दूषित जल पिलाने की तैयारी

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औद्योगिक विकास और बढ़ते शहरीकरण ने आखिरकार अमेरिका समेत पूरी दुनिया में ऐसे हालात पैदा कर दिए है कि मल-मूत्र का शुद्धिकरण करके बोतलबंद पेयजल के निर्माण का धंधा षुरू हो गया है। दिग्गज कंप्युटर कंपनी माइक्रोसाप्ट के सह संस्थापक बिल गेट्स ने इस पानी को पीकर इसके शुद्ध होने की पुश्टि की है। इस उपलब्धि को विष्व में गहराते पीने के पानी के संकट को दूर करने की दिशामें बड़ी सफलता जताकर प्रचारित किया जा रहा है। किंतु उपलब्धि का पहलू यह भी है कि पानी को शशुद्धिकरण का ‘ओमनी प्रोसेसर‘नामक जो संयंत्र अस्तित्व में लाया गया है,उसका विष्वव्यापर बाजार भी तैयार करना है। बिल गेट्स की अमेरिका की ही जैनीकी बायोएनर्जी कंपनी के साथ भागीदारी है। इसीलिए गेट्स ने अपने ब्लाग में लिखा है,‘यह पानी स्वच्छता और मानकों का पालन करके बन रहा है। मैं इसे खुषी-खुषी पीने को तैयार हूं। यह जल शुद्ध है और स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है।‘ वाकई में जल कितना शुद्ध है,ये नतीजे तो इसके प्रयोग होने के कुछ साल बाद सामने आएंगे,लेकिन क्या यह हैरतअंगेज स्थिति नहीं कि आधुनिक जीवन-षैली ने आखिर हमें कहां पहुंचा दिया है कि गंदगी से बजबजाते जिन नालों को देखकर ही उबकाई होने लगती है,उस पानी को पीने के लिए हम विवश हो रहे है ? जबकि प्रकृति ने हमें जल के भरपूर स्रोत दिए हैं। परंतु विकास के बहाने जल स्रोतो को नश्ट कर दिया जाएगा तो यही हालात पैदा होंगे ?विज्ञान तकनीक की दुनिया में जल के शशुद्धिकरण के संयंत्र का निर्माण कर लेना एक बड़ी सफलता जरूर है,लेकिन जल स्रोतो को दूषित करके शुद्ध पेयजल का विकल्प मल-मूत्र में तलाशना एक घिनौनी उपलब्धि है। ऐसे पानी की उपयोगिता को केवल विशम परिस्थिति में जीवन के लिए जरूरी माना जा सकता है। यदि यह जल पेयजल के रूप में बड़े पैमाने पर स्वीकार कर लिया गया तो दुनिया में शुद्ध जल के प्राकृतिक स्रोतों को निचोड़ने का सिलसिला और तेज हो जाएगा। वैसे भी भारत समेत दुनिया भर में नदियों को सिंचाई और उर्जा संबंधी जरूरतों की पूर्ति के लिए इस हद तक निचोड़ा जा रहा है कि उनकी अविरल जल-धाराएं अवरूद्ध होती जा रही हैं। जबकि प्रवाह की निरंतरता नदियों को निर्मल बनाएं रखने की पहली शर्त है। भारत में नदियां पानी का सबसे बड़ा स्रोत हैं,किंतु ज्यादातर नदियों में सीवरेज का पानी और कारखानों से निकले रसायनों के बहाने से नदियां बुरी तरह प्रदूषित हैं। गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों का जल भी पीने लायक नहीं रह गया है। अकेली गंगा के शुद्धिकरणके लिए 15 अरब की मल-जल परियोजनाओं को नरेंद्र मोदी सरकार ने मंजूरी दी है।दूषित जल को पुनर्चक्रित करने का पहला प्रयोग 1929 में लाॅस एंजिल्स में हुआ था। इस तरह शुद्ध किए पानी का उपयोग बगीचों और गोल्फ के मैदानों में सिंचाई के लिए किया जाता है। इस दिशामें दूषित जल को पेयजल में बदलने की लगातार कोषिषें होती रही हैं। इन कोषिषों का उद्देष्य बोतलबंद पानी का बाजार भी तैयार करना है। इसलिए इन परिक्षणों में धनराषि खर्च करने का जोखिम पष्चिमी देषों के पूंजीपति उठाते रहे हैं। बिल गेट्स और उनके सहयोगी पीटर जैनिकी ने ‘ओमनी प्रोसेसर‘नामक जो संयंत्र बनाया है,उसकी स्थापना के लिए पीटर भारत और अफ्रीका जैसे देषों का दौरा कर चुकें हैं,क्योंकि इन देषों में अवैज्ञानिक ढंग से मल-मूत्र का विसर्जन सबसे ज्यादा है और शुद्ध पेयजल की मांग की तुलना में आपूर्ति भी नहीं हो पा रही है, सो यहां कच्चे माल के साथ बाजार की भी न उपलब्धता दुनिया के व्यापारी देख रहे है।अमेरिका के अलावा कनाडा भी ऐसी प्रौद्योगिकी विकसीत करने में जुटा है,जिससे पेयजल और गंदे पानी के शशुद्धिकरण में क्रांति आ जाए। जाहिर है,यह
खासतौर से विकासषील देषों के स्वाभाविक जल स्रोत नश्ट करके लाए जाने उपाय आर्थिक रवाद के साथ ही षुरू हो गय थे। जब अनियंत्रित औद्योगिक विकास और शहरीकरण का सिलसिला षुरू किया गया था। इसके बाद से ही भारत में पानी की उपलब्धता घटती गई। नतीजतन समस्या भयावाह होती चली गई। 2001 से 2011 के बीच भारत में घरों की संख्या 24 से 33 करोड़ हो गई। इसी अनुपात में शहरों और कस्बों का विस्तार हुआ। इस विकास क्रम ने दो समस्याएं एक साथ उत्पन्न कीं,एक तो घरों में वाटर-फ्लश वाले षौचालयों की संख्या बढ़ गई। इनमें मल बहने के लिए एक साल में करीब 1.5 लाख लीटर पानी की बर्बादी जरूरी हो गई। रोगमुक्त यह प्रणाली मल की सफाई के लिए उपयुक्त मानी गई। किंतु स्वच्छ जल स्रोतों में पानी की निकासी के कारण ये गंदे पानी के भंडारों में तब्दील हो गए। दूसरी समस्या यह खड़ी हुई कि जल स्रोतों के दूषित हो जाने से आर्थिक रूप से कमजोर तबकों की करीब चार करोड़ महिलाओं को रोज पीने का पानी लाने के लिए आधे से एक किलोमीटर की दूरी तय करने की मार झेलनी पड़ रही है। यदि पानी की वत्ता का ख्याल करें तो हालात और भी गंभीर हैं। दूषित पानी की वजह से एक तो दुनिया में सबसे ज्यादा लोग भारत में ही बीमार होते हैं। दूसरी तरफ पानी की कमी के दुश्परिणाम समाजिक तनाव और हिंसा के रूप में भी देखने को मिलते हैं। दूषित जल की भयावहता को यदि वैष्विक स्तर पर नापें तो खराब जल-निकासी व गंदगी के कारण हर साल करीब 20 लाख बच्चों की मौत होती हैं,जबकि 60 लाख बच्चों की मौत भूख व कुपोशण से होती है।इन रिर्पोटों के मद्देनजर विकसित देश गंदे पानी को बोतलबंद पेयजल में बदलने की कोषिषों में लगे हैं। जल शशुद्धिकरण की वर्तमान प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से पानी में से धूल के कण और उसमें मौजूद रोगाणुओं को नश्ट किया जा सकता है,लेकिन यह प्रौद्योगिकी दवाओं,कीटनाशकों,सौंदर्य प्रसधानों और रासायनिक खाद में विलय महीन विशाक्त पद्धार्थों को अलग करने में सक्षम नहीं है। हालांकि ओटावा के कर्लिटन विष्व विद्यालय के षोधकर्ता बानू ओरमेसी और एडवर्ड लाई ऐसे महीन कण विकसित करने में गे हैं,जो कारखानों और मल षोधक संयंत्रों से निकले जल से प्रदूशकों को दूर कर सकें। इन धकर्ताओं
को ऐसी उम्मीद हैं कि ये महीन कण दूषित जल में मौजूद गंदगी को चुबंकीय शक्ति से खुद से चिपका लेंगे और इस तरह जल शुद्ध हो जाएगा। लेकिन इस प्रयोग का अभी अंतिम निश्कर्श नहीं आया है।बिल और उनके सहयोगी जैनीकी ने जो ओमनी प्रोसेसर संयंत्र का अविश्कार किया ,उसमें उच्च तापमान के जरिए गंदगी को अलग करने की तकनीक अपनाई गई है। एक डंायर में सीवरेज के मल को भाप में बदलकर पाइप के माध्यम से ठंडी नलियों में डाला जाता है। इस प्रक्रिया से गंदगी सूख जाती है। इस सूखी गंदगी को भट्टी में ऊंचे तापमान पर जलाया जाता है। इससे उच्च तपमान में तीव्र गति की भाप का उत्सर्जन होता है,इसे सीधे भाप इंजन में भेजा जाता है। इस भाप के दबाव से संयंत्र से जुड़ा जेनरेटर चालू हो जाता है और बिजली बनने लगती है। ह
उत्पाद के रूप में जो भस्म अवषेश के रूप में मिलती है,उसे खेतों में खाद के रूप में काम में या जा सकता है। इस प्रक्रिया के दूसरे चरण में बनी भाप को स्वच्छता प्रणालियों से तब तक गुजारा ता है,तब तक यह भाप स्वच्छ पानी में बदल नहीं जाती। इस सब के बावजूद इस जल को र्विवाद के रूप से शुद्ध नहीं माना जा सकता है, क्योंकि ताजा षोधों से पता चला है कि सुक्ष्मजीव 70 डिग्री सेल्सियश उच्च तापमान और षून्य से 40 ड्ग्रिी सेल्सियश निम्न तापमान में भी जीवित पाए ए हैं। इसलिए खासतौर से भारत को इस अमेरिकी निर्मित संयंत्र से बचने की जरूरत है। वह इसलिए भी,क्योंकि जैनिकी बाजार तलाशने के भारत का दौरा कर कुदरत ने भारत को शुद्ध जल के रूप में गंगा जैसी नदी वरदान में दी है। गंगा का जल स्वाभाविक रूप से अशुद्ध नहीं होता। हिमालय की गोद में स्थित गंगौत्री की कोख से निकली गंगा का जल इसलिए खराब नहीं होता क्योंकि इसमें गंधक और खनिजों की मात्रा सर्वाधिक पाई जाती है। इसका जल इसलिए भी भावों से अछूता रहता हैं,क्योंकि यह हिमालय पर्वत में मौजूद जीवनदायी जड़ी-बूटियों से स्पर्ष व संघर्श करता हुआ नीचे उतरता है। इस कारण इनके गुणी तत्वों का समावेशन गंगाजल में सहजता से होता रहता है। नए षोधों से यह भी पता चला है कि गंगा-जल में ‘बैटिंया-फोस‘नामक जीवाणु पाया जाता है,जो पानी के भीतर रासायनिक क्रियाओं से उत्पन्न होने वाले हानिकारक पद्धार्थों को निगलता रहता है। इससे कीड़े नहीं पनपते। फलतः पानी शुद्ध बना रहता है। लेकिन औद्योगिक विकास और बढ़ते शहरीकरण ने हरिद्वार के नीचे गंगा को प्रदूषित कर दिया है। गोया,देश को यदि मल-मूत्र से बने पेयजल की मजबूरी से बचाना हैं तो गंगा ही नहीं देश की सभी नदियों के पारिस्थिति तंत्र को संवारना होगा। अन्यथा विष्व बाजार यहां मजबूत प्रचार-तंत्र के चलते उपभोक्ता तो तलाश लेगा लेकिन उपभोक्ता निरोगी बने रहेंगे इसकी कोई गांरटी
प्रमोद भार्गव

 

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