है जैसा की भारत सरकार और अंग्रेजी पत्रकारिता के संपादक विश्वास करने के लिए कहते हैं। इस आंदोलन के पीछे एक पूरा वैचारिक दर्शन है, यह इस्लाम का दर्शन है। इस दर्शन के पीछे उसे क्रियान्वित करने के लिए मुसलमान युवकों की सेना है जो अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्राण देने तक के लिए नहीं हिचकती। यह उद्देश्य भारत को दारुल हरब की श्रेणी से निकाल कर दारुल इस्लाम की श्रेणी में लाना है। जब तक ऐसा हो नहीं जाता तब तक 8वीं शताब्दी से चला हुआ इस्लामी आक्रमण का यह आंदोलन सफल नहीं कहला सकता। इसे इस्लाम का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इस्लामी आक्रामक सेना दुनिया के जिस देश में भी गई, उसे कुछ ही वर्षों में इस्लामी देश में परिवर्तित कर दिया। परंतु भारत में उसे आंशिक सफलता ही मिली। भारत के कुछ हिस्से तो इस्लामी हो गये, लेकिन भारत का बडा हिस्सा इस्लामीकरण से बचा रहा और अपने मूल भारतीय स्वरुप में ही बना रहा। इस्लामी आतंकवाद का यही दर्द है। पुराने युग में बाकायदा इस्लाम की सेनाएं इस काम को पूरा करने के लिए भारत में आती थीं, लेकिन आधुनिक युग में आक्रमण का स्वरुप व स्वभाव दोनों ही बदल गये हैं।
अब इस्लाम की शक्तियां आतंकवाद के माध्यम से भारत पर परोक्ष आक्रमण कर रही है। क्या भारत सरकार की इच्छा आक्रमणकारियों को पहचानने और उनके वैचारिक आधार पर आक्रमण करने की है। इन आतंकवादी हमलों के कारण और उद्देश्य इस्लामिक इतिहास में ही देखने होंगे क्या भारत सरकार की संकल्प शक्ति है? शायद ऐसा नहीं है। अभी भी भारत सरकार इस्लाम के मूल स्वरुप को पहचान नहीं सकी है। सरकार की और कांग्रेस की अपनी राजनीतिक विवशता हो सकती शायद इसी विवशता के चलते भारत सरकार असली आतंकवादियों को छोड कर साधुसंतों में और भारतीय सेना में आतंकवादियों की तलाश कर रहीं है। यह कांग्रेस की राजनीतिक विवशता हो सकती है कि उसे वोटों की खातिर येन-तेन प्रकारेण कुछ हिन्दू आतंकवादी चाहिए। इतना ही नहीं वह कुछ व्यक्तियों की सत्य असत्य गतिविधयों को प्रचारित करके यथार्थ इस्लामी आतंक के मुकाबले काल्पनिक हिन्दू आतंकवाद का हौआ खड़ा कर रही है हो। हो सकता है कांग्रेस को कुछ वोटें मिल जाए लेकिन देश मुंबई बनने की ओर अग्रसर हो जाएगा भारत सरकार मुंबई को तो बचाना चाहती है लेकिन इस्लामी आतंकवाद के राक्षस से लड़ने से कतरा रही है इतना ही नहीं वह उसे आतंकवादी मानने से ही कुछ सीमा तक इंकार कर रही है। शायद यही कारण था जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अफगानिस्तान गए तो वहां बाबर की कब्र पर भी वह श्रध्दा सुमन अर्पित कर आए। भारत तो बच ही जाएगा। उसने 800 सालों तक इस्लामी आतंकवाद को झेलते हुए अपनी अस्मिता को बचाए रखा और अपनी निरंतरता में विद्यमान है।
भारत अपनी भीतरी उर्जा से बचेगा लेकिन भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी की कलंक गाथा इतिहास में उसी तरह अमर हो जाएगी जिस तरह जयचंद और मीरजाफर की कलंक गाथा अमर हो गई है। एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिए कि यदि कल इस्लामी आतंकवाद के कारण भारत की भीतरी स्थिति में कुछ परिवर्तन होता है तो वे लोग जो इस्लामी आतंकवाद को कुछ सिरफिरे व्यक्तिवादी युवकों का दुसाहस बता रहे हैं, उनको नये शासकों के दरबारी बनने में पल भर का समय भी नहीं लगेगा। भारत माता ने मुगलकाल और ब्रिटिशकाल में ऐसे ही नवरत्नों को उस समय के विदेशी राजाओं के दरबारों में शोभित होते हुए देखा है। लडाई अंततः भारत के लोगों को ही लडनी है और मुंबई के आक्रमण के समय भारतीयों ने उसी संकल्प शक्ति का परिचय दिया है। यकीनन भारत विजयी होगा और इस्लामी आतंकवाद पराजित होगा। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

भारतीय संविधान और राष्ट्रीय एकता

लेखक- लालकृष्ण आडवाणी

 भारत अगस्त 1947 में स्वतंत्र हुआ था। यह देश के इतिहास का महान क्षण था। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के साथ ही देश का विभाजन भी हुआ। इससे भी अधिक दुख की बात यह थी कि द्वि-राष्ट्र सिध्दांत के समर्थकों के कारण देश को विभाजन का मुंह देखना पड़ा।

भारत के नेतागण पाकिस्तान निर्माण के लिए सहमत हुए, परंतु भारत ने द्वि-राष्ट्र सिध्दांत को स्वीकार नहीं किया। स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण करते समय संविधान सभा दृढ़ता से उसी सिध्दांत पर अटल रही, जिस पर संपूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन चलता रहा था, अर्थात् अनन्त काल से भारत एक देश रहा है, और सभी भारतीय, चाहे वह किसी धर्म, जाति या भाषा के हों, एक जन हैं। हम मानते हैं कि हमारी एकता का आधार हमारी संस्कृति है।

लोकमान्य बाल गंगाधार तिलक का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था; महर्षि अरविन्द घोष बंगाल से थे; महात्मा गांधी गुजरात के थे। परंतु स्वतंत्रता आंदोलन के इन महान नेताओं का संपूर्ण उद्यम, संपूर्ण तपस्या, भारत माता के लिए थी।

संघ ही क्यों-परिसंघ क्यों नहीं

इस प्रसंग में जब संविधान सभा में देश के नाम पर विचार किया जा रहा था तो वहां एक महत्वपूर्ण चर्चा हुई। क्या भारत को राज्यों का संघ कहा जाए या इसे राज्यों का परिसंघ कहें? संविधान के मूल प्रारूप में इसे राज्यों का परिसंघ कहा गया था। बाद में प्रारूप में इस शब्द को बदल कर ‘संघ’ शब्द का प्रयोग किया गया।

संविधान के प्रमुख निर्माता डा. अम्बेडकर ने प्रारूप में इस परिवर्तन के लिए मूलाधार प्रस्तुत करते हुए कहा था:
”कुछ आलोचकों ने संविधान के प्रारूप के अनुच्छेद 1 में भारत को राज्यों का संघ कहने पर आपत्ति की है। कहा गया है कि सही शब्दावली ‘राज्यों का परिसंघ’ होनी चाहिए। यह ठीक है कि दक्षिण अफ्रीका, जो एकात्मक राज्य है, को संघ कहा जाता है, परंतु कनाडा जो परिसंघ है, उसे भी एक ‘संघ’ कहा जाता है।

इस प्रकार भारत को एक ‘संघ’ कहने से इसके संविधान के परिसंघीय स्वरूप के बावजूद ‘संघ’ शब्द के प्रयोग से कोई उल्लंघन नहीं होता है। परंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि संघ शब्द का प्रयोग जानबूझकर किया है। मैं नहीं जानता कि कनाडा के संविधान में ‘संघ’ शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है, परंतु मैं आपको बता सकता हूं कि प्रारूप में इसका प्रयोग क्यों किया।

प्रारूप समिति यह स्पष्ट कर देना चाहती थी कि यद्यपि भारत परिसंघ होगा, परंतु परिसंघ राज्यों द्वारा परिसंघ में शामिल होने के किसी अनुबंधा का परिणाम नहीं है और क्योंकि परिसंघ किसी अनुबंधा का परिणाम नहीं है, इसलिए किसी राज्य को उससे अलग होने का अधिकार नहीं है। परिसंघ एक संघ है क्योंकि इसे समाप्त नहीं किया जा सकता। यद्यपि देश और लोगों को प्रशासन की सुविधा के लिए राज्यों में बांटा जा सकता है, परंतु देश संपूर्ण एक भाग होता है, इसके लोग एक जन होते हैं जो एक ही स्रोत से प्राप्त एक सत्ता के अधीन रहते हैं।

अमरीकियों को यह स्थापित करने के लिए सिविल युध्द छेड़ना पड़ा था कि राज्यों को अलग होने का अधिकार नहीं है और उनका परिसंघ अमिट है। प्रारूप समिति ने सोचा कि बेहतर यही है कि आरंभ से ही इसे स्पष्ट कर दिया जाये, इसकी बजाय कि बाद में किसी तरह के अनुमान या विवाद का स्थान बना रहे।’

अनेक परिसंघीय संविधानों में, उदाहरण के लिए अमरीका के संविधान में, दोहरी नागरिकता को स्वीकार किया गया है-एक परिसंघीय और दूसरी राज्यों की नागरिकता। अत: इस प्रकार की भिन्नता ऐसी स्थितियों में अस्वाभाविक नहीं है, जहां कोई परिसंघ उसमें शामिल होने वाले राज्यों के बीच एक अनुबंधा के आधार पर बना हो। भारत में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एकदम अलग है। प्राचीन काल में उस समय भी जब देश विभिन्न साम्राज्यों में विभाजित था, तब भी देश की समान संस्कृति ने एकता और एकत्व के भाव को बनाए रखा था।

विविधता पर बल देने के खिलाफ अम्बेडकर की चेतावनी

‘विविधाता में एकता’ को भारतीय राष्ट्रवाद का प्रमाण-चिन्ह माना गया है। मेरे विचार में यह उक्ति हमारे जैसे किसी भी विशाल देश पर लागू हो सकती है।

संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए डा. अम्बेडकर ने सावधान किया था कि यदि दोहरी राज्यव्यवस्था में सत्ता के विभाजन से उदभूत विविधाता एक निश्चित सीमा को पार कर जाती है तो उससे अव्यवस्था फैल सकती है। उन्होंने आगे कहा था:
‘संविधान के प्रारूप में ऐसे उपाय और प्रणाली रखने का प्रयास किया है जिससे भारत एक परिसंघ होगा और साथ ही देश की एकता को बनाए रखने के लिए अनिवार्य सभी बुनियादी मामलों में एकरूपता रहेगी। संविधान के प्रारूप में इसके लिए तीन उपाय किए हैं:
1. एक ही न्यायपालिका;
2. नागरिक तथा दाण्डिक – सभी मूल विधियों में एकरूपता; और
3. महत्वपूर्ण पदों पर एक समान अखिल भारतीय सिविल सेवा की व्यवस्था।’

स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व हम सभी ने एकता पर जोर देने का सजग प्रयास किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विविधाता पर बल दिया जा रहा हैं। कभी-कभी यह बल खतरनाक स्थिति तक पहुंच जाता है।

‘पृथक स्व-राज्य’ सिध्दांत खतरनाक

कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने केंद्र राज्यों के संबंधों पर रिपोर्ट देने तथा इन पर सिफारिश देने के लिए सरकारिया आयोग को एक ज्ञापन प्रस्तुत कर कहा था:
”……भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के बाद ऐतिहासिक रूप से अधिकांश समय से चली आ रही देश की सीमाओं के विभाजन का आधार मात्र प्रशासनिक नहीं रह गया है। अब ये विभिन्न भाषायी सांस्कृतिक समूहों के समझ-बूझ कर बनाए गए ‘स्व-राज्य’ हैं। वस्तुत: इन समूहों की अलग राष्ट्रीयताएं बनती जा रही हैं।”

मैं इस पृथक ‘स्व-राज्य’ के सिध्दांत को बहुत खतरनाक सिध्दांत मानता हूं। इस ‘द्वि-राष्ट्र सिध्दांत’ के कारण भारत का विभाजन हुआ, इस बहुराष्ट्रीय सिध्दांत के कारण देश छोटे छोटे टुकड़ों में बंट सकता है।

यह प्रशंसनीय है कि सरकारिया आयोग ने इस सिध्दांत को साफ-साफ अस्वीकार कर दिया है और पुष्टि की है कि ‘संपूर्ण भारत देश के प्रत्येक नागरिक का ‘स्व-राज्य’ है; किंतु यह उक्ति जम्मू कश्मीर प्रदेश के मामले में दुखद रूप से अपवाद प्रतीत होती है।

अस्थायी अनुच्छेद 370 को स्थायी बनाने का प्रयास

संविधान सभा में सरकार की ओर से बोलते हुए, स्वयं श्री गोपालस्वामी आयंगर ने खेद प्रगट किया था कि जब सभी राजा-महाराजाओं की रियासतों का देश के साथ पूरी तरह विलय हो गया है, जम्मू और कश्मीर को एक अपवाद बनाया जा रहा है। परंतु उन्होंने आगे इस बात पर बल दिया कि यह व्यवस्था अस्थायी है तथा जल्दी ही जम्मू और कश्मीर का भी अन्य प्रदेशों की तरह संघ के साथ पूरी तरह से विलय हो जाएगा। त्रासदी यह है कि संविधान सभा में जो विधिवत् आश्वासन दिया गया था उसे राजनीतिक इष्टसिध्दि के कारणों से आज तोड़ा जा रहा है तथा अस्थायी प्रावधान को स्थायी बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

इस प्रसंग में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) द्वारा सरकारिया आयोग को दिये ज्ञापन का संदर्भ देना चाहूंगा, जिसका चिंतन भारतीय राष्ट्रवाद के मुकाबले द्वि-राष्ट्र सिध्दांत या शेख अब्दुल्ला के त्रि-राष्ट्र सिध्दांत की सीमा भी पार कर जाता है। वादियों का सदैव यह दृष्टिकोण रहा है कि भारत एक बहुराष्ट्रीय राज्य है।

संविधान निर्माताओं की नेकनीयती पर संदेह

संविधान में जो ‘एकात्मवादी प्रवृत्ति’ दिखाई पड़ती है, उसकी आलोचना करते हुए मार्क्‍सवादियों के ज्ञापन में भारत के संविधान निर्माताओं की नेकनीयती पर ही संदेह किया है। वे लिखते हैं:
”स्वतंत्रता के बाद जो संविधान बनाया गया उसमें विकास के लिए पूंजीवादी मार्ग की आवश्यकताओं को ध्‍यान में रखा गया, जिसके लिए एकीकृत एकल, सजातीय बाजार की आवश्यकता होती है। इसमें जमींदारों के साथ सम्बध्द बड़े-बड़े पूंजीपतियों की आवश्यकताओं की झलक मिलती है…”

उपर्युक्त विश्लेषण में यह कथन कि संविधान की एकात्मवादी प्रवृत्ति का दरअसल कारण यह है कि इसके निर्माताओं ने बड़े जमींदारों और पूंजीपतियों के हितों को धयान में रखा, अनर्गल और दुराग्रहपूर्ण है। यह विकृत दृष्टिकोण का एक विशिष्ट उदाहरण है जिससे पता चलता है कि यदि वैचारिक मताग्रह के काले चश्मे से देखने का हठ रखा जाए तो निश्चय ही इतिहास की प्रमुख घटनाएं भी विकृत रूप में सामने आएंगी।

संविधान सभा में हुई चर्चा को देखने से सहज ही पता चलता है कि इस प्रतिष्ठित निकाय ने पूरी तरह माना है कि भारतीय समाज बहु-वर्णी है और इसका एक रंग नहीं है, परंतु साथ ही वह इस विविधता में निहित सांस्कृतिक एकता के प्रति सक्रिय रूप से सजग थी। उसने देश के लिए जो राजनीतिक दस्तावेज बनाया उसमें इस एकता को रेखांकित किया है तथा एक राष्ट्र पर बल दिया है।

विकेंद्रीकरण के लिए सुदृढ़ आधार

मुझे यह महसूस होता है कि संविधान बनाते समय संविधान निर्माताओं को स्पष्ट रूप से परिकल्पना नहीं थी कि आगे आने वाले समय में राज्यों को अपने विकास संबंधी दायित्वों का निर्वाह करने के लिए कितना बोझ सहना पड़ेगा।

अब राज्यों को दिए गए संसाधन अत्यंत कम हैं और उनमें लचीलापन भी नहीं है। केंद्र को आवंटित संसाधन अपार हैं। इसका परिणाम यह है कि राज्यों को अपनी सामाजिक तथा औद्योगिक आधारभूत संरचना जो कि तेजी से सामाजिक आर्थिक विकास के लिए पूर्वपेक्षित है, तैयार करने की प्रारंभिक जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए केंद्र की आर्थिक सहायता पर लगातार निर्भर करना पड़ता है। मेरा विचार है कि यह मामला स्पष्ट है कि राज्यों को और अधिक वित्तीय सहायता दी जानी चाहिए।

प्रशासनिक तथा विधायी मामलों के बारे में भी सरकारिया आयोग ने ठीक ही कहा है कि बहुत समय से शक्तियों के केंद्रीयकरण की सामान्य प्रवृत्ति अधिकाधिक बढ़ती गई है।’ उसने आगे लिखा है: ‘इस बात में पर्याप्त सच्चाई है कि अनावश्यक केंद्रीयकरण से केंद्र का रक्तचाप बढ़ता है और उसकी परिधि में रक्त की कमी रहती है।’ इसका अनिवार्यत: परिणाम रूग्णता और अकुशलता में परिणत होता है।’ इससे भी खराब बात यह है कि हम महसूस करते हैं कि इस अतिकेंद्रीकरण ने राष्ट्रीय एकता को कमजोर बनाने में योगदान किया है। अत: राष्ट्रीय एकता के हित में हमारे लिए आवश्यक है कि राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों शक्तियों का और अधिक विकेंद्रीकरण किया जाये।

कश्मीर मामले में समझौतावादी प्रवृत्ति से राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ेगी।

पश्चिमी पर्यवेक्षक हमें बिना बात कश्मीर के बारे में परामर्श देते रहते हैं और स्वायत्ताता देने की समस्या से निपटने से लेकर यह राज्य पाकिस्तान अथवा भारत के साथ मिले या स्वतंत्र बना रहे, इस बारे में मतसंग्रह कराने के सुझाव देते रहते हैं। वे सामान्य रूप से इसे केवल भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद की समस्या समझते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार उनके पहले प्रस्ताव को स्वीकार करने की इच्छुक है और वह ‘आजादी से कम’ कुछ भी रियायत देने की बात कर रही है।

किंतु हमें समझ लेना चाहिए कि हम इस समस्या का समाधान किस ढंग से करते हैं, इसका प्रभाव देश की एकता पर पड़ेगा। जैसा मैंने पहले कहा है कि राज्यों को और अधिक शक्तियां देने के औचित्य का आधार सुदृढ़ है। परंतु इसे केवल जम्मू और कश्मीर के मामले में ही लागू करना और वह भी इन यंत्रणापूर्ण पांच वर्षों में वहां फैली हिंसा तथा तोड़-फोड़ की गतिविधियों के आगे झुक कर, इसका अर्थ यह होगा कि हम विद्रोही गतिविधियों को शह दे रहे हैं। कश्मीर में समझौतावादी प्रवृत्ति अपनाने से पूरे देश पर अप्रत्यक्ष रूप से बुरा प्रभाव पड़ेगा और विधवंसकारी ताकतों को हर तरह से बढ़ावा मिलेगा।

डा. राजेन्द्र प्रसाद का विवेकपूर्ण परामर्श

मैं मानता हूं कि एकता के परिप्रेक्ष्य में भारत के संविधान की पर्याप्त अच्छे ढंग से रचना हुई है। फिर भी यदि स्वतंत्रता के लगभग छह दशकों के बाद आज देश में पृथकतावाद और विद्रोही गतिविधियों, आतंकवाद और हिंसा से एकता को गंभीर खतरा है तो इसमें दोष संविधान का नहीं, अपितु प्रमुख रूप से दोष इस बात में है कि जो संविधान को कार्यान्वित करने के लिए जिम्मेदार हैं वे गलत ढंग से इसे अमल में ला रहे हैं।

जब 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा में औपचारिक रूप से संविधान स्वीकार किया गया था तो संविधान सभा के अधयक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने समापन भाषण में कहा था:
”यदि निर्वाचित प्रतिनिधि योग्य होंगे तथा चरित्रवान और निष्ठावान होंगे तो वे दोषपूर्ण संविधान का भी सर्वश्रेष्ठ उपयोग कर सकेंगे। यदि उनमें अपनी ही कमी हुई तो संविधान किसी भी देश के लिए मददगार नहीं बन सकता। आखिरकार संविधान तो मशीन की तरह निर्जीव है, इसमें प्राण तो वह व्यक्ति डालता है जो यंत्र को नियंत्रित करता और चलाता है तथा आज भारत की सर्वाधिक आवश्यकता ईमानदार व्यक्तियों की है, जिनके सामने देश का हित सर्वोपरि हो।’

हम संविधान में ऐसे परिवर्तन और संशोधन करने के बार में सोच सकते हैं, जिनसे संविधान राष्ट्रीय एकता को और अधिक प्रभावकारी ढंग से कारगार बना सके, परंतु हमें सदैव डा. राजेन्द्र बाबू के अत्यंत बुध्दिमत्तापूर्ण परामर्श को धयान में रखना होगा।

(लेखक लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं)

(यह लेख डॉ. मुकर्जी स्मृति न्यास द्वारा प्रकाशित संकल्प विशेषांक से साभार यहां प्रस्तुत है)

सरस्वती से लेकर रामसेतु तक टूटता पश्चिम का इतिहास तिलिस्म

लेखक: जयप्रकाश सिंह

 भारतीय गुलामी के हजार साल के कालखण्ड को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम कालखण्ड का सम्बंध इस्लाम से है जबकि द्वितीय कालखण्ड का सम्बंध इसाईयत से है। इस्लामिक गुलामी मूल रुप से राजनीतिक गुलामी थी। इस गुलामी का सामाजिक सांस्कृतिक स्तर पर रिसाव नहीं हुआ था। कुछ इतिहासकार हिंदुओं को जबरन इस्लाम में मतांतरित करने और सूफीवाद के उदय को सामाजिक सास्कृतिक परिदृश्य से जोड़कर देखते है। लेकिन मतांतरण के पीछे भी काम करने वाली शक्ति मूलरुप से राजनीतिक थी। इसके पीछे कोई वैचारिक आंदोलन काम नहीं कर रहा था।

सूफीवाद के उभार का राजनीतिक शक्ति से कुछ लेनादेना नहीं था। यह हिंदुत्व की सांस्कृतिक सबलता के कारण अस्तित्व में आया। सूफीवाद भारत की प्रबल सांस्कृतिक जठराग्नि की देन है। असीम बौद्विक और सांस्कृतिक पाचन क्षमता के कारण भारत सभी वाह्य प्रवृत्तियों को आत्मसात कर लेता है, और अपने पकृति के अनुरुप नई प्रवृत्तियां को जन्म देता है। यही सनातन भारत की महान आंतरिक और अमिट ताकत है।

इस बिंदु पर यह भी स्मरणीय है कि इस कालखण्ड में समाज की धारा ही मूल धारा थी। राजनीति की भूमिका एक सहायक की भूमिका तक सीमित थी। इसी कारण तत्कालीन राजनीतिक प्रक्रिया में बहुत कम लोगों की सहभागिता होती थी और बहुत कम ही लोग उससे प्रभावित भी होते थे।

अंग्रेजों के समय की गुलामी राजनीतिक के साथ-साथ सांस्कृतिक और सामाजिक भी थी। अंग्रेजों ने भारत की राजनीतिक संरचना और संस्थानों के साथ ही समाज और संस्कृति की बनावट तथा बुनावट को भी प्रभावित किया। उन्होंने भारतीय जनमानस और उसके शक्तिकेंन्द्रों का बहुत बारीकी से अध्ययन किया। सामाजिक सांस्कृतिक समझ की इस कवायद से अग्रेंजों को भारत की नब्ज और तासीर को समझने में मदद मिली। उनके ध्यान में आया कि भारतीय जनमानस राज से नहीं बल्कि समाज से चलता है और भारतीय अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। भारतीयों में इस विरासत को लेकर एक गौरव भाव भी है। अंग्रेजों को यह बात भी समझ में आयी कि आत्मगौरव की भावना राजनीतिक गुलामी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। और इस भाव के बने रहने पर भारतीयों पर अधिक समय तक शासन नहीं किया जा सकता।

भारत की नब्ज और तासीर को समझने के बाद अंग्रेजों ने भारतीयों में आत्महीनता भरने के प्रयास शुरु किए। उन्होंने कुछ ऐसी मान्यताएं और अवधारणाएं गढ़ी जो नितांत भ्रामक थीं। और जिसका उद्देश्य केवल और केवल भारतीयों के बीच आत्महीनता और आत्म दैन्यता का भाव भरना था। इन प्रवृत्तियों को पैदा करने का साधन इतिहास को बनाया गया। भारत का इतिहास अंगेजों द्वारा लिखा गया और यह शायद अब तक पूरी दुनिया में लिखा गया सबसे विकृत इतिहास है। भारत पर आर्यो का आक्रमण एक ऐसी ही झूठी कहानी है। जिसका आज तक भारतीय इतिहासकार रट्टा मारते आ रहे हैं।

सरस्वती नदी को कपोलकल्पना बताने को भी को भी इतिहास के रचा गया एक सामाजिक सांस्कृतिक षडयंत्र कहा जा सकता है। जिसका कभी अस्तित्व ही नहीं रहा है। लेकिन हाल में किए उत्खनन और उपग्रहों के जरिए लिए गए चित्रों ने यह बात साबित कर दी है कि सरस्वती नदी एक सच्चाई थी। इस नदी को फिर से एक सच्चाई बनाने का प्रयास भी शुरु कर दिए गए हैं।

सरस्वती नदी शोधयात्रा की एक लम्बी कहानी है। इस नदी के शोध में पहला कदम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक मारोपंत पिंगले और विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैनी के पुरातत्वविद् स्व. डा.विष्णु श्रीधर वाकणकर ने उठाया। इन दोनों महानुभावों ने अन्त:सलिला सरस्वती नदी के सम्भावित मार्ग का खाका तैयार किया और प्रवाह के मार्ग को खोजने के लिए लगभग तीन हजार किलोमीटर का प्रवास किया।

इन दोनों महानुभावों ने 1985 में सरस्वती नदी के मार्ग के सटीक निर्धारण के लिए सरस्वती शोधसंस्थान, जोधपुर की स्थापना की। उन्होंने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन से भी इस कार्य में सहयोग देने की अपील की और इसरो ने इस नदी के पुनर्खोज में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस नदी के मार्ग के शोध में महाभारत के शल्य पर्व से भी सहायता मिली। महाभारत के इस खण्ड में भगवान बलराम के यात्रा विवरण का प्रयोग सरस्वती के मार्ग की खोज में किया गया।

आज भी प्रयाग में गंगा और यमुना दो नदियों का संगम को त्रिवेणी कहा जाता है। भारतीय जनमानस में सरस्वती नदी से जुड़ी स्मृतियों के कारण ही प्रयाग को त्रिवेणी कहा जाता है। वैज्ञानिक अध्ययनों से साबित हो चुका है कि पोंटा साहब के समीप करीबन तीन हजार पांच सौ साल पूर्व हुए भूचाल के कारण शिवालिक पर्वत में खिसकाव आ गया और यहां यमुना नदी का प्रवाह पश्चिम दिशा के स्थान पर दक्षिण हो गया। प्रवाह में हुए इस परिवर्तन से यमुना नदी ने सरस्वती के पानी को भी अपने में समाहित कर लिया। प्रयाग में यमुना गंगा में समाहित हो जाती है। प्रयाग को इसी कारण त्रिवेणी भी कहा जाता है।

सरस्वती की पुनर्खोज का महत्व केवल आस्था और विश्वास के स्तर तक नहीं है। इसके ऐतिहासिक आयाम भी हैं। यह आयाम अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के उपर थोपी गई सांस्कृतिक गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम में हमारी मदद दे सकते है। यह लड़ाई अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण और अधिक जरुरी है।

अंग्रेजो ने अपने द्वारा गढ़ी गई मान्यताओं से यह स्थापित करने का बलपूर्वक प्रयास किया कि राम और कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नही है। रामायण और महाभारत कपोल कल्पनाएं हैं, ऐसी कहानियां है जो कभी भी इस धरती पर घटी नहीं। भारत के सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्शों का निर्माण भगवान राम और भगवान कृष्ण के चरित्रों से पैदा होता है। और उन मूल्यों और आदर्शो का संचरण रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों के जरिए आज तक समाज में होता रहा है। अंग्रेजों ने इसको कपोल कल्पना बताकर भारतीयों को अपनी जड़ों से काटने का प्रयास किया। वेदों को गड़रियों का गीत बताए जाने को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

सरस्वती नदी की खोज ने अंग्रेजों द्वारा गढ़ी गयी अनेक विकृति और कुत्सित अवधारणाओं को एक ही झटके में खत्म कर दिया है। सरस्वती नदी शोध तथा द्वारिका, लोथल, धौलवीरा, कालीबंगा आदि स्थलों पर हुए उत्खनन से महाभारत की ऐतिहासिकता सिद्व हो गई है। साथ ही खम्बात की खाड़ी के उत्खनन से तो भारतीय इतिहास दस हजार वर्षो से भी अधिक पुराना होने के प्रमाण मिले हैं। प्रवासी भारतीय अमेरिका विद्वान डा. नरहर आचार्य ने तारामंडल साफ्टवेयर के आधार पर महाभारत युध्द की तिथि का अकाटय प्रमाण प्रस्तुत किया है।

सरस्वती नदी शोध के परिणामस्वरुप भारतीय इतिहास की अत्यंत प्राचीनता सिध्द होने से अंग्रेजो द्वारा गढ़ा गया ‘आर्य आक्रमण का सिध्दांत’ भी ध्वस्त हो चुका है। अंग्रेजों की मान्यता है कि आर्यो ने लगभग 1500 ईसापूर्व भारत पर आक्रमण किया। यदि ऐसा है तो महाभारत में सरस्वती नदी का उल्लेख कैसे सम्भव है और मंत्रद्रष्टा ऋषियों द्वारा वेदों की रचना की सरस्वती के तट पर कैसे सम्भव हुई।

आज जरुरत इस बात की है हम सरस्वती नदी शोधयात्रा के निष्कर्षों को लेकर समाज में जाएं। भारत में पढ़ाए जाए रहे विकृत इतिहास के तथ्यों को सरस्वती नदी के खोज के आलोक में फिर से कसने की जरुरत है। समाज को बताने की जरुरत है कि अग्रेजों द्वारा इतिहास से जरिए भारत का जो चित्र खींचा है, वह विकृत है। भारत दीन -हीन कभी नहीं रहा। भारत का अपना एक गौरवपूर्ण इतिहास और उज्जवल सांस्कृतिक परम्परा है।

सरस्वती नदी शोधयात्रा आस्था को ऐतिहासिक मान्यता प्रदान करने की एक आधारभूत कड़ी का काम किया है। इसलिए सरस्वती का खोज को भारतीय आस्था और इतिहास का संगम कहा जा सकता है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए की यह एक शुरुआत मात्र है।

इसी संदर्भ में सेतुसमुद्रम परियोजना से उपजे विवाद पर नजर डालने से यह सिध्द होता है कि रामसेतु से भी आस्था और इतिहास के मिलन की व्यापक संभावनाएं खुलती हैं। रामसेतु भगवान राम के काल की अभियांत्रिकी का अद्भुत उदाहरण है। सरस्वती नदी शोध की तरह यदि भारतीयता को समर्पित लोगों ने रामसेतु को लेकर भी काम शुरु किया तो पश्चिम के विज्ञान और इतिहास की सीमाएं अपने आप टूट जाएंगी। क्योंकि भारतीय कालगणना का विशाल सागर पश्चिम के संकीण खांचे में नहीं फिट हो सकता। इतिहास और विज्ञान की सीमाओं के टूटने के साथ ही हमारे उपर अंग्रेजो द्वारा गलत अवधारणा के जरिए थोपी गई सांस्कृतिक गुलामी की कडियां भी स्वत:टूट जाएगी। भारतीय मानसिकता पर जमी गाद अपने आप साफ हो जाएगी। भारत के नवोत्थान में इस क्षेत्र में काम किया जाना सबसे महत्वपूर्ण और दूरगामी होगा।

भारत को भारतीय आंखों से देखने और भारतीय नजरिए से समझने का समय अब आ गया है। सरस्वती नदी शोध ने इस काम की शुरुआत की है और रामसेतु में इसको नई उंचाईंया प्रदान करने की सम्भावनाएं और सामर्थ्य है। जरुरत है तो केवल दृ ढ़तापूर्वक आगे बढ़ने की। अगर हम आगे बढ़ते हैं तो प्राचीन के साथ साथ भावी इतिहास भी अपना ही होगा।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

समुद्री सतह पर नासा की नजर – रामनयन सिंह

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भयंकर तूफानों से बचाव के लिए नासा ने एक एनिमेशन सिस्टम विकसित किया है, जो समुद्री सतह के तापमान को विभिन्न रंगों में प्रदर्शित करेगा। नासा स्पेस फ्लाइट सेंटर द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार इस एनिमेशन डिस्प्ले से तूफान के बारे में सूचना देने वाली प्रणाली को काफी लाभ पहुंचेगा। रिपोर्ट के अनुसार 80 डिग्री फॉरेनहाइट या इससे ज्यादा तापमान वाली समुद्री सतह को येलो, ऑरेंज और रेड कलर से दर्शाया जाता है। उल्लेखनीय है कि तापमान के ये आंकडे एडवांस माइक्रोवेव स्कैनिंग रेडियो मीटर द्वारा लिए जाते हैं और इस एनिमेशन को प्रत्येक 24 घंटे में अपडेट किया जाता है। जैसा कि हम जानते हैं कि समुद्री सतह के गर्म होने से चक्रवात या तूफानी बवंडर पैदा होते हैं, जो समुद्री किनारों पर भयंकर तबाही मचाते हैं। नासा द्वारा प्राप्त आंकडों के अनुसार मैक्सिको की खाडी में समुद्री जल सतह का तापमान 80 डिग्री फॉरेनहाइट (जून के आखिरी दिनों में) से ज्यादा था और मौसम विज्ञानियों ने इन आंकडों का जमकर उपयोग किया। गौरतलब है कि समुद्री तल का 80 फॉरेनहाइट से ज्यादा तापमान होने पर समुद्री दबाव भयंकर तूफान में बदल सकता है।

क्या जीवन धूमकेतु से आया!
पृथ्वी पर जीवन का प्रारंभ कैसे हुआ? क्या पृथ्वी पर जीव अंतरिक्ष से आए या इसकी शुरुआत समुद्री किनारों पर स्माल मॉलिक्यूल के जरिए हुई। जो भी हो, लेकिन पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के बारे में वैज्ञानिकों के बीच अभी भी मतभेद हैं। साइंस पोर्टल न्यू साइंटिस्ट में प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत धूमकेतु के जरिए हुई। ब्रिटेन की कार्डिफ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक चंद्र विक्रमसिंघे ने कहा कि धूमकेतु पर सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी पहले से ही थी और धूमकेतु के जरिए ये जीव पृथ्वी पर आए। उन्होंने कहा कि यही वजह है कि पृथ्वी के निर्माण के लगभग 4.5 अरब वर्ष बाद पृथ्वी पर जीवन तेजी से पनपा। विक्रमसिंघे के अनुसार यह थ्योरी अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के डीप इंपैक्ट प्रोब से भी प्रमाणित होती है। उल्लेखनीय है कि डीप इंपैक्ट प्रोब के लिए धूमकेतु टेम्पेल 1 को जुलाई, 2005 में एक प्रोजेक्टाइल के जरिए ब्लास्ट किया गया था। विस्फोट के दौरान वैज्ञानिकों ने धूमकेतु के अंदर से गीली मिट्टी बाहर निकलते देखा था। विक्रमसिंघे ने कहा कि इससे प्रमाणित होता है कि धूमकेतु के भीतर कभी गर्म द्रव मौजूद थे और इसकी वजह रेडियो एक्टिव आइसोटोप थे, जो इन्हें हीट करते थे। रिपोर्ट के अनुसार गीली मिट्टी में वे आवश्यक परिस्थितियां मौजूद थीं, जो सिंपल ऑर्गेनिक मॉलिक्यूल को जटिल बॉयोपॉलिमर्स में बदलने में सहायक थीं। यही नहीं, विक्रमसिंघे व उनके सहयोगियों का तर्क है कि धूमकेतु में मौजूद गीली मिट्टी की काफी मात्रा भी इस थ्योरी को बल देती है कि पृथ्वी पर जीवन अंतरिक्ष से आया। उन्होंने कहा कि पृथ्वी के शुरुआती दिनों में जीव महज 10,000 घन किलोमीटर में ही पनपे, जबकि सिर्फ एक 10 किलोमीटर चौडे धूमकेतु में इस तरह की परिस्थितियां 1000 घन किलोमीटर मौजूद थीं। हालांकि, ऐसे धूमकेतु बाहरी सोलर सिस्टम में अनगिनत थे।

रामनयन सिंह

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के बहाने भारत को घेरने की साजिश

लेखक : डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

चर्च और अमेरिका दोनों ही भारत को घेरने की साजिश में जुटे हुए हैं। चर्च का उद्देश्य बहुत स्पष्ट है। वेटिकन के राष्ट्र्पति पोप के अनुसार इस शताब्दी में उन्हें भारत का काम निपटाना है। क्योंकि पिछली दो सहस्राब्दियों में चर्च ने पूरे यूरोप और अफ्रीका के इतिहास, विरासत और संस्कृति को नष्ट करके वहाँ ईसाई मत को स्थापित कर दिया है। एशिया के अधिकांश हिस्से पर भी चर्च ने अपना मजहबी आधिपत्य जमा लिया है। शुरू में तो यूरोप ने ईसाइकरण का विरोघ किया लेकिन कालांतर में वही यूरोप अफी्रका और एशिया में मजहबी साम्राज्यवाद का हरावल दस्ता बना। जिन लोगों ने चर्च के इन अभियानों का विरोध किया उन्हें निर्दयता पूर्वक कुचल दिया गया। चर्च के दुर्भाग्य से भारत उसके इस विश्वव्यापी अभियान के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ा हो गया। अपनी इस सम्राज्यवादी लिप्सा में बींसवी शताब्दी में ही चर्च और अमेरिका एक जुट हो गये थे। इसलिए बचे-खुचे देशों में ईसाई मजहब को स्थापित करने में अमेरिका अग्रणी भूमिका में उपस्थित हो गया है। परन्तु अमेरिका को इस प्रकार के देशों में दखलअंदाजी के लिए कोई न कोई तार्किक बहाना चाहिए। कोई ऐसा बहाना जिस पर लोग सहज ही विश्वास कर लें। अमेरिका ने इसके लिए आतंकवाद को बहाना भी बनाया और हथियार भी। अमेरिका का ऐसा कहना है कि दुनिया इस्लामी आतंकवाद का प्रहार झेल रही है और अमेरिका क्योंकि नवविचार और नवचेतना का देश है इसलिए वह इस्लामी आतंकवाद को समाप्त करना अपना कर्तव्य समझता है। चाहे इसमें उसके अपने सैनिक भी मर रहे हैं परन्तु इसके बावजूद अमेरिका मानवता के हित में इस्लामी आतंकवाद से लड़ रहा है। केवल अमेरिका में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में। वैसे केवल रिकार्ड के लिए अमेरिका को विश्व का सबसे पहला आतंकवादी देश कहा जा सकता है। सी0आई0ए0 ने कितने लोगों की हत्या करवाई और कितने ही देशों की सरकारों को उल्टा पुल्टा किया इसका लेखा जोखा उसकी पुरानी फाईलों में से निकल आयेगा। आज जिस इस्लामी आतंकवाद को लेकर इतना हल्ला मचा हुआ है उसको जन्म भी अमेरिका ने, अफगानिस्तान में रूस को उत्तर देने के लिए, दिया था। बाद में इसी आतंकवाद के बहाने अमेरिका अपने आर्थिक हितों के लिए इराक में घुसा, फिर अफगानिस्तान में और अब उसकी सेनाएं आतंकवाद की खोज करते-करते अपनी इच्छा से पाकिस्तान में भी चली जाती हैं। लेकिन चर्च और अमेरिका का निशाना तो भारत है। पर इस्लामी आतंकवाद के बहाने अमेरिका भारत में नहीं घुस सकता क्योंकि भारत इस्लामी आतंकवाद से पीड़ित देश है।

भारत में घुसने के लिए अमेरिका को हिन्दू आतंकवाद की जरूरत ह,ै इस्लामी आतंकवाद की नहीं। जब तक भारत में कांग्रेस की निर्बाध सत्ता रही तब तक न ज्यादा अमेरिका को चिंता थी न ही चर्च को क्योंकि भारत को मतांतरित करने की चर्च की योजनाओं में कांग्रेस सरकार सहायक रही, बाधक नहीं। परन्तु पिछले तीन दशकों से भारत का राजनैतिक घटना क्रम तेजी से परिवर्तित हुआ है। कांग्रेस केन्द्रीय सत्ता से पदच्युत हो गई है। यदि नहीं भी हुई है तो उसकी सत्ता में बने रहने की निरंतरता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। इसी अर्से में राष्ट्रवादी शक्तियाँ भारतीय राजनीति के केन्द्र में पहुँच गई हैं। अमेरिका और चर्च दोनों को लगता है यदि देर-सवेर राष्ट्रवादी ताकतें भारत की सत्ता के केन्द्र में स्थापित हो गई तो भारत के ईसाईकरण में निश्चय ही बाधा उपस्थित हो जायेगी। इसका सामना करने के लिए विदेशी मूल की सोनिया गाँधी को कांग्रेस के केन्द्र में स्थापित करने की रणनीति बुनी गई। यह ताकतें अपनी इस रणनीति में तो कामयाब हो गई लेकिन इनके दुर्भाग्य से कांग्रेस स्वयं ही सत्ता के केन्द्र से च्युत होने की स्थति में पहँच रही है। यदि कल चर्च और अमेरिका के आगे ऐसा संकट उपस्थित हो जाता है तो उनके आगे भारत में दखलंदाजी का कौन सा रास्ता बचता है ? यह रास्ता भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी घोषित करने का ही है। भविष्य में यदि राष्ट्रवादी शक्तियाँ भारत का शासन सूत्र संभाल लेती हैं तो अमेरिका को यह कहने का अवसर मिल जायेगा कि भारत में आतंकवादी शक्तियों ने कब्जा कर लिया है। यह अमेरिका ने स्वयं ही घोषित किया हुआ है कि दुनिया में जहां भी आतंकवादी शक्तियाँ होंगी अमेरिका उनका पीछा करते हुए वहां तक जायेगा। और वैसे भी सोनियॉ गांधी और चर्च को अमेरिका के आगे यह गुहार लगाते हुऐ कितनी देर लगेगी कि अमेरिका आगे बढ़ कर भारत को आतंकवादी शक्तियों के चगुंल से मुक्त करे।

राष्ट्रवादी शक्तियों को और प्रकारान्तर से हिन्दु संगठनों को आतंकवादी के रूप में चित्रित करने की कड़ी में ही कांची कामकोटी मठ के शंकराचार्य को दीपावली की रात्रि को गिरफ्तार कर लिया गया था। दुनिया भर के मीडिया ने अमेरिका और इंग्लैंड की न्यूज एजेंसियों के माध्यम से हल्ला मचाया कि हिन्दु साधु संत और राष्ट्रवादी शक्तियाँ हत्यारे और गुंडे हैं। उसके बाद चर्च ने राष्ट्ीय संत वेदान्त केसरी स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की जन्माष्टमी के दिन पूर्व घोषणा करके हत्या कर दी। लक्ष्मणानन्द सरस्वती चर्च के मतांतरण आंदोंलन में बाधा थे। यह एक प्रकार से राष्ट्र्वादी शक्तियों को चर्च की चेतावनी थी कि जो उसके रास्ते में आयेगा उसका यही हश्र होगा। हत्या से पूर्व चर्च की रणनीति और योजना इतनी छिद्र रहित थी कि हत्या के बाद भी मीडिया मैनेजमेंट के माध्यम से दुनिया भर में यह प्रचारित किया गया कि संघ परिवार मतांतरित इसाईयों को आतंकित कर रहा है। मोमबत्ती ब्रिगेड के एक नख दंत हीन सदस्य कुलदीप नैयर ने तो लक्ष्मणानन्द सरस्वती को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने का घटिया प्रयास किया। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी इसी पूरे घटनाक्रम की एक कड़ी के रूप में देखी जानी चाहिए। साध्वी के खिलाफ सरकार के पास अभी तक कोई सबूत नहीं है। इसलिए उनका बार बार नारको टैस्ट और दुसरे टेस्ट करवाये जा रहे हैं। लेकिन सरकार को न सबूतों से कुछ लेना देना है और न ही सत्यता से। उसे किसी एक साधु को पकड़ कर उस पर राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी ठहराने का पूरा तानाबाना बुनना है। साध्वी भूमिगत नहीं है। वह अफजल गुरू भी नहीं है। वह कश्मीर के उन मुस्लिम आतंकवादियों में से भी नहीं है जो छिप कर नहीं बल्कि खुलकर आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। वह जाकिर हुसेन कालेज की प्रो0 गिलानी भी नहीं है जो मोमबत्ती ब्रिगेड के कंधों पर बैठकर भारत को बांटने की वकालत करते हैं। उनके हाथ में पाकिस्तान का झंडा भी नहीं है जिसे असम में फहराते हुए देखकर भी तरूण गोगोई ईद का झंडा बताते हैं।

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने देशहित के लिए अपने सामान्य सुख को त्यागा ह,ै लेकिन महाराष्ट्र् की कांग्रेसी सरकार की ए0टी0एस0 साध्वी के मोबाईल फोन के नम्बरों को लेकर इस प्रकार चिल्ला रही है जैसे उसे आतंकवादियों की पूरी-पूरी सूची ही मिल गई हो। साध्वी ने जिसे भी फोन किया है महाराष्ट् सरकार की दृष्टि में वही आतंकवादी हो गया है। ताज्जुब है कि सरकार योगी आदित्य नाथ और यहाँ तक की स्वामी असीमानन्द को भी आतंकवादियों की सूची में रख रही है। स्वामी असीमानन्द के पीछे पड़ना तो सोनिया गांधी के चेलों के लिए और भी जरूरी था क्योंकि जिस प्रकार स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती उड़ीसा में चर्च के मतांतरण आंदोंलन में बाधा बने हुए थे। स्वामी असीमानन्द उसी प्रकार गुजरात में चर्च के मतांतरण आंदोलन का विरोध कर रहे थे। न जाने क्यूं अभी तक चर्च ने उन्हें भी स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की तरह गोली नहीं मारी। पर चर्च ने शायद इसकी जरूरत नहीं समझी हागी। क्योंकि उसे पता था कि सरकार जल्दी ही असीमानन्द को आतंकवादी घोषित करके उनके पीछे पड़ जायेगी। आश्चर्य न होगा यदि कल ए0टी0एस0 के लोग स्वामी असीमानन्द को गोली मार कर कह दें कि वे मुठभेड़ में मारे गये और मोमबत्ती ब्रिगेड के लोग इंडिया गेट पर भंगड़ा डालना शुरू कर दें।

यदि कल राष्ट्रवादी शक्तियों की सरकार बनती है तो सोनियॉ गांधी, कांग्रेस और चर्च तीनों को कहते देर नहीं लगेगी कि आतंकवादी शक्तियाँ सत्ता पर काबिज हो गयी हैं। महाराष्ट् की कांग्रेसी सरकार इसी लिए अभी से अशोक सिंहल से लेकर भाजपा नेताओं को आतंकवादी प्रचारित करने के काम में लग गई है। सोनियाँ गांधी ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करके उसकी भारत में दखलअंदाजी का रास्ता पहले ही खोल दिया है। राष्ट्र्वादी शक्तियों के सत्ता में आ जाने से अमेरिका यह भी कह सकता है कि गैर जिम्मेदार लोगों के हाथ में भारत के परमाणु अस्त्र आ गये हैं।ये लोग गैर जिम्मेदार हैं इसकी एक रिर्हसल अमेरिका नरेन्द्र मोदी को वीजा न देकर कर ही चुका है। जो आरोप अमेरिका ने मोदी पर लगाये थे वे कमोबेश राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवाद के आस पास ठहराने जैसे ही थे। अब साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को घेरे में लेकर कुछ शक्तियाँ हिन्दु आतंकवाद का काल्पनिक राक्षस खड़ा करना चाहती हैं ताकि उस राक्षस को मारने के लिए अमेरिका या खुद चला आये या फिर उसे बुलाया जा सके। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के किस्से को देखते हुए जरूरी हो गया है कि सोनिया गांधी और वेटिकन के रिश्तों की गहराई से जांच की जाये ताकि उन ताकतों का पर्दा फाश हो सके जो राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी घोषित करके अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगी हुई है। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

मध्य प्रदेश में भी एक बंगरप्पा?

लेखक- अम्बा चरण वशिष्ठ

सशक्त भारतीय जनतंत्र की एक कमजोरी देश में बढ़ रही राजनीतिक दलों की संख्या पर नियंत्रण कर पाने में विफलता है। जिस प्रकार हमारी प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या का कारण अनियंत्रित यौन संबंध है उसी प्रकार लगभग प्रतिदिन पैदा होने वाले नये राजनीतिक दलों का कारण हमारे नेताओं के मन में पनपता अनियंत्रित अहम और महत्वाकांक्षा है। एक कारण यह भी है कि पिछले 61 वर्षों में भारत में ऐसा कोई भी दल नहीं हुआ जो डाले गये मतों का 50 प्रतिशत से अधिक प्राप्त कर सत्ता में आया हो। भारत में अब तक चुनाव में कभी भी 70 प्रतिशत से अधिक मत नहीं पड़े। इसका यही अर्थ निकलता है कि भारत पर जिस भी राजनीतिक दल/गठबंधन ने शासन किया उसे मत संख्या का एक-तिहाई से अधिक कभी भी वोट नहीं मिला।

हमारे नेता जन्म तो किसी दल विशेष में लेते हैं और उसी में पालन-पोषण के बाद बड़े होते हैं। पर ज्यों ही वह पार्टी उनकी सनक के अनुसार काम नहीं कर पाती तो उनके दम्भ और अहंकार की आग भड़क उठती है जिसे उनके चमचे हवा देते हैं और इस अहम् और महत्वाकांक्षा के सम्भोग से जन्म लेता है एक नया राजनीतिक दल। सच तो यह भी है कि हमारे राजनीतिक दलों में व्यक्तियों से सदैव न्याय नहीं होता और न ही योग्यता को सम्मान ही मिलता है। पर यह भी तो सच है कि यदि हम पार्टी के अंदरूनी गणतंत्र में विश्वास रखते हैं तो हमें अपने गिले-शिकवे पार्टी के अंदर रह कर ही दूर करने चाहिए और भीतर से ही न्याय की लड़ाई लड़नी चाहिए। पर ऐसा नहीं होता। अहम् में आगबबूला हमारे नेता पार्टी और इसके नेतृत्व को अपने साथ हुयें अन्याय के लिए सबक सिखाने का प्रण ले बैठते हैं। कई तो यहां तक समझ बैठते हैं कि यदि वह है तो पार्टी है और यदि वह नहीं तो कुछ भी नहीं।

तुलना प्रिय तो नहीं होती पर इससे बचना भी मुश्किल है। कर्नाटक के श्री एस. बंगरप्पा और मध्यप्रदेश की सुश्री उमा भारती के उदाहरण काफी कुछ एक समान हैं। दोनों ही अपने-अपने प्रदेशों के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। दोनों ही, ठीक या गलत, अपने-अपने पार्टी के नेतृत्व से संतप्त हैं और वे समझते हैं कि पार्टी ने उनके साथ न्याय नहीं किया।

जब श्री बंगरप्पा कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे तो हाईकमान ने उन्हें त्यागपत्र के लिए बाध्य किया। 1989 के चुनाव के समय उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी, अलग कर्नाटक कांग्रेस पार्टी का गठन किया और 224 में से 218 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए। तब सत्ताासीनं कांग्रेस सरकार सत्ता विरोधी लहर और बंगरप्पा के विरोध के नीचे ढह गयी और वह 178 विधायकों के स्थान पर केवल 34 सीट ही जीत सकी और मत प्रतिशत 43.76 से गिर कर 26.95 रह गया। जहां कांग्रेस का मत प्रतिशत 16.81 घटा, वहीं भाजपा ने अपना मत प्रतिशत 4.14 से बढ़ाकर 16.99 प्रतिशत कर लिया और उसके विधायकों की संख्या 4 से बढ़कर 40 हो गयी। जनता दल का मत प्रतिशत 27.08 (24 विधायक) से बढ़कर 33.54 (115 विधायक) हो गया और वह सत्ताा में आ गयी। बंगरप्पा की कर्नाटक कांग्रेस ने सत्तााधारी कांग्रेस के 7.31 प्रतिशत (विधायक केवल 10) वोट काटे पर उसे सत्तााविहीन होना पड़ा।

राजनेता अपनी एक टांग कटवाने के लिए सदा तत्पर रहते हैं यदि इससे उनके विरोधी की दोनोें टांगें कट जाएं। यही हुआ कर्नाटक में। बंगरप्पा तो पहले ही सत्ता खो बैठे थे और इसके आगे उनके पास खोने के लिए कुछ था नहीं। इसलिए उनका तो बड़ा सूक्ष्म संकीर्ण लक्ष्य था: ”अगर वह नहीं, तो कांग्रेस भी नहीं।” जब कांग्रेस के हाथ से सत्तााछिन गयी तो बंगरप्पा के हाथ तो सत्ता नहीं आयी पर वह इस बात से ही खुश थे कि उन्होंने कांग्रेस को सत्ता में आने नहीं दिया।

राजनीति में या तो व्यक्ति को स्वयं जीत जाना चाहिए या फिर उसकी पार्टी जीत जानी चाहिए। उसके कारण यदि किसी तीसरे व्यक्ति या पक्ष को लाभ हो जाये, यह तो दिलेरी और बहादुरी की बात नहीं हुई। यदि ऐसा होता है तो यह तो बंदरबांट का ही उदाहरण बन जाता है जिसमें दो व्यक्तियों की लड़ाई में तीसरा लाभ उठा जाता है।

अंतत: हुआ क्या? राजनीति के अकेले राही श्री बंगरप्पा विभिन्न पार्टियों में मेढक की कूद लगा चुके थे । अंतत: उन्हें मिली स्वयं और अपने पुत्रों के लिए कर्नाटक विधानसभा में एक अशोभनीय हार। 2008 के कर्नाटक चुनाव तक श्री बंगरप्पा एक अविजित नायक थे जिसने कभी कोई चुनाव नहीं हारा था। पर महत्वाकांक्षा की भूख और बदले की भावना ने उन्हें कहीं का न छोड़ा। न सत्ता मिली और न ही सम्मान।

वर्तमान स्थिति में ऐसा लगता है कि मध्यप्रदेश में भी बंगरप्पा का इतिहास दोहराया जा सकता है। सुश्री उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी प्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है। अपने स्वार्थी उद्देश्य और मंन्सूबों की पूर्ति के लिए सुश्री भारती के अहम् और दम्भ को हवा देने वालों की कमी नहीं है। विधानसभा चुनाव में उनकी उपस्थिति से किसी को लाभ होने वाला है तो किसी को हानि। पर वह तो अपनी पुरानी पार्टी को सबक सिखाने के लिए आतुर हैं: ”अगर मैं नहीं, तो वह भी नहीं”।

सुश्री भारती के अपने भाई उनका साथ छोड़ गए हैं। उनके अपने ही दल में काफी उठाहपोह है। ऐसी स्थिति में उन जैसा व्यक्तित्व सत्ता में आने का दिवास्वप्न देखता है तो यह समझ के बाहर की बात है। वह भाजपा को अवश्य सजा देना चाहती हैं। पर यह भी सच है कि सदा सभी की सब मुरादें पूरी नहीं होती। अभी यह भविष्यवाणी कर देना एक टेढ़ी खीर लगती है कि भाजपा अवश्य सत्ता में आ जाएगी या कांग्रेस जीत जाएगी। चुनाव विश्लेषण को एक विज्ञान तो अवश्य माना जा रहा है पर इसकी विश्वसनीयता पर अभी तक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। और चुनाव विशेषज्ञ भी अभी यह यह भविष्यवाणी करने की जोखिम नहीं उठा पा रहे कि सुश्री भारती भाजपा को हराकर सत्ताा के गलियारे पर काबिज हो जाएंगी या कांग्रेस सत्ता में आ जाएगी।

चुनाव परिणाम कुछ भी निकलें, पर आज इतना तो आसानी से कहा ही जा सकता है कि कर्नाटक में श्री एस. बंगरप्पा की तरह मध्यप्रदेश में उमा भरती भी अंतत: घाटे में ही रहेंगी। यदि भाजपा अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने में कामयाब हो जाती है तो राज्य के राजनीतिक परिदृश्य से उनका अस्त हो जाएगा। यदि कांग्रेस सत्ताा में आ जाती है तो भी आगे सुश्री भारती का कोई रोल नहीं बचेगा क्योंकि जिस सुश्री भारती के कंधों की शक्ति पर कांग्रेस सत्ता में आएगी वह उनके कंधों की मालिश कर सशक्त नहीं बनाना चाहेगी। जब जनता दल कर्नाटक में श्री बंगरप्पा और कांग्रेस के वोट काटने के कारण सत्ताा में आया था तो जनता दल श्री बंगरप्पा के प्रति कभी कृतज्ञ नहीं रहा।

आज श्री बंगरप्पा कहां हैं? वह राजनीतिक परिदृश्य से ओझल हैं। आज राजनीति में उनकी कोई गिनती नहीं है। तो क्या 8 दिसंबर को चुनाव परिणाम निकलने पर मध्यप्रदेश में भी एक और एस. बंगरप्पा उभरेगा?

(लेखक स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं)

सब ‘सभ्य’ – हम, हमारा समाज और मीडिया

लेखक- अम्बा चरण वशिष्ठ
ठीक ही तो कहते हैं कि किसी सभ्य समाज में फांसी की सज़ा उस समाज के नाम पर एक कलंक है। पर साथ ही यह कोई नहीं कहता कि यदि वह समाज सभ्य है तो उस में हत्या केलिये भी कोई स्थान नहीं है। जब हत्या नहीं होगी तो फांसी की सज़ा का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।

प्रत्येक हत्या के पीछे होता है एक उत्प्रेरक कारण जिसके निराकरण का प्रावधान सभ्य समाज की न्याय व्यवस्था में उपलब्ध होता है। फिर भी इस ‘सभ्य’ समाज के व्यक्ति न्याय व्यवस्था का सहारा न लेकर कानून अपने हाथ में ले लेते हैं और जिस व्यक्ति से उन्हें मतभेद, द्वेष या गुस्सा होता है उसे वह न्याय व्यवस्था के अधीन दण्ड दिलाने की बजाय न्याय का डण्डा स्वयं अपने हाथ में उठा कर उसे अपने हाथों से दण्डित करते हैं। यह दण्ड मारपीट, हाथ-पांव तोड़ने तक ही सीमित नहीं रहता। कई बार तो यह हत्या तक का अमानुषिक दण्ड बन कर रह जाता है हालांकि उसका अपराध इतना घोर नहीं होता कि उसे न्याय व्यवस्था के अधीन उसके अपराध केलिये उसे फांसी ही मिलती। अपराधी इसे ‘आदर्श’ न्याय और सज़ा की संज्ञा दे देते हैं।

इसी प्रकार किसी सभ्य समाज में न आतंकवाद केलिये कोई स्थान होना चाहिये और न आतंकवादी हिंसा का व हत्याओं के लिये। आतंकवादी एक दम्भी व्यक्ति होता है जो स्वयं को सही और बाकी सब को गलत मानता है जो उससे सहमत नहीं होते। उसका सामाजिक व न्याय व्यवस्था में कोई विश्वास नहीं होता। जनतन्त्र व बहुमत में उसकी आस्था नहीं होती। वह बात मानता है तो बस अपनी। कानून मानता है तो अपना। न्याय मानता है तो उसे जिसे वह दूसरों को देता है। तर्क के आधार पर नहीं, वह अपनी बात आतंक के बल पर सैकड़ों-हज़ारों से मनवाना चाहता है। जो उससे सहमत नहीं वह सब उसे मूर्ख, समाज व देश के दुश्मन और उसके अपने शत्रु दिखते हैं। चुनाव व्यवस्था में उसका विश्वास नहीं होता क्योंकि वह इतना अवश्य जानता है कि बहुमत उसके साथ नहीं है।

आतंकवादी अपने आतंक द्वारा दूसरों के मानवाधिकारों को बड़ी बेरहमी से कुचलता है। आग-फूंक करना और निर्दोष जनता और कानून की रक्षा कर रहे रक्षाकर्मियों की हत्या कर देना वह अपना अधिकार और इसे अपनी न्याय व्यवस्था का अभिन्न अंग समझता है। पिछले 17 वर्षों में लगभग एक लाख निर्दोष आतंकवाद की बलि चढ़ चुके हैं जिस में से लगभग 75,000 अकेले जम्मू-कश्मीर से हैं। यह संख्या पाकिस्तान से कारगिल समेत चार युध्दों और चीन के साथ 1962 के युध्द में शहीद हुये लोगों से चार गुणा से अधिक हैं। देश द्वारा इतनी कुर्बानी दे देने के बाद भी आतंकवाद के दानव की हिंसा की पिपासा बढ़ती ही जा रही है।

उधर जब दस-पचास निर्दोष आतंकी हिंसा का शिकार हो जाते हैं तो दो दिन तो मीडिया अवश्य समाचार देता है पर बाद में इस समाचार को आया-गया बना दिया जाता है। कोई नहीं पूछता कि जो बच्चे अनाथ हो गये, जो महिलायें विधवा हो गईं, जिन बूढ़ों की इस उम्र में सहारे की लाठी छीन ली गई, उनका क्या बना। आतंकी हिंसा तो आज इतनी साधारण बात हो गई है कि कई बार तो समाचारपत्र इस खबर को विशेष महत्व ही नहीं देते और कहीं कोने में छोटी से खबर लगा देते हैं । इलैक्ट्रानिक मीडिया की भी यही हालत है । घटना के बाद बेचारे निरीह सन्तप्त परिवार की कोई सुध नहीं लेता।

वास्तविकता तो यह है कि अव्वल तो कोई आतंकबादी पकड़ा ही नहीं जाता। यदि पकड़ा भी जाये तो उसे सज़ा नहीं होती क्योंकि कोई गवाही देने आगे नहीं आता क्योंकि सब को अपनी और अपने परिवार के जीवन से प्यार है। गल्ती से अगर कभी-कभार कोई आतंकवादी पकड़ा जाये तो उसके अपराध से पहले उसकी रक्षा का कवच बन जाते हैं उसके मानवाधिकार। वह व्यक्ति मानवाधिकारों का सुपात्र बन जाता है जिसने अनगिनत हत्यायें की हैं और सैंकडों के मानवाधिकारों को अपने पांव तले रोंदा है। हमारी मानवाधिकार संस्थाओं केलिये उन व्यक्तियों के मानवाधिकार बहुत पावन हैं जो दूसरों के मानवाधिकारों की हत्या करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों इन संस्थाओं के दृष्टि में मानवाधिकर केवल अपराधियों और आतंकवादियों के ही होते हैं जिनकी रक्षा करना उनका धर्म है। बेचारे निर्दोष व्यक्तियों के तो कोई मानवाधिकार होते ही नहीं और न ही उनकी रक्षा करना मानवाधिकारों की रक्षा में लगी लोग व संस्थायें अपना कर्तव्य व धर्म ही मानते है। ऐसा लगता है कि मानवाधिकार संस्थाओं की दृष्टि में वह तो मानव नहीं गली के कीड़े-मकोड़े हैं जो तो बस मरने केलिये ही पैदा हुये हैं और आतंकवादी तो उनका नरसंहार कर उन्हें इस नरकीय जीवन से मुक्ति दिला कर पुण्य ही कमाते हैं। यदि ऐसा न होता तो मानवाधिकार संस्थायें आम जनता के मानवाधिकारों के प्रति भी उतनी ही चिन्तित नज़र आतीं जितनी कि वह अपराधियों और आतंकवादियों के प्रति दिखती हैं। यही बात बहुत हद तक हमारे मीडिया के बारे भी सच है। कई बार तो ऐसा लगता है कि पावन मानवाधिकार अर्जित करने केलिये तो व्यक्ति विशेष केलिये अपराध करने और आतंकवादी बनने की तपस्या करना अनिवार्य योग्यता है।

हमारे मीडिया की पैनी नज़र व कलम इस खोज खबर के पीछे कभी नहीं दौड़ती कि हमारे आतंकवादियों को शरण प्रदान करने वाले कौन हैं, उन्हें आर्थिक सहायता कौन प्रदान करते हैं, उनके छुपने के ठिकाने कहां हैं, किस प्रकार आतंकवाद से निपटा जा सकता है और अपराधियों को पकड़ा जा सकता है ताकि निर्दोष हत्यायें न हों। अपने राष्ट्रीय कर्तव्यपालन में डटे किसी सुरक्षाकर्मी की यदि कोई आतंकवादी निमर्म हत्या कर देता है तो हमारी मानवाधिकार संस्थाओं के कान पर जूं नहीं रेंगती। पर यदि मुठभेड़ में कोई आतंकवादी अपनी जान गंवा बैठता है तो इनके कान खड़े हो जाते हैं और इसमें फर्जी मुठभेड़ की बू आने लगती है। तब वह इस मुठभेड़ को फर्जी साबित करने केलिये दिन-रात लगा देते हैं। ऐसा आभास मिलता है कि उनकी दृष्टि में आतंकवादी द्वारा किसी सुरक्षाकर्मी की हत्या उसका एक पावन अधिकार है और जवाब में अपनी सुरक्षा करते-करते सुरक्षाकर्मी के हाथों किसी आतंकवादी का मारा जाना घोर दण्डनीय अपराध। तब सारे मीडिया और मानवाधिकार संस्थाओं में कोहराम मच जाता है।

ज्यों ही किसी आतंकवादी के पुलिस हिरासत में प्रताड़ना या मौत की सूंघ उन तक पहुंचती है तो मीडिया विद्युत गति से हरकत में आ जाता है और अपनी खोज-खबर की दक्षता के प्रमाण देने में एक दूसरे के साथ होड़ में आ जाता है। मोटी-मोटी सुर्खियां लगती हैं, ब्रेकिंग न्यूज़ बनती है। सारा-सारा दिन समाचार चलते रहते हैं। दुर्दान्त अपराधियों और आतंकवादियों के पिछले सारे काले कारनामें धुल जाते हैं और वह जनता के सामने उभर आते हैं सच्ची-सुच्ची पीड़ित-प्रताड़ित आत्मायें जिनके साथ इस ‘सभ्य’ समाज में बड़ा अन्याय हुआ है। वह महान बन जाते हैं, शूरवीर शहीद।

इसमें कोई दो राय नहीं कि सभ्य समाज में किसी भी दोषी को बिना मुकद्दमा चलाये सज़ा नही दी जा सकती। पर क्या आतंकवादियों को निर्दोष महिलाओं, वच्चों और बूढ़ों को – और कई बार धर्म के आधार पर – मौत के घाट उतार देने का मानवीय अधिकार है? यदि नहीं, तो हमारी मानवाधिकार संस्थाओं ने इसे रोकने और अपराधियों को दण्ड दिलाने में क्या योगदान दिया है? इनका पावन कर्तव्य क्या केवल असमाजिक व आपराधिक तत्वों के मानवाधिकारों की ही रक्षा करना है और उन्हें अपने पापों की सज़ा दिलाना नहीं?

आजकल तो हमारा समाज इतना ‘सभ्य’ बन चुका है कि हमारी पुस्तकों में सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरू सरीखे महान् स्वतन्त्रता सेनानी व शहीद तो आतंकवादी बन चुके हैं और अफज़ल गुरू सरीखे आतंकवादी जिसने संसद पर हमला बोला उसे निर्दोष और शहीद बनाने की क्वायद की जा रही है। देश के प्रति अपना कर्तव्य निभा रहे आठ सुरक्षाकर्मी जिन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया वह मानो गाजर-मूलीं थे और यह आतंकवादी उनसे महान् हो गया। उच्चतम् न्यायालय ने जिसे अपने कुकर्म केलिये मृत्युदण्ड दिया उसे जीवनदान देने के प्रयास हो रहे हैं। न्यायालय के निर्णय पर प्रश्न उठाये जा रहे हैं। यदि उसे भारत की न्याय व्यवस्था में न्याय नहीं मिला तो किसी अन्य देश में मिलेगा?

यह है भारत के ‘सभ्य’ समाज का यथार्थ!

(लेखक स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं)