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लुप्त होता हुनर – ब्रजेश झा

handloom-2भागलपुर शहर का एक खास इलाका है। नाम है चंपानगर। यहां कभी चंपानदी हुआ करती थी। और इसके पास बसे लोग बुनकर थे। मालूम नहीं कब यह नदी नाले का रूप पा गई। और ताज्जुब है, कहलाने भी लगी। दूसरी तरफ इसके आस-पास बसे लोग जो कभी बुनकर थे अब मजदूर हो गए हैं। यह बदलाव है जो साफ नजर आता है। हाल में भागलपुर का यही इलाका अखबारों-टीवी चैनलों पर छाया हुआ था। वजह इक चोर को रक्षस की तरह पीटना था। खैर, इस पर बात अलग से।


अरसा नहीं गुजरा जब भागलपुरी रेशम अपने समृद्धि के दौर में था। पारंपरिक ढंग से रेशमी वस्त्रा तैयार करने की वजह से इसकी अलग पहचान थी। लोग यहां के बुनकरों और रंगरेजों के हुनर की दाद दिया करते थे। तब सामाजिक-आर्थिक संरचनाएं भी ऐसी थीं कि कई बड़े-मझोले बुनकरों के बीच छोटे-मोटे बुनकरों का भी वजूद कायम था। पर, आज इलाके की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में घूमते वक्त बहुत कुछ सपनों सा मालूम पड़ता है। भूमंडलीकरण के दबाव और सरकारी उपेक्षा की वजह से भागलपुरी रेशम उद्योग की वर्तमान हालत बिल्कुल खस्ता है। बुजुर्ग बतलाते हैं, ‘यह मुमकिन नहीं लगता कि अब यहां की पुरानी रौनकें लौट आएं


यहां के हजारों बुनकर परिवार वर्षों से तसरऔर लिलनजैसे धागों से रेशमी कपड़ों की बुनाई करते आ रहे हैं। पहले तो इसकी ख्याति विदेशों तक थी। ढेरों कपड़ा यहां से निर्यात किया जाता था। पर, अब वह बात नहीं रही। रेशमी कपड़ा अब भी तैयार किया जाता है। लेकिन, कुछ असामयिक घटनाओं ने अनिश्चितताओं के ऐसे माहौल को जन्म दिया कि हजारों बुनकरों को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए पलायन करना पड़ा। फिलहाल इस उद्योग से कुछ लोग ही जुड़े रह गए हैं, जो अपने पुश्तैनी व्यवसाय को बचाने की कोशिश में लगे हैं। अंसारी साहब कहते हैं, ‘यहां रेशमी कारोबार से जुड़ी थोड़ी चीजें ही बाकी रह गई हैं। अब तो इस विरासती कारोबार की हिफाजत अपने बच्चों के लिए भी कर पाना मुश्किल हो गया है।

 

आजकल यहां आजाद भारत के बुनकरों की चौथी पीढ़ी अपनी शरुआती पढ़ाई को छोड़ इस काम में लग चुकी है। यह बाल मजदूरी की एक अलग दास्तान है। बाकी जो उम्रदराज लोग हैं, उनके मन में 1986 और 1989 में लगातार घटित दो विषाक्त घटनाओं की गहरी यादें जमी हुई हैं। जिसने रेशम उद्योग को जड़ तक हिला दिया है। अंसारी साहब मायूस होकर कहते हैं, ‘ये दो वाकयात ऐसे हुए जिसने शहर से लेकर देहात तक फैले बुनकरों-रंगरेजों को तबाह कर डाला। वरना, यह कारोबार थोड़ा आगा-पीछा के बावजूद कायदे से चल रहा होता।

 

यहां बिजली-बिल के करोड़ों रुपये बकाया राशि के भुगतान को लेकर सन् 1986 में काफी हंगामे हुए थे। प्रशासन द्वारा बुनकरों पर अप्रत्याशित ढंग से दबाव बनाए जाने से हालात बिगड़ गए। अंतत: क्रिया-प्रतिक्रया में दो बुनकर आशीष कुमार, जहांगीर अंसारी और भागलपुर के तत्कालीन डीएसपी मेहरा की हत्या हो गई। इसके बाद तो लगातार हंगामे होते रहे और रेशम उद्योग जलता रहा। इस घटना ने सलीका पंसद और मेहनती समझे जाने वाले बुनकरों की छवि को अचानक खराब कर दिया।
अत्यधिक ब्याज अदा करने को तैयार होने के बावजूद इन्हें सूद पर रुपये नहीं मिल पाते थे। दूसरी तरपफ डीएसपी मेहरा की हत्या से जुड़े मुकदमे में दर्जनों बुनकर केस लड़ते-लड़ते तबाह हो गए। आज उनमें देवदत्त वैद्य, एर्नामुल अंसारी जैसे कई बुनकर नेताओं की तो मृत्यु भी हो चुकी है। ठीक उसी वक्त इस उद्योग से जुड़कर बड़ों का हाथ बटा रही युवा पीढ़ी पर घटना का गहरा असर हुआ। वे लोग जीवन-यापन के लिए विकल्प तलाशने लगे। बिजली आपूर्ति और बकाया राशि को लेकर हंगामे तो खूब हुए, लेकिन स्थितियां अब तक ढाक के तीन पातवाली बनी हुई हैं। ऊपर से सरकारी सुविधाएं भी धीरे-धीरे बंद होती चली गईं। इन हालातों के बीच 1989 का जिले भर में फैला सांप्रदायिक दंगा-रेशम उद्योग को पूरी तरह उजाड़ गया। दूर-दराज वाले कई गांवों में तो यह उद्योग लुप्त ही हो गया।

 

यद्यपि यह राममंदिर आंदोलन से पूर्व बनते-बिगड़ते राजनैतिक और धार्मिक गठजोड़ का दुष्परिणाम था, जो धीरे-धीरे साफ होता गया। लेकिन, गाज भागलपुर रेशम उद्योग पर गिरी। तब रेशम उद्योग मात्रा 35-40 वर्ष पीछे लौट कर ही नहीं रह गया बल्कि, अपनी दिशा भी बदलने लगा। रेशम बाजार की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई। मोमीन बुनकर विकास संगठनसे जुड़े बुनकरों का कहना है कि दंगे के बाद बाहर से व्यापारियों का आना पूरी तरह बंद हो गया। जबकि ये लोग पहले हमारी देहरी तक आकर माल ले जाया करते थे। तब हमें बिचौलिए के झमेले में नहीं पड़ना होता था। पर अब हवा बदल गई है। यह सांप्रदायिक दंगा भागलपुर की स्मृति का ऐसा पक्ष है जो एक दु:स्वप्न की तरह बुनकरों का पीछा कर रहा है। कम अंतराल पर हुई इन दो घटनाओं से कई साधारण गरीब बुनकर घृणा, भय और आतंक का अनुभव करते हुए यहां से पलायन कर चुके हैं। आज वे लोग अपने व्यवसाय और जड़ों से उखड़कर देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी अधूरी पहचान के साथ जी रहे हैं। जबकि, भागलपुरी रेशम उद्योग पूरी ढलान पर है।

 

मशीनीकरण का भी इस लघु उद्योग पर प्रतिकूल असर पड़ा है। पहले एक हैंडलूम के सहारे चार-पांच सदस्यों वाले परिवार का भरण-पोषण बड़ी सहजता से हो जाता था। रेशमी धागों के गट्ठरों की धुलाई, लेहरी, टानी, बुनाई, रंगाई और छपाई तक की प्रक्रिया से जुड़े कामों में जुलाहे से लेकर रंगरेज तक व्यस्त रहते थे। लेकिन, नई अर्थनीति और पावरलूम की अंधी दौड़ ने गरीब बुनकरों की स्थिति को दयनीय बना दिया है। वे लोग हैंडलूम के बूते पावर लूम का विकल्प तैयार नहीं कर सकते और न ही बाजार में टिक सकते हैं। इसलिए बड़े लूम हाउसों में मजदूरी करना इन बुनकरों की नियति बन गई है। ऐसे रेशम उद्योग के बेहतर भविष्य की कल्पना कोई कैसे कर सकता है, जहां का बुनकर समाज गरीब होता जा रहा है और व्यापारी दिनों दिन अमीर। बिजली आपूर्ति की वर्तमान स्थिति इस फासले को और चौड़ा करने में लगी है।


पिछले कुछ दशकों से इस रेशम उद्योग में असामाजिक तत्वों का हस्तक्षेप भी बढ़ा है। ये लोग गैरकानूनी ढंग से इस व्यवसाय में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। बेशक, हम पारंपारिक टसरऔर लिलनके व्यापार को बिखरता पाते हों किन्तु, इसकी आड़ में रेशम धागे की कालाबाजारी का अपना संपन्न संसार है। ये लोग अपने स्वार्थ के वास्ते हमेशा दिमागी हरकत करते रहते हैं। इससे उद्योग की साख को बड़ा धाक्का पहुंचा है। न जाने कितने बुनकरों-व्यापारियों ने रंगदारी के भयवश पुरखों द्वारा प्रदत्त रेशम उद्योग से खुद को अलग कर लिया है। यहां किसी भी सरकारी संरक्षण के अभाव में कई छोटी-बड़ी मिलें बंद हो चुकी हैं। सिल्क स्पंस मिल-बहादुरपुरइन्हीं में से एक है। विदेशी कंपनियां फैल रही हैं वहीं देशी उद्योग लुप्त हो रहा है। सोचता हूं कि ऐसे में भागलपुर सिल्क उद्योगको लेकर क्या राय बन सकती है।

मेट्रो पर भी ब्‍लूलाईन का रंग चढ़ रहा है

metrobluelineमेरे मित्र पवन चंदन ने आज सुबह वेलेंटाईन डे आने से पहले और रोज डे यानी गुलाब दिन जाने के बाद जो किस्‍सा सुनाया, उससे मेरे नथुने फड़कने लगे और तब मेरी समझ में समाया कि मेट्रो और ब्‍लूलाईन बसें भी हद दर्जे का दिमाग रखती हैं। वे शुरू हो गए। कहने लगे कि चार महीने पहले मेट्रो के दरवाजे ने सबसे पहले एक बंदी जोगिन्‍दर को धर दबोचा। वो बात दीगर है कि जिस रस्‍सी से दो बंदी बंधे हुए थे, वही पकड़ में आई और बाहर रह गये बंदी को मेट्रो ने खूब घसीटा जबकि तीन पुलिस वाले भी इन बंदियों के साथ मौका-ए-वारदात पर मौजूद थे, वे अपनी स्‍वाभाविक आदत के अनुसार मौजूद रहते हुए भी कुछ नहीं कर पाए। और जब वेलेंटाईन की खुमारियों में डूबने के लिए एक सप्‍ताह ही बचा है कि इसने अपने ही एक कर्मचारी सतेन्‍द्र को मौका देख दबोच लिया। सावधान हो जाएं वे सब जिनके नाम के आगे इन्‍द्र जुड़ा है। पहले जोगेन्‍द्र, अब सतेन्‍द्र तो अगली बार जितेन्‍द्र, वीरेन्‍द्र, नरेन्‍द्र जैसे किसी पर भी कयामत आ सकती है। अब मेट्रो के अधिकारी मेट्रो की नालायकी को छिपाने पर तुले हुए हैं, अंतुले की तरह। कभी बयान देते हैं कि मेट्रो ने सिर्फ ऊंगली ही पकड़ी, कभी कहते हैं कि कलाई ही जकड़ी। इससे जाहिर है कि अपने आकाओं से इसकी पूरी मिलीभगत है, मेट्रो चालक से भी, वो कान आंख बंद करके मेट्रो दौड़ाता रहता है। वो तो शुक्र मनाओ कि चालक अपनी जान की सलामती के लिए अगले स्‍टेशन पर कूद कर नहीं भाग गया, ब्‍लू लाईन बस के सतर्क चालक की तरह। मेट्रो पर तो बसों का असर आ रहा है, पर न जाने क्‍यूं ड्राईवर बचा जा रहा है। जरूर कोई विवशता रही होगी, ऐसे ही कोई वफादार नहीं होता। वो अपने अगले नियत स्‍टेशन पर ही रूका। अपने काम में कोताही उसे पसंद नहीं है। मेट्रो लेट नहीं होनी चाहिए, नहीं तो बस और मेट्रो में क्‍या अंतर रह जाएगा। बाद में अधिकारिक बयान आ जाता है कि सेंसर खराब हो गया था। अब तकनीक के उपर तो किसी का बस नहीं है, वैसे तकनीक से उपर तो मेट्रो भी नहीं है। इसलिए सेंसर फेल हो सकता है। केवल विद्यार्थी ही सदा फेल थोड़ी होते रहेंगे। मेट्रो की इस मिलीभगत की तारीफ करनी होगी। पुलिस और अपराधियों की मिलीभगत के बाद इसी का रिकार्ड बन रहा है।

बाद में एक ब्‍लू लाईन बस से मेट्रो ट्रेन की बातचीत भी उन्‍होंने सुनाई, जिससे हमारी आंखें और कान-नाक फैल फूल कर होली से पहले ही गुब्‍बारा हो गए। मेट्रो का कहना था कि हम पहले अपने कर्मचारियों को ही दबोचेंगी जिससे कोई हमारे उपर भाई भतीजावाद का आरोप न लगा सके। कर्मचारी कम ही होते हैं, वैसे कम नहीं होते हैं, पब्लिक की तुलना में कम होते हैं इसलिए उन्‍हें पहले दबोचना जरूरी है। हम भी दिमाग रखती हैं इसलिए पहले एक मुजरिम पर झपट्टा मारा और दूसरी बार अपने ही कर्मचारी को। अब हम दबोचने में एक्‍स्‍पर्ट हो गई हैं और जनता जनार्दन को गाहे बगाहे नित्‍यप्रति दबोच लिया करेंगी। हमें पता है कि एकाध को दबोचने के बाद भी फिर हमें पटरियों से उतारना इतना आसान न होगा जिस तरह अभी ब्‍लू लाईन बसों को तुरंत बंद नहीं किया जा सका है। उसी प्रकार हमें बंद करने या हटाने के लिए खूब गहराई से विमर्श करना होगा और विमर्श ही होता रहेगा पर हमें बंद नहीं किया जा सकेगा। मेट्रो की इस सोच का मैं कायल हो गया, जरूर ब्‍लू लाईन बस भी हो गई होगी। मैं क्‍या पूरी पब्लिक ही कायल हो गई है, इसी वजह से वो पूरी तरह कायम है। पब्लिक कायल बहुत जल्‍दी हो जाती है जिस प्रकार डीटीसी की बसों से पीडि़त हुई तो रेडलाईन की कायल हो गई, रेडलाईन ने हर समय लाल रंग बिखेरना शुरू कर दिया फिर भी चलाया तो उन्‍हीं बसों को गया। सिर्फ उनको रेडलाईन की जगह ब्‍लूलाईन का तमगा दे दिया जिससे अब वे मग भर भर कर सड़कों पर पब्लिक का रेड खून बहा रही हैं और धड़ल्‍ले से बहा रही हैं। किसी दिन न बहा पायें तो अगले दिन और जोर शोर से सक्रिय हो जाती हैं और बकाया हिसाब भी निपटा कर भी दम नहीं लेती हैं क्‍योंकि और अधिक दम ले लिया तो फिर सारी पब्लिक ही बेदम हो जाएगी। सारी पब्लिक को बेदम थोड़े ही करना है।

अविनाश वाचस्‍पति
साहित्‍यकार सदन, पहली मंजिल, 195 सन्‍त नगर, नई दिल्‍ली 110065 मोबाइल 09868166586 ईमेल avinashvachaspati@gmail.com

रुश्दी को नहीं भाया ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’

slumdogmillionaireविश्व प्रसिद्ध साहित्यकार सलमान रुश्दी ने ऑस्कर पुरस्कार जीतने वाली फिल्म ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ की खुले दिल से सराहना नहीं की है। उनका मानना है कि यह फिल्म एक असंभव सी प्रतीत होने वाली घटना पर आधारित है।

उन्होंने एक व्याख्यान के दौरान कहा है कि यह फिल्म एक अच्छे एहसास के ज्यादा कुछ नहीं हैं। रुश्दी ने कहा कि कैसे बच्चे एक बंदूक हासिल करने में सफल होते हैं, फिर अगले ही दृश्य में वहां से 1,000 किलोमीटर दूर स्थित ताजमहल के निकट दिखाई देते हैं।

हालांकि, यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने स्लमडाग मिलियनेयर की आलोचना की है। इससे पहले भी न्यूयार्क टाइम्स से बातचीत में था कि वे ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ के बहुत बड़े प्रशंसक नहीं हैं।

उस समय बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि फिल्म की कहानी वास्तविक नहीं मालूम पढ़ती है। क्योंकि, ऐसा संभव नहीं हो सकता। मैं जादूई यथार्थवाद के खिलाफ नहीं हूं। लेकिन, कुछ तो ऐसा दिखना चाहिए जो संभव मालूम पड़े।

अबू धाबी में मुस्लिम पृष्ठभूमि पर बनी हिंदी फिल्मों का समारोह आज से

film-festivalमध्यपूर्व के लोगों को अब मुस्लिम पृष्ठभूमि पर आधारित कालजयी बालीवुड फिल्में देखने का अवसर मिलेगा। वे अबू धाबी में आज से शुरू होने जा रहे मुस्लिम पृष्ठभूमि पर आधारित हिन्दी फिल्म समारोह में यह लुत्फ उठा पाएंगे।

इस फिल्म समारोह का आयोजन संयुक्त अरब अमीरात के अबू धाबी शहर में किया जा रहा है। समारोह के दौरान मिर्जा गालिब, मेरे महबूब, उमराव जान, जोधा-अकबर जैसी कई बेहतरीन फिल्मों का प्रदर्शन किया जाएगा।

इस समारोह का नाम ‘मुस्लिम कल्चर ऑफ बांबे सिनेमा’ दिया गया है। इस समारोह के माध्यम से 1930 के दशक से लेकर अबतक मुस्लिम संस्कृति के भारतीय फिल्म उद्योग पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में जानकारी दी जाएगी।

प्राप्त जानकारी के मुताबिक इस समारोह में गुरुदत्त की मशहूर फिल्म चौदहवीं का चांद’, समानान्तर सिनेमा के दौर में बनी ‘गरम हवा’ और ‘सलीम लंगड़े पर मत रो’ जैसी चर्चित फिल्में भी दिखाई जाएंगी।

डाक्यूमेंटरी तो बहस चाहती है – ब्रजेश झा

durdarshanसुरुचिपूर्ण कार्यक्रम के अभाव में शहराती जीवन जीने वाले लोग दूरदर्शन को कब का भुला चुके हैं। अब इनके बच्चे क्यों याद रखें ? इनके लिए तो बाजार ने बड़ा विकल्प छोड़ रखा है। कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी, जब ग्रामीन बच्चों के साथ हमलोग दूरदर्शन के चैनलों का नाम तक याद न रखें ! उसके बाद तो यह सरकारी दादागिरी के बूते ही रुपया कमा पाएगा।ऐसी परिस्थितियां अचानक नहीं बनती हैं। कई वजहें घुल-मिल कर नए माहौल पैदा करती हैं। ऐसे में यहां एक बड़ी वजह होगी, अच्छी डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्म का इन चैनलों पर नहीं दिखाया जाना। दूरदर्शन के प्रति अनायास उत्पन्न हुआ वर्षों पुराना राग कमोबेश अब भी बना हुआ है। पहले दूरदर्शन पर डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्मों के लिए समय सीमा तय की गई थी। इसे नियमित रूप से दिखलाया जाता था। लेकिन , अब ऐसी फिल्में दिखाना दूरदर्शन को रास नहीं आ रहा है। जबकि, अमेरिका और यूरोप में अब भी टीवी पर डाक्यूमेंटरी फिल्में दिखाई जाती हैं। भारत में चल रहे निजी चैनलों से हम इसकी उम्मीद नहीं करते हैं। उनका काम तो बस चर्चा करना भर रह गया है। अमरिका में दिखाई गई माइकल मूर की डाक्यूमेंटरी फारनहाईट 9 /11, की यहां के चैनलों पर खूब चर्चा हुई। लेकिन किसी भारतीय चैनलों ने इसकी सफलता से सबक लेना उचित नहीं समझा। यहां दूरदर्शन के पास डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्म के लिए कोई तय समय है भी या नहीं, यही आम लोगों को नहीं मालूम।
हमारे नए-पुराने फिल्मकार साल दर साल डाक्यूमेंटरी पर डाक्यूमेंटरी बनाते जा रहे हैं। पैसे की कमी, ऐसी फिल्मों के प्रदर्शन के लिए मंचों का अभाव और घटते दर्शक वर्ग के बावजूद लोग अब भी फिल्में बना रहे हैं। महत्वपूर्ण सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर बहस चला रहे हैं। वहां विचार-विमर्श को जीवित रखे हुए हैं। इनकी कोशिश बेकार न हो, इसके लिए जरूरी है कि दूरदर्शन पर ऐसी फिल्मों को दिखाने का एक समय तय हो। यदि यह मुमकिन नहीं है तो सैकड़ों फिल्मकारों की सृजनात्मकता का कोई मोल नहीं है। 

जबतक समाज अपनी समस्याओं का अध्ययन नहीं करेगा, तबतक उसका समाधान निकाल पाना मुश्किल है। इस अध्ययन में एसी फिल्में अपनी महती भूमिका निभा सकती है। उदाहरण के तौर पर- यदि सुहासिनी मुले और तपन बोस द्वारा बनाई गई डाक्यूमेंट्री ‘एन इंडियन स्टोरी ‘ को हम सभी देख चुके होते तो ‘गंगाजल ‘ फिल्म का यथार्थ हमारी समझ में स्वत : आ जाता। दरअसल, यह डाक्यूमेंट्री भागलपुर में कैदियों की आखें फोड़ देने की घटना पर आधारित है। स्थितियों को समझने में हम इसका फायदा उठा सकते थे।
खैर, इतने के बावजूद अब भी इक्का-दुक्का लोगों से उम्मीद है। देखें आगे हम कितना हदतोड़ी बन पाते हैं।

भारतीय टीम दुनिया में नंबर एक हैः एंडी मोल्स

indian_teamन्यूज़ीलैंड क्रिकेट टीम के कोच एंडी मोल्स और बल्लेबाज़ रॉस टेलर ने भारतीय क्रिकेट टीम को दुनिया की चोटी की टीम मानते हैं। इन दिनों धोनी के धुरंधर यानी भारतीय टीम न्यूज़ीलैंड के दौरे पर है। वहां टीम को दो ट्वेन्टी-20 मैच, पाँच एक दिवसीय और तीन टेस्ट मैच खेलने हैं।

पिछले कुछ समय से लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रही भारतीय टीम को एंडी मोल्स और रॉस ऑस्ट्रेलिया व दक्षिण अफ़्रीका की टीम से ऊँचा दर्जा देते हैं। मोल्स ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए वे मानते हैं कि भारतीय टीम दुनिया में नंबर एक पर है। भारत ने पिछले 18 महीनों में पूरी दुनिया में और अपनी धरती पर बेहतरीन खेल का प्रदर्शन किया है।

भारत ने ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ टेस्ट मैचों की श्रृंखला में उसे मात दी थी। इसके बाद इंग्लैंड को टेस्ट मैच व एक दिवसीय मैचों की श्रृंखला में हराया। श्रीलंका दौरे पर मेजबान टीम को वनडे श्रृंखला में 4-1 हराया।

हालांकि न्यूज़ीलैंड में गत 41 वर्षों में भारत को जीत नहीं मिली है। पिछले दौरे पर भारत को टेस्ट और एकदिवसीय दोनों ही श्रृंखला में हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन मोल्स का मानना है कि धोनी की टीम न्यूज़ीलैंड में अपने रिकॉर्ड को बेहतर कर सकती है।
मोल्स का मानना है कि भारत के पास कुछ अनुभवी खिलाड़ी है। न्यूजीलैंड टीम के बल्लेबाज टेलर का कहना है कि भारत ने आस्ट्रेलिया को हराया और श्रीलंका को एक बड़े अंतर से मात दी। फिलहाल टीम में कुछ ऐसे खिलाड़ी है जो लगातार अपना बेहतरीन प्रदर्शन करते रहे हैं।

कश्मीरी कालीन पर भी छाई मंदी

carpet1दुनिया भर में फैली आर्थिक मंदी का असर धीरे-धीरे भारत के कुटिर उद्योगों पर पड़ता दिख रहा है। कश्मीर के कालीन उद्योग पर दिख रहा मंदी का असर इसका प्रमाण है। दुनिया में छाई मंदी के बाद से यहां कालीन की बिक्री प्रभावित हुई है। जिससे इस उद्योग से जुड़े डेढ़ लाख से भी अधिक बुनकरों का भविष्य खतरे में है।

कालीन के व्यापार से जुड़े एक व्यापारी ने बताया कि गत वर्ष कालीन की कुल बिक्री पांच से छह अरब रुपये के बीच हुई थी। लेकिन, इस वर्ष डर है कि यह आकंड़ा दो अरब रुपये तक भी पहुंच पाएगा या नहीं। एक आंकड़े के मुताबिक घाटी में 30 हजार से भी अधिक कालीन बुनाई लुम्स हैं, जिसमें 150,000 से अधिक बुनकर जुड़े हैं।
इस उद्योग से जुड़े व्यापारियों के मुताबिक देश के विभिन्न शहरों में कश्मीरी कालीन के 300 से 400 शोरुम हैं, लेकिन आर्थिक मंदी का बिक्री पर बुरा असर पड़ा है। कालीन उद्योग से जुड़े व्यापारी सरकार से सहायता करने की मांग कर रहे हैं।

दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा… – ब्रजेश झा

slumdog416मजे की बात है कि स्लमडाग मिलिनेयर के संगीत व गीत के लिए ए. आर. रहमान को दो एकेडमी अवार्ड्स प्रदान किए गए। इससे हम हिन्दुस्तानी बड़े गदगद हैं। यह ठीक भी है। आखिर उन्हें भी समझ में आना चाहिए था कि यहां के संगीतकार भी ठोक-बजाकर काम करते हैं। यूं ही सिर का बाल बढ़ाकर रंग नहीं जमाते।

 

बहरहाल, मुंबई की झुग्गियों की जीवन-शैली पर बनी इस फिल्म ने लोस एंजल्स में खूब पुरस्कार बटोरे। एकबारगी ऐसा लगा कि गत 80-90 वर्षों के दौरान बालीवुड में जो बना वह तो कचरा ही रहा, जबकि डैनी बॉयल ने यहां की झुग्गियों में तफरीह कर जो देखा और बनाया मात्र वही बेहतरीन था।

 

लेकिन, मात्र एक उदाहरण इस धारणा को झुठलाने के लिए बहुत है। ठीक उसी तरह जैसे फिल्म इकबाल में इकबाल के लिए पांच मिनट ही काफी था। रहमान ने वर्ष 1992 में पहली बार बालीवुड में कदम रखा। उन्होंने फिल्म रोजा के

दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा…

चांद तारों को छू लेने की आशा

आसमानों में उड़ने की आशा।

जैसे बेहतरीन गीत को संगीतबद्ध किया। हालांकि रुचि और पसंद तो निजी है। पर व्यक्तिगत राय यही है कि ये गीत जय हो… से कहीं भी कमतर मालूम नहीं पड़ते। मामला कल्पना के नए दरवाजे खोलने का हो या फिर छोटे-छोटे शब्दों में बड़े-बड़े अर्थ घोलने का।

 

फिल्म रोजा आतंकवाद की मार झेल रहे राज्य (जम्मू कश्मीर) में आए एक आम आदमी की कहानी थी। तब अमेरकियों के वास्ते इस शब्द का कोई औचित्य नहीं था। तो भई काहे का अवार्ड! अब जब हालात बदलें हैं। तंगी छाई है तो बालीवुड याद आया है। यहां के आंचलिक संगीत उन्हें कर्णप्रिय लग रहे हैं। जब अपने रंग में थे साहब तो मदर इंडिया को नजरअंदाज करने में उन्हें जरा भी वक्त नहीं लगा था।

 

रही बात गुलजार साहब की तो भई, उनसा कोई दूसरा न हुआ, जो फिल्म निर्माण से लेकर त्रिवेणी लिखने तक समान पकड़ रखता हो। यकीन न हो तो देश-विदेश में नजर फिरा लें।

खैर, इसपर विस्तार से बात होगी।

शुक्रिया

शिक्षा का गोरखधंधा – हिमांशु शेखर

iim_indoreदेश में शिक्षा के क्षेत्र में चल रहे गोरखधंधे को जानना और समझना हो तो इस दृष्टि से इंदौर के इंस्टीटयूट आफ मैनेजमेंट स्टडीज यानी आईएमएस के एमबीए ई-कामर्स के किसी विद्यार्थी से बातचीत की जा सकती है। वैसे तो यह संस्थान देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के अंतर्गत आता है और इसकी ख्याति मध्य प्रदेश के अलावा देश भर में फैली हुई है। पर यहां छात्रों को उच्च शिक्षा के नाम पर जिस तरह बरगलाया जा रहा है, उससे उभरने वाले सवालों को समझने की जरूरत है। क्योंकि यह एक ऐसा मामला है जिससे देश के कई शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थी जूझ रहे हैं। सही मायने में कहा जाए तो यह पूरी शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त अराजकता का एक नमूना है।इस संस्थान के कुछ विद्यार्थी हाल ही में दिल्ली आए थे। वे अपने संस्थान में व्याप्त अनियमितता के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। पर उनके मन के अंदर बैठे भय और संस्थान के प्रशासन का खौफ ऐसा है कि वे सूचना के अधिकार के तहत जानकारी भी मांग रहे हैं तो किसी दूसरे व्यक्ति के जरिए और जब वे किसी पत्रकार से बात भी कर रहे तो हैं तो अपनी पहचान छुपाए रखने के शर्त पर। इस संस्थान में सेंटर फार ई-बिजनेस की स्थापना 2000 के दिसंबर में हुई थी। जिसके तहत मास्टर आफ ई-कामर्स कोर्स की शुरूआत हुई थी। इसमें दो तरह से प्रवेश दिया जाता था। एक पांच साल का इंटीग्रेटेड कोर्स था। जिसमें बारहवीं के बाद दाखिला दिया जाता था। वहीं स्नातक के बाद भी सीधे दो साल के मास्टर आफ ई-कामर्स में दाखिला मिलता था। अभी भी दाखिला के लिए ये दोनों रास्ते अपनाए जाते हैं लेकिन अब कोर्स का नाम बदल गया है। अब इस कोर्स का नाम हो गया है एमबीए इन ई-काॅमर्स।

जब मास्टर आफ ई-कामर्स कोर्स शुरु हुआ था तो इसे जमकर प्रचारित किया गया था और इसके प्रति छात्रों में भी एक खास तरह का आकर्षण था। संस्थान के द्वारा जारी प्रोस्पेक्टस में जो जानकारी दी गई है, अगर उसे सही माना जाए तो इस कोर्स के लिए संस्थान ने अमेरिका के ईस्टर्न मिशीगन विश्वविद्यालय के साथ एक समझौता किया था। जिसके तहत इस कोर्स के विद्यार्थियों को कई तरह की सुविधाएं मिलनी थी। पर यह सब थोड़े ही दिनों में छलावा साबित हुआ। नामांकन के वक्त जो प्रोस्पेक्टस दिया गया था उसमें साफ लिखा हुआ है कि संस्थान छात्रों को प्लेसमेंट में सहयोग करेगी और व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए इंटर्नशिप की व्यवस्था भी करेगी। यह भी कहा गया था कि प्लेसमेंट के काम में पारदर्शिता के लिए हर साल संस्थान प्लेसमेंट बुलेटिन प्रकाशित किया जाएगा। पर वहां के छात्र बताते हैं कि ये सारे दावे खोखले साबित हुए और अब उनकी हालत बद से बदतर होती जा रही है।

एक छात्र ने बताया कि पहले तो इस कोर्स का नाम बदलकर मास्टर आॅफ ई-काॅमर्स से बदलकर 2006-07 में एमबीए इन ई-काॅमर्स कर दिया गया। जबकि नाम बदलने के बाद कोर्स में कोई बदलाव नहीं किया गया। पहले जो पढ़ाया जाता था वही कोर्स का नाम बदलने के बाद भी पढ़ाया जाता रहा। अब यहां सवाल ये उठता है कि जब पाठयक्रम वही रहना था तो फिर नाम क्यों बदला गया? संस्थान का प्रशासन इस बाबत कहता है कि ऐसा बाजार की जरूरतों को देखते हुए किया गया था। अगर संस्थान के इस तर्क को सही माना जाए तो कायदे से छात्रों का प्लेसमेंट होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ और बड़े अरमान के साथ इस कोर्स में दाखिला लेने वाले छात्रों को दर-दर की ठोकर खानी पड़ रही है।
संस्थान में व्याप्त अराजकता और शिक्षा के नाम पर मची लूट का अंदाजा सहज ही इस बात से लगाया जा सकता है कि प्लेसमेंट नहीं करवाए जाने के बावजूद संस्थान की ओर से हर साल इस कोर्स के छात्रों से दो हजार रुपए वसूले जाते हैं। सूचना के अधिकार के तहत जब छात्रों ने किसी और के जरिए जानकारियां मंगाई तो उससे मिली जानकारी संस्थान के दावों की पोल खोलती हुई नजर आती है। एक तरफ संस्थान की ओर से जारी प्रोस्पेक्टस में कहा गया है कि व्यावहारिक प्रशिक्षण की व्यवस्था में संस्थान की ओर से मदद की जाएगी। पर संस्थान के जनसंपर्क अधिकारी की ओर से लिखित सूचना में बताया गया कि सामान्यतः छात्र खुद ही इसकी व्यवस्था करते हैं। यह बात संस्थान के दोहरे चरित्र को उजागर करती है। साथ ही इसे अपनी जवाबदेही से बचने वाले कुतर्क के तौर पर भी लिया जाना चाहिए। प्लेसमेंट की बाबत भी लिखित तौर पर यह बताया गया कि कोर्स की शुरुआत से लेकर अब तक दो दर्जन से ज्यादा कंपनियां प्लेसमेंट के लिए आई हैं। जबकि छात्रों की मानें तो कभी भी इस कोर्स के छात्रों के प्लेसमेंट के लिए कोई कंपनियां आईं ही नहीं। छात्रों ने ही बताया कि जब-जब उन लोगों ने संस्थान में प्लेसमेंट की मांग को उठाया तो कहा गया कि इस कोर्स के विद्यार्थी अभी प्लेसमेंट में बैठने के काबिल नहीं है।

दरअसल, यह अकेला मामला नहीं है बल्कि देश के कई विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थाओं में शिक्षा के नाम पर इस तरह का गोरखधंधा चल रहा है। इसमें निजी शिक्षण संस्थान और सरकारी शिक्षण संस्थानों में कोई खास फर्क नहीं है। निजी क्षेत्र के ज्यादातर शैक्षणिक संस्थान का तो अहम मकसद ही ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है। यहां जिस संस्थान की बात की जा रही है उसने तो प्लेसमेंट में सहयोग की बात कही थी लेकिन निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थान तो बाकायदा प्लेसमेंट की गारंटी देते हैं। ऐसे संस्थान इसी वायदे के बल पर छात्रों से फीस के नाम पर मोटी रकम वसूलने में कामयाब हो जाते हैं। बेरोजगारों के इस देश में ज्यादातर परिवार नौकरी मिलने का आश्वासन पाते ही अपनी गाढ़ी कमाई खर्च करने में नहीं हिचकिचाते। दाखिला लेते ही छात्र उनके चंगुल में फंस जाता है और संस्थान के द्वारा प्लेसमेंट नहीं देने के बावजूद वह कुछ नहीं कर पाता है।
इस तरह की घटनाओं को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। क्योंकि इन समस्याओं से पार पाए बगैर यहां की शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर नहीं लाया जा सकता। एक तरफ तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय का सपना देखते हैं वहीं दूसरी तरफ वित्त मंत्री का काम संभाल रहे प्रणब मुखर्जी अपने बजट भाषण में मौजूदा सरकार द्वारा शिक्षा के लिए किए गए वित्तिय प्रावधानों का उल्लेख करते हुए नहीं अघाते। पर जमीनी हालात से अनजान रहकर अगर ये घोषणाएं होंगी तो इसका सकारात्मक परिणाम तो आने से रहा।

हिमांशु शेखर

प्रेम कुमार धूमल ने पंचायती राज प्रशिक्षण संस्थान की नींव रखी

prem_kumar_dhumalहिमाचल प्रदेश में पंचायती राज कायम करने की प्रक्रिया तेजी से चल रही है। मुख्यमंत्री प्रो. प्रेम कुमार धूमल ने इस बाबत कांगड़ा जिले के बैजनाथ में 4.38 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से निर्मित होने वाले पंचायती राज प्रशिक्षण संस्थान की आधारशिला रखी।

इस दौरान मुख्यमंत्री ने कहा कि वर्ष 2010 में निर्धारित पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण के लाभ मिलेंगे। प्रदेश सरकार ग्राम पंचायतों को साधन सृजन के लिए 10 करोड़ रुपये प्रदान करेगी। साथ ही विभिन्न अन्य प्रोत्साहनों के साथ-साथ पंचायती राज संस्थाओं के प्रतिनिधियों के मानदेय में 21 प्रतिशत की वृद्घि की गयी है।

उन्होंने कहा कि पंचायती राज संस्थाओं के प्रतिनिधियों को राज्य सरकार की शर्तों के मुताबिक दैनिक भत्ता, यात्रा भत्ता और विश्रामगृह में ठहरने की सुविधा प्रदान की जाएगी। इसके लिए 50 लाख रुपये का प्रावधान किया गया है। प्रदेश भर में नए पंचायत भवनों के निर्माण पर करीब 12 करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं। पंचायत चौकीदारों के मानदेय में भी वृद्धि की गयी है।

प्रो. धूमल ने कहा कि सरकार आठ वर्ष के नियमित सेवाकाल पूरा करने वाले पंचायत सहायकों को पंचायत सचिव नियुक्त करने पर इन दिनों विचार कर रही है।

साथ ही उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार के गत एक वर्ष के निर्णयों से समाज का प्रत्येक वर्ग लाभान्वित हुआ है। समाज के किसी भी वर्ग को अपने अधिकार व मांगें मनवाने के लिए आंदोलन करने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। बैजनाथ पंचायती राज प्रशिक्षण संस्थान कांगड़ा जिले में अपनी तरह का पहला संस्थान होगा तथा प्रशिक्षुओं को विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए शिमला जाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। उन्होंने कहा कि इस संस्थान को वर्ष 2010 तक पूरा करने के प्रयास किए जाएंगे।

रक्षा बजट का सच – हिमांशु शेखर

raksha-budgetयूपीए सरकार की ओर से अंतरिम बजट पेश करते हुए वित्त मंत्रालय का काम संभाल रहे प्रणब मुखर्जी ने यह घोषणा किया कि सरकार ने इस साल के रक्षा बजट में पैंतीस फीसद की बढ़ोतरी की है। प्रणब मुखर्जी ने अपने बजट भाषण में कहा कि इस साल रक्षा के मद में 1,41,703 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। जबकि पिछले साल यह रकम एक लाख छप्पन हजार करोड़ थी। दादा ने सरकार के इस फैसले को सही ठहराते हुए अपने बजटिया भाषण में कहा कि रक्षा बजट बढ़ाने का फैसला देश की मौजूदा सुरक्षा हालात को देखते हुए लिया गया है। उन्होंने कहा कि देश कठिन समय से गुजर रहा है और मुंबई हमलों ने सीमा पार के आतंकवाद को पूरी तरह से नया आयाम दे दिया है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने यह ऐलान किया कि इस साल रक्षा क्षेत्र के लिए बढ़ा हुआ योजना खर्च 86,879 करोड़ रुपए होगा। जबकि पिछले साल यह रकम 73,600 करोड़ रुपए थी।
दरअसल, रक्षा बजट के बढ़ाए जाने के असली कारणों पर गंभीरता से विचार करना जरूरी है। रक्षा बजट के बढ़ाए जाने को अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार से जोड़ कर देखने की जरूरत है। जब अमेरिका के साथ परमाणु करार को आगे बढ़ाया जा रहा था तो उस वक्त अमेरिका में हथियारों के उत्पादन से जुड़ी लाॅबी इस करार को अमली जामा पहनवाने में लगी हुई थी। उल्लेखनीय है कि अमेरिका में हथियार उत्पादन का उद्योग बहुत बड़ा है। वहां का यह उद्योग इतना बड़ा हो गया है कि इसे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए नए-नए बाजार चाहिए। वहां का रक्षा उद्योग वहां के चुनावों में सियासी दलों को भी काफी मोटा चंदा देता है। पिछले साल दुनिया भर में गहराई आर्थिक मंदी से दुनिया का शायद ही कोई उद्योग बचा हो। आर्थिक मंदी की मार से वहां का यह उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुआ है और उसका संकट और भी गहरा गया है। इसलिए इस उद्योग को नए बाजार की तलाश थी और भारत में यह संभावना उसे सबसे ज्यादा दिख रही थी। सारी दुनिया जानती है कि हथियार और पुनर्निर्माण का खेल अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापार है। इसके लिए वह अमेरिका ऐसी परिस्थितियां तैयार करता है कि उसके रक्षा उद्योग के उत्पादों की खपत बढ़े।
बहरहाल, परमाणु करार की प्रक्रिया जब आगे बढ़ रही थी तो उस वक्त अमेरिका के पूर्व रक्षा सचिव विलियम कोहेन ने जो बयान दिया था उससे रक्षा के खेल को आसानी से समझा जा सकता है। उन्होंने कहा था कि अमेरिकी रक्षा उद्योग ने कांग्रेस के कानून निर्माताओं के भारत को परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता दिलाने के लिए यानी परमाणु करार कराने के लिए लाॅबिंग की है। अब इस उद्योग को मालदार ठके चाहिए। उन्होंने जब यह बयान दिया तो उस वक्त तक रक्षा ठेका पाने के लिए लाॅकहीड मार्टिन, बोईंग, राथेयन, नार्थरोप ग्रुमन और हानीवेल जैसी पचास से ज्यादा कंपनियां रक्षा ठेका पाने के लिए भारत में अपना कार्यालय चलाने लगी थीं। अमेरिकी रक्षा उद्योग की कोशिशें रंग लाईं और करार हो गया। इसके बाद इस साल के शुरुआत में ही भारत और अमेरिका के बीच अब तक का सबसे बड़ा रक्षा समझौता हुआ।
जनवरी के पहले सप्ताह में ही भारत में अमेरिका के साथ पचासी सौ करोड़ रुपए के रक्षा समझौते पर दस्तखत किया। इसके तहत भारत आठ बोईंग पी-81 खरीद रहा है। समझौते के तहत भारत को पहला पी-81 2012 के अंत तक या फिर 2013 के शुरूआत में मिलेगा और इस आपूर्ति को 2015-16 तक पूरा कर दिया जाएगा। इस समझौते को अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार में दोनों पक्षों के बीच सहमति का ही विस्तार माना जाना चाहिए। संभव है इस साल भी अमेरिका के साथ कुछ बड़े रक्षा सौदे देखने को मिल जाएं। क्योंकि आखिरकार रक्षा बजट बढ़ाकर तो यह सरकार अमेरिका से किया गया अपना वायदा ही निभा रही है। यह बात अलग है कि यह सब सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाने की आड़ में हो रहा है।
रक्षा के मोर्चे पर बढे़ बजट को लेकर भी प्रणब दादा जो दावे कर रहे हैं, वे खोखले नजर आते हंै। कार्यवाहक वित्त मंत्री ने बदहाल सुरक्षा व्यवस्था को आधार बनाकर रक्षा बजट बढ़ाने का सही ठहराने की कोशिश की है। पहली बात तो यह कि अगर वे मानते हैं कि देश की सुरक्षा व्यवस्था बदहाल बनी हुई है तो इस बदहाली की जिम्मेवारी भी उनकी ही सरकार के माथे जाता है। पिछले पांच साल से देश पर राज करने के बावजूद अभी भी वे सुरक्षा व्यवस्था की बदहाली का रोना रो रहे हैं तो इसे उनके द्वारा जनता को भरमाने वाला एक शातिर चाल ही कहा जा सकता है।

हिमांशु शेखर
09891323387

ये हंगामा है क्यों बरपा … – आशीष कुमार ‘अंशु’

mangalore_attackआज से छह महीने पहले लोग जिस श्रीराम सेना को जानते भी नहीं थे, आज मीडिया की मेहरबानी से एक जाना पहचाना नाम बन गया है। जरा सोचिए श्रीराम सेना के दर्जन भर कार्यकर्ताओं ने अमनेसिया पब, मंगलौर (कर्नाटक) पर हमला करके अखबरों में जितनी खबर पाई और इलैक्ट्रानिक चैनलों की जितनी फूटेज खाई। इतना नाम कमाने के लिए ‘विज्ञापन’ कर उन्हें कितना खर्च करना पड़ता। पहली नजर में यही लगता है कि श्रीराम सेना वाले प्रमोद मुतालिक ने मीडिया को इस्तेमाल कर लिया।
इस मामले का एक दूसरा पहलू भी है। जिसकी वजह से मीडिया की रूचि लंबे समय तक इस विषय में बनी रही। वह है मामले का हाई प्रोफाईल होना। यदि इस तरह का हमला किसी झुग्गी झोपड़ी वाले इलाके में हुआ होता तो निश्चित मानिए मीडिया इतनी सक्रिय नहीं होती।
श्रीराम सेना ने जो किया उसके पक्ष में कोई खड़ा नहीं हो सकता चूंकि उनका विरोध प्रदर्शन का तरिका लोकतांत्रिक नहीं था। लेकिन इस सबके बावजूद आप इस पूरे कथानक में जो ‘नैनिकता के सवाल’ उठे हैं, उसे कम करके नहीं देख सकते। जिस भारतीय संस्कृति और परंपरा की बात की जा रही थी, वह श्रीराम सेना की अनैतिकता की वजह से दब सी गई। जबकि इस विषय में भी बात होनी ही चाहिए। क्या आप इसे ठीक मानेंगे कि इस बात की उपेक्षा सिर्फ इसलिए कर दी जाए क्योंकि श्रीराम सेना के कुछ उत्साहित नौजवानों ने गलत तरिके से इस विषय को उठाया है?
भले ही इस देश के दशमलव शून्य-शून्य-शून्य कुछ प्रतिशत लोग लाख उत्तार आधुनिकता का ढोल पीट लें, लेकिन आज भी भारतीय समाज में वह संस्कार कायम हैं, जिसे ‘भारतीयता’ कहते हैं। तमाम टीवी चैनलों पर लोग चिख-चिल्ला रहे थे, लेकिन हमले के बाद पीड़ित लड़कियां कहां गायब हो गई? कितने प्रतिशत अभिभावक देश में इस बात की इजाजत अपने लड़के-लड़कियों को देंगे कि वे पब में जाएं और शराब-सिगरेट पीएं। रेव पार्टियों में अपने पुरूष मित्रों के साथ कोकिन, स्मैक और हेरोईन के साथ कृत्रिम बारिस का आनन्द उठाएं।
दर्जनों ऐसे मामले हैं, जब रातों-रात झुग्गी-बस्तियों को तोड़कर वहां रहने वालों को बेघर कर दिया गया। यह मामला श्रीराम सेना के कर्म से कहीं बढ़कर भयावह और शर्मनाक है। लेकिन किसी चैनल वाले की आंख नहीं खुलती। अन्याय के खिलाफ आवाज बुलन्द करने का दावा करने वाली मीडिया ना जाने उस वक्त कहां सो जाती है। वजह साफ है कि चूंकि वह मामले ‘लो प्रोफाइल’ होते हैं। इसलिए दब जाते हैं। खबरिया चैनलों का उद्देश्य खबर देना बिल्कुल नहीं है। उनका उद्देश्य है, दर्शकों का मनोरंजन करना और पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करना। अब श्रीराम सेना वाली खबर में मामला हाई प्रोफाइल है और मामले से सबंधित विजुअल्स चैनल वालों के पास हैं, और इस खबर के साथ में ड्रामा है और मनोरंजन भी भरपूर है। और क्या चाहिए ‘खबर’ के लिए?
साप्ताहिक पत्रिका आउटलुक (अंग्रेजी) ने अपना 9 फरवरी 2009 के अंक को श्रीराम सेना के कारनामे को समर्पित किया है। इसी अंक के पृष्ठ 37 पर पीड़ित लड़कियों की तस्वीर प्रकाशीत की गई है। लेकिन इस तस्वीर में पीड़ितों के चेहरे को ढंक दिया गया है, आखिर ऐसा क्यों?
यदि पब में जाना बच्चों की आजादी से जुड़ा मसला है, तो उनकी आजादी की रक्षा के लिए उन बच्चों के मां-बाप को सामने आकर कहना चाहिए था- ‘हमारे बच्चे यदि पब-बीयर बार- नाइट क्लब में जाते हैं तो किसी को क्यों आपत्ताी है?’
अब सोचने वाली बात यह कि कौन है जो इस खबर को हवा दे रहा है। वही जो इस देश में पब-नाइट क्लब-बीयर बार की पश्चिमी संस्कृति को बढ़ाना चाहते हैं। जिसने भारत जैसे देश में ‘वेलेन्टाइन’ का इतना बड़ा बाजार खड़ा कर दिया। आज कोई इसके विरोध में बोले तो उसे ‘आउट डेटेड’ ही समझा जाएगा।
अच्छी बात यह है कि बाजार के तमाम हथकंडों के बाद भी भारतीय आम समाज के बीच ना वेलेन्टाइन कल्चर को स्वीकृति मिली है ना ही नाइट क्लब कल्चर को। बहरहाल मीडिया ने जिस हल्केपन के साथ इस संवेदनशील मामले को जनता के सामने रखा है, उससे पूरी बात स्पष्ट होकर सामने नहीं आई है। वहां से इए तरफा बात की गई है, जिसकी वजह से दूसरा भारतीय पक्ष लगभग अनसुना रह गया।

—- आशीष कुमार ‘अंशु’
09868419453