घाव

अमर मालमोही

(रूपान्तर: डा० शिबन कृष्ण रैणा)

“और वह घाव के साथ मुंह सटाकर मेरे खून को चूसने लगी ।”

“खून को चूसने लगी ?”

“हां, मेरे खून को चूसने लगी, गर्म-गर्म खून को, लाल-लाल खून को !”

“मगर क्यों ? “

इससे पहले कि दयकाक आगे कुछ कह पाता, वह आंखें बंद कर न जाने किस आलम में खो गया । शायद बीती घटनाओं के बिखरे तंतुओं को बटोरने लग गया ।

दयकाक का असली नाम दयाराम कौल था । कश्मीर के भूगोल का एनसाइक्लोपीडिया था वह । उसके पास बैठकर उससे बातें करने में वही आनन्द मिलता था जो आज की अस्त-व्यस्त ज़िन्दगी से तंग आकर दूर किसी साधु-संत की सुरम्य कुटिया में बैठकर सत्संग से मिलता है। उसने अपने ज़माने में कश्मीर का चप्पा-चप्पा छान मारा था। चिलास, गिलगित, लद्दाख, द्रास, लोलाब, स्कर्दू आदि दूर-दराज़ इलाकों में वह खूब घूमा था । अपने जीवन की हर बीती घटना उसने मुझे प्रायः सुनाई थी, मगर इस घाव के बारे में जब भी बात उठती, वह चुप हो जाता । उसकी बांह की मांसपेशी पर यह घाव कैसे हो गया था, यह उसने कभी नहीं बताया ।

“काका, सो गए क्या ?”

“नहीं बेटा, बस यों ही पड़ा-पड़ा कुछ सोच रहा था ।” उसने जेब में से नसवार की एक छोटी-सी शीशी निकाली और थोड़ी-सी नसवार नथुनों के भीतर सूंघ ली, “आजकल की नसवार तो मिट्टी से भी बदतर हो गयी है । मुझे उसकी नसवार से उतनी दिलचस्पी नहीं थी जितनी कि उसके उस घाव से, जिसका रहस्य वह अब तक अपने सीने में छिपाए हुए था।

मेरे विचार से दयकाक की आयु यही कोई 90 के आस-पास थी । मगर इस उम्र में भी वह पक्की मिर्च की तरह लाल था। जीवन को उसने हमेशा एक चुनौती माना था और चुनौती के रूप में ही उसे भोगता-जीता आ रहा था। पढ़ा-लिखा वह ज्यादा नहीं था। अंगरेज अफसरों के साथ काफी लम्बे अरसे तक काम करते रहने के कारण वह अंगरेज़ी थोड़ी-बहुत बोल लेता था टूटी-फूटी, काम चलाऊ । आजकल की पढ़ाई-लिखाई से वह संतुष्ट नहीं था । वह अक्सर कहा करता था जिसने सिकन्दरनामा, गुलिस्तान और बोस्तान नहीं पढ़ा, उसने समझ लो कुछ भी नहीं पढ़ा ।

“आज कुछ तबियत नर्म लग रही है, सारा बदन जैसे अकड़-सा गया है।” वह बोला।

“तो फिर काका, आज आराम कर लो, मैं कल आ जाऊंगा ।”

‘बेटा, अब आराम में क्या धरा है! मेरी हालत तो उस पक्की नाशपाती की तरह है जो आज गिरी या कल ।” कहते-कहते दयकाक कहीं दूर खो गया, “मेरे साथी तो कब के चले गए । उनकी कब्र पर तो ऊंची-ऊंची घास भी उग आई । बस, मैं रह गया अकेला। अब तो भगवान से यही मांगता हूं कि अंतिम घड़ी तक यह हाथ-पैर चलते रहें और आंखों की रोशनी काम करती रहे । भगवान न करे कि आखिरी घड़ी में मुझे मुहताज बनना पड़े । “

मैं समझ गया कि बुढ़ापे के एहसास ने दयकाक को कमज़ोर बना दिया है । एक अज्ञात भय उसे भीतर ही भीतर हिलाने लगा है। एक वह समय था जब दस-दस कोस चलकर भी वह कभी थकान महसूस नहीं करता था और आज हालत यह है कि अपने ही अंगों को सम्भालना उसके लिए मुश्किल हो रहा था ।

“तू क्या सोचने लग गया रे?” वह जैसे नींद में बोल उठा ।

“कुछ नहीं काका” मैंने बात बनाई, “अच्छा, यह बताओ काका, तुम्हारा क्या विचार है, पुराने लोग अच्छे थे या आज के अच्छे हैं ?” “बेटा, अच्छा वह है जो अच्छा काम करे। पुराने लोगों का मन साफ था, मगर माहौल उनका गंदा था। आज के लोगों का माहौल साफ है मगर मन उनका गंदा है। सुनो, मेरे अंग-अंग से पसीना छूटता जा रहा है।”

“डाक्टर को बुला लाऊं ?”

“नहीं बेटा, अब आखिरी घड़ी में सूई कौन लगवाए। मैं तो अपने-आप ठीक हो जाऊंगा। आज कुछ ज्यादा ही गर्मी पड़ी ना इसलिए पसीना आ रहा है। अच्छा, यह बता कि विलायत जाने के कितने पैसे लगते हैं ? “

यह अचानक इन्हें विलायत जाने की क्या सूझी, इससे पहले कि मैं अपनी जिज्ञासा व्यक्त करता, वह खुद ही बोल दिया, “सोचता हूं थोड़ा घूम-फिर कर आ जाऊं। कई वर्षों से दिल कर रहा है कि विलायत देख आऊं ।”

“मगर विलायत ही क्यों ?”

थोड़े-बहुत अंतराल के बाद जैसे एक पूरे युग को उलटता-पलटता, खोजता-ढूंढ़ता वह डूबती किन्तु आश्वस्त आवाज़ में मुझे कहने लगा । उसकी आवाज़ में एक अजीब तरह का दर्द हिलोर रहा था । “…मेरे पिता हरकाक कौल की मृत्यु के साथ ही मेरा लिखना-पढ़ना भी छूट गया । यह बात आज से लगभग 80 वर्ष पहले की है । तव मैं दस-बारह साल का रहा हूंगा, हां दस-बारह साल का ही ! मैं शहर आ गया और वहां पर एक पंडित के यहां एक रुपया प्रति मास के वेतन पर नौकरी कर ली। मेरा काम था बर्तन मांजना, घर की सफाई करना और शाम को पंडित और पंडिताइन के हाथ-पैर दबाना | मेरे काम से खुश होकर एक दिन पंडितजी ने पंडिताइन की सिफारिश पर मुझे वन विभाग में गार्ड की नौकरी पर लगा दिया। दरअसल, वह पंडित वन विभाग में ही रेंजर के पद पर था । तनख्वाह मुझे दफ्तर से मिलती थी, मगर काम मैं रेंजर साहब के घर पर करता था ।” कहते-कहते दयकाक कुछ देर के लिए चुप हो गया । फिर जैसे शब्दों को, बीती बातों को समेटते हुए आगे कहने लगा. “उस वक्त तक मेरी आयु पंद्रह-सोलह के आस-पास हो गई थी । अपने मालिक के साथ मैं कितने ही बीहड़ जंगलों में घूमा, कितने ही पहाड़ों पर चढ़ा और कितने ही दूर-दराज इलाकों में फिरा। इस बीच रेंजर साहब की पेंशन हो गई और मुझे एक अंगरेज डी०एफ० ओ० ने अपने पास रख लिया।”

दयकाक कुछ भावुक हो उठा और मुझे लगा कि आज वह उस रहस्य को जरूर खोल देगा जिसको जानने के लिए मैं वर्षों से वेचैन था ।

“डी० एफ० ओ० साहब की बीवी बड़ी नेकदिल थी। मुझे अच्छी तरह खिलाती-पिलाती थी और हर क्रिसमस पर नये कपड़े भी सिलवाती थी । अंगरेज़ अफसर आजकल के अफसरों की तरह केवल दफ्तर में बैठ कर काम नहीं किया करते थे बल्कि खुद टूर पर जाते थे, खुद अपनी आंखों से स्थिति का जायजा लेते थे आदि । कर्त्तव्य-परायणता उनमें कूटकूट कर भरी रहती थी । ऐसे ही अफसरों के साथ घूम-घूमकर मुझे सारा कश्मीर देखने का मौका मिला।हाय, कितने प्यारे थे वे दिन !” कहतेकहते दयकाक ने एक आह भरी । मुझे लगा कि इस आह में उसका पूरा अतीत घुमड़ पड़ा है ।

“फिर क्या हुआ काका ?” मैंने पूछा ।

“वक्त के साथ-साथ मेरी उम्र भी बढ़ती गई। जिन दिनों मैं डी०एफ०ओ० स्टेन साहब के साथ काम करता था, उन दिनों मेरी उम्र 30 के करीब पहुंच गई थी । तब खूब हट्टा-कट्टा और गदराया बदन था मेरा । मेरे चलने से रास्ता भी हिल जाता था। बबर शेर भी मिल जाता तो उससे भी जूझने से बाज़ न आता । दरअसल, अपने इष्ट-देव और इन बाहों की शक्ति पर मुझे अपार विश्वास था ।”

“मगर, काका तुमने शादी क्यों नहीं की ?”

इस बार उसके होंठों पर एक हल्की-सी स्मित-रेखा उभर आई । होंठों को तनिक भींचता हुआ-सा वह कहने लगा, “दोस्तों ने खूब समझाया कि मुझे अब शादी कर लेनी चाहिए, गृहस्थी बसा लेनी चाहिए। मगर, जाने क्यों इस बंधन को मैंने कभी अपने अनुकूल नहीं पाया। शादी का नाम सुनते ही मुझ में एक अजीब तरह की विरक्ति का भाव पैदा हो जाता। मैं तो आज़ाद पंछी की तरह कुदरत के नज़ारों में खो जाना चाहता था। इसलिए शादी से मैं हमेशा कतराता रहा । मगर कसम है उस मालिक की, चरित्र मेरा हमेशा ऊंचा रहा, वासना का कभी मैं शिकार हुआ नहीं! -“कहते-कहते दयकाक ने एक भावपूर्ण दृष्टि घाव के निशान पर डाली और आंखें भींचकर आगे कहना शुरू किया, “मेम साहब के नौकरों में मुझे एक खास स्थान प्राप्त था। एक दिन मेम साहब ने मुझे अपने पास बुलाकर कहा“देखो दया, हमारे यहां कुछ मेहमान आने वाले हैं विलायत से । मेरा भाई आर्थर और उसकी बेटी लूसी । तुम्हें उनके आराम का खास ख्याल रखना होगा ।”

“आर्थर और उसकी लड़की आ गए । मेहमानों से परिचय कराया गया तो मुझे देख कर बोली, “क्या यह हिन्दुस्तानी है ?”

“हां” मेम साहब ने कहा, “मगर है कश्मीरी पंडित, मेरा सब से ज्यादा विश्वसनीय नौकर ।’

“लूसी 23 साल की अल्हड़ नव-यौवना थी। उसे देख ऐसा लगता था कि वक्त की नब्ज़ जैसे थम गई हो । शराब की ऐसी बोतल थी वह जिसका ढक्कन शायद आज तक किसी ने नहीं खोला था। उसे देखकर सब कुछ भूल जाता था । रूप और रंग का वह ऐसा गुलाब थी जिस पर शोखी और चंचलता की शबनम रह-रह कर इठला रही थी। जाने क्यों जिस दिन से उसने मुझे देखा, वह मुझ में हद से ज्यादा रुचि लेने लगी।धीरे-धीरे हम दोनों की दोस्ती बढ़ती गई । अब वह खाने की मेज पर भी मुझे अपने पास बुलाने लगी और हम दोनों एक-साथ खाना खाने लगे । हम अब जंगलों में भी साथ-साथ घूमने-फिरने लगे । रात काफी देर गए तक अब वह मेरे कमरे में बैठने लगी और मैं उसे ‘हीमाल-नागराय’, ‘लोलर’ आदि कश्मीरी लोक-कहानियां सुनाने लगा । मगर कसम है उस मालिक की कि इस बीच मैंने हमेशा अपनी हविश को दबाए रखा और उसे अपने मालिक की मेहमान समझकर वही आदर सत्कार देता रहा जो एक नौकर को अपने मालिक का नमक खाकर अदा करना चाहिए । “

थोड़ी देर के लिए दयकाक रुक गया। फिर गला खंखार कर उसने आगे कहना शुरू कर दिया, “दिन-दिन बीतता गया और लूसी मेरे नजदीक आती रही, आती रही। उसके हाव-भाव और रंगढंग को देखकर मुझे उसके दिल को पढ़ने में देर न लगी। मैं एक अजीब तरह की उलझन में पड़ गया। एक तरफ मालिक का नमक और दूसरी तरफ लूसी की बेकरार जबानी। आखिर एक दिन लूसी ने मुझसे पूछ ही लिया, ‘दया, तुमने कभी मुहब्बत की है ?’

“मेरी चुप्पी को उसने कुछ और समझ लिया। उसकी आंखों की चमक बुझ गई। इससे पहले कि मैं इन्कार करता वह बोली, किस के साथ ?’

‘अपने मालिक के साथ ‘

“वह बिफर गई। मैं बाहर निकलने को हुआ। मैंने देखा कि वह बुरी तरह बहक रही थी, ‘कहां जाओगे ? ‘

‘घर का सारा काम हो गया है, अब सो जाता हूं ।’

वह हंस दी। उसकी हंसी में अजीब तरह की खुमारी और हविश थी ।

‘इतनी जल्दी सो जाओगे ?’

” इस बात पर ध्यान दिए बिना मैं बिना कुछ कहे-सुने निकल आया । कई दिनों तक लूसी मेरे साथ बोली नहीं । मेरे ऊपर उसकी मेहरबानियों में अब कमी आने लगी और मैंने यह महसूस किया कि उसकी आंखों में अब पहले जैसी मादकता के बदले अपमान की छाया तैरने लगी है । वह अब मुझे कष्ट देने पर तुल गई । यहां तक कि मालिक से दो-एक बार मेरी शिकायत भी की उसने ।

 “मगर होनी को कौन टाल सका है ।” दयकाक कुछ संजीदा हो उठा, “मेहमानों को अब जल्दी ही वापस चले जाना था। उस रात काफी देर तक मैं घर का काम करता रहा । थककर जब चूर हुआ तो अपने कमरे में जाकर सो गया । जवानी की नींद बड़ी गहरी होती है ना, इसलिए जल्दी ही सुध खो बैठा । जाने कब करवट ली और मैंने पाया कि मेरे पहलू में रेशम जैसी कोई मुलायम चीज़ थर-थरा रही है। हाथ को दाएं-बाएं सरकाया तो मुझे लगा जैसे गर्म-तंदूर की तरह कोई जानदार वस्तु दहक रही हो ।”

दयकाक एकदम चुप हो गया । उसकी सांस तेजी के साथ चल रही थी । पसीना उसके माथे पर खूब आया हुआ था, “फूलों की सुगन्ध और औरत के हुस्न को शब्दों में बांधना मुश्किल है। मेरे हाथों ने क्या देखा, क्या अनुभव किया, यह मुझे इस वक्त भी मालूम नहीं है। उसकी बाहों ने धीरे-धीरे मुझे घेरना शुरू कर दिया। वह बंदरी की तरह मुझे काटने, नोचने और खसोटने लगी ।”

“तो क्या वह लूसी थी ?” मैंने जानना चाहा |

“हाँ, लूसी ही थी वह। सर से पांव तक नंगी, दूध में नहाई  हुयी जैसी । उसके अंग-अंग से वासना की गंध आ रही थी। मैंने एक बार फिर अपने इष्टदेव परम शंभु को याद किया, उसी शंभु को जिसने अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया था । मैं अचकचाकर अपने को संभालता हुआ उठ खड़ा हुआ ।”

“फिर क्या हुआ, काका ?” मैं आगे की बात सुनने के लिए अधीर हो गया ।

‘‘उसके अंग-अंग को देखकर मेरी आंखों से चिनगारियां चटखने लगीं । तब तक मेरे शंभु ने मुझ पर अनुग्रह कर दिया था — मैं पत्थर बन गया, ठंडा और बेजान पत्थर!

मगर, मगर वह तो एक औरत थी । उसने मुझसे इंतकाम लिया | खंजर उठाकर उसने मुझ पर वार किया। मेरी बांह छलनी हो गई । खून का फव्वारा छूटा कि नहीं, मैं नहीं जानता । हां, मैं गिरता-लुढ़कता नीचे गिर पड़ गया । वह मेरे नज़दीक आई और घाव के साथ मुंह सटाकर मेरा खून चूसने लगी | लाल-लाल खून ! गर्म-गर्म खून ! नीचे जो खून गिरा था उसे पोंछकर उसने अपने सारे अंगों पर मला । जीवन की रक्षा करने वाली अम्बा, ज्ञान का प्रकाश देने वाली सरस्वती, अत्याचार का नाश करने वाली दुर्गा, आज अपने अपमान का बदला लेने के लिए काली बन गई थी ।”

कहते-कहते दयकाक चुप हो गया और शायद नींद में खो गया । दूसरे दिन मैंने सुना कि दयकाक गुजर गया। मैंने उसके शव को गौर से देखा । उसका एक हाथ अब भी उस घाव के निशान को छिपाने की कोशिश कर रहा था ।

लोगों का कहना है कि दयकाक मर गया मगर मुझे लगता है कि वह विलायत के लिए निकल पड़ा: लूसी को ढूंढ़ने !

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डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
जन्म 22 अप्रैल,१९४२ को श्रीनगर. डॉ० रैणा संस्कृति मंत्रालय,भारत सरकार के सीनियर फेलो (हिंदी) रहे हैं। हिंदी के प्रति इनके योगदान को देखकर इन्हें भारत सरकार ने २०१५ में विधि और न्याय मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति का गैर-सरकारी सदस्य मनोनीत किया है। कश्मीरी रामायण “रामावतारचरित” का सानुवाद देवनागरी में लिप्यंतर करने का श्रेय डॉ० रैणा को है।इस श्रमसाध्य कार्य के लिए बिहार राजभाषा विभाग ने इन्हें ताम्रपत्र से विभूषित किया है।

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