-संजय द्विवेदी
भोपाल में संपन्न हुए लोकमंथन आयोजन के बहाने भारतीय बौद्धिक विमर्श में एक नई परंपरा का प्रारंभ देखने को मिला। यह एक ऐसा आयोजन था, जहां भारत की शक्ति, उसकी सामूहिकता, बहुलता-विविधता के साथ-साथ उसकी लोकशक्ति और लोकरंग के भी दर्शन हुए। यह आयोजन इस अर्थ में खास था कि यहां भारत को भारतीय नजरों से समझने की कोशिश की गयी। विदेशी चश्मों और विदेशी विचारधाराओं से आक्रांत भारतीय बौद्धिक विमर्श में यह एक नए युग का आरंभ भी था।
बहस थी पर कड़वाहटें नहीं-
हमारी सभी प्रदर्शन कलाओं, साहित्य, धर्म, पत्रकारिता और हाशिए के समाजों के प्रतिनिधि भी इस चिंतन पर्व में शामिल थे, किंतु कड़वाहटें कहीं नहीं थीं। दलित इंडियन चैंबर आफ कामर्स एंड इंडस्ट्री के प्रमुख मिलिंद कांबले ने जब यह कहा कि “दलित अब मांगने नहीं देने वाला बनेगा” तो सभागार तालियों से गूंज उठा। आयोजन की सफलता इस अर्थ में बहुत महत्व की है कि इसमें ‘भारत प्रथम’ या ‘देश सर्वोपरि’ के विचार से जुड़े विचारक, लेखक, कलावंत, चिंतक और युवा शक्ति के प्रतिनिधि शामिल हुए। एक शासकीय आयोजन होने के बाद भी इस पर सरकार की छाया नहीं थी। मुक्त चिंतन और विचारों का आदान-प्रदान हुआ। तीन दिन के आयोजन में राजनेताओं के नाम पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उनके संस्कृति मंत्री सुरेंद्र पटवा के अलावा सिर्फ डा. मुरली मनोहर जोशी, स्मृति ईरानी, राम माधव और विनय सहस्त्रबुद्धे ही मंच पर आए और बोले। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने प्रस्ताविक स्वागत भाषण में अपनी स्वाभाविक विनम्रता के साथ कहा कि लोकमंथन में हो रहे व्यापक विमर्श से अमृत निकलेगा और वह हमारे लिए पाथेय होगा।
पहले दिन शुभारंभ सत्र में स्वामी अवधेशानंद, शिक्षाविद और राज्यपाल ओमप्रकाश कोहली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहसरकार्यवाह सुरेश सोनी ने अपने विचार व्यक्त किए। इस सत्र का मूल स्वर यही था कि भारत को अपनी अस्मिता के आधार खड़ा होना चाहिए। वहीं राज्यपाल कोहली ने उपनिवेशवाद से लड़ने के लिए एक प्रबल स्वदेशी आंदोलन की जरूरत पर बल दिया। उनका कहना था कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली हमें जड़ों से काट रही है। लोकमंथन इस मायने में खास था कि यहां विविध ज्वलंत विषयों पर सार्थक संवाद हुआ। औपनिवेशिक मानसिकता पर प्रहार करते हुए वक्ताओं ने देश की शक्ति और जड़ों की ओर लौटने की बात कही। इस आयोजन में आए राजीव मल्होत्रा, तारिक फतेह, डा. कमलेश दत्त त्रिपाठी, अनुपम खेर, डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी, सागदोंग रिनपोछे, विवेक देबेराय, रामबहादुर राय, अशोक मलिक, कमलकिशोर गोयनका, प्रो. मकरंद परांजपे, मुकुल कानितकर, प्रो. अशोक मोडक, डा.विद्याविंदु सिंह, मौलाना सैयद अतहर हुसैन देहलवी, ए.सूर्यप्रकाश, राकेश सिन्हा, स्वामी मित्रानंद, अद्वैता काला,मधुर भंडारकर, बलदेव भाई शर्मा, प्रो. गिरीशचंद्र त्रिपाठी, डा. अनिर्वान गांगुली, तुफैल अहमद,प्रो. रमेशचंद्र शाह सरीखे वक्ताओं ने भारतीयता के आधार पर एक नया आकाश रचने की बात कही। कुल मिलाकर यह आयोजन एक ऐसी भावभूमि पर खड़ा था जहां से भारत की शक्ति और उसकी वैश्विकता के दर्शन हो रहे थे।
कलाकारों ने भरे रंगः
आयोजन में लोककलाकारों और रंगकर्मियों ने भी रंग भरे। उनकी विविधता से भरी प्रस्तुति जहां भारतीयता के लोक को गौरववान बना रही थी वहीं आनंद के भारतीय परिप्रेक्ष्य को पारिभाषित कर रही थी। भारतीय परंपरा में संवाद की अनंत धाराएं हैं और इसके आधार पर समाज रचना के अनेक प्रयास हुए हैं। लोकमंथन इस अर्थ में खास रहा कि इसमें बौद्धिक आतंक और किसी पर कुछ थोपने के बजाए मुक्त चिंतन हुआ। शर्त एक थी ‘राष्ट्र सर्वोपरि’। इस आयोजन की एक खास बात यह भी रही कि बड़ी संख्या में युवाओं ने सहभाग किया। आयोजकों ने पहले दिन से इस बात पर नजर रखी थी कि लोकमंथन में युवाशक्ति का अधिकतम सहभाग सुनिश्चित हो। 956 प्रतिनिधियों ने तीन दिन बहुत आनंद के साथ इस पूरे समारोह में सहभाग किया।
देश-काल-स्थिति का चिंतनः
लोकमंथन दरअसल देश-काल-स्थिति के तीन सूत्रों पर विमर्श का मंच बना। औपनिवेशिक मानसिकता मुक्ति और भारतीयता का अवगाहन इसका मूलमंत्र था। विमर्श के सभी सत्रों में इसी सोच की अभिव्यक्ति दिखी। भारत का संकट यह है कि यहां की सारी बौद्धिकता उधार ली गयी विचारधाराओं से आक्रांत है। भारत में रहकर भारतीय तत्व और उसके सत्व पर सोचने वाले बुद्धिजीवियों का या तो अकाल रहा है या उन्हें साजिशन और इरादतन हाशिए पर लगाए रखा गया। अंग्रेजी शासन में जहां भारत और भारतीयता से नफरत करने वाले बुद्धिजीवी रोपे गए वहीं आजादी के बाद वे वटवृक्ष बन चुके थे। वे भारतीय होकर भी अभारतीय चिंतन की जकड़बंदी से बंधे हुए थे। उधार ली गयी विचारधाराओं और पश्चिमी चिंतन से जुड़ा यह गिरोह हर भारतीय तत्व को हिकारत से देख रहा था। शिक्षा से लेकर समाज और परिवार में इसी तत्व को स्थापित करने की कोशिशें हुयीं। दिल्ली की सरकारों में बैठे नेताओं ने सारा बौद्धिक ठेका औपनिवेशिक मानसिकता के गुलाम बौद्धिकों और वामपंथी विचारकों को सौंप दिया। ऐसे में कैसा भारत बना वह सबके सामने है।इसका परिणाम यह हुआ कि हमने आत्मदैन्य से भरी हुयी पीढ़ियां तैयार की। भारत का स्वाभिमान, उसका चिंतन, उसकी कलाएं और उसके लोकाचार सबको एक अजीब नजर से देखा जाने लगा। लोकमंथन के बहाने हमें हमारी शक्ति को जानने और उनका पुर्नपाठ करने के अवसर भी मिले हैं। इस बहाने भारतीय बौद्धिकता को एक नया आकाश मिला है। हमें इस बात को स्वीकारना होगा कि 2014 के लोकसभा चुनाव दरअसल भारतीयता की उसी सोई हुई शक्ति का प्रकटीकरण थे, जो औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के लिए आतुर है। जनशक्ति अब भारत को भारतीय नजरों से देखना चाहती है और राजनीतिक व सामाजिक संस्कृति में बदलाव की पक्षधर है।
सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीः
इस परिवर्तन काल में सिर्फ सत्ता परिवर्तन से भारत के मानस को मुक्ति नहीं मिलेगी। उसे राजनीतिक संस्कृति, बौद्धिक संस्कृति के भी भारतीयकरण की प्रत्याशा है। राष्ट्रीयता को नए परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है। आजादी के सात दशकों की यात्रा को एक दिन में पलटा नहीं जा सकता है। इसके लिए लंबी और सधी हुयी, सुदीर्ध तैयारी की जरूरत है। किंतु भारतीय बौद्धिक विमर्श में भारतीय विचारों का हस्तक्षेप जरूरी है, क्योंकि इसी भावभूमि के आधार पर हम शेष क्षेत्र में बदलाव का अभियान प्रारंभ कर पाएंगें। अरसे से लांछित, हाशिए पर लगाई गयी विचारधारा को मुख्यधारा में लाने के लिए सचेतन और निरंतर प्रयासों की जरूरत है। भारत के औदार्य और उसकी वैश्विकता को साधने वाली संस्कृति के प्रति यदि दुनिया में आदरभाव है तो हमारे अपने इसे लेकर संशय में क्यों हैं। क्यों हम हमारी भाषा, वेशभूसा, कैलेंडर से लेकर जन्मदिन और दीक्षांत समारोहों तक औपनिवेशिकता की लंबी छाया मौजूद है। अपनी भाषा,वस्त्रों,विचारों, ग्रंथों, मानबिंदुओं, अर्थचिंतन, लोकाचारों और संस्कृति को लेकर हममें इतनी दीनता क्यों है। यह आत्मदैन्य ही सारे संकटों का कारण है। इससे मुक्ति के बिना पर भारतीयता के अधिष्ठान पर खड़े कैसे हो सकते हैं। लोकमंथन जैसे आयोजन भारतीय विचारों और मार्ग पर भरोसा बढ़ाते हैं। वे हमें आत्मविश्वास देते हैं, और कुछ करने के लिए हौसला भी।