चिंताजनक हैं चीन के मंसूबे

संदर्भः- बीजिंग में आयोजित बेल्ट एंड रोड फोरम सम्मेलन

प्रमोद भार्गव

 

चीन ने बड़ी कूटनीतिक चाल चलते हुए बीजिंग में वन बेल्ट एंड वन रोड फोरम (ओबीओआर) का दो दिनी सम्मेलन आयोजित किया था। इसकी शुरूआत करते हुए चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि ‘सभी देशों को एक-दूसरे की संप्रभुता, गरिमा और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना चाहिए।‘ चीन की कथनी और करनी में दोगलेपन का यही वह चिंताजनक मंसूबा है, जो भारत समेत अनेक देशों के लिए खतरनाक है। इस चर्चा में साठ से अधिक देश हिस्सा ले रहे हैं। इनमें अमेरिका, रूस, तुर्की, वियतनाम, दक्षिण कोरिया, फिलीपिंास, इंडोनेशिया, श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल, लाओस और म्यांमार प्रमुख देश हैं। चीन ने भारत को भी आमंत्रित किया था, लेकिन जिस ओबीओआर परियोजना के पक्ष में यह सम्मेलन आहूत किया गया हैं, उस परिप्रेक्ष्य में चीन पहले से ही 80 अरब की लगात से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के निर्माण में लगा है, जिसे भारत अपनी संप्रभुता पर हमला मान रहा है। इसीलिए भारत ने इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया। इस गलियारे का बड़ा हिस्सा पाक अधिकृत कश्मीर से गुजर रहा है, जो कि वास्तव में भारत का हिस्सा है। चीन ने सब कुुछ जानते हुए इस आर्थिक गलियारे का निर्माण कर भारत की संप्रभुता को आघात पहुंचाया है, बावजूद भारत को प्रतिनिधित्व करते हुए इन देशों के बीच अपना पक्ष रखना चाहिए था ?

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 2013 में कजाकिस्तान और इंडोनेशिया की यात्राओं के दौरान सिल्क रोड़ आर्थिक गलियारा और 21वीं सदी के मैरी टाइम सिल्क रोड़ बनाने के प्रस्ताव रखे थे। इन प्रस्तावों के तहत तीन महाद्वीपों के 65 देशों को सड़क, रेल और समुद्री मागों से जोड़ने की योजना है। इन योजनाओं पर अब तक चीन 60 अरब डाॅलर खर्च कर चुका है। इस योजना को साकार रूप में बदलने का चीन के लिए वर्तमान समय सुनहरा अवसर दिखाई दे रहा है। क्योंकि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप देश को संरक्षणवाद की ओर ले जा रहे हैं। ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से बाहर आकर आर्थिक उदारवाद से पीछा छुड़ाने के संकेत दे दिए हैं। जर्मनी में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद उभरता दिखाई दे रहा है। गोया चीन  भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था में खाली हुए स्थान को भरने के लिए उतावला है।

दरअसल चीन का लोकतंत्रिक स्वांग उस सिंह की तरह है, जो गाय का मुखौटा ओढ़कर धूर्तता से दूसरे प्राणियों का शिकार करने का काम करता है। इसी का नतीजा है कि चीन 1962 में भारत पर आक्रमण करता है और पूर्वोत्तर सीमा में 40 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प लेता है। चीन की दोगलाई कूटनीति तमाम राजनीतिक मुद्दों पर साफ दिखाई देती है। चीन बार-बार जो आक्रामकता दिखा रहा है, इसकी पृश्ठभूमि में उसकी बढ़ती ताकत और बेलगाम महत्वाकांक्षा है। यह भारत के लिए ही नहीं दुनिया के लिए चिंता का कारण बनी हुई है। भारत ने सम्मेलन का बहिश्कार करते हुए कहा है कि जो चीन अंतरराष्ट्रीय नियमों, कानूनों, पारदर्षिता और अनेक देशों की संप्रभुताओं को किनारे रखकर वैश्विक हितों पर कुठाराघात करने में लगा है, ऐसे में वह, चीन की उस कोशिश में क्यों मददगार बने, जिसके लिए चीन अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने में लगा है ? साथ ही भारत ने उन परियोजनाओं के प्रति भी चिंता जताई है, जो कई देशों में चीन ने शुरू तो कीं, लेकिन जब लाभ होता दिखाई नहीं दिया तो हाथ खींच लिए। ऐसे में कई देश चीन के कर्जे के चंगुल में तो फंसे ही, अधूरी पड़ी परियोजनाओं के कारण पर्यावरण की हानि भी इन देशों को उठानी पड़ी ?

श्रीलंका में चीन की आर्थिक मदद से हम्बंटोटा बंदरगाह बन रहा था, लेकिन चीन ने काम पूरा नहीं किया। इस वजह से श्रीलंका आठ अरब डाॅलर कर्ज के शिकंजे में आ गया है। अफ्रीकी देशों में भी ऐसी कई परियोजनाएं अधूरी पड़ी है, जिनमें चीन ने पूंजी निवेश किया था। इन देशों में पर्यावरण की तो बड़ी मात्रा में हानि हुई ही, जो लोग पहले से ही वंचित थे, उन्हें और संकट में डाल दिया गया। लाओस और म्यांमार ने कुछ साझा परियोजना पर फिर से विचार करने के लिए आग्रह किया है। चीन द्वारा बेलग्रेड और बुडापेस्ट के बीच रेल मार्ग बनाया जा रहा है। इसमें बड़े पैमाने पर हुई शिकायत की जांच यूरोपीय संघ कर रहा है। यही हश्र कालांतर में पाकिस्तान का भी हो सकता है ? क्योंकि चीन के साथ पाकिस्तान जो आर्थिक गलियारा बना रहा है, वह इसी ‘वन बेल्ट, वन रोड‘ का हिस्सा है। दरअसल पाकिस्तान की अर्थव्यस्था में चीनी कंपनियों का दखल लगातार बढ़ रहा है। वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान चीन से ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज भी ले रहा है। इसलिए चीन की नाजायज चेश्टाओं को मानना भी पाकिस्तान की मजबूरी बन गई है।

पाकिस्तान ने 1963 में पाक अधिकृत कश्मीर का 5180 वर्ग किमी क्षेत्र चीन को भेंट कर दिया था। तब से चीन पाक का मददगार हो गया। चीन ने इस क्षेत्र में कुछ सालों के भीतर ही 80 अरब डाॅलर का पूंजी निवेश किया है। चीन की पीओके में शुरू हुई गतिविधियां सामाजिक दृष्टि से चीन के लिए हितकारी हैं। यहां से वह अरब सागर पहुंचने की जुगाड़ में जुट गया है। इसी क्षेत्र में चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहंुचने के लिए काराकोरम सड़क मार्ग भी तैयार कर लीया है। इस दखल के बाद चीन ने पीओके क्षेत्र को पाकिस्तान का हिस्सा भी मानना शुरू कर दिया है। यही नहीं चीन ने भारत की सीमा पर हाइवे बनाने की राह में आखिरी बाधा भी पार कर ली है। चीन ने समुद्र तल से 3750 मीटर की उंचाई पर बर्फ से ढके गैलोंग्ला पर्वत पर 33 किमी लंबी सुरंग बनाकर इस बाधा को दूर कर दिया है। यह सड़क सामारिक नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि तिब्बत में मोशुओ काउंटी भारत के अरूणाचल का अंतिम छोर है। अभी तक यहां कोई सड़क मार्ग नहीं था। जबकि गिलगित-बल्तिस्तान के लोग इस पूरी परियोजना को शक की निगाह से देख रहे हैं।

1999 में चीन ने मालदीव के मराओ द्वीप को गोपनीय ढ़ंग से लीज पर ले लीया था। चीन इसका उपयोग निगरानी अड्डे के रूप में गुपचुप करता रहा। वर्ष 2001 में चीन के प्रधानमंत्री झू राॅंन्गजी ने मालदीव की यात्रा की तब दुनिया इस जानकारी से वाकिफ हुई कि चीन ने मराओ द्वीप लीज पर ले रखा है और वह इसका इस्तेमाल निगरानी अड्डे के रूप में कर रहा है। इसी तरह चीन ने दक्षिणी श्रीलंका के हम्बंटोटा बंदरगाह पर एक डीप वाटर पोर्ट बना रखा है। यह क्षेत्र श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महेंद्र्रा राजपक्षे के चुनावी क्षेत्र का हिस्सा है। भारतीय रणनीतिक क्षेत्र के हिसाब से यह बंदरगाह बेहद महत्वपूर्ण है। यहां से भारत के व्यापारिक और नौसैनिक पोतों की अवाजाही बनी रहती है। बाग्ंलादेश के चटगांव बंदरगाह के विस्तार के लिए चीन करीब 46675 करोड़ रूपये खर्च कर रहा है। इस बंदरगाह से बांग्लादेश का 90 प्रतिशत व्यापार होता है। यहां चीनी युद्धपोतों की मौजदूगी भी बनी रहती है। भारत की कंपनी ने म्यांमार में बंदरगाह का निर्माण किया था, लेकिन इसका फायदा चीन उठा रहा है। चीन यहां पर एक तेल और गैस पाइपलाइन बिछा रहा है,जो सितवे गैस क्षेत्र से चीन तक तेल व गैस पहुंचाने का काम करेगी।

इस सम्मेलन में विडंबनापूर्ण स्थिति यह है कि दक्षिण कोरिया, वियतनाम, फिलीपंींस और इंडोनेशिया ऐसे देश है, जिनका चीन से दक्षिण चीन सागर विवाद के चलते तनाव बना हुआ है, बावजूद चीन की आर्थिक ताकत के आगे ये देश नतमस्तक हुए दिखाई दे रहे है। ओबीओआर के तहत छह आर्थिक गलियारे, अंतरराष्ट्रीय रेलवे लाइन, सड़क और जल मार्ग विकसित किए जाने हैं। चीन ने इनमें 14.5 अरब डाॅलर पूंजी निवेश की घोषणा की है। इसके साथ ही एशियन इनफ्रास्टेªक्चर इंवेस्टमेंट बैंक से भी पूंजी निवेश कराया जाएगा। इस बैंक में सबसे ज्यादा पूंजी चीन की लगी है। इन विकास कार्यों के संदर्भ में चीन तमाम देशों को स्वप्न दिखा रहा है कि यदि ये कार्य पूरे हो जाएंगे तो एशिया से लेकर यूरोप तक बिना किसी बाधा के व्यापार शुरू हो जाएगा। भूटान को छोड़ भारत के सभी अन्य पड़ोसी देशों ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया था। भारत के लिए यह खबर शुभ नहीं है। यदि चीन का यह सपना पूरा होता है तो इन देशों के बाजार चीनी उत्पादों से भर जाएंगे। इनकी सरकारें भी चीन से महंगी ब्याज दर पर कर्ज लेने को मजबूर हो सकती है। ऐसा होता है तो ये देश चीन के सामरिक हित साधने को भी विवश हो जाएगे। जो भारत के हितों पर आघात साबित हो सकते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका, जापान, आस्ट्रैलिया समेत कई देशों की यात्रा कर  द्विपक्षीय कूटनीतिक संबंध बनाने की मजबूत पहल की थी, लेकिन किसी भी देश ने इन परियोजनाओं पर आषंका नहीं जताई। लिहाजा ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि यह सम्मेलन चीन की मंशा के अनुरूप सफल रहा है। गोया, सम्मेलन के प्रस्ताव कालांतर में अमल में आते है तो यूरोप एशिया और अफ्रीका में नए आर्थिक तंत्र की व्यवस्था का द्वार खुल सकता है। ऐसे में भारत को अपने आर्थिक एवं सामरिक हितों की दृष्टि से बहुत सचेत रहने की जरूरत पड़ेगी ? हालांकि ओआरओबी की राह सरल नहीं है। क्योंकि यह योजना जितनी बड़ी है, उतनी ही दुर्गम भी है। कई देशों के बीच परस्पर चले आ रहे तनाव भी स्वाभाविक बाधा बन सकते है। अमेरिका से चीन की होड़ और दक्षिण चीन सागर से विवाद का असर भी दिखाई देगा। नतीजतन इसके भविष्य को लेकर अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here