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क्या नियम-कानूनों से ऊपर है गांधी परिवार?

-ललित गर्ग –

यह विडम्बनापूर्ण घटनाक्रम है कि लगातार सत्ता का सुख भोगने एवं देश की सबसे बड़े राजनीतिक दल होने का अहंकार पालने के कारण कांग्रेस के चरित्र में जिस तरह का बदलाव देखने को मिल रहा है, कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं एवं नेताओं में ईमानदारी, निष्ठा और समर्पण के स्थान पर गलत को सही ठहराने की जो होड़ मची है, अपने चरित्र पर लगे दागों को सही साबित करने के लिये जिस तरह के शक्ति-प्रदर्शन हो रहे हैं, वह राष्ट्र के लिये बड़े संकट का द्योतक है। बड़ा प्रश्न है कि प्रवर्तन निदेशालय की ओर से राहुल और सोनिया गांधी को पूछताछ के लिए तलब करने पर कांग्रेस में बौखलाहट क्यों देखने को मिल रही है? विरोधाभासी रवैया है कांग्रेस का, उनके नेताओं और कार्यकर्त्ताओं का जो बेवजह मोदी सरकार पर निशाना साध रही है जबकि वह यह भूल रही है कि नेशनल हेराल्ड मामला अदालत में तब पहुंचा था जब संप्रग सरकार सत्ता में थी। भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस पार्टी के सर्वोच्च नेताओं पर लगे आरोपों का जबाव संवैधानिक तरीकों सेे दिया जाना चाहिए, न कि अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन करते हुए आन्दोलनात्मक तरीकों से। देश में यह पहली बार देखने को मिल रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ तो अनेक आन्दोलन हुए है, लेकिन भ्रष्टाचार के पक्ष में यह पहला आन्दोलन है। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या हो सकती है?
राहुल गांधी इस देश के सांसद हैं, सर्वोच्च पार्टी के सर्वेसर्वा है। जब ईडी ने उन्हें तलब किया तो उन्हें ईडी अधिकारियों के सामने प्रस्तुत होकर अपना पक्ष रखना चाहिए। उसके बाद कानून अपना काम करेगा। भारत का कानून इतना मजबूत है कि यहां निर्दाेष होने पर कभी दंडित नहीं किया जाता। कानूनी प्रक्रिया से जो तथ्य सामने आयेंगे, देश की जनता भी सत्य को जान सकेगी। यह वक्त कांग्रेस पार्टी और उनके नेताओं को अपने चरित्र पर लगे दागों को धोने एवं सत्य को प्रकट करने का अवसर है। यह वही कांग्रेस पार्टी है जिसने समय-समय पर संवैधानिक संस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह खड़े किये हैं और जिन्होंने लंबे समय तक देश पर राज किया, अब उनके ऊपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं तो वो जांच एंजेसियों से डर क्यों रही हैं? क्यों संवैधानिक चुनौतियों से भाग रही है? आखिर वह क्या छिपाना चाहती हैं? जो खुद को सबसे पुराना राजनीतिक दल कहते हैं, क्या वो आज लोकतंत्र को बचाने का नहीं 2,000 करोड़ रुपए की गांधी परिवार की संपत्ति को बचाने का काम कर रहे हैं? ये सब अपने आप में प्रश्नचिन्ह खड़े करते है और लगता है कि दाल में कुछ काला है या फिर पूरी दाल ही काली है।
तथाकथित क्रांतिकारी विचारों का सैलाब कांग्रेस कार्यकर्त्ता एवं नेताओं में उमड़ा है पर जीने का ईनाम एवं पारदर्शिता गायब है। अपने मंचों से कांग्रेस नेताओं के प्रभावी वायदे जनता के हाथों में सपने, आदर्श थमाते रहे हैं पर जीवन का सच नहीं पकड़ा पाए। यह सर्वोच्च राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद करते हुए सत्ता पर काबिज होती रही है, लेकिन सत्ता पर बैठते ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी रही है। सर्वोच्च राजनीति के गलियारों में भी स्वयं झूठी पड़ती रही हैं और परायों में दाग देखती रही हैं। वह झूठ को सच बनाने के दाव-पेंच खेलती रही है तो कभी झूठ का पर्दाफाश करने का साहसी नाटक रचती रही है। मगर चिंतनीय प्रश्न है कि क्या उसका यह बौद्धिक एवं राजनीतिक संघर्ष भारत के आदर्शों की साख और सुरक्षा रख सका?
नेशनल हेराल्ड मामले में राहुल गांधी के प्रवर्तन निदेशालय के समक्ष पेश होने के दौरान कांग्रेस नेताओं-कार्यकर्ताओं ने जिस तरह दिल्ली के साथ देश के अन्य हिस्सों में सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर यह संदेश देने की कोशिश की कि उनके नेता को सताया जा रहा है, उनकों झूठे आरोपों में फंसाया जा रहा है, उससे कांग्रेस को शायद ही कुछ हासिल हो, बल्कि उनकी छवि पर संदेह एवं शंकाएं साबित होती हुई दिखाई दे रही है। लम्बे दौर से विवादों एवं संदेहों से घिरे इस मामले को लेकर उठे सवालों के जैसे जवाब कांग्रेस की ओर से दिए गए हैं, वे संतोषजनक नहीं है। इस मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हजारों करोड़ रुपये की परिसंपत्ति वाली एसोसिएट जर्नल लिमिटेड को यंग इंडिया को बेचे जाने की प्रक्रिया उतनी न्यायसंगत नहीं जान पड़ती, जितनी कि कांग्रेस की ओर से बताई जा रही है।
आजादी की लड़ाई के दौरान अखबारों के प्रकाशन के लिए बनाई गई एसोसिएट जर्नल लिमिटेड में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरूजी की भूमिका अवश्य थी, लेकिन उनका इस कंपनी पर मालिकाना हक नहीं था। इस कंपनी के शेयरधारकों में करीब पांच हजार स्वतंत्रता सेनानी शामिल थे। कांग्रेस की ओर से इस सवाल का कोई ठोस जवाब नहीं दिया गया कि शेयरधारकों की अनुमति के बिना इस कंपनी का मालिकाना हक उस यंग इंडिया कंपनी को कैसे दे दिया गया, जिसमें 76 प्रतिशत हिस्सेदारी सोनिया और राहुल गांधी की है और शेष उनके करीबी नेताओं के पास। आखिर ईडी ऐसे ही संदेहों का खुलासा चाहती है, क्यों नहीं राहुल यंग इंडिया कंपनी और एसोसिएट जर्नल लिमिटेड के पार्टनरशिप पैटर्न, वित्तीय लेन-देन, प्रवर्तकों की भूमिका एवं धन के कथित हस्तांतरण के सवालों के जबाव देकर दूध का दूध पानी का पानी कर देते। कांग्रेस नेताओं को इस तथ्य को भी ओझल नहीं करना चाहिए कि इस मामले में राहुल और सोनिया गांधी जमानत पर चल रहे हैं। जो कांग्रेस नेता यह शोर मचा रहे हैं कि मोदी सरकार राहुल और सोनिया गांधी को परेशान करने के लिए केंद्रीय एजेंसी का बेजा इस्तेमाल कर रही है, उन्हें यह याद हो तो बेहतर कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट उन्हें राहत देने से इन्कार कर चुका है।
भारत के राष्ट्रचिन्ह में एक आदर्श वाक्य है- ‘सत्यमेव जयते।’ मगर सत्य की सीढ़ियों पर चढ़ते कांग्रेसी नेताओं के पैर कितने मजबूत हैं, उनमें कितना आत्मविश्वास ै, उनमें कितनी पारदर्शिता एवं ईमानदारी है, इसे कौन नहीं जानता? विचारों एवं संकल्पों की अस्थिरता और अपरिपक्वता लोभ और स्वार्थ को जन्म देती है। राष्ट्र में आम नागरिक के ही नहीं, कर्णधारों के पैर भी असत्य की फिसलन भरी राह की ओर आसानी से बढ़ जाते हैं और तब हमारा यह आदर्श वाक्य मखौल बन जाता है। मखौल तब भी बन जाता है जब इसे कांग्रेसियों द्वारा भ्रष्टाचार एवं अपराधों को ढकने के लिये काम में लिया जाता है। इसलिए राजनीतिक विचारों एवं संकल्पों का विधायक बदलाव जरूरी है अन्यथा निर्माण की निर्णायक भूमिका प्रस्तुत हो नहीं सकती। बलात थोपे गये विचार और विवशता या भयवश स्वीकृत नियम-कानून फलदायी नहीं बन सकते। कानून सत्य का सबूत मांगंे और गवाह झूठे लाये जायें तब निर्दोष को फांसी पर चढ़ने से कौन बचा सकता है? कैसे सत्य की प्रतिष्ठा हो सकेगी? कैसे राष्ट्रीय चरित्र बन सकेगा?
देश एवं जनता को दिशा दिखाने वाली कांग्रेस तो स्वयं भटकी है। यह भटकन ही है कि कांग्रेस नेताओं का प्रदर्शन खुलेआम देश की सर्वोच्च जांच एंजेन्सी पर दबाव डालने की रणनीति के तौर पर सामने आ रहा है। बड़ा स्पष्ट तथ्य है कि कांग्रेस पार्टी का नेशनल हेराल्ड मामला एक राजनीतिक मामला न होकर है, यह भ्रष्टाचार से जुड़ा एक कानूनी मामला है और ऐसे मामलों में धरना-प्रदर्शन की राजनीति काम नहीं करती। यदि सोनिया और राहुल गांधी को यह लगता है कि प्रवर्तन निदेशालय को उनसे किसी तरह की पूछताछ करने का अधिकार नहीं तो फिर उन्हें अपने नेताओं को सड़कों पर उतारने के बजाय अदालत जाना चाहिए था। यह कांग्रेस पार्टी का विचित्र एवं त्रासद घटनाक्रम है कि वह यह जताने की कोशिश कर रहे है कि वे नियम-कानूनों से ऊपर हैं।

चुनावी रिफॉर्म्स की फिर वकालत

प्रो. श्याम सुंदर भाटिया

आजादी के अमृत महोत्सव बरस में चुनाव आयोग और शक्तिशाली होना चाहता है। 72 साल के अपने लंबे एवम् कटु अनुभवों के आधार पर इलेक्शन कमीशन ने बड़े बदलाव की कार्ययोजना को मूर्त रूप दिया है। नए मुख्य चुनाव आयुक्त श्री राजीव कुमार की अध्यक्षता में हुई मैराथन मीटिंग में छह सिफारिशों की केन्द्र सरकार से प्रबल संस्तुति की गई है। बेशक, ये सारे प्रस्ताव अनमोल हैं। मसलन- एक उम्मीदवार- एक सीट का वक्त आ गया है। ओपेनियन और एग्जिट पोल पर रोक लगाई जानी चाहिए। राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने का अधिकार आयोग को मिलना चाहिए। आधार को वोटर आईडी से लिंक किया जाए। पात्र लोगों को वोटर के रूप में पंजीकृत होने के लिए चार कटऑफ तिथियों के नियम को भी अधिसूचित किया जाए। 2000 से ज्यादा के सभी चंदों के बारे में जानकारी सार्वजनिक करने के लिए फॉर्म 24 ए में संशोधन की भी दरकार है। दुनिया भर में भारत के चुनाव आयोग की छवि निष्पक्ष है। वर्ल्ड के बहुतेरे देश आयोग के आला अफसरों को अपने यहां ट्रेनिंग के लिए आमंत्रित करते हैं। यदि केन्द्र सरकार फौरी तौर पर इन सिफारिशों पर सहमत हो जाती है तो यह वक्त बताएगा कि इलेक्शन कमीशन और कितना पारदर्शी हो जाएगा? सियासी दलों से लेकर वोटर्स तक का कितना नफा-नुकसान होगा? इन छह सुझावों के पीछे चुनाव आयोग की नीयत निःसंदेह साफ है। आयोग इलेक्शन में बेजां वक्त और धन नहीं खर्च करना चाहता है, बल्कि चुनाव को मित्तव्ययी और पारदर्शी बनाना चाहता है। 18 साल के युवक को मतदाता पहचान पत्र दिलाना इसके एजेंडे में सर्वोच्च है ताकि वोटिंग परसेंटेज में इजाफा हो सके। हालांकि यह भी चर्चा में है, पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव संग-संग होने चाहिए। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी भी इसके प्रबल पैरोकार है। इस संदर्भ में विस्तार से चर्चा फिर करेंगे।

एक प्रत्याशी-एक सीट के प्रावधान की जरूरत

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत आप एक या दो नहीं, बल्कि आपको इससे भी ज्यादा सीटों से एक साथ चुनाव में लड़ने की आजादी थी। अधिनियम की धारा 33 पर सवाल उठने लगे तो 1996 में धारा 33 में संशोधन किया गया। अब धारा 33 (7) के अनुसार कोई भी उम्मीदवार केवल दो सीटों पर ही एक साथ चुनाव लड़ सकता है। 1957 के आम चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक साथ यूपी के तीन लोकसभा क्षेत्रों- लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से अपना भाग्य आजमाया। 1980 में मैडम इंदिरा गांधी ने रायबरेली और मेडक से लड़ीं और दोनों सीटों से विजयी रहीं। उन्होंने रायबरेली को चुना और मेडक सीट पर उपचुनाव हुआ। आयोग बार-बार होने वाले उपचुनाव को नहीं चाहता है, क्योंकि समय और धन बर्बाद होते हैं। इसीलिए आयोग ने एक प्रत्याशी- एक सीट की प्रबल संस्तुति की है। चुनाव प्रहरी ने 2004 में भी यह अनमोल सुझाव दिया था कि यदि इसे स्वीकार नहीं किया जाता है तो कानून में एक स्पष्ट प्रावधान होना चाहिए, जिसके तहत कोई भी उम्मीदवार दो सीटों पर जीतता है तो छोड़ी गई सीट के उपचुनाव का सारा खर्च विजयी प्रत्याशी को खुद वहन करना होगा। आयोग का यह सुझाव भी फिलहाल ठंडे बस्ते में है।

ताऊ तीनों से हारे तो एनटीआर की बल्ले-बल्ले

सियासत के दिग्गज- श्री लालकृष्ण आडवाणी, श्री मुलायम सिंह यादव, श्री लालू प्रसाद यादव भी समय-समय पर एक से ज्यादा सीटों पर लड़े। हारे। जीते। 1985 में एनटी रामाराव और 1991 में श्री देवीलाल का चुनावी नतीजा बड़ा दिलचस्प रहा। दोनों दिग्गज एक साथ तीन-तीन सीटों पर लड़े लेकिन एनटीआर को तो जनता ने तीनों सीटों पर विजयश्री का सेहरा पहना दिया, लेकिन ताऊ को हरियाणा की आवाम ने तीनों सीटों पर हरा दिया। दरअसल ये सियासीदां हार के ड़र से दूसरी सुरक्षित सीट भी चुनते हैं। उदाहरण के तौर पर 2019 में श्री राहुल गांधी को अमेठी में केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से कड़ी चुनौती मिली तो राहुल गांधी ने केरल में वायनाड को सुरक्षित सीट के तौर पर चुना। चुनाव आयोग 18 बरस पूर्व भी जनप्रतिनिधित्व एक्ट की धारा 33(7) में संशोधन प्रस्ताव कर चुका है।

ओपेनियन-एग्जिट पोल पर उठते रहे सवाल

लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया की चुनावों में भी अहम भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। चुनाव लोकसभा का हो या विधानसभा का, ओपेनियन और एग्जिट पोल चुनिंदा क्षेत्रों और वोटरों की पसंद और नापसंद पर होते हैं। उल्लेखनीय है, चुनावी मौसम आते ही सर्वे की भरमार लग जाती है। कोई कहता है कि बीजेपी को इतने वोट मिलेंगे तो कोई कहता है कि कांग्रेस को इतने वोट मिलेंगे। इन अलग-अलग सर्वे को मुख्यतः दो भागों में बांटा जाता है। दिल्ली, पश्चिम बंगाल और पंजाब में समय-समय पर सर्वे को देखने का चश्मा अलग-अलग रहा। दरअसल ये सर्वे जमीनी हकीकत को सूंघ नहीं पाते हैं। सर्वे और नतीजे भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। कई बार सर्वे औंधे मुह गिरते हैं। ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल। कांग्रेस तो चुनाव आयोग से पहले ही इन पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर चुकी है।

पंजीकरण रद्द करने का मिले अधिकार

चुनाव आयोग को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29 ए राजनीतिक दलों को पंजीकृत करने का हक तो देती है, लेकिन किसी पंजीकृत पार्टियों का पंजीयन रद्द करने की शक्ति नहीं है। आयोग की यह डिमांड भी लंबे समय से पेंडिंग है। उल्लेखनीय है, आयोग में 21 हजार से अधिक गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल पंजीकृत हैं। आयोग का मत है, ये दल सिर्फ रजिस्ट्रेशन कराते हैं, लेकिन कभी चुनाव नहीं लड़ते हैं। ऐसे में ये सिर्फ आयकर छूट का लाभ ही उठाते हैं। चुनाव प्रहरी ने सरकार से यह भी बदलाव चाहा है, बीस हजार के बजाए दो हजार के डोनेशन को दिखाने के लिए भी फॉर्म 24 ए में भी परिवर्तन होना ही चाहिए।

आधार से वोटर आईडी को जोड़ा जाए

दिसम्बर 2021 में राज्यसभा ने चुनाव कानून (संशोधन) विधेयक-2021 को ध्वनिमत से पारित कर दिया गया था। इस बिल में सबसे बड़ा बदलाव यही था कि आधार को वोटर आईडी से लिंक किया जाए। अब चुनाव आयोग कानून मंत्रालय से अनुरोध किया है, आधार को वोटर आईडी से जल्द से जल्द लिंक कराने की अधिसूचना जारी कर दे। चुनाव आयोग का एक और यह यह सुझाव भी एक दशक से लंबे समय से लंबित है। मौजूदा वक्त में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 की धारा 14(बी) के अनुसार मतदाता सूची में पात्रता की योग्यता तिथि 01 जनवरी है। ऐसे में युवा 18 साल होने पर भी वोट से वंचित रह जाता है, क्योंकि नामावली अगले वर्ष संशोधित होती है। यदि बीच में कोई चुनाव आता है तो ये युवा वोटर अपने मताधिकार से वंचित रह जाते हैं। पूरी दुनिया में भारत की बात करें तो यहां सर्वाधिक युवा है।  ऐसे में आयोग का सुझाव है, युवाओं को बतौर मतदाता रजिस्ट्रेशन करने को चार मौके मिलने चाहिए। आयोग ने पहले भी जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में पंजीयन कराने का सुझाव रखा था, लेकिन कानून मंत्रालय ने दो तिथियों का सुझाव दिया था- 01 जनवरी और 01 जुलाई। हालांकि अभी तक इसे भी अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है।

बढ़ता रेगिस्तान और सूखा दुनिया के समक्ष बड़ी चुनौती

विश्व रेगिस्तान तथा सूखा रोकथाम दिवस- 17 जून, 2022
-ललित गर्ग –

वर्ष 1995 से प्रत्येक साल विश्व के विभिन्न देशो में 17 जून को विश्व रेगिस्तान एवं सूखा रोकथाम दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय सहयोग से बंजर और सूखे के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए जन जागरूकता को बढ़ावा देना है एवं भविष्य में रहने के लिये भूमि, पर्यावरण एवं जल आदि समस्याओं के लिये सर्तक करना है। मरुस्थलीकरण तब होता है जब उपजाऊ भूमि मानव गतिविधि के माध्यम से मिट्टी के अत्यधिक दोहन के कारण शुष्क हो जाती है। किसी ग्रह के जीवन चक्र के दौरान मरुस्थल स्वाभाविक रूप से बनते हैं, लेकिन जब मानव के अति दोहन एवं प्रकृति के प्रति उपेक्षा के कारण मिट्टी में पोषक तत्वों की भारी और अनियंत्रित कमी होती है, तो यह मरुस्थलीकरण की ओर ले जाता है। वहीं बढ़ती विश्व जनसंख्या के कारण रहने के लिए अधिक भूमि की आवश्यकता होती है। साथ ही मनुष्यों और जानवरों दोनों के लिए भोजन एवं पानी की मांग बढ़ जाती है। इन मांगों और आवश्यकताओं को पूरा करने अच्छी उपजाऊ भूमि का संयम एवं विवेकपूर्वक उपयोग जरूरी है। वर्ष 1994 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने बंजर और सूखे से जुड़े मुद्दे पर विश्व-जन का ध्यान आकर्षित करने और सूखे और मरुस्थलीकरण का दंश झेल रहे देशों मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन के कार्यान्वयन के लिए विश्व मरुस्थलीकरण रोकथाम और सूखा दिवस की घोषणा की।
मरुस्थलीकरण और सूखा दिवस का उद्देश्य सभी स्तरों पर मजबूत व सामुदायिक भागीदारी और सहयोग में निहित है। यह दिन मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे के मुद्दों और इससे निपटने के तरीके के बारे में सभी को जागरूक करने के लिए आयोजित किया जाता है। विश्व स्तर पर, 23 प्रतिशत भूमि अब उत्पादक नहीं है, वहीं 75 प्रतिशत में ज्यादातर भूमि को कृषि के लिए उसकी प्राकृतिक अवस्था से बदल दिया गया है। हालांकि, वर्तमान में भूमि उपयोग में यह परिवर्तन मानव इतिहास में किसी भी समय की तुलना में काफी तेज गति से हो रहा है, और पिछले 50 वर्षों में इसमें तेजी आई है। इसीलिये रेगिस्तान या मरुस्थल के रूप में बंजर, शुष्क क्षेत्रों का विस्तार होता जा रहा है, जहाँ वनस्पति नहीं के बराबर होती है, यहाँ केवल वही पौधे पनप सकते हैं, जिनमें जल संचय करने की अथवा धरती के बहुत नीचे से जल प्राप्त करने की अदभुत क्षमता हो। इस क्षेत्र में बेहद शुष्क व गर्म स्थिति किसी भी पैदावार के लिए उपयुक्त नहीं होती है। वास्तविक मरुस्थल में बालू की प्रचुरता पाई जाती है। मरुस्थल कई प्रकार के हैं जैसे पथरीले मरुस्थल में कंकड़-पत्थर से युक्त भूमि पाई जाती है। इन्हें अल्जीरिया में रेग तथा लीबिया में सेरिर के नाम से जाना जाता है। चट्टानी मरुस्थल में चट्टानी भूमि का हिस्सा अधिकाधिक होता है। इन्हें सहारा क्षेत्र में हमादा कहा जाता है।
राजस्थान प्रदेश में थार का रेगिस्तान दबे पांव अरावली पर्वतमाला की दीवार पार कर पूर्वी राजस्थान के जयपुर, अलवर और दौसा जिलों की ओर बढ़ रहा है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के राजस्थान में चल रहे प्रोजेक्ट में ऐसे संकेत मिल रहे हैं। अब तक 3000 किमी लंबे रेगिस्तानी इलाकों को उत्तर प्रदेश, बिहार और प. बंगाल तक पसरने से अरावली पर्वतमाला रोकती है। कुछ वर्षाे से लगातार वैध-अवैध खनन के चलते कई जगहों से इसका सफाया हो गया है। उन्हीं दरारों और अंतरालों के बीच से रेगिस्तान पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ चला है। यही स्थिति रही तो आगे यह हरियाणा, दिल्ली, यूपी तक पहुंच सकता है। लगातार बढ़ रहा रेगिस्तान एक गंभीर चिन्ता का विषय है। भूमि और सूखा एक जटिल और व्यापक सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों के साथ प्राकृतिक खतरे के अतिक्रमण के अलावा किसी भी अन्य प्राकृतिक आपदा की तुलना में अधिक लोगों की मृत्यु और अधिक लोगों को विस्थापित करने के लिए जाना जाता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि 2025 तक, 1.8 बिलियन लोग पूर्ण रूप से पानी की कमी का अनुभव करेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी दूसरी पारी में अब प्रकृति- पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण-मुक्ति के साथ बढ़तेे रेगिस्तान को रोकने के लिये सक्रिय हैं। कुशल राजनीतिक की तरह वे जुझारू किसान एवं पर्यावरणविद की भांति धरती पर मंडरा रहे खतरों एवं बढ़ते रेगिस्तान को रोकने के लिये जागरूक हुए हैं। बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने एवं पर्यावरण की रक्षा को लेकर प्रधानमंत्री का संकल्प एक शुभ संकेत है, नये भारत के अभ्युदय का प्रतीक है। उम्मीद करें कि सरकार की नीतियों में जल, जंगल, जमीन एवं जीवन की उन्नत संभावनाएं और भी प्रखर रूप में झलकेगी और धरती के मरुस्थलीकरण के विस्तार होते जाने की स्थितियों पर काबू पाने में सफलता मिलेगी। प्रधानमंत्री ने भारत 2030 तक 2.1 करोड़ हेक्टेयर बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने के अपने लक्ष्य को बढ़ाकर 2.6 करोड़ हेक्टेयर किया है, इससे पर्यावरण की रक्षा तो होगी कि ऊपजाऊ भूमि का भी विस्तार होगा। देखने में आ रहा है कि कथित आधुनिक समाज एवं विकास का प्रारूप अपने को कालजयी मानने की गफलत पाले हुए है और उसकी भारी कीमत भी चुका रहा है। लगातार पांव पसार रही तबाही इंसानी गफलत को उजागर तो करती रही है, लेकिन समाधान का कोई रास्ता प्रस्तुत नहीं कर पाई। ऐसे में अगर मोदी सरकार ने कुछ ठानी है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए। क्या कुछ छोटे, खुद कर सकने योग्य कदम नहीं उठाये जा सकते?
मरुस्थलीकरण का विस्तार और प्रकृति के साथ खिलवाड़ होता रहा तो वह दिन दूर नहीं होगा, जब हमें शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी। इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा। आज आवश्यकता है कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया जाए, जिसमें मुख्यतः धूप, खनिज, वनस्पति, हवा, पानी, वातावरण, भूमि तथा जानवर आदि शामिल हैं। इन संसाधनों का अंधाधुंध दुरुपयोग किया जा रहा है, जिसके कारण ये संसाधन धीरे-धीरे समाप्त होने की कगार पर हैं। इस जटिल होती समस्या की ओर प्रधानमंत्री का चिन्तीत होना एवं कुछ सार्थक कदम उठाने के लिये पहल करना मरुस्थल को उपजाऊ भूमि में बदलने की नयी संभावनाओं को उजागर करता है।
जल, जंगल और जमीन इन तीन तत्वों से प्रकृति का निर्माण होता है। यदि यह तत्व न हों तो प्रकृति इन तीन तत्वों के बिना अधूरी है। विश्व में ज्यादातर समृद्ध देश वही माने जाते हैं जहां इन तीनों तत्वों का बाहुल्य है। बात अगर इन मूलभूत तत्व या संसाधनों की उपलब्धता तक सीमित नहीं है। आधुनिकीकरण के इस दौर में जब इन संसाधनों का अंधाधुन्ध दोहन हो रहा है तो ये तत्व भी खतरे में पड़ गए हैं एवं भूमि की उत्पादकता कम होती जा रही है, पानी की कमी हो रही है। चिन्तन एवं चिन्ता का एक ही मामला है लगातार विकराल एवं भीषण आकार ले रही बंजर भूमि, सिकुड़ रहे जलस्रोत विनाश की ओर धकेली जा रही पृथ्वी एवं प्रकृति के विनाश के प्रयास। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता प्रदूषण, नष्ट होता पर्यावरण, दूषित गैसों से छिद्रित होती ओजोन की ढाल, प्रकृति एवं पर्यावरण का अत्यधिक दोहन- ये सब देश के लिए सबसे बडे़ खतरे हैं और इन खतरों का अहसास करना एवं कराना ही विश्व रेगिस्तान तथा सूखा रोकथाम दिवस का ध्येय है। प्रतिवर्ष धरती का तापमान बढ़ रहा है। आबादी बढ़ रही है, जमीन छोटी पड़ रही है। हर चीज की उपलब्धता कम हो रही है। आक्सीजन की कमी हो रही है। साथ ही साथ हमारा सुविधावादी नजरिया एवं जीवनशैली पर्यावरण एवं प्रकृति के लिये एक गंभीर खतरा बन कर प्रस्तुत हो रहा हैं। वन क्षेत्र का लगातार खत्म होना भी इसकी एक बड़ी वजह है लेकिन सबसे बड़ी वजह है निर्माण क्षेत्र का अराजक व्यवहार। शहरीकरण की तेज प्रक्रिया में इधर खेतों में कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए गए हैं। कहीं कॉलोनियां बसाने के लिए झीलों, नदियों तक को पाट दिया गया, कहीं जमीन के बड़े हिस्से पर सीमेंट और रेत भर दी गई जिससे उसकी धरती बांझ होती जा रही है। नदियों से दूर बसी कॉलोनियों को भू-जल पर आश्रित छोड़ दिया गया, जिसके लगातार दोहन से हरे-भरे इलाके भी मरुस्थल बनने की ओर बढ़ गए। सरकार अगर सचमुच जमीन को उपजाऊ बनाना चाहती है तो उसे कंस्ट्रक्शन सेक्टर को नियंत्रित करना होगा। लेकिन इस दिशा में एक कदम भी आगे बढ़ाने के लिए हमें विकास प्रक्रिया पर ठहरकर सोचने के लिए तैयार होना होगा। बात तभी बनेगी जब सरकार के साथ-साथ समाज भी अपना नजरिया बदले।

 चंपारण सत्याग्रह: किसानों के शांतिपूर्ण विद्रोह का प्रतीक

इस अप्रैल मे चंपारण के किसान आंदोलन को 105 वर्ष पूर्ण हुए। खेती के कोर्पोरेटाइजेशन या कंपनीकरण और शोषण की संगठित लूट के खिलाफ चले आंदोलन की कई मांगों की जड़ें चंपारण तक पहुंची मिलेंगी। इसके पहले विद्रोह हुए थे परंतु इस तरह का संगठित नियोजनपुर्ण प्रयास नहीं हुआ था। ये एक सदी पहले किसानों का पहला संगठिक शांतिपूर्ण अहिंसात्मक आंदोलन था। गांधीजी 175 दिन बिहार के चंपारण मे रुक कर आंदोलन चलाते रहे। बदले मे चंपारण ने इसे गांधीजी का नेतृत्व को राष्ट्रिय पटल पर स्थापित करने वाला पहला आंदोलन बना दिया।

चम्पारण जिले में बड़े बड़े जमींदार हुआ करते थे. तीन चौथाई से अधिक जमीन केवल तीन बड़े मालिकों और जागीरदारों की थी. चंपारण मे इन जागीरदारों के नाम थे बेतिया जागीर (राज), रामनगर जागीर (राज) और मधुबन जागीर (राज). पहले रास्ता आदि नहीं था इसलिए अच्छी व्यवस्था बनाने के लिए ठेकेदारों को गाँव दिए गए. जिनका मूल काम मालगुजारी वसूल करके जागीरदारों को देना था. १७९३ के पहले कुछ ठेकेदार देसी हुआ करते थे, बाद में अंग्रेज भी इसमें आ गए. जिनका सम्बन्ध गन्ना और नील के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से था.  उन्होंने बेतिया राज की तरफ से ठेका लेना शुरू कर दिया. समय के साथ देशी ठेकेदारों की जगह ब्रिटिश ठेकदारों ने ले ली. उनका प्रभाव बढ़ता चला गया. १८७५ के बाद कुछ अंग्रेज जिल्ह्याच्या उत्तर पश्चिमी भाग में जाकर बस गए और इस तरह सम्पूर्ण चम्पारण में अंग्रेजों की कोठियां स्थापित हो गईं। गांधीजी जब चंपारण गए तब अंग्रेजों की 70 कोठियाँ स्थापित हो चुकी थीं।

तीनकठिया खेती अंग्रेज मालिकों द्वारा बिहार के चंपारण जिले के रैयतों (किसानों) पर नील की खेती के लिए जबरन लागू तीन तरीकों मे एक था। खेती का अन्य दो तरीका ‘कुरतौली’ और ‘कुश्की’ कहलाता था। तीनकठिया खेती में प्रति बीघा (20 कट्ठा) तीन कट्ठा जोत पर मतलब 3/20 भाग पर नील की खेती करना अनिवार्य बनाया गया था। 1860 के आसपास नीलहे फैक्ट्री मालिक द्वारा नील की खेती के लिए 5 कट्ठा खेत तय किया गया था जो 1867 तक तीन कट्ठा या तीनकठिया तरीके में बदल गया। इस प्रकार फसल के पूर्व में दिए गए रकम के बदले फैक्ट्री मालिक रैयतों के जमीन के अनुपात में खेती कराने को बाध्य करते थे। 1867 से चंपारण मे तीनकठिया तरीके से जमीन पर नील लगाने की जबर्दस्ती की प्रथा प्रचलित थी। नील लगाने का क़रारनामा बनता जिसे सट्टा कहा जाता। इस करार के अनुसार किसानो को उनकी जमीन के निश्चित हिस्से मे नील लगाना पड़ता था। वह जमीन कौनसी होगी ये नीलवाले जिनहे कोठीवाले भी कहा जाता था वो तय करते थे। किसानों को न चाहते हुए भी अच्छी उपजाऊ जमीन नील के लिए देनी पड़ती। बीज कोठीवाले देते और बुआई-जुताई किसानो को करनी पड़ती। फसल को कारखाने तक लाने तक का बैलगाड़ी का खर्च कोठीवाले करते थे, जो कारनामे मे तय पैसे मे काट लिया जाता। फसल अच्छी हुई तो दर्ज की गई रकम दी जाती थी और नहीं हुई तो उसका कारण जो भी हो उसकी कीमत ठीक नहीं मिलती थी। अगर किसानों ने करार को तोड़कर नील लगाया तो उनसे एक बड़ी रकम भरपाई के रूप मे वसूल की जाती। किसानों को दूसरे फायदेमंद खेती के बजाए नील की खेती ही करनी पड़ती थी और उसके लिए अपनी सबसे उपजाऊ जमीन देनी पड़ती थी। खेती अगर घाटे मे गई तो कोठीवालों की अग्रिम राशि वापस कर पाना किसानो के लिए कठिन हो जाता था। उनके ऊपर कर्ज का पहाड़ बढ़ जाता। उन्हे मारपीट और अत्याचार किए जाते। नील के अधीन क्षेत्र का विस्तार बढ़ता गया। क्षेत्रफल पर आधारित कीमत का बाजार के उतारचढ़ाव और वजन से कोई लेना देना नहीं था। ऐसे मामले की सुनवाई के लिए एक विशेष अदालत थी लेकिन इसमें ज्यादातर फैसला रैयतों के विरूद्ध हुआ करता था.

1912 के आसपास जर्मनी का कृत्रिम रंग नील बाजार मे आने के कारण नील का भाव एकदम गिर गया और जबर्दस्त घाटा होने लगा। नील से होनेवाले नुकसान की भरपाई करने के लिए शरहबेशी, हरजा, हुंडा, तावान आदि नामों से नियम बना कर आदि अलग अलग नामों से जबर्दस्ती कर वसूली शुरू कर दी। 30,710 अनपढ़ निर्धन किसानों के करारनामों का पंजीकरण करके उनपर तब लागू 12.5 प्रतिशत की जगह 60 प्रतिशत कर वसूला जाने लगा इसे शरहबेशी कहा जाता था। किसानों को नील लगाने के बंधन से छुटकारा देने पर जो भारीभरकम कर वसूला जाता उसे  हरजा कहा जाता। नील की जगह दूसरी धान या अन्य फसल लेने पर वो नाममात्र कीमत पर कोठीवालों को ही अनिवार्य तौर पर बेचनी पड़ती। इसे हुंडा कहा जाता।  रैयतों को खेती मे काम करने पर मजदूरी जहां अन्य जगह 4-5 आना मिलती वहीं कोठियों की खेती पर 2-3 पैसा ही मिलती। नील बोने से मुक्ति के लिए नुकसान भरपाई के रूप मे  ‘तावान’ नाम से पैसे वसूलने का नियम बना। उस जमाने मे मोतीहारी कोठी ने 3,20,00, जल्हा कोठी ने 26,000, भेलवा कोठी ने 1,20,000 रुपये किसानों से वसूले। जो नहीं दे सके उनकी जमीने और घर जब्त कर लिए गए।कइयों को गाँव छोडकर भागना पड़ता। बहिष्कृत कर दिया जाता। कहीं कहीं किसानों को नंगा कर उनपर कीचड़ फेंका जाता, उन्हे सूर्य की तरफ देखते रहने की सजा दी जाती। महिलाओं को नंगा करके पेड़ से बांध दिया जाता था। कोठीवाले खुद को कलेक्टर से भी बड़ा समझते। गाँव के मृत जानवरों की खाल, खेतों मे के पेड़, सब पर कोठीवाले हक जमाकर कब्जे मे कर लेते। कोठीवालों ने चमड़े का ठेका लेने के कारण चर्मकार भी बेकार हो गए और किसान चर्मकार संबंध खत्म हो गए। घर मे दीवार बनाने, बकरी खरीदने, पशु बिक्री करने पर्व त्यौहारों सब मे कोठी तक हिस्सा पहुंचाना पड़ता।  

1857 के बंगाल प्रांत मे सरकार ने नीलवालों को सहायक दंडाधिकारी बना दिया गया। इससे किसानों मे असंतोष और शोषण और बढ़ गया। लोग मिलों नील की खेती छोडने के आवेदन लेकर खड़े रहते। कई जगह किसानो के साथ हिंसा हुई। इस विद्रोह के नेता हरिश्चंद्र मुखर्जी थे जिनके लगातार आंदोलनों से बंगाल मे इसपर रोक लग गई। लेकिन बिहार मे ये रोक लागू नहीं हुई। वहाँ धीरे- धीरे असंतोष ने विद्रोह का रूप धर लिया। 1908 मे शेख गुलाम और उनके सहयोगी शीतल राय ने बेतिया की यात्राओं मे सरकार के खिलाफ जोरदार प्रचार शुरू कर दिया और मलहिया, परसा, बैरिया, और कुडिया जैसे इलाकों मे विद्रोह फैल गया। कई विद्रोही किसानों को जेल और दूसरी तरह की सजाएँ और जुर्माने हुए।

पश्चिम चंपारण के सतवरिया निवासी पंडित राजकुमार शुक्ल अपनी जेब से पैसा खर्च कर थाना और कोर्ट में रैयतों की मदद किया करते थे.  मोतिहारी के वकील गोरख प्रसाद, धरणीधर प्रसाद, कचहरी का कातिब पीर मोहम्मद मुनिस, संत राउत, शीतल राय और शेख गुलाब जैसे लोग हमदर्द बन गए. वह कानपुर गए. और ‘प्रताप’ के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी को किसानों का दुखड़ा सुनाया. विद्यार्थीजी ने जनवरी 1915 को प्रताप में चंपारण में अंधेरा’ नाम से एक लेख प्रकाशित किया. विद्यार्थीजी ने शुक्लजी को गांधीजी से मिलने की सलाह दी. तब शुक्लजी साबरमती आश्रम गए लेकिन गांधीजी पुणे गए हुए थे. इसलिए उन दोनों की मुलाकात नहीं हो पाई. लखनऊ में 26 से 30 दिसंबर 1916 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 31वां वार्षिक अधिवेशन था. बिहार से बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए थे. उसमें भाग लेने के लिए चंपारण से ब्रजकिशोर, रामदयाल साह, गोरख बाबू, हरिवंश सहाय, पीर मोहम्मद मुनीश, संत रावत और राजकुमार शुक्ल भी गए। उनका मकसद चंपारण के किसानों पर होने वाले अत्याचारों की जानकारी काँग्रेस के नेताओं तक पहुंचाना था. वहां पहुंचते ही लोकमान्य तिलक से इस  विषय पर बात की, लेकिन लोकमान्य तिलक ने काँग्रेस का मुख्य उद्देश्य स्वराज होने के कारण इस पर ध्यान देनें में असमर्थता व्यक्त की. मदमोहन मालवीय जी से मिलने के बाद उन्होंने विश्वविद्यालय के काम मे व्यस्त होने के चलते गांधीजी के पास उन्हें भेज दिया. गांधीजी ने बड़े गौर से उनकी बातें सुनीं और आने का आश्वासन दिया। चम्पारण के किसानों के शोषण पर सम्मेलन में प्रस्ताव रखा गया जिसे पहली बार कॉंग्रेस मे जमा अभिजन मध्यमवर्गीय, उच्च शिक्षित लोग सुन रहे थे।

कुछ दिनों बाद वे चंपारण के निकले लेकिन पटना पहुंचते ही गांधीजी को जिले से बाहर जाने की सरकारी नोटिस थमा दी गयी. महात्मा गांधी ने वापस जाने से इंकार कर दिया तो उनपर सरकारी आदेश की नाफरमानी का मुकदमा चलाया गया. गांधीजी ने गिरफ्तार होने की सम्भवना देखते हुए अपने कई सहकारियों की आंदोलन जारी रखने के लिए बुला लिया था। उनको गिरफ्तार कर लिया गया. 18 अप्रैल 1917 की सुबह गांधीजी कोर्ट में दाखिल हुए. वहाँ उन्होंने उनके लिखित बयान में कहा कि उनका उद्देश्य इस मामले में सभी पक्षों से जानकारी लेना है और इससे कानून व्यवस्था के बिगड़ने का कोई सवाल नहीं उठता। उन्होंने खुद को कानून का पालन करने वाला बताया लेकिन किसानों के प्रश्नों पर काम करना कर्तव्य बताते हुए उन्होंने कानून की बजाए कर्तव्य पालन करने की बात की. अपराध मान्य करते हुए उन्होंने जमानत देने से मना कर दिया. 18 अप्रैल को मोतिहारी जिला अदालत में मजिस्ट्रेट जॉर्ज चंदर ने गांधीजी को 100 रुपये की सुरक्षा राशि का भुगतान करने का आदेश दिया जिसे उन्होने  विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। जज और कोर्ट में उपस्थित लोग स्तब्ध थे और सजा का ऐलान कुछ दिनों के लिए टाल दिया गया। उनकी रिहाई की मांग को लेकर हजारों लोगों ने विरोध किया और अदालत के बाहर रैलियाँ निकली। बाद में ब्रिटिश सरकार ने इस मामले को वापस ले लिया। तीसरे दिन सरकार से सूचना मिली कि गांधीजी पर से धारा 144 हटा ली गई है. उच्चाधिकारियों को आदेश मिला कि वे उनकी पूरी सहायता करें. 

उसके बाद गांधीजी गाँवों का दौरा करने लगे। लोकरिया, सिंधाछपरा, मुरलीभरवा, बेलवा आदि गांवों में मीलों पैदल चलकर ग्रामीणों की व्यथा सुनी। कोठीवालों द्वारा नष्ट किये गए घरों और खेतों को देखा. गांधीजी को मिलने वाले समर्थन से कोठीवाले घबराने लगे थे. उन्होंने 20 से 25 हजार आवेदन अपने सहकारियों की मदद से दिनरात लिख कर तैयार किये। इन सहकारियों मे डॉ राजेंद्र प्रसाद भी थे। गांधीजी की हिंदी अच्छी न होने के कारण सारा कामकाज अंग्रेजी में ही हो रहा था.

चंपारण में पहुंचते ही वहाँ जातिवाद से उनका सामना हुआ. गांधीजी ने उस दौरान गांवो की निरक्षरता, अज्ञान, अस्वच्छता गरीबी दूर करने के लिए अपने सहकारियों को लेकर भितहरवा, बड़हरवा और मधुबन इन तीन गांवों में आश्रम की स्थापना की जहाँ पाठशाला भी थी। प्रौढ़ शिक्षा  कार्यक्रम और डॉक्टरों का बंदोबस्त किया। भारत सेवक समाज की तरफ से डॉ. देव 6 महीने चम्पारण रुके। लोग गंदगी हटाने को तैयार नहीं थे तो उन्होंने स्वयंसेवकों के साथ मिलकर गांव के रस्ते साफ किये, घरों से कूड़ा फेंका, कुंएं के आसपास के गड्ढे भरे। पर्दाप्रथा के कारण लड़कियों का स्कूल आना नही होता तो उनके लिए अलग स्कूल खोला गया जिसमें 7 से 25 साल की 40 लड़कियां -महिलाएँ पढनें आतीं। उन्हें पहली बार इतना स्वातंत्र्य मिला था। महिलाओं को बाल धोने, साफ कपड़े पहनने, घर स्वच्छ रखने की बात समझाई जाती। ये सब आसान नहीं था, उनको मजाक, तिरस्कार, बेपरवाई जैसी कई बातों का सामना करना पड़ा। स्वयंसेवकों ने खुद ही बिहारी भाषा सीखी।

गांधीजी ने प्रांतीय गवर्नर गेट और बिहार प्रान्त परिषद के सदस्यों से 3 दिनों तक भेंट की और किसानों के असंतोष की गंभीरता से अवगत कराया। गेट ने सरकारी अधिकारियों, कानूनविद, विधानपरिषद में बगवालों के प्रतिनिधि, किसानों के प्रतिनिधि और स्वयं गांधीजी को लेकर एक जांच समिति गठित की। उस समय के सरकार समर्थित पायोनियर, स्टेट्समैन, इंग्लिश मैन आदि समाचारपत्रों और यूरोपियन एसोसिएशन ने समिति में गांधीजी के सदस्य होने पर आपत्ति जताई।

समिति का काम बेतिया में शुरू हुआ। बड़े पैमाने पर भीड़ जमना शुरू हो गयी। समिति के पास 20 से 25 साल पहले घटी हुई ज्यादतियों के भी आवेदन आए। समिति ने कोठीवालों का भी आवेदन लिया। तीन-कठिया प्रथा, शरहबेशी और तावान के अन्याय को दूर करना मुख्य विषय थे। शरहबेशी से जुड़े मामलों में अगर मुकदमा करना पड़ता तो 50 हजार मुकदमे दायर करने पड़ते। इनमे अगर कोठीवाले हारते तो उच्च न्यायालय गए बिना नहीं रहते। इसलिए सामंजस्य से इसे सुलझाना जरूरी था। गांधीजी ने 40 प्रतिशत कटौती की मांग रखी और न मानने पर 55 प्रतिशत कटौती की  मांग करने की धमकी देकर दबाव बनाया और मोतिहारी और अपने व्यवहार कौशल्य से पिपरा कोठी के शरहबेशी में क्रमानुसार 26 और तुरकौलिया कोठी में 20 प्रतिशत की कटौती पर राजी कर लिया। गांधीजी के सामंजस्यपूर्ण कार्यपध्दति से समिति के अध्यक्ष स्लाइ प्रभावित हुए और उनके प्रशंसक बन गए। 3 अक्टूबर 1917 को समिति की रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें तीन कठिया पद्धति दोषपूर्ण होने की बात मानते हुए उसे रद्द करने की और उसके लिए कानून बनाने की सिफारिश की गई थी। नील के लिए कौन सी जमीन देनी हैए तय करने का अधिकार किसान को और नील कीमत क्षेत्रफल के बजाए वजन के आधार पर देने की सिफारिश की गई। करार की अनिश्चित कालावधि को अल्पावधि की सीमा निर्धारित की गई और न्यूनतम कीमत का निर्धारण बागवालों का संघ कमिश्नर की अनुमति और सहमति से निर्धारित करने की बात लिखी गयी। तावान के अंतर्गत वसूल रकम का कुछ हिस्सा किसानों को वापस करने, बढ़ाने पर रोक और ज्यादा वसूली करने पर दंडित करने का प्रावधान बनाया गया। चमड़े की मिल्कियत और उपयोग का निर्णय मृत जानवर के मालिक को देना तय हुआ। न्यूनतम मजदूरी की दर बागवालों का  संघ निश्चित करे और वही दर मजदूरों को दी जाए। सरकार का आदेश किसानों को देशी भाषा मे देने की भी सिफारिश की गई।

तीन दिनों बाद ही विधानमंडल में इस रिपोर्ट पर चर्चा हुई और इसे सामान्यतः स्वीकार करके तत्काल कानून बनाने का निर्णय लिया गया। गांधीजी के कारण ग्रामीणों में जो निर्भयता आई थी उससे अब वो नीलवालों के विरुद्ध लड़ने को तैयार हो गए थे। चम्पारण खेती बिल प्रस्तुत हुआ और चम्पारण खेती कानून 4 मार्च 1918 को पारित किया गया। 18 कोठियों द्वारा वसूल किये गए तावान का 8,60,301 रुपया किसानों को वापस किया गया। करार की कालावधि अधिकतम 3 वर्ष निर्धारित हुई। कीमत नील के वजन पर निर्धारित की जाने लगी। नया कानून बनने से नीलवालों और कोठियों का रुबाब उतर गया। कई नीलवालों ने पहले महायुध्द के बाद बढ़ी महंगाई का लाभ उठाते हुए अपनी जमीन, कोठी और माल बेचकर लाभ कमाया और किसानों ने राहत की सांस ली।

तब गांधीजी 48 वर्ष के थे.  चंपारण-सत्याग्रह के पहले गांधी दक्षिण अफ्रीका में बीस वर्षों तक वहां की गोरी सरकार की रंगभेद-नीति के विरुद्ध अहिंसात्मक संघर्ष करके अपने सत्याग्रह-अस्त्र का सफल प्रयोग कर चुके थे। तब तक उनका विश्वास सरकार की न्यायबुद्धि पर था। गांधीजी के मध्यमवर्गीय सहकारी ग्रामीण निरक्षर और निम्न जाति के किसानों से जुड़े। यह सत्याग्रह देश के स्वतंत्रता संघर्ष के अहिंसात्मक स्वरूप की शुरुवात थी। यह किसान आंदोलन के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है और कृषि के कंपनीकरण द्वारा किसानों के शोषण के स्वरूप, आंदोलन और आधे साल तक चले आंदोलन द्वारा मांगे मनवाने का प्रेरणा स्तम्भ भी है। केवल आर्थिक मांगों तक यह सीमित नहीं रखा गया। इस दौरान जातिवाद, ग्राम स्वच्छता, स्कूल, प्रौढ़ व स्त्री शिक्षा जैसे कई सामाजिक सुधार प्रयास भी हुए जिनसे लोग आंदोलन से जुड़े। यह आज भी राजनीतिक पार्टियों और उनके कार्यकर्ताओं के लिए राजनीतिक अभ्यास का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए।   

–    कल्पना पांडे  

सच्चे इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान का असली चेहरा पहचाने

भारतीय मुसलमानों को लेकर घड़ियाली आंसू बहाने और अभी हाल में पैगंबर मोहम्मद साहब को लेकर की गईं टिप्पणियों के बहाने आसमान सिर पर उठाने तथा इस्लामी जगत को भारत के खिलाफ उकसाने वाला पाकिस्तान अपने यहां अल्पसंख्यकों का किस प्रकार दमन, दोहन, उत्पीड़न कर रहा है, इसका ताजा प्रमाण है कराची में एक मंदिर में किया गया हमला। इस हमले के दौरान न केवल प्रतिमाओं को तोड़ा गया, बल्कि लूटपाट-मारपीट भी की गई। पड़ोसी देश में हिन्दू अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की यह एक और त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण घटना है। इस घटना में सबसे पहले कुछ मोटरसाइकिलों पर दर्जन भर लोग आए और मंदिर पर हमला कर दिया, बाद में और लोग आए तथा हमलावर भीड़ में तब्दील हो गए। हमलावर हिंदुओं के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे। इस घटनाक्रम से कराची के हिंदू समुदाय में काफी दहशत एवं असुरक्षा है। ऐसी अमानवीय एवं त्रासद घटनाओं का विरोध केवल भारत में ही नहीं, दुनिया में होना चाहिए।
इनदिनों पाकिस्तान पूर्व बीजेपी नेता नूपुर शर्मा के बयानों पर भारत को ज्ञान दे रहा है लेकिन उसके अपने मुल्क में हिंदू और सिख जैसे अल्पसंख्यकों और उनके पूजा-स्थलों की स्थिति बेहद दयनीय है। पिछले बाइस महिनों में कराची में मन्दिर पर यह दसवां हमला है। उससे पहले भी पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों पर भीड़ हमला करती रही है और वहां की सरकारें चुप्पी साधे रही है। अक्सर हिंदू मंदिर व हिंदू जनमानस कट्टरवादी एवं उन्मादी उपद्रवियों के हमले का शिकार होते रहते हैं। पाकिस्तान सरकार इन पर नियंत्रण की बात तो करती है किन्तु हिंदुओं के हमलावरों पर नियंत्रण कर पाने में सफल नहीं हो पाती। इससे लगता है कि सरकार की कथनी और करनी में फासला है एवं वह पूर्वाग्रहों एवं आग्रहों से ग्रस्त है। आज पाकिस्तान एवं अन्य कट्टरवादी मुस्लिम राष्ट्रों में सचमुच इसकी महती आवश्यकता है कि इस्लाम को मानने वाले शांति-पसन्द लोग आगे आएं और खुलकर कहें कि सभी रास्ते एक ही ईश्वर की ओर जाते हैं, अपने-अपने विश्वासों के साथ जीने की सबको आज़ादी है और अल्लाह के नाम पर किया जाने वाला खून-ख़राबा अधार्मिक है, अमानवीय है एवं अपवित्र है।
अब समय आ गया है कि इसका सही-सही मूल्यांकन हो कि इन कट्टरपंथी ताक़तों की जड़ में कौन-सी विचारधारा या मानसिकता काम कर रही है। वह कौन-सी विचारधारा है जो नन्हीं हिन्दू बच्चियों का अपहरण कर उन्हें मुस्लिम बनाने को अल्लाह की इच्छा करार देती है? वह कौन-सी विचारधारा है जो विद्यालयों-पुस्तकालयों-प्रार्थनाघरों-मन्दिरों पर हमला करने में बहादुरी देखती है और हज़ारों निर्दाेषों का ख़ून बहाने वालों पर गर्व करती है? वह कौन-सी विचारधारा है जो दूर देश में हुए किसी घटना-निर्णय के विरोध में अपने देश के अल्पसंख्यकों के घर जलाने, उन पर हिंसक हमले करने में सुख या संतोष पाती हैं? अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव किया जाता है, उनके मंदिरों पर हमले केवल कट्टरपंथी मुस्लिम ही नहीं करते बल्कि आम लोग भी करते हैं। पिछले कुछ सालों में ये हमले कई गुना बढ़ गए हैं। यह हमला मानसिकता को पनपाने में सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका है।
पाकिस्तान में हिन्दूओं को तरह तरह से उत्पीड़ित किया जाता है। अल्पसंख्यकों और विशेष रूप से हिंदू लड़कियों का अपहरण कर उन्हें पहले जबरन मुसलमान बनाया जाता है और फिर छल-बल का सहारा लेकर उनके अपहर्ता से ही उनका निकाह करा दिया जाता है। इसमें पुलिस, प्रशासन से लेकर अदालतें तक उन तत्वों का सहयोग करने को तत्पर रहती हैं, जो इन लड़कियों का अपहरण करते हैं। ऐसे मामलों में पाकिस्तान सरकार या तो चुप रहना पसंद करती है या फिर ऐसे जबरिया निकाह को कट्टरपंथी मुल्लाओं की तरह अल्लाह की मर्जी बताकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। पाकिस्तान में सरकार मंदिरों पर कोई खास ध्यान नहीं दे रही है। कई पुराने मंदिर या तो नष्ट कर दिए गए हैं, या फिर उनकी हालत बहुत बुरी है। यही हाल अन्य अल्पसंख्यकों का भी है। उदारवादी पत्रकार पीरजादा सलमान जैसे लोगों का मानना है कि लोग यह बात नहीं समझा पा रहे हैं कि इन हमलों के कारण वे देश की सांस्कृतिक धरोहर भी नष्ट कर रहे हैं, कराची के मालीर इलाके में एक मंदिर हुआ करता था। आर्किटेक्चर के लिहाज से यह एक शानदार इमारत थी। मंदिर में हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियों पर बहुत ही बारीकी से काम किया गया था। जब मंदिर पर हमला हुआ तब लोगों ने ये मूर्तियां भी तबाह कर दी। ये केवल पूजा पाठ की जगह नहीं थीं, बल्कि यह पाकिस्तान की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर थी। अपनी ही धरोहर को नष्ट करना पाकिस्तान के मानसिक दिवालियापन का द्योतक हैं। स्थिति कितनी भयावह है, इसे इससे समझा जा सकता है कि कुछ समय पहले जब खैबर पख्तूनख्वा में एक मंदिर को जलाने वालों पर अदालत ने जुर्माना लगाया, तो उसे हिंदुओं को ही भरना पड़ा। यह अंधेरगर्दी इसलिए हुई, क्योंकि हिंदुओं को धमका कर उन पर यह दबाव बनाया गया कि अमन-चैन बनाए रखने के लिए बेहतर यही होगा कि वे दोषियों पर लगाया गया जुर्माना खुद भरें। उन्हें ऐसा करना पड़ा।
दुनिया के किसी कोने में मुसलमानों के साथ हुई किसी मामूली या बड़ी घटना को लेकर अपने ही देश के ग़ैर इस्लामिक बंधु-बांधवों, पास-पड़ोस का अंधा विरोध, स्थानीय समाज के विरुद्ध हिंसक प्रदर्शन, अराजक रैलियां, उत्तेजक नारे, मज़हबी मजलिसें समझ से परे हैं? ऐसी मानसिकता को किस तर्क से सही ठहराया जा सकता है? पंथ-विशेष की चली आ रही मान्यताओं, विश्वासों, रिवाजों के विरुद्ध कुछ बोले जाने पर सिर काट लेने की जिद्द, फरमान और सनक सभ्य समाज में कभी नहीं स्वीकार की जा सकती। आधुनिक समाज संवाद और सहमति के रास्ते पर चलता है। समय के साथ तालमेल बिठाता है। किसी काल विशेष में लिखे गए ग्रंथों, दिए गए उपदेशों, अपनाए गए तौर-तरीकों को आधार बनाकर तर्क या सत्य का गला नहीं घोंटता। चांद और मंगल पर पहुंचते क़दमों के बीच कट्टरता की ऐसी ज़िद व जुनून प्रतिगामी एवं संकीर्ण मानसिकता की परिचायक है। इस्लाम का कट्टरपंथी धड़ा आज भी इस संकीर्ण एवं मध्ययुगीन मानसिकता से बाहर आने को तैयार नहीं। नतीजतन वह विश्व मानवता के लिए एक ख़तरा बनकर खड़ा है। आस्था के नाम पर यह उचित नहीं कि जो-जो हमसे सहमत नहीं हैं, उन्हें दुनिया में रहने व जीने का अधिकार ही नहीं। यह घोर अलोकतांत्रिक एवं अवैज्ञानिक सोच होगी। अराजकता का व्याकरण और मूर्खताओं का तर्कशास्त्र गढ़ने में माहिर लोग भी इसकी पैरवी नहीं कर सकते।
पाकिस्तान में ईसाइयों के साथ हिंदुओं एवं सिखों के उत्पीड़न का सिलसिला एक लंबे अर्से से कायम है, लेकिन न तो विश्व समुदाय इस पर ध्यान देने को तैयार है और न ही वह इस्लामिक सहयोग संगठन ( ओआइसी ), जो पाकिस्तान के इशारे पर भारत के मामलों में अनावश्यक दखल देने को उतावला रहता है। बीते दिनों इस्लामी देशों में जो भारत विरोधी माहौल बनाया गया, उसमें पाकिस्तान की तो एक बड़ी भूमिका थी ही, ओआइसी का भी हाथ था। भारत ने तब उचित ही पाकिस्तान के साथ ओआइसी को फटकार लगाई थी। अब कराची में मंदिर पर हमले की घटना को लेकर उसे फिर से ओआइसी को आईना दिखाना होगा। इसी के साथ ही इस संगठन के अन्य देशों और खासकर कतर एवं मलेशिया अपने गिरेबान में झांके? अन्य सच्चे इस्लामिक राष्ट्रों से भी यह सवाल है कि वे पाकिस्तान में जो कुछ हो रहा है, उस पर अपना मुंह खोले और पाकिस्तान का असली चेहरा पहचानने की जहमत उठाये। इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तें पूरी दुनिया में अमन और भाईचारे का माहौल बिगाड़ने का काम कर रही हैं। जबकि इस्लाम के नाम पर दुनिया के हर कोने में हो रहे आतंकवादी हमलों एवं वारदातों के विरुद्ध इस्लाम के अनुयायियों के बीच से ही आवाज़ उठनी चाहिए। पाकिस्तान जैसे इस्लाम को धुंधलाने वाले राष्ट्र की गुमराह करने वाली बातों से दूरी बनाई जानी चाहिए। उसके द्वारा मज़हब के नाम पर किये जा रहे ख़ून-खराबे का खंडन करना चाहिए था। उसे सच्चा इस्लाम न मानकर कुछ विकृत मानसिकता का प्रदर्शन माना-बतलाया जाना चाहिए था।

जैन दर्शन भगवान महावीर और समाजवाद

सृष्टि व्यवस्था में ‘धर्म’ को प्राकृतिक सत्ता माना गया है। जैन धर्म का न तो कोई आदि है और न ही अंत इसलिए यह निरग्रंथ है और प्राकृतिक धर्म है। वेदों में भी जैन धर्म को वेदों से पूर्व का स्वीकर किया गया है और जैन दर्शन की सृष्टि संबंधी व्याख्या आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से मेल खाती है। उसके अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति का कारण छोटे-छोटे पुद्गलों को माना है। ये पुद्गल परस्पर मिलकर अणु बनाते हैं। अण्ंाुंओं के संयोग से संसार की विभिन्न वस्तुओं, जड़-चेतनादि की उत्पत्ति होती है। जड़-चेतन में पुद्गलों की उपस्थिति उसे जीवनमय बनाती है। पुद्गल की तुलना हम परमाणुवाद के साथ के आधुनिक सिद्धांत से भी कर सकते हैं। यह भी विज्ञान-
प्रमाणित है कि दो परमाणु परस्पर मिलकर एक अणु की अंतर्निहित रचना करते हैं, जो सृष्टि के समस्त पदार्थों की उत्पत्ति का कारण है लेकिन पुद्गल परमाणु नहीं है। परमाणु में जीवन है, वैज्ञानिक ऐसा कोई दावा नहीं करते। वे परमाणु की गति का आंकलन कर सकते हैं। परमाणु में आतनिर्हित ऊर्जा की खोज भी की जा चुकी है।
वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार परमाणु जड़-चेतन से परे लघुत्तम कण है, जो संसार की प्रत्येक वस्तु, जड़ और चेतन दोनों की उत्पत्ति का कारण है। इससे भिन्न पुद्गल चेतनामय इकाई, जीवन का लघुत्तम रूप है। तदनुसार यह समस्त संसार छोटे-छोटे पुद्गलों से मिलकर बना है। अतएव जैन दर्शन के अनुसार दृश्यमान जगत के कण-कण में जीवन है। उनका सम्मान करना जीवन का सम्मान करना है। भगवान महावीर ने जैन दर्शन को और अधिक व्यापक दृष्टिकोण देकर, जीवन जीने के तरीकों को सरल बनाकर मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बतलाया।
भगवान महावीर, ‘त्रिशला-सिद्धार्थ’ के लाडले ‘वर्धमान’ का जन्म ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व वैशाली क्षेत्रा में हुआ। बाल्यकाल से ही उनका पालन-पोषण राजकुमारों की तरह राजसी वातावरण में हुआ किंतु बचपन से ही वे समाज में बढ़ते कर्मकांड व खंडित आचरण से क्षुब्ध थे। बचपन में ‘वर्धमान’ शांत स्वभाव के थे परंतु काफी बहादुर थे। उनमें महानता के लक्षण दृष्टिगत होने लगे थे। 30 साल की उम्र में उन्होंने सांसारिक जीवन का त्याग कर दिया और आध्यात्मिक जागरूकता पाने की चाह में उन्होंने घर छोड़ दिया और उन्हें यह महसूस हुआ कि यह केवल आंतरिक अनुशासन के माध्यम से संभव हो सकता है जिससे आगे चलकर उन्होंने न केवल सुधार किया बल्कि उस खंडित विचारधारा को अपने विचारों और क्रियाओं की तरफ मोड़कर समाज व राष्ट्र निर्माण में अविश्वसनीय योगदान दिया। वैसे तो ‘वर्धमान’ नाम उनके गर्भ में रहते हुए राजकोष में हुई वृद्धि के कारण पड़ा परंतु उनका एक ‘वीर’ नाम बाल्यकाल में उनके कृतियों/कृतों के द्वारा पड़ा जैसे उत्तेजित हाथी की सूंड़ पकड़कर उस पर सवारी करना। विषैले नाग को पूंछ से पकड़कर एक तरफ फेंक देना आदि। आगे चलकर यही ‘वीर’ स्वभाव में उदारता लिए हुए निडरता और शक्ति के साथ 28 वर्ष की आयु में ही घर-बार छोड़ जंगलों में तपस्या करने का निर्णय लिया परंतु 2 वर्ष तक पारिवारिक हस्तक्षेप के कारण वे रुके और 30 वर्ष की आयु में जंगलों की तरफ मुंह कर लिया। वहीं फिर तप किया और तपस्या भी की। उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत दिये और उन पर अपने आप से तप और तपस्या में लीन हुए इसलिए उन्होंने गंभीर तपस्या और भौतिक तपत्व का जीवन जीना शुरू किया। अगले साढ़े बारह वर्ष तक जम्बक में एक विशाल वृक्ष के नीचे गहन ध्यान और कड़ी तपस्या करने के बाद उन्हें कैवल्याज्ञान की प्राप्ति हुई। कैवल्याज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने अहिंसा, सत्य, असत्य (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (शुद्ध आचरण) और अपरिग्रह (गैर लगाव) की सीख दी जो कि आध्यात्मिक प्राप्ति के लिए आवश्यक है। एक साल तक उन्होंने एक ही वस्त्रा पहना और उसके पश्चात उन कपड़ों का भी त्याग कर निर्वस्त्रा रहने लगे। उन्होंने ठान लिया था कि वे कोई भी संपत्ति साथ में नहीं रखेंगे फिर चाहे वो पानी पीने के लिए कटोरा ही क्यों ना हो? वे अपने हाथों के खोकलों में ही दान लिया करते थे। अहिंसा पर सर्वोच्च अधिकार के नाते महावीर का सभी आदर करते हैं। सभी परिस्थितियों में उन्होंने अहिंसा का ही समर्थन किया और उनकी इसी शिक्षा का महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महान व्यक्तियों पर भी काफी प्रभाव रहा है। इन्हीं ‘वीर’ ने जब अपनी इंद्रियों को वश में कर अपने अंतरंग में प्रवेश किया तभी से वे ‘वीर’ से ‘महावीर’ कहलाये। आत्मिक और शाश्वत सुख की प्राप्ति हेतु यही पंचशील के पांच सिद्धांत सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य और ब्रह्मचर्य हुए।

अहिंसा: पहला मूलभूत सिद्धांत देते हुए भगवान महावीर ने कहा है ‘अहिंसा परमो धर्म’। इस अहिंसा में समस्त जीवन का सार समाया है। इसे हम अपनी सामान्य दिनचर्या में निम्नलिखित नीतियों को अपनाकर अहिंसा धर्म का पालन कर सकते हैं।
थ् कायिक अहिंसा (कष्ट न देना)ः यह अहिंसा का सबसे स्थूल रूप है जिसमें हम किसी भी प्राणी को जाने - अनजाने अपनी काया द्वारा हानि नहीं पहुंचाते।
थ् मानसिक अहिंसा (अनिष्ट नहीं सोचना)ः अहिंसा का सूक्ष्म स्तर है। किसी भी प्राणी के लिए अनिष्ट, बुरा, हानिकारक नहीं सोचना।
थ् बौद्धिक अहिंसा (घृणा न करना)ः अहिंसा के सूक्ष्म स्तर पर ऐसा बौद्धिक विकास होता है कि जीवन में आने वाली किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के प्रति घृणा के भाव का त्याग हो जाता है।
थ् सत्य से अभिप्राय है कि ‘सही का चुनाव’

सत्य सिद्धांत का अर्थ है-
थ् उचित व अनुचित में से उचित का चुनाव करना
थ् शाश्वत व क्षणभंगुर में से शाश्वत का चुनाव करना
थ् अचौर्य का आध्यात्मिक अर्थ है –  शरीर-मन-बुद्धि को ‘मैं’ नहीं मानना। ‘मैं’ शुद्ध चैतन्य स्वरूप हूँ तथा शरीर-मन-बुद्धि इस मानव जीवन का यापन करने हेतु मात्रा साधन रूप हैं जिनके द्वारा हम अपने यथार्थ स्वरूप तक पहुँच सकें। जैसे जल से भरी मटकी का कार्य केवल जल को अपने भीतर संभालना है, मटकी जल नहीं है। प्यास जल से बुझती है, मटकी से नहीं। इसी प्रकार चेतना इस शरीर-मन-बुद्धि में व्यापक है परंतु वह ‘मैं’ अर्थात स्वरूप नहीं है। अपनी अज्ञान अवस्था से बाहर आकर जब हम अपने शुद्ध आत्मिक स्वरूप को ही ‘मैं व मेरा’ मानते हैं तभी भगवान द्वारा प्रदत्त अचौर्य के सिद्धांत का पालन होता है।
थ् ब्रह्मचर्य- यह सिद्धांत उपरोक्त तीन सिद्धांतों -अहिंसा, सत्य, अचौर्य के परिणामस्वरूप फलीभूत होता है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘ब्रह्म$चर्य‘ अर्थात ब्रह्म (चेतना) में स्थिर रहना।
थ् अपरिग्रह- जो स्व स्वरूप के प्रति जागृत हो जाता है और शरीर-मन-बुद्धि को अपना न मानते हुए जीवन व्यतीत करता है उसकी बाह्य दिनचर्या संयमित दिखती है, जीवन की हर अवस्था में अपरिग्रह का भाव दृष्टिगोचर होता है।
अपरिग्रह के निम्नलिखित
तीन आयाम हैं –
थ् वस्तुओं का अपरिग्रह
थ् व्यक्तिओं का अपरिग्रह
थ् विचारों का अपरिग्रह
भगवान महावीर ने यह संदेश दिया कि दुनिया की सभी आत्मा एक सी है और हर व्यक्ति दूसरों के प्रति वही विचार, आचरण और व्यवहार रखे जो हमें स्वयं के लिए पसंद हो इसी से महावीर स्वामी
द्वारा दिया गया संदेश ‘जियो और जीने दो’ की उत्पत्ति हुई। भगवान महावीर ने संपूर्ण भारत भर में प्रवास किया और अपने दर्शन की शिक्षा दी जो तीन आध्यात्मिक सम्यक आचरण, समयक कर्तव्य, सम्यक बोध पर और पांच नैतिक तत्वों ‘‘अहिंसा’’ यानी हिंसा न करना, ‘‘सत्य’’ यानी सच बोलना, ‘‘असत्य’’ यानी चोरी न करना, ‘‘ब्रह्मचर्य’’ यानी शुद्ध आचरण और ‘‘अपरिग्रह’’ यानी सम्पत्ति जमा न करने पर आधारित थी।
भगवान महावीर के 30 वर्ष बाद समकालीन काल में महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ और भगवान महावीर के विचार, आचार और उपदेशों से प्रभावित होकर उन्होंने भी त्याग-तपस्या का मार्ग अपनाकर भगवान महावीर द्वारा बताई गयी क्रियाओं व उपदेशों को, जो अत्यंत कठिन और कठोर थे, कुछ सरल कर अंतरग में उतारा और उनका अनुशरण कर अहिंसा और शांति का विश्व को उपदेश दिया।
भगवान महावीर पहले पुरुष रहे जिन्होंने सामाजिक शक्ति के महत्व को समझने एवं समाजवादी अर्थव्यवस्था ( आज का समाजवादी विचार) का विचारों में सूत्रा पात कर परिग्रह की मर्यादा को समझाया। भगवान महावीर के अनुसार व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का परिसीमन खुद कर अतिरिक्त धन को लोक कल्याण में लगाये। परिग्रह की मर्यादा और महत्व का संदेश दिया जिसका प्रयोजन व्यक्ति संयम से लेकर समाज में सम वितरण में करे। जैन गृहस्थ अपनी आय में से आहार, औषध, अभय और ज्ञान दान के निमित्त राशि निकालना अपना परम कर्त्तव्य समझता है। इस प्रकार के दानों से समाज में सन्तुलन रहता है जो समाजवादी विचारधारा का महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। समाज के सभी लोकोपकारी कार्यों में अपने अर्जित धन में से वितरण समाज की अर्थव्यवस्था को सन्तुलन देता है। जैनधर्म की यह समाजवादी अर्थव्यवस्था परिग्रहपरिमाण व्रत से पुष्ट होती है जो व्यक्तिगत और समाजगत दोनों के लिए सुखी व्यवस्था का प्रमुख आधार है इसीलिए महावीर स्वामी ने अपने समय में जिस अहिंसा के सिद्धांत का भी जो प्रचार किया, वह निर्बलता और कायरता उत्पन्न करने के बजाय राष्ट्र का निर्माण और संगठन करके उसे सब प्रकार से सशक्त और विकसित बनाने वाली थी। उसका उद्देश्य मनुष्य मात्रा के बीच शांति और प्रेम का व्यवहार स्थापित करना था, जिसके बिना समाज कल्याण और प्रगति की कोई आशा नहीं की जा सकती।
भगवान महावीर के संपत्ति-संबंधी सिद्धांत और समाजवाद में महज इतना अंतर है कि समाजवाद राजनीतिक-संवैधानिक व्यवस्था है, जबकि जैन दर्शन नैतिक आचरण है। वह त्याग और सर्वकल्याण की भावना पर टिका है। यह आत्मानुशासन के बिना संभव नहीं। समाजवाद में अनुशासन के लिए राजनीति की मदद ली जाती है जो कि बाहरी और खर्चीला उपक्रम है। उसकी अपेक्षा अपरिग्रह नैतिकता की जमीन पर खड़ा होता है। जाहिर है कि यह उच्च मानव आदर्श है। भगवान महावीर द्वारा अहिंसा और अपरिग्रह जैसे सिद्धांतांे को अपनाकर और अनुसरण करते रहने से ही आज विश्व में जिस प्रकार अशंाति, आतंक, भ्रष्टाचार और हिंसा का वातावरण बना हुआ है और इतना बढ़ गया है कि यह स्थिति कभी भी विस्फोटक हो सकती है, सृष्टि के अस्तित्व का विनाश हो सकता है। ऐसे में समाधान निकाला जा सकता है। ‘जियो और जीने दो’ जैसे संदेश में हिंसक वातावरण को शांत किया जा सकता है। साथ-साथ इसके पंचशील के सर्वोदय सिद्धांतों को अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार कर हम विश्व में शांति, पर्यावरण शुद्धि, पारस्परिक सौहार्द, विश्व मैत्राी भाव को दुनिया के कोने-कोने में पहुंचाकर सफल हो सकेंगे।
भगवान महावीर की अमूल्य
कल्याणकारी शिक्षाएं विश्व का कायाकल्प कर सभी के जीवन में सुख, चैन, शांति की वृद्धि करें यह हम सब की मंगल कामना है।

आतंक पर रोक के लिए सिंधु-जल संधि बने औजार

प्रमोद भार्गव

कश्मीर में आतंकी गैर-मुस्लिम पेशेवरों को निशाना बनाने की नई साजिश को अंजाम दे रहे हैं। जिस दौरान भारत-पाकिस्तान ने स्थाई सिंधु आयोग की रिपोर्ट को अंतिम रूप देकर हस्ताक्षर किए, उसी दौरान पाकिस्तान परस्त आतंकी घाटी में एक-एक कर हिंदू नौकरीपेशाओं की लक्षित हत्या में लगे थे। राहुल भट्ट, रजनीबाला, बैंक प्रबंधक विजय कुमार ऐसी ही हत्याओं के परिणाम हैं। बीते 22 दिन में 19 नागरिकों की लक्षित हत्याएं हुई हैं। हालांकि इनमें ऐसे मुस्लिम भी शामिल हैं, जिनका रुख हिंदुओं के प्रति उदार है। बावजूद सिंध ुजल संधि एक ऐसी संधि है, जो दोनों देशों के बीच युद्ध और द्विपक्षीय संबंधों में ठहराव से बची हुई है। किंतु जब पाक उरी, पाठानकोट और पुलवामा आतंकी हमलों के बाद अब कश्मीर  में आ रही शांति  और स्थिरता को अशांत और अस्थिर करने से बाज नहीं आ रहा है, तब भारत को इस संधि पर पुनर्विवार की जरूरत है। यह इसलिए उचित है, क्योंकि पाकिस्तान अपनी नापाक हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। पाक आतंकी घटनाओं को अंजाम देकर, एक तो कश्मीरियों के हितों की चिंता की नौटंकी करता है, दूसरे इसके ठीक विपरीत अवैध कब्जे वाले कश्मीर  के लोगों का अमानुषिक  दमन करता है। इससे उसका दोहरा चरित्र इस मायने में सामने आता है कि उसकी चिंता कश्मीरियों के प्रति न होकर भारत को परेशान करने के अलावा कुछ नहीं है। अतएव जब भारत बार-बार यह कहता है कि ‘बातचीत और आतंकवाद एक साथ नहीं चल सकते हैं‘ तब वह संधि पर हस्ताक्षर करने को तैयार क्यों होता है ? तय है, भारत सरकार ने पाकिस्तान को ईंट का जबाव पत्थर से नहीं दिया तो कश्मीर  में विस्थापित हिंदुओं के पुर्नवास की जो पहल शुरू  हुई है, उसे झटका लगना तय है।     

 भारत में ढाई दशक से चले आ रहे पाक प्रायोजित छाया युद्ध के बरखिलाफ 1960 में हुए सिंधु जल समझौते को रद्द करने की अब जरूरत आन पड़ी है। क्योंकि आपसी विश्वास  और सहयोग से ही कोई समझौता स्थाई बना रह सकता है। वैसे भी इस समझौते में साख की खास अहमियत है, जो टूट रही है। मालूम हो, विश्व बैंक की मध्यस्थता में 19 सितंबर 1960 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी राश्ट्रपति अयूब खान ने सिंधु जल-संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इसके अंतर्गत पाकिस्तान से पूर्वी क्षेत्र की तीन नदियों व्यास, रावी व सतलज की जल राशि  पर नियंत्रण भारत के सुपुर्द किया था और पश्चिम की नदियों सिंधु, चिनाब व झेलम पर नियंत्रण की जिम्मेबारी पाक को सौंपी थी। इसके तहत भारत के ऊपरी हिस्से में बहने वाली इन छह नदियों का 80.52 यानी 167.2 अरब घन मीटर पानी पाकिस्तान को हर साल दिया जाता है। जबकि भारत के हिस्से में महज 19.48 प्रतिशत पानी ही शेष  रह जाता है। नदियों की ऊपरी धारा ( भारत में बहने वाला पानी) के जल-बंटवारे में उदारता की ऐसी अनूठी मिसाल दुनिया के किसी भी अन्य जल-समझौते में देखने में नहीं आई है। इसीलिए अमेरिकी सीनेट की विदेशी  मामलों से संबंधित समिति ने 2011 में दावा किया था कि यह संधि दुनिया की सफलतम संधियों में से एक है। लेकिन यह संधि केवल इसलिए सफल है, क्योंकि भारत संधियों की शर्तों को निभाने के प्रति अब तक उदार एवं प्रतिबद्ध बना हुआ है। जबकि जम्मू-कश्मीर  को हर साल इस संधि के पालन में 60 हजार करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ता है। भारत की भूमि पर इन नदियों का अकूत जल भंडार होने के बावजूद इस संधि के चलते इस राज्य को बिजली नहीं मिल पा रही है।

दरअसल सिंधु-संधि के तहत उत्तर से दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा सुनिश्चित  की गई है। इसके तहत सिंधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां सिंधु, चिनाब और झेलम पूरी तरह पाकिस्तान को उपहार में दे दी गई हैं। इसके उलट भारतीय संप्रभुता क्षेत्र में आने वाली व्यास, रावी व सतलज नदियों के बचे हुए हिस्से में ही जल सीमित रह गया है। इस लिहाज से यह संधि दुनिया की ऐसी इकलौती अंतरदेशी य जल संधि है, जिसमें सीमित संप्रभुता का सिद्धांत लागू होता है। और संधि की असमान शर्तों के चलते ऊपरी जलधारा वाला देश, नीचे की ओर प्रवाहित होने वाली जलधारा वाले देश पाकिस्तान के लिए अपने हितों की न केवल अनदेखी करता है, वरन बालिदान कर देता है।

इतनी बेजोड़ और पाक हितकारी संधि होने के बावजूद पाक ने भारत की उदार शालीनता का उत्तर पूरे जम्मू-कश्मीर  क्षेत्र में आतंकी हमलों के रूप में तो दिया ही, इनका विस्तार भारतीय सेना व पुलिस के सुरक्षित ठिकानों तक भी देखने में आया है। प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में ही उड़ी, हेरात, गुरूदासपुर, उधमपुर, पठानकोट, मजार-ए-शरीफ, पंपोर और जलालाबाद में आतंकी हमले हुए हैं। ये सभी हमले आतंकवाद को बहाना बनाकर छद्म युद्ध के जरिए किए गए, जबकि ये सभी हमले पाक सेना की करतूत हैं। दरअसल छद्म युद्ध में लागत तो कम आती ही है, हमलाबर देश पाकिस्तान वैष्विक मंचों पर इस बहाने रक्षात्मक भी हो जाता है कि इन हमलों में उसका नहीं, आतंकवादियों का हाथ है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि इस संधि को तोड़ने की हिम्मत न तो 1965 में भारत-पाक युद्ध के बाद दिखाई गई और न ही 1971 में। हालांकि 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में विभाजित कर  नए राश्ट्र बांग्लादेश को अस्तित्व में लाने की बड़ी कूट व रणनीतिक सफलता हासिल की थी। कारगिल युद्ध के समय भी इस संधि को तोड़ने से चूके हैं।

दरअसल पाकिस्तान की प्रकृति में ही अहसानफरोशी  शुमार है। इसीलिए भारत ने जब झेलम की सहायक नदी किशनगंगा पर बनने वाली ‘किशन गंगा जल विद्युत परियोजना‘ की बुनियाद रखी तो पाकिस्तान ने बुनियाद रखते ही नीदरलैंड में स्थित ‘अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय‘ में 2010 में ही आपात्ति दर्ज करा दी थी। जम्मू-कश्मीर  के बारामूला जिले में किशनगंगा नदी पर 300 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना प्रस्तावित है। हालांकि 20 दिसंबर 2013 को इसका फैसला भी हो गया था। दुर्भाग्य कहलें या भारत द्वारा ठीक से अपने पक्ष की पैरवी नहीं करने के कारण यह निर्णय भारत के व्यापक हित साधे रखने में असफल रहा है। न्यायालय ने भारत को परियोजना निर्माण की अनुमति तो दे दी, लेकिन भारत को बाध्य किया गया कि वह ‘रन आॅफ दि रिवर‘ प्रणाली के तहत नदियों का प्रवाह निरंतर जारी रखे। फैसले के मुताबिक किशनगंगा नदी में पूरे साल हर समय 9 क्यूसिक मीटर प्रति सेंकेड का न्यूनतम जल प्रवाह जारी रहेगा। हालांकि पाकिस्तान ने अपील में 100 क्यूसिक मीटर प्रति सेकेंड पानी के प्राकृतिक प्रवाह की मांग की थी, जिसे न्यायालय ने नहीं माना। पाकिस्तान ने सिंधु जल-समझौते का उल्लघंन मानते हुए भारत के खिलाफ यह अपील दायर की थी। इसके पहले पाकिस्तान ने बगलिहार जल विद्युत परियोजना पर भी आपत्ति दर्ज कराई थी। जिसे विश्व बैंक ने निरस्त कर दिया था।

किशनगंगा को पाकिस्तान में नीलम नदी के नाम से जाना जाता है। इसके तहत इस नदी पर 37 मीटर यानी 121 फीट ऊंचा बांध निर्माणाधीन है। बांध की गहराई 103 मीटर होगी। यह स्थल गुरेज घाटी में है। इसका निर्माण पूरा होने के अंतिम चरण में है। बांध बनने के बाद किशनगंगा के पानी को बोनार मदमती नाले में प्रवाहित किया जाएगा। भारत ने इस परियोजना की शुरूआत 2007 में 3642.04 करोड़ की लागत से की थी। न्यायालय के फैसले के परिप्रेक्ष्य में प्रश्न यह खड़ा होता है कि यदि किसी साल पानी कम बरसता है और किशनगंगा नदी बांध में पानी छोड़ने के लायक रह ही नहीं जाता है तो ‘रन आॅफ दी रिवर‘ प्रणाली का सिद्धांत अमल में कैसे लाया जाएगा ? इस दृष्टि से यह फैसला सिंधु जल-संधि की संकीर्ण व्याख्या है। कालांतर में पाकिस्तान को यदि इस फैसले के मुताबिक पानी नहीं मिलता है तो उसे यह कहने का मौका मिलेगा कि भारत अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय के फरमान का सम्मान नहीं कर रहा है। इसलिए भारत को सिंधु जल-बंटवारे पर पुनर्विचार की जरूरत है।

दरअसल द्विपक्षीय वार्ता के बाद षिमला समझौते में स्पश्ट उल्लेख है कि पाकिस्तान अपनी जमीन से भारत के खिलाफ आतंकवाद को फैलाने की इजाजत नहीं देगा। किंतु पाकिस्तान इस समझौते के लागू होने के बाद से ही, इसका खुला उल्लघंन कर रहा है। लिहाजा पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने के नजरिए से भारत को सिंधु जल-संधि को ठुकराकर पानी को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत है। पाकिस्तान की 2.6 लाख एकड़ कृषि भूमि इन्हीं नदियों के जल से सिंचित होती है। पेयजल का भी यही नदियां प्रमुख संसाधन हैं। यदि भारत कूटनीतिक पहल करते हुए इन नदियों का जल अवरुद्ध कर दे तो पाकिस्तान की कमर टूट जाएगी। पाक को सबक सिखाने का यह सबसे सरल और श्रेश्ठ उपाय है। नदियों के प्रवाह को बाधित करना इसलिए भी अनुचित नहीं है, क्योंकि यह संधि भारत के अपने राज्य जम्मू-कश्मीर  के नागरिकों के लिए न केवल औद्योगिक व कृशि उत्पादन हेतु पानी के दोहन में बाधा बन रही है, बल्कि पेयजल के लिए नए संसाधन निर्माण में भी बांधा है। इस संधि के चलते यहां की जनता को पानी के उपयोग के मौलिक अधिकार से भी वंचित होना पड़ रहा है। हैरानी की बात यह भी है कि यहां सत्तारूढ़ रहने वाली सरकारों और अलगाववादी जमातों ने इस बुनियादी मुद्दे को उछालकर पाकिस्तान को कठघरे में कभी खड़ा नहीं किया ? इसलिए आतंक का माकूल जबाव देने के लिए भारत सरकार को सिंधु जल को कूटनीतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत है।

सनातन धर्म संस्कृति व परंपराओं के ध्वजवाहक और सफल राजनेता “योगी आदित्यनाथ”

दीपक कुमार त्यागी

भारतीय राजनीति में उत्तर प्रदेश की हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका रही है, वैसे भी देखा जाये जनसंख्या के हिसाब से उत्तर प्रदेश भारत का सबसे बड़ा राज्य है, इसलिए यह भारत की राजनीति के केंद्र बिंदु में हमेशा अपना अहम स्थान बनाकर रखता है‌। फिलहाल उत्तर प्रदेश की कमान एक ऐसे ओजस्वी युवा व्यक्तित्व भगवाधारी संन्यासी “योगी आदित्यनाथ” के हाथों में है, जिनका जीवन देश समाज व सनातन धर्म के लिए पूर्ण रूप से समर्पित है। वैसे तो “योगी आदित्यनाथ” का जन्म 5 जून 1972 को देवभूमि उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जनपद के पैतृक गांव पंचूर में हुआ था, जो उस समय अविभाजित उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। एक आम मध्यवर्गीय गढ़वाली राजपूत परिवार में जन्मे “योगी आदित्यनाथ” के पिता का नाम आनन्‍द सिंह बिष्‍ट और माता का नाम सावित्री देवी है, योगी सात भाई-बहनों में पांचवें नंबर की संतान हैं, हालांकि संत परंपरा में पिता के नाम की जगह गुरु का नाम आता है, जिसका योगी पूरे सम्मान के साथ निर्वहन करते हैं। वह उत्तराखंड के हेमवती नन्‍दन बहुगुणा गढ़वाल विश्‍वविद्यालय, श्रीनगर से विज्ञान स्‍नातक हैं। “योगी आदित्यनाथ” वर्ष 1993 में पढ़ाई के दौरान अचानक ही गोरखपुर चले आए थे, उस वक्त योगी के मन में क्‍या चल रहा था, यह उनके घरवालों व अन्य किसी दोस्त तक को भी नहीं पता था। जब यहां आकर उन्होंने देखा कि सम्पूर्ण पूर्वी उत्तर प्रदेश मज़हबी जेहाद, हिन्दुओं के धर्मान्तरण, नक्सली व माओवादी हिंसा, आकंठ भ्रष्टाचार तथा माफियाओं के चलते जबरदस्त अपराध की अराजकता में जकड़ा हुआ है, जिसे देखकर “योगी आदित्यनाथ” का मन बेहद व्यथित हुआ। वैसे भी योगी का मन सनातन धर्म, संस्कृति, अध्यात्म, शिक्षा, समाज सेवा, सांस्कृतिक चिंतन, लेखन, हिन्दुत्वनिष्ठ राष्ट्रवादी राजनीति एवं गोरक्षा के कार्य आदि में ही अधिक लगता था। जिसके चलते उन्होंने नाथपंथ के विश्व प्रसिद्ध मठ “श्री गोरक्षनाथ मंदिर” गोरखपुर के गोरक्षपीठाधीश्वर

महंत अवेद्यनाथ महाराज से उन्होंने संन्‍यासी बनने की इच्‍छा प्रकट की थी। जिसके पश्चात 15 फरवरी सन 1994 की पावन तिथि पर गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ महाराज ने अपने उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ का दीक्षाभिषेक सम्पन्न किया था। 22 साल की उम्र में वह सांसारिक मोह-माया छोड़कर अब एक योगी बन गए और इसके बाद उनका नाम संत परंपरा के अनुसार बदल कर “अजय सिंह बिष्‍ट” से “योगी आदित्यनाथ” हो गया था। 

“योगी आदित्यनाथ” ने वर्ष 1996 में अपने गुरु महंत अवेद्यनाथ महाराज के लोकसभा चुनाव के प्रबंधन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन किया था। वर्ष 1998 में गुरुदेव महंत अवेद्यनाथ महाराज ने योगी को अपना उत्तराधिकारी घोषित करके लोकसभा प्रत्याशी घोषित करने का कार्य किया था। मात्र 26 वर्ष की आयु में “योगी आदित्यनाथ” के लोकसभा चुनाव में विजय के साथ इनके राजनीतिक करियर की धमाकेदार शुरुआत हुई थी। उस वक्त योगी को देश में सबसे कम उम्र का लोकसभा सांसद होने का गौरव भी प्राप्‍त हुआ था। दिन-प्रतिदिन “योगी आदित्यनाथ” पर मठ से जुड़ी व सामाजिक जिम्मेदारी बढ़ती चली गयी, उन पर नाथपंथ की सर्वोच्च सिद्धपीठ “श्री गोरखनाथ मंदिर” गोरखपुर के पीठाधीश्वर महंत के दायित्व के निर्वहन के साथ-साथ “श्री गोरक्षपीठ” के द्वारा संचालित महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद के अंतर्गत लगभग साढ़े चार दर्जन शिक्षण, प्रशिक्षण, चिकित्सा एवं सेवा संस्थानों के प्रबंधक, अध्यक्ष एवं मार्गदर्शक की जिम्मेदारी भी आ गयी थी। वह देश में सनातन धर्म के एक महत्वपूर्ण रक्षक के साथ-साथ, शिक्षा-चिकित्सा संस्थानों में अनेक मौलिक प्रयोग कर विविध नवाचारों के प्रतिष्ठापक और विभिन्न पुस्तकों के लेख भी हैं। उनके द्वारा लिखित यौगिक षट्कर्म, हठयोग: स्वरूप एवं साधना, राजयोग: स्वरूप एवं साधना, हिन्दू राष्ट्र नेपाल – अतीत एवं वर्तमान पुस्तकें बेहद प्रसिद्ध हैं। वह “श्री गोरखनाथ मंदिर” द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका “योगवाणी” के प्रधान संपादक भी हैं। वह देश में  नाथपंथ एवं नाथयोग दर्शन के एक प्रकांड विद्वान हैं। नाथपंथ एवं योगदर्शन के साथ-साथ देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य, सामाजिक, सांस्कृतिक, विभिन्न ज्वलंत मुद्दों व राष्ट्रीय विषयों पर विभिन्न समाचारपत्र व पत्रिकाओं में “योगी आदित्यनाथ” के ज्ञानवर्धक आलेख निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं, जिनमें “योगी आदित्यनाथ” के देश व समाज हित के अनमोल विचार एवं चिंतन की प्रतिध्वनि स्पष्ट रूप से नज़र आती है। “योगी आदित्यनाथ” ने वर्ष 1998, 1999, 2004, 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव में लगातार जीत हासिल करके अपनी राजनीतिक धमक देश के ताकतवर राजनेताओं को दिखाने का कार्य किया था, उन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र ही नहीं बल्कि पूरे देश में मात्र 42 वर्ष की उम्र में लगातार पांच बार लोकसभा सांसद बनने का अहम रिकॉर्ड कायम किया था।

*”योगी आदित्यनाथ” देश में सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों के अध्येता एवं समालोचक हैं। उनको एक सफल राजनेता, मुख्यमंत्री के साथ-साथ मौलिक चिंतक, शोध-अध्येता, दार्शनिक एवं व्यावहारिक योग के प्रकांड विद्वान के रूप में देश ही नहीं बल्कि दुनिया में ख्याति प्राप्त है। वह दुनिया में भारतीय सनातन धर्म एवं संस्कृति के आज मुख्य ध्वजवाहकों में से एक हैं, वह ‘हिंदुत्व ही राष्ट्रीयता है’ के एक मुख्य उद्घोषक हैं। वह भारत में आज के दौर में चल रही धर्माधारित राजनीति के मुख्य प्रतिमान बन गये है। वह भारत की राजनीति में एक नई कार्य-संस्कृति के मुख्य प्रतीक बन गये हैं। देश व समाज हित की निष्पक्ष राजनीति करने के चलते वह लोक-कल्याण पथ के सर्वश्रेष्ठ पथिक हैं, वह सामाजिक समरसता के सच्चे वाहक हैं, उनका स्वानुशासित योगमय कठोर परिश्रमी जीवन आम जनमानस के लिए अनुकरणीय है।”*

देश-दुनिया में चर्चित भगवाधारी संन्यासी “योगी आदित्यनाथ” का मुख्यमंत्री के रूप में अब उत्तर प्रदेश में दूसरा कार्यकाल चल रहा है। वैसे तो “योगी आदित्यनाथ” पहले से ही भारतीय राजनीति का एक बेहद चर्चित, बेहद लोकप्रिय व प्रसिद्ध चेहरा रहें हैं, उनका देश व प्रदेश की जनता के बीच हमेशा जलवा क़ायम रहा है। वैसे जनता के दृष्टिकोण से देखा जाए तो वह “योगी आदित्यनाथ” को उनकी आक्रामक शैली की वजह से ही बेहद पसंद करती है। देश की जनता के बीच “योगी आदित्यनाथ” की छवि एक ऐसे बेबाक फायर ब्रांड नेता की बनी हुई है, जिससे जन अदालत में मोर्चा लेने के लिए विपक्षी दलों के दिग्गज राजनेताओं को भी बार-बार सोच विचार करना पड़ता है। वह भारत की राजनीति में एक ऐसे राजनेता हैं, जो कि सनातन धर्म संस्कृति की परंपराओं का सिर्फ अपने क्षणिक राजनीतिक हित साधने के लिए दिखावा ना करके, अपने रोजमर्रा के जीवन में दिल से जीने का कार्य करते हैं। “योगी आदित्यनाथ” के रोजमर्रा के जीवन में सनातन धर्म की छाप स्पष्ट रूप से झलकती है, जिसके चलते ही “योगी आदित्यनाथ” देश के बहुसंख्य सनातन धर्म के करोड़ों अनुयायियों के बीच आज बेहद लोकप्रिय हैं।

*”उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का प्रथम बार पदभार संभालने के बाद से लगभग हर दिन योगी आदित्यनाथ अपनी आक्रामक हिंदुत्ववादी व जनहित की कार्यशैली के बलबूते देश की राजनीति में जबरदस्त ढंग से चर्चाओं में बने रहने में कामयाब रहे हैं। आज उनके कार्यकाल की सबसे अच्छी बात यह है कि योगी राज में छोटे-बड़े विभिन्न माफियाओं पर बिना किसी जाति-धर्म अमीर-गरीब के भेदभाव के कार्रवाई हो रही है। उन्होंने बिना किसी भेदभाव के ध्वनि प्रदूषण कम करने के लिए उत्तर प्रदेश में धार्मिक स्थलों से एक लाख से अधिक लाउडस्पीकर उतरवाने के बेहद असंभव कार्य को बेहद शांतिपूर्ण ढंग से करवा कर इतिहास रचने का कार्य किया है, देश के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री के लिए योगी की यह निष्पक्ष कार्यशैली एक बहुत बड़ी नज़ीर है। आज योगीराज में उत्तर प्रदेश में बात-बात पर दंगा-फसाद करके अपनी मनमानी करने वाले लोगों व अपराध करने वाले लोगों के बीच योगीराज के बुलडोजर का जबरदस्त खौफ व्याप्त है, कभी उत्तर प्रदेश में कानून को अपनी जेब में रखने वाले निरंकुश बेखौफ अपराधियों में आज योगीराज के चलते कानून का भय व्याप्त है।”*

वैसे धरातल पर बिना किसी राजनीतिक दुर्भावना से ग्रस्त होकर निष्पक्ष रूप से आंकलन किया जाये तो इसबार उत्तर प्रदेश में दोबारा से “योगी आदित्यनाथ” की सरकार बनवाने में अपराधियों के खिलाफ बेखौफ होकर उनकी बुलडोजर चलवाने वाली छवि का बहुत बड़ा योगदान रहा है। प्रदेश के मतदाताओं के बीच यह संदेश चला गया कि योगी जो कहते हैं वह उस पर कायम रहकर धरातल पर कार्य करके दिखाते हैं, वैसे देखा जाए तो सार्वजनिक जीवन में यही छवि किसी भी राजनेता की सबसे बड़ी वास्तविक पूंजी होती है, जिसको सफलतापूर्वक “योगी आदित्यनाथ” ने एकत्र करने का कार्य अब कर लिया है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में अपने प्रथम कार्यकाल में “योगी आदित्यनाथ” ने जिस प्रकार से अपराधियों पर जो बुलडोजर चलवाने वाली कार्यवाही की थी, योगी के उस बुलडोजर ने उत्तर प्रदेश के माफियाओं के बुलंद हौसलों व इमारतों दोनों को ध्वस्त करने का कार्य करते हुए जनता के दिलों में योगी के लिए बेहद सम्मानजनक स्थान बनाने का कार्य किया है। 

उत्तर प्रदेश के लोगों का मानना है कि योगी राज में पूर्ववर्ती सरकारों की भांति राज्य में अपराधियों को जाति-धर्म के आधार पर अपराध करने की छूट मिलना अब पूरी तरह से बंद हो गयी है, जिसके चलते राज्य में धरातल पर धीरे-धीरे कानून व्यवस्था में सुधार हो रहा है। उत्तर प्रदेश के विकास को नये आयाम देने के लिए राज्य में बड़ी-बड़ी बुनियादी ढांचागत परियोजनाएं का तेजी के साथ निर्माण किया जा रहा है, राज्य में विश्वस्तरीय सड़कों का जाल बुना जा रहा है, उत्तर प्रदेश के विकास को गति देने के लिए सड़कों को गड्ढों से मुक्त करने के लिए समय समय पर बृहद अभियान चलाये जा रहे हैं। योगी राज में हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर में बढ़ोतरी व सुधार के लिए कार्य किये जा रहे हैं, चिकित्सा शिक्षा के लिए मेडिकल कॉलेज खोले जा रहे हैं, घातक कोरोना महामारी व एन्सेफलाइटिस जैसी गंभीर बिमारियों के खिलाफ योगी सरकार का धरातल पर निरंतर युद्ध जारी है। किसानों को विभिन्न प्रकार से राहत देने के लिए योगी सरकार वचनबद्ध होकर कार्य कर रही है। महिला सशक्तिकरण व सुरक्षा के लिए योगी सरकार लगातार कार्य कर रही है। प्रदेश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए योगी सरकार वचनबद्ध है, वह प्रदेश में निवेश के लिए निरंतर विभिन्न अवसर पैदा करने का कार्य कर रही है। कोरोना काल में जबरदस्त मंदी के बावजूद भी उत्तर प्रदेश की जनता के लिए रोजीरोटी का बंदोबस्त करवाना योगीराज की बड़ी उपलब्धि है। कोरोना काल में जब सभी के दरवाजे आम जनता के लिए बंद थे उस वक्त अपनी जान की परवाह ना करके आम लोगों के जीवन बचाने के लिए “योगी आदित्यनाथ” ने निरंतर लोगों के बीच पहुंचकर आम जनमानस व कोरोना वारियर्स की हौसला अफजाई करते हुए व्यवस्था को बखूबी बनाए रखने का कार्य किया था। आज “योगी आदित्यनाथ” उत्तर प्रदेश सरकार के सिस्टम को आमूलचूल बदलकर प्रदेश की जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए निरंतर कार्य कर रहे हैं।

मुख्यमंत्री व सफल राजनेता के रूप में “योगी आदित्यनाथ” की कार्यशैली की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह आम जनता से भी सीधा संवाद और संपर्क करते हैं। उनकी उस कार्यशैली का ही यह परिणाम है कि वह राजनीतिक जिम्मेदारी, मुख्यमंत्री के पद की जिम्मेदारी, धार्मिक, सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के साथ-साथ ही निरंतर समाज से जुड़ी व आम जनमानस की व्यक्तिगत समस्याओं के बखूबी निवारण के लिए प्रयास करते रहते हैं। देश के आम जनमानस व राजनीतिक गलियारों में योगी अपनी स्पष्टवादिता के लिए जाने जाते हैं, देश, समाज व सनातन धर्म एवं संस्कृति का हित उनके लिए बेहद अहम है। हालांकि वह हमेशा देश में उग्र हिन्दुत्व के बड़े पैरोकार रहे हैं और आज वह उसके सबसे बड़े प्रतीक भी बन गये हैं। उन्होंने हमेशा अपने भाषणों में देश में आतंकवाद, नक्सलवाद और देश विरोधी तत्वों के देश से सफाए की बात करके धरातल पर उस पर अमल करके जनता के दिलोदिमाग पर छाने का कार्य बखूबी किया है। मैं “योगी आदित्यनाथ” को उनको जन्मदिवस पर बहुत -बहुत हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं देता हूं और सर्वशक्तिमान ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह जीवन पथ पर यूं ही सफलता के नित-नये आयाम स्थापित करते हुए, देश व समाज का मार्गदर्शन करते रहें।

साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा : मोक्ष की मुस्कान देने वाली नयी रोशनी

 ललित गर्ग 

महिलाओं ने इन वर्षों में अध्यात्म के क्षेत्र में एक छलांग लगाई है और जीवन की आदर्श परिभाषाएं गढ़ी हैं। ऐसी ही अध्यात्म की उच्चतम परम्पराओं, संस्कारों और जीवनमूल्यों से प्रतिबद्ध एक महान विभूति का, चैतन्य रश्मि का, एक आध्यात्मिक गुरु का, एक ऊर्जा का नाम है- साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी। जैन धर्म के प्रमुख तेरापंथ सम्प्रदाय एवं उसके वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण ने वात्सल्यमूर्ति शासनमाता साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी के देवलोकगमन से रिक्त हुए पद पर नयी साध्वीप्रमुखा को घोषित करने के लिये अपने 49वंे दीक्षा दिवस को चुना। उन्होंने इसी उपलक्ष्य में साध्वीप्रमुखा मनोनयन दिवस घोषित कर मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभाजी को तेरापंथ धर्मसंघ की नवीं साध्वीप्रमुखा घोषित कर न केवल तेरापंथ समाज बल्कि सम्पूर्ण आध्यात्मिक जगत में एक ऐतिहासिक घटना का सृजन किया है। तेरापंथ समाज के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना हुई जब साध्वीप्रमुखा के रूप में साध्वी विश्रुतविभा को 550-600 से अधिक साध्वियों एवं समणियों की सारणा-वारणा एवं महिला समाज के सम्यग् विकास का यह बड़ा दायित्व दिया गया है। साध्वीप्रमुखा वही जो महिला समाज, साध्वी एवं समणी समुदाय को सही दिशा दे, नये आयामों को स्थापित करे और साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा में ये सारे गुण सहज ही विद्यमान हैं। वे त्याग, तपस्या, तितिक्षा, तेजस्विता, बौद्धिकता, प्रबंध-कौशल की प्रतीक हैं, प्रतिभा एवं पुरुषार्थ का पर्याय हैं।
इस सृष्टि रंगमंच की महिलाएं विधात्री ही नहीं, सुषमा भी हैं। धर्म के क्षेत्र में भी महिलाओं ने विशिष्ट योगदान दिया है और उसके लिए तेरापंथ में साध्वीप्रमुखाओं का योगदान अविस्मरणीय है। यह तेरापंथ संघ का सौभाग्य है कि साध्वीप्रमुखा के रूप में उसे एक ऐसी साध्वीवरा उपलब्ध हुई है, जिसका व्यक्तित्व न केवल वैदुष्य एवं अध्ययनशीलता जैसे आदर्श मानदंडों से परिपूर्ण है, अपितु जिनकी प्रकृति में श्रमशीलता, कर्तव्यनिष्ठा, सेवाभावना, गुरु के प्रति समर्पणभाव की उत्कटता एवं मेधा की विलक्षणता का मणिकांचन योग परिलक्षित होता है। आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ एवं आचार्य महाश्रमण-तीन-तीन आचार्यों की कड़ी कसौटियों पर उत्तीर्ण होकर आपने न केवल अनुभव प्रौढ़ता को अर्जित किया है अपितु अपनी कार्यशैली एवं समर्पणनिष्ठा द्वारा निष्पत्तिमूलक सफलताओं को भी अर्जित किया है।
साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा केवल पद की दृष्टि से ही सैकड़ों साध्वियों को लांघ कर आगे नहीं आयी है अपितु वे चतुर्मुखी विकास तथा सफलता के हर पायदान पर अग्रिम पंक्ति पर ही खड़ी दिखाई दी। इसका कारण उनका आचार्य भिक्षु द्वारा स्थापित सिद्धांतों और मान्यताओं पर दृढ़ आस्थाशील, समर्पित एवं संकल्पशील होना हैं। वे तेरापंथ धर्मसंघ की एक ऐसी असाधारण उपलब्धि हैं जहां तक पहुंचना हर किसी के लिए संभव नहीं है। वे सौम्यता, शुचिता, सहिष्णुता, सृजनशीलता, श्रद्धा, समर्पण, स्फुरणा और सकारात्मक सोच की एक मिशाल हैं। उन्होंने अनुद्विग्न रहते हुए अपने सम्यक नियोजित एवं सतत पुरुषार्थ द्वारा सफलता की महती मंजिलें तय की हैं। यह निश्चित है कि अपनी शक्ति का प्रस्फोट करने वाला, चेतना के पंखों से अनंत आकाश की यात्रा कर लेता है। सफलता के नए क्षितिजों का स्पर्श कर लेता है। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी के जीवन को, व्यक्तित्व, कर्तृत्व और नेतृत्व को किसी भी कोण से, किसी भी क्षण देखें वह एक लाइट हाउस जैसा प्रतीत होता है। उससे निकलने वाली प्रखर रोशनी सघन तिमिर को चीर कर दूर-दूर तक पहुंच रही है और अनेकों को नई दृष्टि, नई दिशा प्रदान करती हुई ज्योतिर्मय भविष्य का निर्माण कर रही है।
साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी का जन्म 27 नवम्बर 1957 को तेरापंथ की राजधानी लाडनूं शहर के प्रसिद्ध मोदी परिवार में हुआ। आपके संसारपक्षीय पिता का नाम श्री जंवरीमलजी एवं माता का नाम श्रीमती भंवरीदेवी था। आठ भाइयों एवं पांच बहनों से भरे-पूरे परिवार में पलकर भी आपके जीवन में चंचलता कम और गंभीरता का पुट ज्यादा रहा। तेरापंथ के नवम अधिशास्ता आचार्य श्री तुलसी ने सन् 1980 में समण श्रेणी का प्रवर्तन किया 19 दिसंबर 1980 के दिन प्रथम बार दीक्षित होने वाली छह मुमुक्षु बहनों में एक नाम मुमुक्षु सविता का था। आपका नया नामकरण हुआ- समणी स्मितप्रज्ञा। समण श्रेणी में प्रथम विदेश यात्रा का और उसके बाद भी अनेक बार अनेक देशों की यात्रा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उन देशों में कुछ नाम इस प्रकार है- अमेरिका, जर्मनी, स्विटजरलैंड, इटली, इंग्लैंड, बैंकॉक, कनाडा, हालैंड, हांगकांग आदि। समण श्रेणी में 12 वर्षों तक आपने अध्ययन किया, साधना की, व्यवस्थाओं का संचालन किया, देश-विदेशों की यात्राएं की और जीवन के हर क्षण को आनंद के साथ जीने का प्रयास किया।
18 अक्टूबर 1992 के दिन आपने श्रेणी आरोहण किया। आचार्य श्री तुलसी के श्रीमुख से साध्वी दीक्षा स्वीकार की। कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन इक्कीस भव्य आत्माओं ने साधुत्व को स्वीकार किया। आचार्य तुलसी ने समणी स्मितप्रज्ञा का नाम रखा-साध्वी विश्रुतविभा। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा का व्यक्तित्व एक दीप्तिमान व्यक्तित्व है। वे ग्रहणशील हैं, जहां भी कुछ उत्कृष्ट नजर आता है, उसे ग्रहण कर लेती हैं और स्वयं को समृद्ध बनाती जाती हैं। कहा है, आंखें खुली हो तो पूरा जीवन ही विद्यालय है- जिसमें सीखने की तड़प है, वह प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक घटना से सीख लेता है। जिसमें यह कला है, उसके लिए कुछ भी पाना या सीखना असंभव नहीं है। इमर्सन ने कहा था- ”हर शख्स, जिससे मैं मिलता हूं, किसी न किसी बात में मुझसे बढ़कर है, वहीं मैं उससे सीखता हूं।’
लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु, यह सनातन धर्म के प्रमुख मन्त्रों में से एक है, जिसका अर्थ होता है, इस संसार के सभी प्राणी प्रसन्न और शांतिपूर्ण रहें। इस मंत्र की भावना को ही साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा ने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया है। उनकी इच्छा है कि वे आचार्य महाश्रमण के मानव कल्याणकारी कार्यों को आगे बढ़ाने में सहयोगी बनते हुए मानवता के सम्मुख छाये अंधेरों को दूर करें। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’- मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। ज्योति की यात्रा मनुष्य की शाश्वत अभीप्सा है। इस यात्रा का उद्देश्य है, प्रकाश की खोज। प्रकाश उसे मिलता है, जो उसकी खोज करता है। कुछ व्यक्तित्व प्रकाश के स्रोत होते हैं। वे स्वयं प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी निरंतर रोशनी बांटते हैं। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा के चारों ओर रोशनदान हैं, खुले वातायन हैं। प्रखर संयम साधना, श्रुतोपासना और आत्माराधना से उनका समग्र जीवन उद्भासित है। आत्मज्योति से ज्योतित उनकी अंतश्चेतना, अनेकों को आलोकदान करने में समर्थ हैं। उनका चिंतन, संभाषण, आचरण, सृजन, संबोधन, सेवा- ये सब ऐसे खुले वातायन हैं, जिनसे निरंतर ज्योति-रश्मियां प्रस्फुटित होती रहती हैं और पूरी मानवजाति को उपकृत कर रही हैं। उनका जीवन ज्ञान, दर्शन और चरित्र की त्रिवेणी में अभिस्नात है। उनका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक और चुंबकीय है, आंतरिक व्यक्तित्व उससे हजार गुणा निर्मल और पवित्र है। वे व्यक्तित्व निर्माता हैं, उनके चिंतन में भारत की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना प्रतिबिम्बित है।
भगवान महावीर के सिद्धांतों को जीवन दर्शन की भूमिका पर जीने वाला एक नाम है साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा। इस संत चेतना ने संपूर्ण मानवजाति के परमार्थ मंे स्वयं को समर्पित कर समय, शक्ति, श्रम और सोच को एक सार्थक पहचान दी है। एक संप्रदाय विशेष से बंधकर भी आपके निर्बंध कर्तृत्व ने मानवीय एकता, सांप्रदायिक सद्भाव, राष्ट्रीयता एवं परोपकारिता की दिशा में संपूर्ण राष्ट्र को सही दिशा बोध दिया है। शुद्ध साधुता की सफेदी में सिमटा यह विलक्षण व्यक्तित्व यूं लगता है मानो पवित्रता स्वयं धरती पर उतर आयी हो। उनके आदर्श समय के साथ-साथ जागते हैं, उद्देश्य गतिशील रहते हैं, सिद्धांत आचरण बनते हैं और संकल्प साध्य तक पहुंचते हैं।
साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा के पास विविध विषयों का ज्ञान भंडार है। उनकी वाणी और लेखनी में ताकत है। प्रशासनिक क्षमता हैं, नेतृत्व की क्षमता है, वे प्रबल शक्तिपुंज हैं। वे जैन शासन की एक ऐसी असाधारण उपलब्धि हैं जहां तक पहुंचना हर किसी के लिए संभव नहीं है। उन्होंने वर्तमान के भाल पर अपने कर्तृत्व की अमिट रेखाएं खींची हैं, वे इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगी। उनके विराट व्यक्तित्व को किसी उपमा से उपमित करना उनके व्यक्तित्व को ससीम बनाना है। उनके लिए तो इतना ही कहा जा सकता है कि वे विलक्षण हैं, अद्भुत हैं, अनिर्वचनीय हैं। उनकी अनेकानेक क्षमताओं एवं विराट व्यक्तित्व का एक पहलू है उनमें एक सच्ची साधिका का बसना। ऐसे विलक्षण जीवन और विलक्षण कार्यों की प्रेरक साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा पर न केवल समूचा तेरापंथ धर्मसंघ-जैन समाज बल्कि संपूर्ण मानवता गर्व का अनुभव करती है।

विक्रमादित्य ने ही चलाया था सबसे पहले विदेशी शासकों से मुक्ति का अभियान

डॉ. राजेश कुमार मीणा

            यह जानना रोचक है कि छठी सदी में दो अवन्ति जनपद हुआ करती थी जिसमें उत्तर अवंति की राजधानी उज्जयिनी थी और दक्षिण अवंति की राजधानी महिष्मती हुआ करती थी। भण्डाकर का भी यही विचार है कि छठीं सदी ई.पू. दो अवन्ति जनपद थे। विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्त करने के लिए व्यापक अभियान चलाया। उन्होंने सबसे पहले शको को 57-58 ईसा पूर्व अपने क्षेत्र से बाहर निकाल दिया।  मालवा का उल्लेख पाणिनी की अष्टाध्यायी में आयुधजावी संघ के रूप में हुआ है। पंतजलि के महाभाष्य में भी इनका उल्लेख है। छठीं सदी ई. पू. में मालवा प्राचीन अवन्ति जनपद के रूप में जाना जाता था। इसका उल्लेख बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में यथा अंगुत्तर निकाय के महागोविन्दसूत में महिष्मती अवन्ति जनपद की राजधानी के रूप में उल्लेखित है। कालान्तर में उज्जयिनी को यह गौरव प्राप्त हुआ भण्डारकर का विचार है कि छठी सदी ई. पू. दो अवन्ति जनपद थे।

            उत्तरी अवन्ति, जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी और दक्षिण अवन्ति, जिसकी राजधानी महिष्मती थी। महाभारत काल में अवन्ति क्षेत्र में दो राजाओं विंध्य और अनुविंध्य का शासन रहा, जिन्होंने कौरवों की ओर से लड़े थे और प्रसिद्ध अश्वत्थामा नामक हाथी इनका ही था, जिसकी हत्या के छल से द्रोणाचार्य का वध हो गया था। इसके पश्चात् उज्जयिनी पर वितिहोत्र वंशीय रिपुजंय का शासन था। राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाकर अमात्य कुलिक ने उसकी हत्या कर अपने पुत्र प्रद्योत को अवन्ति का राजा बनाया तथा प्रद्योत वंश की नींव रखी। कालान्तर में प्रद्योत चण्डप्रद्योत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बुद्ध के समकालिक चण्डप्रद्योत अवन्तिका का शासक था। प्रद्योत ने 23 वर्षों तक शासन किया प्रद्योत ने अपनी पुत्री वासक्ता का विवाह वत्स के राजा उदयन के साथ किया था।

            कलान्तर में मगध के शिशुनाग ने प्रद्योतवंशीय नंदिवर्धन को पराजित कर इस सम्पूर्ण क्षेत्र पर अधिकार कर मालवा क्षेत्र को मगध साम्राज्य में सम्मिलित किया।

पौराणिक काल : यह विंध्य क्षेत्र की प्रमुख जनपद अवन्ति के अधीन था, जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी। यह व्यापार, कला एवं संस्कृति का प्रधान केन्द्र था। यह से तीन प्रमुख व्यापारिक मार्ग पश्चिम की ओर भड़ौच तथा सोपारा तक, दक्षिण की ओर विदर्भ तथा नासिक, उत्तर की ओर कौशल तथा श्रावस्ती के केन्द्र बिन्दु पर थी। अवन्ति के निकटवर्ती एक अन्य महत्वपूर्ण जनपद दशपुर नाम भी पौराणिक ग्रंथों में प्राप्त होता है। बाद में यही अवन्ति दशपुर क्षेत्र ‘मालवा देश’ के नाम से आभाषित किया जाने लगा।

मौर्य वंश : कौटिल्य (चाणक्य) की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य ने 324 ई. र्पू. नंदवंश के अन्तिम शासक धनानंद को पराजित कर मौर्य वंश की स्थापना की। मौर्य वंश की स्थापना भारतीय राजनीति में एक युगान्तकारी घटना मानी जाती हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य ने अवन्ति को अपने साम्राज्य का भाग बनाया। मौर्य साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र तक था। चन्द्रगुप्त मौर्य के पश्चात् बिन्दुसार मौर्य वंश का शासक हुआ। बिन्दुसार ने अपने जीवनकाल में अशोक को अवन्ति का प्रान्तीय शासक नियुक्त कर दिया था। दीपवंश के अनुसार मौर्य सम्राट अशोक उज्जैन का महाकुमार नियुक्त था। इस प्रकार सम्भवतः मालवा क्षेत्र भी मौर्य साम्राज्य का एक अंग रहा।

            अशोक ने यहाँ लगभग 11 वर्षों तक शासन किया। बिन्दुसार की मृत्योपरान्त अशोक मौर्य साम्राज्य का राजा बना। मौर्य साम्राज्य पाटलिपुत्र, तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसकी, गिरनार तथा सुवर्णगिरी प्रान्तों में विभक्त था। अशोक सम्राट के काल में ही उज्जयिनी में सांस्कृतिक गतिविधियाँ प्रारम्भ हुई। अशोक के बाद मौर्य वंश का अन्त होने लगा। कालान्तर में अन्तिम मौर्य नरेश वृहद्रव्य की हत्या कर उसका सेनाध्यक्ष पुष्यमित्र ने मगध में शुंगसत्ता स्थापित की।

शक-सातवाहन काल : उत्तर भारत में मगध सत्ता के क्षीण होने पर दक्षिण भारत के सातवाहन शासकों ने उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास किया तथा सातवाहन शासक वाशिष्ठीपुत्र आनंद का सांची महास्तूप के दक्षिण तोरणद्वार से प्राप्त अभिलेख प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्द्ध में मालवा पर तथा सातकर्णी के सिक्कों में अग्रभाग पर हाथी और उज्जैन चिन्ह बने हैं। ब्राम्हीलिपि में ‘सातकर्णिस लिखा है तथा पृष्ठ भाग पर ब्रज और कल्पवृक्ष है। इसके अलावा श्रीसातकर्णी, यज्ञश्री सातकर्णी शासकों के सिक्के मिले हैं। उपरोक्त साक्ष्य सातवाहनों द्वारा मालवा पर आधिपत्य को प्रदर्शित करते हैं।

विक्रमादित्य काल : विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्त करने के लिए व्यापक अभियान चलाया। उन्होंने सबसे पहले शको को 57-58 ईसा पूर्व अपने क्षेत्र से बाहर निकाल दिया। इसी की याद में उन्होंने विक्रम युग की शुरूआत करके अपने राज्य का विस्तार किया। प्रथम सदी ईस्वीं में पश्चिमी शक क्षत्रपों ने सम्पूर्ण मालवा पर अधिकार किया और लगभग 300 वर्षों तक शासन किया। मालवा पर इनके आधिपत्य का ज्ञान नासिक, जुन्नार कार्ले के नहपान एवं दमाद उरावदत्त अथवा ऋषभदत्त के अभिलेखों से प्राप्त होता है। लगभग 124-25 ई. में सातवाहन राजा ने गौतमीपुत्र सातकर्णी ने नहपान को परास्त कर अपने साम्राज्य की सीमा को मालवा तक विस्तृत किया था। बाद में कर्दमक वंश के चष्टन और पौत्र रूद्रदामन ने अपने छीने गये प्रदेशों को पुनः प्राप्त कर लिया। रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से स्पष्ट होता हैं कि इस समय में आकर जनपद अवन्ति (मालवा), अनूप, उपरांत, सौराष्ट्र एवं आनर्त शक साम्राज्य के भाग थे। कालान्तर में शक-छत्रप में पुनः शक-सातवाहन संघर्ष हुआ।

            शक शासक रूद्रदामन ने सातवाहन शासक शातकर्णी को परास्त कर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपनी पुत्री का विवाह वासिष्ठी पुत्र शातकर्णी से सम्पन्न कराया। रूद्रदामन के उपरान्त शक शासकों की अभीर, मालवा, नाग आदि के साथ संघर्ष में शकों की शक्ति क्षीण हुई। चौथी सदी ईस्वीं में गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकों को समूल नष्ट कर ‘शकारि’ उपाधि धारण की।

गुप्त काल :प्रयाग प्रशस्ति के साक्ष्य के अनुसार गुप्त वंश के प्रथम दो नरेश महाराज श्री गुप्त तथा महाराजा श्री घटोत्कच थे और तीसरा महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त था। प्रथम दो किसी के अधीन सामंत थे, जबकि चन्द्रगुप्त प्रथम स्वाधीन शासक था। वर्ण व्यवस्था में भी गुप्तों की स्थिति में उनकी जाति को लेकर अनेक अवधारणाएँ हैं। ऐलेन के अनुसार- ‘गुप्त सम्राट शूद्र थे।’ पी.एल. गुप्त ने गुप्त सम्राट को वैश्य माना है तथा मीराणी आदि विद्वानों ने विष्णु पुराण का उदाहरण दिया हैं। गुप्त सम्राटों को क्षत्रिय कहने वाले विद्वानों में गौरीशंकर ओझा हैं और डॉ. श्रीराम गोयल के अनुसार गुप्त सम्राट ब्राह्मण थे। 376 ई. में समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय सिंहासन पर बैठा। शीघ्र ही उसने पश्चिम की ओर दृष्टि डाली और शक सम्राट रूद्रसिंह तृतीय को परास्त कर अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया जो अरब सागर तक फैल गया। इस प्रकार 300 वर्षों से भी अधिक विदेशी शासन का अन्त हुआ। उदयगिरि गुफा के शिलालेख तथा सांची के शिलालेख से चन्द्रगुप्त द्वितीय की मालवा प्रान्त में दीर्घकालीन प्रभुत्व की पुष्टि होती हैं।

            शक विजय के उपलक्ष्य में गुप्त सम्राट द्वारा जारी की गई चाँदी तथा ताँबे की मुद्राऐं प्राप्त होती हैं। चन्द्रगुप्त द्वितीय सम्पूर्ण पृथ्वी की विजय करते हुए मालवा आये थे तथा साम्राज्य विस्तार हेतु वाकाटकों एवं अन्य राज्यों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए। विद्वानों का मत है कि उज्जयिनी के विक्रमादित्य के काल में अवन्ति जनपद समृद्ध देश के रूप में पल्लवित हुआ।

            कालिदास ने अवन्ति को स्वर्ग भूमि माना है। मन्दसौर के शिलालेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय का पुत्र कुमारगुप्त भी मालवा का शासक रहा। कुमारगुप्त के पश्चात् स्कन्धगुप्त गुप्त वंश का शासक हुआ। उसके काल में भी मालवा गुप्त साम्राज्य का भाग रहा, परन्तु गुप्त साम्राज्य का धीरे-धीरे ह्रास होने लगा और अधीनस्थ सामन्त स्वतंत्रता स्थापित करने लगे। इस समय पश्चिम मालवा में औलिकार वंश की सत्ता स्थापित हुई। प्रथम स्वतंत्र शासक नरवर्मन था। दशपुर अभिलेख उसे स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता देता है। गंगधार अभिलेख नरवर्मन को स्वतंत्र शासक के रूप में सूचित करता है, परन्तु बंधुवर्मा का मंदसौर अभिलेख पुनः गुप्त शासक कुमारगुप्त की अधीनता स्वीकारने की ओर संकेत करता है। औलिकार वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक यशोधर्मन (विष्णुवर्द्धन) हुआ। यशोवर्मन की सबसे बड़ी उपलब्धि हूणों को परास्त कर दशपुर को पुनः प्रतिष्ठित करना थी।

            इस प्रकार मालवा पर क्रमशः वाकाटकों और परवर्ती गुप्त नरेशों के क्षणिक प्रभुत्व के प्रमाण उपलब्ध होते हैं, परन्तु राजनीतिक दृष्टि से यह उथल-पुथल का युग कहा जा सकता हैे। कालान्तर में वल्लभी के राजा शीलादित्य प्रथम ने महासेन गुप्त से मालवा का राज्य छीन लिया, जिसकी पुष्टि चीनी यात्री ह्वेनसांग के कथन से होती हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण मालवा 690 ईस्वीं में एक शक्तिशाली राज्य के रूप में विद्यमान रहा था।

मैदान के बिना कैसे होगा अभ्यास?

गरिमा उपाध्याय
धूरकुट, कपकोट
उत्तराखंड

हरियाणा में जारी खेलो इंडिया यूथ गेम्स में युवा खिलाडियों का शानदार प्रदर्शन जारी है. सुखद बात यह है कि इसमें लड़कों के साथ साथ लड़कियां भी विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिखा रही हैं और अपने अपने राज्यों के लिए पदकों की झाड़ियां लगा रही हैं. खेलो इंडिया के माध्यम से केंद्र सरकार का युवाओं को अपने खेल प्रदर्शन के लिए मंच उपलब्ध करवाना एक सराहनीय प्रयास है. इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने के लिए भारत के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी उभर कर सामने आएंगे. वास्तव में पढ़ाई के साथ साथ खेल भी जीवन का अमूल्य हिस्सा है. जिससे बच्चों का शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों से विकास होता है. यही कारण है कि केंद्र सरकार जगह जगह अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस स्पोर्ट्स सेंटर बना रही है ताकि खेलों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने वाले बच्चे और युवाओं को अभ्यास की सभी सुविधा उपलब्ध हो सके.

प्रतिभाएं शहरों की अपेक्षाकृत गांवों से अधिक उभरती हैं. गांवों की मिट्टी से ही निकलकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खिलाड़ी देश का सम्मान बढ़ाते हैं क्योंकि शहरों की अपेक्षा गांवों में खेल के मैदान आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं. यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्रों के लड़के और लड़कियां खेलों में बाज़ी मार लेते हैं. लेकिन उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों के कुछ ग्रामीण क्षेत्र ऐसे भी हैं, जहां खेल के मैदान की कमी है. जिसके कारण युवाओं विशेषकर लड़कियों को खेलने और उसमें अपना कैरियर बनाने में काफी दिक्कतें आती हैं. गांव में पर्याप्त खेल के मैदान नहीं होने के कारण वह अपना हुनर नहीं दिखा पाती हैं, क्योंकि उन्हें न तो अवसर मिलता है और ना ही वह माहौल मिला करता है, जिसके सहारे वह अपने अंदर छुपी प्रतिभा को निखार सके. मैदान के अभाव में उनकी प्रतिभा और करियर का दम घुट जाता है.

उत्तराखंड के बागेश्वर जिला से 25 किमी दूर कपकोट ब्लॉक का गांव धूरकुट, सरयू नदी के तट पर बसा है. इस गांव की आबादी तक़रीबन 5 हजार है. लेकिन पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण गांव में मैदान की कमी है. जिसके कारण वहां के बच्चों को खेलने और युवाओं को अभ्यास करने में बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है. इसकी कमी के कारण उन्हें खेल प्रतियोगिताओं में मात खानी पड़ती है. गांव के खिलाड़ी संसाधनों की कमी के कारण अपने को ठगा महसूस करते हैं. मैदान की कमी का सबसे अधिक नुकसान लड़कियों को होता है, जो न केवल अपने रुचिकर खेल से वंचित हो जाती हैं, बल्कि इसकी वजह से उनका शारीरिक विकास भी रुक जाता है. फुटबॉल हो या वॉलीबॉल, हॉकी हो या क्रिकेट, उन्हें अभ्यास करने के लिए न तो सुविधा मिल पाती है और न ही मैदान मिल पाता है.

इस संबंध में गांव की किशोरियों ममता और पूजा का कहना है कि खेल के माध्यम से वह स्वयं को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ पाती हैं. लेकिन इसके लिए मैदान का होना बहुत जरूरी है. उनका कहना है कि गांव में लड़कियों के लिए भी खेल के मैदान होने चाहिए लेकिन स्थानीय समाज इस मुद्दे को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लेता है. यहां लड़कियों के खेलों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिए जाता है. जिससे वह अपने अंदर की प्रतिभा को निखारने से वंचित रह जाती हैं. उन्होंने कहा कि गांव की ऐसी कई लड़कियां हैं, जिन्हें यदि मैदान की समुचित व्यवस्था मिले तो वह भी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खेलों में उत्तराखंड का नाम रौशन कर सकती हैं. उन्होंने बताया कि गांव में स्कूल का मैदान तो है, लेकिन स्कूल बंद हो जाने के बाद वह लोग वहां भी नहीं जा पाती हैं.

गांव की आशा वर्कर दीपा देवी का कहना है कि लड़कियों के लिए खेल का मैदान नहीं होने के कारण उनका शारीरिक विकास रुक जाता है. जिसका सीधा असर उनकी स्वास्थ्य पर पड़ता है. उन्होंने बताया कि गांव से करीब तीन किमी दूर मैदान उपलब्ध है, जहां लड़के आसानी से खेलने चले जाते हैं, लेकिन लड़कियों के लिए प्रतिदिन वहां जाना आसान नहीं है. कई बार जो किशोरी खेलने जाती भी है तो वह देरी से घर लौट पाती है. जिससे उन्हें रास्ते में हिंसक जानवर मिलने या किसी अनहोनी का डर सताता रहता है. यही कारण है कि शायद ही कोई लड़की इतनी दूर खेलने या अभ्यास करने का हिम्मत जुटा पाती है. यदि गांव में ही खेल का मैदान होगा तो लड़कियों को भी खेलने का भरपूर मौका मिलेगा जिससे खेल में उनका भविष्य भी बन सकता है. वहीं गांव की एक महिला भावना आर्य का मानना है कि गांव के बच्चों में खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ने की अच्छी काबिलियत है, लेकिन उन्हें प्रैक्टिस के लिए मैदान उपलब्ध नहीं है.

इसी संबंध में गांव की प्रधान सीता देवी भी स्वीकार करती हैं कि गांव में खेल के मैदान का न होना बहुत बड़ी कमी है. इसका सबसे नकारात्मक प्रभाव लड़कियों पर पड़ता है जिनका न केवल शारीरिक प्रभाव रुक जाता है बल्कि उनकी प्रतिभा भी दब कर रह जाती हैं. उन्होंने कहा कि बहुत बार कोशिश करने के बाद भी हमारा यह प्रयास सफल नहीं हो पाया है, लेकिन हम फिर भी कोशिश करेंगे कि हमारे गांव में खेल के लिए एक मैदान जरुर हो, जहां लड़कियां भी खेल सके. इसी मुद्दे पर सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैन्डी का कहना है कि आज हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत सी ऐसी किशोरियां हैं जो खेल की दुनिया में अपना आगे बढ़ रही हैं और अपनी पहचान बना रही हैं. ऐसे में धूरकुट गांव में खेल का मैदान नहीं होने की कमी किशोरियों को बहुत ही कष्ट दे रही है जिसकी वजह से वह शारीरिक और मानसिक रूप से पीछे रह जाती हैं.

प्रत्येक वर्ष अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी न किसी रूप में होने वाली प्रतियोगिताएं इसका उदाहरण हैं कि आज भी खेलों को महत्व दिया जाता है. ऐसे में केंद्र सरकार का खेलो इंडिया कार्यक्रम और इसके अंतर्गत होने वाली प्रतियोगिताएं ग्रामीण स्तर के खिलाड़ियों को आगे बढ़ने का सुनहरा अवसर प्रदान कर रही हैं. लेकिन उत्तराखंड के इस सुदूर गांव धूरकुट के कई प्रतिभावान युवा खिलाड़ी इस सुनहरे अवसर से केवल इसलिए वंचित हो रहे हैं कि उनके पास अभ्यास के लिए मैदान नहीं है, जो उनके साथ अन्याय है.

जब रक्षक बन जाये भक्षक,फिर बेटी कौन बचाये

निर्मल रानी
हमारे देश में जहां कन्याओं व महिलाओं के कल्याण व उनके संरक्षण,सुरक्षा व आत्मनिर्भरता के लिये सरकार द्वारा तरह तरह की योजनाओं के दावे किये जाते हैं। जहां हमारा समाज कन्याओं की देवी स्वरूप पूजा करता और नवरात्रों में कंजक बिठाता है। जहां धार्मिक प्रवचनों व सत्संगों में पुरुषों से अधिक महिलायें बढ़चढ़कर हिस्सा लेती हों और तालियां बजा बजाकर व नृत्य कर अपनी धार्मिक श्रद्धा व भक्ति का प्रदर्शन करते न थकती हों, जहाँ लड़कियों की पूजा कर उनके पैर भी धोये जाते हों,उन्हीं कन्याओं व महिलाओं के साथ आख़िर कौन सा ज़ुल्म नहीं होता ? बलात्कार,सामूहिक बलात्कार,बलात्कार के बाद हत्या,लड़कियों के चेहरे पर तेज़ाब डालकर उनके चेहरे को बदसूरत बनाने जैसा जघन्य अपराध,शादी करने का झांसा देकर अपनी वासना की हवस पूरी कर किसी लड़की को धोखा देना, दहेज की मांग,और मांग न पूरी होने पर हत्या कर देना या पत्नी को छोड़ देना अथवा मनमुटाव रखना या इसी बहाने मार पीट करते रहना आदि जैसे अनेक ज़ुल्म इसी ‘देवी रुपी’ कन्याओं के साथ आये दिन होते रहते हैं। एक आंकलन के अनुसार भारत में 88 मिनट के अंतराल में बलात्कार की एक घटना होती है।
ऐसे में सवाल यह है कि क्या समाज व परिवार का कोई वर्ग या रिश्ता ऐसा भी है जहां कन्या को व उसकी इज़्ज़त आबरू को पूरी तरह सुरक्षित समझा जाये ? क्या पिता के पास उसकी अपनी पुत्री सुरक्षित है? क्या भाई के पास उसकी बहन सुरक्षित है ? क्या गुरु के पास उसकी शिष्या, किसी संत,पुजारी या मौलवी के पास श्रद्धा भाव लेकर सत्कारवश जाने वाली किसी बच्ची की इज़्ज़त सुरक्षित है ? किसी अधिकारी के मातहत काम करने वाली महिला, किसी नेता के पास अपनी फ़रियाद लेकर पहुंची कोई लड़की अपना दुखड़ा लेकर इंसाफ़ मांगने के लिये थाने पहुंची कोई लड़की,आख़िर कौन सी ऐसी जगह है जहाँ हम और आप दावे से यह कह सकें कि अमुक वर्ग या अमुक रिश्ते के अंतर्गत बेटियां और उनकी इस्मत व आबरू पूरी तरह सुरक्षित है।लड़कियों के प्रति असुरक्षा की इस तरह की भावना कोई कोरी कल्पना पर नहीं बल्कि भारत के किसी न किसी कोने से प्राप्त होने वाली अविश्वसनीय किन्तु सत्य व दिल दहलाने वाली ख़बरों पर आधारित हैं।
उदारहरण के तौर पर पिछले दिनों इंदौर शहर के खजलाना थाना क्षेत्र से एक ऐसी ख़बर आई जिसे सुनकर किसी भी मानव ह्रदय रखने वाले व्यक्ति की रूह काँप उठे। ख़बरों के अनुसार एक दुराचारी व्यक्ति जोकि किसी खाड़ी देश में एक पेट्रोकेमिकल कंपनी में कार्यरत है वह अपनी ग्यारह वर्षीय सगी बेटी के साथ दुष्कर्म करने का आदी हो गया था। उसने अपनी बेटी की आयु 15 वर्ष होने तक यह कुकर्म जारी रखा। हद तो यह कि उसने इन चार वर्षों में कई बार अपनी बेटी से अप्राकृतिक दुष्कर्म भी किया। वह केवल अपनी बेटी से दुष्कर्म करने की ख़ातिर ही वर्ष में दो बार अरब देश से इंदौर आता और जब मौक़ा मिलता वह उसके साथ कुकर्म करता। वह बेटी को यह बात किसी से भी न बताने को कहता और बताने पर उसे जान से मारने की धमकी देता। पिछले दिनों एक दिन जब उसके शरीर में पीड़ा हुई तो उसने अपनी मां से इन बातों का ज़िक्र किया। पहले तो उसकी मां को यक़ीन ही नहीं हुआ। परन्तु लड़की के बहुत यक़ीन दिलाने पर वह मान गयी। और बेटी के साथ उसने पुलिस में जाकर एफ़ आई आर कर दी। जब वासना का भेड़िया उसका हब्शी बाप पिछले दिनों पुनः अपनी बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाने भारत आया तो इंदौर पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया। इसी तरह भाई,चाचा,मामा,ससुर,जेठ,देवर,जीजा जैसे पवित्र रिश्तों को कलंकित करने वाले अनेक समाचार प्राप्त होते रहते हैं। इसी तरह एक सामूहिक बलात्कार पीड़िता जब आप बीती लेकर थाने पहुंची तो मौक़ा पाकर थानेदार ने भी उसके साथ बलात्कार कर दिया। इससे बड़ा राक्षसीय व अमानवीय कृत्य और क्या होगा ?
गुरु शिष्या या अध्यापक व छात्रा का रिश्ता भी किसी पिता या अभिभावक के कम नहीं। परन्तु यह रिश्ता भी हमारे देश में तार तार हो चुका है। इसके उदाहरण गिनने की तो ज़रुरत ही नहीं क्योंकि कई ‘कुप्रसिद्व गुरु घंटाल ‘ आज भी अपने ऐसे ही दुषकर्मों की सज़ाएं जेल की सलाख़ों के पीछे रहकर काट रहे हैं। मंदिर-मस्जिद-मदरसा आदि कितने पवित्र स्थलों में गिने जाते हैं। परन्तु आये दिन यह ख़बर आती है कि कभी किसी महंत ने किसी बाबा या पुजारी ने अथवा किसी मौलवी या हाफ़िज़ ने किसी बच्ची या महिला के साथ अपना मुंह काला किया। उदाहरण स्वरूप पिछले दिनों एक ताज़ातरीन हृदय विदारक घटना राजस्थान के अलवर ज़िले के मालाखेड़ा क्षेत्र में घटी।यहां एक 60 वर्षीय पुजारी एक पांच वर्ष की मासूम बच्ची को बहला फुसला कर मंदिर में ले गया और वहीं उसके साथ ज़ोर ज़बरदस्ती कर दुष्कर्म करने लगा। जब लड़की असहनीय पीड़ा से ज़ोर ज़ोर चीख़ी चिल्लाई तब उसकी आवाज़ सुनकर पड़ोस से लोग इकठ्ठा हुये और पुजारी को रंगे हाथों पकड़ा। उसकी आम लोगों ने ख़ूब पिटाई की। बताया जाता है कि अलवर की पुलिस अधीक्षक तेजस्विनी गौतम स्वयं घटना स्थल पर पहुंचीं और पुजारी पर एफ़ आई आर से लेकर मेडिकल जांच आदि तक की कार्रवाई स्वयं अपनी देखरेख में कराई। इसी प्रकार कुछ समय पूर्व एक समाचार उत्तर प्रदेश से आया था जिसके अनुसार कोई मौलवी तलाक़ के बाद हलाला व्यवस्था के नाम पर तलाक़ शुदा महिलाओं से ऐय्याशी का धंधा चलाता था। हमारे ही देश में सत्ता के लोग विधान सभा में बैठकर ब्लू फ़िल्म देखते पकड़े गये। उत्तर प्रदेश का ही एक बाहुबली विधायक तो बलात्कार व क़त्ल के इलज़ाम में अभी भी जेल में है।
गोया हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि चाहे जिस पद,गद्दी अथवा धार्मिक या संवैधानिक मरतबे पर बैठा व्यक्ति क्यों न हो,रिश्ता भी चाहे जितना पवित्र क्यों न हो,परन्तु कभी भी उसके भीतर बैठा वासना का राक्षस उसे किसी भी पद अथवा रिश्ते को तार तार करने के लिये मजबूर कर सकता है। ऐसे में समाज के सामने आज का सुलगता सवाल यही है कि आख़िर जब रक्षक ही बन जाये भक्षक,फिर बेटी कौन बचाये ?