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डर है कि कहीं हिंदी भाषा हमारे बीच से गायब न हो जाए …

14 सितंबर का दिन हिंदी और हिंदी भाषी लोगों के लिए बेहद खास माना जाता है। क्योंकि आज ही के दिन सन् 1949 में अंग्रेजी भाषा के बढ़ते चलन और हिंदी की अनदेखी को रोकने के लिए संविधान सभा में एक मत से हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया था और इसके बाद से हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। इस दिन पूरे देश के तमाम सरकारी विभागों, संस्थाओं और स्कूल-कॉलेजों में हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में प्रतियोगिताओं के साथ-साथ हिंदी प्रोत्साहन सप्ताह का भी आयोजन किया जाता है। जिसका मूल उद्देश्य लोगों को हिंदी के करीब लाना, हिंदी के महत्व से उनका परिचय कराना और हिंदी को बढ़ावा देना है।

हिंदी दिवस के इतिहास की बात करें तो देश जब सन् 1947 में अंग्रेजों की हुकूमत से आजाद हुआ तो देश के सामने अन्य समस्याओं के साथ-साथ भाषा की भी एक बड़ी समस्या थी कि भारत की राष्ट्रभाषा कौन सी होगी? अपना संविधान अपनी शासन व्यवस्था के लिए ये सवाल बेहद अहम था इसलिए काफी सोच-विचार करने के बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343(1) के तहत राष्ट्र की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी का दर्जा दिया गया। जिसकी पहल सर्वप्रथम सन् 1918 के हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिंदी को जनमानस की भाषा बताते हुए की थी। जिसके बाद हिंदी के महत्व को बताने और इसके प्रचार प्रसार के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अनुरोध पर 1953 से प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस के तौर पर मनाया जाने लगा। लेकिन जब राजभाषा के रूप में हिंदी को चुना गया तो गैर हिंदी भाषी राज्य खासकर दक्षिण भारत के लोगों ने इसका विरोध किया फलस्वरुप अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा देना पड़ा। पर हिंदी की खासियत ये है कि ये भाषा अपनी लिपि, शब्द, भाव और उद्देश्य के दृष्टिकोण से भी अन्य भाषाओं की तुलना में बेहद धनी है। उदाहरण के लिए हिंदी के पास अच्छी खुशबू के लिए ‘सुगंध और महक’ जैसे शब्द हैं तो वहीं इसके ठीक उलट भाव के लिए ‘दुर्गंध’ जैसे। परंतु अंग्रेजी में इस भाव के लिए स्मेल और फ्रेग्रेंस जैसे शब्द ही हैं। साथ ही हिंदी में जिस शब्द को जिस प्रकार से उच्चारित किया जाता है, उसे लिपि में उसी प्रकार लिखा भी जाता है।

देश में तकरीबन 77% लोग हिंदी लिखते, पढ़ते, बोलते और समझते हैं। जिनके कामकाज का एक बड़ा हिस्सा हिंदी में संपन्न होता है। लेकिन आज के समय में हिंदी भाषा लोगों के बीच से कहीं-न-कहीं गायब होती जा रही है और ऐसा प्रतीत होता है कि अंग्रेजी ने अपना प्रभुत्व जमा लिया है। यदि हालात यही रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हिंदी भाषा हमारे बीच से गायब हो जाएगी। हमें यदि हिंदी भाषा को संजोए रखना है तो हिंदी दिवस मनाने के मूल उद्देश्य को न सिर्फ समझना पड़ेगा बल्कि इसके प्रचार-प्रसार को भी बढ़ाना होगा। सरकारी कामकाज में हिंदी को प्राथमिकता देनी होगी। तभी हिंदी भाषा को जिंदा रखा जा सकता है। अब तो हिंदी दिवस मनाने का अर्थ बस इतना सा रह गया है कि लोग आज के दिन सुबह से ही हिंदी दिवस की शुभकामनाओं के संदेश एक-दूसरे को देने लगते हैं तो वहीं दूसरी तरफ सोशल मीडिया भी एक दिन के लिए ही सही पर हिंदीमय दिखता है। और दिन भले लोग ऐसा न करते हो पर आज के दिन सुबह लोग सोशल मीडिया पर कुछ भी लिखने या चैटिंग करने के लिए हिंदी का प्रयोग करते दिखाई देते हैं।

हिंदी दिवस के दिन लोगों को इस तरह रंगा सियार बना देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे लोग हिंदी के प्रति श्रद्धा नहीं बल्कि उसके श्राद्ध में लगे हो। 21वीं शताब्दी तकनीक का युग है और आज के इस तकनीकी युग में हिंदी की बात अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंच रही है। तकनीक के इस दौर में न सिर्फ हम बल्कि हमारी भाषा भी दिन-ब-दिन तरक्की तो कर रही है। लेकिन इस तरक्की के दूसरे पहलू पर गौर करें तो हिंदी वास्तविक विकास की सच्चाई से कोसों दूर खड़ी दिखाई देती है। भले ही तकनीक ने हिंदी को एक नया मुकाम दिया हो। लेकिन कल तक हिंदी जिन लोगों के कंधे पर बैठ इठलाया करती थी। आज उन्ही लोगों ने हिंदी को कंधे से उतार धरातल पर दे मारा है। भले वो साहित्य का क्षेत्र हो या सिनेमा का। कुछ लोगों को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो इन क्षेत्रों के ज्यादातर लोग सार्वजनिक रूप से हिंदी बोलने में शर्म महसूस करते हैं।

आज तो आलम ये है कि हिंदी पट्टी के गैर सरकारी विद्यालयों में शिक्षा-दीक्षा का माध्यम उनकी मातृभाषा की बजाय अंग्रेजी बन गयी है। जिनकी वजह से इन क्षेत्रों की प्राथमिक भाषा द्वितीयक और द्वितीयक भाषा प्राथमिक बनती जा रही है। एक तर्क यह भी है कि आज के इस भूमंडलीय युग में सिर्फ हिंदी से हमारा काम नहीं चल सकता। लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि हम अपनी भाषा को तवज्जों देना छोड़कर किसी दूसरी भाषा के पीछे अंधी दौड़ लगाना शुरू कर दें। ऐसे में नतीजा ये हो रहा है कि नई पीढ़ी अंग्रेजी तो फर्राटेदार लिख-बोल लेती है पर जिस हिन्दी भाषी समाज में उन्हें रहना है जीना है उस भाषा में वो पिछड़ रहे हैं।

आज हिंदी भाषी लोग जिस डाल पर बैठे है। उसे ही काट रहे है और उन्हें इस बात का तनिक भी अहसास नहीं है। स्थिति ये हो गयी है, कि लोगों ने हिंदी को अपनी सामाजिक स्थिति से जोड़ लिया हैं, और अगर कोई किसी मंच से हिंदी बोल रहा हो तो लोग उसे गवांर समझते है। उसे ऐसी नज़रों से देखते है जैसे समाज में उसकी कोई हैसियत ही ना हो। चाहे वो कितनी ही अच्छी हिंदी ही क्यों न बोलता हो। किसी भी भाषा का मूल उद्देश्य सहजता से संवाद स्थापित करने में मदद करना होता है। लेकिन आज भाषा को लोगों ने अपना फैशन बना लिया है। जो आने वाले समय में हमारे समाज के लिए बेहद ही घातक स्थिति पैदा करने वाला है।

कुमार मौसम

हिन्दी को भी चाहिए संक्रमण से मुक्ति

-विनोद बंसल

      किसी राष्ट्र को समझना हो तो उसकी संस्कृति को समझना आवश्यक है. उसकी संस्कृति को समझने हेतु वहां की भाषा का ज्ञान भी आवश्यक है. विश्व के लगभग सभी देशों की अपनी अपनी राजभाषाएँ हैं जिनके माध्यम उनके देशवासी परस्पर संवाद, व्यवहार, लेखन, पठन-पाठन इत्यादि कार्य करते हैं. स्वभाषा ही व्यक्ति को स्वच्छंद अभिव्यक्ति, सोचने की शक्ति, विचार, व्यवहार, शिक्षा व संस्कार प्रदान करते हुए उसके जीवन को सुखमय व समृद्ध बनाती है. हम जितना अपनी मात्र भाषा में प्रखरता व प्रामाणिकता से अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर सकते हैं उतना किसी अन्य भाषा में नहीं. हमें गर्व है कि विश्व की सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषाओं में हिंदी का तीसरा स्थान हैं. तथा इसे बोलने वाले देश में सबसे अधिक हैं।
      इतना सब कुछ होने के बावजूद भी यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी आज तक कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हमारे संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में यह तो कहा गया है कि  भारत की राजभाषा ‘हिंदी’ और लिपि ‘देवनागरी’ है। किन्तु इसे राष्ट्र भाषा बनाए जाने के अब तक के सभी प्रयास असफल ही रहे. इसे राजभाषा का स्थान 14 सितंबर 1949 को मिला था.
      यदि इसकी पृष्ठ भूमि में जाएँ तो पता चलता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिंदी को जनमानस की भाषा बताते हुए 1918 के हिंदी साहित्य सम्मेलन में इसे राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। जवाहरलाल नेहरू जी ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत तो की थी किन्तु उनके शासनकाल में ही हिंदी को एक ‘खिचड़ी भाषा’ के रूप में विकसित करने का अतार्किक और अवैज्ञानिक प्रयास किया गया। उनका मानना था कि हिंदी में देश की सभी भाषाओं के शब्दों को सम्मिलित कर एक ऐसी ‘खिचड़ी भाषा’ बना ली जाए जिस पर किसी को आपत्ति ना हो। उन्होंने हिंदी को ‘हिंदुस्तानी’ (हिंदी और ऊर्दू का मिश्रण) भाषा बनाने का समर्थन किया था। यह प्रयास देखने में तो उस समय अच्छा लगा, परंतु, वास्तव में यही विचार हिंदी का सर्वनाश करने वाला सिद्ध हुआ।
      संयोगवस, गत कुछ माह से मुझे लगातार हिन्दी के साथ साथ रेडियो से उर्दू भाषा में भी समाचार सुनने का सौभाग्य मिला. मैंने पाया कि एक ओर जहां उर्दू के समाचारों में हिन्दी का एक शब्द भी ढूँढे नहीं सुनाई नहीं देता था तो वहीँ हिन्दी का कोई भी समाचार ऐसा नहीं था जिसमें उर्दू या अंग्रेजी भाषा की घुसपैठ ना हो. तभी मेरे मन में प्रेरणा जागी कि क्या हम अपनी राजभाषा के संक्रमण की मुक्ति हेतु कुछ नहीं कर सकते !  
      प्रतिवर्ष 14 सितम्बर आते ही हम हिन्दी बोलने, लिखने, कहने, सुनने, सुनाने इत्यादि के लिए बड़े बड़े प्रचार माध्यमों का प्रयोग तो करते हैं किन्तु दशकों से अपनी स्व-भाषा में हुए व्यापक संक्रमण की मुक्ति हेतु कोई विचार व्यवहार में नहीं ला पाते. ये संक्रमण हिन्दी भाषा में इतना गहराई से पैठ बिठाए हुए है कि हमें कभी पता ही नहीं चलता कि ये शब्द वास्तव में हिन्दी के नहीं हैं. महत्वपूर्ण बात यह भी है कि शब्दों के इस संक्रमणकारी जंजाल से हमारे भाषाई साहित्यकार भी अछूते नहीं रहे. और उन शब्दों को निकल कर आपको यह कहा जाए कि इनका हिन्दी समानार्थी बताओ तो आपको लगेगा कि ये तो हिन्दी के ही हैं. इन घुसपैठिए शब्दों के प्रचार प्रसार में हिंदी समाचार पत्र-पत्रिकाओं, चलचित्रों, इत्यादि साधनों का विशेष स्थान है. हिन्दी के संक्रमण मुक्ति हेतु सबसे पहले उन्हें पहचानना होगा. और उसके बाद उन्हें भगाना होगा. आज मैंने बड़े ध्यान लगा कर 227 शब्दों की एक प्रारम्भिक सूची उन उर्दू के शब्दों की बनाई जो हिन्दी की आत्मा पर सीधा प्रहार कर रहे थे. आओ! उनमें से कतिपय शब्दों पर विचार करते हैं...
      विचार आया कि क्या हम अखबार को समाचार पत्र, आजादी को स्वतंत्रता, आबादी को जन-संख्या, आम को सामान्य, आराम को विश्राम, आवाज को ध्वनी, इंतजाम को प्रबंध, इंतज़ार को प्रतीक्षा, इंसान को मनुष्य, इजाज़त को आज्ञा, इवादत तो प्रार्थना, इज्जत को मान या प्रतिष्ठा, इलाके को क्षेत्र, इलाज को उपचार, इश्तिहार को विज्ञापन, इस्तीफे को त्यागपत्र, ईमानदार को निष्ठावान, उम्र को आयु, एतराज को आपत्ति, एहसान को उपकार, क़त्ल को ह्त्या, अक्ल को बुद्धि, कर्ज को ऋण, कमी को अभाव, क़रीब को समीप, क़सूर को दोष, कातिल को हत्यारा, क़ाबिल को सक्षम, कामयाब को सफल, किताब को पुस्तक, किस्मत को भाग्य, कीमत को मूल्य, क़ुदरत को प्रकृति, कोशिश को प्रयास, खतरनाक को भयानक, खराब को बुरा, खराबी को बुराई, खारिज को रद्द, ख़ूबसूरत को सुन्दर, गिरफ्तार को बंदी, गुनाह को अपराध, गुलाम को दास, जबरदस्ती को दबाव पूर्वक, ज़रूर को अवश्य, जल्दी को शीघ्र, जानवर को पशु, जिंदगी को जीवन,ज्यादा को अधिक, झूंठ को मिथ्या, तरीका को ढंग, तस्वीर को चित्र, तारीख़ को दिनांक, तेज को तीव्र,दुश्मन को शत्रु, धोखा को छल, नतीजे को परिणाम, परेशान को दुखी,फ़ीसदी को प्रतिशत, फैसले को निर्णय, बजह को कारण नहीं बोल सकते. इन सभी 227 शब्दों को मेरे ट्विटर @vinod_bansal पर या फेसबुक पर जाकर देख सकते हैं.
      अब कुछ उदाहरण अंग्रेजी की घुसपैठ के.. एक व्यक्ति अपनी पत्नी से: ‘आज तो कोई ऐसा डेलिशियस फ़ूड बनाओ कि ‘मूड फ्रेश हो जाए’। महोदय आफिस पहुंचे तो बॉस का ‘स्टुपिड’ टाइप सम्बोधन।  हमारी सुबह की चाय ‘बेड-टी’ तो शौचादिनिवृति ‘फ्रेश हो लो’ का सम्बोधन बन चुकी। कलेवा (नाश्ता) ब्रेकफास्ट बन गया तो दही ‘कर्ड’. अंकुरित ‘स्पराउड्स’ तो पौष्टिक दलिया ‘ओट्स’, सुबह की राम राम ‘गुड मॉर्निंग’ तो शुभरात्रि ‘गुड नाईट’ में बदल गई। नमस्कार ‘हेलो हाय’ में तो ‘अच्छा चलते हैं’ ‘बाय’ में रूपांतरित हो चुका। माता ‘मॉम’ तो पिता ‘पॉप’ हो लिए। चचेरे, ममेरे व फुफेरे सम्बंध सब ‘कजन’ बन चुके तो, गुरुजी ‘सर’ में बदल गए तथा गुरुमाता ‘मैडम’। भाई ‘ब्रदर’, बहन ‘सिस्टर’ तो दोस्त आज ‘फ्रेंड’ हैं। लेख ‘आर्टिकल’ तो कविता ‘पोएम’ निबन्ध ‘ऐसए’, पत्र ‘लेटर’, चालक ’ड्राइवर’ परिचालक ‘कंडक्टर’, वैद्य ‘डॉक्टर’ हंसी ‘लाफ्टर’, कलम ‘पेन’ पत्रिका ‘मैग्जीन’, उधार ‘क्रेडिट’ तथा भुगतान ‘पेमेंट बन गया. कुल मिला कर बात यह है कि हम चाहे हिन्दू हैं, हिंदी हैं, हिंदुस्थानी हैं किन्तु हिन्दी को नहीं बचा पाए!
      आओ इस बार के हिन्दी दिवस को हम एक प्रेरणा दिवस के रूप में मनाएं. आज से ही प्रारम्भ करें कि जब भी हम हिन्दी में बोलेंगे, लिखेंगे, कहेंगे, सुनेंगे, गाएंगे, गवाएंगे तो सिर्फ हिन्दी के ही शब्दों का प्रयोग करेंगे और भाषा में हुई घुसपैठ के विरुद्ध एक अभियान छेड़ कर पहले घुसपैठियों को ठीक से पहचानेंगे, विकल्प देखेंगे और उसे पूरी तरह से संक्रमण मुक्त कर स्वभाषा के गौरव को जन जन तक पहुंचाएंगे.

हिन्दी है माथे की बिंदी, इसका मान बढ़ाएंगे.
हम सब भारतवासी मिलकर इसे समृद्ध बनाएंगे..

ससुराल हेल्प लाइन

नवेन्दु उन्मेष

इनदिनों खबर आ रही है कि देश के कई इलाके में लोग घर में बैठे-बैठे पत्नी
से लड़ रहे हैं। इसलिए देश के गृहस्थी मंत्रालय ने पति हित में एक निर्देश
जारी किया कि पत्नी से लड़ों, मगर पत्नी वायरस के योद्धाओं से नहीं। पत्नी
की ढाल के लिए उनके मायके वालों को पत्नी योद्धा के रूप में तैनात किया
गया है। जो भी पत्नी से लड़ेगा उसे पत्नी वायरस योद्धाओं के द्वारा सबक
सिखाया जायेगा। निर्देश में यह भी कहा गया है कि पत्नी की करो देखभाल,
देश हर हाल में जीतेगा पत्नी वायरस से। अगर पत्नी ज्यादा तंग करे तो
ससुराल हेल्पलाइन पर संपर्क करें। वहां से दिये गये निर्देशों का पालन
करें।
कई दिनों से बोतलदास भी अपनी पत्नी से लड़ रहा था। उसने ससुराल हेल्पलाइन
नंबर पर फोन लगाया तो उसे जवाब मिला-पत्नी से लड़ो मगर पत्नी की ढ़ाल के
लिए तैनात पत्नी वायरस के योद्धाओं जैसे साला, साली, साढू इत्यादि से
नहीं। हेल्पलाइन नंबर पर दिये गये निर्देशों का पालन करते हुए बोतलदास ने
पत्नी से लड़ना बंद कर दिया। लेकिन पत्नी थी कि मानती ही नहीं। वह उसे
निकम्मा, बेरोजगार कहकर बारंबार चिढ़ा रहीं थी। बोतलदास की पत्नी ने उसे
कई बार कहा कि घर में बैठे रहने से अच्छा है कुछ काम धंधा ढूंढों लेकिन
उसके लिए मुसीबत यह थी कि देश में पत्नी वायरस अपनी जड़े जमाये हुए था।
सोच रहा था कि घर में रहो तो पत्नी का डर है और घर से निकलो तो पत्नी
वायरस का खतरा है। दूसरों की पत्नियां घर से बाहर निकले ही उस पर डोरे
डालने लगती हैं। उसके पहनावा-ओढ़ावा से लेकर चाल-चलन पर टिप्पणी करती हैं।
जब वह उन्हें ऐसा करने से मना करता है तो वे उसे भला-बुरा कहने लगती हैं।
बोतलदास बहुत ही खूबसूरत आदमी है। उसे याद है कि जब वह कालेज में पढ़ता था
तो लड़कियां उसे कहती थी तुम फिल्म अभिनेताओं की तरह दिखते हो। अगर
बालीबुड चले जाओ तो तुम राजकपूर और देवानंद की तरह हिट हो सकते हो। लेकिन
उसकी कोई तमन्ना फिल्मी दुनिया में जाने की थी नहीं। यही सोच कर वह
बालीवुड नहीं गया। पढ़ाई-लिखाई पूरी करने के बाद एक प्राइवेट कंपनी में
नौकरी करने लगा। जब वह उस कंपनी में काम करने गया तो वहां भी लड़कियां उस
पर डोरे डालने लगी। इसी बीच उसकी शादी भी हो गयी। लाकडाउन के दिनों में
उसकी रही सही नौकरी भी चली गयी। इसके बाद वह घर पर ही रहने लगा। पत्नी से
रोज उसका गृहयुद्ध छिड़ने लगा। घर घर न होकर कुरूक्षेत्र के मैदान में
तब्दील हो गया।
एक दिन उसका पत्नी से झगड़ चल ही रहा था कि पड़ोसी ने ससुराल हेल्प लाइन
नंबर पर काल कर दिया। इसके बाद पत्नी के बचाव में योद्धा आ गये। उन्होंने
उसे समझाया कि तुम अगर पत्नी से लड़ोगे तो घरेलू हिंसा कानून के तहत तुम
पर कार्रवाई हो सकती है। बोतलदास डर गया। लेकिन पत्नी वायरस के योद्धा भी
कम नहीं थे। उन्होंने उसे कुछ दिनों के लिए घर के एक कमरे में उसे
क्वारंटाइन होने का निर्देश दिया। बोले कमरे के अंदर चले जाओ। तुम्हें
ससुराल प्रशासन के द्वारा पंद्रह दिनों तक मुफ्त राशन दिया जायेगा।
पति-पत्नी के बीच बोलचाल बंद रहेगी तो घर में शांति आ जायेगी। किसी तरह
की जरूरतों को पूरा करने के लिए ससुराल हेल्प लाइन हमेशा खुली हुई है जब
चाहो काल करके अपनी समस्याओं को रख सकते हो। यह कहकर पत्नी वायरस के
योद्धा चले गये। जाते हुए उन्होंने कहा पत्नी की करो देखभाल, देश पत्नी
वायरस से जरूर जीतेगा

कांग्रेस में नई जान फूंकने की कोशिश में सोनिया

सोनिया गांधी कोई खतरा मोल नही लेना चाहती। उन्होंने मजबूत नेता की शैली में पार्टी को नई शक्ल देना शुरू कर दिया है। वे बीमार हैं, लेकिन उन्हें पता है कि कांग्रेस चलाना उनकी जिम्मेदारी भी है और मजबूरी भी। क्योंकि उनसे मजबूत नेता पार्टी में कोई और नहीं है और राहुल गांधी के लिए सीढ़ी उन्हें ही बनानी होगी।

-निरंजन परिहार

कांग्रेस के पास श्रीमती सोनिया गांधी से बड़ा और पार्टी की गरिमा बढ़ानेवाला कोई दूसरा धीर गंभीर नेता नहीं है, और जाहिर है कि वे अपनी इस महिमा को अच्छी तरह समझती भी हैं। इसलिए उन्होंने बीमार होने और विदेश जाने की तैयारी में होने के बावजूद बहुत तेजी से उन सारों के पर कतर दिए हैं, जो पार्टी को आंख दिखाते रहे हैं और जिनकी वजह से पार्टी को विवादों में आना पड़ा है। इसीलिए राजस्थान के दो नेताओं का राजनीतिक कद बड़ा करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती गांधी ने 11 सितंबर की रात को पार्टी के समर्पित नेताओं को हैसियत बख्श दी, तो कई नेताओं को उनकी औकात दिखा दी। किसी को नई जिम्मेदारी सौंपी, तो पुनर्गठन में महत्वपूर्ण पदों पर राहुल गांधी के विश्वस्त नेताओं को अहमियत देकर संदेश भी दे दिया कि अब चलेगी तो उन्हीं की।

कांग्रेस संगठन में ताजा फेरबदल में यह बिल्कुल साफ है कि कांग्रेस की चिट्ठी गैंग के पर कतर दिए गए हैं और बगावत करनेवालों को बाहर ही इंतजार करते रहने के संकेत दिए गए हैं। राजस्थान से कांग्रेस नेता भंवर जितेंद्र सिंह को महासचिव और पूर्व मंत्री रघुवीर सिंह मीणा को कांग्रेस कार्यसमिति सदस्य के रूप में लिया गया है। लेकिन पार्टी की सरकार गिराने की कोशिश करनेवाले सचिन पायलट सहित चिट्ठी लिखनेवालों में से ज्यादातर को संगठन फिलहाल दूर ही रखा गया है। यह सोनिया गांधी की अपनी शैली है, और वे कोई खतरा मोल नही लेना चाहती।

वैसे भी सोनिया गांधी को ऐसे लोग शुरू से ही पसंद नहीं है, जिनकी व्यक्तिगत निष्ठा पार्टी की परंपरा से ऊपर हो। इसीलिए, सचिन पायलट स्वयं को भले ही राहुल गांधी के नजदीकी प्रचारित करते रहे हैं। लेकिन राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार को अस्थिर करने के प्रयास में असफल रहने के बाद सोनिया गांधी की नजरों में उनके प्रति स्नेह भी कम हो गया। हालांकि सचिन के वापस पार्टी के साथ आ जाने के कारण, माना जा रहा था कि उनको संगठन में कहीं समाहित किया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राजस्थान से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खासमखास रघुवीर सिंह मीणा को कार्यसमिति में लिया गया है, और दूसरा पूर्व केंद्रीय मंत्री भंवर जितेंद्र सिंह को महासचिव के रूप में अत्यधिक महत्व मिलने से साफ है कि पायलट को अब फिलहाल कुछ भी नहीं मिलनेवाला। खबर है कि राहुल गांधी वैसे भी पायलट से बेहद नाराज हैं। क्योंकि उन्होंने किस तरह से भाजपा से सांठगांठ करके राजस्थान में कांग्रेस की सरकार को गिराने के लिए कोशिशें की, उसके पुख्ता सबूत भी राहुल गांधी के पास हैं।

दरअसल, सोनिया गांधी वर्तमान में रहने, सोचने, समझने और जीने की राजनीतिक ललित कला सीख गई है।इसीलिए उन्होंने भंवर जितेंद्र सिंह को महासचिव बनाया और रघुवीर सिंह मीणा को केंद्रीय संगठन में फिर से लिया। उनके इस कदम को पायलट के लिए फिलहाल दरवाजा बंद होने के संकेत के रूप में देखा जा रहा हैं। वैसे भी, राहुल ने अपने विश्वस्त रणदीप सुरजेवाला को पायलट पर नकेल कसने के लिए राजस्थान भेजा था और सुरजेवाला ने ही पायलट को प्रदेश अध्यक्ष पद से बर्खास्त करने की घोषणा की थी। रघुवीर सिंह मीणा के बारे में कहा जाता है कि गोविंद सिंह डोटासरा को अध्यक्ष नियुक्त करने की घोषणा के कुछ पल पहले तक मीणा का नाम तय था। लेकिन, जातिगत समीकरण के तहत बदलाव किया गया। तभी से माना जा रहा था कि मीणा आनेवाले दिनों में किसी बड़े पद पर लौटेंगे। मीणा गहलोत के विश्वासपात्र हैं और भंवर जितेंद्र राहुल गांधी के, दोनों ही कांग्रेस के लिए हमेशा से समर्पित रहे हैं। दोनों नेता पायलट की तरह अतिमहत्वाकांक्षी कभी नहीं रहे। सोनिया गांधी का मानना सिर्फ यह है कि पार्टी के हितों को सर्वोपरि रखना चाहिए।

सोनिया गांधी इन दिनों सभी मुसीबतों का निदान निकालते हुए एक तीर से कई निशाने साध लेती है। इसीलिए, मुख्यमंत्री के रूप में अशोक गहलोत द्वारा बहुमत साबित किए जाने के बावजूद पायलट का राजस्थान में अपनी हरकतों से बाज नहीं आना उन्हें रास नहीं आ रहा था। श्रीमती गांधी की नजर में यह भी है कि पायलट संगठन को अपनी ताकत दिखाने का प्रयास करते रहे हैं। केंद्रीय नेताओं की राय में पायलट को अगर संगठन या सत्ता में कुछ चाहिए, तो वे शांत रहकर अपनी विश्वसनियता साबित करते हुए समर्पित भाव से पार्टी को मजबूत करने में समय लगाते। लेकिन हाल ही में अपने जन्म दिन पर प्रदेश के हर जिले में आयोजन करने की कोशिश करके पायलट ने केंद्रीय संगठन को अपने जो तेवर दिखाए, सोनिया गांधी उससे खुश नहीं है। फिर, उनकी बगावत से कांग्रेस को काफी नुकसान पहुंचा है। पायलट को इसीलिए संगठन में भी कहीं भी समाहित नहीं किया गया है, ऐसा माना जा रहा है।

कांग्रेस भी जानती है कि पार्टी में भले ही पुराने साथियों की कमी खल रही हो, लेकिन किसी की भी उद्धंडता को स्वीकार करके नहीं चला जा सकता। ताजा फेरबदल से साफ है कि पार्टी की कमान अब पूरी तरह से राहुल गांधी के हाथ फिर से आती हुई दिख रही है। क्योंकि कुल नौ महासचिवों में से मुकुल वासनिक को छोड़ बाकी सभी को राहुल गांधी का विश्वासपात्र माना जा सकता है। महासचिव के रूप में सबसे बड़ा प्रमोशन मिला है भंवर जितेंद्र सिंह और रणदीप सुरजेवाला को, जिन्हें राहुल गांधी का सबसे खास सिपहसालार माना जाता है। दोनों के बारे में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जो निर्णय लिया है, वह संगठन के लिए ठीक माना जा रहा है। और रही बात पार्टी में राहुल गांधी के लोगों को प्रमुखता देकर एक मां द्वारा बेटे के शिखर की दावेदारी की फिर से तैयारी करने की, तो इस पर किसी को भी ऐतराज भी क्यों होना चाहिए। क्योंकि न केवल आनुवांशिक आरक्षण की तर्ज पर राहुल गांधी को अगला अध्यक्ष बनाने की बात की जानी चाहिए, बल्कि इसलिए भी कि वे उस वंश के वारिस हैं जिसने देश को अब तक चार प्रधानमंत्री दिए हैं और वे पहले भी अध्यक्ष रहे हैं। और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि अध्यक्ष पद के असली दावेदार भी वे ही हैं।

ब्रेकिंग न्यूज के दौर में हिन्दी पर ब्रेक

 मनोज कुमार

ब्रेकिंग न्यूज के दौर में हिन्दी के चलन पर ब्रेक लग गया है. आप हिन्दी के हिमायती हों और हिन्दी को प्रतिष्ठापित करने के लिए हिन्दी को अलंकृत करते रहें, उसमें विशेषण लगाकर हिन्दी को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम बताने की भरसक प्रयत्न करें लेकिन सच है कि नकली अंग्रेजियत में डूबे हिन्दी समाचार चैनलों ने हिन्दी को हाशिये पर ला खड़ा किया है. हिन्दी के समाचारों में अंग्रेजी शब्दों की भरमार ने दर्शकों को भरमा कर रख दिया है. इसका एक बड़ा कारण यह है कि पत्रकारिता की राह से गुजरते हुए समाचार चैनल मीडिया में बदल गए हैं. संचार या जनसंचार शब्द का उपयोग अनुचित प्रतीत होता है तो विकल्प के तौर पर अंग्रेजी का मीठा सा शब्द मीडिया तलाश लिया गया है. अब मीडिया का हिन्दी भाव क्या होता है, इस पर चर्चा कभी लेकिन जब परिचय अंग्रेजी के मीडिया शब्द से होगा तो हिन्दीकी पूछ-परख कौन करेगा. हालांकि पत्रकारिता को नेपथ्य में ले जाने में अखबार और पत्रिकाओं की भी भूमिका कमतर नहीं है. चैनलों की नकल करते हुए अखबारों ने खबरों और परिशिष्ट के शीर्षक भी अंग्रेजी शब्दों से भर दिए हैं. शहर से इन अखबारों को मोहब्बत नहीं, सिटी उन्हें भाता है. प्रधानमंत्री लिखने से अखबारों में जगह की कमी हो जाती है तो पीएम से काम चलाया जा रहा है. मुख्यमंत्री सीएम हो गए और आयुक्त कमिश्रर. जिलाधीश के स्थान पर कलेक्टर लिखना सुहाता है तो संपादक के स्थान पर एडीटर शब्द सहज हो गया है. यानि समाचार चैनल से लेकर अखबार के पन्नों में भी हिन्दी को दरकिनार किया जा रहा है. हालांकि इस दौर का मीडिया गर्व से इस बात को लिखता जरूर है कि हिन्दी का श्रेष्ठ चैनल या हिन्दी का सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार लेकिन हिन्दी को कितना स्थान है, यह उन्हें भी नहीं मालूम.  हम हर साल 14 सितम्बर को इस बात को लेकर शोर मचाते रहें कि हिन्दी माथे की बिंदी है. हिन्दी से हमारा स्वाभिमान है. हिन्दी हमारी पहचान है लेकिन सच यही है कि पत्रकारिता से मीडिया में बदलते परिदृश्य में हिन्दी हाशिये पर है. हिन्दी के चैनलों के पास हिन्दी के शब्दों का टोटा है. उनके पास सुप्रभात कमतर शब्द लगता है और गुडमार्निंग उनके लिए ज्यादा प्रभावी है. दस बड़ी खबरों के स्थान पर टॉप टेन न्यूज की सूची पर्दे पर दिखाना उन्हें ज्यादा रूचिकर लगता है. हिन्दी के नाम पर कुमार विश्वास की कविता का पाठ कराने वाले चैनलों को कभी निराला या पंत की कविताओं को सुनाने या पढ़ाने में रूचि नहीं होती है. सच तो यह है कि हिन्दी की पीठ पर सवार होकर अंग्रेजी की टोपी पहने टेलीविजन न्यूज चैनलों ने जो हिन्दी को हाशिये पर लाने की कोशिश शुरू की है, वह हिन्दी के लिए अहितकर ही नहीं बल्कि दुर्भाग्यजनक है. हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने वालों का दिल इस बात से दुखता है कि जिनकी पहुंच करोड़ों दर्शक और पाठक के बीच है, वही संचार माध्यम हिन्दी से दूर हैं. इन संचार माध्यमों की आत्मा हिन्दी के प्रति जाग गई तो हिन्दी को प्रतिष्ठापित करने में कोई बड़ी बाधा नहीं होगी लेकिन यह संभव होता नहीं दिखता है. हम तो हिन्दी के दिवस, सप्ताह और अधिक से अधिक हिन्दी मास तक ही स्वयं को समेट कर रखना चाहते हैं. हिन्दी की श्रीवृद्धि के नाम पर यह पाखंड हम दशकों से करते चले आ रहे हैं और शायद यह क्रम ना टूटे. इसे हिन्दी के प्रति पाखंड परम्परा का नाम भी दे सकते हैं. कुछेक को यह नागवार गुजरेगा लेकिन सच से कब तक मुंह चुराएंगे.हिन्दी की यह दुर्दशा अंग्रेजी से प्रभावित हिन्दी समाचार चैनलों के आने के पहले से हो रही है. मेरी तरह आपने भी कभी महाविद्यालय की परीक्षा दी होगी. परीक्षा में प्रश्र पत्र आपके सामने शिक्षक ने रखे होंगे और उसमें प्रश्र पहले हिन्दी में और इसी हिन्दी का रूपांतरण अंग्रेजी में दिया होता है. अब असल बात यह है कि प्रश्र पत्र के निर्देश को पढ़ें जिसमें साफ साफ लिखा होता है कि हिन्दी में कोई त्रुटि हो तो अंग्रेजी के सवाल ही मान्य है. अर्थात हमें पहले समझा दिया गया है कि हिन्दी के चक्कर में मत पड़ो, अंग्रेजी ही सर्वमान्य है. हिन्दी पत्रकारिता में शिक्षा लेकर हाथों में डिग्री लेकर भटकते प्रतिभावान विद्यार्थियों को उचित स्थान क्यों नहीं मिल पाता है तो इसका जवाब है कि उन्हें अंग्रेजी नहीं पढ़ाया गया. बताया गया कि हिन्दी माध्यम में भी अवसर हैं. यदि ऐसा है तो प्रावीण्य सूची में आने वाले विद्यार्थियोंं का भविष्य अंधेरे में क्यों है? टेलीविजन चैनलों में उनका चयन इसलिए नहीं हो पाता है कि वे अंग्रेजी नहीं जानते हैं या उस तरह की अंग्रेजी नहीं जानते हैं जिसके बूते पर वे एलिट क्लास को ट्रीटमेंट दे सकें. ऐसे में हिन्दी के प्रति विमोह और अंग्रेजी के प्रति मोह स्वाभाविक हो जाता है. हालांकि हिन्दी के प्रति समर्पित लोगों को ‘एक दिन हमारा भी टाइम आएगा’ जैसे भाव से भरे लोग उम्मीद से हैं. हिन्दी के हितैषी भी इस बात का सुख का अनुभव करते हैं कि वे वर्ष में एक बार हिन्दी को लेकर बोलते हैं, लिखते हैं और हिन्दी की श्रीवृद्धि के लिए लिए विमर्श करते हैं. एक दिन, एक सप्ताह और एक माह के बाद हिन्दी आले में टांग दी जाती है. कुछ लोग हैं जो वर्ष भर क्या लगातार हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए प्राण-प्रण से जुटे हुए हैं. इन लोगों की गिनती अंगुली भर की है लेकिन हिन्दी को हाशिये पर डालने वालों की संख्या असंख्य है. इस पर सबसे पहले मीडिया कटघरे में आता है. यूरोप की नकल करते हुए हम भूल जाते हैं कि हिन्दीभाषी जनता ही इनके चैनल को टीआरपी दिलाती है. उनके होने से ही मीडिया का अस्तित्व है लेकिन करोड़ों लोगों की बोली-भाषा को दरकिनार कर उस अंग्रेजी को सिर पर कलगी की तरह बांधे फिरते हैं, जो उन्हें अपना अर्दली समझती है. यह भी सच है कि टेलीविजन चैनलों में काम करने वाले साथियों में अधिसंख्य मध्यमवर्गीय परिवार से आते हैं जिनकी पृष्ठभूमि में शायद ही अंग्रेजियत हो लेकिन उन्हें टेलीविजन प्रबंधन भी लार्ड मैकाले की तरह अंग्रेजी बोलने और लिखने पर मजबूर करता है. मैकाले की समझ में यह बात आ गई थी कि भारत को बर्बाद करना है तो उसकी शिक्षा पद्धति को नष्ट करो और उनमें कुंठा भर दो. मैकाले यह करने में कामयाब रहा और मैकाले के रूप में आज लाखों मीडिया मैनेजर यही कर रहे हैं. जिस किसी को अंग्रेजी नहीं आती, वे हीनता के भाव से भरे हैं. अंग्रेजी उन पर लाद दिया गया है क्योंकि अंग्रेजी के बिना जीवन शून्य है. मैं अपने निजी अनुभव से कह सकता हूं कि आज से कोई 35 वर्ष पूर्व जब पत्रकारिता का सबक लेने गया वहां भी अंग्रेजी जानने वाले को हमसे ज्यादा सम्मान तब भी मिलता था और आज भी हम. हम हिन्दीपट्टी के लोग दरकिनार कर दिया करते थे. तब मीडिया उत्पन्न नहीं हुआ था. अखबार था तो पत्रकारिता थी. आज की तरह पेडन्यूज नहीं हुआ करता था बल्कि पीत पत्रकारिता की यदा-कदा चर्चा हुआ करती थी. लेकिन हमारे गुरु तो हिन्दुस्तानी भाषा में पगे-बढ़े थे और वे हमें आकर्षित करते थे. हमें लगता था कि जिस भाषा को समाज समझ सके, वही पत्रकारिता है. शायद आज भी हम पिछली पंक्ति में खड़े हैं तो हिन्दी के प्रति मोह के कारण है या कह सकते हैं कि अंग्रेजी को अंगीकार नहीं किया, इसलिए भी पीछे धकेल दिए गए. हालांकि सच यह भी है कि हम जो कर रहे हैं, वह आत्मसंतोष है. किसी एक अघढ़ समाजी का फोन आता है कि आप का फलां लेख पढऩे के बाद मैं आपको फोन करने से रोक नहीं पाया तो लगता है कि मैंने यहां आकर अंग्रेजी को परास्त कर दिया है. क्योंकि फोन करने वाला कोई टाई-सूट पहने नकली किस्म का बुद्धिजीवी नहीं बल्कि ठेठ भारतीय समाज का वह पुराने किस्म का कोई आदमी है जिसके पास दिमाग से अधिक दिल है. हिन्दी की श्रेष्ठता के लिए, हिन्दी को प्रतिष्ठापित करने लिए दिमाग नहीं दिल चाहिए. दिल वाले आज भी पत्रकारिता कर रहे हैं और दिमाग वालों की जगह मीडिया में है. हिन्दी को श्रेष्ठ स्थान दिलाना चाहते हैं तो दिल से हिन्दी को गले लगाइए. हिन्दी दिवस और सप्ताह, मास तो औपचारिकता है. एक बार प्रण लीजिए कि हर सप्ताह हिन्दी में एक लेख लिखेंगे, हिन्दी में संवाद करेंगे. हम बदलेंगे तो समाज बदलेगा. मीडिया का क्या है, वह तो बदल ही जाएगा. 

अन्य कार्य करते हुए ईश्वर के उपकारों का चिन्तन आवश्यक है

-मनमोहन कुमार आर्य
मनुष्य को जीवन में अनेक कार्य करने होते हैं। उसे अपने निजी, पारिवारिक व सामाजिक कर्तव्यों की पूर्ति के लिये समय देना पड़ता है। धनोपार्जन भी एक गृहस्थी मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य है। इन सब कार्यों को करते हुए मनुष्य को अवकाश कम ही मिलता है। अतः सभी कामों को समय विभाग के अनुसार करना चाहिये जिससे किसी अनावश्यक कार्य में हम अधिक समय न लगायें और कोई आवश्यक काम छूट न जायें। सांसारिक काम कितने भी महत्व के हों परन्तु इन सबसे महत्व का कार्य है इस संसार के रचयिता व पालक ईश्वर के सत्यस्वरूप, गुण, कर्म व स्वभाव सहित उसके उपकारों का चिन्तन एवं ध्यान तथा उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उसका धन्यवाद करना। जो मनुष्य ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करते हैं उनको बहुत भारी हानि उठानी पड़ती है। इसका अनुमान हम इस विषय का चिन्तन कर जान सकते हैं। ईश्वर का चिन्तन व ध्यान क्यों करें? इस प्रश्न पर विचार करने पर हमें ज्ञात होता है कि हमारा अतीत, वर्तमान एवं भविष्य में मनुष्य व अन्य किसी प्राणी के रूप में जो अस्तित्व होना है, वह हमें ईश्वर से ही प्राप्त हुआ व होना है।

ईश्वर ने हमें व सब प्राणियों को इस जन्म में मनुष्य व अन्यान्य योनियों में उत्पन्न किया है। इसके बदले में उसने हमसे कोई मूल्य नहीं लिया। हम किसी मनुष्य से छोटी से छोटी सेवा भी लेते हैं तो हमें उसका मूल्य देना होता है। घर में हम जिन व्यक्तियों से किसी प्रकार की सेवा लेते हैं, तो उसका उनकी सेवा के अनुरूप धन तय करके भुगतान करना होता है। कोई मनुष्य बिना किसी लाभ, हित व स्वार्थ के किसी अन्य व्यक्ति को अपनी सेवायें नहीं देता है। परमात्मा ने हमारे व हमारे समान अन्य जीवों के सुख व कल्याण के लिये इस संसार की रचना लगभग 1.96 अरब वर्ष पूर्व की है। यह संसार व ब्रह्माण्ड कितना विशाल है, नियमों के अन्तर्गत व्यवस्थित रूप से चल रहा है, इसका हम अनुमान ही कर सकते हैं। परमात्मा का यह कार्य ऐसा है जिसे संसार में उसके अलावा कोई नहीं कर सकता। यह सृष्टि परमात्मा ने हमारे सुख व उन्नति के लिए बनाई है। उसी ने इस सृष्टि व इसके अनेक प्रकार के पदार्थों को बनाकर हमें माता-पिता के द्वारा यह मानव की श्रेष्ठ देह प्रदान की है। इस देह के माध्यम से ही हम सुखों का अनुभव करते हैं। हमारे सुख के सभी पदार्थ भी परमात्मा ने बना रखे हैं। हम जब कोई अनैतिक व बुरे काम करते हैं तो उससे हमें दुःख होता है। कुछ ही समय बाद परमात्मा हमें उस दुःख से भी मुक्त करा देते हैं और हम पुनः स्वस्थ व शक्ति से युक्त हो जाते हैं। हम पुनः सुख प्राप्ति के कार्यों में लग जाते हैं। विचार करने पर ज्ञात होता है कि हमेें जो भी सुख, आनन्द वा कल्याण की प्राप्ति होती है वह सब परमात्मा द्वारा हमारे पुरुषार्थ के अनुरूप प्रदान की जाती है। ऐसे परमात्मा के, न केवल इस जन्म में अपितु इससे पूर्व के ऐसे असंख्य जन्मों में भी, हमारे ऊपर इतने उपकार है जिनकी गणना भी नहीं की जा सकती। परमात्मा के उन ऋणों व उपकारों से उऋण होने के लिए हमारे पास कोई साधन व उपाय भी नहीं हैं। अतः हमारा कर्तव्य बनता है कि हम प्रतिदिन प्रातः व सायं न्यूनतम एक घंटा स्वच्छ होकर, संसार से अपने मन को हटा कर, ईश्वर के सत्यस्वरूप व उसके उपकारों का स्मरण करें व स्तुति वचनों से उनके गान से, भक्ति व उपासना से उसका ध्यान करें। ऐसा करने से हम कृतघ्ना के पाप से मुक्त हो सकते हैं। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हमें सबसे कृतघ्नता का बड़ा दोष लगता है जिसके परिणाम हमारे भविष्य के जीवन में दुःख, रोग, तनाव व विफलताओं के रूप में सामने आते हैं। 

ईश्वर व संसार के प्रति अपने कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये हमें वेदों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान होने से उनका अध्ययन व अध्यापन हमारा कर्तव्य व परम धर्म है। वेदों का अध्ययन करने से हमें ईश्वर व आत्मा सहित संसार का सत्यस्वरूप समझ में आ जाता है। वेदों के अध्ययन के लिये हम वेदों के हिन्दी, अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं में वैदिक विद्वानों की टीकाओं की सहायता ले सकते हैं। इसके अतिरिक्त भी वेदों के आशय को जानने व अनेकानेक विषयों पर ज्ञान लाभ करने के लिये हम उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि सहित आर्य वैदिक विद्वानों के वेदविषयक ग्रन्थों का अध्ययन कर सकते हैं। रामायण तथा महाभारत प्राचीन भारतीय वैदिक इतिहास के ग्रन्थ हैं। इनके अध्ययन से भी लाभ होता है। यह हम इस साहित्य को अपने जीवन में नियमित रूप से पढ़ते हैं तो हमारा जीवन ज्ञान की दृष्टि से सफल हो सकता है। हम ईश्वर, आत्मा व संसार के बारे में इतना ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं जो अनेक मत-मतानत्रों के आचार्यों तक को नहीं होता। ज्ञान को प्राप्त होकर ज्ञान के अनुरूप ही हमारे कर्म होने चाहियें। अधिकांश स्थिति में ऐसा होता भी है। अतः हमें ज्ञान प्राप्ति पर ध्यान देना चाहिये और अपने जीवन के सभी कार्यों की प्राथमिकतायें निर्धारित कर सबको उचित समय देना चाहिये जिसमें हमें स्वाध्याय व सन्ध्या (ईश्वर का ध्यान, चिन्तन, मनन, विचार, स्तुति, प्रार्थना, उपासना व भक्ति आदि) सहित अपने शरीर को स्वस्थ रखने के सभी उपाय भी करने चाहियें। ईश्वर का ध्यान करने के लिये भी हमें सन्ध्योपासना विधि तथा ऋषि दयानन्द के अन्य ग्रन्थों में अनेक स्थानों में उपलब्ध उपासना विषयक महत्वपूर्ण वचनों से सहायता लेनी चाहिये। ऐसा करने से निश्चय ही हमारा कल्याण होगा और इसकी उपेक्षा करने से निश्चय ही हमें हानि होगी जिससे हमें बचना चाहिये। 

ईश्वर का सत्यस्वरूप कैसा है, इस पर हम सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में ऋषि दयानन्द के दिये कुछ वचनों को प्रस्तुत कर रहे हैं। वह कहते हैं कि जो सब दिव्य गुण, कर्म, स्वभाव, विद्यायुक्त और जिसमें पृथिवी सूर्यादि लोक स्थित हैं और जो आकाश के समान व्यापक सब देवों का देव परमेश्वर है, उस को जो मनुष्य न जानते, न मानते और उस का ध्यान नहीं करते, वे नास्तिक मन्दमति सदा दुःखसागर में डूबे ही रहते हैं। इसलिये सर्वदा उसी को जानकर सब मनुष्य सुखी होते हैं। ऋषि दयानन्द ने यह भी बताया है कि वेदों में अनेक ईश्वरों का नहीं अपितु केवल एक ही ईश्वर का वर्णन उपलब्ध होता है। उनकी दृण आस्था है कि संसार में केवल और केवल एक ही ईश्वर का अस्तित्व है और इसे वह युक्तियों व प्रमाणों से सिद्ध भी करते हैं। कुछ वेदमन्त्रों का अर्थ करते हुए वह कहते हैं हे मनुष्य! जो कुछ इस संसार में जगत् है उस सब में व्याप्त होकर जो नियन्ता है वह ईश्वर कहाता है। उस से डर कर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरण-रूप धर्म से अपने आत्मा से आनन्द को भोग। वह कहते हैं कि ईश्वर सब को उपदेश करता है कि हे मनुष्यों! मैं ईश्वर सब के पूर्व विद्यमान सब जगत् का स्वामी हूं। मैं सनातन जगत्कारण और सब धनों का विजय करनेहारा और दाता हूं। मुझ ही को सब जीव जैसे पिता को सन्तान पुकारते हैं, वैसे पुकारें। मैं सबको सुख देने वाले जगत् के लिए नाना प्रकार के भोजनों वा खाद्य पदार्थों का विभाग पालन के लिये करता हूं। एक वेदमन्त्र का अर्थ करते हुए वह बताते हैं कि परमेश्वर कहता है कि मैं परमेश्वर परमैश्वय्र्यवान् हूं, सूर्य के सदृश सब जगत का प्रकाशक हूं। कभी पराजय को प्रापत नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूं। मैं ही जगत रूप धन का निर्माता हूं। सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले मुझ ही को जानो। हे जीवों! ऐश्वर्य प्राप्ति के यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझ से मांगों और तुम लोग मेरी मित्रता से अलग मत होवो। ऋषि के इन वचनों से ईश्वर के सत्यस्वरूप, उसके गुण, कर्म व स्वभाव तथा उसकी भक्ति आदि पर प्रकाश पड़ता है। 

ईश्वर की सगुण व निर्गुण स्तुति पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द बताते हैं कि वह परमात्मा सब पदार्थों व जगत् में व्यापक, शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् है। वह शुद्ध, सर्वज्ञ, सब का अन्तर्यामी, सर्वोपरि, विराजमान, सनातन, स्वयंसिद्ध, परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है। यह सगुण स्तुति कहलाती है अर्थात् जिस-जिस गुण से सहित परमेश्वर की स्तुति करते है वह सगुण स्तुति होती है। उसी एक परमात्मा की निर्गुण स्तुति का उल्लेख कर वह बताते हैं कि ईश्वर कभी शरीर धारण व जन्म नहीं लेता, जिस में छिद्र नहीं होता, नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता और कभी पापाचरण नहीं करता, जिसमें क्लेश, दुःख, अज्ञान कभी नहीं होता, इत्यादि जिस-जिस राग, द्वेषादि गुणों से पृथक मानकर परमेश्वर की स्तुति करना है वह निर्गुण स्तुति है। इस दोनों प्रकार की स्तुति का फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे गुण, कर्म व स्वभाव उपासक को अपने भी करना। जैसे वह न्यायकारी है तो हम भी न्यायकारी होवें। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुण कीर्तन करता जाता है और अपने चरित्र को नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है। इसी प्रकार से प्रार्थना करने से मनुष्य में निरभिमानता आती है। वह विनम्र होता है एवं दूसरों की सहायता करने की प्रेरणा ग्रहण करता है। उपासना से मनुष्य के दुःख, दुर्गुण व दुव्र्यस्न दूर होते हैं और कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव व पदार्थों की प्राप्ति होती है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का स्वरूप सहित इसके अनेकानेक लाभ को जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश का सातवां समुल्लास अवश्य पढ़ना चाहिये। 

हमने ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला है। हम आशा करते हैं कि पाठक ऋषिकृत ग्रन्थों का अध्ययन कर इस विषय को विस्तार से जानने व समझने का प्रयत्न करेंगे और अपने जीवन को सुखी व कल्याण से युक्त करेंगे। ऐसा करने से सबको धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का ज्ञान व लाभ प्राप्त करने के अवसर मिलेंगे व उनकी उन्नति होगी। हम ईश्वर से सबके कल्याण की कामना करते हैं। 

अफगानिस्तान में आशा की किरण


डॉ. वेदप्रताप वैदिक

इसी वर्ष के मार्च और मई में मैंने लिखा था कि कतर की राजधानी दोहा में तालिबान और अफगान-सरकार के बीच जो बातचीत चल रही है, उसमें भारत की भी कुछ न कुछ भूमिका जरुरी है। मुझे खुशी है कि अब जबकि दोहा में इस बातचीत के अंतिम दौर का उदघाटन हुआ है तो उसमें भारत के विदेश मंत्री ने भी वीडियो पर भाग लिया। उस बातचीत के दौरान हमारे विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जे.पी. सिंग दोहा में उपस्थित रहेंगे। जे.पी. सिंग अफगानिस्तान और पाकिस्तान, इन दोनों देशों के भारतीय दूतावास में काम कर चुके हैं। वे जब जूनियर डिप्लोमेट थे, वे दोनों देशों के कई नेताओं से मेरे साथ मिल चुके हैं। इस वार्तालाप के शुरु में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपिओ ने भी काफी समझदारी का भाषण दिया। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने भी जो कुछ कहा, उससे यही अंदाज लगता है कि तालिबान और काबुल सरकार इस बार कोई न कोई ठोस समझौता जरुर करेंगे। इस समझौते का श्रेय जलमई खलीलजाद को मिलेगा। जलमई नूरजई पठान हैं और हेरात में उनका जन्म हुआ था। वे मुझे 30-32 साल पहले कोलंबिया यूनिवर्सिटी में मिले थे। वे काबुल में अमेरिकी राजदूत रहे और भारत भी आते रहे हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि अमेरिकी नागरिक के तौर पर वे अमेरिकी हितों की रक्षा अवश्य करेंगे। लेकिन वे यह नहीं भूलेंगे कि वे पठान हैं और उनकी मातृभूमि तो अफगानिस्तान ही है। दोहा-वार्ता में अफगान-प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व डाॅ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला कर रहे हैं, जो कि अफगानिस्तान के विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री रह चुके हैं। उनका परिवार वर्षों से दिल्ली में ही रहता है। वे भारतप्रेमी और मेरे मित्र हैं। इस दोहा-वार्ता में भारत का रवैया बिल्कुल सही और निष्पक्ष है। बजाय इसके कि वह किसी एक पक्ष के साथ रहता, उसने कहा कि अफगानिस्तान में भारत ऐसा समाधान चाहता है, जो अफगानों को पूर्णरुपेण स्वीकार हो और उन पर थोपा न जाए। लगभग यही बात माइक पोंपियों और शाह महमूद कुरैशी ने भी कही है। अब देखना यह है कि यह समझौता कैसे होता है? क्या कुछ समय के लिए तालिबान और अशरफ गनी की काबुल सरकार मिलकर कोई संयुक्त मंत्रिमंडल बनाएंगे ? या नए सिरे से चुनाव होंगे ? या तालिबान सीधे ही सत्तारुढ़ होना चाहेंगे याने वे गनी सरकार की जगह लेना चाहेंगे ? इसमें शक नहीं कि तालिबान का रवैया इधर काफी बदला है। उन्होंने काबुल सरकार के प्रतिनिधि मंडल में चार महिला प्रतिनिधियों को आने दिया है और कश्मीर के मसले को उन्होंने इधर भारत का आंतरिक मामला भी बताया है। यदि तालिबान थोड़ा तर्कसंगत और व्यावहारिक रुख अपनाएं तो पिछले लगभग पचास साल से उखड़ा हुआ अफगानिस्तान फिर से पटरी पर आ सकती है।

हिन्दी दिवस

आओ सब मिलकर हिन्दी दिवस मनाए।
इसे अपना कर भारत की शान बढ़ाए।।

हिन्दी ही मां की बिंदी है ,
आओ इसकी शान बढ़ाए।
इसका प्रचार प्रसार के लिए
तन मन और धन लगाए।।

हिन्दी है मातृ भाषा हमारी,
सब भाषाओं की भाषा है।
यही एक भाषा है जो भारत
की जनजन की भाषा है।।

हिन्दी ही देश की शान है ,
हिन्दी ही हमारी पहचान है।
फिर हम सब यही कहेंगे
हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान है।।

अंग्रेजी बोलने में गर्व समझते,
हिन्दी बोलने में समझे अपमान।
कैसी सोच चली आ रही है ये,
इसका मिटाए नामो निशान।।

आओ हम सब हिन्दी बोले,
बनाए अन्तर्राष्ट्रीय पहचान।
ताकि कहे हम सब फिर से,
हिन्दी हिन्दू और हिंदुस्तान।।

वायुशक्ति की क्षमता को मिली बेमिसाल मजबूती

योगेश कुमार गोयल

            पिछले दिनों फ्रांस से भारत आए पांचों राफेल आखिरकार 10 सितम्बर को औपचारिक रूप से वायुसेना की 17वीं स्क्वाड्रन ‘गोल्डन ऐरो’ में शामिल होकर भारतीय वायुसेना का अहम हिस्सा बन गए हैं और अब किसी भी मोर्चे पर तैनात होने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। इस समय भारत पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ गंभीर सीमा विवाद में उलझा है और ऐसे में दुनिया के बेहतरीन लड़ाकू विमानों राफेल के वायुसेना में शामिल होने से भारत की वायुशक्ति की क्षमता को बेमिसाल मजबूती मिली है। फ्लाईपास्ट के दौरान भारतीय वायुसेना के बाहुबली राफेल ने दुश्मनों को अपनी ताकत का अहसास कराते हुए दिखाया कि वह न केवल तेज गति से उड़ान भरकर दुश्मनों पर टूट सकता है बल्कि कम स्पीड में भी उड़ान भर सकता है। पूर्व वायुसेना प्रमुख बीएस धनोआ के अनुसार राफेल ने वायुसेना को हमारे विरोधियों पर जबरदस्त बढ़त दी है।

            अम्बाला एयरबेस पर राफेल के राजतिलक समारोह में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के अलावा फ्रांसीसी रक्षामंत्री फ्लोरेंस पार्ले, सीडीएस बिपिन रावत, एयर चीफ मार्शल आरकेएस भदौरिया सहित कई बड़े अधिकारी शामिल थे। इस अवसर पर राफेल की विशेषताओं के बारे में फ्रांसीसी रक्षामंत्री फ्लोरेंस पार्ले का कहना था कि राफेल को ‘हवा का झोंका’ कह सकते हैं लेकिन युद्ध के मैदान में इसका मतलब आग बरसाने वाला है। समारोह में राजनाथ सिंह ने चीन से तनाव के दौर में चेतावनी भरे दो टूक शब्दों में कहा कि वायुसेना में राफेल का शामिल होना पूरी दुनिया को एक बड़ा और कड़ा संदेश है, खासकर उनके लिए, जो हमारी सम्प्रभुता पर नजर रखते हैं। उनके मुताबिक चीन से तनाव को देखते हुए राफेल लड़ाकू विमानों को सूचना मिलने पर बेहद कम समय में ही वहां तैनात किया जा सकता है। रक्षामंत्री के अनुसार भारत की जिम्मेदारी उसकी क्षेत्रीय सीमा तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह हिंद-प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र में शांति एवं सुरक्षा के लिए भी प्रतिबद्ध है। ये दोनों क्षेत्र वही हैं, जहां चीन अपनी सैन्य आक्रामकता बढ़ा रहा है।

            राफेल को भारतीय वायुसेना के लिए इसलिए बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि यह क्षेत्र में शक्ति संतुलन को बदलने की अद्भुत ताकत रखने वाला लड़ाकू विमान है। दरअसल रक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक ऐसी दक्षता और बेजोड़ इलैक्ट्रॉनिक युद्धक प्रणाली वाले विमान किसी भी पड़ोसी देश के पास नहीं हैं। राफेल चीन के बहुचर्चित लड़ाकू विमान जे-20 से भी कई कदम आगे है। पाकिस्तान का एफ-16 भी राफेल के सामने कहीं नहीं ठहरता। रक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि इनकी तुलना राफेल से नहीं की जा सकती क्योंकि राफेल विमान इन लड़ाकू विमानों की तुलना में ज्यादा दक्ष हैं। चीनी जे-20 का मुख्य कार्य स्टील्थ फाइटर का है जबकि राफेल को कई कार्यों में लगाया जा सकता है। हैमर मिसाइलों से लैस राफेल ओमनी-रोल विमान है अर्थात् यह एक बार में कम से कम चार मिशन कर सकता है। जे-20 की बेसिक रेंज 1200 किलोमीटर है, जिसे 2700 किलोमीटर तक बढ़ाया जा सकता है। करीब 35 हजार वजनी जे-20 की लंबाई 20.5 मीटर, ऊंचाई 4.45 मीटर और विंगस्पैन 12.88-13.50 मीटर के बीच है अर्थात् यह राफेल से बड़ा और भारी है। राफेल की लम्बाई 15.3 मीटर और ऊंचाई 5.3 मीटर है जबकि इसके विंग्स की लम्बाई 10.9 मीटर है। राफेल की मारक क्षमता 3700 किलोमीटर तक है। पाकिस्तान के पास मौजूद जेएफ-17 में चीन ने पीएफ-15 मिसाइलें जोड़ी हैं लेकिन फिर भी यह राफेल के मुकाबले में कमजोर है। राफेल का सबसे खतरनाक हथियार है स्कैल्प पीएल-15 एमराम मिसाइल, जो 300 किलोमीटर तक हमला कर सकती है। हालांकि पाकिस्तान के एफ-16 में एमराम मिसाइलें लगी हैं लेकिन वे केवल 100 किलोमीटर तक ही हमला कर सकती हैं।

            भारतीय वायुसेना के पास मिराज-2000, सुखोई-30 एमकेआई जैसे आधुनिक विमान भी हैं लेकिन वे तीसरी या चौथी पीढ़ी के विमान हैं जबकि राफेल 4.5 जनरेशन का लड़ाकू विमान है, जिसमें आधुनिक हथियारों के प्रयोग के साथ बेहतर सेंसर की भी अत्याधुनिक सुविधा है। वर्ष 2016 में भारत-फ्रांस के बीच 36 राफेल की खरीद के लिए 59 हजार करोड़ रुपये का सौदा हुआ था, जिनमें से 5 राफेल 29 जुलाई को भारत पहुंच गए थे जबकि चार राफेल की अगली खेप के अगले माह आने की संभावना है। सौदे के मुताबिक 2022 तक भारत को सभी 36 राफेल मिल जाएंगे, जिनमें से पहले 18 राफेल अम्बाला एयरबेस में जबकि शेष 18 पूर्वोत्तर के हाशिमारा एयरबेस में तैनात किए जाएंगे। हालांकि पड़ोसी देशों की चुनौतियों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए अभी वायुसेना को अभी ऐसे ही और राफेल विमानों की जरूरत है। सेवानिवृत्त एयर चीफ मार्शल अरूप साहा कहते हैं कि राफेल हवाई क्षेत्र में शक्ति के मामले में वायुसेना की क्षमताओं को बढ़ाने जा रहा है लेकिन देश को कम से कम 126 राफेल विमानों की जरूरत है, जिनकी कल्पना पहले की गई थी। पूर्व वायुसेना प्रमुख फली होमी मेजर का भी मानना है कि 36 राफेल विमान भारत की हवाई ताकत को तो बढ़ाएंगे लेकिन कम से कम दो और स्क्वाड्रन होने से देश की वायु प्रभुत्व क्षमता काफी मजबूत होगी।

            हवा से हवा तथा हवा से जमीन पर मिसाइल हमलों के लिए बहुआयामी भूमिकाएं निभाने के लिए राफेल को भारतीय वायुसेना की जरूरतों के हिसाब से परिष्कृत किया गया है। यह हवाई हमला, वायु वर्चस्व, जमीनी समर्थन, भारी हमला, परमाणु प्रतिरोध इत्यादि कई प्रकार के कार्य बखूबी करने में सक्षम है। इसमें उन्नत हथियार, उच्च तकनीक सेंसर, लक्ष्य का पता लगाने और ट्रैकिंग के लिए बेहतर रडार और प्रभावशाली पेलोड ले जाने की क्षमता है। परमाणु बम गिराने की ताकत से लैस राफेल में इजरायल हेलमेट-माउंटेड डिस्प्ले, रडार चेतावनी रिसीवर, लो बैंड जैमर, दस घंटे की उड़ान डाटा रिकॉर्डिंग, इन्फ्रारेड खोज और ट्रैकिंग प्रणाली शामिल हैं। कई शक्तिशाली हथियारों को ले जाने में सक्षम राफेल विमान उल्का बीवीआर एयर-टू-एयर मिसाइल (बीवीआरएएएम) की अगली पीढ़ी है, जिसे एयर-टू-एयर कॉम्बैट में क्रांति लाने के लिए डिजाइन किया गया है। राफेल की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें ऑक्सीजन जनरेशन सिस्टम लगा होने के कारण लिक्विड ऑक्सीजन भरने की जरूरत नहीं पड़ती। अत्यंत घातक हथियारों से लैस ये विमान यूरोपीय मिसाइल निर्माता ‘एमबीडीए’ द्वारा निर्मित दृश्य सीमा से परे हवा से हवा में मार करने वाली मीटिअर मिसाइल के अलावा स्कैल्प क्रूज मिसाइल से भी लैस हैं। राफेल में बहुत ऊंचाई वाले एयरबेस से भी उड़ान भरने की क्षमता है। लेह जैसी जगहों और काफी ठंडे मौसम में भी यह तेजी से कार्य कर सकता है। इसकी विजिबिलिटी 360 डिग्री है, जिसके चलते यह ऊपर-नीचे, अगल-बगल अर्थात् हर तरफ निगरानी रखने में सक्षम है।

            राफेल में बैठे पायलट द्वारा दुश्मन की लोकेशन को देखकर बटन दबा देने के बाद बाकी काम इसमें लगे कम्प्यूटर करते हैं। मल्टीमोड रडार से लैस राफेल हवाई टोही, ग्राउंड सपोर्ट, इन-डेप्थ स्ट्राइक, एंटी-शर्प स्ट्राइक और परमाणु अभियानों को अंजाम देने में निपुण है। इसमें लगी मीटिअर मिसाइल सौ किलोमीटर दूर उड़ रहे दुश्मन के लड़ाकू विमान को भी पलभर में मार गिराने में सक्षम हैं। रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार ऐसी मिसाइल चीन-पाकिस्तान सहित समस्त एशिया में किसी भी देश के पास नहीं हैं। यह एक बार में दो हजार समुद्री मील तक उड़ सकता है। हवा से हवा में यह 150 किलोमीटर तक मिसाइल दाग सकता है और हवा से जमीन तक इसकी मारक क्षमता 300 किलोमीटर है। बहरहाल, पाकिस्तान और चीन की ओर से देश की सीमाओं की सुरक्षा को लगातार मिल रही चुनौती के मद्देनजर राफेल भारतीय वायुसेना को अभेद्य ताकत प्रदान करने में अहम भूमिका निभाएंगे।

अभिव्यक्ति का स्पंदन है हिंदी

डॉ शंकर सुवन सिंह

संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष सत्र १९५३ ई. से १४ सितंबर को ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है|हिन्दी विश्व में बोली जाने वाली प्रमुख भाषाओं में से एक है। विश्व की प्राचीन, समृद्ध और सरल भाषा होने के साथ-साथ हिन्दी हमारी ‘राष्ट्रभाषा’ भी है। वह दुनियाभर में हमें सम्मान भी दिलाती है। यह भाषा है हमारे सम्मान, स्वाभिमान और गर्व की। हिन्दी ने हमें विश्व में एक नई पहचान दिलाई है। हिन्दी भाषा विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली तीसरी भाषा है। हिन्दी हिन्दुस्तान की भाषा है। राष्ट्रभाषा किसी भी देश की पहचान और गौरव होती है। हिन्दी हिन्दुस्तान को बांधती है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक,साक्षर से निरक्षर तक प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति हिन्दी भाषा को आसानी से बोल-समझ लेता है। यही इस भाषा की पहचान भी है कि इसे बोलने और समझने में किसी को कोई परेशानी नहीं होती।

हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा के साथ-साथ हमारी संस्कृति के महत्व पर जोर देने के लिए एक महान कदम है। यह युवाओं को उनकी जड़ों के बारे में याद दिलाने का एक तरीका है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कहाँ पहुंचते हैं और हम क्या करते हैं, अगर हम अपनी जड़ों के साथ  रहते हैं, तो हम अचूक रहते हैं। प्रत्येक वर्ष, ये दिन हमें हमारी वास्तविक पहचान की याद दिलाता है और हमें अपने देश के लोगों के साथ एकजुट करता है। हिंदी भाषा को लेकर राज्यों में विवाद तक हो चुके हैं| हिंदी स्तब्ध है| हिन्दी  बहुत दुखी हूं। हिंदी की पहचान  भारत  देश से है| हिंदी हिदुस्तान की माटी से है| हिंदी,देश के कण-कण से हैं। हिंदी को अपने ही देश में बेइज्जत कर दिया जाता है|कहने को संविधान के अनुच्छेद ३४३ में हिंदी को  राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। अनुच्छेद ३५१ के अनुसार संघ का यह कर्तव्य है कि वह हिंदी  का  प्रसार बढ़ाएं। पर आज यह सब क्यों कहना पड़ रहा है? क्योंकि हिंदी का किसी ‘राज्य-विशेष’ में किसी की ‘जुबान’ पर आना अपराध हो सकता है।

हिंदी भाषा ७० प्रतिशत गांवों की अमराइयों में महकती है। हिंदी लोकगीतों की सुरीली तान में गुंजती है। हिंदी  नवसाक्षरों का सुकोमल सहारा है। हिंदी अभिव्यक्ति का स्पंदन है ।

हिंदी कलकल-छलछल करती नदियों  की तरह हर आम और खास भारतीय ह्रदय में प्रवाहित होती है। हिंदी आपकी सबकी-अपनी है। हिंदी दिखावे की भाषा नहीं है| हिंदी झगड़ों की भाषा भी नहीं है। हिंदी भाषा पूरे विश्व में सबसे ज्यादा बोलने में चौथे नम्बर पर आती हैं| हिंदी को पढ़ना तथा लिखना यह बहुत कम संख्यां में लोग जानते है| आज के समय में हिंदी भाषा के ऊपर अंगेर्जी भाषा के शब्दों का ज्यादा असर पड़ा हैं| आज के समय में अंग्रेजी भाषा ने अपनी जड़े ज्यादा घेर ली हैं| हिंदी भाषा के भविष्य में खो जाने की चिंतायें बढ़ गयी हैं| जो लोग हिंदी भाषा में ज्ञान रखते हैं उन्हें हिंदी के प्रति अपने जिम्मेदारी का बोध करवाने के लिये इस दिन को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता हैं जिससे वे सभी अपने कर्तव्यों का सही पालन करके हिंदी भाषा के गिरते हुए स्तर को बचा सकें|  हिन्दी भाषा को आज भी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा भी नहीं बनाया जा सका हैं |

हालात ऐसे आ गए हैं कि हिंदी भाषा को हिंदी दिवस के मौके पर सोशल मीडिया पर आज भी ” हिंदी में बोलो “ करके शब्दों का प्रयोग करना पड़ रहा हैं| कम से कम हिंदी दिवस के मौके पर तो हिंदी में बात-चीत करे जिससे हिंदी राष्ट्र भाषा को कुछ सम्मान मिल सकें|

हिन्दी भाषा के विकास में संतों, महात्माओं तथा उपदेशकों का योगदान भी कम नहीं आंका जा सकता। क्योंकि ये आम जनता के अत्यंत निकट होते हैं। इनका जनता पर बहुत बड़ा प्रभाव होता है। उत्तर भारत के भक्तिकाल के प्रमुख भ‍क्त कवि सूरदास, तुलसीदास तथा मीराबाई के भजन सामान्य जनता द्वारा बड़े शौक से गाए जाते हैं। इसकी सरलता के कारण ही ये कई लोगों को कंठस्थ हैं। इसका प्रमुख कारण ‍‍हिन्दी भाषा की सरलता, सुगमता तथा स्पष्टता है। संतों-महात्माओं द्वारा प्रवचन भी हिन्दी में ही दिए जाते हैं। क्योंकि अधिक से अधिक लोग इसे समझ पाते हैं। उदाहरण के रूप में दक्षिण-भारत के प्रमुख संत वल्लभाचार्य, विट्‍ठल रामानुज तथा रामानंद आदि ने हिन्दी का प्रयोग किया है। महाराष्ट्र के संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर आदि, गुजरात प्रांत के नरसी मेहता, राजस्थान के दादू दयाल तथा पंजाब के गुरु नानक आदि संतों ने अपने धर्म तथा संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए एकमात्र सशक्त माध्यम ‍‍हिन्दी को बनाया। हिंदी  दिवस के बहाने ही सही हम अपनी ‍हिन्दी को सहेजे, संवारे और प्रसारित करें। आधुनिक काल में मनुष्य अपनी  सभ्यता तथा संस्कृति को खो दिया है| भारतीय संस्कृति एक सतत संगीत है|संस्कृति,संस्कार से बनती है|सभ्यता बनती है नागरिकता से| किसी भी नागरिक की पहचान उसकी भाषा से ही  होती है| किसी भी देश की नागरिकता का सम्बन्ध उस देश की भाषा से होता है| संस्कृति व सभ्यता ही मानवता का पाठ पढाती है| संस्कृति आशावाद सिखाती है| संस्कृति का दर्शन से घनिष्ठ सम्बन्ध है| दर्शन जीवन का आधार है| संस्कृति बौद्धिक व मानसिक विकास में सहायक है| कवि रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार संस्कृति जीवन जीने का तरीका है| भारत का संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा से आया| संस्कृति शब्द का उल्लेख  ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है| ऐतरेय,ऋग्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ है| ऋग्वेद संपूर्ण ज्ञान व ऋचाओं (प्रार्थनाओं) का कोष है| ऋग्वेद मानव ऊर्जा का स्रोत है| अतएव हम कह सकते है कि हिंदी भाषा हिंदुस्तान कि संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक है|  हमें संस्कृति और मूल्यों को बरकरार रखना चाहिए और हिंदी दिवस  इसके लिए एक अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है। हिंदी भाषा राष्ट्र के गौरव का प्रतीक है|

तूलिका में विराजते हैं हिंदी के पुरखे

प्रभुनाथ शुक्ल 

हिंदी सिर्फ़ भाषा नहीँ वह भावना, कला और संस्कार भी है। हिंदी हमारी आस्था है वह आत्मा में समाहित है। हिन्दुस्थान को अगर जानना है तो हिंदी को जाने बगैर हम हिन्दुस्थान को नहीँ जान सकते हैं। वह हमारे संस्कृति और संस्कार में समाहित है। हिंदी सेवी की कतार बेहद लंबी है। कई ऐसे कलाकार हैं जो हिंदी सेवा को अपना धर्म मानते हैं। उन्होंने साहित्य सर्जना को अपना जीवन बना लिया है। हिंदी को शाश्वत और जिंदादिल बनवाने के लिए ख़ुद कलम के बजाय कूची उठा रखा है। हिंदी को वह माथे की बिंदी मानते हैं।

हिंदी की चुपचाप सेवा में लगे ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि दुनिया में हिंदी ने ख़ुद अपना मुकाम तलाशा है, उसके लिए किसी ने सार्थक प्रयास नहीँ किया है। हिंदी का उत्थान सिर्फ़ मंचों और भाषणों में हुआ है। हिंदी के साथ हमने न्याय नहीँ किया है। हिंदी ने अपना गौरवशाली इतिहास स्वयं बनाया है। लेकिन हिंदी के विकास का एक कालखंड रहा है जिसमें साहित्य सेवियों ने हिंदी को सींचा है। उनके योगदान को भुलाया नहीँ जा सकता है। तकनीकी विकास से हिंदी बेहद सबल और मज़बूत हुई है।हालांकि सरकारी स्तर पर हिंदी को सींचने का काम उतना नहीँ हुआ, जितना होना चाहिए। हिंदी का विकास सिर्फ़ फाईलों में बंद है। साहित्य पुस्तकालयों की शोभा है। 

हिन्दुस्थान विशाल साम्राज्य है लेकिन हिंदी विभाजित है। वह पूरब- पश्चिम, उत्तर-दक्षिण में बंटी है। वह राजभाषा भले बन गई हो लेकिन राष्ट्रभाषा नहीँ बन पाई। किसी ने इसे बनाने का भी प्रयास नहीँ किया। हिंदी को लेकर सिर्फ़ राजनीति होती रही। लेकिन यह राजनीति की भाषा नहीँ बन पाई। हिंदी पर वोट नहीँ मांगे गए और संसद में बहस का विषय हिंदी नहीँ बन पायी। गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी बोलने वालों को किस हिकारत से देखा जाता है यह किसी से छुपा नहीँ है। बैंक, रेल और सरकारी कार्यालयों में हिंदी को बढ़ावा देने के लिए खूब मंचीयता हुई। सरकारी आदेश जारी हुए, हिंदी पखवारे का आयोजन हुआ। लेकिन हिंदी कामकाज की भाषा नहीँ बन पायी। हालांकि दुनिया के कई देशों में बोलचाल में हिंदी का प्रयोग होता है। संचार तकनीक के आने के बाद हिंदी की लोकप्रियता बढ़ी है। लेकिन हिंदी के विकास के लिए जिस तरह के राजनैतिक प्रयास होने चाहिए वह नहीँ हुए हैं। हिंदी को अगर आंदोलन के रूप में लिया जाता तो आज हिंदी का स्थान कुछ अलग होता।  

हिंदी के विकास में भारतीय साहित्यकारों और साहित्य चित्रकारों के योगदान हम कभी नहीँ भूल सकते हैं। आज हिंदी का जो मानसम्मान है वह उन्हीं की उपलब्धियां हैं। हिंदी को उन्होंने पालपोष कर युवा बनाया है। मोबाइल और लैपटॉप  संस्कृति ने भी हिंदी के विकास में अहम भूमिका निभाई है। हिंदी के अनगिनत शाफ्ट वेयर आए जिन्होंने हिंदी को लिखना और आसान बना दिया जिसकी वजह से हिंदी अँग्रेजी दा की भी पहली पसंद बन गई। हालांकि डिजिटल पत्रकारिता और साहित्य का उदय हुआ, लेकिन पाठकीयता के संकठ की वजह से हिंदी की नामचीन पत्रिकाएँ बंद हो गई। अखबार डिजिटल हो गए। नई पीढ़ी के लिए प्रेमचंद, निराला, महादेवी, भूषन, घनानंद, कबीर, सुर, तुलसी मीरा बेमतलब हो गए। युवा पीढ़ी का किताबों से कोई सरोकार नहीँ रह गया है। 

14 सितम्बर को हिंदी दिवस है। दुनिया भर में इसका आयोजन होगा। हिंदी के विकास की गाथा पढ़ने मंच पर लाखों लोग आएंगे और हिंदी का श्राद्ध मना बिल में घूस जाएंगे। फ़िर बेचारी हिंदी, हिंदी ही रह जाएगी। फ़िलहाल हिंदी के विकास की परिचर्चा कुछ शब्दों में हम नहीँ समेट सकते हैं। देश में ऐसे अनगिनत लोग हैं जो हिंदी की चिंता करते हैं और अपने तरीके से हिंदी की ओढ़ते, दसाते और बिछाते हैं। इसी में एक नाम है विनय कुमार दुबे का जिन्होंने अपने अनूठे प्रयास से हिंदी साहित्य की कई पीढ़ियों को अपनी तूलिका में सहेज रखा है। विनय दुबे मूलतः उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के कांशीरामपुर गाँव के रहने वाले हैं। वह सीमा शुल्क विभाग से सेवानिवृत हुए हैं। उपनिरीक्षक पद से सेवा में आने के बाद कई ऊंचाईयां हासिल किया। कला उनका विषय नहीँ था लेकिन एक घटना ने उन्हें इस तरह खींच लिया। इसके बाद कूची उठ गई तो फ़िर कभी हाथों में ठहराव नहीँ आया। अपनी लाजवाब चित्रकारी से वह हिंदी की सेवा में जुटे हैं।

विनय कुमार दुबे नोएडा और प्रयागराज में रहते हैं। कोरोना काल में वह प्रयागराज में हैं। लेकिन हिंदी का साहित्यकर्म यहाँ भी जारी है। अब तक वह 500 से अधिक तैलचित्र बना चुके हैं। जिसमें हिंदी के नामचीन और गुमनाम साहित्यकार भी हैं। कई हिंदी साहित्यकारों का कल्पना चित्र भी उन्होंने बनाया है। हिंदी साहित्य का ऐसा कोई ध्रुवतारा नहीँ होगा जिसका चित्र उन्होंने न बनाया हो। उन्होंने दूसरी भाषा के साहित्यकारों का भी चित्र बनाया है, लेकिन हिंदी के साहित्यक उनकी तूलिका के मूल विषय हैं। 

प्रयागराज के नैनी में चित्रकूट मार्ग पर डांडी नामक स्थान पर यमुना नदी के किनारे प्रेमशंकर गुप्त कलादीर्घा है जहाँ 350 से अधिक हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकारों के तैलचित्र लगे हैं। हिंदी साहित्यकारों पर इनका एलबम भी है। विनय कुमार के अनुसार चित्रकला के प्रति उनका रुझान एक घटना से जागा। बात 1987- 88 की है जब प्रयागराज के जगततारण कालेज में जयशंकर प्रसाद की जयंती मनाई जा रही थीं। उस दौरान प्रसाद जी का चित्र उपलब्ध नहीँ हो पाया। जिसके के बाद बहन के आग्रह पर उन्होंने पहला जलचित्र बनाया, यहीं से उनकी शुरुवात हुई। सालों पूर्व हिंदी सेवा का चला यह कारवां आज बिसाल बटवृक्ष बन गया है। 

विनय कुमार बताते हैं कि अब यह मेरी आदत बन गई हैं। सप्ताह में एक साहित्यकार के तैलचित्र का निर्माण करते हैं। इसके अलवा देश की सामाजिक समस्याओं पर भी बेहतरीन चित्रकारी करते हैं। कोरोना काल में उनकी कई तस्वीरें खूब सराही गई हैं। जिसमें प्रभुपाद और यमुना का चित्रांकन अहम है। उनके विचार में साहित्य का एक भाग चित्रकला है। शुरुवाती जीवन में साहित्य के लिए चित्रकला  अनिवार्य है। वह मानते हैं कि देश में हिंदू साहित्यकारों के साथ न्याय नहीँ हुआ। भूषण, छत्रसाल और जगतिक जैसे हिंदूवादी साहित्यकारों को पीछे धकेला गया। हिंदू जनमानस को भीरू बनाया गया। इसलिए हमने ऐसे उपेक्षित साहित्यकारों को अपना विषय बनाया। 

देश में कला और साहित्य को पीछे धकेलने का काम किया गया है। युवाओं को लोक और कला संस्कृति से विमुख किया गया। पश्चिमी सभ्यता कि तरफ़ उन्मुख किया गया। जिसकी वजह से साहित्य और चित्रकला को लेकर आज के युवाओं में उपेक्षा है। अपनी कला, साहित्य और संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए युवाओं को आगे आना चाहिए। कला एक अभिरुचि है। बचपन से ही खिलौनों से अधिक चित्रों से लगाव था। वहीं विषय हमें यहाँ खींच लाया। हालांकि उन्हें कई सम्मान भी मिलें हैं। लेकिन सरकार और हिंदी संस्थान की तरफ़ से अभी तक कोई सम्मान नहीँ मिला है। वह अपनी चित्रकला प्रदर्शनी का प्रदर्शन भी करते हैं। लेकिन कला, साहित्य और साहित्यकारों की उपेक्षा उन्हें खलती है। वह कहते हैं कि साधना ही सच्चा पुरस्कार है। 

ड्रामेबाजी छोड़ें, मन से स्वीकारें हिंदी…

सुशील कुमार ‘नवीन’

रात से सोच रहा था कि आज क्या लिखूं। कंगना-रिया प्रकरण ‘ पानी के बुलबुले’ ज्यों अब शून्यता की ओर हैं। चीन विवाद ‘ जो होगा सो देखा जाएगा’ की सीमा रेखा के पार होने को है। कोरोना ‘तेरा मुझसे पहले का नाता है कोई’ की तरह माहौल में ऐसा रम सा गया है, जैसे कोई अपना ही हमें ढूंढता फिर रहा हो। वैक्सीन बनेगी या नहीं यह यक्ष प्रश्न ‘जीना यहां मरना यहां’ का गाना जबरदस्ती गुनगुनवा रहा है। घरों को लौटे मजदूरों ने अब ‘ आ अब लौट चलें’ की राहें फिर से पकड़ ली हैं। राजनीति ‘ न कोई था, न कोई है जिंदगी में तुम्हारे सिवा’ की तरह कुछ भी नया मुद्दा खड़ा करने की विरामावस्था में है। आईपीएल ‘साजन मेरा उस पार है’ जैसे विरह वेदना को और बढ़ा कुछ भी सोचने का मौका ही नहीं दे रहा। रही सही कसर धोनी के सन्यास ने ‘तुम बिन जाऊं कहां’ की तरह छोड़कर रख दी है। 

ध्यान आया सोमवार को देवत्व रूप धारी हमारी मातृभाषा हिंदी का जन्मदिन है। विचार आया कि उन्हीं के जन्मदिवस पर आज लिखा जाए। तो दोस्तों, यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि हिंदी की वर्तमान दशा और दिशा बिगाड़ने में हम सब का कितना योगदान है।कहने को हम हिंदुस्तानी है और हिंदी हमारी मातृभाषा। इस कथन को हम अपने जीवन में कितना धारण किए बहुए हैं, यह आप और हम भलीभांति जानते हैं। सितम्बर में हिंदी पखवाड़ा का आयोजन कर हम अपने हिंदी प्रेम की इतिश्री कर लेते हैं। सभी ‘हिंदी अपनाएं’ हिंदी का प्रयोग करें ‘ की तख्तियां अपने गले में तब तक ही लटकाए रखते हैं, जब तक कोई पत्रकार भाई हमारी फ़ोटो न खींच लें। या फिर सोशल मीडिया पर जब तक एक फोटो न डाल दी जाए। फ़ोटो डालते ही पत्नी से ‘आज तो कोई ऐसा डेलिशियस फ़ूड बनाओ, मूड फ्रेश हो जाए’ सम्बोधन हिंदी प्रेम को उसी समय विलुप्त कर देता है। आफिस में हुए तो बॉस का ‘स्टुपिड’ टाइप सम्बोधन रही सही कसर पूरी कर देता है।  हमारी सुबह की चाय ‘बेड-टी’ का नाम ले चुकी है। शौचादिनिवृत ‘फ्रेश हो लो’ के सम्बोधन में रम चुके हैं। कलेवा(नाश्ता) ब्रेकफास्ट बन चुका है। दही ‘कर्ड’ तो अंकुरित मूंग-मोठ ‘सपराउड्स’ का रूप धर चुके हैं। पौष्टिक दलिये का स्थान ‘ ओट्स’ ने ले लिया है। सुबह की राम राम ‘ गुड मॉर्निंग’ तो शुभरात्रि ‘गुड नाईट’ में बदल गई है। नमस्कार ‘हेलो हाय’ में तो अच्छा चलते हैं का ‘ बाय’ में रूपांतरण हो चुका है। माता ‘मॉम’ तो पिता ‘पॉप’ में बदल चुके हैं। मामा-फूफी के सम्बंध ‘कजन’ बन चुके हैं। गुरुजी ‘ सर’ गुरुमाता ‘मैडम’ हैं। भाई ‘ब्रदर’ बहन ‘सिस्टर’,दोस्त -सखा ‘फ्रेंड’ हैं। लेख ‘आर्टिकल’ तो कविता ‘पोएम’ निबन्ध ‘ऐसए’ ,पत्र ‘लेटर’ बन चुके है। चालक’ ड्राइवर’ परिचालक ‘ कंडक्टर’, वैद्य” डॉक्टर’ हंसी ‘लाफ्टर’ बन चुकी हैं। कलम ‘पेन’ पत्रिका ‘मैग्जीन’ बन चुकी हैं। क्रेडिट ‘उधार’ तो पेमेंट ‘भुगतान का रूप ले चुकी हैं। कहने की सीधी सी बात है कि ‘हिंदी है वतन हैं.. हिन्दोस्तां हमारा’ गाना गुनगुनाना आसान है पर इसे पूर्ण रूप से जीवन में अपनाना सहज नहीं है। तो हिंदी प्रेम का ड्रामा भी क्यों।