Drawings Of Swachata Abhiyan Sketches Drawing Tutorial : Drawing On Swachh Bharat | Clean India Drawing – Drawing Of Sketch
निर्मल रानी सरकार द्वारा गत छः वर्षों से जिस स्वच्छता अभियान का बिगुल बजाया जा रहा था,जिस स्वच्छता अभियान के नाम पर अब तक हज़ारों करोड़ रूपये ख़र्च किये जा चुके,जिस महत्वाकांक्षी योजना के लिए अनेक नामचीन हस्तियों को ब्रांड अम्बेस्डर बनाया गया और देश को यह दिखाने की कोशिश की गयी कि देश में पहली बार इसी सरकार ने सफ़ाई के प्रति गंभीरता दिखाई है, आख़िर आज छः वर्षों बाद वह अभियान कहां तक पहुंचा है ? जिस तरीक़े से स्वच्छता अभियान का ढिंढोरा पीटा जा रहा था उसे देखकर तो ऐसा ही लग रहा था गोया अब हमारा देश विश्व के सबसे स्वच्छ कहे जाने वाले चंद गिने चुने देशों की पंक्ति में जा खड़ा होगा। परन्तु हक़ीक़त तो ठीक इसके विपरीत है। इस ख़र्चीले स्वच्छता अभियान के शुरू होने से पहले सफ़ाई को लेकर शहरों के जो हालात थे आज उससे भी बदतर स्थिति देखी जा रही है। उदाहरण के तौर पर केंद्र सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली हरियाणा सरकार ने भी स्वच्छता अभियान के नाम पर जिस क़द्र ढोल पीटा था वह आज महज़ तमाशा बन कर रह गया है। पूरे राज्य में कूड़ा रखने के लिए प्लास्टिक की दो दो बाल्टियां बांटी गयीं थीं। यह निश्चित रूप से जनता के पैसे की बर्बादी थी। इस ‘सरकारी बाल्टी’ वितरण से पहले भी जनता आख़िर अपने अपने घरों में कूड़ेदान का इस्तेमाल तो करती ही थी ? परन्तु बिना सोचे समझे करोड़ों रूपये बाल्टी के मद पर ख़र्च कर दिए गए। शहरों व क़स्बों में अनेक स्थानों पर स्टील,प्लास्टिक अथवा टीन के कूड़ेदान लगाए गए। आज लगभग वह सभी कूड़ेदान नदारद हैं। घरों से कूड़ा इकठ्ठा करने के लिए निजी ठेकेदारों को ठेके दिए गए थे। कुछ ही दिनों तक घरों से कूड़ा उठाने का सिलसिला चला होगा कि कूड़ा इकठ्ठा करने वाले कर्मचारियों ने आना बंद कर दिया। पूछने पर पता चला कि उन्हें ठेकेदार पैसे नहीं दे रहा है। ऐसा इसलिए कि सरकार ठेकेदार को पैसे नहीं दे रही है। बमुश्किल यह योजना कुछ ही समय तक चली। सरकार ने कूड़ा इकठ्ठा करने के नाम पर जनता से पैसों की वसूली भी शुरू कर दी जो आज भी जारी है। परन्तु अब जो व्यक्ति कूड़ा इकठ्ठा करने घर घर जाता है वह पचास रूपये प्रति माह प्रत्येक घरों से वसूल करता है। और सरकार न जाने किस मद का पैसा इसी कूड़ा संग्रहण के नाम पर ले रही है। इसी प्रकार जहाँ तक नाली व गली मोहल्ले की सफ़ाई का प्रश्न है तो सरकार इस मोर्चे पर भी पूरी तरह नाकाम है। नालियों की सफ़ाई करने व कूड़ा उठाने के लिए जो नगर निगम सफ़ाई कर्मचारी नियमित रूप से प्रतिदिन या एक दो दिन छोड़ कर आया करते थे अब उन्होंने लगभग बिल्कुल ही आना बंद कर दिया है। एक सफ़ाई निरीक्षक ने बताया कि जहां 50 सफ़ाई कर्मियों की ज़रुरत है वहां मात्र 23 कर्मचारियों से काम चलाया जा रहा है। ऐसा क्यों है ?यह पूछने पर जवाब मिला की सरकार नए सफ़ाई कर्मियों की भर्ती नहीं कर रही है। यह भी पता चला की अक्सर इन मेहनतकश सफ़ाई कर्मचारियों की कई कई महीने की तनख़्वाहें भी रुकी रहती हैं। इस स्थिति में यदि आप अपने गली मोहल्ले की नाली की सफ़ाई कराना चाहें तो आपको नगर निगम या नगर परिषद् /पालिका को फ़ोन कर अपनी सफ़ाई संबंधी शिकायत लिखानी पड़ेगी। उसके बाद 2 दिन से लेकर 15 -20 दिनों के बीच आपकी शिकायत पर अमल होने की संभावना है। यदि कोई सफ़ाई कर्मचारी इतने लंबे समय बाद आकर नाली का कचरा निकाल कर नाली के बाहर ही छोड़ देगा। इसके बाद आपको उस निकले हुए कचरे को उठाने के लिए पुनः शिकायत लिखानी पड़ेगी। फिर इसी तरह दस पंद्रह दिन बाद शायद कोई वाहन आकर कूड़ा उठा ले जाए। पहले नगरपालिकाओं व निगमों में दो पहिया वाली गाड़ियां होती थीं जो नियमित रूप से गली मोहल्ले में जाकर कूड़ा उठाने में इस्तेमाल होती थीं। अब वह गाड़ियां भी समाप्त गयी हैं। जब कर्मर्चारियों से पूछा जाता है कि वे नियमित रूप से कूड़ा उठाने या नालियां साफ़ करने क्यों नहीं आते तो जवाब मिलता है कि वे वहीँ जा सकते हैं जहाँ जाने का आदेश होगा। ज़ाहिर है गांव से लेकर क़स्बे शहरों और महानगरों तक हर जगह चूंकि संपन्न या तथाकथित विशिष्ट लोगों के मुहल्लों या इलाक़ों की सफ़ाई प्राथमिकता के आधार पर होती है लिहाज़ा इनकी ड्यूटी भी प्राथमिकता के आधार पर उन्हीं इलाक़ों में लगती है।
नालों व नालियों की नियमित सफ़ाई न हो पाने का ही नतीजा है कि मामूली सी बरसात में भी सभी नाले-नाली ओवर फ़्लो हो जाते हैं। परिणामस्वरूप नालियों का पानी लोगों के घरों में घुस जाता है। केवल नाले नालियां ही नहीं बल्कि सीवर लाइन भी पूरी तरह जाम पड़ी हुई है। संबंधित अधिकारियों से यदि आप शिकायत करें तो भी कोई सुनवाई करने वाला नहीं। ज़रा सी बारिश में सीवर के मेनहोल भी ओवर फ़्लो हो जाते हैं और इनका गन्दा बदबूदार पानी लोगों के घरों में भी वापस जाता है और इनके मेन होल के ढक्कनों से भी निरंतर निकलता रहता है।कई सीवर मेनहोल तो ऐसे भी हैं जहाँ बिना बारिश हुए भी गन्दा पानी हर समय बाहर निकलता रहता है। मगर सरकार है कि उसे अपनी पीठ थपथपाने से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती। सरकार द्वारा स्वच्छता अभियान के नाम पर पूरे देश में शौचालयों का निर्माण कराया गया था। आज उन शौचालयों की स्थिति कितनी दयनीय है यह देखा जा सकता है। यह बताने की ज़रुरत नहीं कि ठेके पर निर्मित शौचालयों के निर्माण में ‘राष्ट्र भक्त ‘ ठेकेदारों द्वारा संबध अधिकारियों की मिलीभगत से किस तरह की सामग्री का प्रयोग किया जाता है। आज फिर लगभग सभी शहरों में जगह जगह कूड़े के ढेर दिखाई देने लगे हैं। गोवंश,सूअर व कुत्ते आदि उन कूड़े के ढेरों की न केवल शोभा बढ़ा रहे हैं बल्कि उन्हें चारों ओर बिखेरते भी रहते हैं। एक ओर तो सरकार के पास नए सफ़ाई कर्मचारियों को भर्ती करने के लिए धन की कमी है। यहां तक कि सरकार अपने वर्तमान कर्मचारियों को सही समय पर वेतन भी नहीं दे पाती। इन हालात में बड़े बड़े पार्कों व गोल चक्कर तथा तालाब आदि के जीर्णोद्धार के नाम पर अंधादुंध पैसे ख़र्च करने का आख़िर क्या औचित्य है? और वह भी ऐसे सार्वजनिक स्थलों पर धौलपुरी से लेकर ग्रेनाइट के पत्थरों तक के इस्तेमाल पर सैकड़ों करोड़ रूपये ख़र्च करदेना ? जनता को गंदगी से निजात दिलाना,नए सफ़ाई कर्मियों की भर्ती करना,नगर पालिका व निगमों में कूड़ा उठाने वाली छोटी गाड़ियां ख़रीदना,समय पर सफ़ाई सेनानियों को वेतन देना,नियमित रूप से नालों व गली मोहल्ले की नालियों की सफ़ाई कराना आदि सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। जब तक जनता को अस्वछता के वर्तमान वातावरण से मुक्ति नहीं मिलती तब तक सरकार के स्वच्छता अभियान को धराशाई हुआ ही समझना चाहिए। निर्मल रानी
हरियाणा सरकार पिंजौर के पास फिल्मसिटी बनाने के लिए अब पूरे मूड में है। घोषणा तो दो साल पूर्व की है पर सरकार की सक्रियता से लगता है कि लोगों का यह सपना अब जल्द पूरा होगा। अनिश्चितता के दौर से गुजर रही मायानगरी मुम्बई का हरियाणा बेहतर विकल्प साबित हो सकता है।
फिल्मसिटी बनाने के लिए सबसे जरूरी वहां का माहौल होता है। जिसकी हरियाणा में कोई कमी नहीं है। अट्रैक्टिव टूरिस्ट स्पॉट, झील-सरोवर, पोखर, खेत-खलिहान, बालू रेत के ऊंचे टीले, आकाश के साथ-साथ पाताल को छूती खानक-डाडम की पहाड़ियां, गहरे-घने जंगल, देसी संस्कृति। कहने को यहां वो सब कुछ है जो फिल्मांकन के लिए जरूरी है।
हरियाणा का गीत-संगीत आज पूरे विश्वपटल पर छाया हुआ है। लोगों को हंसाने में हरियाणवीं कलाकार यू ट्यूब पर सर्वाधिक सब्सक्राइबर्स के साथ धूम मचाए हुए है। गीत-संगीत, कविताई ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहां आज हरियाणा की तूती न बोलती हो। गीत-संगीत के आधुनिक ट्रेंड ने म्यूजिक इंडस्ट्री में धमाल मचाया हुआ है। डीजे पर बजने वाले गीतों में सबसे ज्यादा भागीदारी हरियाणवीं गीतों की होती है। दंगल, सुल्तान जैसी फिल्मों की सफलता में हरियाणवी कल्चर ही प्रमुख था। यही नहीं टीवी चैनलों पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों में हरियाणा की स्टोरी, बैकग्राउंड, कलाकार आदि प्रमुखता से इस्तेमाल किये जा रहे हैं।
दूसरी सबसे बड़ी जरूरत सरकार के सहयोग की होती है।सरकार पहले ही फ़िल्म पालिसी बनाकर फ़िल्म निर्माताओं को विभिन्न रियायतें प्रदान करने का निर्णय ले चुकी है। फ़िल्म साइटस की हरियाणा में कोई कमी नहीं है। कुरुक्षेत्र-पानीपत जैसे ऐतिहासिक युद्ध मैदान हैं तो हिल स्टेशन सी मोरनी हिल है। पिंजौर गार्डन में तो पहले भी कई गाने फिल्माए जा चुके है। अरावली की पहाड़ियां, राजस्थान की सीमा से लगे भिवानी जिले के कई इलाकों की साइट जैसलमेर-बीकानेर से कम नहीं है। करनाल, पानीपत अम्बाला के खेतों में छाई रहने वाली हरियाली पंजाब की हरियाली स्पॉट को भी शर्मिंदा करने का मादा रखती है। माधोगढ़(महेन्दरगढ़) का किला,हिसार का गुजरी महल राजा-महाराजाओं की कहानी पर बनने वाले धारावाहिकों और फिल्मों के लिए शानदार स्पॉट हैं। धार्मिक माहौल के साथ रोमांचकता फिल्माने के लिए तोशाम की बाबा मुंगीपा पहाड़ी, देवसर और पहाड़ी माता के मंदिर के स्पॉट है।
पिंजौर गार्डन, टाउन पार्क हिसार, क्लेसर के जंगल, सुल्तानपुर झील आदि की सुंदरता कैमरे में कैद होने को हर समय आतुर रहती है। यहां की माटी में जन्मे कलाकार मुम्बई में पहले ही झंडा गाड़े हुए हैं। सतीश कौशिक, यशपाल शर्मा, रणदीप हुडा, जगदीप अहलावत आदि से सब भली भांति से परिचित हैं।
वर्तमान में फ़िल्मनगरी मुम्बई जिस दौर से गुजर रही है। वह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। सुशांत सिंह की मौत ने आज पूरी फिल्म इंडस्ट्री को हिलाकर रखा हुआ है। ऐसे दौर में हरियाणा अपनी खुद की फिल्मसिटी बनाने का स्वप्न सिरे चढ़ाता है तो निश्चिन्त रूप से एक सही कदम होगा। तो मुख्यमंत्री जी, लोहा गर्म है, वक्त का हथौड़ा उठाइये और मार दीजिए सीधी चोट। हजारों लोगों को रोजगार के सपने को पूरा करने में यह निर्णय ऐतिहासिक होगा।
इस अनन्त संसार में हम अनन्त प्राणियों में से एक प्राणी है जिसका मुख्य उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति करना है। ज्ञान यह प्राप्त करना है कि हम कौन हैं, कहां से आये हैं, कहां जाना हैं? हमारा अस्तित्व कब से है, यह अस्तित्व कब व कैसे अस्तित्व में आया, इसका भविष्य में क्या होगा? हम अमर हैं या हमारा नाश हो सकता है। संसार में हमारे अतिरिक्त अन्य कौन-कौन सी सत्तायें हैं और हमारा व उनका परस्पर किस प्रकार का सम्बन्ध है? यह भी प्रश्न जानने योग्य होता है कि क्या हमें संसार में सांसारिक पदार्थों का अमर्यादित भोग करना चाहिये अथवा इसकी कोई सीमा रेखा है जिससे हमारा वर्तमान व भविष्य सुख एवं कल्याण से युक्त हो। एक प्रमुख प्रश्न यह भी है कि इस संसार को कब, किसने व क्यों बनाया है? संसार को बनाने वाला वह सृष्टिकर्ता कहां है, दिखाई क्यों नहीं देता? क्या उसे जाना जा सकता है? उसके साथ हमारे क्या सम्बन्ध हैं? सृष्टि में ज्ञान वा भाषा कि उत्पत्ति कब व कैसे हुई? क्या मनुष्य भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति कर सकते हैं अथवा यह उन्हें किसी अपौरूषेय सत्ता से प्राप्त हुई है? यह सभी प्रश्न सभी मनुष्यों वा सभी मत-मतान्तर के लोगों के लिये जानने योग्य हैं परन्तु सर्वत्र इनका सत्य उत्तर उपलब्ध नहीं होता। इन सभी प्रश्नों का समाधान वेद एवं वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के अध्ययन से होता है।
मनुष्यकाआत्माइतरसभीप्राणियोंमेंविद्यमानआत्माकेहीसमानहै।इनकाअलगअलगयोनियोंवपरिस्थितियोंमेंजन्महोनेकाकारणइनकेपूर्वजन्मकेकर्महैंजिनकेअनुसारपरमात्मानेसभीआत्माओंकोउनकेकर्मानुसारजातिवयोनि, आयुवभोग (सुखवदुःख) प्रदानकियेहैं।यदिपूर्वजन्ममेंहमारेकर्मभीमनुष्ययोनिकीपात्रताकेअनुरूपनहोतेतोहमभीकिसीपशु, पक्षी, कीटवपतंगआदियोनियोंमेंसेकिसीएकयोनिमेंहोते। जिस मनुष्य के शुभ कर्म अधिक तथा अशुभ वा पाप कर्म कम होते हैं उन्हीं को मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। इसकी साक्षी हमें ईश्वरदर्शी हमारे ऋषि, मुनि, योगी विद्वान पुरुषों से होती है। मनुस्मृति में महाराज मनु ने बताया है कि जब मनुष्य के सद्कर्म वा पुण्य अशुभ कर्मों व पाप कर्मों से अधिक होते हैं तब आत्मा को मनुष्य का जन्म मिलता है अन्यथा आत्मा को मनुष्येतर योनि में विचरण करना होता है जहां पाप कर्मों का फल भोग कर लेने पर पुनः मुनष्य योनि में जन्म मिलता है। यह वैदिक सिद्धान्त सर्वथा तर्क एवं युक्तिसंगत है। संसार के सभी मनुष्यों को इस पर विश्वास करना चाहिये। इसके अतिरिक्त अन्य कोई मान्यता व सिद्धान्त सत्य नहीं है। इसका कारण यह है कि सत्य एक ही होता है। सभी वैदिक सिद्धान्त सत्य हैं अतः इससे भिन्न व विपरीत कोई भी मान्यता सत्य नहीं हो सकती। हमें यह भी ज्ञात है कि यह ज्ञान परमात्मा ने वेदों में दिया है अतः यही सत्य है।
वैदिक धर्म से हम कौन हैं? इस प्रश्न का उत्तर भी मिलता है। हम अनादि, नित्य, सनातन, एक स्वल्प परिमाण वाली चेतन सत्ता हैं जो कि अल्पज्ञ है। अल्पज्ञ का अर्थ अल्प ज्ञानवाली सत्ता होना है। आत्मा एकदेशी, ससीम तथा सूक्ष्म होने के कारण अल्प ज्ञान वाली होती है। इसे ज्ञान प्राप्ति के लिये सर्वज्ञ सत्ता की आवश्यकता होती है जो कि संसार में केवल परमात्मा है। परमात्माभीअनादि, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, अविनाशी, अजर, अमरतथासृष्टिकर्ताहै।ईश्वरकेसर्वज्ञएवंसर्वव्यापकहोनेकेकारणहीसभीआत्मायेंपरमात्मासेव्याप्यहैंऔरउसीसेआत्माओंकोज्ञानवशक्तितथासुखोंकीप्राप्तिहोतीहै।अतःइसविशालअनन्तब्रह्माण्डमेंहममनुष्यएकजीवात्माहैंजिसकाआकारसिरकेबालकेअग्रभागकेलगभगदसहजारवेंभागकेबराबरअनुमानकियाजाताहै।हमारीआत्माअनादि, नित्य, अविनाशी, अल्पज्ञानकीसामर्थ्यसेयुक्तहै।ईश्वरप्रदत्तवेदज्ञानकोधारणवउसेआचरणमेंलाकरइसकाकल्याणहोताहै।मनुष्यजीवनकाउद्देश्यएवंलक्ष्यधर्म, अर्थ, कामवमोक्षकीप्राप्तिकरनाहै। यह विस्तृत ज्ञान व विधान हमें वैदिक ग्रन्थों में जानने व समझने को मिलते हैं। अतः आत्मा को ज्ञान की प्राप्ति और आत्मा की उन्नति व कल्याण के लिये वेद व वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इससे मनुष्य निभ्र्रान्त ज्ञान को प्राप्त होकर जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्ति दिलाने वाले मोक्ष मार्ग पर चलकर उसे प्राप्त करने में सफल होता है। यही सभी आत्माओं का लक्ष्य है जिसे प्राप्त करने के बाद आत्मा के सभी दुःख दूर हो जाते हैं। इससे आत्मा सर्वव्यापक आनन्दस्वरूप परमात्मा को प्राप्त होकर उसी में विचरण करते हुए हर पल व हर क्षण आनन्द का अनुभव करता है। मुक्ति में आत्मा अन्य मुक्त जीवों से मिलकर उनका सत्संग आदि भी करता है। यह आत्मा का यथार्थ स्वरूप है व मुक्ति की अवस्था आदि की स्थितियां हैं। हमें यह भी पता होना चाहिये कि हम इस जन्म से पूर्व मनुष्य या किसी अन्य योनि में थे। वहां मृत्यु होने के बाद कर्म विधान के अनुसार परमात्मा ने हमें इस मनुष्य योनि में जन्म दिया है। यहां से भी मरकर हम अपने कर्म संचय के अनुसार पुनः पुनर्जन्म को प्राप्त करेंगे जिसमें हमारी जाति-जन्म वा योनि, आयु एवं सुख-दुःखादि भोगों का निश्चय कर परमात्मा हमको पुनर्जन्म प्रदान करेगा। अनादि काल से यह जन्म-मृत्यु व पुनर्जन्म का चक्र निरन्तर चल रहा है और हम भी संसार में इसको निरन्तर होता हुआ देख रहे हैं।
हमारी आत्मा का अस्तित्व अनादि है। हम आत्मा ही हैं। हमारी कभी उत्पत्ति नहीं हुई है और न कभी हमारा नाश अर्थात् हमारी सत्ता का अभाव होगा। आत्मा जन्ममरण धर्मा सत्ता है। मुक्ति पर्यन्त इसका इसके कर्मों के अनुसार मनुष्य एवं अन्य किसी भी योनि में जन्म होता रहेगा। जन्म व मरण तथा बीच के काल में सभी प्राणियों को अनेक प्रकार के सुख व दुःख होते हैं। इनसे मुक्त होने का एक ही उपाय है कि वेद की शरण में जाकर वेदानुसार जीवन बीताना, मुक्ति के साधनों सद्कर्मों आदि को करना तथा ईश्वर का साक्षात्कार करने पर मुक्ति को प्राप्त होना। जब तक ईश्वर का साक्षात्कार होकर मुक्ति नहीं होगी तब तक हमारा जन्म निरन्तर होता रहेगा। इसी कारण हमारे पूर्वज ऋषि मुनि आदि मुक्ति के साधन हेतु यौगिक जीवन व्यतीत करते थे। हमें भी उनसे प्रेरणा लेकर तथा ऋषि दयानन्द प्रदत्त ग्रन्थों की सहायता से मुक्ति की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने चाहिये। यदि हमने तत्काल इस पर ध्यान नहीं दिया तो समय व्यतीत हो जाने पर हो सकता है कि हमें सद्कर्मों को करने का अवसर ही प्राप्त न हो। अतः सन्मार्ग को प्राप्त होकर उस पर चलना सभी मनुष्य का कर्तव्य है। इसमें विलम्ब करना हानिप्रद हो सकता है।
संसार में आत्मा के अतिरिक्त अन्य दो सत्तायें और हैं। ये हैं ईश्वर एवं प्रकृति। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप सत्ता है। यह सत्ता अनादि व नित्य है तथा इस सृष्टि का निमित्त कारण है। हमारी यह सृष्टि परमात्मा ने ही बनाई है। उपादान कारण प्रकृति से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है। इस सम्पूर्ण रहस्य को जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश का आठवां समुल्लास पढ़ना चाहिये। इससे समस्त भ्रान्तियां दूर हो जाती हैं। हम आत्मा हैं और परमात्मा से हमारा व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र आदि का सम्बन्ध है। ईश्वर सभी जीवात्माओ का पिता, माता, बन्धु, सखा, मित्र, आचार्य, गुरु, राजा, न्यायाधीक्ष, रक्षक, जन्म व मृत्यु का आधार, वेदज्ञान प्रदाता, संस्कृत भाषा प्रदाता, मुक्ति प्रदाता, शुभ कर्मों का प्रेरक आदि है और यही हमारे उससे सम्बन्ध हैं। अतः हमें उसको जानने के लिये वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय, उसका चिन्तन-मनन-ध्यान-उपासना आदि करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये।
मनुष्य के जीवन का उद्देश्य केवल सुखों की प्राप्ति व उसका भोग करना नहीं है अपितु मनुष्य को अपनी शरीर की आवश्यकताओं यथा भोजन व वस्त्रादि का न्यूनतम उपभोग करते हुए परमार्थ के कार्यों में अपना जीवन व्यतीत करना चाहिये। एक वेदमन्त्र में कहा गया है कि ईश्वर इस संसार में सर्वत्र व्यापक है तथा सभी जीवों के सब कामों को देखता है। यह संसार ईश्वर का है और वह इसका स्वामी है। हमें ईश्वर को जानकर उसका अनुभव करते हुए त्यागपूर्वक पदार्थों आदि का भोग करना है। इसमें लिप्त नहीं होना है। हमें लोभ के वशीभूत न होकर अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना है। इसका कारण यह है कि आवश्यकता से अधिक धन अर्जित करने से कोई लाभ नहीं है। यह सब धन यही छूट जायेगा, साथ नहीं जायेगा। अधिक सुख भोग करने से शरीर भी रोगी होकर दुःखदायी होता है। अतः हमें सुख की सभी सामग्री का त्यागपूर्वक एवं आवश्यकता के अनुरूप व अल्प मात्रा में ही भोग व संग्रह करना है, अधिक नहीं। यही लोक व परलोक में सुख प्राप्त करने का आधार बनता है।
हमें यह भी जानना चाहिये कि इस संसार को परमात्मा ने प्रकृति नामक अनादि जड़ व सूक्ष्म पदार्थ से बनाया है। इस सृष्टि को बने हुए 1.96 अरब वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। परमात्मा ने यह संसार अपनी अनादि प्रजा जीवों के सुख व उनको उनके पूर्वजन्म व कल्पों के बचे हुए अभुक्त कर्मों के फलों का भोग करने के लिये बनाया है। अनादि काल से सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय का क्रम चल रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। अनन्त काल तक हमारे जन्म-मरण व मुक्ति का सिलसिला भी चलता रहेगा। बुद्धिमत्ता इसी में है कि सभी मनुष्य जन्म-मरण से छूट कर मुक्ति को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करें। इससे अन्य कोई श्रेष्ठ व महान लक्ष्य जीवात्मा का नहीं है। परमात्मा हमें आंखों से दिखाई नहीं देता है जिसके अनेक कारण हंै। एक कारण यह है कि वह भौतिक पदार्थ नहीं है। वह अत्यन्त सूक्ष्म सत्ता है। जैसे हम संसार में अनेक सूक्ष्म पदार्थों को नहीं देख पाते, उसी प्रकार से ईश्वर भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने से दिखाई नहीं देता। ईश्वर हमारी आत्मा के बाहर व भीतर व्याप्त हो रहा है। वह हमें प्रेरणा करता रहता है। जब हम कोई बुरा काम करते हैं तो वह हमें उसे करने से रोकता है और जब हम परोपकार व श्रेष्ठ कर्मों को करते व कर रहे होते हैं तो वह हमें उन्हें करने में उत्साहित करता है। इस अवसर पर उसके द्वारा की जाने वाली प्रेरणाओं का हम प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। इन प्रेरणाओं से ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है। संसार में इस सृष्टि में रचना विशेष को देखकर भी हमें ईश्वर के होने का ज्ञान होता है। संसार एक आदर्श व्यवस्था में चल रहा है, यह भी हमें ईश्वर के अस्तित्व का अनुमान वा प्रत्यक्ष कराते हैं। यह भी बता दें कि सृष्टि की आदि में परमात्मा ने संस्कृत भाषा एवं वेदों का ज्ञान दिया था। ऋषियों ने सृष्टि में उसी वेदज्ञान का विस्तार किया है। परम्परा से हमें वही वेद व संस्कृत भाषा आज भी प्राप्त है। यदि परमात्मा भाषा व वेदज्ञान न देता तो मनुष्य उसकी रचना व उत्पत्ति नहीं कर सकते। इसके लिये हम परमात्मा के आभारी हैं। वेद व वैदिक साहित्य से सभी प्रश्नों का समाधान मिलता है। हमने कुछ प्रश्नों की चर्चा की है। हम आशा करते हैं कि हमारे पाठक इससे लाभान्वित होंगे।
ईश्वर को हम वेद, वैदिक साहित्य, ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश तथा वेदभाष्य आदि अनेक ग्रन्थों के द्वारा जान सकते हैं। ईश्वर की उपासना की विधि भी वेदों के आधार पर ऋषि दयानन्द ने हमें प्रदान की है। इस विधि से ईश्वर की उपासना कर मनुष्य उसका साक्षात्कार कर मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर को जानने व उसकी उपासना कर अपनी आत्मा व शरीर की उन्नति सहित पारलौकिक उन्नति के लिये भी प्रयत्न करने चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
हम संसार में रहते हैं और सृष्टि वा संसार को अपनी आंखों से निहारते हैं। सृष्टि का अस्तित्व प्रत्यक्ष एवं प्रामणिक है। हमारी यह सृष्टि कोई अनुत्पन्न, अनादि व नित्य रचना नहीं है। इसका अतीत में आविर्भाव व उत्पत्ति हुई है। इसके अनेक प्रमाण है। यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि सृष्टि सहस्रों व करोड़ों वर्ष पूर्व उत्पन्न हुई थी। सृष्टि में हम वनस्पति, अन्न एवं प्राणि जगत को भी देखते हैं। इनका भी आरम्भ सृष्टि उत्पन्न होने के बाद हुआ। सृष्टि में मनुष्य भी एक प्रमुख प्राणी है। यह पृथिवी में अनेक स्थानों पर रहते हैं और ज्ञान तथा भाषा से युक्त हैं। सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद ही जल, वायु, अग्नि आदि पदार्थों की उत्पत्ति हुई और इसके बाद अन्न, वनस्पतियां तथा प्राणी जगत की उत्पत्ति हुई। सृष्टि में मनुष्यों के उत्पन्न होने पर उनके जीवन निर्वाह हेतु भाषा एवं ज्ञान की आवश्यकता आरम्भ से ही थी। यह भाषा व ज्ञान भी मनुष्य अपने साथ लेकर उत्पन्न नहीं हुए थे अपितु यह उनकी उत्पत्ति के बाद ही उत्पन्न हुआ। यह सब पदार्थ किससे उत्पन्न हुए, यह जानना आवश्यक एवं स्वाभाविक है। यदि इस विषय में हम साधारण व विशेष ज्ञानी मनुष्यों से प्रश्न करें तो इसका समुचित उत्तर नहीं मिलता। इस विषय में लोग नाना प्रकार की कल्पनायें कर उत्तर दिया करते हैं। इन प्रश्नों के सही उत्तर वैदिक धर्म एवं संस्कृति से इतर किसी भी परम्परा, मत व संस्कृति यहां तक की आधुनिक विज्ञान के पास भी उपलब्ध नहीं हैं। वैदिक धर्म व परम्पराओं में ही इनके यथार्थ उत्तर मिलते हैं। यह उत्तर महाभारत युद्ध के पश्चात के वर्षों में विस्मृत हो गये थे जिन्हें ऋषि दयानन्द ने अपने अदम्य साहस एवं पुरुषार्थ से खोज निकाला और उनका प्रचार कर उसे जन-जन तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त की। हमारा सौभाग्य है कि हम इन सभी प्रश्नों के यथार्थ उत्तर जानते हैं।
ऋषिदयानन्दनेईश्वरकेसत्यस्वरूपकोजाननेसहितमृत्युपरविजयप्राप्तकरनेकेलियेअपनेपितृगृहकासन् 1846 मेंत्यागकियाथाऔरदेशमेंघूमघूमकरउनदिनोंकेज्ञानीपुरुषों, विद्वानों, धर्माचार्यों, योगियोंआदिकीसंगतिकरतथाउनदिनोंउपलब्धसमस्तसाहित्यकाअवलोकनकरअपनीशंकाओंवप्रश्नोंकेउत्तरप्राप्तकरनेकेप्रयत्नकियेथे।लगभग 16 वर्षकेउनकेप्रयत्नोंकापरिणामयहहुआथाकिउन्हेंअपनेसभीप्रश्नोंवशंकाओंकेयथार्थसमाधानमिलगयेथे।इसकेअतिरिक्तवहयोगविद्यासीखकरउसमेंप्रवीणहोकरईश्वरकासाक्षात्कारकरनेमेंभीसफलहुएथे। ईश्वर सिद्धि एवं ईश्वर का साक्षात्कार जीवन में प्राप्त की जाने वाली सबसे बड़ी सफलतायें होती है। इस अवस्था को प्राप्त होकर मनुष्य संसार के विषय में जो भी जानना चाहता है, वह उपलब्ध ज्ञान के चिन्तन-मनन व अपनी ऊहा, ध्यान व विवेक से जान लेता है। ऋषि दयानन्द ने योग के सभी आठ अंगों को सफलता पूर्वक जाना व प्रायोगिक दृष्टि से भी सिद्ध किया था और इसके साथ ही ज्ञान के प्रमुख ग्रन्थ ईश्वरीय ज्ञान वेद को वेदांगों वा व्याकरण सहित जाना था। इससे वह अज्ञान व अन्धविश्वासों से सर्वथा मुक्त तथा सभी विद्याओं को बीज रूप में जानने में सफल हुये थे। इस स्थिति को प्राप्त होकर उन्होंने वेदों सहित ईश्वर व आत्मा संबंधी रहस्यों का प्रचार करते हुए इन सभी प्रश्नों के उत्तर अपने व्याख्यानों तथा बाद में वेद प्रचार एवं मत-मतान्तरों की समीक्षा का अपूर्व ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ लिखकर प्रस्तुत किये थे। उनके दिये उत्तर ज्ञान व तर्क की कसौटी पर सत्य व खरे हैं। इसको जानने के लिये सभी मनुष्यों को ऋषि दयानन्द जी के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य, ऋषि जीवन चरित्र सहित वैदिक विद्वानों के वेदभाष्यों का अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य की सभी शंकायें व भ्रम दूर हो जाते हैं और वह ईश्वर व आत्मा के ज्ञान सहित सांसारिक ज्ञान से भी युक्त हो जाता है। यही मनुष्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य भी है। अतः संसार के सभी लोगों को वेद व सत्यार्थप्रकाश की शरण में आना चाहिये। इससे उन्हें वह लाभ होगा जो अन्यत्र कहीं से नहीं हो सकता और हानि किसी प्रकार की नहीं होगी। यही नहीं, यदि इन ग्रन्थों का अध्ययन कर योग साधना नहीं की तो जन्म व परजन्मों में सर्वत्र हानि ही हानि होना निश्चित है।
सब मनुष्य यह जानना चाहते हैं कि यह संसार किससे उत्पन्न हुआ? इसका उत्तर वैदिक साहित्य से यह मिलता है कि यह संसार सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा ने बनाया है। वह इस जगत् का सर्वज्ञान व सर्वशक्तियों से युक्त निमित्त कारण है। अनादि त्रिगुणात्मक सत्व, रज व तम गुणों से युक्त सूक्ष्म प्रकृति इस जगत का उपादान कारण है जो कि एक जड़ पदार्थ है। इस प्रकृति का उपयोग ही परमात्मा इस सृष्टि को बनाने के लिये करते हैं। यदि प्रकृति न होती तो यह संसार बन नहीं सकता था। यदि इस प्रकृति में सत्व, रज व तम गुण न होते तो भी यह सृष्टि अस्तित्व में नहीं आ सकती थी। यह प्रकृति अनादि, नित्य, अविनाशी, ईश्वर व जीव से पृथक सत्ता होने सहित ईश्वर के पूर्ण नियंत्रण में रहती है। यह प्रकृति अपने आप संयोग व वियोग करने तथा नये पदार्थों को उत्पन्न करने में सर्वथा असमर्थ है। अतः जो वैज्ञानिक प्रकृति से स्वतः सृष्टि का निर्माण स्वीकार करते हैं, परमात्मा को सृष्टिकर्ता न मानने के कारण, प्रकृति से स्वयं सृष्टि रचना होने का उनका सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। सृष्टि रचना का वर्णन वेद, दर्शन, उपनिषद आदि ग्रन्थों के आधार पर सत्यार्थप्रकाश में भी पढ़ने को मिलता है। सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में इन सभी ग्रन्थों के आधार पर अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन ऋषि दयानन्द ने किया है। उस वर्णन को सभी मनुष्यों को पढ़कर हृदयंगम कर लेना चाहिये और निभ्र्रान्त हो जाना चाहिये। सत्यार्थप्रकाशमेंसृष्टिउत्पत्तिकेप्रकरणमेंऋषिदयानन्दनेलिखाहैकिप्रकृति, जीवऔरपरमात्मा, यहतीनोंअजअर्थात्अजन्मावअनुत्पन्नहैंअर्थात्जनकाकाजन्मकभीनहींहोताऔरनकभीजन्मलेतेहैंअर्थात्येतीनसबजगत्केकारणवाआधारहैं।इनकाउत्पत्तिकर्ता, कारणवआधारकोईनहींहै।इसअनादिप्रकृतिकाभोगअनादिजीवकरताहुआइसमेंफंसताहैअर्थात्बन्धनमेंपड़ताहैऔरइसप्रकृतिमेंपरमात्मानफंसताऔरनउसकाभोगकरताहै। प्रकृति के लक्षण व रचना पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं कि सत्व, रजः तथा तम अर्थात् जड़ता यह तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात है उसका नाम प्रकृति है। उससे महतत्व बुद्धि, उससे अहंकार, उससे पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन उत्पन्न होता है। पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर हैं। इन में से प्रकृति अविकारिणी और महतत्व अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य और इन्द्रियों, मन तथा स्थूलभूतों का कारण हैं। पुरुष अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा न किसी की प्रकृति अर्थात् उपादान कारण हैं और न किसी पदार्थ के कार्य हैं। इस प्रकार परमात्मा ने प्रकृति से जीवों के लिये इस सृष्टि की रचना की है तथा वही इस समस्त सृष्टि को धारण कर संसार व सभी प्राणियों का पालन कर रहा है।
संसारमेंहमेंजोप्राणीजगतदिखाईदेताहैवहभीपरमात्मानेहीउत्पन्नकियावारचाहै।परमात्माकासत्यस्वरूपभीसबकेजाननेयोग्यहै।परमात्माकास्वरूपसच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्रऔरसृष्टिकर्ताहैतथासभीमनुष्योंकेउपासनाकरनेयोग्यहै।ईश्वरकीउपासनामेंईश्वरकेसत्यस्वरूपकोजानना, उसकेउपकारोंपरविचारवध्यानकरनातथाउसीमेंमग्नहोकरउसकाधन्यवादकरतेहुएउससेएकाकारहोनेकाप्रयत्नकरनाहोताहै।ऐसाकरतेहुएहीदीर्घकालकीसाधनाकेबादमनुष्यकोईश्वरकाप्रत्यक्षवसाक्षात्कारहोताहै।यहीमनुष्यकेजीवनकापरमवचरमलक्ष्यहोताहै। ईश्वर के विषय में यह भी जानना चाहिये कि वह सभी जीवों के कर्मों का साक्षी होता है तथा जीवों को उनके कर्मों का फल प्रदाता होता है। वह जीवों को उनके सभी कर्मों का फल भुगाता है। मनुष्य अपने किसी एक कर्म का भोग किये छूटता नहीं है। अतः मनुष्य को सावधानी पूर्वक ही अपने प्रत्यक कर्म को करना चाहिये। इसका कारण यह है कि उसे कालान्तर में अपने सभी शुभ व अशुभ कर्मों का फल सुख व दुःख के रूप में अवश्य ही भोगना पड़ेगा। तब उसे अपने अशुभ कर्मों के कारण मिलने वाले दुःख से पश्चाताप होता है। इसप्रकारहमेंसृष्टिकीरचनातथाप्राणीजगतकीउत्पत्तिपरमात्मासेहीहोनेकासमाधानवैदिकसाहित्यसेप्राप्तहोताहैजिसेहमारीआत्मासत्यस्वीकारकरतीहै।यहीभ्रान्तिरहितसत्यज्ञानहै।इसेसबमनुष्योंकोस्वीकारकरनाचाहियेऔरइसकाप्रचारभीकरनाचाहिये।
संसारमेंआदिभाषासंस्कृत, जैसीकीवेदोंमेंहै, तथासमस्तसत्यज्ञानभीपरमात्मासेहीप्राप्तहुआहै।वेदपरमात्माप्रदत्तवहज्ञानहैजोउसनेसृष्टिकीआदिमेंअमैथुनीसृष्टिमेंउत्पन्नचारऋषियोंअग्नि, वायु, आदित्यऔरअंगिराकोप्रदानकियाथा।यहीज्ञानइनऋषियोंसेब्रह्माजीकोप्राप्तहोकरपरम्परासेअद्यावधि 1.96 अरबवर्षबादभीउपलब्धहैऔरमनुष्यकीसभीशंकाओंवभ्रमोंकोदूरकरताहै।परमात्मायदिभाषाववेदमेंनिहितसभीसत्यविद्याओंकाज्ञाननदेतातोमनुष्यआजतकअज्ञानीहीरहते।मनुष्योंमेंयहसामथ्र्यनहींहैकिवहस्वयंआदिवप्रथमभाषा, जोकिसंस्कृतहैतथाजोपरमात्मानेवेदोंकेद्वारादीहै, उसकानिर्माणकरसके। मनुष्य आदि भाषा सहित ज्ञान की उत्पत्ति करने में असमर्थ हैं। मनुष्यों की स्थिति तो यह है कि आज भी वह वेदों की विशिष्ट मान्यताओं को जानकर उससे लाभ नहीं उठा पा रहे हैं तथा भ्रमों व अन्धकार में जी रहे हैं। अतः मनुष्य आदि काल व कालान्तर में भाषा व वेद ज्ञान के समान किसी ज्ञान की उत्पत्ति कर सकते थे, ऐसा करना असम्भव है। भाषा व ज्ञान भी सृष्टि की आदि में वेदों के रूप में परमात्मा से ही मिला है। यही सत्य एवं यथार्थ तथ्य है। हमने ऋषि दयानन्द द्वारा उद्धाारित वैदिक साहित्य से मनुष्य जीवन की मौलिक शंकाओं के समाधान संक्षेप में अपनी मति से दिये हैं। पाठक महानुभाव वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर इन विषयों में विस्तृत ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
विश्व ओजोन परत संरक्षण दिवस- 16 सितम्बर 2020 पर विशेष ललित गर्ग
विश्व ओजोन परत संरक्षण दिवस 16 सितंबर, बुधवार को मनाया जाएगा। इस वर्ष ‘जीवन के लिये ओजोन’ थीम पर यह दिवस मनाया जा रहा है। अधिकांश वैज्ञानिकों का मानना है कि ओजोन परत के बिना पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। ओजोन परत के सुरक्षित ना होने से जनजीवन, प्रकृति, पर्यावरण और पशुओं के जीवन पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। यहां तक कि पानी के नीचे का जीवन भी ओजोन की कमी के कारण नष्ट हो जाएगा। ओजोन परत के नष्ट होने एवं उसकी कमी से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है, सर्दियों की तुलना में अधिक गर्मी होती है, सर्दियां अनियमित रूप से आती हैं और हिमखंड गलना शुरू हो जाते हैं। इसके अलावा ओजोन परत की कमी स्वास्थ्य और प्रकृति के लिए खतरा है। आज समग्र्र मनुष्य जाति ओजोन में छिद्र होने एवं उसके नष्ट होने से पर्यावरण के बढ़ते असंतुलन से संत्रस्त है। प्रकृति एवं पर्यावरण की तबाही से पूरा विश्व चिन्तित है। कहा नहीं जा सकता कि ओजोन सुरक्षा एवं संरक्षण के लिये सोची गयी योजनाएं, नीतियां और निर्णय कब, कैसे सफल निष्पत्तियों तक पहुंचंेगी। इधर तेज रफ्तार से बढ़ती दुनिया की आबादी, तो दूसरी तरफ तीव्र गति से घट रहे प्राकृतिक ऊर्जा स्रोत। समूचे प्राणि जगत के सामने अस्तित्व की सुरक्षा का महान संकट है। पिछले लम्बे समय से ऐसा महसूस किया जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या ओजोन से जुड़ी हुई है। आज पृथ्वी विनाशकारी हासिए पर खड़ी है। सचमुच आदमी को जागना होगा। जागकर फिर एक बार अपने भीतर उस खोए हुए आदमी को ढूंढना है जो सच में खोया नहीं है, अपने लक्ष्य से सिर्फ भटक गया है। यह भटकाव ओजोन परत के लिये गंभीर खतरे का कारण बना है। ओजोन गैस हमारी जीवन रक्षक है। ओजोन से ही पृथ्वी और उस पर प्रकृति एवं पर्यावरण टिका हुआ है। लेकिन अफसोस है, कि ओजोन परत में ओजोन गैस की मात्रा कम हो रही है। इसका मुख्य कारण प्रकृति और पर्यावरण का अति दोहन करने वाले स्वार्थी मानव ही हैं। इस संकट का मूल कारण है प्रकृति का असंतुलन, औद्योगिक क्रांति एवं वैज्ञानिक प्रगति से उत्पन्न उपभोक्ता एवं सुविधावादी संस्कृति। स्वार्थी और सुविधाभोगी मनुष्य प्रकृति से दूर होता जा रहा है। उसकी लोभ की वृत्ति ने प्रकृति को बेरहमी से लूटा है। इसीलिए ओजोन की समस्या दिनोंदिन विकराल होती जा रही है। ओजोन परत का छेद दिनोंदिन बढ़ रहा है। सूरज की पराबैंगनी किरणें, मनुष्य शरीर में अनेक घातक व्याधियाँ उत्पन्न कर रही हैं। समूची पृथ्वी पर उनका विपरीत असर पड़ रहा है। जंगलों-पेड़ों की कटाई एवं परमाणु ऊर्जा के प्रयोग ने स्थिति को अधिक गंभीर बना दिया है। न हवा स्वच्छ है, न पानी, न मौसम का संतुलित क्रम। वैज्ञानिको ने ओजोन परत से जुड़े एक विश्लेषण में यह पाया है कि क्लोरो फ्लोरो कार्बन ओजोन परत में होने वाले विघटन के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी है। इसके अलावा हैलोजन, मिथाइल क्लोरोफॉर्म, कार्बन टेट्राक्लोरिडे आदि रसायन पदार्थ भी ओजोन को नष्ट करने में सक्षम हैं। इन रसायन पदार्थांे को ‘ओजोन क्षरण पदार्थ’ कहा गया है। इनका उपयोग हम मुख्यतः अपनी दैनिक सुख-सुविधाओ में करते हैं जैसे एयर कंडीशनर, रेफ्रिजरेटर, फोम, रंग, प्लास्टिक इत्यादि। ओजोन चिन्ता की घनघोर निराशाओं के बीच एक बड़ा प्रश्न है कि कहां खो गया वह आदमी जो संयम एवं सादगीपूर्ण प्रकृतिमय जीवन जीता था, जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को काटने से रोकता था? गोचरभूमि का एक टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। जिसके लिये जल की एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी। जो वन्य पशु-पक्षियों को खदेड़कर अपनी बस्तियां बनाने का बौना स्वार्थ नहीं पालता था। अपने प्रति आदमी की असावधानी, उपेक्षा, संवेदनहीनता और स्वार्थी चेतना के कारण ही आज ओजोन क्षत-विक्षित हो रही है। ओजोन मनुष्य के द्वारा किये गये शोषण एवं उपेक्षा के कारण ही नष्ट हो रही है, और तभी बार-बार भूकम्प, चक्रावत, बाढ़, सुखा, अकाल, कोरोना महामारी जैसे हालात देखने को मिल रहे हैं। हम जानते हैं-कम्प्यूटर और इंटरनेट के युग में जीने वाला आज का युवा बैलगाड़ी, चरखा या दीये की रोशनी के युग में नहीं लौट सकता फिर भी अनावश्यक यातायात को नियंत्रित करना, यान-वाहनों का यथासंभव कम उपयोग करना, विशालकाय कल-कारखानों और बड़े उद्योगों की जगह, लघु उद्योगों के विकास में शांति/संतोष का अनुभव करना, बिजली, पानी, पंखे, फ्रिज, ए.सी. आदि का अनावश्यक उपयोग नहीं करना या बिजली-पानी का अपव्यय नहीं करना, अपने आवास, पास-पड़ोस, गाँव, नगर आदि की स्वच्छता हेतु लोकचेतना को जगाना, पेड़-पौधों के अंधाधुंध दोहन पर नियंत्रण-ये ऐसे उपक्रम हैं, जिनसे आत्मसंयम पुष्ट होता है, प्राकृतिक साधन-स्रोतों का अपव्यय रुकता है। प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ सहयोग स्थापित होता है और ओजोन की सुरक्षा में भागीदारी हो सकती है। सुविधावादी जीवनशैली एवं बढ़ते इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से ओजोन को भारी नुकसान हो रहा है। एयर कंडीशनर में प्रयुक्त गैस फ्रियान-11, फ्रियान-12 भी ओजोन के लिए सबसे ज्यादा हानिकारक है क्योंकि इन गैसों का एक अणु ओजोन के लाखों अणुओं को नष्ट करने में सक्षम है। धरती पर पेड़ों की बढ़ती अंधाधुंध कटाई भी इसका एक कारण है। पेड़ों की कटाई से पर्यावरण में ऑक्सीजन की मात्रा काम होती है जिसकी वजह से ओजोन गैस के अणुओं का बनना कम हो जाता है। ओजोन परत के बढ़ते क्षय के कारण अनेकों दुष्प्रभाव हो सकते हैं। जैसे की सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी किरणें धरती पर वायुमंडल में प्रवेश कर सकती हैं, जो कि बेहद ही गरम होती हैं और पेड़ पौधों तथा जीव जन्तुओं के लिए हानिकारक भी होती हैं। मानव शरीर में इन किरणों की वजह से त्वचा का कैंसर, श्वसन रोग, अल्सर, मोतियाबिंद यदि जैसी घातक बीमारियां हो सकती हैं। साथ ही साथ ये किरणें मानव शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को भी प्रभावित करती हैं। जहां ओजोन क्षय के कारण मनुष्य जल्दी बूढ़े होते है और शरीर पर झुर्रियां पड़ती है वही पत्तियों के आकार छोटे जाते हैं, अंकुरण का समय बढ़ जाता है और मक्का, चावल, गेहूं, सोयाबीन जैसे फसलों का उत्पादन कम हो जाता है। पैराबैंगनी किरणें सूक्ष्म जीवों को अधिक प्रभावित करते हैं जिसका असर खाद्य श्रृंखला पर पड़ता है। ओजोन परत के बढ़ते क्षय के कारण आने वाले कुछ वर्षों में त्वचा कैंसर से पीड़ित रोगों की संख्या के बढ़ने के अनुमान है। इसी कारण कोरोना महामारी को परास्त करने में भारी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। देश के भावी नागरिकों यानी बच्चांे को जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिए जरूरी है कि उन्हें ओजोन परत के प्रति संवदेनशील बनाया जाए। पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों के साथ प्रेमपूर्ण सहअस्तित्व का बोध कराया जाए। खान-पान की शुद्धि और व्यसन मुक्ति भी ओजोन- सुरक्षा के सशक्त उपाय हैं। खान-पान की विकृति ने मानवीय सोच को प्रदूषित किया है। संपूर्ण जीव जगत के साथ मनुष्य के जो भावनात्मक रिश्ते थे, उन्हें चीर-चीर कर दिया है। इससे पारिस्थितिकी और वानिकी दोनों के अस्तित्व को खुली चुनौती मिल रही है। नशे की संस्कृति ने मानवीय मूल्यों के विनाश को खुला निमंत्रण दे रखा है। वाहनों का प्रदूषण, फैक्ट्रियों का धुँआ, परमाणु परीक्षण-इनको रोक पाना किसी एक व्यक्ति या वर्ग के वश की बात नहीं है। पर कुछ छोटे-छोटे कदम उठाने की तैयारी भी महान क्रांति को जन्म दे सकती है। विकास एवं सुविधावाद के लिये ओजोन की उपेक्षा गंभीर स्थिति है। सरकार की नीतियां एवं मनुष्य की वर्तमान जीवन-पद्धति के अनेक तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल रहे हैं कि वहां जीवन का अस्तित्व ही कठिन हो जायेगा। ओजोन की तबाही को रोकने के लिये बुनियादी बदलाव जरूरी है और वह बदलाव सरकार की नीतियों के साथ जीवनशैली में भी आना जरूरी है।
इतिहास साक्षी है कि दुनिया में जहाँ भी जाकर ईसाईयत का प्रचार करना होता और वहां की सत्ता वा संसाधन पर काबिज होने की मंशा रखने वाले अपने शासकों के काम को सरल करना होता तो उसके लिए गोरे ईसाई मिशनरीज़ और उनके द्वारा प्रेरित विद्वानों ने एक सिद्धांत ढूंड निकला था जिसको सारी दुनिया ‘Whiteman’s burden theory’ के नाम से जानती है. इस मिशन में भारत को भी शामिल कर मिशनरीज़ उसकी ये छवि बनाने में जुट गए कि ये अर्धसभ्य, सपेरों का देश है; इसके धर्मशास्त्र पुरातन रूढ़ीयों और झूठ का पुलिंदा मात्र है; साथ ही, इसके जितने भी धर्मगुरु हैं वे सब के सब पाखंडी हैं और ज्ञान जैसी वास्तु से कोसों दूर हैं. इसलिये इसको , उन्होनें प्रचारित किया, इस अवस्था से छुटकारा दिलाकर सभ्य बनाने का भार ईश्वर ने उनके [मिशनरीज़] ऊपर डाला है! पर इस बीच एक संयोग ये भी रहा कि कुछ यूरोपीय वा अमेरिकी विद्वानों द्वारा हिन्दू धर्म का निष्पक्ष अध्ययन शुरू हुआ, और उनके द्वारा निकाले गये निष्कर्षों से इस छवि के धूमिल होने की बुनियाद ने आकार लेना शुरू किया. “वेद मानव-जीवन के प्रत्येक पहलुओं जैसे- सस्कृति,धर्म,नीतिशास्त्र,शल्य-क्रिया, औषधि,संगीत,अन्तरिक्ष-ज्ञान, पर्यावरण तथा वास्तुशास्त्र आदि की संपूर्ण जानकारी देते हैं.”- सर विलियम जोंस. इसी से मिलती-जुलती राय आर्थर शोपेन्होवर , राल्फ् वाल्डो एमर्सन,विल्हेल्म वोन होम्वोल्ट जैसे महान विचारक भी रखते थे. पर ये आवाजें किसी विशेष अवसर या मंच से न उठने के कारण ये दुनिया की खबर न बन सके, इसलिये विश्व-समुदाय के मत पर अपेक्षित प्रभाव छोड़ने मे सफल भी ना हो सके. भारत के लिये ये अवसर तब आया जब ११ सितम्बर से २७ सितम्बर , १८९३ के दौरान शिकागो में विश्व धर्म-संसद का आयोजन हुआ, जिसमें दुनिया भर के धर्मों के तत्वज्ञानी इकट्ठे हुए, अपने-अपने धर्म के पक्ष को प्रस्तुत करने. ये आयोजन देश के अन्दर, देश के बाहर भारत के अतीत, उसके पूर्वज,उसके धर्म के प्रति दृष्टि बदल डालने वाला साबित हुआ . और इस नितांत ही असंभव से दिखने वाले कार्य को जिस महामानव ने इस धर्म-संसद मे शामिल होकर अकेले अपने बलबूते पर कर दिखाया वो थे स्वामी विवेकानंद. धर्म-संसद में भाग लेने में विवेकानंद को एक साथ कई उद्देश्य पूरे होते दिखे. वास्तव में ये वो समय था जबकि चर्च संचालित अंग्रेजी-मिशन विद्यालयों-महाविद्यालयों से पढ़कर भारतीय युवक अपने स्व के प्रति हीनता के दृढ़ भाव के साथ बाहर निकलता. विवेकानंद के ही शब्दों में- “ बच्चा जब भी पढ़ने को स्कूल भेजा जाता है, पहली बात वो ये सीखता है कि उसका बाप बेवकूफ है. दूसरी बात ये कि उसका दादा दीवाना है; तीसरी बात ये कि उसके सभी गुरु पाखंडी है और चौथी ये कि सारे के सारे धर्म-ग्रन्थ झूठे और बेकार है .” इन स्कूलों से पढ़कर निकले ये वो युवक थे जो किसी भी बात को तब तक स्वीकार करने को तैयार नहीं थे जब तक कि वो अंग्रजों के मुख से निकलकर बाहर ना आयी हो. साथ ही, एक बात ये भी थी कि विश्व धर्म-संसद का घोषित उदेश्य भले ही सभी धर्मों के बीच समन्वय स्थापित करना हो, पर ईसाई चर्च इसको इस अवसर के रूप मे देख रही थी जब कि इसाई-धर्म के तत्वों को पाकर विश्व के सभी धर्म के अनुयायी इसके प्रभुत्व को स्वीकार कर इसके तले आने को लालायित हो उठेंगे. वे मानकर चलते थे कि वो तो ईसाइयत के अज्ञान के कारण से ही दुनियावाले अपने-अपने धर्मों को गले से लगाये बैठे हैं. [‘शिकागो की विश्व धर्म महासभा’- मेरी लुइ बर्क ( भगिनी गार्गी)] इस पृष्ठभूमि मे विवेकानंद जब धर्म-संसद मे भाग लेने उपस्थित हुए तो उन्हें उद्दबोधन के लिया अंत तक इन्तजार करना पड़ा. पर जब बोले तो हिदुत्व के सर्वसमावेशक तत्वज्ञान से युक्त उनकी ओजस्वी वाणी का जादू ऐसा चला कि उसके प्रभाव से कोई भी न बच सका. फिर तो बाद के दिनों में उनके जो दस-बारह भषण हुए वो अंत में सिर्फ इसलिये रखे जाते थे जिससे उनको सुनने कि खातिर श्रोतागण सभागार मे बने रहें .ये देख अपनी प्रतिक्रिया मे अमेरिका के तब के तमाम समाचार पत्र उनकी प्रशंसा से भर उठे. द न्यूयॉर्क हेराल्ड लिखता है- “ धर्मों कि पार्लियामेंट में सबसे महान व्यक्ति विवेकानंद हैं. उनका भाषण सुन लेने पर अनायास ये प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिये धर्म प्रचारक[ईसाई मिशनरी] भेजना कितनी बेवकूफी की बात है.” अपने-अपने पंथ-मजहब के नाम पर क्रूसेड और जिहाद के फलस्वरूप हुए रक्तपात की आदी हो चुकी दुनिया के लिये विवेकानंद के उद्दबोधन में विभिन्न मतालंबियों के मध्य सह-अस्तित्व की बातें कल्पना से परे कि बाते थीं- “जो कोई मेरी ओर आता है- चाहे किसी प्रकार से हो- मैं उसे प्राप्त होता हूँ.”[गीता] गीता के उपदेश को स्पष्ट करते हुए विवेकनन्द के द्वारा कही गई ये बात कि हिन्दू सहिष्णुता मे ही विश्वास नहीं करते, वरन समस्त धर्मों को सत्य मानते हैं श्रोताओं के लिया अद्भूत बात थी. विवेकानंद गये तो थे केवल धर्म-संसद में शामिल होने पर इसके परिणामस्वरुप निर्मित वातावरण को देख उन्होने भारत जल्दी लोटने का इरादा बदल दिया. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में-“ धर्म-सभा से उत्साहित होकर स्वामीजी अमेरिका और इंग्लैंड में तीन साल तक रहे , और रहकर हिन्दू-धर्म के सार को सारे यूरोप वा अमेरिका में फैला दिया. अंग्रेजी पढ़कर बहके हुए हिन्दू बुद्धिवादियों को समझाना कठिन था, किन्तु जब उन्होंनें देखा कि स्वयं यूरोप और अमेरिका के नर-नारी स्वामीजी के शिष्य बनकर हिंदुत्व की सेवा में लगते जा रहे हैं तो उनकी अक्ल ठिकाने पर आ गई. इस प्रकार , हिंदुत्व को लीलने के लिये अंग्रेजी भाषा,ईसाई धर्म और यूरोपीय बुद्धिवाद के रूप में जो तूफ़ान उठा था, वह स्वामी विवेकानंद के हिमालय जैसे विशाल वृक्ष से टकरा कर लौट गया.” [संस्कृति के चार अध्याय]
श्री नरेंद्र मोदी के 70वें जन्म दिवस- 17 सितम्बर 2020 पर विशेष -ललित गर्ग – एक संकल्प लाखों संकल्पों का उजाला बांट सकता है यदि दृढ़-संकल्प लेने का साहसिक प्रयत्न कोई शुरु करे। अंधेरों, अवरोधों एवं अक्षमताओं से संघर्ष करने की एक सार्थक मुहिम हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में वर्ष 2014 में शुरू हुई थी। वे एक अनूठा एवं विलक्षण इतिहास बना रहे हैं। वे राजनीति में शुचिता के प्रतीक, अध्यात्म एवं विज्ञान के समन्वयक, कुशल राजनेता, प्रभावी प्रशासक, विलक्षण व्यक्तित्व के धनी हैं। उनके 70वें जन्म दिवस पर सुखद एवं उपलब्धिभरी प्रतिध्वनियां सुनाई दे रही है, जिनमें नये भारत एवं आत्मनिर्भर भारत के स्वर गूंज रहे हैं। हमने हाल ही में हमने मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के मन्दिर के शिलान्यास का दृश्य देखा। मोदी ने अपने छह साल के कार्यकाल में जता दिया है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति वाली सरकार अपने फैसलों से कैसे देश की दशा-दिशा बदल सकती है, कैसे कोरोना जैसी महाव्याधि को परास्त करते हुए जनजीवन को सुरक्षित एवं स्वस्थ रख सकती है, कैसे महासंकट में भी अर्थव्यवस्था को ध्वस्त होने से बचा सकती है, कैसे राष्ट्र की सीमाओं को सुरक्षित रखते हुए पडौसी देशों को चेता सकती है। नरेन्द्र मोदी के प्रभावी एवं चमत्कारी नेतृत्व में हम अब वास्तविक आजादी का स्वाद चखने लगे हैं, आतंकवाद, जातिवाद, क्षेत्रीयवाद, अलगाववाद की कालिमा धूल गयी है, धर्म, भाषा, वर्ग, वर्ण और दलीय स्वार्थो के राजनीतिक विवादों पर भी नियंत्रण हो रहा है। इन नवनिर्माण के पदचिन्हों को स्थापित करते हुए कभी हम मोदी के मुख से स्कूलों में शोचालय की बात सुनते है तो कभी गांधी जयन्ती के अवसर पर स्वयं झाडू लेकर स्वच्छता अभियान का शुभारंभ करते हुए उन्हें देखते हैं। मोदी कभी विदेश की धरती पर हिन्दी में भाषण देकर राष्ट्रभाषा को गौरवान्वित करते है तो कभी “मेक इन इंडिया” का शंखनाद कर देश को न केवल शक्तिशाली बल्कि आत्म-निर्भर बनाने की ओर अग्रसर करते हैं। नई खोजों, दक्षता, कौशल विकास, बौद्धिक संपदा की रक्षा, रक्षा क्षेत्र में स्वदेशी उत्पादन, श्रेष्ठ का निर्माण-ये और ऐसे अनेकों सपनों को आकार देकर सचमुच मोदीजी लोकतंत्र एवं राष्ट्रीयता को सुदीर्घ काल के बाद सार्थक अर्थ दे रहे हैं। नरेन्द्र मोदी एक कर्मयोद्धा है, उनके नेतृत्व में सरकार और सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक/एयर स्ट्राइक कर जबरदस्त पराक्रम का प्रदर्शन कर दिखाया है कि भारत की रक्षा शक्ति दुनिया के किसी विकसित देश से कम नहीं है। भारत पारंपरिक लड़ाई के साथ-साथ माडर्न लड़ाई में दुनिया की पेशेवर सेनाओं में से एक है। भारतीय जवानों द्वारा पाकिस्तान की सीमा में घुसकर आतंकियों के ठिकानों को तबाह कर देना भारत की बड़ी शक्ति एवं सामथ्र्य का परिचायक है। मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में सबसे बड़ा एवं साहसिक ऐतिहासिक फैसला जम्मू-कश्मीर को लेकर लिया जो जनसंघ के जमाने से उसकी प्राथमिकता रहा है। जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने का कदम उठाने के साथ-साथ राज्य को दो हिस्सों में बांटने का काम भी इसी कार्यकाल में हुआ। मोदी सरकार के फैसले के बाद कश्मीर में एक देश, एक विधान और एक निशान लागू हो गया है। विकास की योजनाएं, नीतियां, सिद्धान्त और संकल्प सही परिणामों के साथ सही लोगों तक पहुंच रहे हैं। जनता को बैंकिंग से जोड़ने के लिए जन-धन योजना की घोषणा हो या हर घर को बिजली पहुंचाने के लिए सौभाग्य योजना या फिर प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत एक करोड़ घरों के निर्माण का लक्ष्य रखा जाना, आयुष्मान भारत योजना के तहत गरीब परिवार के हर सदस्य को सरकारी या निजी अस्पताल में सालाना पांच लाख रुपए तक का इलाज मुफ्त देना- ये और ऐसी अनेक योजनाएं भारत के सशक्त एवं समृद्ध होने का परिचायक है। भारत में नया गुड्स ऐंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) देश में कर सुधार की दिशा में सबसे बड़ा कदम था। जीएसटी लागू करने का मकसद एक देश- एक कर (वन नेशन, वन टैक्स) प्रणाली है। सवर्ण आरक्षण की मांग देश में लंबे समय से हो रही थी, लेकिन किसी भी सरकार ने हाथ नहीं डाला। मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के आखिरी समय 2019 के जनवरी में सवर्ण समुदाय को आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया। अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े कई अहम फैसले भी लिए गये हैं। 45 साल से ज्यादा उम्र की महिलाओं को बिना पुरुष अभिभावक के हज करने की इजाजत दी गई थी। मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से निजात दिलाने का कदम भी उठाया। मोदी सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून को 10 जनवरी 2020 को अमलीजामा पहनाया। इस कानून से पाकिस्तान, अफगानिस्तान और अन्य देशों में रह रहे हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और यहूदी को भारतीय नागरिकता मिल सकेगी। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दुनिया के तमाम देशों के साथ भारत के संबंध प्रगाढ़ हुए हैं और देश का सिर सम्मान से ऊंचा उठा और अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली है। मोदी ने अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ ह्यूस्टन में ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम में करीब 50 हजार लोगों को संबोधित किया। ऐसे ही इस साल फरवरी में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने मोदी के न्यौते पर गुजरात के अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रंप’ में शामिल हुए और करीब 1 लाख लोगों को संबोधित किया। सऊदी अरब से लेकर यूएई सहित तमाम इस्लामिक देशों ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित भी किया है। इसके अलावा इस्लामिक देशों के साथ भारत के संबंध भी मजबूत हुए हैं, जिसका नतीजा है कि कश्मीर मसले पर दुनिया भर के देशों ने भारत का साथ दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील पर संयुक्त राष्ट्र ने प्रतिवर्ष 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मनाने की स्वीकृति दी। इसके दुनिया भर में भारत का सम्मान बढ़ा है। मोदी उन लोगों के लिए चुनौती है जो अकर्मण्य, आलसी, निठल्ले, हताश, सत्वहीन बनकर सिर्फ सफलता की ऊंचाइयों के सपने देखते हैं पर अपनी दुर्बलताओं को मिटाकर नयी जीवनशैली की शुरुआत का संकल्प नहीं स्वीकारते। तभी तो मोदी की विचारधारा हमारी एकता, संगठन, सौहार्द, भाईचारा, समन्वय और मैत्री की बुनियाद बनने की क्षमता रखती है। इसीलिए मोदी का संदेश है कि-हम जीवन से कभी पलायन न करें, जीवन को परिवर्तन दें, क्योंकि पलायन में मनुष्य के दामन पर बुज़्ादिली का धब्बा लगता है जबकि परिवर्तन में विकास की संभावनाएं सही दिशा और दर्शन खोज लेती है। मोदी-दर्शन कहता है-जो आदमी अभय से जुड़ता है वह अकेले में जीने का साहस करता है। जो अहिंसा को जीता है वह विश्व के साथ मैत्री स्थापित करता है। जो अनेकांत की भाषा में सोचता है वह वैचारिक विरोधों को विराम देता है। मोदी इस बात की परवाह नहीं करते कि लोग क्या कहेंगे, क्योंकि वे अपने कर्म में निष्ठा से प्रयत्नशील है। पुरुषार्थ का परिणाम फिर चाहे कैसा भी क्यों न आए, वे कभी नहीं सोचते। उनको अपनी कार्यजा शक्ति पर कभी संदेह नहीं रहा। उनका आत्मविश्वास उन्हें नित-नवीन रोशनी देता है। यही पुरुषार्थ और निष्ठा उनको सीख और समझ देती है कि सिर्फ कुर्सी पर बैठने वालों का कर्तृत्व ही कामयाबी पर नहीं पहुंचता, सामान्य कागजों पर उतरने वाले आलेख भी इतिहास की विरासत बनते देखे गये हैं। समय से पहले समय के साथ जीने की तैयारी का दूसरा नाम है मोदी। दुनिया का कोई सिकंदर नहीं होता, वक्त सिकंदर होता है इसलिए जरूरी है कि हम वक्त के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना सीखें। आज का जीवन अच्छाई और बुराई का इतना गाढ़ा मिश्रण है कि उसका नीर-क्षीर करना मुश्किल हो गया है। पर अनुपात तो बदले। अच्छाई विजयी स्तर पर आये, वह दबे नहीं। अच्छाई की ओर बढ़ना है तो पहले बुराई को रोकना होगा। इस छोटे-से दर्शन वाक्य में मोदी की ‘कल्पना का भारत’ का आधार छुपा है। और उसका मजबूत होना आवश्यक है। बहुत सारे लोग जितनी मेहनत से नरक में जीते हैं, उससे आधे में वे स्वर्ग में जी सकते हैं। यही मोदी का दर्शन है। इतिहास के दो प्रमुख राजा हुए। दृढ़ मनोबल के अभाव में एक ने पहले ही संघर्ष में घुटने टेक दिये और साला कहलाया। दूसरे ने दृढ़ मनोबल से संकल्पित होकर, घास की रोटी खाकर, जमीन पर सोकर संघर्ष किया और महाराणा प्रताप कहलाया। हमें साला नहीं प्रताप बनना है तभी राष्ट्रीय चरित्र में नैतिकता आयेगी, तभी हम राष्ट्र को वास्तविक प्रगति की ओर अग्रसर कर सकेंगे, जैसा माहौल इनदिनों नरेन्द्र मोदी निर्मित कर रहे है। श्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार अमेरिका में, जापान में, आस्टेªलिया, ब्रिटेन, फ्रांस, अफगानिस्तान, सउदी अरब में आौर नेपाल में भारत की राजनैतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, सामरिक और आर्थिक सशक्तता की छाप छोड़ी है यह इतिहास के निर्माण का भाव है। निश्चित ही उनकी दृष्टि एवं दिशा भारत के नवशिल्प का आधार है।
भारत सरकार को हिंदी दिवस मनाते-मनाते 70 साल हो गए लेकिन कोई हमें बताए कि सरकारी काम-काज या जन-जीवन में हिंदी क्या एक कदम भी आगे बढ़ी? इसका मूल कारण यह है कि हमारे नेता नौकरशाहों के नौकर हैं। वे दावा करते हैं कि वे जनता के नौकर हैं। चुनावों के दौरान जनता के आगे वे नौकरों से भी ज्यादा दुम हिलाते हैं लेकिन वे ज्यों ही चुनाव जीतकर कुर्सी में बैठते हैं, नौकरशाहों की नौकरी बजाने लगते हैं। भारत के नौकरशाह हमारे स्थायी शासक हैं। उनकी भाषा अंग्रेजी है। देश के कानून अंग्रेजी में बनते हैं, अदालतें अपने फैसले अंग्रेजी में देती हैं, ऊंची पढ़ाई और शोध अंग्रेजी में होते हैं, अंग्रेजी के बिना आपको कोई ऊंची नौकरी नहीं मिल सकती। क्या हम हमारे नेताओं और सरकार से आशा करें कि हिंदी-दिवस पर उन्हें कुछ शर्म आएगी और अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग पर वे प्रतिबंध लगाएंगे? यह सराहनीय है कि नई शिक्षा नीति में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषाओं के माध्यम को लागू किया जाएगा लेकिन उच्चतम स्तरों से जब तक अंग्रेजी को विदा नहीं किया जाएगा, हिंदी की हैसियत नौकरानी की ही बनी रहेगी। हिंदी-दिवस को सार्थक बनाने के लिए अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग पर प्रतिबंध की जरुरत क्यों है? इसलिए नहीं कि हमें अंग्रेजी से नफरत है। कोई मूर्ख ही होगा जो किसी विदेशी भाषा या अंग्रेजी से नफरत करेगा। कोई स्वेच्छा से जितनी भी विदेशी भाषाएं पढ़ें, उतना ही अच्छा! मैंने अंग्रेजी के अलावा रुसी, जर्मन और फारसी पढ़ी लेकिन अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखा। 55 साल पहले देश में हंगामा हो गया। संसद ठप्प हो गई, क्योंकि दिमागी गुलामी का माहौल फैला हुआ था। आज भी वही हाल है। इस हाल को बदलें कैसे? हिंदी-दिवस को सारा देश अंग्रेजी-हटाओ दिवस के तौर पर मनाए! अंग्रेजी मिटाओ नहीं, सिर्फ हटाओ! अंग्रेजी की अनिवार्यता हर जगह से हटाएं। उन सब स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की मान्यता खत्म की जाए, जो अंग्रेजी माध्यम से कोई भी विषय पढ़ाते हैं। संसद और विधानसभाओं में जो भी अंग्रेजी बोले, उसे कम से कम छह माह के लिए मुअत्तिल किया जाए। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह महात्मा गांधी ने कहा था। सारे कानून हिंदी और लोकभाषाओं में बनें और अदालती बहस और फैसले भी उन्हीं भाषाओं में हों। अंग्रेजी के टीवी चैनल और दैनिक अखबारों पर प्रतिबंध हो। विदेशियों के लिए केवल एक चैनल और एक अखबार विदेशी भाषा में हो सकता है। किसी भी नौकरी के लिए अंग्रेजी अनिवार्य न हो। हर विश्वविद्यालय में दुनिया की प्रमुख विदेशी भाषाओं को सिखाने का प्रबंध हो ताकि हमारे लोग कूटनीति, विदेश व्यापार और शोध के मामले में पारंगत हों। देश का हर नागरिक प्रतिज्ञा करे कि वह अपने हस्ताक्षर स्वभाषा या हिंदी में करेगा तथा एक अन्य भारतीय भाषा जरुर सीखेगा। हम अपना रोजमर्रा का काम—काज हिंदी या स्वभाषाओं में करें। भारत में जब तक अंग्रेजी का बोलबाला रहेगा याने अंग्रेजी महारानी बनी रहेगी तब तक आपकी हिंदी नौकरानी ही बनी रहेगी।
महाराष्ट्र की राजनीति में इस वक्त भूचाल आया हुआ है।
जिस प्रकार से बीएमसी ने अवैध बताते हुए नोटिस देने के 24 घंटो के भीतर ही एक अभिनेत्री के दफ्तर पर बुलडोजर चलाया और अपने इस कारनामेकेलिएकोर्टमेंमुंहकीभीखाई उससे राज्य सरकार के लिए भी एक असहज स्थिति उत्पन्न हो गई है। इससे बचने के लिए भले ही शिवसेना कहे कि यह बीएमसी का कार्यक्षेत्र है और सरकार का उससे कोई लेना देना नहीं है लेकिन उसदफ्तरकोतोड़नेकीटाइमिंगइसबयानमेंफिटनहींबैठरही।क्योंकि बीएमसी द्वारा इस कृत्य को ऐसे समय में अंजाम दिया गया है जब कुछ समय से उस अभिनेत्री और शिवसेना के एक नेता के बीच जुबानी जंग चल रही थी। लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पूरीमुंबईअवैधनिर्माणअतिक्रमणऔरजर्जरइमारतोंसेत्रस्तहै। अतिक्रमण की बात करें तो चाहे मुंबई के फुटपाथ हों चाहे पार्क कहाँ अतिक्रमण नहीं है? और जर्जर इमारतों की बात करें तो अभी लगभग दो महीने पहले ही मुंबई में दो जर्जर इमारतों के गिरने से कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और कितने ही घायल हो गए। बरसातकेमौसममेंमुंबईकाडूबनातोअबखबरभीनहींबनतीलोगइसकेआदिहोचुकेहैं। फिर भी कोरोना काल और मानसून के इस मौसम में एक विशेष बिल्डिंग के निर्माण में कानून के पालन को निश्चित करने में बीएमसीकीतत्परतानेपूरेदेशकोआकर्षितकरदिया।
दरअसल यहाँ बात एक अभिनेत्री की नहीं बल्कि बात इस देश के किसी भी नागरिक के संवैधानिक अधिकारों की है। बात किसी तथाकथित अवैध निर्माण को गिरा देने की नहीं है बल्कि बात तो सरकार की अपने देशवासियों के प्रति दायित्वों की है।
हमारे यहाँ कहा जाता है, प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां तु हिते हितं।” अर्थात प्रजाकेसुखमेंराजाकासुखहैप्रजाकेहितमेंराजाकाहितहै।
भारत एक ऐसा देश है जो सदियों ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा और जिसकी पीढ़ियों ने इस आज़ादी के लिए संघर्ष किया। आज जब उस आज़ाद देश में एक ऐसा अपराधी जो मोस्टवांटेडहैउसकीप्रॉपर्टीसीनातानेखड़ीरहतीहैलेकिनएकटैक्सपेयरकीबिल्डिंगतोड़दीजाती है। जब कोर्ट द्वारा उस अपराधी की 80 साल पुरानी जर्जर एवं अवैध बिल्डिंग को नेस्तनाबूद करने के एक साल पुराने आदेश के बावजूद मानसून का हवाला देकर उसे हाथ तक नहीं लगाया जाता। जब 30 सितंबरतककोरोनाकेचलतेकिसीभीतोड़फोड़परसुप्रीमकोर्टद्वारारोकलगाईजानेके बावजूद एक महिला की बिल्डिंग पर बुलडोजर चला दिया जाता है। जब सरकार विरोधी रिपोर्टिंग करने के कारण कुछ पत्रकारों को जेल में डाल दिया जाता है।जब सोशल मीडिया पर सरकार विरोधी कुछ सामग्री पोस्ट करने के कारण किसी दल विशेष के कार्यकर्ता एक पुर्वनौसेनाअधिकारीपरहिंसकआक्रमणकरतेहैं। तो एकआमआदमीकीनज़रमेंअभिव्यक्तिकीआज़ादी, लोकतांत्रिकमूल्यों, संविधानकेप्रतिआस्था, न्यायालयकेआदेशोंकासम्मानजैसेशब्दोंकीनींवहीहिलजातीहै।आजजबउसदेशमेंएकमहिलाकेलिएसत्तारूढ़दलकेएकनेताद्वाराआपत्तिजनकशब्दोंकाप्रयोगकियाजाताहैतोजिनमहिलाअधिकारोंमहिलासशक्तिकरणमहिलाअस्मिताजैसेशब्दोंकाप्रयोगतथाकथितलिबरलसद्वाराकियाजाताहैउनशब्दोंकाखोखलापनउभरकरसामनेआजाताहै।
राजनैतिक दृष्टि से भी महाराष्ट्र सरकार द्वारा उठाए जा रहे यह कदम अपरिपक्वता ही दर्शाते हैं। क्योंकि कंगना को भी पूरी तरह सही नहीं कहा जा सकता। जिस प्रकार की भाषा और जिन तेवरों का प्रयोग वो महाराष्ट्र और वहाँ की सरकार के लिए लगातार कर रही थीं वो निश्चित ही अपमानजनक थे। हो सकता है वो जानबूझकर किसी मकसद से ऐसा कर रही हों। लेकिन सत्ता में रहते हुए गुंडागर्दी करना किसी भी परिस्थिति में जायज नहीं ठहराए जा सकते।महाराष्ट्र सरकार की गलती यही रही कि वो कंगना की चाल में फंस गई और कंगना ने पब्लिक की सहानुभूति हासिल कर ली। जबकि महाराष्ट्र सरकार अगर राजनैतिक दूरदृष्टि और समझ रखती तो कंगना की इस राजनीति का जवाब राजनीति से देती अपशब्दों और हिंसा से नहीं।इसप्रकारकीहरकतोंसेशिवसेनानेअपनाकितनानुकसानकियाहैउसेशायदअंदाज़ाभीनहींहै।कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाना, सुशांत केस में महाराष्ट्र पुलिस की कार्यशैली, और अब कंगना के बयानों पर हिंसक प्रतिक्रिया।
कहते हैं लोकतंत्रमेंजनभावनाओंकोसमझनाहीजीतकीकुंजीहोतीहैलेकिनशिवसेनालगातारअपनेपैरोंपरकुल्हाड़ीमाररहीहै। 1966 में बनी एक पार्टी जिसकी पहचान आजतक केवल एक क्षेत्रीय दल के रूप में है। वो पार्टी जो अपने ही गढ़ महाराष्ट्र में भी एक अल्पमत की सरकार चला रही है। ऐसी पार्टी जो आजतक महाराष्ट्र से बाहर अपनी जमीन नहीं खड़ी कर पाई। एक ऐसी पार्टी जिसकी लोकसभा में उपस्थित मात्र 3.3% है, अपनी इन हरकतों से कहीं महाराष्ट्र में भी अपनी बची कुची जमीन ना गंवा बैठे।
दूरदर्शन, इस एक शब्द के साथ न जाने कितने दिलों की धड़कन आज भी धड़कती है। आज भी दूरदर्शन के नाम से न जाने कितनी पुरानी खट्टी-मिट्ठी यादों का पिटारा हमारी आँखों के सामने आ जाता है। दूरदर्शन के आने के बाद पिछले साठ वर्षों में न जाने कितनी पीढ़ियों ने इसके क्रमिक विकास को जहाँ देखा है वही अपने व्यक्तिगत जीवन में इसके द्वारा प्रसारित अनेकों कार्यक्रमों व उसके संदेशों का अनुभव भी किया है। दूरदर्शन के पिछले छह दशकों की यात्रा गौरवपूर्ण रही है। सूचना, संदेश व मनोरंजन के साथ – साथ पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य भी दूरदर्शन ने बखूबी निभाया है। आज भी दूरदर्शन चौबीस घंटे के प्राइवेट चैनलों की भीड़ व बिना सिर पैर की ख़बरों के बीच अपनी प्रासंगिकता व कार्यशैली के कारण अडिग रुप से खड़ा है।
आज दूरदर्शन का जन्मदिन है। यानि 15 सितंबर 1959 में प्रारंभ हुआ दूरदर्शन, आज 61 साल का हो गया है। किसी भी मीडिया के लिए इतना लंबा कालखंड बहुत मायने रखता है। ऐसे में देश की 130 करोड़ जनसंख्या दूरदर्शन के सफ़ल भविष्य की कामना करती है। यह अपनी पहचान को इसी प्रकार कायम रखते हुए, अपने लक्ष्यों से बिना डगमगाए नए कीर्तिमान स्थापित करता रहे। आज ही के दिन सन 1959 में दूरदर्शन का पहला प्रसारण प्रयोगात्मक आधार पर आधे घंटे के लिए शैक्षिक व विकास कार्यक्रमों के आधार पर किया गया था। उस दौर में दूरदर्शन का प्रसारण सप्ताह में सिर्फ तीन दिन आधे –आधे घंटे के लिए होता था। उस समय इसको ‘टेलीविजन इंडिया’ नाम दिया गया था। बाद में 1975 में इसका हिन्दी नामकरण ‘दूरदर्शन’ नाम से किया गया।
प्रारंभ के दिनों में पूरे दिल्ली में 18 टेलीविजन सेट और एक बड़ा ट्रांसमीटर लगा था। तब लोगों के लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था। तत्पश्चात दूरदर्शन ने अपने क्रमिक विकास की यात्रा शुरू की और दिल्ली (1965), मुम्बई (1972), कोलकाता (1975), चेन्नई (1975) में इसके प्रसारण की शुरुआत हुई। शुरुआत में तो दूरदर्शन यानी टीवी दिल्ली और आसपास के कुछ क्षेत्रों में ही देखा जाता था। लेकिन अस्सी के दशक को दूरदर्शन की यात्रा में एक ऐतिहासिक पड़ाव के रुप में देखा जा सकता है। इस समय में दूरदर्शन को देश भर के शहरों में पहुँचाने की शुरुआत हुई और इसकी वजह थी 1982 में दिल्ली में आयोजित किए जाने वाले एशियाई खेल। एशियाई खेलों के दिल्ली में होने का एक लाभ यह भी मिला कि ब्लैक एंड वाइट दिखने वाला दूरदर्शन अब रंगीन हो गया था।
आज की नई पीढ़ी जो प्राइवेट चैनलों के दौर में ही बड़ी हुई है या हो रही है। उसे दूरदर्शन के इस जादू या प्रभाव पर यकीन न हो, पर वास्तविकता यही है कि दूरदर्शन के शुरुआती कार्यक्रमों की लोकप्रियता का मुकाबला आज के तथाकथित चैनल के कार्यक्रम शायद ही कर पाएं। फिर चाहे वो ‘रामायण’ हो, ‘महाभारत’, ‘चित्रहार’ हो या कोई फिल्म, ‘हम लोग’ हो या ‘बुनियाद’, इनके प्रसारण के वक्त जिस तरह लोग टीवी से चिपके रहते थे, वह सचमुच अनोखा था। उस दौर में दूरदर्शन ने पारिवारिक संबंधों को वास्तविक रूप में चरितार्थ करके दिखाया। दूरदर्शन पर शुरु हुआ पारिवारिक कार्यक्रम ‘हम लोग’ जिसने लोकप्रियता के तमाम रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। इसके बाद शुरु हुआ भारत और पाकिस्तान के विभाजन की कहानी पर बना ‘बुनियाद’ जिसने विभाजन की त्रासदी को उस दौर की पीढ़ी से परिचित कराया। इस धारावाहिक के सभी किरदार फिर चाहे वो आलोक नाथ (मास्टर जी) हो, अनीता कंवर (लाजो जी) हो, विनोद नागपाल हो या फिर दिव्या सेठ, ये सभी घर – घर में लोकप्रिय हो चुके थे। इसके इलावा 1980 के दशक में प्रसारित होने वाले मालगुडी डेज़, ये जो है जिंदगी, रजनी, ही मैन, वाह जनाब, तमस, बुधवार और शुक्रवार को 8 बजे दिखाया जाने वाला फिल्मी गानों पर आधारित चित्रहार, रविवार को दिखाई जाने वाली फ़िल्म, भारत एक खोज, व्योमकेश बक्शी, विक्रम बैताल, टर्निंग प्वाइंट, अलिफ लैला, शाहरुख़ खान की फौजी, रामायण, महाभारत, देख भाई देख आदि सूचना-संदेश व मनोरंजन से परिपूर्ण दूरदर्शन के इन सभी कार्यक्रमों ने देश भर में अपने प्रभाव व जादू से लोगों के मनों में एक अमिट छाप छोड़ी। वास्तव में उस समय लोगों के दिलों पर दूरदर्शन का राज चलता था।
मनोरंजन के साथ – साथ दूरदर्शन ने सदैव लोगों को शिक्षित व नैतिक बातों के आग्रह के लिए भी प्रेरित किया है और इसके लिए अपनी अहम भूमिका निभाई है। मीडिया में एजुटेंमेंट को स्थापित करने का श्रेय भी दूरदर्शन को ही जाता है। अगर विज्ञापनों की बात करें तो ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ ने जहाँ समाज को एकता के संदेश के साथ जोड़ा, वहीं ‘बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर’ के द्वारा अपनी व्यावसायिक क्षमता का परिचय भी करवाया। कृषि प्रधान देश भारत में किसानों तक अपनी सीधी पहुँच बनाने में भी दूरदर्शन सफ़ल रहा। सन 1966 में ‘कृषि दर्शन’ कार्यक्रम के द्वारा देश में हरित क्रांति के सूत्रपात का केंद्र बिंदु भी दूरदर्शन ही बना। सूचना देने के उद्देश्य से 15 अगस्त 1965 को प्रथम समाचार बुलेटिन का प्रसारण दूरदर्शन से किया गया था और यह सफ़र आज भी निरंतर जारी है।
कोरोना के इस दौर में भी हम सबने दूरदर्शन की सफ़लता व कीर्तिमान को एक बार फिर महसूस किया है। पिछले कुछ महीनों में अस्सी के दशक में दिखाये जाने वाले कार्यक्रमों का पुन: प्रसारण रामायण, महाभारत, कृष्णा आदि को हमने परिवार के साथ बैठ कर पूरे मनोयोग से देखा है। पिछले साठ वर्षों से अब तक दूरदर्शन ने जो विकास यात्रा तय की है वह काफी प्रेरणादायक है। तकनीक व संचारक्रांति के इस समय में भी 93 प्रतिशत से अधिक घरों में दूरदर्शन की पहुँच बनी हुई है। आज भी हर एक भारतीय को इस पर गर्व है कि उसके पास दूरदर्शन के रूप में टेलीविजन का गौरवशाली इतिहास मौजूद है। आज भी प्राइवेट चैनलों व निजी मीडिया घरानों के बीच में दूरदर्शन सबसे बड़ा, सबसे सक्षम और सबसे अधिक उत्तरदायी चैनल समूह के रूप में अपनी भूमिका को निभा रहा है। वास्तव में अर्थपूर्ण व समसामयिक कार्यक्रमों और भारतीय संस्कृति को बचाए रखते हुए देश की भावनाओं को स्वर देने का काम दूरदर्शन ने ही किया है। प्रारंभ से लेकर आज तक दूरदर्शन ने अपने स्थापित मूल्यों व लक्ष्यों को न केवल प्राप्त किया है बल्कि उनकी सार्थकता को कायम भी रखा है। आज दूरदर्शन के स्थापना दिवस पर इसकी सार्थकता, सामयिकता, पहुँच व नवाचार आधारित प्रयोगधर्मिता इसी प्रकार अक्षुण्ण बनी रहे, यही कामना व संदेश।
आलोचना और विद्रूपता के बीच एक बहुत पतली रेखा है। स्वतंत्रता का एक मूल सिद्धांत यह है कि आप कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं जो मेरी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करता है। अवमानना का कानून नया नहीं है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा के इरादे से इसे लागू किया गया है जो लोकतंत्र का मुख्य आधार है। श्री प्रशांत भूषण एक बहुत ही वरिष्ठ और प्रसिद्ध वकील हैं, जिन्हें पीआईएल वकील के रूप में जाना जाता है और उन्होंने जनहित में कई महत्वपूर्ण मामलों जैसे कोयला घोटाला, 2 जी घोटाला आदि के खिलाफ लड़ाई लड़। उन्हें आलोचना और अवमानना की पतली विभाजन रेखा के बारे में अनभिज्ञ नहीं माना जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने श्री प्रशांत भूषण को अवमानना के लिए दोषी ठहराया और प्रभावशाली व्यक्तियों के एक विशेष समूह ने न्यायपालिका के केंद्रीय स्तंभ को फिर से हिलाना शुरू कर दिया। यह प्रभावशाली व्यक्तियों का एक समूह है, जो हमेशा अपने हाथ में शक्तियों को रखना चाहते हैं और न्यायपालिका को अपने तरीके से नियंत्रित और चलाना चाहते हैं। हाल के दिनों में उन्होंने सबसे पहले एक आम इरादे से जस्टिस दीपक मिश्रा और फिर जस्टिस रंजन गोगोई को फंसाने की पूरी कोशिश की। श्री प्रशांत भूषण का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता को हाल ही में आभासी अदालत में सुनवाई के दौरान हुक्का पीते हुए देखा गया है, जो दर्शाता है कि न्यायपालिका के लिए उनका कितना सम्मान है। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के समय में उन्होंने वरिष्ठ अधिवक्ता का गाउन उतर कर रख दिया था लेकिन बाद में इसे फिर पहन लिया था।
मुझे याद है कि पिछले साल मैं चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की संगोष्ठी में भाषण दे रहा था। उस संगोष्ठी में एक व्यक्ति ने मुझसे एक सवाल पूछा “जनता की नज़र में न्यायपालिका विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय की बिगड़ती छवि के कारण क्या हैं”। चूंकि मैं एक ही बिरादरी से हूं, इसलिए मैंने उस समय यह स्वीकार नहीं किया कि हमारी न्यायपालिका की छवि बिगड़ रही है, लेकिन उस घटना ने मुझे कारणों के बारे में सोचने के लिए मजबूर किया और आज मैं दृढ़ता से कह सकता हूं कि वरिष्ठ वकीलों और मीडिया का एक विशेष समूह हमारी न्यायपालिका को धीरे-धीरे इस स्तर तक ले आए।
यह अच्छी तरह से तय है कि भारत में हम सभी संविधान द्वारा शासित हैं और सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता और न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है। कानून की सर्वोच्चता और सर्वोच्च न्यायालय पर हमले नए नहीं हैं। स्वतंत्रता के तुरंत बाद एक विशेष विचार के एक समूह ने सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना शुरू कर दी और इसके परिणामस्वरूप माननीय सर्वोच्च न्यायालय की 5 न्यायाधीशों की पीठ को वर्ष 1953 में ही ब्रह्म प्रकाश शर्मा के मामले में अवमानना के मुद्दे पर निर्णय देना पड़ा।
यहाँ यह समझना आवश्यक है कि अवमानना के लिए दंडित करने के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियां क्या हैं। हल ही में विजय कुरले (2020 एससीसी ऑनलाइन एससी 407) के मामले में संविधान पीठ के हालिया फैसले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे अच्छी तरह से स्थापित और अनुमोदित किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट को अपनी अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति का स्रोत न्यायालय की अवमानना अधिनियम, १९७१ की धारा 15 से नहीं है, बल्कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 129 और 142 में प्रदत्त है। संविधान के अनुच्छेद १९(१) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार कोई निरंकुश अधिकार नहीं है अपितु यह अनुच्छेद १९(२) में दी गयी शर्तों के आधीन है, जिसमे न्यायालय की अवमानना भी एक है।
न्यायालय की अवमानना अधिनियम, १९७१ की धारा २ (ग) में आपराधिक अवमण्णा को परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार आपराधिक अवमानना का अर्थ है प्रकाशन (चाहे वह शब्द, बोले या लिखे गए, या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा) किसी भी मामले या किसी अन्य कार्य को करने से है जो किसी अदालत के अधिकार को कम करने या किसी न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करता है या बाधा डालता है या बाधा डालता है या किसी अन्य तरीके से न्याय प्रशासन में बाधा डालने का प्रयास करता है, हांलांकि धारा ३ के अनुसार सच्चे तथ्यों का निर्दोष प्रकाशन अवमानना की परिभाषा में नहीं आता।
आलोचना और अवमानना या गाली-गलौज या अभद्रता के बीच के अंतर को आम आदमी समझ सकता है जबकि श्री प्रशांत भूषण एक जाने-माने वकील और राजनीतिज्ञ हैं लेकिन समस्या यह है कि उन्हें विवादों में रहना पसंद है। यह पहली बार नहीं है जब वो किसी विवाद या अवमानना में घिरे हों लेकिन हर बार न्यायाधीशों द्वारा उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। जस्टिस दीपक मिश्रा या जस्टिस रंजन गोगोई या जस्टिस खेहर के सामने उनका व्यवहार वकीलों के बिरादरी के सदस्यों द्वारा बहुत अच्छी तरह से देखा गया था, लेकिन चूंकि उन घटनाओं को कहीं भी प्रकाशित नहीं किया गया था, उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई थी। लेकिन इस बार उत्साह में उन्होंने ट्विटर पर अपने बीमार विचारों को प्रकाशित किया और न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के ध्यान में आया और श्री प्रशांत भूषण का पतन शुरू हो गया।
१४.८.२०२० के निर्णय में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों वाली बेंच में न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी ने श्री प्रशांत भूषण को सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना का दोषी ठहराया तथा इस 108 पृष्ठों के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत की अवमानना से संबंधित कानून का विस्तार से वर्णन किया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस स्थिति को दोहराया, कि न्यायाधीश, न्यायपालिका की संस्था और उसके कामकाज के निष्पक्ष आलोचना अवमानना नहीं है, अगर यह अच्छे विश्वास और सार्वजनिक हित में की गई है। इसमें कोई संदेह नहीं है, कि जब एक न्यायाधीश के खिलाफ एक व्यक्ति के रूप में बयान दिया जाता है, तो अवमानना क्षेत्राधिकार उपलब्ध नहीं होगा। हालांकि, जब एक न्यायाधीश के रूप में एक न्यायाधीश के खिलाफ बयान दिया जाता है और जिसका न्याय प्रशासन में प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, तो न्यायालय अवमानना अधिकार क्षेत्र को लागू करने के लिए निश्चित रूप से हकदार होगा। इसमें कोई संदेह नहीं है, कि अनुच्छेद 19 (1) के तहत निष्पक्ष आलोचना के अधिकार का उपयोग करते हुए, यदि कोई नागरिक सार्वजनिक हित में अधिकार से अधिक है, तो यह न्यायालय अवमानना अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने में और धीरता दिखाने में धीमा होगा। हालाँकि, जब न्यायपालिका की छवि खराब करने के लिए इस तरह के बयान की गणना की जाती है, तो अदालत मूक दर्शक नहीं बनी रहेगी। जब इस न्यायालय का अधिकार ही हमले के अधीन है, तो न्यायालय एक दर्शक नहीं होगा।
प्रशांत भूषण के पहले ट्वीट का पहला हिस्सा बताता है कि, CJI राजभवन, नागपुर में एक मास्क या हेलमेट के बिना एक भाजपा नेता से संबंधित 50 लाख मोटरसाइकिल की सवारी करते हैं। ट्वीट के इस हिस्से को एक व्यक्ति के रूप में CJI के खिलाफ की गई आलोचना कहा जा सकता है और CJI के खिलाफ CJI के रूप में नहीं। हालांकि, ट्वीट का दूसरा हिस्सा बताता है, ‘ऐसे समय में जब वह SC को लॉकडाउन मोड में रखता है और नागरिकों को न्याय प्राप्त करने के उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करता है’। निर्विवाद रूप से, कथन का उक्त हिस्सा CJI की भारत के मुख्य न्यायाधीश यानी देश की न्यायपालिका के प्रशासनिक प्रमुख के रूप में उनकी क्षमता की आलोचना करता है। सबसे पहले, यह ध्यान दिया जाएगा, कि जिस तारीख पर CJI द्वारा मोटरबाइक पर सवारी करने का आरोप लगाया गया है, वह उस अवधि के दौरान है जब सुप्रीम कोर्ट गर्मियों की छुट्टी पर था। किसी भी मामले में, यहां तक कि उक्त अवधि के दौरान, न्यायालय के अवकाश बेंच नियमित रूप से कार्य कर रहे थे। उक्त ट्वीट में यह धारणा दी गई है कि भारतीय न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में CJI ने सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन मोड में रखा है, जिससे नागरिकों को न्याय प्राप्त करने के उनके मौलिक अधिकार से वंचित रखा गया है। किसी भी मामले में, सर्वोच्च न्यायालय लॉकडाउन में है, कथित रूप से कथित विचारक नंबर 1 के ज्ञान के लिए भी गलत है। यह एक सामान्य ज्ञान है, कि COVID-19 महामारी के कारण न्यायालय के शारीरिक कामकाज को निलंबित किया जाना आवश्यक था। यह सुप्रीम कोर्ट में महामारी के प्रकोप को रोकने के लिए था। हालांकि, शारीरिक सुनवाई के निलंबन के तुरंत बाद, कोर्ट ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से काम करना शुरू कर दिया। २३.३.२०२० से ४.८.२०२० तक, अदालत की विभिन्न बेंच नियमित रूप से बैठी रही हैं और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रही हैं। विभिन्न पीठों की कुल संख्या २३.३.२०२० से ४.८.२०२० तक ८७९ है। इस अवधि के दौरान न्यायालय ने १२७४८ मामलों की सुनवाई की है। उक्त अवधि में, इस न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद ३२ के तहत दायर ६१६ रिट याचिकाएँ निपटायी । विचारक खुद वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से कई मामलों में कई अवसरों पर दिखाई दिया है। इतना ही नहीं, बल्कि उनकी व्यक्तिगत क्षमता में भी अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका में इस अदालत ने सुनवाई की है। अतः इस तरह के आरोप लगाना जिससे एक धारणा बनती है, कि CJI एक महंगी बाइक की सवारी करने का आनंद ले रहा है, जबकि वह SC को लॉकडाउन मोड में रखता है और जिससे नागरिकों को न्याय तक पहुँचने के अपने मौलिक अधिकार से वंचित करता है, निस्संदेह गलत, दुर्भावनापूर्ण और निंदनीय है। इसमें न्यायपालिका और CJI की संस्था में बड़े पैमाने पर जनता के विश्वास को झकझोरने की प्रवृत्ति है और न्याय प्रशासन की गरिमा और अधिकार को कम करके आंका गया है।
प्रशांत भूषण का दूसरा ट्वीट तीन अलग-अलग हिस्सों में है। उनके अनुसार, ट्वीट के पहले भाग में उनके विचार हैं, कि पिछले छह वर्षों के दौरान भारत में लोकतंत्र काफी हद तक नष्ट हो गया है। दूसरा हिस्सा उनकी राय है, कि सुप्रीम कोर्ट ने लोकतंत्र को नष्ट करने की अनुमति देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और तीसरा भाग अंतिम 4 मुख्य न्यायाधीश की भूमिका के बारे में उनकी राय हैं। न्यायलय ने माना की यह सामान्य ज्ञान है, कि आपातकालीन युग को भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे काला युग माना गया है। उक्त ट्वीट से यह सन्देश जाता हैं कि जब भविष्य के इतिहासकार पीछे मुड़कर देखेंगे, तो उन्हें जो धारणा मिलेगी, वह यह है कि पिछले छह वर्षों में भारत में एक औपचारिक आपातकाल के बिना भी लोकतंत्र नष्ट हो गया है और उक्त विनाश में सर्वोच्च न्यायालय की विशेष भूमिका थी और भारत के अंतिम चार मुख्य न्यायाधीशों की उक्त विनाश में अधिक विशेष भूमिका थी। यह स्पष्ट है, कि आलोचना पूरे सुप्रीम कोर्ट और अंतिम चार CJI के खिलाफ है। आलोचना किसी विशेष न्यायाधीश के खिलाफ नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय की संस्था और भारत के मुख्य न्यायाधीश की संस्था के खिलाफ है। कथित विचारक द्वारा किए गए भयावह / दुर्भावनापूर्ण हमले न केवल एक या दो न्यायाधीशों बल्कि पिछले छह वर्षों के अपने कामकाज में पूरे सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ हैं। इस न्यायालय के अधिकार के प्रति असहमति और अनादर पैदा करने वाले ऐसे हमले को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। कथित विचारक ने सुप्रीम कोर्ट की पूरी संस्था को बदनाम करने का प्रयास किया है।
यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि अनुच्छेद 19 (1) के तहत अधिकार का प्रयोग करते हुए एक नागरिक एक न्यायाधीश, न्यायपालिका और उसके कामकाज की निष्पक्ष आलोचना करने का हकदार है। हालाँकि, अनुच्छेद 19 (1) के तहत अधिकार अनुच्छेद 19 के खंड (2) के तहत प्रतिबंध के अधीन है। यदि अनुच्छेद 19 (1) के तहत अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए कोई नागरिक सीमा से अधिक है और एक बयान देता है, जो न्यायाधीशों को डराता है और न्याय के प्रशासन की संस्था, ऐसी कार्रवाई अदालत की अवमानना के दायरे में आएगी। यदि कोई नागरिक ऐसा बयान देता है, जो इस न्यायालय की गरिमा और अधिकार को कम करने की कोशिश करता है, तो वही आपराधिक अवमानना ’के दायरे में आएगा। जब इस तरह का बयान न्यायिक संस्थानों में जनता के विश्वास को हिला देता है, तो वह आपराधिक अवमानना के दायरे में भी आएगा।
१४.८.२०२० के निर्णय के बाद, न्यायालय ने एक अवसर दिया श्री प्रशांत भूषण को माफी मांगने के लिए दिया लेकिन इसके बजाय उन्होंने अपने पक्ष में २०.८.२०२० को शपथपत्र दायर किया और माननीय उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त और वर्तमान न्यायाधीशों के विरुद्ध विस्तार से आरोप लगाए और वह शपथपत्र मीडिया में भी दिया तथा इस मामले में अपने रुख का समर्थन करने के लिए मीडिया में साक्षात्कार भी देना शुरू कर दिया। एक तरह से प्रशांत भूषण ने साड़ी नैतिकता और कानूनों को टाक पर रखकर सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोच्चता को ही चुनौती दे डाली। श्री प्रशांत भूषण ऐसा व्यवहार कर रहे थे जैसे वे मीडिया और जनता से निर्णय चाहते हैं न कि न्यायालय से और इसके लिए उन्होंने महात्मा गांधी तक से अपनी तुलना कर डाली ।
श्री प्रशांत भूषण के अपने शपथपत्र में दिए गए बयान इतने निंदनीय थे कि उनके स्वयं के वकील श्री दुष्यंत दवे ने ५.८.२०२० पर उनके लिए बहस करते हुए, उन कथनो को यह कहकर पढ़ने से इंकार कर दिया कि यह इस न्यायालय की प्रतिष्ठा को खराब करेगा। विचारक के अन्य वकील श्री राजीव धवन ने भी न्यायालय में यह कहा कि मीडिया में २४.८.२०२० के पूरक बयान का व्यापक प्रकाशन और मीडिया में साक्षात्कार देना विचारक की ओर से उचित नहीं था। हालाँकि इस सबके बाद भी भारत के महान्यायवादी श्री के.के. वेणुगोपाल ने अदालत से अनुरोध किया कि वह श्री प्रशांत भूषण पर कोई भी दंड न लगाए किन्तु प्रशांत भूषण ने अपने शपथपत्र में दिए गए कथनो को वापस लेने से साफ़ इंकार कर दिया जबकि इस तरह के बयान, जो अतीत और वर्तमान मुख्य न्यायाधीशों सहित सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न वर्तमान और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के संबंध में थे, पूरी तरह से अनुचित थे, खासकर तब जब सेवानिवृत्त या वर्तमान न्यायाधीश खुद का बचाव करने की स्थिति में नहीं थे। इस तरह के न्यायाधीशों की सुनवाई के बिना कोई भी फैसला पारित नहीं किया जा सकता है, और इस तरह, प्रक्रिया अंतहीन होगी।
विचारक के मुख्य विवाद में से एक यह भी था कि उसने कई सार्वजनिक हित मुकदमों को सफलतापूर्वक लड़ा है। हाल ही में तहसीन पूनावाला बनाम भारत संघ और एक और (२०१८) ६ एससीसी ७२ के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जनहित याचिका का बहुत दुरुपयोग किया जा रहा हैं और यह न्यायिक प्रक्रिया के लिए एक गंभीर विषय था। न्यायालय गलत तरीके से दायर ऐसी जनहित याचिकाओं से भरा पड़ा है, व्यक्तिगत, व्यावसायिक या राजनीतिक एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए दायर की गयी हैं । ऐसी याचिकाएँ न्यायिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता के लिए गंभीर खतरा हैं। यह देखा गया कि इससे अन्य संस्थानों की विश्वसनीयता को खतरे में डालने और लोकतंत्र और कानून के शासन में जनता के विश्वास को कम करने की प्रवृत्ति है।
अदालत ने आगे कहा कि विचारक द्वारा किया गया कृत्य बहुत गंभीर है। उन्होंने न्याय के प्रशासन की संस्था की प्रतिष्ठा को बदनाम करने का प्रयास किया है, जिसके वे खुद एक हिस्सा हैं। विचारक ने प्रस्तुत किए गए दूसरे वक्तव्य को न केवल व्यापक प्रचार दिया बल्कि एक लंबित मामले के संबंध में विभिन्न साक्षात्कार दिए, जिससे इस अदालत की प्रतिष्ठा को नीचे लाने का प्रयास किया गया। अगर हम इस तरह के आचरण का संज्ञान नहीं लेते हैं तो यह देश भर के वकीलों और नागरिकों को गलत संदेश देगा। हालाँकि श्री प्रशांत भूषण के खिलाफ सब कुछ साबित होने के बाद भी, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी महानता दिखते हुए प्रशांत भूषण पर कोई जुर्माना नहीं लगाया लेकिन उन्हें केवल १ रुपये के जुर्माने के साथ छोड़ दिया, जिस पर देश के लोग पूछने लगे हैं कि क्या यह जुर्माना लोकतांत्रिक दुनिया की सबसे शक्तिशाली अदालत की अवमानना के लिए भविष्य के सभी मामलो के लिए एक नज़ीर के रूप में रहेगा, या यह केवल किसी विशेष व्यक्ति के लिए विशिष्ट है।
यहाँ पर प्रशांत भूषण से जुड़े कुछ ऐसे विवादों एवं ट्वीटों का उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है, जिन्होंने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया, उनमें से कुछ हैं:
(i) श्री प्रशांत भूषण के खिलाफ आरोप हैं कि वह व्यक्तियों / संगठनों के खिलाफ अनाम शिकायतें करते हैं और फिर इनका उपयोग जनहित याचिकाएँ दायर करने के लिए करते हैं। एक बार जब उन्हें भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश माननीय न्यायमूर्ति टी एस ठाकुर ने भी पीआईएल केंद्र चलाने के लिए खींचा था ।
(ii) जैन हवाला केस में पत्रकार विनीत नारायण ने श्री प्रशांत भूषण पर मामले को पटरी से उतारने के लिए आरोप लगाए।
(iii) हिमाचल भूमि घोटाले -1 में श्री प्रशांत भूषण पर हिमाचल के सुरक्षित अधिवास के लिए गलत हलफनामा दायर करके संपत्ति हासिल करने का आरोप लगाया गया था।
(iv) हिमाचल भूमि घोटाले -2 में कुमुद भूषण एजुकेशनल सोसाइटी, जिसके अध्यक्ष प्रशांत भूषण थे, पर आरोप था की उसने कांगड़ा जिले में 122 कनाल (15.25 एकड़) चाय बागान इस शर्त के साथ ख़रीदा की वह 2 साल के भीतर एक शैक्षणिक संस्थान स्थापित करेगा, जबकि वहाँ उस समय गैर-कृषकों को राज्य में चाय बागानों की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध था और इसके बाद भी कोई स्कूल या कॉलेज स्थापित नहीं किया गया था।
(v) इलाहाबाद में स्टांप ड्यूटी चोरी मामले में इलाहाबाद के सिविल लाइंस इलाके में श्री प्रशांत भूषण के पिता के 20 करोड़ मूल्य के घर में स्टैम्प ड्यूटी से बचने के लिए नियमो की घोर अवहेलना की गई और भूस्वामियों पर 1.3 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया।
(vi) नोएडा फार्म हाउस मामले में प्रशांत भूषण के खिलाफ आरोप लगे की उन्होंने फार्मलैंड खरीदने के लिए स्वयं को कृषक घोषित किया ।
(vii) अरुंधति रॉय मामले में सुप्रीम कोर्ट ने २००२ में प्रशांत भूषण, मेधा पाटकर और अरुंधति रॉय के खिलाफ शीर्ष अदालत के सामने सड़क रोकने और अदालत और न्यायाधीशों के प्रति दुर्व्यवहार करने के लिए अवमानना नोटिस जारी किया। हालांकि, अदालत ने प्रशांत भूषण और मेधा पाटकर के माफीनामे को उनके अधिवक्ताओं श्री राम जेठमलानी और श्री शांति भूषण के माध्यम से स्वीकार कर लिया । माफी मांगने से इनकार करने पर अरुंधति राय को जेल भेज दिया गया।
(viii) बुरहान वानी विवाद में श्री प्रशांत भूषण ने कहा कि ज्यादातर लोगों को संदेह था कि वानी को सुरक्षा बलों ने एक फर्जी मुठभेड़ में मार दिया। उनके इस बयान का घाटी में अलगाववादी समूहों ने बहुत प्रचार किया ।
(ix)२०१७ के एक ट्वीट में प्रशांत भूषण ने भगवन श्री कृष्णा की तुलना सड़क छाप लड़कियां छेड़ने वालों से की थी।
विडंबना यह हैं की इसके बाद भी श्री प्रशांत भूषण पुरे संविधान तथा कानून के विपरीत सर्वोच्च न्यायलय से उक्त निर्णय के विरुद्ध अपील को अधिकार देने की मांग कर रहे हैं और इसके लिए भी साक्षात्कार दे रहे हैं। यहाँ यह बताना आवश्यक हैं की आपराधिक क्षेत्राधिकार तथा अवमानना क्षेत्राधिकार की आपस में तुलना नहीं की जा सकती, दोनों में जमीन आसमान को विरोधाभास हैं, दोनों के लिए अलग अलग क़ानून हैं, अलग अलग नियम तथा अधिनियम हैं, दोनों के लिए अलग अलग शक्तियां तथा प्रक्रियाएं हैं, जिसके लिए किसी अन्य लेख में विस्तार से चर्चा करूँगा।
आजकल पूरी दुनिया कोरोना वाइरस से लड़ रही है और लाखो जाने जा चुकी हैं हमारा देश भी कोविड से बुरी तरह प्रभावित है पर अगर हम मृत्यु दर की तुलना अन्य देशो से करें तो सायद हम अन्य पश्चिमी देशो से बेहतर स्थिति मे हैं और उसके लिए हम कह सकते हैं की इसमे हमारा रहन सहन और खान पान हमे मदद कर रहा है तथा दूसरे देश भी अब हमारे कुछ कल्चर को अपना रहे हैं।
कहने का मतलब की जो देश अब तक हमारी प्रथावों हमारे कल्चर की खिल्ली उड़ाते थे वो अब खुद भी उसे अपना रहे हैं जो उन्हे भी कोरोना से लड़ने मे मदद कर रहा है आज पूरी दुनिया ने हाथ मिलाना बंद करके नमस्ते करना शुरू कर दिया है, योग को तो पहले से ही अपना ही लिया था, शाकाहार का चलन भी बढ़ रहा है, हमारे जैन मुनियों द्वारा अपनाया जाने वाला मास्क आज ग्लोबल बन गया है।
इसके अलावा कोरोना से लड़ने मे लगभग सभी डाक्टर ये मान रहे हैं की हमे अपनी इम्यूनिटी बूस्ट करने की जरूरत है और इसमे जो चीजें हेल्प कर रही हैं वो हमारे रूटीन भोजन का हिस्सा रही है जैसे लहसुन, अदरक, हल्दी, नीबू, दूध, दही, तुलसी आदि, सायद यही कारण है की कोरोना मरीजो की इतनी बड़ी संख्या हो जाने के बाद भी हमारे देश का डेथ रेट अन्य पश्चिमी देशो की तुलना मे बहुत कम है जबकि कोरोना पेसेंट के मामले मे हम दूसरे नंबर पर पहुँच गए हैं अर्थात हमारी परम्पराएँ कितनी समृद्ध रही हैं और हमारे पूर्वजो और ऋषियों मुनियों के अनुभव कितने सार्थक रहे हैं वो सबके सामने है।
लेकिन आज हमारे ही देश मे एक ऐसा वर्ग भी है जो अपनी हर चीज मे कमिया ही ढूँढता है और उसकी हंसी उड़ाता है जबकि वही चीजें जब वापस वेस्टर्न या अमरीका से रिटर्न होकर आती हैं तो उसे अपनाने मे प्राउड फील करता है
जैसे आज के कुछ दशक पहले तक गांवो मे पहने जाने वाले सूती कपड़ो को पिछड़ेपन की निशानी माना जाता रहा है और लोगों को टेरीलीन और पोलिस्टर पहनने की सलाह दी जाती थी जबकि सूती कपड़े की अपनी खूबिया थी वो एकतरह से प्राकृतिक एयर कंडीशन था, अब जब वही सूती कपड़ा वेस्टर्न कंटरीज से काटन बन कर लौटा है तो लोग उसे दुगने – तिगुने दामो मे खरीदते हैं और बड़े गर्व से बताते हैं की ये काटन है। कुछ दशक पहले तक जब खेतों मे किसान अन्न उत्पादन मे गोबर का इस्तेमाल करता था तो उसकी हंसी उड़ाई जाती थी और उसे यूरिया के इस्तेमाल की सलाह दी जाती थी आज जब यूरिया का ड्रा बैक सामने आया लोगों मे बीमारिया बढ्ने लगीं तो लोग ओर्गेनिक फूड की तरफ भाग रहे हैं जो इसी देशी गोबर की खाद की मदद से उगाया जाता है पर अब वो ओर्गेनिक फूड इतना महंगा हो गया है की सब उसे खरीद भी नहीं सकते।
हमारे पूर्वजो ने हमे हरे पेड़ो को काटने से मना किया और इसे धर्म विरुद्ध बताया साथ ही इसका दृढ़ता से पालन करवाने के लिए कुछ अतिलाभकारी वृक्षो की पूजा करना सिखाया तो हमे अंधविश्वासी कहा जाने लगा, जबकि अब सब सेव अर्थ डू प्लांटेशन तथा गो ग्रीन का नारा दे रहे हैं।
इसीतरह हमारी जिस संस्कृत भाषा पर विदेशों मे रिसर्चें हो रहीं हैं और बड़ी बड़ी यूनिवर्सिटी मे संस्कृत की क्लासें चल रही हैं वो हमारे देश से लगभग गायब होने की स्थिति मे पहुँच चुकी है क्योंकि यहाँ हमारी उदासीनता या कहें की पश्चिम का अंधानुकरण करने की वजह से जादातर गुरुकुल बंद हो गए और संस्कृत को सिर्फ मंदिरो और शादी व्याह तक सीमित कर दिया गया जबकि संस्कृत विश्व की न सिर्फ प्राचीनतम भाषा रही है बल्कि साहित्य से लेकर ज्ञान विज्ञान की अनेकों पुस्तकें इसी भाषा मे मौजूद रही हैं,
यही हाल संस्कृत से ही जन्मी हिन्दी का है जो सौभाग्य से दुनिया की तीसरी सबसे जादा बोली जाने वाली भाषा तो है पर हमारी उदासीनता और हीनभावना की वजह से आज ये एक साइंटिफिक और समृध भाषा होते हुये भी आधुनिक शिक्षा की भाषा नहीं बन पा रही जबकि अगर अँग्रेजी से इसके व्याकरण इसकी शब्द संरचना, उच्चारण की तुलना करें तो इंग्लिश इसके सामने कहीं नहीं टिकती, पर आज हमे इसको बचाने के लिए साल मे एक दिन हिन्दी दिवस के रूप मे मनाना पड़ रहा है।
हमे बचपन से ही बताया जाता है इंगलिश सीखो वरना जॉब मिलने मे दिक्कत होगी आगे बढ्ने मे दिक्कत होगी और वो होती भी है क्योंकि हमारे देश मे इंगलिश बोलना ही शिक्षित होना मान लिया गया है, जिससे कितनी प्रतिभाओं को अपनी प्रतिभा साबित करने का मौका ही नहीं मिल पाता जबकि मै जिस बहुराष्ट्रीय जापानी कंपनी मे कार्यरत हूँ उसके बड़े बड़े पदों पर बैठे जापानियों की इंगलिश बहुत अच्छी नहीं है और वो इसे लेकर खुलकर बोलते भी हैं कि “माय इंग्लिश इज नाट गुड सो प्लीज स्पीक वेरी स्लोली” उन्हे अपनी टीम के जूनियर मेंबर्स के सामने भी ऐसा कहने मे जरा सा संकोच नहीं होता और वो आपस मे सदा जापानी मे ही बात करते हैं ये उनका राष्ट्रवाद है, पर कोई भी भारतीय कर्मचारी भले ही वो जूनियर ही हो और जिसकी इंग्लिश सचमुच कमजोर भी होती है ऐसा कहने की सोच भी नहीं सकता क्योंकि ऐसा कहते ही उसकी सारी योग्यता जापानी नहीं बल्कि भारतीय कर्मचारियों की नजर मे संदेह के घेरे मे आ जाएगी।
मेरी कंपनी के कुछ साथी प्रोजेक्ट वर्क के लिए टर्की जाते रहते हैं और वो बताते हैं की टर्किश लोग अपनी भाषा मे ही बात करते हैं और इंग्लिश समझने के लिए इंटरर्प्रेटर (दुभाषिया) रखते हैं जो एक यूरोपियन देश है पर हम अंग्रेज़ो से इतनी दूर हैं हमारी अपनी एक समृद्ध भाषा भी है फिर भी हम लोगों मे इंग्लिश के लिए जिसतरह का पागलपन है वो हमे आगे बढ़ाने की बजाय पीछे कर रहा है।
भारत ने पिछले दिनो चीन के लगभग ढाई तीन सौ मोबाइल एप बैन कर दिये हैं पर आखिर क्या हमने कभी सोचा की जो चीन एक बंद देश है जहां मंदारिन के अलावा कोई और भाषा चलती ही नहीं वह नयी तकनीकी मे इतना आगे कैसे निकल गया? चीन ने अमेरिका का फेसबुक वाटसप गूगल सब बैन कर रखा है पर ऐसा नहीं की वो ये सब बंद करके किसी आदिम युग मे चले गए बल्कि ये सब बैन करके उन्होने अपने विकल्प पैदा किए और वही विकल्प दुनियाभर मे फैला रहे हैं, वो ऐसा कर सके क्योंकि उनके यहाँ सारी रिसरचें उनकी अपनी भाषा मे होती हैं उनकी सारी किताबें उनकी अपनी भाषा मे उपलब्ध हैं।
सवाल ये है की दुनिया की सबसे अच्छी अँग्रेजी बोलने वालों मे शामिल भारत मे ऐसा कुछ क्यों नहीं हुआ मेरा मानना है की इसकी बड़ी वजह अँग्रेजी ही रही है क्योंकि हमारे देश मे विद्वान उसे ही मान लिया जाता है जो अच्छी अंग्रेसी बोलता है, जिसे अँग्रेजी नहीं आती या कम आती है वो खुद को और अपने इनोवेटिव विचारों को लेकर अक्सर हीनभावना का शिकार रहता है और उसे पब्लिकली व्यक्त करने से भी बचता है। शायद यही सब कारण रहे हैं जो हमारे देश की सारी साफ्टवेयर क्रान्ति भी ठेके पर नौकरी करनेवाली ही है जहां अच्छी अँग्रेजी बोलने वाले तो मिलेंगे पर इनोवेशन मे सब जीरो हैं, हमारे यहाँ टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो जैसी कंपनियाँ तो बनी पर एक ऐसा सॉफ्टवेयर न बन पाया जो दुनिया मे भारत की पहचान बन पाता जबकि कहने को हम आई॰ टी॰ मे सुपर पावर हैं पर इस्तेमाल ओरेकल, सैप, फेसबुक, वाट्सअप, माइक्रोसॉफ्ट आदि का ही करते हैं।
हमारे देश मे विद्यार्थियों का सारा ज़ोर ज्ञान प्राप्त करने से जादा इंग्लिश भाषा सीखने पर होता है, क्योंकि उसे समाज मे घर मे हर जगह इंग्लिश का माहौल तो मिलता नहीं इसलिए आसानी से सीखी जाने वाली ये भाषा उसके लिए चैलेंज बन जाती है और वो अपना सारा ज़ोर किसी इनोवेशन मे लगाने के बजाय इसी मे लगाए रहता है, और जो 2-4% सम्पन्न परिवारों के बच्चे अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूलों मे पढ़ते हैं और इंग्लिश के साथ नॉलेज भी गेन करते हैं उनमे से अधिकतर विदेशो मे जॉब करने चले जातें है जिससे हमारे देश मे प्रतिभावों की कमी हो गयी है और हमारा देश आजादी के इतने सालों बाद भी विकासशील देशों की कतार मे खड़ा है जबकि अंग्रेज़ो के आने से पहले 17वीं सदी तक भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यस्था और विश्व का सबसे धनी देश था हमने जो भी इन्वेन्शन किए हैं जैसे जीरो, दशमलव, वो सब सदियों पहले जब हम पढ़ाई अपनी भाषा मे करते थे हमारा पांचांग जो हजारो वर्षो से सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण तथा ग्रह नक्षत्रों की सटीक जानकारी बिना किसी नासा या इसरो की सहायता से देता आ रहा है वो इंग्लिश मे नहीं संस्कृत मे है।
दुनिया के छोटे छोटे देश भी अपनी भाषाओं और संस्कृतियों पर गर्व करते हैं पर हम उसपर तभी गर्व कर पाते हैं जब वो पश्चिमी देशो से सर्टिफाइड होकर आती है। इसका नुकसान ये होता है की हमारे हजारों साल पुराने शास्त्रों मे उल्लेखित नीम, हल्दी जैसी वस्तुओं का पेटेंट अमरीका करवा लेता है और हम कुछ नहीं कर पाते क्योंकि हम उन सभी चीजों को बेकार समझते हैं जो हमारे पास है,
ये ऐसी स्थिति है की जैसे हमारे पास एप्पल का आई फोन पहले से ही मौजूद हो और उसकी बुराइयां गिनवाकर कुछ चतुर लोगो ने उसे हमसे फिकवा दिया और हमे नोकिया का बेसिक फोन पकड़ा गए, बाद मे उस आईफोन को खुद ले जाकर उसमे थोड़ा बदलाव करके उसका नाम बदलकर हमे महंगे दामों मे फिर से बेच रहे हैं, जैसे कोयले, नमक, नीम, बबूल आदि की खिल्ली उड़ाने और इससे दाँतो की सतह खराब होने का दावा करने वाला कॉलगेट अब पूछता है! क्या आपके टूथपेस्ट मे नमक है? और नीम, बबूल तथा कॉलगेट वेदशक्ति के नाम से अपने प्रॉडक्ट लांच कर रहा है।
आज के बोर्डिंग स्कूल भी बिलकुल हमारे गुरुकुल के जैसी पद्धति पर आधारित हैं जहां बच्चो को परिवार से दूर रख कर शिक्षा दी जाती है अंतर सिर्फ इतना है की यहाँ पर बच्चों को आधुनिक शिक्षा तो दी जाती है पर भारतीय संस्कारो से दूर किया जाता है साथ ही यहाँ शिक्षा मुफ्त नहीं बल्कि एक बिजनेस है
अतः अब समय आ गया है की हम अपनी गलतियों से सीखें और अपनी परम्पराओ अपनी पुरानी जीवन पद्धति से सीखते हुये आधुनिकता की ओर बढ़ें और जहां तक संभव हो हिन्दी भाषा मे संवाद करें जिससे एक दूसरे से बात करने मे न सिर्फ सहजता तथा अपनेपन का अनुभव हो बल्कि अपनी भावनाए भी सेयर कर सकें।
इंग्लिश भाषा की जानकारी होना अच्छी बात है पर इसमे कमजोर होना कोई शर्मिंदगी की बात नहीं हाँ अगर हम हिन्दी मे कमजोर हों तो वो जरूर हमारे लिए शर्मिंदगी वाली बात होनी चाहिए, और जो गैर हिन्दी भाषी राज्यों के लोग हिन्दी का विरोध करते हैं उन्हे भी समझना होगा की उनके राज्य की भाषा तो सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा बन नहीं सकती क्योंकि वो एक निश्चित क्षेत्र और आबादी मे ही प्रचलित है तो क्यों न देश के 44% लोगों की मातृभाषा तथा लगभग 70% से ऊपर की आबादी द्वारा बोली समझी जाने वाली अपने ही देश की भाषा हिन्दी को सर्वमान्य रूप से स्वीकार किया जाय आखिर हमे इतिहास से सीखना चाहिए की कैसे हमारे राजे रजवाड़े आपस मे अपने अहंकार के कारण लड़ते रह गए और देश गुलाम होता चला गया हम सदियों बाद आजाद तो हुये पर मानसिक गुलामी अँग्रेजी के माध्यम से आज भी जारी है जिससे जल्द से जल्द छुटकारा पाना होगा।