शिक्षा से जुड़े सवालों का अनुत्तरित होना

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Road sign to education and future

ललित गर्ग-

दुनिया के परिदृश्य में भारत में जिस रफ्तार से प्रगति हो रही है, चाहे वह आर्थिक हो, सांस्कृतिक हो, वैज्ञानिक हो, कृषि की हो, तकनीक की हो, उस अनुपात में देश में शिक्षा की अपेक्षित प्रगति आजादी के 70 वर्ष बाद भी हासिल न होना शोचनीय है। नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने तब से एक नये युग के आरंभ की बात कही जा रही है। न जाने कितनी आशाएं, उम्मीदें और विकास की कल्पनाएं संजोयी गयी हंै और उन पर न केवल देशवासियों की बल्कि समूचे विश्व की निगाहें टिकी हुई है। लेकिन शिक्षा की धीमी गति एवं शिक्षा के प्रति सरकार की ढुलमुल नीति विडम्बनापूर्ण स्थिति को दर्शाती है। शिक्षा की उपेक्षा करके कहीं हम विकास का सही अर्थ ही न खो दे। ऐसा न हो जाये कि बस्तियां बसती रहे और आदमी उजड़ता चला जाये।

इनदिनों बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम चर्चा में हैं। सीबीएसई के हाईस्कूल और इंटरमीडिएट, दोनों के परिणाम आ गए हैं और कुछ राज्यों के नतीजे भी निकले हैं। कुछ राज्य बोर्डों के नतीजे विवाद का विषय भी बन गए हैं, तो कहीं शिक्षा का मखौल भी उड़ते हुए देखा गया। टीवी पर बिहार में फेल हो गये इस वर्ष के छात्रों को पास करने के लिये खुलेआम हो रही सौदेबाजी की लाइव प्रस्तुति ने तो शर्मिन्दा ही कर दिया। बिहार में ही पिछले साल 12वीं की बोर्ड परीक्षा में टॉपर घोटाला काफी चर्चित रहा। जिसमें इंटर परीक्षा में कला और विज्ञान संकाय में टॉपर रहे रूबी राय और सौरभ कुमार के नकल से टाॅपर बनने के खुलासे के कारण बिहार को परीक्षा में नकल को लेकर राष्ट्रव्यापी फजीहत झेलनी पड़ी। वैसे भी बिहार में बार-बार शिक्षा की धज्जियां की उड़ते हुए देखी गयी है, वहां शिक्षा को मजाक बना रखा है, इन गंभीर एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियों पर केन्द्र एवं राज्य सरकार का मौन अधिक आश्चर्यकारी है।

पिछले दो दशकों से जितनी उठापटक शिक्षा के क्षेत्र में होती आई है, उतनी शायद किसी और क्षेत्र में नहीं हुई। माध्यमिक स्तर पर तो क्या पढ़ाया जाए, कैसे पढ़ाया जाए, परीक्षाएं कैसे ली जाए, यही तय नहीं हो पा रहा है। पाठ्यक्रम में बदलाव भी चर्चा का विषय बनता रहा है। केंद्र में जो भी सरकार आती है, वह इस पर अपने तरीके से प्रयोग करने लगती है। यूपीए सरकार ने 2010 में दसवीं का बोर्ड हटा दिया। यह कहकर कि कच्ची उम्र में बच्चों पर बहुत ज्यादा दबाव रहता है। लेकिन एक साल बाद उसी सरकार ने बोर्ड को स्वैच्छिक बनाकर वापस ला दिया। यानी कोई चाहे तो बोर्ड में बैठे, न चाहे न बैठे। इसलिये सात दशक बीत जाने के बाद भी हम तय नहीं कर पाये कि हमारी शिक्षा प्रणाली कैसी हो? शिक्षा का समूचा ढ़ाचा किस तरह संचालित हो? छात्रों को क्या पढ़ाया जाये? इन अनिर्णायक, अपरिपक्व, एवं आधी-अधूरी मानसिकता से संचालित हो रहे शिक्षातंत्र को लेकर हम विश्व में अव्वल होने का ख्वाब देख रहे हैं, जबकि भारत शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 3.83 फीसदी हिस्सा खर्च करता है और इतनी-सी रकम विकसित देशों की बराबरी करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यदि हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था में प्रभावशाली बदलाव नहीं किए तो विकसित देशों की बराबरी करने में छह पीढ़ियां खप जायेगी तो भी हम उनकी बराबरी नहीं कर पायेंगे। क्योंकि अमेरिका शिक्षा पर अपनी जीडीपी का 5.22 फीसदी, जर्मनी 4.95 फीसदी और ब्रिटेन 5.72 फीसदी खर्च करता है।

शिक्षा के राजनीतिकरण का ही परिणाम है कि हमने उसे लुढ़कना लौटा बना दिया है। सभी राजनीतिक दल राजनीनिक स्वार्थों की रोटियां सेंकने के लिये शिक्षा रूपी तवे का इस्तेमाल करते रहे हैं। उनके द्वारा कभी यह पढ़ाना अनिवार्य किया जाता है तो कभी वह। कभी बोर्ड परीक्षा को अनिवार्य बना दिया जाता है कभी उसे हटा दिया जाता है। हाल ही में सीबीएसई ने 2018 से दसवीं की बोर्ड परीक्षा को फिर से अनिवार्य करने का निर्णय लिया है। इसके पीछे सरकार का तर्क है कि इससे गुणवत्ता वापस आएगी। गुणवत्ता कैसे आती है और यह असल में है क्या, यह हर सरकार अपने-अपने तरीके से तय करती है। मौजूदा केंद्र सरकार की चिंता है कि इतिहास सही ढंग से नहीं पढ़ाया जा रहा। इसीलिये इतिहास का पाठ्यक्रम पूरा ही बदल देने की कौशिश चल रही है। लेकिन क्या इससे शिक्षा की दशा सुधर जाएगी?
सीबीएसई ने छात्रों का बोझ बढ़ाने वाला एक और नया प्रस्ताव दिया है। सीबीएसई का नया फैसला अगर लागू हो गया तो 10वीं कक्षा तक के छात्र-छात्राओं के लिए तीन भाषाओं का अध्ययन करना अनिवार्य हो जायेगा। अभी तक यह नियम आठवीं तक ही लागू है। छात्रों को हिंदी, अंग्रेजी के साथ अपनी क्षेत्रीय भाषा या विदेशी भाषा को चुनना होगा। सीबीएसई ने यह सिफारिश मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भेजी है। लेकिन प्रश्न है कि क्या सरकार किसी भी नयी व्यवस्था या नीति को लागू करने की तैयारी में है? क्या स्कूलों में विज्ञान और गणित पढ़ाने के लिए अच्छे शिक्षक हैं? क्या सभी स्कूलों में ठीक-ठाक प्रयोगशालाएं हैं? वह सब छोड़िए, क्या सभी स्कूलों में बच्चे और शिक्षक पहुंच रहे हैं? कुछ राज्य सरकारों को छोड़ दें तो ज्यादातर के पास शिक्षित बेरोजगारी दूर करने के नाम पर लोगों को मास्टर या दरोगा बनाने का रास्ता ही बचा है। यानी रोजगार देने के नाम पर शिक्षक बनाए जा रहे हैं, योग्यता की परवाह किसे है? भाषाओं की चिन्ता तो बाद की है।

स्कूलों में शिक्षकों की कमी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एक बड़ी चुनौती है। शिक्षकों की प्राथमिक जिम्मेवारी है बच्चों को पढ़ाना लेकिन, स्कूलों के प्रबंधन और कई तरह के गैर-शैक्षणिक कार्यों में भी शिक्षकों को लगाना एक परिपाटी बन गयी है। यह समस्या सरकारी स्कूलों में सरकारी कामकाज तक सीमित है बल्कि निजी और अर्द्ध-सरकारी विद्यालयों में बड़े पैमाने पर दूसरे रूपों में भी विद्यमान हैं। निजी स्कूलों शिक्षकों को पढ़ाने के अलावा बच्चों को घर तक छोड़ने जाना, नामांकन के लिए अभिभावकों से मिलना और उनके सवालों के उत्तर देने के कार्य करने होते हैं जबकि सरकारी स्कूलों में आज भी जनगणना, चुनाव, पोलियो ड्राप पिलाने, पोशाक एवं छात्रवृति वितरण जैसे कार्यों में लगाया जा रहा है। अनेक बड़े सरकारी आयोजन इन्हीं शिक्षकों की तैनाती पर सफल होते हैं। सीबीएसई ने इस साल भी निर्देश जारी कर संबद्ध विद्यालयों को कहा है कि वे शिक्षकों पर ऐसे कार्यों का बोझ नहीं डालें, जो शिक्षा से जुड़े हुए नहीं हैं, लेकिन सरकार की कथनी और करनी में अन्तर यहीं देखा जा सकता है। स्कूलों का इंफ्रास्ट्रक्चर प्रायः नदारद है, और जहां है भी वहां कम से कम राज्य बोर्डों से पढ़ाई करने की कोई वजह बच्चों के पास नहीं बची है। सरकार पूरे देश में एक कर प्रणाली के लिए जैसी गंभीरता जीएसटी को लेकर दिखा रही है, वही गंभीरता उसे देश में एक शिक्षा प्रणाली लागू करने को लेकर भी दिखानी चाहिए।

दुनिया भर में छात्र कैसे सीखते हैं और कैसे पढ़ते हंै, यह एक बड़ा विषय है। शिक्षक ब्लैकबोर्ड पर चॉक से लिखते हैं, लेकिन इसके बावजूद कक्षाओं में स्थान के साथ अंतर दिखता है। कुछ जगह नन्हे छात्र बाहर कामचलाउ बेंचों पर बैठते हैं, तो कहीं जमीन पर पद्मासन की मुद्रा में और कुछ ऐसे स्थान हैं जहां लैपटॉप के सामने बच्चे पढ़ते हैं। बड़ा फासला है सुविधाओं एवं साधनों को लेकर। दुनिया के शीर्ष 100 उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में भारत के शीर्ष कालेजों एवं विश्वविद्यालयों का स्थान नहीं होने का मुद्दा कई सालों से चिंता के विषयों में शामिल रहा है। लेकिन इससे भी बड़ा मुद्दा है भारत की प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा का एक सार्थक दिशा में अग्रसर न होना। जब तब यह सुदृढ़ एवं विकसित नहीं होगा, उच्च शैक्षणिक संस्थाओं का भी समुचित विकास नहीं हो सकेगा।

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