दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में कई बार ऐसा हुआ है जब उच्चतम न्यायालय ने ऐसे फैसले सुनाये हैं जिनसे ये लोकतंत्र और अधिक मजबूत हुआ है. दूसरे शब्दों में कहें तो इसने आम आदमी की आवाज बुलंद करने और उसके अधिकारों की रक्षा करने में (विधायिका से भी ज्यादा) महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
उच्चतम न्यायलय ने अपनी उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए आज सोशल मीडिया साईट्स पर किसी के खिलाफ की गयी ‘अपमानजनक टिप्पणी’ पर जेल में डाल दिए जाने के प्रावधान को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया. स्वाभाविक रूप से इस फैसले का सोशल मीडिया सहित हर तरफ स्वागत किया गया.
उच्चतम न्यायलय ने कहा कि आई टी एक्ट की धारा 66A लोगों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है. जस्टिस जे. चेल्मेश्वर और जस्टिस आर.एफ. नरीमन की दो सदस्यीय पीठ ने कहा कि एक्ट से यह बात साफ़ नहीं है कि अपमानजनक शब्द की परिभाषा क्या होगी. पीठ के अनुसार जो बात किसी के लिए अपमानजनक हो सकती है, वही बात किसी अन्य के लिए अपमानजनक नहीं हो सकती है. ऐसे में किसी को विचार व्यक्त करने से नहीं रोका जा सकता. यहाँ ये भी साफ़ कर देना जरुरी है कि इसका ये मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि अब किसी को कुछ भी कहने की आज़ादी मिल गयी है. बल्कि किसी भी तरह की पोस्ट पर इसी एक्ट की अन्य धाराओं में मामला दर्ज कर केस दर्ज कराया जा सकता है. हां, अब तत्काल गिरफ्तारी की तलवार से जरुर मुक्ति मिल गयी है. अब ऐसे किसी मामले में कार्रवाई होने पर कोर्ट में पेश होकर अपना पक्ष रखने की आज़ादी होगी.
ध्यान देने वाली बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला मुंबई की रेणु श्रीनिवासन और शाहीन नाम की जिन दो लड़कियों के मामले में आया है, उन्हें शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे पर अभद्र टिप्पणी करने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था. तब इस मामले कि खूब आलोचना की गयी थी. इसके बाद इस मामले को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये प्रावधान कर दिया गया था कि गिरफ्तारी का आदेश एसपी स्तर के अधिकारी ही दे सकेंगे. परन्तु अभी कुछ दिनों पूर्व ही उत्तरप्रदेश के काबिना मंत्री आज़मखान पर बरेली के ग्यारहवीं में पढ़ने वाले एक छात्र द्वारा अपमानजनक टिप्पणी करने के आरोप में उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था. इसके पहले मुंबई के एक कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी एक राजनैतिक दल पर टिप्पणी करने के आरोप में और पश्चिम बंगाल के एक प्रोफेसर तृणमूल पार्टी की सुप्रीमो पर टिप्पणी करने के मामले में ऐसे ही परिणाम झेल चुके हैं.
साफ़ है कि ये दोनों ही मामले किसी व्यक्तिगत रूप से की गयी अपमानजनक टिप्पणी के मामले में नही किये गए थे, बल्कि ये गिरफ्तारियां राजनैतिक सत्ता के दुरूपयोग का सीधा-सीधा मामला था. हमारे राजनैतिक दल इस तरह के मामले में कितने असंवेदनशील हैं, ये बात किसी से छिपी नही है. अगर ये कानून जारी रहता तो तानाशाही की भावना को बढ़ावा मिलता और लोकतंत्र को शर्मसार करते कुछ राजनैतिक दलों के काम के तरीकों के खिलाफ कोई आवाज उठाने की हिम्मत नहीं कर पाता.
आज हमारे देश में करोड़ों लोग फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सअप्प का इस्तेमाल करते हैं. हमारे देश की 20 फीसदी से अधिक आबादी इन्टरनेट का खूब इस्तेमाल कर रही है. आने वाले समय में इस मीडिया में लगातार बढ़ोत्तरी होनी तय है. सोशल मीडिया सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारक बनाकर उभरा है. आज के इन्टरनेट प्रधान युग में सोशल मीडिया लोगों के आवाज बुलंद करने का एक सशक्त माध्यम बन चुका है. ऐसे में इस प्रकार की टिप्पणियों को रोकना किसी भी तरह से लोकतंत्र के हक में नहीं कहा जा सकता.
वहीं इस मामले का एक दूसरा पहलू भी है जिसे किसी भी सूरत में नज़रन्दाज नहीं किया जाना चाहिए. सोशल मीडिया का ये महत्त्वपूर्ण हथियार पल भर में किसी ख़बर को तूफान से भी ज्यादा तेज गति से लोगों तक पहुंचा सकता है. ऐसे में असामाजिक तत्त्व इस तरह की सुविधा का ग़लत फायदा उठा सकते हैं. जाहिर है कि इस तरह का मामला हमारे जैसे संवेदनशील देश में बहुत ख़तरनाक हो सकता है. एक रेडियो स्टेशन पर एक वर्ग के खिलाफ की गयी टिप्पणी से दंगा भड़क जाने की बात अभी ज्यादा पुरानी नहीं हुई है. इसके आलावा अलकायदा, तालिबान या आई एस जैसे खतरनाक आतंकी संगठनों का सोशल मीडिया का उपयोग कर नौजवानों को बरगलाने का सिलसिला भी जारी है. इन गतिविधियों पर मजबूत कानूनी शिकंजा रहना ही चाहिए, अन्यथा हमारे समाज के कुछ युवकों के पथभ्रष्ट होने की आशंका को ख़ारिज नहीं किया जा सकता.
–अमित शर्मा
अमित जी आपका लेख अच्छा है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी मिसाल है
लेकिन ये याद रखिये सनकी और घमण्डी नेताओं के साथ ही अंध आस्थावादी भीड़ किसी और धारा में भावनाएं भड़काने का आरोप लगाकर नेट पर लिखने पढ़ने वालों का फौरन गिरफ्तारी का दबाव बनाने में अब भी कामयाब होता रहेगा।
इक़बाल जी…धन्यवाद. आपकी बात सही है..सिर्फ धारा 66A के ख़त्म करने से बात बनने वाली नहीं है, अभी भी अन्य ऐसे कानूनी खामियां हैं जिनका दुरूपयोग हो सकता है या हो रहा है..पर एक हिन्दुस्तानी और लोकतंत्र का समर्थक होने के कारण मैं यही उमीद करता हूँ कि उन काले कानूनों का दुरूपयोग समय के साथ ख़त्म होगा और हमारा लोकतंत्र और अधिक मजबूत होकर सामने आएगा..जय हिन्द
बहुत अच्छा निर्णय है , वरना ममता व आजम खान जैसे बेवकूफ नेताओं की तुनकमिजाजी के न जाने कितने लोग शिकार होते , वे तो बेवकूफियां करें और जन मानस अपनी घुटन भी अभिव्यक्त न कर सके , जिस का वह इनकी वजह से परेशान हो रहा है या ठाकरे जैसे अराजकवादी तत्व मर्जी चलते रहें व सरकारें अपने राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत हो कर आम नागरिकों को जेल में बंद करती रहें , सुप्रीम कोर्ट के इन दिनों आ रहे निर्णय वस्तुतः सरकारों के तानाशाही रुख पर रोक लगाने क व जनता के हितों की सुरक्षा का कवच बनने में मददगार होंगे
महेंद्र जी धन्यवाद. सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी भूमिका सही से न निभाई होती, तो आज ये ठाकरे, आज़म खान और ममता जी जैसे लोग इस लोकतंत्र को एक विकृत व्यवस्था में बदलने में कामयाब हो चुके होते….बारम्बार धन्यवाद हमारे सम्विधान निर्माताओं का जिन्होंने इस लोकतंत्र को मजबूत बनाये रखने कि ऐसी व्यवस्था दी.
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय लोकतंत्र को बचा ने की दिशा में अहम और नवयुवकों के पथभरषट हो जाने की आशंका भी सही है.इसका हल यह हो सकता है की सरकार का गृहमंत्रालय एक अलग प्रकोष्ट कायम करे जो निरंतर सोशल मीडिया पर बना रहे. और जैसे ही किसी प्रकार के शांति भंग होने की आशंका का कोई पोस्ट दिखाई देता है ,तत्काल उसका खंडन करने की पोस्ट यह प्रकोष्ट डाल दे. और तत्काल ऐसे पोस्टकर्ता को गिरफ्तारी देने का आदेश देने के लिए भी एस। पी. स्तर का अधिकारी ड्यूटी के उन घंटों में तैयार रहे. अन्यथा शिकायत की फाइल कब तो साहेब की टेबल पर जायेगी और साहेब कब किसका आदेश लेकर कार्यवाही करेंगे ?तब तक जो अशांति से नुकसान होना था ,और जो उद्देश था वह पूरा हो चूका होगा. यहाँ तक की प्रांतीय स्तर पर भी प्रदेश की राजधानी मुख्यालय पर ऐसी व्वस्था हो.
सुरेश जी…बहुत उपयोगी सुझाव है आपका. जिस देश के 18 करोड़ से ज्यादा (अनुमानतः अगले तीन साल में ये संख्या 22 करोड़ को पार कर लेगी.)लोग इन सोशल साइट्स के माध्यम से जुड़े हों, वहां इसके रेगुलेटारिंग और मोनिटरिंग कि जरुरत सहज समझी जा सकती है…प्रयास सिर्फ इतना होना चाहिए कि इसका दुरूपयोग न हो.