श्रीकृष्णः स्वतंत्र मूल्यों के पक्षधर

0
167

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर विशेष

प्रमोद भार्गव

प्राचीन संस्कृत साहित्य की मान्यताओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण दस अवतारों में से एकमात्र सोलह कलाओं से निपुण पूर्णावतार थे। कृष्ण को लोक मान्यताएं प्रेम और मोह का अभिप्रेरक मानती हैं। इसीलिए मान्यता है कि कृष्ण के सम्मोहन में बंधी गोपियां अपनी सुध-बुध और मर्यादाएं भूल जाया करती थीं। कृष्ण गोपियों को ही नहीं समूचे जनमानस को अपने अधीन कर लेने की अद्भुत व अकल्पनीय नेतृत्व क्षमता रखते थे। अतएव उन्होंने जड़ता के उन सब वर्तमान मूल्यों और परंपराओं पर कुठाराघात किया, जो स्वतंत्रता को बाधित करते थे। यहां तक कि जिस इंद्र को जल का देवता और तीनों लोकों का अधिपति माना जाता था, उन्हें भी मामूली ग्वाले कृष्ण ने चुनौती दी और उनकी पूजा को ब्रजमंडल में बंद करा दिया। वे कृष्ण ही थे, जिन्होंने कुरुक्षेत्र के रण-प्रांगण में अर्जुन को आसक्ति मुक्त कर्म का उपदेश दिया। संदेश था, आसक्ति रहित कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

जब कंस के आमंत्रण पर अक्रूर कृष्ण को लेने गोकुल आए तो कृष्ण के अनुराग में लिप्त गोप-गोपियों में हाहाकार मच गया। क्योंकि कंस की दुष्टता से सब परिचित थे और ग्यारह वर्षीय कृष्ण सबको नादान लगते थे। लेकिन कृष्ण ने आमंत्रण स्वीकार किया और निर्लिप्त भाव से मथुरा के लिए प्रस्थान कर गए। जिस बंसुरी की धुन से कृष्ण गोपियों को लालायित किया करते थे, उस बंसुरी को भी गोपियों को दे गए। अपने बाल सखाओं और गोपियों को छोड़ते वक्त कृष्ण को भी दुख था, लेकिन वे कर्तव्य के दायित्व बोध से संचालित हो रहे थे। गोया, निर्लिप्त भाव का प्रगटीकरण आवश्यक था। यदि कृष्ण मोह के बंधन में बंधकर रह जाते तो कंस के दुराचारी शासन से ब्रजमंडल को मुक्ति नहीं मिलती। अर्थात यहां के लोग परतंत्रता ही झेलते रहते। कृष्ण की इस निर्लिप्ता में संदेश अंतनिर्हित है कि अपनी स्वतंत्रता के लिए न केवल सचेत रहना चाहिए, अपितु जरूरत पड़ने पर क्रूरतम इरादों से भी संघर्ष के लिए तत्पर रहना चाहिए, क्योंकि संघर्ष के बिना स्वतंत्रता न तो प्राप्त करना संभव है और न ही उसकी रक्षा करना संभव है। यहां कृष्ण यह भी संदेश देते हैं कि शासक कोई भी हो, समय कितना भी विपरीत हो, विजय हमेशा सत्य और धर्म की होती है।

जब कृष्ण का शिशु रूप में अवतरण हुआ तब उनके जन्म के साथ ही हत्या की प्रत्यक्ष भूमिका रच दी गई। उनके छह नवजात भ्राताओं की माता-पिता की खुली आँखों के सामने ही एक-एक कर हत्या कर दी गई। उनकी जान बचाने के लिए भी एक निर्दोष सद्यजात बालिका को बलि-वेदी की भेंट चढ़ना पड़ा। लेकिन कृष्ण के जन्म के साथ ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नाद होता है। कारागार के एक-एक कर ताले टूटते चले जाते हैं। प्रहरी नींद के आगोश में आ जाते हैं। पिता वसुदेव कृष्ण को डलिया में रखकर निनाद करती यमुना को पार कर गोकुल में नंद-यशोदा के घर छोड़ आते है। यह कहानी इस बात कि प्रतीक है कि सद्भावनाओं पर प्रतिबंध स्थाई नहीं रहते। शासक भले ही कितना ही शक्तिशाली हो, एकदिन अन्यायरूपी बंधन के तालों को टूटना ही पड़ता है।

कृष्ण को आयु के अनुपात से कहीं ज्यादा सतर्कता, चैतन्यता और संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ा! ऐसे विकट और विषाक्त परिवेश में अपनी, अपने समाज की प्राण रक्षा के लिए छल-कपट और लुका-छिपी के अनेक खेल, खेलने पड़े। यदि ये खेल कृष्ण नहीं खेलते तो क्या बच पाते? विस्मय नहीं कि जब लोकतंत्र से राजतंत्र की भिड़ंत होती है, तो जड़ हो चुकी स्थापित मान्यताओं के परिवर्तन की माँग उठती ही है। प्राण खतरे में डालकर कठोर संघर्ष करना ही पड़ता है। इतिहास साक्षी है, इन्हीं संकट और षड्यंत्रों से सामना करने वाले साहसी ही ईश्वर, नायक और नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरे हैं।

कृष्ण बाल जीवन से ही जीवनपर्यंत समााजिक न्याय की स्थापना और असमानता को दूर करने की लड़ाई इंद्रदेव व कंस की राजसत्ता से लड़ते रहे। वे गरीब की चिंता करते हुए खेतीहर संस्कृति और दुग्ध क्रांति के माध्यम से ठेठ देशज अर्थव्यवस्था की स्थापना और विस्तार में लगे रहे। सामारिक दृष्टि से उनका श्रेष्ठ योगदान भारतीय अखण्डता के लिए उल्लेखनीय है। इसीलिए कृष्ण के किसान और गौपालक कहीं भी फसल व गायों के क्रय-विक्रय के लिए मंडियों में पहुंचकर शोषणकारी व्यवस्थाओं के शिकार होते दिखाई नहीं देते? कृष्ण जड़ हो चुकी उस राज और देवसत्ता को भी चुनौती देते हैं, जो जन विरोधी नीतियां अपनाकर लूट-तंत्र और अनाचार का हिस्सा बन गई थी? भारतीय लोक के कृष्ण ऐसे परमार्थी थे, जो चरित्र भारतीय अवतारों के किसी अन्य पात्र में नहीं मिलता।

कृष्ण का पूरा जीवन समृद्धि के उन उपायों के विरुद्ध था, जिनका आधार लूट और शोषण रहा। शोषण से मुक्ति, समता व सामाजिक समरसता से मानव को सुखी और संपन्न बनाने के गुर गढ़ने में कृष्ण का चिंतन लगा रहा। इसीलिए कृष्ण जब चोरी करते हैं, स्नान करती स्त्रियों के वस्त्र चुराते हैं, खेल-खेल में यमुना नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए कालिया नाग का मान-मर्दन करते हैं तो उनकी ये सब चंचलताएं रूपी हरकतें अथवा संघर्ष उत्सवप्रिय हो जाते हैं।

पुरुषवादी वर्चस्ववाद ने धर्म के आधार पर स्त्री का मिथकीकरण किया। इन्द्र जैसे कामी पुरुषों ने स्त्री को स्त्री होने की सजा उसके स्त्रीत्व को भंग करके दी। देवी अहिल्या के साथ छलपूर्वक किया गया दुराचार इसका शास्त्र सम्मत उदाहरण है। आज नारी नर के समान स्वतंत्रता और अधिकारों की मांग कर रही है, लेकिन कृष्ण ने तो औरत को पुरुष के बराबरी का दर्जा द्वापर युग में ही दे दिया था। राधा विवाहित थीं, लेकिन कृष्ण की मुखर दीवानी थी। ब्रज भूमि में स्त्री स्वतंत्रता का परचम कृष्ण ने फहराया। जब स्त्री चीरहरण (द्रौपदी प्रसंग) के अवसर आया तो कृष्ण ने चुनरी को अनंत लंबाई दी। स्त्री संरक्षण का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण दुनिया के किसी अन्य साहित्य में नहीं है। इसीलिए वृंदावन में यमुना किनारे आज भी पेड़ से चुनरी बांधने की परंपरा है। जिससे आबरू संकट की घड़ी में कृष्ण रक्षा करें। सामाजिक जीवन में कृष्ण स्त्री स्वतंत्रता के इतने प्रबल समर्थक थे कि उन्होंने जब अपनी बहन सुभद्रा के मन में अर्जुन के प्रति अनुराग का अनुभव किया तो बड़े भाई बलराम की इच्छा के विरुद्ध सुभद्रा को अर्जुन से गंधर्व-विवाह कर लेने की अनुमति दे दी। यही नहीं जब कृष्ण को रुक्मणि का हरण करके विवाह कर लेने का संदेश मिला तो कृष्ण रुक्मणि को भी योद्धाओं के बीच से हर लाए।

कृष्ण युद्ध कौशल के महारथी होने के साथ देश की सीमाओं की सुरक्षा संबंधी सामरिक महत्व के जानकार थे। इसीलिए कृष्ण पूरब से पश्चिम अर्थात मणीपुर से द्वारका तक सत्ता विस्तार के साथ उसके संरक्षण में भी सफल रहे। मणीपुर की पर्वत श्रृंखलाओं पर और द्वारका के समुद्र तट पर कृष्ण ने सामरिक महत्व के अड्ढे स्थापित किए। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमारे यही सीमांत प्रदेश आतंकवादी घुसपैठ और हिसंक वारदातों का हिस्सा बने हुए हैं। कृष्ण के इसी प्रभाव के चलते आज भी मणीपुर के मूल निवासी कृष्ण भक्त हैं। इससे पता चलता है कि कृष्ण की द्वारका से पूर्वोत्तर तक की यात्रा एक सांस्कृतिक यात्रा भी थी।

सही मायनों में बलराम और कृष्ण का मानव सभ्यता के विकास में अद्भुत योगदान है। बलराम के कंधों पर रखा हल इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है। वहीं कृष्ण मानव सभ्यता व प्रगति के ऐसे प्रतिनिधि हैं, जो गायों के पालन से लेकर दूध व उसके उत्पादनों से अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाते हैं। ग्रामीण व पशु आधारित अर्थव्यवस्था को गतिशीलता का वाहक बनाए रखने के कारण ही कृष्ण का नेतृत्व एक बड़ी उत्पादक जनसंख्या स्वीकारती रही। जबकि भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में हमने कृष्ण के उस मूल्यवान योगदान को नकार दिया, जो किसान और कृषि के हित तथा गाय और दूध के व्यापार से जुड़ा था। बावजूद पूरे ब्रज-मण्डल और कृष्ण साहित्य में कहीं भी शोषणकारी व्यवस्था की प्रतीक मंडियों और उनके कर्णधार दलालों का जिक्र नहीं है। जीवित गाय को आहारी मांस में बदलने वाले कत्लखानों का जिक्र नहीं है। शोषण मुक्त इस अर्थव्यवस्था का क्या आधार था, हमारे आधुनिक कथावाचक पंडितों और अर्थशास्त्रियों को इस गुर को समझने की जरूरत है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

15,457 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress