प्रजातंत्र में मीडिया की भूमिका और अभिव्यक्ति की सीमाओं को लेकर जो बहस हो रही है उसके संदर्भ में चुनाव आयोग का ताजा बयान ध्यान आकर्षित करता है, जिसमें कहा गया है कि पांच राज्यों के चुनावों के दौरान आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के संबंध में मीडिया रिपोर्ट को शिकायत के रूप में दर्ज कर कार्रवाही की जायेगी।
मीडिया की विश्वसनीयता और प्रजातंत्र को मजबूत बनाने में सार्थक भूमिका के संदर्भ में चुनाव आयोग का यह प्रेक्षण स्वागतयोग्य तो है ही साथ ही कई मीडिया के संबंध में कई प्रकार के भ्रम को भी दूर करता है। सबसे विचारणीय यह है कि आखिर मीडिया से समाज और सरकार की अपेक्षाएं क्या हैं? कौन हैं जो मीडिया पर नियंत्रण चाहते हैं? क्या मीडिया को एक कठपुतली की तरह व्यवहार करना चाहिये जो सबको पसंद हो? यदि मीडिया के माध्यम से व्यवस्थाओं की खामियां सामने आती हैं तो वह किसके हित में हैं? जब तक कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका मीडिया को सहयोगी और मार्गदर्शक नहीं मानेंगी तो निरंकुशता की स्थिति बती ही जायेगी।
प्रजातंत्र में निरंकुश होने की संभावना हर पल बनी रहती है। चुनाव आयोग ने यह भी स्पष्ट किया है कि चुनाव प्रकि्रया में तटस्थता नहीं बरतने वाले अधिकारियों कर्मचारियों पर कठोर कार्रवाई की जायेगी। कार्यपालिका के कर्तव्य निर्वहन और विश्वसनीयता पर संदेह स्पष्ट रेखांकित होता है। यदि कार्यपालिका के माध्यम से मीडिया को अपने कर्तव्य निर्वहन में किसी प्रकार का सहयोग मिलता है तो यह कोई ऐसा कृत्य नहीं है जिससे कारण मीडिया के व्यवहार को ही आलोचना का शिकार बना दिया जाये। आखिरकार उददेश्य एक है। आम लोगों के हित में शासन प्रशासन ईमानदारी से काम करे। भ्रष्टाचारी उजागर हों। अच्छे कार्यों को जनसमर्थन मिले और लोकतंत्र के फलने फूलने का वातावरण बने।
क्या भारत में समाचार माध्यम मसलनः अखबार, टीवी चैनल और इंटरनेट मीडिया लोकतंत्र के सजग प्रहरी की भूमिका निभा रहे हैं। या फिर बा़ ही खेत खा रही है। कभी पैसे लेकर खबर दिखाने के आरोप तो कभी बडे चिकने चुपड़ो की चर्चा के आक्षेप, क्या मीडिया सच के लिये नेताओं से, न्यायापालिका से एवं व्यवस्था से उनके लिये लड़ रही है। जिन्हें न्याय नहीं मिला? इन सवालों के जवाब खोजने के लिये मीडिया के अतीत पर गौर करना लाजिमी है।
संदर्भो के अनुसार इमरजेंसी के समय समाचार पत्रों ने संपादकीय पृष्ठ खाली छोडकर शालीन तरीके से अपना विरोध दर्ज कराया था। यह सब उस समय के पत्रकारों के बलबूते ही संभव हो सका था। पिछले दो दशकों की बड़ी घटनाएं इस बात की तसदीक करती हैं कि मीडिया कर्तव्यपरायण्ता, ईमानदारी और सजगता से अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर रहा होता तो बोफोर्स जैसा मामला सामने नहीं आता। चाहे मामला कोबरा पोस्ट द्वारा सांसद घूसखोरी के खुलासे का हो अथवा कि्रकेट सम्राट ललित मोदी अथवा शिश थरूर की कुर्सी जाने का। यह सब न्यू मीडिया ने ही किया है। 2जी स्पेक्ट्रम को जनता के सामने लाने का भी काम पत्रकारों ने ही किया है। इसलिये इन पंक्तियों का उल्लेख करना समीचीन होगा ’’पत्रकारिता के पवित्र पेश्ो में सफल होने से बेहतर है पेश्ो में बने रहना’’।
दुनिया के कई देशों को हिला देने वाले विकीलीक्स के संपादक जूलियन असांजे को फ्रांस के प्रमुख समाचार पत्र ने मेन आफ द ईयर 56 प्रतिशत प्राप्त वोट के आधार पर इसलिये घोषित किया। क्योंकि वह पत्रकारिता को ही न्यू मीडिया के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रोत्साहित कर रहा है।
अब देशदुनिया के लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्रों एवं चैनलों के पत्रकार आजकल अपना पक्ष न्यू मीडिया पर बेहिचक रख रहे हैं। बहरहाल, पत्रकार अब पत्रकारिता केवल मीडिया मालिकों के भरोसे नहीं कर रहा है। उनके सामने सोशल मीडिया कंधे से कंधा लगाये खड़ा है।
काबिलेगौर बात यह है कि अभी तक भारत में जितने भी खुलासे हुये हैं वह कोई मीडिया मालिक ने नहीं किये हैं। बल्कि कई मर्तबा बड़े बड़े खुलासे करने के लिये पत्रकार अपनी जान जोखिम में डालकर तथ्य जुटाता है, महीनों काम करता है तब बड़ा धमाका या खुलासा हो पाता है। लेकिन आज भी कुछ मीडिया मालिक न केवल स्वयं पत्रकारिता कर रहे हैं बल्कि पीत पत्रकारिता को हतोत्साहित कर रहे है, करना भी चाहिए।
जहां तक सवाल सरकारों द्वारा पत्रकारों को दी जाने वाली सुविधाओं का है तो वह फकत श्रमजीवी पत्रकारों के लिये ही है। पत्रकारों को मिलने वाली सुविधाओं पर अब सवाल उठने लगे हैं। जबकि केन्द्रीय वित्तमंत्री ने तो बजट पेश कर प्रेस कांसिल ऑफ इंडिया तथा सूचना और प्रसारण मंत्रालय का बजट ही कम कर दिया है।
नानाजी ने 21, जून 2005 के पत्र में युवाओं को संबोधित करते हुए लिखा है। युवाओं ! जहां चारों ओर अराजकता, ॔ष्टाचार, जातिवाद, प्रांतवाद और आर्थिक विषमता का वातावरण है उसमें ी हमारे वैज्ञानिकों ने स्वदेशी तकनीकों तथा उपलब्ध संसाधनों के बल पर राष्ट्रीय स्वामिन को बनाए रखा है। 1962 के युद्ध में चीनी सेना से हमने लोहा लिया तथा बांग्लादेश के स्वाधीनता संघर्ष में शत्रुओं के 93, 000 सैनिकों को बंदी बनाया।
॔॔कौन बनेगा करोड़पति’’ के माध्यम से युवा पी़ी को उपोक्तावादी संस्कृति के तरफ मोड़ा जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप वैज्ञानिक तथा सैनिक क्षेत्रों में पद रिक्त हैं। आजादी के 50 वषोर्ं में राजनीतिज्ञों को यह अनुव हुआ कि अप्रशिक्षित नेता प्रशिक्षित प्रशासनिक अधिकारियों को मार्ग दर्शन नहीं कर सकते।
उजड़े तथा बिखरे गांवों के तरफ से आबादी का शहरों की तरफ पलायन इस बात का द्योतक है कि हम विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था को अपने प्रशासनिक व संवैधानिक जीवन में स्थान नहीं दे पाए। फलतः आज दो ारत दिखाई दे रहा है। ारत की अधिकांश जनता के जीवन स्तर को सुधारने के लिए वैकल्पिक आर्थिक रचना की परम आवश्यकता है। विकास के पाश्चात्य मॉडल के स्थान पर गांधीवादी तथा एकात्म मानववादी दर्शन के द्वारा जनता के जीवन में पूर्णरूपेण परिवर्तन किया जा सकता है। इन्हीं उद्देश्यों को लेकर मैं दीनदयाल शोध संस्थान के माध्यम से युगानुकूल नवरचना के प्रकल्प को ग॔ामीण समाज के समक्ष एक उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत कर रहा हूं। यह प्रयोग सफल होता दिखाई दे रहा है।
नानाजी प्रकृति के सुकुमार कवि पंत की ाषा में ॔ारतमाता ग॔ामवासिनी’ के तरफ इंगित करते हुए कहते हैं कि शहरी जीवन की तुलना में ग॔ामीण जनता आज ी मानवीय गुणों से ओतप्रोत हैं। वस्तुओं का उत्पादन, वितरण और उपोग हेतु कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के बिना कुछ ी संव नहीं है। अतः ग॔ामीण वस्तुओं का नियोजन ी जरूरी है।
ारतीय चिंतन में ग॔ाहक देवता है। वह मात्र वस्तुओं का क॔यविक॔य नहीं करता बल्कि वह सेवा के द्वारा समाज में रचनात्मक सहयोग करता है। लेकिन पाश्चात्य अर्थ चिंतन में सर्वहारा का अधिनायकवाद दिखायी पड़ता है। उसके लिए संपूर्ण विश्व एक बाजार है तथा उसमें रहनेवाले लोग क॔ेता व विक॔ेता। 1917 में जो रूसी क॔ांति हुई उसमें मानव जाति का सहआस्तित्व था ही नहीं।
ारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के बाद उदारवादी अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया है। पर 20 वषोर्ं के अध्ययन से यह साबित होता है कि उदारवादी अर्थव्यवस्था ने सामाजिक समता के स्थान पर विषमता को ही ब़ाया है।
युवाओं को संबोधित करते हुए नानाजी पत्र में लिखते हैं कि अविकसित और विकासशील समाज के लिए एक मॉडल की जरूरत है। जिसके माध्यम से युगानुकूल नवरचना का मार्ग प्रशस्त हो। अतः देश का युवा ॔॔ मैं नहीं तु’’ का आदर्श प्रस्तुत करके ारत को समृद्ध और शक्तिशाली बनाएगा।
नाना प्रकार के नानाजी ने विविधता में एकता की स्थापना के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से आजीवन सेवा का व॔त लिया था। पर जब राजनीति में मूल्यों का स्थान न के बराबर हो तो एक सदाचारी मातृूमि तथा पुण्यूमि का क्त कब तक इस काली कोठरी में रहेगा। वो तो सांप के क ेंचुल की तरह त्याग कर लोकपथ का अनुगामी बनेगा। राजनीतिज्ञों को यह सोचना चाहिए कि लोकपथ से ही सारे पथ जाते हैं।
नानाजी ने 28 जुलाई, 2005 के पत्र में युवाओं को संबोधित करते हुए लिखा है कि प्रिय युवा बंधुओं और बहनों! गुलामी के पूर्व हमारी न्याय व्यवस्था ॔पंचमुखी परमेश्वर’ अर्थात ॔पंच परमेश्वर’ थी । गांव के समस्त विवाद लोग मिलबैठकर सुलझा लेते थे। पर अंग॔जों ने 1828 में इसे वकीलों के माध्यम से शुरू किया। ॔ग॔ामीण गुटबंदी’ तथा ॔ग॔ामीण मुकदमेंबाजी’ पर प्र॔यात समाजशास्त्री बिरेन्द्र सिंह की एक पुस्तक हैं जिसमें उन्होंने ग॔ामीण समाज में व्याप्त गुट तथा संघर्ष को समझाने का प्रयास किया है। नानजी ी गांवों में गुटबंदी तथा मुकदमें बाजी से व्यथित हैं। उनका एकमात्र लक्ष्य ग॔ामीण समाज में ॔रामराज्य’ के स्वप्न को साकार करना है। यह ती संव है जब जनता, वकील तथा सरकार एक सार्थक तथा प्रावी कदम उठायें।
की महात्मा गांधी को उनके राजनीतिक गुरू गोपाल कृष्ण गोखले ने ारतीय समाज का अध्ययन करने हेतु ेजा था। ग॔ामीण पुनर्रचना के लिए नाना जी ने ारतीय गांवों के अध्ययन पर बल दिया है। नानाजी लिखते हैं कि मैं एक किसान द्वारा हतोत्साहित करने पर ी हतोत्साहित नहीं हुआ तथा ट्यूबवेलों के माध्यम से गांवों का कायाकल्प कराया।
जनता पार्टी की सरकार द्वारा दिए गए सुविधाओं ने जनता में खुशियाली रूपी फसल को हरारा कर दिया। किंतु बिंध्याचल की पहाड़ियों से युक्त चित्रकू ट में यह प्रकल्प दुःसाध्य था। धीरेधीरे यह 500 गांवों में प्रयोग सफल हो गया है। किसी ी प्रकल्प के सफलता हेतु उस स्थान का वातावरण मु॔य रूप से जिम्मेदार होता है। लेकिन नानाजी ने अपने दिव्य ज्ञान चक्षु से ॔समाज शिल्पी दंपत्तियों’ का जो प्रयोग किया। उसके कारण उन गांवों से शून्य मुकदमेंबाजी, शून्य बेरोजगारी तथा हरेरे गांव दिखाई पड़ते हैं। यह सब राष्ट्र दधीचि नानाजी के प्रताप एवं प्राव के कारण संव हुआ है।
पत्र लेखन जनकल्याण का एक सशक्त माध्यम रहा है। प्रायः महात्मा गांधी, जय प्रकाश नारायण आचार्य विनोबा ावे तथा देश के गणमान्य लोगों ने इन पत्रों के द्वारा ारतीय समाज को एक नयी दिशा देने का प्रयास किया था। नानाजी तो एक राष्ट्रदृष्टा थे उनके मन में एक स्वर्णीम ारत का चित्र अंकित था। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण गोंडा, चित्रकू ट, नागपुर और बीड़ में देखा जा सकता है।
24 अगस्त, 2005 के पत्र में नानाजी क्या लिखतें हैं? जिस प्रकार ॔समाज शिल्पी दंपत्तियों’ ने स्थानीय ग॔ामवासियों के सहयोग से चित्रकू ट के गांवों का कायाकल्प किया। उस प्रकार आजादी के पश्चात यदि हमारे युवाओं को ग॔ाम केंद्रित विकास पर जोर दिया गया होता तो ारत के 6.50 लाख लोगों का जीवन स्तर कुछ और ही होता। देश के नौजवान बेरोजगारी, अपराधीकरण अन्य कुत्सित प्रवृतियों से ग॔सित नहीं होते। नानाजी की एक पीड़ा यह ी है कि जातीय, क्षेत्रीय तथा मजहबी ावनाओं को ड़काकर राजनीतिक दलों ने ारतीय समाज को खंडोंखंडों में विजित कर दिया है। यदि इस समाज को सुधारना है तो उसमें सर्वप्रथम युवा पी़ी को आगे आना होगा। मूल्यविहीन शिक्षा पर प्रहार करते हुए नानाजी का कहना है कि वर्तमान शिक्षापद्धति के माध्यम से ॔॔संपूर्ण क॔ांति’’, ॔॔सप्त क॔ांति’’ तथा ॔॔रामराज्य’’ के स्वप्न को साकार नहीं किया जा सकता है।
हर राष्ट्र की अपनी पहचान होती है। जिसे उस राष्ट्र की अस्मिता के रूप में हम व्या॔यायित करते हैं। लगग हजारों वषोर्ं के गुलामी के पश्चात ी हमारी सभ्यतासंस्कृति नष्ट क्यों नहीं हुई? वो कहीं न कहीं बची रही। जिसके बल पर ारत आज ी खड़ा है। ारतीय राष्ट्रीयता संकीर्ण और स्वार्थी न होकर मानवीय गुणों से ओतप्रोत है। हम धन के स्थान पर धर्म की महत्ता का प्रतिपादन करते आ रहे हैं।
समाजिक जीवन में प्रत्येक क्षेत्रों में व्याप्त ॔ष्टाचार, घूसखोरी तथा ाईतीजावाद से दुःखी होकर नानाजी का कहना है कि जबजब तरूणाई ने करवट बदली है। तबतब समाज में परिवर्तन हुआ है। राज्य सत्ता के माध्यम से समाजिक परिवर्तन के लक्ष्य को साकार नहीं किया जा सकता है।
युवाशक्ति के हाथों में परिवर्तन रूपी मशाल के द्वारा ारतीय समाज को प्रकाशित किया जा सकता है। अतः ऐ युवाओं! उठो और युगानुकूल नवरचना के कार्यक॔म में शामिल हो जाओ
आज एक पत्थर मारकर आवागमन में विघ्न डालने जा रहा हूं। बिना पत्थर मारे कोई मेरी बात सुनेगा ही नहीं। कोई ध्यान देगा ही नहीं। संसार के आठवें आश्चर्य के विषय में लिखने की सोची है।
जानते हो, कि, संसार भर में एक देश ऐसा भी है, जो बैसाखी पर दौड रहा है। सारे के सारे देश के नागरिक, नर नारी जिन्हें विरासत में परमोत्कृष्ट चरण प्राप्त थे, परमात्मा नें इस देशपर बडी कृपा की थी, सभी देशों की अपेक्षा, इस देशको अत्त्युत्तम सशक्त सक्षम पैर मिले थे। ऐसे पैर कि जो और किसी के पास नहीं थे, आज भी किसीके पास नहीं है। केवल भूतकाल में ही नहीं, आज भी यह कथन सत्य ही प्रमाणित होगा। ऐसा हो नेपर भी, सारे के सारे नागरिक बैसाखी पर दौड रहे हैं। जो नहीं दौडते वे दुःखी है,वे भी दौडना चाहते हैं। क्यों? बडा अचरज हैं। इसे संसारका ८ वाँ आश्चर्य कहना चाहिए।
ऐसी स्थिति किसी और देशकी भी है क्या? जी नहीं। जापान अपने पैरोंपर खडा हो कर दौड रहा है।अभी अभी, हमारे साथ साथ ही प्रारंभ करता हुआ, इज्राएल अपने पैरों पर खडा हो गया, और अब दौड भी रहा है, बहुत आगे भी निकल गया है। जर्मनी, फ्रांस, चीन, रूस सारे अपने पैरोंपर दौड रहे हैं।
पर इस देशका प्रधान मंत्री भी बैसाखीपर ही दौडता है, उसका हर मंत्री बैसाखी पर दौडने में गौरव अनुभव करता है, हर पढा लिखा (?)विद्वान भी बैसाखीपर दौडे बिना अपने आप को सुशिक्षित नहीं मानता। नेता क्या अभिनेता क्या? और जब बैसाखीपर कठिनाई अनुभव करता है, जब आगे जा नहीं पाता, दौड नहीं पाता, तो बीच बीच में बैसाखी से उतरकर चल भी लेता है। अपना काम निकल जाने पर फिरसे बैसाखी पर चढ कर शेखी बघारता हुआ द ौडने लगता है। कभी आपने हमारे ही पैसों पर धनी हुए अभिनेता ओं के साक्षात्कार देखें हैं? प्रश्न हिंदी में पूछा जाता है। पर बहुतों का उत्तर बैसाखीपर आता है। अबे मूरख! तू सारे चल चित्र में हिंदी में बोल सकता है, तो कौनसे रोग के कारण अब बैसाखीपर चढ गया?
आपने अनुमान कर ही लिया होगा, यह बैसाखी अंग्रेज़ी की बैसाखी है।
बालकों का सारा बचपन खेल कूद में, बीतने के बदले, बैसाखीपर चढना सीखने में, फिर संतुलन सीखने में, फिर धीरे धीरे लडखडा कर चलना ,और फिर ठीक चलना,फिर दौडना सीखने में बीत जाता है। बिना खेल कूद के बचपन का परिणाम युवाओं के कुंठित मानस और व्यवहार में देखा जाता है। अब कहते हैं कि विश्वकी उन्नति की दौडका ऑलिम्पिक भी इसी बैसाखीपर दौड कर जीत कर दिखाओ।
इसी बैसाखी का, हमें बहुत लाभ(खाक) हुआ?
(एक) तो, हमारा समाज हीन ग्रंथिसे पीडित हो गया,
( दो) पश्चिमसे मति भ्रमित हुआ, या धौत बुद्धि हो गया , हतप्रभ हो गया, आत्म विस्मृत हो गया।
(तीन) और हम पीछड गये।
(चार)आज यदि हमारा साधारण {७० % से भी अधिक} बहुसंख्य नागरिक प्रति दिन २५ रूपयों से कम वेतन पर जीवित है, तो कारण है, यह बैसाखी।
(पांच) बैसाखी पर चढे हुए छद्म अफसर साधारण नागरिक को हीनता का अनुभव कराते हैं, तो कारण है यह बैसाखी। सारे देशकी असंतुलित उन्नति आयी तो सही, पर इस साधारण नागरिक के निकट से निकल गयी। उसे पता तक नहीं चला कि, ऐसी कोई उन्नति भी आयी हुयी थी, जिसका कुछ लाभ उसे भी प्राप्त हुआ हो।
(छः) इस देशके कृषक की ऐसी उन्नति हुयी, कि, वह आत्म हत्त्या कर रहा है।{धन्य धन्य }
और मंत्री क्या, अफसर क्या, नेता क्या, अभिनेता क्या, हर कोई बैसाखी पर चढा हुआ, अपने आपको आम जनता से बिलकुल दूर और ऊंचा अनुभव करता है। जैसे स्वतः कोई आकाशसे टपक पडा ना हो? बैसाखीपर चढे चढे बाते करता है।
यह बैसाखी के बीज की घुट्टी अंग्रेज़ी शिक्षा के माध्यमसे पिलायी गयी।
सूज्ञ पाठक भी अब तक, समझ ही गये होंगे, कि यह बैसाखी जिसकी चर्चा चल रही है, वह अंग्रेज़ी की बैसाखी है।
वैसे नेतृत्व का मूल नेत्र हैं। नेता वह है, जिसे नेत्र हैं। जो दूरकी भी, और निकटकी भी देख सकते हैं। और ठीक देखकर देशको दिशा देता हैं। दुर्भाग्य हमारा, हमारे नेतृत्वनें, निकटकी {चुनावकी}तो देखी पर दूरकी नहीं देख पाये।
॥ठोस उदाहरण॥
एक ठोस घटा हुआ ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। चौधरी मुख्तार सिंह एक देशभक्त हिन्दीसेवी एवं शिक्षाविद थे।
1946 में वायसराय कौंसिल के सदस्य चौधरी मुख्तार सिंह ने जापान और जर्मनी की यात्रा के बाद यह अनुभव किया था कि यदि भारत को कम (न्यूनतम) समय में आर्थिक दृष्टि से उन्नत होना है तो जन भाषा में जन वैज्ञानिक बनाने होगे । उन्होने मेरठ के पास एक छोटे से देहात में ”विज्ञान कला भवन” नामक संस्था की स्थापना की। हिन्दी मिड़िल पास छात्रों को उसमें प्रवेश दिया। और हिन्दी के माध्यम से मात्र पांच व र्षों में उन्हें एम एस सी के कोर्स पूरे कराकर ”विज्ञान विशारद” की उपाधि से विभूषित किया। इस प्रकार के प्रयोग से वे देश की सरकार को दिशा देना चाहते थे कि जापान की भांति भारत का हर घर ”लघु उद्योग केन्द्र” हो सकता है।
दुर्भाग्यवश दो स्नातक टोलियों के निकलने के बाद ही चोधरी साहब की मृत्यु हो गई और प्रदेश सरकार ने ”विज्ञान कलाभवन” को इंटर कॉलेज बना दिया। वहां तैयार किए गए ग्रन्थों के प्रति भी कोई मोह सरकार का नहीं था। पर इस प्रयोग ने यह भी सिद्ध तो किया ही (अगर यह सिद्ध करने की जरूरत थी तो) कि जनभाषा ही आर्थिक उन्नति का रहस्य है। जनविज्ञान, विकास की आत्मा है।
जनभाषा ही जनतंत्र की मूल आत्मा को प्रतिबिंबित कर सकती है, यह बात गांधी जी ही नहीं और नेता भी जानते थे। तभी तो राजाजी कहते थे, ’हिन्दी का प्रश्न आजादी के प्रश्न से जुड़ा है’। और तभी तो ”आजाद हिन्द फौज की भाषा हिन्दी” थी। तभी तो युवको को अंग्रेजी स्कूलों से हटा कर उनके अभिभावकों ने हिन्दी एवं राष्ट्रीय विद्यालयों में भेजा था। लाल बहादुर शास्त्री आदि देशरत्न ऐसे ही विद्यालय� �ं की उपज थे। हिन्दी परिवर्तन की भाषा थी, क्रान्ति का उद्बोधन थी उन दिनों। {विकिपीडिया,- एक मुक्त ज्ञानकोष से}
कुछ हिसाब लगाते हैं। चौधरी मुख्तार सिंह जी के ऐतिहासिक उदाहरण के आधार पर कुछ हिसाब लगाते हैं।
आज मिड़िल के, उपरांत ४ या ५ वर्ष तो शालामें ही पढना पडता है। उसके पश्चात ६ वर्ष M Sc करने में लग जाते हैं। तो हिंदी (या जन भाषा) माध्यमसे हर छात्र के ६ वर्ष बच जाते हैं।
(क) तो, करोडों छात्रों के ऐसे ६ वर्ष, बच पाएंगे,
(ख) अब्जों की मुद्रा बचेगी। हां जिन्हें अंग्रेज़ी माध्यमसे पढना हो, वे पढें, और अधिक वर्ष तक पढें, अपने बल पर, अपने पैसे खर्च कर, पढें, भारत का शासन उसे सहायता ना करें।
(ग) वास्तवमें भारत की गरीब जनता ही तो, उसे अनुदान दे रही है। {सरकार किसका धन देती है?}
(घ) हमारा आम नागरिक हीनता का अनुभव क्यों करता है? उसे ऐसा अनुभव कराने वाला खुद बैसाखीपर चढा हुआ छद्म अफसर है।
१) जिस दिनसे भारत हिंदी को एक क्रांतिकारी, प्रतिबद्धतासे पढाएगा; भारतका सूर्य जो ६३ वर्षोंसे उगनेका प्रयास कर रहा है, वह दशकके अंदर चमकेगा,अभूतपूर्व घटनाएं घटेगी। कोटि कोटि छात्रोंको अंग्रेजीकी बैसाखीपर दौडना(?) सीखानेमें, खर्च होती, अब्जोंकी मुद्रा बचेगी। सारा समाज सुशिक्षितता की राह पर आगे बढेगा। कोटि कोटि युवा-वर्षॊकी बचत होगी, बालपन के खेलकूद बिनाहि तरूण बनते युवाओंके ज� �वन स्वस्थ होंगे।
सारे देशको अंग्रेजी बैसाखीपर दौडानेवाले की बुद्धिका क्या कहे? फिर इसी बैसाखीपर, विश्वमें ऑलिम्पीक जीतना चाहते हैं ? श्वेच्छासे कोई भी भाषा का विरोध नहीं, पर कुछ लोगोंकी सुविधाके लिए सारी रेल गाडी मानस सरोवरपर क्यों जाए?
(२) अंतर राष्ट्रीय कूट नीति की पाठय पुस्तकों के अनुसार, साम्राज्यवादी देश, (१) सेना बल से (२)या, धन बल से (३) या, सांस्कृतिक (ब्रैन वाशिंग करकर) आधिपत्य जमाकर परदेशों पर शासन करते हैं।यह तीसरा रास्ता मॅकाले ने अपनाया था।हम बुद्धुओं को समझ ना आया।
ड्पृथ्वी पर बसने वाली मानव जाति को समय-समय पर अपने रौद्र एवं प्रचंड रूप से आगाह कराती रहने वाली प्रकृति ने गत 11 मार्च ो जापान पर एक बार फिर अपना कहर बरपा किया। पहले तो रिएक्टर पैमाने पर 8.9 मैग्नीच्यूड तीव्रता वाले ज़बरदस्त भूकंप ने देश को झकझोर कर रख दिया। मौसम वैज्ञानिक अब 8.9 की तीव्रता को 9 मैग्नीच्यूड की तीव्रता वाला भूकंप दर्ज किए जाने की बात कह रहे हैं। यदि इसे 9 मैग्नीच्यूड की तीव्रता वाला भूकंप मान लिया गया तो यह पृथ्वी पर आए अब तक े सभी भूकंपों में पांचवें नंबर का सबसे बड़ा भूकंप होगा। अभी जापान भूकंप े इस विनाशकारी झटे को झेल ही रहा था कि कुछ ही घंटों े बाद इसी भूकं प े ारण प्रशांत महासागर े नीच्ो स्थित पैसेफिक प्लेट अपनी जगह से खिसक गई जिससे भारी मात्रा में समुद्री पानी ने सुनामी लहरों का रौद्र रूप धारण कर लिया। सर्वविदित है कि जापान प्रशांत महासागर क्षेत्र में ऐसी सतह पर स्थित है जहां ज्वालामुखी फटना तथा भूकंप का आना एक सामान्य सी घटना है। इन्हीं भौगोलिक परिस्थितियों े कारण जापान े लोग मानसिक तथा भौतिक रूप से ऐसी प्राकृतिक विपदाओं ा सामना करने े लिए सामान्तया हर समय तैयार रहते हैं। जापान े लोगों की जागरूकता तथा वहां की सरकार व प्रशासनिक व्यवस्था की इसी चौकसी व सावधानी का ही परिणाम था कि भूकंप तथा प्रलयकारी सुनामी आने के बावजूद आम लोगों े जान व माल की उतनी क्षति नहीं हुई जितनी कि भूकंप व सुनामी े प्रकोप की तीव्रता,भयावहता तथा आक्रामकता थी।
बहरहाल, इसे बावजूद जापान में अब तक लगभग चार हज़ार लोगों े मारे जाने तथा हज़ारों लोगों े लापता होने े समाचार हैं। जहां प्राकृ तिक भूकंप ने जान व माल का भारी नुकसान किया वहीं मानव निर्मित विपदाओं ने भी प्राकृतिक विपदा से हाथ मिलाने का काम किया। नतीजतन चालीस वर्ष पुराना फुकुशिमा डायची परमाणु संयंत्र भूकंप े चलते कांप उठा। इस अप्रत्याशित कंपन ने फुकुशिमा परमाणु रिएक्टर की कूलिंग प्रणाली को अव्यविस्थत कर दिया जिसे कारण टोक्यो से मात्र 240 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस संयंत्र े चार रिएक्टरों में एक े बाद एक कर धमो हुए। इसे बाद परमाणु विकीरण े समाचार ने जापान सहित पूरी दुनिया को दहला कर रख दिया। इस समय जहां इस संयंत्र े 20 किलोमीटर क्षेत्र को विकीरण े संभावित खतरे े परिणामस्वरूप खाली करा लिया गया है वहीं दुनिया े तमाम देश जापान से आयातित होने वाली खाद्य पदार्थों की रेडिएशन े चलते गहन जांच-पड़ताल भी कर रहे हैं। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि परमाणु विकीरण े खतरे को भी प्रकृति द्वारा उत्पन्न भूकं प े खतरे से कम बड़ा खतरा मापा नहीं जा सकता। स्वयं जापान े ही हीरोशिमा व नागासाकी जैसे शहर परमाणु विकीरण े नुकसान झेलने वाले शहरों े रूप में प्रमुख गवाह हैं।
बताया जा रहा है कि इस भयानक भूकंप े परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर जापान में भू विस्थापन भी हुआ है। इस असामान्य कंपन े परिणामस्वरूप जापान की तट रेखा अपने निर्धारित स्थान से 13 फुट पूर्व की ओर खिसक गई है। इस प्रलयकारी भूकंप तथा इसे पश्चात आई सुनामी ने जापान की अर्थव्यवस्था को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। जबकि सारे विश्व की अर्थव्यवस्था भी जापान की त्रासदी से अछूती नहीं रह सकी है। इस त्रासदी े बाद एशियाई शेयर बाज़ार नीचे गिर गए थे। जापान े अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त उद्योग सोनी, टोयटा, निसान तथा होंडा में उत्पादन बंद कर दिया गया है। सुनामी े परिणामस्वरूप उठीं 30 फीट ऊंची प्रलयकारी लहरों ने सेंदई शहर को पूरी तरह तबाह कर दिया। पूरा शहर या तो समुद्री लहरों े साथ बह गया या फिर शेष कूड़े-करकट व कबाड़ े ढेर में परिवर्तित हो गया। प्रकृति े इस शक्तिशाली प्रकोप ने मकान,गगनचुंबी इमारतें,जहाज़,विमान,ट्रेनें,पुल,बाज़ार, फ्लाईओवर आदि सबकुछ अपनी आगोश में समा लिया। कारों तथा अन्य वाहनों की तो सुनामी की रौद्र लहरों में माचिस की डिबिया से अधिक हैसियत ही प्रतीत नहीं हो रही थी।
प्रकृति े इसी विनाशकारी प्रकोप को झेलते हुए आज जीवित बचे लगभग 5 लाख लोग स्कूलों तथा अन्य सुरक्षित इमारतों में शरण लेने पर मजबूर हैं। इन खुशहाल जापानवासियों को वहां भोजन की कमी, बढ़ती हुई ठंड तथा पीने े पानी की ल्लित जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। देश े कई बंदरगाह,तमाम बिजली संयंत्र तथा तेल रिफाईंनरी बंद कर दिए गए हैं। एक तेल रिफाइरंनरी में तो भीषण आग भी लग गई थी। ऐसे दुःखद व संकटकालीन समय में पूरी दुनिया े देश जापान की मदद े लिए आगे आ रहे हैं। इनमें हमेशा की तरह अमेरिका सहायता कार्यों में सबसे आगे-आगे चलकर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका व ज़िम्मेदारी निभा रहा है। आशा की जा रही है कि जापान े लोग अपनी सूझ-बूझ,अपनी बुद्धिमानी तथा आधुनिक तकनीक व विज्ञान का सहारा लेते हुए यथाशीघ्र इस प्रलयकारी त्रासदी से उबर पाने में सफल होंगे तथा वहां की अर्थव्यवस्था एक बार फिर सुधर जाएगी।
परंतु प्रकृति े इस या इस जैसे अन्य भूकंप व सुनामी जैसे प्रलयकारी तेवर को कई बार देखने,झेलने व इसे महसूस करने े बाद भी आिखर हम इन प्राकृतिक घटनाओं से अब तक क्या कोई सबक ले से हैं? क्या भविष्य में हम इन घटनाओं से कोई सबक लेना भी चाहते हैं? आज े वैज्ञानिक युग की हमारी ज़रूरतें क्या हमें इस बात की इजाज़त देती हैं कि हम प्रकृति से छेड़छाड़ करते हुए अपनी सभी ज़रूरतों को यूं ही पूरा करते रहें? परमाणु शक्ति पर आधारित बिजली संयंत्र ही क्या हमारी विद्युत आपूर्ति े एक मात्र सबसे सुलभ एवं सस्ते साधन रह गए हैं? क्या परमाणु संयंत्रों की स्थापना मनुष्यों की जान की कीमत े बदले में किया जाना उचित है? या फिर इतना बड़ा खतरा मोल लेने े बजाए हमारे वैज्ञानिकों को परमाणु े अतिरिक्त किसी ऐसे साधन की भी तलाश कर लेनी चाहिए जो आम लोगों े लिए खतरे का कारण न बन सें। या फिर परमाणु उर्जा की ही तरह किसी ऐसी उर्जा शक्ति का भी विकास किया जाना चाहिए जो परमाणु विकीरण े फैलते ही उस विकीरण को निष्प्रभावी कर दे तथा वातावरण को विकीरण मुक्त कर डाले।
जापान की भौगोलिक स्थिति पर भी पूरे विश्व को चिंता करने की ज़रूरत है। भू वैज्ञानिक इस बात को भली भांति समझ चुे हैं कि जापान पृथ्वी े भीतर मौजूद दो प्लेटों की सतह पर स्थित देश है। बताया जा रहा है कि जापान में प्रत्येक घंटे छोटे-छोटे भूकंप आते ही रहते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे स्थानों से विस्थापित होने े बजाए जापान े लोग उन्हीं जगहों पर आबाद रहने े लिए आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक का सहारा लेते हैं। भूकंप रोधी मकान तथा भूकंप रोधी गगन चुंबी इमारतें बनाने े नए-नए तरीे अपनाए जाते हैं। परंतु प्रकृति का प्रकोप है कि अपनी अथाह व असीम शक्ति े आगे मानव निर्मित किन्हीं सुरक्षा मापदंडों या उपायों को कुछ भी समझने को तैयार नहीं। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि भविष्य में जापान े इन भूकंप प्रभावित इलाक़ों में पुनः ऐसी या इससे अधिक तीव्रता का भूकंप नहीं आएगा या इससे भयानक सुनामी की लहरें नहीं उठेंगी। याद रहे कि 2004 में इंडोनेशिया में आए सुनामी की तीव्रता इससे कहीं अधिक थी। जापान में जहां 30 फीट ऊंची लहरें सुनामी द्वारा पैदा हुई थी वहीं इंडोनेशिया में 80फीट ऊंची लहरों ने कई समुद्री द्वीप पूरी तरह तबाह कर दिए थे। भारत भी उस सुनामी से काफी प्रभावित हुआ था। चीन भी विश्व े सबसे प्रलयकारी भूकंप का सामना कर चुका है।
लिहाज़ा भू वैज्ञानिकों को विश्व े सभी देशों े साथ मिलकर भूकंप व सुनामी जैसी विनाशकारी प्राकृतिक विपदाओं से प्रभावित क्षेत्रों का संपूर्ण अध्ययन करना चाहिए। ऐसे क्षेत्रों े लोगों को उसी क्षेत्र में रहकर जीने व रहने े उपाय सिखाना शायद टिकाऊ,कारगर या विश्वसनीय उपाय हरगिज़ नहीं है। यह तो ऐसी प्राकृतिक विपदाओं का सामना सीना तान कर करने जैसी इंसानी हिमा़त मात्र है। लिहाज़ा स्थाई उपाय े तौर पर ऐसे क्षेत्रों में बसने वाले लोगों को अन्यत्र सुरक्षित स्थानों पर बसाए जाने े उपाय करने चाहिए। हमारे वैज्ञानिकों तथा दुनिया े सभी शासकों को यह बात बखूबी समझनी चाहिए कि पृथ्वी े गर्भ में स्थित पृथ्वी को नियंत्रित रखने वाली प्लेटें तो अपनी जगह से हटने से रहीं। लिहाज़ा क्यों न मनुष्य स्वयं ऐसे खतरनाक क्षेत्रों से स्वयं दूर हट जाए ताकि मानव की जान व माल को कम से कम क्षति पहुंचे। ऐसी प्राकृतिक विपदाएं मानव जाति में परस्पर पे्रम,सहयोग,सौहार्द्र तथा एक-दूसरे े दुःख-दर्द को समझने व महसूस करने का भी मार्ग दर्शाती हैं। आशा की जानी चाहिए कि इस विनाशकारी भूकंप तथा सुनामी े बाद जापान े परमाणु रिएक्टर में उत्पन्न खतरे े बाद जिस प्रकार दुनिया े सभी देशों ने अपनी-अपनी परमाणु नीतियों े संबंध में पुनर्विचार करना शुरु किया है तथा जर्मनी जैसे देश ने परमाणु उर्जा उत्पादन े दो रिएक्टर प्लांट ही इस घटना े बाद बंद कर दिए हैं। उम्मीद की जा सकती है कि यह त्रासदी परमाणु रूपी मानव निर्मित त्रासदी से मनुष्य को मुक्ति दिलाने में भी बुनियाद का पत्थर साबित होगी। तनवीर जाफरी
पृथ्वी पर बसने वाली मानव जाति को समय-समय पर अपने रौद्र एवं प्रचंड रूप से आगाह कराती रहने वाली प्रकृति ने गत 11 मार्च ो जापान पर एक बार फिर अपना कहर बरपा किया। पहले तो रिएक्टर पैमाने पर 8.9 मैग्नीच्यूड तीव्रता वाले ज़बरदस्त भूकंप ने देश को झकझोर कर रख दिया। मौसम वैज्ञानिक अब 8.9 की तीव्रता को 9 मैग्नीच्यूड की तीव्रता वाला भूकंप दर्ज किए जाने की बात कह रहे हैं। यदि इसे 9 मैग्नीच्यूड की तीव्रता वाला भूकंप मान लिया गया तो यह पृथ्वी पर आए अब तक े सभी भूकंपों में पांचवें नंबर का सबसे बड़ा भूकंप होगा। अभी जापान भूकंप े इस विनाशकारी झटे को झेल ही रहा था कि कुछ ही घंटों े बाद इसी भूकं प े ारण प्रशांत महासागर े नीच्ो स्थित पैसेफिक प्लेट अपनी जगह से खिसक गई जिससे भारी मात्रा में समुद्री पानी ने सुनामी लहरों का रौद्र रूप धारण कर लिया। सर्वविदित है कि जापान प्रशांत महासागर क्षेत्र में ऐसी सतह पर स्थित है जहां ज्वालामुखी फटना तथा भूकंप का आना एक सामान्य सी घटना है। इन्हीं भौगोलिक परिस्थितियों े कारण जापान े लोग मानसिक तथा भौतिक रूप से ऐसी प्राकृतिक विपदाओं ा सामना करने े लिए सामान्तया हर समय तैयार रहते हैं। जापान े लोगों की जागरूकता तथा वहां की सरकार व प्रशासनिक व्यवस्था की इसी चौकसी व सावधानी का ही परिणाम था कि भूकंप तथा प्रलयकारी सुनामी आने के बावजूद आम लोगों े जान व माल की उतनी क्षति नहीं हुई जितनी कि भूकंप व सुनामी े प्रकोप की तीव्रता,भयावहता तथा आक्रामकता थी।
बताया जा रहा है कि इस भयानक भूकंप े परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर जापान में भू विस्थापन भी हुआ है। इस असामान्य कंपन े परिणामस्वरूप जापान की तट रेखा अपने निर्धारित स्थान से 13 फुट पूर्व की ओर खिसक गई है। इस प्रलयकारी भूकंप तथा इसे पश्चात आई सुनामी ने जापान की अर्थव्यवस्था को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। जबकि सारे विश्व की अर्थव्यवस्था भी जापान की त्रासदी से अछूती नहीं रह सकी है। इस त्रासदी े बाद एशियाई शेयर बाज़ार नीचे गिर गए थे। जापान े अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त उद्योग सोनी, टोयटा, निसान तथा होंडा में उत्पादन बंद कर दिया गया है। सुनामी े परिणामस्वरूप उठीं 30 फीट ऊंची प्रलयकारी लहरों ने सेंदई शहर को पूरी तरह तबाह कर दिया। पूरा शहर या तो समुद्री लहरों े साथ बह गया या फिर शेष कूड़े-करकट व कबाड़ े ढेर में परिवर्तित हो गया। प्रकृति े इस शक्तिशाली प्रकोप ने मकान,गगनचुंबी इमारतें,जहाज़,विमान,ट्रेनें,पुल,बाज़ार, फ्लाईओवर आदि सबकुछ अपनी आगोश में समा लिया। कारों तथा अन्य वाहनों की तो सुनामी की रौद्र लहरों में माचिस की डिबिया से अधिक हैसियत ही प्रतीत नहीं हो रही थी।
परंतु प्रकृति े इस या इस जैसे अन्य भूकंप व सुनामी जैसे प्रलयकारी तेवर को कई बार देखने,झेलने व इसे महसूस करने े बाद भी आिखर हम इन प्राकृतिक घटनाओं से अब तक क्या कोई सबक ले से हैं? क्या भविष्य में हम इन घटनाओं से कोई सबक लेना भी चाहते हैं? आज े वैज्ञानिक युग की हमारी ज़रूरतें क्या हमें इस बात की इजाज़त देती हैं कि हम प्रकृति से छेड़छाड़ करते हुए अपनी सभी ज़रूरतों को यूं ही पूरा करते रहें? परमाणु शक्ति पर आधारित बिजली संयंत्र ही क्या हमारी विद्युत आपूर्ति े एक मात्र सबसे सुलभ एवं सस्ते साधन रह गए हैं? क्या परमाणु संयंत्रों की स्थापना मनुष्यों की जान की कीमत े बदले में किया जाना उचित है? या फिर इतना बड़ा खतरा मोल लेने े बजाए हमारे वैज्ञानिकों को परमाणु े अतिरिक्त किसी ऐसे साधन की भी तलाश कर लेनी चाहिए जो आम लोगों े लिए खतरे का कारण न बन सें। या फिर परमाणु उर्जा की ही तरह किसी ऐसी उर्जा शक्ति का भी विकास किया जाना चाहिए जो परमाणु विकीरण े फैलते ही उस विकीरण को निष्प्रभावी कर दे तथा वातावरण को विकीरण मुक्त कर डाले।
लिहाज़ा भू वैज्ञानिकों को विश्व े सभी देशों े साथ मिलकर भूकंप व सुनामी जैसी विनाशकारी प्राकृतिक विपदाओं से प्रभावित क्षेत्रों का संपूर्ण अध्ययन करना चाहिए। ऐसे क्षेत्रों े लोगों को उसी क्षेत्र में रहकर जीने व रहने े उपाय सिखाना शायद टिकाऊ,कारगर या विश्वसनीय उपाय हरगिज़ नहीं है। यह तो ऐसी प्राकृतिक विपदाओं का सामना सीना तान कर करने जैसी इंसानी हिमा़त मात्र है। लिहाज़ा स्थाई उपाय े तौर पर ऐसे क्षेत्रों में बसने वाले लोगों को अन्यत्र सुरक्षित स्थानों पर बसाए जाने े उपाय करने चाहिए। हमारे वैज्ञानिकों तथा दुनिया े सभी शासकों को यह बात बखूबी समझनी चाहिए कि पृथ्वी े गर्भ में स्थित पृथ्वी को नियंत्रित रखने वाली प्लेटें तो अपनी जगह से हटने से रहीं। लिहाज़ा क्यों न मनुष्य स्वयं ऐसे खतरनाक क्षेत्रों से स्वयं दूर हट जाए ताकि मानव की जान व माल को कम से कम क्षति पहुंचे। ऐसी प्राकृतिक विपदाएं मानव जाति में परस्पर पे्रम,सहयोग,सौहार्द्र तथा एक-दूसरे े दुःख-दर्द को समझने व महसूस करने का भी मार्ग दर्शाती हैं। आशा की जानी चाहिए कि इस विनाशकारी भूकंप तथा सुनामी े बाद जापान े परमाणु रिएक्टर में उत्पन्न खतरे े बाद जिस प्रकार दुनिया े सभी देशों ने अपनी-अपनी परमाणु नीतियों े संबंध में पुनर्विचार करना शुरु किया है तथा जर्मनी जैसे देश ने परमाणु उर्जा उत्पादन े दो रिएक्टर प्लांट ही इस घटना े बाद बंद कर दिए हैं। उम्मीद की जा सकती है कि यह त्रासदी परमाणु रूपी मानव निर्मित त्रासदी से मनुष्य को मुक्ति दिलाने में भी बुनियाद का पत्थर साबित होगी।
पूरे साल बेसब्री से इंतजार कराने वाला होली का त्योहार सिर्फ रंग-उमंग तक ही सीमित नहीं है बल्कि भारतीय समाज और जनमानस में इसका बहुत गहरा महत्व है। इस त्योहार का महत्व हर तबके के लिए अलग-अलग है। युवाओं के लिए जहां यह रंग-बिरंगी मौज-मस्ती का पर्व है वहीं किसानों के लिए इसका महत्व उनकी फसल से जुड़ा है। सामाजिक लिहाज से यह लोगों को आपसी राग-द्वेष भूलकर एक दूसरे को रंग लगाने और मन को तरंगित करने का त्योहार है। सभी ओर लोग प्यार, मस्ती और एकता की बहुरंगी खुमारी में डूबे नज़र आते हैं।
प्राचीन परंपरा के लिहाज से होली का त्योहार फागुन के महीने में शुक्ल अष्टमी से आरंभ होकर पूर्णिमा तक पूरे आठ दिन होलाष्टक के रूप में मनाया जाता है। रंगों से लेकर कीचड़ और धूल तक में लथेड़ने की होली खेलने की षुरुआत अष्टमी से ही होती है। होलिका दहन की तैयारी भी यहीं से शुरु हो जाती है। इस पर्व को नवसंवत्सर के आगमन और वसंतागमन के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ कहा जाता है। वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ अर्थात नई फसल की पैदावार में से अनाज को अग्नि को समर्पित करके प्रकृति के प्रति कृतज्ञता जताने का साधन माना जाता था। उसी के अनुरूप आज भी होलिका दहन के दौरान उसकी आग लपटों में गेहू की बालियां अथवा चने के होले भूनकर खाए जाते हैं। पुराणों के अनुसार ऐसी भी मान्यता है कि होलिका दहन दरअसल भगवान शंकर द्वारा अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर देने का प्रतीक है और तभी से इसका प्रचलन है।
लेकिन होली जलाने के पीछे सबसे ज्यादा प्रचलित हिरण्यकष्यप और उसके पुत्र प्रह्लाद की कथा है। हिरण्यकष्यप अपने बल के घमंड़ में स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसन,े अपने राज्य में भगवान का नाम तक लेने पर पाबंदी लगा दी थी। लेकिन हिरण्यकष्यप का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से परेषान होकर उसने उसे अनेक बार कठोर से कठोर दंड़ दिये, कई बार उसे मारने की भी कोशिश की परंतु वो प्रह्लाद की ईष्वरीय आस्था को टस से मस न कर सका। प्रह्लाद हर बार हरि कृपा से बच निकलता। अंततः हिरण्यकष्यप ने अपनी बहन होलिका को बुलाया, जिसको वरदान था कि वो अग्नि में भस्म नहीं हो सकती। होलिका, प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठती है लेकिन होलिका जल जाती है और भक्त प्रह्लाद जीवित रह जाता है। ईष्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन को मनाया जाता है। अगर प्रतिकात्मक अर्थ में देखें तो प्रह्लाद का अर्थ होता है आनंद। उत्पीड़न और बुराई का प्रतीक होलिका(जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम और उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद(आनन्द) हमेषा रहता है।
पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर या जहां भी होलिका दहन के लिये लकड़ी इकट्ठी की गयी हों वहां होलिका दहन किया जाता है। षाम के समय में ज्योतिशियों द्वारा निकाले गये मुहूर्त पर होलिका दहन किया जाता है। होलिका दहन समाज की सारी बुराइयों के अंत का प्रतीक है।
पर्व का अगला दिन रंगों में रंगने का दिन है। इस दिन लोग एक दूसरे को गुलाल और रंग लगाते हैं, साथ ही सुबह से ही मित्रों और रिष्तेदारों से मिलने का सिलसिला षुरू हो जाता है। ईर्श्या-द्वेश को भुलाकर सभी प्रेम पूर्वक गले मिलते हैं। भारत विभिन्नताओं का देष है,यहां हर जगह होली के अलग-अलग रंग देखने को मिलते हैं। कहीं रंगबिरंगे कपड़े पहने होली की मस्ती में नाचती गाती टोलियां नज़र आती हैं। तो कहीं बच्चे हंसते खेलते पिचकारियों से रंग छोड़ते।
यंू तो भारत के हर कोने में होली को अपने ही अलग अंदाज़ में मनाया जाता है लेकिन ब्रज की होली, बरसाने की लठमार होली और उत्तराखण्ड की बैठकी होली अपने आप में कुछ ख़ास है। बरसाने की लठमार होली का अपना ही मज़ा है। पुरूश, महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों और कपड़े से बनाये गये कोड़ों से मारती हैं। मथुरा वृन्दावन में तो पन्द्रह दिनों तक होली का त्यौहार हर्शोल्लास के साथ मनाया जाता है। साथ ही कई जगहों पर कीचड़ और गोबर से भी होली खेली जाती है, हांलाकि होली खेलने का यह तरीका बड़ा विचित्र है लेकिन ‘देष मेरा रंगरेज़ ये बाबू’।
होली के अवसर पर तरह-तरह की मिठाइयां और पकवान बनाये जाते हैं, जिसमें खासतौर पर गुझिया बनायी जाती है। उत्तर भारत में बेसन के सेव और दहीबड़े भी हर परिवार में बनाये और खिलाये जाते हैं। लेकिन होली का ज़िक्र हो और ठंडाई की बात ना हो ऐसा षायद ही संभव है। होली में भांग और ठंडाई विषेश पेय हैं। भारत में होली के दिन से ही हिन्दी नववर्श का षुभारम्भ हो जाता है। होली का यह त्यौहार अपनी बुराइयों का दहन कर ज़िन्दगी के रंगों में रंग जाने की सीख देता है।
समलैंगिकता के संबंध में भी वैसी ही वर्जनाएँ तथा अनुमतियां होती हैं, जैसी कि अन्य प्रकार की यौन गतिविधियों में। हिमालय के लैपचा लोगों में यदि कोई पुरूष आंडू सूअर का मांस खा लेता है तो उसे समलैंगिक माना जाता है। लैपचा का कहना है कि उनके यहाँ समलैंगिकता अनजानी है और उसकी चर्चा भी अरूचिकर मानी जाती है। अनेक समाज यह मानते हैं कि उनके यहाँ समलैंगिकता का अस्तित्व नहीं है। इसलिए प्रतिबंधों वाले समाजों में समलैंगकता के विषय में कोई जानकारी उपलग्ध नहीं है। मुक्त समाजो में समलैंगिकता में विविधता होती है। कुछ समाजों में समलैंगिकता विद्यमान तो है, किंतु यह कुछ विशोष अवसरों तथा व्यक्तियों तक सीमित रहती है। उदाहरण के लिए, दक्षिणपिश्चमी संयुक्त राज्रू के पपागों में कुछ आनंदोत्सव की राते’’ होती है, जिनमें समलैंगिक प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति की जा सकती है। पपागो में अनेक ऐसे पुरूष होते थे, जो स्ति्रयों जैसे वस्त्र पहनते थे, उनके जैसे कार्य करते थे ओर विवाहित नहीं भी होते थे तो भी उनके पास अन्य पुरूष आते थे। स्ति्रयों को इस प्रकार की भावनाएँ प्रदिशर्त करने की अनुमति नहीं थी। वे आनंदोत्सवों में सम्मिलित हो सकती थी, किंतु केवल पति से अनुमति प्राप्त करके तथा वे पुरूषों के समान व्यवहार नहीं कर सकती थी।
अन्य समाजों में समलैंगिकता और भी व्यापक रूप से फैली हुई है। उत्तर अफ्रीका के सिवान लोगों में सभी पुरूषों से समलैंगिकता की अपेक्षा की जाती है। वास्तव में, पिताअपने अविवाहित पुत्रों को उनसे आयु में बडें लोगों के पास समलैंगिक व्यवस्था के अनुसार भेजते थे। सिवान रिवाज के अनुसार एक पुरूष का एक ही अन्य पुरूष से संबंध होता था। सरकार के भय के कारण यह कार्य गुप्त बन गया था, किंतु सन 1909 से पहले यह कार्य खुले आम होता था। लगभग सभी पुरूष लड़कपन में समलैंगिक संबंध कर चुके होते थे। बाद में 16 से 20 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह लड़कियों से होता था। सबसे अधिक समलैंगिकता को प्रोत्साहन देने वाले समाजो में से एक न्यू गिनी का ऐटोरो समाज था, जिसमें लोग विपरीत लिंग के व्यक्तियों के बजाए समलैंगिक संबंधों को पसंद करते थे। वर्ष में 260 दिन विपरीत लिंग के लोगों के साथ यौन संबंध वर्जित होते थे; और घर या बगीचे के निकट भी। इसके विपरीत पुरूषों के बीच समलैंगिक संबंध किसी भी समय वर्जित नहीं होते थे और यह विश्वास किया जाता था कि ऐसे संबंधों से फसल भरपूर होती है और लड़के बलवान बनते है।
भारतीय समाज में भी देखा जाए तो समलैंगिकता कोई नई बात नहीं है। प्राचीन काल में राजशासन में राजा कई विवाह करते थे और अपनी पत्नी के साथ ज्यादा से ज्यादा एक या दो बार ही यौन संबंध स्थापित करते थे और इसी प्रकार उनकी कई रखैले होती थी जिनके साथ केवल राजा ही यौन संबंध स्थापित कर सकता था। राजाओं के इस्तेमाल के बाद इन सभी को एक जगह पर रहने दिया जाता था और इनके निवास स्थानों पर किसी पुरूष का प्रवेश वर्जित होता था ऐसी स्थिति में स्वभाविक यौन तृप्ति के लिए यह महिलाएँ समलैंगिक संबंध स्थापित करती थी। भारतीय समाज समलैंगिकता पर पूर्णतः मौन है लेकिन गुप्त रूप से इस प्रकार के संबंध यहाँ भी रहे है।
प्रतिबंधता के कारण
किसी समाज में अन्य समाजों की तुलना में अधिक प्रतिबंध क्यों होते है, इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व हमें यह जानना आवश्यक है कि क्या सभी प्रतिबंध एक साथ लगाए जा सकते है। अभी तक किए गए शोधकार्य से पता चलता है कि जिन समाजों में विपरीतलिंगी यौन संबंधों का कोई पहलू प्रतिबंधित होता है, उनमें अन्य पहलूओं पर भी प्रतिबंध होते हे। इस प्रकार, जिन समाजों में बालको ंद्वारा यौन संबधांी अभिव्यक्तियों को बुरी नजर से देखा जाता है, उनमें विवाहपूर्व तथा विवाहेत्तर यौन संबंधों को भी उचित नहीं माना जाता। इसके अतिरिक्त ऐसे समाजों में शालीन पहनावे और बातचीत में संयम बरतने पर बल दिया जाता है। किंतु जो समाज विपरीतलैंगिक संबंधों को प्रतिबंधित करते है, उनमें समलैंगिक संबंधों का प्रतिबंधित होना आवश्यक नहीं । यह आवश्यक नहीं कि जिन समाजों में विवाहपूर्व यौन संबंध प्रतिबंधित हो, वे समलैंगिक संबंधों को कम या अधिक प्रतिबंधति करें। विवाहेत्तर यौन संबंधों की बात अलग है। जिन समाजों में समलैंगिक संबंध अधिक होते है, वे आमतौर पर पुरूषों के विवाहेत्तर विपरीतलैंगिक संबंधों को उचित नहीं मानते। यदि हम प्रतिबंधों की बात करे तो हमें समलैंगिक तथा विपरीतलैंगिक संबंधों के विषय में अलगअलग विचार करना होगा।
कुछ समाजों में समलैंगिक संबंध अधिक होते है, जबकि अन्य समाज उन्हें सहन नहीं करते। लोगों के समलैंगिक संबंधों में रूचि होने की अनेक मनोवैज्ञानिक व्याख्याएँ है, और इनमें से अनेक व्याख्याओं का संबंध बालकों के मातापिता से आरंभिक संबंधों से जुडा है। अभी तक हुए शोध कार्य से कोई सही तस्वीर उभर कर सामने नहीं आई है। यद्यपि पुरूषों के समलैंगिक संबंधों के कुछ संभावित कारण असंमजस में डालने वाले है।
इनमें से एक खोज यह है कि जिन समाजों में विवाहिता स्ति्रयों द्वारा गर्भपात तथा शिशुहत्या वर्जित है उनमें पुरूषों के समलैंगिक संबंधों को भी सहन नहीं किया जाता। यह और अन्य खोजें इस दृष्टिकोण की पुष्टि करती है कि ऐसे समाजों में समलैंगिक संबंधों को उचित नहीं माना जाता, जो जनसंख्या ब़ाना चाहते है। समलैंगिकता से ऐसा हो सकता है। ऐसे समाज उन सब चीजों के विरूद्ध होंगे जिनसे जनसंख्या की वृद्धि में रूकावट आए। यदि समलैंगिक संबंधों के कारण विपरीतलिंगी संबंधों में की आए तो समलैंगिकता का इस पर प्रभाव पड़ेगा। विपरीतलिंगी संबंध जितने कम होंगे, गर्भाधान की संभावना भी उतनी कम होती जाएगी। इस प्रकार के प्रतिबंध होने का कारण इसलिए भी पता चलता हैं कि जिन क्षेत्रों में दुर्भिक्ष पडता है उनमें समलैंगिक संबंधों को अनुमति मिलने की अधिक संभावना होनी चाहिए। दुर्भिक्ष तथा भोजन की कमी होने पर जनसंख्या का बोझ संसाधनों पर पड़ता है, इसलिए जनसंख्या में ब़ोत्तरी को रोकने से समलैंगिक संबंधों को सहन करने कीही नहीं बल्कि प्रोत्साहन देने की भी संभावना हो सकती है।
सोवियत संघ के इतिहास से कुछ और उपयुक्त जानकारी मिल सकती है। सन 1917 में क्रांति के कष्टप्रद दिनों में गर्भपात तथा समलैंगिकता को रोकने वाले कानून हटा लिए गए थे और शिशुजन्म को हतोत्साहित किया जाने लगा किंतु 193436 के दौरान इस नीति को बिल्कुल उलट दिया गया। गर्भपात तथ समलैंगिकता को फिर से अवैध करार दिया गया और समलैंगिक संबंध रखने वाले लोगों को गिरफ्तार किया जाने लगा। साथ ही अधिक बालको को जन्म देने वाली माताओं को पुरस्कृत किया जाने लगा।
उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि पुरूषों के मध्य समलैंगिक संबंध अधिक खुले हुए होते थे परंतु महिलाओं के बीच इन संबंधों को पूर्णरूपेण गुप्त ही रखा जाता रहा है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि जिन समाजों में महिलाओं की संख्या कम हो जाती है वहाँ यौन तृप्ति के लिए पुरूषों के मध्य इस प्रकार के संबंध स्थापित होते रहे होंगे। समलैंगिकता के संबंध में यह भी स्पष्ट होता है कि जनसंख्या कम करने के लिए इस प्रकार के संबंध अस्तित्व में आए परंतु जनसंख्या कम करने के कई और भी उपाय हो सकते है इसलिए समलैंगिकता के लिए यह कारण उपयुक्त नहीं लगता है।
आदि समाजों में शिकार के लिए पुरूषों को दूरदूर तक की यात्राएँ करनी पडती थी इस प्रकार पुरूषों और निवास पर अकेली रूकी महिलाओं के मध्य इस प्रकार के संबंध सामान्य रूप से बन सकते है। यह भी कहा जा सकता है कि केवल समलैंगिक ही नहीं वरन पशुमैथुन संबंध भी सामान्य रहे होंगे।
पुराने समय में भी राजाओं के पास कई महिलाएँ होती थी जिनके साथ उसके शारीरिक संबंध होते थे, राजा सभी महिलाओं के साथ शायद ही कभी एक या दो से अधिक बार संबंध बनाते होगें परंतु यह नियम था कि राजा जिन महिलाओं से शारीरिक संबंध बनाते वे महिलाएँ किसी अन्य पुरूष के साथ शारीरिक संबंध नहीं बना सकती थी, ऐसी महिलाओं को एक साथ रखा जाता था। यौन असंतुष्टि के कारण यह महिलाएँ आपस में ही समलैंगिक संबंध बनाती रहती। अतृप्त यौन असंतुष्टि भी समलैंगिक संबंधों के बनने का एक मुख्य कारण रहता है।
पुरूषों के मध्य इस प्रकार के संबंध महिलाओं की अपेक्षा अधिक खुले रहे इसका एक कारण यह हो सकता है कि पुरूषसत्तात्मकता में पुरूष अपने पौरूष का परिचय इस प्रकार के संबंधों के माध्यम से भी देते रहे होंगे और महिलाओं के मध्य इस प्रकार के संबंध इसलिए गुप्त रखे गए होंगे क्योंकि यदि महिलाओं के मध्य इस प्रकार के संबंध बनते होंगे तो यह पुरूषों के लिए बडी शर्म की बात रही होगी कि वह अपनी पत्नी को यौन तृप्ति नहीं दे सके।
कुछ समयपूर्व प्रदर्शित फिल्मों में भी समलैंगिकता पर जोर दिया हैं जिनमें से सबसे अधिक चर्चा में रही ॔फायर’ और दूसरी फिल्म रही ॔गर्लफ्रेंड’ दोनों ही फिल्मों में महिला समलैंगिक संबंधों को दर्शाया गया परंतु दोनों फिल्मों में समलैंगिक संबंध बनने के कारण अलगअलग थे; ॔फायर’ में एक पति से असंतुष्ट पत्नी अपनी ननद के साथ समलैंगिक संबंध बनाती है वहीं ॔गर्लफ्रेंड’ में साथ रह रही दो दोस्तों के बीच इस तरह के संबंध बनते है जिनमें से एक लडकी अपने बचपन से ही पुरूषों से कुछ कारणों से नफरत करती है। ये दोनों ही कारण समलैंगिकता के उपयुक्त कारण हो सकते है। भारतीय समाज में दोनों ही फिल्मों का पुरजोर विरोध किया गया है जबकि समलैंगिकता विरोध या संस्कृति हनन का विषय नहीं है।
समलैंगिकता का एक कारण यह भी हो सकता है कि समलैंगिक सदस्य बचपन से ही समलिंगियों के मध्य रहा हो। यह शोध का विषय हो सकता है कि केवल भाइयों या केवल बहिन वाले सदस्यों में किस प्रकार से लैंगिक परिवर्तन आते है या यह भी देखा जा सकता है कि कई विपरीत लिंगियों के बीच किस तरह के लैंगिक परिवर्तन आते है। बचपन में हुआ लैंगिक समाजीकरण आगे कितना गहरा प्रभाव छोडता है, इस बात का निष्कर्ष भविष्य में होने वाले सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से निकलेगा। इन विषयों पर शोध होना शेष है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि समलैंगिकता एक मनोसामाजिक तथ्य है जिसके कारण समाज में ही है।
संदर्भ पुस्तकें
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अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 1945 से प्रारम्भ मानवाधिकार एवं महिला आन्दोलनों ने लिंग भेदभाव एवं असमानता के प्रश्नों को अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय मंचो पर राजनैतिक मुद्दों के रूप मे प्रस्थापित किया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने शांति स्थापना एवं विकास यात्रा में महिलाओं की भूमिका के महत्त्व को भी रेखांकित किया है। संघ ने अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संघठन बनाए, जिसमे महिलाओें को पुरूष के समान उत्थान का अधिकार दिया।इस प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणा से पूर्व 1946 में महिला प्रस्थिति के अध्ययन के लिए गठित समिति की घोषणा महत्तवपूर्ण रही जिसको ॔॔कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वूमेन ॔॔ का नाम दिया गया।
1967 में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा द्वारा महिलाओं के प्रति भेदभाव समाप्त करने सम्बन्धी प्रस्ताव पारित किया गया। इस के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया है कि महिलाओं को चाहे वे विवाहित हो या अविवाहित, पुरूषों के साथ आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र में सभी समान अधिकार प्रदत्त किये जाने के लिए समुचित व्यवस्था की जाएगी और किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा। महिलाओं के उत्थान के संदर्भ में सम्पूर्ण विश्व में महिला उत्थान व विकास के प्रति चेतना जगानें के लिए संयुक्त राष्ट्र की महासभा में 1975 को ॔॔ अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष॔॔ घोषित करने का निर्णय लिया। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिला सहयोग की अपेक्षा करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला योगदान व महिला सकारात्मक व रचनात्मक भूमिका के महत्तव को स्वीकार करते हुए महिला जगत के उत्थान के कार्यक्रम बनाये।
1975 में प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ ने महिला कल्याण हेतु 1975 से 1984 दशक को महिला दशक घोषित किया जिसमें महिला शिक्षा, रोजगार, लिंग भेदभाव मिटाने, नीति निर्धारण में महिलाओं को सम्मिलित करने एवं समान राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, नागरिक अधिकार देने आदि की घोषणाऍ की गई। 1978 में महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभाव समाप्त करने के लिए समिति के गठन का प्रस्ताव किया गया एवं हिंसा को समाप्त करने के आशय से नवीन घोषणा जारी की गई।
दिसम्बर 1993 को संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा के भीतर महिलाओं के प्रति हिंसा निष्कासन की घोषणा को स्वीकार किया गया एवं महिलाओं के प्रति हिंसा को सात भागों में बाँटा गया:
1.समुदाय तथा परिवार के भीतर शारीरिक जैविक तथा मनोवैज्ञानिक हिंसा जिसमें पत्नी को पीटना, लडकी का अनैतिक शोषण, दहेज सम्बन्धी हिंसा, वैवाहिक बलात्कार, महिला जनन अंगो की काँटछाँट तथा अन्य महिलाओं के प्रति घातक पारम्परिक क्रियाऍं।
2.अवैवाहिक हिंसा।
3.असन्तोष आधारित हिंसा।
4.शैक्षणिक संस्थाओं एवं अन्य स्थानों में कार्यस्थल पर धमकी तथा यौनिक उत्पीडन।
5.महिला को बेचना तथा व्यापारीकृत करना।
6.वैश्यावृत्ति हेतु दबाव डालना।
7.राज्य द्वारा क्षमादान तथा अपराधी हिंसा।
वर्तमान परिदृश्यः
महिलाओं के प्रति शोषण, अत्याचार तथा उत्पीडन वर्तमान परिपे्रक्ष्य में एक सार्वभौमिक तथ्य हैे
आज सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र को लगभग 60 वर्ष पूरे होने को हैं, फिर भी मानवाधिकारों का उल्लंघन समाज में प्रतिदिन दिखाई देता है, विशोष तौर पर महिलाओं के प्रति। महिलाओं को सदा से ही सामाजिक, धार्मिक, विधिक, शैक्षणिक, आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में उपेक्षा सहनी पडी एवं उन्हें समाज में सदैव दोयम दर्जा ही प्राप्त हुआ । शारीरिक रूप से कमजोर और आर्थिक रूप से पुरूषों पर निर्भर होने के कारण सदियों से महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार, शोषण और यौन उत्पीडन होता रहा है ओर यही कारण है कि उन्हें अपने मानवाधिकारों के लिए अधिक संघर्ष करना पडता है।
संवैधानिक प्रावधानों और कानूनो के बावजूद महिलाओं के उत्पीडन की घटनाओं की संख्या दिन प्रतिदिन ब रही है। वह अपने आप को पहले से भी कही ज्यादा असुरक्षित महसूस करती है। महिलाओं में शिक्षा प्राप्ति के अधिकार भी पुरूषों की अपेक्षा न्यून हैं। हालांकि शहरों में तो स्थिति सुधर रही है परन्तु गाँवो में अभी भी महिला शिक्षा मे भेदभाव किया जाता है। महिलाओं के प्रति शिष्टता का हनन आधुनिक समाज में खुलओम हो रहा है, फिल्मों और विज्ञापनों मे महिलाओं की देह को उपभोग की सामग्री की तरह बेचा जा रहा है।
आज वर्तमान में घर के बाहर एवं अन्दर महिलाओं को शोषण तथा दमन का सामना करना पडता है। घर की चारदीवारी के अन्दर दमन अधिकतर गुप्त होता है तथा परिवार के अंदर महिलाओं की समस्याऍं ब जाती हैं। महिलाओं एवं पुरूषों के बीच असमान शक्ति सम्बन्धों की अभिव्यक्ति जीवन के अनेक क्षेत्रों में प्रतिबिम्बित होती है और महिलाओं को हिंसा, भ्रूण हत्या, शिशु हत्या, दहेज प्रताडना, मारपीट, यौन शौषण, शारीरिक एवं भावनात्मक दुव्र्यवहार आदि का सामना करना पडता है।
यूनीसेफ के एक अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 50 लाख भ्रूण हत्याऍं होती हैं जिनमे अधिकतर मादा भू्रण हत्या हैं। महिलाओं की आर्थिक गतिविधि कुल आर्थिक गतिविधि का लगभग 50 प्रतिशत है, किन्तु आमदनी में उनका हिस्सा 34 प्रतिशत से अधिक नहीं है। असमानता के आंकडे हर क्षेत्र में देखे जा सकते है। महिलाओं पर बती हिंसा और भी अधिक शोचनीय है। शिक्षा के अवसर निरन्तर बे हैं किन्तु बहुसंख्यक बालिकाओं को लाभ नहीं मिल पाया है। विडम्बना है कि विकास की गति के बावजूद महिलाओं की प्रस्थिति में आशानुकूल सुधार नहीं हुआ है, बल्कि कुछ क्षेत्रों में तो स्थिति बदतर हुई है। महिलाऍं जो विश्व की आबादी का आधा हिस्सा हैं और जिनका समाज निर्माण में योगदान पुरूषों से किसी भी प्रकार कम नहीं है, पुरूष प्रधान समाज में कभी भी अपना न्यायोचित स्थान प्राप्त नहीं कर पाई।
बीसवीं शताब्दी मानवाधिकारों के क्षेत्र में सोचविचार को नवीन आयाम प्रदान करने के लिए इतिहास में एक विशष्ट स्थान रखती है। यद्यपि यह एक कटु सत्य है कि आज भी विश्व के अनेक देशों के नागरिकों को पूर्ण मानव अधिकार प्राप्त नहीं हो सके हैं। महिला जनसंख्या के अधिकांश भाग के लिए भारत में ही नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व में मानवाधिकार आज भी मिथक है। आजादी के साठ वर्षो की विकास यात्रा में देश में महिलाओं उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिति और सामाजिक मान्यताओं के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन की सुगबुगाहट अवश्य लक्षित हैं लेकिन इस विशाल और अनगिनत विविधताओं वाले देश में इस परिवर्तन का अंश नगण्य ही है। लेकिन यह एकदम सत्य और प्रामाणिक तथ्य है कि देश में महिलाओं पर अत्याचारों की विविधता तथा गंभीरता भी बी है। महिलाओं से सम्बन्धित अपराधों के नयेनये विकृत रूप सामनें आए है जो यह प्रमाणित करता है कि शिक्षा, संविधान, सामाजिक मर्यादा और नारी महत्त्व के सारे प्रगतिशील कार्यो के बावजूद उन पर हो रहे अत्याचारों में वृद्धि होती जा रही है। महिलाओं की स्थिति को सुधारने एवं उसके विकास हेतु उन्हें समाज व संविधान ने कई अधिकार तो दे दिए हैं, ताकि वह अपने हक को पा सके किन्तु क्या इन अधिकारों के बनने से ही उनकी स्थिति सुधर जायेगी, क्योंकि जो अधिकार उन्हें मिलने चाहिए थे, आज भी वे उन अधिकारों से वंचित है। उनके जीवन में तभी प्रसन्नता आयेगी जब उन्हें समाज मे समानता का अधिकार प्राप्त होगा, इससे एक कुशल समाज का निर्माण होगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित ॔॔ दी ह्यूमन डवलपमेन्ट रिपोर्ट॔॔ में भारतीय महिलाओं की स्थिति के बारे में आशावादी भविष्यवाणियाँ की गई हैं और इस स्थिति में सुधार बताया है, इसके अलावा ॔॔ दी यू.एन. फण्ड फॉर डवलपमेन्ट रिपोर्ट॔॔ के अनुसार भारतीय महिलाओं की स्थिति में शिक्षा, नियोजन, प्रति महिला आय दर के क्षेत्र में कुछ सुधार हुआ है। इसके अलावा मानवाधिकार के बेहतर संरक्षण के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के गठन के लिए भारत की संसद ने 1993 में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम पारित किया।
वस्तुतः महिला अधिकारों का प्रश्न जितना कानूनी एवं राजनैतिक है उतना ही सामाजिक परिवेश, सांस्कृतिक परम्पराओं तथा आर्थिक संरचनाओं द्वारा निर्धारित एवं प्रभावित हैं।
महिलाओं की अपनी स्वयं की मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन अपेक्षित है यह परिवर्तन शिक्षा एवं आर्थिक स्वायत्तता, चेतना एवं संगठनात्मक प्रयासों द्वारा सम्भव है। अतः विश्व समाज में महिला चेतना व उसके अधिकारों के प्रति जो उत्साह जागा है उसका लाभ सारी विषमताओं व असमानताओं के रहते हुए भी भारतीय महिलाओं को क्रमिक रूप से शनै:शनै: मिल सकता है। महिलाओं को जो अधिकार मिले, साधिकार मिले इसी में उसकी व समाज की प्रसन्नता हैं।
मनमोहन के बारे में बातें करना बेहद जोखिमभरा काम है। खासकर उसके काव्य व्यक्तित्व पर बातें करते समय यही समस्या रहती है कि आखिर उस पर क्या बात करें ? वह 45 साल से कविताएँ लिख रहा है । वह देखने में जितना सीधा,सरल,सौम्य है, विचारों के क्षेत्र में उतना ही दुर्धर्ष है। विचारों की दुनिया में उसे पछाड़ना असंभव है। एकदम मौलिक पैराडाइम पर रखकर सोचने की कल्पनाशील बुद्धि उसे
विरासत में अपने पिता की संगीतचेतना से मिली है। मनमोहन का परिवार मथुरा के उन चंद चतुर्वेदी परिवारों में से एक है जो पूरी तरह मॉडर्न परिवार कहलाते थे।सामंती मान्यताओं और आजीविका के सामंती तरीकों से एकदम मुक्त चतुर्वेदी परिवार की कल्पना करना उस जमाने में असंभव थी।
मनमोहन के पिता संगीत के विद्वान शिक्षक थे और बेहद सुलझे हुए,ईमानदार, जनप्रिय सांस्कृतिक अभिरूचियों के पुंज थे। उनके स्वभाव में चतुर्वेदी समाज की सामंती-अर्द्ध सामंती मान्यताएं,मूल्य और संस्कार एकदम नहीं थे। यही वह बुनियादी पारिवारिक परिवेश था जिसमें मनमोहन का मनोजगत और सामाजिक जगत तैयार हुआ। सभ्यता, संस्कृति, शालीनता आदि में मनमोहन के पिता को आदर्श के रूप में
समूचा शहर जानता था और यही वह चीज है जिसने मनमोहन के समूचे व्यक्तित्व को बनाया है।
परिवार की संगीत परंपरा के प्रभाव के कारण मनमोहन की संवेदनाएं और इन्द्रियबोध पक्षियों जैसा है। मैंने करीब से उसके सरल और पढ़ाकू स्वभाव को देखा है। बचपन में मेरा पढ़ने में कम मन लगता था उसका खूब,वो शहर के सबसे अच्छे कॉलेज में पढ़ता था मैं संस्कृत पाठशाला में। मैं पक्का ईश्वरभक्त था और वो पक्का नास्तिक। वो नास्तिक कब और कैसे बना यह मैं नहीं जानता लेकिन उसके घर में मंदिर
था और मंदिर की कभी -कभार उसे सेवा भी करनी पड़ती थी,इस काम को वो बखूबी अंजाम देता था।
मेरा उसके साथ बचपन से संबंध है। मैं पौराणिक कथाओं में डूबा रहता वो मार्क्सवादी सिद्धान्तों से जुड़े वैज्ञानिक चिंतन की समस्याओं में उलझा रहता। मैं उसकी किसी भी बात से सहमत नहीं होता था।उसके साथ विवाद करता था। मेरे और उसके बीच में खेल के लिए कभी दोस्ती नहीं हो पायी, वह कम खेलता था,मेरे कहने के बाद उसने शतरंज खेलना आरंभ किया और कभी-कभार मेरे कहने पर दशहरे पर पतंग उड़ाने
छत पर भी चला जाता था। मेरी क्रिकेट,पतंग,शतरंज आदि खेलों में रूचि थी,उसकी दोस्ती करने, कविता सुनाने,दोस्तों के साथ ज्ञान बांटने,पार्क में घूमने और विभिन्न विषयों पर विमर्श और बहस करने में रूचि थी।
मुझे यहां याद है वह कक्षा 10 में पढ़ता था तब से उसकी कविताएं हिन्दी की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में छपती रही हैं। मथुरा में मनमोहन के चंद पाठक थे उनमें एक मैं भी था।सव्यसाची उसके बड़े प्रशंसक थे।वे उन दिनों मथुरा में कम्युनिस्ट पार्टी के जिलामंत्री थे।एक साहित्यिक पत्रिका ‘उत्तरार्द्ध ‘ निकालते थे।उनके यहां हिन्दी की समस्त साहित्यिक पत्रिकाएं आती थीं । हम सभी
उनसे वे पत्रिकाएं लेकर पढ़ते थे।
मनमोहन की काव्य बुनावट की धुरी है मथुरा के वातावरण का बांकपन और व्यंग्य। उसकी कविता की खूबी है नियोजित विचार औऱ व्यंग्यपूर्ण काव्यभाषा । वह कविता लिखने के पहले कोई योजना नहीं बनाता। वह योजना बनाकर न तो सोचता है और न लिखता ही है। विषय, कल्पना और विचार में वह मुक्तभाव से विचरण करता है। ब्रज के वैष्णवसंतों की उदारता और पैनापन उसकी काव्यभाषा में घुला-मिला है। इस परंपरा
के असर के कारण उसमें एकदम अहंकार नहीं है। वह स्वभाव और आदतों से वैष्णव है और विचारों से मार्क्सवादी है।
कविता में बाँकपन और सीधे कहने की कला उसे मथुरा के परिवेश से विरासत में मिली हैं। मथुरा में उस समय आमतौर पर मध्यवर्ग के लोगों में ब्रजभाषा का प्रयोग होता था लेकिन मनमोहन ने अपने को सचेत रूप से ब्रजभाषा के दायरे से बाहर निकालकर खड़ी बोली हिन्दी के आधुनिक वातावरण में ढ़ाला। उस समय मथुरा में ब्रजभाषा में कविता लिखने वाले कवियों की अच्छा- खासी संख्या थी। मनमोहन के
दोस्तों में मेरी याद में महेन्द्र ‘नेह’ अकेले कवि थे जो खड़ी बोली में क्रांतिकारी कविता लिखा करते थे।
वह पहले भी युवाओं में नायक था और आज भी युवाओं में नायक है,युवा उसके दीवाने हैं। उसके विचारों में डूबते उतराते रहते हैं । उन्हें वह किसी न किसी वैचारिक-सामाजिक युक्ति के आधार पर बाँधने में सफल भी हो जाता है। मैंने अनेक कवि देखे हैं जिनका प्रगतिशील परंपरा में बड़ा योगदान है लेकिन उनमें से अधिकांश कम्युनिस्ट पार्टी और उसके संगठनों में जनता और युवाओं को संगठित करके लाने
के काम में कमजोर रहे हैं। मनमोहन इस मामले में बेजोड़ है। वह जितना शानदार कवि है उतना ही शानदार संगठनकर्ता भी है। मनमोहन का मोटो है संगठन के बिना आंदोलन नहीं, आंदोलन के बिना कविता नहीं,कविता के बिना जीवन नहीं।
भारत में किसी कवि ने इतने बड़े पैमाने पर कम्युनिस्ट कार्यकर्ता तैयार नहीं किए जितने उसने किए हैं। उसके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सैंकड़ों युवाओं ने कम्युनिस्ट पार्टी का रूख किया है। इस तरह की मिसाल पुराने जमाने में इप्टा के दौर में मिलती हैं। लेकिन आजाद भारत में ऐसी मिसाल नहीं मिलती कि कवि स्वयं लिखे,जनता को संगठित करे,कम्युनिस्ट कैडर तैयार करे।
जमीनी हकीकत को जानने और समझने की क्षमता वाले सैंकड़ों कम्युनिस्ट कार्यकर्ता पैदा करने में मनमोहन का अतुलनीय योगदान रहा है। मनमोहन के लिए मार्क्सवाद और क्रांति महज विचार नहीं हैं जिनके सहारे जी लिया जाए और कविता लिख दी जाए। मार्क्सवाद और क्रांति के कामों के लिए संरचनाओं के निर्माण के काम को जिस प्राथमिकता के साथ मनमोहन ने किया है उसके कारण वह बड़े-बड़े प्रगतिशीलों
की नजर में छोटी उम्र में ही आदर का पात्र बन गया। उसकी यही चीज उसे हिन्दी की प्रगतिशील कवि परंपरा से भिन्न धरातल पर खड़ा कर देती है।
मथुरा में मनमोहन ने जब कविता लिखना आरंभ किया था तो उस जमाने के ब्रज के ज्यादातर कवि सामयिक विषयों पर कविता नहीं लिखते थे। उनकी कविताओं में 17वीं और 18वीं शती के काव्य विषयों की भरमार थी। स्थानीयताबोध हावी था। मनमोहन की कविता का आरंभ ब्रजभाषा के इस स्थानीयतावाद से लड़ते हुआ। उसके नजरिए पर हिन्दी की प्रगतिशील काव्य परंपरा का गहरा असर था जिसने उसे कम उम्र में ही
ब्रजभाषा के स्थानीयतावाद से मुक्त होने में मदद की। उसे आरंभ से ही किसी भी किस्म के रीतिवाद से घृणा थी, वह न तो साहित्यिक रूढ़ियों को मानता था और नहीं सामाजिक रूढ़ियों की मानता था।यह सिलसिला आज भी जारी है।
मनमोहन की कविता का आज जो ठाट दिखाई देता है वह एक दिन में नहीं बना है। इसमें मनमोहन की बड़ी मेहनत लगी है। मनमोहन की खूबी है उसे प्रगतिशील कविताएं बेहद पसंद हैं मुक्तिबोध और नागार्जुन का वो दीवाना है। लेकिन उसे प्रगतिशील कविता में व्याप्त स्टीरियोटाइप और एक खास किस्म के रीतिवाद से नफ़रत भी है।
मसलन् प्रगतिशील कविता में उन दिनों सार्वभौम लेखन हावी था,एक ही किस्म के विषयों पर लिखना,एक ही किस्म के सजे-सजाए विचारों को परोसना,मजदूर-किसान-आंदोलन और क्रांति ये चार विषय थे जिनके इर्दगिर्द हिन्दी की प्रगतिशील कविता के सार्वभौम विषयों का संसार घूमता रहा है। प्रगतिशीलों में सर्जनात्मकता के स्तर पर इस सार्वभौम (यूनीवर्सल) की हिमायत में खूब लिखा भी गया है। मनमोहन की
कविता में आरंभ से यह प्रगतिशील यूनीवर्सल गायब है। हिन्दी कविता में यूनीवर्सल विषय और भावबोध के बिना कविता लिखी जा सकती है और उसे प्रगतिशील कविता कहते हैं इस बात को सामने लाने में मनमोहन की कविताओं की बड़ी भूमिका है।
वह आरंभ से प्रतिबद्ध कवि है। मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता आज भी बनी हुई है। मार्क्सवाद के जड़ और यांत्रिक प्रयोगों को मनमोहन ने कभी स्वीकार नहीं किया। सार्वजनिक मंचों पर वह मार्क्सवाद के लिए लड़ता है और अंदर पार्टी मंचों पर मार्क्सवाद और मार्क्सवादियों से लड़ता है।
मार्क्सवाद को समाज में पाना और अंदर से उसकी अविवेकवादी मान्यताओं से लड़ना उसके कवि व्यक्तित्व की विशेषता है। इस क्रम में मनमोहन ने पाया कम और खोया ज्यादा है। मनमोहन की प्राप्ति है उसकी सामाजिक साख ,अभिव्यक्ति का पैनापन और सामाजिक परिवर्तन के कामों के प्रति उसका एकनिष्ठ समर्पणभाव ।
मनमोहन की कविता में आधुनिकता के पूंजीवादी रूपों, संस्कारों,आदतों और रोमानियत के प्रति तेज और तीखा व्यंग्य मिलता है। उसने बुनियादी तौर पर आधुनिकतावादी राजनीति,संस्कृति,तकनीक और विधाओं से जुड़े सवालों को निशाना बनाया है। उसकी एक कविता है ‘इच्छा’,लिखा है- “एक ऐसी स्वच्छ सुबह मैं जागूँ/ जब सब कुछ याद रह जाय/और बहुत कुछ भूल जाय,जो फ़ालतू है/”
मनमोहन की कविता में एक चीज में आरंभ से देख रहा हूँ कि उसे ‘छिपाने’ की आदत और ‘भय’ से सख्त नफरत है। ‘छिपाने’ की आदत और ‘भय’ के कारण आम तौर पर खोज का काम नहीं हो पाता। ‘छिपाने’ की आदत और ‘भय’ के प्रतिवाद के कारण उसकी कविताएं भावुकता से पूरी तरह मुक्त हैं।
हिन्दी कविता में भावुकता को वे कवि ज्यादा इस्तेमाल करते हैं जो ‘छिपाने’ की कला में माहिर हैं। मनमोहन की कविता में जो फैंटेसी,भाषा और व्यंग्य है उसकी पहली और आखिर मुठभेड़ इस छिपाने की काव्यकला से है।यह सामंती कला रूप है।इसका जीवन से लेकर साहित्य तक साम्राज्य है।
मनमोहन की कविता को खोलने के लिए ‘छिपाने’ की कला के समूचे ताने-बाने को जानना बेहद जरूरी है। छिपे को उजागर करने के चक्कर में उसे अनेक बार अभिव्यक्ति के संकट का भी सामना करना पड़ता है। फलतः अनेक बार उसकी कविता में प्योर विचारों में सच्चाई व्यक्त होती है। कविता में उसे जब अपनी बेचैनी और आक्रोश को व्यक्त करने के लिए कुछ नहीं मिलता तो विचार के अस्त्र का सफलता के साथ इस्तेमाल
करता है। विचार को भी वह उजागर करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। अनेक कवि हैं जो विचार का छिपाने के लिए इस्तेमाल करते हैं लेकिन मनमोहन के लिए विचार छिपाने के कौशल का हिस्सा नहीं है। वह कविता कुछ इस तरह पेश करता है कि पाठक को लगे कि अरे यह तो मैं जानता था। ऐसी एक बेहद सुंदर कविता है ‘ईश वन्दना’ ,देखें-
“धन्य हो परमपिता !
सबसे ऊँचा अकेला आसन
ललाट पर विधान का लेखा
ओंठ तिरछे
नेत्र निर्विकार अनासक्त
भृकुटि में शाप और वरदान
रात और दिन कन्धों पर
स्वर्ग इधर नरक उधर
वाणी में छिपा है निर्णय
एक हाथ में न्याय की तुला
दूसरे में संस्कृति की चाबुक
दूर -दूर तक फैली है
प्रकृति साक्षात पाप की तरह।”
इस तरह की कविताशैली के जरिए मनमोहन एक ऐसे संसार की ओर ध्यान खींचना चाहता है जिसे हम भूल गए हैं। अपनी कविताओं में मनमोहन उन बातों का व्यापक जिक्र करता है जिन्हें हम भूल गए हैं। आधुनिकता ने स्मृतिक्षय को तेज गति से सम्पन्न किया है इस संदर्भ में देखें तो समझ सकते हैं कि वह भुलादी गयी बातों को कविता के केन्द्र में क्यों लाना चाहता है। यह रेखांकित करता है कि हमारी ईश्वर ,चीजों,विषयों,यथार्थ आदि के बारे में हमारी कितनी सीमित समझ है।
छिपे यथार्थ को सामने लाने के पीछे प्रधान कारण है सत्य की खोज करना। इस सत्य की खोज के चक्कर में मनमोहन दैनंदिन जीवन के छोटे से अंश को पकड़ता है और अनसुलझे जटिल अलगाव की ओर संकेत करता है तो कभी मनोदशाओं के चित्रण में खो जाता है,कभी अवसाद और क्रांति की शरण में चला जाता है।
छिपे हुए की खोज अंततः मनमोहन की कविता में विरल खेल करती है वह जब छिपे सत्य की खोज करता है तो झूठ को नंगा कर बैठता है। आपातकाल के प्रतिवाद में लिखी उसकी कविता ‘आ राजा का बाजा बजा’ कुछ इसी तरह के शिल्प की कविता है। यही कलात्मक कौशल उसकी कविता ‘ग़लती ने राहत की साँस ली’ में दिखाई देता है। लिखा है, “उन्होंने झटपट कहा/हम अपनी ग़लती मानते हैं/ग़लती मनवाने वाले खुश हुए/कि आख़िर
उन्होंने ग़लती मनवा कर ही छोड़ी/उधर ग़लती ने राहत की साँस ली/कि अभी उसे पहचाना नहीं गया/”
मनमोहन ने कविता के प्रचलित आख्यान को डिस्टर्ब किया है। वह कविता के नरेटिव की आकांक्षाओं को डिस्टर्ब करता है। उसकी कविता के नरेटिव के डिस्टर्ब होने का प्रधान कारण है कविता में अवधारणाओं का सृजन। आमतौर पर हिन्दी कवियों के यहाँ कविता में निहित आख्यान सीधे चलता है और यह परंपरा निराला से लेकर नागार्जुन तक सभी के यहां बरकरार है लेकिन मनमोहन इस परंपरा की काव्यशैली के गठन
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सोशल नेटवर्किगं पर आयोजित संवाद में सहभागियों ने फैसला किया है कि वे विश्वविद्यालय के मंच से नए मीडिया के लिए शब्दावली का विकास तो करेंगे ही साथ ही अंग्रेजी शब्दावली में भी सही अर्थ देने वाली शब्दावली का प्रस्ताव करेंगें। संवाद का यह भी फैसला है कि सोशल नेटवर्किंग को सूचनाओं के साथ संवाद, संस्कार और संबंध का माध्यम बनाने का प्रयास किया जाएगा। साथ ही इस माध्यम को अनुभवी लोगों के द्वारा एक अनौपचारिक कक्षा के रूप में भी स्थापित किया जाना चाहिए। कुछ प्रतिभागियों का कहना था कि विश्वविद्यालय को मीडिया के आनलाइन पाठ्यक्रमों की भी शुरूआत करनी चाहिए।
विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित इस एक दिवसीय सेमीनार में देश के अनेक हिस्सों से आए लोगों ने दिन भर इस ज्वलंत विषय पर चर्चा करते हुए सोशल नेटवर्किंग के प्रभावों का जिक्र किया। कार्यक्रम का उदधाटन करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि आज टेक्नालाजी के माध्यम से जितने परिवर्तन पिछले एक दशक में हुए उतने शायद ही मानव जीवन में हुए हों। एक दशक के परिवर्तन पूरे मानव जीवन पर भारी है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि इंटरनेट की टेक्नालाजी ने मनुष्य के जीवन में बल्कि सृष्टि के अंतरसंबध में परिवर्तन कर दिया है जिसके नकारात्मक प्रभाव सामने आ रहे हैं। उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए आगे कहा कि इस नई टेक्नालाजी का प्रयोग मानवता के हित में होना चाहिए। भविष्य में इसका उपयोग क्या होगा, इसकी दशा व दिशा को तय करना होगा। आज दुनिया के एक छोटे से वर्ग ने प्रकृति द्वारा दिए गए संवाद पर एकाधिकार को कर लिया है जो उसकी व्यापकता को संकुचित कर लिया है।
सामाजिक कार्यकर्ता मनमोहन वैद्य ने कहा कि मनुष्य अपनों से दूर होता जा रहा है और उसे जोड़ने की जरूरत है। सोशल नेटवर्किंग का रचनात्मक इस्तेमाल किया जाए तो इसके लाभ पाए जा सकते हैं। प्रो. देवेश किशोर (दिल्ली) ने अपने संवाद व्यक्त करते हुए कहा कि आज हमें टेक्नालाजी का इतना अभ्यस्त नहीं हो जाना चाहिए कि समाज में संकुचित होकर जीवन यापन करें। जयपुर से आए संजय कुमार ने कहा कि नेटवर्किंग ने जहां लोगों को पास लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वहीं इसने व्यक्ति के सामाजिक पहलू को जबरदस्त तरीके से प्रभावित किया है। वहीं रायपुर से आए डा. शाहिद अली ने कहा कि आज सूचना प्रौद्योगिकी में जो परिवर्तन हो रहे है उसमें व्यावासायिक लाभ निहित है। जो नए दौर की जो लहर चल रही है, वह हमारे सामाजिक दायित्वों को पीछे धकेल रही है।
वहीं संवाद में हिस्सा ले रहे पत्रकारिता विभाग के व्याख्याता लाल बहादुर ओझा ने कहा कि वर्तमान समय में लोग सोशल नेटवर्किंग साइट का प्रयोग टाइमपास करते हुए रोजमर्रा की बातें आपस में बॉट रहे है। वहीं उन्होंन सोशल नेटवर्क की सार्थकता पर बल देते हुए कहा कि इस नई टेक्नालाजी ने परम्परागत माध्यम के लिए नई जगह खोजी है जिसका बहुलता से इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वहीं पत्रकार ओम प्रकाश गौड़ ने रोजमर्रा हो रहे इसके नकारात्मक प्रयोग का जिक्र करते हुए कहा कि सोशल नेटवर्किंग को नैतिकता से नहीं जोड़ा गया तो यह विनाशकारी भी हो सकती है। उन्होंने कहा कि आज वर्तमान समय में संवाद भी बाजार से अछूता ना रह सका यह बेहद दुख का विषय है।
इस अवसर पर डा. मानसिंह परमार (इंदौर), प्रशांत पोल (जबलपुर) रेक्टर प्रो. सीपी अग्रवाल, प्रो. आशीष जोशी, सुरेंद्र पाल, रविमोहन शर्मा, डा.मोनिका वर्मा, उर्वशी परमार, नरेंद्र जैन, डा. श्रीकांत सिंह, पुष्पेंद्रपाल सिंह, सुनीता द्विवेदी, डा. पवित्र श्रीवास्तव ने भी अपने विचार रखे। मंच का संचालन कार्यक्रम की संयोजक डा. पी. शशिकला ने किया।
विकीलीक के भारत संबंधी केबलों के अंग्रेजी दैनिक ‘ हिन्दू’ में निरंतर प्रकाशन के बाद से संसद में हंगामा मचा हुआ है। रोज सांसद इस अखबार में छपी बासी केबलों पर उबल रहे हैं,मचल रहे हैं,संसद ठप्प कर रहे हैं,मनमोहन सिंह से इस्तीफा मांग रहे हैं। यह प्रच्छन्न तरीके से आने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का मुँह कैसे काला किया जाए और उसे कैसे नंगा करके जनता में अलग-थलग किया जाए,इस पर भी केबल पत्रकारों की नजर है। खासकर पश्चिम बंगाल,केरल,तमिलनाडु और असम में विधानसभा चुनाव अप्रैल-मई में होने जा रहे हैं।
विकीलीक के भारतीय केबलों को प्रकाशन के लिए दैनिक ‘हिन्दू’ ने हासिल करके सुंदर काम किया है। इससे एक तरफ भारतीय राजनीतिक दलों में व्याप्त विचारधारात्मक पतन की परतें खुलेंगी ,लोकतंत्र का खोखलापन सामने आएगा,लोकतंत्र के प्रति संशय बढ़ेगा,राजनीति से किनाराकशी बढ़ेगी और अराजनीतिकरण बढ़ेगा। दूसरी ओर यह भी पता चलेगा कि अमेरिका हमारे देश में कितनी,क्यों और किन विषयों में दिलचस्पी ले रहा है। भारतीय राजनीति के किन नेताओं को अमेरिकी प्रशासन अपने लिए लाड़ला मानता है और कौन हैं जो लाड़ले नहीं हैं। इससे इन नेताओं की इज्जत में बट्टा नहीं लगेगा। वे कभी राजनीतिक तौर पर असुरक्षा के शिकार भी नहीं होंगे। इससे भी बड़ी बात यह है कि भारत की आंतरिक राजनीति में अमेरिकी दूतावास किस तरह काम कर रहा है और क्यों उसकी भारत के आंतरिक मामलों में दिलचस्पी है,यह सब आसानी से सामने आएगा। वैसे अमेरिका भारत में जितनी दिलचस्पी ले रहा है उससे कहीं ज्यादा दिलचस्पी रूस ले रहा है,चीन ले रहा है,वो प्रत्येक देश ले रहा है जिसके हित भारत में दांव पर लगे हैं। भारत भी उनदेशों में दिलचस्पी लेता है जहाँ उसके हित दाँव पर लगे हैं। जरा विकीलीक वाले कोशिश करें कि रूस के भारत में दिलचस्पी के कौन से क्षेत्र हैं,पाक के कौन से क्षेत्र हैं ?
असल बात यह है कि विकीलीक के केबल सत्य और तथ्य नहीं हैं ये तो अमेरिकी दूतावास में काम करने वाले राजनयिकों की राय हैं,जिन्हें अमेरिकी प्रशासन फीडबैक के रूप में इस्तेमाल करता रहा है। किसी राजनयिक की राय,भारत के घटनाक्रम पर उसके ब्यौरे और विवरण आदि हमारे देश के लिए किस काम के हैं ? क्या इस तरह के राजनयिक केबलों के जरिए सत्य और तथ्य तक पहुँचा जा सकता है ? मुश्किल यह है कि राय को तथ्य मानकर चला जा रहा है और उसके आधार पर संसद को ठप्प कर दिया गया है। मान लें अमेरिकी राजनयिक जो केबल लिख रहे हैं, सच लिख रहे हैं, लेकिन इस सत्य की पुष्टि कैसे करेंगे ? राय है तो उसके ठोस रूप में पुष्ट भी तो होना चाहिए। हमारे कानूनी ढ़ाँचे और राजनीतिक संरचनाओं में इस तरह के केबल को पुष्ट करने का कोई ठोस ढ़ांचा उपलब्ध नहीं है।
‘हिन्दू’ बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित अखबार है। उसके संपादक एन.राम की मीडिया में बड़ी साख है,लेकिन वे एक चीज भूल रहे हैं कि विकीलीक को पुष्ट करने का कोई रास्ता नहीं है। मैं यहाँ बोफोर्स कांड एक्सपोजर की तरफ ध्यान खींचना चाहता हूँ जिसका सबसे ज्यादा खुलासा हिन्दू अखबार, एन.राम, चित्रा सुब्रह्मण्यम और पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने किया था। 25 सालों तक यह मसला चलता रहा। बोफोर्स कांड के एक्सपोजर के बाद वी पी सिंह प्रधानमंत्री भी हुए लेकिन वे राजीव गाँधी के खिलाफ सीबीआई को घूसखोरी का कोई प्रमाण नहीं दे पाए। ऐसा कोई प्रमाण स्वयं हिन्दू अखबार ने भी नहीं सौंपा था। हिन्दू अखबार के पास स्विस प्रशासन के जरिए हासिल दस्तावेज थे जिनके आधार पर उसने बोफोर्स कांड को उछाला था लेकिन 250 करोड़ रूपये और 25 साल खर्च करने के बाद भी उसमें यह तय नहीं हो पाया कि घूस किसने ली। स्विस अदालतों से लेकर भारत की अदालतों तक 25 साल में जब हम सिद्ध नहीं कर पाए तो हमें विदेशी स्रोतों पर इतना भरोसा करने की क्या जरूरत है ?
एक अन्य उदाहरण और लें, क्रिकेट में सट्टेबाजी होती है इसे लेकर 10 साल पहले अमेरिकी प्रशासन ने एक केबल भारत सरकार के पास भेजा था और उस केबल के आधार पर क्रिकेट में सट्टेबाजी पर जमकर हंगामा हुआ और अनेक खिलाडियों का कैरियर बर्बाद हो गया,वह केस अभी भी अदालत में झूल रहा है और 10 साल बाद भी सीबीआई उस केस में चार्जशीट नहीं दे पायी है। केबल स्वयं में प्रमाण नहीं है ,उसे अन्य ठोस आधारों पर पुष्ट किया जाना चाहिए।
इस पूरे प्रसंग में एक और समस्या है कि विपक्षीदल यह मांग कर रहे हैं कि कांग्रेस सिद्ध करे कि वो सन् 2008 में संसद में विश्वास मत हासिल करने के समय नेक-पाक थी। सब लोग जानते हैं कि कांग्रेस और अन्यदलों का नेक-पाक राजनीति से अब बहुत कम लेना-देना रह गया है। क्लीन राजनीति को कांग्रेस ने बहुत पहले विदा कर दिया था। दूसरी बात यह कि केबल प्रमाण नहीं हैं,यदि इन पर जांच भी होती है तो कुछ भी नहीं निकलेगा और यूपीए -1 की जबाबदेही के लिए नई सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। जिस समय का वाकया हिन्दू ने उछाला है उस समय भी सब जानते थे कि पैसा देकर सांसद खरीदे गए हैं, लेकिन प्रमाण नहीं मिले। संसद में नोटों से भरा बक्शा पहुँच गया लेकिन उसे प्रमाण नहीं माना गया। यही वह बिंदु है जहां पर हमें नोट,केबल और दलीय हितों से ऊपर उठकर सोचना होगा।
भारत की राजनीति साफ-सुथरी नहीं है। यहां पंचायत से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक सब कुछ खरीदा और बेचा जाता है इस सत्य को सारे दल जानते हैं। इस सत्य की पुष्टि के लिए किसी विकीलीक केबल की जरूरत नहीं है।
भारत की बुर्जुआ राजनीति में घूस को बुरा नहीं मानते,कानूनी नजरों में बुरा मानते हैं,वह भी बुर्जुआजी के सड़े हुए चरित्र पर परदा डाले रखने के लिए,इससे बुर्जुआ राजनीति में ईमानदारी का नाटक चलता रहता है। बुर्जुआ राजनीति में इस कदर सडांध भरी है कि आप एक मसले पर पकड़ नहीं पाते तब तक दूसरा घोटाला सामने आ जाता है। कानूनी पर्दे की आड़ में बुर्जुआजी आराम से सत्ता की लूट जारी रखता है।
ये केबल एक बात पुष्ट करते हैं कि भारत में राजनीति नपुंसक हो मीडिया कलंकित हो गया है। मीडिया का कलंकित होना और नेताओं का नपुंसक होना ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस समूचे प्रसंग का सबसे दुखद पहलू है कि अमेरिकी केबलों की नजर से हमारा मीडिया और राजनेताओं के द्वारा भारतीय सच को देखा जा रहा है। सवालउठता है कि हम अमेरिकी राजनयिकों की आंखों से भारतीय सच को देखें या भारतीय आंखों से राजनीति की नंगी सचाई को देखें ?
अमेरिकी केबलों के आधार पर जो आज संसद में उछल रहे हैं और उन्हें प्रमाण मान रहे हैं वे सचमुच में अमेरिकी आईने से भारतीय समाज को देख रहे हैं.यह खतरनाक कैदखाना है जहां विकीलीक ने हमारे नेताओं और मीडिया को कैद कर लिया है। हमारा एक ही सवाल है यदि विकीलीक के केबल इतने ही महत्वपूर्ण हैं और सत्यांशों से भरे हैं तो कोई मीडिया घराना इस सत्य के बारे में अभी तक कोई अतिरिक्त तथ्य सामने क्यों नहीं ला पाया ? स्वयं हिन्दू अखबार ने विकीलीक की किसी स्टोरी को आगे ले जाकर विकसित क्यों नहीं किया ? उसमें नए तथ्य क्यों नहीं जोड़े ?
विकीलीक के अमेरिकी केबल पत्रकारिता का कच्चा माल हैं पत्रकारिता नहीं है। इनकी पुनर्प्रस्तुति तो स्टेनोग्राफी है। यह पत्रकारिता नहीं है। उपलब्ध सत्य और तथ्य में इजाफा किए बगैर पुनरावृत्ति मात्र से इसे एक्टिव खबर नहीं बनाया जा सकता।
विकीलीक मृतसूचना संसार का हिस्सा हैं। मृत सूचना संसार कितना ही बड़ा सत्य सामने लाए उससे सामयिक यथार्थ को प्रभावित नहीं किया जा सकता है। विकीलीक वैसे ही जैसे ताजमहल है। ताजमलहल के बारे में हम रोज नई -नई ऐतिहासिक खोज समाने लाएं इससे ताजमहल के बारे में दर्शकीय पर्यटन नजरिया आसानी से नहीं बदलेगा। विकीलीक भी अमेरिकी सूचनाओं का ताजमहल है इसमें घुमन्तूओं,यायावरों और मीडिया की दिलचस्पी हो सकती है,पाठकों की इसमें दर्शकीय दिलचस्पी हो सकता है ,इससे ज्यादा इसका कोई महत्व नहीं है।
विकीलीक केबल की घटनाएं घट चुकी हैं। घटित को पुनः हासिल करना, उनके आधार पर पाठकों या जनता को सक्रिय करना असंभव है। विकीलीक में घटनाएं अमेरिकी राजनयिक नजरिए से निर्मित की गई हैं। उन्हें निर्मिति के रूप में ही देखा जाना चाहिए। यह खोजी पत्रकारिता नहीं है। यह तो विकीलीक केबल की अखबारी व्याख्या है।
पुराने जमाने में किसान जब बैल से खेत की जुताई करता था तो कभी-कभी ऐसी भी स्थितियां आ जाती थीं कि बैल खेत की एक भी क्यारी जोतने या आगे बढ़ने से ही इन्कार कर देता था। ऐसी परिस्थिति में किसान बैल के हर मर्म को समझता था। वह कोई और उपाय न कर बैल की पूंछ मरोड़ता था और बैल आगे बढ़ने लगता था। ठीक वैसी ही स्थिति कांग्रेस-नीत यू.पी.ए. सरकार की हो गई है, जिसको न्यायालय रूपी किसान को सरकार के कर्तव्यों और यहां तक कि उसके अधिकारों की याद दिलाने के लिए लगातार उसकी पूंछ मरोड़नी पड़ रही है।
न्यायालय मौजूदा दौर में किसान की भूमिका में आ गया है। भ्रष्टाचार के इस माहौल में न्यायालय ही देश की प्राणवायु बना हुआ है। यही नहीं न्यायालय ने सरकार को कई मुद्दों पर फटकार भी लगाई है। शीर्ष न्यायालय ने कालेधन के संदर्भ में एक मामले की सुनवाई के दौरान सरकार को यहां तक कहा- “इस देश में हो क्या रहा है?” इसके बाद अब न्यायालय के पास सरकार को कहने के लिए बचता ही क्या है? न्यायालय आखिर अब किन शब्दों में सरकार को फटकार लगाए?
हालांकि किसी देश की चुनी हुई सरकार की तुलना जानवर से करना कतई उचित नहीं है। लेकिन वर्तमान यू.पी.ए. सरकार के रवैये के कारण बैल का उदाहरण ही सटीक मालूम पड़ता है। इस संदर्भ में यदि यह कहें कि मौजूदा दौर में न्यायपालिका ही देश की नैतिक सत्ता का संचालन कर रही है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी और जनता द्वारा जनता के लिए चुनी गई सरकार अपने कर्तव्यों को भूलकर लगातार बगलें झांक रही है।
देश की यह ऐसी पहली सरकार है जिसको शीर्ष न्यायालय ने सबसे अधिक बार फटकार लगाई है और जिसके मुखिया को अपनी गलती स्वीकारते हुए सबसे अधिक बार शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा है। लेकिन केवल गलती स्वीकार लेना ही पर्याप्त है क्या?
इस सरकार ने भ्रष्टाचार के अपने सारे कीर्तिमान स्वयं ही ध्वस्त कर दिए हैं। भष्टाचार के मसले पर बेशर्मी की भी हद है! इस कारण यह सरकार जनता के चित्त से उतर गई है। जनता इस सरकार को धूल चटाने के इंतजार में मौन बैठी है। बस आम चुनाव भर की देर है। यदि चुनाव हुआ तो फिर किसी यू.पी.ए.-2 का यू.पी.ए.-3 के रूप में प्रकट होकर सत्तासीन हो जाना संभव नहीं दिखता है।
यू.पी.ए.-2 के रूप में केंद्र की यह ऐसी पहली सरकार है जो भ्रष्टाचार के कारण एक दिन भी ठीक से चैन की नींद नहीं ले पा रही है। एक घोटाले की पोल खुलती है और उस पर जांच की प्रक्रिया अभी शुरू ही हुई कि तब तक दूसरे घोटाले का धुआं उड़ने लगता है। पाकिस्तान में जैसे हर रोज कहीं न कहीं आतंकी धमाके होते हैं, ठीक उसी तरह भारत में घोटालों का होना आम बात हो गई है।
2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, आदर्श हाउसिंग घोटाला, सीवीसी की नियुक्ति में हेराफेरी, एस-बैंड स्पेक्ट्रम घोटाला, ये तमाम घोटाले इस सरकार की उपलब्धियों में शुमार हैं। इसके अलावा कई घोटाले ऐसे हैं जिनका पोल खुलना अभी शेष है। वैसे, घोटाले की इस रफ्तार को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्ष 2014 में सरकार के कार्यकाल पूरा करने तक सैंकड़ों और घोटालों का वारा-न्यारा कर दिया जाएगा।
अभी सीवीसी पर नियुक्ति का विवादित मसला समाप्त नहीं हुआ कि विकीलीक्स के खुलासे से सरकार की सांसें अटक गई हैं। इस खुलासे में कहा गया है कि 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु करार के मुद्दे पर वामपंथियों के समर्थन वापसी के बाद जब मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली यू.पी.ए.-1 की सरकार अल्पमत में आ गई थी, तो सरकार को बचाए रखने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त हुई थी। हालांकि सरकार ने इस खरीद-फरोख्त की जांच के लिए कुछ सांसदों की एक समिति भी बनाई थी, लेकिन उसकी रिपोर्ट का भी वही हश्र हुआ जो सबका होता है, या होता रहा है। उससे कुछ स्पष्ट बातें निकल कर सामने नहीं आ सकीं।
अर्थात- ‘मिस्टर क्लीन’ मनमोहन सिंह ने जिस यू.पी.ए.-1 की सरकार का नेतृत्व किया था, वह भी मौजूदा यू.पी.ए.-2 की ही तरह भ्रष्ट थी। बार-बार इस बात की चर्चा होती है कि मनमोहन सिंह बहुत शालीन, ईमानदार, विद्वान, गंभीर और स्वच्छ छवि के हैं। वास्तव में यदि डॉ. सिंह के अंदर इतने सारे गुण हैं तो उनकी सरकार अब तक की सबसे भ्रष्टतम सरकार कैसे साबित हो रही है। यदि यह सरकार भ्रष्टतम है तो फिर उनको स्वच्छ छवि का कैसे कहा जा सकता है? उनके अंदर चाहे जितने भी गुण हों; मगर यदि यह सरकार उनके नेतृत्व में नैतिकता के धरातल से लगातार दूर जा रही है तो इसके दोषी प्रत्यक्ष रूप से डॉ. सिंह ही कहे जाएंगे। इसके लिए सोनिया गांधी कैसे जिम्मेदार कही जा सकती हैं, चाहे भले अंदर की बात कुछ और ही क्यों न हो ? आखिर सत्ता का प्रत्यक्ष संचालन तो मनमोहन ही कर रहे हैं, फिर सोनिया कैसे जिम्मेदार हैं? इसका सारा दोष डॉ. सिंह का है, जो सोनिया के प्यादे की तरह कार्य कर रहे हैं।
मनमोहन सिंह इस देश के बड़े अर्थशास्त्री हैं। ज्ञान, प्रतिभा, कॉलेज की डिग्री, और विद्वता की दृष्टि से भी देश में उनके जैसा कोई अर्थशास्त्री नहीं है। लेकिन यह विद्वता किस काम की, जो केवल कहने के लिए है और जिसका व्यावहारिक धरातल पर प्रभाव शून्य से भी नीचे हो। वैसे डॉ. सिंह जब स्वर्गीय नरसिंहा राव के प्रधानमंत्रित्वकाल में वित्त मंत्री थे, उस दौरान भी उनकी प्रतिभा अपना प्रभाव नहीं छोड़ पा रही थी। उनके वित्त मंत्री रहते हुए महंगाई तब तक के सभी सरकारों के सारे रिकॉर्ड्स ध्वस्त कर चुकी थी। इस संदर्भ में यह भी कहा जाता है कि डॉ. सिंह को विश्व बैंक के दबाव में देश का वित्त मंत्री बनाया गया था। हालांकि इन बातों में कितनी सत्यता है, ये गंभीर जांच के विषय हैं।
लेकिन हर मोर्चे पर यदि मनमोहन सिंह विफल साबित हो रहे हैं तो यह किसका दोष है। माना कि वह राजनेता नहीं हैं; इसलिए राजनीति के दांव-पेंच नहीं समझते और अपने सहयोगियों के बहकावे में आकर गलत निर्णय कर बैठते हैं। लेकिन क्या यह भी मान लिया जाए कि वह प्रकाण्ड अर्थशास्त्री नहीं हैं? यह मानना तो संभव ही नहीं है, क्योंकि उनका अर्थशास्त्री होना ही सत्य है, तो फिर महंगाई अपने चरम पर कैसे पहुंच गई? यही नहीं लगातार बढ़ती भी जा रही है; यानी डॉ. सिंह को जिन विषयों की जानकारी है उसमें भी लगातार मात खाते जा रहे हैं। इन बातों से यही कहा जा सकता है कि डॉ. सिंह के पास अर्थशास्त्र के साथ-साथ अन्य किसी भी विषय का व्यावहारिक ज्ञान नहीं है, केवल किताबी ज्ञान ही समेटे हुए हैं। अर्थात- महंगाई के साथ ही उन सभी मुद्दों पर डॉ. सिंह ‘आर्थिक अखाड़े के किताबी पहलवान’ ही साबित हो रहे हैं; और आप इसका अंदाजा सहज ही लगा सकते हैं कि किताबी पहलवान की वास्तविक अखाड़े में कितनी दुर्दशा हो सकती है; और होती है।