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क्या शांतिकाली जी महाराज, स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के बाद अब स्वामी असीमानंद की बारी है?

डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

पिछले कुछ समय से दक्षिण गुजरात के डांग जिले के वनवासी क्षेत्रों में सेवा कार्य कर रहे स्वामी असीमानंद भारत सरकार के निशाने पर हैं। चर्च किसी भी स्थिति में स्वामी असीमानंद को डांग से हटाना चाहता था क्योंकि इस वनवासी बहुल क्षेत्र में चर्च द्वारा चलायी जा रही अराष्ट्रीय और असामाजिक गतिविधियों का स्वामी जी विरोध कर रहे थे। सोनिया-कांग्रेस और वेटिकन सिटी में पिछले कुछ दशकों से जो साझेदारी पनपी है उससे यह आशंका गहरी होती जा रही थी कि अंततः भारत सरकार प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से चर्च की सहायता के लिए उतरेगी। यह आशंका तब सत्य सिध्द हुई जब भारत सरकार की केन्द्रीय जांच एजेंसियों ने देश में कुछ स्थानों पर इस्लामी आतंकवादियों द्वारा किए गए बम विस्फोटों में अचानक ही स्वामी असीमानंद जी को लपेटना शुरू कर दिया। जांच एजेंसियों ने तीर्थ क्षेत्र हरिद्वार से स्वामी असीमानंद को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें ज्ञात-अज्ञात स्थानों पर रखा और उन्हें तरह-तरह की शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी। किसी मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए उनके बयान को लीक करते हुए उसे विदेशी शक्तियों द्वारा संचालित मीडिया के एक खास गुट को मुहैया करवाया गया और उनके चरित्र हनन का प्रयास किया गया। भारत सरकार ने यह प्रचारित किया कि स्वामी असीमानंद आतंकवाद से जुडे हुए हैं और इस्लामी अल्पसंख्यकों के विरुध्द साजिश रच रहे हैं। सरकार का कहना था कि असीमानंद ने यह स्वीकार किया है कि संघ परिवार और कुछ हिन्दू आतंकवादी घटनाओं से जुड़े हुए हैं। जांच एजेंसियों ने स्वामी जी को शारीरिक यातनाएं देकर उनसे एक पत्र राष्ट्रपति के नाम भी लिखवाया जिसमें स्वामी जी ने विस्फोटों में कुछ हिंदुओं के हाथ होने की बात कही। यह अलग बात है कि जेल से राष्ट्रपति को लिखा गया यह पत्र राष्ट्रपति तक पहुंचने से पहले ही सरकारी योजना के चलते मीडिया तक पहुंच गया। सरकार ने असीमानंद पर बहुत दबाव डाला कि सरकारी गवाह बन जाएं और सरकार की रणनीति के अनुसार भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवाद से जोड़ने की मुहिम में हिस्सेदार बनें। लेकिन असीमानंद ने स्वयं को और बंगाल में अपने अन्य बंधु-बांधवों के जीवन को स्पष्ट दिखाई दे रहे खतरे के बावजूद यह कार्य करने से इनकार कर दिया। अलबत्ता, स्वामी जी ने कचहरी को यह जरूर बताया कि जांच एजेंसियां उन्हें असहनीय यातनाएं दे रही हैं और उनसे अपनी इच्छानुसार झूठे बयान भी दिलवा रही हैं और राष्ट्रपति को चिटि्ठयां भी लिखवा रही हैं। मुख्य प्रश्न यह है कि सोनिया, कांग्रेस और भारत सरकार स्वामी असीमानंद की पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी हैं? इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा। विदेशी मिशनरियां भारत के वनवासी क्षेत्रों में पिछले सौ सालों से भी ज्यादा समय से जनजातीय क्षेत्रों में लोगों के मतांतरण में लगी हुई हैं। इसके लिए इन मिशनरियों को विदेशी सरकारों से अरबों रूपयों की सहायता प्राप्त हो रही है। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों से राष्ट्रवादी शक्तियों और संघ परिवार के लोगों ने भी वनवासी क्षेत्रों में अनेक सेवा-प्रकल्प प्रारंभ किए हैं। जनजातीय क्षेत्र के लोग अब अपने इतिहास, विरासत और आस्थाओं के प्रति जागरुक ही नहीं हो रहे हैं बल्कि सेवा की आड़ में मिशनरियों द्वारा जनजातीय समाज की आस्थाओं पर किए जा रहे प्रहार का विरोध भी करने लगे हैं। पिछले दिनों एक आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेंस, जो लंबे अर्से से जनजातीय समाज के रीति-रिवाजों, उनकी आस्थाओं, विश्वासों, पूजा-स्थलों और देवी-देवताओं की खिल्ली उड़ा रहा था और उनके विरुध्द अपमानजनक भाषा का प्रयोग कर रहा था, को ओडिशा के जनजातीय समाज के लोगों ने मार दिया था। तथाकथित हत्यारों को फांसी देने की प्रार्थना को लेकर ओडिशा सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी सरकार की इस प्रार्थना को रद्द कर दिया और यह टिप्पणी की कि इस प्रकार की घटनाएं तीव्र प्रकार की घटनाए होती हैं। साधू-संतों ने भी अपने कर्तव्य को पहचानते हुए वनवासी क्षेत्र के जनजातीय समाज में कार्य प्रारंभ किया है। जाहिर है इससे चर्च का भारत में मतांतरण आंदोलन, खासकर जनजातीय क्षेत्रों में मंद पड़ता जा रहा है। चर्च को इससे निपटना है। लेकिन वह अपने बल पर यह काम नहीं कर सकता। इसलिए उसे सोनिया-कांग्रेस की सहायता की जरूरत है। सोनिया-कांग्रेस का वर्तमान संदर्भों में अर्थ भारत सरकार ही लिया जाना चाहिए।

 

चर्च ने अपने इस अभियान की शुरुआत सन 2000 में त्रिपुरा से की। त्रिपुरा के जनजातीय समाज में कार्य कर रहे स्वामी शांतिकाली जी महाराज की ‘नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा’ नामक ईसाई संगठन ने उनके आश्रम में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी। हत्या से पहले चर्च के आतंकवादियों ने उनसे हिंदू धर्म छोड़कर ईसाई बनने के लिए कहा। स्वामी जी के इनकार करने पर उन्हें गोली मार दी गयी। स्वामी जी कई वर्षों से त्रिपुरा के पहाड़ी क्षेत्रों में जनजातीय समाज में शिक्षा, संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। स्वामी जी के कामों के चलते चर्च भोले-भाले जनजातीय समाज के वनवासियों को यीशु की शरण में लाने में दिक्कत अनुभव करने लगा था। भारत में चर्च की चरागाहें मुख्य तौर पर यह जनजातीय समाज ही है। त्रिपुरा में शांतिकाली जी महाराज इसी चरागाह में विदेशी मिशनरियों के प्रवेश को रोक रहे थे। चर्च ने अंत में उसी हथियार का इस्तेमाल किया जिससे वह आज तक दुनिया भर मे ंचर्च के मत से असहमत होने वालों को सबक सिखाता रहा है। स्वामी जी की हत्या कर दी गयी। स्वाभाविक ही हत्या से पहले जिस प्रकार की योजना बनायी गयी होगी, उसी के अनुरुप हत्यारों का बाल-बांका नहीं हुआ। सरकार हत्यारों को पकड़ने के बजाय जनजातीय समाज को यह समझाने का अप्रत्यक्ष प्रयास करती नजर आयी कि ऐसा काम ही क्यों किया जाए जिससे चर्च नाराज होता है। चर्च को आशा थी कि शांतिकाली जी महाराज की निर्मम हत्या से देश के साधु-संताें और राष्ट्रवादी शक्तियां सबक सीख लेंगी और विदेशी मिशनरियों को राष्ट्रविरोधी कृत्यों और मतांतरण अभियान का विरोध करना बंद कर देंगी। परंतु ऐसा नहीं हुआ। जनजातीय क्षेत्रों में विशेषकर ओडिशा के जनजातिय क्षेत्र कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती वही कार्य कर रहे थे जो त्रिपुरा के जनजातीय क्षेत्र में स्वामी शांतिकाली जी महाराज कर रहे थे। त्रिपुरा के स्वामी जी की निर्मम हत्या का समाचार कंधमाल में पहुंचा ही। चर्च बड़े धैर्य से प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही थी। लेकिन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के आश्रम में इस हत्या से भय का वातावरण नहीं था बल्कि चर्च के इस अमानवीय कृत्य को लेकर उसकी भूमिका के प्रति दया और क्रोध का मिलाजुला भाव था। स्वामी शांतिकाली जी महाराज की हत्या से जनजातीय समाज के आगे चर्च का असली वीभत्स चेहरा एक झटके से उजागर हो गया। चर्च को सबसे बड़ी हैरानी तब हुई जब इस चेतावनी नुमा हत्या के बाद भी अपने समस्त भौतिक सुखों को त्यागते हुए पश्चिमी बंगाल के नभ कुमार ने सांसारिक जीवन को अलविदा कहते हुए स्वामी असीमानंद के नाम से गुजरात के डांग क्षेत्र के जनजातीय समाज में कार्य करने के लिए प्रवेश किया। डांग एक लम्बे अरसे से ईसाई मिशनरियों की शिकारगाह रहा है और झूठ, छल, फरेब और धोखे से चर्च वहां के जनजातीय समाज को भ्रमित कर इसाई मजहब में दीक्षित कर रहा है। उधर ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के प्रयासों से चर्च के षड्यंत्र अनावृत हो रहे थे। जनजातीय समाज के जाली प्रमाण-पत्र बनाने में चर्च की भूमिका उजागर हो रही थी। यहां तक की सोनिया-कांग्रेस के एक प्रमुख सांसद चर्च की इस जालसाजी में प्रमुख भूमिका अदा कर रहे थे। इस बार में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती से निपटने के लिए चर्च ने काफी अरसा पहले ही पुख्ता रणनीति तैयार की। योजना यह थी कि जैसे ही सरस्वती जी की हत्या की जाए उसके तुरंत बाद मीडिया की सहायता से राष्ट्रवादी शक्तियों और संघ परिवार पर कंधमाल में ईसाईयों को तंग करने और विस्थापित करने के आरोप मीडिया की सहायता जड़ दिए जाएं। यह ‘चोर मचाए शोर’ वाली स्थिति थी। इस योजना के अनुरुप ही अगस्त 2008 में जन्माष्टमी के दिन स्वामी शांतिकाली जी महाराज की हत्या की तर्ज पर ही आश्रम में घुसकर लक्ष्मणानंद सरस्वती को केवल गोलियों से ही नहीं मारा बल्कि कुल्हाड़ी से उनकी लाश के टुकडे भी किए गए। जनजातीय समाज का चर्च के प्रति गुस्सा पूर उफान पर था। परन्तु चर्च पहले ही अपनी योजना के अनुसार आक्रामक मुद्रा में आ चुका था। स्वामी जी की हत्या की औपचारिक तौर पर निंदा करने के बजाय ”क्रिश्चियन कौन्सिल” के अध्यक्ष जॉन दयाल ने कहना शुरु कर दिया की उन्हें तो बहुत पहले ही जेल में डाल देना चाहिए था। इधर चर्च ने शोर मचाया की राष्ट्रवादी शक्तियां और संघ परिवार के लोग अल्पसंख्यक ईसाइयों पर अत्याचार कर रहे हैं, उधर भारत सरकार से लेकर यूरोपीय संघ तक कंधमाल में जांच के नाम पर संघ परिवार को बदनाम करने के काम में जुट गई। लक्ष्मणानंद सरस्वती के असली हत्यारों को पकड़ने की बजाय सरकार ने कंधमाल के जनजातीय समाज के लोगों को पकड़कर जेल में डालना शुरू कर दिया। स्थिति यहां तक बिगड़ गयी कि कुछ लोगों को न्यायालय में यह याचिका देनी पड़ी कि सरकार जानबूझकर गलत दिशा में और गलत प्रकार से जांच कर रही है ताकि स्वामी जी के असली हत्यारे छूट जाएं। चर्च सीना तानकर भारतीय समाज को चुनौती दे रहा था-त्रिपुरा में स्वामी शांतिकाली जी महाराज और ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बावजूद कोई हमारा बाल-बांका नहीं कर पाया। सोनिया कांग्रेस अब नंगे-चिट्टे रूप में ही चर्च के साथ आ खड़ी हुई थी। स्वामियों के हत्यारों को पकड़ने की मांग करने के बजाय वह राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी सिध्द करने में जुटी हुई थी। लेकिन दक्षिण गुजरात को जनजातीय क्षेत्र डांग चर्च की इन धमकियों के बावजूद भयभीत नहीं हुआ था। स्वामी शांतिकाली जी महाराज और स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के पीछे छिपी हुई शासकीय और अशासकीय शक्तियों को डांग में अपने आश्रम में स्वामी असीमानंद स्पष्ट ही देख रहे थे और इन हत्याओं के माध्यम से दी गई चेतावनी को देश का जनजातीय समाज भी समझ रहा था और स्वामी असीमानंद भी। लेकिन स्वामी असीमानंद ने चर्च की इन परोक्ष धमकियों के आगे झुकने से इनकार कर दिया। डांग में स्वामी असीमानंद के कार्यों की गूंज वेटिकन तक सुनायी देने लगी। फरवरी, 2006 में स्वामी असीमानंद जी ने डांग में जिस शबरी कुंभ का आयोजन किया था, वह ईसाई मिशनरियों और विदेशों में स्थिति उनके आकाओं के लिए एक खतरे की घंटी थी। शबरी कुंभ में देश भर से जनजातीय समाज के 8 लाख से भी ज्यादा वनवासी एकत्रित हुए थे। भील जाति की शबरी ने त्रेतायुग में दक्षिण गुजरात के इस मार्ग से गुजरते हुए श्री रामचंद्र को अपने जूठे बेर प्रेमभाव से खिलाए थे। सबरी माता का उस स्थान पर बना हुआ मंदिर सारे जनजातीय समाज के लिए एक तीर्थ स्थल के समान है। शबरी कुंभ जनजातीय समाज में सांस्कृतिक चेतना के एक नए युग की ओर संकेत कर रहा था। चर्च बौखलाया हुआ था। सोनिया-कांग्रेस से लेकर वेटिकन तक सब चिल्ला रहे थे। भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को कटघरे में खड़ा करने के प्रयास हो रहे थे। लेकिन स्वामी असीमानदं अविचलित थे। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या हो चुकी थी। चर्च इस प्रतीक्षा में था कि असीमानंद स्वयं ही डांग छोड़कर चले जाएंगे और वहां क ा जनजातीय समाज एकबार फिर उसकी शिकारगाह बन जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

 

इस बार असीमानंद की हत्या करना शायद चर्च के लिए इतना सहज व सरल नहीं रहा था। कंधमाल में जनजातीय समाज की प्रतिक्रिया को देखते हुए चर्च सावधान हो चुका था। इसलिए असीमानंद को ठिकाने लगाने के लिए नए हथियार का इस्तेमाल किया गया और उन्हें सोनिया-कांग्रेस के इशारे पर केन्द्रीय जांच एजेंसियों ने एक दिन अचानक गिरफ्तार करके चर्च का अप्रत्यक्ष रूप से रास्ता साफ कर दिया। स्वामी असीमानंद को जांच एजेंसियां तरह-तरह से यातना दे ही रही हैं लेकिन फिर भी वे विचलित नहीं हुए। उन्होंने न्यायालय में निर्भीक होकर कहा कि जांच एजेंसियां धमकियों और यातनाओं मेरे मुंह में शब्द ठूंस रही हैं। लेकिन वे किसी भी स्थिति में मेरे शब्द न समझे जाएं। चर्च स्वामी असीमानंद को किसी भी हालत में डांग के जनजातीय समाज में जाने नहीं देगा और जाहिर है स्वामी जी अपने संकल्प से पीछे नहीं हटेंगे। जनजातीय क्षेत्र के लोगों को इस बात की आशंका होने लगी है कि कहीं स्वामी असीमानंद की भी स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की तरह ही हत्या न कर दी जाए। हवालात में कैदी की हत्या कैसे की जाती है-इसको सोनिया कांग्रेस की इशारे पर जांच कर रही एजेंसियों से बेहतर कौन जानता है? क्या स्वामी असीमानंद को भी स्वामी शांतिकाली जी महाराज और स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के रास्ते पर धकेल दिया जाएगा?

ये जो अदृश्य है

प्रमोद भार्गव

ऊं भूर्भव: तत्सवितुवरेण्यं भर्गोदेवस्य…

”ओह ! माँ का फिर फोन…” बकुल गुड़गाँव जाने के लिए तैयार होते हुए चहकी। माँ की तीन साल से बरकरार वही चिरंतन चिंता…, ‘उम्र फिसल रही है। पीयूष यदि पसंद है तो उसकी रजामंदी लेकर अंतिम फैसला ले…। अन्यथा वे कहीं और लड़का देखें। साथ ही वे अपनी चिंता के स्थायी भाव की तरह हिदायत देती हैं, लड़के से एकांत में नहीं मिलना। निश्चित दूरी बनाए रखना। महिला को अकेली पाकर पुरूष पर कब हैवानियत हॉवी हो जाए, कहा नहीं जा सकता।’

माँ चूंकि कॉलेज में हिन्दी साहित्य की प्रोफेसर हैं इसलिए दकियानूसी तो हैं नहीं। लेकिन कामकाजी महिला होने के नाते हो सकता है उनका वास्ता किसी परिचित पुरूष के हैवानियत में तबदील हो जाने की स्थिति से पड़ा हो और वे शरीरजन्य अदृश्य हैवानियत क्या होती है इससे रूबरू हुई हों ? हालांकि माँ खुद ऐसे लोकोपवादों का हिस्सा रहीं, जो स्त्री की सामाजिक मान-मर्यादा के विरूध्द हैं। माँ की इसी उच्छृंखलता और मजबूत आर्थिक स्वावलंबन के कारण माँ के पारिवारिक रिस्ते गौण होते चले गए थे। बताते है माँ की बेवफाई इतनी बढ गई थी की उनकी कुछ जरूरतें पिता से पूरी होती तो कुछ माँ के चहेते विश्व विद्यालय के डीन डॉ. हरिमोहन मिश्रा से। माँ के इस दंभ का परिणाम भुगता बेचारे उन पिता ने जो अपनी सादा जीवन शैली और गरीबों के प्रति उदार प्रवृत्तिा के चलते अपने वकालात के पेशे से कमोबेश कम अर्थ-अर्जन कर पाते थे। माँ के इसी उपेक्षित बर्ताव के कारण पिता काहिल, शराबी और एकांगी होते चले गए। बावजूद माँ-बेटी के प्रति शंकित रहती हैं कि उसके कदम कहीं बहक न जाएँ। सेक्स जो भोग का अंदरूनी मामला है उसे सवयंवर-वेदी पर सात फेरे लेने के उपरांत ही भोगा-परखा जाए। अवचेतन में बैठी रूढ़ परंपराओं में यौन भूमिकाएँ यहीं से शुरू हों, यही समाजिक नैतिक तकाजा है। माँ के वार्तालाप में इस संदेश का प्रच्छन्न बोध, भय, चेतावनी रहती है। ओह ! माँ जब अनुशासित रहने की हिदायतें देती हैं तब उनकी ध्यान में अनायास ही नकारात्मक छवि उतरती चली आती है। जबकि माँ को स्त्री होने के नाते समझना चाहिए कौमार्य तो फल की वह गुठली है जिसे चटकना ही है। बस थोड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है, जिसके तकनीकी उपाय बाजार में सहज सुलभ हैं।

पीयूष, एक हाई क्वालीफाई बहुराष्ट्रीय कंपनी में ऊँचे स्टेट्स और सालाना बारह लाख के पैकेज पर काम करने वाले युवक से बकुल की पहचान पुरानी नहीं है। बमुशिकल चार-पाँच दिन पहले ही से अपने दायित्व-निर्वहन के सिलसिले में उनकी मुलाकातों का क्रम शुरू हुआ। फिर उनमें परस्पर ऐसा आक्रर्षण जागा कि उनके लिए बीता हुआ कल आज की स्मृति और आने वाला कल आज का स्वप्न लगने लगा।

दरअसल, पीयूष गुड़गाँव में माइंड स्पेस कॉम्पलेक्स में स्थित जिस यूनिवर्स सॉफ्टवेयर कंपनी में सॉफ्वेयर इंजीनियर है, उस दफ्तर में कुछ दिनों से अजीब किस्म की हैरत में डालने वाली परेशानियाँ सामने आ रही हैं। उन्हें आरंभिक दौर में अतीन्द्रीय शक्तियों की शैतानी हरकत भी समझा गया। प्रबंधकों ने प्रेतात्माओं की शांति हेतु जानकारों से शांति के कर्मकांडी उपाय भी कराए। लेकिन सुफल नहीं मिले।

पीयूष के करपोरेट दफ्तर में दरअसल होता यह है कि कंप्युटर ऑन करने के एक घण्टे के भीतर की-बोर्ड से दी जाने वाली कमांड नामंजूर की जाने लगती है। ए.सी. बैठने लगता है। जो लेपटॉप फ्लेट व कार में ठीक काम करता है वही दफ्तर में काम बंद करने लग जाता है। बहरहाल पूरा दफ्तर इस अदृश्य शैतानी समस्या से जूझ रहा है। प्रबंधन ने वास्तुशास्त्री द्वारा सुझाए उपायों का भी बिल्ंडिग में तोड़-फोड़ कराकर निवरण कराया। पर नतीजा वही ढांक के तीन पात !

फिर पीयूष ने कैम-टू-कैम ऑन लाइन होते हुए बताया था, वह आजकल हिन्दी की एक फीचर एजेंसी की वेबसाइट बनाने में लगा है। कंपनी ने दो सप्ताह के भीतर वेबसाइट अपडेट कर ऑन लाइन करने का अनुबंध किया हुआ है। लेकिन अनायास पैदा हो जाने वाली इन अनहोनी घटनाओं ने ऐसी विषम स्थिति उत्पन्न कर दी है कि समय पर काम पूरा न हो पाने के कारण पार्टी के समक्ष शर्मिंदा भी होना पड़ा। किंतु अच्छी बात यह रही कि एजेंसी के मालिक-संपादक चिन्मय मिश्र को वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो वे विलंब के लिए नाराजी जताने की बजाय, उसमें दिलचस्पी लेने लग गए। दरअसल मिश्र एजेंसी के संपादक होने के साथ प्रतिष्ठित विज्ञान व गल्प कथा लेखक भी हैं। उनकी रचनाएँ देश भर के हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में नियमित छपती रहती हैं। मिश्र ने ही पीयूष को दृढ़ विश्वास से बताया था कि मामला प्रेत-बाधा अथवा वास्तुदोष कतई नहीं है। इसलिए किसी अंध विश्वास में पड़ने की जरूरत नहीं है। मिश्र ने ही क्लू दिया था कि यह रासायनिक गैसों से जुड़ा मामला है। जो अदृश्य रूप में कहीं से रिस कर इलेक्ट्रोनिक उपकरणों पर हमला बोल, उन्हें निष्क्रिय बना रही हैं। इसलिए समस्या के समाधान के लिए किसी रासायनिक इंजीनियर से ट्रीटमेंट कराओ।

पीयूष ने कैम-टू-कैम संवाद संप्रेषण में अपनी मूढ़ता पर हंसते हुए बताया था, ‘कि एक कामयाब सॉफ्टवेयर इंजीनियर रहते हुए उसने तो पहले यह सोचा ही नहीं था कि कोई ऐसी अदृश्य गैसें भी होती हैं जो कंप्युटर जैसे उपकरणों को बेजान कर सकती हैं।’ खनकती ध्वनि तरंगों में बिंधे पीयुष के स्वर और भाषाई उच्चारण बकुल को अनायास ही भा गए थे।

तब ‘नेशनल सॉलिड वेस्ट कंपनी से संपर्क साधा गया। कंपनी ने इस आश्चर्य जनक मामले के शोध व निराकरण का दायित्व केमिकल इंजीनियर कु. बकुल चतुर्वेदी पर डाल दिया।

तब चार दिन पहले पर्सनेलिटी वर्किंग वूमेन की स्मार्टनेश लिए बकुल मेट्रो रेल से द्वारका के लिए निकली थी। मेट्रो के द्वारका स्टेशन पर खुद पीयूष उसे लेने आए थे। चूंकि वे कैम-टू-कैम बातचीत में एक-दूसरे से मुखातिब हे चूके थे, इसलिए उन्हें एक-दूसरे को पहचानने में दिक्कत नहीं हुई। बकुल ने अभिवादन स्वरूप जब पीयूष से हाथ मिलाया तो अनुभव किया कि वह उसकी देह के गठन और नयनाभिराम सौंदर्य को ग्रहण करते हुए निहार रहा है। स्त्री के खिले सौंदर्य के साथ यह बर्ताव लाजिमी भी है, वरना सुंदर स्त्री के सम्मान को अंदरूनी ठेस न लगेगी ?

बकुल ने स्टेशन की सीढ़ियाँ उतरते वक्त पीयूष के बराबर चलते हुए अनुमान लगाया कि उसकी पाँच फीट छह इंच की ऊँचाई की तुलना में इस सुदर्शन युवक पीयूष की ऊँचाई पाँच फीट ग्यारह इंच के करीब तो होगी ही। फिर उसके मन में एक फंतासी जगी, ‘काश…जोड़ी जम जाए तो फबेगी खूब ।’

अगले पल वे पीयूष की मारूति स्विफ्ट में थे। बकुल विंड स्क्रीन के बीचों बीच लगे काँच में अपना प्रतिबिंब निहारते हुए सफर में अनायास छितरा गए श्रृंगार को संवारने लग गई। तत्पश्चात वस्त्रों की सलवटों को दुरूस्त करने के लिए उसने वक्षस्थल को उभारते हुए टॉप इतना नीचे खींचा कि छातियों का कसा हुआ उभार और उन्नत हो गया। वह सामान्य हुई। कार गुड़गाँव के मुख्य मार्ग पर गति पकड़ रही थी।

-” आपने बीई कहाँ से की है ?” पीयूष ने जिज्ञासावश पूछा।

-” गवरमेंट इंजीनियररिंग कॉलेज, ग्वालियर से बायो केमिस्ट्री एण्ड केमिकल साइंस में बीई की है। और आपने ?”

-” मैंने आई.आई.टी. कानपुर से इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी एण्ड कंप्यूटर साइंस में बीई और सॉफ्टवेयर में एमटेक…। कितना अच्छा संयोग है कि आप ग्वालियर की हैं और मैं शिवपुरी का…। चंबल के कुख्यात डकैतों के लिए बदनाम इलाका !” दोनों एक साथ ठिलठिला कर उन्मुक्तता से हंसे। जैसे पूर्व परिचित हों।

-” ओह ! याद आया…, आप शायद आई.आई.टी. की मेरिट में थे…। आपका सचित्र समाचार मैंने अखबार में पढ़ा था। शायद आपने आईर्.आई.टी. एण्ट्रेंस कॉम्पटीशन नाइंटी सिक्स में क्वालीफाई किया है ?” आत्मविश्वास से लबरेज बकुल चहकी।

-” यस…! कम्पलीटली परफेक्ट…! आपकी स्मरण शक्ति लाजवाब है। क्या कोई केमिकल ट्रीटमेंट लेती हो जो मेमोरी इतनी शार्प बनी हुई है ?”

-” स्मृति अथवा चेतना का दिमाग में कोई एक तय केंद्रीय बिन्दु नहीं है। बल्कि वह दिमाग की संयुक्त क्रिया का प्रतिफल होती है। इसलिए इसका न तो केमिकल ट्रीटमेंट संभव है और न ही औषधीय प्रयोग से इसे बढ़ाया जा सकता। यह सब जन्मजात है। कुदरती है।”

-” ठीक कहा बकुल ! मानव शरीर में ही नहीं ब्रह्माण्ड के भी आंतरिक रहस्य इतने जटिल और अनंत हैं कि समस्त रहस्यों को वैज्ञानिक शोधों व तकनीकों से जानना असंभव ही है। विज्ञान केवल बाहरी दुनिया की पड़ताल कर सकता है। बल्कि इन अनुसंधानों में लगातार लगे रहकर कहो ग्लोबल वार्मिंग ही इतनी बढ़ जाए कि पृथ्वी को प्रलय ही लील ले…।”

-” इसीलिए तो हमारे मनीषियों ने प्रकृति व मनुष्य की अंदरूनी दुनिया को अध्यात्म और बाहरी दुनिया को विज्ञान से जोड़कर देखा…।”

-” लो…, प्रकृति और विज्ञान की बातें करते-करते कितनी जल्दी ऑफिस आ गए। लगता है हमारे वैचारिक तलों में कहीं तालमेल है, इसलिए पहचान दोस्ती में बदल सकती है…?” पीयूष ने आलीशान बिल्ंडिग के तलघर में कार पार्क करते हुए सवाल उछाला।

-” क्यों नहीं…। इसीलिए तो हम आधे घण्टे की मुलाकात में इतना में घुल मिल गए। वरना मुझे तो अनजान लोगों से खुलने में संकोच होता है। हमारी क्षेत्रीय पहचान ने भी आंतरिक निकटता बढ़ाने का काम किया है।”

-” क्षेत्र, भाषा और जाति परस्पर जल्दी निकटता बढ़ाने का काम करते हैं।”

कार से उतरने के बाद पीयूष ने रिमोट से गाड़ी लॉक की। फिर निसंकोच बकुल की हथेली अपनी हथेली में ली और उसे लगभग खींचता सा चौदह मंजिला भवन के आधार तल पर ही स्थित यूनिवर्स सॉफ्टवेयर कंपनी के दफ्तर में ले आया। पीयूष ने कक्ष में प्रवेश के साथ ही कंप्यूटर सिस्टम और ए.सी. खोल दिए। बकुल देख रही थी पीयूष तत्परता से काम में जुट गया था। उसने शब्दिता संवाद सेवा फीचर एजेंसी की फाइल खोली और बकुल को सर्वथा नजर अंदाज कर प्रोजेक्ट के काम को आगे बढ़ाने में लग गया। बकुल को पीयूष की अंगुलियों की चपलता और स्क्रीन पर एकाग्रता, कहीं भीतर तक प्रभावित कर रही थीं। शायद प्रतिभा और परिश्रम का यही समन्वय रहा है, जो वे प्रावीण्य सूचियों में अपना नाम दर्ज कराते रहे हैं।

बकुल ने गूगल की साइट खोल कुछ सूत्र वाक्य टंकित किए और प्रतीक्षा करने लगी कि इस तरह से कंप्यूटर में व्यवधान आ जाने के सिलसिले में गूगल का सर्च इंजन क्या खोजकर देता है।

कुछ ही देर में इंटरनेट के मायालोक में समाए ज्ञानवर्ध्दक सूचनाओं के पृष्ठ स्क्रीन पर उभरने लगे। बकुल ने सरसरी निगाह से पृष्ठों की पड़ताल आरंभ की…। अब तक जो कारण दर्शाये गए थे, वे कंप्यूटर के हार्डवेयर और नाजुक कल-पुर्जों की गड़बड़ी से जुड़े थे। जिनकी गंभीर समझ उसे नहीं थी। जब पृष्ठों के अवतरण का क्रम अनवरत रहा तो उसने फाइल की पृष्ठ संख्या देखी…, ‘दो हजार एक सौ नौ…।’

-” ओह माय गॉड !” हताशा से बौखलाई बकुल ने माउस पेड पर जोर से पटका। विचलित मनस्थिति में बकुल अनायास ही ऑंखें मँद रिवाल्ंविग कुर्सी की पीठिका पर चित्ता अवस्था में पसरती चली गई। पीयूष की एकाग्रता भंग हुई। उसने बकुल को निहारा…, उसके उन्नत उभारों से टॉप की व्ही शेप के बंध जैसे टूटने को हैं। कमर में कसी जींस और टॉप के बीच के नाभि प्रदेश की मृषण मांसल देह की कांति जैसे असंयमित भोग का आमंत्रण हो…। एक अनंग उत्तोजना में सनसनाई मानसिकता जैसे पीयूष को विवश कर रही थी कि निर्द्वंद्व पसरी चित्ता देह पर वह पट्ट पसर जाए…।

अंगड़ाई लेती बकुल ने ऑंखें खोलीं। पीयूष को कमनीय कातरता से ताड़ते पाया। उसने अनुभव किया कि अपनी लापरवाही से वह जिस शारीरिक स्थिति में पहुँच गई थी, उसमें किसी भी युवा का उन अपारदर्शी हिस्सों में झांकना नैसर्गिक है, जिनमें पुरूष को बहका देने के रहस्य प्रच्छन्न हैं। ऐसे में उन्हें अनावृत्ता कर मनमानी करने के लिए किसी का भी चंचल मन मचल सकता है। शायद स्त्री-पुरूष के सह कामकाज के बीच कुछ ही ऐसी ही परिस्थिति होती हैं कि वे उन्हें एक दूसरे के करीब लाने का माहौल अनजाने में ही रच देती हैं।

-” सॉरी पीयूष…। काम का भारी दबाव मुझे व्यथित कर देता है।” वह लजाते हुए सामान्य हुई।

-” लगता है काम की थकान से आप ऊब गईं…। मैं ताजगी के लिए कॉफी मंगाता हूँ…।”

पीयूष ने कॉफी का आदेश दिया ही था कि उसके मोबाइल पर मंत्र जाप शुरू हुआ। ‘ नमस्य शिवाय…,  नमस्य शिवाय…!’

-” ओह ! भोपाल से चिन्मय मिश्र हैं…।” फिर कॉफी के घूँट सुड़कने के साथ उसने मोबाइल ऑन कर कान से सटाया, ”नमस्ते सर !”

-” नमस्ते…, नमस्ते…! समस्या का कोई हल निकला ?”

-” फिलहाल तो नहीं सर…, लेकिन हम युध्दस्तर पर जुटे हैं। केमिकल ट्रीटमेंट के लिए इंजीनियर बकुल चतुर्वेदी को लगाया हुआ है। वे मेरे साथ ही दफ्तर में समस्या के समाधान में जुटी हैैंं…।”

-” बहुत खूब ! अच्छा मुझे याद आ रहा है, ठीक इसी समस्या पर दो साल पहले मैंने एक लेख लिखा था, जो ‘स्त्रोत’ फीचर से जारी होकर तमाम पत्र-पत्रिकाओं मे छपा था। स्त्रोत एक ऐसी फीचर एजेंसी है जो हिन्दी विज्ञान लेखन को बढ़ावा देते हुए वैज्ञानिक जानकारी फैलाने का उल्लेखनीय काम कर रही है। मेरे पर्सनल कंप्यूटर से वह लेख डीलिट हो गया है। मैं स्त्रोत बुलेटिन की प्रति खोज रहा हूँ…, जैसे ही मिलती है, मेल करता हँ। तुम्हारी समस्या के समाधान का फॉर्मूला भी उसमें अवश्य मिलेगा।”

-” जल्दी भिजवाइए सर…, ऐसा होता है तो हम आपके शुक्रगुजार रहेंगे।”

-” ठीक है।” वार्तालाप समाप्त हो गाया।

दोनों ने कॉफी पीना शुरू की ही थी कि कंप्यूटर और ए.सी. जवाब देने लग गए। बकुल कुछ सोच-समझ पाती इससे पहले किसी जल-भँवर की तरह स्क्रीन पर उभर रही रोशनी गुल हो गई।

उसने तुरंत साथ लाए बैग से बॉक्स निकाला। जिसमें विभिन्न रासायनिक घोलों से भरी डिब्बियां थीं। सी.पी.ओ. का चेम्बर खोलने के बाद सावधानीपूर्वक बकुल ने चाँदी, पीतल, ताँबे और एल्युमीनियम के नाजुक पुर्जों को निकालकर डिब्बियों में बंद कर दिया। करीब तीस मिनट में वह फारिग हुई। बोली, ‘आज का काम पूरा हुआ। टुडे वर्क इज फिनिश।”

-” क्या जिन्न बोतल में बंद हो गया।” मदारियों सी कार्यप्रणाली देख पीयूष ने चुटकी ली।

-” हाँ…, जिन्न, प्रेत, भूत, भय, हॉरर, हवा जो भी हो…, अदृश्य गैसों के रूप में हैं तो केमिकल ट्रीटमेंट में हकीकत सामने आ जाएगी।

-” इन गैसों को हम देख सकते हैं बकुल ?”

-” नहीं। गैसों को देखा नहीं जा सकता। यह प्रकृति की अंदरूनी दुनिया है। इसका केवल आभास किया जा सकता है। हम ज्यादातर दुनिया को अपनी संवेदनाओं से ही जानते हैं। ऐसे कई तत्व हैं जिन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से पहचान नहीं सकते। गैसों के अलावा तमाम सूक्ष्म जीवों और तरंगों को भी हम कहां पहचान पाते हैं ? संगीत की लय को भी हम कहां देख पाते हैं, किन्तु लय को सुनने वाले कान हमारे पास हैं। वह आवाज भी हम कहां देख पाते हैं, जो लय को प्रतिध्वनित करती है। बावजूद इनके वजूद हैं और हम इन्हें स्वीकारते भी हैं। और मानवीय संवेदना, ह्यूमन सेंसेविटी…, ”बकुल ने बेहिचक आवेगपूर्वक पीयूष की हथेली फैलाई और उस पर गोल-गोल अंगुली घुमाते हुए फिर बोली, ” इसे भी हम छूकर महसूस करते हैं…। समझे…?” हसीन शरारत करते हुए बकुल मुस्कराई। पीयूष उसकी अल्हड़ता से सकपका कर रह गया।

-” गैसों के चित्र बनाए जाने संभव हैं…? ”मासूम बने रहते हुए पीयूष ने जिज्ञासा जताई।

-” इनके चित्र तो बस धुएँ की कल्पना की तरह हैं। वह तो दिमाग ही है, जिसमें परिकल्पनाएं छवियाँ उभारती रहती हैं। कंप्यूटर व मोबाइल तकनीक आज सर्वव्यापी है फिर भी हम सॉफ्टवेयर की बुध्दि और वेब फंक्शन की सजीव कल्पना का चित्रण कहां कर पाते हैं ?”

-”………..” पीयूष निरूत्तार व हतप्रभ था।

-” भौतिक विज्ञान के इन वजूदों का आभास तो किया ही जाता है, इन्हें आभासी हकीकत के आयाम से जोड़कर मनुष्य के लिए ये उपयोगी भी साबित हो जाते हैं। जैसे रेडियो, टीवी, वायरलैस, मोबाइल, नेट।”

-” तब क्यों हम भूत-प्रेत एंद्रिक व अलौकिक शक्तियों के फेर में भ्रमित होते रहते हैं ?”

-” मैं कोई विज्ञान और परा-मनोवैज्ञानिक शक्तियों की विशेषज्ञ थोड़ी ही हूँ, जो हर सवाल का तार्किक जवाब दे सकूँ। वह तो मैं अपने सब्जेक्ट के इतर धर्म, साहित्य व संस्कृति विषयक पुस्तकें खाली वक्त में पढ़ती रहती हूँ इसलिए नॉलेज में अपडेट बनी रहती हँ। फिर भी मेरी जानकारी के मुताबिक बताती हँ…।”

अपनी दिमाग-तंत्रिकाओं पर जोर डालने के बाद बकुल शुरू हुई, ”आज दुनिया की संपूर्ण मानव जाति के समक्ष विरोधाभासी संकट यह है कि विज्ञान सम्मत शिक्षा हासिल करने के बावजूद उसकी आस्थाएँ तो अध्यात्म में हैं लेकिन वह जीना भौतिकता में चाहता है। इसी कारण वह अवचेतन में बैठी जन्मजात संस्कारों की जड़ता और सामाजिक वर्जनाओं को नहीं तोड़ पा रहा है। भूत, प्रेत, फरिश्ते आत्माएँ, अप्सराएँ, देवी, देवता विज्ञान की कसौटी पर खरे भले ही न उतरते हों, लेकिन मनुष्य उनके अस्तित्व को सदियों से मंजूर करता चला आ रहा है। इसलिए यही स्वीकारोक्ति हमें अंधविश्वास की अज्ञानता से छुटकारा नहीं लेने देती…”

बकुल थोड़ा रूककर बोली, ”लिहाजा आज भी हम गणेशजी के दूध पीने, समुद्री जल मीठा हो जाने, मूर्तियों के रंग बदलने, दीवारों व पेड़ों पर दैवीय आकृतियां उभरने, अमरावती में अलौकिक प्रकाश से साध्वी के भस्मीभूत हो जाने जैसी घटनाओं के वास्तविक कारणों को जानने की बजाय दैवीय शक्तियों का चमत्कार मान, उनके समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं। ये घटनाएँ अंधश्रध्दा का प्रतीक होने के साथ हमारे अंतर्मन में जड़ीभूत वर्जनाओं को भी व्यक्त करती हैं। विज्ञान अलौकिक और पराशक्तियों के पक्ष को इसलिए कपोल कल्पित मानता है क्योंकि इनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मानव संवेदना तंत्र द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि हम व्यक्ति में विश्व दृष्टि का सृजन नहीं कर पा रहे हैं।”

-” तुम्हें तो विज्ञान और अध्यात्म का बड़ा ज्ञान है बकुल ! ऐसा विश्लेषण तो प्रवचनों में भी असंभव है।” पीयूष ने अचरज से उसे निहारा।

-” ज्ञान असीम है। हमें जो ज्ञात है, वह मुट्ठीभर है लेकिन जो अज्ञात है वह अनंत है, अपार है। जिज्ञासु ब्रह्माण्ड के रहस्य लोक को जितना जानने की कोशिश करते हैं, यह दुनिया उतनी ही मायावी लगने लगती है। इसीलिए उपनिषदों से आधुनिक विज्ञान तक ब्रह्माण्ड के असंख्य रहस्य पहेली ही बने हुए हैं।”

फिर बकुल घड़ी में समय देख हैरान हुई, ‘ओह ! पीयूष पाँच बज चुके। चलना चाहिए। लंबा सफर तय करना है।’ बकुल उठ खड़ी हुई।

-” तुम उस समय को मापने की कोशिश कर रही हो जो असीम और अपरिमेय है…।”

-” आप भी दर्शन की भाषा बोलने लग गए…।”

दोनों ठठाकर हंसे।

-” मैं कहां दर्शन की भाषा समझूँ ? मैं तो मानवीय सरोकारों के ज्ञान से अनभिज्ञ हूँ। भीतरी और बाहरी दुनिया के बारे में जितना तुमने मुझे बताया, मैंने इतना तो पहले कभी जाना ही नहीं। तकनीकी शिक्षा और कॅरियर की जद्दोजहद के फेर में अब तक किसी लड़की से मेरी निकटता नहीं बढ़ी। भावनाओं का ज्वार मुझमें उफनता ही नहीं। पर अब लगता है बकुल, तुम्हारा आज का साथ मेरे अंतर्मन में जमी तकनीकी जड़ता को तोड़ने वाला साबित होगा।”

-” ऐसा होता है तो यह मेरे लिए सौभाग्यशाली है।” अपने वाक्चातुर्य के प्रभाव का पीयूष पर असर देख बकुल निहाल थी। वह आत्ममुग्ध थी क्योंकि उसके सौंदर्य और ज्ञान के मिश्रित प्रभाव ने पीयूष के चित्ता पर सम्मोहन का जादू जगा दिया था।

वापिसी के लिए वे कार में थे। पीयूष ने स्थिर गति से कार ड्रइव करते हुए पूछा, ”बकुल तुम आस्तिक हो या नास्तिक ?”

-” मैं हूँ तो आस्तिक…, परंतु मेरी आस्तिकता धार्मिक पाखण्ड और कर्मकांड मैं निहित नहीं हैं। स्त्री की दैहिक शुचिता, पवित्रता की भी मैं वैसी हिमायती नहीं हूँ कि वर्जिनिटी (कौमार्य) के भंग होने पर आत्मघाती कदम उठा लूं। मैं प्रकृतिवादी हूँ। प्रकृति और पुरूष की अवधारणा में विश्वास रखती हँ। विज्ञान प्रकृति के तथ्यों व सत्यों पर आश्रित प्रकृति का दर्शनशास्त्र ही तो है। अब तक विज्ञान ने जो भी तरक्की की है वह प्रकृति के तत्वों का कायांतरण भर है। ऊर्जा पर नियंत्रण का चमत्कार ही है। विज्ञान अब तक तत्वों में अदृश्य रूप में स्थित परमाणु का स्वतंत्र रूप से निर्माण नहीं कर पाया है। इसलिए विज्ञान की आधारशिला अंतत: प्रकृति ही है, पीयूष।”

-” और स्त्री-पुरूष की आधारशिला क्या है ? वह अदृश्य कौन-सा आकर्षण है जो विपरीत लिंगियों को खींचता है, मिलाता है ?”

दोनों में फूटे अंदरूनी आवेग ने त्वचा में कमनीय कांति ला दी।

-” स्त्री-पुरूष का आकर्षण एक जैविक जरूरत है। डिमांड इज बॉयलॉजीकल। दैहिक मिलन, शरीर के अदृश्य हिस्सों में विलीन जैविक रसायनों और संवेदनाओं को परसपर आदान प्रदान को तल देता है। सृष्टि की यही विनोद लीला है। इसी लीला में जीव-जगत का जैविक विकास अंतर्निहित है।”

रोचक बातों में पता ही नहीं चला कि वे कब मेट्रो स्टेशन पहुँच गए। प्लेटफॉर्म सूना पड़ा था। मेट्रो खड़ी थी। इस वक्त मेट्रो में ज्यादा रस नहीं रहता है। उसे छूटने में अभी बारह मिनट बांकी थे। दोनों वातानुकूलित डिब्बे के भीतर हो लिए। इन दो प्राणियों को छोड़ डिब्बा पूरा खाली था। बकुल ने बैग सीट पर रखे और ठीक पीयूष के सामने खड़ी हो गई। तब पीयूष उसके चेहरे की तरफ झुकता सा बोला, ”बकुल तुमने ऑस्कर वाइल्ड का लिखा यह कथन पढ़ा है कि ज्यादातर लोग दूसरे लोग होते हैं। यानी वे वही सोचते हैं जो दूसरे सोच रहे होते हैं…”

-” हां, पढ़ा है…, और अपने बीच इस पल यह यथार्थ भी है…, यू किस मी…” और बिदांस बाला बकुल ने वर्तमान क्षणों का भरपूर लुत्फ उठाने की दृष्टि से पीयूष का चेहरा अपने चेहरे पर खींच लिया। तीव्र उत्तोजना में आलिंगन बध्द हुए शरीरों में प्राकृतिक रूप से आलोड़ित-आंदोलित हो रहे जैव रसायनों और संवेदनाओं के समरस होने का क्रम शुरू हुआ। लेकिन सार्वजनिक स्थल पर तो यह प्रक्रिया यौनजन्य वर्जना होने के साथ एक हरकत ही थी। इसलिए डिब्बे में लोगों के चढ़ने की आहट हुई तो दोनों बेमन से अलग हो गए। रेल की चलने की उद्धोषणा हुई तो पीयूष नीचे उतर आया। पीयूष उस खिड़की पर था जिसके पारदर्शी कांच के उस पार बेताव बकुल थी। कांच के दोनों तरफ स्पर्श की कोशिशों को वास्तविक तल नहीं मिलने के कारण दोनों का आवेश आभासी तल पर छटपटाता रह गया। मेट्रो अपने तल पर गति पकड़ रही थी।

दफ्तर से फारिग हो पीयूष घर पहुँचा। समय पर काम पूरा न होने के दबाव से दिमाग ठसा था। शिथिल करने के लिए फ्रिज से बीयर की बोतल उठाई और आधी बोतल एक बार में गटक गया। मुंह का स्वाद बिगड़ा तो रसोई में नमकीन ढूँढ़ा। सभी डब्बे खखोरने पर एक डब्बे में मां के हाथों से बने पापड़ व खीचले मिल गए। माइक्रोवेब में सेंकते हुए माता-पिता की याद आ गई। पिछली मर्तबा बात हुई थी तब मां ने बुरी तरह से उसे डपटा था, ”रे पीयूष तूने तो हमारा सुख-चैन हर लिया। हमें पहले पता होता कि तू बैक-टैक की पढ़ाई करके मां-बाप का सहारा नहीं रह जाएगा, तो तुझे मैं किसी भी हाल में नहीं पढ़ाती। विदेशी कंपनियों का बंधुआ बना रहकर उन्हें मालामाल करने में दिन-रात खटता है। शरीर सुखा लिया। कैसा लंपा-सा हो गया है। इससे तो अच्छा होता, तू मंद बुध्दि पैदा होता। यहीं छोटी-मोटी नौकरी कर हमारे बुढ़ापे का सहारा तो बना रहता। जरा सी दु:ख परेशानी आने पर अड़ोसी-पड़ोसी के बच्चों का मुंह ताकना पड़ता है। चल हमारी फिकर तो छोड़, भाग में जो बदा होगा, भुगत लेंगे। पर तू तो शादी कर ले। बत्ताीस में आ गया। उम्र थोड़ी और खिंच गई तो कोई भला बाप तो तुझसे अपनी बेटी ब्याहने से रहा। तूने कहीं किसी करमजली से ऑंख लड़ा रखी हो तो उसी के संग फेरे डाल ले। चाहे परजात हो। बिरादरी समाज की निंदा की चिंता हमें नहीं। हमें सुकुन से जीने देना चाहता है तो जल्दी फैसला ले।” मां ने उसका कोई उत्तार सुने बिना फोन काट दिया।

पीयूष जानता है मां की कड़वी बातें जीवन की व्यावहारिक सच्चाई हैं। मां पढ़ी-लिखी जरूर आठवीं तक है, पर उनके मुंहफट और ठसक भरे देशज लहजे के सामने अच्छे-अच्छे ठहर नहीं पाते। विश्वग्राम कार्पोरेटकल्चर द्वारा प्रवर्तित बाजारवादी प्रौद्योगिता के वे दक्ष कामगारों के रूप में बंधुआ ही तो हैं। मानवश्रम के शोषण के अमेरिकी संस्करण ! एडम स्मिथ की पूँजीवादी आर्थिकी के पिछौवा ! जिसकी व्यस्तता में न परिजनों के प्रति मोह रह गया है और न उनकी असहायता के संरक्षण की परवाह ! अभिभावकों के प्रति कृत्ध्नता के बोध ने मन-मस्तिष्क में विचित्र किस्म की उदासीन एकांतिकता भर दी। इसे भंग करने के उपाय के अंतर्गत उसने बकुल से बात करने का बहाना ढूँढ़ा। अविलंब पीयूष ने पापड़ और खीचलों के स्वाद के साथ शेष बीयर भी पेट में उड़ेल ली।

पीयूष लेपटॉप खोल नेट सर्फिंग करने लग गया। मेल बॉक्स में चिन्मय मिश्र का मेल पड़ा था। पढ़ने का सिलसिला शुरू किया तो वह हैरान रह गया। इलेक्ट्रोनिक उपकरण बंद हो जाने की जो समस्या उनके दफ्तर में चल रही थी, हुबहू वैसी ही समस्या का लेख में विस्तार से उल्लेख तो था ही, आसान समाधान भी था। ऐसा धरती से रिस रही लैंडफिल गैसों के समूह के कारण हो रहा था। उनके दफ्तर में इन गैसों का आसार इसलिए और ज्यादा था क्योंकि दफ्तर आधार तल में स्थित है। लेख में बताया गया था, ऐसी गैसें उन स्थलों पर उत्सर्जित होती हैं, जहां गङ्ढों युक्त ऊबड़-खाबड़ भूमि का समतलीकरण औद्योगिक, प्रौद्योगिक व घरेलू कचरे से पाटकर किया जाता है। कचरे का प्राकृतिक रूप से ट्रीटमेंट होने से पहले बहूमंजिला इमारतें खड़ी कर दी जाती हैं। दस-बारह साल बाद इन गैसों का उत्सर्जन शुरू होता है और ये गैसें इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के नाजुक पुर्जों पर हमला बोल उनकी संवेदन शक्ति कुंद कर देती हैं।

किसी प्रोफेशनल से बात करने का पीयूष को उम्दा प्रोफेशनली बहाना मिल गया था। उसने तुरंत फ्रिज से दूसरी बोतल निकाली। दांतों से ढक्खन खोला। गटकते हुए बकुल का नम्बर डायल किया।

-” हैलो…, कौन…?” बकुल की उनींदी आवाज गूँजी।

-” मैं पीयूष…।”

-” सोये नहीं अभी। बारह बज रहे हैं।”

-” आईटी बीपीओ कंपनियों के निशाचरजीवियों को नींद आती है कभी ? टार्गेट एचीव करने की कम्बख्त चिंता हर वक्त बनी रहती है। पर आज तो तुम्हारे जिस्म, ग्लेमर और बोल्डनेस का जादू छाया है, माय डियर बकुल !”

-” लगता है नशे में हो…, ड्रिंक ली है क्या ?”

-” तुम्हारे रूप की ख्वाहिश, अदाओं में तहजीब और वाणी की मिठास का नशा क्या कम है जो दारू पीने की जरूरत पड़े…?

-” हट…, झूठे कहीं के…सच बता न ड्रिंक ली है ?” अपनी तारीफ सुन बकुल इठलाई।

-” हां…, ली है। बीयर की एक बोतल चढ़ा चुका हूँ…, दूसरी पी रहा हूँ। जब किसी प्रोफेशनल से बेतकल्लूफी से बात करनी होती है तो संकोच न बना रहे इसलिए बीयर या वाइन कभी-कभा ले लेता हँ।” पीयूष ने सफाई दी।

-” मेरे प्यारे निष्काम कर्मयोगी इतनी रात गए प्रोफेशनल से बात करोगे या मित्र बकुल से ?” बकुल को भी शोखी भरी शरारत सूझ आई।

-” पहले प्रोफेशनल से बात करूँगा फिर मित्र बनाम माशूका से…”

-” माशूक से भी आगे की जो कड़ी होती है उसके बारे में भी सोचो ?” उसने समय की अनुकूलता देख प्रतिकात्मक रूप में शादी का प्रस्ताव रख दिया।

-” कुछ दिन फ्लर्टिंग करलें, फिर इस पड़ाव पर तो पहुँचना ही है।”

-” देखो, पीयूष तुम्हारे साथ मेरी आशिक मिजाजी फिलहाल एक क्षणिक मानसिक या शारीरिक आनंद के लिए है। लेकिन मैं चाहती हँ कि क्यों न हम इसमें स्थायित्व लाएँ। हम एक ही जाति से हैं और एक ही क्षेत्र से। इसलिए परिजनों की सहमति लेने में भी आसानी रहेगी ?”

-” यह तो मैंने सोचा ही नहीं। मेरे पेरेंट्स भी शादी के लिए परेशान हैं। तुम्हारे प्रस्ताव के प्रति मैं गंभीर हूँ। वादा करता हूँ जल्दी फैसला लँगा…।”

बकुल को लगा, मेट्रो में शारीरिक संवाद की उसकी ओर से की गई पहल का जादू प्रेम की ऐसी अभिव्यक्ति साबित होने जा रही है, जिसने पीयूष के सपाट अंतराल में संवेदना और रोमांच की अनुभूति का आकाश खोलना शुरू कर दिया है। सच, अंग, आंखें और आवाज की अभिव्यक्तियां ही तो स्त्री-पुरूष को परस्पर रिझाने की वह विधा हैं जो प्रगाढ़ता का अटूट भरोसा रचती हैं।

-” चलो अब व्यावसायिक मुद्दे पर आओ…?” बकुल ने संयम का सहारा लिया।

-” ओ.के.। मैंने जिन विज्ञान लेखक चिन्मय मिश्र की बात की थी उनका मेरे मेल पर आर्टिकल आ गया है। मैंने पढ़ा तो हैरान रह गया। अदृश्य शक्तियों का कंप्यूटर पर इस हमले को उन्होंने लैंडफिल गैसों का हमला बताया है। जिस तरह से उन्होंने तथ्यपरक वर्णन व विवेचन किया है उससे मुझे विश्वास है कि गड़बड़ी इन्हीं गैसों के उत्सर्जन से पैदा हुई है। मुझे तो उम्मीद ही नहीं थी की हिन्दी में इतना सार्थक विज्ञान लेखन हो भी रहा है…।”

-” ओह…, समझी ! अब याद आ रहा है…। लैंडफिल गैसें इसी प्रकृति की होती हैं। ये कोमल इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के संपर्क में आकर इनकी संवेदन शक्ति क्षीण कर देती हैं। तुम थोड़ा इंतजार करो मैं नेट पर जाकर गूगल में लैंडफिल सर्च करती हूँ… और फिर मैं ही लाइन पर आती हूँ…।”

पीयूष बीयर पीकर और मैगी बना खाकर निपट ही रहा था तब तक मोबाइल की घंटी तीन मर्तबा बजकर चौथी बार बजी। पीयूष ने मोबाइल उठाया, ”हैलो…,”

-” कहां मुशगूल थे मेरे प्यारे निष्काम कर्मयोगी जो इतनी देर लगा दी…। झपकी ले ली क्या ?” बकुल ने पीयूष को छेड़ा।

-” ये तुम्हारा बारह लाख सालाना कमाने वाला निष्काम कर्मयोगी झक मार रहा था, जो इतनी देर लग गई। हाथ से रूखी-सुखी मैगी बनाकर हाल ही में खाई है। तुम साथ होती तो यह बेस्वाद खाना तो नहीं खाना पड़ता।”

-” चलो अब छोड़ो भी…, कॅरियर के फेर में ज्यादातर युवाओं की इसी मनोदशा में उम्र बीत रही है। और कॅरियर जब देखो तब अधूरा ही लगता है। प्रतिस्पर्धा की होड़ और नई मंजिल पाने की दौड़ में पैकेज बढ़कर मिलता भी है तो काम का बोझ, सह-उत्पाद के रूप मानसिक तनाव बढ़ा जाते हैं।”

-” एक बात है बकुल तुम्हारी बातचीत में कमाल के संदेश प्रगट होते रहते हैं ? तुम्हारी काबलियत लाजवाब है।”

बकुल ठिलठिलाकर हंसते हुए बोली, ” सूचनाओं में बड़ी ताकत होती है पीयूष। इसलिए मैं खाली वक्त में खाली न बैठकर पत्र-पत्रिकाएँ अथवा नेट सर्चिंग में लगी रहकर नवीनतम सूचनाओं से अपनी बौध्दिक क्षुधा मिटाती रहती हूँ। इससे मेधा की तार्किकता बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के बढ़ती रहती है।”

-” बहुत अच्छा। सर्च में क्या निकला ?”

-” लैंडफिल गैसों की वही प्रकृति है जो तुमने मुझे लेख से पढ़कर बताईं थी। तुम्हारे दफ्तर में इन्हीं गैसों के प्रभाव से कुप्यूटर बंद हो रहे हैं। कल केमिकल डाइग्नोस्टिक रिपोर्ट तैयार हो जाती है तो मैं कल ही रिपोर्ट, बिल व पुर्जे लेकर गुड़गाँव आती हूँ।”

-” यू कम वेलकम…स्वागत है…। माय स्वीट् लवली…। कल तुम्हें मैं अपना फ्लेट भी दिखा दूँगा…।”

-” क्या तुमने गुड़गाँव में फ्लेट ले लिया है ? वहां तो प्रोपर्टी बड़ी महंगी है।” जानकारी की पुष्टि के लिए बकुल ने एक साथ बड़ी सहजता से दो सवाल उछाले।

-” हां, मैंने छह माह पहले ही आकाशगंगा अपार्टमेंट में फ्लेट की रजिस्ट्री कराई है। अड़तालीस लाख का पड़ा था। पिछले छह-सात साल की नौकरी की यही जमा पूँजी थी। अच्छा, कल कहां से रिसीव करूँ ?”

-” कल रहने देना। मैं ओखला के दफ्तर से रिपोर्ट लेकर अपनी ही गाड़ी से निकलूँगी। मुझे भीखाजी कामा प्लेस में दफ्तर का कुछ काम है। वहां से धौला कुआं होती हुई सीधे तुम्हारे दफ्तर पहुँचूंगी। वहीं मिलना। डोंट वरी।” फिर वह हसीन शरारत के मूड में आकर बोली, ”प्यारे पीयूष…, तुम्हें शायद ऑस्कर वाइल्ड का वह वाक्य याद नहीं कि ज्यादातर लोग…” मोबाइल स्पीकर पर एक लंबा चुंबन खींचा…। फिर कनेक्शन काट दिया। पीयूष ने नंबर री-डायल किया तो स्विच स्टॉप की सूचना का हिन्दी-अंग्रेजी टेप बज रहा था। की-गर्ल साइकोलॉजी से अनजान पीयूष बकुल के दु:साहसिक बर्ताव की पहल के समक्ष एक बार फिर अचकचा कर रह गया।

अगले दिन करीब चार बजे बकुल यूनिवर्स सॉफ्टवेयर कंपनी के दफ्तर में थी। पीयूष अपने कक्ष में मिल गया। हैलो…, हाय की कमनीय व जोशीली औपचारिकता के साथ ही बकुल काम में जुट गई। चार पन्ने की रिपोर्ट बिल के साथ पीयूष को दे दी। बकुल उन पुर्जों को सीपीओ में फिट करने लग गई जिन्हें वह लेबोट्री में जाँच के बाद वापिस लाई थी।

पीयूष ने रिपोर्ट पढ़ते हुए उसे चिन्मय मिश्र के लेख की तुलनात्मक कसौटी पर कसा। कंप्यूटर लैंडफिल गैसों के समूह से ही प्रभावित हो रहे थे। रिपोर्ट में गैसों के उत्सर्जन व निवारण के जो कारण बताए थे, उन्हें कहीं बेहतर ढंग से चिन्मय मिश्र ने अपने लेख ‘कचरा मैदानों से फूटती शैतानी गैसों’ में बताया था। पीयूष को आद्योपांत रिपोर्ट पढ़ने के बाद लगा, अंग्रेजी के दबाव में कुछ तो हम बेवजह हिन्दी और भाषाई वैज्ञानिक लेखन को नकारते हैं। इस नकारात्मकता में हम उन मूल्यों की भी अवहेलना करते हैं जो हमें प्रकृतिजन्य समस्याओं के जैविक समाधान तलाशने के तरीके देते हैं।

लेख में तथ्यात्मक प्रयोग का उदाहरण देते हुए बताया गया था कि यदि औद्योगिक-प्रौद्योगिक व घरेलू कचरे में केचुएँ छोड़ दिए जाएं तो वे इस कचरे को चट कर जाते हैं। अहमदाबाद के पास मुथिया गांव में साठ हजार टन वजनी कचरे में पचास हजार केचुएं छोड़ कर समस्या का चमत्कारिक ढंग से ट्रीटमेंट कर लिया गया था।

पीयूष सोच रहा है, रासायनिक परीक्षण की जो रिपोर्ट सत्ताावन हजार सात सौ अड़तीस रूपये में मिली है, वही एक हिन्दी विज्ञान लेखक ने मुफ्त में दी है। लेकिन टेक्नोक्रेसी की बाध्यता के चलते उसका कोई मूल्य नहीं ? वाकई हम कानूनी बाध्यताओं की तरह तकनीकी बाध्यताओं के मकड़जाल में उलझते चले जा रहे हैं ? रिपोर्ट व लेख में समस्या का तात्कालिक हल था कंप्यूटर कक्षों के खिड़की और दरवाजे खोल कर रखे जाएँ। ए.सी. न चलाएँ। पीयूष ने दफ्तरी को बुलाकर कंप्यूटर कक्षों के दरवाजे व खिड़कियां खोल देने का निर्देश दिया। फिर वह खुद एकाउण्ट्स सेक्शन में बिल के भुगतान का चैक बनवाने चला गया।

तकनीकी काम निपटाकर तीन घंटे की टेस्ंटिग के उपरांत बकुल ने पीयूष से ओ.के. रिपोर्ट व चैक हासिल कर लिए। फिर दोनों बकुल की कार से आकाशगंगा अपार्टमेंट के रास्ते पर थे। गाड़ी ड्राइव करते हुए बकुल सोच रही है…, जिस युवक से परिणय-बंधन की उम्मीद जगी है क्यों न उसके रग-रग से गुजरते हुए उसकी खूबी और खामियों को रेशे-रेशे खुद भी जान ले और पीयूष को भी जान लेने का अवसर दे दे। हम से तो छत्ताीसगढ़ के वे आदिवासी सभ्य हैं जो अपने विवाह योग्य होते लड़के-लड़कियों को ‘घोटुल’ प्रथा के माध्यम से एक-दूसरे को शारीरिक स्तर पर परखने का अवसर देते हैं।

पूर्व नियोजित फ्लेट पर जाने के प्रोग्राम को लेकर बकुल आशंकित भी थी कि दो युवा देहों की आसक्तियों का आवेग विवेक खोकर वर्जना तोड़ सकता है ? इसलिए कुटिल चतुराई से बकुल ने गर्भ निरोधक पूर्व में ही अपनाकर सावधानी बरत ली थी। गोया वह किसी भी शैतानी से जूझने अथवा रूबरू होने को कमोबेश तत्पर थी। बाकुल अपनी अब तक की उपलब्धियों से संतुष्ट थी। बीई की डिग्री और छह लाख के जॉव जैसी लक्ष्यपूर्तियों के बाद अब बकुल को लग रहा है कि विवाह ही वह पड़ाव है जहां हर तरह की सुरक्षा और सुकून मिलने की उम्मीद की जा सकती है। पीयूष के पद, पैकेज और प्रतिष्ठा से वो खुद रूबरू हो चुकी है। तय है, उसके खाते से जरूरत का कोई भी चैक डिसऑनर होने वाला नहीं है। फिर वो खुद भी तो कमाती है। वाबजूद अवचेतन में बैठी कोई सनातन रूढ़ सांस्कृतिक सोच जरूर ऐसी है, जिसकी उत्प्रेरणा से वशीभूत ज्यादातर उच्च शिक्षित, आत्मनिर्भर व आधुनिक स्त्री भी अंतत: अपना सुरक्षित आश्रय समर्थ पुरूष के ही संरक्षण में तलाशती है। कमोबेश वह भी तो इसी तलाश में है।

वे आद्वितीय वास्तु शिल्प से निर्मित फ्लेट में थे। बकुल दंग रह गई थी। जैसे ख्वाब में हो। और फिर उसे लगा वह एक ऐसे आशियाने में है जहां रिश्तों की तपिश का संसार बसाया जा सकता है। मोहब्बत के इन्द्रधनुषी रंगों की वितान पर गर्म देहों की गंध फैलाई जा सकती है। सृष्टि सृजन को गति दी जा सकती है।

-” घर गंदा कितना रखते हो पीयूष ? साफ सफाई के लिए बाई नहीं रखी क्या ? ”घर का अधिकारपूर्वक मुआयना करती बकुल बोली थी।

-” बाई तो लगी है। पर मेरी टाइमिंग अनिश्चित है इसलिए बाई रोजाना साफ-सफाई नहीं कर पाती।”

बेहतर आंतरिक सज्जा से सुसज्जित वे घर के शयनकक्ष में आए तो बकुल पलंग पर बिछे चादर को अस्त-व्यस्त व धूल-धूसरित देख गुस्साई, ”लगता है घर के कामों में तुम्हारी कोई दिलचस्पी नहीं है। चादर फटकार कर बिछाने में भला वक्त ही कितना जाया होता है…”बकुल ने एक झटके में चादर खींचा और झटकार कर बिछा दिया। घुटनों के बल पलंग पर चढ़ वह सलवटें ठीक कर रही थी, तब उसके उन्नत नितंब और उभरी नग्न पिंडलियों से यौन संवेदनाओं का प्रसार झरकर पीयूष को रोमांचित कर कामासक्त बना रहे थे। सलवटें ठीक कर वह पीयूष के सामने खड़ी हुई तो आभास किया शायद पीयूष शरारत के मूड में आ गया है। पीयूष आगे बढ़कर कोई हरकत करता तब बकुल के मोबाइल पर मंत्र जाप शुरू हुआ  भूर्भव:…, ”पीयूष जरा शांत रहना। शायद मां का फोन है…।”

बकुल ने मोबाइल ऑन करते हुए स्पीकर भी ऑन कर दिया, जिससे पीयूष भी वार्तालाप सुन ले, ”बोलो ममी…”

-” घर पहुँच गई बेटा…?” मां की चिंता सामने आई।

-” बस अभी पहुँची हूँ ममी…।” बकुल ने सफेद झूठ बोला।

-” अच्छा वो तूने क्या नाम बताया था उस लड़के का…, पीयूष उससे कुछ और आगे बात हुई…?

-” बस ममी एकाध दिन में फाइनल टेस्टिंग ले लूँ…, उसके आचार-व्यवहार ठीक से परख लूँ, फिर बताती हूँ ?”

-” जल्दी निर्णय ले बकुल उनतीस की हो रही है…। तेरे पापा भी रोज पूछते हैं और मैं तो चिंता मुक्त होती ही नहीं। तेर हाथ पीले हों तो गंगा नहाएँ।”

बकुल की दिमाग-तंत्रिकाएँ झन्नाईं, अंतत: इक्कीसवीं सदी में भी जैसे बीसवीं सदी के जीवन, काल और दिशाएँ ठिठके हैं। स्थगित हैं। हमारे पास स्वतंत्र सत्ताा है भी तो सिर्फ इसलिए क्योंकि फिलहाल हम बृहत्तार दिल्ली (एनसीआर) में अकेले हैं। अनचाहे गर्भ को टालने की निश्ंचितता है। वरना अतीत का बोझ तो स्त्री का पीछा ही नहीं छोड़ता।

-” ठीक है ममी मैं फ्रेश हो लूँ…, फिर कॉल बैक करती हूँ।” और बकुल ने फोन काट दिया।

-” अच्छा तो फाइनल टेस्ंटिंग लेने चली हो ?” पीयूष रहस्यमयी अंदाज में बोला।

-” अब मां को क्या एकदम बता दूँ कि हम यहां तक पहुँच गए हैं और मैं इतनी रात गए उसी के घर में हूँ…” बकुल अनायास निकले ‘टेस्ंटिग’ शब्द के दोहरे अर्थ अब समझ पाई। समझते ही शर्म की लाली की जो लालिमा उसके गालों व आंखों में उभरी उस भाषा को पढ़ता हुआ पीयूष बकुल के निकट बढ़ चला। तब पीछे हटती बकुल बोली, ”साढे नौ बज रहे हैं पीयूष चलने दो…”

-” दिल्ली की सड़कों पर इतनी रात गए अकेली जाने की बेवकूफी करोगी ? फिर तुम्हारा कौन घर में कोई इंतजार कर रहा है। यहीं रूको फाइनल टेस्ंटिग करके जाना…। ऑस्कर वाइल्ड का वह कुटेशन याद करो… कि ज्यादातर लोग…”

फिर वे परस्पर बांहों में आए तो तनाव मुक्त थे। साहचर्य की ऊर्जा ने पूर्व से ही देहों में अदृश्य जो हार्मोंस और सिम्स होते हैं उनकी गति इतनी बढ़ा दी थी कि अतृप्त कामोत्तोजना से कांति त्वचाओं पर फूटने लगी थी। बकुल अपनी चतुराई पर मन ही मन सोच रही थी, अकसर मर्दों द्वारा औरतों को औजार बनाने की चर्चाएं आती रही हैं लेकिन उसकी उत्सुकताएं हैं कि उसने एक मर्द को सेक्स टूल बना लिया। बकुल का जैविक ज्ञान बता रहा था कि यौन भूमिकाएं संसर्ग के अलावा ऐसा प्राप्य भी हैं जो मानसिक चेतना को सुकून और शरीर को पौष्टिकता देती है। शादी के बाद जब स्त्री में इसी जैविक रसायन की आपूर्ति होती है तो उसकी देह कैसे गदरा जाती है।

यौवनोत्सव के पहले पड़ाव में ठहराव आया तो पीयूष बोला, ”अपनी मां को फाइनल टेस्ंटिग की रिपोर्ट तो दे दो…।”

-” चुप बेशरम !” और मदमस्त बकुल ने पीयूष का चेहरा अपनी छाातियों के बीच दाब लिया। और वे एक बार फिर कामजनित असीम फंतासियों को मूर्त रूप देने लग गए।

कर्नाटक प्रकरण: कटघरे में राजनैतिक शुचिता

लिमटी खरे

हाशिए में गए कांग्रेस के पूर्व कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज पुनः सक्रिय राजनीति में लौटने लालायित दिखाई दे रहे हैं। जानकारों का मानना है कि वे अनाप शनाप फैसले इसलिए ले रहे हैं, ताकि कांग्रेस आलाकमान उनका राजनैतिक वनवास समाप्त कर केंद्रीय मंत्री मण्डल में उन्हें वापस बुला ले। गौरतलब होगा कि पूर्व में बूटा सिंह ने राज्यपाल रहते कांग्रेस को नीचा दिखाया बाद में उन्हें वापस बुला लिया गया था। यह अलहदा बात है कि उनका राजनैतिक पुनर्वास पूरी तरह से नहीं हो सका था। भाजपा जिस तरह से आक्रमक हो रही है, उसे देखकर लगने लगा है कि जल्द ही भारद्वाज की राजभवन से बिदाई तय है। इस घिनौने खेल में राजनैतिक शुचिता और राजभवन की गरिमा तार तार हुए बिना नहीं है। विधि मामलों के महारथी हंसराज भारद्वाज से इस तरह के कदम की उम्मीद कतई नहीं की जा सकती है।

कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है, उसे समूचा देश देख रहा है। पांच राज्यों के चुनाव भी समाप्त हो चुके हैं इसलिए इस वक्त बर्निंग टापिक कर्नाटक ही है। अगर चुनाव के चलते यह हुआ होता तो देश की निगाहें इस पर ज्यादा न जाती और मीडिया भी इस खबर को ज्यादा तवज्जो नहीं देता। वस्तुतः जल्दबाजी में कर्नाटक के महामहिम राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर डाली,जिसे आश्चर्यजनक ही माना जा रहा है। भारद्वाज ने येदियुरप्पा को हटाने की कोशिश तीसरी मर्तबा की है, इससे साफ है कि उनका एक सूत्रीय एजेंडा कर्नाटक में तख्ता पलट ही है।

अमूमन माना जाता है कि महामहिम राज्यपाल अपने विवेक के हिसाब से ही काम करते हैं। पिछले दो तीन दशकों का इतिहास खंगालने पर यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि केंद्र सरकार या अपने आकाओं को प्रसन्न करने की गरज से राज्यपाल आकाओं के इशारे पर ठुमके लगाते नजर आए हैं। इस बार भी बिना सोनिया गांधी या उनकी कोटरी की हरी झंडी के यह संभव नहीं दिखता। हंसराज भारद्वाज कानून मंत्री रहे हैं, और खुद भी कानून के खासे जानकार हैं। इसलिए यह कहना गलत होगा कि उन्होंने इस मामले के सारे पहलुओं पर विचार न किया हो।

एक नेता के रूप में हंसराज भारद्वाज काफी सजग, होशियार और सोच समझकर कदम उठाने वालों में गिने जाते हैं। हो सकता है कि कर्नाटक प्रकरण से वे एक तीर से कई निशाने साध रहे हों। वैसे भी किसी भी नेता को अगर राज्यपाल बनाकर भेजा जाता रहा है तो यह माना जाता था कि उसका राजनैतिक कैरियर समाप्त हो गया है। पूर्व केंद्रीय मंत्री कुंवर अर्जुन सिंह ने इस मिथक को तोड़ा था। मध्य प्रदेश में दूसरी मर्तबा मुख्यमंत्री बनने के उपरांत जब उन्हें दूसरे ही दिन पंजाब का गर्वनर बनाया गया था, तब लोग यही कह रहे थे कि अर्जुन सिंह का खेल खत्म, किन्तु बाद में वे सक्रिय राजनीति में लौटे और सालों तक केंद्र की राजनीति की।

बहरहाल उच्चतम न्यायालय द्वारा भाजपा के 11 विद्रोही और पांच निर्दलीय विधायकों को अयोग्य करार करने संबंधी विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को खारिज कर दिया, जिससे युदियुरप्पा को कड़ा झटका लगा। इस फैसले के हिसाब से कर्नाटक के लाट साहेब को सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करना अनुचित इसलिए है क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया है अब कोई सरकार अल्पमत में है या बहुमत में इसका फैसला करने का अधिकार सदन को ही है।

विधि अनुसार अगर राज्यपाल को लग रहा था कि येदियुरप्पा सरकार अल्पमत में है तो महामहिम राज्यपाल को चाहिए था कि वे मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने को कहते। कथित रूप से हड़बड़ी में हंसराज भारद्वाज ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश ही कर डाली। इस बात में कोई संदेह की गुंजाईश नहीं है कि राज्यपाल के इस कदम से राजनैतिक शुचिता और राजभवन की गरिमा को ठेस पहुंची है।

इस पूरे प्रहसन में न्यायालय के आदेश के बाद जिस तेजी और तत्परता से राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने विशेष रिपोर्ट तैयार कर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की है उसी मुस्तैदी के साथ बागी विधायकों ने कथित तौर पर बिना शर्त युदियुरप्पा को समर्थन देने की चिट्ठी तैयार कर दी। कहते हैं राज्यपाल ने अपनी रिपोर्ट में छः अक्टूबर 2010 के उस ज्ञापन को आधार बनाया है जिसमें विधायकों ने युदियुरप्पा से समर्थन वापस लेने की बात कही थी। 10 अक्टूबर को राज्यपाल भारद्वाज ने सरकार की बर्खास्तगी की सिफारिश की थी, जिसे केंद्र ने लौटा दिया था।

इस बार चूंकि भाजपा पर यह सीधा वार किया गया है तो भाजपा तिलमिला गई है। वैसे भी गड़करी के पुत्र के विवाह समारोह की सारी जवाबदारियां (आर्थिक तौर पर) येदियुरप्पा द्वारा उठाए जाने के आरोप लगते रहे हैं, इस आधार पर गड़करी का येदियुरप्पा प्रेम बढ़ना स्वाभाविक ही है। भाजपा इस मामले में फ्रंट फुट पर आ गई है तो कांग्रेस अब रक्षात्मक मुद्रा में दिखाई पड़ रही है। कांग्रेस द्वारा भी विधि विशेषज्ञों से इस मामले में राय शुमारी की जा रही होगी। इस बात का रास्ता निकालने का प्रयास किया जा रहा होगा कि लाट साहेब हंसराज भारद्वाज के कदम को जायज ठहराया जा सके।

भारद्वाज के इस तरह के कदम से नितिन गड़करी को कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोलने का मौका अवश्य ही मिल गया है, किन्तु भाजपा कांग्रेस को घेरने में कितने सफल हो पाते हैं यह बात भविष्य के गर्भ में ही है। फिलहाल तो गड़करी ने कांग्रेस को मशविरा दिया है कि बेहतर होगा भारद्वाज को राज्यपाल पद से हटाकर कांग्रेस कार्यसमिति का विशेष आमंत्रित बना दिया जाए।

माया सरकार के चार साल

‘अर्श’ से ‘फर्श’ तक की कहानी

संजय सक्सेना

वर्ष 2007 में डंके की चोट पर चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाली मायावती का आगाज जितना अच्छा था, अंजाम उतना ही खराब लग रहा है। माया सरकार के चार साल पूरे हो गए हैं। अगले साल चुनाव होना है,लेकिन मायावती के पास कोई ऐसी उपलब्धि नहीं है जिसके बल पर वह जनता से वोट अपील करेंगी। कहना गलत नहीं होगा कि इन चार सालों में माया ‘अर्श’ से ‘फर्श’ पर आ गई हैं। माया के संबंध में आ रही रिपोर्टो और जनता में उभरते आक्रोश से इस बात का आंकलन किया जा रहा है, लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि आंकलन हमेशा सही नहीं होता है। हो सकता है जनता की नजरों में माया सरकार की अहमियत इससे इत्तर हो।बस एक साल और, इसके बाद जनता स्वयं तैयार करेगी मायावती सरकार का रिपोर्ट कार्ड। जनता की नजरों में माया की छवि ठीक वैसी ही है जैसी कि विरोधी दल वाले प्रचार कर रहे हैं या फिर उनके कामकाज से प्रदेश की जनता संतुष्ट हैं। इस बात का फैसला इन्हीं दिनों में साल 2012 में हो जाएगा। बसपा ने पांच सालों में क्या खोया और क्या पाया इसका फैसला तो होगा ही इसके अलावा सत्ता के लिए घात लगाए बैठी सपा,कांग्रेस और भाजपा सहित अन्य कई दलों के दावों की कलई भी प्रदेश की जनता खोलकर रख देगी। जनता हिसाब लेना जानती है। यह बात सभी दलों के नेता समझते हैं। यही वजह है राजनेता अपने को सुपर दिखाने के चक्कर में एक-दूसरे की पोल खोलने में पूरी ताकत लगाए हुए हैं। पोल खोलो अभियान से विपक्ष में बैठे दलों को तो कोई खास नुकसान नहीं हो रहा है लेकिन सत्तारूढ़ दल बसपा की समस्या इससे बढ़ गई है। बसपा सरकार और उसकी सुप्रीमों मायावती का अधिकांश समय भ्रष्टाचार, बिगड़ती कानून व्यवस्था और तानाशाही रवैये के आरोपों का जबाव देते हुए ही गुजर जाता है। कभी ‘ पत्थरों से प्रेम ‘ तो कभी दौलत की बेटी ‘ जैसी उपमाओं से नवाजी जाने वाली मुख्यमंत्री मायावती के ऊपर लगातार आरोप यह भी लगते रहे कि अपने स्वार्थ के कारण उन्होंने प्रदेश के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया। कांग्रेस से राजनैतिक बढ़त बनाए रखने की कोशिश में केन्द्र सरकार के साथ उनके संबंध भी कभी अच्छे नहीं रह पाए जिसका खामियाजा प्रदेश की जनता को विकास न के बराबर होने के रूप में भुगतना पड़ा।वहीं मनरेगा जैसी केन्द्रीय योजनाओं में भ्रष्टाचार और अनाज घोटाले के चलते भी उनकी सरकार मुश्किल में घिरी रही।किसानों की भूमि अधिग्रहण के मामले मेें किसानों के आक्रोश और उसपर विपक्षी राजनीति का भी उनको सामना करना पड़ा। टप्पल से लेकर ग्रेटर नोयडा तक भूमि अधिग्रहण का मामला उनके लिए सिरदर्द ही बना रहा। एक तरफ बाहरी हमले तो दूसरी तरफ पार्टी के नेताओं की कारगुजारी से भी उनको शर्मशार होना पड़ा।कई बसपा नेताओं को तो ‘ पानी सिर से ऊपर होने ‘ पर जेल तक की हवा खानी पड़ गई।माया सरकार के दो दिग्गज मंत्रियों नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाह के बीच जारी प्रतिस्पर्धा ने भी सरकार की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया। प्रतिस्पर्धा के चलते ही बाबू सिंह कुशवाहा को अपनी लाल बत्ती तक गवाना पड़ गई तो जमीन की लड़ाई में माया सरकार के मंत्री नंद गोपाल नंदी पर जानलेवा हमला प्रदेश की कानून व्यवस्था का मजाक उड़ाते दिखे। आखिरी साल में बरेली और मेरठ सहित कुछ अन्य जगह हुए साम्प्रदायिक दंगों की आग ने भी सरकार की छवि को ठेस पहुंचाई। नौकरशाही को अपने हिसाब से चलाने की नाकाम कोशिश सत्ता के आखिरी साल भी मायावती को सताती रही। इस दौरान कई मौकों पर अदालत का आदेश नहीं मानने के कारण बसपा सरकार को कोर्ट की फटकार का भी सामना करना पड़ा।माया सरकार के चार साल पूरे होने से ठीक हफ्ता भर पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बसपा सुप्रीमों की मंशा को धता बुलाते हुए उनकी सरकार द्वारा नगर निकाय चुनाव एक्ट में किए गए संशोधन को अवैध करार देते हुए निकाय चुनाव पुरानी परम्परा के अनुसार पार्टी सिम्बल पर ही कराए जाने का आदेश जारी करके उनको एक और झटका दे दिया।नगर निकाय चुनाव किसी भी दशा में पार्टी सिम्बल पर नहीं होने देने की कोशिश में लगी माया सरकार हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने जा रही है। गौरतलब हो उत्तर प्रदेश में बसपा को छोड़कर कोई भी दल नहीं चाहता है कि नगर निकाय चुनाव पार्टी के सिम्बल पर न हों। माया के पूरे कार्यकाल में किसानों की दशा में कोई सुधार नहीं आया।किसानों की जमीनें अमीरों को लुभाती रहीं तो प्रदेश सरकार अक्सर अमीरों के साथ खड़ी दिखी। केन्द्र सरकार द्वारा चलाई जा रही ‘मनरेगा’ जैसी योजनाओं में धांधली का आरोप भी लगा। वहीं अनाज घोटाले की धमक भी सुनाई दी। दारू के खेल में भी माया सरकार ने खूब ‘ बढ़त ‘ हासिल की। चुनावी सहालग की आहट होते ही मायावती ने अपने रणबाकुरों को भी चौकन्ना कर दिया। विभिन्न विधान सभा क्षेत्रों से प्रत्याशियों की घोषणा करने के साथ उन्हें वहां का कार्डिनेटर बनाकर मैदान में उतार दिया है।

बात माया के सत्तारूढ़ होने के दिन से की जाए तो ज्यादा बेहतर रहेगा। 13 मई 2007 का दिन माया के लिए काफी अहम था, इसी दिन चौथी बार (पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ) उनके हाथ सत्ता आई थी।न किसी का गठजोड़ न किसी का अहसान। जनता ने हाथी पर जमकर वोटिंग की थी। बहिन जी के बढ़ते हाथी ने सबको रौंद दिया था। चौखाना चित्त विपक्ष सदन में बौना बनकर लौटा था। खैर,यह बात अब पुरानी हो चुकी है। माया सरकार ने 13 मई 2011 को अपने चार साल पूरे कर लिए। इन चार सालों की उनकी कार्यशैली पर नजर दौड़ाई जाए तो माया का सफर बहुत अच्छा नहीं रहा। न वह जनता से किए वायदे पूरे कर पाईं, न ही वह वो वायदें निभा पाईं जो उन्होंने स्वयं से किए थे। विकास के मामले में उत्तर प्रदेश पिछड़ता गया,वहीं विभिन्न घोटालों और भ्रष्टाचार की खबरों से जनता की नींद उड़ी रही।सत्ता संभालते ही बहिन जी ने सबसे पहले अपने उन रहनुमाओं को तरजीह दी, जिनके बल पर वह मुख्यमंत्री जैसी कुर्सी पर विराजमान हो सकीं। वे रहनुमा उनके लिए फरिश्ते के बतौर थे, उनके नाम थे कांशीराम और बाबा साहेब ।दलित सम्राज्ञी का ताज पहने माया ने जहां अपने दलित पुरोधाओं की पत्थर की कीमती मूर्तियों को नक्काशीदार पार्कों में लगाकर आम दलित जनता का दिल जीत लिया। वहीं अलग से भारी भूभाग पर कांशीराम स्मारक स्थल बनवाने के लिए ऐतिहासिक जेल और आलीशान कालोनी को गिराने में कोई संकोच नहीं दिखाया। अपनी धुन और जिद्द की पक्की बहिन जी ने हर वह स्थल चमकाया जहां कांशी और अम्बेदकर का नाम आया था।दूसरी तरफ पार्टी फंड जुटाने के लिए उनकी सरकार के ही कुछ विश्वासपात्र नेता उद्योगपतियों,व्यापरियों के मेलजोल बढ़ाते दिखे।

इस बीच राज्यसभा,विधानसभा और विधान परिषद के उपचुनावों का भी पार्टी को सामना करना पड़ा।लेकिन बसपा की टक्कर में दूसरा कोई नहीं दिखा। हर चुनाव में विपक्षी दल खेत रहे। इस बीच पंचायत चुनावों में भी बसपा समर्थित प्रत्याशियों का ही डंगा बजता रहा। सत्ता के जब करीब साढ़े तीन साल गुजर गए तो बसपा सुप्रीमों मायावती ने सभी उप-चुनावों से अपनी पार्टी को दूर कर लिया।शायद वह पूरा ध्यान सुचारू शासन करने पर लगाना चाहती थीं।प्रदेश को कायदे से चलाने के लिए मौका पड़ने पर तेज से तेज अफसरों को भी चलता करने में देर न लगाना उनका पुराना ढर्रा रहा। इसके प्रतीक आईएएस विजय शंकर पांडेय रहे। उनके ऊपर जैसी ही हसन अली को लेकर आरोप लगे, मुख्यमंत्री ने उन्हें समी महत्वपूर्ण पदों से हटाने में देरी नहीें की। सर्वजन हिताय की बात करने वाली मायावती का पूरा ध्यान दलितों के हित साधने में रहा।उनके द्वारा बैकलाग की भर्तियों पर बार-बार पूछताछ जारी रही। दलित कोटे का पूरा करना और महत्वपूर्ण पदों पर उन्हीं के लोगों की तैनाती इस बात को दर्शाती रही कि वे केवल उनके लिए ही शासन कर रही हैं।

साम दाम दंड भेद की नीति और कुछ चतुर सलाहकारों के चलते माया दरबार में इस बार एक फर्क जरूर आया । इस शासनकाल में उनकी बेलौस टिप्पणियां सुनने को नहीं मिली । चार सालों में कोई भी ऐसा अवसर नहीं रहा ,जहां बहिन जी ने लिखा भाषण न पढ़ा हो । 13 मई 2007 को माया ने जब चौथी बार ताज पहना था, तब से लेकर आज तक बसपा सुप्रीमों ने कई झंझावात देखे और झेले लेकिन उनके हौसलों की उड़ान जारी रही। मजबूत इच्छाशक्ति के बल पर माया ने अपने विरोधियों को तो अरदब में रखा ही, इसके साथ-साथ पार्टी और सरकार को अंदर-बाहर दोनों मोर्चो पर भी मजबूती देती रहीं। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए दूरदर्शी बसपा सुप्रीमों ने कई ऐसे फैसले भी लिए जो समय की कसौटी पर पूरी तरह ‘हिट और फिट’रहे, लेकिन उनके कार्यकाल का काला अध्याय यह भी रहा कि न चाहते हुए भी वह अपने दुश्मनों की संख्या लगातार बढ़ाती गईं। मुलायम से तो उनकी दूरी जगजाहिर थी ही, सत्ता संभालते ही उनकी कांग्रेस और उसके गठबंधन वाली केन्द्र सरकार से भी दूरियां बढ़ती गईं। केन्द्र से ठकराव का खमियाजा प्रदेश की जनता को तो भुगतना ही पड़ा, लेकिन माया सरकार की सेहत पर इसका कोई असर नहीं हुआ। केन्द्र और राज्य सरकार के बीच लगातार तू-तू मैं-मैं का दौर जारी रहना राज्य की जागरूक जनता को काफी अखरता रहा है। एक तरफ बात-बात पर कांग्रेस और उसके युवराज राहुल गांधी को कोसना और दूसरी तरफ कांग्रेस की छत्रछाया में चलने वाली केन्द्र सरकार को बाहरी समर्थन देने का ‘अजूबा’ माया जैसी नेत्री ही कर सकती है।इसके उल्ट महिला आरक्षण विधेयक का विरोध और मंहगाई के मुद्दे पर विपक्ष के कट मोशन के खिलाफ कांग्रेस का समर्थन करके केन्द्र सरकार को मुश्किल से उबारना, माया की ऐसी ही कई ‘चालों’ को न विपक्ष समझ पाया न ही उनके बगलगीर।लोक लेखा समिति में जब वर्चस्व का मौका आया तो उन्होंने भाजपा का साथ देने से बेहतर कांग्रेस को पकड़ना ज्यादा बेहतर समझा। चार साल के शासन काल में माया को जीत की खुशी भी मिली और हार का गम भी सहना पड़ा। लोकसभा चुनाव में मनमाफिक नतीजे नहीं आने से मायावती काफी आहत दिखी। वहीं आय से अधिक सम्पति का मामला और उनका मूर्ति प्रेम कई परेशानियां लेकर आया। जिद्द और भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण माया को अदालत के चक्कर लगाने पड़ें,वहीं केन्द्र सरकार भी उन्हें सीबीआई के माध्यम से समय-बेसमय आंखें दिखाती रही। कहा तो यहां तक जाता है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी मायावती चाह कर भी कांग्रेस से खुल कर दो-दो हाथ नहीं कर पा रही हैं।

माया के कुछ अहम फैसलों पर नजर दौड़ाई जाए तो साफ हो जाएगा कि उनके अधिकांश फैसले वोट बैंक को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के वरूण गांधी के उतेजित भाषण के बाद उन पर रासुका लगाने का फैसला मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए लिया गया तो उत्तर प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्षा रीता बहुगुणा ने जब मायावती की नियत पर उंगली उठाई तो न केवल उनके ऊपर मुकदमाें की झड़ी लगा दी गई,बल्कि उनके घर तक को फूंकने का अरोप बसपाइयों पर लगा।एक तरफ वरूण और उत्तर प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्षा को माया के खिलाफ जहर उगलने के कारण कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने पड़ रहें हैं,वहीं राहुल गांधी पर माया के शब्दबाण लगातार जारी हैं। माया को राहुल का उत्तर प्रदेश में उठना-बैठना रास नहीं आता।राहुल कहीं बसपा के वोट बैंक में सेंध न लगा दे,इसलिए वह और उनकी पार्टी के अन्य नेताओं के निशाने पर राहुल अक्सर रहते हैं।

केन्द्र और माया सरकार के बीच के रिश्तों की बात की जाए तो साफ लगता है कि माया अपने चार साल के शासनकाल में केन्द्र से अपने रिश्तों को भुनाने में आतुर रहीं। वह कभी उनकी दोस्त बन जाती तो कभी दुश्मन। भाजपा और समाजवादी पार्टी भले ही कांग्रेस-बसपा को एक ही थाली का बैगन बता रहीं थी,लेकिन अपना वोट बैंक बचाने के लिए माया ने किसी की चिंता नहीं की। जब उन्हें जरूरत हुई तो वह कांग्रेस के साथ खड़ी हो गईं और जब उन्हें लगा कि कांग्रेस उनके लिए मुसीबत बन सकती है तो वह उसे कोसने काटने में भी देर नहीं लगाती। अपने सभी फैसलों को ‘राजनीति के तराजू’ पर तौलने मे माहिर मायावती शायद ही कभी अपने किसी फैसले पर पछताई होंगी। महिला आरक्षण पर जब उन्हें लगा कि नुकसान हो सकता है तो वह कोटे में कोटे की बात करने लगीं।पदोन्नती में आरक्षण के मामले में जब इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला खिलाफ आया तो वह सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखाटने को आतुर दिखीं। दलितों के हितों की अनदेखी वह नहीं कर पाईं। मंहगाई के मुद्दे पर तो बसपा लगातार ही कांग्रेस से दो-दो हाथ करती रही, लेकिन इसी मुद्दे पर भाजपा संसद में ‘कट मोशन’ लायी तो माया, कांग्रेस गठबंधन सरकार बचाने के लिए ‘कट मोशन’ के खिलाफ हो गईं। ऐसा ही कुछ उसके सदस्यों ने लोक लेखा समिति की बैठक में किया। लोक लेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी की एक रिपोर्ट पर जब प्रधानमंत्री और पीएमओ घिरते नजर आए तो बसपा ने कांग्रेस के हाथ मजबूत करना ही बेहतर समझा। माया को पता है कि आय से अधिक सम्पति सहित कई मामलों मेेंं केन्द्र उसकी मदद कर सकता है। हुआ भी यही, माया सांसदों द्वारा मनामोहन सरकार के पक्ष में वोट करते ही सीबीआई ने उनकी लगाम ढीली छोड़ने में जरा भी देर नहीं की। इतने सब ड्रामें के बाद माया को जैसे ही लगा कि उनकी छवि कांग्रेस समर्थित बन रही हैं तो उन्होंने घोषणा कर दी कि उत्तर प्रदेश के साथ कांग्रेस जो सौतेला व्यवहार कर रही है उसकी पूरी कहानी वह एक पुस्तिका में वर्णित कर चुकी है। एक तरफ माया अपने विरोधियों को चारों खाने चित करने में लगी रहती है तो दूसरी तरफ विपक्ष माया को दौलत की बेटी कहकर पुकारने से बाज नहीं आता, लेकिन माया पर इन बातों का कोई खास असर नहीं पड़ता है। इसी लिए तो बीते साल बसपा की 25 वीं वर्षगांठ के मौके पर माया ने हजार रूपए के नोटों की करीब सात मीटर लम्बी और दो फुट व्यास की माला धारण की। इस माला की कीमत करोड़ों रूपये बताई गई। इसको लेकर विवाद भी हुआ लेकिन माया के ऊपर कोई असर नहीं पड़ा।

उत्तर प्रदेश की जनता ने मायावती को प्रदेश की सत्ता की बागडोर उस समय सौंपी थी जब वह तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार की ध्वस्त कानून व्यवस्था से पूरी तरह से ऊब चुकी थी। प्रदेश में चारो ओर गुण्डाराज था और मुलायम के गुण्डे आम जनता को बुरी तरह से परेशान कर रहे थे। हर ओर लूट-खसोट का राज था। जनता की शिकायताें की कहीं पर भी सुनवाई नहीं हो रही थी। महिलाओं की आबरू सुरक्षित नहीं थी, अपहरण एक उद्योग बन गया था। ऐसे में आम चुनावों के प्रचार के समय मायावती का यह कहना कि अगर उनकी सरकार बनी तो मुलायम सिंह को जेल भेजेंगी। जनता को खासा रास आया। इतना ही नहीं जतना ने इससे पूर्व भी उनकी सरकार की कार्यशैली को देखा था और उसे इस बात का पूरा भरोसा था कि मायावती जो कहती हैं वह करती हैं। उनके पिछले शासनकालों में नौकरशाही पूरी तरह से चुस्त-दुरूस्त रहती थी। इसलिए जनता को उम्मीद थी कि उसे मुलायम के गुण्डाराज से मुक्त मिलेगी और कानून का राज होगा। प्रदेश की जनता ने आम चुनावों में मायावती पर पूरा भरोसा जताया तो बसपा को बहुमत मिल गया। करीब बीस सालों के बाद उत्तर प्रदेश बहुमत वाली सरकार आई थीं। इस लिए जनता की अपेक्षाएं सरकार से काफी बढ़ गईं थीं, लेकिन जनता के इसी फैसले ने बसपा सुप्रीमों को अहंकारी बना दिया। परिणामस्वरूप बसपा सरकार के सत्ता में काबिज होने के बाद जनता को कोई राहत नहीं मिली। उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। पूर्ण बहुमत होने के कारण सरकार पूरी तरह से निरंकुश हो गयी और नौकरशाही बेलगाम। जिनको जेल में होना चाहिए उन माफियाओं के लिए बसपा के दरवाजे खुल गए। माया अपराधियों को गरीबों का मसीहा बताने लगी। वह जल्द ही यह भूल गई कि मुलायम को प्रदेश में बिगड़ती कानून व्यवस्था के कारण ही प्रदेश की जनता ने सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था और प्रदेश को अपराध मुक्त करने का वादा करके वह सत्ता में आईं थीं, जिन गुंडे-बदमाशों को चुनाव प्रचार के दौरान वह जेल की सलाखों के पीछे डाल देने की बात करती थीं, वह उनके बगलगीर हो गए। कई को लाल बत्ती मिल गई। बाहुबली मुख्तार अंसारी, आनंद सेन, शेखर तिवारी, गुडडू पंडित,अरूण कुमार शुक्ला उर्फ अन्ना जैसे दर्जनों अपराधी बसपा की शोभा बढ़ाने लगे।जनता त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगी थी,लेकिन माया पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।उलटे वह विपक्ष को सबक सिखाने में लग गईं। सपा के करीबी निर्दल विधायक रघुराज प्रताप सिंह जो माया की आंख की हमेशा किरकिरी बने रहे थे, उन्हें अबकी बार भी मौका बना कर जेल की सलाखों के पीछे भेजने का मौका माया ने नहीं खोया। यहां तक कि उनके ऊपर रासुका लगाकर उनके महीनों जेल में रहने को मजबूर कर दिया तो अदालत ने औरेया के बसपा विधायक शेखर तिवारी सहित दस लोगों को इंजीनियर मनोज की हत्या के जुर्म में उम्र कैद की सजा सुनाकर बसपा को आईना दिखाने का काम किया।बसपा के एक और विधायक आनंद सेन के खिलाफ भी फैसला आने वाला है।आनंद पर एक लड़की को ब्लैकमेंल करने के साथ उसकी हत्या की साजिश में शामिल होने का आरोप लगा है।वहीं बांदा के बसपा विधायक पुरूषोतम पर भी एक लड़की को बंधक बनाकर उसके साथ रेप करने का मामला अदालत मे चल रहा है।इस मामले में भी बसपा सरकार को काफी फजीहत उठानी पड़ी थी।

चार साल के शासनकाल में यही देखने में आया कि माया एक साथ दो नावों पर पैर रखकर चलना चाहती थीं। अपराधियों के लिए बसपा शरणगाह बनी हुई थी, लेकिन बसपा सुप्रीमों यह नहीं चाहती थीं कि उनके ऊपर अपराधियों को संरक्षण देने का दाग लगे, शायद इसी लिए एक तरफ माया अपराधियों को संरक्षण देती रहीं तो दूसरी तरफ कुछ चुनिंदा गुंडे-बदमाशों और डकैतों के खिलाफ मुहिम चला कर वह अपना दामन भी दागदार होने से बचाती रही। इसमें काफी हद तक वह सफल भी रहीं। माया की दुरंगी राजनीति को आम जनता भले ही नहीं समझ पा रही थी,लेकिन ऐसे लोगों की कमी भी नहीं थी जो माया के इस खेल का पर्दाफाश करने में लगे थे। धीरे-धीरे मायावती की असलियत जनता के बीच उजागार होने लगी,लेकिन तब तक वह इन गुंडे-माफियाओं के साथ सत्ता की काफी मलाई मार चुकी थीं और जनता के बीच जाने का समय पुन: नजदीक आने लगा था। तभी एक हादसा हुआ। गोंडा में एक जनसभा के दौरान मंच पर एक अपराधी और कथित बसपा नेता की गोली मारकर हत्या किए जाने से बसपा पर विपक्ष कीचड़ उछालने लगा। भले ही बाद में बसपा ने मारे गए नेता को अपनी पार्टी का नहीं बता कर, पूरे मामले से पल्ला झाड़ लिया लेकिन विपक्ष को तो बसपा सरकार पर हमला करने का मौका मिल ही गया। विपक्ष इससे पहले की और आक्रमक होता मौके की नजाकत भांप कर माया ने अपने कारनामों से चर्चा बटोरने वाले बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी और उनके सांसद भाई अफजाल अंसारी को बाहर का रास्ता दिखा दिया ,वहीं यह घोषणा भी कर दी कि बसपा से बाहुबलियों को बाहर किया जायेगा,लेकिन यह काम माया पूरी ईमानदारी से कर नहीं पाईं।माया अपनी इमेज बनाने की कोशिश में लगी थीं।

चार साल के शासन में एक बात तो साफ हो ही गई थीं कि माया का अब पहले वाला रसूख नहीं रह गया था। इसी लिए न तो अपराधी उनसे डर रहे थे न ही नौकरशाह। शायद नौकरशाही ने माया की नब्ज पकड़ ली थी। वहीं जनता से माया की दूरियां बढ़ गयी थीं। जब सांसद और विधायक तक मुख्यमंत्री से नहीं मिल पाते तो आम आदमी का हाल तो सहज ही समझा जा सकता है। माया के पिछले शासनकालों पर नजर दौड़ाई जाए तो देखने में यह आता था कि मुख्यमंत्री अपने सांसदों और विधायकों से मिलने में काफी दिलेरी दिखाती थीं। इसका फायदा यह होता था कि सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं की जमीनी सच्चाई का हाल उन्हें मिल जाया करता था। उस समय नौकरशाही भी सहमी रहती थी कि कहीं मुख्यमंत्री तक उनकी शिकायत न पहुंच जायें। इससे दो फायदे होते, सांसदों और विधायकों का रसूख कायम रहता था और जनता अपनी शिकायतों को लेकर अपने जनप्रतितिनिधि तक पहुंच जाती थी। लेकिन अबकी हालात बिल्कुल बदले हुए हैं। इस बार नौकरशाही ने एक सोंची समझी रणनीति के तहत मुख्यमंत्री को जनप्रतिनिधियों और जनता से दूर कर दिया है। नौकरशाह शासन का कामकाज पूरी तरह से अपनी मर्जी से चला रहे हैं। शायद उन्हें इस बात का अहसास अच्छी तरह से है कि सांसदों और विधायकों की पहुंच मुख्यमंत्री तक है नहीं, ऐसे में उसकी शिकायत उन तक पहुंचने की कोई संभावना भी नहीं है। थोड़ा कुछ अगर मीडिया व प्रचार माध्यमों से सरकार के कानों तक बात पहुंचा करती थी तो उसे भी नौकरशाहों ने एक तयशुदा रणनीति के तहत अपने कब्जे में ले रखा है। मीडिया से दूरी क्या रंग लाएगी, यह तो 2012 के विधान सभा चुनाव के बाद ही पता चलेगा,लेकिन इस समय जो हालात चल रहे हैं,वह बहुत ज्यादा अच्छे नहीं लग रहे।

उत्तर प्रदेश में सरकारी योजनाओं की बात करें तो प्रदेश की जनहित योजनाओं की कौन कहे केन्द्र सरकार की जो जनहितकारी योजनाएं यहां चलायी जा रही हैं और भारत सरकार जिसके लिए पूरा धन दे रही है उनका हाल भी बेहाल है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना(मनरेगा) हो या फिर वृध्दावस्था पेंशन अथवा कोई और योजना,सब जगह बंदरबांट हो रहा है। यह महत्वाकांक्षी योजना भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, लालफीताश्शाही और भाई-भतीजावाद की भेंट चढ़ गई हैं। मनरेगा में अब तक विभिन्न जिलों से जो आंकड़े सामने आ रहे हैं उसे देखकर इसका अपने उद्देय से अलग ही काम करने के प्रमाण मिल रहे हैं। इसका उद्देश्य ग्रामीण स्तर पर जरूरतमंदों को न्यूनतम सौ दिनों का रोजगार उनके अपने ही क्षेत्र में मुहैया कराना था। जिससे उनके रोजी-रोटी की तलाश मे अनावश्यक पलायन को रोका जा सके, साथ ही ग्रामीण इलाकों का समुचित विकास हो। अफसोस की बात यह भी है कि मनरेगा में सबसे ज्यादा फर्जीवाड़ा उत्तर प्रदेश में ही चल रहा है। जॉब कार्ड व मस्टर रोल में बड़े पैमाने पर धांधली, अपात्रों का चयन, निर्धारित दर से कम पर भुगतान करना, ग्राम प्रधान तथा जिला व ब्लाक स्तर के अधिकारियों के बीच मिलीभगत से अनकों जिलों में हो रही धांधलियां अखबारों की सुर्खियां बनी रहती हैं।एक तरह से उत्तर प्रदेश में मनरेगा भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुका है।2009.10 में केन्द्र ने इस योजना के लिए 750 करोड़ रूपये आवंटित किये। यह पैसा सभी जिलों को भेजा गया ,लेकिन कोई ऐसा जिला नहीं, जहां इसको लेकर लूट ना मची हो। नियमानुसार यदि इसके खर्च किया जाता तो कार्य दिवस का सृजन हो सकता था किन्तु राज्य सरकार ने जो वार्षिक रिपोर्ट केन्द्र सरकार को भेजी, उसके अनुसार केवल 18 करोड़ कार्य दिवस का ही सृजन हो पाया था। इसी प्रकार 57 करोड़ कार्य दिवस का पैसा अधिकारियों के पेट में चला गया। यह तो एक वर्ष का आंकड़ा था, इससे पहले 2008-09 में केन्द्र सरकार ने 5500 करोड़ रूपये और उसे पहले 4800 करोड़ रूपये दिया था। उसकी भी बन्दरबांट हो गई। इस योजना के तहत गांव में संपर्क मार्गों का निर्माण, तालाबों की खुदाई और उनका जीर्णोद्वार, वृक्षारोपण जल संवर्धन एवं जल संरक्षण, मेड़ बन्दी, हदबन्दी,जैसे काम कराये जाने थे।

वृक्षारोपण का हाल यह है कि वर्ष 2009-10 में 1600 करोड़ रूपये खर्च करके महीने भर के भीतर बुन्देलखंड में 10 करोड़ पेड़ लगा दिये गये, केन्द्रीय रोजगार गारन्टी परिषद के सदस्य संजय दीक्षित ने केन्द्रीय टीम के साथ इसकी जांच की तो वहां एक भी पेड़ नहीं मिला। इसके बावजूद इस मामले में एक भी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई, क्योंकि मामला वनमंत्री से सीधे जुड़ा हुआ था। आश्चर्य इस बात पर भी है कि इस मामले में प्रदेश के मुख्य सचिव ने भी मौके का मुआइना किया, किन्तु वे भी कुछ ना कर सके। आज भी इसकी जांच हो जाए तो सच्चाई सामने आ जायेगी।सच कहा जाये तो केन्द्र सरकार का पैसा पात्र व्यक्तियों को मिलने के बजाय अपात्रों की जेबें भर रहा है। 30 अप्रैल 11 को प्रधामनंत्री मनमोहन सिंह बुंदेलखंड के दौरे पर आए थे। उन्होंने बुंदेलखंड की प्यास बुझाने के लिए दौ सौ करोड़ रूपए देने की घोषणा की तो इससे पहले दिए गए पैसों का हिसाब भी बसपा सरकार से मांगा। 27 अप्रैल को अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी के दौरे से लौटते समय राहुल गांधी ने अचानक लखनऊ में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के राज्य कार्यक्रम प्रबंधन इकाई में पहुंचकर जननी सुरक्षा योजना और ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के मद और खर्च का जन सूचना अधिकार अधिनियम के तहत ब्योरा मांगा तो लोगों को समझते देर नहीं लगी कि उनका निशाना कहां पर है। राहुल ने लखनऊ पहुंच कर जनसूचना अधिकार अधिनियम 2005 के तहत उक्त योजना से संबंधित कई जानकारियों की मांग करके माया सरकार को जता दिया है कि चुनावी मौसम में उनकी सरकार के लिए राह आसान नहीं होगी। कांग्रेस और अन्य राजनैतिक दल अगर माया सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं तो उन्हें सिर्फ राजनैतिक मामला बता कर टाला नहीं जा सकता। धुआ वहीं से उठता है जहां आग लगी होती है।एक तरफ माया सरकार पर आरोप लग रहे हैं तो दूसरी तरफ वह अपनी सरकार के खिलाफ उठने वाली किसी भी आवाज को दबाने के लिए धरना-प्रदर्शन तक पर रोक लगाने की कोशिश में हैं। माया सरकार ने एक तुगलकी आदेश जारी करके कहा कोई भी दल या संगठन तब तक धरना-प्रदर्शन नहीं कर सकता है जब तक कि प्रशासन से इसकी इजाजत नहीं ले ली जाती।माया सरकार के इस फरमान से विपक्षी बौखला गए। उत्तार प्रदेश में धरना प्रदर्शनों एवं रैलियों आदि के आयोजन के लिए राज्य सरकार की ओर से 27 अप्रैल 11 को जारी किये गये नये दिशा निर्देशों में सार्वजनिक अथवा निजी संपत्तिा के नुकसान की भरपाई आयोजकों से कराये जाने के प्रावधान को राजनीतिक दलों पर अंकुश लगाने का हथकण्डा करार देते हुए प्रतिपक्षी दलों ने इस कदम को ”अघोषित आपातकाल” की संज्ञा दी।

बात घोटालों तक ही सीमित नहीं है। यही हाल सभी जगह है। मामला चाहे अफसरशाही की अपनी टीम का हो या फिर किसी महत्वपूर्ण पद पर तैनाती का। मायावती सरकार ने अपने चहेतों को रेवड़ियों की तरह पद बांटे हैं। योग्यता की जगह कास्ट अच्छी नियुक्ति का पैमाना बन गया है। बसपा ने विभिन्न आयोगों में अपने खास सिपहसलारों को अध्यक्ष बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से उस पर अपना कब्जा कर लिया है। यही हाल पंचम तल पर तैनात उनकी अपनी टीम का है। जिस अधिकारी ने उनकी हॉ में हॉ मिलाने से मना किया उसे तत्काल ही वहां से हटाकर किसी महत्वहीन पद पर भेज दिया गया। माया के पिछले शासनकाल के दौरान जो अधिकारी सरकार के बहुत खासमखास हुआ करते थे उन्हें इस बार ना तो कोई महत्वपूर्ण विभाग मिला और ना ही पंचम तल पर जगह। खींज कर कई काबिल अफसरों ने तो दिल्ली का रुख किया। पंचम तल पर आज भी मुट्ठी भर अधिकारियों का ही बोलबाला है। उन्हीं की बातों को तरजीह दी जाती है, यह बात दीगर है कि वे मायावती सरकार के लिए कोई ज्यादा फायदेमन्द साबित नहीं हो पा रहे हैं। उनके निर्णयों से लगातार सरकार की किरकिरी होती है तथा राजनैतिक तौर पर इसका बसपा को नुकसान भी हो रहा है। नौकरशाहों के हथकण्डों से बसपा सुप्रीमो और मुख्यमंत्री की जनता के बीच एक कड़े प्रशासक की साख में भी दिनों-दिन गिरावट आ रही है। ‘तबादलों की गोली’ से चुनिंदा नौकरशाहों को हल्कान किया जा रहा है। वजह कोई भी हो लेकिन आश्चर्यजनक रूप से माया के कोप के शिकार एक जाति विशेष(ब्राहमण) के ही ब्यूरोक्रेट बन रहे हैं। तबादलों की आंधी में करीब आधा दर्जन ब्राहमण नौकरशाह हाशिए पर चले गए तो कुछ अन्य बिरादारी के ब्यूरोके्रटों के भाव अचानक बढ़ गए हैं। पंचम तल (मुख्यमंत्री सचिवालय) से लेकर जिलों तक में महत्वपूर्ण पदों पर तैनात ब्राहमण नौकरशाहों को छांट-छांट कर किनारे किए जाने से बसपा से जुड़े ब्राहमण नेताओं के भी कान खड़े हो गए हैं। पहले बसपा सरकार में अहम रूतबा रखने वाले राष्ट्रीय महासचिव सतीश मिश्र को सक्रिय राजनीति से दूर करना और उसके बाद उनके शुभचिंतकों को भी महत्वपूर्ण पद से हटाया जाना इस बात का संकेत है कि माया दलित वोटरों की कीमत पर सर्वजन की राजनीति नहीं करना चाहती हैं। बहुजन समाज पार्टी की मुख्यमंत्री ने सत्तासीन होते ही यह ठान लिया था कि वे बात सर्वजन हिताय की करेंगी, लेकिन भला दलितों का । पूरे चार साल दलितों की ही बात करने वाली बसपा ने दलितों को रोटी, कपड़ा और मकान दिलाने की जुगाड़ करवायी । पुलिस महकमा हो या प्रशासनिक अधिकारी, अधिकतर सीटों पर आरक्षित श्रेणी के ही लोगों को क्रीम कही जाने वाले पदों पर रखा गया । थानों में दलित मुलाजिम ही देखे गये । माया सरकार ने दलितों की रहनुमाई में उन खाली पड़ी आरक्षित रिक्तियों को तो विशेष अभियान के तहत भरा, वरन अनारक्षित सीटों पर पर कब्जा जमाने की कोशिश हुई। सीटों को भरने एवं पढ़ाई लिखाई में विशेष छूट प्रदान करने में दलितों का ही हित देखा गया । गांव की तरफ चलें तो तो सारे के सारे विकास कार्य अंबेडकर गांवों तक ही सीमित रहे। सरकार ने अंबेडकर गांवों के लिए अपनी झोली खोल रखी है। प्रदेश भर में चार हजार डॉ अंबेडकर सामुदाियक केंद्रों का निर्माण करा रही हैं। इसके लिए उसने 327.80 करोड़ रूपए भी जारी कर दिए हैं समाज कल्याण विभाग की जानकारी के अनुसार राज्य सरकार ने अंबेडकर गांवों में 4 हजार सामुदायिक केन्द्रों के निर्माण की योजना बनाई है।दलितों के लिए मान्यवर कांशीराम योजना के तहत मकानों का निर्माण कराया जा रहा है।कुछ निर्धनों को तो मकान मुफ्त तक में दिए जा रहे हैं।

चार साल के बाद माया का ‘तीसरा नेत्र’ धीरे-धीरे खुलने लगा है।शायद इसकी वजह विधान सभा चुनाव का समय नजदीक आना है। बसपा सुप्रीमों नहीं चाहती कि दागदार नेताओं के कारण उन्हें जनता को जवाब देने में मुश्किल आए और विपक्ष को उन्हें घेरने का मौका मिल जाए, इसी लिए वह अपना दामन साफ करने की मुहिम में लगी तो हैं, लेकिन ऐसा करते समय वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी भी नहीं मार लेना चाहती। उन्हें अपनी सरकार की मजबूती की भी उतनी ही चिंता है,जितनी की बसपा से अपराधियों को बाहर निकालने की। यही वजह है कि अभी तक मुख्तार को छोड़कर बसपा से ऐसे किसी अपराधी को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया गया है जो अपराधी होने के साथ-साथ जनता का नुमांइदा भी हो। कहना गलत नहीं होगा कि बसपा से वह बाहुबली ही बाहर किए गए जो थोड़ा निर्बल थे,जिनको पार्टी से कोई खास फायदा हो नहीं रहा था और बदनामी ऊपर से उठानी पड़ रही थी।

 

मायावती के चार साल के कार्यकाल में जनता अब पूरी तरह से जान चुकी है कि सरकार की प्राथमिकता जनहित की नहीं बल्कि सिर्फ अपनी मूर्तियां लगवाने और स्मारकों के निर्माण में न्यायालय की लगी रोक हटवाने में है।अधिक से अधिक पैसा वह इस दौरान बटोर लेना चाहती हैं। माया का शासन करने का जो तौर तरीका है उससे यही लगता है कि प्रदेश की जनता पूरी तरह से छली गयी है। बसपा का स्थायी वोट बैंक कहलाने वाला दलित,जिसने लम्बे समय से एकजुट होकर बसपा को एक बड़ी ताकत के रूप में खड़ा किया उसका भी मोह माया से भंग होता दिख रहा है। इसकी मुख्य वजह है कि उसकी कहीं पर भी सुनवाई नहीं हो रही है। उस पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है। महज अधिकारियों के तबादले कर व समय-समय पर अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करके मुख्यमंत्री अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं।खैर, इतना तो तय है कि मायावती के शाासनकाल में विपक्ष और प्रदेश की जनता को लाखों खामियां दिख रहीं हो लेकिन बसपा के वोटर के लिए तो यही खुशी की बात है कि ‘बहनजी’ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं।उनके समाज के महापुरूषों को पहचान दिलाने का काम भी बसपा सुप्रीमों ने बखूबी किया। यही वजह है , उनका वोटर बहनजी को पांचवी बार भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होता देखना चाहता है।

माया शासन विपक्ष की नजर में

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती भले ही अपने चार साल के शासनकाल से संतुष्ट हों लेकिन विपक्ष को माया राज में खामियां ही खामियां नजर आईं। किसी की नजर में प्रदेश के हालात जंगलराज जैसे हो गए थे तो कोई माया सरकार को भ्रष्टाचार बढ़ाने वाला बता रहा था। वहीं ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं थी जिनकी नजर में बसपा सरकार किसान विरोधी, जनविरोधी, मूर्ति प्रेमी, उद्योगपतियों की चहेती, साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली और न जाने क्या-क्या है। इस संबंध में विभिन्न नेताओं ने अलग-अलग प्रतिक्रिया व्यक्त की।

समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने कहा कि चार साल से प्रदेश में जंगलराज चल रहा है।अदालत के आदेश पर बसपा विधायकों की गुंडागर्दी के खिलाफ मुकदमें दर्ज हो रहे हैं और माया सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है।महिला मुख्यमंत्री के शासनकाल में महिलाओं के साथ ही सबसे अधिक आपराधिक मामले हो रहे हैं।कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब गैंग रेप जैसे घृणित मामले सामने न आते हो। यह सरकार अपराधियों-माफियाओं की सरकार बन गई है। मुख्यमंत्री जनता को बरगला रही हैं। बसपा में अपराधियों को संरक्षण देने वाली माया इसका ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ना चाहती हैं,लेकिन जनता बेवकूफ नहीं है। उसे सब मालूम है। मुलायम ने माया को जिम्मेदारियों से भागने वाला नेता बताते हुए विश्वास जताया कि 2012 के विधान सभा चुनाव में प्रदेश की जनता मायावती सरकार को उखाड़ फेंकने में देरी नहीं करेगी।सपा प्रमुख ने अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि शिक्षा मित्रों, सपाइयों, वकीलों, किसानों,मजदूरों किसी को भी तो नहीं छोड़ा मायावती सरकार ने।निर्दल विधायक राजना भैया को जेल भेजने जैसी घटनाएं माया की सोच उजागर करती हैं। जिसने भी जुबान खोली उसे लाठी मिली। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही ने माया को गरीबी की दुश्मन और पूंजीपतियों की हिमायती बताते हुए कहा कि माया सरकार ने चार साल में प्रदेश को चालीस साल पीछे छोड़ दिया। विकास का कोई काम आगे नहीं बढ़ पाया है,जो जनहित योजनाएं भाजपा शासन में शुरू की गईं थी उसे रोक दिया गया है।सरकार दुर्भावनावश होकर फैसले ले रही है। उन्हें नोटों की माला पहनने और वसूली करने से ही छुट्टी नहीं मिल रही है।शाही ने बसपा को कांग्रेस की बी पार्टी करार दिया।

भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने बसपा सरकार को अब तक की सबसे अधिक भ्रष्ट सरकार बताते हुए इस बात पर दुख जताया कि केन्द्र सरकार माया के भ्रष्टाचार के कारनामों को उजागर करने के बजाए छिपा रही है। उनका कहना था सीबीआई माया के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए उनके आय के स्रोत तलाश रही थी, लेकिन भाजपा के ‘कट मोशन’ और लोक लेखा समिति में मचे बवाल के समय बसपा ने केन्द्र सरकार का साथ क्या दिया, माया के खाते तलाशने का काम रोक दिया गया। उन्हें पैसा बटोरने की और मौका दे दिया हैं। भ्रष्टाचार में डूबी माया सरकार सरकारी योजनाओं के पैसे का बंदरबांट करने में लगी है। वृध्दा अवस्था पेंशन ,मनरेगा कोई सरकारी योजना ऐसी नहीं बची है जो घोटालों से मुक्त हो। उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार बनी तो माया राज के सभी फैसलों की समीक्षा की जाएगी।भाजपा के वरिष्ठ नेता और लखनऊ के सांसद लाल जी टंडन भी इस बात से आहत हैं कि माया ने लखनऊ को पत्थर और मूर्तियों का शहर बना डाला। भाजपा के युवा नेता वरूण गांधी, माया सरकार को बहुसंख्यक विरोधी और साम्प्रदायिक करार देते हैं।बसपा नेताओं की लगाम अदालत को कसनी पड़ रही है।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षा डा. रीता बहुगुणा की नजर में भी माया सरकार की कोई खास इज्जत नहीं है। उन्हें इस बात का दुख है कि माया राज में महिलाओं को अपनी अस्मत की रक्षा के लिए घरों में कैद होकर रहना पड़ रहा है। बलात्कारियों, दुराचारियों और महिलाओं का उत्पीड़न करने वालों के खिलाफ सरकार इस लिए कोई कारवाई नहीं करती है क्योंकि यह लोग रसूख वाले होते हैं।औरत को इंसाफ मिलता नहीं ,उसकी आबरू की कीमत सरे बाजार लगाई जाती है।राज्य कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता सुबोध श्रीवास्तव ने इस बात पर दुख जताया कि बसपा के जनप्रतिनिधि ही जनता पर अत्याचार करने में लगे हैं।सरकार उनके खिलाफ कारवाई करने के बजाए उनके बचाव में लगी रहती है।उन्होंने कहा जिस तरह से औरेया में इंजीनियर के हत्यारे विधायक शेखर तिवारी को बचाने के लिए माया सरकार ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था,उसी प्रकार गौरीगंज में कांग्रेस कार्यकर्ता मयंकेश शुक्ल की निर्मम हत्या के दोषी विधायक सहित चन्द्र प्रकाश मिश्र ‘मटियारी’ तथा अन्य दोषियों को अविलम्ब गिरफ्तार किए जाने हेतु मुख्यमंत्री और पुलिस महानिदेशक को लिखने के बाद भी उसे गिरफ्तार करने की बजाए विधायक को क्लीनचिट दे दी गई। मात्र उक्त दो घटनाओं से बसपा सरकार का असली चेहरा उजागर हो जाता है,जबकि ऐसी घटनाओं का अंबार लगा हुआ है।

राष्ट्रीय लोकदल के चौधरी अजीत सिंह उत्तर प्रदेश की माया सरकार को हर मोर्चे पर विफल मानते हैं।उनका कहना था कि कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार के कारण प्रदेश खोखला हो गया है,माया राज में सबसे अधिक अत्याचार और उत्पीड़न का सामना किसानों को करना पड़ रहा है ।उन्हें न तो समय से खाद मिल रही है, न बीज। खेतों में सिंचाई नहीं हो पाने से सूखे की मार झेलना तो किसानोें की नियति ही बन गई है। गन्ना किसानों की बात की जाए तो पता चल जाएगा कि माया सरकार को गन्ना किसानों से अधिक चिंता चीनी मिल मालिकों की है। यही वजह है चीनी आयत होकर आ गई है,लेकिन चीनी मिल मालिकों को फायदा पहुंचाने के लिए उसे उठाया नहीं जा रहा है।

कविता/ माँ…तेरी ऊँगली पकड़ के चला…

माँ…तेरी ऊँगली पकड़ कर चला…

ममता के आँचल में पला…

 

हँसने से रोने तक तेरे ही पीछे चला

 

बचपन में माँ जब भी मुझे डाटती…

 

में सिसक–सिसक कर घर के किसी कोने में जाकर रोने लगता

फिर बड़े ही प्रेम से मुझे बुलाती…

कहती, बेटा में तेरे ही फायदे के लिए तुझे डांटती

फिर मैं थोडा सहम जाता और सोचता…

माँ, मेरे ही फायदे के लिए मुझे डाटती

जब भी मैं कोई काम उनके अनुरूप करता…

तो मुझे फिर से डांट देती…

आज भी माँ की डांट खाने का बड़ा ही मन करता…

माँ की डाट, मुझे हर बार नई सीख देती…


-ललित कुमार कुचालिया

अल्पसंख्यक नेतृत्व की तरह दिशाहीन होती उर्दू पत्रकारिता

संजय कुमार

भारतीय मीडिया में हिन्दी व अंग्रेजी की तरह उर्दू समाचार पत्रों का हस्तक्षेप नहीं दिखता है। वह तेवर नहीं दिखता जो हिन्दी या अंग्रेजी के पत्रों में दिखता है। आधुनिक मीडिया से कंधा मिला कर चलने में अभी भी यह लड़खड़ा रहा है।

यों तो देश के चर्चित उर्दू अखबरों में आठ राज्यों से छप रहा ‘रोजनामा’ हैदराबाद से ‘सियासत’ और ‘मुंसिफ’, मुंबई का ‘इंकलाब’, दिल्ली से ‘हिन्दुस्तान एक्सप्रैस’ व ‘मिलाप’, कनाटर्क से ‘दावत’ और पटना से ‘कौमी तन्जीम’ सहित अन्य उर्दू पत्र इस कोशिश में लगे हैं कि उर्दू पत्रकारिता को एक मुकाम दिया जाए। लेकिन बाजार और अन्य समस्याओं के जकड़न से यह निकल नहीं पा रहा है। देखा जाये तो उर्दू पत्रकारों की स्थिति बद से बदतर है तो महिला पत्रकार नहीं के बराबर हैं। यह इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार से प्रकाशित एक दर्जन से ज्यादा उर्दू अखबरों में एक भी महिला श्रमजीवी पत्रकार नहीं है। पटना से प्रकाशित एक बड़ा उर्दू अखबार अपने पत्रकारों को पांच हजार से बीस हजार रूपये महीना तनख्वाह देता है जबकि मंझोल और छोट उर्दू अखबारों में शोषण जारी है।

वहाँ पत्रकारों को तनख्वाह सरकारी दफ्तरों में कार्यरत आदेशपाल से भी कम मिलता है। वहीं अखबारों पर आरोप है कि वे विज्ञापनों के लिए निकल रही हैं। एक आध उर्दू पत्र दिख जाते हैं बाकि की फाइलें बनती है। एक ओर वर्षों से बिहार सहित देष भर में बडे/मंझोले/छोटे उर्दू अखबार उर्दू भाषी जनता के लिए अपनी परंपरागत तरीके से अखबार निकाल रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर उर्दू अखबरों के प्रकाशन क्षेत्र में कारपोरेट जगत घुसपैठ कर उनकी नींद उड़ा रही है। सहारा ग्रुप तो पहले ही आ चुका है अब इस क्षेत्र में हिन्दी के बड़े अखबार घराने कूदने की पूरी तैयारी की चुकें हैं। ऐसे में पांरम्परिक उर्दू अखबारों के समक्ष चुनौतियों का दौर शुरू होने जा रहा है।

इसमें कोई शक नहीं कि देश में उर्दू पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत के नवनिर्माण में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। लेकिन, हकीकत यह है कि मीडिया के झंझावाद ने लोकतंत्र के चौथे खम्भे को मजबूत बनाने में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता के योगदान को आज दरकिनार कर दिया गया है। उर्दू पत्र व पत्रकार अपने बजूद के लिए आज हर मुकाम पर संघर्ष कर रहे हैं। इसके लिए किसी ने उर्दू पत्रकारिता की हालत बंदर के हाथ में नारियल जैसी बताया, तो किसी ने उर्दू पत्रकारिता को आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर चलते हुए। उर्दू पत्रकारिता की बदहाल दषा और दिशा पर कई पत्रकारों से बातचीत हुई। कई सवालों को खंगाला गया।

उर्दू दैनिक ‘कौमी तन्जीम’ पटना के संपादक एस.एम. अजमल फरीद सच को स्वीरकते हुए कहते है, सच है कि वर्तमान समय में उर्दू अखबारात अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में उतनी गति हासिल नहीं कर पा रहे हैं जितना कि इसका स्वर्णिम इतिहास रहा है। चाहे वो आधुनिक तकनीक अपनाने, विषय वस्तु विषेशज्ञ पत्रकारों की टीम तैयार करने या आज खुद को बिल्कुल नये रूप में ढालने की बात हो। इनका दायरा थोड़ा सीमित है। उर्दू भाषा जिसकी महत्ता और उच्चारण की मधुरता को स्वीकार तो सब कोई करता है लेकिन इसके विकास के लिए सामूहिक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं और इसको एक विषेश वर्ग से जोड़कर देखा जाने लगा है। श्री फरीद कहते हैं कि इन सब के बावजूद एक सीमित संसाधन में उर्दू अखबारात पाठक वर्ग तक बेहतर अखबार पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे हैं और अच्छी संख्या में उर्दू अखबारात पाबंदी से प्रकाशित हो रहे हैं। उर्दू अखबारात की प्रसार संख्या और पाठकों की संख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है।

उर्दू अखबारात का महत्व अंग्रेजी या हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में इस मायने में अब भी बरकरार है कि सकारात्मक पत्रकारिता उर्दू अखबारों का मूल उद्देश्य है जहां अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों में पश्चिमी संस्कृति पूरी तरह हावी नजर आती है। खबरों से लेकर तस्वीरों की प्रस्तुति में जिस तरह का खेल अंग्रेजी और हिन्दी अखबारों में खेला जा रहा है। इससे उर्दू अखबारात अब भी बहुत हद तक सुरक्षित हैं। समाचार या लेख की प्रस्तुति में भी इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि भारतीय परंपरा और गंगा-यमुनी संस्कृति का ही समावेश हो। पाठक वर्ग का ध्यान रखते हुए भले ही अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफी या जुल्म की खबरों को थोड़ी प्राथमिकता मिलती है लेकिन इसमें सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे यह अब भी उर्दू अखबारों का बड़ा लक्ष्य होता है।

श्री फरीद जोर देकर कहते है कि हाल के वर्षों में कारपोरेट घरानों का आकर्षण भी उर्दू अखबारों की ओर बढ़ा है और अब कारपोरेट घराने भी उर्दू अखबार निकाल रहे हैं, जिससे इस बात की आषंका बढ़ गई है कि भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को बरकरार रखते हुए अबतक उर्दू पत्रकारिता जो एक स्वस्थ समाज की कल्पना के साथ आगे बढ़ रही थी वो बाधित हो सकती है, क्योंकि कारपोरेट घरानों के उर्दू अखबार भी पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित नजर आते हैं और अपने पाठकवर्ग के विचारों की अनदेखी करते हुए उनपर एक नयी संस्कृति थोपने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार ख़ुर्शीद हाशमी कहते है कि मुझे उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा दोनों गड़बड़ नजर आती है। मेरी नजर में उर्दू पत्रकारिता की हालत आज वैसी ही है जैसी बंदर के हाथ में नारियल की होती है। बंदर नारियल के साथ कब तक खेलेगा, कब उसे पानी में उछाल देगा या कब उसे किसी के सिर पर दे मारेगा, कहना मुश्किल है।

यह स्थिति इसलिए है कि उर्दू पत्रकारिता मुख्यतः आज भी निजी हाथों में हैं। उर्दू पत्रकारिता के भाग्य विधाता वह लोग बने बैठे हैं, जो न उर्दू जानते हैं और न पत्रकारिता का ज्ञान रखते हैं। यह लोग उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के मालिक होते हैं। मालिक होने के नाते नीति-निर्धारक से लेकर संपादक और व्यवस्थापक तक सब कुछ यही लोग होते हैं। वे जैसा चाहते हैं, करते हैं। उनकी नजर में पत्रकारों की कोई अहमियत नहीं होती है। वह उन्हें क्लर्क या एजेन्ट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, इसलिए अधिक तेज या पढ़े-लिखे लोग उनको रास नहीं आते, वैसे भी अधिक पढ़े-लिखे लोग महंगे होंगे, और यह लोग चीफ एंड वेस्ट में विश्वास रखते हैं। ऐसी स्थिति में अगर कोई तेज पत्रकार आ भी जाता है तो वह उनकी उपेक्षा का शिकार हो जाता है। उसकी हर बात और हर राय की अनदेखी करके उसे उसकी औकात बता दी जाती है। वे कहते हैं कि हम बिजनेस करने के लिए आये हैं, और बिजनेस कैसे करना है, यह हम जानते हैं, लेकिन वास्तव में वह बिजनेस करना भी नहीं जानते, इसलिए वह उर्दू की सेवा या पत्रकारिता तो करते ही नहीं, ढंग से बिजनेस भी नहीं कर पाते हैं।

श्री हाशमी कहते हैं, उर्दू पत्रकारिता में अब कारपोरेट सेक्टर ने भी पांव पसारना शुरू कर दिया है। वैसे तो वहां भी कुछ समझौते होते हैं और कई बार अयोग्य लोगों को कमान सौंप दी जाती है, जो अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए अपने से भी अधिक अयोग्य लोगों को लाकर पत्रकारिता की कबर खोदने का प्रयास करते हैं, फिर भी निजी हाथों की तुलना में कारपोरेट सेक्टर में स्थिति अच्छी है। मगर समस्या यह है कि कारपोरेट सेक्टर का नाम सुनते ही उर्दू के पाठक भड़क उठते हैं। उन्हें लगता है कि कारपोरेट जगत के अखबार उनकी आवाज मजबूती के साथ नहीं उठा सकते और उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकते हैं।

उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार और पटना कामर्स कालेज के पत्रकारिता विभाग के काडिनेटर तारिक फातमी का मानना है कि उर्दू पत्रकारिता आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ी है जहाँ दूर-दूर तक बेहतर भविष्य के लिए रौशनी की कोई किरण दिखाई नहीं देती है। उर्दू प्रेस के मालिकान उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर चाहे जितने भी आशांवित हों लेकिन दरअसल एक कडवी सच्चाई यह भी है की उर्दू पत्रकारों का भविष्य उस अँधेरे कुँए की तरह है जहाँ से न रौशनी की उम्मीद की जा सकती और न प्यास बुझाने के लिए पानी की, दूसरे शब्दों में कहें तो उर्दू पत्रकार आज अपने भविष्य को लेकर एक अनिश्चितता के स्थिति से गुजर रहा है और अपने भविष्य की इसी अनिश्चिता के कारण वह परेशान भी है। दुखी भी। जो लोग उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास की बातें करते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए की जिन लोगों ने उर्दू पत्रकारिता की नीवं रखी थी उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि समाज और मानवता की सेवा करना था, लेकिन आज स्थिति उलट गई है।

आज उर्दू प्रेस मालिकों का एक मात्र उद्देश्य सरकारी और निजी विज्ञापनों को प्रकाशित करके पैसा कमाना और उर्दू समाचार पत्रों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकारों से बेशर्मी के साथ उनका शोषण करना मात्र है। आप बिहार से प्रकाशित किसी भी उर्दू समाचार पत्रों के कार्यालयों में चाहे वो कौमी तंजीम, फारूकी तंजीम, पिनदार, संगम, प्यारी उर्दू हो या कार्पोरेट जगत द्वारा प्रकाशित रोजनामा उर्दू सहारा, का भ्रमण करे तो आपको वहां कार्यरत पत्रकारों दशा देख कर मेरे दावे की पुष्टि हो जाएगी कौमी तंजीम, के संपादक उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर खुशफहमी के शिकार हैं, सच्चाई यह है की भविष्य उर्दू पत्रकारिता का नहीं उनका जरूर उज्जवल है क्योंकि उर्दू समाचार पत्र के मालिक हैं, वह स्वय पत्रकार नहीं, उन्हें संपादक का पद विरासत में मिला है, उन्होंने कभी चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती सर्दी या भरी बरसात में मीलों पैदल चल कर समाचारों का संकलन नहीं किया। इसलिए उन्हें उस दर्द का एहसास नहीं होगा, जो दो हजार से पांच हजार की पगार पर बारह-बारह घंटों तक दफ्तर में बेगारी करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों को होता है।

यही हाल बिहार से प्रकाशित होने वाले सभी दैनिक समाचार पत्रों का है, पिन्दार, फारूकी तंजीम,संगम, इन सभों के वर्तमान मालिकों (तथाकथित संपादकों) का पत्रकारिता से कोई लेना-देना कभी नहीं रहा। इन तथाकथित संपादकों में कोई किरानी की नौकरी करता था तो कोई चिकित्सक है, कोई ठेके पर समाचार पत्र निकाल रहा है, तो कोई कमीशन पर विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए समाचार पत्र का संपादक बना बैठा है। जाहिर है जब स्थिति इतनी भयावह हो तो उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। सचाई तो ये है की आज पूरे देश विशेष कर बिहार में उर्दू पत्रकारिता उसी तरह दिशाहीन है जिस तरह देश का अल्पसंख्यक नेतृत्व, जिस तरह अल्पसंख्यक समुदाय आज मुस्लिम नेताओं के हाथों छला जा रहा है उसी तरह तथाकथित संपादकों द्वारा उर्दू पाठक और उर्दू समाचर पत्रों में कार्य करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों का शोषण और दोहन जारी है।

बिहार की उर्दू पत्रकारिता आज सत्ता के इर्द -गिर्द घूम रही है । हर समाचार पत्र सरकारी विज्ञापन पाने के लिए वर्तमान सरकार की हर सही-गलत नीतियों का समर्थन करना अपना धर्म और फर्ज समझता है ,पद और सम्मान पाने के लिए उर्दू समाचार पत्रों के कुछ पत्रकार सत्ता के गलियारों में नेताओं के आगे-पीछे दुम हिलाते और चापलूसी करते देखे जा सकते हैं। जाहिर है जब एक पत्रकार पद, पैसा और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए राजनीतिज्ञों के पास अपना आत्मसम्मान गिरवी रख दे तो उस समाचार पत्र या पत्रकार से समाज कल्याण, मानव सेवा, भाषा, देश, राज्य और समाज के विकास में भागीदारी निभाने की आशा करना बेमानी है। देश और विशेष कर बिहार की उर्दू पत्रकारिता में आज जोश ,जज्बा और क्षमता नहीं है कि वह किसी बड़े आन्दोलन की अगवाई कर सके?

दूसरी ओर ‘बिहार की खबरें’ के संपादक अंजुम आलम कहते हैं कि बिहार से सर्वप्रथम प्रकाषित होने वाला पत्र भी उर्दू था। इसके बावजूद इसकी वर्तमान दषा उत्साहवर्द्धक नहीं है। हालांकि अभी भी पटना सहित राज्य से दर्जनों उर्दू दैनिक एवं पचासों पत्रिकायें प्रकाशित हो रही हैं परंतु इनका स्तर उस बुलंदी पर नहीं है, जिसकी उम्मीद की जाती है। बिहार में उर्दू को द्वितीय राजभाषा का भी दर्जा प्राप्त है। उर्दू समाचार पत्रों को राज्य सरकार से विज्ञापन भी मिलता है। सरकारी विज्ञापनों के कारण उर्दू समाचार पत्रों की आर्थिक स्थिति सम्पन्न नहीं तो संतोषजनक अवश्य है। इसके बावजूद उर्दू पत्रकारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।

परिणाम स्वरूप युवा पीढ़ी उर्दू पत्रकारिता की ओर आकर्षित नहीं हो रही है। इस कारण आने वाले दिनों में उर्दू समाचार पत्रों को संकटमय स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। अखबार मालिकों को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। श्री अंजुम आलम कहते है कि स्वतंत्रता के बाद से गुलाम सरवर, शीन मुजफ्फरी, शाहिद राम नगरी इत्यादि उर्दू पत्रकारों, जो मील का पत्थर छोड़ा था वहां तक आज कोई नहीं पहुंच पाया है। मौजूदा उर्दू पत्रकारिता जगत में आज भी कई अच्छे पत्रकार सक्रिय हैं। परंतु, उनकी दशा से नई नस्ल प्रभावित नहीं हो पा रही है। आज का युवा वर्ग इसे करियर के रूप में अपनाने का इच्छुक नजर नहीं आ रहा है। उर्दू में अभी बिहार से कई रंगीन एवं आकर्षक उर्दू समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन सीमित समाचार नेटवर्क का अभाव पाठकों को खटकता है। उर्दू समाचार पत्र सामान्यतः आम लोगों द्वारा प्रकाशित होते थे। परंतु हाल के वर्षों में सहारा इंडिया ने इस क्षेत्र में भी कदम रखा है।

उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार राशिद अहमद का मानना है कि भारत की राजनीति विशेष रूप से स्वतंत्रता संग्राम में अदम्य भूमिका निभाने वाली उर्दू पत्रकारिता आज हिन्दी और अंग्रेजी की तुलना में पिछड़ गई है। यह एक कटु सत्य है मगर यह भी सच है कि जहां एक ओर इसके पिछड़ेपन की बात में कहानी और कल्पना अधिक है वहीं इसके पिछड़ेपन के आयाम भी विचारनीय हैं। उर्दू पत्रकारिता का पिछड़ापन पत्रकारिता के मूल तत्व से जुड़ा हुआ नहीं है क्योंकि अगर मुद्दों और सामाजिक सरोकारों की बात करें, तो समय की मांग और समस्या के मूल्यांकन में यह पीछे नहीं रही, तुलनात्मक अध्ययन करते समय कुछ बातों की अनदेखी की जाती है, जिसके कारण नतीजा गलत निकलता है।

समाचार पत्र के सरोकारों का सीधा नाता उसके पाठकवर्ग से होता है। समाज की विस्तृत तस्वीर पेश करने के साथ-साथ समाचार पत्र और उससे जुड़े पत्रकार उस पूरे फ्रेम में अपने पाठक के स्थान तलाश करते हैं और उचित स्थान न मिल पाने के कारण और उससे जुड़ी समस्याओं का मूल्यांकन करते हैं। अंग्रेजी हिन्दी पत्रकारिता का विश्लेषण करते समय तो पाठक तत्व का विशेष ध्यान रखा जाता है मगर उर्दू पत्रकारिता के विश्लेषण के समय उसके पाठक तत्व को अनदेखा करके उसे उर्दू और हिन्दी के पाठक तत्व की कसौटी पर परखा जाता है। कहने का मतलब केवल इतना है कि उर्दू पत्रकारिता की बदहाली मुद्दों और सरोकारों से दूर रहने की नहीं है बल्कि आर्थिक पिछड़ेपन की कहानी है।

समाचार पत्र का अर्थ विज्ञापन से जुड़ा हुआ है। मगर उर्दू समाचार पत्रों को हमेशा विज्ञापन के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। संघर्षरत रहना पड़ता है। विज्ञापन सरकारी हो या गैर सरकारी। व्यापारी भी उर्दू पाठक को अपना उपभोक्ता तो जरूरत समझते हैं। उसके हाथ अपना सामान अधिक से अधिक बेचने का प्रयास तो जरूर करते हैं। मगर उन तक पहुंचने का रास्ता वह उर्दू समाचार पत्र के स्थान पर दूसरी भाषाओं के समाचार पत्रों में तलाश करते हैं। यह मानना होगा कि आर्थिक तंगी के कारण नई तकनीक अपनाने में उर्दू पत्रकारिता पिछड़ जाती है। वह नए प्रयास नहीं कर पाती, यह भी सही है कि आर्थिक तंगी के कारण उर्दू समाचार पत्र अपने पत्रकारों को उतनी और सुविधायें नहीं दे पाते जितना हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारों को मिलती है। इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

वरिष्ठ उर्दू पत्रकार इमरान सगीर कहते है शुरूआती दौर में उर्दू अखबारों को यह गौरव हासिल था कि उर्दू अखबार के संपादक या पाठक किसी विशेष वर्ग के नहीं हुआ करते थे, बल्कि यह पूरे तौर से सामान्य वर्ग के लिए था। लेकिन समय के साथ-साथ परिवर्तन यह हुआ कि उर्दू अखबार एक विशेष वर्ग तक सीमित होने लगा। ये उर्दू पत्रकारिता के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है। आज हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारिता में बड़ी क्रांति आयी है, लेकिन इसकी अपेक्षा उर्दू पत्रकारिता को उतनी गति नहीं मिल पा रही है। हिन्दी और अंग्रेजी समाचार-पत्रों की तुलना में आधुनिक तकनीक को अपनाने में अब भी उर्दू अखबरात संघर्षरत हैं, इसका कारण स्पष्ट है कि सरकारी स्तर पर इसे अपेक्षाकृत सहयोग नहीं मिल पाता वहीं निजी या व्यवसायिक विज्ञापनों से भी उर्दू समाचार-पत्रों को उतनी आमदनी नहीं हो पाती जिससे की आर्थिक रूप से संपन्न हो सकें।

इन सबके बावजूद सीमित संसाधनों में उर्दू अखबरात सकारात्मक सोच के साथ उर्दू पत्रकारिता के सफर को आगे बढ़ा रहे हैं। उर्दू अखबरात की सबसे बड़ी खूबी ये है कि ये आम आदमी का अखबार होने का धर्म निभाते हैं। हिन्दी या अंग्रेजी समाचार-पत्रों तक आम लोगों की पहुंच आसान नहीं हो पाती, वहीं उर्दू अखबार तक समाज में हाशिये पर खड़ा व्यक्ति की भी आसानी से पहुंच सकता है। अर्थात् समाज का कोई व्यक्ति उर्दू अखबारों से बिल्कुल जुड़ा हुआ महसूस करता है। ये उर्दू अखबारों की लोकप्रियता का बड़ा कारण है। उर्दू अखबारों की विश्वसनीयता और महत्ता इसके पाठक वर्ग में इसे लेकर भी है, कि ये उनके साथ होने वाली किसी भी स्तर पर नाइंसाफी की आवाज प्रमुखता से उठाते हैं, ऐसी खबरों को प्रमुखता से सामने लाते हैं, जिन्हें भेदभाव के नतीजे में अंग्रेजी या हिन्दी समाचार-पत्रों में या तो जगह नहीं दी जाती या फिर उन्हें तोड़-मरोड़कर संक्षेप में किसी कोने में जगह दी जाती है। ऐसे में उर्दू समाचार पत्र ही उनकी उत्सुकता दूर कर पाते हैं।

आज के आधुनिक युग में दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लोगों को उर्दू अखबार नहीं मिल पाता, वैसे गांव के लोग अब भी उर्दू अखबार के दफ्तर से डाक के माध्यम से अखबार मंगाते हैं, और दो-तीन दिन पुरानी ही सही लेकिन इसे पढ़ना जरूर पसंद करते हैं। डाक से अखबार मंगा का कर पढ़ने का शौक उर्दू अखबारों की अहमियत का एक बड़ा उदाहरण है। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल ही कहा जायेगा।

उर्दू पत्रकारिता में महिलाएं नहीं के बराबर है। बल्कि उर्दू पत्रकारिता से कोसो दूर है। स्वतंत्र उर्दू पत्रकार डा0 सुरैया जबीं कहती है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में नई क्रांति तो आयी अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तुलना में न सही लेकिन उर्दू पत्रकारिता में भी क्रांति आयी है। बड़ी संख्या में उर्दू समाचार-पत्र नये रंग-रूप में प्रकाशित किये जा रहे हैं। जहां आधुनिक तकनीक का प्रयोग भी हो रहा है। समाचारों की प्रस्तुति में सीमित दायरे से बाहर निकलकर अब उर्दू अखबारों में भी सामान्य खबरें पढ़ने को मिलती हैं। अलग-अलग विषयों पर साप्ताहिक विशेषांक भी प्रकाशित होते हैं, और अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तरह खुद को स्थापित कर रहे हैं।

यह उर्दू पत्रकारिता के लिए एक शुभ संकेत हैं। पहले उर्दू अखबारों में खबरों का दायरा बिल्कुल सीमित था। वर्तमान में उर्दू पत्रकारिता के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण बात ये भी है कि बिहार की उर्दू प्रिंट मीडिया में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है, क्योंकि उर्दू अखबारों में महिला मीडियाकर्मियों को इन्ट्री नहीं मिल पाती, आज कालेजों में उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स भी चलाये जा रहे हैं। उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त करने वालों में बड़ी संख्या छात्राओं की भी है, लेकिन इन्हें भी उर्दू अखबारों के दफ्तरों में इन्ट्री नहीं मिल पा रही है। उर्दू पत्रकारिता की सेवा से महिलाओं की दूरी अब भी कायम है, ये दुर्भाग्यपूर्ण है और ये दूरी मिटनी चाहिए।

बिहार हो या देश का कोई हिस्सा उर्दू पत्रकारिता की दशा-दिशा को प्रभावित करने वाले कारणों पर उर्दू पत्रकारों ने जो विचार दिये वह सवाल छोड़ जाते हैं। उर्दू पत्रकारिता की बदहाली के पीछे आर्थिक तंगी, भाषा, कारपोरेट घराना और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव जहां महत्वपूर्ण हैं वहीं पर राजनीतिक-सामाजिक कारण भी अहम है। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद शुरूआती दौर की तरह आज यह अपने शिखर पर नहीं है। इसके सिमट जाने से उर्दू एक वर्ग/समुदाय तक ही रह गयी है। शुरूआती दौर में यह किसी एक वर्ग/समुदाय तक ही समीति नहीं थी बल्कि गैरमुस्लिम विद्वान उर्दू समाचार पत्रों के संपादन किया करते थे। आज ढूंढ़ने पर भी गैरमुस्लिम विद्वान नहीं मिलेगें जो उर्दू के अखबारों का संपादन करते हो ? इसके पीछे वजह जो भी रही हो एक वजह साफ है कि उर्दू को मुसलमनों की भाषा से जोड़ कर देखा गया। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद भी उर्दू अखबार गैरमुस्लिम घरों में नहीं जाता है।

दुनिया में सबसे सहनशील धर्मपंथ -हिंदुत्व

विजय सोनी

भारत में तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी लोगों ने जहाँ हिन्दुओं को और हिंदुत्व को हिन्दू आतंकवाद तक का नाम दे दिया है वहीँ ये जानना भी आवश्यक है की “व्हाट इस इंडिया ” मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई की  भारतीय दर्शन से दुनिया कितनी प्रभावित है ,इस किताब ने दुनिया भर के महान फिलासफर से लेकर वैज्ञानिकों सहित जानी मानी विश्व प्रसिध्ध हस्तियों की भारतीय संस्कृति कला और जीवन जीने की पध्धति को श्रेष्ठ और अनुकर्णीय   माना है ,उन सभी के विचारों को एक ही किताब में संकलित कर सलिल जी, जो शिलोंग मेघालय के निवासी हैं,  ने एक ऐसा महान कार्य किया है जिसके माध्यम से आज के तथाकथित प्रगतिशील और आधुनिक माने जाने वाले लोगों की आँखें खुलेंगी ,हिन्दू को या हिंदुत्व को उग्र कहने वालों को समझ लेना चाहिए की वास्तव में ये निर्विवाद सत्य है की इस देश के वेद-पुराण ने मनुष्य  को दया ,अहिंसा,मानवता प्रेम,शील,शान्ति,करुणा,समता एवं बंधुत्व का मार्ग बता कर सम्पूर्ण विश्व को आलोकित किया है,यही तो वो देश है जिसमे सारे जीव जन्तुं ,पशु पक्षी ,नदी पहाड़ों ,तक को देवतुल्य स्थान दिया और निभाया भी है ,समाज में आज भी इन मूल्यों का कोई तोड़ नहीं है ,समता,बंधुता,नैतिकता की स्वास्थ्य परंपरा हमारे रग रग में निहित है ,युवा पीढ़ी अपनी राह से भटक कर पश्चिम से भौतिकता की और आकर्षित हो रही है ,जीवन मूल्यों और आवश्यकताओं की परिभाषा बदल रही है ,ऐसे में ये किताब एक नसीहत समझें या चेतावनी किन्तु सत्य तो सत्य ही है इसी लिए क्योन फ्रेद्रिका जी ने कहा है की “आप भारतीय भाग्यशाली हैं जिनको ज्ञान विरासत में मिला ,मुझे आपसे ईष्र्या है ,ग्रीस मेरा देश है किन्तु मेरा आदर्श भारत है “निश्चित ही उक्त महान फिलासफर ने समझाने में कोई कसार नहीं रखी समझाना हमारा काम है,जर्मनी के फिलासफर आर्थर जी का ये कोटेसन की “सारी दुनिया की शिक्षा मानवता के लिए उपनिषद् से ज्यादा मददगार नहीं है ” इतना विश्वास उपनिषद् के प्रती दिखाया  और माना गया है ,इसे आप क्या कहेंगें की जिस देश के उपनिषद् दुनिया भर में ग्राह्य है वहां के कर्णधारों ने शिक्षा के अन्य मापदंड तय कर लिए हैं ,या हम ये कह सकते हैं की हम भटक रहें हैं ,वेलन्ताइन डे धीरे धीरे हमारी जीवनशैली बन रहा है ,अंग्रेजी स्टाइल की वो संस्कृति जिससे खुद अंग्रेज ऊब रहें हैं हम उसे नवीनता मान कर अंधानुसरण कर रहें हैं ,एक ग्रीक लेखक महोदय ने लिखा है की दुनिया की कोई भाषा संस्कृत से ज्यादा सरल स्पष्ट नहीं हैं ,ये ग्रीक लेखक कह सकतें हैं हमारे यहाँ यदि कहा जाएगा तो उसे धर्म निरपेक्षता की दुहाई देकर चुप कर दिया जावेगा .
ये सच है भारतीय इतिहास आक्रमणकारियों -आक्रान्ताओं का शिकार रहा है ,सात पीढ़ियों के मुस्लिम शाशन के बाद २०० वर्षों तक हमने अंग्रेजों की गुलामी भी सही ,देश आज़ाद हुवा किन्तु जिम्मेदार  लोग कहें या नीति निर्धारक कहें या शासन करने वाले लोग कहें किसी ने भी इन मूल्यों के प्रति अपनी सही और प्रगट आस्था नहीं जताई, केवल वोट के लिए एक नया सिधांत बना दिया गया “धर्मनिरपेक्षता” इस शब्द को विकृत रूप में प्रयोग किया जाने लगा केवल वोट प्राप्त करने तथा एक वर्ग विशेष को प्रभावित करने के प्रयास में हमने तुष्टिकरण मात्र किया जब की दुनिया मानती है की अँधेरे में यदि कोई रह दिखा सकेगा तो केवल भारतमाता की कोख से उपजी “श्रीमद भागवत” गीता का ज्ञान जिसने अन्याय को सहन करना भी अन्याय माना है ,विलिअम बटलर जी ने भी इसे श्रेष्ठ फिलासफी माना है ,भारतमाता की गोद में बहने वाली नदियाँ गंगा -गोमती  भी केवल जल प्रवाह करने वाली नदिया ही नहीं अपनी परम विशेषताओं के कारण इन्हें देव तुल्य दर्जा प्राप्त है ,इस किताब के लेखक  सलिल जी साधुवाद के पात्र हैं ,मेरी अपनी राय है की “व्हाट इस इंडिया” को देश की संसद -विधान सभाओं सहित सभी स्कूल कालेजों में अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाना चाहिए ताकि आने वाली नस्ल को हम देश की वास्तविक और स्थापित मान्यताओं के साथ जोड़ सकें.
आधुनिक विज्ञान भारतीय वेद पुराण और उपनिषदों से ऊपर नहीं है ,बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय के आधारबिन्दु हमारे प्राचीन साहित्य हैं ,श्री बर्नार्ड शाह जी का स्पष्ट मत है की “दुनिया में सबसे ज्यादा सहनशील यदि कोई धर्मपंथ है तो केवल हिंदुत्व है ” हिन्दुइजम सत्य के मार्ग को बताने वाला और सही राह पर चलनेवाला धर्म हिन्दू है जो ईश्वर की बताई राह की और मानवता को अग्रसर करता है ,श्री बी एस नाल्पौल जी के मतानुसार “हिन्दू पंथ  सामान्य मनुष्य के लिए अनुकरणीय है ” जड़ता -दासता से मुक्ति केवल हम दिला सकते हैं ,जहाँ महान विचारकों ने इस प्रकार आस्था प्रगट की है वहीँ यथार्थ में आज की दशा और दिशा जिस पर हम चल रहें हैं वो निश्चित ही भटकाव कहा या देखा जा सकता है इसलिए भी मेरा ये स्पष्ट मत है की व्हाट इज इंडिया के लेखक सलिल जी ने इस किताब को लिख कर विश्व की हमारे प्रति सोच वो भी वास्तविक सोच को उजागर किया है इस किताब को एक अमूल्य धरोहर का दर्ज़ा दिया जा सकता है .
देश की स्कूल कालेज यदि थोडा सा भी प्रयास अपनी संस्कृति अपने वेद की बात करेंगें तो तथाकथित धर्मनिरपेक्षता वादी चोलेधारी लोग इसे भगवाकरण का नाम देने लग जातें हैं ,यदि योग की बात की जावेगी तो इसे एक हिन्दू एजंडा मान कर विरोध शुरू कर दिया जाएगा ,इसे विडम्बना ही नहीं देश का दुर्भाग्य ही कहा जावेगा की हमारे ज्ञान का लोहा दुनिया मानती है किन्तु हम इससे भाग रहें है ,सनातन धर्म की शास्वत और सर्वमान्य परम्पराओं से दुनिया लाभान्वित हो रही है ,इसके गुण गान कर रही है और हम “धर्मनिरपेक्षता” के ढोल अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए बजा रहें हैं ,ये सब अब ज्यादा समय तक नहीं चलेगा क्योन की ये साबित हो चुका है की “अति का अंत” सुनिश्चित है ,दुनिया ने माना अब सबको मानना होगा की शिक्षा हो या चिकित्सा ,ज्ञान हो या विज्ञान ,अर्थ हो या व्यापार ,संस्कार हों या परम्पराएँ भारतीय वेद पुराणों के मानक सिधांत सर्वोपरी थे हैं और सदा रहेंगें ,इस विषय में लिखने -जानने -कहने और सुनाने सुनने के लिए बहुत कुछ है ,किन्तु फ़िलहाल माननीय सलिल जी को कोटिशः बधाई .

नयी सरकार की नयी चुनौतियां

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

ममता बनर्जी के नेतृत्व में नई सरकार 20 मई को शपथ लेगी। वाम मोर्चे का इसबार के विधानसभा चुनाव में हारना कई मायनों में महत्वपूर्ण है। ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठबंधन की जीत का पहला संदेश है कि लोकतंत्र में अकल्पनीय शक्ति है। लोकतंत्र को पार्टीतंत्र के नाम पर बंदी बनाकर रखने की राजनीति पराजित हुई है। पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि कम्युनिस्ट अपने पुराने सोच से बाहर नहीं निकलते तो उनको जनता खारिज कर देगी। यह भविष्यवाणी सही साबित हुई है। वाम मोर्चा और खासकर माकपा ने अपनी विचारधारा में युगानुरूप परिवर्तन नहीं किया। पार्टी के अंदर लोकतंत्र की संगति में परिवर्तन नहीं किए । इसके कारण ही पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की अभूतपूर्व पराजय हुई है। वाम की पराजय पहला कारण है वाम मोर्चे और माकपा का सरकारी दल में रूपान्तरण। माकपा ने 1977 में सत्ता संभालने के बाद वाम मोर्चे ने भूमि सुधार आंदोलन के अलावा कोई भी बड़ा आंदोलन नहीं किया। खासकर अपनी सरकार के खिलाफ कोई संघर्ष नहीं किया। माकपा के नेतृत्व वाले जनसंगठनों की भूमिका जनप्रबंधक की होकर रह गयी। जनसंगठनों को जनप्रबंधन संगठन बनाकर उन्हें जनता को नियंत्रित और शासित करने के काम में लगा दिया गया। साथ ही राज्य सरकार की अनेक बड़ी कमियों और जनविरोधी नीतियों के प्रति आँखें बंद कर लीं । इसके कारण आम जनता के साथ वाम मोर्चे का अलगाव बढ़ता चला गया और उसने ही ममता बनर्जी को राजनीतिक हीरो बनाया है। ममता बनर्जी को मिला जन समर्थन सकारात्मक है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। वाम मोर्चे के जनता से अलगाव का दूसरा बड़ा कारण है मंत्रियों की निकम्मी फौज। वाम मोर्चे ने विगत 35 सालों में कभी खुलकर किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री के कामकाज की आलोचनात्मक समीक्षा प्रकाशित नहीं की। निकम्मेपन के कारण किसी भी मंत्री को पदमुक्त नहीं किया । इससे प्रशासनिक स्तर पर निकम्मेपन को बढ़ावा मिला। आम जनता की तकलीफें इससे बढ़ गयीं। पश्चिम बंगाल के इतिहास में पहलीबार हिंसारहित मतदान हुआ है। इक्का-दुक्का हिंसा की घटनाओं को छोड़कर शांतिपूर्ण और निर्भय होकर मतदान करने के कारण आम जनता की वास्तविक भावनाओं को हम सामने देख रहे हैं। वाम मोर्चा लाख दावे करता रहे लेकिन वो चुनावों को हिंसारहित नहीं बना पाया।

ममता बनर्जी की महत्ता को कभी वामनेता नहीं मानते थे। वे कभी ममता बनर्जी को सम्मान के साथ ममताजी कहकर नहीं बुलाते थे। इससे उनके अंदर छिपे असभ्यभावों को समझा जा सकता है। वाम मोर्चे ने ममता बनर्जी को नेता के रूप में सम्मानित करने की बजाय बार-बार अपमानित किया। इस तरह की घटनाएं विगत 12 सालों में आम रही हैं। यह वामदलों में सभ्यता के क्षय का संकेत है। वामदल यह देख नहीं पाए हैं कि ममता बनर्जी ने अपनी संघर्षशील-जुझारू नेता की इमेज विकसित करके आम जनता में वाममोर्चे और खासकर माकपा के जनविरोधी कामों और आतंक के वातावरण को नष्ट करने का ऐतिहासिक काम किया है। ममता बनर्जी का राजनीतिक वर्गचरित्र कुछ भी हो लेकिन उसके जुझारू तेवरों ने माकपा के खिलाफ आम जनता को गोलबंद करने और गांधीवादी ढ़ंग से शांति से चुनाव जीतने का शानदार रिकार्ड बनाया है। ममता बनर्जी के प्रचार ने माकपा के 34 सालों के शासन को समग्रता में निशाना बनाया और खासकर उन बातों की तीखी आलोचना की जहां पर मानवाधिकारों का माकपा द्वारा हनन किया गया। पार्टीतंत्र बनाम लोकतंत्र में से चुनने पर जोर दिया।

ममता बनर्जी की जीत में राज्य कर्मचारियों की बड़ी भूमिका रही है। वाम मोर्चे की मजदूर विरोधी कार्यप्रणाली और नीतिगत फैसलों से राज्य कर्मचारी लंबे समय से नाराज चल रहे हैं ,ममता को इसका राजनीतिक लाभ मिला है। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले मोर्चे के मतों में वृद्धि हुई है। ममता बनर्जी के नेतृत्व में जो नई सरकार आ रही है उसके सामने तात्कालिक तौर पर निम्न कार्यभार हैं- 1. राज्य में राजनीतिक हिंसा की बजाय राजनीतिक भाईचारे का माहौल बनाया जाए। 2.राज्य कर्मचारियों को मंहगाई भत्ते की बकाया समस्त राशि का तत्काल भुगतान किया जाए। वेतन संबंधी अनियमितताएं खत्म की जाएं। कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षकों की अवकाश प्राप्ति की उम्र को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सिफारिशों के अनुसार 60 से बढ़ाकर 65 साल किया जाए। 3. जेल में बंद सभी राजनीतिक बंदियों की तुरंत रिहाई की जाए और राजनीतिक हिंसा और धौंसपट्टी के खिलाफ पुलिस सक्रियता बढ़ायी जाए। 4. मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों पर संवेदनशील ढ़ंग से प्रशासन काम करे। 5. राज्य में सूचना अधिकार कानून को पारदर्शिता और सख्ती के साथ लागू किया जाए। 6. भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए राज्य में लोकायुक्त का गठन किया जाए,जिससे विभिन्न भ्रष्टाचार के मामलों की सही ढ़ंग से प्रभावी जांच हो सके। विभिन्न स्तर पर खाली पड़े जजों और न्यायिक प्राधिकरणों के जजों के रिक्त पदों को तुरंत भरा जाए। 7. शिक्षा क्षेत्र में प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर चल रहे पार्टीतंत्र को तुरंत खत्म करके राज्य में व्यापक पारदर्शिता वाले ‘राज्य शिक्षा पुनर्गठन आयोग’ का निर्माण किया जाए ,अशोक मित्रा कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित की जाए। ‘राज्य शिक्षा पुनर्गठन आयोग’ बताए कि नई परिस्थितियों में क्या करें? नई प्रभावी संरचनाएं कैसे हों ? किस तरह के बुनियादी सुधारों की जरूरत है ? शिक्षा व्यवस्था के मौजूदा प्रबंधन को तत्काल खत्म करके नयी लोकतांत्रिक-पेशेवर-अनुभवसंपन्न प्रशासनिक प्रणाली लागू की जाए। राज्य में सक्रिय विभिन्न शिक्षा आयोगों और संस्थाओं के ढ़ांचे को तुरंत बदला जाए। 8.गांवों में पंचायतों के स्तर पर नरेगा आदि योजनाओं को बिना किसी भेदभाव के तुरंत लागू किया जाए। 9.राज्य अर्थव्यवस्था को सही मार्ग पर लाने के लिए कर वसूली के काम को गंभीरता से किया जाए और आर्थिक कुप्रबंधन पर एक श्वेतपत्र जारी किया जाए।

ओसामा का अंत और हम

11 सितम्बर 2001 को अमरीका में हुए आतंकवादी हमले के बाद अमरीका पूरी तरह से हिल गया था । अमरीका और अमरीकी नागरिक अब आतंकवादियों के निशाने पर थे । अमरीका का आत्मविश्वास डोल रहा था । उसकी बादशाहत को एक खुली और ज़बरदस्त चुनौती मिल चुकी थी । “ब्रांड अमरीका” खतरे में था किन्तु अमरीका ने हार नहीं मानी और विपरीत परिस्तिथियों के बाबजूद उसने येनकेन प्रकरेण अमरीका में हुए आतंकवादी हमले के मुखिया ओसामा बिन लादेन रुपी भस्मासुर को समाप्त करके अमरीका की तरफ आँख उठाने वालों को मुह तोड़ जवाब दिया । दस साल के लम्बे अरसे के बाद भी अमरीका की बदला लेने की इच्छा तनिक भी कम नहीं हुई और वे बिना थके, हर छोटी से छोटी बात पर गौर करते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँच गए । क्या हम भारतियों को इस घटना से कुछ सबक नहीं लेना चाहिए ?

अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अमरीका ने सदैव अपने ऊपर भरोसा किया और सफलता हासिल की । क्या हमें भी ऐसा ही नहीं करना चाहिए ? क्या संसद और मुंबई पर हुआ हमला किसी भी प्रकार से अमरीका में हुए आतंकवादी हमले से कम है ? हमारे पास सभी प्रकार के सबूत होने के बाद भी, ख़ास तौर पर कसाब जैसा जिंदा सबूत हमारे पास होने पर भी, हम अपने दुश्मन को सजा देना तो दूर, दुनिया को यही समझाने मै लगे हुए है की गुनाहगार कौन है ? क्या हमे आत्मावलोकन नहीं करना चाहिए की हम चाहते क्या है और कर क्या रहे है ?

जिस प्रकार जघन्य अपराध करने वाले का वध करना अथवा उसे दंड देना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं है। ठीक उसी प्रकार भारत और भारतीयों के खिलाफ किसी भी आक्रमण या अपराध का दोषी भी दया का पात्र नहीं हो सकता चाहे वह कोई व्यक्ति हो या फिर देश ही क्यों न हो। हमे उसे सजा देने का पूरा अधिकार है। केवल मात्र बातों से हम ये सजा नहीं दे सकते। “शठे शाठ्यम समाचरेत” की उक्ति को चरितार्थ करते हुए हमे भी अपने खिलाफ हो रहे षड़यंत्र का मुह तोड़ जवाब देना होगा ताकि भारत और भारतियों के खिलाफ कुछ भी करने से पहले हर किसी को सौ बार सोचना पड़े । मैं यह नहीं कह रहा की हमे पाकिस्तान पर आक्रमण कर देना चाहिए किन्तु दाऊद और आतंक के मुखियाओं को मारने में हमे कोई संकोच भी नहीं होना चाहिए और यह विकल्प हर समय हमारे मष्तिष्क में अवश्य रहना चाहिए। जिस प्रकार बड़ी ही ख़ूबसूरती के साथ पकिस्तान को चकमा देते हुए अमरीका ने ओसामा का वध किया है। क्या भारत भी ऐसा नहीं कर सकता ? अवश्य कर सकता है, किन्तु दृढइच्छा शक्ति की कमी झलक रही है।

क्या अमरीका और दुनिया के अन्य देशों को नहीं पता की पाकिस्तान का चरित्र कैसा है ? यदि हम यह सोचते हैं की अमरीका या अन्य देश हमारे लिए काम करेंगे और हमारे लिए आतंक के खिलाफ लड़ाई लड़ेंगे तो हमसे बड़ा बेवक़ूफ़ कोई नहीं है!सभी के अपने अपने हित हैं और उनका पहला उद्देश्य अपने हितों की पूर्ति होता है न की किसी और के लिए अपने हितों को तिलांजलि देना। हमे अपनी लड़ाई स्वयं ही लड़नी पड़ेगी। उदाहरण स्वरुप जिस प्रकार अमरीका ने पाकिस्तान मै घुसकर ओसामा को समाप्त करके अपना काम निकल लिया, हमारे द्वारा भी ऐसा ही करने पर अमरीका और विश्व के अन्य देशों को हमारे खिलाफ बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं रह जाता और यदि कोई विरोध करता भी है तो हमें अपना पक्ष द्रढ़ता के साथ रखे हुए किसी दवाब में न आते हुए कार्य करना चाहिए और हर परिस्तिथि के लिए मानसिक तौर से तैयार रहना चाहिए।
केवल बातों से या कागज़ी कायवाही से हम अपना उद्देश्य हासिल नहीं कर सकते “उद्यमेन ही सिध्यन्ति कार्याणि न च मनोरथः न ही सुप्तस्य सिंहस्य प्रविश्यन्ति मुखे मृगः” को ध्यान मै रखते हुए हमे कुछ सख्त और ठोस कदम उठाने पड़ेंगे। हमे अपने विचारों को अपने कर्मो से सिद्ध करना होगा तभी हम अपने स्वाभिमान को बचा सकते है अन्यथा महाशक्ति बनने का हमारा सपना तो बहुत दूर हमारा जीना दूभर हो जायेगा।

प्यादे बहुत मिले मगर वज़ीर न मिला

प्यादे बहुत मिले मगर वज़ीर न मिला

सबकुछ लुटा दे ऐसा दानवीर न मिला।

जिसे दरम चाहिए न चाहिए दीनार

ऐसा कोई मौला या फकीर न मिला।

अपनी फकीरी में ही मस्त रहता हो

फिर ऐसा कोई संत कबीर न मिला।

प्यार के किस्से सारे पुराने हो चले

अब रांझा ढूंढता अपनी हीर न मिला।

जख्म ठीक कर दे जो बिना दवा के

हमें ऐसा मसीहा या पीर न मिला।

खुद ही उड़ कर लग जाए माथे से

ऐसा भी गुलाल और अबीर न मिला।

किस्मत को कोसते हुए सारे मिले

लिखता कोई अपनी तकदीर न मिला।

 

धूप भी प्यार का ही एहसास है

लगता है जैसे कोई आस पास है।

पहाड़ों का दिल चीर देती है रात

दिन का होना सुख का एहसास है।

गुलाबी ठंड के साथ ताप जरूरी है

दर्द ही रौशनी का भी विश्वास है।

अर्श से फर्श पर आना आसान है

फर्श से अर्श तक जाना ही खास है।

चाँद के चेहरे पर दर्द पसरा है

रेत का बिस्तर चांदनी का वास है।

यह कहानी भी हमे सदा याद है

आँखों को आंसुओं की प्यास है।

सीमाएं अपनी जानता हूँ मैं

जबतक सांस है दिल में आस है।

वो मुझे पूछते हैं मेरा ही वजूद

प्यार करना ही मेरा इतिहास है।

काम मेरा रुका कभी भी नहीं

उस पर मुझे इतना विश्वास है।

 

वक़्त नहीं है कहते कहते वक़्त निकल गया

जुबान से हर वक़्त यही जुबला फिसल गया।

दिल से सोचने का कभी वक़्त नहीं मिला

दिमाग से सोचने में सारा वक़्त निकल गया।

खून के रिश्तों की बोली पैसों में लग गई

निज़ाम जमाने का किस क़दर बदल गया।

बुलाने वाले ने बुलाया हम ही रुके नहीं

अब तो वह भी बहुत आगे निकल गया।

हमें तो खा गई शर्त साथ साथ रहने की

वह शहर में रहा और घर ही बदल गया।

दिल मोम का बना है नहीं बना पत्थर का

जरा सी आंच पाते एक दम पिघल गया।

इतना प्यार हो गया है इस जिस्म से हमे

चोट खाकर दिलफिर झट से संभल गया।

तुम मिले मुझ को कुछ ऐसी अदा से

ग़ज़ल को मेरी खुबसूरत मिसरा मिल गया।

फिल्मों में दांपत्य जीवन

भारतीय  सिनेमा में दांपत्य जीवन का चित्रण कई स्थानों पर देखने को मिलता है। फिल्म निर्मातानिर्देशक उदारीकृत अर्थव्यवस्था में पतिपत्नी के बीच वादविवाद, टकराव, लड़ाईझगड़ा एवं तलाक(संबंध विच्छेद) को सिनेमा के सुनहले पर्दें पर उकेर रहे हैं। कुल मिलाकर निर्माताओं निर्देशकों का एक मात्र लक्ष्य भारतीय संस्कृति तथा भारतीयविवाह संस्था को श्रेष्ठ साबित करते हुए दिखाई देता है। परंतु हां, जीवन के उतारच़ाव में ये फिल्में मानवीय झंझावातों को दिखा तो रही हैं पर ये नहीं सोचती कि किस प्रकार उसे सुदृ़ किया जाए। क्या दांपत्य जीवन का भारतीय दर्शन सफल हो सकता है? क्या पतिपत्नी अलगाव होना ठीक है? भारतीय नारी मात्र पति के पदचिह्नों पर हीं चलेगी या उसका भी कुछ आस्तित्व हो सकता है क्या? क्या वैवाहिक मूल्य बदल रहे हैं? फिल्मों में प्रायः यह दिखाई देता है कि स्त्री अपने वासना तथा धन की सुख के लिए कुछ भी करने को तैयार है।

“जिस्म” की बिपासा वसु तथा “7 खुन माफ” की प्रियंका चोपड़ा बदलते भारतीयजीवनमूल्यों की निमित्त मात्र है। सुख की प्राप्ति के लिए यीशु के शरण में जाती है। उसका दांपत्य जीवन पुरूष के धोखाधड़ी तथा बचकानी आदतों से आजिज होकर कुछ गलत कदम उठाती है। मूलतः दांपत्य जीवन विश्वास तथा समर्पण का संगम है। जहां पतिपत्नी गृहस्थी रूपी गाड़ी को चलाते हैं। ‘शतरंज के मोहरे’ में यह अनमोल विवाह तथा सेक्स समस्या को लेकर है तो दीपा मेहता के ‘फायर’ में पतिपत्नी द्वारा एक दूसरे के बीच दूरी के कारण है। यह ‘आपकी कसम’ में दांपत्य जीवन में विश्वास तथा विवेक शून्यता के कारण। प्रेमशास्त्र(कामसूत्र) और ‘हवस’ में पत्नी एक ओर सेक्स समस्या से पीड़ित है तो दूसरी ओर अनमोल विवाह के कारण वह पति से पीड़ित है।

हिन्दी सिनेमा ने दांपत्य जीवन के हरेक पहलुओं को छूने का प्रयास किया है। हां, लेकिन इसमें जाति प्रथा, शैक्षणिक स्तर,  असमान आर्थिक स्तर, रंगनस्ल, अनमेल विवाह, अंतर्धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय के साथ ही साथ विचार, रहनसहन तथा व्यवसाय के कारण टुटतेबिखरते दांपत्य जीवन को देखा जा सकता है।

50 से 70 के दशक में दांपत्य जीवन में उतारच़ाव को तो सामान्य स्तर पर देखा जा सकता है। परंतु 1980 से 2010 के दशक में स्त्री (की छवि) एवं दांपत्य जीवन को स्वछंद एवं उन्मुक्त दिखाने के चलन ने भारतीय जीवनमूल्यों पर होते प्रहार के तरफ इंगित करता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सिनेमा तथा साहित्य समाज का दर्पण तो है ही लेकिन अति नाटकीयता इसके स्वरूप को नष्ट कर रहे हैं जिसे निर्माताओं, निर्देशकों तथा नायकोंनायिकाओं को विचार करना होगा। अन्यथा भारतीय समाज पर गलत प्राव पड़ेगा।

जब मनुष्य अति कामुक, व्यस्त तथा अस्तव्यस्त जीवन सा हो जाता है तो ‘दिल तो बच्चा है जी’’ की स्थिति आती है। हास्यव्यंग्य से ओतप्रोत इस फिल्म के कथावस्तु में तीनों विभिन्न प्रकृति के हैं। एक तलाकशुदा, एक ऐसे पत्नी के तलाश में है जो उसके प्रति समर्पित हो तथा दूसरा भारतीयजीवन मूल्यों के नजदीक रहने वाले पत्नी की खोज में है। तीसरा, रंगीन मिजाज है जिसका एकमात्र उद्देश्यृ कई स्ति्रयों के साथ यौन संबंधों को स्थापित करना। इस प्रकार फिल्मों में दिखाई देता है। ‘मर्डर’ व ‘जिस्म’ की विपासा जीवन साथी की खोज में न रहकर यौन ईच्छाओं के संतुष्टी को ही सबकुछ मान बैठती है।

‘कोरा कागज’ में लड़की कोरा कागज पर तलाक का दस्तखत करती है उसी वक्त नौकर कहता है “बेटी तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर करने से ही जीवन के संबंध टुट सकते है क्या? तुम पति को भूल पाओगी क्या?’’ लेकिन वे फिर मिल जाते हैं?

भारतीय जीवन ने दांपत्य जीवन को समझौता नहीं माना है। उसने तो उसे सात जन्मों का बंधन(संस्कार) माना है। अग्नि को साक्षी मानकर पतिपत्नी एक पत्नी व॔त का संक ल्प लेते हैं।

फिल्म साहित्य का लक्ष्य विविधताओं, कुठाओं तथा मनोविकारों से ग॔सित पतिपत्नी को त्राण दिलाने से है न कि विष घोलने से। फिल्म, लेखक, नायक, नायिका, निर्माता, निर्देशक, गीतकार, तथा सहयोगियों का लक्ष्य टुटते बिखरे दांपत्य जीवन को सबल एवं सशक्त बनाने से होना चाहिए। ती हमारे सपनों का संगठित, स्वस्थ एवं एकात्म भारतबन सकता है। पतिपत्नी का मात्र यौन संबध तक ही केंद्रित होकर जीवन साथी एवं मित्र

भव का होना परमावश्यक नहीं है तथा उसका आधार दांपत्य प्रेम के साथ ही भारतीय मूल्यों एवं मानदंडो की मान्यता पर केंद्रित होना चाहिए। आज के जमाने में जहां भारतीय समाज से मूल्य, प्रथा, परंपरा, सभ्यता और संस्कृति के नाम पर सांस्कृतिक संस्कृति विकृतिकरण के द्वारा नंगा नाच हो रहा है। ऐसे समय में भारतीय मूल्यों की स्थापना के लिए तथा सफल दाम्पत्य जीवन के स्वप्न का साकार करने के लिए सार्थक सिनेमा की अवश्यकता है जो पतिपत्नी के संबंधों को सृदृ़ कर सके।

‘लेखक, पत्रकार, फिल्म समीक्षक, कॅरियर लेखक, मीडिया लेखक एवं हिन्दुस्थान समाचार में कार्यकारी फीचर संपादक तथा ‘आधुनिक सभ्यता और महात्मा गांधी’ विषय पर डी. लिट्. कर रहे हैं।

(नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार)

पश्चिम बंगाल में नए चेहरे के साथ माओवादियो की सरकार !

पश्चिम बंगाल की फिजा एक झटके में ही बदल गयी लाल दुर्ग ढहा दिया गया है और उस पर हरे रंग का लेप लग चुका है. ममता की कई सालोकी मुख्यमंत्री बनने की आतुरता भी कुछ ही दिनों में पूरी होने वाली है. 34 सालो से सत्ता पर काबिज़ कम्युनिस्ट कैडर रास्ते पर आ चुकी है और शायद अगले 5 सालो तक इस करारे हार का कारण खोजते नज़र आयेंगे और राजनैतिक विश्लेषण से अपना गम दूर करेंगे. पर शायद बंगाल का दुर्भाग्य ही है कि दोबारा भी सरकार उन्ही शर्तो पर बन पायी है जिन शर्तो के कारण 34 साल पहले पश्चिम बंगाल वाम दुर्ग में तब्दील हुआ था. तब भी सरकार तत्कालीन नक्सलवाद ने बनवाई थी और आज भी ममता दीदी को माओवादियो ने ही सरकार में लाया तब भी उद्योग और विकास विरोधी सरकार बनी थी और आज भी ऐसी ही सरकार बनी. भारत की कभी राजधानी रही कोलकाता आज गलियों में सिमटी हुई सी नज़र आती है और उसके विपरीत दूसरे बड़े शहरों की छबि रोज बदलती जा रही है. मुझे भी अपने परिवार के साथ बचपन में बंगाल छोड़ना पड़ा था क्योंकि उस समय रोजगार की कमी ने मेरे अभिभावकों को कोलकाता छोड़ने पर मजबूर कर दिया था, पर अपने प्रदेश से जुदा होने का दर्द आज भी मेरे मन में कहीं न कहीं बसा हुआ है . क्योंकि वहां ऐसी फिजा है जिससे उद्योग प्राय:मृत हो रहे हैं और नए उद्योगों को बढ़ावा देने वाली सरकार कभी बन ही नहीं पाती है. जब कम्यूनिस्टो ने उद्योग का रास्ता अपनाना चाहा तो उन्हें भी सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया . आज बंगाल के मुख्यमंत्री तक अपना कुर्सी नहीं बचा पाए आखिरकार सिंगुर कि आंधी ने उन्हें भी हार का स्वाद चखा दिया .

ये सादगी भी किस काम की जिससे बंगाल कि उन्नति और विकास बिलकुल थम सी गयी है और दूसरे प्रदेश की तरक्की बंगाल को मुह चिढाने लगे है . आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है 100 फीसदी शिक्षित बंगाल को तरक्की और विकास के पटरी पर दौड़ने देना नहीं चाहती है . दूर की देखे तो ये बहुत बड़ी साजिश सी लगती है जो बंगाल के युवा को सर उठाने नहीं देना चाहती है और उन्हें माओवादी और नक्सलवादी गतिविधियों में धकेलना चाहती है. विकास माओवादियो की सबसे बड़ी दुश्मन और शायद इसी कारण आज माओवादी ममता को चुनावो में पिछले दो साल से खुलकर मदद करते आ रही है.

तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गटबंधन को इस बार माओवादियो ने इस विधानसभा में खुलकर मदद कि और कम्युनिस्ट जो इनके खास बनते थे बस दांतों टेल ऊँगली दबाते हुए ये खेल देखते रह गए और उससे ज्यादा उनके करने को कुछ था भी नहीं. कांग्रेस की चालाकी तो इससे ही समझ आ जाती है कि वो माओवादियो के हीरो विनायक सेन को योजना आयोग कि कुर्सी तक दे देते है. कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है जो इस देश में सही मायनों में प्रजातंत्र को पनपने ही नहीं देना चाहती है और शायद इन्ही कारणों से वो हर राज्य में नया गटबंधन करते नज़र आती है. हाल ही में मायावती जो कांग्रेस की सबसे बड़ी दुश्मन है उत्तर प्रदेश में वो केंद्र में कांग्रेस को समर्थन करते नज़र आई वो भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पे तो ये कैसा लोकतंत्र के साथ चाल है कांग्रेस का. पश्चिम बंगाल को भी आज ममता ने कही न कही कांग्रेस के साथ मिलकर छला है और माओवादियो के साथी से इससे ज्यादा उम्मीद भी नहीं की जा सकती है.

ये ममता बनर्जी वही शक्शियत है जो जयप्रकाश जैसे जननेता की गाडी पर चढ़ गयी थी और एक बार तो उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष पे कागज़ भी उछाल फेका था तो आखिर ऐसी अभद्रता के बदले बंगाल के भद्र लोगो ने कैसे उन्हें कुर्सी तक पहुचाया इसे आनेवाले 5 सालो में समझ आएगा. खैर ये भी सही है कि बंगाल के लोगो के पास कोई दूसरा उपाय नहीं था और उन्हें जब लगा की अन्धो में काना राजा को चुनना है तब उन्होंने ममता को चुन लिया.