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डम्पू हुआ घायल

सुबह सवेरे बच्चे डम्पू के साथ खेल रहे थे कि डम्पू अचानक दूसरे माले से नीचे जा गिरा। घटना में डम्पू की हालत बहुत गंभीर हो गयी। रामनाथ जी डम्पू की इस हालत को देखकर परेशान हो गये और तुरंत ही भागते दौड़ते डम्पू के उपचार के लिए गये। गांव में डम्पू का इलाज करने वाला एक ही अस्पताल था। रामनाथ जी ने दौड़ते-भागते रिसेप्शन पर बैठी महिला को सारी स्थिति के बारे में बताया। लेकिन रिसेप्शन पर बैठी महिला भी आखिर कर क्या सकती थी ? उसने भी कहा कि पहले कागजी कार्यवाही होगी फिर जाकर कुछ काम शुरू हो पाएंगा। पहले तो डम्पू का परिचय पत्र और उसकी पूरी जन्म कुण्डी चाहिए थी। अब रामनाथ जी की चिंता और भी बड़ गयी। उन्होंने जल्दवाजी में घर जाकर पहले तो डम्पू के सारे दस्तावेजों को खंगाल मारा। दस्तावेजों को लेकर जब वो डम्पू के अस्पताल पहुंचे तब जाकर डम्पू के इलाज की प्रक्रिया शुरू की गयी।
डम्पू दूसरे माले से गिरा था। इसलिए हालत कुछ ज्यादा ही खराब हो गयी। उसका इलाज करने वाले डाक्टरों ने कहा कि डम्पू के इलाज में एक सप्ताह से एक महिने तक का समय लग सकता है। रामनाथ जी की चिन्ताएं और भी बढ़ गयी। उन्होंने भी एक बार संकोच वस पूछ ही लिया कि डम्पू ठीक तो हो जाएंगा। क्या हम फिर से उससे पहले की तरह बातें कर पाएंगे ? डाक्टरों ने कहा कि हां कर तो पाएंगे लेकिन उसके लिए कुछ अंगों को खोल ना पड़ेगा।
डाक्टर की इस बात को सुनकर तो रामनाथ जी के पैरों से मानों जमीन ही निकल गयी। रामनाथ जी चैंक कर बोले कि क्या आप उसका आपरेशन करेंगे ? डाक्टर बोले कि इसमें कौन सी नई बात है। हम तो रोज कईयों का आपरेशन कर देते हैं। डाक्टरों के लिए यह नई बात नहीं थी लेकिन रामनाथ जी के लिए ये बेहद नई बात थी।
रामनाथ जी की परेशानी अब और भी बढ़ने लगी। अगले ही सप्ताह उनका बेटा शहर से घर आ रहा था। अब वो अपने बेटे को क्या मुंह दिखाते ? रामनाथ जी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। बस अब तो एक ही रास्ता बचा था। वो था भगवान से दुआ करने का कि जल्द से जल्द डम्पू ठीक हो जाए और वो उसे वापस घर ले आयें। डरने जैसी कोई बात नहीं थी लेकिन रामनाथ जी के लिए यह बात डरने से भी ज्यादा थी। उनकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। सबके लाख समझाने पर वो उसे डाक्टरों की देखरेख में छोड़ कर घर चले आये।
अब डम्पू के बिना रामनाथ जी का मन भी कहां लगने वाला था। वो अपने दिल की सारी बातें उसी से तो कहते थे। वह भी हमेशा उनके सीने से लगा रहता था। वो डम्पू की बहुत परवाह करते थे। जब देखों जब उसके लिए नई पोशक और नये-नये तरीके से उसका स्वांग रचाते रहते थे। लेकिन अब कुछ दिनों तक उन्हें हम्पू के बिना ही रहना था।
घर वापस आकर उनके दिल और दिमाग में बस एक ही बात चल रही थी कि आखिर ऐसा हुआ क्यों ? ना बच्चे उसके साथ खेलते ना ही वो छत से गिरता और ना ही उसके साथ ऐसा होता। रामनाथ जी इसमें पूरी अपनी गलती मान रहे थे। उन्हें लग रहा था कि वो कुछ ज्यादा ही वेफिक्र हो गये थे। तभी तो यह हादसा घटा। अभी छह साल ही तो हुए थे डमपू को आये हुए और उसके साथ ऐसा हो गया। इससे पहले कभी भी ऐसा नहीं हुआ था। पहले बेड, कुर्सी,  से तो गिर जाया करता था लेकिन इतनी ऊचाई से पहली बार गिरा था। डम्पू की हालत बाकई में इस बार गंभीर हो गयी थी।
(अब रामनाथ जी अपनी और डम्पू की कुछ पुरानी यादों में खो गये)
अभी कुछ वर्ष पहले की ही तो बात है। जब उनके बेटे भोलू ने अपनी इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की थी। उसके बाद उसकी दूर शहर में नौकरी लग गयी। लेकिन अपने घर वालों से दूरी उसे बरदास्त नहीं होती थी। एक दिन भोलू ने अपने बाबूजी (रामनाथ जी) को एक मोबाईल फोन लाकर दिया। जिस देखकर राजनाथ जी बोले कि ये डब्बा ! ये डब्बा, किस काम में आयेगा ? तो उनके बेटे ने उन्हें बताया कि ये डब्बा नहीं है। बल्कि आधूनिक समय का मोबाइल फोन है। वो बोले में इसका क्या करूंगा ? तो बेटे ने कहा कि जब आप की इच्छा मुझसे बात करने की हो तो इससे बात कर लिया करो। रामनाथ जी बोले कि अरे ये डब्बा मेरे किसी काम का नहीं है। मुझे तो अपना हाल-चाल चिट्ठी में लिख कर भेज दिया करों।
लेकिन फिर उन्होंने बेटे के चेहरे को देखा और बोले चल तू जब इतने प्यार से लाया है तो मैं रख ही लेता हूं। उनके नजर में वो एक डब्बा था और बेटे के लिए एक मोबाइल। तो रामनाथ जी ने तुरन्त ही उसका नाम करण भी कर दिया। रामनाथ जी ने बेटे से कहा कि इसे अगर में डमपू कहूं तो कैसा रहें। बस यह सुनकर परिवार के सभी लोग हंस पड़े।
लेकिन आज सुबह जब वो मोबाइल को चार्जिंग पर लगाकर, नहाने चले गये तो उनका चार वर्ष का नाती टिन्कू उससे खेलने लगा। खेलते-खेलते डम्पू उसके हाथ से छुटक कर दो मंजिले से सड़क पर जा गिरा। रामनाथ के बेटे ने उसे नोकिया मोबाइल, लाकर दिया था। बेटे के बेटे ने उसकी बुरी हालत कर दी। छत से गिरने के बाद मोबाइल बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका था जिसे ठीक कराने के लिए सर्विस सेंटर पर डाल कर आये थे। इंसान  की तरह अब तो मोबाइलों की जनसंख्या भी बहुत तेजी से बढ़ रही है। अब शहर में मोबाइल सुधारने वाला सर्विस सेंटर भी तो एक ही है। वो भी क्या करें ? आखिर हर मोबाइल की कागजी कारवाई पूरी करने के बाद उसे कम्पनी के मैन सर्विस सेंटर तक पहुंचाया जाता है। तब जाकर ठीक होकर वो वापस मिलता है। रामनाथ जी तो अपने बेटे की भेंट को अपने सीने से लगाकर रखते थे। लेकिन आजकल उनके जैसा और कोई है क्या ?

गुजरात और मोदी पर अपने बयान से क्यों पलटे अन्ना

अप्रैल में अन्ना ने मोदी और गुजरात के विकास कार्यो की तारीफ की थी तभी से गुजरात और गुजरात के बाहर का एक तबका जो हमेशा देशद्रोही गतिविधिओ में लिप्त है वो सक्रिय हो गया | फिर मृदालिनी साराभाई, तीस्ता जावेद सीतलवाड़, मुकुल सिन्हा .जकिया जाफरी ने अपने संगठन जन संघर्ष मंच का एक प्रोग्राम अहमदाबाद में रखा जिसमे अन्ना को बुलाया गया | अन्ना का प्रोग्राम तीन दिन का था | पहले दिन अन्ना को कुछ दुकाने दिखाई गयी जहाँ लोग सुबह दूध लेने के लिए लाइन में खड़े थे [ अहमदाबाद में यदि आप सुबह दूध ले तो 1रूपये सस्ता पड़ता है क्योंकि दुकानदार को दूध को फ्रिज में नहीं रखना पड़ता ] अन्ना को वो लाइन दिखाकर बोला गया कि ये लोग शराब लेने के लिए लाइन में खड़े है | फिर यहाँ अहमदाबाद में साबरमती नदी के दोनों तरफ “रिवर फ्रंट ” का काम चल रहा है जो अपनी तरह का एशिया का पहला प्रोजेक्ट है | इस प्रोजेक्ट को प्रधानमंत्री का विशेष पुरस्कार और संयुक्त राष्ट्र का पुरस्कार मिल चुका है | जो लोग नदी के दोनों तरफ अवैध रूप से झोपड़े बना कर रह रहे थे उन्हें गुजरात हाई कोर्ट ने तुरंत खाली कने का आदेश दिया | कोर्ट के आदेश से उनको हटा दिया गया | अन्ना को उन्ही विस्थापित लोगो से मिलवाया गया और बोला गया कि मोदी सरकार सिर्फ अमीरों की है और गुजरात में बहुत भ्रष्टाचार है | अन्ना को किसी भी आम आदमी से न तो मिलने दिया गया और नहीं कोई सवाल पूछने दिया गया ! अन्ना के चारो तरफ जन संघर्ष मंच के कार्यकर्ता घेरा बना कर थे | अंतिम दिन अन्ना टीवी 9 गुजरात पर इंटरव्यू दे रहे थे | जो एंकर उनका इंटरव्यू ले रहा था उसने अन्ना को बोला – ‘ क्या आपको मालूम है यहाँ शराब पर पाबन्दी है ‘ | फिर पूछा क्या आप वो जगह का पता बता सकते है जहाँ आपने शराब के लिए लाइन देखि ? अन्ना बगले झाँकने लगे फिर बोले मुझे कार्यकर्ताओ ने दिखाया | एंकर ने जन संघर्ष मंच के कार्यकर्ता से पूछा तो वो बिना जबाब दिए चला गया .. फिर एंकर ने पूछा अन्ना जी क्या आपको गुजरात में भ्रष्टाचार के कोई सुबूत दिए गए है ? तो आप उसे सार्वजनिक क्यों नहीं कर रहे है ?

अन्ना के पास कोई जबाब नहीं था. फिर एंकर ने केजरीवाल से पूछा क्या आप के पास कोई RTI है जिसके द्वारा आप गुजरात और मोदी को भ्रष्टाचारी बता सके ? केजरीवाल गोलमोल जबाब दिये. आगे एंकर ने केजरीवाल से पूछा आप अहमदाबाद में कितने दिनों से है ? उन्होंने बोला 4 दिन से. तो एंकर ने पूछाक्या 1 सेकेण्ड के लिए भी कही बिजली गुल हुई ? या आप अपने जन संघर्ष मंच से पूछिये कि कितने साल पहले गुजरात में बिजली गुल हुई है ? फिर वो 2 मिनट चुप रहे और बोले मै यहाँ लोकपाल बिल के लिए आया हूँ बिजली के लिए नहीं |

बहरहाल, अन्ना ने बोला कि गुजरात में लोकपाल नही है | तो जरा यह बताया जाए कि बिना विपक्ष की सहमती से कोई लोकपाल बना सकता है ? गुजरात सरकार जितने भी नाम देती है विपक्ष उसे मोदी का आदमी बताकर अपनी सहमती नहीं देते है तो ये किसका दोष है ? मोदी का या कांग्रेस का ? फिर दिल्ली के लोकपाल ने दो मंत्रियो को हटाने की सिफारिश की जिसे सरकार ने मानने से इंकार कर दिया तो ऐसे लोकपाल का क्या मतलब है ?

असल में अन्ना के गुजरात दौरे के पीछे एक बहुत ही सोची समझी और गन्दी साजिश थी जो सफल नहीं हुई | वैसे भी अग्निवेश को गुजरात का बहुत ही “बढ़िया” अनुभव हुआ. पहले दिन उनका बैग किसी ने चुरा लिया जिसमे 50,000 रूपये, ड्राइविंग लाइसेंस और कई कागज़ थे | जब मंच पर बार-बार ये अनुरोध किया जा रहा था कि जिस सज्जन के पास हो वो कृपया देने की कृपा करे तब किसी ने पीछे से जोर से बोला अग्निवेश तुम्हारे चारो ओर तो जन संघर्ष मंच के ही लोग है तो तुम्हारा बैग किसने चुराया होगा ? और अंतिम दिन तो एक साधू नित्यानंद ने अग्निवेश को “प्रसाद” दे ही दिया !

 

संस्कर्ती शब्द और शब्दों से जुडी शिक्षा

रामचरित मानस कि एक चोपाइ है “भय बिनु होइ न प्रीति ” इस कथन मे कितनी  सत्यता विध्मान है, यह हम जीवन मे उतार कर देख् सकते है। अगर शिक्षा पर  विचार करे तो आज कि शिक्षा प्रणाली कई खामियो से भरी नजर आती है। शिक्षा

का मूळ उदेष्य जीवन को उन्नत ओर विकसित करने के साथ प्रकर्ती के सूक्षम  रहस्यो को जानना होता है, न कि उन्हे मानवीय काम्जोरियो कि ओर पुनः धकेल देना है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली नैतिक मुल्यो से रहित होती जा रही है। जीवन मुल्यो का शिक्षा मे कोई महत्व नही रह गया है। शिक्षा एक व्यापार बन गया है ।शिक्षक का महत्व नोकर से ज्यादा नही रह गया है, अध्यापक का मान सम्मान मिट्टी मे मिल गया है, विध्यार्थी को अध्यापक से कोई किसी प्रकार  का कोई भय नही रह गया है ओर इस शिक्षा प्रणाली कि सबसे बडी कमी भी यही  है “भय का निंतात अभाव ” । यहा भय का अर्थ खतरनाक खोफ से नही है यह तो विकासशील जीवन के लिये आवश्यक अंग है। अन्य शब्दो मे कहे तो यह भय वरिष्ठ विधार्थियो के सम्मान मे भी अहम भूमिका निभाता है। एक छोटे बच्चे को मां से उतना भय नही होता जितना कि एक पिता से होता है। ओर पिता से उतना भय नही होता है जितना कि गुरुजनो से होता है। मान सम्मान और आदर सूचक शब्दों की गहराइयो में कोई शब्द छिपा है, तो वो है भय यही कारण रहा है हमारी उस उज्ज्वल गुरु शिष्य प्रणाली के कारन यह सनातन संस्क्रती विश्व की सिरमोर संस्क्रती रही, और यह देश विश्वगुरु रहा। परन्तु समय के बदलते प्रवाह के साथ गुरु शिष्य की उस प्राचीन समर्पित शिक्षा प्रणाली के सिद्धांतो को ही नहीं बदला गया बल्कि शब्दों में भी परिवर्तन किया गया। गुरु और शिष्य इन शब्दों की जगह शिक्षक और विद्यार्थी शब्दों की शुरुआत हुई। उसी दिन इस रिश्ते में समर्पण कम होने लगा और खटास बढ़ने लगी। परन्तु बहुत हद तक इस रिश्ते में मान सम्मान समर्पण और सहानुभूति की हलकी छाया विधमान थी।शिक्षक समाज की रूह और विद्यार्थी के भविष्य का आधारस्तंभ होता है सभ्यताओ का रक्षक व् सरंक्षक भी वही होता है सीखने की जिज्ञासा और सिखाने की मनोवर्ती ही इस रिश्ते को बनाये हुए थी। मजबूर कोई नहीं था फिर भी कर्तव्य की डोर से दोनों बंधे हुए थे।

वक्त को यह मंजूर नहीं था वो आगे बढा और इस सनातन संस्कर्ती को पाश्चात्यो की परतंत्रता में जकड दिया और इस परतंत्रता ने दया करुणा और प्रेम जिससे यह संस्कर्ती सरोबार थी उसे मिटाकर इसमें स्वार्थ का एक बिज बो दिया। जिस संस्कर्ती में स्वार्थ

का कोई बिज नहीं था उसी जमी पर इस बिज का अंकुरण ही नहीं फूटा ,बल्कि एक वटवर्क्ष की तरह फ़ैल गया। यहाँ की संस्कर्ती को पेरो तले रोंदा गया, यहाँ के इतिहास को ही नहीं बदला गया बल्कि लोगो की मानसिकताए बदली गयी। इसके लिए मानवीय कमजोरियों को हथियार बनाया गया। शासक, सेठ और साहूकार को वासनाओ का शिकार बनाया गया । उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग बनाकर आम जनता पर कहर थोपा गया। कुछ ने विरोध किया ,कुछ ने सहायता की, विरोधियो को बन्दुक की नोक पर दबा दिया गया और सहायको को उचित सहायता प्रदान की गयी। यही से इस संस्कर्ती के बिखरने का दोर प्रारंभ हुआ। धीरे धीरे इसी कारनामो की बदोलत पश्चिमी संस्कर्ती का प्रचार प्रसार बढा। इस देश का धन दोलत संस्कार संस्कर्ती मिटटी के मोल बिक गए। कमजोर और विवश लोगो ने इस संस्कर्ती को अपना लिया और ये आवश्यकता भी थी। आवश्यकता इसलिए की अविकसित हमेशा विकसित की शरण लेता है शिक्षित शब्दों की शब्दों की शब्दावली में और परिवर्तन किया गया और ये शब्द उस शिक्षा प्रणाली को संस्कर्ती से बहुत दूर ले गए शब्दावली में एक “सर” और दूसरा “स्टुडेंट” शब्दों को जोड़ा गया सर शब्द आंग्ल भाषा का है। इसका हिंदी में अर्थ “श्रीमान” होता है यह शब्द सामान्यता वरिष्ठ जनों के संबोधन के लिए परुक्त होता है। इस शब्द का शिक्षा से बहुत दूर दूर तक कोई जुडाव नहीं है। फिर भी शिक्षा में इस शब्द का पार्दुभाव हुआ गुरु शब्द में उदारता है और शिष्य में समपर्ण शिक्षक। शब्द में शिक्षा की और संकेत है और विद्यार्थी में ग्रहण करने की क्षमता। परन्तु ” सर” में “श्रीमान” बसे है और स्टुडेंट में अश्लीलता। शायद इस  अश्लीलता शब्द से विवाद खड़ा हो जाये। परन्तु मैंने इसकी तह में जाकर देखा है और ये वाजिब ठहरा “सर” का सरोकार था धंधा और हुआ यही की एक निकला शिक्षा बेचने वाला और दूसरा खरीदने वाला और अनेतिक व्यपार बन गया। व्यापार में व्यापारी का एक ही उद्देश्य होता है की जायज या नाजायज तरीके से व्यापार को वाजिब ऊंचाई पर पहुचाया जाये और तरीका यह निकला की शिक्षा को कारोबार से जोड़ा गया और स्टुडेंट के असक्षम पटल पर ये शब्द अंकित हो गए और उसका रुझान कारोबार की और बढा और उसमे सिखने की प्रवर्ति कम हो गई और शिक्षक में सिखाने की क्योंकि जादूगर अगर जादू के रहस्य खोले दे तो उसे देखेगा कोंन इससे जो इस रिश्ते में आदर सूचक भय था वह समाप्त हो गया और एक अनैतिक भय ने जन्म लिया वह भय था भविष्य का क्या होगा अगर में कारोबार में सफल नहीं हो सका ,तो चिंतन की इस मुद्रा में शिखा नहीं जा सकता केवल सोचा जा सकता शिक्षा केवल सिखाने की कल्पना मात्र रह गयी और इस शिक्षा प्रणाली में स्वार्थ का भयंकर रूप पैदा हो गया । स्वार्थ भरी आँखे दूसरो को विकसित नहीं करती बल्कि दूसरो को विकसित देखकर बंद हो जाती है और वो आंखे समाज देश या मानवता को दे सकती है तो केवल आंसू। ये आंसू दर्द से भरे नहीं है ये आंसू है पश्चाताप के पश्चाताप उस समय का जो गँवा दिया बिना सीखे।

सरकार का ओछापन

इससे पहले भी कई सरकारें आई और कई सरकारें गयी। लेकिन खुद की पीठ थपथपाने का काम जो इस दौर की सरकारें कर रही है वो शायद इससे पहले कभी भी देखने को नहीं मिला होगा। फिर चाहें वो केंद्र सरकार हो या फिर राज्य सरकार! कांग्रेस की मुखिया सोनिया गांधी ने भी एक और ऐसा ही काम किया है जिसे करके वो अपनी पीठ तो थपथपा ही रही हैं साथ ही खुद को सबसे बहतर भी साबित करने की कोशिश कर रही हैं।

हाल ही में प्राप्त जानकारी के अनुसार केन्द्र सरकार ने नेशनल एडवायजरी काउंसिल (NAC) द्वारा सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक का मसौदा तैयार किया है। हो सकता इस मसौदे को बनाने के बाद सोनिया गांधी अपने आपको कानून व्यवस्था का व्यवस्थापक समझ रही हो। लेकिन हकीकत तो कुछ और ही है।

तैयार किये गये मसौदे के नियमों पर अगर नजर डाले तो इसके अनुसार कुछ इस तरह की बातें सामने आती हैं।

‘‘कानून-व्यवस्था का मामला राज्य सरकार का है, लेकिन इस बिल के अनुसार यदि केन्द्र को “महसूस” होता है तो वह साम्प्रदायिक दंगों की तीव्रता के अनुसार राज्य सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप कर सकता है और उसे बर्खास्त कर सकता है।’’ इस कानून के अनुसार तो केन्द्र सरकार किसी भी वक्त राज्य सरकार पर हावी हो सकती है। वो कभी भी कानून व्यवस्था के नाम पर सरकार को बर्खास्त कर सकती है और अपना आधिपत्य कायम रख सकती है।

‘‘इस प्रस्तावित विधेयक के अनुसार दंगा हमेशा “बहुसंख्यकों” द्वारा ही फैलाया जाता है, जबकि “अल्पसंख्यक” हमेशा हिंसा का लक्ष्य होते हैं।’’ देखा जाए तो सरकार का मानना है कि अगर सम्प्रदायिक दंगे होने के पीछे केवल वो समुदाय होते हैं जिनकी संख्या अधिक होती है। लेकिन ये बात तो सरासर गलत है कि किसी समुदाय के लोगों की संख्या अधिक होने से वो दंगों के मुख्य कारण हांे। जबकि हमारा मानना है ज्यादातर दंगे अराजकतत्व के द्वारा फैलाये जाते हैं जिनका कोई नाम नहीं होता, जिनकी कोई जाति नहीं होती, जिनका कोई मजहब नहीं होता और सच पूंछों तो जिनका जमीर नहीं होता।

‘‘यदि दंगों के दौरान किसी “अल्पसंख्यक” महिला से बलात्कार होता है तो इस बिल में कड़े प्रावधान हैं, जबकि “बहुसंख्यक” वर्ग की महिला का बलात्कार होने की दशा में इस कानून में कुछ नहीं है।’’ इस कानून के अनुसार तो बलात्कार जैसे कृत्य को भी जातिवाद और समुदाय में बांट दिया है। सरकार कहती है कि एक अल्पसंख्यक समुदाय की महिला के साथ बहुसंख्यक द्वारा बलात्कार होता है तो वो बलात्कार की श्रेणी में आता है। जबकि बहुसंख्यक महिला के साथ अल्पसंख्यक बलात्कार करने के बाद भी उस श्रेणी में नहीं आएगा। इस नियम ने तो कानून के मायने ही बदल कर रख दिये है।

‘‘किसी विशेष समुदाय (यानी अल्पसंख्यकों) के खिलाफ “घृणा अभियान” चलाना भी दण्डनीय अपराध है (फेसबुक, ट्वीट और ब्लॉग भी शामिल)’’ इस विचार से हम सहमत है कि किसी भी समुदाय को उपेक्षा की नजर से नहीं देखना चाहिए।

“अल्पसंख्यक समुदाय” के किसी सदस्य को इस कानून के तहत सजा नहीं दी जा सकती यदि उसने बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्ति के खिलाफ दंगा अपराध किया है।’’ तो इस कानून की विशेषता यही है कि वो केवल अल्पसंख्यकों को ही न्याय दिला पायेगा। बाकी बचे सभी बहुसंख्यक समुदाय उनकी नजर में आरोपी होंगे।

और आखरी प्रस्ताव ‘‘न्याय के लिए गठित होने वाली सात सदस्यीय समिति में से चार सदस्य अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे। इनमें चेयरमैन और वाइस चेयरमैन शामिल हैं। ऐसी ही संस्था राज्य में बनाए जाने का प्रस्ताव है। इस तरह संस्था की सदस्यता धार्मिक और जातीय आधार पर तय होगी।’’

लो जी सरकार! सरकार ने तो फैंसला कर लिया है कि अंग्रेजों की पूरी नीति फिर से लागू कर देंगे। एक बार फिर से वहीं जातिवाद की लड़ाई छेड़ देंगे। सात सदस्यों में से चार सदस्य अल्पसंख्यक होंगे। बाकी तीन बहुसंख्यक होंगे। इस तरह की समिति न केवल केन्द्र में बल्कि प्रदेशों में भी गठित की जाएगी। अब सरकार ने एक भेदभाव पेदा कर दिया है। समाज में दो तरह के प्राणी ही नजर आयेंगे एक अल्पसंख्यक और दूसर  बहुसंख्यक।

ये सरकार आखिर अपना अस्तित्व बचाने के लिए क्या-क्या ढोंग रचती फिरेगी? इस तरह के मसौदे तैयार करने के पीछ और कारण हो सकता है? या फिर यूं कहे कि ये भी वोट बैंक की राजनिति है। उन अल्संख्यकों को लुभाने की एक कोशिश है जो अभी सरकार के पक्ष में नहीं हैं।

ईश्वर डराने के लिए नहीं है ?

प्रमोद भार्गव

अकसर हमारे प्रवचनकर्ता और कर्मकाण्ड के प्रणेता कहते सुने जाते हैं कि ईश्वर से डरो ! अतीन्द्रीय शक्तियों से डरो ! ऐसा केवल हिन्दू समाज के धर्माधिकारियों का कहना नहीं है, मुस्लिम, ईसाई, बौध्द और जैन धर्म के प्रवर्तक भी परलोक सुधारने व अगले जन्म में सुखी व समर्ध्द जीवन व्यतीत करने हेतु कमोवेश ऐसे ही उपदेश देते हैं। उपदेशों के साथ कर्मकाण्डी-अनुष्ठान कर मुक्ति के उपाय भी जता दिए जाते हैं। लेकिन यहां विचारणीय पहलू यह है कि क्या ईश्वर डराने के लिए है ? ईश्वर क्या एक भय का अदृश्य शक्ति-पूंज है ? जो डराकर व्यक्ति में निष्ठा पैदा करता है। इस भय को दिखाकर उदारवादी बाजार व्यावस्था में और आधुनिक होते समाज में ईश्वर को एक ऐसी अनिवार्य जरूरत के रूप में पेश किया जा रहा है कि जैसे, इंसान होने की पहली शर्त ईश्वर-भक्ति है। जबकि अपने इष्ट के प्रति चाहे वह साकार हो अथवा निराकार, उसके प्रति संपूर्ण आस्था, प्रेम और संवदेना ऐसी संजीवनियां हैं, जिनसे असल जीवन उत्साहित व प्रवाहमान बना रहता है।

ईश्वर का डर हमारे भीतर इतना गहरे बैठा दिया गया है कि आज उच्च शिक्षित व उच्च पदस्थ जो उत्तार आधुनिक समाज है, उसने ईश्वर को पूजा स्थलों से बाहर लाकर राजमार्गों के किनारों, चिकित्सलायों, सरकारी-गैर सरकारी कार्यालयों और यहां तक की विज्ञान केंद्रों में भी बिठा दिया है। वैज्ञानिक, चिकित्सक और इंजीनियर इसी ईश्वर को अगरबत्ताी लगाकर, अपनी दिनचर्या की शुरूआत करते हैं। लेकिन वे यहां यह विचार नहीं करते कि ईश्वर जब लोकव्यापी और सर्वदृष्टिमान है तो क्या उसकी नजर आपके उस कृत्य पर नहीं पड़ रही, जो अनैतिक और भ्रष्ट आचरण से जुड़ा है। ईश्वर का भय क्या इनको इन पतित कामों से छुटकारे के लिए विवश नहीं करता ?

हैरानी उन धर्माचार्यों पर भी होती है, जो बात पापी से दूर रहने की करते हैं, लेकिन उसी पापी की काली कमाई से पापों की मुक्ति हेतु अनुष्ठान और कर्मकाण्ड भी करते हैं। वे उपदेश तो माया-मोह, भौतिकता व भोग-विलास से दूर रहने के देते हैं, लेकिन खुद का शरीर सुख-चैन में रहे, इसके लिए वातानुकूलित मठों, कारों, गरिष्ठ (तामसी) भोजन और संपत्तिा के संचय से परहेज नहीं करते। जैन मुनि जरूर इस दृष्टि से अपवाद हैं। उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं है। विरोधाभासी ऐसे चरित्र के धर्माचार्यों को खारिज करने की हिम्मत आधुनिक व शिक्षित समाज नहीं कर पा रहा है, यह आश्चर्य है ?

ईश्वर का काम यदि अपनी ही संतति को डराना है, तो वह कैसे दयालु-कृपालु हो सकता है ? कैसे आपका शुभचिंतक हो सकता है ? वह क्यों कर आपकी मन्नतों को पूरा करेगा ? ईश्वर की निराकार व निरापद अवधारणा मजबूत हो, इसके लिए व्यक्ति समाज खुद अपने भीतर ईश्वर को खोजे। उसे तराशे। यदि आप ऐसा करेंगे तो आपके भीतर स्वयं ईश्वर की आत्मभावना का उदय होगा। क्योंकि अंतत: ईश्वर भी वह दिव्य शक्ति है, जो ऊर्जा के बल से संचालित होती है। हालांकि विभिन्न धर्मों के दर्शन पदार्थ और आत्मा में, सत्य और असत्य में, ईश्वर और शैतान में एक गढ़ा हुआ भेद मानकर चलते हैं।

प्राकृतिक और अप्राकृतिक, चर व अचर मानवजन्य जिज्ञासाओं को शांत करने वाले उपनिषद् संपूर्ण सृष्टि में ईश्वर की उपस्थिति मानते हैं। उपनिषदों का मानना है कि बिना ईश्वरीय नियोजन के जगत की कल्पना भी असंभव है। आधुनिक विज्ञान भी इस तथ्य के समांतर निष्कर्ष के करीब पहुंच रहा है। न्यूटन के समय में विज्ञान पदार्थ और ऊर्जा के बीच अंतर मानता था, परंतु आईस्टाइन के बाद वैज्ञानिक इस सार पर पहुंच रहे हैं कि ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी अस्तित्व में है, वह ऊर्जा का ही प्रतिरूप है। ऊर्जा के ही कारण है। वह अणु (कण) के रूप में हो या लहर (धारा) या वायु सब एकीकृत बल-पुंज से गतिशील हैं। वैज्ञानिक इस अवधारणा की तार्किक पुष्टि में जुटे हैं। इसी सिध्दांत की आध्यामित्क अभिव्यक्ति उपनिषदों की ईश्वर अर्थात सर्वव्यापी ब्रह्म की आवधारणा से हुई है। किंतु कर्मकाण्डी और पैसा बनाने में लगे पाखण्डी, ईश्वर का डर दिखाकर इंसान की धार्मिक भावनाओं का आर्थिक दोहन करने में लगे हैं।

आखिर अग्निवेश ही मध्यस्थ क्यों ?

गोपाल सामंतो

आज भारत में एक नयी पौध तैयार हो रही है जिन्हें मध्यस्थ के नाम से जाना जाता है और इस वक़्त देश का सबसे बड़ा मध्यस्थ स्वामी अग्निवेश है. मध्यस्थ को अंग्रेजी में मीडीएटर और ठेठ हिंदी भाषा में दलाल कहा जाता है . इन मीडीएटरो की या मध्यस्थों की जरुरत ज्यादातर व्यापार वाणिज्य में पड़ती है और आम जिंदगी में इनके इस्तेमाल को ठीक नहीं समझा जाता है. इसका कारण इए है की अगर आम जिंदगी में बेहतर सम्बन्ध स्थापित करना हो तो सीधा संवाद ही उचित है. पर कुछ दिनों से जबभी देश में कोई सकारात्मक या नकारात्मक पहल उभर कर आयी है तब छत्तीसगढ़ में पैदा हुए एक मध्यस्थ बिन बुलाये ही अपनी सेवाए देने पहुँच जा रहे है. ये मध्यस्थ और कोई नहीं स्वामी अग्निवेश है जिनके खुद के अस्तित्व पे बहुत से सवाल लंबित है. हद तो तब हो गयी जब ये अन्ना हजारे के पाक साफ़ आन्दोलन में भी अपनी सेवाए देने पहुँच गए और अपने कु प्रभाव से इस आन्दोलन को प्रभावित करने से नहीं चूंके ,क्या उन्हें किसी ने वह बुलाया था इसका उनके पास तब भी जवाब नहीं था और शायद आज भी नहीं होगा.

छत्तीसगढ़ से तो उनको ख़ास लगाव है इसीलिए शायद उनके मातृभूमि होने का क़र्ज़ वो नक्सलियो को बढ़ावा देकर पूरा करना चाहते हो. जब भी कोई नक्सली मरता है या जेल पहुँचता है, तो स्वामीजी अपने मध्यस्थ शागिर्दों के साथ पुरे ताम झाम से दिल्ली से रायपुर पहुँच जाते है ,महंगी से महंगी हवाई यात्रा कर. ऐसे तो ये स्वामी है और भारतीय वेदों की माने तो स्वामी और साधू वो होते है जिनकी खुद की कोई इनकम नहीं होती है तो आश्चर्य इस बात से उत्पन्न होती है की फिर इनके मेहेंगे सफ़र के प्रायोजक कौन होते है और आखिर इतना संसाधन इए जुटाते कैसे है. इनसे मुखातिब होने का मौका मुझे एक बार मिला था तब मैंने यही सवाल उनसे पुछा था ,तो उन्होंने टालते हुए उत्तर दिया था की हम तो साधू है और हमे जो भी मदद के लिए बुलाता है हम तत्परता से उनकी मदद करने पहुँच जाते है. छत्तीसगढ़ की जनता इस मध्यस्थ से ये जानना चाहती है की आखिर वो जब जवानों की शहादत होती है तबे इनको क्या होता है तब ये छत्तीसगढ़ क्यों नहीं पहुँचते है शायद उन्हें तब प्रायोजक नहीं मिलते होंगे. एक तरफ तो ये अपने आप शान्ति दूत कहते है और दूसरी तरफ वो ऐसे संगठनो को समर्थन देते है जो हिंसा पर आमादा है. कुछ दिनों पूर्व छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले में देश के 9 सपूतो ने मौत को गले लगाया और हिंसा की चरम तो ये थी की उनके हाथ पाँव तक काट दिए गए थे दहशत पैदा करने के लिए , तब ये मध्यस्थ कहा था इनके तरफ से कोई बयान नहीं आया इसपे आश्चर्य करना बेमानी ही होगी और उस समय शायद वो किसी बिल में तब छुपे हुए थे.

कुछ समय पूर्व जब दंतेवाडा में अग्निवेश ने शान्ति मार्च निकला था बड़ी बड़ी गाड़ियो से, तब उनका वहा घोर विरोध हुआ था , उन्होंने इसके प्रतिक्रिया स्वरुप ये कहा था कि ये लोग छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा सिखाये पढाये गए लोग है और उन्हें शान्ति बहाल करने से रोक रहे है. उनके इस प्रतिक्रिया को दिल्ली में कई बुद्धिजीविओ ने तत्काल सराहा और मीडिया ने भी इस खबर को खूब उछाला सरकार. विडम्बना ये है की बुध्धिजिवियो का वर्ग केवल दिल्ली से ही बयानबाजी करने में व्यस्त रहते है तो उन्हें यहाँ की हकीक़त का अंदाजा नहीं हो पाता है. एक अंग्रेजी चैनल ने तो तब ये तक कह दिया था की कुछ गुंडों ने स्वामीजी के शान्ति मार्च को बाधित किया. पर शायद उस चैनल को ये नहीं मालूम रहा होगा की बस्तर के सबसे बड़े गुंडे तो ये नक्सली है जिनके हिमायती को छुने की कोई दूसरा गुंडा हिम्मत कर ही नहीं सकता. वो तो वहा की जनता थी जिसे नक्सलियो का असली चेहरा मालूम है और उसी वजह से स्वामी अग्निवेश को दंतेवाडा में घुसने नहीं दिया गया था.

आज जब अहमदाबाद के भरी महफ़िल में स्वामी का पगरी एक असली साधू ने उछाला तब ये बुद्धिजीवी वर्ग ने कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी और वो तमाम अंग्रेजी चैनल कहा गए. इस घटना के बाद से स्वामीजी के श्रीमुख से भी कुछ नहीं निकल रहा है प्रतिक्रिया स्वरुप ,क्योंकि इस घटना के लिए वो किसको जिम्मेदार कहे ये शायद समझ नहीं आ रहा होगा उन्हें. क्योंकि ये घटना तो छत्तीसगढ़ के माटी से कई सौ किलोमीटर की दूरी में घटित हुई है. गौर से अगर परिस्थिति को देखा जाए तो ये नक्सली भी कोई गैर नहीं है बस हमारे कुछ भटके हुए भाई ही है जो इन बुध्धिजिवियो के चंगुल में फंस के अपने और दूसरो के जीवन के दुश्मन बन बैठे है. आज भी अगर इन मध्यस्थों को बीच से हटा दिया जाए तो नक्सल समस्या का निवारण बहुत आसान हो जायेगा. इसीलिए वक़्त आ गया है की हम अग्निवेश जैसे मध्यस्थों को सिरे से नकार दे . इन्हें सिर्फ ऐसे ही सबक सिखाया जा सकता है ,इनका विरोध करने से इनके तेवर और बढ़ते है और अंतरास्ट्रीय समाज भी इन्हें मदद करने को तैयार हो जाती है.

कहानी/पतंग

जितेन्द्र कुमार नामदेव

शाम के 6 बजते-बजते सभी लोग आफिस छोड़ कर अपने-अपने घर को निकल गये थे। गर्मी का मौसम था, दिन भर की गर्मी के बाद शाम को आंधी चलने लगी थी जिसकी वजह से मौसम काफी सुहाना हो चुका था। मैं भी अपना काम खत्म करके आफिस की छत पर पहुंचकर मौसम का मजा ले रहा था।

पिछले दो साल से मैं एक बंद पड़े हास्टल में रह रहा था। मेरी पत्रिका का प्रकाशक आफिस भी उसी हास्टल में था। दिन के समय तो आफिस और भी लोग रहते थे इस बजह से अच्छा लगता था लेकिन शाम होते ही जब सभी अपने अपने घर को निकल जाते थे तो मैं अकेला पड़ जाता था। इस अकेलेपन की बजह से मैं अपना काम तो बखूवी कर पाता था बस कभी-कभी मन उदास हो जाता था और खुद को काफी अकेला महसूस करता था। पर अभी कुछ दिनों से हास्टल में नेपाल की दो परिवार आकर रहने लगे थे। जिनमें से एक परिवार में 4 या 5 साल की छोटी सी बेटी थी। मुझे बच्चे तो हमेशा से ही पसंद थे वो बच्ची भी मुझे अच्छी लगती थी। हमेशा कुछ खाने पीने का सामान उसे दे दिया करता था।

बस शाम के समय मैं यूं ही छत पर ठहल रहा था और मौसम का मजा ले रहा था तब ही मैंने उस बच्ची की हाथों में एक पतंग देखी। लेकिन उसमें छागा नहीं था। वहीं छत पर पस हुआ लाल धागा नजर आया। मैं समझ गया कि ये पतंग कहीं से उड़कर आयी होगी। बस फिर क्या था सबसे पहले तो मैं छत पर पहंुचा और उस धागे को सुलझाने लगा तभी वो बच्ची छत पर पतंग लेकर आ गयी। मैं ने उसकी पतंग को लेकर उस उलझ हुए धागे के साथ बांध दिया।

हवा कुछ ज्यादा ही तेज थी। पतंग जब हवा में लहराता तो वो बहकने लगती। फरफराहट की आवाज के साथ पतंग हवा में गुलांटी खा रही थी। तेज हवा के कारण पतंग को काबू करने में परेशानी हो रही थी। वहीं बच्ची पतंग की अटखेलियों को देखकर खुश हो रही थी। धीरे-धीरे हवा का बहाव कम हुआ तो पतंग आसमान में दुरूस्त उड़ने लगी। पतंग वहां दुरूस्त हुई और मैं अपनी जिंदगी के फ्लैश बेक में जाने लगा।

मुझे वो दिन याद आने लगे जब हम अपनी परीक्षाएं खत्म करने के बाद गर्मी छुट्टियों का पूरा लुत्फ उठाते थे। कामिक्स पढ़ना, नहर में नहाने जाना, कैरम खेलना और सबसे पसंदीद गेम जो हमे हमेशा आकस्ति करता था वो था पतंगबाजी का खेल। लेकिन परेशानी इतनी थी कि मैं पतंग उड़ाना चाहता था पर उड़ा नहीं पाता था। अपनी पाकिट मनी से पतंग और धागा खरीद लाया करता था।

शाम ढलने से पहले ही जब छत पर हल्की-हल्की धूप हुआ करती थी, माँ के लाख मना करने के बावजूद भी मैं हल्की धूप में ही छत पर चढ़ जाया करता था और पतंग उड़ाने की कोशिश किया करता था। पतंग हवा में उड़ने से पहले ही या तो फट जाया करती थी या फिर किसी छत पर लगे एंटीने मे फस जाया करती थी। पतंग खो देने के बाद मैं खामोश बैठ जाया करता था और फिर दूसरे बच्चों को पतंग उड़ाते हुए देखकर ही खुश हो लिया करता था।

मुझे आज भी याद है वो लड़का जो पतंगबाजी में मेरा सुपर हीरो था। ये केवल पतंगबाजी में ही हीरो था बाकी सारे काम विलनवाले किया करता था। बच्चों को मारना, लड़ना-झगड़ना, कंचे खेलता था और दूसरे बच्चों के कंचे छीन लिया करता था। नहर में नहाने जाता, तब भी अपने से छोटे बच्चों को परेशान किया करता था। इसी तरह पतंगबाजी में भी उसके मुकाबले कोई टिक नहीं पाता था। वो आस पास उड़ रही सारी पतंगों को काट दिया करता था। तभी तो मैं उसकी पतंगबाजी का कायल था।

मैं हमेशा से उसकी तरह पतंग उड़ाना चाहता था। वक्त गुजरा और धीरे-धीरे मैं पतंग उड़ाना सीख गया। मुझे समझ में आया कि पतंग उड़ाना कला तो है साथ ही एक तरह का विज्ञान भी है। हवा को चीरती हुए पतंग आसमान में हवा के दवा के प्रति विरोध करती हुए ऊपर की ओर उठती है। पतंग उड़ाते समय धागे की ढील पर विषेश ध्यान दिया जाता है। जब तेज हवा हो तो पतंग को थोड़ी ढील देकर आसमान की तरफ उठाने की कोशिश की जाती है। जब पतंग आसमान में होती है तो वो एकदम दुरूस्त हो जाती है और फिर आप उसे हवा में लहराते हुए देख सकते हो।

मैं पतंग उड़ाना तो सीख गया था पर अभी तक पतंगबाजी का उस्ताद नहीं हो सका था। मैं अभी भी दूसरों की पतंग काट नहीं पाता था। अक्सर पतंग उड़ाते समय जब मेरी पतंग हवा में दुरूस्त हुआ करती थी तब वहीं पतंगबाजी का उस्ताद लड़का मेरी पतंग काट दिया करता था। इस बात से चिड़ तो होती थी साथ ही एक प्रतिस्पर्धा की भावना भी पैदा होती थी।

इसी उलझन में गर्मी की छुट्टियां बीत जाया करती थी और मैं फिर अगली छुट्टियों का इंतजार किया करता था। सिर्फ इसी उम्मीद पर कि मैं भी आने वाले समय में पतंगबाजी का उस्ताद बन जाऊंगा।

एक तेज हवा के झोंके ने मेरा ध्यान भटका दिया और मैं अपने फ्लैश बेक लाईफ से वापस हकीकत की जिंदगी में आ चुका था। यहां हवा में मेरी पतंग अपना संतुलन खो रही थी। मैं उसे काबू करने की कोशिश कर रहा था पर मेरे पास ढील देने के लिए धागा पयाप्त ही था। तभी फैक्ट्री में काम करने वाला एक लड़का कहीं से धागा लेकर आया। मैंने उस धागे को भी पतंग से जोड़ दिया अब मेरे पास पयाप्त धागा था। मैंने पतंग को थोड़ा �¤ �र आसमा की तरफ उठाया तो पतंग फिर से दुरूस्त हो गयी थी।

अब मैंने पतंग की डोर को उस बच्ची के हाथ में थमा दी और सोचने लगा- जिंदगी के वो दिन जब पतंग उड़ाने के और पतंगों को काटने के दिवाने हुआ करते थे। एक आज का दौर है जब अकेले पतंगबाजी का लुत्फ उठा रहा हूं, कोई प्रतिद्वंधी नहीं है और पतंग काटने वाला नहीं। बस मैं और वो छोटी सी बच्ची जिसके बजह से मेरा थोड़ा बहुत मन बहल जाता है।

तभी पीछे से किसी बच्चे की पुकार सुनाई देती है। वो कह रहा था ‘‘भईया-भईया।’’ मैंने पलट कर देखा तो पीछे की तरफ बने एक घर की छत पर दो बच्चे खड़े थे। मुझे तो बच्चे वैसे भी बहुत पसंद हैं तो मैने उन्हें आवाज लगाई और कहा ‘‘क्या है?’’ तो वो कुछ कहने लगे। दूरू ज्यादा थी और हवा भी चल रही थी। इस बजह से मैं उन बच्चों की बात को क्लीयर सुन नहीं पा रहा था।

फिर जब उनके इशारों को समझने की कोशिश की तो मेरे सझम में आया कि वो शायद पतंग उड़ाने की बता कर रहे थे और मैंने भी इशारा किया कि वो अपनी पतंग उड़ाएं तो उनमें से एक बच्चा भागकर पतंग और बड़ा चरखा लेकर आया।

बस वो पल मुझे अपने बचपन के दिन याद दिला गये। मैं समझ गया था कि आज भी मैं पतंगबाजी का उस्ताद नहीं हुआ हूं अभी तक तो मैं अपने से बड़े बच्चे से मात खाता आया हूं आज मुझे अपने से बहुत छोटे बच्चे से मात खानी पड़ेगी। मानो मेरा विश्वास डोल गया था। मैं पतंग तो उड़ाने लगा था पर मुझे आज भी पतंगों के पेंच करना नहीं आता था। मुझे नहीं पता था कि किस तरह दूसरों की पतंग को काटा जाता था और फिर मेरे पास तो मंजा भी नहीं था।

मैं तो खुद लूटी हुई पतंग और इक्कठा किए हुए धागे से पतंगबाजी का शौंक पूरा कर रहा था। सिर्फ यह सोचकर कि जो काम बचपन में किया करता था आज एक मौका और मिला है।

जिस समय मैं पतंग उड़ाता था उस समय मैं हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट में पढ़ा करता था और आज तो अपनी पोस्ट ग्रेजूएशन कम्पलीट करने के एक साल अपने ही शहर में और पिछले तीन सालों से एनसीआर में जाॅब कर रहा था। फिर जब कभी मौका मिलता है तो इस तरह के शौक पूरे कर लिया करता हूं।

अब मेरे मन में उस बच्चे से भी खौफ पैदा हो गया था। मैं आज भी अपने आप को पतंगबाजी में उतना उस्तात नहीं मानता था। वहीं बच्चें तेज हवा के बीच अपनी पतंग को दुरूस्त करने की कोशिश कर रहे थे। पर वो हवा तेज होने के कारण पतंग पर काबू नहीं कर पा रहे थे। उनकी इस बात से मेरा आत्मबल थोडा़ बड़ गया। मैं समझ गया कि ये बच्चे मेरी पतंग नहीं काट पाएंगे। पहले तो ये अपनी पतंग को उड़ा ही ले तो बहुत है।

लेकिन थोड़ी ही देर बाद उनकी पतंग भी हवा में उड़ने लगी थी। फिर से मन में एक खौफ सा घर कर गया कि कहीं आज मुझे इन बच्चों के सामने घुटने न टेकने पड़ जाएं। मेरी पतंग अगर इन बच्चों ने काट दी तो मेरी बहुत किरकिरी होगी। वो बात अलग है कि आप मुझे देखने वाला कोई नहीं, हां! अपने मन में जरूर एक मलाल रहेगा।

फिर मैं अपनी पतंग को बचाने के नये तरीके खोजने लगा। मैने सोचा, अगर इन बच्चों की पतंग ने मेरी पतंग पर हमला किया तो मैं भी अपनी पतंग बचाने के लिए किसी भी हद तक गिर सकता हूं। यहां तक कि मैं चीटिंग करके इनकी पतंग को फसाकर अपनी छत पर खीच लूंगा और फिर उसे फाड़ दूंगा।

मेरे मन में ये ख्याल आ ही रहे थे कि मैंने देखा एक पतंग कटने के बाद फैक्ट्री ग्राउण्ड की ओर गिर गई। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो ये उन्हीं बच्चों की पतंग थी जिनसे मुझे खतरा महसूस हो रहा था। लेकिन उनकी पतंग तो खुद वा खुद धागा टूटने से कट गयी और आज मैं और सिर्फ मैं आसमान पर अकेला अपनी पतंग को हवा में गुलाटियां खिला रहा था। आज मैं खुद को पतंगबाजी का बादहशाह समझ रहा था।

लेकिन जो भी इस खेल में कब दो घंटे बीत गये मुझे पता भी नहीं चला। आसमान में भी अंधेरा विखरने लगा था। शाम ढलकर रात की ओर जा रही थी। अब मैंने भी अपना पतंगबाजी के युद्ध को विराम दिया और उस पतंग को धागा लपेटकर उस बच्ची को संभाल कर रखने के लिए दे दिया और अपने पास वो कुछ सुहाने पल समेट कर रख लिए। जो जिंदगी में कभी-कभी मिलते हैं।

विश्वविद्यालयों में विधिक पत्रकारिता के पाठ्यक्रम की दरकार

भारत सेन

भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों की वेबसाईट का आवलोकन करने पर यह चौकाने वाला तथ्य सामने आता हैं कि पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातक एवं स्नातकोत्तर उपधि प्रदान करने वाले विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में सबसे महत्वपूर्ण विषय विधिक पत्रकारिता नही हैं। कानून और न्याय के शासन में आस्था रखने वालों को यह जानकर दुख होगा कि जहाँ विश्वविद्यालयों में विधिक पत्रकारिता का विषय नही हैं वही पर विधिक पत्रकारिता को पढ़ाने वाले प्रध्यापक या शिक्षक भी नही हैं और इतना ही नही विधि पत्रकारिता का साहित्य भी उपलब्ध नही हैं। विधिक पत्रकारिता शैक्षणिक संस्थानों में एक व्यवस्थागत रूप अभी तक ग्रहण नही कर सका हैं। राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों और प्रादेशिक विश्वविद्यालयों में पीएचडी की उपाधि के कार्यक्रम तो चल रहे हैं लेकिन विधिक पत्रकारिता में पीएचडी की उपाधि को लेकर कोई जानकारी नही हैं। पत्रकारिता के लिए स्थिापित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय की भी यही स्थिति हैं।

भारत के पत्रकारिता एवं जनसंचार से जुड़े शिक्षा संस्थान पत्रकारिता की डिग्रीयाँ तो बाट रहे हैं, पत्रकार तो पैदाकर हो रहे हैं लेकिन विधिक पत्रकारिता की अभी शुरूवात होना बाकी मालूम पड़ती हैं। पत्रकारिता का क्षेत्र अत्यंत विशाल हैं और विधिक पत्रकारिता विधि विशेषज्ञों का विषय हैं। कम से कम दस वर्षो की वकालत का अनुभव रखने वाले अधिवक्ता में विधिक पत्रकार होने की बुनियादी योग्यता हो सकती हैं। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में विधिक पत्रकारिता को शामिल किया जाकर एक व्यवस्थागत् रूप दिया जा सकता हैं।

विधिक पत्रकारिता न्यायिक अधिकारियों और अधिवक्ताओं के बीच विभिन्न विधिक पत्रिकाओं के माध्यम से होती रही हैं। विधिक पत्रिकाओं में विभिन्न उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के फैसले होते हैं जिनका प्रचार प्रसार आम आदमी के बीच होना चाहिए लेकिन यह अधिवक्ताओं तक सीमित रहता हैं। विधिक पत्रिकाएँ बहुत महँगी होती हैं और आम आदमी इसे खरीद कर पढ़ नही सकता हैं। लोकतंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक हैं कि कानून का ज्ञान प्रत्येक नागरिक को होना चाहिए। विधिक साक्षरता का अभियान चलाया तो जाता हैं लेकिन गलत ढंग से चलाया जाता रहा हैं। प्रत्येक न्यायालयों में औसतन एक हजार प्रकरण विचाराधीन हैं। आम तौर पर देखने में तो यही आता हैं कि न्यायिक अधिकारी ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर विधिक साक्षरता शिविर लगाते हैं। यह काम किसी विधि स्नातक जनसम्पर्क अधिकारी के माध्यम से करवाया जाऐगा तो परिणाम भी सकारात्मक मिल सकेगें। विधिक सेवा प्राधिकरण में विधि अधिकारी का पद समाप्त करके जनसम्पर्क अधिकारी का पद बनाया जाना चाहिए। विधिक सेवा दिवस पर विधिक पत्रकारिता के लिए सम्मानित किए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए।

समाचार पत्रों में न्यायालय के फैसले लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। समाचार पत्र के सम्पादक जितना महत्व राजनीति के समाचारों को देते हैं और जितनी प्राथमिकता भ्रष्ट राजनेताओं को देते हैं उतना महत्व भारत की उच्चतम न्यायालय को भी नही मिलता हैं। राजनीति के समाचर प्रथम पृष्ठ पर होते हैं और उच्चतम न्यायालय के फैसले ज्यादातर समाचार पत्र के अंतिम पृष्ठ पर विज्ञापनों के बीच देख्ेा जा सकते हैं। इससे राजनीति का महत्व बढ़ जाता हैं और कानून और न्याय का महत्व आम आदमी के जनमानस पर कमजोर पड़ जाता हैं। अगर कोई अधिवक्ता समाज के कमजोर वर्ग गरीब मजदूर वर्ग का मुकदमा जीत कर देता हैं या फिर विधिक सहायता के माध्यम से किसी निर्धन वर्ग के व्यक्ति को अधिवक्ता न्याय दिलवाता हैं तो यह घटना कभी समाचार पत्रों में स्थान नहीं बना पाती हैं। दरअसल समाचार पत्र के संवाददाता के पास पत्रकारिता में डिग्री नही होती और वैचारिक आधार नही होता। इसलिए एैसे संवाददाता करते वही हैं जैसा कि सम्पादक चाहते हैं।

न्यायालय के फैसलों पर पत्रकारिता होती रही हैं। समाचार पत्रों में विभिन्न समाचार ऐजेन्सी के माध्यम से प्राप्त होने वाले न्यायालय के समाचार ही प्रकाशित होते रहे हैं। ऐजेन्सी से प्राप्त समाचार संक्षिप्त होते हैं, जिसे पढ़कर यह स्पष्ट समझ में आता हैं कि समाचार लेखक को कानून और न्याय के बुनियादी सिद्धांतो का बिलकुल भी ज्ञान नही हैं। इससे यह प्रकट होता हैं कि समाचारों बेचने का कारोबार करने वाली विभिन्न समाचार ऐजेंसी के पास भी विधिक पत्रकार नहीं हैं। भारत की समाचर ऐजेन्सीयों का विधिक पत्रकारिता से कोई सरोकार नही हैं। स्पष्ट रूप से कहा जाए तो न्यायालय के समाचार कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो केवल समाचार पत्र में स्थान भरने योग्य मालूम पड़ते हैं। यह गलत हैं और एैसा नही दोहराया जाना चाहिए। यह न्यायालय के फैसले के साथ अन्याय हैं। यह अन्याय उस अधिवक्ता के साथ हैं जिसने पूरे पाँच साल तक पैरवी करी हैं, यह अन्याय उस न्यायिक अधिकारी के साथ हैं जिसकी कड़ी मेहनत के बाद फैसला सुनाया हैं और यह अन्याय उस घटना से जुड़े व्यक्ति के साथ हैं भी हैं जिसकी जीवन और स्वतंत्रता उस घटना और फैसले से बार बार प्रभावित होती हैं।

भारत में न्याय व्यवस्था में सुधारों की बात चल रही हैं तो वही पर न्याय व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार बहस का विषय बन चुका हैं। न्याय व्यवस्था से असंतुष्टों की संख्या लगातार बढ़ते चली जा रही हैं। दबी हुई आवाजों में सही पर असंतोष तो हैं। देश में नक्सलवाद को नियंत्रित नही कर पाने में न्यायिक अधिकारीयों की सबसे बड़ी नाकामी हैं। न्यायालय की लंम्बी चलने वाली प्रक्रिया असंतोष का प्रमुख कारण हैं। न्यायालय की कई प्रक्रिया जनमानस में सवाल खड़े करती हैं जिसका जवाब कभी मिलता ही नहीं हैं। आम आदमी कभी समझ ही नही पाता हैं कि सजा सुनाने वाली अदालते जमानत क्यों नही दे सकती? निचली अदालत के फैसले बड़ी अदालत में टिकते क्यों नही हैं? राजस्व न्यायालय के फैसले सिविल कोर्ट में पलट क्यों जाते हैं? न्यायालय में मामला झूठा साबित होने के बाद भी पुलिस अधिकारीयों पर कार्यवही क्यों नही होती? साक्ष्य के मूल्यांकन में विधि एवं तथ्यों की भूल बार बार और हर बार क्यों दोहराई जाती हैं? गलत फैसला साबित होने पर न्यायालय के अधिकारीयों की वैधानिक जिम्मेदारी तय क्यों नहीं की जाती हैं? सुनवाई की समय सीमा तय क्यों नही की जा सकती? गवाह अदालत मे पलट क्यों हो जाते हैं? कानून की शक्ति का दुरूपयोग करने वाले अधिकारी के विरूद्ध कार्यवही क्यों नही करती अदालत? झूठी रिर्पोट करने वालो पर मुकदमा क्यों नही चलता? विवेचना में भ्रष्टाचार क्यों होता हैं? अपराधीयों कानून और न्याय के शिकंजे से क्यों छूट जाते हैं? एैसे कई अनगिनत सवाल हैं जिसका जवाब विधिक पत्रकारिता के माध्यम से ही दिया जा सकता हैं। न्याय व्यवस्था में सुधार बिना विधिक पत्रकारिता के संभव ही नही हैं।

विश्वविद्यालयों में विधिक पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने से कई सकारात्मक परिणाम मिलेगे तो इसकी कई वजह भी हैं। वकालत का अनुभव रखने वालो को अपना नया कैरियर बनाने का अवसर भी मिलेगा। पश्चिम की तर्ज पर चालीस वर्ष की आयु के बाद व्यवसाय बदले का चलन बढऩे लगा हैं। वकालत का पेशा कई प्रतिभाशाली अधिवक्ता छोडऩा चाहते हैं जिनके ज्ञान का लाभ पत्रकारिता में उठाया जा सकता हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में विधि स्नातकों और वकालत का अनुभव रखने वाले अधिवक्ताओं की भूमिका बढऩी चाहिए। मानलीजिए अपराध की किसी घटना पर एक संवाददाता समाचार लिखता हैं और उसी घटना पर समाचार कोई अनुभवी विधि स्नातक संवादाता लिखता हैं तब क्या होगा? परिणाम को समझा जा सकता हैं। गवाहों के अदालत में पलटने से अपराधी तो छूट जाता हैं लेकिन इससे समाज का कितना बड़ा अहित होता हैं उसे केवल समाचार के माध्यम से विधिक पत्रकार ही आम आदमी को समझा सकता हैं। विभागीय जाँच की प्रक्रिया में अक्सर नैसर्गिक कानून का हनन करते हुए कार्यवाही को अंजाम दिया जाता हैं। विधिक पत्रकार ही समाचार के माध्यम से समझा सकता हैं कि दूसरे पक्ष को सुनवाई का अवसर दिए बिना निर्णय कर देना किस तरह से कितना गलत हैं? कानून की अनावश्यक प्रक्रिया की आड़ में भ्रष्टाचार के कितने बड़े अवसर बनते हैं, इस बात को केवल विधिक संवाददाता ही समझा सकता हैं। जब तक आर्थिक असमानता हैं चोरी का अपराध कभी रूकेगा नही, चोर को दण्ड देने से या हाथ काट देने से चोरी का अपराध रूकेगा नही बल्कि चोर के साथ ही आर्थिक असमानता के लिए जिम्मेदार लोगों को दण्डित किए जाने से चोरी समाप्त हो जाऐगी। यह बात विधि संवादाता ही समझा सकता हैं। विधि के क्षेत्र में समाचारों की कमी नही हैं बल्कि समाचर की पहचान करने वालों का अभाव हैं। वास्तव में पत्रकारिता विशेषज्ञों का विषय हैं और पत्रकार को विशेषज्ञों का विशेषज्ञ बनने की दरकार हैं।

भारत के पत्रकार संगठनों को विश्वविद्यालयों में संचालित पत्रकारिता और जनसंचार के पाठ्यक्रमों की समीक्षा के लिए एक राष्ट्र व्यापी आन्दोलन चलाना चाहिए। भारत में पत्रकारिता पश्चिम की देन हैं और पश्चिम की नकल हम करते चले जा रहे हैं। भारत का ज्यादा हित पश्चिम की नकल करने से नहीं हो सकता हैं। पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में पाठ्य पुस्तके पश्चिम के लेखकों का अनुवाद ही हैं। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों की दुर्दशा को दूरवर्ती शिक्षा के माध्यम से दी जाने वाली अध्ययन सामग्री को पढ़कर ही समझा जा सकता हैं। पाठ्य समग्री किसी कोचिंग संस्थान के नोट्स ज्यादा प्रतीत होते हैं और मौलिकता के सवालों से ज्यादा घिरे होते हैं। पत्रकारिता लगातार आगे बढ़ते चली जा रही हैं और पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तके पुरानी पड़ते चली जा रही हैं। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम मोटी आय का जरिया बनते चले जा रहे हैं। पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों के व्यवसायीकरण को रोकने के लिए पत्रकार संगठनों को आवाज उठाना होगा। पत्रकारिता को अगर जनसेवा के दायरे में रखना हैं तो पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों को व्यवसायीकरण से बचाना होगा। देशभर में राज्य स्तर पर एक स्वशासी संगठन, अखिल भारतीय पत्रकार एवं जनसंचार परिषद् का गठन किया जाना चाहिए जो पत्रकारिता की डिग्री और डिप्लोमा प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर केवल परीक्षा आयोजित करे और डिग्री और डिप्लोमा के आधार पर पत्रकारों को विशेषज्ञता के आधार पर सनद या लाईसेंस जारी करने का काम करें। इससे विश्वविद्यालय में वसूल की जाने वाली भारी भरकम फीस से बचा जा सकेगा और केवल परीक्षा फीस अदा करके पत्रकारिता और जनसंचार में डिग्री प्राप्त की जा सकेगी।

समाचार पत्र का कारोबार अब जनसेवा कम और संगठित होकर लाभ कमाने वाला कारोबार में बदलता चला जा रहा हैं। समाचार पत्र में अवैधानिक उगाही के अंतहीन अवसर होते हैं। इससे समाचार पत्र मालिकों का तो लाभ होता हैं लेकिन लोकतंत्र का बड़ा नुक्सान होता हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वाले पत्रकारों की शैक्षणिक योग्यता पर विचार किया जाए तो ज्यादतर पत्रकार विश्वविद्यालय से केवल कला स्नातक हैं। वाणिज्य, विज्ञान, इंजिनियरिंग, चिकित्सा, कृषि, पर्यावरण, मानवअधिकार और विधि स्नातक उपाधि को समाचर पत्र समूह ने महत्वहीन बनाकर रख दिया हैं। समाचर पत्र समूह यह अच्छी तरह से जानते हैं कि देश में बेरोजगारी लगातार बढ़ती चली जा रही हैं और समाचर पत्र को कम मानदेय पर काम कर सकने वाले पत्रकार चाहिए। समाचार पत्र को विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों की भला क्या जरूरत हैं? समाचार पत्र तो वैसे ही बिकता हैं। जनता तो केवल राजनीति के समाचार पढऩा और राजनीतिज्ञों के फोटो को देंखना ज्यादा पसंद करती हैं। जनता की रूची भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और उनकी पैरवी करने वाले वकीलों में ज्यादा हैं। समाचर पत्र के पाठक इस व्यवस्था पर प्रहार कर सकते हैं। पाठक समाचार पत्र को अपनी प्रतिक्रिया बार बार बताकर बदलाव ला सकते हैं। पाठक समाचार पत्र से बोल सकते हैं कि आप भ्रष्ट राजनीतिज्ञों को अंतिम पृष्ठ का समाचार बनाए और समाज के गरीब कमजोर और मजदूर वर्ग को न्याय दिलवाने वाले अधिवक्ता को प्रथम पृष्ठ पर स्थान प्रदान आवश्यक रूप से करे। विधि स्नातक पत्रकारों की नियुक्ति करें। कानून और न्याय को प्रथम प्राथमिकता प्रदान करें। पाठक वर्ग का पोस्ट कार्ड में लिखी प्रतिक्रिया समाचर पत्र को यह अहसास करवा सकती हैं कि सम्मानित पाठक कोई भिखरी नही हैं जिसे जो परस दिया जायेगा वह खाने के लिए मजबूर हैं? समाचार पत्र पाठकों की संख्या बल से चलता हैं और संख्या बल से उसे विज्ञापन मिलते हैं। पाठकों के नकारने का डर समाचार पत्र को बड़ा परिवर्तन करने के लिए मजबूृर कर सकता हैं। पाठकों को यह प्रयोग करना चाहिए और कुछ करने से कुछ होता हैं।

भारत को एक लोक कल्याणकारी गणराज्य बनाने के लिए पत्रकारिता की दिशा को बदलने की आवश्यकता हैं। विश्वविद्यालय स्तर पर एक अच्छे पत्रकार तैयार करने के लिए पत्रकार संगठनों के साथ ही आम जनता को अपने अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। पत्रकारिता के क्षेत्र में हम पश्चिम के शिष्य कब तक बने रहेगें? पश्चिम की पत्रकारिता के सामने पूर्व की पत्रकारिता भी कोई उदाहरण प्रस्तुत कर सकेगी? पत्रकारिता भाग्य का विषय नही बल्कि महनत का विषय हैं। विधिक पत्रकारिता में उनती ही महनत करनी पड़ती जिनती किसी मामले में एक अधिवक्ता पैरवी की तैयारी करने में करता हैं दूसरा न्यायिक अधिकारी फैसला लिखने में करता हैं। विधिक पत्रकार ठीक उतनी ही मेहनत न्यायालय के फैसले पर समाचार लिखनें में करते हैं। आरक्षण की व्यवस्था के विरोध में योग्यता और दक्षता के सवाल दोहराए जा सकते हैं तो फिर समाचार पत्र में क्यों नही? फिलहाल तो देश को विधिक पत्रकारिता के महत्व हो समझने और आत्मसात करने की आवश्यकता हैं। समाचार पत्र के पाठकों के हाथ में परिवर्तन लाने की कूँजी हैं और पाठक परिवर्तन लाकर रहेगें।

पेशे से विधि सलाहाकर एवं पत्रकार हैं।

बाबा अमर नाथ की आग से मत खेलो

विनोद बंसल

भारत के मुकुट जम्मू-कश्मीर के श्री नगर शहर से 125 किमी दूर हिमालय की बर्फ़ीली चोटियों के बीच 13,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित भगवान शिव का अदभुत ज्योतिर्लिंग बाबा अमरनाथ के नाम से विश्व भर में प्रसिद्ध है। यह सिर्फ़ करोडों हिन्दुओं की आस्था का केन्द्र ही नहीं बल्कि पूरे भारत वर्ष को एक सूत्र में पिरो कर रखने का एक प्रमुख आधार स्तंभ भी है। भारत तो क्या विश्व का शायद ही कोई कोना ऐसा होगा जहां से श्रद्धालु बाबा के दर्शन करने न आते हों। इस यात्रा से जहां बाबा के भक्त अपनी मन मांगी मुराद पूरी कर ले जाते हैं वहीं कश्मीर क्षेत्र में रहने वाली जनता (अधिकांश कश्मीरी मुसलमान) इससे वर्ष भर की अपनी रोजी रोटी का जुगाड कर लेते हैं। सामरिक द्रष्टी से भी देखा जाए तो भी यह मानना होगा कि इस यात्रा के माध्यम से ही देश के कोने कोने में रह रहा भारतीय आत्मिक रूप से जम्मू कश्मीर से जुड कर इसके लिए जी जान तक देने को तत्पर है। अन्यथा यह क्षेत्र कभी का हमारे दुश्मनों के कब्जे में चला गया होता। इतना ही नहीं वहां की अर्थव्यवस्था का आधार पर्यटन है जिसको बढावा देने हेतु सरकार करोडों रुपये खर्च करती है किन्तु इस दो महीने की यात्रा से उसे बैठे बिठाये लाखों पर्यटक मिल जाते हैं जिससे करोडों की आय जम्मू कश्मीर के राज्य कोष में जमा होती है।

अत्यंत दुर्गम रास्ता, खराब मौसम और आतंकवादियों की धमकियों व हमलों के चलते यात्रा में अनेक बार व्यवधान पडता रहता है। अलगाववादियों के इशारों पर चलने वाले राजनेता तथा कुछ विघटनकारी तत्व इस पवित्र यात्रा को समाप्त करने के तरह-तरह के षडयंत्र रचते रहते हैं। कभी खराब मौसम का बहाना, कभी आतंकवादियों की धमकी, कभी व्यवस्था का प्रश्न तो कभी आस्था पर हमला। बस यूं ही चलता रहता है इसे सीमित दायरे में बांधने या इसे समाप्त करने का कुत्सित प्रयास्। गत अनेक वर्षों से इस यात्रा को ज्येष्ठ पूर्णिमा से प्रारंभ कर श्रावण पूर्णिमा (रक्षा बन्धन) के दिन को पूर्ण किया जाता रहा है। हर साल बाबा का प्रासाद पाने वालों की संख्या निरन्तर बढती ही जा रही हैं। इसी कारण गत वर्ष श्री अमरनाथ के दर्शनार्थियों का यह आंकडा पांच लाख को पार कर गया। यात्रा का समय चाहे पूरा हो गया हो किन्तु भक्तों की चाहत बढती ही चली गई।

बाबा के भक्तों का यह आंकडा इस बार भी किसी कीर्तिमान से कम नहीं दिख रहा है। यात्रा के आधिकारिक प्रारंभ तिथि के आने में अभी एक माह से अधिक समय शेष है फ़िर भी यात्रा हेतु पंजीयन कराने बालों की सरकारी संख्या जहां ढेड लाख को पार कर चुकी है वहीं गैर सरकारी संस्था बाबा अमरनाथ एवं बूढा अमरनाथ यात्री न्यास के माध्यम से भी अभी तक लगभग सवा लाख यात्रियों का पंजीयन हो चुका है। यानि, ढाई लाख से अधिक भक्त अभी तक अपना पंजीयन करा चुके हैं। यह तो तब है जब बैंकों में लम्बी कतारों व तमाम तरह की अन्य दिक्कतों के कारण भक्तों को पंजीयन फ़ार्म भी नहीं मिल पा रहे हैं। इस सबके बावजूद इस वर्ष की यात्रा की अवधि को मनमाने तरीके से घटाकर डेढ माह कर दिया गया है जिसे किसी भी तरह से तर्क संगत नहीं कहा जा सकता है।

वर्ष 1996 में इस यात्रा के दौरान हुए एक हादसे के बाद जस्टिस सैन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि वर्तमान व्यवस्था के हिसाब से वहां एक दिन में 7-8 हजार से अधिक यात्रियों को दर्शन नहीं कराये जाने चाहिए। यदि प्रतिदिन दर्शनार्थियों की संख्या बढानी है तो रास्ता चौडा करना होगा। साथ ही उन्होंने यात्रियों की सुविधा हेतु समुचित प्रबन्ध भी आवश्यक बताए। इस हिसाब से यदि यह यात्रा डेढ माह तक चलती है तो अधिकाधिक तीन-साढे तीन लाख भक्त ही दर्शन कर पायेंगे। इससे न सिर्फ़ दो लाख से अधिक भक्त बाबा के दर्शनों से बंचित रह जाएंगे बल्कि राज्य सरकार के कोष व वहां की जनता के पेट (रोजी रोटी) पर भी लात लगेगी।

आश्चर्य की बात तो यह है कि जम्मू कश्मीर के मुख्य मंत्री यात्रा को पूरे दो महीने रखने को राजी होकर सुरक्षा देने पर सहमत हैं किन्तु, प्रदेश के राज्यपाल व श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के अध्यक्ष श्री एन एन वोहरा इसे डेढ माह तक सीमित करने पर आमादा हैं। इससे पहले भी इन्हीं बोहरा जी के कार्यकाल में बाबा अमरनाथ की जमीन हिन्दुओं से छीन ली गई थी जिसे हिन्दुओं द्वारा दो माह के ऐतिहासिक संघर्ष द्वारा वापस लिया गया। इस बार भी हिन्दुओं ने साफ़ ऐलान कर दिया है कि यह यात्रा पूर्व की तरह ज्येष्ठ पूर्णिमा (15/06/2011) से ही प्रारंभ होगी जिसे रोकने का यदि किसी ने प्रयास किया तो देश भर में लोकतांत्रिक तरीके से व्यापक आंदोलन चलाया जाएगा। पंद्रह जून से प्रारंभ होने वाली इस यात्रा का सारा प्रवन्ध बाबा अमरनाथ एवं बूढा अमरनाथ यात्री न्यास द्वारा किया जा रहा है जिसने अभी तक सवा लाख शिव भक्तों का पंजीयन पूरा कर लिया है।

देश की एकता, अखण्डता, धार्मिक आस्था, और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए इस यात्रा को प्रोत्साहित करने में ही सबकी भलाई है। वैसे भी, जहां एक ओर हमारी केन्द्र व राज्य सरकारें हर राज्य में जगह जगह हज यात्रा हेतु हज हाउस बना कर करोडों रुपए की हज सब्सिडी दे रही हैं तो क्या हिन्दुओं को अपने ही देश में स्वयं के ही पैसे से (बिना किसी सरकारी सहायता के) यात्रा शुल्क देकर भी अपने आराध्य के दर्शनों की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए ? दूसरी बात यह भी है कि क्या ईद व क्रिसमस जैसे गैर हिन्दू त्योहारों की तिथि कोई राज्यपाल तय करता है जो जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल हमारी इस पवित्र यात्रा की तिथि तय कर रहे हैं। हां! श्राइन बोर्ड के अध्यक्ष के नाते यात्रा के सुचारू रूप से चलने हेतु जो प्रवन्ध आवश्यक है, वे उन्हें करने चाहिए। किन्तु यात्रा की अवधि तो संत समाज व हिन्दू संस्थाऐं ही तय कर सकती हैं।

यदि समय रहते इस टकराव को टाला नहीं गया तो मंहगाई, भ्रष्टाचार और आतंकवाद से पहले से ही त्रस्त हिन्दू जन-मानस के भडकने की प्रबल संभावना है। प्रदेश के राज्यपाल यदि किसी बाहरी इशारे पर खेल रहे हों तो केन्द्र सरकार को चाहिए कि इस मामले में अबिलम्ब हस्तक्षेप कर जम्मू जैसे आन्दोलन की पुनरावृति से बचे अन्यथा एक बार यह आग देश में भडक गई तो इसके दूरगामी गंभीर परिणाम होंगे। जो प्रदेश के साथ-साथ केन्द्र सरकार के लिए भी भारी पड सकते हैं। राम सेतु के आन्दोलन को शायद हमारे नेता भूल गये हैं जो पूरे विश्व के लिए एक मिसाल बन गया था। मात्र तीन घण्टे के देश व्यापी चक्का जाम ने हिन्दू जन शक्ति का जो पाठ पढाया उसे अब याद करना होगा। आस्था के साथ किसी भी प्रकार की खिलवाड करना इस समय उचित नहीं है। भगवान शिव के तीसरे नेत्र से बचने के लिए इस समय यही कहा जाएगा कि राजनेताओ ! बाबा अमर नाथ की आग से मत खेलो

भाषा और संस्कृति

जब एक भाषा मरती है तब उसकी संस्कृति भी उसके साथ मर जाती है

’लिविंग टंग्ज़ इंस्टिट्यूट फ़ार एन्डेन्जर्ड लैन्गवेजैज़’ इन सैलम, ओरेगान के भाषा वैज्ञानिक डेविड हैरिसन तथा ग्रैग एन्डरसन कहते हैं कि जब लोग अपने समाज की‌ भाषा में बात करना बन्द कर देते हैं, तब हमें मस्तिष्क के विभिन्न विधियों में कार्य कर सकने की अद्वितीय अंतर्दृष्टियों को भी‌ खोना पड़ता है। आगे एन्डरसन कहते हैं कि लोगों को अपनी भाषा में बात करते हुए उऩ्हें वास्तव में अपने इतिहास से पुन: सम्पर्क करते देखने में जो संतोष होता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। यह निश्चित ही हमारे मस्तिष्क की कार्य विधि तथा मातृभाषा के बीच गहरे संबन्ध को तथा उसका हमारे जीवन पर पड़ रहे प्रभाव को दर्शाता है।

पिछले वर्षों हुऎ अनुसंधानों से यह ज्ञात हुआ है कि जब हम अपनी मातृभाषा सीखते हैं तब एक सोचने की विधि भी सीखते हैं जो हमारे अनुभवों को ढ़ालती है।

मैन्चैस्टर विश्व विद्यालय के भाषा, भाषा विज्ञान तथा संस्कृति स्कूल के अवैतनिक अनुसंधान फ़ैलो गाई डायश्चैर ने एक पुस्तक लिखी है – “भाषा- चश्में से देखते हुए : अन्य भाषाओं में विश्व अलग क्यों दिखता है?” वे प्रश्न करते हैं, क्या भाषा, सर्वप्रथम तथा सर्वोपरि, एक सांस्कृतिक निर्मिति है ?” या कि यह मुख्यत: मानव के जैव विज्ञान द्वारा निर्धारित की जाती है?” गाई डायश्चैर ने अपनी पहली पुस्तक” द अनफ़ओल्डिंग आफ़ लैन्ग्वैजैक्ष” में दावा किया था कि भाषा एक सांस्कृतिक निर्मिति है। अपनी नई पुस्तक में वे जैव विज्ञान पर अधारित भाषा के सिद्धांतों पर और भी अविश्वास पैदा करते हैं।

प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक रोमन जैकब्सन ने भाषाओं में अन्तर समझाने के लिये एक जगमगाते हुए तथ्य की ओर इंगित किया है : “ भाषाओं में अनिवार्य अंतर इससे स्पष्ट होता है कि उऩ्हें अवश्य ही क्या अभिव्यक्त करना चाहिये न कि वे क्या अभिव्यक्त करती हैं।” यह कथन मातृभाषा की‌ सही शक्ति दर्शाता है।यदि हमें भिन्न भाषाएं भिन्न विधियों से प्रभावित करती हैं, तब यह इसलिये नहीं है कि वह भाषा हमें क्या सोचने की अनुमति या सुविधा देती‌ है, वरन यह कि वह हमें अधिकतर क्या सोचने के लिये बाध्य करती है।”

’यदि हमें कोई यह बतलाए कि वह आज शाम अपनी ’कज़िन’ के साथ शाम बिता रहा है; तब भारतीय (फ़्रैन्च, जर्मन आदि भी) सोच सकता है कि यह कज़िन पुरुष है या महिला, और वह चचेरी है या ममेरी या बुआ की तरफ़ से है। यदि आप उस अंग्रेज़ से पूछेंगे, तब वह यह उत्तर दे सकता है इससे आपको कोई मतलब नहीं। इंग्लैण्ड में कोई भी ऐसे प्रश्न नहीं करेगा। वहां वे इसे निजी व्यवहार मानेंगे, या अन्य के व्यवहार में अनावश्यक खलंदाजी। हम सांस्कृतिक प्रभाव के कारण बहुत से व्यवहार सीख जाते हैं जो हमें स्वाभाविक लगते हैं। और यह सब भाषा में दिखता है, उसके द्वारा आता है।’ भाषा तथा संस्कृति में अटूट तथा गहरा संबन्ध है।

’दूसरी तरफ़, अंग्रेज़ी‌ भाषा वह बतलाने के बाध्य करती‌ है जो शायद अन्य भाषाएं न करें।यदि अपने पड़ोसी के साथ मैं (अंग्रेज़) ’डिनर’ की‌ बात बतलाना चाहता हूं, तब मैं अपने पडोसी का लिंग चाहे न बतलाऊं, किन्तु मुझे उसके समय के विषय में अवश्य ही कुछ बतलाना होगा। मुझे बतलाना होगा कि – we dined, have been dining, are dining, will be dinning इत्यादि। जब कि चीनी भाषा में उस कार्य के समय को बतलाने की‌ कोई भी बाध्यता भाषा की त� ��फ़ से नहीं होती, क्योंकि वही क्रिया का रूप सभी‌ कालों के लिये होता है। वह स्वतंत्र है चाहे तो समय की जानकारी‌ भी दे सकता है, किन्तु अंग्रेज़ी‌ में‌ बतलाना ही होगा।’

मैं एक घटना का इसी प्रसंग में वर्णन करना चाहता हूं। बात उन्नीस सौ साठ के प्रारंभिक वर्षों की है। अमैरिकी उस समय भारत से मेंढकों के निर्यात का प्रयत्न कर रहे थे और उऩ्हें सभी प्रदेशों से नाहीं ही मिल रही थी। तब उऩ्होंने (अपने शत्रु ) केरल के मुख्य मंत्री नम्बूदरी पाद से बात की। वे समझ गए थे कि हिन्दू मुख्य मंत्री‌ धार्मिक भावनाओं के कारन ऐसी अनुमति नहीं देंगे । और केरल के मुख्य मंरी‌ ने वह अनुमति दे दी। मुख्य मंत्री को मिलियन्स डालरों की आमदनी हुई, किन्तु उस चावल के कटोरे में फ़सल बरबाद हो गई। तब उऩ्हें शायद कुछ समझ में आया। हमारी‌ संस्कृति में पारिस्थितिकी ( एकोलोजी) , पर्यावरन , प्रकृति संरक्षण, सर्वमंगल की‌ भावना सदा ही निहित रहती है। देवताओं के वाहन चाहे वह लक्ष्मी का उल्लू हो, या सरस्वती का हंस, या या गंगा जी का घड़ियल या उनके अलंकरण हों – चाहे शंकर जी  सांप हो या कृष्ण जी का मकराकृति कुण्डल, सभी‌में प्रकृति संरक्षण का वैज्ञानिक संदेश है। एक और उदाहरण हिन्दी भाषा में निर्जीव वस्तुओं के लिंग का है जो निर्जीव वस्तुओं के साथ संवेदनशीलता सहित व्यवहार करनॆ का संदेश देता है। वैसे तो पृथ्वी हमारी माता है।

जब भाषा किसी को जानकारियों को एक विशिष्ट रूप में‌ही देने के लिये बाध्य करती है, तब वह उसे उन कुछ विवरणों के प्रति तथा कुछ अनुभवों के विशेषरूप से अवलोकन करने के लिये बाध्य करती‌ है, जिन के लिये अन्य भाषा में वह विशेष अवलोकन आवश्यक न हो । और यह भाषा की बाध्यता बचपन से ही कार्य करती‌ है, ऐसा अवलोकन या भाषा उसका स्वभाव बन जाता है जो उसके अनुभवों, दृष्टिकोणों, भावनाओं, सहचारिताओं, स्मृ� �ियों और यहां तक कि उसकी‌ जीवन दृष्टि को प्रभावित करता है।

किन्तु क्या इस अवधारणा के लिये कोई प्रमाण हैं? ताजे प्रयोगों ने दर्शाया है कि व्याकरणीय लिंग के उपयोग करने वालों की वस्तुओं के प्रति अनुभूतियों और सहचारिताओं पर ऐसे उपयोग का प्रभाव पड़ता है। क्या दैनंदिन जीवन में वस्तुओं के प्रति लिंग की भाषा का उपयोग उनके संवेदनात्मक व्यवहारों को तुलनात्मक रूप से और ऊँचे धरातल पर ले जाता है ? क्या वे पसंद, फ़ैशन, आदतों और वरीयताओं पर प्रभाव डाल ता है ? इस समय इसका निर्धारण मनोवैज्ञानिक की प्रयोगशालाओं में‌नहीं किया जा सकता। किन्तु यदि ऐसा नहीं सिद्ध हुआ तो आश्चर्य तो होगा।

ताजे तथा मेधावी प्रयोगों की शृंखला ने यह दर्शाया है कि हम रंगों तक को अपनी मातृभाषा के लैंस के द्वारा देखते हैं। उदाहरन के लिये हरे और नीले रंगों के लिये हिन्दी‌ में ( कुछ अन्य में भी) नितांत अलग शब्द हैं, किन्तु कुछ भाषाओं में उऩ्हें एक ही रंग की भिन्न छवियां ही माना जाता है। और यह समझ में आया कि अपनी‌ भाषा जिन रंगों को निश्चित ही अलग नाम देकर अलग रंग मानने के लिये बाध्य करती है, वह हमारी रंगों के प्रति संवेदनशीलता को सचमुच परिष्कृत करती है, और हमारे मस्तिष्क भिन्न छवियों की‌ दूरियों को अत्यंत स्पष्टरूप से देख सकते हैं।

लगता है आने वाले समय में अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक प्रत्यक्ष ज्ञान के सूक्ष्म क्षेत्रों पर भाषा के प्रभाव पर प्रकाश डाल सकेंगे । उदाहरण के लिये, कुछ भाषाएं, जैसी पेरु की मैत्सीज़ भाषा, अपने उपयोग करने वालों को जो तथ्य वे बतला रहे हैं, वे उऩ्हें कैसे प्राप्त हुए भी‌ परिशुद्ध बतलाने के लिये बाध्य करें। आप मात्र यह नहीं कह सकते, ”एक गाय यहां से गई”। आपको, एक विशेष क्रियापद का � �पयोग करते हुए, यह भी‌ बतलाना पड़ेगा कि क्या आपने उसे जाते हुए देखा था, या आपने उसके पदचिऩ्ह देखकर निष्कर्ष निकाला या केवल अनुमान किया कि वह तो अक्सर यहां से जाती है, या किसी से सुना था। यदि कोई कथन दिया गया जिसका प्रमाण गलत निकला तब उसे झूठ कहकर निंदित किया जाता है। उदाहरण के लिये यदि आप मैत्सीज़ पुरुष से पूछेंगे कि उसकी कितनी पत्नियां हैं; तब जब तक कि वे पत्नियां उसे आँख के सामने नहं दिख रही हैं, वह कुछ ऐसा उत्तर देगा, “ जब मैने पिछली बार देखा था तब दो थीं।” चूंकि उसकी पत्नियां उस समय वहां नहीं‌ हैं, वह उनके विषय में बिलकुल निश्चित तो नहीं हो सकता, अतएव वह इस तथ्य को वर्तमान काल में नहीं कह सकता। क्या हमेशा सत्य के विषय में सोचने की आवश्यकता उसकी जीवन दृष्टि में सत्य तथा कार्य – कारण संबन्ध का महत्व दर्शाती है ? ऐसे प्रश्नों के अनुभवसिद्ध उत्तर प्राप्त करने लिये हमें प्रयोग करने के लिये सूक्ष्मतर उपकरणों की आवश्यकता है।

यह सोचना तो गलत ही है कि भिन्न संस्कृतियों के व्यक्ति मूलरूप से एक ही तरह से सोचते हैं। हम दैनंदिन जीवन में सारे निर्णय क्या निगमनात्मक (डिडक्टिव) तर्कों द्वारा लेते हैं ? या आंतरिक भावनाओं, अंतर्दृष्टियों, संवेदनाओं, मनोवेगों या व्यावहारिक कौशलों के द्वारा लेते हैं? हमारे मन का व्यवहार, जैसा कि उसे हमारी संस्कृति ने बचपन से ढाला है, हमारी‌ जीवन – दृष्टि का, और वस्तुओं तथा परि्थितियों के प्रति हमारी संवेदनात्मक प्रतिक्रियाओं का निर्माण करता है; उनका हमारे जीवन मूल्यों, विश्वासों तथा आदर्शों पर भी मह्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। अभी हम ऐसे प्रभावों को सीधी तरह नहीं नाप सकते या उनके द्वारा उत्पन्न सांस्कृतिक या राजनैतिक भ्रमों का आकलन भी नहीं कर सकते हैं। किन्तु भाषाओं की विविधता के रहते हुए, हम बेहतर आपसी समझ के लिये कम से कम इस विश्वास पर कि हम सभी क ही तरह से सोचते हैं, एक गंभीर प्रश्न तो कर ही सकते हैं।

’साइंटिफ़िक अमैरिकन – माइंड’ में भाषा वैज्ञानिक डा. कौरे बिन्स लिखते हैं कि इस विश्व में ७००० भाषाएं हैं, और प्रत्येक माह दो भाषाएं मर रही है, और उनके साथ अनेकानेक संततियों से प्राप्त सांस्कृतिक ज्ञान, तथा मानव मस्तिष्क का रह्स्यमय शब्द प्रेम भी सदा के लिये लुप्त हो रहा है।

हम यह तो देख ही रहे हैं कि भाषा और संस्कृति गहन रूप से, जैविक रूप से, संबन्धित हैं।आज की हमारे देश की शिक्षा पद्धति में अंग्रेज़ी माध्यम को प्राथमिक शालाओं से लादने की प्रवृत्ति को देखते हुए यह दिख रहा है कि भारतीय भाषाएं और उनके साथ भारतीय संस्कृति भी मृतप्राय होने वाली हैं। क्या हम अपनी संस्कृति की रक्षा करना चाहते हैं ? यदि हां तो अपनी‌ भाषाओं की रक्षा करें। हो सकता है कि कोई पश्न ही करे कि पश्चिम की सफ़ल और उत्तम संस्कृति के रहते, भारतीय संस्कृति की रक्षा क्यों करना है?‌ इस पर आगे विचार करेंगे ।

मध्यप्रदेश की तस्वीर और तकदीर बदलने में कामयाब शिवराज सिंह चौहान

भारतीय जनता पार्टी ने मध्यप्रदेश राज्य में पिछले अपने सात वषो के शासन के दौरान जो उपलब्धियाँ हासिल की हैं वह निश्चित ही उसे जनता की नजर में श्रेष्ठतम साबित करती हैं। प्रशासन, सत्ता संगठन का समन्वय जितना इन पिछले वषो में देखने को मिला वह अन्य राज्यों के लिए भी अनुकरणीय माना जा सकता है। कांग्रेस के शासनकाल में बीमारू राज्य की जो नकारात्मक पहचान देशभर में मध्यप्रदेश की बनी थी उस छवि से मुक्त करने का श्रेय आज भाजपा शासन को ही दिया जाएगा।

भाजपा नेताओं स्व. विजयाराजे सिंधिया, कुशाभाऊ ठाकरे, प्यारेलाल खंडेलवाल आदि के त्याग और समपर्ण के कारण इस सूबे में भाजपा की पहचान पार्टी विथ द डिफरेंस के लिए देशभर में बनी थी, लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के कुशल प्रशासन ने मप्र की तस्वीर को आज और बदलकर रख दिया है। वे मध्यप्रदेश में गैर कांग्रेस पार्टी के ऐसे पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में पाँच साल पूरे किए हैं। इन पाँच सालों में उन्होंने जो निर्णय लिए और कार्य करवाए उनसे आज प्रदेश का स्वरूप और तकदीर दोनों ही बदल चुकी हैं। मध्यप्रदेश अब बीमारू राज्य नहीं रहावह स्वर्णिम प्रदेश बनने की ओर अग्रसर है।

सामान्य कार्यकता की तरह बहुत छोटे स्तर से अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत करने वाले शिवराज सिंह एक तरफ वनवासियों की चिंता करने वाले मुख्यमंत्री हैं तो वहीं दूसरी तरफ किसानों और गरीबों की चिंता करने वाले भाजपा के आम कार्यकतार हैं। दारिद्र से मुक्त विकासयुक्त प्रदेश की कल्पना को साकार रूप देना ही मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह का संकल्प बना हुआ है। विकास उनका मिशन, समाज के पीडित, शोषित हर व्यक्ति की निरंतर सेवा उनका लक्ष्य है।

कभी यह प्रदेश विकास के स्तर पर देश के अग्रणीय दस राज्यों की सूची से बाहर हुआ करता था, लेकिन आज

मप्र की तस्वीर को बदलने का नतीजा है कि वह देश के पहले पाँच राज्यों में शुमार है, जिस गति से प्रदेश प्रगति कर रहा है उसको देखत्ो हुए भविष्य के मध्यप्रदेश का अंदाजा लगाया जाए तो यही कहना होगा कि यह प्रदेश शीघ्र ही देश का अग्रणी राज्य बनेगा।

मध्यप्रदेश को विकसित करने की चाहत तथा वंचितों और बेहसहारों को सहारा देने और उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोडने का जुनून ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को सबसे अलग बनाता है। इसी श्रेष्ठ उद्देश्य के कारण उन्होंने बत्तौर मुख्यमंत्री प्रदेश की झोली में ऐसी ऐतिहासिक उपलब्धियाँ डाली, जिसके बारे में पहले शायद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा । मध्यप्रदेश जैसे बडे राज्य की जनता ने लगातार दूसरी बार श्री चौहान को मुख्यमंत्री बनाकर उनके प्रति अपने विश्वास को पुष्ट किया है। किसान पुत्र शिवराज सिंह चौहान ने अपने सरल स्वभाव, निश्चल व्यवहार, कृतित्व और व्यक्तित्व का विकास कुशाभाऊ ठाकरे के नेतृत्व में किया। संगठन णें जो काम उन्हें सौंपा उसका पूरी तत्परता से निर्वाह किया। आज उनकी पहचान जनोन्मुखी, विकास कार्यक्रमों के प्रणेता के साथ ही गरीबोन्मुखी, किसान हितौषी, मेहनतकशों के चहेतो, युवकों के मार्गदशक के रूप में है। लोकतंत्र में लोक की चिंता करत् हुए जनता के हित में लिए गये निर्णय शिवराज सिंह को एक अलग पहचान दिलात् हैं। सुरसा की तरह मुह फैलाती महंगाई डाइन से बचाने की सोच रखत् हुए गरीबों को तीन रुपए किलो की दर से गेहूँ और चार रुपए की दर से चावल उपलब्ध कराने जैसे निर्णय हों या ग्रामीणों तथा गरीबों के जीवन स्तर में सुधार के लिए मुख्यमंत्री आवास योजना, गाँवगाँव तक सडकों का जाल बिछाने के लिए मुख्यमंत्री सडक योजना, गरीबों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार की बात हो । वास्तव में मुख्यमंत्री के रूप में लिये गये शिवराज सिंह के निर्णय और कार्य उन्हें आम आदमी से जोडत् हैं। इसीलिए कोई उन्हें भैया कहता है तो कोई मामा।

बत्तौर  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली इस प्रदेश सरकार की उपलब्धियों पर एक नजर डालें तो उन्होंने मुख्यमंत्री बनत्ो ही न केवल सूबे को स्वर्णिम प्रदेश बनाने का स्वप्न देखा, बल्कि उसे यथार्थ में उतारने के लिए एक के बाद एक अनेक योजनाएँ लागू कीं। जैसे विकास दर में अन्य राज्यों से आगे निकलने के लिए किये गए प्रयास, जिसके परिणाम स्वरूप प्रदेश की जीडीपी 8.60 प्रतिशत हुई।

आज प्रदेश में प्रतिव्यक्ति आय 11870 रुपए से बढ़कर 15929 रुपए हो गयी है। स्वयं के संसाधनों की बदौलत आमदनी में तीनगुना और बजट में ढाई गुना वृदि्ध, प्रदेश की आमदनी 6 हजार करोड से बढ़कर 18 हजार करोड रुपए , उद्योग की अनुकूल परिस्थितियाँ और सुह संरचना का विकास, ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट के माध्यम से देशविदेश के उद्योगपतियों का ध्यान आकर्षण, प्रदेश में 2 लाख 35 हजार करोड रुपए से ज्यादा के औद्योगिक निवेश का आना, आमखास की समस्याओं से रूबरू होती समाधान ऑनलाइन, प्रदेशवासियों को समय सीमा के अंदर सेवा देने वाला मप्र लोक सेवा गारंटी प्रदाय कानून लागू करना, तकनीकी शिक्षा के मुख्य केंद्र के रूप में तोजी से प्रदेश का हब बनने की दिशा में आगे बना, महिलाओं को घरेलू हिंसा से निजात दिलाने के लिए कानून का प्रभावी क्रियान्वयन, स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण, लाडली लक्ष्मी, कन्यादान योजना, निशुल्क गणवेश व साइकिल वितरण योजना, बालिका शिक्षा, आंगनबाडी केंद्रों में किशोरी बालिका दिवस, गांँव की बेटी योजना, बालिका भ्रूण हत्या रोकने के कानून का कडाई से पालन, आंगनबाडी कार्यकतार्ओं और सहायिकाओं की बडी संख्या में भतीर्, किसानों को एक प्रतिशत पर ब्याज की उपलब्धता, पं. दीनदयाल उपचार योजना, स्कूल चलें जैसे तमाम कार्यक्रम, शहरी क्षेत्र की गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवार की बालिकाओं की उच्चशिक्षा के लिए प्रतिभा किरण योजनाआदि ऐसी अनेक योजनाएँ इन पिछले पाँच सालों में बनीं हैं जिन्होंने सही अथोर्ं में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद को साकार रूप दिया है।

एक मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह चौहान ने सहीं अथोर्ं में जनता को भय और भूख से मुक्ति दिलाई है। वास्तव में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की भारतीय जनता पार्टी के लक्ष्य राष्टन्वाद की स्थापना के लिए पीठ थपथपाना चाहिए। वस्तुतः भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने उनपर भरोसा कर सुशासन और विकास के लिए उन्हें जो जिम्मेदारी सौंपी, उस पर वे खरे उतरे हैं। इतना तो तय है कि भारतीय जनता पार्टी अन्य राजनैतिक पार्टियों की तरह नहीं जहाँ नेतृत्व कार्यकतार्ओं के बीच से न होकर ऊपर से थोप दिया जाता है। भाजपा में आम कार्यकतार सिर्फ राज्यों का मुख्य कतार्धतार मुख्यमंत्री, प्रदेशाध्यक्ष ही नहीं बन सकता बल्कि देश के प्रधानमंत्री और अध्यक्ष के रूप में भी लीडरशिप संभाल सकता है।

महाराष्ट्र के किसान आत्महत्या करने में अब्बल

डाँ रमेश प्रसाद द्विवेदी

देश का 70 प्रतिशत किसान खेती पर निर्भर है, यदि शीघ्र ही किसानों की हालात न बदले तो भारत विश्व का ऐसा पहला कृषि प्रधान देश होगा जहाँ किसान नहीं होगे, क्योंकि सरकार की मोहिनी नीतियों के सदके उन्हें जीवन से बेहतर मौत हाथ लगने लगी है। किसान आत्महत्या के मामले मे महाराष्ट्र राज्य अब्बल एवं कर्नाटक दूसरे स्थान पर है। मध्यप्रदेश, छत्तीसग़ एवं आंध्रप्रदेश में मामूली ब़ोत्तरी है।

महात्मा गांधी के इस देश में हमारे जीने के लिए खाद्यान की व्यवस्था किसानों द्वारा होती है। एन सी आर बी की रिर्पोट के आधार पर ज्ञात हुआ है कि कर्ज चुकाने, गरीबी बैंक, बिजली कर वसूली आर्थिक तंगहाली के कारण लाखों किसानों ने अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुके है। सर्व विदित है कि जिस साल आत्महत्याओं के मामलों में वृद्धि हुई है उन सालों में किसान आन्दोलन कमजोर पड़ गया था जबकि 1980 के दशक में महाराष्ट्र में शेतकरी संगठन की अगुवाई में किसान आंदोलन मजबूत था। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के प्रतिवेदन में यह स्पष्ट है कि देश में हर साल किसानों द्वारा खुदखुशी करने के जितने भी मामले आए है, उनमें से 66 प्रतिशात मामले मध्यप्रदेश, छत्तीसग़, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं आध्रप्रदेश के रहे है। 12 वर्ष की अवधि में पांच बड़े राज्यों के हिस्से में करीब 1,22,823 आत्महत्याओं की जानकारी आई है। थंतउमते ेनपबपकम पद प्दकपंरू उंहदपजनकमेए जतमदके ंदक ेचंजपंस चंजजमतदे 2008 में अर्थशास्त्री प्रोफेसर के. नागराज द्वारा प्रस्तुत अध्ययन में कहा है कि 1997 से लेकर 2006 तक भारत में लगभग 166304 किसानों ने आत्महत्या की है। प्रायः यह देखने में आता है कि आत्महत्या करने वालों में पुरूषों की संख्या ज्यादा है और यही बात किसानों की आत्महत्या के मामले में भी लक्ष्य की जा सकती है लेकिन तब भी यह कहना अनुचित न होगा कि किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में पुरूषो की संख्या अपेक्षकृत अधिक थी। लेकिन 24 नवम्बर 2010 को प्राप्त जानकारी के आधार पर देश के सभी राज्यों को मिला कर यह आकड़ा 2 लाख के करीब पहुंचता है। 1 दिसम्बर 2010 को दैनिक लोकमत मराठी में प्रकाशित जानकारी के आधार पर उड़ीसा राज्य में गत 10 वर्षों में 2632 किसानों ने आत्महत्या की है लेकिन उड़ीसा राज्य सरकार ने विधान सभा में बयान किया है कि इन किसानों में से किसी किसान ने कृषि विषयक कारणों से कोई आत्महत्या नहीं की है। यह आत्महत्या कर्ज, अकाल, बा़ के कारण आत्महत्या हुई है।

वर्तमान में प्रत्येक व्यक्ति की जरूरते बड़े पैमाने पर ब़ रही है, इसलिए हर किसान अपने खेती मे पैसे वाली फसल जैसे सोयाबीन, कपास, गन्ना आदि फसलों का उत्पादन कर रहें है। अध्ययन के आधार पर ज्ञात हुआ है कि गत वर्षो से उत्पादन में कमी देखी जा रही है। खेत मे खड़ी फसल सोयाबीन, कपास से आमदनी तो दूर, कटाई का खर्च भी नही निकल पाता, इस वजह से किसान की जरूरते भी पूरी नही होती। यदि फसलों से किसान के पास जो भी थोडा पैसा आता है, तो वह सब उसके परिवार की जरूरते पूरी करने में खर्च हो जाता है। अगले साल के लिए उसके पास खेती बुआई के लिए भी पैसा नही होते। ऐसी कठिन समय में उसे मजबूर होकर, एक आशा बाँधकर बँक, साहूकारों, संबंधियों आदि से कर्ज लेना पडता है क्योंकि किसान के पास अन्य कोई दूसरा साधन नही होता। किसान कर्ज लेकर खेतो में बुआई तो कर देता है लेकिन असंतुलित मौसम, प्रकृतिक आपत्ति आदि के कारण फसल बराबर नही हो पाती, या होती भी नही है। इस कारणवश किसान कर्ज लौटा नही सकता और किसान द्वारा लिया गया कर्ज वापस नहीं कर पाता तों उस पर विविध प्रकार के दबाव आते है और फिर उसकी इन्तेहान की घडी आती है, वह रिश्तेदारो, साहूकारों के आगे हाथ फैलाता है, लेकिन उसे वहॉ भी निराशा ही हाथ आती है। अब किसान के सारे मार्ग बंद होने से उसके पास आत्महत्या के अलावा दूसरा कोई भी रास्ता नही होता। इस वजह से किसान आत्महत्या का प्रमाण दिनब-दिन ब़ रहा है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की जानकारी के अनुसार प्राप्त जानकारी के आधार पर वर्ष 2009 में महाराष्ट्र के किसानों की आत्महत्या के मामले में अब्बल रहा है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत अपराध रिकार्ड व्यूरो के आधार पर महाराष्ट्र में वर्ष 1997 से दिसम्बर 2010 तक 44272 किसानों ने आत्महत्या की है, जिसमें से वर्ष 2009 में 2872 किसानों ने आत्महत्या की है। राज्य में पिछले 10 वर्षो से लगातार फसल नुकसान होने के कारण किसान आत्महत्या कर रहे है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को संभागीय विभागीय आयुक्त द्वारा दी जानकारी के अनुसार पिश्चम विदर्भ के सबसे अधिक प्रभावित 6 जिलों में कुल 1004 किसानों ने आत्महत्या की। महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने 2005 में किसानों के लिए 1076 करोड़ रूपये का विशेष पैकेज की घोषणा की और 2006 में 3750 करोड़ रूपये की। प्रधान मंत्री राहत पेकेज की घोषणा एवं केन्द्रीय सरोर द्वारा केसानों की ऋण माफी घेषणाउ के बावजूद किसानों को कोई राहत नहीं मिली है। राज्य में 2007 से 08 के बीच 4000 किसानों ने आत्महत्या की है। आत्महत्या का कारण बैंक या कृषि सोसायटी से कर्ज की परेशानी बताई गई है। 2009 की रिपोर्ट के अनुसार कर्नाटक में 2282, आंध्रप्रदेश में 2414 किसानों ने आत्महत्या की है, जबकि 2008 में यह आंकड़ा 2105 रहा है।

उपरोक्त तालिका से प्रतीत होता है कि अमरावती में 1193, अकोला 635,यवतमाल में 1587, बुलडाना 945, वाशिम में 642 एवं वर्धा जिले में 501 किसानों ने आत्महत्या की है। अतः उक्त जिलों में 5503 किसानों ने आत्महत्या की है। इन किसानों में 2030 किसानों को पात्र, 3377 को अपात्र ठहराया गया है और 96 किसानों के मामलों की जांच पड़ताल चल रही है।

विविध प्रकार की रिर्पोटों के आधार पर ज्ञात हुआ कि विदर्भ में देश की तुलना में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे है, जिससे उनके परिवार के सदस्यों की परिस्थिति दयनीय होती जा रही है। कर्ज का बढ़ता  दबाव, बीटी कॉटन के प्रति झुकाव, शादीव्याह व त्यौहार, अल्प भूधारक किसान की बढती संख्या, सिचाई की व्यवस्था का अभाव, कृषि संबधी साधन सामग्री का अभाव इत्यादि समस्याओं के कारण की जानकारी मिली है। इसी करण आत्महत्या ग्रस्त किसानों की महिलाओं व बच्चों की मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, राजनैतिक, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, व्यवसाय, शादी आदि के संदर्भ में बुरा असर पड रहा है। समस्याओं से ग्रस्त परिवार की समस्याओं के निदान के लिए केन्द्र व राज्य सरकारें समसयसमय पर योजनाओं के माध्यम से कार्य कर रही है लेकिन इन योजनाओं के कि्रयान्वयन में मध्यस्थों द्वारा उनके अधिकारों को गवन करते हुऐ देखा जा रहा है। जिससे उन किसानों के परिवार के सामाजिक, आर्थिक स्थिति में बदलाव हेतु सुझाव निम्न हैः

समस्याओं का समाधान :

1. ण्सरकार की योजनाओं के तहत पॅकेज द्वारा सभी परिवारों को सहायता राशि प्रदान करने का प्रावधान किया जाना चाहिए।

2. ण्किसान आत्महत्या ग्रस्त परिवार के विधवा महिला कोई और नही होगी वह मह लागों की परिवार, सामाज एवं देश जन्मदात्री है, जिसे अलग नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए।

3.ण्विधवा महिलाओं की आर्थिक स्थिति की सहायता के लिए अगंनवाडी सेविका, किसान बचत समूह, महिला बचत समूहों से जुड़ने के लिए प्रवृत्त करने का प्रयास किया जाना चाहिए, ताकि उनका सामाजिक एवं आर्थिक स्तर में बदलाव आ सके।

4.ण्गांव के किसानों को खेती विषयक/कृषि विषयक प्रशिक्षण के माध्यम से किसानों का ज्ञान बाने का प्रयास किया जाना चाहिए।

5. ण्विधवा महिला के बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, विश्वास, मनोबल, नेतृत्व क्षमता विकास, पुर्नविवाह आदि के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

6. ण्दबंग एवं प्रभावशाली व्यक्तियों का बेवजह अतिक्रमण नहीं होना चाहिए।

7. ण्लोक सभा, विधान सभा एवं स्थानीय पदाधिकारियों को अपने कार्यक्षेत्र के समस्याग्रस्त परिवार के साथ राजनीति नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके अधिकारों को दिलाने में निरन्तर प्रयास करना चाहिए।

8. ण्परिवार के कम से कम एक सदस्य को शासकीय नौकरी दी जानी चाहिए, ताकि वह अपने परिवार के पालनपोषण के लिए कार्य कर सके।

9. ण्बच्चों की स्नातक तक की शिक्षा फ्री एवं शिक्षा के लिए गये कर्ज व्याज मुक्त होनी चाहिए।

10. ण्विधवा महिला के साहायता हेतु स्थानीय स्तर पर सरपंच, ग्रामसेवक, अंगनवाडी सेविका, पोलिस पाटील, शिक्षक आदि को समय समय पर सहयोग प्रदान करना चाहिए।