दुनिया की सबसे बड़ी संदेशवाहक कंपनी ‘व्हाट्सएप’ विवाद में है। इस विवाद की तह में जाने से पहले इसके संबंध में कही जा रही बातों को संक्षेप में देख लेना उचित होगा।
क्या है विवाद?
व्हाट्सएप ने 4 जनवरी, 2021 को अपनी नई सेवा शर्तें जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि व्हाट्सएप का इस्तेमाल करने वालों का डेटा उसकी पैरेंट कंपनी फ़ेसबुक से संबद्ध पाँच कंपनियों को भी उपलब्ध कराया जाएगा और जो उपभोक्ता इन सेवा शर्तों के लिए 8 फरवरी तक सहमति नहीं देंगे, उनकी सेवाएँ बंद कर दी जाएँगी। इस सूचना के आते ही दुनिया भर में खलबली मच गयी। अपने डेटा के प्रति धीरे-धीरे संवेदनशील हो रहे भारतीय शिक्षित वर्ग ने भी इस पर तीखी और त्वरित प्रतिक्रिया दी। यह स्वाभाविक था। फरवरी, 2020 में ही विश्व में व्हाट्सएप के उपभोक्ताओं की संख्या 2 अरब को पार कर चुकी है और इसके सबसे अधिक उपभोक्ता भारत में हैं। भारत की लगभग 40 फ़ीसदी आबादी इस डिज़िटल संदेशवाहक का इस्तेमाल करती है।
इससे संबंधित ख़बरें मीडिया द्वारा प्रकाशित-प्रसारित किए जाने के बाद व्हाट्सएप ग्रुपों में ऐसे संदेश घूमने-तैरने लगे, जिनमें लोगों को व्हाट्सएप के इस्तेमाल से होने वाले ‘नये’ ख़तरों के प्रति आगाह किया गया तथा ‘सिग्नल’ और ‘टेलीग्राम’ नामक संदेशवाहक एप्स में से किसी को चुनने की सलाह दी गयी। मीडिया से प्राप्त सूचना को आधार बनाते हुए, इन व्हाट्सएप संदेशों में बताया गया कि किस प्रकार सिग्नल नामक एप हमारी प्राइवेसी के लिए ‘बेस्ट’ है, तथा ‘टेलीग्राम’ भी ठीक-ठाक है, लेकिन अगर हमने व्हाट्सएप का इस्तेमाल जारी रखा तो हमारी प्राइवेसी, हमारा बैंक अकाउंट सभी ख़तरे में पड़ सकते हैं। यह भी कहा गया कि व्हाट्सएप कंपनी वाले हमारा डेटा अन्य निजी कंपनियों को बेचकर पैसा कमाएंगे। जबकि वास्तविकता यह है कि व्हाट्सएप ने अपनी सेवा शर्तों में कोई ऐसा बदलाव नहीं किया था, जो अचानक चिंता का सबब बने। बल्कि टेक जाइंट्स द्वारा नागरिकों का सर्विलांस एक ऐसी प्रक्रिया है, जिससे हमें पिछले वर्षों में चारों ओर से घेरा जा चुका है। इसका विरोध एक एप की बजाय दूसरे एप का प्रयोग करके नहीं किया जा सकता, बल्कि इससे मुक्ति के लिए एक व्यापक संघर्ष की ज़रूरत है। यह सही है कि सिग्नल की प्राइवेसी संबंधी सेवा शर्तें व्हाट्सएप की तुलना में काफ़ी हद तक बेहतर हैं और उसे अपनाकर हम एक प्रतीकात्मक विरोध दर्ज करवा सकते हैं, लेकिन साथ ही यह भी समझने की ज़रूरत है कि हमें इस जंजाल का बंदी बनाने वाली प्रक्रियाएँ किस प्रकार काम करती हैं। किस तरह कुछ शक्तियों हमें अधूरी, भ्रामक सूचनाएं उपलब्ध करवाने में दिलस्पी रखती हैं, जो कि हमें मूल समस्या से संघर्ष की बजाय सिर्फ उनकी आपसी प्रतिद्धंद्धिता का मोहरा भर बनाए रखे।
ख़बरों को डिकोड करने की कुंजी 20वीं सदी के एक महत्त्वपूर्ण भारतीय चिन्तक मुक्तिबोध ने इस प्रकार के मामलों को समझने के लिए एक बेहद उपयोगी सूत्र प्रदान किया है। वे एक कवि, कथाकार और साहित्यालोचक थे। साहित्यालोचन से संबंधित एक लेख में वे कहते हैं कि “किसी भी साहित्य के असली मर्म तक पहुँचने के लिए उसे हमें अनेक दृष्टियों से देखना चाहिए। उनके अनुसार, हमें सबसे पहले यह देखना चाहिए कि किसी साहित्य को किन शक्तियों ने उत्पन्न किया है। उसके बाद देखना चाहिए कि ‘किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आंतरिक तत्त्व रूपायित किए हैं’ और ‘किन सामाजिक शक्तियों ने उनका उपयोग या दुरुपयोग किया है’। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि ‘साधारण जन के किन मानसिक तत्त्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है?’
मुक्तिबोध भारत में आधुनिकता के प्रस्तोता थे। 20 वीं सदी की उनकी यह कसौटी इस उत्तर आधुनिक समय में भी उपयोगी है। हमें हमलावर सूचनाओं और ख़बरों को आत्मसात् करने से पहले देखना चाहिए कि वे वास्तव में कितनी नई हैं? उससे किस-किसको लाभ होगा? उन्हें किसने निर्मित किया है, वे किन कारणों से फैल रही हैं, कौन-सी शक्तियाँ, क्यों उनके प्रसार में दिलचस्पी ले रही हैं? और, क्या वे सूचनाएँ हमें किसी ख़ास दिशा में ले जाने की कोशिश कर रही हैं, क्या वे हमारा ध्यान किसी मूल मुद्दे से भटका रहीं हैं? तो, आइए इन पैमानों पर व्हाट्सएप से संबंधित उपरोक्त सूचना को देखें। क्या बदला है? वास्तव में, व्हाट्सएप की नीतियों में जिस आमूलचूल बदलाव की बात की गई, वैसा कुछ नहीं हुआ था। वर्ष 2014 में फ़ेसबुक का हिस्सा बनने के कुछ समय बाद से ही व्हाट्सएप अपने उपभोक्ताओं की जानकारियाँ जमा करता रहा है। इसमें हमारे फ़ोन में सेव सारे नंबर, फ़ोटोग्राफ़, मोबाइल का ब्रांड, बैटरी की स्थिति, इंटरनेट सेवा प्रदाता का नाम, भाषा, इंटरनेट प्रोटोकॉल एड्रेस (ISP), इंटरनेट सिग्नल की गुणवत्ता, उपभोक्ता की पहचान (जिसमें एक ही डिवाइस या अकाउंट से फ़ेसबुक से संबद्ध विभिन्न सेवाओं का उपयोगकर्ता की पहचान शामिल है), डिवाइस का लोकेशन समेत अनेक संवेदनशील चीज़ें हैं। पिछले साल जुलाई, 2020 में अपडेट सेवा शर्तों के अनुसार ही उसने अपने प्लेटफार्म पर किए गये बिजनेस-ट्रांजेक्शन डिटेल भी देखना शुरू कर दिया था। अगर कुछ बदला है तो सिर्फ़ इतना कि उसने घोषणा की है कि वह इन जानकारियों को अपनी पैरेंट कंपनी के साथ साझा कर रहा है।
दरअसल, विभिन्न कानूनी मामलों से बचने के लिए फ़ेसबुक व्हाट्सएप को एक स्वायत्त कंपनी के रूप में प्रदर्शित करने की कोशिश करता रहा है। कुछ यूरोपीय देशों के डेटा-प्राइवेसी से संबंधित क़ानूनों से बचने के लिए आवश्यक है कि अगर एक कंपनी दूसरी कंपनी को कोई डेटा साझा करती है, तो उपभोक्ता से उसकी पूर्व अनुमति ले। उपरोक्त ‘नई प्राइवेसी पॉलिसी’ का कुल-जमा निहितार्थ इतना ही है कि फ़ेसबुक इन क़ानूनी पचड़ों से बचने का आसान रास्ता ढूँढ़ रहा था। लेकिन दाँव उल्टा पड़ गया। अन्यथा पैरेंट कंपनी होने के नाते उसके पास वे सारे आँकड़े पहले से ही मौजूद रहे हैं और वह उसका इस्तेमाल भी करता रहा है। क्या आपने स्वयं भी महसूस नहीं किया है कि आपके मोबाइल फ़ोन में जिन लोगों के नंबर सेव होते हैं, उन्हें फ़ेसबुक आपकी संभावित मित्र सूची में दिखाता है। भले ही आप व्हाट्सएप फ़ोन पर इस्तेमाल करते हों, और फ़ेसबुक पर्सनल कंप्यूटर पर, तब भी फ़ेसबुक को पता होता है कि आपका फ़ोन इन दिनों किस-किस के संपर्क में है। हालांकि फेसबुक इसका खंडन करता रहा है। इन पंक्तियों को लिखे जाने के समय फेसबुक द्वारा जारी एक स्पष्टीकरण में भी कहा गया है कि व्हाट्स एप के माध्यम से संकलित फोन नंबरों को फेसबुक के साथ शेयर नहीं किया जाता। उसका दावा तकनीकी रूप से भले ही सही हो, क्योंकि किसी व्यक्ति से संबंधित लाखों अन्य सूचनाओं का संधान कर उसके लिए यह समझ लेना कठिन नहीं है कि एक व्यक्ति, अन्य किन व्यक्तियों, विचारों और प्रवृत्तियों के संपर्क में हैं, उसका स्वयं का व्यक्तित्व कैसा है और उसकी कमजोरियां क्या-क्या हैं।
[ विवाद के बाद व्हाट्सएप द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण ]
इसका अलावा यह भी एक सामान्य चलन (या कहें कि इन कंपनियों की सामान्य दादागिरी) रहा है कि जब भी ये कंपनियाँ कोई नई सेवा-शर्त जारी करती हैं, तो उपभोक्ता के पास उसे अस्वीकार कर सेवा लेते रहने का कोई विकल्प नहीं देती। उन्हें या तो सेवा छोड़ देनी होती है, या फिर शर्तें माननी होती हैं। इस मामले में भी इस बार कुछ नया नहीं था। यही कारण है कि ब्रिटिश अख़बार ‘द इंडिपेंडेंट’ द्वारा इस संबंध में पूछे जाने पर व्हाट्सएप के एक प्रवक्ता ने कहा कि “इसमें कुछ भी नया नहीं है। गोपनीयता नीति का समय-समय अपडेट होते रहना इंडस्ट्री में सामान्य बात है।”
बढ़ते विवाद से नुक़सान होता देख फ़ेसबुक के व्हाट्सएप सेवाओं के प्रमुख विल कैथकार्ट भी सामने आए। 9 जनवरी को धड़ाधड़ किए गये कई ट्वीट में उन्होंने बताया कि नए अपडेट सिर्फ़ व्हाट्सएप के ज़रिये होने वाले बिजनेस में पारदर्शिता लाने के लिए हैं तथा इसके माध्यम से फ़ेसबुक के साथ व्हाट्सएप द्वारा डेटा साझाकरण की ‘प्रथा’ में कोई बदलाव नहीं किया गया है। उन्होंने बताया कि नए अपडेट में ऐसा कुछ भी नया नहीं है, जिससे यह प्रभावित हो कि दुनिया के किसी भी हिस्से के लोग अपने दोस्तों या परिवार से किस प्रकार निजी संवाद करते हैं। उन्होंने कहा कि “ये अपडेट हमने (सिर्फ़) अपनी नीति को पारदर्शी बनाने और अपने ‘पीपुल टू बिजनेस’ फ़ीचर को बेहतर तरीक़े से समझाने के लिए जारी किये हैं। इस बारे में हमने पिछले साल अक्टूबर में ही लिखा था। यह उन लोगों के लिए है जो व्हाट्सएप के माध्यम से व्यापार करते हैं या व्यापार करने वालों के अकाउंट से संवाद करते हैं।”
व्हाट्सएप प्रमुख ने अपने ट्वीट में इस पर बल दिया कि ‘एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन’ के कारण हम आपका निजी चैट या कॉल नहीं देख सकते हैं और न ही फ़ेसबुक देख सकता है। हम (आज भी) इस तकनीक के प्रति विश्वस्तर पर प्रतिबद्ध हैं”। इस दौरान उन्होंने ‘वैश्विक स्तर’ शब्द पर विशेष बल दिया। दरअसल, नये अपडेट्स में कहा गया था कि ये नियम कनाडा और अमेरिका के निवासियों पर लागू नहीं होंगे जो कि चर्चा का कारण बने हुए थे। इन देशों के विशिष्ट कानूनों के कारण फेसबुक इनके लिए अपनी प्राइवेसी पॉलिसी पहले भी अलग रखता रहा है। भेदभाव की यह नीति अलग से विश्लेषण की मांग करती है। यह सही है कि व्हाट्सएप, कम से कम घोषित रूप से, न पहले हमारे संदेशों को पढ़ता था, न ही नयी सेवा-शर्तों ने ऐसा कोई प्रावधान किया है। हालाँकि समय-समय पर उस पर संदेशों को पढ़ने के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन नयी सेवा-शर्तों में ऐसी किसी बात का उल्लेख नहीं था। दरअसल, अनेक लोग भूलवश निजी डेटा संकलित करने का अर्थ निजी संदेशों को पढ़ना समझते हैं। ऐसा नहीं है। यह सही है कि निजी संदेशों को आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस द्वारा पढ़ा और समझा जा सकता है, जिससे हमारी निजता और अधिक ख़तरे में पड़ सकती है, लेकिन बिना इसके भी, जो आँकड़े ये कंपनियाँ जमा करती हैं, वे हमारी कमज़ोरियों को उनके सामने खोलकर रख देने के लिए काफ़ी होते हैं। वे हमें हमारे किसी भी प्रियजन से भी बेहतर ढंग से समझने लगती हैं। समय के साथ-साथ हम उनके लिए बिक्री के लिए उपलब्ध तैयार माल की तरह होते जाते हैं। सिग्नल एप बना विजेता सेवा-शर्तों में कोई उल्लेखनीय बदलाव न होने के बावजूद व्हाट्सएप को इन ख़बरों से करारा झटका लगा। भारत समेत विभिन्न देशों में लोगों के सामने इसके विकल्प के रूप में ‘सिग्नल’ और ‘टेलीग्राम’ का नाम आया। लेकिन विजेता ‘सिग्नल’ रहा। जबकि ‘टेलीग्राम’ के उपभोक्ताओं की संख्या ‘सिग्नल’ की तुलना में बहुत ज्यादा थी और उसके फीचर्स भी अधिक समृद्ध थे और वह भी उन सूचनाओं को संकलित नहीं करने का दावा करता था, जिन्हें कथित तौर पर व्हाट्सएप द्वारा संकलन करना शुरू करने पर आपत्ति जताई जा रही थी।
‘टेलीग्राम’ और ‘सिग्नल’ की प्राइवेसी पॉलिसी में कुछ खास अंतर नहीं था। व्हाट्सएप वाली खबर उड़ने के एक सप्ताह के भीतर ही ‘सिग्नल एप’ स्टोर्स से सबसे अधिक डाउनलोड किया जाने वाला एप बन गया। न सिर्फ़ भारत में बल्कि जर्मनी, फ्रांस, स्वीटजरलैंड समेत अनेक देशों में उसे सबसे अधिक डाउनलोड किया गया। हालत यह हुई कि डाउनलोड के इतने ज़्यादा अनुरोधों के कारण सिग्नल के सर्वर में बाधा उत्पन्न हो गई, जिसे जल्दी ही ठीक कर लिया गया। महज़ एक सप्ताह में ही इसने (कम से कम तात्कालिक रूप से) व्हाट्सएप को पीछे धकेल देने में सफलता पा ली। लेकिन उपरोक्त सूचना के साथ यह तथ्य जानना आपको भी रोचक लगेगा कि सिग्नल और व्हाट्सएप के निर्माता एक ही व्यक्ति हैं। उनका नाम है – ब्रायन एक्टन। [ सिग्नल और व्हाट्स एप के निर्माता ब्रायन एक्टन ने व्हाट्सएप को वर्ष 2009 में अपने सहकर्मी व मित्र जान कौम के साथ मिलकर बनाया था। दोनों मित्र एक ऐसे बिजनेस मॉडल के पक्षधर थे, जिसकी यूएसपी (Unique Selling Proposition) उपयोगकर्ताओं की निजता की रक्षा हो। यानी उनके सपने का व्हाट्सएप एक ऐसा डिज़िटल संदेशवाहक था, जो न रास्ते में संदेशों को पढ़ता था, न ही संदेश भेजने और पाने वालों की रुचियों की जानकारी विज्ञापनदाताओं को बेचकर पैसा कमाने की मंशा रखता था। इसे ही “एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन” कहा जाता है। अधिक सरल शब्दों में कहें तो यह तकनीक कुछ ऐसे काम करती है कि भेजे जाने से पहले मैसेज एक ऐसे डिज़िटल लॉक से सुरक्षित किए जाते हैं, जिन्हें देखने या सुनने के लिए एक डिज़िटल चाबी की ज़रूरत होती है जो सिर्फ़ मैसेज पाने वाले व्यक्ति के पास होती है। बीच में इन मैसेज या कॉल्स को कोई देख, पढ़ या सुन नहीं सकता है। व्हाट्सएप की स्थापना के एक साल के भीतर ही ब्रायन एक्टन और जान कौम उपभोक्ताओं का विश्वास जीतने में सफल रहे और उनके एप ने संचार-तकनीक के बाजार में धूम मचा दी। 2010 में उसे गूगल ने ख़रीदने का प्रस्ताव रखा, जिसे इसके संस्थापकों ने ठुकरा दिया। लेकिन 2014 में इसके संस्थापकों ने अपनी कंपनी का विलय मार्क जुकरबर्ग के फ़ेसबुक के साथ कर दिया। इसके एवज़ में उन्हें 4 अरब यूएस डॉलर तथा फोर्ब्स पत्रिका के अनुसार, फ़ेसबुक के 20 प्रतिशत शेयर हासिल हुए। शेयरों की क़ीमत जोड़ दें तो यह सौदा लगभग 19 अरब यूएस डॉलर का था। इसके कुछ ही समय पहले व्हाट्सएप की कुल क़ीमत महज़ 1.5 अरब यूएस डॉलर आँकी गयी थी। इस प्रकार, 19 अरब यूएस डॉलर की क़ीमत व्हाट्स की तत्कालीन औक़ात से बहुत ज़्यादा थी। साथ ही था मार्क जुकरबर्ग जैसे सिलिकॉन वैली से सबसे चमकते सितारे का वरदहस्त प्राप्त हो जाने का सुख और उससे जन्मने वाली संभावनाएंँ और महत्वाकांक्षाएं। लेकिन तीन साल में ही ब्रायन एक्टन को आटा-दाल का भाव समझ आ गया। व्हाट्सएप का फ़ेसबुक के साथ क़रार इस प्रकार का था, जिसमें व्हाट्स की स्वायत्तता बहुत हद तक बनी रहनी थी। लेकिन मार्क जुकरबर्ग ने व्हाट्सएप को पूरी तरह फ़ेसबुक का अनुषांगिक ब्रांड बनाना और कहना शुरू कर दिया। साथ ही जुकरबर्ग की टीम ने व्हाट्सएप के समक्ष मोनेटाइजेशन योजना रखी। जिसका मतलब था कि व्हाट्सएप अपने उपभोक्ताओं के डेटा को बेचेगा। ब्रायन ने इन चीज़ों का विरोध किया और प्रस्ताव रखा कि इससे बेहतर है कि व्हाट्सएप में संदेश भेजने की सीमा निर्धारित कर दी जाए। उस सीमा से अधिक संदेश भेजने पर कुछ पैसे वसूले जाएँ। डेटा बेचकर उसकी यूएसपी को ख़त्म न किया जाए। लेकिन उनकी बात नक्कारखाने में तूती साबित हुई। 2017 में उन्हें ज़लील होकर फ़ेसबुक छोड़ना पड़ा। सिर्फ़ फ़ेसबुक ही नहीं, अपना शिशु व्हाट्सएप भी, जो अब किशोरावस्था की ओर बढ़ रहा था। फोर्ब्स पत्रिका को दिये एक इंटरव्यू में ब्रायन ने अपनी व्यथा बताते हुए कहा था कि उन्हें फ़ेसबुक से अचानक बाहर निकलने का फ़ैसला करने के कारण 85 करोड़ यूएस डॉलर का नुक़सान हुआ था, लेकिन अपने आदर्शों और मार्क जुकरबर्ग के साथ हुए वैधानिक करार के नियमों से बँधे होने के कारण वे लाचार थे। सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले इस आदर्शवादी उद्यमी ने उस समय व्हाट्सएप के फ़ेसबुक के साथ विलय के अपने फ़ैसले पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा था कि “अंतत: मैं अपनी कंपनी बेच चुका था। मैंने व्हाट्सएप के उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता को बेच दिया था। वह एक बड़े लाभ के लिए किया गया समझौता था और अब मैं हर दिन उसी (अफ़सोस और प्रतिशोध?) के साथ रहता हूँ।”
। व्हाट्सएप छोड़ने के बाद फरवरी, 2018 में ब्रायन एक्टन ने सिग्नल एप की शुरुआत की। यह एक नॉन-प्रॉफिट ऑर्गेनाइजेशन ‘सिग्नल फाउंडेशन’ द्वारा संचालित किया जाता है, जो बड़े दानकर्ताओं के अनुदान पर निर्भर एक संस्था है। इसका घोषित लक्ष्य उपयोगकर्ताओं की निजता की रक्षा करना है। मार्च, 2018 में फ़ेसबुक के कुख्यात कैम्ब्रिज एनालिटिका घोटाला की ख़बर अख़बारों में प्रकाशित होने के बाद ब्रायन ने महज़ एक पंक्ति के अपने एक ट्वीट से सिलिकॉन वैली में सनसनी फैला दी थी, जिसे उनके प्रतिशोध की तरह देखा गया था। उन्होंने लिखा – “It is time. #deletefacebook” (यह फ़ेसबुक को डिलीट कर डालने का समय है)। या भारत में वामपंथी विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय नारों की भाषा में कहें तो ब्रायन कह रहे थे “फ़ेसबुक धोखा है, धक्का मारो मौक़ा है।” उस समय उनके इस ट्वीट पर टेस्ला के सीईओ एलन मस्क ( जो इन पंक्तियों को लिखे जाने के समय,फोर्ब्स पत्रिका के अनुसार, दुनिया के सबसे अमीर आदमी हैं) ने भी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की, थी, जिसमें ब्रायन की बात का समर्थन छिपा था। इस ट्वीट प्रकरण में एक रेखांकित करने वाली वाली बात यह भी है, ब्रायन के अकाउंट से 21 मार्च, 2018 को किया गया वह ट्वीट अंतिम ट्वीट है। उसके बाद आज तक उन्होंने कोई ट्वीट नहीं किया है। यही कारण है कि यह सवाल भी उठता रहा है कि उनकी इस लंब चुप्पी का क्या अर्थ है? क्या उस ट्वीट के बाद ब्रायन किसी दबाव में आ गये हैं या उन्होंने भारतीय वांग्मय के स्वाभिमानी पुरुष कौटिल्य की तरह किसी के विनाश की प्रतिज्ञा में अपनी चोटी खोल रखी है? बहरहाल, इतना तो स्पष्ट ही है कि हालिया प्रसंग से नुक़सान उठाने वाले “व्हाट्सएप” और लाभ उठाने वाले “सिग्नल” के व्यावसायिक हितों के बीच नज़रअंदाज़ न की जा सकने वाली अनेक कड़ियाँ हैं। उनके मौजूदा मालिकों मार्क जुकरबर्ग और ब्रायन एक्टन के बीच सिर्फ़ व्यावसायिक ही नहीं, निजी कटुता भी है। ब्रायन के मन में पिछले चार सालों से एक ऐसी आग धधक रही है, जो उन्हें हर दिन बेचैन किए रहती है। हमारे पास इस सवाल का उत्तर जानने का फिलहाल कोई जरिया नहीं है कि क्या व्हाट्सएप संबंधी खबर उड़ाने में ब्रायन की भी कोई भूमिका थी? कथा की इस गायब कड़ी को यहीं छोड़ कर अब हम यह देखें कि व्हाट्सएप के इस कथित नयी सेवा-शर्तों को व्यापक विमर्श का मुद्दा बनाने में किस-किस ने किस प्रकार की भूमिका निभाई। अनाम मालिक की वेबसाइट, व्हिसल ब्लोअर और सबसे अमीर आदमी व्हाट्सएप प्रमुख विल कैथकार्ट ने विवाद पर सफ़ाई वाले उपरोक्त ट्वीट में बताया है कि व्हाट्सएप ने अपने ब्लॉग पर इन परिवर्तनों की जानकारी अक्टूबर में ही दे दी थी। यह जानकारी उसकी 22 अक्टूबर, 2020 की पोस्ट में अभी भी मौजूद है। लेकिन हमारी परंपरागत पत्रकारिता इतनी खोजबीन में दिलचस्पी नहीं रखती। दुनिया भर के परंपरागत प्रणाली वाले समाचार माध्यमों (जिनमें अख़बार, पत्रिकाएँ, टीवी, रेडियो और अब वेबसाइट भी शामिल हैं) में सामान्यतः वही ख़बरें होती हैं जो उनको किसी लाभ-आकांक्षी पक्ष द्वारा बनी-बनाई उपलब्ध करवा दी जाती हैं। व्हाट्स की सेवा शर्तों से संबंधित ख़बर 2 दिसंबर, 2020 को ‘डब्लूएबेटाइन्फ़ो’ (wabetainfo) नामक वेबसाइट ने ब्रेक की। वहाँ से इसे दुनिया भर की न्यूज़ एजेंसियों और मीडिया संस्थानों ने उठाया और यह सैकड़ों जगहों पर प्रकाशित हुई। जैसा कि इसके नाम ‘डब्लू बेटा इन्फ़ो’ में भी समाहित है कि यह वेबसाइट व्हाट्सएप के बेटा (प्रयोगात्मक) संस्करण की जानकारी देने के लिए बनाई गयी है। यह मुख्य रूप से सिर्फ़ व्हाट्सएप से संबंधित ख़बरें प्रकाशित करती हैं। यह वेबसाइट मीडिया संस्थानों में तकनीक की बीट देखने वाले पत्रकारों के लिए बिना किसी श्रम के व्हाट्सएप से संबंधित ख़बर पाने का एक अच्छा स्रोत रही है। पिछले कुछ वर्षों में व्हाट्सएप के आने वाले नये फ़ीचर्स से संबंधित जो ख़बरें आपने प्रकाशित, प्रसारित होते देखी होंगी, उनमें से अधिकांश का स्रोत यह वेबसाइट ही रही है, लेकिन इसका अपना कोई बिजनेस मॉडल नहीं है, इसलिए यह जानना कठिन है इसके संचालन के धन कहां से आता है। इसे कौन चलाता है, क्यों चलाता है, यह एक रहस्य है। वेबसाइट पर बताया गया है कि इसकी शुरुआत 15 जनवरी, 2016 को हुई थी। ‘इसे कौन चलाता है’, इस बारे में वेबसाइट पर कहा गया है कि इसके संस्थापक के “जीवन को शांत रखने के लिए पहचान को गुप्त रखा गया है”।
‘डब्लूए बेटा इन्फ़ो’ के अनाम मालिक के अतिरिक्त इस ख़बर के प्रसार में दिलचस्पी लेने वालों में चर्चित अमेरिकी व्हिसल ब्लोअर एड्वर्ड स्नोडेन और दुनिया के सबसे अमीर आदमी एलन मस्क थे। इन दोनों ने ‘व्हाट्सएप’ की जगह ‘सिग्नल’ का इस्तेमाल करने की अपील की। उनकी इस अपील को मीडिया में व्यापक जगह मिली। अमेरिकी व्हिसल ब्लोअर एड्वर्ड स्नोडेन अमेरिका की नेशनल सिक्यूरिटी एजेंसी (एनएसए) के गुप्त दस्तावेज़ों को लीक करने के लिए जाने जाते हैं। 2013 में चर्चित हुए इस मामले से ‘एनसए द्वारा अवैध तरीक़े से अमेरिकी जनता को सर्विलांस किए जाने का खुलासा हुआ था। उसके बाद से ही एड्वर्ड स्नोडेन पर मुक़दमा चल रहा है और फ़िलहाल वे रूस में शरणार्थी हैं। फ़ेसबुक की नीतियों से उनका विरोध पुराना है। वे मानते रहे हैं कि सर्विलांस के मामले में टेक कंपनियाँ एनएसएस से अधिक घातक हैं। वे इन टेक कंपनियों में सबसे घातक फ़ेसबुक और मार्क जुकरबर्ग को मानते हैं। स्नोडेन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि तकनीक की दुनिया में “मार्क जुकरबर्ग के नेतृत्व में एक ऐसा वर्ग है जो ऐसी तकनीकी शक्ति को अधिकाधिक बढ़ाते जाना चाहता है, जिससे समाज को प्रभावित किया जा सके। वे लोग मानते हैं कि इससे वे लाभ उठा सकते हैं। इतना ही नहीं, वे समझते हैं कि वे अपने इस प्रभाव के इस्तेमाल से दुनिया को एक बेहतर दिशा में अग्रसर कर सकते हैं, बेहतरी के लिए कर सकते हैं।” वर्ष 2020 के अंत में स्नोडेन के संबंध में एक और खबर आई थी। उस समय टेक कंपनियों से लोहा लेने की घोषणा करने वाले, लेकिन अपने नस्लवादी रुझान के लिए कुख्यात रहे, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने स्नोडेन को माफ़ी देने और अमेरिका वापस लौटने के संकेत दिये था। ट्रंप के इस समर्थन के भी अपने निहितार्थ रहे हैं।
दूसरी ओर, एलन मस्क की कंपनियाँ आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, स्वचालित वाहनों के व्यवसाय में लगी हैं। लेकिन उनके व्यवसाय का एक बड़ा हिस्सा अंतरिक्ष परिवहन के क्षेत्र में है। उनका सपना है कि एक दिन जब पृथ्वी मनुष्यों के रहने लायक़ नहीं रह जाएगी तो उनकी कंपनी ‘स्पेस एक्स’ सौरमंडल के विभिन्न ग्रहों पर इनसान व पृथ्वी के सभी जीवों को बसा देगी। मस्क भी फ़ेसबुक का अरसे से विरोध करते रहे हैं। वे पिछले वर्षों में कई बार लोगों से फ़ेसबुक को डिलीट करने की अपील अपने ट्वीट में कर चुके हैं। व्हाट्सएप की प्राइवेसी पॉलिसी के बारे में खबरें फैलने के बाद मस्क ने अपने ट्वीट में लोगों ने आग्रह किया कि वे सिग्नल का इस्तेमाल करें। इतना ही नहीं, अपने एक फॉलोअर के पूछने पर यह भी बताया कि उन्होंने पिछले साल ही सिग्नल फ़ाउंडेशन को डोनेशन दिया था तथा भविष्य में उसे और ज़्यादा डोनेशन देने का इरादा रखते हैं। हमें क्या करना चाहिए? चाहे मार्क जुकरबर्ग और उनकी टीम हो, यह स्पेसएक्स के सीइएओ एलन मस्क, या फिर किंचित छोटे खिलाड़ी ब्रायन एक्टन, ‘डब्लू बेटा इंफो’ का अनाम कर्ताधर्ता, या फिर अमेरिकी व्हिसलब्लोअर एडवर्ड स्नोडेन – इन सबमें एक बात समान है। ये नई दुनिया के निर्माण के लिए उसी पूंजीवादी रास्ते पर विश्वास करते हैं, जिसमें हमारी भूमिका महज मोहरे की ही रहने वाली है। ये भले ही एक दूसरे के विरोधी दिखें, लेकिन इनका रास्ता एक ही है। ये सामूहिक, समतामूलक राजनीतिक कार्रवाइयों के पक्षधर नहीं है, बल्कि गहरे अर्थों में नीत्शे के उस सिद्धांत में विश्वास करते हैं, जो सिर्फ योग्य को ही जीने का अधिकार देना चाहता है। इनमें से कुछ की लड़ाई अपने-अपने सपनों की लड़ाई है तो कुछ इन्हीं में से किसी का मोहरा बन रहते हैं। इनकी लड़ाई जनता की लड़ाई नहीं है। जब ये अपने प्रतिद्वंद्वियों से मात खाने लगते हैं, या उसी व्यवस्था द्वारा कुचले जाने जाने लगते हैं, जिसके निर्माण में इनके स्वयं भी भूमिका रही है तो ये जनता का समर्थन चाहते हैं। व्हाट्सएप प्रसंग पर इस विस्तृत चर्चा का उद्देश्य यह है कि हम इनके बीच की टूटी लगने वाली कड़ियों का अनुमान लगाने में सक्षम हो सकें। हम देख सकें कि इन कड़ियों के बीच हमारी कोई जगह नहीं है। अकूत संपत्ति के मालिकों की आँखों में ‘नयी दुनिया’ का अलग-अलग सपना है। एक के सपनों की दुनिया सर्विलांस के बोझ से दबे सिर्फ़ आज्ञाकारी लोगों की है, तो दूसरे की आँखों में एक ऐसी दुनिया की कल्पना है जिसे हमारी पृथ्वी से परे किसी और ग्रह पर बसाया जा सके तो कोई तीसरा धन-पशु, किसी और तरह का स्वर्ग बनाने की तैयारी में है। लेकिन इनकी कल्पनाओं की हर तरह की दुनिया में बसने वाले सिर्फ़ हाड़-मांस के पुतले हैं। हमें उनकी वहशी कल्पनाओं को जन-निगरानी के दायरे में लाने की कोशिश करनी चाहिए तथा उनके स्वर्ग के झाँसे का बहिष्कार करने के लिए भी, अपने-अपने स्तर पर कमर कसनी चाहिए।
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