विपिन किशोर सिन्हा
कर्ण का व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली था। लंबी समानुपातिक देहयष्टि, चमकता हुआ हिरण्यवर्ण, कानों में लटकते हुए स्वर्णिम आभा के दो मांसल कुंडल, आँखों में विश्वास की ज्योति और चालों में राजपुरुषों की गरिमा। विश्वास ही नहीं होता था कि वह सूतपुत्र है। उसके पांव माता कुन्ती के पांवों की छविकृति थे। उसपर दृष्टि जाते ही मन उसके प्रति श्रद्धा और प्रेम से भर जाता था। मैंने प्रारंभ में उसके साथ मित्रता के प्रयास भी किए। हम शर-संधान में स्वस्थ प्रतियोगिता करते थे। गुरु द्रोण के समस्त कुरुवंशी, वृष्णिवंशी शिष्यों में एकमात्र कर्ण ही मेरे समकक्ष था। इस तथ्य से मेरे और गुरु द्रोण के अतिरिक्त, दुर्योधन भी अवगत हो रहा था। उसकी पैनी दृष्टि हर पल कर्ण का पीछा करती थी। भैया भीम कर्ण को कभी-कभी सूतपुत्र कहकर चिढ़ा दिया करते और कहते –
” तुम्हें धनुर्विद्या की क्या आवश्यकता है? अन्ततः तुम्हें रथ ही तो हाँकना है. तुम्हें तो कुशल सारथि बनने की कला तुम्हारे पिता ही सिखा सकते हैं। अतः इस विद्या के लिए गुरु द्रोण की नहीं, तुम्हें अपने पिता की शरण में जाना चाहिए।”
कर्ण तिलमिला कर रह जाता, उसके स्वर्णिम कुण्डल रक्तवर्ण हो जाते लेकिन भीम भैया पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. वे हो-हो कर हँसते रहते। मैं ऐसी बातें करने से उन्हें मना करता लेकिन वे माता कुन्ती और भैया युधिष्ठिर के अतिरिक्त किसी की बात मानते कहाँ थे। मैं कर्ण के साथ अधिक से अधिक अभ्यास करने का प्रयास करता क्योंकि स्वस्थ प्रतियोगिता मुझे समयपूर्व निपुणता प्रदान कर रही थी। दुर्योधन की पैनी दृष्टि ने इसे ताड़ लिया। वह कर्ण से प्रयासपूर्वक निकटता बढ़ाने लगा। भीम की बातों और गुरु द्रोण की मेरे प्रति बढ़ती आत्मीयता, अगाध स्नेह और समय-समय पर प्रत्यक्ष पक्षपात ने भी उसके मन में ईर्ष्या का भाव भर दिया। गुरुकुल में सभी विद्यार्थी स्पष्ट रूप से दो पक्षों में विभाजित थे, एक दल हमारा था तो दूसरा दुर्योधन का। तटस्थ कर्ण धीरे-धीरे दुर्योधन पक्ष का एक अभिन्न अंग बन गया और हमलोगों के विरुद्ध दुर्योधन के षड्यन्त्रों में सक्रिय भूमिका भी निभाने लगा। मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही थी कि वह सबसे अधिक मेरा ही विरोध क्यों करता था जबकि मैंने कभी प्रत्यक्ष या परोक्ष उसके प्रति कटु वचन नहीं कहे थे। मेरे मन में उसके प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी। उसने मेरे साथ अभ्यास करना भी बंद कर दिया। अब मेरे पास अतिरिक्त समय निकालकर स्वयं एकाकी अभ्यास करने के सिवा कोई विकल्प भी नहीं था। मैं आश्रम में सबके निद्रामग्न होने की प्रतीक्षा करता और नदी के तट पर जाकर आधी रात तक अकेला धनुर्विद्या का अभ्यास करता। मेरे धनुष की टंकार सुन एक रात गुरु द्रोण की निद्रा भंग हुई। उन्होंने अतिरिक्त अभ्यास करते हुए मुझे पकड़ लिया। पहले तो मैं भयभीत हुआ लेकिन दूसरे ही क्षण मैंने अनुभव किया – गुरु ने मुझे अपने वक्षस्थल से लगा लिया था, आशीर्वाद देते हुए कह रहे थे –
“पुत्र अर्जुन! तेरी यह लगन, समर्पण, श्रम, यह अतिरिक्त अभ्यास तुझे संपूर्ण विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाएंगे, यह मेरा विश्वास है और आशीर्वाद भी।”
मैंने धरती पर बैठ उनके चरणों में अपना माथा रख दिया था।
गुरु द्रोण अपनी समस्त विद्या के उत्तराधिकारी के रूप में मुझे सबसे उपयुक्त पात्र समझते थे। उन्हें मेरे शिष्यत्व पर पूर्ण विश्वास था। उन्होंने अल्प अवधि में ही मुझे धनुर्विद्या से संबंधित सभी शास्त्रों का मात्र ज्ञान ही नहीं दिया, बल्कि नित्य सघन अभ्यास कराकर पारंगत भी कर दिया। मुझे नालीक, कर्णी, बस्तिक, सूची, गवास्थी, गजास्थी, कपिश, पूती, कंकमुख, सुवर्णपंख, नाराच, अश्वास्थी, आंजलिक, सन्नतपर्व, सर्पमुखी आदि बाणों के सफल संचालन में दक्षता प्राप्त हो गई। धनुर्विद्या के अतिरिक्त उन्होंने मुझे शूल, तोमर, परिघ, प्रास, शतघ्नी, खड्ग पट्टिश, भुशुंडि, गदा, चक्र आदि अनेक शस्त्रों की प्रयोगविधि भी सहजभाव से सिखाई। मैंने सतत अभ्यास के द्वारा इनके प्रयोग में दक्षता भी प्राप्त की। मुझे अपने पूज्य गुरुदेव द्वारा देवदुर्लभ आग्नेयास्त्र, नारायणास्त्र, वारुणास्त्र, वायव्यास्त्र आदि दिव्यास्त्रों की प्रयोगविधि भी प्रयत्नपूर्वक प्रदान की गई। उन्होंने मुझे दुर्लभ ब्रह्मास्त्र भी प्रदान किया। कालान्तर में पुत्र अश्वत्थामा के विशेष हठ पर उन्होंने उसे भी ब्रह्मास्त्र का ज्ञान दिया। वैसे वे मेरे अतिरिक्त किसी भी शिष्य को ब्रह्मास्त्र शिक्षा का उपयुक्त पात्र नहीं मानते थे।
हम लोगों का आश्रमिक जीवन अब उत्तरार्ध की ओर था। गुरुवर के अनुसार हमलोगों ने अपनी शिक्षा पूर्ण कर ली थी। राजभवन वापस भेजने के पूर्व गुरु द्रोणाचार्य ने समस्त विद्याओं की परीक्षा लेने का निर्णय किया। उन्होंने कुशल शिल्पी से एक गृद्ध की प्रतिकृति बनवाकर एक ऊँचे वृक्ष के शीर्ष पर पत्तियों के बीच टांग दिया। यह वृक्ष घनघोर जंगल में वेग से बहती हुई नदी के समीप स्थित था। उसकी कलकल छलछल ध्वनि बरबस हम सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती थी। पक्षियों का विशेष कलरव कानों को विशेष आनन्द प्रदान कर रहा था। नीला आकाश और मन्द-मन्द चलती हवा मुझे गंधमादन पर्वत की स्मृतियों में बरबस ढकेल रही थी कि सहसा गुरुवर की गंभीर वाणी ने ध्यान भंग किया –
“तुम सभी मुझे अत्यन्त प्रिय हो। तुम लोगों ने अत्यन्त लगन और समर्पण के साथ मेरे द्वारा प्रदत्त सारी विद्याएं ग्रहण की है। अब तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हो गई है। लेकिन परीक्षा अभी शेष है। आज वही परीक्षा की घड़ी तुम सबके सम्मुख उपस्थित है। धनुष पर बाण चढ़ाकर तत्पर हो जाओ। मेरे संकेत मिलते ही वृक्ष के शीर्ष पर स्थित गृद्ध की दाईं आँख की पुतली को एक ही बाण से एक ही प्रयास में बेधना होगा।”
क्रमशः