विपिन जोशी, उत्तराखंड
उत्तराखंड में बीते सप्ताह कुदरत का जो क़हर टूटा उसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी। तबाही का ऐसा खौ़फनाक मंजर पहले नहीं देखा गया। हांलाकि 1970 में चमोली जिले में गौनाताल में बादल के फटने से डरावने हालात बन गये थे, लेकिन इस प्रकार की क्षति नहीं हुई थी क्योंकि इसकी भविष्यसवाणी अंग्रेजों ने 1894 में ही कर दी थी और तब नीचे की बस्तियों को सुरक्षित स्थानों में बसा दिया गया था। उस दौर में आज के जैसे परिवहन और संचार के नवीनतम उपकरण मौजूद नहीं थे, परंतु अंग्रेज अधिकारियों के बीच गजब का समन्वय और प्लानिंग थी। जिसके चलते 1970 के हादसा में आज की तरह जानमाल की अधिक क्षति नहीं हुई थी। लेकिन इस बार के हादसे ने कई सवालों को जन्म दे दिया है। केदारनाथ त्रासदी से ठीक दो दिन पूर्व मौसम विभाग ने प्रशासन को चेतावनी दी थी कि अगले 24 घंटों में भारी बारिश हो सकती है तो क्यों नहीं देहरादून से सतर्कता बरती गयी? कुल कितने यात्री उस दौरान केदारनाथ में थे ये डाटा भी राज्य सरकार के पास नहीं हैं। तो ऐसे में हताहतों का अन्दाजा लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। हिमालयी क्षेत्रों के लिए बादल फटने की घटना नई नहीं है। समय-समय पर ऐसी दर्दनाक घटनाएं होती रहती हैं। फिर भी सरकारें इससे सबक़ लेने की बजाये ऐसे ही किसी हादसे के इंतज़ार में बैठी रहती है।
आश्यकर्य की बात है कि 2007 से 2012 के बीच उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा, बागेश्विर, चमोली, पिथौरागढ़, रूद्रप्रयाग जिलों में आयी प्राकृतिक आपदा में सैकड़ों जानें गई हैं इसके बावजूद सरकार से लेकर प्रशासन तक ने कोई सबक नहीं लिया। इस आपदा का जिम्मेदार खुद इंसान है जो उससे छेड़छाड़ करता आ रहा है। विकास का भयानक मॉडल तैयार किया जा रहा है। 220 जल विद्युत परियोजनाओं पर काम जारी है। करीब 600 परियोजाएं प्रस्तावित हैं। भागीरथी, मंदाकिनी, अलकनन्दा, विष्णु गाड़, यमुना, पिंडर, धौली, काली गंगा, गोरी गंगा, राम गंगा के आस पास जितनी परियोजनाएं चल रही हैं उसका साइड इफैक्ट आज इन नदियों के तटवर्ती इलाकों में साफ तौर पर देखा जा सकता है। इस आपदा को मानव जनित आपदा ही ज्यादा माने तो अतिश्योजक्ति न होगी क्योंकि कम समय में ज्यादा कमाने की चाह ने मानव को उत्तरकाशी में नदी के किनारे अट्टालिकाएं खड़ी करने को प्रेरित किया। गोविंदघाट में बड़े होटल व धर्मशालाएं भी प्रशासन और व्यवसायियों की मिलीभगत का नतीजा है। इंसानी जीवन षैली बदली तो पवित्र तीर्थाटन भी मजे और पिकनिक के हॉट स्पॉट बन गये। केदार घाटी दलदली क्षेत्र है यहां आसमान छूते होटल बनाने का अर्थ है भयानक विनाश को निमत्रंण देना। मंदिर समिति और सरकार ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि भौगोलिक रूप से खतरनाक इलाक़ा के रूप में चिन्हित किया जा चुका केदारनाथ में हजारों-लाखों लोगों को अंध श्रद्धा के नाम पर जमा करने का क्या दुष्परिणाम हो सकता है, विकास के लिए ठेकेदारी प्रथा से धन बनाने के खेल में सभी लिप्त रहे। यदि देश के 14 मैदानी शहरों की तरह केदार घाटी में भी बादल फटने की चेतावनी देने वाले आधुनिकतम रडार लगे होते, तो वक्त रहते काफी लोग मौत के आगोश में समाने से बच जाते। लेकिन राज्य सरकार को किसी भी सूरत में केवल विकास चाहिए और बिना प्लानिंग के विकास का अंजाम आज हमारे सामने हैं।
यदि भविष्ये में इस प्रकार के प्राकृतिक आपदा से बचना है तो इसकी तैयारी अभी से करनी होगी। विकास अच्छी बात है, परंतु इसके कुछ मानक तय होने चाहिए। दीर्घकालिक विकास की नीतियों को तय किये जाने की आवश्यवकता है। इसके लिए आवष्यक है कि समस्त हिमालयी क्षेत्रों में भारी निर्माण और दैत्याकार जल विद्युत परियोंजनाओं के निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाए। हिमालयी क्षेत्र में बेतहाशा खनन और सड़क निर्माण के नाम पर विस्फोट ना किये जायें। कब-कब किन हालात में आपदाएं आयी हैं इसका आकंड़ा जुटाया जाये। सबसे जरूरी यह है कि आपदा प्रबंधन विभाग को पुनर्जीवित करने के लिए राज्य सरकार और केन्द्र मिलकर पुख्ता नीति बनाये। हिमालयी क्षेत्रों में आधुनिकतम रडार तैनात किये जाये और मौसम विभाग की सूचनाओं को गंभीरता से लिया जाये क्योंकि पहले की अपेक्षा मौसम विभाग के पूर्वानुमान सच होने लगे हैं।
आपदा राहत के काम में अभी सेना ने जिस तरह का साहस दिखाया है वह प्रशंसनीय है। उनके साथ जितने संगठन स्वप्रेरणा से लोगों की मदद कर रहे हैं उनको भी सलाम और निंदा करनी होगी उन लोगों की जो संकट की इस घड़ी में आपदा राहत के नाम पर धन कमाई में लगे हैं। उत्तरकाशी और केदार घाटी के स्थानीय गांवों में भी जान-माल की जबरदस्त हानि हुई है, लेकिन मीडिया और प्रशासन की नजर अभी वहां नहीं पहुंची है। जैसे-जैसे समय गुजरेगा हालात और भी बद्तर हो सकते हैं। आपदाग्रस्त क्षेत्रों के लोगों ने फंसे हुए यात्रियों को अपने घर का बचा खुचा अनाज तक खिलाया। घर में शरण भी दी जबकि इनके खुद के आशियाने उजड़ चुके हैं। इन सबके बावजूद वह अपना दर्द भुला कर बाहर से आए सैलानियों और श्रद्धालुओं की मदद को आगे आए। सोशल मीडिया में ऐसे लोगों के कई चित्र भी हैं, लेकिन 24 घंटे चलने वाली मीडिया को सनसनी चाहिए, उन्हें ऐसे साहसी लोगों की स्टोरी दिखाने की बजाए 10 रूपये का बिस्कुट 100 में बेचे जाने की खबर ज्यादा महत्वपूर्ण दिखती है। खैर अब आपदा से प्रभावित लोगों को दुबारा अपना जीवन पटरी पर लाना है। जिनके घर तबाह हुए हैं उनको नये आशियाने बनाने होंगे। कारोबार फिर से शुरू करना होगा। फिलहाल आपदा प्रबंधन में बुरी तरह फेल हो चुकी प्रदेश सरकार के पास क्या योजना है यह भी स्पष्टद नहीं है। इस बात की कोई ठोस नीति नहीं है कि लोगों को कैसे और कहां बसाया जाए ताकि भविष्यक में उनका जीवन सुरक्षित रहे, आदि कई सवाल हैं जो अब आने वाले दिनों मे आन्दोलन का सबब बनने वाली हैं। देखा जाए तो इन सवालों का जवाब भी है बशर्ते कि विकास के नाम पर पहाड़ों से छेड़खानी बंद कर दी जाए। (चरखा फीचर्स)
नेता तो एक दुसरे की टांग खींचने ,सरकार बनाने की तिकड़म में लगे रहे,किसे फुर्सत थी इन बातों पर सोचने की.योजना बनाने की.