बिंदु और रेखा में परस्पर आकर्षण हुआ तत्पश्चात् आकर्षण प्रेम में परिणत धीरे-धीरे रेखा की लंबाई बढ़ती गई और वह वृत्त में रूपांतरित हो गयी उसने अपनी परिधि में बिंदु को घेर लिया
अब वह बिंदु उस वृत्त को ही संपूर्ण संसार समझने लगा क्योंकि उसकी दृष्टि प्रेम परिधि से परे देख पाने में असमर्थ हो गई थी
कुछ समय बाद सहसा एक दिन वृत की परिधि टूटकर रेखा में रूपांतरित हो गई और वह बिंदु विलुप्त
भाषा व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य अथवा दो समूहों के मध्य केवल संपर्क का ही माध्यम नहीं होती। वह संपर्क से आगे बढ़कर उनके मध्य स्नेह का सूत्र भी सुदृढ़ करती है, उनमें अंतरंगता स्थापित कर उनके बीच भ्रातृत्व-भाव का विकास और मैत्री-भाव की पुष्टि भी करती है। इसीलिए नेतागण जिस क्षेत्र विशेष में वोट मांगने जाते हैं उस क्षेत्र की भाषा, शब्दावली, कहावत आदि अपने भाषण में पिरोने का प्रयत्न भी करते हैं। विक्रेता अपने ग्राहक को लुभाने के लिए ग्राहक की भाषा में बात करने का प्रयास करते हैं। रेल के डिब्बों में पहले से बैठे यात्री नवागन्तुक यात्रियों को प्रायः नहीं बैठने देते, तरह-तरह के बहाने बनाते हैं किंतु अगर खड़ा हुआ यात्री बैठे हुए यात्री की बोली में बात करना प्रारंभ कर देता है तब उसे अपना बंधु समझ कर थोड़ी सी ना-नुकुर के बाद बैठने की जगह दे दी जाती है। क्षेत्रीय भाषा-बोली के ये प्रयोग इस तथ्य के साक्षी हैं कि भाषा विविध-पक्षों के मध्य सहभाव के विकास का भी सशक्त साधन है। वह राष्ट्रीय-एकता के चक्र की धुरी है और विशिष्ट संदर्भों में राष्ट्र-निर्माण का महत्वपूर्ण कारण भी है। पाकिस्तान से छिन्न होकर भाषायी आधार पर ‘बांग्लादेश‘ का प्रथक राष्ट्र के रूप में गठन इस तथ्य का जीवंत उदाहरण है।
भारत अनेक भाषाओं का देश है। सुदूर अतीत से ही भारतवर्ष में परस्पर भिन्न प्रतीत होने वाली अनेक भाषाओं की प्रवाह-परंपरा विद्यमान है और इन सबके मध्य संस्कृत की निर्विवाद स्वीकृति इस देश की सामाजिक- सांस्कृतिक एकता को पुष्ट करती हुई राष्ट्रीय-एकता को सुदृढ़ आधार देती रही है । वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कश्मीर से कन्याकुमारी तक आज भी समादृत हैं। इस ग्रंथों से कथा-सूत्र चुनकर प्रायः समस्त भारतीय भाषाओं ने अपने साहित्य को समृद्ध किया है । संस्कृत की शब्दावली प्राचीन पाली, प्राकृत भाषाओं में ही नहीं अपितु तमिल, तेलगू, बंगला, मराठी, कन्नड़ आदि अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी सुलभ है। हिंदी का तो वह सर्वस्व ही है । राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में संस्कृत की इस व्यापक और निर्विवादित स्वीकृति ने बारह सौ वर्ष की गुलामी में भी इस राष्ट्र को बिखरने नहीं दिया, भाषा और संस्कृति के धरातल पर राष्ट्रीय-एकता को संरक्षित-संवर्धित किया किंतु भारत को विभाजित, खंडित और अशक्त देखने की दुरभिलाषा पालने वाली भारत-विरोधी शक्तियों ने पहले इस्लामिक शासन के सहयोग से और फिर ब्रिटिश सत्ता के साथ मिलकर संस्कृत को उपर्युक्त गौरव से अपदस्थ करने का हरसंभव प्रयत्न किया किंतु काल के प्रवाह में जैसे-जैसे संस्कृत केंद्र से परिधि की ओर धकेली गई वैसे-वैसे उसकी उत्तराधिकारिणी हिंदी उत्तरोत्तर पुष्ट होती हुई उसका स्थान ग्रहण करती गई ।बीसवीं शताब्दी के मध्य तक हिंदी अपने विरुद्ध किए जाने वाले समस्त कुचक्रों पर विजय पाती हुई इतनी सशक्त और समृद्ध भाषा बन गई कि ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम में वही राष्ट्रीय जागरण का प्रमुख माध्यम बनी। पूरब-पश्चिम-उत्तर दक्षिण सारे देश में कहीं उसका विरोध नहीं हुआ और वह केंद्रीय शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित रही। यह अलग बात है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय ब्रिटिश-सत्ता द्वारा स्थापित रीतियों-नीतियों के आलोक में स्वतंत्र भारत का शासन-संचालन करने वाली तत्कालीन भारत सरकार ने वोट बैंक समर्थित संख्या-बल अर्जित करने के लिए संविधान रचते समय हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित नहीं किया और सत्ता की चक्करदार गलियों में अनंत काल तक भटकने के लिए विवश कर दिया। यहीं से हिन्दी-विरोध के विष-बीज अंकुरित हुए जो बीते दशकों की दूषित राजनीति से खाद-पानी पाकर सत्ता संविधान के पटल पर लहलहा रहे हैं। व्यावहारिक धरातल पर हिंदी विश्व के रंगमंच पर अपना ऊंचा परचम लहरा रही है किंतु देश के अंदर राष्ट्रभाषा का संविधान सम्मत सत्कार पाने से वंचित है !
विश्व के अधिकतर देशों में विभिन्न धर्मों के मानने वाले रहते हैं फिर भी वे धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं। उनका एक घोषित धर्म है। इसी प्रकार प्रत्येक देश में अनेक भाषाएं और बोलियां व्यवहार में प्रचलित हैं फिर भी उनकी एक घोषित राष्ट्रभाषा है किंतु भारतवर्ष का न तो कोई घोषित धर्म है और ना ही घोषित राष्ट्रभाषा है। आखिर क्यों ? अपनी राष्ट्रीय-एकता के लिए सतर्क प्रत्येक देश संख्या-बल की दृष्टि से अपना राष्ट्रीय-धर्म और राष्ट्रभाषा घोषित करता है। इससे उसकी सांस्कृतिक-ऐतिहासिक विरासत को बल मिलता है। देश विरोधी षड्यंत्रकारियों की शक्ति क्षीण होती है, उनका मनोबल टूटता है। इन तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार किए बिना हमारे नेताओं ने देश को धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रभाषा विहीन घोषित कर जो काल्पनिक आदर्श-पथ निर्मित किए हैं उनसे राष्ट्रीय-एकता का यथार्थ आहत है। इन संदर्भों में और राष्ट्रीय-हितों की रक्षा के लिए पूर्व स्वीकृत नीतियों पर पुनर्विचार अपेक्षित है।
जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने से पहले वहां की एक बड़ी नेता ने सार्वजनिक रूप से धमकी दी थी कि यदि धारा 370 एवं 37-ए हटाने के लिए संविधान में संशोधन का कोई प्रयत्न भी किया गया तो यहां आग लग जाएगी। जम्मू-कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा। पिछले दिनों देश के गृहमंत्री के भाषा संबंधी एक वक्तव्य को लक्ष्य कर तमिलनाडु के एमडीएमके चीफ वाईको ने भी यह धमकी दी कि यदि हिंदी उन पर थोपी गई तो देश टूट जाएगा वर्तमान सरकार ने जम्मू-कश्मीर की नेता के बयान की परवाह किए बिना देश-हित में धारा 370 और 37-ए संविधान से विलोपित कर दीं। ना वहां आग लगी और ना ही यह क्षेत्र देश से अलग हुआ। भारत सरकार को ऐसी ही दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के संदर्भ में भी देना होगा। तब ही क्षेत्रीयता को भड़काकर तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए हिंदी का अनुचित विरोध करने वालों को समुचित उत्तर दिया जा सकेगा और देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली तथा विदेशों में भारतवर्ष का प्रतिनिधित्व करने वाली ‘हिंदी’ राष्ट्रभाषा घोषित की जा सकेगी। इसके अतिरिक्त हिंदी को राष्ट्रभाषा के गौरवशाली पद पर प्रतिष्ठित करने का न अन्य कोई पथ है, न गति। सत्ता की दृढ़ इच्छाशक्ति और निर्विकल्प-संकल्प सामथ्र्य से ही इस शुभ-लक्ष्य की सम्पूर्ति संभव है।
सुदर्शन न्यूज चैनल के प्रधान श्री सुरेश चौहान के. जी की साहसिक पत्रकारिता का अद्भूत पराक्रम वर्षों से देशभक्तों को प्रेरित कर रहा हैं। जबकि देश विरोधी शक्तियां इनकी सच्ची अभिव्यक्ति पर प्रहार करने से कभी भी नहीं चूकती। इनके “बिंदास बोल” कार्यक्रम में वर्षों से राष्ट्र हित के विषयों को प्रमुखता से उठाया जाता आ रहा हैं। जिससे राष्ट्रवादी समाज में व्याप्त अनेक भ्रांतियाँ दूर होने से भारत व भारतीयता का पराभव आज चारों ओर सकारात्मक वातावरण बनाने में सफल हो रहा हैं। भारतीय प्रशासकीय व प्रदेशीय सेवाओं में प्रवेश हेतू होने वाली परीक्षाओं में पिछ्ले कुछ वर्षों से उर्दू भाषा के कारण अयोग्य मुस्लिम युवकों की घुसपैठ बढ गयी है। इससे देश में जिहादियों को अपने भारत विरोधी षडयंत्रों में सफल होने की सम्भावना अधिक हो सकती है। इसलिये इससे सम्बंधित कुछ विशेष तथ्यों का प्रसारण किये जाने वाले कार्यक्रम के विरुद्ध भारत विरोधी टोलियों ने सक्रिय होकर सुदर्शन न्यूज चैनल के विशिष्ट कार्यक्रम “बिंदास बोल” के इस परिशिष्ट को रुकवाने का दुसाहस किया और श्री सुरेश चौहान जी के विरुद्ध वैधानिक कार्यवाही की अनुचित मांग भी की है। यह चिंता का विषय है कि एक विशेष षडयंत्र के अन्तर्गत भारतीय प्रशासकीय सेवाओं में जब से इस्लामिक शिक्षाओं का विषय सम्मलित किया गया है और उर्दू को माध्यम बनाने की छुट दिये जाने से मुस्लिम समाज के मदरसे से शिक्षित युवाओं का चयन बढ रहा है। जबकि यह सर्वविदित ही है कि मदरसा शिक्षा प्रणाली के कारण ही कट्टरपन बढने से इस्लामिक आतंकवाद बढता है। जिसके कारण पाकिस्तान सहित कुछ मुस्लिम देशों में भी ऐसे मदरसे प्रतिबंधित कर दिये गए हैं,जहां मुसलमानों को आतंकी बना कर जिहाद के लिये तैयार किया जाता था। ऐसे षडयंत्र द्वारा प्रवेश पाये हुए प्रशासकीय अधिकारियों से जिनको किसी विशेष लक्ष्य के लिये जीने व मरने की शिक्षा मिली हो तो वह क्यों कर मानवतावादी व राष्ट्रवादी समाज के साथ न्याय कर पायेंगे? प्राय: भारत विरोधी, आतंकवादी, अलगाववादी, नक्सलवादी,वामपन्थी, अवार्ड वापसी व टुकडे-टुकडे गैंग आदि सब राष्ट्रवादी समाज को सतत् जागृत करने वाले श्री सुरेश जी के विरुद्ध बार-बार सक्रिय हो कर माँ-भारती के कष्टों को बढाने के षड्यंत्र रचते रहते है।ये लोग देश में साम्प्रदायिकता के लिये केवल हिन्दुओं को ही दोषी ठहराते हैं और स्वयं को लिबरल व सेकूलर के बुर्के में छिपा लेते हैं। जबकि इन सबको राष्ट्रवादी समाज के देशहित कोई भी विचार स्वीकार नहीं होते। राष्ट्रहित के कार्यों के विरुद्ध तुरंत प्रतिकार करने वाली इन टोलियों को लिबरल सहिष्णु माना जाने में धोखा स्पष्ट होते हुए भी ये अपने विचारों को फैलाने में सफल हो जाते है। “प्रस्तावित साम्प्रदायिक लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक (2011)” जिसमें बहुसंख्यक हिन्दुओं को अपराधी मान कर जेलों में डाले जाने का प्रावधान किया गया था, पर आज तक इन लिबरलों ने कोई आपत्ति नहीं की, बल्कि 2016 में जे.एन.यू. में “भारत की बर्बादी तक जंग करेंगे जंग करेंगे” के राष्ट्रद्रोही नारे लगाने वालों के समर्थन ये लोबी आज तक खड़ी है। हमें आज यह भी स्मरण होना चाहिये कि सन् 2004 में लश्करे-तोईबा की फिदाईन ईशरतजहां व उसके तीन अन्य आतंकी साथियों ने मोदी जी को मछली न.5 कोड देकर उन पर आत्मघाती हमले का षडयंत्र रचा था। सौभाग्य से गुजरात प्रशासन की सुझबूझ से इन चारों आतंकियों को ढेर करने में पुलिस सफल रही थी। ऐसे षड्यंत्रकारी व आतंकवादी अभी भी देश में सक्रिय हैं। क्योंकि ये राष्ट्रवाद विरोधी समूह आतंकी ईशरतजहां को ही अति विशिष्ट श्रेणी में रखकर गुजरात सरकार व उस समय के मुख्य मन्त्री मोदी जी को ही फेक एन्काउंटर के नाम पर घेरने में लगभग 15 वर्षों से दु:साहस करता रहा है। संभवत: पिछ्ले वर्षों में भी हमारे जनप्रिय प्रधानमन्त्री मोदी जी की हत्या का षड्यन्त्र रचने वाले नक्सलवादियों व भारत विरोधियों के षडयंत्र भी अभी उजागर होने शेष है।यहां यह सब लिखने का मुख्य ध्येय यह है कि भारत विरोधी अभी भी सक्रिय हैं। ऐसा वर्ग या समूह या लॉबी अनेक प्रलोभनों के कारण चीन व पाकिस्तान में बैठे अपने विदेशी आकाओं को प्रसन्न करने के लिये देश में कुछ भी कर सकती हैं। ऐसे हिन्दू विरोधियों को अपने भारत विरोधी आकाओं के चांदी के टुकड़ों के लिये अपनी आत्मा को मारने में भी कोई आत्मग्लानि नहीं होती। हमको यह ध्यान नहीं होता कि मन मस्तिष्क पर जो गलत धारणायें शिक्षा व मीडिया के माध्यम से थोप दी जाती है, उन्हें मिटाना सरल नहीं होता। इसलिये न जाने कितना कुछ असत्य छिपा कर गहरे अंधेरे में हमें रखा गया। जिससे हमारी सोच और समझ को निरंतर गलत दिशा मिलने से हम धर्म और राष्ट्र के प्रति कभी गौरवान्वित न हो सके। यहां एक उदाहरण देने से समझ सकते हैं कि जैसे बार-बार हमको सिखाया जाता हैं कि “सभी धर्म एक समान है एवं सभी धर्म प्रेम व शान्ति की शिक्षा देते है।” क्या आज तक के भारतीय व वैश्विक इतिहास में ऐसा कुछ ढूँढने पर भी मिल सकता है? संभवतः कदापि नहीं। सभी के ग्रंथ, साहित्य, दर्शन एवं देवता व महापुरुष आदि सभी अलग-अलग हैं। भौगौलिक भिन्नता के कारण सभ्यता, संस्कृति व रीति रिवाजों में भी कोई समानता नहीं होती। सभी धर्मों का उद्गम स्थल व समय आदि भी भिन्न भिन्न होने से उनमें असमानता का होना स्वाभाविक ही हैं। अत: सब धर्म एक समान कहने व समझने वाले केवल और केवल अज्ञानवश अन्धकार में ही जीते हैं। जबकि विश्व की विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में परस्पर वैमनस्य व घृणा के कारण संघर्ष को रोकना असम्भव हो रहा है। फिर भी सभी धर्म एक समान के भ्रमित करने वाले असत्य का बार-बार प्रचार किया जाना विशेषतौर पर हम भारत भक्तों को दिग्भ्रमित किये हुए है। जिस कारण हम अपनी एतिहासिक तेजस्विता व ओजस्विता को भूल चूके हैं। हमें अपने इतिहास के स्वर्णिम युग का कोई ज्ञान ही नहीं। मध्यकालीन मुगल साम्राज्य व ब्रिटिश शासन के परतंत्रता काल का महिमा मण्डन करके हमारे मन-मस्तिष्क पर ऐसी छाप थोप दी गयी हैं, जिससे आज स्वतंत्रता के 73 वर्ष बाद भी मुक्त होना एक जटिल समस्या बनी हुई हैं। ऐसी विपरीत स्थितियों में सुदर्शन न्यूज द्वारा प्रस्तुत सत्य का ज्ञान देने वाले “बिंदास बोल” कार्यक्रम की जितनी सराहना व प्रशंसा की जाय उतनी कम है। श्री सुरेश जी एक ऐसे कर्मयोगी है जो धर्म व संस्कृति की रक्षा हेतू कटिबद्ध है। इनके साहसी व निडर व्यक्तित्व का ही परिणाम हैं कि आज इनके द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमों से भी देश में व्याप्त अनेक जिहादी समस्याओं और भ्रांतियों से धीरे-धीरे पर्दा उठ रहा हैं। इतना ही नहीं इनके प्रयासों के कारण आज युवाओं में देश व धर्म के प्रति अनुराग व समर्पण का भाव जाग रहा हैं। दिग्भ्रमित युवा समाज अब सेकुलरवाद व लिबरल लॉबी के भारत विरोधी रूप को समझ कर माँ भारती की रक्षा के लिये सतर्क हो रहा हैं। ऐसे अनेक सत्य के ज्ञान से जब हम सबकी भ्रांतियाँ दूर होगी तो हम भारत विरोधी समस्याओं की जड़ों तक प्रहार करके उनका समाधान करने में सक्षम होंगे। यही हमारा राष्ट्रीय धर्म और दायित्व हैं। हमको यह स्पष्ट होना चाहिये कि हम “सत्यमेव जयते” के उपासक हैं और सच्चाई की अभिव्यक्ति पर प्रहार करने वाले ही पराजित होंगे। इसी अभियान के लिये समर्पित अनेक देशविरोधी षडयंत्रों को उजागर करने वाले कार्यकर्मों के प्रसारण द्वारा देशवासियों को सत्य से अवगत कराने के अथक प्रयासों पर दृढता से डटे रहने वाले धर्मयोद्धा श्री सुरेश जी को बार-बार साधुवाद।
कल तक राजद से इस्तीफा देने के बाद जहां दूसरे दलों में जाने के कयास लगाए जा रहे थे। वहीं पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ.रघुवंश प्रसाद सिंह के निधन की खबर ने देश को गमगीन कर दिया। सभी जगह चर्चाएं होने लगी सादगी के उस महानायक की जिसने राजनीति को कभी सत्ता सुख नहीं बनाया बल्कि इसको सेवा भाव के रुप में ही जीते रहे। लालू प्रसाद के अच्छे दिनों से लेकर बूरे दिनों में भी साथ निभाया मगर इधर कुछ दिनों से राजद की कार्यशैली उन्हें रास नहीं आ रही थी। इसी वजह से उन्होंने पहले दल के पद से और बाद में दल से ही इस्तीफा दे दिया। सारे बंधनों से मुक्त हो गए। हलांकि लालू ने इनके इस्तीफे को मंजूर नहीं किया और लिखा- कि आप कहीं नहीं जा रहे हैं। मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। रघुवंश बाबू नहीं लौटने वाली अन्नत यात्रा पर निकल गए। यह संयोग नहीं तो क्या कही जाए, कि अपने जीवन से जुझ रहे जिन्हें राजनीति में ‘ब्रह्म बाबा’ के नाम से भी जाना जाता है, ने दो चिट्ठी लिखी दिल्ली एम्स से, एक लालू के नाम और एक नीतीश के नाम। इन दोनों चिट्ठियों के अलग अलग मायने हैं। इसकी गहरायी में जाकर सोचने का विषय है। एक चिट्ठी लालू से रिश्ते तोड़ने के लिए तो दूसरी नीतीश कुमार को, जिनसे उन्हें उम्मीदें थी, कि जो उनका सपना है उसे वही पूरा कर सकते हैं। रघुवंश बाबू के निधन पर प्रधानमंत्री ने भी अपील कर दी कि जो रघुवंश बाबू की आखिरी ख्वाहिश है नीतीश जी उसको पूरा कीजिए, हम भी आपके साथ हैं।
प्रोफेसर जो राजनेता बनेः
बिहार ही नहीं देशभर में डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह की पहचान एक प्रखर समाजवादी नेता के रुप में रही। ईमानदार, बेदाग और बेबाक अंदाज वाले रघुवंश बाबू को पढ़ने और लोगों के बीच में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का शौक था। रघुवंश बाबू बिहार यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त करने के बाद राजनेता तो बाद में बने लेकिन प्रोफेसर पहले बन गए। वर्ष 1969 से 1974 के बीच करीब 5 सालों तक सीतामढ़ी के गोयनका कॉलेज में बच्चों को गणित का पाठ पढ़ाते रहे। रघुवंश बाबू वैसे तो कई बार जेल गए मगर पहली बार टीचर्स मूवमेंट के दौरान 1970 में जेल गए।
कर्पूरी सरकार में पहली बार मंत्री बनेः
कहते हैं पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। अपनी बेबाकीपन और कार्य करने की शैली की वजह से रघुवंश बाबू उस समय के जमीनी और समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर से काफी प्रभावित हुए और उनके साथ हो लिए। इसके बाद वर्ष 1973 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के आंदोलन के दौरान फिर से जेल चले गए। इसके बाद तो उनके जेल आने जाने का सिलसिला ही शुरू हो गया। कॉलेज में में गणित के कलकुलेशन ने इन्हें राजनीति का भी सफल मैथेमैटिशियन बना दिया। तभी तो वर्ष 1977 में पहली बार रघुवंश प्रसाद बेलसंड से विधायक चुन लिए गए और यह सिलसिला 1985 जारी रहा। लेकिन 1988 में कर्पूरी ठाकुर के निधन से रघुवंश बाबू काफी आहत हुए।
लालू औऱ रघुवंश जब करीब आएः
कर्पूरी ठाकुर के जाने के बाद उनकी बिरासत को लेकर विवादों बाजार गर्म हुआ। लालू प्रसादकर्पूरी के खाली जूतों पर अपना दावा जता रहे थे। इस दौर में लालू प्रसाद का डॉ.रघुवंश प्रसाद सिंह ने साथ दिया और यहीं से शुरु हुई दोनों युवा नेताओं के बीच दोस्ती। वर्ष 1990 का दौर था, बिहार विधानसभा के लिए चुनाव हुआ। कांग्रेस नेता दिग्विजय प्रताप सिंह से बहुत कम मतों से रघुवंश प्रसाद सिंह चुनाव हार गए। हलांकि उस हार के लिए रघुवंश प्रसाद सिंह ने जनता दल के भीतर के ही कई नेताओं को जिम्मेदार ठहराया। रघुवंश बाबू चुनाव तो हार गए मगर जनता दल को बड़ी कामयाबी मिली और लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बन गए। लालू प्रसाद ने अपने साथी को नहीं छोड़ा और उन्हें विधान पार्षद तो बनाया ही वर्ष 1995 में अपने मंत्रिमंडल में उन्हें ऊर्जा और पुनर्वास मंत्री बनाकर दोस्ती निभायी।
मनरेगा कानून के असली शिल्पकारः
बिहार की सियासत में अपनी अलग पहचान कायम करने वाले रघुवंश बाबू देश में भी अपनी कार्यशैली और गंवई अंदाज में बोलने के लिए जाने जाते रहे। वर्ष 1996 में हुई लोकसभा चुनाव में लालू के कहने पर इन्होंने लोकसभा चुनाव वैशाली से लड़े और पूर्व मंत्री वृषण पटेल को मात देकर दिल्ली आसीन हुए। केंद्र में जनता दल की सरकार आयी एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने तो बिहार कोटे से रघुवंश बाबू पर पशु पालन और डेयरी महकमे का स्वतंत्र प्रभार सौंपी गई। मगर 1997 में देवेगौड़ा की कुर्सी चली गई और आई के गुजराल प्रधानमंत्री बने तो रघुवंश बाबू को खाद्य और उपभोक्ता मंत्रालय में भेज दिया गया। भारत में बेरोज़गारों को साल में 100 दिन रोज़गार मुहैया कराने वाले इस क़ानून को ऐतिहासिक माना गया था। यूपीए दो को जब फिर से 2009 में जीत मिली तो उसमें मनरेगा की अहम भूमिका थी।
सवर्ण होकर भी पिछड़ों के प्रियः
जहां सियासत में अगड़े पिछड़े की राजनीति हो रही है, वहीं रघुवंश बाबू एक ऐसे नेता थे जो सवर्ण समुदाय से आने के बावजूद भी पिछड़े समाज में काफी प्रभावी रहे। रघुवंश प्रसाद सिंह राजद में सबसे पढ़े-लिखे नेताओं में से एक थे। रघुवंश सिंह बिहार के वैशाली लोकसभा सीट से सांसद का चुनाव लड़ते थे। हालांकि पिछले दो चुनावों से वो हार रहे थे।
आप इतनी दूर चले गएः
राजद सुप्रीमो लालू यादव ने मार्मिक ट्वीट किया है। लालू यादव ने ट्वीट कर लिखा है कि प्रिय रघुवंश बाबू ये आपने क्या किया? मैंने परसो ही आपसे कहा था आप कहीं नहीं जा रहे लेकिन आप इतनी दूर चले गए। निशब्द हूं बहुत दुखी हूं , बहुत याद आएंगे।
रघुवंश की चिट्ठी नीतीश के नामः
रघुवंश बाबू ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पत्र लिखकर मांग रखी की, 15 अगस्त को मुख्यमंत्री पटना और राज्यपाल विश्व के प्रथम गणतंत्र वैशाली में राष्ट्रध्वज फहराएं। 26 जनवरी को राज्यपाल पटना और मुख्यमंत्री वैशाली गढ़ के मैदान में राष्ट्रध्वज फहराएं। मुख्यमंत्री को 26 जनवरी, 2021 को वैशाली में राष्ट्रध्वज फहराने की मांग की थी। आगे उन्होंने मनरेगा कानून में सरकारी और एससी-एसटी की जमीन में काम का प्रबंध है, उस खंड में आम किसानों की जमीन में भी काम होगा, जोड़ दिया जाए। इस आशय का अध्यादेश तुरंत लागू कर आने वाले आचार संहिता से बचा जाए। रघुवंश प्रसाद ने भगवान बुद्ध के पवित्र भिक्षापात्र को अफगानिस्तान के काबुल से वैशाली लाने की भी मांग की थी। वहीं उन्होंने वैशाली के सभी तालाबों को जल-जीवन-हरियाली अभियान से जोड़ने का आग्रह किया था। गांधी सेतु पर गेट बनाने और उसपर ‘विश्व का पहला गणतंत्र वैशाली’ लिखने का आग्रह किया था।
लॉक डाउन की भयावह स्थिति से गुजरते हुए पिछले छह महीनें से विश्व के तकरीबन सभी छोटे-बड़े देश मैराथन बंदी का अभिशाप झेलने पर मजबूर हैं। इस दौरान पूरी दुनिया में जन जीवन पूरी तरह ठहर सा गया है। इस वैश्विक संकट में न तो स्कूल-काॅलेजों में पढ़ने वाले छात्र छात्राओं को काॅपी-किताब के साथ सड़कों पर देखा जा रहा है, और न ही सरकारी-गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं, संगठनों सहित सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक व राजनीतिक संस्थाओं की गतिविधियां नज़र आ रही हैं। एक सौ पैंतीस करोड़ की आबादी वाला भारत भी रोज़ाना कोरोना वायरस संक्रमण के उसी खौफ से गुजर रहा है, जिससे सारी दुनिया भयभीत है। बावजूद इसके कहीं कहीं कुछ अच्छी ख़बरें शून्यता में संवेदनशीलता का संचार कर डालती हैं, इससे जीवन जीने की उम्मीदों में चार चांद लग जाता है।
हम बात कर रहे हैं झारखंड के संथाल आदिवासी बहुल क्षेत्र दुमका ज़िला स्थित ग्राम बनकाठी के एक ऐसे स्कूल की जहाँ शिक्षा का अलख जगाए रखने की जद्दोजहद आज भी जारी है। लाॅक डाउन की स्थिति में इसके बेहतर परिणाम भी सामने आ रहे हैं जो अन्य राज्यों के लिये एक माॅडल का रुप साबित हो सकता है। इस स्कूल में बच्चे सोशल डिस्टेंसिंग का पूरी तरह से पालन करते हुए पेड़ की छांव तले पढ़ाई कर रहे हैं। शिक्षा के प्रति बच्चों का लगन देख कर गांव के कई शिक्षित युवा भी इन्हें मुफ्त पढ़ाने के लिए आगे आएं हैं। पढ़ाई के प्रति दिलचस्पी बढ़ाने हुए इस अलख को जगाने का श्रेय स्कूल के प्रधानाध्यापक श्याम किशारे सिंह गांधी को जाता है। जिन्होंने प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में एक नयी तकनीक से पढ़ाई का बीड़ा उठा रखा है। पढ़ाई के प्रति छोटे छोटे बच्चों की उत्सुकता देखनी हो या फिर शिक्षा के प्रति शिक्षकों की प्रतिबद्धता और समर्पण। बिना किसी हिचकिचाहट के सीधे पहुँच सकते हैं आप जंगल, पहाड़ और हरे भरे खेतों के बीच अवस्थित ग्राम बनकाठी। ठंडी ठंडी बहती हवाओं और झूमते-इठलाते पेड़ों के नीचे बैठकर पढ़ रहे बच्चों की मासूमियत बरबस ही आपका ध्यान अपनी ओर खींच लेंगी। कई अलग अलग टोलों- स्कूल पाड़ा, काशीपाड़ा, बेरियापाड़ा, केन्दवाद, खजूरी, मोतीपुर और शेरघाटी के बीचोंबीच अवस्थित गांव बनकाठी अब शिक्षा के क्षेत्र में एक नयी पहचान के लिये तैयार है।
जिला मुख्यालय दुमका से महज 12 से 15 किमी की दूरी पर स्थित इस स्कूल के प्रधानाध्यापक श्याम किशोर सिंह गांधी बच्चों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। उनके आने से पहले बच्चे पढ़ाई के लिए इकठ्ठा हो जाते हैं। श्याम किशोर सिंह गांधी के अनुसार कक्षा 1 से 8 तक कुल 250 बच्चों को पेड़ों की छांव में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए शिक्षा दी जाती है। उनके अनुसार पेड़ो के नीचे पढ़ाने का यह नायाब तरीका अचानक उनके मन में आया। पहले तो एक प्रयोग के तौर पर उन्होंने इसे लिया, किन्तु पढ़ाई के प्रति बच्चों का लगन देखकर इसे नियमित कर दिया। यह तकनीक अपने आप में बेजोड़ तो है ही, पूरे राज्य के लिये एक माॅडल एजुकेशन का रुप भी लेता जा रहा है। इस कार्य में कम्युनिटी शिक्षिका सरिता मुर्मू और मर्शिला टुडू सहित कई अन्य ऐसे सामुदायिक सोच रखनेवाले युवा शिक्षकों का सहयोग मिल रहा, जो पढ़-लिख कर बेराजगार हैं और जिनमें गांव की तस्वीर बदलने की चाहत भी है। बिना किसी आर्थिक स्वार्थ के इनका सहयोग विद्यालय के शैक्षणिक माहौल को सुदृढ़ कर रहा है। पेड़ों के नीचे श्रृंखलाबद्ध दूर दूर तक बैठे बच्चों को माईक व साउण्ड सिस्टम के जरिए पढ़ाया जाता है ताकि शिक्षकों की आवाज एक एक बच्चों की कानों तक पहुँच सके।
श्याम किशोर सिंह गांधी के अनुसार बच्चों को पढ़ाना शिक्षकों का धर्म है, सेवा भाव से पढ़ाने की मुझ में शुरु से ही लगन रही है। इस महाबंदी की स्थिति में घर पर बैठकर रहना मेरे लिये असहज हो गया था। कुछ दिनों तक यूँ ही घर पर पड़ा रहा, किंतु बच्चों को पढ़ाने की बैचेनी हमेशा मन को व्यथित करती रही। ऐसी परिस्थिति में लीक से हटकर कुछ करने की जिज्ञासा बढ़ी। कुछ अलग करने की सोचता रहा, वह भी ऐसे आदिवासी गाँव में जहाँ पढ़ने की आदत छूटने के बाद बच्चे दुबारा स्कूल लौटना पसंद नहीं करते हैं। इस संबंध में अभिभावक नयन मुर्मू, संजय मुर्मू, राजेन्द्र राणा व ग्राम प्रधान समीर मरांडी का कहना है कि आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन का दंश झेल रहे इस गांव में खेती बाड़ी व दिहाड़ी पर ही अधिकांश ग्रामीणों का गुजर-बसर चलता है। लंबी छुट्टी के समय अभिभावक अपने बच्चों को जानवरों को चराने और मजदूरी के लिये बाहर भेज देते हैं किन्तु जब से गांव में पेड़ों के नीचे सामुदायिक शिक्षा की शुरुआत हुई है, इस अनूठी पढ़ाई से उन्हें भी आनंद प्राप्त हो रहा है और उनके बच्चे भी मन लगाकर पढ़ रहे हैं। पढ़ने के प्रति बच्चों में अभूतपूर्व जिज्ञासाएँ बढ़ी है। पढ़ाने की प्रक्रिया के तहत नियमों के पालन के संबंध में बताते हुए प्रधानाध्यापक श्याम किशोर सिंह गांधी कहते हैं कि सोशल डिस्टेंसिंग के साथ पेड़ों के नीचे बैठे बच्चों के लिये सेनेटाइजर व मास्क पहनना अनिवार्य है। एक-एक मीटर की दूरी पर सड़क के दोनों किनारे बच्चों को बैठाया जाता है। इस काम में ग्रामवासियों का भी पूरा समर्थन उन्हें प्राप्त हो रहा है।
दुमका की जिलाधिकारी राजेश्वरी बी ने विद्यालय के प्रधानाध्यपक की सराहना करते हुए उनके द्वारा उठाए गए इस कदम को प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व कदम कहा। वरिष्ठ अधिकारी मसूदी टुडू ने बच्चों के बीच जारी इस तरह की शिक्षा को बहु उद्देश्यीय कहा। श्री टुडू के अनुसार सामाजिक दूरी के साथ साथ पेड़ों के नीचे माईक व साउण्ड सिस्टम से बच्चों के बीच, इस तरह की शिक्षा मील का पत्थर साबित हो सकता है। ऐसी शिक्षा बच्चों के मानसिक विकास को परिपक्व करता है। यह व्यवस्था एक माॅडल के रुप में अपनाने की योजना है।
हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कवि दुष्यंत कुमार की पंक्ति ’’सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए, मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए’’ शिक्षा की सूरत बदलने के लिये उत्क्रमित मध्य विद्यालय, बनकाठी के प्राध्यापक श्याम किशोर गांधी लिये उपरोक्त पंक्तियां बिल्कुल सटीक बैठती हैं। उनका यह अनूठा प्रयोग ग्रामीण भारत में शिक्षा की लौ को जलाये रखने में मील का पत्थर साबित होगा।
वैश्वीकरण के इस दौर में हिन्दी का विस्तार और प्रभाव पूरे विश्व में देखने को मिल रहा है। हिन्दी भारत की सीमाओं से बाहर कई देशों में अपनी पहचान बना चुकी है। भारत में भी वह सम्पर्क की प्रमुख भाषा है। महात्मा गांधी ने कहा था कि इस देश में हिन्दी ही सम्पर्क की भाषा हो सकती है। लेकिन, महात्मा गांधी की बात को सत्ताधीशों ने गंभीरता से नहीं लिया। अलबत्ता, हम देखते हैं कि संकुचित राजनीति के कारण उपजे भाषाई विरोध के बावजूद भी आज पूरे देश में हिन्दी बोलने, पढऩे, लिखने और समझने वाले लोग मिल जाते हैं। उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक भारत में हिन्दी लोकप्रिय है और सम्पर्क-संवाद की सेतु है। वह विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है। साहित्य की रचना हो रही है। हिन्दी की श्रेष्ठ पुस्तकों को अनुवाद भारतीय भाषाओं में और भारतीय भाषाओं में रची गईं महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद हिन्दी में हो रहा है। एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि हम भले ही अपने भाषायी समाज में अपनी भाषा-बोली में बात करते हैं लेकिन जब किसी दूसरे समाज के व्यक्ति से बात करनी होती है तो हिन्दी ही माध्यम बनती है। जैसे- मराठी और मलयालम बोलने वाले आपस में संवाद करते हैं तो हिन्दी में। इस तरह हिन्दी सबकी भाषा है।
हिन्दी लम्बे समय से सम्पूर्ण देश में जन-जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। दक्षिण भारत के आचार्यों वल्लभाचार्य, रामानुज, रामानंद आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिन्दी भाषी राज्यों के भक्त-संत कवियों (जैसे—असम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था। यही कारण था कि जनता और सरकार के बीच संवाद में फ़ारसी या अंग्रेज़ी के माध्यम से दिक्कतें पेश आईं तो कम्पनी सरकार ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिन्दी सिखाने की व्यवस्था की थी। यहाँ से हिन्दी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिन्दी को सराहा।
सी. टी. मेटकाफ़ ने 1806 ई. में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा— ‘भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।’ वहीं टॉमस रोबक ने 1807 ई. में लिखा था कि जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए। जबकि विलियम केरी ने 1816 ई. में लिखा था- ‘हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।’ इसी तरह एच. टी. कोलब्रुक ने लिखा था- ‘जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।’
भारत की सीमा से बाहर विश्व फलक पर निगाह दौड़ाएं तो हिन्दी का सुखद संसार नजर आएगा। दुनिया में हिन्दी को फलते-फूलते देखकर निश्चित ही प्रत्येक भारतीय और हिन्दी प्रेमी को सुखद अनुभूति होगी। बात बाजार-व्यापार की हो या फिर संस्कार की, विश्व कुटुम्ब में बदलती दुनिया की निगाह भारत की ओर है और उसकी समृद्ध भाषा हिन्दी की ओर भी है। एक ओर जहां मॉरिशस, त्रिनिदाद, टोबैगो, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम और फिजी जैसे देशों में प्रवासी भारतीय अपनी विरासत के तौर पर हिन्दी को पाल-पोस रहे हैं तो दूसरी ओर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, जर्मनी, पौलेंड, कोरिया, रूस, आस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे दूसरे देशों के लिए यह बाजार की जरूरत बन रही है। आभासी दुनिया (वर्चुअल वर्ल्ड) में भी हिन्दी की धमक साफ नजर आती है। सभी सर्च इंजन हिन्दी में सामग्री खोजने की सुविधा देते हैं। गूगल हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए नित नए प्रयोग कर रहा है। जब से हिन्दी इंटरनेट पर लिखी जाने लगी है, लगातार हिन्दी सामग्री की उपलब्धता इंटरनेट पर बढ़ती जा रही है। सुखद तथ्य है कि आज दुनिया के 40 से अधिक देश और उनकी 600 से अधिक संस्थाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है।
मॉरिशस में फ्रेंच के बाद हिन्दी ही एक ऐसी महत्वपूर्ण एवं सशक्त भाषा है जिसमें पत्र-पत्रिकाओं तथा साहित्य का प्रकाशन होता है। संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) देश की पहचान सिटी ऑफ गोल्ड दुबई से है। यूएई में एफएम रेडियो के कम से कम तीन ऐसे चैनल हैं, जहां आप चौबीसों घंटे नए अथवा पुराने हिन्दी फिल्मों के गीत सुन सकते हैं। ब्रिटेन ने हिन्दी के प्रति बहुत पहले से रुचि लेनी आरंभ कर दिया था। गिलक्राइस्ट, फोवर्स-प्लेट्स, मोनियर विलियम्स, केलाग होर्ली, शोलबर्ग ग्राहमवेली तथा ग्रियर्सन जैसे विद्वानों ने हिन्दीकोश व्याकरण और भाषिक विवेचन के ग्रंथ लिखे हैं। लंदन, कैंब्रिज तथा यार्क विश्वविद्यालयों में हिन्दी पठन-पाठन की व्यवस्था है। लंदन में बर्मिंघम स्थित मिडलैंड्स वर्ल्ड ट्रेड फोरम के अध्यक्ष रहे पीटर मैथ्यूज ने ब्रिटिश उद्यमियों, कर्मचारियों और छात्रों को हिन्दी समेत कई अन्य भाषाएँ सीखने की नसीहत दी है। ‘अन्तरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान’ हिन्दी का अकेला ऐसा सम्मान है जो किसी दूसरे देश की संसद (ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स) में प्रदान किया जाता है। अमेरिका के येन विश्वविद्यालय में 1815 से ही हिन्दी पढ़ाई जा रही है। आज 30 से अधिक विश्वविद्यालयों तथा अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा हिन्दी में पाठ्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। ‘लैंग्वेज यूज इन यूनाइटेड स्टेट्स-2011’ की रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि अमेरिका में बोली जाने वाली शीर्ष दस भाषाओं में हिन्दी शामिल है। अमेरिका हिन्दी को उन पाँच भाषाओं में गिनता है, जिनमें उसके नागरिकों की दक्षता जरूरी समझी जाती है।
रूस में हिन्दी पुस्तकों का जितना अनुवाद हुआ है, उतना शायद ही विश्व में किसी भाषा की पुस्तकों का हुआ हो। रूस के कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी साहित्य पर शोध हो रहे हैं। मास्को विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के तहत जनता की समस्याओं का अध्ययन करने वाले केंद्र के एक विशेषज्ञ, रूस की विज्ञान अकादमी के भूविज्ञान संस्थान के कर्मी रुस्लान दिमीत्रियेव मानते हैं कि भविष्य में हिन्दी बोलने वालों की संख्या इस हद तक बढ़ सकती है कि हिन्दी दुनिया की एक सबसे लोकप्रिय भाषा हो जाएगी। वर्ष 2011 के आंकड़ों के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया में एक लाख से अधिक लोग हिन्दी भाषा बोलते हैं। ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, लट्रोब विश्वविद्यालय, सिडनी विश्वविद्यालय, मेलबोर्न विश्वविद्यालय, मोनाश विश्वविद्यालय, रॉयल मेलबोर्न इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी सहित अन्य संस्थानों में हिन्दी पठन-पाठन की व्यवस्था है।
एशियाई देश जापान में हिन्दी भाषा का बहुत अधिक सम्मान है। जापान की दो नेशनल यूनिवर्सिटी ओसाका और टोकियो में स्नातक और परास्नातक स्तर पर हिन्दी की पढ़ाई की व्यवस्था है। गौरतलब है कि प्रोफेसर दोई ने टोकियो विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना की। महात्मा गांधी और टैगोर के अनन्य भक्तों में से एक साइजी माकिनो जब भारत आए तो हिन्दी के रंग में रंग गए। उन्होंने गांधीजी के सेवाग्राम में रहकर हिन्दी सीखी। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ‘भारत में पैंतालीस साल और मेरी हिन्दी-यात्रा’ उनकी चर्चित पुस्तक है, जो उनके भारत और हिन्दी प्रेम को प्रकट करती है साथी ही जापान और भारत के संबंधों को भी बताने का प्रयास करती है।
जर्मनी के हीडलबर्ग, लोअर सेक्सोनी के लाइपजिंग, बर्लिन के हम्बोलडिट और बॉन विश्वविद्यालय में हिन्दी भाषा को पाठ्यक्रम के रूप में शामिल किया गया है। जर्मन के लोग हिन्दी को एशियाई आबादी के एक बड़े तबके से संपर्क साधने का सबसे बड़ा माध्यम मानने लगे हैं। त्रिनिदाद एवं टोबैगो में भारतीय मूल की आबादी 45 प्रतिशत से अधिक है। गुयाना में 51 प्रतिशत से अधिक लोग भारतीय मूल के हैं। मालदीव की भाषा दीवेही भारोपीय परिवार की भाषा है। यह हिन्दी से मिलती-जुलती भाषा है। सिंगापुर, फ्रांस, इटली, स्वीडन, ऑस्ट्रिया, नार्वे, डेनमार्क, स्विटजरलैंड, जर्मन, रोमानिया, बल्गारिया और हंगरी के विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पठन-पाठन की व्यवस्था है। इसी तरह भूटान, मालदीव और श्रीलंका में भी हिन्दी का प्रभाव है। विगत वर्षों में खाड़ी देशों में हिन्दी का तेजी से प्रचार-प्रसार हुआ है। वहां के सोशल मीडिया में हिन्दी का दखल बढ़ा है और कई पत्र-पत्रिकाओं को ऑनलाइन पढ़ा जा रहा है। आज दुनिया का कोई ऐसा कोना नहीं हैं जहां भारतीयों की उपस्थिति न हो और वहां हिन्दी का दखल न बढ़ रहा हो। एक आंकड़े के मुताबिक दुनिया भर में ढाई करोड़ से अधिक अप्रवासी भारतीय 160 से अधिक देशों में रहते हैं। इनका हिन्दी भाषा के फैलाव में अतुलनीय योगदान है। दुनिया में चीनी के दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली मातृभाषा हिन्दी आज भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के विराट फलक पर अपने अस्तित्व को आकार दे रही है। अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा रही है। आज हिन्दी विश्व भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने की ओर अग्रसर है।
तनवीर जाफ़री भारत चीन के बीच चल रही ज़बरदस्त तना तनी के बीच फ़्रांस निर्मित बहुचर्चित एवं विवादित युद्धक विमान ‘राफ़ेल’ गत 10 सितम्बर को औपचारिक रूप से भारतीय वायुसेना में शामिल कर लिया गया। इस अवसर पर अम्बाला छावनी स्थित वायुसेना स्टेशन पर एक समारोह आयोजित हुआ जिसमें भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह,उनकी फ़्रांसीसी समकक्ष फ़्लोरेंस पार्ले व सेना व वायुसेना के सर्वोच्च अधिकारी मौजूद रहे। इससे पहले जब राफ़ेल ने 29 जुलाई 20 को भारत की धरती पर अंबाला एयर फ़ोर्स स्टेशन के रनवे पर अपनी सबसे पहली लैंडिंग की थी उस समय भी इन युद्धक विमानों का ज़ोरदार स्वागत किया गया था। राफ़ेल को ‘वॉटर सेल्यूट’ देते हुए दोनों ओर से फ़ायर ब्रिगेड के स्प्रे के बीच से निकाला गया था। पूजा पाठ व राफ़ेल को बुरी नज़र से बचाने का सिलसिला तो फ़्रांस से लेकर अंबाला तक रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की मौजूदगी में बल्कि उन्हीं के ‘पावन’ हाथों से होता आया है। नींबू-मिर्च व नज़र उतारने के सभी ‘उपाय’ भी किये जा चुके हैं। रक्षा मंत्री ने ‘हैप्पी लैंडिंग इन अंबाला’ का सन्देश देकर राफ़ेल का स्वागत किया था। ग़ौरतलब है कि मोदी सरकार द्वारा फ़्राँस सरकार के साथ 36 राफ़ेल विमानों की ख़रीद का सौदा लगभग 59,000 करोड़ रुपये में किया गया है। इन्हीं 36 राफ़ेल फ़ाइटर विमानों में से मात्र 5 विमानों का पहला बैच फ़्राँस के मेरिनेक एयरबेस से उड़कर संयुक्त अरब अमीरात होता हुआ अंबाला पहुंचा है और उन्हीं 5 विमानों की शान में 29 जुलाई से लेकर 10 सितंबर तक के यह सभी समारोह आयोजित होते रहे हैं। ख़बर है कि दिसंबर 2021 तक संभवतः सभी 36 राफ़ेल विमान भारत पहुँच जाएंगे। 29 जुलाई को जिस दिन 5 राफ़ेल की आमद हो रही थी उस दिन का मीडिया कवरेज तथा अम्बाला वायुसेना स्टेशन के आस पास के सुरक्षा प्रबंध देखने लायक़ थे। अम्बाला वायु सेना क्षेत्र में प्रवेश निषेध होने के बावजूद मीडिया बता व दिखा रहा था कि किस समय 5 राफ़ेल की टुकड़ी ने भारतीय आकाश में प्रवेश किया और आकाश में ही भारतीय वायु सेना के दो सुखोई फ़ाइटर विमानों ने उनकी अगवानी की। अरब सागर में तैनात भारतीय नव सेना के युद्ध पोत आई एन एस कोलकाता द्वारा भी भारतीय जल क्षेत्र में प्रवेश करने पर राफ़ेल का स्वागत किया गया। 29 जुलाई को मीडिया के लगातार प्रसारण ने विशेषकर अंबाला में कुछ ऐसा माहौल बना दिया था कि हज़ारों लोग तेज़ धूप के बावजूद अपनी अपनी छतों पर खड़े होकर वायु सेना के इस नए मेहमान के दर्शन करने को बेचैन दिखाई दिए। कुछ स्थानीय अख़बारों ने उस दिन ‘ अम्बाला में आज दीवाली’ जैसे शीर्षक लगाकर राफ़ेल के आने की ख़बर प्रकाशित की थी। 29 जुलाई को राफ़ेल की सुरक्षा के दृष्टिगत अंबाला ज़िला प्रशासन द्वारा एयर फ़ोर्स स्टेशन के तीन किलोमीटर परिक्षेत्र में ड्रोन उड़ाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। प्रशासन हाई एलर्ट पर था तथा राफ़ेल लैंडिंग के दौरान छतों से फ़ोटोग्राफ़ी करना व लोगों का जमावड़ा लगाना पूरी तरह से प्रतिबंधित था । पक्षी उड़ाने व पतंगबाज़ी करने तक पर रोक थी। ज़ाहिर है यह सभी एहतियाती उपाय इसीलिये किये जा रहे थे ताकि बेशक़ीमती राफ़ेल की सुरक्षा में कोई चूक या कमी न रह जाने पाए। राफ़ेल के भारतीय वायुसेना में शामिल होने से पूर्व भी अंबाला वायु सेना स्टेशन मिग-21 व जगुआर जैसे युद्धक विमानों का केंद्र रहा है। देश के पश्चिम क्षेत्र की महत्वपूर्ण निगरानी केंद्र होने के कारण यहाँ दशकों से मिग-21 व जगुआर प्रायः अपनी नियमित उड़ानें भरते रहते हैं। कम से कम ऊंचाई पर भी उड़ने की क्षमता रखने वाले इन विमानों की सुरक्षित उड़ान के मद्देनज़र ही इस हवाई क्षेत्र के आसपास के इलाक़े में तीन मंज़िला इमारत बनाए जाने पर क़ानूनन रोक है। परन्तु इसी शहर में मोबाईल टावर्स की भरमार ज़रूर है। राफ़ेल की भारी क़ीमत और चीन से चल रहे वर्तमान तनावपूर्ण हालात को देखते हुए न केवल समस्त भारतवासियों बल्कि सभी सरकारी व ग़ैर सरकारी विभाग के लोगों की भी ज़िम्मेदारी है कि वे राफ़ेल की सुरक्षा सुनिश्चित करें और इस दिशा में अपना हर संभव योगदान भी दें। पिछले दिनों मैंने रात के समय अम्बाला के आस पास विशेषकर शहरी क्षेत्र का भ्रमण इसी मक़सद से किया ताकि देख सकूं कि राफ़ेल की आमद पर जश्न मनाने वाला देश आख़िर राफ़ेल की सुरक्षा के प्रति कितना गंभीर है। मैंने पाया कि 50 फ़ुट से लेकर 200 फ़ुट तक की ऊंचाई वाले अधिकांश मोबाईल टावर्स के शीर्ष का संकेत देने वाली लाल लाईट बुझी हुई हैं। इतना ही नहीं बल्कि बी एस एन एल व रेलवे जैसे माइक्रोवेव टावर्स जो कि लगभग 350 से लेकर 500 फ़ुट तक की ऊंचाई रखते हैं उनमें भी कई टावर्स के शीर्ष पर आवश्यक रूप से जलने वाली संकेत रुपी लाल बत्ती बुझी हुई थी। मिग हो या जगुआर या अब भारतीय वायु सेना में नया शामिल हुआ रफ़ेल,ज़रुरत पड़ने पर या अपनी नियमित उड़ान के समय भी कभी कभी बेहद कम ऊंचाई पर उड़ते हैं। राफ़ेल की सुरक्षा के प्रति वायुसेना के अधिकारियों की भी चिंता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि गत 10 सितंबर को राफ़ेल के औपचारिक रूप से वायुसेना के बड़े में विधिवत शामिल होने से पूर्व ही भारतीय वायु सेना के निरीक्षण और सुरक्षा महानिदेशक, एयर मार्शल मानवेंद्र सिंह ने, हरियाणा की मुख्य सचिव, केशनी आनंद अरोड़ा को एक आधिकारिक पत्र लिखकर अंबाला एयर फ़ोर्स स्टेशन के आसपास के क्षेत्र में कचरा निपटाने के लिए त्वरित उपाय करने का अनुरोध किया है। ऐसा पत्र कचरे के चलते पक्षी इकट्ठा होने व इनके उड़ने के कारण राफ़ेल लड़ाकू विमान की सुरक्षा को होने वाले संभावित ख़तरे के दृष्टिगत लिखा गया है। ग़ौरतलब है कि अंबाला वायुसेना क्षेत्र में पक्षियों की संख्या अधिक होने कारण टकराव होने से इन बेशक़ीमती विमानों को बहुत गंभीर नुक़सान पहुंच सकता है। वायु सेना ने स्थानीय शहरी निकाय विभाग से भी मांग की है कि कम से कम अम्बाला एयरफ़ील्ड के आसपास 10 किलोमीटर की परिधि में पतंगों व बड़े पक्षियों की गति विधि को कम करने के लिए सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट योजना (SWM) को तत्काल कार्यान्वित किया जाए । वायु क्षेत्र से उपयुक्त दूरी पर उपयुक्त सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट (SWM) संबंधी प्लांट तत्काल स्थापित किया जाए । इतना ही नहीं बल्कि वायुसेना द्वारा अंबाला वायु सेना स्टेशन के आसपास कबूतर प्रजनन गतिविधि को निषिद्ध व नियंत्रित करने के लिए भी प्रशासन से कहा गया है। ज़ाहिर है कि राफ़ेल के शुभागमन मात्र से ही राफ़ेल की ज़रुरत नहीं पूरी होने वाली बल्कि इसके रखरखाव की सबसे अहम ज़रुरत अर्थात इसकी पूर्ण सुरक्षा तथा इसके लिए निर्बाध हवाई रास्ता उपलब्ध कराना भी उतना ही ज़रूरी है। लिहाज़ा केंद्र व राज्य सरकारों को आपसी ताल मेल से यथाशीघ्र इसकी सुरक्षा संबंधी सभी उपाय करने चाहिए। सभी ऊँचे टावर्स की लाल बत्ती रात के समय तत्काल जलनी चाहिए और हवाई क्षेत्र के आसपास से कूड़े के निपटान का काम व सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट योजना (SWM) की स्थापना आदि जल्द से जल्द पूरा करना चाहिए।
वेदसृष्टिकीआदिमेंपरमात्माद्वाराअमैथुनीसृष्टिमेंउत्पन्नचारऋषियोंकोदियागयाईश्वरीयसत्यवनिर्दोषज्ञानहै।प्राचीनमान्यताहैकिवेदसबसत्यविद्याओंकापुस्तकहै।वेदोंमेंसबमनुष्योंको ‘मनुर्भव’ अर्थात्मनुष्यबननेकासन्देशदियागयाहै।इसकाअर्थहैकिजन्मसेमनुष्ययोनिमेंउत्पन्नहोकरभीहममनुष्यनहींहोते, हमेंमनुष्यबननाहोताहै।मनुष्यबननेकेलियेहमेंअपनेबुद्धिकोसद्ज्ञानवसदाचारसेयुक्तकरनाहोताहै।जिसमनुष्यकेजीवनमेंसद्ज्ञानवसदाचारनहींहोताहैवहकेवलआकृतिमात्रसेहीमनुष्यरूपमेंदिखाईदेतेहैंपरन्तुगुण, कर्मवस्वभावकेआधारपरउन्हेंमनुष्यनहींकहाजासकता। मनुष्य का अर्थ ही है कि जो मननशील हो, सत्य व असत्य का विचार करे तथा असत्य का त्याग और सत्य को ग्रहण व धारण करे। ऐसा होने पर ही हम मनुष्य बनते हैं। वेद ऐसा ही मनुष्य बनने की प्रेरणा व शिक्षा देते हैं। ऐसा मनुष्य बनने के लिये हमें अपनी बुद्धि का विकास, विस्तार व उन्नति करना आवश्यक है। बुद्धि का विकास वेदज्ञान से होता है जो ऋषियों के उपदेशों सहित वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होती है। वर्तमान समय में ईश्वर को सर्वथा जानने वाले व उसकी आज्ञाओं का पालन करने वाले ऋषि तो हैं नहीं, अतः उनके बनाये सद्ज्ञान से युक्त ग्रन्थों के अध्ययन व स्वाध्याय से ही हम सत्यज्ञान को प्राप्त कर व उसे धारण कर सच्चे मनुष्य बन सकते हैं। वेदज्ञान को प्राप्त ऐसा मनुष्य ही अपने जीवन के उद्देश्य से भलीभांति परिचित होता है और उस उद्देश्य को पूरा करने के लिये कर्तव्य पथ पर आरुढ़ होकर लक्ष्य पर पहुंच सकता है। वेद हमें सद्ज्ञान प्रदान कर हमारे कर्तव्य पथ को प्रदर्शित करते हैं। वेदों के अनुसार जीवन का प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होना होता है। इसके लिये मनुष्य को अधर्म, अनर्थ व कामवासनाओं से दूर रहकर वैदिक विधि से ईश्वर की उपासना करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ना होता है। इसे प्राप्त करने के लिये प्राचीन काल में ऋषियों ने सभी मनुष्यों के लिए पंच महायज्ञों का विधान किया था। आज भी यह पंचमहायज्ञ प्रासंगिक व आवश्यक हैं और इनको किये बिना मनुष्य अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता। जब हम ऋषियों व वैदिक विद्वानों के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो वह हमें पंचमहायज्ञों का पालन करते हुए तथा लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए प्रतीत होते हैं। ऋषि दयानन्द सहित हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा योगेश्वर कृष्ण जी को भी वेदमार्ग का अनुसरण करते हुए देखते हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन व स्वाध्याय सहित मोक्षगामी अपने महापुरुषों के जीवन से अपने कर्तव्य की शिक्षा लें और उनका अनुकरण व अनुशरण करें।
मनुष्यकाआत्माचेतनपदार्थहैजिसमेंज्ञानप्राप्तिवकर्मोंकोकरनेकीक्षमतावसामर्थ्यहोताहै।अतःज्ञानप्राप्तिवज्ञानानुरूपकर्मकरनामनुष्यकाकर्तव्यहै।ज्ञानप्राप्तिकेलियेहीहमेंवेदववैदिकसाहित्यकास्वाध्यायकरनाहोताहै।स्वाध्यायकरनेसेहमइष्टविषयकेबारेमेंपूरीतरहसेपरिचितहोजातेहैं।उसकाज्ञानहोजानेपरहमउसकास्वयंभीलाभलेसकतेहैंवदूसरोंकोभीउससेलाभउठानेकीप्रेरणाकरसकतेहैं। संसार में ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। सभी प्रकार का ज्ञान मनुष्य के लिये आवश्यक भी नहीं है। मनुष्य को यथाशक्ति अपनी आवश्यकता के अनुसार ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। सबसे अधिक महत्व हमें उस सत्ता को जानना है जिसने यह संसार बनाया है व जो इसे चला रहा है। उसी सत्ता ने हमारे शरीर भी बनाये हैं, हमें जन्म दिया है तथा हमें जीवन में जो सुख मिलता है वह भी उसी से प्राप्त होता है। अतः अपने जन्म देने वाले परमात्मा को जानना हमारा प्रथम कर्तव्य होता है। उसे जानकर उसका धन्यवाद करना व उससे ज्ञान व सुख शान्ति संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये उसी की शरण को प्राप्त होकर प्रार्थना करनी चाहिये। यदि हम यह काम करने में सफल हो जाते हैं तो जीवन के अन्य कार्यों को भी हम वेदाध्ययन व अन्य ग्रन्थों को पढ़कर तथा विद्वानों के उपदेशों को सुनकर उन्हें भी जान व प्राप्त हो सकते हैं।
अपनेजीवनवकर्तव्योंकोसम्पूर्णतासेजाननेकेलियेऋषिदयानन्दजीकाअमरग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” हमारेलिएसबसेअधिकसहायकहोताहै।जिनलोगोंनेइसग्रन्थकाअध्ययनकियाहैवहइसकेमहत्वएवंउपादेयताकोसमझतेहैं।जोउच्चस्तरीयसच्चाज्ञानइसग्रन्थमेंमिलताहैवहसंसारमेंउपलब्धसाहित्यकाअध्ययनकरनेपरनहींमिलता।इसग्रन्थकाअध्ययनकरनेसेहमवेदोंकेसत्यस्वरूपवउसमेंनिहितज्ञानसेस्थूलरूपसेपरिचितहोजातेहैं।इसग्रन्थकेअध्ययनसेहमेंउपनिषद, दर्शन, मनुस्मृतिसहितवेदवअन्यवैदिकसाहित्यकाअध्ययनकरनेकीप्रेरणाभीमिलतीहै। ऐसा करके हम ईश्वर व संसार विषयक अधिकांश ज्ञान को प्राप्त हो जाते हैं जो हमें ईश्वर की उपासना सहित सद्कर्मों व परोपकार आदि की प्रेरणा करता है। इन्हीं शिक्षाओं से राम, कृष्ण तथा दयानन्द जी आदि महापुरुषों ने अपना जीवन बनाया था। इसी कारण से हम भी वाल्मीकि रामायण, महाभारत, गीता तथा ऋषि दयानन्द के जीवन चरित्र को पढ़कर उनके अनुरूप जीवन बनाने का प्रयत्न करते हैं। संसार में ऐसे सहस्रों लोग हों गये हैं जिन्होंने ऐसा किया और ऐसा करके उनको जीवन सुख व सन्तोष की प्राप्ति हुई। तर्क एवं युक्ति से देखने पर यह भी विदित होता है कि ऐसे लोगों ने अपने जीवन की उन्नति की है।
हमविचारकरतेहैंतोहमारेसम्मुखयहतथ्यआताहैकिसत्यकेग्रहणवधारणकरनेसेआत्मावमनुष्यकीउन्नतितथासत्यसेदूरहोने, असत्यमेंपड़ेवफंसेहोनेतथावेदविरुद्धआचरणकरनेसेमनुष्यकेजीवनकापतनहीहोताहै।आत्माकीउन्नतितोसद्ज्ञानवश्रेष्ठकर्मोंसेहीहोतीहै।इसीकारणहमारेदेशमेंआदिकालसेगुरुकुलशिक्षाप्रणालीथीजहांवेदएवंवैदिकसाहित्यकेप्रमुखग्रन्थउपनिषदोंतथादर्शनसहितमनुस्मृति, वैद्यक, रामायणएवंमहाभारतआदिअनेकानेकग्रन्थोंकाअध्ययनकरायाजाताथा।इनकाअध्ययनकरमनुष्यसच्चाआस्तिकईश्वरभक्ततथादूसरोंकेअन्यायवशोषण, पक्षपातआदिसेमुक्तएकपरोपकारीवसहिष्णुमनुष्यबनताहैजोअपनीउन्नतिकरनेकेसाथअन्योंकीउन्नतिकरनेकरानेमेंभीसहयोगीसिद्धहोताहै। यही कारण है कि हमारे ऋषि मुनियों ने जहां वेद साधना के द्वारा अपने जीवन का कल्याण किया वहीं वह अपने अनुभवों व सत्य ज्ञान पर आधारित उपनिषद, दर्शन सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका जैसा महान साहित्य भी हमें प्रदान कर गये हैं। हमें इस साहित्य से लाभ उठाना है। इसका प्रतिदिन अध्ययन व प्रवचन आदि करना है जिससे देश व समाज सत्य विचारों व संस्कारों से युक्त हो सके।
अपनेजीवनकेकल्याणसमाजकेउत्थानकोलक्ष्यमेंरखकरइसमहद्उद्देश्यकोपूराकरनासभीविज्ञमनुष्योंकाकर्तव्यहोताहै।अतःहमेंस्वाध्यायकेद्वारास्वयंसन्मार्गपरचलनाहैवदूसरोंकोचलानाहै।साथहीसमाजकोदुर्गुणोंवबुराईयोंसेपतितहोनेसेबचानाभीहै।समाजजबपतितहोताहैतोउससेदूसरोंकोभीहानिहोनेकेसाथसत्पुरुषोंकाजीवनजीनाभीदूभरहोताहै।ऐसाहमसमाजमेंघटनेवालेअनेकउदाहरणोंसेदेखतेहैं।इससेयहीअनुभवहोताहैकिदेशमेंसद्ग्रन्थोंवेदवसत्यार्थप्रकाशआदिग्रन्थोंकीशिक्षाबाल्यकालसेहीअनिवार्यहोनीचाहिये। यदि ऐसा होगा तो हमें तुलनात्मक से दृष्टि अधिक योग्य, संस्कारी, ईश्वरभक्त, देशभक्त तथा समाज का हित करने वाले मनुष्य मिलेंगे जो सच्चरित्रता से युक्त होंगे और साथ ही बलवान होंगे तथा दुर्बलों व असहायतों को अभय प्रदान करने वाले होंगे। इन सब लाभों के लिये जहां अनेक उपाय आवश्यक हैं वहां मुख्य उपाय स्वाध्याय को दैनिक दिनचर्या में प्रवृत्त करने सहित सद्ज्ञान का शिक्षण व प्रशिक्षण ही आवश्यक प्रतीत होता है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने अपने ग्रन्थों में सबके लिये यह उपदेश किया है कि सब मनुष्य नियमित स्वाध्याय करें, स्वाध्याय में प्रमाद कदापि न करें जिससे वह अज्ञानता व अन्य सभी दोषों से मुक्त रहे। स्वाध्यय ऐसी एक महत्वपूर्ण वस्तु है जिसका सेवन करने से मनुष्य किसी भी विषय का विद्वान बन सकता है और उससे स्वयं को लाभान्वित करने के साथ समाज व देश को भी लाभ पहुंचा सकता है।
हमने स्वाध्याय की चर्चा की है। हम आशा करते हैं कि पाठकों को यह उपयोगी लगेगी। हमारा निवेदन है कि सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश का स्वाध्याय व अध्ययन अवश्य ही करना चाहिये। इससे उनको निश्चय ही लाभ होगा व वह कल्याण को प्राप्त होंगे। वह धर्मपालन, अधर्म के त्याग, ईश्वरोपासना, यज्ञ, परोपकार, दान आदि में प्रवृत्त होंगे। उनका जन्म, मरण व परजन्म भी इससे गुणात्मक रूप से लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।
यह सर्वकालिक सत्य है कि कोई भी देश अपनी भाषा में ही अपने मूल स्वत्व को प्रकट कर सकता है। निज भाषा देश की उन्नति का मूल होता है। निज भाषा को नकारना अपनी संस्कृति को विस्मरण करना है। जिसे अपनी भाषा पर गौरव का बोध नहीं होता, वह निश्चित ही अपनी जड़ों से कट जाता है और जो जड़ों से कट गया उसका अंत हो जाता है। भारत का परिवेश निसंदेह हिंदी से भी जुड़ा है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि हिंदी भारत का प्राण है, हिंदी भारत का स्वाभिमान है, हिंदी भारत का गौरवगान है। भारत के अस्तित्व का भान कराने वाले प्रमुख बिंदुओं में हिंदी का भी स्थान है। हिंदी भारत का अस्तित्व है। आज हम जाने अनजाने में जिस प्रकार से भाषा के साथ मजाक कर रहे हैं, वह अभी हमें समझ में नहीं आ रहा होगा, लेकिन भविष्य के लिए यह अत्यंत दुखदायी होने वाला है।वर्तमान में प्रायः देखा जा रहा है कि हिंदी की बोलचाल में अंग्रेजी और उर्दू शब्दों का समावेश बेखटके हो रहा है। इसे हम अपने स्वभाव का हिस्सा मान चुके हैं, लेकिन हम विचार करें कि क्या यह हिंदी के शब्दों की हत्या नहीं है। हम विचार करें कि जब भारत में अंग्रेजी नहीं थी, तब हमारा देश किस स्थिति में था। हम अत्यंत समृद्ध थे, इतने समृद्ध कि विश्व के कई देश भारत की इस समृद्धि से जलन रखते थे। इसी कारण विश्व के कई देशों ने भारत की इस समृद्धि को नष्ट करने का उस समय तक षड्यंत्र किया, जब तक वे सफल नहीं हो गए। लेकिन एक बात ध्यान में रखना होगा कि हम अंग्रेजी को केवल एक भाषा के तौर पर स्वीकार करें। भारत के लिए अंग्रेजी केवल एक भाषा ही है। जब हम हिंदी को मातृभाषा का दर्जा देते हैं तो यह भाव हमारे स्वभाव में प्रकट होना चाहिये। हिंदी हमारा स्वत्व है। भारत का मूल है। इसलिए कहा जा सकता है कि हिंदी हृदय की भाषा है।भाषाओं के मामले में भारत को विश्व का सबसे बड़ा देश निरूपित किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। भारत दक्षिण के राज्यों में अपनी एक भाषा है, जिसे हम विविधता के रूप में प्रचारित करते है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि भाषा के मामले में हम अत्यंत समृद्ध हैं। लेकिन कभी कभी यह भी देखा जाता है कि राजनीतिक कारणों के प्रभाव में आकर दक्षिण भारत के कुछ लोग हिंदी का विरोध करते हैं। इस विरोध को जन सामान्य का कुछ भी लेना देना नहीं होता, लेकिन ऐसा प्रचारित करने का प्रयास किया जाता है जैसे पूरा समाज ही विरोध कर रहा हो। दक्षिण भारत के राज्यों में जो भाषा बोली जाती है, उसका हिंदी भाषियों ने सदैव सम्मान किया है। भाषा और बोली तौर पर भारत की एक विशेषता यह भी है कि चाहे वह दक्षिण भारत का राज्य हो या फिर उत्तर भारत का, हर प्रदेश का नागरिक अपने शब्दों के उच्चारण मात्र से यह प्रदर्शित कर देता है कि वह किस राज्य का है। प्रायः सुना भी होगा कि भाषा को सुनकर हम उसका राज्य या अंचल तक बता देते हैं। यह भारत की बेहतरीन खूबसूरती ही है।जहां तक राष्ट्रीयता का सवाल आता है तो हर देश की पहचान उसकी भाषा भी होती है। हिन्दी हमारी राष्ट्रीय पहचान है। दक्षिण के राज्यों के नागरिकों की प्रादेशिक पहचान के रूप में उनकी अपनी भाषा हो सकती है, लेकिन राष्ट्रीय पहचान की बात की जाए तो वह केवल हिंदी ही हो सकती है। हालांकि आज दक्षिण के राज्यों में हिंदी को जानने और बोलने की उत्सुकता बढ़ी है, जो उनके राष्ट्रीय होने को प्रमाणित करता है। आज पूरा भारत राष्ट्रीय भाव की तरफ कदम बढ़ा रहा है। हिन्दी के प्रति प्रेम प्रदर्शित हो रहा है।आज हमें इस बात पर भी मंथन करना चाहिए कि भारत में हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है। भारत में अंग्रेजी दिवस और उर्दू दिवस क्यों नहीं मनाया जाता। इसके पीछे यूं तो कई कारण हैं, लेकिन वर्तमान का अध्ययन किया जाए तो यही परिलक्षित होता है कि आज हम स्वयं ही हिंदी के शब्दों की हत्या करने पर उतारू हो गए है। ध्यान रखना होगा कि आज जिस प्रकार से हिंदी के शब्दों की हत्या हो रही है, कल पूरी हिंदी भाषा की भी हत्या हो सकती है। हम विचार करें कि हिंदी भारत के स्वर्णिम अतीत का हिस्सा है। हमें हमारी संस्कृति का हिस्सा है। ऐसा हम अंग्रेजी के बारे में कदापि नहीं बोल सकते।आज हिंदी को पहले की भांति वैश्विक धरातल प्राप्त हो रहा है। विश्व के कई देशों में हिंदी के प्रति आकर्षण का आत्मीय भाव संचरित हुआ है। वे भारत के बारे में गहराई से अध्ययन करना चाह रहे हैं। विश्व के कई प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में हिंदी के पाठ्यक्रम संचालित किए जाने लगे हैं। इतना ही नहीं आज विश्व के कई देशों में हिंदी के संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं। अमेरिका में एक साप्ताहिक समाचार पत्र उल्लेखनीय ख्याति प्राप्त कर चुका है। हिंदी संचेतना नामक पत्रिका भी विदेश से प्रकाशित होने वाली प्रमुख पत्रिका के तौर पर स्थापित हो चुकी है। ऐसे और भी प्रकाशन हैं, जो वैश्विक स्तर पर हिंदी की समृद्धि का प्रकाश फैला रहे है। भारत के साथ ही सूरीनाम फिजी, त्रिनिदाद, गुआना, मॉरीशस, थाईलैंड व सिंगापुर इन 7 देशों में भी हिंदी वहां की राजभाषा या सह राजभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुकी है। इतना ही नहीं आबूधाबी में पिछले वर्ष हिंदी को तीसरी आधिकारिक भाषा की मान्यता मिल चुकी है। आज विश्व के लगभग 44 ऐसे देश हैं जहां हिंदी बोलने का प्रचलन बढ़ रहा है। सवाल यह है कि जब हिंदी की वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ रही है, तब हम अंग्रेजी के पीछे क्यों भाग रहे हैं। हम अपने आपको भुलाने की दिशा में कदम क्यों बढ़ा रहे हैं।
आर्य समाज के नेता स्वामी अग्निवेश जी का 81 वर्ष की उम्र में निधन हो गया है. वे ऐसे धार्मिक नेता थे जो मानते थे कि “संविधान ही देश का धर्मशास्त्र है.” स्वामी अग्निवेश खुद को वैदिक समाजवादी कहते थे. उनका मानना था कि ‘हमारे वास्तविक मुद्दे गरीबी सामाजिक-आर्थिक असमानताएं हैं जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है.’ वे कट्टरपंथ, सामाजिक कुरीतियों और अन्य मुद्दों पर खुल कर बोलने के लिये जाने जाते थे. उनका कहना था कि ‘भारत में धन की देवी लक्ष्मी और विद्या की देवी सरस्वती की पूजा होती है फिर भी हमारा देश घोर गरीबी और अशिक्षा से घिरा हुआ है.’ उनके पहचान और काम का दायरा बहुत बड़ा था जिसमें धार्मिक सुधार के साथ प्रोफेसर, वकील, विचारक, लेखक, राजनेता, मानवाधिकार कार्यकर्ता, सामाजिक कार्यकर्ता और शांतिकर्मी जैसी भूमिकायें शामिल हैं.
उनके साथी रह चुके जॉन दयाल ने उनको श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है कि ‘स्वामी अग्निवेश ने राजनीतिक मौकापरस्तों से भगवा रंग को वापस लेने की कोशिश की थी. वे जीवन भर देश के सबसे ज्यादा पीड़ित और वंचित तबकों, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों, रूढ़िवादिता और जातिवाद के खिलाफ संघर्ष करते रहे करते रहे जिसका उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा.’ सोशल मीडिया पर उनके एक आर्य समाजी प्रशंसक ने लिखा है कि ‘स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के बाद सबसे ज्यादा गालियाँ हिन्दुओं ने स्वामी अग्निवेश जी को ही दी है.’ अपने उल्लेखनीय कामों और सेवाओं के लिये वे नोबेल की समानन्तर समझे जाने वाले ‘राइट लाइवलीहुड अवॉर्ड’ से सम्मानित हो चुके हैं.
21 सितंबर 1939 को जन्में स्वामी अग्निवेश मूल से दक्षिण भारतीय थे. उनका जन्म आंध्र प्रदेश के श्रीकाकूलम् जिले में वेपा श्याम राव के रूप में हुआ था. उन्होंने चार साल की उम्र में अपने पिता को खो दिया था जिसके बाद उनकी परवरिश छत्तीसगढ़ के सक्ती नामक स्थान पर उनके ननिहाल में हुई. उन्होंने अपने उच्च शिक्षा कोलकाता से पूरी की जहाँ से बी.काम., एम.काम. और एलएल-बी की डिग्री लेने के बाद वे सेंट जेवियर्स कालेज में लेक्चरर के तौर पर पढ़ाने लगे, इसके साथ ही वे कोलकाता हाईकोर्ट में वकालत भी करते थे. अपने छात्र दिनों में ही वे आर्य समाज के प्रगतिशील विचारों के संपर्क में आ गये थे जिसके प्रभाव के चलते 28 वर्ष की कम उम्र में उन्होंने कलकत्ता में अपने लेक्चरर और वकील के कैरियर को त्याग दिया.1968 में वे आर्य समाज में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए और इसके दो साल बाद उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और कोलकाता से हरियाणा चले आये जो आने वाले कई दशकों तक उनकी कर्मभूमि बनी रही.
लेकिन उनके लिए संन्यास का मतलब पलायनवाद नहीं था. बल्कि उनका मानना था कि ‘राजनीति से समाज को बदला जा सकता है.’ इसलिये हम देखते हैं कि अपने संन्यास के दिन ही उन्होंने स्वामी इंद्रवेश के साथ मिलकर “आर्य सभा” नाम से एक राजनीतिक दल का गठन किया. 1974 में उन्होंने “वैदिक समाजवाद” नामक पुस्तक लिखा जिसे उनके राजनीतिक विचारों का संकलन कहा जा सकता है. उन्होंने कट्टरता, रूढ़ीवाद, अंधविश्वास के बजाये अध्यात्म से प्रेरित सामाजिक और आर्थिक न्याय को अपने दर्शन का बुनियाद बनाया. उनके विचारों पर स्वामी दयानंद सरस्वती, गांधीजी और कार्ल मार्क्स के प्रभाव को साफतौर पर देखा जा सकता है.
वे लोकनायक जयप्रकाश नारायण से भी जुड़े थे और आपातकाल के दौरान वे जेल भी गये. 1977 में वे हरियाणा के कुरुक्षेत्र विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए और हरियाणा सरकार में शिक्षा मंत्री भी बने. बाद में मजदूरों पर लाठी चार्ज की एक घटना के चलते उन्होंने मंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया था. बाद में वे वीपी सिंह से भी जुड़े रहे और जनता दल से भोपाल लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं. स्वामी अग्निवेश अन्ना हजारे की अगुवाई वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से भी जुड़े थे हालांकि कुछ समय बाद वैचारिक मतभेदों के चलते वह इस आंदोलन से दूर हो गए थे.
मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर भी उनका काम उल्लेखनीय रहा. 1981 में स्वामी अग्निवेश ने बंधुआ मुक्ति मोर्चा नाम के संगठन की स्थापना की थी जिसके माध्यम से उन्होंने बंधुआ मज़दूरों की मुक्ति के लिए एक प्रभावशाली अभियान चलाया था. बंधुआ मुक्ति मोर्चा के प्रयासों से ही 1986 में बाल श्रम निवारण अधिनियम बन सका. सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराई के खिलाफ भी उन्होंने कड़ा संघर्ष किया. 1987 में उन्होंने एक युवा विधवा के सती होने की वीभत्स घटना के विरोध में दिल्ली के लाल किले से राजस्थान के दिवराला तक 18 दिन की लंबी पदयात्रा का नेतृत्व किया था. जिसके बाद पूरे देश में सती प्रथा के खिलाफ एक माहौल बना और राजस्थान हाई कोर्ट ने सती प्रथा के खिलाफ बड़ा फैसला दिया था, बाद में जिसके आधार पर भारतीय संसद ने सती निवारण अधिनियम 1987 को पारित किया था. जातिवाद के खिलाफ भी मुखर रहे और दलितों के मंदिरों में प्रवेश पर लगी रोक के खिलाफ भी उन्होंने आंदोलन चलाया था. इसी प्रकार से दिल्ली में उन्होंने कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ अभियान चलाया, जिसके परिणामस्वरूप इसके खिलाफ कानून बना. वे भोपाल गैस पीड़ितों के लड़ाई के साथ भी खड़े रहे. भोपाल में अपने लोकसभा चुनाव लड़ने के दौरान उन्होंने इसे एक मुद्दा भी बनाया था. कुछ वर्षों पहले ही उन्होंने गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे विषम लिंगानुपात वाले राज्यों में लड़कियों के भ्रूणहत्या के खिलाफ भी अभियान चलाया था.
धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के खिलाफ लड़ाई में भी वे अग्रिम पंक्ति में डटे रहे. खासकर बहुसंख्यकवादी “हिंदुत्व” विचारधारा के खिलाफ, उनका मानना था कि हिन्दुतत्व की विचारधारा हिंदू धर्म का अपहरण करना चाहता है. 1987 में मेरठ में मुस्लिम युवाओं की हत्या के विरोध में उन्होंने दिल्ली से मेरठ तक एक शांति मार्च का नेतृत्व किया जिसमें सभी धर्मों के लोग शामिल थे. 1999 में उड़ीसा में ऑस्ट्रेलियाई ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टीन और उसके दो बेटों की हत्या के विरोध में भी वे मुखर रूप से सामने आये. 2002 के गुजरात दंगों के दौरान उन्होंने हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में पीड़ितों के बीच समय बिताया और इसके लिए जिम्मेदार हिंदू कट्टरपंथी संगठनों और नेताओं की खुले तौर पर निंदा की.
इसके चलते वे लगातार हिन्दुत्ववादियों के निशाने पर रहे. 2018 में झारखंड में उनपर जानलेवा हमला किया गया जो कि एक तरह से उनके लिंचिंग की कोशिश थी. दुर्भाग्य से इन हमलवारों के खिलाफ कोई ठोस कारवाई नहीं की गयी और ना ही संघ-भाजपा के किसी नेता द्वारा इस हमले की निंदा ही की गयी. इसके कुछ महीनों बाद दिल्ली के भाजपा कार्यालय में जब वो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को श्रद्धांजलि देने गए थे तब भी उन पर हमला किया गया. इस हमले से उनके शरीर पर गंभीर चोटें तो आयी ही साथ ही वे बुरी तरह से आहात भी हुये.
स्वामी अग्निवेश धार्मिक व्यक्ति थे लेकिन धार्मिक कट्टरता के पुरजोर विरोधी भी थे, उनका धर्म तोड़ना नहीं जोड़ना सिखाता था, उनका धर्म राजनीति के इस्तेमाल के लिये नहीं बल्कि राजनीति को सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिये जवाबदेह बनाने के लिये था. जैसा कि योगेन्द्र यादव ने लिखा है ‘स्वामीजी हमें उस वक्त छोड़ गए जब हिन्दू धर्म और भारतीय परंपरा की उदात्त धारा को बुलंद करने की जरूरत सबसे अधिक थी.’
प्राचीनकाल में चंपतपुर नामक एक राज्य था I जनता की मांग पर वहाँ भेड़तंत्र की स्थापना की गई I भेड़तंत्र अर्थात भेड़ों के लिए भेड़ियानुमा भेड़ों द्वारा संचालित ऐसी शासन – व्यवस्था जिसे भीड़तंत्र, वोटतंत्र और भेड़ियातंत्र भी कहा जाता है I उस तंत्र में वोट की नदी को पारकर लंपट, लफंगा, अपराधी, भ्रष्ट और दिवालिया व्यक्ति भी भेड़ों का विधाता और विधायक बन सकता था I राज्य का नाम चंपतपुर था I अतः वहां के राजा – प्रजा चंपतीय गुणों से लैस थे I लोग देखते- देखते सरकारी धन, योजना या संपत्ति को लेकर चंपत हो जाते थे I चंपतपुर अनेक वर्षों तक गुलाम रहा था I भेड़ों ने आज़ादी के लिए सैकड़ों वर्ष तक संघर्ष किया, लेकिन आज़ादी के बाद भेड़ियानुमा भेड़ें शासन करने लगीं I इस तंत्र की माया ही ऐसी थी कि कुछ समय तक सत्ता में रहने के बाद भेड़ भी भेड़िया बन जाती I जो इस तंत्र का हिस्सा बनता उसमें अपने आप भेड़िया का गुण आ जाता I गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम चलानेवाली भेड़ों की गरीबी तो मिट जाती पर आम भेड़ें गरीबी में जन्म लेतीं, गरीबी में जीवन व्यतीत करतीं और गरीबी में ही ‘राम नाम सत्य’ कह देतीं I इस राज्य की भेड़ें नकल करने में बहुत माहिर थीं I एक भेड़ कहती ‘मी’ तो सभी भेड़ें ‘मी मी’ कहने लगतीं, एक कहती ‘वाह’ तो सभी भेड़ें ‘वाह वाह’ करने लगतीं I एक खड़ी होती तो सभी खड़ी हो जातीं, एक बैठती तो सभी बैठ जातीं I कौन अपना दिमाग लगाए I इस राज्य के भेड़ों ने तर्क और विवेक को ताले में बंद कर उसकी चाभी समुद्र में फेंक दी थी I एक भेड़ गड्ढे में गिरती तो सभी उसका अनुकरण करतीं I कुछ भेड़ें भेड़िया बन गई थीं जो अक्सर अपने ही भाई – बंधुओं का शिकार करती रहती थीं I
भेड़तंत्र के तीन अंग थे – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका I कहने के लिए यहाँ एक संविधान भी था लेकिन तीनों अंगों के प्रभावशाली भेड़ियानुमा भेड़ें अपनी- अपनी सुविधा के अनुसार उस संविधान से अपनी कमीज बनवाती अथवा अपना कुर्ता सिलवाती थीं I संविधान में अनेक छिद्र थे जिस छिद्र से हाथी निकल जाता पर मक्खी बेचारी फंस जाती I भेड़ों के कई रंग और कई रूप थे I कुछ भेड़ रूप बदलने में भी माहिर थी I कुछ भेड़ों को बुद्धिजीवी कहा जाता था I इनका रंग सफ़ेद था I सफेदपोश भेड़ों ने धीरे- धीरे तीनों अंगो पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था I बुद्धिजीवी भेड़ें अपने शब्द – कौशल और चातुर्य से सत्ता प्रतिष्ठानों में विराजमान हो गई थीं I
धूर्तता और पाखंड इनके चरित्र का अविभाज्य अंग था I बुद्धिजीवी भेड़ों में आपस में अद्भुत एकता थी I ये ‘तुम मुझे उठाओ, मैं तुझे उठाऊं’ की नीति में विश्वास करती थीं I कुछ भेड़ें लाल रंग की थीं I ये खुद को साम्यवादी, जनवादी अथवा प्रगतिशील कहती थीं, लेकिन आचरण में समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता से इनका छत्तीस का नाता था I ये लाल भेड़ें परम स्वार्थी, गरीब विरोधी और दकियानूस थीं I यह एक दुर्लभ प्रजाति थी क्योंकि इनकी संख्या निरंतर कम होती जा रही थी I ‘झंडू बाम पार्टी’ के नेताओं के साथ इन कामनिष्ठ लाल भेड़ों का गुप्त स्नेह बंधन था I लाल भेड़ें झंडू बाम पार्टी के कामुक नेताओं के साथ अक्सर चोरी – छिपे सुहागरात मनाया करती थीं I लाल भेड़ें रात में सुहागरात मनातीं और दिन के उजाले में ‘झंडू बाम पार्टी मुर्दाबाद के नारे लगातीं I दिन में नारे लगाना और रात में अपना नाड़ा खोल देना इनके चरित्र की उदात्तता थी I विरोध का यह एक सर्वहारावादी तरीका था I लाल भेड़ों ने चतुराईपूर्वक चंपतपुर के इतिहास को गड्डमड्ड कर उसे झालमुरी बना दिया था I ये भेड़ें शब्द क्रीड़ा में अत्यंत माहिर थीं I ये पड़ोसी मुल्क चांगचुंगपुर से खाद, पानी, रस, गंध, संस्कार उधार लेतीं थीं लेकिन अपने मुल्क चम्पतपुर की संस्कृति और संस्कारों को हमेशा कोसती रहतीं और उसे हेय साबित करने का प्रयास करती रहती थीं I कुछ भेड़ें लाल टोपी पहनती थीं जो खुद को समाजवादी कहती थीं I इनके समाजवाद का अधोवस्त्र अपनी जाति के आँगन में सूखता था और इनके लोहियावाद की चोली भाई – भतीजे – भार्या की अलगनी पर टंगती थी I इत्र छिड़कने के बावजूद समाजवादी टोपी से धनशोधन, स्वार्थ और रिश्वतखोरी की बदबू निरंतर आती रहती थी I इन भेड़ों का समाजवाद जातिवाद की जूती पहनकर परिवारवाद का पद प्रक्षालन करता, भाई – भतीजावाद के तलवे चाटता तथा अपराधशास्त्र का नया अध्याय लिखता था I चंपतपुर में हरी भेड़ों की अपनी एक विशिष्ट पहचान थी I दुनिया में बुर्कानिस्तान की स्थापना करना हरी भेड़ों का परम एजेंडा था I इनका नारा था – दुनिया के बुर्काधारियों एक हों I हरी भेड़ों की अभिलाषा थी कि चंपतपुर की सभी भेड़ें बुर्का धारण करें, दिन में पाँच बार ‘बुर्का उठाओ, बुर्का गिराओ’ का अभिनय करें और अपनी जनसंख्या बढ़ाकर एक वृहत बुर्कानिस्तान की स्थापना करें I ये चंपतपुर के परिवार नियोजन कार्यक्रम को उल्टा लटकाकर ‘हम दो हमारे दो’ की जगह ‘हम दो हमारे चौदह’ की योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए अथक परिश्रम करती थीं I 24 X 7 बच्चा उत्पादन कार्यक्रम चालू था I इस राज्य की भेड़ें परम आज़ाद थीं I
सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद अचानक आज़ादी मिलने से भेड़ें अनुशासनहीन, उद्दंड और उच्छृंखल हो गई थीं I वे डंडे की भाषा समझती थीं I नियमों को तोडना – मरोड़ना इन भेड़ों का मूल चरित्र था I भेड़ें आज़ादी का भरपूर मजा लेती थीं I सड़क के बीचोबीच मंदिर, मस्जिद और मजार का निर्माण कर आज़ादी का सम्पूर्ण आनंद लिया जाता I चंपतपुर एक सेकुलर राज्य था, अतः धर्म के नाम पर सब कुछ करने की आज़ादी थी I रेलवे लाइन पर बाज़ार लगता, राष्ट्रीय राजमार्ग पर मेला आयोजित होता, सड़क पर नमाज अदा की जाती और पार्क में बड़ी – बड़ी दुकानें सज जातीं I बड़ा ही प्रीतिकर माहौल था, सर्वत्र सुख – शांति थी, कोई रोक – टोक नहीं, पूरी आज़ादी थी – परम स्वतंत्र कोऊ सिर पर नाहीं I चंपतपुर एक मुक्त राज्य था I ईमानदारी से मुक्त, नैतिकता से मुक्त, अनुशासन से मुक्त I कोई अवरोध नहीं, कोई बंधन नहीं I चंपतपुर की सबसे पुरानी पार्टी ‘झंडू बाम पार्टी’ ने यहाँ कई दशकों तक शासन किया था I इस पार्टी की भेड़ों ने अपनी दलाली कला से खूब धन अर्जित किया था I चम्पतपुर में दलाली ने उद्योग का दर्जा प्राप्त कर लिया था I जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कारों में आनेवाले झंझट- झमेलों और अवरोधों को दलाल ही दूर करते थे I दलाल चंपतपुर की जनता के पथ प्रदर्शक थे I इस राज्य का घोष वाक्य था – “यत्र दलाल: पूज्यन्ते रमंते तत्र देवताः” I झंडू बाम पार्टी ने दलाली कला को खूब पल्लवित – पोषित किया था I अतः चंपतपुर में दलाली एक विशिष्ट विधा के रूप में प्रतिस्थापित हो गई थी I झंडू बाम पार्टी के समर्थक चंपतपुर के मीडिया, शासन, न्यायपालिका में पर्याप्त संख्या में मौजूद थे I झंडू बाम पार्टी के शासनकाल में जज बनना सबसे आसान काम था I इस पार्टी के एक टकले नेता को जज बनाने में महारत हासिल था I वे जज बनाने में मादा भेड़ों को प्राथमिकता देते थे I वस्त्र उतारवादवाद के प्रति समर्पित और टकले नेता के लिए अखंड निष्ठा व अनुराग व्यक्त करनेवली मादा भेड़ें आसानी से जज की कुर्सी प्राप्त कर सकती थीं I नर भेड़ मुद्रा देवी के पुण्य प्रताप से टकले नेता को प्रसन्न कर जज के पद को सुशोभित करने के योग्य बन सकते थे I चंपतपुर राज्य की न्यायिक व्यवस्था निराली थी I विश्व में किसी अन्य देश में ऐसी निराली न्याय व्यवस्था नहीं थी I चम्पतपुर में भैंस वही ले जाता था जिसके हाथ में लाठी होती थी, दुल्हन वही ले जाता था जिसके हाथ में डोली होती थी, खेत गधा खाता था पर मार बेचारे जुलाहे को पड़ती थी I
सच्चाई से अधिक गवाह की कीमत थी और गवाह से अधिक मुद्रा देवी का पुण्य -प्रताप था I एक बार तो न्यायालय परिसर में एक अनहोनी घटना हो गई I जज के सामने ही एक अपराधी ने वकील को गोली मार दी I वकील साहब अपराधी से कुछ सवाल- जवाब कर रहे थे I उन्होंने कठघरे में खड़े अपराधी से कुछ असहज सवाल पूछ दिए I सवाल उसकी पत्नी के चरित्र से संबंधित था I क्रोध में आकर अपराधी ने वकील साहब को गोली मार दी I अपराधी का शहर में बड़ा आतंक था I जिस जज के सामने वकील साहब को गोली मारी गई थी उन्होंने ही गवाह के अभाव में अपराधी को बाइज्जत बरी कर दिया I न्यायपालिका में पूर्ण भाईचारा था I न्यायपालिका के प्रवेश द्वार पर लिखा था “यहाँ न्याय टके सेर बिकता है” I चंपतपुर के पचास परिवारों का राज्य की समस्त न्याय व्यवस्था पर एकाधिकार था I यहाँ न्यायमूर्तियों की बोली लगती, साधारण भेड़ – बकरी न्याय के लिए दर –दर भटकते पर अपराधियों के लिए न्यायालय के दरवाजे चौबीसों घंटे खुले रहते थे ‘अहर्निशं सेवामहे’ I “भाई भतीजा जज चयन समिति” द्वारा जजों का चयन किया जाता था I जजों की प्रथम और अंतिम योग्यता किसी जज का रिश्तेदार होना था I जज का साला या जज के साले का भतीजा या जज के भतीजे का जीजा या जज के मामा के जीजा का साला होना जज बनने की प्रथम और अंतिम योग्यता थी I चंपतपुर की विधायिका का कोई जवाब नहीं था I हजारों नियम, उपनियम, अधिनियम बने थे लेकिन मुद्रा देवी की कृपा से नियमों से बचने के हजारों रास्ते भी खुले थे I कुछ शातिर भेड़ तो नियम बनने के पहले ही उससे बचने का सरल और स्थायी मार्ग खोज लेते थे I
आज के डिजिटल युग में ‘हिन्दी दिवस’ के अवसर पर आपको तमाम लेख, रचनाएं, टिप्पणियां पढ़ने, सुनने और देखने को मिल जाएंगी। हर कोई यह बताने जुटा होगा कि आखिर, 14 सितम्बर को ही हिन्दी दिवस क्यों मनाया जाता है? ‘हिन्दी’ को राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए किन-किन लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, यह भी जानने, पढ़ने को मिल जाएगा। लेकिन, क्या आपको पता है कि वर्तमान में इसी ‘हिन्दी’ की दुर्दशा कर दी गई है? आख़िर, यह ‘हिन्दी दिवस’ क्या मात्र एक पर्व के रूप में मनाने के लिए ही है? दरअसल, जो ‘हिन्दी’ कल तक हिन्दीभाषी क्षेत्र के लोगों कीे जीवनशैली हुआ करती थी, आज वह एक विषय बनकर रह गई है। अभी हाल ही में, उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद में 10वीं और 12वीं का जब रिजल्ट आया, तो उसने सबको चौंका दिया। हां, कुछ लोग ऐसे भी थे, जो यह कहने जुटे थे, ‘अरे, बड़ा टफ (कठिन) सब्जेक्ट (विषय) है हिन्दी…!’ अब, इसे आप दुर्भाग्य नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? जब व्यक्ति को अपनी जीवनशैली ही कठिन लगने लगे तो समझ लीजिए कि उसका मानसिक पतन शुरू हो चुका है। यूपी बोर्ड की हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट की परीक्षा वर्ष 2020 में कुल 7 लाख 97 हजार परीक्षार्थी हिन्दी विषय में अनुत्तीर्ण हो गए। सोचिंए, हिन्दीभाषी क्षेत्र का हृदय उत्तर प्रदेश में हिन्दी की यह दुर्दशा हुई।
यदि इन आंकड़ों पर अगल-अगल नज़र डालें तो इण्टरमीडिएट में 2 लाख 70 हजार परीक्षार्थी और हाईस्कूल में 5 लाख 28 हजार परीक्षार्थी ‘हिन्दी’ विषय की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाए। हाईस्कूल और इण्टर के करीब 2 लाख 39 हजार परीक्षार्थियों ने हिन्दी का प्रश्नपत्र ही छोड़ दिया। पता है, यह किस ओर इशारा कर रहा है? यह इशारा है कि हम ‘हिन्दी’ को उतना महत्वपूर्ण नहीं मान रहे, जितना कि अंग्रेजी को। कहने में कोई गुरेज नहीं है कि आज अभिभावक अपने बच्चों को जिस तरह कान्वेन्ट शिक्षा दिलाकर एक उज्जवल भविष्य के सपने देख रहे हैं, उनका आने वाला कल उतना ही अधिक भयावह होगा। वह इसलिए, क्योंकि कल यही संताने आपके ‘पेन’ को सुन तो लेंगी, लेकिन ‘दर्द’ को महसूस नहीं कर पाएंगी। यही संताने कल ‘आप’ को भी ‘यू’ कहेंगी और आप कुछ नहीं कर पाएंगे। यही संताने आपके चोट लगने पर ‘ओ माय गाॅड’ कहकर दोनों गालों पर अपनी हथेलियां रखकर सोशल मीडिया की इमोजी की तरह नज़र तो आएंगी, लेकिन ‘अरे…’ कहकर आपको हाथ देकर उठाएंगी नहीं। शायद, उस वक्त आपको अंदाजा होगा कि आपने ‘हिन्दी’ के साथ क्या किया? आपको कोई अधिकार नहीं है कि आप उन पुरखों की आत्मा को कष्ट दीजिए, जिन्होनें ‘हिन्दी’ को राजभाषा बनाने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर किया। यदि तत्कालीन ‘हिन्दी’ के सेवकों ने संघर्ष न किया होता जो आज भारत की राजभाषा ‘हिन्दी’ नहीं अपितु ‘हिन्दुस्तानी’ होती।
यह जो यूपी बोर्ड के रिजल्ट आए, इनमें एक और बात गौर करने वाली थी। इण्टर के ज़्यादातर परीक्षार्थी ‘आत्मविश्वास’ शब्द नहीं लिख पाए। परीक्षार्थियों ने ‘यात्रा’ की जगह अंग्रेजी में ‘सफर’ शब्द का प्रयोग लिखा। अब, आखिरकार इनमें आत्मविश्वास कितना है, इसका अंदाजा लगाना बुद्धिजीवियों के लिए काफी सहज है। क्या सोंचते हैं आप, यह सब आसान है या यह सिर्फ एक ख़बर बनकर रह गई है? यदि आप इन दोनों में से कुछ भी ऐसा सोंचते हैं तो आप आंखों पर पट्टी बांधे हुए हैं। सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों में हिन्दी की क्या दशा है, यह किसी से छिपी नहीं है। हिन्दी में अंग्रेजी का मिश्रण कर परोसने की आदत भी अब लोगों में लत बनती जा रही है। चाहे वह मीडिया का क्षेत्र हो या फिर शिक्षा का, हर जगह यह मिलावट मूल चीज को ‘समूल’ नष्ट करने जुटी है। लेकिन, फिर भी धुरंधर लोग 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाएंगे। लम्बे-लम्बे भाषण देंगे। ट्विट्र, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर कार्यक्रमों की फोटो अपलोड होंगी और फिर कार्यक्रम के बाद, ‘थैंक्यू एवरीवन’ होगा। बस, उस वक्त सिर्फ एक चीज़ ‘धन्यवाद’ कहीं मुंह छिपाए इस आस में कोने में दुबका खड़ा होगा कि कोई तो साधारण सा व्यक्ति होगा, जो मेरी भी कद्र करेगा। जाग जाइए। अभी भी वक्त है। सम्भल जाइए। हिन्दी को ज़िन्दा रखना बहुत जरूरी है। वरना, आने वाली पीढ़ियां अंतिम संस्कार भी डिजिटल अंग्रेेजी में कर देंगी और आप अपने पिण्डदान को तरस जाएंगे। यह सब इसलिए क्योंकि इस बात को अभी भी आत्मसात कर लीजिए कि, ‘हिन्दी आधार है…।’