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विधानसभा चुनावों में परिवर्तन की बयार

मृत्युंजय दीक्षित

अप्रैल और मई माह में देश के पांच महत्वपूर्ण प्रान्तों पं. बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम एवं पुड्डुचेरी के विधानसभा चुनाव सम्पन्न होने जा रहे हैं। इस बार के चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक, महत्वपूर्ण व परिवर्तनकारी होने जा रहे हैं। इन चुनावों मे सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन पं.बंगाल व केरल में होने जा रहा है जहां अब तक प्राप्त रूझानों से स्पष्ट संकेत प्राप्त होने लगे हैं कि इस बार वामपंथियों का शासन अस्त की ओर हैं। भारत में वामपंथी राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार होने जा रहा है कि पं.बंगाल व केरल जहां के लिए वामपंथी अपने आप पर बड़ा ही गर्व अनुभव करते थे अब वहां की सत्ता से उनका नियंत्रण पहली बार समाप्त होने जा रहा है। पहली बार वामपंथियों को अपनी हार स्पष्ट रूप से नजर आने लगी है। विगत 34 वर्षों में पं.बंगाल में वामपंथियों ने जिस प्रकार से शासन किया है उसके लिए वे अब जनता के बीच माफी मांग रहे हैं ।आज पूरा बंगाल वामपंथियों की विकास विरोधी हठधर्मिता के चलते औद्योगिक विकास व आई.टी विकास में पिछड़ गया है। बंगाल में भुखमरी, गरीबी तथा बेरोजगारी का आलम यह है कि वहां पर कई स्थानों पर राशन की दुकानें लूट ली गयीं। बंगाल में रतन टाटा द्वारा छोटी कारों के लिए कारखाना लगाए जाने को लेकर वामपंथियों व ममता बनर्जी के बीच किस प्रकार की राजनीति हुई इसे पूरे देश ने देखा। रतन टाटा के अपमान को भुलाया नहीं जा सकता। पं.बंगाल में नारी सम्मान को तार-तार कर देने वाली घटनाएं प्रकाश में आयी हैं।कई घटनाओं ने बंगाल को ही नहीं अपितु पूरे देश को सोचने पर मजबूर कर दिया।आज स्थिति यह है कि पं.बंगाल में वामपंथियों को माफी देने के लिए कोई मार्ग भी नहीं बचा है। पं.बंगाल व बांग्लादेश से खुली सीमा से बांग्लादेशी घुसपैठियों, हथियारों व व नकली नोटों का आवागमन हो रहा है। बांग्लादेश से खुली सीमा अनाज,गोवंश के तस्करों व लड़कियों व बच्चों के तस्करों को खूब रास आ रही हैैं। माओवाद- नक्सलवाद की समस्या प्रांत मे भयावह रूप से सामने आयी है तथा माओवादियों से संबंधों को लेकर वामपंथियों व ममता बनर्जी के बीच आरोपों – प्रत्यारोपों का खूब दौर चला और दोनों ने ही एक- दूसरे पर माओवादियों का हितैषी होने का आरोप लगाया। बंगाल विधानसभा चुनाव में जो सर्वाधिक खतरनाक परिदृश्य सामने आया है वह है ममता बनर्जी द्वारा वामपंथियों को सत्ता से बेदखल करने के लिए उनके ही पैदा किए हुए माओवादियों से हाथ मिलाना। यही कारण है कि जब पुलिस संत्रास विरोधी समिति ने ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस जैसी ट्रेन को विस्फोट से उड़ा दिया तो सब कुछ जानते हुए भी रेलमंत्री ममता बनर्जी कुछ न कर सकीं।

आज वामपंथियों पर हार का भय इस कदर छाया हुआ है कि उन्होंने 9 मंत्रियों सहित 149 विधायकों को टिकट नहीं देकर एक अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया। 34 वर्षो बाद राइटर्स बिल्डिंग पर ममता बनर्जी के रूप में एक महिला मुख्यमंत्री का शासन स्थापित होने जा रहा है। इस बार पं. बंगाल व केरल में वामपंथियों की विफलता के लिए प्रांतीय व केंद्रीय नेतृत्व जिम्मेदार होंगे। वामपंथियों की पराजय की कहानी भारतीय इतिहास में लिखा जाएगा। राजनैतिक दृष्टि से तमिलनाडु एक महत्वपूर्ण प्रांत है। जहां पर दो प्रमुख क्षेत्रीय शक्तियों द्रमुक गठबंधन व अन्नाद्रमुक गठबंधन के बीच सीधा मुकाबला है। तमिलनाडु की राजनीति में इस बार भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। जिसके कारण मुख्यमंत्री के रूप में करूणानिधि की वापसी काफी कठिन हो गयी है तथा जयललिता एक बार फिर मुख्यमंत्री पद पर आसीन हो सकती हैं। तमिलनाडु में भी वंशवाद निशाने पर है मुख्यमंत्री करूणानिधि व उनके परिवार 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन के जांच के दायरे में आ चुका है जिसके कारण इस परिवार की छवि जनता के बीच तार- तार हो चुकी है। विधानसभा चुनावों मे सीटों के बंटवारे को लेकर भी द्रमुक व कांग्रेस के बीच तनातनी हुई जिसमें द्रमुक को कांग्रेस के आगे घुटने टेकने पड़ गये।लेकिन सर्वाधिक चिंता इस बात की है कि तमिलनाडु में नेतृत्व परिवर्तन होने पर सुश्री जयललिता के नेतृत्व में जो अन्नाद्रमुक गठबंधन सत्ता में वापस आएगा भ्रष्टाचार को लेकर उनके भी दाग अच्छे नहीं हैं। अतः अब तमिलनाडु में वंशवाद की राजनीति का अंत करने के लिए यहां पर राष्ट्रीय दलों को अपनी पैठ बढ़ानें के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। नही ंतो यह प्रांत अभी भी एक दशक तक द्रमुक अन्नाद्रमुक की राजनीति मेंं उलझा रहेगा। वैसे भी इस बार तमिलनाडु में सत्ता परिवर्तन एकदम साफ दिखाई पड़ रहा है इसलिए यहां के राजनैतिक दल अपने मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए निःशुल्क लैपटाप देने व महिलाओं को मंगलसूत्र बनवाने के लिए 20 किलो सोना देने की घोषणाएं कर रहे हैं। तमिलनाडु में अभिनेता विजयकांत के नेतृत्ववाला नया दल डीएमडीके भी राजनैतिक विश्लेषकों को चौका सकता है।वहीं तमिलनाडु का पड़ोसी प्रांत पुड्डुचेरी है तो छोटी सी विधानसभा जो बहुत अधिक चर्चा में भी नहीं रहती है लेकिन यहां भी राजनीति तमिलनाडु के समान है और द्रमुक-अन्नाद्रमुक के बीच झूलती रहती है।यदि तमिलनाडु में राजनैतिक परिवर्तन हुआ तो पुड्डुचेरी का भी निजाम बदल जाएगा। पांचवा और अन्तिम सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रांत असम हैं ।यहां के विध्धनसभा चुनावों में फिलहाल कोई विशेष बयार व हवा बहती नहीं दिखाई पड़ रही है ।विभाजित विपक्ष के कारण दस वर्षों से शासन कर रहे मूुख्यमंत्री तरूण गोगोई एक बार फिर वापस आने का सपना संजोए हैं ।जबकि विपक्षी दल असम गण परिषद् व भारतीय जनता पार्टी सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति असमिया जनमानस में नकारात्मक उभारों को आधार बनाकर सत्तारूढ़ हो सकते हैं। राजनैतिक विश्लेषकों का मत है कि यदि असम गण परिषद व भारतीय जनता पार्टी बेहतर तालमेल के साथ चुनावी मैदान में उतरती तो कांग्रेस को परेशानी हो सकती थी। हालांकि भारतीय जनता पार्टी कई सीटों पर बहुत मजबूती से लड़ रही है और ऐसी तैयारी कर रही है कि विधानसभा चुनावों के बाद त्रिशंकु परिणाम होने की स्थिति में सरकार गठन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके। असम में आज बांग्लादेशी घुसपैठ एक बड़ी समस्या बन चुका है तथा दो दर्जन से अधिक ऐसी सीटें हो गयीं हैं जहां पर बांग्लादेशी घुसपैठिये चुनावी गणित को उलझा सकते हैं । असम- बांग्लादेश से लगी सीमा घुसपैठियों, तस्करों व देश विरोधी तत्वों के लिए एक बेहद आसान मार्ग बन चुका है। असम में उल्फा की समस्या बेहद गंभीर है जिसके लिए कांग्रेस की नीतियां ही जिम्ममेदार हैं। आज असम के विधानसभा चुनावों को लेकर देश में कोई विशेष चर्चा व हलचल नहीं दिखाई पड़ रही है लेकिन यहां के चुनाव परिणाम भी आश्चर्य मिश्रित हो सकते हैं। उक्त विधानसभा चुनावों का राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य पर कोई विशेष प्रभाव तो नहीं पड़ेगा।लेकिन वामपंथियों को राजनैतिक दृष्टि से एक गहरी चोट लगने जा रही है ।इन चुनाव परिणामों से वामपंथियों का ग्राफ राष्ट्रीय राजनीति में बहुत नीचे चला जाएगा और और उनका महत्व बहुत कम हो जाएगा तथा उन्हें भविष्य की अपनी रूपरेखा पर फिर से चिंतन मनन करना होगा।वहीं राष्ट्रीय स्तर पर यूपीए सरकार को अपने कामकाज को लेकर भी अतिरिक्त सतर्कता बरतनी पड़ेगी क्योंकि यह चुनाव भ्रष्टाचार पर ही केंद्रित होने जा रहे हैं और यदि भ्रष्टाचार का मुददा और गरमाया तो यह यूपीए के लिए एक खतरे की घंटी भी साबित होगा। रही बात राजग की तो उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है अपितु इन प्रांतों में भाजपा का खाता भी खुलता है तो यह उसकी उपलब्धि ही होगी।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से चर्च बेचैन क्यों?

हरिकृष्ण निगम

सर्वोच्च न्यायालय ने बजरंग दल से जुड़े दारा सिंह को आजीवन कारावास की उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा दी गई सजा को बरकरार तो रखा, पर धर्मांतरण के मुद्दे पर जिस तरह न्यायालय ने प्रलोभन, दबावों व दुष्प्रचार की मिशनरियों की रणनीति को कटघरे में खड़ा किया है, उससे अनेक चर्च संप्रदाय बौखलाए से दिखते हैं। दारा सिंह जैसे व्यक्ति के 22 जनवरी, 1999 के उस निजी जघन्य की भर्त्सना यद्यपि तर्क संभव कभी भी, या कहीं भी स्वभाविक मानी जाएगी पर निर्वोध आदिवासियों की सेवा के नाम पर आस्था का बदलना स्वयं किसी मानवाधिकार उल्लंघन से कम नहीं है, यह न्यायाधीशों ने भी स्वीकार किया है। वेटिकन की धार्मिक श्रेष्ठता की ग्रंथि इस देश की पंथनिरपेक्षता के संवैधानिक प्रावधानों का फायदा उठाकर अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए एक निगमित बहुराष्ट्रीय कंपनी की तरह अरसे से लगी हुई है जो हमारे देश की गरीबी, विपन्नता और पिछड़ेपन का एक प्रकार से भयादोहन है।

भारत में सर्वोच्च न्यायालय के निण्रय से चर्च, आरोपी के कड़ी सजा अंतिम रूप से सुनाए जाने के बाद भी व्यक्ति और अप्रसन्न है। यह दिल्ली के क ैथोलिक चर्च के जनसंचार निदेशक फादर डोमिनिक इमैनुअल की हाल की प्रतिक्रिया से आज स्पष्ट है। इसका मुख्य कारण यह है कि न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम् और न्यायमूर्ति बी. एस. चौहान ने निर्णय में यह बात भी जोड़ी थी कि ग्राहन स्टेंस निर्धन आदिवासियों को ईसाई आस्था में धर्मांतरित करने की गतिविधियों में लगे हुए थे। उनके अनुसार इस बात में कोई शक नहीं है कि किसी के विश्वासों में बल पूर्वक उत्तेजना या प्रभाव द्वारा परिवर्तन लाना मात्र इसलिए भी अनुचित है यदि यह कहा जाए कि एक धर्म दूसरे धर्म से बेहतर है। यह व्यवस्थित समाज की जड़ पर आघात करता है यदि कोई कहे कि उसका धर्म श्रेष्ठतर है। यह संविधान निर्माताओं के उद्देश्यों के विरूध्द जो धार्मिक क्षेत्र में किसी एक धर्म की श्रेष्ठता ग्रंथि के विरूध्द थे।

फादर इमैनुअल सेवा के नाम पर मतांतरण को अपना अधिकार मानते हैं और जाति व्यवस्था के भेदभाव को बहाना बनाकर कहते हैं क्योंकि इस्कॉन और दूसरे अन्य हिंदू संगठन नियमित रूप में इस्लाम, यूरोप व अमेरिका में ईसाइयों के बीच हिंदू धर्म प्रचार क रते हैं और क्योंकि उनके इस कार्य में वहां जीवित नहीं जलाया जाता है इसलिए कदाचित उन्हें भी यहां अपनी मतांतरण गतिविधियां चलाने का अधिकार है। शायद पहली बार किसी केथोलिक फादर – डोमिनिक इमैंनुयल जिसे 2008 में राष्ट्रीय सांप्रदायिक समरसता पुरस्कार भी दिया गया था, इतनी बचकानी बात कर विश्व तर्कों में उलझते दिखते हैं। इन्हे इस बात का भी अत्यंत कष्ट हैकि हमारे सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय शायद साध्वी प्रज्ञा सिंह और स्वामी असीमानंद जैसे बम विस्फोटों में लिप्त लागों को कर्ण-प्रिय लग सकता है जो कथित मुस्लिम आतंकवादियों से बदला लेने की बात करते हैं क्योंकि ईसाईयों पर कर्नाटक और दूसरे स्थानों पर उनके अनुसार हमले नहीं रूक रहे हैं इसलिए वे इस बात का रोना रो रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय की मतांतरण के विरूध्द टिप्पणी गलत संकेत दे सकती है।

फादर डोमिनिक इमैनुअल द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से यह मांग की गई है कि वह गंभीरता से सोचकर अपनी धर्मांतरण के विरूध्द की गई टिप्पणी को वापस ले। हर बार न्यायपालिका की दुहाई देने वाले मतांतरण में लगे हुए ईसाई धर्म के नेता, जो देश के संविधान की अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए दुहाई देते नहीं थकते हैं, आज सर्वोच्च न्यायालय के जजों की असुविधाजनक टिप्पणी पर हाहाकार करने में लगे हैं।

यदि हमें सत्य का ज्ञान होता, तो कदाचित हमारी सोच बदली हुई होती और न्यायालय की मिशनरियों के विरूध्द टिप्पणी का मर्म हम अधिक अच्छी तरह समझ लेते हैं। ईसाई धर्माध्यक्ष आज भी हिंदू आस्था को किस दृष्टि से देखते हैं यह हम उनके प्रचार माध्यमों और सेमिनारियों में पढ़ाए जाने वाले साहित्य में स्पष्ट पाये जा सकते हैं। विश्वविख्यात धर्म प्रचारक पैट राबर्टसन हाल तक कहते रहे कि हिंदू धर्म राक्षसी और नारकीय है। वाचटावर बाईबिल की कोई भी पुस्तक उठाइए जो आज भी मानती है कि हिंदूधर्म का जन्म बेबीलन में हुआ। अमेरिकी मीडिया चर्च के अन्य बड़े प्रचारकों के वक्तव्य को दोहराता रहा है कि हिंदू अमरनाथ यात्रा पर शिव के कामवासना के अंगों की पूजा के लिए जाते हैं, कोई महिना नहीं जब उनकी पत्र-पत्रिकाओं में हिंदू देवी-देवताओं के बारे में गंदी बातें नहीं छपती है। और वे हमेशा धन मांगते रहते हैं कि भारत के हिंदुओं को अंधकार से प्रकाश में लाने के लिए, सभ्य बनाने के लिए, उनकी जातिवादी भेदभाव मिटाने के लिए धन चाहिए। पश्चिमी देशों में लाखों-करोड़ों लोग आज भी हमारी आस्था के बारे में इन धारणाओं के साथ जीते हैं। साधारण सत्यों का अज्ञान हमारे लिए अभिशाप बन सकता है। ईसाई धर्मोंपदेशक हमारे धर्म निपरेक्ष संविधान का पूरा लाभ, मतांतरण के लिए उठाते हैं। यद्यपि वेटिकन के सर्वोच्च स्तर पर यही कहा जाता है कि ईसाइत के लिए आगे आनेवाले वर्षों में सर्वाधिक बड़ा खतरा यूरोप और अमेरिका के ‘सेक्यूलरिज्म’ की अवधारणा से है।

क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के दारा सिंह प्रकरण में दिए हुए निर्णय के साथ मतांतरण के विरूध्द एक स्पष्ट संकेत भी जुड़ा है इसिलिए धर्म-प्रचार से जुड़े विदेशी संगठन व मिशनरी इस अप्रिय सत्य को पचा नहीं पा रहे हैं।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

सावधान! पेड़ पर बगुला बैठा है

अवधकिशोर

लम्बी टांग, सामान्य से उँची ठोड़ तथा बिल्कुल सफेद रंग यह बगुले की पहचान है, अत्यधिक सफेद धुले कपड़ों का उदाहरण भी बगुले की पंख से दिया जाता है। विद्यार्थी जो विद्यार्जन करते हैं, उनके पांच लक्षणों में एक लक्षण है ‘वकोध्यानम्’, अर्थात् बगुले की तरह ध्यान जिसका हो, वह श्रेष्ठ विद्यार्थी है बगुला (बकुला) नदी, तालाब, सरोवर तथा झील, के किनारे चुपचाप बिना किसी हरकत के शान्तचित्त बैठा मिल जाएगा उसके ध्यान को देखकर लगता है कि वह एक सिध्दसाधक एवं महान ध्यानयोगी है। उसके ध्यान में जैसे ही कोई जलीय जीव विशेषकर मछली आती है वह बिना देर किये ही एक क्षण में ही उसे अपने प्रसाद रूप में ग्रहण कर लेता है। शास्त्रों में यह उल्लेख मिलता है कि ‘जीवो जीवश्य भोजनम्।’ कहा भी जाता है घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो भूखो मरेगा। ‘इकोसिस्टम’ का नियम भी यही है तथा सृष्टि में समस्त प्राणियों के परिस्थितिकतन्त्र का चक्र चलना भी चाहिए। यही कारण है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, बड़ी मछली के विकास में अनेक छोटी-छोटी मछलियों का योगदान होता है साथ ही इस ‘इकोसिस्टम’ में सैवाल एवं जलीय छोटे-छोटे कीड़ों-मकौडों का भी विशेष योगदान होता है अपने बीज का पोषण प्रकृति करती है जो सरवाइव करता है उसका अस्तित्व ही स्वीकार किया जाता है, इस धरा के प्राणियों में अस्तित्व के लिए (प्रतिस्पर्धा) संघर्र्ष चलती रहती है। उपजाऊ और अच्छी भूमि में अनेक प्रकार के बीज डाले जाते हैं, पर सभी उगते नहीं, सभी बीजों का अकुरण नहीं होता कुछ ही उगते हैं, फिर जो उगते हैं उनको बड़ा और फलदायी बनाने हेतु निराई-गुड़ाई भी की जाती है, तथा खाद-पानी भी दी जाती है। कोई भी विशाल वृक्ष ऐसे बड़ा नहीं बन जाता इसके लिये अनेक छोटे-छोटे पौधों को उसके आस-पास से निकाला जाता है तब वह विशाल वृक्ष का रूप लेता है तथा उसका समुचित विकास होता है और पथिकों को छाया तथा फल देता है। कभी कोई वृक्ष अपना फल स्वयं नहीं खाता, वह ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ जीवन पर्यन्त लगा रहता है। फल ताड़ने के लिए पेड़ पर पत्थर भी फेंके जाते हैं, पेड़ को चोट लगता है फिर भी वह पेड़ पत्थर के बदले फल ही देता है। ‘सर्वजनहिताय’ सेवा में उसका यह कार्य सतत् चलता रहता है, अनवरत और अवधगति से। सहनशीलता और परोपकार का इससे बड़ा उदाहरण कहीं नहीं मिलता।

सफेद रंग शान्तचित्त और ध्यानस्थ बगुले का गुण-धर्म होता है कि वह अपना शिकार ग्रहणकर, उदरस्त कर लेने के बाद पेड़ पर आराम से बैठ जाता है। बगुला जिस भी पेड़ पर बैठ जाता है उसे धीरे-धीरे वह नष्ट कर देता है, सुखा देता है। जिस पेड़ पर बगुला बैठा समझो वह गया। यह कहावत आम प्रचलन में है। सत्य भी यही है कि एक के बाद एक बहुत सारे बगुले उस पेड़ पर बैठने लगते हैं बैठने के बाद वे बीट करके उस पेड़ के पत्ते डाली सबको सुखा देते हैं। उनके बीट में ऐसा रसायन होता है जो पेड़ के सेहत को नुकसान पहुँचाता है। पेड़ की शोभा पत्तों और डाली से होती है। प्रारम्भ में जब बगुला पेड़ पर बैठता है तो देखने वाले को बहुत ही अच्छा लगता है हरे-हरे पत्तों के बीच में सफेद-सफेद शोभायमान बगुला महाराज। फिर वे बीट करने जायेंगे कहां बीट तो वहीं करेंगे जहाँ बैठेंगे, जहांँ उनका रहना-सहना है। गुण-अवगुध उसी को पता होगा जो संसर्ग में हैं। बेचारा पेड़ कुछ ही दिन बाद श्रीविहिन सा दिखता है क्योंकि उसपर वाग महाराज की कृपा हो जाती है, फिर तो उस पेड़ की जड़ों को लाख सींचने के बाद भी उसे बचाया नहीं जा सकता।

बगुला भगत की कथा आमतौर पर यही प्रचलित है कि वह अपने श्रेष्ठ लक्ष्य से तनिक भी ओझल नहीं हो सकता धवल एवं ध्यानस्थ मुद्रा तो उसका मात्र दिखावा होता है वह तो केवल आडम्बर है, पाखण्ड है, बगुला भगल समाज में मुहावरा बन गया है। बगुला भगत वृत्ति और प्रवृत्ति भी है, जो दिन प्रतिदिन अपने कुटुम्ब की संख्या बढ़ाते हुए, एक संस्कृति एवं परम्परा को जन्म दे चुके एक विशाल जन-समुदाय का रूप ले चुका है। यह युग अर्थप्रधान है, चेष्टा सबको अर्थ कामना की है इसी हेतु अनेक प्रकार के छल-छद्म, गोरखधन्धा, तोड़-जोड़, तिकड़म जैसे अनेक प्रकार के असामाजिक कार्य इस देश का नागरिक भी कर रहा है। उसने बस इसी सूत्र को जीवन में स्वीकार किया है कि ‘सर्व दुःख हरे लक्ष्मी’। उसका यही विचार बन गया है कि माया के बिना सब बेकार है, लोग शान से सीना ठोक कर कहते हैं कि लक्ष्मी की सवारी तो उल्लू ही होता है यदि कोई उल्लू भी कहे तो क्या फर्क पड़ता है, ‘टका नास्ति टकटकायते’। हाल बहुत बूरा है। धन कमाने की होड़ में आज का व्यक्ति ईमानदारी, नैतिकमूल्यों एवं सिध्दान्तों को ताक पर रख दिया है। इसलिए समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास एवं राष्ट्रीय चरित्र का न होना परिलक्षित हो रहा है। सब जगह लूट-खसोट, घूसखोरी, चोरी, बेईमानी, दिख रही है। इसी सोच के धनी लोग भ्रष्टाचार, मंहगाई और कालेधन को बढ़ावा दे रहे हैं। राष्ट्र रूपी विशाल वृक्ष पर बैठकर बगुला भगत की भाँति इसे सुखाने की पुरजोर कोशिश रहे हैं और अपने तर्क में हर ऐसा व्यक्ति यह कहते सुना जाता है कि जब देश का प्रधानमंत्री नेता नौकरशाह तथा जज तक सभी इसी राह पर चल रहे हैं तो आम आदमी की बात क्यों? संसद से सड़क तक बड़े-बड़े घोटालों की चर्चा होती है। विकिलिक्स के खुलासे और वोट की जगह नोट की चर्चा होती है फिर भी बेशर्मी ऐसी कि दूसरे घोटाले की तैयारी भी शुरू हो जाती है। जनता बेबस है, राजनेता मौज मारते हैं। जनता का भी जहाँ जैसा स्वार्थ सधता है वह अपने स्वार्थ से परे न सोच कर अपनी पसन्द-नापसन्द के अनुसार अपना पक्ष तय करती है। समाज से ही निकलकर बगुला भगत संसद तक विधान सभा तक जाते हैं। इसके लिए उन्हें बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। उन्हें अपनी एक लम्बी लॉबी तैयार करनी पड़ती है, जिसमें वे एक दूसरे के पूरक होते हैं। जिसकी लॉबी की शृंखला जितनी लम्बी हो या दूसरे शब्दों में कह सके तो लॉबी तगड़ी हो वह अपने कुटुम्ब, समाज, संस्था, पार्टी पर दबाव बना लेता है। वह जहाँ से खड़ा होता है वहीं से पंक्ति शुरू होती है। लोग उसे सक्षम मानते हैं। समाज एवं राष्ट्र जीवन में सब जगह उसकी स्वीकारोक्ति होती है। इस वर्चस्व की जंग में जातिवाद, क्षेत्रवाद, वंशवाद, तथा व्यक्तिवाद का फण्डा भी खूब चल रहा है। आज बाजारवाद के प्रभाव ने हर क्षेत्र में अपना प्रभाव जमाया है, नकली ने असली को पीछे धकेल दिया है।

सदियों के सतत् संघर्ष और अप्रतिम बलिदान के बाद स्वराज्य का आगमन लोकतंत्र के मन्दिर के रूप में प्रतिष्ठित हुआ लोग सोचने लगे कि अब अपने राज में सुख चैन होगा लेकिन हमारे राजनेता लोकतंत्र को अपने अमर्यादित आचरणों से अनेकों बार कलंकित किए, घोटालों एवं भ्रष्टाचार से विश्व पटल पर देश की नाक कटी। नोट के बदले वोट की गोट ने लोकतंत्र के माथे पर एक बदनुमा दाग लगा दिया तथा एक काले अध्याय की शुरूआत हुई। ऐसा नहीं है कि यह घटना 22 जुलाई, 2008 में ही घटी, बहुत पहले से ही ऐसी खरीद फरोक्त की घटनाएं चोरी-छिपे चलती रही है। यह बहुत पुराना खेल है। इसलिए राष्ट्रहित में देश की जनता को बगुला भगत से सावधान रहना है, सज्जन शक्ति के जागरूकता से ही राष्ट्र का भला होना है। राष्ट्ररूपी वृक्ष को पुर्नजीवन देने हेतु राष्ट्रवादी समाज को भ्रष्टाचार मिटाने हेतु कृतसंकल्प होना होगा यह कार्य इतना आसान नहीं इसे एक लम्बे संघर्ष के साथ ही समाप्त किया जा सकता है, इसके लिए देश के प्रत्येक नागरिक को अपना मन बनाना होगा।

बाबा का निधन : बाबा ब्रम्हलीन! : बाबा के ट्रस्ट पर विवाद के साए से श्रृद्धालुओं में चिंता

23 नवंबर 1926 को जन्मे सत्यनारायण कालांतर में भगवान सत्य साई बन गए। उन्होंने खुद को शिरडी के फकीर साई बाबा का अवतार बताया। धीरे धीरे लोगों की आस्था बाबा में इस कदर बढ़ी कि आज देश में ही बाबा को चाहने वालों की तादाद करोड़ों मे पहुंच चुकी है। बाबा का जीवन चमत्कार और विवादों से भरा रहा है। सत्य साई बाबा पर अनेकानेक अरोप लगे, किन्तु बाबा ने कभी किसी आरोप का जवाब देना मुनासिब नहीं समझा।

सत्य साई बाबा अपने आप को शिरडी वाले साई बाबा का दूसरा अवतार मानते थे और उनका मत था कि साई बाबा तीन अवतार लेंगे। बकौल सत्य साई बाबा अब साई बाबा का तीसरा अवतार कर्नाटक के मंडिया जिले के गुनपर्थी गांव में प्रेम साई के तौर पर होगा। इस तरह देखा जाए तो साई बाबा की मेहर महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक अर्थात कमोबेश दक्षिण भारत पर ही ज्यादा रहेगी। वैसे कहा जाता है कि ब्रम्हलीन होने के पहले शिरडी वाले साई बाबा ने भविष्यवाणी की थी कि उनका उत्तराधिकारी मद्रास प्रेजीडेंसी में जन्मेगा। उस वक्त अनंतपुर जिला मद्रास प्रेजीडेंसी का एक अंग था।

गौरतलब है कि उत्तर भारत में त्रिकुटा की पर्वत श्रृंखलाओं में विराजी माता वेष्णो देवी का जयकारा देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में जमकर हुआ करता था। दिल्ली में माता की चौकियों और रतजगा को गिनने में ही पसीना आ जाता था। आज दिल्ली का परिदृश्य काफी हद तक बदला हुआ है। दिल्ली में माता की चौकियों का स्थान शिरडी के साई बाबा की भक्ति संध्या ने ले लिया है।

यह उतना ही सच है जितना कि दिन और रात कि साई के नाम की दुकान भारत जैसे धर्मभीरू देश में जमकर चल निकली है। जहां देखो वहां शिरडी के साई बाबा के मंदिर दिखाई पड़ जाते हैं। इन मंदिरों में आने वाले चढ़ावे के बारे में किसी को कुछ नहीं पता होता है। आज देश में तिरूपति में विराजे गोविंदा, शिरडी के साई बाबा, कटड़ा की माता वेष्णव देवी और भगवान शनि की गिनती सबसे अमीर भगवान मंे होती है।

इन चारों के नाम की दुकानें जमकर फल फूल रही हैं। लोग धर्म की आड़ में पैसे बनाने का खेल खेल रहे हैं। इसी प्रसंग में एक वाक्या बताना लाजिमी होगा। हमारे एक स्कूल के समय के मित्र दशकों बाद मिले तब हमने उनसे पूछा मित्रवर क्या कर रहे हो आजकल? प्रश्न आजीविका से संबंधित था। छूटते ही बोले -‘‘यार पुश्तैनी जमीन बेची पंद्रह लाख मिले सो सतना और मैहर के बीच चार मंदिर डाल दिए हैं।‘‘ हम आवक रह गए, मंदिर डाल दिए इस तरह बोले मानो दुकानें डाल दी हों। देश भर के साई मंदिरों मंे निन्यानवे फीसदी मंदिरों का ट्रस्ट न होना दुख की बात ही है।

बहरहाल सत्य साई बाबा ब्रम्हलीन हुए या उनका निधन हुआ यह बात कोई भी दावे के साथ नहीं कह सकता। चौबीसों घंटे एक खबर को ही रूमाल से तान तानकर चादर बना देने वाले समाचार चेनल रविवार सुबह से ही चीख चीख कर कह रहे थे कि सत्य साई बाबा का निधन! बचपन से ही सुना और पढ़ा है कि भगवान या संत सदा ही ब्रम्हलीन हुआ करते हैं। वे नश्वर देह त्यागते हैं, उनका निधन नहीं होता।

एक प्रश्न और दिमाग में कौंध रहा है। हो सकता है सत्य साई बाबा को भगवान मानने वाले इससे आहत हों किन्तु हमारा उद्देश्य कतई किसी को आहत करना या किसी की शख्सियत पर शंका करना नहीं है पर मानव स्वभाव है उत्सुकता की शांति आवश्यक है। प्रश्न यह कि अगर कोई भगवान है तो उसे मानव द्वारा इजाद की गई जीवनरक्षक प्रणालियों पर निर्भर रहने की आवश्यक्ता क्यों आन पड़ी, वह भी 27 दिनों तक।

सत्य साई बाबा के कुछ कर्म एसे हैं जिनकी हम क्या समूची दुनिया मुक्त कंठ से प्रशंसा करती है। उनके मानवता वाले कामों के लिए तो उन्हें सैल्यूट करने का दिल करता है। बाबा ने सत्य साई मेडिकल ट्रस्ट की स्थापना की जिसके द्वारा देश भर में 4000 से ज्यादा मेडिकल सेंटर्स संचालित हो रहे हैं, जिनमें बिना किसी शुल्क के गरीब गुरबों का इलाज होता है। पुट्टपर्थी में दो सौ बिस्तरों वाला अत्याधुनिक अस्पताल, राजकोट का हार्ट अस्पताल आदि कुछ एसे अभिनव काम है जिनके लिए सत्य साई बाबा हमेशा ही याद किए जाते रहेंगे। शिक्षा के क्षेत्र में भी सत्य साई बाबा ने खासा ध्यान दिया है। बाबा द्वारा आरंभ किए गए शिक्षण संस्थनों में न जाने कितने गरीब शिक्षा पा रहे हैं। दुनिया के चौधरी अमेरिका में बाबा के 26, तो आफ्रीका में 9, यूरोप में चार, एशिया में 17 शिक्षण संस्थान संचालित हैं।

बाबा ने सबसे उत्तम काम किया है, सुदूर ग्रामीण आंचलों में पानी की सुविधा का। बाबा ने भागीरथ का अवतार बनकर वह काम कर दिया जो देश के शासकों ने आजादी के छः दशकों बाद भी नहीं किया। आंध्रप्रदेश में सूखा ग्रस्त अंचल जिसमें 731 गांव शामिल थे में पानी की हजारों किलो मीटर लंबी लाईन 1995 में बिछवाई। बाबा के निर्देश पर यह काम महज डेढ़ साल की रिकार्ड अवधि में पूरा हुआ।

इसके अलावा बाबा ने अनंतपुर जिले में वाटर प्रोजेक्ट को पूरा किया। बाबा के प्रयासों ने करोड़ों प्यासे कंठ आज सूखे नहीं हैं। सत्या साई बाबा ने 2007 में ईस्ट और वेस्ट गोदावरी योजना को पूरा कर सरकार को सौंपा था। सत्य साई की इस कृपा से 2253 गांवों के रहवासियों को अनमोल पानी निर्बाध रूप से मिल रहा है।

सत्य साई बाबा जीते जी किवदंती बन गए थे। उनके भक्तों में अनेक मशहूर शख्सियत शामिल थीं। पूर्व महामहिम राष्ट्रपति कलाम, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, क्रिकेट के लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर, इक्कीसवीं सदी के क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर, जैसे नामों का शुमार था। बाबा के अवसान पर सूमूचे देश में शोक की लहर है। राजनेता, उद्योगपति, संत्री मंत्री सभी सत्य साई को श्रृद्धांजली दे रहे हैं आवाज नहीं आई तो कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ यानी सोनिया के आवास से। उन्होंने अब तक इस बारे में दो शब्द बोलना भी मुनासिब नहीं समझा है।

वैसे विवादों से सत्य साई बाबा का पुराना रिश्ता रहा है। सत्य साई का जीवन विवादों से घिरा ही रहा। अनेक विदेशी पर्यटकों ने सत्य साई पर समलैंगिगता और युवाओं के साथ यौन शोषण के आरोप लगाए। 1990 में एक भक्त ने उन पर सार्वजनिक तौर पर जनता को गुमराह करने के साथ ही साथ यौन शोषण का आरोप मढ दिया। हैदराबाद में एक समारोह में बाबा ने हवा में हाथ लहराकर सोने की चेन निकाली, बाद में वीडियो फुटेज में पता चला कि वह चेन बाबा की अस्तीन से ही निकली थी। मशहूर जादूगर पी.सी.सरकार ने बाबा की मौजूदगी में ही उनके आश्रम में हवा में हाथ लहराकर रसगुल्ला निकालकर विवादों को जमकर हवा दी। एक निजी समाचार चैनल ने तो बाबा के करिश्मों के बारे में लगातार कई दिन तक खबरें प्रसारित की जिनमें बाबा के चमत्कारों को हाथ की सफाई का दर्जा दिया गया था।

सत्य साई की संपत्ति का अनुमान लगाना कठिन ही है। कोई कहता है वे चालीस हजार करोड़ रूपए की संपत्ति के मालिक थे तो कोई पचपन हजार करोड़ रूपए की संपत्ति आंक रहा है। जो भी हो बाबा के निधन या ब्रम्हलीन होने के उपरांत अब उनकी संपत्ति के लिए मारकाट मचना आरंभ हो जाएगी। जिस तरह महर्षि महेश योगी के ब्रम्हलीन होने के बाद उनके परिजनों में संपत्ति को लेकर विवाद हुआ वह संतों के परिजनों को शोभा नहीं देता। बेहतर होगा सत्य साई की संपत्ति को परमार्थ के कामों में ईमानदारी से लगाया जाए।

सत्य साई के अवसान के बाद अब यक्ष प्रश्न यही बना हुआ है कि उनकी बेहिसाब संपत्ति वाले ट्रस्ट पर किसकी हुकूमत चलेगी। जो नाम अभी सामने आ रहे हैं उनमें भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे के.चक्रवर्ती का नाम सबसे उपर है। बाबा के सबसे विश्वस्त चक्रवर्ती ने 1991 में नौकरी को टाटा कहकर बाबा की शरण अपना ली थी। इसके बाद नाम आता है सत्य साई के भाई के बेटे आर.जे.रत्नाकर का। एमबीए की डिग्रीधारी रत्नाकर को बाबा के ट्रस्ट में अधिकाधिक लोगों का समर्थन प्राप्त है। वैसे भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अन्य अधिकारी एस.वी.गिरी का नाम भी इसके लिए चल रहा है। जानकारों का मानना है कि अगर मारकाट मची तो सरकार आंध्र प्रदेश सरकार के 1959 के हिंदु धर्म एवं परोपकारी निधि कानून का सहारा लेकर ट्रस्ट का अधिग्रहण कर सकती हैै।

हिन्दुस्तान की संस्कृति कुछ इस कदर धर्मपरायण है कि यहां की धर्मभीरू जनता धर्म के नाम पर दोनों हाथें से धन लुटाती है। तिरूपति बालाजी, वेष्णो देवी, शिरडी में जब दान पेटियां खुलती हैं तो गुप्त दान देखकर लोग दांतों तले उंगलियां दबा लेते हैं। इस धन में खून पसीने से कमाए धन के साथ ही साथ अवैध तरीके से कमाया काला धन भी होता है जिससे लोग भगवान को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। जो भी हो पर यह धन है तो देश की गरीब जनता का ही। इन परिस्थितियों में सरकार पर यह जवाबदारी आहूत होती है कि वह यह सुनिश्चित करे कि सत्य साई बाबा के अवसान के उपरांत उनकी संपत्ति को सही हाथों में सौंपा जाए, ताकि सत्य साई के परमार्थ लोक कल्याण के इरादों पर कोई पानी न फेर सके।

 

संस्मरणात्मक कहानी : वे दिन

जिन्दगी के पथ पर चलते हुए बहुत सी एैसी घटनाएं घटित हो जाती हैं जो यादगार ही बनकर नहीं रह जाती,वल्कि हमेशा कुरेदती भी रहती है दिलों दिमाग को.क्या उम्र रही होगी मेरी उस समय?यही तेरह या चौदह वर्ष की.वयःसन्धि के उस मोड पर मन की उमंगें आसमान छूने की तम्मना रखती हैं.आज फिर जब याद ताजा हो आयी उन दिनों की,तो लगता है यह तो शायद बहुत दिन पहले की बात नही है. पर यह तो उस समय की कहानी है जब देश को स्वतंत्र हुए केवल दस या ग्यारह साल हुए थे.हाँ, कहानी ही तो है. अलिफ लैला के किस्सों और इस कहानी में आज की परिस्थितियों में मुझे तो कोई अंतर नहीं नजर आता.

उस उच्च माध्यमिक विद्यालय में दो पुस्तकालय थे-स्कूल पुस्तकालय और गांधी पुस्तकालय.पुस्तकें दोनो में अलग अलग थीं.पुस्तकालयों से पुस्तकें लेने पर दस्तखत करने होते थे.पर उन्हीं दिनों एक घटना घट गयी.गांधी पुस्तकालय के अध्यक्ष तिवारी जी गांधी वादी परम्परा के अंतर्गत छात्रों को तकली से सूत कातने को प्रोत्साहित करते थे.इसी सिलसिले में उन्होनें बहुत सी तकलियां और पुनियाँ थोक के भाव से मंगवाई तकि वे चीजें छात्रों को कम कीमत पर उप्लब्ध हो सकें.पता नही उन्हें क्या सूझी, उन्होनें प्रत्येक तकली और पूनी की कीमत लिखकर तकलियों और पूनियों को एक जगह रख दिया.एक खाली डब्बा भी वहाँ रखवा दिया. इसके बाद छात्रों को बता दिया गया कि वे वहाँ से कीमत रख कर चीजें खरीद लें.शाम को विक्री के बाद जब हिसाब किया गया तो एक पैसे का भी फर्क नहीं आया. जब कि वहाँ देखने वाला कोई नहीं था. विश्वासनहीं हुआ न. एक बात अवश्य हुई.इस घटना के बाद तिवारी जी ने गाँधी पुस्तकालय से पुस्तक लेने पर छात्रों का दस्तखत लेना बंद कर दिया.

कहानी आगे बढती है.कहानी सुनानेवाला यानि मैं अब विद्यालय के अन्तिम वर्ष का छात्र था और छात्रावास में आ गया था .

ग्रामीण परिवेश में बसे हुए,आम के पेडों और हरियाली के बीच बने हुए इस स्कूल मे एक छोटा छात्रावास भी था.आठ कमरों में बतीस छात्र रहते थे.चार चार कमरे एक दूसरे के पीछे बने हुए थे.चार कमरे स्कूल के सामने थे और चार उन कमरों के पीछे.उन पीछे वाले कमरों के सामने एक बहुत ही घना और छायादार नीम का पेड था.वह नीम का पेड हम छात्रों के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण था.नीम के पेड के नीचे बैठना और गप्पें मारना छात्रावास के छात्रों के लिये बहुत हीं सुखद था.वहां छात्र एक तरह की स्वतंत्रता का भी अनुभव करते थे,क्योंकि वह स्कूल के पिछवाडे था.कल्पना कर सकते हैं आप?छात्रावास में न बिजली की रोशनी थी और न पंखे.लालटेन की रोशनी में पढाई होती थी और अंधेरे में हर तरह के खिलवाड.खिलवाडों का सिलसिला ज्यादातर पीछे वाले कमरों में चलता था,क्योंकि स्कूल के अहाते के अंदर ही प्रधानाध्यापक का भी आवास था,अतः स्कूल के सामने वाले कमरों में ज्यादा कुछ किया नही जा सकता था.

छात्रावास में बिगडैल छात्रों का एक एैसा समूह भी था जो हर समय मरने मारने को तैयार रहता था.उसी के बीच पढाई को गंभीरता से लेने वाले छात्रों की पढाई भी चलती रहती थी.उस समय तक छूरा रखकर या पिस्तौल दिखाकर नकल करने की परंपरा नहीं चली थी.छात्र नकल करने के लिये ज्यादातर कागज के छोटे छोटे टूकडों का इस्तेमाल किया करते थे.एक मोटे लडके का नकल करने का अपना अलग ही तरीका था.वह अपनी मोटी मोटी जांघों पर बहुत ही बारीक रूप में बहुत सी चीजें लिखकर ले जाता था.चूंकि उस छोटी उम्र में भी वह ढीली ढाली धोती पहनता था,किसी को भी नकल इस तरीके का आभास भी नहीं हो पाता था.

छIत्रावास के कमरे छात्र मिलजुल कर साफ कर लेते थे,पर खाना बनाने और बर्तन धोने के लिये एक पंडित और कहार की व्यवस्था छात्रावास में थी.पंडित को तो हमलोग पंडितजी कहा करते थे,पर कहार को उसके नाम से यानि नारायण कहकर बुलाते थे.

स्कूल एक स्थानीय जमींदार की देन था.आजादी के बाद भी स्कूल में उनकी बहुत चलती थी.स्कूल के ठाकुर बाहुल्य होने के बावजूद अन्य जातिवाले समान्यतः हेय द्ऋष्टि से नहीं देखे जाते थे.शिक्षकों में कुछ स्वतंत्रता सेनानी भी थे.स्कूल में गाँधी और खादी का प्रभाव भी कुछ ज्यादा ही था.

एैसे उस स्कूल में दो तरह की विचार धारा वाले लोग साफ द्ऋष्टिगोचर होते थे. एक खादीधारी और दूसरे खादी न पहनने वाले,पर प्रत्यक्षतः दोनो विभिन्न विचार वालों के बीच कोई कटुता नहीं नजर आती थी.

पर मेरी कहानी का केन्द्र तो छात्रावास है, जहां सुबह और शाम खाने के समय घंटी बजा करती थी और छात्र दौड पडते थे अपने लोटे लेकर मेस की ओर.कभी कभी ज्यादा शोरगुल होने पर और चौके में बैठने की जगह कम होने के कारण बारी बारी से खाने के नियम भी बनाये जाते थे और देखते देखते नियम टूट भी जाते थे.एैसे ही नियम के तहत जो सोलह छात्र रात्रि भोजन के लिये पहले भेजे गये थे वे बतीस छात्रों का खाना खा गये.अब जो शोर मचा तो छात्रावास के बुजुर्ग अधिक्षक को आना पडा.क्रोध में आकर उन्होनें सोलह छात्रों पर बतीस छात्रों के खाने का चार्ज कर दिया.होहल्ले के बीच फिर से खाना बना तो बाकी छात्र खा पाये.

पंडित जी तो खैर पंडित जी थे,पर नारायण भी कुछ कम नहीं था.नारायण बगल के एक एैसे गाँव का निवासी था,जहाँ के ठाकुर अपने को अन्य ठाकुरों से श्रेष्ठ मानते थे.उसी गाँव के ठाकुरों में एक एैसे ठाकुर भी थे,जो इलाके सबसे बडे रईस माने जाते थे.नारायण को फक्र था कि छोटी जाति का होने के बावजूद वह एैसे गाँव का निवासी था,जो उस इलाके का श्रेष्ठ गाँव था.नारायण के हम छात्रों के साथ वर्ताव में भी इसकी झलक मिलती थी.स्वभाग्य या दुर्भाग्य बस गाँव का कोई छात्र छात्रावास में नहीं था.

वैसे छात्रावास में ठाकुरों के बच्चे ज्यादा थे,पर दूसरी जातियों के बच्चे भी थे ही.इसी बीच छात्रावास का कार्यभार,बुजुर्ग अधिक्षक से एक अन्य शिक्षक ने ले लिया..हमारे पहले वाले अधिक्षक भी गाँधी वादी थे,पर दूसरे अधिक्षक तो आदर्श के मूर्तिमान रूप थे.स्कूल में गणित पढाते थे और बहुत ही सीधे स्वभाव के माने जाते थे.पर उनमें एक बात थी.गलत या अभद्र व्यवहार किये जाने पर उनका क्रोध भी मैनें देखा था.थोडा हकला कर बोलते थे,पर क्रोध में आने पर उनका हकलाना बढ जाता था.

मेरी कक्षा में मुंशी राम नामक धोबी जाति का एक छात्र था.डेढ दो कोस दूर गाँव से पढने आता था.पढाई में वह बहुत अच्छा तो नही था ,पर ठीक ठाक था.मित्रता तो उसकी मुझसे भी थी ,पर मेरे कमरे के एक अन्य साथी से उसकी बहुत अच्छी खासी पटती थी. वैसे मेरा वह साथी स्कूल के प्रधानाध्यापक का भी चहेता था.मेरे कमरे में उन दिनों तीन ही छात्र थे.चौथे की जगह खाली थी.मुंशी स्कूल के मध्यावकाश के समय कभी कभी हमलोगों के साथ मेरे कमरे में आ जाता था.तैराकी और दौड में मुंशी बहुत अच्छा था.समय की परत में मुंशी और स्कूल के अन्य साथी कहाँ दब गये,यह तो आज पता भी नही है.

बातों ही बातों में एक दिन मुंशी ने छात्रावास में रहने की इच्छा व्यक्त की.हमलोगों को क्या एतराज हो सकता था?प्रधानाध्यापक से इजाजत आवश्यक था. वह भी मिल गया. मुंशी हमलोगों के साथ रहने आा गया.उसका भी वही कार्यक्रम बन गया जो हमलोगों काथा. एक बात बताना मैं भूल गया.वह कमरा जिसमें मैं अपने दो साथियों के साथ रहता था,वह स्कूल के सामने वाले चार कमरों में से एक था.

मुंशीको आये हुये दो दिन हो गये थे. इस बीच कोई खास बात नही हुई थी.तीसरा दिन रविवार था यानि छुट्टी का दिन था.याद नही कौन महीना था,पर शायद अप्रैल का महीना रहा होगा.हवा में गर्मी आ गयी थी.कमरों में रहना असह्य होने लगा था,पर रहना तो था ही. दोपहर का खाना खाकर हमलोग अपने कमरे में ही लेटे थे.मेरे तीनो साथी तो निद्रामग्न थे,पर मेरी स्थिति निद्रा और अनिद्रा के बीच की थी.बचपन में पिताजी ने गर्मी की दोपहरी में सुलाने की बहुत कोशिश की थी ,पर कभी भी मैं दोपहर को ठीक से सो नहीं सका था.अनुशासन के तगडे पिताजी की आँख बचाकर मैं कभी कभी घर के बगल वाले आम के बगीचे में भी निकल जाता था.पकडे जIने पर डाँट कम.मार ज्यादा पडती थी.

हाँ तो मैं बात कर रहा था,उस दोपहर की निद्रा और अनिद्रा के बीच की स्थति की.इसी बीच कानों में कुछ शोरगुल की आवाज पहुंची.प्रथम तो मुझे कोई शक नहीं हुआ.लगा कि कुछ छात्र पीछे वाले नीम के पेड के नीचे बैठ कर हल्ला कर रहे हैं.थोडा आश्चर्य भी हुआ,पर यह स्थिति ज्यादा देर तक नही रही.बडे जोर से जय बजरंगबली की आवाज सुनाई दी.सबसे मुखर आवाज छात्रावास के रसोइये यानो पंडित जी की थी.बजरंगबली की जय ने तो मुझे पूरे होश में ला दिया.मैं समझ गया कि दाल में कुछ काला है.क्या ठाट से सो रहे थे मेरे तीनों साथी. उस नारे का भी उनकी निद्रा पर कोई प्रभाव नहीं पडा था.

मैं अपनी जगह से धीरे से उठा और छात्रावास के दूसरी तरफ गया.देखता क्या हूँ कि वीस पच्चीस छात्रों का जमघट लगा हुआ है. नेतागिरी की बागडोर पंडित जी के हाथों में है.वे अपना ऊल जल्लूल बके जा रहे हैं. नारायण भी उछल कूद मचा रहा था.छात्र भी उतेजित नजर आ रहे थे.मेरे वहाँ पहुचते ही वे मेरी ओर मुखातिब हो गये.कुछ देर तक तो मेरी समझ में ही नहीं आया कि वे लोग कहना क्या चाहते हैं.सबसे ज्यादा उतेजित पंडित जी थे.वे कहने लगे-

“आपलोग धोबी को अपने कमरे में भले हीं रख लें, पर मैं अपने चौके में उसको नहीं घुसने दूंगा.”

नारायण भी कहाँ पीछे रहने वाला था?बोला”मैं धोबी की जूठी थाली नहीं धो सकता.”

छात्रों की शह भी उनको मिल रही थी.और तो और मल्लाह छात्र भी उन्हीं लोगों का साथ दे रहा था.

मुझे क्रोध तो बहुत आ रहा था. सरे आम मेरे साथी की इज्जत नीलाम हो रही थी.एैसे भी स्कूल में अंतिम वर्ष के छात्रों की खास इज्जत होती है.वहाँ खडे अधिकतर छात्र जुनियर थे.मेरे एक दो सहपाठी भी उनमें थे,पर वे कुछ बोल नहीं रहे थे.क्रोध को दबाते हुए, वातावरण को हल्का करने के लिये मैं बोला,” मुन्शी दो दिनों से उसी चौके में खा रहा है और नारायण भी दो दिनों से उसकी जूठी थाली धो रहा है.अभी तक आपलोगों की जाति भ्रष्ट नहीं हुई तो आगे कैसे होगी?

इस कथन ने एक तरह से आग में घी का काम किया.पंडित ने अपना जनेऊ तोड कर फेंक दिया और लगा कि मुझ पर वार कर बैठेगा.ऊल जलूल भी बकने लगा.

अब मेरे लिये भी अपने पर काबू रखना मुश्किल हो गया.तुर्रा यह कि मैं अपने को अकेला पा रहा था. मुझे अफसोस तो हो रहा था कि मैं अपने कमरे के अन्य साथियों को लेकर क्यों नहीं आया,पर संतोष भी था कि कम से कम मुंशी तो इन सब बातों से अनभिज्ञ है,पर कब तक?

मैने बात आगे बढाने की कोशिश की-“ठीक है आपलोगों की जाति भ्रष्ट होने का खतरा पैदा हो गया है,पर अब आपलोग करेंगे क्या?”

एक जूनियर छात्र बोला,”आप भी तो हमलोगों के ही जाति के हैं.आपकी भी तो जाति भ्रष्ट हो रही है.”

मैं इस प़्रश्न को टाल गया.मुझे तो यह भी लग रहा था कि कहीं नारायण यह न कह बैठे कि ये मेरे गाँव के ठाकुरों के तरह थोडे ही हैं. ऐसे भी मेरी जाति तो बहुत बार भ्रष्ट हो चुकी थी.उस समय मैं शायद सातवीं कक्षा का छात्र था.गाँव के बुजुर्गों से बहस कर बैठा कि जाति पाँति बेकार है. अगर साफ सुथरा खाना कोई अछूत कहे जाने वाली जाति का आदमी भी खिलाये तो उसे खाने में परहेज नहीं होना चाहिये. एक बुजुर्ग बोले थे,”बबुआ कहना आसान है,करना कठिन”.मैने उसी समय अपने हरिजन चरवाहे से अपने घर से रोटी मंगाई थी और उनके सामने खा गया था.थोडा हो हल्ला मचा था,पर फिर सब शान्त हो गया था.पिताजी को घटना का पता शाम को लगा था.उन्होनें इतना ही कहा था,-“तुमने गलती तो नही की,पर इस तरह सबको उतेजित करना ठीक नहीं था.”

इस तरह की छोटी मोटी घटनायें,जैसे किसी हरिजन के लोटे से पानी पी लेना इत्यादि तो चलती ही रहती थी,पर दूसरी घटना जो छात्रावास में आने के पहले घटी थी,वह थी एक मुस्लिम सहपाठी के साथ बैठ कर एक ही प्लेट से जलेबी खाना.हम चार साथी जो अगल बगल के गाँवों के थे,स्कूल से साथ ही लौटते थे.हमारा मुस्लिम साथी दसवीं कक्षा का छात़्र था, मैं नवीं और अन्य दो आठवीं कक्षा के.उस दिन साथियों का मन हुआ कि रास्ते के दूकान से जलेबी खायी जाये.आर्डर देने का जिम्मा रामजी ने लिया जो आठवीं कक्षा का छात्र था. उसने कहा कि तीन आदमियों का एक प्लेट में मंगाते हैं और चौथे का दूसरे प्लेट में.

मैनें पूछा,” ऐसा क्यों?”

उसने मुस्लिम साथी की तरफ इशारा किया.

देखने में ऐसा नहीं लग रहा था कि हमलोगों के मुस्लिम साथी को भी कोई एतराज था,पर मुझे यह गवारा नहीं हुआ. मुझे आज भी याद है,मैनें कहा था,या तो एक प्लेट या चार प्लेटें.अंत में हमलोगों ने एक ही प्लेट से जलेबियाँ खाई थी.

पंडित जी आगे बढे और बोले,-“मैं तो यह नौकरी छोड दूंगा.मैं अभी ब्रजराज बाबू(छात्रावास के नये अधिक्षक)के पास जा रहा हूँ और उनसे कहूँगा या तो धोबी छात्रावास में रहेगा या मैं रहूँगा.”

नारायण भी कहाँ पीछे रहने वाला था? वह भी पंडित के हाँ में हाँ मिलाने लगा.छात्र भी पंडित के साथ जान को तैयार हो गये.मुझे तो बहुत क्रोध आा रहा था,खासकर अपने सहपाठी और मित्र को बार बार उसके जाति के नाम से संबोधित किये जाने से,पर मैं कर हीं क्या सकता था?फिर भी मैनें एक आखिरी कोशिश की,-” मान लीजिये, ब्रजराज बाबू आपलोगों की बात नही माने.

इस बात पर लडके भडक उठे,”मानेंगे कैसे नही?इतने लोग साथ जा रहे हैं.क्या एक लडके के लिये वे छात्रावास बंद कर देंगे?”

मैनें कहा,-“अगर ऐसा करने को तैयार हो गये तो?”

पंडित जी विफर पडे,-“ऐसा हो ही नहीं सकता.”फिर नेता की तरह छात्रों से बोले,”इनसे उलझ कर हमलोग अपना समय बर्बाद कर रहे हैं. जो होगा देखा जायेगा.यह तो नहीं बनता कि हमलोगों कासाथ दें,उल्टे हमलोगों का रास्ता काट रहे हैं.”इतना कहकर वे लोग आगे बढे.

छात्रावास से ब्रजराज बाबू के डेरे की दूरी 200 या 250 गज रही होगी.मुझमे इतनी हिम्मत नही थी कि मैं तमाशा देखने के लिये भी उनके पीछे जाता,क्योंकि मैं ब्रजराज बाबू का स्वभाव जानता था और बहुत हद तक इस जुलूस का परिणाम भी जानता था.फिर भी उत्सुक्ता तो थी ही.मैं छिपते छिपते वहाँ तक पहुँच ही गया,पर किसी की नजर मुझ पर नही पडी.

क्या द्ऋष्य था!पता नहीं उन लोगों ने ब्रजराज बाबू से क्या कहा था.मैं सुन नहीं सका था.ब्रजराज बाबू का क्रोध सातवें आसमान पर था.वे क्रोध से थर थर काँप रहे थे. उन्होंने सामने पडा बाँस का एक टुकडा उठा लिया था.लगता था कि अब मार बैठे कि तब.ऐसा लग रहा था कि क्रोध में सबकुछ एक साथ हीं कह देना चाहते थे,पर तेजी के बावजूद आवाज रूक रूक कर निकल रही थी.वर्षों बाद राजकपूर की ‘जागते रहो ‘ फिल्म देखी थी.वह द्ऋष्य भी कुछ वैसा ही था.

ब़्रजराज बाबू का हकलाना भी बढ गया था.

पंडित–तुम तुम अपने को समझते क्या हो और नारायण–तुम–मैं मैं अभी तुम —दोनो–को नौकरी से बाहर—बाहर करता हूं.तुमलोग अभी अभी अपना वोरिया विस्तर उठाओ और दफा हो जाओ.जब–भूखों मरोगे तो पता चलेगा.

फिर वे छात्रों की ओर मुडे और बाँस का टूकडा उठाकर बोले,”तुम लोगों —की हिम्मत कैसे हुई —ऐसा–ऐसा करने को?अपने एक वरिष्ठ साथी को अपमानित करने— की—हिम्मत?मन तो –कर–रहाहै कि-मारते —मारते पीठ–पीठ की चमडी उधेड दूँ,पर–नहीं,अब मैं मैं–तुम–तुम लोगों को कुछ नहीं कहूंगा.तुम–तुम लोग इस लायक भी नहीं हो.तुम–सब –अपना अपना विस्तर बाँधो और घर जाओ.मैं हेड मास्टर साहब के पास जा रहा हूँ.सब–सब कमरे में ताला लगा दूंगा.ऐसा कहते कहते उन्होनें बाँस का टूकडा फेंक दिया.

लोगों को काटो तो खून नहीं.उनके तो हाथों के तोते उड गये थे.पाँसा ऐसा उल्टा पडा था कि सब भौंचक रह गये थे. मेरे पास आगे देखने का समय कहाँ था?मैं तो वहाँ से रफूचक्कर हो चुका था.कमरे में आया तो देखा कि मेरे तीनो साथी जग चुके हैं.मुंशी को लगता है कि घटना का पता चल चुका था.वह बहुत ही मायूस नजर आा रहा था.

बाद की कहानी बहुत छोटी है.कुछ देर बाद उसी समूह का एक लडका आया और मुझे बुलाकर पीछे ले गया.लोगों के चेहरे पर हवाइयाँ उड रही थीं.सबसे बुरा हाल पंडित और नारायण का था.उनकी नौकरी जा रही थी.छात्र भी कम परेशान नही थे.उनको पता नहीं चल रहा था कि वे घर जाकर अपने अभिभावकों को क्या कहेंगे?नारायण के लिये तो दोहरी मार थी.एक तरफ तो उसकी नौकरी जा रही थी दूसरी तरफ उसकी गाय का भोजन. गाँव से आकर उसकी गाय दोनो शाम माड पिया करती थी.मुझे तो उन लोगों को देख कर ऐसा लग रहा थाकि वे अभी अभी रो पडेंगे.जो पंडित जी कुछ देर पहले शेर की तरह दहाड रहे थे,अब गीदड नजर आ रहे थे.सब सर झुकाये बैठे थे.मेरे पहुँचते ही सब खडे हो गये.सर तो सबका तब भी झुका हुआ था.

मैंने पहुँचते ही पूछा,’मुझे क्यों बुलाये आपलोग”?

पहले तो किसी के मुँह से बोल ही नहीं फूटी,पर बाद में पंडित ने पूरी बात बतायी.अधिकतर बातों का ज्ञान मुझे पहले से ही था,पर उन लोगों को कहाँ पताथा?

मैं बोला,-“मैं इसमे क्या कर सकताहूँ?”

पंडित अपने छोटे छोटे बच्चों की दुहाई देने लगा.नारायण भी गिडगिडाने लगा.छात्र अपनी अपनी परेशानियों का रोना अलग से रो रहे थे.मुझे तो पता ही नहीं चल रहा था कि डेढ घंटें में इनकी ऐसी काया पलट कैसे हो गयी. मैं सोच रहा था कि मुंशी को अगर छात्रावास से निकाल दिया गया होता तो अभी ये खुशी से नाच रहे होते और जश्न मनाने की तैयारियाँ कर रहे होते.

मैं बोलI,”इसमे मेरी क्या आवश्यकता है?जाकर ब्रजराज बाबू से अपनी करतूतों के लिये माफी मांगो.”

किसी में हिम्मत नहीं थी कि वह दुबारा ब्रजराज बाबू के सामने जाता.वे सब गिडगिडाने लगे और मुझे साथ चलने के लिये आग्रह करने लगे.आखिर मुझे साथ जाना पडा.ऐसे तो पहले द्ऋष्य का भी मैं साक्षी था.

लोग काँपते काँपते उनके सामने पहुँचे.मुझे ही बातचीत की पहल करनी पडी.पहले तो वे कुछ सुनने को तैयार नहीं हुए.बहुत रोने गिडगिडाने के बाद उन्होने कहा कि जाकर मुंशी राम से माफी मांगो.अगर वह माफ कर देता है तो सोचूंगा,क़योंकि अपमान तो उसका हुआा है.मरता क्या न करता.उन सब लोगों ने मुंशी राम से माफी मांगी और तब जाकर इस कहानी का पटाक्षेप हुआ.

मैं एक बात बता दूँ.यह कहानी नहीं, हकीकत है.उस समय भी हकीकत था और आज भी हकीकत है.मुंशीराम तब भी था और आज भी है.आज भी कहीं न कहीं उसका विरोध हो रहा है,प्रतारणा मिल रही है.नहीं हैं तो ब्रजराज सिंह,क्योंकि वे तो वर्षों पहले गुजर गये.मुझे नहीं मालूम किसी दूसरे ब्रजराज सिंह ने जन्म लिया है.

 

भ्रष्ट ताकतवरों पर कसता शिंकजा : कलमाडी को जेल और कनिमोझी पर आरोप पत्र

-प्रमोद भार्गव

देश की अवाम के लिए यह एक अच्छी खबर है कि न्यायिक सकि्रयता के चलते भ्रष्ट ताकतवरों के जेल जाने का सिलसिला शुरु हो गया है। ‘समरथ को नहीं दोष गुंसाईं’ का भारतीय परंपरा में प्रचलित मिथक अब टूट रहा है। 2 जी स्पेक्टम घोटाले से जुड़े मंत्री ए राजा और उनके सहयोगी अधिकारी पहले ही जेल की हवा खा रहे हैं। स्पेक्टम का लाभ उठाने वाली कुछ चुनिंदा निजी कंपनियों के मालिक और महाप्रबंधक भी सींखचों के पीछे हैं। राजनीतिक दृष्टि से सबसे ज्यादा संवेदनशील माना जाने वाला एक नया आरोपपत्र सीबीआई ने अदालत में दाखिल किया है। इसमें तमिलनाडू के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि की राज्यसभा सदस्य बेटी कनिमोझी का नाम षड्यंत्र रचने के सह आरोपियों में दर्ज है। करुणानिधि की पत्नी दयालु अम्मल भी इस लपेटे में कालांतर में आ जाएंगी, ऐसी उम्मीद है। इधर बहु प्रतिक्षित राष्टमण्डल खेल आयोजन समिति के पूर्व अध्यक्ष सुरेश कलमाडी को भी जेल का रास्ता दिखा देने से यह जाहिर हुआ है कि जन अपेक्षाओं के अनुरुप अब विधायिका और कार्यपालिका की भी इच्छाशक्ति मजबूत हो रही है। क्योंकि ऐसी अटकले जताई जा रही हैं कि सुरेश कलमाडी की गिरफतारी और कनिमोझी का आरोपपत्र में नामजद्गी प्रधानमंत्री कार्यालय की सहमति के बाद ही संभव हुए।

इस समय देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जैसा गुस्से का माहौल है, उससे लगता है कि अब सींखचों के पीछे न केवल आम आदमी बल्कि उच्च पद और उंची राजनीतिक शख्सियतें भी पहुंचती रहेंगी। क्योंकि जेल में अब तक आर्थिक दृष्टि से वंचित और लाचारों को ही ठूंसा जाता रहा है। बड़ी मछलियां अक्सर कानून के दायरे से बच निकलती हैं, यह धारणा अब खंडित हो रही है। क्योंकि अब राजनीति, प्रशासन और व्यापार क्षेत्र के एक से एक तीसमारखां जेल में हैं। गठजोड़ की यही वह त्रिलेल है जो छोटे से लेकर बड़े से बड़े भ्रष्टाचार का षड्यंत्र रच करोड़ों, अरबों के बारेन्यारे कर कानून और समाज को ठेंगा दिखाते हुए भ्रष्ट कमाई से सामाजिकआर्थिक प्रतिष्ठा हासिल करती रही है। इस गठजोड़ में सलंग्न लोगों की गिरफतारी से यह वातावरण निर्मित होने लगा है कि संविधान की सर्वोच्चता और न्यायिक शासन व्यवस्था को कोई चुनौती नहीं है। बशर्ते हमारे संविधान के सभी अंग इच्छाबल और बिना किसी प्रलोभन के कर्तव्य पालन में जुटे रहें। वैसे भी हमारा संविधान दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संविधानों की सूची में दर्ज है। क्योंकि इसमें लोकतंत्र को जीवंत बनाने वाले चारों स्तंभ अलगअलग कार्य विभाजन से जुड़े रहते हुए संवैधानिक व्यवस्था को मजबूत बनाए रखने की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। लेकिन वैश्विक उदारवाद के प्रभाव के चलते खासतौर से विधायिका और कार्यपालिका में अतिरिक्त भ्रष्टाचार के प्रति आसक्ति देखने में आ रही है। नतीजतन न्यायपालिका और चौथे स्तंभ को सामान्य से कुछ अधिक सकि्रयता दिखानी पड़ रही है। इस नाते इन स्तंभों पर संतुलन गड़बड़ा देने के भी आरोप लगते रहे हैं। किंतु क्या यह सही नहीं है कि यदि न्यायपालिका और चौथा स्तंभ भी अपने कर्तव्य से विमुख हो जाते तो क्या 2जी स्पेक्टम, राष्टमण्डल खेल और आदर्श सोसायटी जैसे घोटाले सामने आ पाते ? यदि सभी संतभों में परस्पर संतुलन बनाए रखना है तो जरुरी है कि संविधान के सभी स्तंभ कानून की मंशा और जन अपेक्षाओं के अनुसार काम करें। अन्यथा अन्य स्तंभों को सामाजिक सरकारों से जुड़े मुद्दे उठाकर अंजाम तक पहुंचाने के लिए न्यायिकक और समाचारिक सकि्रयता का हिस्सा बनना पड़ेगा।

 

कांग्रेस सांसद सुरेश कलमाडी को स्कोर परिणाम दिखाने वाली घड़ियों की खरीद में किए घोटाले में हिरासत में लिया गया है। इस ठेके में नियमों की इस हद तक धज्जियां उड़ाई कि जिस स्विस टाइमकीपिंग कंपनी को ठेका देना था, केवल उसी की निविदा का लिफाफा खोला गया। बांकी निविदादाताओं को दरकिनार करते हुए उनके लिफाफे ही नहीं खोले गए। स्पेन की कंपनी की भी निविदा बंद लिफाफे में पड़ी रही। मसलन दरों की प्रतिस्पर्धा में शामिल दावेदारों की दरों की मूल्यांकन हेतु सारिणी भी नहीं बनाई गई और 141 करोड़ की अंको ;स्कोरद्ध का हिसाब रखने वाली घड़ियां बालाबाला खरीद ली गईं। यह निर्णय खरीद समिति ने सुनियोजित ंग से साजिशन लिया और करीब 23 करोड़ की रिश्वत ली। इसी मामले में आयोजन समिति के महासचिव ललित भनोत और वीके वर्मा पहले से ही सलाखों के पीछे हैं। यदि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार से आगे ब़ने वाली सीबीआई जांच कुछ कदम और आगे ब़ती है तो खेलो में पैसे का खेल खेलने वाले और भी आला नेता व अफसर फंदे में आएंगे। क्योंकि शुंगलू जांच समिति ने तो दिल्ली के उपराज्यपाल तेजिन्दर खन्ना एवं मुख्समंत्री शीला दीक्षित को भी आरोपों के घेरे में लिया है। किंतु अभी तक इन दोनों राजनीतिक शख्सियतों से पूछताछ ही शुरु नहीं हुई। दरअसल प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष घोटालेबाजों की जबतक पूरी श्रृंखला चकनाचूर नहीं होगी तब तक भ्रष्टाचार को निर्मूल करना मुश्किल है।

1 लाख 76 हजार करोड़ रुपये के राजस्व हानि वाले 2जी स्पेक्टम घोटाले में सीबीआई ने जांच में पाया है कि डीबी रियल्टी नामक कंपनी और उससे जुड़ी अन्य कंपनियों ने करुणानिधि के परिवार की कलिअंगर टीवी कंपनी को विभिन्न माध्यमों से 200 करोड़ रुपये की धनराशि हस्तांतरित की। इस आरोप की आंच ने करुणानिधि के पूरे परिवार को झुलसा दिया है। कलिअंगर टीवी में क्रमश : 20 और 60 प्रतिशत का हिस्सा कनिमोझी और 80 साल की उनकी सौतेली मां दयालु अम्मल का है। 20 फीसदी हिस्सा चैनल के प्रबंध निदेशक शरद कुमार का है। इतनी बड़ी राशि की हिस्सेदार होने के बावजूद दयालु अम्मल का नाम फिलहाल आरोपपत्र में शामिल नहीं है। इस पर हैरानी लाजिमी है कि वे सीबीआई के घेरे से क्यों बचा ली गई ? इसमें एक आशंका यह जताई जा रही है कि वे वयोवृद्ध हैं और तमिल के अलावा दूसरी कोई भाषा नहीं जानती। इसलिए उन्होंने पारिवारिक सदस्यों के भरोसे ही वित्तीय लेनदेन के दस्तावेजों पर दस्तखत कर दिए होंगे। ये सभी दस्तावेज अंग्रेजी में हैं। इससे जाहिर है हमारे देश में अंग्रेजी अपारदश्रिता को ब़ाने का काम भी कर रही है।

 

दयालु अम्मल के नाम को तत्काल आरोपपत्र में न लिए जाने के पीछे एक अटकल यह भी लगाई जा रही है कि केंद्र संप्रग सरकार में करुणानिधि के दल द्रविड़ मुनेत्र कषमग के 18 सांसदों की अहम भागीदारी है। इसलिए कांग्रेस, द्रमुक द्वारा समर्थन वापिस लेने की स्थिति में गठबंधन सरकार चलाने के विकल्प नहीं तलाश लेती तब तक दयालु अम्मल की आरोपपत्र में नामजदगी टाली जाती रहेगी। अलबत्ता सर्वोच्च न्यायालय की लताड़ जरुर दयालु अम्मल पर कहर बरपा सकती है। बहरहाल कलमाडी और कनिमोझी के कानून के घेरे में आ जाने से आमजन में यह उम्मीद तो जगी है कि भ्रष्टाचारियों के गठजोड़ की श्रृंखला अब टूटेगी। इनकी कालीकमाई वसूलने का सिलसिला और शुरु हो जाता है तो उम्मीद की जा सकती है कि भ्रष्टाचारियों का सामाजिक बहिष्कार भी शुरु हो जाएगा।

यम की बहन को यमलोक पहुंचाती शीला

लिमटी खरे

कभी देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली की शान हुआ करने वाली कल कल बहने वाली यमुना नदी पिछले दो तीन दशकों से गंदे और बदबूदार नाले में तब्दील होकर रह गई है। विडम्बना यह है कि दिल्ली में केंद्र और राज्य सरकार की नाक के नीचे सारी वर्जनाएं तोड़ने वाले प्रदूषण ने यम की बहन समझी जाने वाली यमुना नदी का गला घोंटकर रख दिया है। देश में न्यायपालिका के स्पष्ट निर्देशों का माखौल उड़ाना कोई कांग्रेस से सीखे तभी तो कांग्रेस नीत केंद्र और राज्य सरकर इस मामले में मौन साधे बैठी है।

यमनोत्री से छोटी सी धारा के रूप में प्रकट हुई यमुना नदी इलाहाबाद के संगम तक 1375 किलोमीटर का लंबा सफर तय करती है। दिल्ली आने के पहले स्वच्छ और निर्मल जल को अपने दामन में समेटने वाली जीवनदायनी पुण्य सलिला यमुना दिल्ली के बाद बुरी तरह प्रदूषित हो जाती है। यमुना के प्रदूषण में दिल्ली की भागीदारी अससी फीसदी से अधिक है। वजीराबाद से औखला बैराज तक का महज 22 किलोमीटर का सफर करने के दरम्यान यमुना सबसे अधिक गंदी हो जाती है।

यमुना नदी के साथ सनातन धर्मावलंबियों की अगाध श्रृद्धा जगजाहिर है। भगवान श्री कृष्ण की लीलाएं और कथाएं यमुना के वर्णन के बिना अधूरी ही प्रतीत होती हैं। यमुना का नाम लेते ही भगवान श्री कृष्ण और कालिया नाग की कथा का प्रसंग जीवंत हो उठता है। कहते हैं कि कालिया मर्दन के उपरांत ही कालिया नाग के जहर के चलते मथुरा के बाद यमुना नदी ने श्याम वर्ण ओढ़ लिया था। यद्यपि भगवान कन्हैया की की लीलाओं के चलते यह जहर किसी के लिए प्राणधातक नहीं बन सका था। वहीं दूसरी ओर राजधानी दिल्ली में राजनैतिक संरक्षण प्राप्त कालिया नागों (औद्योगिक और अन्य प्रदूषण) से जीवनदायनी पुण्य सलिला दिल्ली से ही जहरीली होकर श्याम के बजाए काला रूप धारण कर आगे बढ़ रही है।

कभी यमुना नदी दिल्ली की जीवन रेखा के तौर पर देखी जाती थी। समय बदला, विकास के पैमाने बदले, लोगों के निहित स्वार्थों के आगे सारी बातें गौढ़ हो गईं और परिणामस्वरूप कालांतर में यमुना का गला घोंट दिया गया। पिछले डेढ़ दशकों में यमुना सिर्फ और सिर्फ बारिश के मौसम में बहा करती है। शेष समय यह राजधानी के जहरीले रसायनों, गंदगी और प्रदूषित सामग्री की संवाहक बनकर रह गई है।

यमुना में मुर्दों के अवशेष, कल कारखानों का जहरीला विष्ट, अपशिष्ट, जल मल निकासी का गंदा पानी और हर साल लगभग तीन हजार प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक हर साल इस नदी में तकरीबन बीस हजार लिटर रंग घुल जाता है।

देश में पानी की संवाहक बड़ी नदियों में शामिल चंबल तक में यमुना का कचरा और जहर जाकर मिलने से पर्यावरणविदों की पेशानी पर पसीने की बूंदे छलक आई हैं। 2008 में चंबल में विलुप्त प्रजाति के आठ दर्जन से अधिक घडियालों के मरने के पीछे भी यमुना को ही परोक्ष तौर पर जिम्मेवार ठहराया गया था।

केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय (एनआरसीडी) और दिल्ली स्थित सेंअर फॉर साईंस एण्ड एनवारयरमेंट का प्रतिवेदन विरोधाभासी ही है। एनआसीडी का कहना है कि 160 शहरों से होकर गुजरने वाली 34 नदियां साफ हो चुकी हैं, पर प्रतिवेदन कहता है कि नदियां पहले से ज्यादा प्रदूषित हो चुकी हैं। एनआरसीपी ने यमुना कार्य योजना 1993 मंे आरंभ की थी। 2009 में इसकी सफाई का बजट रखा था 1356 करोड़ रूपए। यमुना के वर्तमान हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि यह पैसा भी गंदे नाले में ही बह गया है।

इलाहाबाद के संगम से डेढ़ माह पहले आरंभ हुई यात्रा भी दिल्ली पहुंच गई है। साधु संतों के साथ ही साथ जागरूक लोगों ने इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है। इनकी मांग है कि यमुना नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जाए, इसे प्रदूषण से मुक्त रखने और यमुना बेसिन प्राधिकरण का गठन किया जाए। डर तो इस बात का है कि इन लोगों की यह अच्छी मुहिम कहीं निरंकुश तानाशाह शासकों के दरबार में नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित न हो जाए।

उधर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने 2009 में कहा था कि यमुना एक्शन प्लाए एक और दो के तहत 2800 करोड़ रूपए खर्च हो चुके हैं किन्तु ठोस तकनीक के न होने से वांछित परिणाम सामने नहीं आ सके हैं। हम शीला दीक्षित को स्मरण दिलाना चाहते हैं कि जो कुछ हुआ है वह खर्च उन्हीं के शासनकाल में हुआ है। शीला दीक्षित को क्या हक बनता है कि वे बिना किसी परिणाम मूलक काम और ठोस तकनीक के जनता के गाढ़े पसीने की कमाई को पानी में बहा दें। इस कदर पैसे के अपव्यय करने वालों के खिलाफ जनता के धन के आपराधिक दुरूपयोग का मामला चलाया जाना चाहिए।

राष्ट्र मण्डल खेलों के पहले शीला दीक्षित ने कहा था कि खेलों के आयोजन के पूर्व यमुना के स्वरूप को निखारा जाएगा। खेल हुए सात माह का समय बीत चुका है पर यमुना अपने असली बदबूदार सड़ांध मारते स्वरूप में ही है। शीला दीक्षित ने कहा था कि यमुना को टेम्स नहीं बनाया जा सकता है। निश्चित तौर पर गोरे ब्रितानियों के लिए लंदन की टेम्स नदी गर्व का विषय हो सकती है, किन्तु जून 2009 में हमने यही लिखा था कि ‘‘यमुना को टेम्स नहीं यमुना ही बने रहने दीजिए शीला जी।‘‘

पिछले दिनों पर्यावरण के कथित तौर पर हिमायती और पायोनियर बने वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि जमीनी हालातों के मद्देनजर 2015 तक यमुना को प्रदूषण मुक्त नहीं किया जा सकता है। जब एक केंद्र मंे मंत्री जैसे जिम्मेदार ओहदे पर बैठे किसी जनसेवक का यह मानना हो तब तो यह माना जा सकता है कि आने वाले दशकों में भी यमुना का पुर्नुरूद्धार संभव नहीं है।

लंदन की टेम्स नदी के इतिहास पर अगर नजर डाली जाए तो उसकी हालत भी सालों पहले दिल्ली की यमुना के मानिंद ही थी। हालात इतने गंभीर थे कि इससे उठती दुर्गंध के चलते टेम्स तीरे स्थापित संसद को अन्यत्र स्थानांतरित करना पड़ा था। कालांतर में जनभागीदारी से आज टेम्स नदी लंदन के लोगों के लिए गर्व का विषय बन चुकी है।

सवाल यह है कि दिल्लीवासियों को आखिर कब तक इस तरह के संकटों से दो चार होना पड़ेगा। जब भी यमुना को पार किया जाता है तब बरबस ही दिल्ली वासी नाक पर रूमाल रखने पर मजबूर हो जाते हैं। ये हालात दो तीन दशकों में ही बने हैं, इसके पहले तो यमुना नदी का स्वरूप कुछ अलग ही था। इठलाती बलखाती यमुना सभी की प्यास बुझाया करती थी। दिल्ली वासियों की ओर से हम दिल्ली की निजाम शीला दीक्षित से यही गुजारिश करना चाहते हैं कि यमुना को टेम्स बनाने की कोशिश बेकार है, इसे अपने पुराना साफ सुथरे स्वरूप में ही ले आया जाए तो वह दिल्ली सहित देश पर शीला दीक्षित का एक बड़ा उपकार होगा।

अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का पर्व है गुडफ्राइडे

आर.एल.फ्रांसिस

मानव का मानव द्वारा शोषण, निर्धनों का धनियों द्वारा दमन, शासकों का न्याय माँगने वालों को बन्दीगृह में डालना, मनुष्‍य के अधिकारों की अहवेलना, धर्म के पालन हेतु लोगों को उत्पीड़त करना, मानव इतिहास का दुखद पक्ष रहा है। इसके विरुद्ध बहुत से व्यक्तियों एवं धर्मपरिवर्तकों ने अपने प्राणों की आहुति देकर एक ऐसा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वातावरण पैदा करने की चेष्‍टा की है जिसमें मनुष्‍य स्वतन्त्र हवा में सांस ले सके। मनुष्‍य को सभ्य एवं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने में धर्म की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। दुनिया के प्रत्येक धर्म में क्रांति का धर्मविज्ञान मौजूद है इसलिए क्रांति धर्मविज्ञान और स्वतंत्र धर्मविज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू है।

बइबिलशिक्षा क्रांति धर्मविज्ञान की पुष्टि करती है। बाइबिल में हम पढ़ते है कि मूसा ईश्‍वर की आज्ञा पाकर मिस्र देश से इस्राएली प्रजा को मिस्रियों की गुलामी से निकाल लाये, मिस्र में इस्राएली लोग मिस्रियों की दासता की चक्की में पीसे जा रहे थे। इतिहास में सम्भवत: यह पहला स्वतन्त्रता आन्दोलन था, इस सन्दर्भ में दाऊद नबी भी लिखता है कि ‘ईष्वर दोहाई देने वाले दरिद्र का, और दु:खी और असहाय मनुष्‍य का उद्वार करेंगे। उपरोक्त दोनों प्रसंगों से यह निष्‍कर्ष निकाला जा सकता है कि परमेश्‍वर दासता में जकड़े हुए लोगों के कराहने को केवल सुनता ही नहीं वरन् उसका निवारण भी करता है और वह दमनकर्ता को दण्ड भी देता है।

असहाय और शोषित जनता के जीवन में क्रांति लाकर दमन, दासता, निर्धनता, शोषण समाप्त करना ईश्‍वरीय कार्य में हाथ बँटाना है। हम प्रभु यीशु मसीह को देखें- नासरत के आराधनालय में वह अपना पहला प्रवचन देते हुए कहते हैं – ”प्रभु का आत्मा मुझ पर है उसने मुझ को (यीशु मसीह) इस सेवा के लिए अभिशिक्त किया है, कि मैं गरीबों को शुभ संदेश सनाऊँ। प्रभु ने मुझे इस कार्य के लिए भेजा है कि मैं बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टि पाने का संदेश दू: मैं (यीशु मसीह) दलितों को स्वतन्त्रता प्रदान करुँ।” (लूका 4:18-19) ‘बीसवीं शताब्दी के प्रमुख मसीही धर्मविज्ञानी’ पुस्तक के लेखक ‘डा. बैन्जामिन खान’ लिखते है कि दरअसल यीशु मसीह के कार्य अनिवार्य रुप से दलितों को स्वतन्त्रता प्रदान करने के ही कार्य थे। वह सदैव ही पापियों, दलितों, निर्बलों और निर्धनों के प्रति सहानुभूति रखते थे। उन्होंने नेक सामरी के कार्य की प्रशंसा की और फरीसियों (पुरोहित वर्ग) के अहम् की निंदा भी की।

भारत में करोड़ों वंचितों ने अन्याय, शोषण, निर्धनता और सामाजिक विंसगतियों से विद्रोह करते हुए चर्च नेतृत्व की शरण ली थी। लेकिन यहां उन्हें निराशा ही हाथ लगी हैं, भारत का चर्च नेतृत्व प्रभु यीशु मसीह के उल्टी राह पर चल रहा है। वह यहां के वंचितों की अशिक्षा, अन्याय, शोषण, निर्धनता और सामाजिक विसंगतियों का लाभ उठाते हुए अपना साम्राज्यवाद बढ़ाने में लगा हुआ है। ईसा मसीह के नाम पर व्यापार कर रहा चर्च नेतृत्व अपने ही घर में वंचित वर्गों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार कर रहा है। अपने व्यव्साय को बनाये रखने के लिये उसने प्रभु यीशु मसीही के क्रांतिकारी बलिदान पर धर्मिक कर्म-कांडों का ऐसा मुलमा चढ़ा दिया है कि भारत में ईसाइयत असफल सिद्ध होती दिखाई दे रही है। धर्मांतरित ईसाइयों के अखिल भारतीय संगठन ”पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट” का आरोप है कि चर्च द्वारा संचालित संस्थानों का लाभ दलितों या दलित ईसाइयों को छोड़कर पूंजीपतियों को पहुंचाया जा रहा है। आज चालीस हजार से ज्यादा मँहगें कान्वेंट स्कूल, कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेजों का चर्च द्वारा जाल फैलाया जा चुका है, तथाकथित समाज सेवा के नाम पर विदेशों से हजारों करोड़ रुपये इक्कठा किये जा रहे है। चर्च के पास भारत सरकार के बाद दूसरे नम्बर पर भूमि का मलिकाना हक है वो भी पॉश शहरी इलाकों में।

चर्च नेतृत्व सामाजिक हाशिए पर धकेल दिये गये अपने वंचित वर्गों से आये अनुयायियों का विकास करने से बचने के लिये सरकार पर दबाब बना रहा है कि वह इन करोड़ों वंचितों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करके इनके विकास की जिम्मेदारी निभाये। चर्च ईसाइयत/मसीही षिक्षा को धर्म क्रांति विज्ञान में डालने में पूरी तरह असफल रहा है। प्रभु यीशु मसीह ने इस बात की घोषणा की कि ईश्‍वर का राज्य निर्धनों के लिये है और धनी का इस राज्य में प्रवेश अत्यन्त कठिन है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि ईश्‍वर के राज्य के प्रवेश के लिये निर्धन होना आवश्‍यक है केवल यीशु मसीह इतना कहना चाहते थे कि ‘धनी ईश्‍वर पर विश्‍वास न रखता हुआ अपनी पूंजी पर विश्‍वास रखता है। जबकि निर्धन प्रत्येक कठनाई और समस्या को पार करने के लिये ईश्‍वर का मुख निहारता है। ईसाई धर्मविज्ञानी श्री पी.बी.लोमियों का मत हैं कि भारतीय चर्च नेतृत्व ने दलितों के धर्म को कुलीनों के धर्म में परिवर्तत कर दिया है। बाइबिल इस बात को सिद्ध करती है कि प्रभु यीशु मसीह सदैव ही दलितों के पक्ष में थे। अन्याय के विरुद्व अवाज उठाने के कारण उन्हें देशद्रोही के रुप में क्रॉस पर मृत्य दण्ड भी दिया गया। यीशु मसीह हमें यह शिक्षा भी देते है कि ”ऐसे तन्त्र के, जो समान्य-हित्ता की रक्षा नहीं करता, बन्धन को तोड़ देना और उसके स्थान पर नये तन्त्र की स्थापना करना, जो सामान्य हित्ता की रक्षा करता है, उचित है। ईश्‍वरीय कार्य है।” क्या भारत में मौजूदा चर्च तन्त्र में बदलाव करना ईश्‍वरीय कार्य नहीं हैं ?

इतिहास, संस्कृति और गौरव को सहेजे गिरजाघर

गुड फ्राईडे पर विशेष

लिमटी खरे

गंगा जमुनी तहबीज वाले भारत वर्ष में हर वर्ग हर मजहब, हर संप्रदाय को मानने वालों की कमी नहीं है। उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक देश में मसीही समाज के इबादत गाह अपने अंदर इतिहास, संस्कृति, प्राचीन नायाब वास्तुशिल्प और निर्माण शैली आदि को सहेजे हुए हैं। मसीही समाज के अलावा अन्य संप्रदाय के लोग भी इन गिरजाघरों में जाकर पूजन अर्चन कर पुण्य लाभ कमाने से नहीं चूकते हैं।

पुर्तगालियों ने देश में गोथिक और बारोक शैली में चर्च निर्मित करवाए। वहीं दूसरी ओर ब्रितानियों ने यूरोपियन और अमरीकी शैली में इनका निर्माण किया। कैथोलिक चर्च के अंदर भव्यता और उन्हें अलंकृत करने का शुमार रहा तो प्रोटेस्टेंट चर्च की बनावट काफी हद तक सादी है। शैली चाहे जो रही हो पर एक बात तो तय है कि आज ये सभी इबादतगाह देश के लिए गौरवशाली धरोहर से कम नहीं हैं।

धर्म निरपेक्ष भारत गणराज्य में आदि अनादि काल से सभी धर्मों का आदर करने की परंपरा आज भी बदस्तूर जारी है। यही कारण है कि भारत में हर धर्म के तीज त्यौहारों को पूरे उल्लास के साथ मनाने की परंपरा का निर्वहन हो रहा है। देश के अनेक गिरजाघरों की आंतरिक साज सज्जा, नायाब वास्तुकला, इतिहास और एतिहासिकता भारत ही नहीं वरन समूचे विश्व में विख्यात है। आईए देश के कुछ चर्च के बारे में आपको जानकारी से लवरेज करें:-

0 केरल

माना जाता है कि मसीही समाज या ईसाई धर्म का आगमन भारत में केरल से हुआ था। ईसा के शिष्ष्य थॉमस के आने के बाद यहां गिरजाघरों की स्थापना का काम आरंभ हुआ। केरल के चर्च की छटा अपने आप में अनूठी ही है। केरल में त्रिचूर का अवर लेडी ऑफ लोरडस चर्च की चर्चाएं न केवल हिन्दुस्तान वरन् समूचे विश्व में होती हैं। इस विशालतम चर्च की आंतरिक साज सज्जा और वास्तुशिल्प अकल्पनीय ही कहा जा सकता है। इसी तरह यहां कोच्ची के 52 किलोमीटर दूर मयलातूर हिल्स पर स्थापित कैथोलिक चर्च अपने आप में अद्वितीय माना जाता है। धारणा है कि इस चर्च की स्थापना स्वयं सेंट थॉमस द्वारा करवाई गई थी।

0 दिल्ली

देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में मसीही समाज के इबादतघरों की कमी नहीं है। यहां अनेक एतिहासिक चर्च मौजूद हैं जो आज भी दमक रहे हैं। कहा जाता है कि दिल्ली में चांदनी चौक स्थित सेंट्रल बेपटिस्ट चर्च प्राचीनतम चर्च है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें यूरोपियन और मुगल कालीन शैली का अनूठा मिश्रण देखने को मिलता है। दिल्ली का दूसरे नंबर का प्राचीनतम चर्च कश्मीरी गेट पर अंतर्राट्रीय बस अड्डे के पास बना सेंट जेम्स चर्च है। इसके अलावा दिल्ली में महामहिम राष्ट्रपति के आवास के निकट स्थापित कैथेड्रल चर्च जिसे वाईसराय चर्च भी कहते हैं की खूबसूरती देखते ही बनती है। गोल डाकघर के पास कैथेड्रल ऑफ द सेकेंड हार्ट चर्च भी दर्शनीय है। इन सभी चर्चों की शोभा तब निखर जाती है जब ईसामसीह के जन्म दिन क्रिसमस पर इन्हें दिल से सजाया जाता है।

0 हिमाचल प्रदेश

भारत की देवभूमि कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश में मसीही समाज के पूजाघरों की छटा अपने आप में अनोखी ही मानी जाती है। पर्वतों पर बसे शिमला के माल रोड़ पर स्थित क्राईस्ट चर्च की चर्चा के बिना देवभूमि के चर्च अधूरे ही हैं। गोरे ब्रितानियों के राज में ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी शिमला। बताते हैं कि इस चर्च का निर्माण 1858 मंे कराया गया था। इसके स्टेंड ग्लास विंडोज की भव्यता और सुंदरता आज भी उसी तरह है जैसी कि निर्माण के वक्त हुआ करती थी। शिमला का सेंट माईकल्स चर्च भी लुभावना ही है। लार्ड डलहौजी द्वारा बसाए गए डलहौजी सुभाष चौक में सेंट फ्रांसिस कैथोलिक चर्च, गांधी चौक पर सेंट जॉन चर्च सहित यहां चार चर्च हैं। कहा जाता है कि सैंट जॉन चर्च की बनावट इंग्लैण्ड के कैथोलिक चर्च ऑफ इंग्लैण्ड की भांति ही है।

0 गोवा

पर्याटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण गोवा में अनेक एतिहासिक चर्च मौजूद हैं। इनमें से अनेक चर्च तो आज यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में पंजीबद्ध हैं। गोवा में ‘से-कैथेड्रल‘ आकार में सबसे बड़ा चर्च है। पुर्तगाली गोथिक शैली में बने इस चर्च की भव्य इमारत गोवा की सबसे बड़ी गिरजाघर घंटी जिसे गोल्डन बेल कहा जाता है स्थापित है। यहां का चर्च ऑफ सैंट फ्रांसिस एसिसी, सैंट फ्रांसिस को पूरी तरह समर्पित है। यहां लकड़ी पर उकेरी गई काष्ठकला और भित्ती चित्र वाकई में दर्शनीय हैं। गोवा का बासिलिका ऑफ बॉम जीसस चर्च तो रोमन कैथोलिक जगत में अपना अहम स्थान रखता है। इसमें सेंट फ्रांसिस स्मारक में उनकी ममी आज भी संरक्षित है। 1605 में निर्मित इस चर्च में उनके जीवन के प्रसंगों को भित्ति चित्रों के माध्यम से जीवंत करने का प्रयास किया गया है। इसके अलावा गोवा में चर्च ऑफ सेंट मोनिका, चैपल ऑफ सैंट एंथोनी भी नायाब हैं।

0 तमिलनाडू

तमिलनाडू में ईसाई समाज के इबादतघरों की कमी नहीं है। तमिलनाडू के तंजावुर जिले की वेलांकन्नी चर्च को इसाईयों का प्रसिद्ध तीर्थ माना जाता है। यहां ‘वर्जिन मेरी‘ को ‘आरोग्य माता‘ के रूप में माना जाता है। माना जाता है कि यहां आने वाले भक्तों श्रृद्धालुओं के रोग दूर करने की चमत्कारी शक्तियां मौजूद हैं। यहां प्रार्थना करने पर कष्टों का निवारण अपने आप ही हो जाता है। इसका 92 फीट उंचा शिखर दूर से ही लोगों को लुभाता है। चेन्नई में सैंट थॉमस माउंट चर्च का अपना अलग ही महत्व है। इस चर्च का उल्लेख 13वीं शताब्दी में मार्कोपोलो के संस्मरणों में भी मिलता है। इस स्थान पर ईसा मसीह के शिष्य फिलिस्तीनी सेंट थामस ने देह त्यागी थी। इसके बाद 1893 में इस चर्च का पुर्ननिर्माण निओगोथिक शैली में हुआ था।

0 उत्तर प्रदेश

देश को सबसे अधिक वजीरेआजम देने वाले उत्तर प्रदेश सूबा अपने दामन में अनेक चर्च समेटे हुए है। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को अपने आप में सहेजने वाले मेरठ शहर में बेगम समरू द्वारा बनवाए गए चर्च को देखे बिना उत्तर प्रदेश की यात्रा अधूरी ही समझी जा सकती है। सरघना स्थित कैथोलिक चर्च को बेगम समरू का चर्च भी कहा जाता है। 1822 में निर्मित इस चर्च की विशेषता यह है कि एक मुस्लिम महिला बेगम समरू ने इसका निर्माण करवाया था। उनका विवाह वाल्टर रहेंहार्ट से हुआ तब उन्होंने ईसाई धर्म को अंगीकार कर लिया था। इसके अलावा कानपुर और लखनउ का क्राईस्ट चर्च, इलाहाबाद का कैथेड्रल चर्च अपने आप में भव्यता लिए हुए है।

पुड्डुचेरी

पुड्डुचेरी में अनेकानेक चर्च हैं। फ्रेंच इंडो संस्कृति के मिले जुले स्वरूप को देखकर सैलानी आकर्षित हुए बिना नहीं रहते हैं। चर्च ऑफ सेक्रेड हार्ट ऑफ जीसस, चर्च ऑफ अवर लेडी ऑफ इमेक्युलेट कंसेप्शन, चर्च ऑफ द लेडी ऑफ एंजल्स आदि पुमुख चर्च हैं जो यूरोपीय शैली में निर्मित हैं।

विवादों में जनलोकपाल मसविदा समिति

श्रीराम तिवारी

भारत में इस समय ’जन-लोकपाल बिल’ की ड्राफ्टिंग कमेटी सुर्ख़ियों में है. इसके कर्ताधर्ताओं में से एक श्री शांतिभूषण जी तथाकथित -सी डी काण्ड बनाम कदाचार बनाम भ्रष्टाचार रुपी दावाग्नि की चपेट में आ चुके है. उन पर और उनके पुत्र जयंतभूषण पर इलाहबाद तथा नॉएडा इत्यादि में विभिन्न अचल संपत्तियों को गैरवाजिब तरीकों से हासिल किये जाने के आरोप हैं. उनकी सकल संपदा सेकड़ों करोड़ रूपये बताई जा रही है.इन खुलासों से ’अन्नाजी’ बेहद दुखी हैं, उनके लिए एक और अवसादपूर्ण सूचना है कि इलाहाबाद उच्च न्यायलय कि लखनऊ बेंच ने केंद्र सरकार द्वारा लोकपाल बिल का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए बनाई गई कमेटी को लेकर भारत के अटर्नी जनरल को नोटिस जारी किया है.

 

प्रसिद्ध वकील श्री शांतिभूषण जी देश के नामी सामाजिक हस्ती हैं. उन्होंने १९७५ में तत्कालीन प्रधानमंत्री बनाम राजनारायण प्रकरण में सफलतम पैरवी करते हुए भारतीय लोकतंत्र की बड़ी सेवा की थी, उनकी निरंतर अलख जगाऊ शैली और उनके ज्येष्ठ पुत्र प्रशांतभूषण की लगातार भृष्टाचार पर आक्रामकता ने नागरिक मंच की और से ड्राफ्ट कमेटी में पिता-पुत्र दोनों को ही नामित करना ठीक समझा.अब उस कमे टी के एक अन्य प्रभावशाली सदस्य और भूतपूर्व न्यायाधीश श्रीमान संतोष हेगड़े जी का कहना है कि अन्नाजी को यदि मालूम होता कि शांति भूषण जी पर आरोप हैं तो वे उन्हें ड्राफ्ट कमिटी में लेते ही नहीं. उधर एक अन्य हस्ती श्री अरविन्द केजरीवाल जी इस सम्पूर्ण स्खलन को ढंकने का प्रयास करते हुए न केवल भूषण परिवार अपितु इस अभियान में शामिल हर शख्स को ईमानदारी और राष्ट्रनिष्ठा का प्रमाण-पत्र दे रहे हैं.

 

अन्नाजी और उनके समर्थकों को लगता है कि भृष्टाचार कि इस लड़ाई में नापाक ताकतों ने अन्ना और नागरिक मंच के कर्ताधर्ताओं को जान बूझकर घेरना शुरू किया है. उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष को पत्र भी लिख मारा और सवाल पूछा कि बताओ इस सब में तुम्हारा भी हाथ है या नहीं?

 

जैसा कि सबको मालूम था किन्तु अन्ना एंड कम्पनी को नहीं मालूम कि दिग्विजय सिंह ने आरएसएस को नहीं बख्सा तो ये दो चार दस वकील और एक दर्जन एन जी ओ वालों कि ’पवित्र टीम’

 

कि क्या विसात?आर एस एस के वरिष्ठों ने भी विगत दिनों सोनिया जी से गुहार कि थी कि हे! देवी शुभ्रवस्‍त्र धारिणी रक्षा करो! सोनिया जी ने दिग्विजय सिंह के प्राणघातक सच्चे वयानो से रक्षा करें!

 

दरसल राजा दिग्विजय सिंह यही चाहते हैं की उनका आतंक न केवल कांग्रेस के दुश्मनों पर बल्कि कांग्रेस के अन्दर एंटी दिग्गी नौसिखियों को यह एहसास हो जाये की यूपीए द्वितीय के वर्तमान संकट मोचकों में वे सर्वश्रेष्ठ हैं. उन्हें अब किसी पद कि भूंख नहीं. वे उन-उन लोगों से जिन-जिन ने उन्हें अतीत में रुसवा किया है,गिन-गिन कर बदले लेने की ओर अग्रसर लग रहे हैं. उन्हें अमरसिंह जैसे दोस्तों से हासिल समर्थन और सहयोग ने अपने साझा राजनैतिक शत्रुओं पर हमले करने की सुविधाजनक स्थिति में और मज़बूत कर दिया है. अपने चेले कांतिलाल भूरिया को मध्‍यप्रदेश का कांग्रेस अध्यक्ष बनवाकर श्री दिग्विजय सिंह इस दौर के सर्वाधिक सफल राजनीतिज्ञ बन गए हैं. किन्तु वे भूल रहे हैं की यह सब नकारात्मक राजनीती है याने दूसरों की रेखा मिटाकर अपनी रेखा बढ़ाना.भृष्टाचार के खिलाफ न केवल अन्ना बल्कि देश के करोड़ों लोग चिंतित हैं, वे इससे नजात पाने के लिए छटपटा रहे हैं. यदि अन्ना या नागरिक समूह का प्रयास लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के अनुरूप नहीं है तो फैसला अदालत पर छोड़ा जाये किन्तु उस पवित्र उद्देश्य के लिए प्रयास रत लोगों पर व्यक्तिगत आरोप लगाकर जनता के बीच उन्हें भी भृष्ट सावित करना [भले ही वो भृष्ट ही क्यों न हों} देश हित में उचित नहीं.

 

जिस दिन जंतर-मंतर पर अन्नाजी का अनशन शुरू हुआ था मेने अपने ब्लॉग पर तत्काल एक आर्टिकल लिखा था जो कि वेव मीडिया के अन्य साइट्स पर अब भी उपलब्ध है. उसमें जो-जो अनुमान लगाए गए थे वे सभी वीभत्स सच के रूप में सामने आते जा रहे हैं.सामाजिक राजनैतिक रूप से अपरिपक्व व्यक्तियों द्वारा भावावेश में खोखले आदर्शों कि स्थापना के लिए कभी गांधीवाद, कभी नक्सलवाद और कभी एकात्म-मानवतावाद का शंखनाद किया जाता है और फिर चार-दिन कि चांदनी, फिर अँधेरी रात घिर आती है. अनशन तोड़ते वक्त अन्नाजी ने जब भृष्टाचार के खिलाफ अपने एकाधिकारवादी नजरिये का ऐलान किया था, समझदार लोगों ने तभी मान लिया था कि इनका भी वही हश्र होगा जो अतीत में हजारों साल से इस बावत बलिदान देते चले आये महा मानवों का होता चला आया है, इसका यह तात्पर्य कतई नहीं कि बुराइयों से लड़ा ही न जाये, .दरसल यह महा संग्राम तो सत्य और असत्य के बीच,सबल और निर्बल के बीच,तामस और उजास के बीच सनातन से जारी है. बीच इमं कभी-कभी सत्य परेशान होता नजर आता है किन्तु अन्ततोगत्वा जीत सत्य की ही हुआ करती है. बशर्ते यह संघर्ष वर्गीय चेतना से लेस हो और इस संघर्ष में जुटे लोगों का आचरण शुद्ध हो, संघर्षरत व्यक्तियों और समूहों में निष्काम भाव हो तो ही सत्य की विजय होती है. यदि धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की या इनमें से किसी एक की भी लालसा किसी में होगी तो उसे इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया जायेगा. जब कोई गर्वोन्मत्त व्यक्ति, समूह, राष्ट्र या विचारधारा यह घोषित करे कि धरती पर हमसे पहले जो भी आये वे सभी असफल और नाकारा थे, तो उसे यह स्मरण रखना चाहिए कि उसके यथेष्ट कि प्राप्ति उससे कोसों दूर जा बैठी है. पवित्र और विरत उद्देश्यों के लिए हृदय कि विशालता और मानसिक विराटता नितांत जरुरी है.

तेरा क्या होगा अन्ना

अवनीश सिंह

भारतीय राजनीतिक लोगों के चरित्र पर कभी भी विश्वास नहीं किया जा सकता है। जब तक लूट में एक साथ हैं तो ईमानदार हैं अलग हटने के बाद सभी बेईमान नज़र आते हैं और एक दूसरे के काले कारनामों को पोल जनता के सामने खोलते हैं। भारतीय राजनीति में ‘शकुनि डिपार्टमेंट’ दिग्विजय सिंह और अमर सिंह से घटिया चरित्र देखने को नहीं मिल सकता है। वास्तव में एक अपनी मैडम के लिए बलिदान कर रहा है और दूसरा शुरू से दलाली का काम कर रहा है।

यह सब वैसे ही हो रहा है जैसा अंदेशा था। आप सोच सकते हैं कि यह दुष्प्रचार अभियान किस तरह से उन लोगों पर बुरा असर डाल रहा है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई लड़ रहे हैं। (बाबा रामदेव जिसके ताज़ा शिकार बन चुके हैं) भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में (बिकी हुयी मिडिया द्वारा) प्रतीक बन चुके चेहरों के खिलाफ अमर सिंह ने मोर्चा संभाला है, जिनका खुद का राजनीतिक भविष्य अधर में है। अब बेचारे हालत के मारे अमर सिंह को ही ले लो राज्यसभा सदस्‍य और सपा के पूर्व नेता अमर सिंह ने कड़े शब्दों कहा, ‘लोग मुझे दलाल कहते हैं। हां, मैंने मुलायम के लिए दलाली की है, लेकिन दलाली में शांति भूषण भी सप्लायर थे।

भले ही यह दशा हीन भारत कि दिशा सूचक पहल है लेकिन इसेसे बहुत कुछ हासिल नहीं होने वाला है। अब इस बात से साफ़ साबित होने लगा है की सभ्य समाज की ओर से समिति के सदस्यों के नाम आन्दोलन शुरू होने से पहले ही तय हो गए थे और अन्ना हजारे, भूषण परिवार और नक्सलियों के दलाल अग्निवेश या किसी अन्य के द्वारा प्रायोजित इस आन्दोलन के चेहरे मात्न हैं। लेकिन दूसरी तरफ इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि लॊक पाल बिल सॆ सबसॆ ज्यादा डर किसॆ लग रहा हॆ जॊ कमॆटी बननॆ कॆ बाद सॆ नित नयॆ-नयॆ सगुफॆ छॊडॆ जा रहॆ है?

ये तथाकथित गांधीवाद के विषाणु से जनित कांग्रेस परदे के पीछे से गेम खेल रही है, कपिल सिब्बल (परोक्षत:) दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी प्रत्यक्षत: और द ग्रेट फिक्सर अमर सिंह का सीडी अभियान इसी रणनीति के तहत चलाया जा रहा है। पिछली बार जब दिग्विजय सिंह स्वामी रामदेव पर कीचड़ उछल रहे थे तब उन्होंने एक बात कही थी, “बाबा रामदेव नहीं जानते कि सरकार (कांग्रेस) होती क्या है ?” अब समझ आ रहा है कि कांग्रेस सरकार किस तरह की कीचड़ उछालने और भ्रम पैदा करने की राजनीति खेलती है।

अब जरा भ्रष्टाचार की लड़ाई में अन्ना का साथ देने की सोनिया गांधी और कांग्रेस की सहृदयता रूपी विवशतापर भी एक नजर डालिए। जिस प्रकार का अभूतपूर्व एवं देशव्यापी जनसमर्थन अन्ना हजारे के अनशन को मिल रहा था उसे देखते हुए इटलीपरस्त कांग्रेस के कर्णधारों के हाथ-पांव फूलने लगे थे। लोकपाल बिल से जनता का ध्यान बटाने के लिए जन कमेटी के सदस्यों की जन्म कुंडली खोज कर मीडिया में लाइ जा रही है,कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी अन्ना को लिखे अपने पत्राचार के शिष्टाचार में भष्टाचार मिटाने के प्रति अपनी निष्ठा दुहरा रही रही हैं दूसरी ओर उन्होंने चरित्र हनन अभियान के तहत अपने प्यादे दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल को कीचड़ उछालने का काम सौंप दिया है। अमर सिंह तो हैं ही कांग्रेस के पुराने सेवक, सो एक ठेका कांग्रेस ने उन्हें भी दे दिया है।

उससे बड़ी गलती तो अन्ना ने की पत्र लिखकर। चिट्ठी उसे लिखी जो खुद भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। भ्रष्टाचार के दलदल के कीड़ों-मकोड़ों से अन्ना ने भ्रष्टाचार में सहयोग की उम्मीद पाल ली, इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी। बेचारे सिविल सोसायटी के सदस्य, कहाँ चले थे भ्रष्टाचारी नेताओं और अधिकारियों के खिलाफ क़ानून बनाने……. कहाँ खुद ही सफाई देते फिर रहे हैं… कुल मिलाकर नैतिकता के रथ पर सवार होकर हवा में उड़ रहे अन्ना हज़ारे इस लड़ाई को जीतकर भी हार गये लगते हैं… वहीं दूसरी तरफ सरकार हार कर भी जीत गयी है…। मस्तिष्क मंथन के बाद अमृत या विषरूपी जो विचार सतह पर आया उसका मतलब यह है कि सत्याग्रह करने वाले, आजादी के साठ साल बाद भी समझ नहीं पाए कि राजनीति में ‘सत्यमेव जयते’ सिर्फ एक नारा है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि जब गाँधी कुछ नहीं कर पाए तो उनके वादी क्या कर पाएंगे।

कविता/ हाथी का दांत

एक दिन वो मिली रास्ते में

अपनी भतीजी के साथ

जिसे मैंने पढाई छोड़ते वक्त

 

‘कृष्णकली’ भेंट की थी.

 

मेरा परिचय उससे उसने दिया

 

”बेटा ये मेरे साथ पढ़ें हैं”.

 

भतीजी तीन-चार साल की

समझ ना पाई कि

साथ पढ़े होना कौन सा रिश्ता है.

 

वो पूछ बैठी उससे

 

”मैं इन्हें क्या कहूँ मौसी?”

 

वो पहले अचकचाई, फिर

 

अपने आस-पास बहुतों को देखकर बोली

 

”मामा”

 

किन्तु मैंने उसकी आँखों में

 

देख लिया था

 

हाथी का दिखाने का दांत

 

जो ‘मामा’ में दिख रहा था.

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अखिल कुमार ‘भ्रमर’