धेनु चरन न तृणउ पात, त्रास अति रहत;
राजा न राज करउ पात, दुष्ट द्रुत फिरत !
बहु कष्ट पात लोक, त्रिलोकी कूँ हैं वे तकत;
शोषण औ अनाचारी प्रवृति, ना है जग थमत !
ना कर्म करनौ वे हैं चहत, धर्म ना चलत;
वे लूटनों लपकनों मात्र, गुप्त मन चहत !
झकझोरि डारौ सृष्टि, द्रष्टि बदलौ प्रभु अब;
भरि परा-द्रष्टि जग में, परा-भक्ति भरौ तव !
विचरहिं यथायथ सबहि विश्व, तथागत सुभग;
मधु क्षरा पाएँ सुहृद ‘मधु’, करि देउ प्रणिपात !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’