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जम्मू के भेदभाव को कब समझेंगे मनमोहन

बालमुकुन्द द्विवेदी

जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में विलय 26 अक्तूबर 1947 को हुआ था, वह आज के वर्तमान भारत द्वारा शासित जम्मू-कश्मीर राज्य से कहीं अधिक था। यहाँ के महाराजा हरिसिंह ने भारत वर्ष में जम्मू-कश्मीर का विलय उसी वैधानिक विलय पत्र के आधार पर किया, जिनके आधार पर शेष सभी रजवाड़ों का भारत में विलय हुआ था। वर्तमान परिस्थति के अनुसार जम्मू-कश्मीर रियासत के निम्न हिस्सें हैं । जिनमें से जम्मू का क्षेत्रफल कुल 36315 वर्ग कि.मी. है जिसमें से आज हमारे पास लगभग 26 हजार वर्ग कि.मी. है। वर्तमान में अधिकांश जनसंख्या मुसलमानों की है, लगभग 4 लाख हिन्दू वर्तमान में कश्मीर घाटी से विस्थापित हैं।

पिछले 63 वर्षों से पूरा क्षेत्र विस्थापन की मार झेल रहा है। आज जम्मू क्षेत्र की लगभग 60 लाख जनसंख्या है जिसमें 42 लाख हिन्दुओं में लगभग 15 लाख विस्थापित समाज है। समान अधिकार एवं समान अवसर का आश्वासन देने वाले भारत के संविधान के लागू होने के 60 वर्ष पश्चात भी ये विस्थापित अपना जुर्म पूछ रहे हैं, उनकी तड़प है कि हमें और कितने दिन गुलामों एवं भिखारियों का जीवन जीना है। पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर से 1947 में लगभग 50 हजार परिवार विस्थापित होकर आये, आज यह संख्या लगभग 12 लाख है, जो पूरे देश में बिखरे हुये हैं। जम्मू क्षेत्र में इनकी संख्या लगभग 8 लाख है।

जम्मू क्षेत्र के 26 हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्र में 2002 की गणनानुसार 30,59,986 मतदाता थे। आज भी 2/3 क्षेत्र पहाड़ी, दुष्कर और सड़क संपर्क से कटा हुआ है, इसके बाद भी यहाँ 37 विधानसभा व 2 लोकसभा क्षेत्र हैं। जबकि उसी समय कश्मीर घाटी में 15953 वर्ग किमी. क्षेत्रफल में 29 लाख मतदाता हैं। यहाँ का अधिकांश भाग मैदानी क्षेत्र एवं पूरी तरह से एक-दूसरे से जुडा है, पर विधानसभा में 47 प्रतिनिधि एवं लोकसभा में तीन क्षेत्र हैं। 2008 में राज्य को प्रति व्यक्ति केन्द्रीय सहायता 9754 रूपये थी और बिहार जैसे पिछड़े राज्य को 876 रूपये प्रति व्यक्ति थी। इसमें से 90 प्रतिशत अनुदान होता है और 10 प्रतिशत वापिस करना होता है, जबकि शेष राज्य को तो 70 प्रतिशत वापिस करना होता है।

जनसंख्या में धांधली – 2001 की जनगणना में कश्मीर घाटी की जनसंख्या 54,76,970 दिखाई गई, जबकि वोटर 29 लाख थे और जम्मू क्षेत्र की जनसंख्या 44,30,191 दिखाई गई जबकि वोटर 30.59 लाख हैं।

उच्च शिक्षा में धांधली – उच्च शिक्षा में भी यहाँ धांधली है, आतंकवाद के कारण कश्मीर घाटी की शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई, पर प्रतियोगी परीक्षाओं में उनका सफलता का प्रतिशत बढ़ता है। मेडिकल की पढ़ाई के लिए एमबीबीएस दाखिलों में जम्मू का 1990 में 60 प्रतिशत हिस्सा था जो 1995 से 2010 के बीच घटकर, हर बार 17-21 प्रतिशत रह गया है। सामान्य श्रेणी में तो यह प्रतिशत 10 से भी कम है।

जम्मू-कश्मीर में आंदोलन-संभावनायें – 2005-2006 में अपनी मुस्लिमवोट की राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय दबाव में मनमोहन सरकार ने पाकिस्तान से गुपचुप वार्ता प्रारंभ की। इसका खुलासा करते हुये पिछले दिनों लंदन में मुशर्रफ ने कहा कि टन्ेक्रा कूटनीति में हम एक समझौते पर पहुँच गये थे। वास्वत में परवेज, कियानी -मुशर्रफ की जोड़ी एवं मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दोनों पक्ष एक निर्णायक समझौते पर पहुँच गये थे। परस्पर सहमति का आधार था, नियंत्रण रेखा (एलओसी) को ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लेना। बंधन एवं नियंत्रण युक्त सीमा, विसैन्यीकरण, सांझा नियंत्रण, अधिकतम स्वायत्ताता (दोनों क्षेत्रों को) इस सहमति को क्रियान्वित करते हुये, कुछ निर्णय दोनो देशों द्वारा लागू किये गये -1. पाकिस्तान ने उत्तरी क्षेत्रों (गिलगित-बाल्टिस्तान) का विलय पाकिस्तान में कर अपना प्रांत घोषित कर दिया। वहां चुनी हुई विधानसभा, पाकिस्तान द्वारा नियुक्त राज्यपाल आदि व्यवस्था लागू हो गई। कुल पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर का यह 65,000 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल है। भारत ने केवल प्रतीकात्मक विरोध किया और इन विषयों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोई कोशिश नहीं की। 2. भारत ने जम्मू-कश्मीर में 30 हजार सैन्य बल एवं 10 हजार अर्धसैनिक बलों की कटौती की घोषणा की। 3. दो क्षेत्रों में परस्पर आवागमन के लिये पाँच मार्ग प्रारंभ किये गये, जिन पर राज्य के नागरिकों के लिए वीजा आदि की व्यवस्था समाप्त कर दी गई। 4. कर मुक्त व्यापार दो स्थानों पर प्रारंभ किया गया। पहली बार 60 वर्षों में जम्मू-कश्मीर के इतिहास में प्रदेश के सभी राजनैतिक दलों और सामाजिक समूहों को साथ लेकर स्थायी समाधान का प्रयास किया गया और विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिये पाँच कार्य समूहों की घोषणा की गई। इन कार्यसमूहों में तीनों क्षेत्रों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व था, हर समूह में सामाजिक नेतृत्व भाजपा, पैंथर्स, जम्मू स्टेट र्मोर्चा और शरणार्थी नेता भी थे। 24 अप्रैल 2007 को दिल्ली में आयोजित तीसरे गोलमेज सम्मेलन में जब 4 कार्यसमूहों ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तो सभी जम्मू, लध्दााख के उपस्थित नेता व शरणार्थी नेता हैरान रह गये कि उनके सुझावों एवं मुद्दों पर कोई अनुशंसा नहीं की गई। उपस्थित कश्मीर के नेताओं ने तुरंत सभी अनुशंसाओं का समर्थन कर लागू करने की माँग की, क्योंकि यह उनकी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुसार था। कार्य समूहों इन रिर्पोटों से यह स्पष्ट हो गया कि अलगाववादी, आतंकवादी समूहों और उनके आकाओं से जो समझौते पहले से हो चुके थे, उन्हीं को वैधानिकता की चादर ओढ़ाने के लिए ये सब नाटक किये गये थे।

बैठक के अंत में गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने पहले से तैयार वक्तव्य हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत किया, जिसमें केन्द्र सरकार से इन समूहों की रिपोर्टों को लागू करने के लिए उपस्थित सभी प्रतिनिधियों द्वारा आग्रह किया गया था। भाजपा, पैंथर्स, बसपा, लद्दाख यूटी फ्रंट, पनुन कश्मीर एवं अनेक सामाजिक नेताओं ने यह दो टूक कहा कि यह सारी घोषणाएं उनको प्रसन्न करने के लिए हैं, जो भारत राष्ट्र को खंडित एवं नष्ट करने में जुटी हुई हैं। यह भारत विरोधी, जम्मू-लद्दाख के देशभक्तों को कमजोर करने वाली, पीओके, पश्चिम पाक शरणार्थी विरोधी एवं कश्मीर के देशभक्त समाज की भावनाओं एवं आकांक्षाओं को चोट पहुँचाने वाली हैं। बाद में सगीर अहमद के नेतृत्व वाले पाँचवे समूह ने अचानक नवम्बर 2009 में अपनी रिपोर्ट दी तो यह और पक्का हो गया कि केन्द्र राज्य के संबंध की पुर्नरचना का निर्णय पहले से ही हुआ था। रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले संबंधित सदस्यों को ही विश्वास में नहीं लिया गया। इन पाँच समूहों की मुख्य अनुशंसाएं निम्नानुसार थीं -1. एम. हमीद अंसारी (वर्तमान में उपराष्ट्रपति) की अध्यक्षता में विभिन्न तबकों में विश्वास बहाली के उपायों के अंतर्गत उन्होंने सुझाव दिये कि कानून व्यवस्था को सामान्य कानूनों से संभाला जाये। उपद्रवग्रस्त क्षेत्र विशेषाधिकार कानून एवं सशस्त्रबल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाया जाये। 2. पूर्व आतंकियों का पुनर्वास एवं समर्पण करने पर सम्मान पूर्वक जीवन की गांरटी दी जाए। 3. राज्य मानवाधिकार आयोग को मजूबत करना। 4. आतंकवाद पीड़ितों के लिए घोषित पैकेज को मारे गये आतंकियों के परिवारों के लिए भी क्रियान्वित करना। 5. फर्जी मुठभेड़ों को रोकना। 6. पाक अधिकृत कश्मीर में पिछले बीस वर्षों से रह रहे आतंकवादियों को वापिस आने पर स्थायी पुनर्वास एवं आम माफी। 7. इसके अतिरिक्त कश्मीरी पंडितों के लिए एसआरओ-43 लागू करना, उनका स्थायी पुनर्वास।

उमर अब्दुल्ला कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर की समस्या आर्थिक व रोजगार के पैकेज से हल होने वाली नहीं है। यह एक राजनैतिक समस्या है और समाधान भी राजनैतिक ही होगा। जम्मू कश्मीर का भारत में बाकी राज्यों की तरह पूर्ण विलय नहीं हुआ। विलय की कुछ शर्तें थीं, जिन्हें भारत ने पूरा नहीं किया। जम्मू-कश्मीर दो देशों (भारत एवं पाकिस्तान) के बीच की समस्या है, जिसमें पिछले 63 वर्षों से जम्मू-कश्मीर पिस रहा है। स्वयत्तता ही एकमात्र हल है। 1953 के पूर्व की स्थिति बहाल करनी चाहिए। पी. चिदंबरम भी कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर एक राजनीतिक समस्या है। जम्मू-कश्मीर का एक विशिष्ट इतिहास एवं भूगोल है, इसलिए शेष भारत से अलग इसका समाधान भी विशिष्ट ही होगा। समस्या का समाधान जम्मू व कश्मीर के अधिकतम लोगों की इच्छा के अनुसार ही होगा। गुपचुप वार्ता होगी, कूटनीति होगी और समाधान होने पर सबको पता लग जायेगा। हमने 1953, 1975 और 1986 में कुछ वादे किये थे, उन्हें पूरा तो करना ही होगा। विलय कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था, यह बाकि राज्यों से अलग था, उमर ने विधानसभा के भाषण में विलय पर बोलते हुये कुछ भी गलत नहीं कहा। स्वायत्ताता पर वार्ता होगी और उस पर विचार किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी राजनैतिक समाधान की आवश्यकता, सशस्त्रबल विशेषाधिकार अधिनिययम को नरम करना, कुछ क्षेत्रों से हटाना, सबकी सहमति होने पर स्वायत्ताता के प्रस्ताव को लागू करना आदि संकेत देकर वातावरण बनाने की कोशिश की और प्रधानमंत्री द्वारा घोषित वार्ताकारों के समूह दिलीप पेडगेवांकर, राधा कुमार, एम.एम. अंसारी ने तो ऐसा वातावरण बना दिया कि शायद जल्द से जल्द कुछ ठीक (अलगाववादियों की इच्छानुसार) निर्णय होने जा रहे हैं। उन्होंने जम्मू-कश्मीर समस्या के लिए पाकिस्तान से वार्ता को बल दिया। उन्होंने आश्वासन दिया, आजादी का रोडमेप बनाओ, उस पर चर्चा करेंगे। हमारा एक खूबसूरत संविधान है, जिसमें सबकी भावनाओं को समाहित किया जा सकता है, 400 बार संशोधन हुआ है, आजादी के लिए भी रास्ता निकल सकता है।

वर्तमान आंदोलन :- पाक समर्थित वर्तमान आंदोलन अमरीका के पैसे से चल रहा है। आंदोलन को कट्टरवादी मजहबी संगठन अहले-हदीस (जिसके कश्मीर में 120 मदरसे, 600 मस्जिदें हैं) एवं आत्मसमर्पण किये हुये आतंकवादियों के गुट के द्वारा हुर्रियत (गिलानीगुट) के नाम पर चला रहे हैं। वास्तव में यह आंदोलन राज्य एवं केन्द्र सरकार की सहमति से चल रहा है। देश में एक वातावरण बनाया जा रहा है कि कश्मीर समस्या का समाधान बिना कुछ दिये नहीं होगा। कश्मीर के लोगों में वातावरण बन रहा है कि अंतिम निर्णय का समय आ रहा है।

सुरक्षाबलों को न्यूनतम बल प्रयोग करने का आदेश है। 3500 से अधिक सुरक्षा बल घायल हो गये, सुरक्षा चौकियों पर हमले किये गये, आंदोलनकारी जब बंद करते थे तो सरकार कर्फ्यू लगा देती थी, उनके बंद खोलने पर कर्फ्यू हटा देते थे। अलगाववादियों के आह्वान पर रविवार को भी स्कूल, बैंक खुले।

वास्तविकता यह है कि पूरा आंदोलन जम्मू-कश्मीर की केवल कश्मीर घाटी (14 प्रतिशत क्षेत्रफल) के दस में से केवल 4 जिलों बारामुला, श्रीनगर, पुलवामा, अनंतनाग और शोपियां नगर तक ही सीमित था। गुज्जर, शिया, पहाड़ी, राष्ट्रवादी मुसलमान, कश्मीरी सिख व पंडित, लद्दाख, शरणार्थी समूह, डोगरे, बौध्दा कोई भी इस आंदोलन में शामिल नहीं हुआ, पर वातावरण ऐसा बना दिया गया जैसे पूरा जम्मू-कश्मीर भारत से अलग होने और आजादी के नारे लगा रहा है। उमर अब्दुल्ला द्वारा बार-बार जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय को नकारना, जम्मू-कश्मीर को विवादित मानना, वार्ताकारों के समूह द्वारा भी ऐसा ही वातावरण बनाना, केन्द्र सरकार एवं कांग्रेस के नेताओं का मौन समर्थन इस बात का सूचक है कि अलगाववादी, राज्य एवं केन्द्र सरकार किसी समझौते पर पहुँच चुके हैं, उपयुक्त समय एवं वातावरण बनाने की कोशिश एवं प्रतीक्षा हो रही है। ओबामा का इस विषय पर कुछ ना बोलना इसका यह निहितार्थ नहीं है कि अमरीका ने कश्मीर पर भारत के दावे को मान लिया है। बार-बार अमरीका एवं यूरोपीय दूतावासों के प्रतिनिधियों का कश्मीर आकर अलगावादी नेताओं से मिलना उनकी रूचि एवं भूमिका को ही दर्शाता है।

पिछले दिनों राष्ट्रवादी शक्तियों, भारतीय सेना एवं देशभक्त केन्द्रीय कार्यपालिका का दबाव नहीं बना होता तो यह सब घोषणाएँ कभी की हो जातीं। गत दो वर्षों में केन्द्रीय सरकार द्वारा सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने, जेल में बंद आतंकियों एवं अलगाववादियों की एकमुश्त रिहाई के असफल प्रयास कई बार हो चुके हैं।

यह कैसा लोकतंत्र

रोहित पंवार

मतदाता पहचान पत्र हासिल करने की हमारी रूचि छिपी नहीं है. आखिर वोट देने से ज्यादा सिम खरदीने में यह जरुरी जो है वास्तव में जिस दिन मतदाता पहचान पत्र की केवल मतदान डालने में ही प्रयोग की सरकारी घोषणा हो जाए तो, किसी महंगे मल्टीप्लेक्स में सिनेमा की टिकट महंगी होने पर लाइन से हट जाने का जो भाव आता है यही भाव पहचान पत्र हासिल करने की जुगत में लगे लोगों के मन में जरुर आ जाएगा. लोगों के वोट देने का अधिकार देने भर से ही लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता, लोकतंत्र, व्यवस्था या संस्थाओं के लोकतान्त्रिक कार्यों से जाना जाता है, हमारे कार्य, सोच कितनी लोकतान्त्रिक है ये ही एक लोकतान्त्रिक होने के आदर्श मापदंड है! विनायक सेन जैसे आवाज़ उठाने वाले लोगो को जेल में और जनता के पैसे लुटने वाले को सत्ता के खेल में जगह जिस देश में मिलती हो उसे लोकतंत्र कहना बेमानी होगा, इस लिहाज से आजाद होने के ६३ साल में भारत लोकतंत्र के आदर्श मापदंडों पर सही से खरा उरता नहीं दिखाई देता!

मीडिया में सुर्खिया पाए देश के अलोकतांत्रिक कार्यों को छोड़ भी दिया जाए तो, एक आम नागरिक द्वारा किसी पुलिस थाने में शिकायत करने में उसकी हिचकिचाहट, सरकारी दफ्तरों में बार बार जाने में घिसते जूते, अपने ही जन प्रतिनिधियों से बात करने में डर का भाव और जंतर मंतर में आन्दोलन कर रहे आम जन पर पुलिस के डंडों की मार मार चिक चिक कर यह बताती है की हम कितने परिपक्व राजनितिक व्यवस्था के वासी है! इस देश में मीडिया की भूमिका पर नजर दोडाए तो निराशा ही हाथ लगती है, मीडिया न कहकर कॉरपोरेट मीडिया कहे तो तर्कसंगत होगा, आज़ादी की लड़ाई में जिन आन्दोलनों ने हमे आजाद कराया, आज उन्हीं आन्दोलनों को चलाना पैसों पर टिका है. जिसके पास सबसे ज्यादा पैसा उतनी ही आन्दोलन की गूंज गूंजेगी जिसके पास पूंजी नहीं वो जन्तर मंतर पर चिल्लाता चिल्लाता मर जाएगा और कॉरपोरेट मीडिया भी पैसे वालो को कवर करेगी, लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है लेकिन राडिया टैप कांड ने मीडिया का चश्मा पहने लोगों को मीडिया का चश्मा उतारने पर भले ही मजबूर कर दिया हो लेकिन देश को सही मायने में लोकतंत्र बनाने में लम्बी दूरी तय करना अभी बाकी है!

नववर्ष के मौके पर प्रधानमंत्री ने नए साल में निराशावाद को दूर करने की अपील तो की लेकिन वह भूल गए कि निराशा फैलाने वालो में इस देश की राजनितिक व्यवस्था का हाथ सबसे बड़ा रहा, राजनीतिक दलों के दलिये प्रणाली के दुरूपयोग ने इसका और भी ज्यादा विकास किया खुद को लोकतान्त्रिक तरीके से कार्य का दम भरने वाली इन पार्टियों में आलाकमान का चलन शुरू हुआ है, आलाकमान यानि जिसके हाथ में सारी कमान हो जो खुद निर्णय अपने तरीके से ले ऐसा लगता है जैसे कोई तानशाह डंडा दिखाकर पार्टी को चलाता हो वाकई में पार्टियों की ऐसी प्रणाली सही मायने में तानाशाह लगती है ऐसे में लोकतंत्र की चादर ओड़े तानाशाह रवैय्या अपनाए इन दलों से लोकतान्त्रिक व्यवस्था देने की बात हज़म नहीं होती! सांविधानिक पदों का इस्तेमाल यह दल अपने हितों की पूर्ति करने में जरा भी नहीं चुकते. जैसे बरसों पहले राजा अपने करीबी और हितो की पूर्ति करने वाले को मंत्री पद देता था! सरकारी योजनाएं, योजनाएं कम नेताओं, नोकरशाहों के लिए बीमा पॉलिसी ज्यादा लगती है खुद सरकार ने अपने विकास कार्यक्रम को अच्छा दिखाने के लिए बीपीएल सूची में हकदार गरीबों को शामिल ही नहीं किया , बीपीएल सूची में गरीबों के आकड़ो को लेकर सरकार और तेंदुलकर समिति के आकड़ों में ही खासा अंतर है ऐसे में सरकार से यह अपेक्षा करना की वो सही मायने में आम जन विकास करेगी किताबी बाते लगती है, लेकिन फिर भी हमे दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक, महान देश होने का गुरुर है वास्तव में महानता को सही अर्थो में देखे जाने की जरुरत आ पड़ी है जिस देश में सड़क पर ठण्ड में सिकुड़ते लोगो के लिए उच्चतम न्यायालय खुद हस्‍तक्षेप करके सरकार को रेन बसेरा बनाने का आदेश देता हो क्या वो देश वाकई में महान है? स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्री द्वारा देश को विश्व का सबसे बड़ा और सफल लोकतान्त्रिक देश बताना जायज है? क्या वाकई में हम लोकतान्त्रिक हो गए की हमें अपनी बात रखने की आज़ादी है? इन सवालो पर आत्ममंथन करने की जरुरत है, संसद ठप (करोड़ का नुकसान) करके जिस तरह इस देश के विपक्ष ने जेपीसी को लेकर कोशिश की है अगर इस सवालों को सुलझाने में गंभीरता दिखाई होती तो सही मायने में हम महान और आदर्श लोकतान्त्रिक देश कहलाते!

लम्बे समय से ठन्डे बसते में पड़ा लोकपाल बिल आज भी बसते से बाहर निकलने को आतुर है लेकिन हमारे सांसदों की पैसो की भूख इस विधयक के प्रति तो उदासीनता दिखाती है लेकिन अपने आमदनी बड़ाए जाने के प्रति रूचि, तो वही आरटीई, शिक्षा का अधिकार कितने सही तरीके से लागू किया गया यह सबके सामने है! लगातार आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्याए हो रही है, समाज के गरीब वंचित तबके के बच्चे स्कूलों में दाखिला , पड़ने के मकसद से नहीं बल्कि पेट भरने के कारण लेते है ऐसे में देश का सर्व शिक्षा अभियान कहा गया? यह प्रश्न चिन्ह बनकर खड़ा है? विदेशी प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों के भारत दोरे पर भारत को उभरती हुई ताकत बता देने से हम गर्व से फुले जाते है, स्टेडियम में भारतीय धावक को दौड़ में आगे बड़ने का होसला देकर हम एकता की मिसाल दिखाते है लेकिन मेक्डोनाल्ड, डोमिनोज में किसी गरीब वंचित बच्चे के आ जाने पर हेरानगी जताते, दयनीय तोर पर देखते है शायद यही महानता है इस देश की, इसे ही ताकत कहते है! भूखे देश में राजीव गाँधी का यह कथन की “एक रूपये देने की सरकार की कोशिश जरुरतमंदो तक दस पैसे के रूप में पहुचती है” आज भी काफी प्रसांगिक है” यानि नब्बे पैसे देश के पिछड़े, वंचित लोगो की भूख नहीं मिटाता लेकिन भ्रष्ट नेताओ, कॉरपोरेट दलालों, नोकरशाहो की लालची भूख को बढ़ाता है

देखा जाए तो लोकतंत्र व्यापक एक आदर्श व्यवस्था है हम इस आदर्श व्यवस्था के बालकाल में ही खड़े दिखाए देते है, परिपक्व लोकतंत्र तब ही बन सकेंगे जब कहने भर से ही नहीं अपने विचार और कार्यों से लोकतंत्र को साबित कर सकेंगे!

क्या ऐसी शासन का शौक रखती है यह सरकार!

विकास कुमार

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में मायावती ने चौथी बार 13 मई 2007 को 1 बजकर40 मिनट पर शपथ ग्रहण की थी ! पिछले तीन बार शासन कर चुकी यह सरकार जब चौथी बार फिर सत्ता में आई तब उत्तर प्रदेश का वह चेहरा साफ साफ झलक रहा था जिसमे मायावती की सरकार का मेकप चढ़ा हुआ था ! उनके शासन प्रणाली में निखार तो तब आया जब चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद ही जनहित में कई घोषनाए हुई! उनमे से सामाजिक न्याय की प्राप्ति तथा समाज के कमजोर वर्ग के लिए पैसे बाँटने के बाजए रोजगार मुहैया कराने पर विशेष बल दिया गया! इस क्रम में “उत्तर प्रदेश” को “उत्तम प्रदेश” में बदल देने की इच्छा मायावती ने जाहिर की! मगर मायावती सरकार शुरू -शुरू में जिन लक्ष्यों को लेकर आगे बढ़ी थी उसने उनका साथ साल 2009के लोकसभा चुनाव में लगभग छूटता दिखाई दिया! बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश लोकसभा में संभावित 35 सीटों में से मात्र20 सीटें ही हासिल कर पाई! लोकसभा चुनाव का यह नतीजा साबित कर रहा था की मायावती सरकार का मेकप उत्तर प्रदेश के चेहरे से उतरना शुरू हो गया है! साल2003 में ताज कोरिडोर केस के मामले में मुख्यमंत्री मायावती के घर पर पड़ने वाला सीबीआई का छापा उनके शासन प्रणाली में होने वाला पहला सुराख़ था! बाद में करीब2000 करोड़ रुपये खर्च कर मायावती ने भीमराव अम्बेडकर, साहूजी जी महाराज ,कांशीराम , गौतम बुद्ध और अपनी मूर्तियों और पार्क का निर्माण करवाया! बाद में मायावती सरकार की तरफ से इन पार्कों और मूर्तियों की सुरक्षा के लिए फरवरी 2010 में विशेष सुरक्षा बल के गठन का आदेश दिया गया! इन सारी बातों से आपको अवगत कराने के पीछे मूल मकसद सरकार के उस चेहरे से परिचित कराना है, जिसने आम जनता और दलितों के लिए नारा लगाया था की “तिलक , तराजू और तलवार , इनको मरो जूते चार”

इस सरकार का शौक केवल यही तक सिमित नहीं है, आपको याद होगा की मायावती के पिछले जन्मदिन को उनके समर्थकों ने जन्कल्यानकारी दिवस के रूप में घोषित किया था! यह जनकल्यानी दिवस जनमानस के हित में कितना कल्याणकारी हुआ वह आगे की कुछ घटनाओं से साबित हो जायेगा! दलितों और गरीबों की सरकार का साल 2007-2008 में26 करोड़ रुपये केवल टैक्स भरना उनके इतना ज्यादा अमीर होने पर सवालिया निशान लगाता है जिसका परिणाम हुआ कि सीबीआई ने मायावती के खिलाफ चार्जशीट दाखिल कर इतने बड़े रकम का हिसाब मांगना शुरू कर दिया!

उत्तर प्रदेश की जनता जो कभी नारे लगाया करती थी “बहनजी तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ है” आज परिस्थितियों से खुद संघर्ष करती नजर आ रही है! मायावती के शासन काल में अफसरसाही और खाकी वर्दी का धौंस अपनी सीमा लाँघ चूका है! खुलेआम पुलिस द्वारा महिलाओं का रेप किया जा रहा है! बहुजन समाज पार्टी के48 वर्षीया विधायक पुरुषोत्तम नरेश के घर पर दलित लड़की का रेप हो रहा है! ये सारी हाल की घटित कुछ घटनाये है! पिछले एक दो सालों में उत्तर प्रदेश में इस तरह की कई घटनाये सामने आई है!

गौरतलब है कि मायावती शासन काल में जब दलित लड़की की बलात्कार हो रही है, उसकी पिटाई हो रही है , तो दूसरे लोगो के लिए कैसे सुरक्षा का विश्वास किया जा सकता है! मायावती के शासन का यह शौक उत्तर प्रदेश को पूरे देश में हो रहे महिलाओ पर अपराध का 10% भागीदार बना दिया है! अभी हाल ही में औरहैया जिला के दौरे पर आई मुख्यमंत्री की जूती को अपने रूमाल से साफ कर रिटायर्ड पूर्व पुलिस अधिकारी (जो की अभी उनकी खास सुरक्षा गार्ड है) ने मिडिया के सामने मायावती के छुपे हुए इस शौक का भी पर्दाफाश कर दिया है! ऐसा प्रतीत होता है कि अगर मायावती सरकार शासन के ऐसे शौक को त्याग कर गंभीर और शख्त नहीं होती है तो आने वाला विधानसभा चुनाव में जनता द्वारा दिए जाने वाले शॉक(shock)के लिए तैयार रहना पड़ेगा!

ये बैठक आरोप-प्रत्यारोप से उपर क्यों नहीं उठते?

विकास कुमार

भारत के आंतरिक सुरक्षा को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच आम सहमति हमेशा से संदेहास्पद रहा है। केन्द्र सरकार द्वारा राज्यों की सुरक्षा-व्यवस्था को लेकर आयोजित लगभग हरेक सम्मेलनों या बैठकों का नतीजा अपने मूल मुद्दे को त्याग कर राजनी‍ति का रंग ले लेता है। पिछ्ले कुछ महिनों से राज्यों की सुरक्षा-व्यवस्था(खासकर नक्सल प्रभावित राज्यों) को लेकर केन्द्र सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं को बल तो दिया गया है मगर इन योजनाओं को सुचारु ढंग से स्थापित करने में केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच सहयोग और सही तालमेल का अभाव देखने को मिला है।

हाल ही में आंतरिक सुरक्षा को लेकर केन्द्र सरकार द्वारा बुलाये गये मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में राज्यों की सुरक्षा-व्यवस्था को दुरुस्त करने के कारगर उपायों को बैकफुट पर रखकर केंद्र सरकार,मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों के बीच आपसी भिड़ंत सम्मेलन को सही दिशा देने में बाधक साबित हुई है। हालांकि मंत्रियों के बीच आपसी भिड़ंत की यह पहली घटना नहीं है। मगर इस तरह के मुद्दे पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनिति को दबाकर रखने में ही देश और राज्य की भलाई है। एक तरफ देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुख्यमंत्रियों से आंतकवाद से साहस के साथ मुकाबला करने की अपील की वहीं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में अहम मुद्दे को भूलकर सरकार के दावों की धज्जियाँ उड़ाने में लगे हुए थे। इस क्रम में जिन्हे भी मौका मिला वो बोलने से चुके नहीं। अप्रत्यक्ष रुप से भाजपा और संघ परिवार को निशाना बनाते हुए केन्द्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि कुछ नए आंतकवादी संगठन और गुट सामने आ रहे हैं। मंत्री जी का यह इशारा हाल में संघ परिवार के कुछ लोगों का अपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होने की ओर था। सम्मेलन में बिहार की तरफ से मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने केन्द्र सरकार के सामने मंहगाई को सबसे बड़ा मुद्दा बताया वहीं बिहार में कानून व्यवस्था के क्षेत्र में एक मिसाल कायम करने पर भी बल दिया। बिहार में महिला मतों की संख्या में 32 लाख से अधिक की बढोतरी आंतरिक सुरक्षा के क्षेत्र में प्रगति को दर्शाता है। साथ ही उन्होने राज्य में आगामी पंचायत चुनाव के मध्यनज़र केंद्रीय पुलिस बलों की 400 कंपनियों की आवश्यकता को दुहराया।

आंतरिक सुरक्षा को लेकर बुलाये गये इस सम्मेलन में भ्रष्टाचार और काले धन को राष्ट्रिय सुरक्षा के लिये गंभीर खतरा बताते हुए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्य में विशेष अदालत बनवाने की नई नीति को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सामने पेश किया। राज्य की सुरक्षा-व्यवस्था को लेकर सबसे गंभीर दिखने वाले शिवराज सिंह चौहान ने नक्सली और उग्रवाद की समस्या से निपटने के लिये केंद्र में लंबित अपराध नियंत्रण विधेयक 2010 को जल्द से जल्द लागू करने पर जोर दिया।

सुरक्षा-व्यवस्था को शख्त और प्रभावी बनाने के लिये उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की तरफ से संसदीय कार्य मंत्री लालजी वर्मा ने केंद्र सरकार से पुलिस बजट का आधा हिस्सा वहन करने की अपील की है। साथ ही उत्तर प्रदेश पुलिस की समस्या को केंद्र के सामने रखकर इस दिशा में किसी भी तरह की कोई मदद को नकारा है।

कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि आंतरिक सुरक्षा को लेकर बुलाये गये राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने पिछ्ले बैठकों की तुलना में ज्यादा गंभीरता तो दिखाई है। मगर ऐसे प्रस्तावों और नीतियों को लागू होने में काफी समय लग जाते हैं। इन प्रस्तावों,वादों और आश्वासन की गूंज सम्मेलन के बाद सुस्त पड़ जाती है और आरोप-प्रत्यारोप से ओत-प्रोत सम्मेलन हरेक प्रकार से विकास के क्षेत्र में बाधक बन जाते हैं। खासकर आंतरिक सुरक्षा के मामलों में सरकार और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को और ज्यादा गंभीर होने की जरुरत मालूम पड़ती है।

‘नॉटी’ नहीं, ये ‘नंगी’ रातें हैं…

ऐसे अश्लील कार्यक्रमों का विरोध होना ही चाहिए

गिरीश पंकज

रेडियों की दुनिया से जुड़े मेरे मित्र तेजपाल हंसपाल का पिछले दिनों एक मोबाइल-सन्देश मिला कि ”एक निजी रेडियो चेनल पर देर रात को एक अश्लील कार्यक्रम आता है.उसका नाम है- ”नॉटी रातें” उसको सुनें और उसका विरोध करे”. अमूमन फूहड़ताओं से भरे अनेक एफएम चेनल सुनने का पाप मैं नहीं करता, लेकिन मजबूरी में सुनना ही पडा. और सच कहूँ, तो सुन कर माथा शर्म से झुक गया. यह कार्यक्रम इतना पतनशील है, कि उसके लिये शब्द नहीं मिलते. परिवार के साथ क्या, इसे अकेले भी सुनना भारी लगने लगा. ऐसे कार्यक्रम सुनांने का मतलब है, अपने मनुष्य होने कि शर्त से नीचे गिरना है. दुःख और गुस्सा तब और बढ़ जाता है, कि यह कार्यक्रम एक औरत के माध्यम से प्रस्तुत कराया जा रहा है. बाज़ार में अपना माल खपाने वाले शातिर हो चुके हैं. ये लोग पुरुषों के लिये काम में आने वाली चीज़े भी बेचने के लिये औरतों का सहारा लेते है. इस वक्त बाज़ार अश्लीलता से पटा पडा है. और इसके लिये महिलाओं का इस्तेमाल हो रहा है.और कुछ कमजोर सोच वाली महिलाएं भी इनके चक्कर में आ जाती है. कुछ को अपना ”कैरियर” बनाना है तो कुछ के दूसरे लक्ष्य हैं. चिंता की बात यह है,कि अश्लीलता का कही कोई प्रतिवाद नहीं नज़र आता. शायद इसलिये कि मुर्दाशांति इस वैश्विक बाजारवाद की दें है. खा-पी कर मनोरंजन के लिये अपनी रातों को ”नॉटी” या अश्लील बनाने का जुगाड़ करने वाले समाज में अब पतन जैसे शब्द पिछड़ेपन की निशानी है. फिर भी प्रतिकार होना चाहिए.

मनोरंजक कार्यक्रम हों तो उनका स्वागत है लेकिन जो चीज़े यहाँ की फिज़ा में वैचारिक जहर घोलने का काम कर रही है, उनका विरोध ज़रूरी है. यह हमारी सामाजिक और नैतिक ज़िम्मेदारी है. एक रेडियो चेनल में जो कार्यक्रम आता है उसका सार यही होताहै कि वह स्त्री-पुरुषों से यह ”कन्फेस” करवाता है कि उन्होंने जाने-अनजाने कब, कहाँ कैसी अश्लील हरकत की. कुछ लोग अपना नाम छिपा लेते है. कुछ लोग हो सकता है, काल्पनिक नाम भी बताते हों. मै उस कार्यक्रम के ‘चरित्र’ को सुनने-समझने के लिये जिस दिन सुनरहा था, उस दिन एक लड़की ने महिला एंकर को बताया कि उसके एक ‘कजिन’ ने उसके साथ अश्लील हरकत की. लड़की उसे बारे में खुलकर बता रही थी. और वह कुछ-कुछ दुखी भी लग रही थी. एक बार एक लड़की ने बताया, कि एक बार वो सब हो गया जो नहीं होना चाहिए था. फिर बार-बार कहती थी, ”आप समझ रही है न मैं, क्या कह रही हूँ” . मै हिम्मत जुटा कर केवल दो बार ही यह कार्यक्रम सुन सका इसलिये कि मै इसके खिलाफ लिखना चाहता था. एक लेखक केवल यही कर सकता है. अब तो समाज का दायित्व है कि वह उन लोगों के खिलाफ खड़े हो, जो जानबूझ कर कोशिश करते रहते है,कि समाज में अश्लीलता फैले. आपको याद होगा कि अभी कुछ् महीने पहले टीवी पर एक कार्यक्रम आता था, जिसमे लोग अपने गुनाह कबूल किया करते थे, लोग दर्शकों के सामने अपनी तरह-तरह की नीचताओं का खुलासा करते थे. अंत में अवैध संबंधों की स्वीकारोक्ति भी करते थे. बाद में व्यापक विरोध के कारण यह कार्यक्रम बंद हो गया. उस कार्यक्रम का विरोध करने वाले कम नहीं थे. मतलब साफ़ है कि अगर घटिया कार्यक्रम बना कर दिखाने वालें लोग मौजूद है तो उसका विरोध करने वाले लोग भी है. अभी हमारा समाज पूरी तरह से पतित नहीं हो सका है.हैरत की बात है,कि उक्त अश्लील कार्यक्रम के विरुद्ध सामाजिक संस्थाए मौन है. यह चुप्पी चिंताजनक है.

समाज में अश्लीलता का वातावरण बनाने और अपने पतन का, अपने काले कारानामो का खुलासा करके लोग ”कन्फेस’ नहीं कर रहे, वे लोग दरअसल कमजोर मन-मस्तिष्क वाले श्रोताओं को एक तरह से गलत काम करने के लिये प्रेरित ही कर रहे है. किसी फिल्म का कोई दृश्य देख कर कुछ लोग उसकी नक़ल करने पर आमादा हो जाते है. रेडियो के इस अश्लील कार्यक्रम का भी उलटा असर होगा. इसलिये समय रहते इसके खिलाफ आवाज़ उठनी ही चाहिए. कार्यक्रम करना ही है, तो क्या कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं बन सकता जिसमे कोई व्यक्ति यह बताये कि उसने लोक कल्याण के क्या-क्या काम किये या उसके जीवन में ऐसे लोग भी आये जिन्होंने उसे संकट से उबरा. या किसे विकलांग ने कोई बड़ा काम किया. या फिर आपने पिछले दिनों आपने क्या पढ़ा. आदि-आदि. लेकिन ऐसे कार्यक्रम बना कर निजी चेनल अपना दीवाला क्यों पिटवाएगा. जब वह ”अश्लील रातों” ‘को बेच-बेच कर समाज को बर्बाद करने का मजा ले रहा है, तो वह नैतिक मूल्यों को प्रोत्साहित करने वाले कार्यक्रम क्यों पेश करे?

पूरब का सोमनाथ है भोजपुर का भोजेश्‍वर शिव मंदिर

सतीश सिंह

कला और संस्कृति के दृष्टिकोण से मध्यप्रदेश की धरती प्राचीन काल से ही उर्वर रही है। स्थापत्य कला में भी मध्यप्रदेश का स्थान भारत में अव्वल है। स्थापत्य कला का ही एक बेजोड़ नमूना मध्यप्रदेश की राजधानी और झीलों की नगरी भोपाल से तकरीबन 28 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित भोजपुर नामक स्थान पर भोजेश्‍वर के नाम से ख्यात शिव मंदिर है। इसे पूरब का सोमनाथ भी कहते हैं।

21 वीं सदी में भले ही भोजपुर को गिने-चुने लोग जानते हैं, किन्तु मध्यकाल में इस नगर की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। मध्यकाल के आरंभ में धार के महान राजा भोज ने (1010-53) में भोजपुर नगर की स्थापना की थी। इस नगर को ख्यातलब्ध बनाने में मुख्य योगदान भोजपुर के भोजेश्‍वर शिव मंदिर और यहाँ पर बने विशाल झील का था। शिव मंदिर अपने अधूरेपन के साथ आज भी मौजूद है, लेकिन झील सूख चुकी है।

अपनी वास्तु योजना में यह मंदिर वर्गाकार है जिसका बाह्य विस्तार लगभग 66 फीट है। हालांकि इसका शिखर अपूर्ण है, फिर भी यह मंदिर चार स्तंभों के सहारे खड़ा है। ऊँचाई की ओर बढ़ने के क्रम में इसका आकार सूंडाकार हो गया है। तीन भागों में विभाजित निचला हिस्सा अष्टभुजाकार है, जिसमें 2.12 फीट वाले फलक हैं और उसमें से पुनश्‍च: 24 फलक वाली प्रशाखाएँ निकलती हैं। शिव मंदिर के प्रवेश द्वार का निचला हिस्सा अलंकार रहित है, पर उसके दोनों पार्श्‍वों में स्थापित दो सुदंर प्रतिमाएँ खुद-ब-खुद ध्यान आकृष्ट करती हैं। इसके तीनों तरफ उपरिकाएँ हैं जिन्हें तराशे गए 4 स्तंभ सहारा दिए हुए हैं।

शिवलिंग की ऊँचाई अद्भूत और आकर्षक है। 7.5 फीट की ऊँचाई तथा 17.8 फीट की परिधि वाला यह शिवलिंग स्थापत्य कला का बेमिसाल नमूना है। इस शिवलिंग को वर्गाकार एवं विस्तृत फलक वाले चबूतरे पर त्रिस्तरीय चूने के पाषाण खंडों पर स्थापित किया गया है।

आश्‍चर्यजनक रुप से इस मंदिर का शिखर कभी भी पूर्ण नहीं हो सका। अपितु इसको पूरा करने के लिए जो प्रयास किये गए, उसके अवशेष आज भी बड़े-बड़े पत्थर ले जाने के लिए बने सोपानों की शक्ल में हैं।

भोजेश्‍वर मंदिर के पास ही एक अधूरा जैन मंदिर है। मंदिर के अंदर तीर्थकरों की 3 प्रतिमाएँ हैं। महावीर स्वामी की मूर्ति तकरीबन 20 फीट ऊँची है। अन्य दोनों मूर्तियाँ पार्श्‍वनाथ की हैं। इसकी वास्तुकला आयताकार है। इतिहासकारों के अनुसार इसके निर्माण की अवधि भी भोजेश्‍वर मंदिर के समय की है।

भोजेश्‍वर मंदिर के पश्चिम में कभी एक बहुत बड़ा झील हुआ करती थी और साथ में उसपर एक बांध भी बना हुआ था, पर अब सिर्फ उसके अवशेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। बाँध का निर्माण बुद्धिमतापूर्वक किया गया था। दो तरफ से पहाड़ियों से घिरी झील को अन्य दो तरफों से बालुकाइम के विशाल पाषाण खंडों की मदद से भर दिया गया था। ये पाषाण खंड 4 फीट लंबे और 2.5 फीट मोटे थे। छोटा बाँध लगभग 44 फीट ऊँचा था और उसका आधारतल तगभग 300 फीट चौड़ा तथा बड़ा बाँध 24 फीट ऊँचा और ऊपरी सतह पर 100 फीट चौड़ा था। उल्लेखनीय है कि यह बाँध तकरीबन 250 मील के जल प्रसार को रोके हुए था।

इस झील को होशंगशाह ने (1405-34) में नष्ट कर दिया। गौण्ड किंवदंती के अनुसार उसकी फौज को इस बाँध को काटने में 3 महीना का समय लग गया था। कहा जाता है कि इस अपार जलराशि के समाप्त हो जाने के कारण मालवा के जलवायु में परिवर्तन आ गया था।

कहने के लिए तो भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा यह मंदिर संरक्षित है, किन्तु विभाग के द्वारा इसके जीर्णोद्धार के लिए अभी तक कोई प्रयास नहीं किया गया है। यह सचमुच दुखद स्थिति है।

तानाशाहों के ‘ताज उछालने’ के मूड में जनता जर्नादन

तनवीर जाफ़री

मिस्र के इतिहास में 11फरवरी 2011 का वह क्षण इतिहास के पन्नों में उस समय दर्ज हो गया जब देश की सत्ता पर 30 वर्षों तक क़ब्ज़ा जमाए रखने वाले 82 वर्षीय राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को भारी जन आक्रोश के चलते राजधानी क़ाहिरा स्थित अपने आलीशान महल अर्थात राष्ट्रपति भवन को छोड़ कर शर्म-अल-शेख़ भागना पड़ा। तमाम अन्य देशों के स्वार्थी, क्रूर एवं सत्ता लोभी तानाशाहों की ही तरह ही मिस्र में भी राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने अपनी प्रशासनिक पकड़ बेहद मज़बूत कर रखी थी। ऐसा प्रतीत नहीं हो पा रहा था कि मुबारक को अपने जीते जी कभी सत्ता से अपदस्थ भी होना पड़ सकता है। परंतु यह सारे कयास उस समय धराशायी हो गए जबकि शांतिपूर्ण एवं अहिंसक राष्ट्रव्यापी जनाक्रोश के साथ 18 दिनों तक चले लंबे टकराव के बाद अखिऱकार मुबारक को अपनी गद्दी छोडऩी ही पड़ी।

मुबारक के तीन दशकों के शासन के दौरान देश में जहां भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी,भूखमरी तथा गरीबी ने पूरे देश में पैर पसारा वहीं राष्ट्रपति मुबारक स्वयं दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बनने में पूरी तरह सफल रहे। मुबारक के धन कुबेर होने का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे इस समय लगभग 70 अरब डालर की संपत्ति के स्वामी हैं। जबकि माईक्रोसॉफ्ट कंपनी के प्रमुख बिल गेटस तथा मैक्सिको के व्यवसायी कार्लोस स्लिम हेल जैसे विश्व के सबसे बड़े उद्योगपति 52 से लेकर 53 अरब डॉलर तक के ही मालिक हैं। खबरें आ रही हैं कि मुबारक की लंदन, मैनहट्टन तथा रेडियोड्राईवे में भी काफी संपत्तियां हैं तथा स्विस मैंक सहित अन्य कई देशों में इनके खाते भी हैं। यह भी समाचार है कि स्विस बैंक ने उन खातों को बंद करने की घोषणा की है जिनपर होस्नी मुबारक के खाते होने का संदेह है।

मिस्र में आए इस भारी जनतांत्रिक परिवर्तन की और भी ऐसी कई विशेषताएं रहीं जो काबिले ग़ौर है। मध्यपूर्व एशिया के सबसे मज़बूत देश होने के बावजूद यहां आए राजनैतिक परिवर्तन में न तो कोई सैनिक क्रांति हुई न ही किसी प्रकार की खूनी क्रांति। जनता भी पूरी तरह अहिंसा व शांति के रास्तों पर चलते हुए 18 दिनों तक लगातार किसी हथियार व लाठी डंडे के बिना क़ाहिरा के तहरीर चौक सहित मिस्र के अन्य कई प्रमुख शहरों में मुबारक विरोधी प्रर्दशन करती रही। जनता की केवल एक ही मांग थी कि मुबारक गद्दी छोड़ो और देश में जनतंत्र स्थापित होने दो। राष्ट्रपति मुबारक ने इन अट्ठारह दिनों के प्रदर्शन के दौरान ऐसी कई चालें चलीं जिनसे कि वे स्वयं को कुछ दिनों तक और राष्ट्रपति के पद पर बनाए रख सकें। उन्होंने अपने अधिकतर अधिकार भी उपराष्ट्रपति को हस्तांरति करने की बात कही। बाद में उन्होंने अपने एक संबोधन में मिस्रवासियों से यह वादा भी किया कि वे अगला राष्ट्रपति चुनाव भी नहीं लड़ेगें। परंतु जनता की तो बस एक ही मांग थी -मुबारक फौरन गद्दी छोड़ दो। आखिऱकार मुबारक ने जनाक्रोश को दबाने के लिए हिंसा का रास्ता चुनने का भी एक असफल प्रयास किया। पहले तो मुबारक ने सेना से प्रदर्शनकारियों से निपटने को कहा। जब सेना ने जनतंत्र की मांग करने वाले प्रदर्शनकारियों के विरूद्ध बल प्रयोग से इंकार कर दिया उसके बाद मुबारक ने स्थानीय पुलिस कर्मियों को सादे लिबास में घोड़ों व ऊंटों पर सवार होकर प्रदर्शनकारियों से मुठभेड़ कर उन्हें खदेडऩे को कहा। इसके परिणामस्वरूप क़ाहिरा में थोड़ा बहुत तनाव ज़रूर पैदा हुआ परंतु फिर आखिरकार मुट्ठी भर सरकारी मुबारक समर्थकों को भारी जनसैलाब के मुकाबले पीछे हटना पड़ा।

मिस्र में आए इस ऐतिहासिक बदलाव के पीछे इंटरनेट पर चलने वाली फेसबुक जैसी कई सोशल नेटवर्किंग साईट की भी बहुत अहम भूमिका रही। यही वजह थी कि आम जनता एक दूसरे के सीधे संपर्क में आकर सड़कों पर निकल आई। इस आंदोलन को न तो किसी विशेष राजनैतिक दल ने संचालित किया न ही इस ऐतिहासिक परिवर्तन के पीछे किसी नेता विशेष का कोई हाथ नज़र आया। हां टयूनीशिया की उस घटना ने मिस्रवासियों को अवश्य प्रेरणा दी जिसमें कि जनक्रांति के कारण ही कुछ दिनों पूर्व ही वहां के तानाशाह एवं प्रमुख ज़ैनुल आबदीन बिन अली को देश छोड़कर भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। दरअसल मिस्रवासी होस्नी मुबारक द्वारा आम जनता की, की जाने वाले लगातार उपेक्षा से तंग आ चुके थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुबारक जब 1975 में उपराष्ट्रपति बने तथा उसके बाद 1981 में अनवर सादात की हत्या के बाद राष्ट्रपति की कुर्सी पर विराजमान हुए,उस शुरुआती दौर में मिस्री अवाम उन्हें बेहद प्यार करती थी। यहां तक कि अपने शासनकाल के दौरान उन्होंने अपने सैकड़ों विरोधियों,विरोधी नेताओं,धार्मिक नेताओं तथा अपने विरुद्ध साजि़श रचने का संदेह करने वालों को मौत के घाट उतारा। उन्होंने अपने शासन के दौरान अपने विपक्षी दलों को सिर नहीं उठाने दिया। परंतु जनता यह सब कुछ देखती व सहन करती रही। मिस्र के आम लोग अमेरिकी नीतियों के आमतौर पर विरोधी थे। परंतु होस्नी मुबारक मध्यपूर्व एशिया में अमेरिका के सबसे परम मित्र बने रहे। फिर भी जनता खा़मोश रही। 1979 में मिस्र-इज़राईल के मध्य एक संधि हुई। यह भी मिस्री अवाम ने न चाहते हुए भी स्वीकार किया। परंतु आखिकार इन सभी परिस्थितियों को स्वीकार कर लेने वाली जनता अपनी बदहाली,बेरोज़गारी तथा अपने बच्चों के भविष्य के प्रति लगे अनिश्चितता के प्रश्रचिन्ह को सहन नहीं कर सकी।

बहरहाल होस्नी मुबारक का सबसे परममित्र व सहयोगी अमेरिका भी इस समय मिस्र की जनता-जनार्दन के सुर से अपना सुर मिलाने में ही अपनी भलाई समझ रहा है। कल तक स्थिर सरकार की बात कह कर होस्नी मुबारक को समर्थन देने वाला अमेरिका अब जनतांत्रिक व्यवस्था को ही मिस्र में ज़रूरी समझ रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा जोकि अपनी अहिंसक विचारधारा के लिए भी दुनिया में जाने जाते हैं तथा मिस्र में ही क़ाहिरा में असलामअलैकुम कह कर अमेरिका व दुनिया के मुस्लिम देशों के बीच फैले मतभेद को दूर करने का प्रयास किया था,उन्होंने भी क़ाहिरा की शांतिपूर्वक एवं अहिंसक जनक्रांति पर संतोष व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘प्रदर्शनकारियों ने इस विचार को झूठा साबित कर दिया है कि इंसा$फ हिंसा के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। प्रदर्शनकारी बार-बार यह नारे लगा रहे थे कि वे शांति बनाए रखेंगे। मिस्र में अहिंसा का नैतिक बल था। आतंकवाद नहीं, बिना सोचे-समझे मारकाट नहीं, और इसी इतिहास ने न्याय की ओर करवट ली। अपने इस वक्तव्य से अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने मिस्र की नीतियों को लेकर भविष्य में होने वाले अमेरिकी परिवर्तन की ओर साफ इशारा कर दिया है कि अब अमेरिका मिस्र में मुबारक सरकार जैसी तथाकथित स्थिरता की नहीं बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों व मानवाधिकारों की रक्षा की दुहाई देता हुआ नज़र आ रहा है।

मुबारक के गद्दी छोडऩे व क़ाहिरा छोड़कर जाने के बाद मिस्र को लेकर कई तरह की चिंताएं ज़ाहिर की जा रही हैं। इस समय मिस्र की सेना की आलाकमान के प्रमुख फ़ील्ड मार्शल मोह मद हुसैन तंतावी हैं। इन्होंने शीघ्र ही देश में निष्पक्ष चुनाव कराने तथा देश की बागडोर जनता के हाथों में सौंपने का संकेत दिया है। परंतु मिस्र तथा टयूनीशिया के हालात के बाद अब सबसे बड़ी चिंता अमेरिकी व यूरोपीय देशों के साथ-साथ उन मध्यपूर्व एशियाई देशों को भी है जोकि छोटी-मोटी सैन्य शक्ति के बल पर अपनी राजशाही या तानाशाही का शासन चला रहे हैं। इनमें सबसे अधिक चिंता जहां सऊदी अरब जैसे सबसे धनी एवं तेल संपन्न देश को है वहीं अरब-इज़राईल शांति प्रक्रिया पर पडऩे वाले संभावित प्रभाव को लेकर भी दुनिया में चिंता बनी हुई है। अमेरिका व उसके सहयोगी देशों को अब इस बात की फिक्र भी सताने लगी है कि कहीं मिस्र में आया यह परिवर्तन ईरान के बढ़ते प्रभाव को भी और अधिक उर्जा न प्रदान करे। इसके अतिरिक्त पश्चिमी देशों की चिंता इस बात को लेकर भी है कि मिस्र की क्रांति इस्लामी कट्टरपंथ के विरुद्ध चल रहे पश्चिमी देशों के संघर्ष को भी प्रभावित कर सकते हैं। उधर मुस्लिम ब्रदरहुड अथवा इख्वानुल मुस्लमीन जैसे कट्टरपंथी संगठनों के मिस्र की राजनीति में पडऩे वाले संभावित प्रभाव को लेकर भी चिंता जताई जा रही है। उधर यूरोपीय देशों को इस बात की $िफक्र सता रही है कि नई मिस्री शासन व्यवस्था अथवा नई निर्वाचित सरकार मिस्र से होकर गुज़रने वाली उस स्वेज़ नहर को कहीं बंद न कर दे जिससे होकर प्रतिदिन लगभग 50 तेलवाहक जहाज़ यूरोप की ओर गुज़रते हैं। और यह रास्ता यूरोप व मध्यपूर्व एशियाई देशों के मध्य की 6 हज़ार किलोमीटर की दूरी कम करता है।

बहरहाल मिस्र में आए इस राजनैतिक परिवर्तन का मध्य पूर्व एशिया तथा पश्चिमी देशों पर वास्तव में क्या प्रभाव पड़ेगा यह तो मिस्र में गठित होने वाली नई जनतांत्रिक सरकार द्वारा घोषित नीतियों के बाद ही पता चल सकेगा। परंतु इतना ज़रूर है कि जिस प्रकार होस्नी मुबारक की शांतिपूर्ण बिदाई के बाद लगभग पूरी दुनिया में जश्र तथा जन आंदोलन के प्रति समर्थन का वातावरण देखा जा रहा है उसे देखकर यह समझने में परेशानी नहीं होनी चाहिए कि दुनिया के लोग अब जागरुक हैं, अपने व अपनी आने वाली नस्लों के भविष्य को लेकर वे चिंतित हैं तथा जनता अब तानाशाहों के द्वारा विश्वस्तर पर आंख मूंद कर मचाई जाने वाली लूट-खसोट तथा धन-संपत्ति के अथाह संग्रह को भी और अधिक सहन करने के मूड में हरगिज़ नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं कि टयूनीशिया तथा मिस्र जैसे हालात का सामना अभी कई ऐसे देशों को करना पड़े जो जनता-जनार्दन की आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं।

रिकॉर्ड तोडेग़ा गेहूं ?

शादाब जफर ”शादाब”

चालू सीजन वर्ष में गेंहू की अच्छी फसल को देखते हुए गेंहू की खरीद बढने की पूरी पूरी संभावना है। सरकार का इस बार गेंहू का खरीद लक्ष्य 260 लाख टन से अधिक रहने का अनुमान है। ऐसे में अनाज भंडारण को लेकर इस बार सरकार की हालत कुछ ज्यादा ही खराब होने वाली है। अनाज व गोदामों की भंडारण क्षमता के मौजूदा तमाम आंकडे सरकार और सरकारी प्रबंधन की पोल खोलने के लिये काफी है। पर सरकार और कृषि मंत्री जी के कान पर जू भी नही रेंग रही। जब कि खुद कृषि मंत्री शरद पवार जी का मानना है की इस साल गेहूं 814.70 लाख टन का नया रिकॉर्ड बनायेगा। सरकारी आंकडे भी ये ही कह रहे है कि इस वर्ष सरकारी गेंहू खरीद शुरू होने तक सरकार के गोदामों में पिछले साल के मुकाबले 425 लाख टन अनाज और भरा होगा। अनाज की ये मात्रा दिसंबर 2006 के मुकाबले तीन गुना अधिक होगी। लेकिन इस अनाज को भंडारण करने के लिये सरकार द्वारा कोई भी कदम गम्भीरता से नहीं उठाया गया जिस कारण अनाज भंडारण की तमाम योजनाए बनने के बाद भी आज सरकार के पास इस अनाज को भंडारण करने की कोई समुचित व्यवस्था नही है।

वही देष में पहली बार दलहनों का उत्पादन भी 165.10 लाख टन होने की उम्मीद है। गेंहू के हर साल रिकॉर्ड उत्पादन के बाद भी भारत वैश्विक भूख सूचकांक में 88 देषो की सूची में 68वें स्थान पर है। दरअसल मंत्री जी का ज्यादा समय आईसीसी की बैठकों और क्रिक्रेट मैचों की जोड़ तोड़ में बीतता है। देश में कृषि और किसानों की क्या स्थिति है इस सब से उन्हे गरज़ नहीं। देश का किसान आत्महत्या करे या भूखा सोए उन को जरा भी चिंता नहीं। आज देश के अनेक राज्य तो ऐसे है जहॉ भूख से होने वाली मौतों की संख्या सालो साल बढती जा रही है। किसी राज्य में आकाल पडता है तो किसी राज्यो में अनाज इतना अधिक होता है की उस के संग्रहण की समुचित व्यवस्था न होने के कारण वो खुले आकाष के नीचे पडा पडा सडता गलता रहता है। क्या हमारे देश के कृषि मंत्री को ये फिक्र नही होनी चाहिये कि किसान के खून पसीने से उगाया गया देष में अनाज कहा पडा है आकाश के नीचे खुला में पडा है या इस के लिये समुचित संग्रहण की व्यवस्था हुई है या नहीं।

पिछले वर्ष बरसात के महीने में खुले में पड़ा होने के कारण लाखों टन गेंहू सड गया। इस मुद्दे को प्रिन्ट मीडिया और इलैटोनिक्स मीडिया ने प्रमुखता से उठाया था जिस पर देश में सरकार की बहुत किरकिरी हुई थी वही सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को कडी फटकार भी लगाई थी जिस के बाद सरकार ने पिछले साल 150 लाख टन क्षमता के गोदाम बनाने का फैसला किया था। इन्हे डेढ साल में निजी क्षेत्रो के सहयोग से बनाया जाना था। मगर साल भर के अन्दर मामला केवल टेंडरो तक ही पहुंच पाया। अब सरकार ने जो अतिरिक्त 170 लाख टन का अनाज भंडारण का नया प्रस्ताव तैयार किया है उस के तहत अगले दो सालों में क्या गोदाम बन पायेगे षायद नही। देश में अनाज भडारण के आंकड़े तो अभी यही कहते है। क्योंकि अभी सरकार को पौने दो लाख टन भंडारण क्षमता का कागजी प्रस्ताव जमीन पर उतारने में कम से दो साल का वक्त और लगेगा यानी तीसरे साल भी खुले में अनाज सडेगा या फिर तब तक नये आने वाले अनाज को तिरपाल ओढाकर ही रखना होगा। अगर सरकारी खाद्य प्रबंधन की माने तो यही स्थिति आगामी दो साल और रहने की पक्की उम्मीद है। इस के बावजूद के खाद्य कुप्रबंधन के मुद्दे पर सुप्रीम ने कोर्ट केन्द्र सरकार को कडी फटकार भी लगा चुका है। लेकिन केन्द्र सरकार और माननीय कृषि मंत्री जी ने इस सब से कोई सबक नही लिया जनता के चीखने चिल्लााने कोर्ट के फटकार लगाने से इन की सेहत पर इस का जरा भी असर नही पडा। सही मायने में सरकार को इस मुद्दे पर गम्भीर होना चाहिये था और जल्द से जल्द बरसात से पहले गेंहू के सुमुचित भंडारण के लिये सरकार और खाद्य मंत्रालय को अतिरिक्त आने वाले गेंहू के भंडारण के लिये कुछ ठोस कदम उठाने चाहिये थे।

दूसरी तरफ गेंहू की अच्छी फसल होने के कारण गेंहू के सुमुचित भंडारण की कमी को देखते हुए राज्य सरकारों की चिंताएं भी बढ़ गई है। कुछ ने केन्द्र सरकार को इस से अवगत भी करा दिया है जिस से केन्द्र सरकार की चिंता में अतिरिक्त इजाफा हो गया है। देश में दिन प्रतिदिन बढ रही मंहगाई के मुद्दे पर चारों ओर से आलोचनाओ का षिकार होकर खुद को कोस कर, कृषि मंत्री पद छोड़ने तक की धमकी दे चुके माननीय कृषि मंत्री शरद पवार जी का सुर आखिर अचानक कैसे बदल गया समझ नहीं आ रहा। शरद पवार जी ने 9 फरवरी 2011 को अपने ब्यान में कहा कि खाद्य वस्तुओं की मंहगाई जल्द ही बीते समय की बात हो जायेगी। क्योंकि इस वर्ष खाद्यान्नों का रिकॉर्ड उत्पादन खाद्य वस्तुओं की मंहगाई पर लगाम लगाने में मददगार साबित होगा। कृषि मंत्री के पद पर रहते हुए मंहगाई के मुद्दे पर उन का ये ब्यान देश की जनता को आश्‍वस्त करने की उन की तरफ से पहली कोशिश की है। अब देखना यह है की कृषि मंत्रालय और सरकार की वो कौन सी नीतिया होगी जिन से अनाज सडने की बजाये देश के गरीब नागरिको के पेट में पहुंचेगा।

स्पष्ट जनादेश, वो क्या होता है???

दिवस दिनेश गौड़

मित्रों बहुत दिनों से दिमाग में यही सवाल चल रहा है कि चारों ओर थू थू होने के बाद भी आखिर यह कांग्रेस सत्ता में आती कहाँ से है? मै केवल मेरे आस पास के क्षेत्र की बात नहीं कर रहा, क्यों कि यहाँ तो राजस्थान में भी कांग्रेस की ही सरकार है| मेरे साथ के सहकर्मी महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल, केरल, पंजाब, हरियाणा, झारखंड, बिहार, दिल्ली, उत्तर प्रदेश आदि जगहों से हैं| अब जहाँ तक वे अपने अपने क्षेत्रों के बारे में बताते हैं उससे मुझे तो यही लगता है कि कांग्रेस की धज्जियां तकरीबन सभी जगह उड़ चुकी है| फिर मै भी टेलिकॉम में काम करता हूँ, अत: काम से यहाँ वहां काफी घूमना भी होता रहता है| तब पता चलता है कि लोगों के दिल से तो कांग्रेस गायब हो चुकी है| तो क्या मै यूँही इतने दिनों से उन मतदाताओं को कोस रहा था जिन्होंने कांग्रेस को विजयी बनाया? शायद व्यर्थ ही अपनी ऊर्जा व्यय कर दी| क्यों कि मुझ े तो ऐसा ही लगा कि कोई भी पढ़ा लिखा समझदार व्यक्ति ऐसे ही इन नेताओं के झूठे लुभावनों में नहीं पड़ता| आखिर इतने सालों से वह भी तो इस पार्टी की करतूत देख रहा है|

कारण साफ़ है कि भारत में अब कांग्रेस की कभी जीत नहीं होती अपितु विपक्ष की हार हो जाती है| अब यह कैसे संभव है? संभव है, हमारे देश में कुछ भी असंभव नहीं है| अब वोटिंग मशीन में गड़बड़ी का विवाद हो या दारू पिला कर, मुर्गा खिला कर, पैसे दे कर जुटाई भीड़ हो, मुझे तो कांग्रेस की जीत पर शंका है| विपक्ष की हार का लाभ ही इस तथाकथित महान पार्टी को मिलता है| गड़बड़ दरअसल मतदाता में नहीं हमारी चुनावी प्रणाली में है| कहने को तो भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है किन्तु इस लोकतंत्र में लोक गायब है| यहाँ सर नहीं सीट गिनी जाती हैं| मान लीजिये हमारे प्रदेश में ५० सीटें हैं और आपके प्रदेश में ७०| आपकी ७० सीटों पर कांग्रेस की जीत हुई, मान लीजिये सभी वोट कांग्रेस को ही मिले और हमारे यहाँ ५० सीटों पर भाजपा विजयी रही और सभी वोट भाजपा को मिले| किन्तु आपके क्षेत्र में पड़ने वाले वोटों की संख् या है पांच करोड़ और हमारे यहाँ यह संख्या है सात करोड़| अब अधिक लोगों ने तो भाजपा को चुना है किन्तु सीट कांग्रेस के पास अधिक हैं, अत: सरकार बनाने का अधिकार कांग्रेस को मिलेगा| फिर कैसा लोकतंत्र है ये?

दूसरी गड़बड़ थोड़ी अलग है| हमारे यहाँ चुनाव अधिकतर एम्एलए, एमपी, पार्षद या सरपंच के नाम पर होते हैं, प्रधान मंत्री की तो किसी को पड़ी भी नहीं है| कोई भी बने हमें क्या, हमारे यहाँ का एम्एलए तो हमारी जात का, हमारी बीरादरी का या हमारे क्षेत्र का ही होना चाहिए| मानें या न मानें किन्तु ऐसे विचार अधिकतर पिछड़े व अशिक्षित लोगों के मन में आते रहते हैं| मै ऐसा नहीं कहता की पढ़ा लिखा नागरिक दूध का धुला है| बात तो यह है कि बेचारे बहुत से पढ़े लिखों को तो मौका ही नहीं मिल पाता कि वे यह निर्णय करें कि हमारा नेता कौन हो? घबराइये नहीं सच कहता हूँ|

पहले मै मेरी व्यथा ही सुना देता हूँ| अब तक तो मुझे थोडा बहुत पढ़ कर आपको यह पता चल ही गया होगा कि मै एक कांग्रेस विरोधी नागरिक हूँ| वोट देने का अवसर मिले तो भाजपा ही फिलहाल पहली पसंद है| किन्तु वोट देने का मौका मिले तो सही| मेरी तो गलती यही है कि मै पढ़ा लिखा नागरिक हूँ| मुझे पहले पढ़ाई के लिये घर से दूर किसी अन्य शहर में आना पड़ा, फिर नौकरी के लिये भी अपने शहर से दूर ही रहना पड़ा| क्या करें ह मारे छोटे शहरों में कहाँ नौकरियां हैं? सरकारी नौकरी कोई देता नहीं ब्राह्मण जो ठहरा| अब चुनाव के दिन एक दिन की छुट्टी में मै अपने घर जा कर वोट देकर वापस भी आ जाऊं? चलो मै तो ऐसा करता ही हूँ, मेरा गृह नगर यहाँ से ३८० किमी की दूरी पर ही है, किन्तु उन लोगों का क्या जो हज़ारों मील की दूरी पर बैठे हैं? चुनाव प्रणाली चाहती है कि वे लोग एक दिन में यह काम पूरा कर लें, क्या यह संभव है? ऐसे में मारे जाते हैं भाजपा के अनगिनत वोट|

यकीन मानिए ऐसे अनगिनत वोट अधिकतर भाजपा के नाम पर पड़ने वाले ही होते हैं| अपने घर से कोसों दूर बैठे ये पढ़े लिखे नागरिक जिन्हें वोट देने का अधिकार तो है किन्तु समय नहीं| रही बात उच्च वर्ग के व्यापारियों कि तो उनमे से अधिकतर की पहली पसंद है कांग्रेस| कैसे? वो ऐसे कि अपने कई व्यापारी मित्रों को इसी की लालसा करते देखा है| सभी एक स्वर में बोलते हैं कांग्रेस की सरकार आ जाए तो हमारे ऊपर नीचे काम आसानी से हो जाते हैं| भाजपा के शासन में कुछ दिक्कत आती है|

राजस्थान में तो यही होता देखा है मैंने|

तीसरी गड़बड़ यह कि यहाँ जितना मज़ाक लोकतंत्र का उड़ता है उतना तो शायद दुनिया के किसी भी देश में नहीं होता होगा| कैसे? वो ऐसे कि १२० करोड़ की आबादी वाले देश में वोट पड़ते हैं ६० करोड़| जिनमे से जो दल ३० करोड़ की बाज़ी मार गया वो अपनी सरकार बना गया| किन्तु यहाँ इतने राजनैतिक दल हैं कि कोई एक दल तो यह बाज़ी मार नहीं सकता| गठबंधन तो जैसे कम्पलसरी है| जिसके पास २४-२५ करोड़ का आंकड़ा पहुच गया वह लगता है शेष ५-६ करोड़ के जुगाड़ में| ऐसे में काम आते हैं निर्दलीय उम्मीदवार| अब निर्दलीय उम्मीदवार का कंसेप्ट ही क्या है मुझे यह समझ नहीं आता| ये तो चुनाव लड़ते ही इसलिए हैं कि अंत के जुगाड़ में जो दल अधिक माल दे वहीँ अपने आपको बेच दें| किसी और का फायदा हो न हो इन्हें जरूर मलाई मिलती है| मज़े की बात तो यह है कि ऐसे उम्मीदवार जीतते भी हैं| अब इन्हें जिताने वालों से कोई पूछे कि क्या सोच कर उन्हें वोट दिया था कि यही हमारे देश की बागडोर संभालेगा, या हमारे मौसा जी का बेटा खड़ा हुआ था अत: जीता दिया| मै यह नहीं कहता कि सभी निर्दलीय उम्मीदवार बिकाऊ हैं, किन्तु इनका कंसेप्ट मेरी समझ के बाहर है| किसी प्रकार जोड़ तोड़ करके कुछ निर्दलीय व कुछ क्षेत्रीय दलों को मिला कर कोई एक दल सरकार बनाने का दावा तो कर देता है साथ ही इसे लोकतंत्र की जीत का उदाहरण जरूर बताता है| अब बताएं कि कहाँ है य हाँ लोकतंत्र? १२० करोड़ के देश में से केवल २५ करोड़ लोगों की पसंद को पूरे देश पर थोप दिया जाता है और जीत है ये लोकतंत्र की? देश की २०% आबादी हमारा नेता चुनती है और हम बन जाते हैं दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा?

तो यह कहानी है जनादेश(?) की| एक आम आदमी के उदाहरणों के साथ, ऐसा नहीं कि इन प्रोफ़ेसर ने यह कहा, उन डॉक्टर ने वह कहा, इस किताब में यह लिखा है उस किताब में वह लिखा है| जनादेश एक आम आदमी से जुड़ा है अत: आम आदमी की भाषा में मैंने इसे रखने की कोशिश की है|

सबकी अपनी मजबूरी होती है तो इसका मतलब यह नहीं कि यही निजाम हमेशा चलता रहेगा| विकल्प और भी बहुत से मिल जाएंगे| सबसे पहले तो होना यह चाहिए कि मतदाता को केवल उन्ही उम्मीदवारों के नाम पता हों जो कि प्रधान मंत्री पद के दावेदार हैं| इससे लाभ यह होगा कि मै रहने वाला राजस्थान का हूँ किन्तु कर्नाटक में बैठा भी अपने देश का नेतृत्व करने वाले को चुन सकता हूँ| मुझे अपने शहर जा कर किसी विशेष पोलिंग बूथ पर जाने की आवश्यकता नहीं है|

या एक तरीका यह हो सकता है कि एक ही व्यक्ति दो वोट डाले, एक तो अपने क्षेत्रीय उम्मीदवार के नाम और एक प्रधान मंत्री के नाम| कम से कम अपने घर से दूर बैठे व्यक्ति अपना प्रधान मंत्री तो चुन सकते हैं|

अगर यह भी संभव न हो तो ऐसी सुविधा दी जाए कि वोटिंग ऑनलाइन हो सके| मै देश के किसी भी कोने में बैठा अपने शहर के क्षेत्रीय उम्मीदवार को वोट दे सकूं| ऐसा बिल्कुल संभव है| और इसमें कोई गड़बड़ी की आशंका भी नहीं है| जब भारतीय प्रबंधन संस्थान (CAT ) की परीक्षा ऑनलाइन हो सकती है तो चुनाव क्यों नहीं? अब यह तो अजीब विडम्बना है कि हम मोबाइल से एसएम्एस करके इन्डियन आइडल या बिग बॉस तो चुन सकते हैं, किन्‍तु इन्टरनेट के उपयोग से प्रधान मंत्री नहीं चुन सकते|

देखते हैं शायद कभी न कभी इन विकल्पों को अपना लिया जाए| इतना तो मै आश्वस्त हूँ कि ऐसा होने पर कम से कम ये घटिया राजनीति खेलने वाली कांग्रेस तो किसी हालत में नहीं जीत पाएगी|

पनघटों पर पसरा सन्नाटा

बुजुर्गों की विरासत को भूल गये लोग जल स्तर गिरने से सूखे कुएं बावड़ी/ कचरा पात्र बने प्राचीन जल स्त्रोत

रघुवीर शर्मा

किसी दौर में एक गाना चला था –

…सुन-सुन रहट की आवाजें यूं लगे कहीं शहनाई बजे, आते ही मस्त बहारों के दुल्हन की तरह हर खेत सजे…

जिस दौर का यह गाना है उस वक्त गांवों के कुएं बावड़ियों पर ऐसा ही नजारा होता था। शायद यही नजारा देख गीतकार के मन में यह पंक्तियां लिखने की तमन्ना उठी होगी। लेकिन अब परिस्थितियां बदल गई है, गांवों में पनघटों पर पानी भरने वाली महिलाओं की पदचाप और रहट की शहनाई सी आवाज शांत है, और पनघट पर पसरा सन्नाटा है।

लोगों की जीवन रेखा सींचने वाले प्राचीन कुएं, बावड़ियां जो हर मौसम में लोगों की प्यास बुझाने थे कचरा डालने के काम के हो गये है। इन परंपरागत जलस्त्रोतों की इस हालत के लिए आधुनिक युग के तकनीक के साथ-साथ सरकारी मशीनरी और हम स्वयं जिम्मेदार है जिन्होंने इनका मौल नहीं समझा। आज भी इनकी कोई फिक्र नहीं कर रहा है। ना तो आम नागरिकों को भी इनकी परवाह है, और नाही सरकार व पेयजल संकट के लिए आंदोलन करने वाले जनप्रतिनिधियों और नेताओं को इनकी याद आती है। सभी पेयजल समस्या को सरकार की समस्या मान कर ज्ञापन सौपते है चक्काजाम करते है और अपनी जिम्मेदारी की इति मान कर चुप बैठ जाते है। सरकार भी जहां पानी उपलब्ध है वहां से पानी मंगाती है लोगों में बंटवाती है और अपने वोट सुरक्षित कर अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर अगले साल आने वाले संकट का इन्तजार करती रहती है।

सिर्फ बातें ही करते हैं

राजस्थान के कई कई कुओं, बावड़ियों में लोग कूड़ा-कचरा फेंक रहे हैं। सरकारी बैठकों में पानी समस्या पर चर्चा के समय कभी-कभी जनप्रतिनिधि और अधिकारी इन कुओं और बावड़ियों की उपयोगिता इसकी ठीक से सार सम्भाल पर बतिया तो लेते हैंं, लेकिन बैठक तक ही उसे याद रखतें हैंं। बाद में इन कुओं, बावड़ियों को सब भूल जाते हैं।

पेयजल स्त्रोत देखरेख के अभाव में बदहाल हो गए है व अब महज सिर्फ कचरा-पात्र बनकर के काम आ रहे है। वैसे तो राज्य व केन्द्र सरकार ने प्राचीन जलस्त्रोतों के रखरखाव के लिए कई योजनाएं बना रखी है लेकिन सरकारी मशीनरी की इच्छा शक्ति और राजनैतिक सुस्ती के चलते यह महज कागजी साबित हो रही हैं। इसी कारण क्षेत्र में प्राचीन जलस्त्रोतों का अस्तित्व समाप्त सा होता जा रहा है।

हैण्डपंपों व ट्यूबवेलों को कुआं मान पूजन करने लगे है

हाड़ोति समेत राजस्थान के हजारों प्राचीन कुएं, बावड़ियां जर्जर हालत में है। अनेक तो कूड़ा से भर चुके हैं। इनका पानी भी दूषित हो चुका है।

कुंए- बावड़ी जैसे जलस्त्रोतों का समय-समय पर होने वाले धार्मिक आयोजनों में भी विशेष महत्व होता था। शादी विवाह और बच्चों के जन्म के बाद कुआं पूजन की रस्म अदा की जाती थी लेकिन अब लोग कुओं की बिगड़ी हालत के कारण धार्मिक आयोजनों के समय हेण्डपंपों व ट्यूबवेलों को कुआं मान पूजन करने लगे है।

अकाल में निभाया था साथ

क्षेत्र में यह कुंए करीब डेढ सौ -दो सौ वर्ष पुराने हैं। कस्बे के बुजुर्ग लोगों ने बताया कि सन 1956 के अकाल में जब चारों और पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची थी, उस समय भी इन कुंओ में पानी नहीं रीता था और लोगों ने अपनी प्यास बुझाई थी।

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लेखक रघुवीर शर्मा कोटा के रहने वाले हैं. बचपन अभावों और संघर्षों के बीच गुजरा. ऑपरेटर के रूप में दैनिक नवज्‍योति से काम शुरू किया. मेहनत के बल पर संपादकीय विभाग में पहुंचे. लेखन और चिंतन करने का शौक है. वैचारिक स्‍वतंत्रता के समर्थक रघुवीर ब्‍लागर भी हैं. अपनी भावनाओं को अपने ब्‍लाग पर उकेरते रहते हैं.

ईसाइयत का लबादा और सत्य शोधक समाज

नन्दलाल शर्मा

धर्म भी कमाल की चीज़ है। हर कोई इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है। चाहे वो पिछड़ा वर्ग की राजनीति करने को हों या ब्राह्मणवाद और मनुवाद के खिलाफ लोगों को खड़ा करना हों। इसके लिए लोग झूठी कहानियाँ गढ़ते है, तो लम्बे चौड़े वादे भी करते हैं। बस यही कहानी है सत्य शोधक समाज की,जहाँ पिछड़ों और दलितों के हक का मुखौटा लगाकर लोगों को ईसाई धर्म के प्रति प्रेरित किया जाता है। जहाँ हिंदुत्व को जी भरकर गालियाँ दी जाती है और हवाला इस बात का दिया जाता है क़ि जहाँ -जहाँ ईसायत हैं वहां समानता , समभाव और एकरूपता विद्ममान है। पिछड़ों क़ि राजनीति के पीछे यहाँ, और भी बहुत कुछ है। यहाँ शराब औऱ कबाब का दौर है, तो हिन्दीं फिल्मों के गाने भी हैं। यहाँ प्रार्थनाओ के नाम पर हिंदी फिल्मों के गाने बड़े शौक से गाए जाते क्यों क़ि वो गाने किसी पिछड़े व्यक्ति ने लिखें हैं।

यह माना जा सकता हैं क़ि हिंन्दू समाज में कुछ खामियां है। यहाँ वर्ण व्यवस्था के चलते एक बड़ा वर्ग शोषण का शिकार हुआ हैं। जिसका प्रभाव आज भी देखा जा सकता है। क्यों कि प्रशासनिक या सार्वजनिक पदों पर कुछ वर्ण के लोगों का बोलबाला है और इसका प्रभाव आज भी विद्यमान है। और बाकी वर्ण के लोगों को इसका शिकार होना पड़ रहा है। इसी हक को पाने को लेकर कई संगठनों को निर्माण हुआ है। ये होना भी चाहिए क़ि लोग अपने हक के लिए लड़े। समाज में व्याप्त खामियों को दूर किया जाये।

लेकिन यहाँ सवाल यह उठता है क़ि जो लोग कहते है क़ि हिंन्दू धर्म में ब्राह्मणों का बोलबाला है और सब कुछ उन्होंने अपने लिए बनाया है। इसलिए हम इस धर्म को नहीं मानतें हैं। सही है, लेकिन क्या आप ने कभी इस धर्म को उन ब्राह्मणों और मनुवाद के समर्थको से मुक्ति दिलानें के बारे में सोचा। बजाय इसके कि लोगों को ईसायत को अपनाने के प्रति उकसाया जाय।

सत्य शोधक समाज की उस महफिल में जिस दिन हम लोग पहुंचें। उस दिन लोगों का जमावड़ा कुछ ज्यादा ही था। क्यों क़ि उस दिन कुछ विशेष लोगों का आगमन वहां हुआ था। आराम से कुर्सियों पर पैर तान कर बैठे अमेरिकी बड़े मजे से हिंदू धर्म और ब्राह्मणवाद के लिए दी जा रही गालियों का मजा ले रहे थे। फिर बिहार से आये कुछ लोगों ने ईसायत के चमत्कार क़ि कहानियाँ भी सुनायी क़ि किस तरह उनके द्वारा क़ि गयी प्रार्थना से मरे हुए लोग भी जिन्दा हों गए और गॉड के प्रति उनकी आस्था बढ़ती गयी। फिर हिंदी फिल्मों के गीतों के माध्यम से भजन हुए और अमेरिका से आये गोरों ने बाइबिल क़ि लाइनें पढ़ी और सभी लोगों ने खड़े होकर गॉड को धन्यवाद किया। इस दौरान लोगों को चाय भी उपलब्ध कराई गयी और लोगों ने इसका भरपूर लुत्फ उठाया।

तभी सत्य शोधक समाज के दिनेश कुमार हमें मिले और गिनाने लगे एक-एक खामियां हिन्दू धर्म क़ि और निकलने लगी गालियाँ सवर्णों को। इस बात को स्वीकारने में मुझे कोई ऐतराज नहीं क़ि सामाजिक रूप से व्याप्त कुछ बड़ी खामियों को उन्होंने गिनाया। लेकिन जिस तरह से उन्होंने ने कहा क़ि ईसायत ही सब कुछ है। इस धर्म से ही हमें मुक्ति क़ि उम्मीद करनी चाहिए।

इसी बीच सत्य शोधक समाज के सरदार आये और हम लोग उनके साथ अंदर चले गए। सुनील सरदार ने सभी लोगों की गिनती की और मटन- चावल तैयार करने का आर्डर दे दिया। साथ ही हमसें भी कहा कि खाकर जाना तुम लोग। कुछ लोगों ने उनकी हाँ में सर हिलाते हुए हामी भर दी। सामने वाले कमरे में कुछ शानदार कुर्सियां और टेबल पड़े थें।

सरदार ने उसके बाद अमेरिकी फिरंगियों को बुलाया। जिनमें कुछ खुबसूरत जिस्म की मल्लिकाएं भी शामिल थी। उसके बाद अमेरिकी चर्च के उन धर्मावलम्बियों ने कुर्सियों पर कब्जा किया। जो लोग यहाँ के लोकल थें। उन्हें जमीन पर बैठने को कह दिया गया। कुछ देर हिंदुस्तान के राजनीतिक हालात पर चर्चा होती रही, तो पिछड़ों को लेकर गर्मागर्म बहस भी हुई।

अचानक दरवाजा खुलता है, और हमारे पीछे एक नौकर बीयर की चार-पांच बोतलें और साथ में चखना लिए खड़ा था। हमें पता चल गया था की अब यहाँ क्या होने वाला है, और तभी मेरे मित्र चलने का आग्रह किया और हम लोग वहां से चलते बने क्यों की शराब और शबाब की लत को हमने गले नहीं लगाया है

वहां से आते हुए रास्ते भर उनकी ही चर्चा होती रही कि किस तरह पिछड़ों और दलितों के नाम का मुखौटा लगाकर लोग अपनी पाकेट की चाशनी को बनाये रखे हुए है……भला हों ऐसे लोगों का….

अनामिका घटक की कविता – नि:शब्द

खामोश हम तुम

बात ज़िन्दगी से

आँखों ने कुछ कहा

धड़कन सुन रही है

धरती से अम्बर तक

नि:शब्द संगीत है

मौसम की शोखियाँ भी

आज चुप-चुप सी है

गीत भी दिल से

होंठ तक न आ पाए

बात दिल की

दिल में ही रह जाए

जिस्मों की खुशबू ने

पवन महकाया है

खामोशी को ख़ामोशी ने

चुपके से बुलाया है

प्यार की बातों को

अबोला ही रहने दो

नि:शब्द इस गूँज को

शब्दों में न ढलने दो

प्यार के भावो को

शब्दों में मत बांधो

चुपके से इस दिल से

संगीत का स्वर बांधो

स्वर ही है इस मन के

भावों को है दर्शाती

प्यार जो चुप चुप है

जुबां से निकल आती