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गांधी की वस्तु की नीलामी पर न्यायालय ने लगाई रोक

mahatma-gandhi1राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से जुड़ी वस्तुओं की अमेरिका में होने वाली नीलामी पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को अंतरिम रोक लगा दी है।

नवजीवन ट्रस्ट की ओर से अतिरिक्त महान्यायाधिवक्ता मोहन पाराशरण द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायाधीश अनिल कुमार ने स्थगन आदेश जारी किया। अमेरिका के एंटिकोरम आक्सनीयर्स की ओर से गुरुवार को गांधीजी की वस्तुओं की नीलामी की जानी है।

पाराशरण ने कहा कि वे सभी वस्तुएं भारत की हैं और उन्हें अनधिकृत तरीके से वहां ले जाया गया है। साथ ही उन्होंने कहा कि वर्ष 1996 में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक ब्रिटिश संस्थान के खिलाफ ठीक इसी तरह का स्थगन आदेश गांधीजी की हस्तलिखित सामग्रियों की नीलामी रोकने के लिए दिया था।

सरकार ने ट्रस्ट की ओर से इस मामले में अदालत में पेश होने के लिए पाराशरण को विशेष अनुमति दी है।

गांधी क्यों लौट-लौट आते हैं? – रविकान्त

mahatma-gandhiआशिस नंदी ने अपने एक मशहूर लेख में बताया था कि गांधी को मारनेवाला सिर्फ़ वही नहीँ था जिसकी पिस्तौल से गोली चली थी, बल्कि इस साज़िश को हिन्दुस्तानियोँ के एक बड़े तबक़े का मौन-मुखर समर्थन हासिल था। सत्ता की राजनैतिक मुख्यधारा के लिए वे काँटा बन चुके थे, और चालीस के दशक में उनके अपने चेलोँ ने ही उन्हें हाशिए पर सरका दिया था, क्योंकि बक़ौल पार्थ चटर्जी, राष्ट्र अपनी मंज़िल के क़रीब आ चुका था। पर हम सुमित सरकार के हवाले से यह भी जानते हैँ कि गांधी की जीवन-ज्योति बुझने से ठीक पहले अपनी दिव्य प्रदीप्ति भी छोड़ जाती है, जब बटवारे के दुर्दांत दृष्टांत में कोई और हिकमत काम नहीं आती तो गांधी का खटवास-पटवास ही काम आता है। कहा जा सकता है कि अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ हुई अपनी आख़िरी जंग में हिन्दुस्तानी रिवायतों की रचनात्मक पुनर्परिभाषा करनेवाले गांधी के अपने सांस्कृतिक स्रोत सूखते नज़र आते हैं – ख़ासकर तब जब हम उन्हें महिलाओं को बेइज़्ज़ती की आशंका पर प्राणोत्सर्ग की हिमायत करते देखते हैं। बहरहाल दिलचस्प है कि उनके अपने प्रणोत्सर्ग ने असंभव को संभव कर दिखाया और इस तरह गांधी ने बटवारे के समय मरकर एक ज़ोरदार कमबैक दिया, और यह सिलसिला थमा नहीं है।

तो गांधी हमारे कमबैक किंग सिर्फ़ इसलिए नहीं हैं कि उनके आचार-विचार और आदर्श-व्यवहार अपने रूपकार्थ में आज भी हमें रोशनी और हौसला देते हैं, बल्कि इसलिए भी हम उनके सुझाए विकल्पोँ से बेहतर विकल्प अपने लिए नहीं ढूँढ पाए हैं। मसलन जब पश्चिम की अपनी हिंसक मुठभेड़ के संदर्भ में जब देरिदा मिल-जुलकर जीने की कला और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हैं तो हमारे लिए गांधी का याद आना स्वाभाविक है, क्योंकि वे भी कुछ वैसा ही कह रहे थे। और हम इसमें न तो अकेले हैँ, न ही पहले। गांधी की वैश्विक पहुँच और स्वीकृति थी और रहेगी: गांधी-स्मृति जा‌इए, जनसत्ता में सुधीर चंद्र के कॉलम पढ़िए, या थोड़ा इंटरनेट पर घूमिए तो पाएँगे कि लोग आज उन्हें पर्यावरण से लेकर प्रौद्योगिकी तक के इलाक़ों में
पुनर्मिश्रित और पुनर्व्याख्यायित कर रहे हैं, उनके जीवन-प्रसंगोँ की नई तर्जुमानी हो रही है, और उन औज़ारों के ज़रिए उनका पुनराविष्कार हो रहा है, जिनसे शायद उनको ख़ुद बहुत लगाव नहीं था। आप शायद कहें कि गांधीगिरी, गांधीवाद नहीं है। बेशक, पर शाहिद अमीन के चौरी-चौरा के किसानों से पूछिए कि क्या उन्होंने गांधी को उल्टा नहीं घिसा था? हम सबके अपने-अपने गांधी इसलिए हैं कि हमें उनसे जूझना ही पड़ता है, ऐसी उनकी अनुपस्थित उपस्थिति है, ऐसा महात्म्य है
उनका।

— रविकान्त

सराय /सीएसडीएस से जुड़े

भाजपा व अजित सिंह के बीच चुनावी गठबंधन

ajit-singhदेश में होने वाले 15वीं लोकसभा चुनाव के बाबत भारतीय जनता पार्टी और अजित सिंह की राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के बीच चुनावी गठबंधन हो गया है। अब दोनों पार्टियां मिलकर चुनाव मैदान में उतरेंगी।

राजधानी दिल्ली में सोमवार को एक संवाददाता सम्मेलन में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता व प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी और आरएलडी के अध्यक्ष अजित सिंह ने इस समझौते की घोषणा की।

संवाददाता सम्मेलन में अजित सिंह ने कहा कि इस गठबंधन से वे उत्तर प्रदेश के लोगों के सामने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के विकल्प के तौर पर स्वयं को प्रस्तुत करेंगे। सिंह का कहना था कि देश में परिवर्तन की ज़रुरत है और इसी को ध्यान में रखकर यह समझौता किया गया है।
दूसरी तरफ़ लालकृष्ण आडवाणी ने भी आरएलडी के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होने का स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि एनडीए में आरएलडी के आने से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के कुशासन से भी आम लोगों को छुटकारा मिलेगा।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र के किसानों के बीच आरएलडी का गहरा प्रभाव माना जाता है।

गांधी जी के सामानों की नीलामी रोकने के प्रयास तेज

gandhi_ji2भारत सरकार फिलहाल इस प्रयास में जुटी है जिससे महात्मा गांधी की  निजी वस्तुओं की अमेरिका में होने वाली नीलामी को रोका जा सके।

खबर के मुताबिक संस्कृति मंत्री का कहना है कि इन वस्तुओं की न्यूयॉर्क शहर नीलामी करने वालों से  आग्रह किया गया है कि वे इन वस्तुओं की नीलामी से पहले इसे ख़रीदने का मौक़ा सरकार को दें। ये वस्तुएँ जिनके पास हैं उनमें से एक महात्मा गांधी की भतीजी की बेटी भी हैं।

 

गांधी की भतीजी ने एक जर्मन संग्रहकर्ता को अधिकृत किया है कि वह इस वस्तु को अमरीकी नीलामी घर के ज़रिए बेच दे। यहां नीलाम की जाने वाली वस्तुओं में महात्मा गांधी का चश्मा, चप्पलों की एक जोड़ी और एक जेब घड़ी शामिल है। इन वस्तुओं की क़ीमत 20 से 30 हज़ार डॉलर के बीच आंकी गई है। न्यूयॉर्क के एंटीक़ोरम ऑक्शनीयर्स में चार-पाँच मार्च को इन वस्तुओं की नीलामी होनी है।

 

संस्कृति मंत्री अंबिका सोनी ने कहा है कि इन वस्तुओं की नीलामी रोकने के लिए जो कुछ भी किया जाना है। वह किया जा रहा है।

सरकार इस विकल्प पर भी विचार कर रही है कि यदि ये वस्तुएँ नीलामी से नहीं हटाई जाती हैं तो किसी भारतीय से कहा जाए कि वह इसे ख़रीद ले और बाद में सरकार को दान में दे दे, जिससे कि इसे राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा जा सके। सरकार की एक समिति इस तरह के सभी उपायों पर विचार कर रही है।

 

लगभग सभी दलों के सांसदों ने कहा है कि इन वस्तुओं को हासिल करने की हर संभव कोशिश की जानी चाहिए।

गांधी जी के पड़पोते तुषार गांधी ने इन वस्तुओं की नीलामी रोकने या उन्हें ख़रीदकर भारत में लाए जाने के लिए एक अपील जारी की थी। उन्होंने एक समाचार एजेंसी से बातचीत में ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहा है कि वे बहुत ख़ुश हैं। सरकार आख़िरकार अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए सामने आई है।

 

दूसरी ओर नीलाम करने वालों का कहना है कि गांधी की निजी वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए दुनिया भर के लोगों ने ख़ासी दिलचस्पी दिखाई है।

लुप्त होता हुनर – ब्रजेश झा

handloom-2भागलपुर शहर का एक खास इलाका है। नाम है चंपानगर। यहां कभी चंपानदी हुआ करती थी। और इसके पास बसे लोग बुनकर थे। मालूम नहीं कब यह नदी नाले का रूप पा गई। और ताज्जुब है, कहलाने भी लगी। दूसरी तरफ इसके आस-पास बसे लोग जो कभी बुनकर थे अब मजदूर हो गए हैं। यह बदलाव है जो साफ नजर आता है। हाल में भागलपुर का यही इलाका अखबारों-टीवी चैनलों पर छाया हुआ था। वजह इक चोर को रक्षस की तरह पीटना था। खैर, इस पर बात अलग से।


अरसा नहीं गुजरा जब भागलपुरी रेशम अपने समृद्धि के दौर में था। पारंपरिक ढंग से रेशमी वस्त्रा तैयार करने की वजह से इसकी अलग पहचान थी। लोग यहां के बुनकरों और रंगरेजों के हुनर की दाद दिया करते थे। तब सामाजिक-आर्थिक संरचनाएं भी ऐसी थीं कि कई बड़े-मझोले बुनकरों के बीच छोटे-मोटे बुनकरों का भी वजूद कायम था। पर, आज इलाके की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में घूमते वक्त बहुत कुछ सपनों सा मालूम पड़ता है। भूमंडलीकरण के दबाव और सरकारी उपेक्षा की वजह से भागलपुरी रेशम उद्योग की वर्तमान हालत बिल्कुल खस्ता है। बुजुर्ग बतलाते हैं, ‘यह मुमकिन नहीं लगता कि अब यहां की पुरानी रौनकें लौट आएं


यहां के हजारों बुनकर परिवार वर्षों से तसरऔर लिलनजैसे धागों से रेशमी कपड़ों की बुनाई करते आ रहे हैं। पहले तो इसकी ख्याति विदेशों तक थी। ढेरों कपड़ा यहां से निर्यात किया जाता था। पर, अब वह बात नहीं रही। रेशमी कपड़ा अब भी तैयार किया जाता है। लेकिन, कुछ असामयिक घटनाओं ने अनिश्चितताओं के ऐसे माहौल को जन्म दिया कि हजारों बुनकरों को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए पलायन करना पड़ा। फिलहाल इस उद्योग से कुछ लोग ही जुड़े रह गए हैं, जो अपने पुश्तैनी व्यवसाय को बचाने की कोशिश में लगे हैं। अंसारी साहब कहते हैं, ‘यहां रेशमी कारोबार से जुड़ी थोड़ी चीजें ही बाकी रह गई हैं। अब तो इस विरासती कारोबार की हिफाजत अपने बच्चों के लिए भी कर पाना मुश्किल हो गया है।

 

आजकल यहां आजाद भारत के बुनकरों की चौथी पीढ़ी अपनी शरुआती पढ़ाई को छोड़ इस काम में लग चुकी है। यह बाल मजदूरी की एक अलग दास्तान है। बाकी जो उम्रदराज लोग हैं, उनके मन में 1986 और 1989 में लगातार घटित दो विषाक्त घटनाओं की गहरी यादें जमी हुई हैं। जिसने रेशम उद्योग को जड़ तक हिला दिया है। अंसारी साहब मायूस होकर कहते हैं, ‘ये दो वाकयात ऐसे हुए जिसने शहर से लेकर देहात तक फैले बुनकरों-रंगरेजों को तबाह कर डाला। वरना, यह कारोबार थोड़ा आगा-पीछा के बावजूद कायदे से चल रहा होता।

 

यहां बिजली-बिल के करोड़ों रुपये बकाया राशि के भुगतान को लेकर सन् 1986 में काफी हंगामे हुए थे। प्रशासन द्वारा बुनकरों पर अप्रत्याशित ढंग से दबाव बनाए जाने से हालात बिगड़ गए। अंतत: क्रिया-प्रतिक्रया में दो बुनकर आशीष कुमार, जहांगीर अंसारी और भागलपुर के तत्कालीन डीएसपी मेहरा की हत्या हो गई। इसके बाद तो लगातार हंगामे होते रहे और रेशम उद्योग जलता रहा। इस घटना ने सलीका पंसद और मेहनती समझे जाने वाले बुनकरों की छवि को अचानक खराब कर दिया।
अत्यधिक ब्याज अदा करने को तैयार होने के बावजूद इन्हें सूद पर रुपये नहीं मिल पाते थे। दूसरी तरपफ डीएसपी मेहरा की हत्या से जुड़े मुकदमे में दर्जनों बुनकर केस लड़ते-लड़ते तबाह हो गए। आज उनमें देवदत्त वैद्य, एर्नामुल अंसारी जैसे कई बुनकर नेताओं की तो मृत्यु भी हो चुकी है। ठीक उसी वक्त इस उद्योग से जुड़कर बड़ों का हाथ बटा रही युवा पीढ़ी पर घटना का गहरा असर हुआ। वे लोग जीवन-यापन के लिए विकल्प तलाशने लगे। बिजली आपूर्ति और बकाया राशि को लेकर हंगामे तो खूब हुए, लेकिन स्थितियां अब तक ढाक के तीन पातवाली बनी हुई हैं। ऊपर से सरकारी सुविधाएं भी धीरे-धीरे बंद होती चली गईं। इन हालातों के बीच 1989 का जिले भर में फैला सांप्रदायिक दंगा-रेशम उद्योग को पूरी तरह उजाड़ गया। दूर-दराज वाले कई गांवों में तो यह उद्योग लुप्त ही हो गया।

 

यद्यपि यह राममंदिर आंदोलन से पूर्व बनते-बिगड़ते राजनैतिक और धार्मिक गठजोड़ का दुष्परिणाम था, जो धीरे-धीरे साफ होता गया। लेकिन, गाज भागलपुर रेशम उद्योग पर गिरी। तब रेशम उद्योग मात्रा 35-40 वर्ष पीछे लौट कर ही नहीं रह गया बल्कि, अपनी दिशा भी बदलने लगा। रेशम बाजार की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई। मोमीन बुनकर विकास संगठनसे जुड़े बुनकरों का कहना है कि दंगे के बाद बाहर से व्यापारियों का आना पूरी तरह बंद हो गया। जबकि ये लोग पहले हमारी देहरी तक आकर माल ले जाया करते थे। तब हमें बिचौलिए के झमेले में नहीं पड़ना होता था। पर अब हवा बदल गई है। यह सांप्रदायिक दंगा भागलपुर की स्मृति का ऐसा पक्ष है जो एक दु:स्वप्न की तरह बुनकरों का पीछा कर रहा है। कम अंतराल पर हुई इन दो घटनाओं से कई साधारण गरीब बुनकर घृणा, भय और आतंक का अनुभव करते हुए यहां से पलायन कर चुके हैं। आज वे लोग अपने व्यवसाय और जड़ों से उखड़कर देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी अधूरी पहचान के साथ जी रहे हैं। जबकि, भागलपुरी रेशम उद्योग पूरी ढलान पर है।

 

मशीनीकरण का भी इस लघु उद्योग पर प्रतिकूल असर पड़ा है। पहले एक हैंडलूम के सहारे चार-पांच सदस्यों वाले परिवार का भरण-पोषण बड़ी सहजता से हो जाता था। रेशमी धागों के गट्ठरों की धुलाई, लेहरी, टानी, बुनाई, रंगाई और छपाई तक की प्रक्रिया से जुड़े कामों में जुलाहे से लेकर रंगरेज तक व्यस्त रहते थे। लेकिन, नई अर्थनीति और पावरलूम की अंधी दौड़ ने गरीब बुनकरों की स्थिति को दयनीय बना दिया है। वे लोग हैंडलूम के बूते पावर लूम का विकल्प तैयार नहीं कर सकते और न ही बाजार में टिक सकते हैं। इसलिए बड़े लूम हाउसों में मजदूरी करना इन बुनकरों की नियति बन गई है। ऐसे रेशम उद्योग के बेहतर भविष्य की कल्पना कोई कैसे कर सकता है, जहां का बुनकर समाज गरीब होता जा रहा है और व्यापारी दिनों दिन अमीर। बिजली आपूर्ति की वर्तमान स्थिति इस फासले को और चौड़ा करने में लगी है।


पिछले कुछ दशकों से इस रेशम उद्योग में असामाजिक तत्वों का हस्तक्षेप भी बढ़ा है। ये लोग गैरकानूनी ढंग से इस व्यवसाय में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। बेशक, हम पारंपारिक टसरऔर लिलनके व्यापार को बिखरता पाते हों किन्तु, इसकी आड़ में रेशम धागे की कालाबाजारी का अपना संपन्न संसार है। ये लोग अपने स्वार्थ के वास्ते हमेशा दिमागी हरकत करते रहते हैं। इससे उद्योग की साख को बड़ा धाक्का पहुंचा है। न जाने कितने बुनकरों-व्यापारियों ने रंगदारी के भयवश पुरखों द्वारा प्रदत्त रेशम उद्योग से खुद को अलग कर लिया है। यहां किसी भी सरकारी संरक्षण के अभाव में कई छोटी-बड़ी मिलें बंद हो चुकी हैं। सिल्क स्पंस मिल-बहादुरपुरइन्हीं में से एक है। विदेशी कंपनियां फैल रही हैं वहीं देशी उद्योग लुप्त हो रहा है। सोचता हूं कि ऐसे में भागलपुर सिल्क उद्योगको लेकर क्या राय बन सकती है।

मेट्रो पर भी ब्‍लूलाईन का रंग चढ़ रहा है

metrobluelineमेरे मित्र पवन चंदन ने आज सुबह वेलेंटाईन डे आने से पहले और रोज डे यानी गुलाब दिन जाने के बाद जो किस्‍सा सुनाया, उससे मेरे नथुने फड़कने लगे और तब मेरी समझ में समाया कि मेट्रो और ब्‍लूलाईन बसें भी हद दर्जे का दिमाग रखती हैं। वे शुरू हो गए। कहने लगे कि चार महीने पहले मेट्रो के दरवाजे ने सबसे पहले एक बंदी जोगिन्‍दर को धर दबोचा। वो बात दीगर है कि जिस रस्‍सी से दो बंदी बंधे हुए थे, वही पकड़ में आई और बाहर रह गये बंदी को मेट्रो ने खूब घसीटा जबकि तीन पुलिस वाले भी इन बंदियों के साथ मौका-ए-वारदात पर मौजूद थे, वे अपनी स्‍वाभाविक आदत के अनुसार मौजूद रहते हुए भी कुछ नहीं कर पाए। और जब वेलेंटाईन की खुमारियों में डूबने के लिए एक सप्‍ताह ही बचा है कि इसने अपने ही एक कर्मचारी सतेन्‍द्र को मौका देख दबोच लिया। सावधान हो जाएं वे सब जिनके नाम के आगे इन्‍द्र जुड़ा है। पहले जोगेन्‍द्र, अब सतेन्‍द्र तो अगली बार जितेन्‍द्र, वीरेन्‍द्र, नरेन्‍द्र जैसे किसी पर भी कयामत आ सकती है। अब मेट्रो के अधिकारी मेट्रो की नालायकी को छिपाने पर तुले हुए हैं, अंतुले की तरह। कभी बयान देते हैं कि मेट्रो ने सिर्फ ऊंगली ही पकड़ी, कभी कहते हैं कि कलाई ही जकड़ी। इससे जाहिर है कि अपने आकाओं से इसकी पूरी मिलीभगत है, मेट्रो चालक से भी, वो कान आंख बंद करके मेट्रो दौड़ाता रहता है। वो तो शुक्र मनाओ कि चालक अपनी जान की सलामती के लिए अगले स्‍टेशन पर कूद कर नहीं भाग गया, ब्‍लू लाईन बस के सतर्क चालक की तरह। मेट्रो पर तो बसों का असर आ रहा है, पर न जाने क्‍यूं ड्राईवर बचा जा रहा है। जरूर कोई विवशता रही होगी, ऐसे ही कोई वफादार नहीं होता। वो अपने अगले नियत स्‍टेशन पर ही रूका। अपने काम में कोताही उसे पसंद नहीं है। मेट्रो लेट नहीं होनी चाहिए, नहीं तो बस और मेट्रो में क्‍या अंतर रह जाएगा। बाद में अधिकारिक बयान आ जाता है कि सेंसर खराब हो गया था। अब तकनीक के उपर तो किसी का बस नहीं है, वैसे तकनीक से उपर तो मेट्रो भी नहीं है। इसलिए सेंसर फेल हो सकता है। केवल विद्यार्थी ही सदा फेल थोड़ी होते रहेंगे। मेट्रो की इस मिलीभगत की तारीफ करनी होगी। पुलिस और अपराधियों की मिलीभगत के बाद इसी का रिकार्ड बन रहा है।

बाद में एक ब्‍लू लाईन बस से मेट्रो ट्रेन की बातचीत भी उन्‍होंने सुनाई, जिससे हमारी आंखें और कान-नाक फैल फूल कर होली से पहले ही गुब्‍बारा हो गए। मेट्रो का कहना था कि हम पहले अपने कर्मचारियों को ही दबोचेंगी जिससे कोई हमारे उपर भाई भतीजावाद का आरोप न लगा सके। कर्मचारी कम ही होते हैं, वैसे कम नहीं होते हैं, पब्लिक की तुलना में कम होते हैं इसलिए उन्‍हें पहले दबोचना जरूरी है। हम भी दिमाग रखती हैं इसलिए पहले एक मुजरिम पर झपट्टा मारा और दूसरी बार अपने ही कर्मचारी को। अब हम दबोचने में एक्‍स्‍पर्ट हो गई हैं और जनता जनार्दन को गाहे बगाहे नित्‍यप्रति दबोच लिया करेंगी। हमें पता है कि एकाध को दबोचने के बाद भी फिर हमें पटरियों से उतारना इतना आसान न होगा जिस तरह अभी ब्‍लू लाईन बसों को तुरंत बंद नहीं किया जा सका है। उसी प्रकार हमें बंद करने या हटाने के लिए खूब गहराई से विमर्श करना होगा और विमर्श ही होता रहेगा पर हमें बंद नहीं किया जा सकेगा। मेट्रो की इस सोच का मैं कायल हो गया, जरूर ब्‍लू लाईन बस भी हो गई होगी। मैं क्‍या पूरी पब्लिक ही कायल हो गई है, इसी वजह से वो पूरी तरह कायम है। पब्लिक कायल बहुत जल्‍दी हो जाती है जिस प्रकार डीटीसी की बसों से पीडि़त हुई तो रेडलाईन की कायल हो गई, रेडलाईन ने हर समय लाल रंग बिखेरना शुरू कर दिया फिर भी चलाया तो उन्‍हीं बसों को गया। सिर्फ उनको रेडलाईन की जगह ब्‍लूलाईन का तमगा दे दिया जिससे अब वे मग भर भर कर सड़कों पर पब्लिक का रेड खून बहा रही हैं और धड़ल्‍ले से बहा रही हैं। किसी दिन न बहा पायें तो अगले दिन और जोर शोर से सक्रिय हो जाती हैं और बकाया हिसाब भी निपटा कर भी दम नहीं लेती हैं क्‍योंकि और अधिक दम ले लिया तो फिर सारी पब्लिक ही बेदम हो जाएगी। सारी पब्लिक को बेदम थोड़े ही करना है।

अविनाश वाचस्‍पति
साहित्‍यकार सदन, पहली मंजिल, 195 सन्‍त नगर, नई दिल्‍ली 110065 मोबाइल 09868166586 ईमेल avinashvachaspati@gmail.com

रुश्दी को नहीं भाया ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’

slumdogmillionaireविश्व प्रसिद्ध साहित्यकार सलमान रुश्दी ने ऑस्कर पुरस्कार जीतने वाली फिल्म ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ की खुले दिल से सराहना नहीं की है। उनका मानना है कि यह फिल्म एक असंभव सी प्रतीत होने वाली घटना पर आधारित है।

उन्होंने एक व्याख्यान के दौरान कहा है कि यह फिल्म एक अच्छे एहसास के ज्यादा कुछ नहीं हैं। रुश्दी ने कहा कि कैसे बच्चे एक बंदूक हासिल करने में सफल होते हैं, फिर अगले ही दृश्य में वहां से 1,000 किलोमीटर दूर स्थित ताजमहल के निकट दिखाई देते हैं।

हालांकि, यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने स्लमडाग मिलियनेयर की आलोचना की है। इससे पहले भी न्यूयार्क टाइम्स से बातचीत में था कि वे ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ के बहुत बड़े प्रशंसक नहीं हैं।

उस समय बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि फिल्म की कहानी वास्तविक नहीं मालूम पढ़ती है। क्योंकि, ऐसा संभव नहीं हो सकता। मैं जादूई यथार्थवाद के खिलाफ नहीं हूं। लेकिन, कुछ तो ऐसा दिखना चाहिए जो संभव मालूम पड़े।

अबू धाबी में मुस्लिम पृष्ठभूमि पर बनी हिंदी फिल्मों का समारोह आज से

film-festivalमध्यपूर्व के लोगों को अब मुस्लिम पृष्ठभूमि पर आधारित कालजयी बालीवुड फिल्में देखने का अवसर मिलेगा। वे अबू धाबी में आज से शुरू होने जा रहे मुस्लिम पृष्ठभूमि पर आधारित हिन्दी फिल्म समारोह में यह लुत्फ उठा पाएंगे।

इस फिल्म समारोह का आयोजन संयुक्त अरब अमीरात के अबू धाबी शहर में किया जा रहा है। समारोह के दौरान मिर्जा गालिब, मेरे महबूब, उमराव जान, जोधा-अकबर जैसी कई बेहतरीन फिल्मों का प्रदर्शन किया जाएगा।

इस समारोह का नाम ‘मुस्लिम कल्चर ऑफ बांबे सिनेमा’ दिया गया है। इस समारोह के माध्यम से 1930 के दशक से लेकर अबतक मुस्लिम संस्कृति के भारतीय फिल्म उद्योग पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में जानकारी दी जाएगी।

प्राप्त जानकारी के मुताबिक इस समारोह में गुरुदत्त की मशहूर फिल्म चौदहवीं का चांद’, समानान्तर सिनेमा के दौर में बनी ‘गरम हवा’ और ‘सलीम लंगड़े पर मत रो’ जैसी चर्चित फिल्में भी दिखाई जाएंगी।

डाक्यूमेंटरी तो बहस चाहती है – ब्रजेश झा

durdarshanसुरुचिपूर्ण कार्यक्रम के अभाव में शहराती जीवन जीने वाले लोग दूरदर्शन को कब का भुला चुके हैं। अब इनके बच्चे क्यों याद रखें ? इनके लिए तो बाजार ने बड़ा विकल्प छोड़ रखा है। कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी, जब ग्रामीन बच्चों के साथ हमलोग दूरदर्शन के चैनलों का नाम तक याद न रखें ! उसके बाद तो यह सरकारी दादागिरी के बूते ही रुपया कमा पाएगा।ऐसी परिस्थितियां अचानक नहीं बनती हैं। कई वजहें घुल-मिल कर नए माहौल पैदा करती हैं। ऐसे में यहां एक बड़ी वजह होगी, अच्छी डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्म का इन चैनलों पर नहीं दिखाया जाना। दूरदर्शन के प्रति अनायास उत्पन्न हुआ वर्षों पुराना राग कमोबेश अब भी बना हुआ है। पहले दूरदर्शन पर डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्मों के लिए समय सीमा तय की गई थी। इसे नियमित रूप से दिखलाया जाता था। लेकिन , अब ऐसी फिल्में दिखाना दूरदर्शन को रास नहीं आ रहा है। जबकि, अमेरिका और यूरोप में अब भी टीवी पर डाक्यूमेंटरी फिल्में दिखाई जाती हैं। भारत में चल रहे निजी चैनलों से हम इसकी उम्मीद नहीं करते हैं। उनका काम तो बस चर्चा करना भर रह गया है। अमरिका में दिखाई गई माइकल मूर की डाक्यूमेंटरी फारनहाईट 9 /11, की यहां के चैनलों पर खूब चर्चा हुई। लेकिन किसी भारतीय चैनलों ने इसकी सफलता से सबक लेना उचित नहीं समझा। यहां दूरदर्शन के पास डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्म के लिए कोई तय समय है भी या नहीं, यही आम लोगों को नहीं मालूम।
हमारे नए-पुराने फिल्मकार साल दर साल डाक्यूमेंटरी पर डाक्यूमेंटरी बनाते जा रहे हैं। पैसे की कमी, ऐसी फिल्मों के प्रदर्शन के लिए मंचों का अभाव और घटते दर्शक वर्ग के बावजूद लोग अब भी फिल्में बना रहे हैं। महत्वपूर्ण सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर बहस चला रहे हैं। वहां विचार-विमर्श को जीवित रखे हुए हैं। इनकी कोशिश बेकार न हो, इसके लिए जरूरी है कि दूरदर्शन पर ऐसी फिल्मों को दिखाने का एक समय तय हो। यदि यह मुमकिन नहीं है तो सैकड़ों फिल्मकारों की सृजनात्मकता का कोई मोल नहीं है। 

जबतक समाज अपनी समस्याओं का अध्ययन नहीं करेगा, तबतक उसका समाधान निकाल पाना मुश्किल है। इस अध्ययन में एसी फिल्में अपनी महती भूमिका निभा सकती है। उदाहरण के तौर पर- यदि सुहासिनी मुले और तपन बोस द्वारा बनाई गई डाक्यूमेंट्री ‘एन इंडियन स्टोरी ‘ को हम सभी देख चुके होते तो ‘गंगाजल ‘ फिल्म का यथार्थ हमारी समझ में स्वत : आ जाता। दरअसल, यह डाक्यूमेंट्री भागलपुर में कैदियों की आखें फोड़ देने की घटना पर आधारित है। स्थितियों को समझने में हम इसका फायदा उठा सकते थे।
खैर, इतने के बावजूद अब भी इक्का-दुक्का लोगों से उम्मीद है। देखें आगे हम कितना हदतोड़ी बन पाते हैं।

भारतीय टीम दुनिया में नंबर एक हैः एंडी मोल्स

indian_teamन्यूज़ीलैंड क्रिकेट टीम के कोच एंडी मोल्स और बल्लेबाज़ रॉस टेलर ने भारतीय क्रिकेट टीम को दुनिया की चोटी की टीम मानते हैं। इन दिनों धोनी के धुरंधर यानी भारतीय टीम न्यूज़ीलैंड के दौरे पर है। वहां टीम को दो ट्वेन्टी-20 मैच, पाँच एक दिवसीय और तीन टेस्ट मैच खेलने हैं।

पिछले कुछ समय से लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रही भारतीय टीम को एंडी मोल्स और रॉस ऑस्ट्रेलिया व दक्षिण अफ़्रीका की टीम से ऊँचा दर्जा देते हैं। मोल्स ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए वे मानते हैं कि भारतीय टीम दुनिया में नंबर एक पर है। भारत ने पिछले 18 महीनों में पूरी दुनिया में और अपनी धरती पर बेहतरीन खेल का प्रदर्शन किया है।

भारत ने ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ टेस्ट मैचों की श्रृंखला में उसे मात दी थी। इसके बाद इंग्लैंड को टेस्ट मैच व एक दिवसीय मैचों की श्रृंखला में हराया। श्रीलंका दौरे पर मेजबान टीम को वनडे श्रृंखला में 4-1 हराया।

हालांकि न्यूज़ीलैंड में गत 41 वर्षों में भारत को जीत नहीं मिली है। पिछले दौरे पर भारत को टेस्ट और एकदिवसीय दोनों ही श्रृंखला में हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन मोल्स का मानना है कि धोनी की टीम न्यूज़ीलैंड में अपने रिकॉर्ड को बेहतर कर सकती है।
मोल्स का मानना है कि भारत के पास कुछ अनुभवी खिलाड़ी है। न्यूजीलैंड टीम के बल्लेबाज टेलर का कहना है कि भारत ने आस्ट्रेलिया को हराया और श्रीलंका को एक बड़े अंतर से मात दी। फिलहाल टीम में कुछ ऐसे खिलाड़ी है जो लगातार अपना बेहतरीन प्रदर्शन करते रहे हैं।

कश्मीरी कालीन पर भी छाई मंदी

carpet1दुनिया भर में फैली आर्थिक मंदी का असर धीरे-धीरे भारत के कुटिर उद्योगों पर पड़ता दिख रहा है। कश्मीर के कालीन उद्योग पर दिख रहा मंदी का असर इसका प्रमाण है। दुनिया में छाई मंदी के बाद से यहां कालीन की बिक्री प्रभावित हुई है। जिससे इस उद्योग से जुड़े डेढ़ लाख से भी अधिक बुनकरों का भविष्य खतरे में है।

कालीन के व्यापार से जुड़े एक व्यापारी ने बताया कि गत वर्ष कालीन की कुल बिक्री पांच से छह अरब रुपये के बीच हुई थी। लेकिन, इस वर्ष डर है कि यह आकंड़ा दो अरब रुपये तक भी पहुंच पाएगा या नहीं। एक आंकड़े के मुताबिक घाटी में 30 हजार से भी अधिक कालीन बुनाई लुम्स हैं, जिसमें 150,000 से अधिक बुनकर जुड़े हैं।
इस उद्योग से जुड़े व्यापारियों के मुताबिक देश के विभिन्न शहरों में कश्मीरी कालीन के 300 से 400 शोरुम हैं, लेकिन आर्थिक मंदी का बिक्री पर बुरा असर पड़ा है। कालीन उद्योग से जुड़े व्यापारी सरकार से सहायता करने की मांग कर रहे हैं।

दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा… – ब्रजेश झा

slumdog416मजे की बात है कि स्लमडाग मिलिनेयर के संगीत व गीत के लिए ए. आर. रहमान को दो एकेडमी अवार्ड्स प्रदान किए गए। इससे हम हिन्दुस्तानी बड़े गदगद हैं। यह ठीक भी है। आखिर उन्हें भी समझ में आना चाहिए था कि यहां के संगीतकार भी ठोक-बजाकर काम करते हैं। यूं ही सिर का बाल बढ़ाकर रंग नहीं जमाते।

 

बहरहाल, मुंबई की झुग्गियों की जीवन-शैली पर बनी इस फिल्म ने लोस एंजल्स में खूब पुरस्कार बटोरे। एकबारगी ऐसा लगा कि गत 80-90 वर्षों के दौरान बालीवुड में जो बना वह तो कचरा ही रहा, जबकि डैनी बॉयल ने यहां की झुग्गियों में तफरीह कर जो देखा और बनाया मात्र वही बेहतरीन था।

 

लेकिन, मात्र एक उदाहरण इस धारणा को झुठलाने के लिए बहुत है। ठीक उसी तरह जैसे फिल्म इकबाल में इकबाल के लिए पांच मिनट ही काफी था। रहमान ने वर्ष 1992 में पहली बार बालीवुड में कदम रखा। उन्होंने फिल्म रोजा के

दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा…

चांद तारों को छू लेने की आशा

आसमानों में उड़ने की आशा।

जैसे बेहतरीन गीत को संगीतबद्ध किया। हालांकि रुचि और पसंद तो निजी है। पर व्यक्तिगत राय यही है कि ये गीत जय हो… से कहीं भी कमतर मालूम नहीं पड़ते। मामला कल्पना के नए दरवाजे खोलने का हो या फिर छोटे-छोटे शब्दों में बड़े-बड़े अर्थ घोलने का।

 

फिल्म रोजा आतंकवाद की मार झेल रहे राज्य (जम्मू कश्मीर) में आए एक आम आदमी की कहानी थी। तब अमेरकियों के वास्ते इस शब्द का कोई औचित्य नहीं था। तो भई काहे का अवार्ड! अब जब हालात बदलें हैं। तंगी छाई है तो बालीवुड याद आया है। यहां के आंचलिक संगीत उन्हें कर्णप्रिय लग रहे हैं। जब अपने रंग में थे साहब तो मदर इंडिया को नजरअंदाज करने में उन्हें जरा भी वक्त नहीं लगा था।

 

रही बात गुलजार साहब की तो भई, उनसा कोई दूसरा न हुआ, जो फिल्म निर्माण से लेकर त्रिवेणी लिखने तक समान पकड़ रखता हो। यकीन न हो तो देश-विदेश में नजर फिरा लें।

खैर, इसपर विस्तार से बात होगी।

शुक्रिया