मॉब लिंचिंग की अराजकता का त्रासद होना

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ललित गर्ग
उन्मादी भीड़ के द्वारा जान लेने की एक घटना शांत नहीं होती कि कोई दूसरी हत्या की खबर सामने आ जाती है। लगातार हो रही मॉब लिंचिंग की ये घटनाएँ अब न केवल चिन्ता का विषय है बल्कि असहनीय एवं शर्मनाक है। सुप्रीम कोर्ट की फटकार और अलवर में एक और घटना के बाद ही सही, भीड़ द्वारा किसी को पीट-पीट कर मार डालने की घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए केंद्र सरकार सक्रिय हुई है तो निश्चित ही उसके सकारात्मक संदेश निकलने चाहिए। किसान आन्दोलन हो या गौरक्षा का मसला या आम जनजीवन की सामान्य-सी बातें-हिंसा एवं अशांति की ऐसी घटनाएं देशभर में लगातार हो रही हैं। महावीर, बुद्ध, गांधी के अहिंसक देश में हिंसा का बढ़ना न केवल चिन्ता का विषय है बल्कि गंभीर सोचनीय स्थिति को दर्शाता है। भीड़ द्वारा लोगों को पकड़कर मार डालने की घटनाएं परेशान करने वाली हैं। सभ्य समाज में किसी की भी हत्या किया जाना असहनीय है लेकिन जिस तरह से भीड़तंत्र के द्वारा कानून को हाथ में लेकर किसी को भी पीट-पीटकर मार डालना अमानवीयता एवं क्रूरता की चरम पराकाष्ठा है। 
सरकार ने ऐसी घटनाओं पर नजर रखने और इन्हें नियंत्रित करने के उपाय सुझाने के लिए केंद्रीय गृह सचिव राजीव गौबा के नेतृत्व में उच्च स्तरीय कमेटी बनाकर उससे चार हफ्ते में रिपोर्ट मांगी है। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में मंत्रियों का एक समूह इसकी रिपोर्ट के आधार पर अपनी सिफारिशें प्रधानमंत्री को देगा। यह सब तब हुआ है जब सुप्रीम कोर्ट ने सख्त निर्देश जारी किये हैं।
मॉब लिंचिंग की घटनाओं का लम्बा सिलसिला है, महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के चंदगांव में सोशल मीडिया पर फैलाये जा रहे फर्जी मेसेज पर यकीन करके भीड़ द्वारा दो लोगों को पीट-पीट के हत्या कर दिये जाने का मामला हो या असम के कार्बी आंग्लोंग जिले में भीड़ ने बच्चा चोरी के संदेह में पेशे से साउंड इंजीनियर नीलोत्पल दास और गुवाहाटी के ही व्यवसायी अभिजीत की पीट-पीटकर हत्या कर देने का खौफनाक अंजाम-समाज की अराजक होती स्थितियों को ही दर्शाता है। कभी गौमांस खाने के तथाकथित आरोपी को मार डाला जाता है, कभी किसी की गायों को वधशाला ले जाने के संदेह में पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है, कभी छोटी-मोटी चोरी करने वाले को मारा जाता है तो कभी बच्चा चोरी के संदेह में लोगों की हत्याएं की जाती हैं। काश कि ऐसी कोई सख्त कार्रवाही पहले की गयी होती, तो शायद तमाम अन्य घटनाओं की कड़ी में अलवर का रकबर खान जुड़ने से बच जाता। सच है कि ऐसे मामले न अदालतों की सख्ती से रुकने वाले, न सरकारी कमेटियां बनाने से या नये कानून बनाने से। ऐसी घटनाएं उस दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही रुक सकती हैं, जहां पुलिस तंत्र को सरकारी मशीनरी के रूप में नहीं, स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से काम करने देने पर सहमति होगी और सत्ता के इशारे पर उसका नाचना बंद होगा। इसके भी पहले बड़ी जरूरत वैसे राजनेताओं की जुबान पर लगाम लगाने की है, जो गंभीर से गंभीर मामलों में भी भड़काऊ भाषण देने से बाज नहीं आते। अलवर की घटना, डीजीपी की स्वीकारोक्ति और फौरी कार्रवाई के साथ ही अगर कोई बहुत बड़ा नेता सार्वजनिक मंच से यह कहता दिखे कि बीफ खाना बंद हो जाए, तो रुक जाएगी मॉब लिंचिंग या कई दूसरे नेता तो इससे भी आगे जाकर बोल रहे हों, तो  समझा जा सकता है कि सख्ती का वाकई क्या हश्र होने जा रहा है।
भीड़तंत्र के द्वारा हत्या की बढ़ती घटनाओं का कारण अफवाहें भी हैं, एक मुस्लिम के घर के पास एक जानवर के कंकाल मिलने का संदेश फैलाना था कि भीड़ ने उस मुसलमान का घर जला डाला। साथ ही उस बूढ़े मुसलमान की भी जान ले ली। दरअसल यह हत्यारी मानसिकता को जो प्रोत्साहन मिल रहा है उसके पीछे एक घृणा, नफरत, संकीर्णता और असहिष्णुता आधारित राजनीतिक सोच है। यह हमारी प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था के चरमराने का भी संकेत है।
भीड़तंत्र का हिंसक, अराजक एवं आक्रामक होना अनुचित और आपराधिक कृत्य है। भीड़ कभी भी आरोपी को पक्ष बताने का अवसर ही नहीं देती और भीड़ में सभी लोग अतार्किक तरीके से हिंसा करते हैं। कभी-कभी ऐसी हिंसक घटनाएं तथाकथित राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक लोगों के उकसाने पर कर दी जाती है। ऐसे कृत्य से कानून का उल्लंघन तो होता ही है भारत की अहिंसा एवं विश्वबंधुत्व की भावना भी ध्वस्त होती है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई अपराध किया है तो उसे सजा देने का हक कानून को है, न कि जनता उसको तय करेगी। अपराधी को स्वयं सजा देना कानूनी तौर पर तो गलत है ही, नैतिक तौर पर भी अनुचित है और ये घटनाएं समाज के अराजक होने का संकेत है। लेकिन यहां प्रश्न यह भी है कि व्यक्ति हिंसक एवं क्रूर क्यों हो रहा है? सवाल यह भी है कि हमारे समाज में हिंसा की बढ़ रही घटनाओं को लेकर सजगता की इतनी कमी क्यों है?
एक सभ्य एवं विकसित समाज में भीड़तंत्र हिंसक क्यों हो रहा है? मनुष्य-मनुष्य के बीच संघर्ष, द्वेष एवं नफरत क्यों छिड़ गयी है? कोई किसी को क्यों नहीं सह पा रहा है? प्रतिक्षण मौत क्यों मंडराती दिखाई देती है? ये ऐसे सवाल है जो नये बनते भारत के भाल पर काले धब्बे हैं। ये सवाल जिन्दगी की सारी दिशाओं से उठ रहे हैं और पूछ रहे हैं कि आखिर इंसान गढ़ने में कहां चूक हो रही है? यह किसी भारी चूक का ही परिणाम है कि झारखंड में बच्चा चोरी की अफवाहों के चलते क्रुद्ध भीड़ ने 6 लोगों को पीट-पीटकर मार डाला था। यह कहां का न्याय है? यह कहां की सभ्यता है? हत्या का शिकार कोई एक समाज या धर्म का व्यक्ति नहीं होता बल्कि सभी समुदायों के लोग इसका शिकार हो रहे हैं। तेजी से बढ़ता हिंसक दौर किसी एक प्रान्त का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल को जख्मी बनाया है। अब इन हिंसक होती स्थितियों को रोकने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है।
राजनीति की छांव तले होने वाली भीड़तंत्र की वारदातें हिंसक रक्तक्रांति का कलंक देश के माथे पर लगा रही हैं चाहे वह एंटी रोमियो स्क्वायड के नाम पर हो या गौरक्षा के नाम पर। कहते हैं भीड़ पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। वह आजाद है, उसे चाहे जब भड़काकर हिंसक वारदात खड़ी की जा सकती है। उसे राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है जिसके कारण वह कहीं भी कानून को धत्ता बताते हुए मनमानी करती है। भीड़ इकट्ठी होती है, किसी को भी मार डालती है। जिस तरह से भीड़तंत्र का सिलसिला शुरू हुआ उससे तो लगता है कि एक दिन हम सब इसकी जद में होंगे।
राजनीतिक स्वार्थों के लिये हिंसा को हथियार बनाया जा रहा है। कोई अपना ही रक्षक दल बना रहा तो कोई अल्पसंख्यकों की अपनी सेना गठित कर रहा है। बहुसंख्यक अपनी सेना बना रहा है तो हर गली-मौहल्ले में भी ऐसे ही संगठन हिंसा करने के लिये खड़े किये जा रहे हैं। भीड़तंत्र भेड़तंत्र में बदलता जा रहा है। इस लिहाज से सरकार को अधिक चुस्त होना पड़ेगा। कुछ कठोर व्यवस्थाओं को स्थापित करना होगा, अगर कानून की रक्षा करने वाले लोग ही अपराधियों से हारने लगेंगे तो फिर देश के सामान्य नागरिकों का क्या होगा? देश बदल रहा है, हम इसे देख भी रहे हैं। एक ऐसा परिवर्तन जिसमें अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं और भीड़ खुद फैसला करने लगी है। भीड़तंत्र का अपराध में शामिल होना, उसे जायज ठहराना या फिर खामोशी से देखकर आगे बढ़ जाना हिंसा को बढ़ावा देना है। यदि इस प्रवृत्ति को तुरन्त रोका नहीं गया तो यह देेश तबाह हो जाएगा। ऐसे हत्याकांड देश पर आत्मघाती हमला हैं। भारत का जनतंत्र आदमखोर भीड़तंत्र में परिवर्तित हो रहा है। हिंसा ऐसी चिंनगारी है, जो निमित्त मिलते ही भड़क उठती है। इसके लिये सत्ता के करीबी और सत्ता के विरोधी हजारों तर्क देंगे, हजारों बातें करेंगे लेकिन यह दिशा ठीक नहीं है। जब समाज में हिंसा को गलत प्रोत्साहन मिलेगा तो उसकी चिंनगारियों से कोई नहीं बच पायेगा।
सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है क्योंकि मॉब लिंचिंग फिलहाल इक्का-दुक्का घटित होने वाला कोई साधारण अपराध नहीं रह गया है। भीड़ की हिंसा को जायज ठहराने वाले बयानों और कुछ राज्य सरकारों के ठंडे रवैये ने यह संदेह पैदा किया है इन घटनाओं को सत्तारूढ़ दल का संरक्षण हासिल है। एक सत्तासीन राजनेता द्वारा ऐसे हमले के आरोपियों को सम्मानित करने से भी इस आशंका को बल मिला है। राजस्थान में हुए सबसे ताजा मामले में लापरवाही बरतने वाले पुलिसकर्मियों द्वारा बिना किसी पछतावे के अपनी गलती घोषित करना यह दर्शाता है कि ऐसी घटनाओं में शामिल लोग अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले इन घटनाओं का बढ़ना राजनीतिक सोच को संदेह के घेेरे में ले रहा है।
असल जरूरत न कमेटी बनाने की है और न नये कानून बनाने की बल्कि ऐसा सख्त संदेश देने की है कि फिर न कोई अलवर दोहराया जाए। ताकि कोई नेता फिर जहरीले बोल न बोल पाए। जरूरत कड़वे एवं भडकाऊ बयान देने वाले नेताओं एवं अकर्मण्य एवं उदासीन बने पुलिस कर्मियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई किये जाने की है, ताकि इन डरावनी एवं त्रासद घटनाओं की पुनर्रावृत्ति न हो सके।

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