महंगी होती चुनावी व्यवस्था

देश में अब लगभग वर्ष भर चुनावों का परिवेश बना रहता है-कभी लोकसभा के चुनाव कभी राज्य विधानसभा के चुनाव, कभी नगर निगमों, नगरपालिकाओं के चुनाव और कभी ग्राम पंचायतों के चुनाव। इसके अतिरिक्त देश के विभिन्न संगठनों, सभा समितियों के चुनावों को भी इनमें सम्मिलित कर लिया जाए तो पता चलता है कि हर दिन हमारे यहां चुनाव होते हैं। पूरे देश में ऊपर से नीचे तक होने वाले इन चुनावों में प्रतिवर्ष करोड़ों, अरबों रूपया व्यय होता है। उसके उपरांत भी चुनाव को मुठमर्द लोग अपनी मुठमर्दी व हैकड़ी से या जनबल व ‘गन’ बल से प्रभावित किये बिना नही रहते। कितने ही स्थानों पर लोकतंत्र की हत्या करके विजयी प्रत्याशी को बलात् पराजित घोषित करा दिया जाता है। इससे सरकारी  तंत्र का तो दुरूपयोग होता ही है साथ ही लोकतंत्र की व्यवस्था भी भंग होती है। यदि हम एक पंचवर्षीय योजना में व्यय होने वाली कुल धनराशि और पांच वर्षों में होते रहने वाले चुनावों पर व्यय होने वाली सरकारी धनराशि व प्रत्याशियों द्वारा स्वयं व्यय की जाने वाली धनराशि दोनों को जोडक़र देखें तो यह धनराशि लगभग हमारी एक पंचवर्षीय योजना की आधी राशि के बराबर तो अवश्य हो जाएगी। जिस देश में ग्राम प्रधान के पद के प्रत्याशी भी एक-एक करोड़ रूपया व्यय कर रहे हों, उसकी महंगी चुनावी व्यवस्था का अनुमान स्वयं लगाया जा सकता है। ऐसे समाचार भी समाचार पत्रों में छपते रहते हैं कि देश की राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए लोग सौ-सौ करोड़ रूपया तक भी व्यय कर डालते हैं। ऐसे में यही बात मन में आती है कि यदि चुनावी व्यवस्था इतनी ही महंगी है और महंगी होकर भी लोकतंत्र की हत्यारिन बन रही है तो फिर इससे तो बेहतर राजतंत्रीय व्यवस्था ही थी?

हमें इस समय अपनी चुनावी प्रक्रिया में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है। इसके लिए उचित होगा कि देश में लोकसभा और विधानसभाओं सहित अधिकतर चुनाव एक साथ कराने की व्यवस्था पर गंभीरता से विचार किया जाए। इससे हम चुनावों पर व्यय होने वाली बड़ी धनराशि को बचा सकते हैं।  चुनाव आयोग को बार-बार सरकारी कर्मियों को उनके सरकारी कार्य रूकवाकर उन पर अपना डंडा चलाने का अधिकार अभी लगभग वर्ष भर कहीं न कहीं मिला रहता है। यदि चुनाव एक साथ होते हैं तो चुनाव आयोग सरकारी कर्मियों का कार्य रूकवाने से दूर रहेगा। अभी की स्थिति यह है कि जिला और तहसील स्तर पर डीएम व एसडीएम उनके अधीनस्थ अधिकारी व कर्मचारी एक चुनाव में लगभग छह माह व्यस्त रहते हैं। उसके उपरांत भी सारा कार्य सही प्रकार नही हो पाता। जैसे मतदाता सूची को संशोधित करने का समय लेखपाल को छह माह का दिया जाता है-जो कि मात्र छह दिन का कार्य है, परंतु फिर भी यह कार्य सही नहीं होता। मृतकों के मत मतदाता सूची में यथावत रह जाते हैं। गांव छोडक़र चले गये लोगों की सही प्रकार जांच नहीं की जाती, नई बनने वाली वोटों को लोग अपनी इच्छा से जैसे चाहें लेखपाल को 100-200 रूपये देकर जुड़वा लेते हैं। लेखपाल या संबंधित कर्मचारी का इस प्रकार बिकना सारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बीमार करता है। क्योंकि उसके द्वारा मतदाता सूची में की गयी धांधली और असावधानी ही पराजित प्रत्याशी को विजयी प्रत्याशी के विरूद्घ चुनावी याचिका डालने का ठोस आधार प्रदान करती है। चुनाव याचिका में कभी भी यह तय नहीं होता कि ऐसी धांधलेबाजी और असावधानी बरतने वाले सरकारी कर्मचारी के विरूद्घ क्या कार्यवाही हो?

चुनावों को अलग-अलग कराने से गांव के किसान लोग लगभग छह माह तक तहसील व जिला स्तर पर अधिकारियों व कर्मचारियों से अपना काम नहीं करा पाते। उन्हें उनके काम के लिए टरकाया जाता रहता है। यदि एक साथ चुनाव होते हैं तो सरकारी कार्यों की गति भी बढ़ेगी। किसानों के कार्य समय पर होंगे। इसी प्रकार की स्थिति सरकारी स्कूलों के अध्यापकों की है। सरकारी स्कूलों में नियुक्त अध्यापकगण चुनावी कार्य में व्यस्त न होकर भी व्यस्त दिखते रहते हैं, और बच्चों को पढ़ाने से बचते रहते हैं। इससे बच्चों के भविष्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इस समय सरकारी कर्मचारी भी नित्यप्रति के चुनावों से दुखी हैं। उनकी अपने घरों से दूर नियुक्ति होना या चुनावी कार्यों में लगे रहना उन्हें भी अखरता है। वह भी चाहते हैं कि यह सारा खेल एक बार ही निपटा लें तो अच्छा है। बात-बात पर चुनाव आचारसंहिता लगाने से जनसाधारण अपने आम्र्स लाइसेंस नही ले पाता और भी कई कामों के लिए उसे दुखी होना पड़ता है। ऐसे में जनता के लोग भी नित्यप्रति के चुनावों से दुखी हैं।

स्वतंत्र भारत में पहला चुनाव 1952 में हुआ था। उसके पश्चात तीसरे चुनाव 1962 में हुए तो उस समय तक लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते रहे। परंतु उसके पश्चात यह व्यवस्था बदलने लगी। कुछ राज्यों की विधानसभाएं समय पूर्व भंग कर दी गयीं तो कुछ नये राज्यों का गठन होने लगा। जिससे चुनाव अलग-अलग होने लगे। हमारा मानना है कि यदि किन्ही कारणों से कोई विधानसभा समय पूर्व भंग हो जाती है तो उसका अगला चुनाव उतनी ही अवधि के लिए हो जितनी अवधि उस विधानसभा की शेष रह गयी थी। यदि यह अवधि एक वर्ष से कम के लिए है तो अच्छा हो कि इतने समय के लिए उस प्रदेश में राष्ट्रपति शासन रहेगा चुनाव कराके भी उस एक वर्ष को अगली विधानसभा के कार्यकाल के साथ जोडक़र छह वर्ष कर दिया जाए। यदि लोकसभा भी किसी कारण से समय पूर्व भंग हो जाती है तो उसके चुनाव भी इसी प्रकार किये जायें। केन्द्र में एक वर्ष की अवधि के लिए ‘राष्ट्रीय सरकार’ का गठन किया जाए और यदि लोकसभा मध्यावधि में भंग होती है तो अगली लोकसभा का चुनाव शेष अवधि के लिए ही हो। कुल मिलाकर सारी चुनावी व्यवस्था को एक साथ लाने के लिए पूर्ण मनोयोग से कार्य किया जाए। एक साथ चुनाव कराने से एक पंचवर्षीय योजना को सारे देश में लागू कराया जा सकता है। उसे राज्य और केन्द्र मिलकर सदभाव से क्रियान्वित करेंगे। क्योंकि तब राज्यों और केन्द्र में एक ही दल की सरकार बनने की संभावना अधिक होगी। उस स्थिति में देश में कुकुरमुत्तों की भांति उभर रहे राजनैतिक दलों पर भी लगाम लगेगी और मतदाता क्षेत्रीय भावना में न बहकर राष्ट्री भावना के साथ मतदान करेगा। फलस्वरूप देश बहुदलीय व्यवस्था से निकलकर त्रिदलीय व्यवस्था की ओर बढ़ेगा। गठबंधन की अवांछित राजनीति से देश को छुटकारा मिलेगा। अच्छी बात है कि वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी भी इस राय के हैं कि देश में लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने चाहिएं। इस दिशा में व्यापक विचार मंथन की आवश्यकता है। मेरी दृष्टि में एक साथ चुनाव संपन्न होने के लाभ अधिक और हानि कम है, यदि हम पूर्ण संतुलन और विवेकशक्ति से कार्य करें तो इस व्यवस्था की कुछ हानियों को भी समाप्त कर सकते हैं।

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