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जन-क्रांति की रक्षा करना भी जनता का कर्तव्य है

श्रीराम तिवारी

एक लोक कथा है ……एक गाँव में खेती किसानी करने वाले किसान रहते थे, उस गाँव में एक जमींदार हुआ करता था. गाँव में दो कुए थे, एक कुआं पूरे गाँव के लिए दूसरा सिर्फ जमींदार के लिए.जमींदार का कुआं उसकी बड़ी-सी हवेली की चहार दीवारी के अंदर था. इसीलिये जमींदार के कुएं का पानी सुरक्षित था. गाँव वाला याने जनता का कुआं सभी गाँववालों को उपलब्ध था ,बाहर से आने वाले राहगीर भी उसी कुएं के पास जा मुन के पेड़ की छाँव में विश्राम करते और जनता के कुएं का पानी पीते ,वहीं नहाते धोते. एक बार एक महात्मा जी उस गाँव से गुजरे ,वहीं कुएं की जगत पर बैठ कर हुक्का गुडगुडाया और कोई जडी-मूसली चुटकी भर फांकी और आगे की ओर चल दिए.बाबाजी ने जो जडी बूटी फाँकी उसका थोडा सा हिस्सा कुएं के पानी में जा मिला.गाँव वालों ने जब पानी पिया तो वे सभी असमान्य {पागलपन} व्यवहार करने लगे. जो किसान कल तक जमींदार का आदाब करते थे, उसकी चिरोरी करते थे वे सभी अब इस कुएं के पानी में मिली बाबाजी की जडी-बूटी के प्रभाव से निडर होकर जमींदार का तिरस्कार करने लगे, उसकी बेगारी से इंकार करने लगे, वे आपस में चर्चाओं में जमींदार को पागल कहने लगे. जमींदार से डरने के बजाय उसे डराने लगे. यहाँ तक नौबत आ पहुंची कि जब जमींदार ने अपने लाठेतों की मार्फ़त जनता को दबाना चाहा तो गाँव के किसान मजदूर-आवाल- वृद्ध सभी के सभी जमींदार की हवेली को चारों ओर से घेरकर आग लगाने को उद्यत हो गए.

किस्सा कोताह ये कि जमींदार की हालत हुस्नी मुबारक जैसी होने लगी तो उसके चतुर सुजान कारिंदों ने जमींदार के नमक का हक अदा करते हुए यह अनमोल सुझाव दिया कि श्रीमान जमींदार साहब -ये किसान स्त्री -पुरुष -बच्चे -बूढ़े इसलिए बेखौफ हो गए हैं कि इन्होंने गाँव के जिस कुएं का पानी पिया है उसमें किसी बाबाजी कि जादुई भस्म उड़ कर मिल गई थी; सो उस पानी को पीकर ये सभी जो कल तक आपके गुलाम थे; वे बौरा गए हैं. अब यदि आप उनसे बुरा बर्ताव करेंगे या उन पर घातक आक्रमण करेंगे तो वे आपको जिन्दा नहीं छोड़ेंगे. जमींदार ने अपने विश्वसनीय कारिंदों से गंभीर सलाह मशविरा किया और निर्णय लिया कि जनता के कुएं का पानी मंगाया जाये.जनता के कुएं का पानी पीकर जमींदार जब जनता के सामने आया तो उसे सामने अकेले निहत्था खड़ा देखकर भी जनता ने उस पर आक्रमण करने के बजाय जमींदार- जिंदाबाद के नारे लगाए. गाँव वाले स ब आपस में कहने लगे कि हमारा जमींदार अब अच्छा हो गया है. अब हम जमींदार कि बात मानेगे.बेगारी करेंगे, जमीदार जुग-जुग जियें …… दुनिया के जिस किसी भी मुल्क कि जनता-वैचारिक जडी-बूटी खा-पीकर जब इस तरह से बौरा जाती (क्रान्तिकारी हो जाती) है तो सत्ता-शिखर की सुरक्षा में, क्रान्ति को दबाने में उन्ही मूल्यों की जडी-बूटी पीकर शासक वर्ग सुरक्षित बच निकलने की कोशिश करता है. बराक ओबामा का भारत और चीन के विरुद्ध अमेरिकी युवाओं का आह्वान, दिवालिया कम्पनियों को वेळ आउट पैकेज, अपने निर्यातकों को संरक्षण और विदेशी आयातकों पर प्रतिबन्ध- ये सभी व्यवहार हृदय-परिवर्तन या जन-कल्याण के हेतु नहीं हैं.यह सरासर धोखाधड़ी है. अपने वित्त पोषकों (राजनैतिक पार्टी कोष में चंदे का धंधा) को उपकृत करना ही एकमात्र ध्येय है. जमींदार ने गाँव के कुएं का गंदा पानी इसलिए नहीं पिया कि वो गाँव की जनता को भ्रातृत्व भाव से चाहने लगा था बल्कि गाँव के लोगों को ठगने के लिए ;क्रांति को कुचलने के लिए यह सत्कर्म किया था.वर्तमान पूंजीवादी-साम्राज्यवाद भी इसी तरह कभी चिली में ,कभी क्यूबा में ,कभी वियतनाम में ,कभी कोरिया में ,कभी अफ्गानिस्तान में और कभी इजिप्ट में ऐसे ही प्रयोग किया करता है ….

पाकिस्तान का परवेज मुशर्रफ- जिसने पाकिस्तान का सत्यानाश तो किया ही भारत के खिलाफ भी अनेकों घटिया हरकतें कीं थीं , यह आज दुनिया के सबसे महंगे जर्मन हॉस्पिटल का लुफ्त उठा रहा है. ट्युनिसिया का भगोड़ा राष्ट्रपति ,फिलिपीन्स का मार्कोश , उगांडा का ईदी अमीन -सबके-सब अपने-अपने दौर में जीवन-पर्यन्त सत्ता सुख भोगते रहे और जब जन-विद्रोह के आसार नजर आये तो अमेरिका या ब्रिटेन में मुहँ छिपा कर बैठ गए या जनता के बीच में आकार खुद ही छाती पीटने लगे और कभी-कभार अपनों के हाथों तो कभी विदेशियों के हाथों सद्दाम कि मौत मारे गए.वर्तमान वैश्विक आर्थिक संकट से तब तक निजात मिल पाना असम्भव है, जब तक कि श्रम के मूल्य का उचित वैज्ञानिक निर्धारण नहीं हो जाता और असमानता कि खाई पाटने की ईमानदार कोशिश नहीं की जाती.शासक वर्ग यदि अपने पूर्ववर्ती शासकों की ”लाभ-शुभ” केन्द्रित राज¯-संचलन व्यवस्था को नहीं पलटता और उसके नीति-निर्देशक सिद्धांतों में सम्पत्ति के निजी अधिकार से ऊपर जनता के सामूहिक स्वामित्व को प्रमुखता नहीं देता तब तक वर्गीय समाज रहेगा. जब तक वर्गीय समाज है तो उनमें अपने हितों के लिए संघर्ष चलता रहेगा. इस संघर्ष के परिणाम स्वरूप यदि सत्ता वास्तविक रूप से जनता के हाथों में नहीं आती तो आंतरिक उठा-पटक की मशक्कत बेकार है.इतिहास के अनुभव बताते हैं कि अंधे पीसें कुत्ते खाएं …कई मर्तबा ईमानदार क्रान्तिकारी नौजवानों ने शहादतें दी और सत्ता पर कोई और जा बैठा. ईराक, अफगानिस्तान कि तरह कहीं मिस्र में भी अमेरिकी एजेंट सत्ता न संभाल लें? अन्याय और शोषण से लड़ने , अपने हक के लिए संघर्ष करने जैसे पवित्र और पुनीत कार्य दुनिया में अन्य कोई भी नहीं किन्तु जोश के साथ-साथ जनता के नेतृत्व का होश भी बहुत जरुरी है, नेतृत्व-निष्ठा पाकिस्‍तानी शासक जैसी सम्राज्य-परस्त और भारत-विरोधी हो तो वो दुनिया में कितनी भी पवित्र हो हमें मंजूर नहीं करना चाहिए.दुनिया में किसी भी जन-आक्रोश या जन-उभार के प्रति भारतीय जन-गण की प्रतिक्रिया उसके राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय हितों के परिप्रेक्ष्य में ही दी जानी चाहिए.

भारत के स्वाधीनता-संग्राम का इतिहास साक्षी है कि देश के लिए कुर्बान होने वाले किसान-मजदूर-नौजवान जिस विचारधारा से प्रेरित होकर हँसते-हँसते फांसी के तख्ते पर चढ़े उसको विदेशी शासकों के देशी एजेंटों ने हासिये पर धकेल दिया है. भारतीय संविधान-निर्माताओं ने तो उन अमर शहीदों के सपनों को साकार करने वाले नीति-निर्देशक सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है, किन्तु स्वातन्त्रोत्तर काल में परिवर्ती शासकों ने विदेशी श्वेत प्रभुवर्ग की जगह स्वदेशी भूस्वामियों, सरमायेदारों की प्रतिमा का चरणवंदन ही किया है.भारत में आइन्दा जो भी राजनैतिक बदलाव हो वह यकीनी तौर पर सुनिश्चित हो कि धर्म, जाति, वर्ण, भाषा या रूप रंग से परे आर्थिक समानता के निमित्त वास्तविक संवैधानिक गारंटी हो. इजिप्ट या अन्य विकासशील देशों से इतर भारत में जन उभार धीमें-धीमे परवान चढ़ता है वैसे तो वर्तमान में बेतहाशा महंगाई, बेरोजगारी, भयानक भृष्टचार सारी दुनिया में व्याप्त है, सारा विश्व उसी मांद का पानी पिए हुए है जिसका कि मिस्र ने पी रखा है यह जन-उभार कि आंधी किसी भी राष्ट्र को बख्शने वाली नहीं. बारी-बारी सबकी बारी.जनक्रांति कि भी जनता को ही करनी होगी रखवारी.

मजबूरी नहीं हाईप्रोफाइल धंधा बन गया है देहव्यापार

विनोद उपाध्याय

पिछले एक सप्ताह में हमें दो खबरे पढऩे को मिली। एक तो यह की जेएनयू में किस तरह सेक्स रैकेट का जाल फैल रहा है और दूसरी यह की उत्तर मध्य मुंबई की सांसद प्रिया दत्त ने मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर यह कहकर एक नई बहस छेड़ दी है कि देह व्यापार को कानूनी मान्यता दे देना चाहिए। मुंबई के रेड लाइट एरिया की महिलाओं पर रिसर्च कर चुकीं प्रिया ने संवाददाताओं से चर्चा में कहा,’उन पर काम के दौरान मैंने महसूस किया कि हर महिला की अलग ही कहानी है। यह बहुत पुराना पेशा है,जिसे चाहकर भी नकारा नहीं जा सकता।’ उन्होंने कहा कि बंद कमरों की अपनी दुनिया में हम इन महिलाओं को नजरअंदाज करते हैं। साथ ही उन्हें कई तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है। उनकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए कानूनी मान्यता देना जरूरी है। अब सवाल यह उठता है कि किस को कानूनी मान्यता दी जाए। क्योंकि देश भर के रेड लाइट एरिया में जो देहव्यापार हो रहा है उसका कारण मजबूरी है और बिना कानूनी मान्यता के वर्षो से चल रहा है तथा चलता रहेगा। तो क्या फिर जो देहव्यापार जेएनयू या आलीशान होटलों और बंगलों में चल रहा उसको कानूनी मान्यता देनी चाहिए।

भारत के कुछ राज्यों के कुछ क्षेत्रों में आज भी देहव्यापार भले ही एक छोटी आबादी के लिए रोजी रोटी का जरिया बना हुआ है लेकिन पिछले कुछ महिनों में जिस देहव्यापार के हाईप्रोफाइल मामले सामने आए हैं उससे यह बात तो साफ हो गई है कि देहव्यापार अब केवल मजबूरी न होकर धनवान बनने का एक हाईप्रोफाइल धंधा बन गया है। नेता,अभिनेता और धर्माचार्य भी इस धंधे को चला रहे हैं।

देहव्यापार दुनिया के पुराने धंधों में से एक है। बेबीलोन के मंदिरों से लेकर भारत के मंदिरों में देवदासी प्रथा वेश्यावृत्ति का आदिम रूप है। गुलाम व्यवस्था में उनके मालिक वेश्याएं पालते थे। अनेक गुलाम मालिकों ने वेश्यालय भी खोले। तब वेश्याएं संपदा और शक्ति की प्रतीक मानी जाती थीं। मुगलों के हरम में सैकड़ों औरतें रहती थीं। मुगलकाल के बाद, जब अंग्रेजों ने भारत पर अधिकार किया तो इस धंधे का स्वरूप बदलने लगा। इस समय राजाओं ने अंग्रेजों को खुश करने के लिए तवायफों को तोहफे के रूप में पेश किया जाता था। आधुनिक पूंजीवादी समाज में वेश्यावृत्ति के फलने-फूलने की मुख्य वजह सामाजिक तौर पर स्त्री का वस्तुकरण है। यह तो पूराने दौर की कहानी है, जहां आपको मजबूरी दिखती होगी।

पुराने वक्त के कोठों से निकल कर देह व्यापार का धंधा अब वेबसाइटों तक पहुंच गया है। इंफॉरमेशन टेक्नोलॉजी के मामले में पिछड़ी पुलिस के लिए इस नेटवर्क को भेदना खासा मेहनत वाला सबब बन गया है। सिर्फ सर्च इंजन पर अपनी जरूरत लिखकर सर्च करने से ऐसी दर्जनों साइट्स के लिंक मिल जाएंगे। कुछ वेबसाइटों पर लड़कियों की तस्वीरें भी दिखाई गई हैं। यहां कालेज छात्राएं, मॉडल्स और टीवी व फिल्मों की नायिकाएं तक उपलब्ध कराने के दावे किए गए हैं।

इस कारोबार में विदेशी लड़कियों के साथ मॉडल्स, कॉलेज गल्र्स और बहुत जल्दी ऊंची छलांग लगाने की मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षी लड़कियों की संख्या भी बढ़ रही है। अब दलालों की पहचान मुश्किल हो गई है। इनकी वेशभूषा, पहनावा व भाषा हाई प्रोफाइल है और उनका काम करने का ढंग पूरी तरह सुरक्षित है। यह न केवल विदेशों से कॉलगर्ल्स मंगाते हैं बल्कि बड़ी कंपनियों के मेहमानों के साथ कॉलगर्ल्स को विदेश की सैर भी कराते हैं। सेक्स एक बड़े कारोबार के रूप में परिवर्तित हो चुका है। इस कारोबार को चलाने के लिए बाकयादा ऑफिस खोले जा रहे हैं। इंटरनेट और मोबाइल पर आने वाली सूचनाओं के आधार पर कॉलगर्ल्स की बुकिंग होती है। ईमेल या मोबाइल पर ही ग्राहक को डिलीवरी का स्थान बता दिया जाता है। कॉलगर्ल्स को ठेके पर या फिर वेतन पर रखा जाता हैं।

भीमानंद, इच्छाधारी बाबा का चोला पहन कर देह व्यापार का धंधा करवाता था। उसके संपर्क में 600 लड़कियां थीं। इनमें से 50 लड़कियां केवल बाबा के लिए ही काम करती थी। लड़कियों के रेट का 40 फीसदी कमीशन बाबा अपने पास रखता था। बाबा ने अलग-अलग लड़कियों के अलग-अलग रेट रख रखे थे। मॉडल के लिए 50 हजार, स्टूडेंट के लिए 20 हजार और हाउसवाइफ के लिए 10 हजार। इन लड़कियों को देश भर में फैले बाबा के एजेंट लाते थे।

हाल ही में कई सेक्स रैकेट का खुलास हुआ है। इसमें दक्षिण भारत के बेंगलूरू और हैदराबाद में बड़े-बड़े रैकेट पकड़े गए हैं। बेंगलूरू के सेक्स रैकेट ने तो पूरे देश को हिला रखा है। एक पांच सितारा मशहूर होटल से दक्षिण भारतीय फिल्मों की अभिनेत्री यमुना के साथ दलाल सुमन और एक आईटी कंपनी के सीईओ वेणुगोपाल को गिरफ्तार किया गया था। जो शहर के तमाम बड़े होटलों में बड़ी-बड़ी पार्टियों के बहाने सेक्स रैकेट चलता था। जांच से पता चला है कि यमुना, सोची-समझी नीति के तहत करती थी, ताकि पकड़े जाने पर वह आपसी सहमति से सेक्स की दलील देकर खुद को रैकेट में शामिल होने के आरोप से बचा सके। यह रैकेट किसी कोठे पर नहीं थ्री स्टार और फाइव स्टार होटलों में ही चलता था। रैकेट में मजबूर नहीं ग्लैमरस महिलाएं शामिल हैं। बड़ी और नामी हिरोइन भी बड़े-बड़े अधिकारियों की ‘सेवाÓ के लिए तैयार रहती हैं।

हैदराबाद में तेलुगू फिल्म अभिनेत्रियों सायरा बानू और च्योति के साथ सात अन्य लोगों को रंगे हाथ पकड़कर वेश्यावृत्ति से जुड़े एक गिरोह का भंडाफोड़ किया गया। कुंदन बाग के एक नजदीकी इलाके के एक अपार्टमेंट से कथित तौर पर सायरा और च्योति को उज्बेकिस्तान की एक महिला व उनके ग्राहकों के साथ गिरफ्तार किया गया। गिरोह में कुछ रईसों और जाने माने लोगों शामिल हैं।

हाल ही में गोवा में एक सेक्स रैकेट पकड़ा गया है। यहां के पाउला क्षेत्र से दो दलालों सहित चार नेपाली लड़कियों को पकड़ा गया। इन लड़कियों से जबरन देह व्यापार कराया जा रहा था। इनमें से एक लड़की नाबालिग थी। पुलिस के मुताबिक इस तरह के रैकेट आई टी के मशहूर बैंगलोर में भी काफी संख्या में हैं। फिलहाल पुलिस के पास पुख्ता सबूत नहीं है इसलिए वो कुछ भी कहने से बच रही है।

21 जनवरी को अहमदाबाद के इनकम टेक्स चार रस्ता के नजदीक कॉमर्शियल सेंटर में आने वाले होटल देव पैलेस से सेक्स रैकेट में शामिल एक भोजपूरी हिरोइन को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के दौरान केवल जवान और अय्याश ही नहीं बच्चे भी शामिल थे।

देश का ख्यातिनाम विश्वविद्यालय जेएनयू या फिर देश का कोई अन्य कॉलेज वहां पढऩे वाली कई छात्राएं अपनी पढ़ाई का खर्च जुटाने के लिए देह व्यापार करती हैं। पिछले दस वर्षों में विद्यार्थियों में देह व्यापार तीन फ़ीसदी से बढ़कर 25 फ़ीसदी तक पहुंच गया है। कॉलेज में ट्यूशन फीस ज़्यादा होने के वजह से विद्यार्थियों को ‘इंटरनेट पर अश्लील फि़ल्मÓ, ‘अश्लील बातेंÓ और ‘लैप डांसÓ जैसा काम करना पड़ता है। देश में कऱीब 5 फ़ीसदी विद्यार्थी एस्कोर्ट का काम करने के विकल्प को मान लेते हैं या विचार करते हैं। हाई प्रोफाइल सेक्सकर्मी को एस्कोर्ट कहा जाता है। वहीं, कई अमीर लड़कियां अपने महंगे शौक को पूरा करने के लिए भी धंधा करती हैं।

भारत में देहव्यापार के व्यवसाय में गोरी चमड़ी वाली विदेशी बालाओं का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। इनमें खासकर सोवियत संघ से अलग हुए राष्ट्रों खूबसूरत और मस्त अदाओं वाली लड़कियां, जो पूरी तरह से देखने में आकर्षित लगती हैं, इस धंधे में भाग ले रही है। एक अनुमान के मुताबिक पाटनगर दिल्ली में मौजूदा समय में 3000 विदेशी लड़कियां मौजूद हैं। यहां पर लड़कियां अपने खूबसूरत चेहरे के दम पर अच्छा-खासा पैसा कमा रही हैं। इन लड़कियों का मकसद एकदम साफ है। भारत में अपना शरीर बेचने के बाद लड़कियां अपने वतन वापस जाकर घर बनाती है, कुछ परिवार को पैसा भेजती रहती है। जांच में पता चला कि इन लड़कियों को भारत लाने के लिए व्यवस्थित नेटवर्क बना हुआ है। उपरोक्त राष्ट्रों की अनेक आंटियां काफी समय से दिल्ली में स्थायी रुप से निवास कर चुकी हैं। इन आंटियों का भारत में वेश्या दलालों के साथ गठबंधन है। विदेश से आती गोरी युवतियों का संपूर्ण संचालन ये आंटियां ही करती हैं साथ ही देशी दलाल और ग्राहक ढूढ़कर कमीशन भी बनाती है। देह व्यापार का यह धंधा सिर्फ दिल्ली और मुंबई में ही नहीं चलता बल्कि पूरे भारत में यह धंधा जोर पकड़ चुका है। देहव्यापार करके कई तरह के शौख पूरा करना इन गोरी लड़कियों का पेशा बन गया है। लड़कियां प्लेजर ट्रीप्स, बिजनेस मीट्स, कॉर्पोरेट इवेंट्स, फंक्शन और डिन डेट्स के लिए भी उपलब्ध होती हैं। कई लड़कियां तो नाइट क्लबों में वेटर्स या बेले डांसर का रुप धारण कर धंधे के लिए तैयार हो जाती हैं।

हिंदुस्तानी पुरुषों को अब सांवली या फिर खूबसूरत वेश्या या कॉलगर्ल में रस नहीं रह गया है। अब भारतीय पुरुष गोरी बालाओं के दीवाने हो गए हैं। इसके लिए वे अच्छा-खासा पैसा खर्च करने के लिए तैयार भी हो जाते हैं। रशियन लड़कियों का मिनिमम चार्ज दो हजार से 8 हजार रुपया है। अधिकतम चार्ज की कोई सीमा नहीं है। लड़कियों के पीछे काफी पैसा खर्च करके ग्राहकों से मोटी रकम वसूल की जाती है।

अमीर और अधिकारी वर्ग के लोगों में गोरी त्वचा वाली विदेशी लड़कियों का क्रेज चल रहा है। यहां पर पहले तो नेपाली लड़कियों की ज्यादा डिमांड थी। भारतीय युवतियों की अपेक्षा नेपाली लड़कियों की कीमत 40 फीसदी ज्यादा थी लेकिन अब जमाना रशियन लड़कियों का है। देहव्यापार के धंधे में शामिल एक भारतीय लड़की का कहना है कि रशियन लड़की अपने शरीर को पूरी तरह से ग्राहक के हवाले कर देती हैं लेकिन हम ऐसा नहीं कर पाते।

भारत में देहव्यापार का धंधा लगातार बढ़ रहा है। 1956 में पीटा कानून के तहत वेश्यावृत्ति को कानूनी वैद्यता दी गई, पर 1986 में इसमें संशोधन करके कई शर्तें जोड़ी गई। इसके तहत सार्वजनिक सेक्स को अपराध माना गया। इसमें सजा का भी प्रावधान है। वूमेन एंड चाइल्ड डेवलेपमेंट मिनिस्ट्री ने 2007 में एक रिपोर्ट दिया, इसके मुताबिक, 30 लाख औरतें देहव्यापार का धंधा करती हैं। इममें 36 फीसदी तो नाबालिग हैं। अकेले मुंबई में 2 लाख सेक्स वर्कर का परिवार रहता है, जो पूरे मध्य एशिया में सबसे बड़ा है।

मंडला में हर साल नर्मदा जयंती पर होगा भव्य आयोजन-शिवराज सिंह चौहान

मनोज मर्दन त्रिवेदी की रिपोर्ट

पवित्र नर्मदा तट मंडला में जो सामाजिक कुंभ आयोजित किया गया है निश्चित रूप से इससे अमृत निकलकर आयेगा। इस समाजिक समारोह के आयोजन से केंद्र सरकार को भारी परेशानी हो रही है उन्होंने देश की सारी समस्याओं को दरकिनार कर केवल इसी पर ध्यान केंद्रित कर दिया है। उन्हें मैंने जवाब दे दिया है कि यहां कि चिंता मैं कर रहा हूं आप देश की अन्य गंभीर समस्याओं की चिंता करें।

इस प्रकार के उदगार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने मंडला में आयोजित सामाजिक कुंभ के उदघाटन अवसर पर उपस्थित जनसमुदाय संबोंधित करते हुये कही। उन्होंने मंडला जिले के गौरवशाली इतिहास का उल्लेख करते हुये कहा कि देश की आजादी अंग्रेजों ने तस्तरी पर परोस कर नहीं दी थी, इसके लिये हजारों व्यक्तियों ने अपना गर्म लहु बहाया है और इस आजादी की लड़ाई में मंडला जिले का योगदान भी और आदिवासी समाज का योगदान हमारे लिये प्रेरणा प्रदान करने वाला गौरवशाली इतिहास मंडला जिले के आदिवासी राजाओं ने कभी भी मुगलों और अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं की है जिन आदिवासी वीरों ने देश की स्वाधीनता के लिये अपने प्राणों आहूतियां दी है उनकी स्मृति में अनेक स्मारक बन गये है या बनाये जाने का क्रम जारी है मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चैहान ने कहा कि गांधी जी का अहिंसक आंदोलन निःसंदेह प्रातः स्मरणीय है। मैं स्वयं उनका समर्थक हूं परंतु जिन वीरों ने अपने प्राणों की आहूतियां दी है उनके प्रति श्रद्धा से हमारा सिर झुकना ही चाहिये। मंडला के गौरव शंकर शाह रघुनाथ शाह, वीरांगना रानी दुर्गावती संपूर्ण समाज के लिये प्रेरणादायी है।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि नर्मदा सामाजिक कुंभ सामाजिक समरसता के लिये आवश्‍यक है और अच्छी पहल है इस यज्ञ में प्रदेश सरकार की भूमिका यज्ञ में गिलहरी की तरह होने का हमें गर्व है। शिवराज सिंह चैहान ने नर्मदा नदी के चारों और परिक्रमा पथ का निर्माण के साथ विंध्‍याचल हिमाचल के दोनों के पर्वतों को हरा भरा करने तथा समाज और सरकार के सहयोग से नर्मदा के चारों और वृक्षारोपण करने की बात कही। उन्होंने मंडला में हर साल नर्मदा जयंति पर भव्य आयोजन की घोषणा की है । मुख्यमंत्री श्री चैहान ने मानसरोवर यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं का आधा खर्च सरकारी खजाने से देने की बात भी कहीं है ।

हमारे पूर्वजों का सम्मान करने वाले और भारत की उन्नति के विचार वाले सभी व्यक्ति हिंदु है-भागवत

हर वह व्यक्ति  जो हमारे ऋषि मुनियों पूर्वजों द्वारा दिये गये संस्कारों का सम्मान करते है  और भारत की उन्‍नति करने में अपना योगदान देता है भारत माता की सेवा का संकल्प लेता है और इस राष्ट्र  के संस्कारित विकास की भावना रखता है वह हमारा भाई है और वहीं हिंदु है। इस प्रकार की स्पष्ट बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने मंडला सामाजिक कुंभ के उदघाटन अवसर पर कही और उन्होंने कहा कि हम जो काम कर रहे है वह पवित्र काम है काम करने में संकोच नहीं होना चाहिये हमें संस्कार सहित विकास चाहिये जो भारत वर्ष के सनातन विचारों से यह संभव है, सर्वधर्म संभाव पर बोलते हुये उन्होंने कहा कि जब सब धर्म समान है तो हमारा धर्म बुरा क्यों ? हमें अपने धर्म के प्रति क्रियाशील होना पड़ेगा आचरण और संकल्प लेना पड़ेगा तभी सामाजिक एकता और सामाजिक समरसता का विकास होगा। उन्होंने इस बात का आह्वान किया कि समाज के जिस वर्ग और व्यक्ति के पास जो भी विशिष्‍टतांए है उनका देश हित में अधिक से अधिक उपयोग किया जाये और पूरी संकल्प शक्ति के साथ राष्ट्र के विकास के लिये संकल्पित हो समाज को जागृत करने की आवष्यकता है जो लाभ प्रलोभन के चलते अन्य धर्मों के प्रति आकृषित हो गये है। उन्हें विश्‍वासपूर्वक उनके मूल संस्कारों की ओर लौटने  पर हमें कोई आपत्ति नहीं और विधर्मियों द्वारा धर्मातंरण से समाज को जाग्रत कर उनके प्रयासों को रोकने के सकारात्मक प्रयास होने चाहिये हमारे दीनहीन बंधुओं में हमें विश्‍वास जगाना होगा कि पूरा समाज उनके साथ खड़ा हुआ है  स्वास्थ्य शिक्षा के क्षेत्र में हमें तेजी से कार्यों को बढ़ाना है और यह कार्य समाज को ही करना पड़ेगा। उन्होंने कहा हमारे पास जो शक्ति बुद्धि और जो ज्ञान है उसका विनियोग समाज के विकास में करना चाहिये।

नर्मदा सामाजिक कुंभ उदघाटन अवसर पर हरिद्धार स्थित भारत माता मंदिर के संस्थापक संत स्वामी श्री सत्य मित्रा नंद जी महाराज ने कहा कि मां नर्मदा में की गई साधना सिद्धि दिलाती है। उन्होंने कहा कि भारत ही ऐसा पवित्र ऋषि मुनि का देश है जहां चरित्र व्यक्ति की पहचान बनता है संस्कारों को अधिक महत्व दिया जाता है उन्होंने कुंभ में आये व्यक्तियों से आह्वान किया कि जहां अपने व्यसनों को त्याग कर व्यस्न मुक्त समाज और राष्ट्र निर्माण का संकल्प लेने की बात कही।

उपस्थित श्रद्धालुओं को विश्‍व हिन्दु परिषद के अंतरराष्ट्रीय महामंत्री प्रवीण तोगड़िया ने भी संबोधित किया और कहा कि हमारी जाति भाषा भिन्न है और विधिताओ बावजूद भी हमारे संस्कार और राष्‍ट्रीय चेतना के स्वर एक है हम सभी भारत माता के पूजक है और हम सभी हिंदु है आज हिंदु समाज जाति में बंटा है और ऐसी कमजोरी के चलते विधर्मी धर्मांतरण का कुचक्र चला रहे है। श्री तोगड़िया ने धर्मांतरण पर आरक्षण का फायदा देने का विरोध किया और इसे अनैतिक और असंवैधानिक बताया उन्होंने इसके विरूद्ध कड़ा कानून बनाने की बात भी कही।

उन्होंने धर्मांतरित व्यक्तियों को अनुसूचित जाति में शामिल  नहीं करने की बात कहीं उन्होंने समाज से आह्वान किया कि जिस क्षेत्र में धर्मांतरण का प्रभाव है या जहां धर्मातंरण करने वाली मिषनरियां सक्रिय है या ऐसी संभावना है वहां शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधायें प्रदान करने में समाज को हिस्सेदारी करना चाहिये और हमारे ऐसे प्रयासों से धर्मांतरण रूकेगा।

रा.स्‍व. संघ के सहसरकार्यवाह सुरेश सोनी ने अपने संक्षिप्त संबोधन में कहा कि सभी व्यक्तियों के अंदर ईश्‍वर का अंश है जिसका सीधा संबंध आत्मा से है। हम सभी को व्यवहार में परिवर्तन लाकर कुंभ से लौटने के बाद समाज में आत्मीयता का बोध लाना होगा। इसके अलावा कुंभ उद्घाटन अवसर पर पूज्य संत स्वामी श्‍याम दास जी महाराज, परम पूज्य हरिहर महाराज, रामजीवन दास जी, सांसद नंदकुमार साय आदि ने भी संबोधित किया। इस दौरान ‘हम हिंदु है’ पुस्तक का विमोचन जगदेव राम जी द्वारा किया गया। लाखों की संख्या में उपस्थित जनसभा को गोविंद देव जी गिरी जी महाराज, नागेन्द्र जी शिवेश गिरी जी महाराज, अखिलेश्‍वरानंद जी महाराज, रामायण तथा वाचक अतुल श्रीकृष्ण जी महाराज ने भी संबोधित किया, उरांव जी महाराज, श्‍याम दास जी महाराज आदि संतों द्वारा भी सभा को संबोधित किया गया इस अवसर पर देश के विविध प्रांतों से आये कलाकारों ने धर्म सभा के पूर्व अपनी सुदर प्रस्तुतियां दी।

धार्मिक उन्माद फैला रहा है जॉन दयाल

जैसे-जैसे नर्मदा कुम्भ की तारीख नजदीक आ रही है, मध्यप्रदेश के ईसाई नेताओ की घबराहट ब़ढ रही है। नर्मदा के किनारे आयोजित किए जा रहे इस मॉं नर्मदा सामाजिक कुंभ की व्यापक पैमाने पर तैयारियां चल रही हैं। यह आयोजन धर्म के प्रति आस्था व श्रद्धा पक्की करने, राष्ट्रीय एकात्मता और एकता का भाव जगाने तथा सामाजिक समरसता का अलख जगाने हेतु किया जा रहा है।

छत्तीसगढ़ की सीमाओं को छूने वाले मण्डला में नर्मदा सामाजिक कुंभ 10, 11 और 12 फरवरी को होना है और इसकी तैयारी एक साल से चल रही है। तीन दिन के इस कुंभ में 20 लाख वन वासियों के जुटने की उम्मीद की जा रही है।

जॉन दयाल की ओर से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में यह कहा गया है कि कुंभ मेले में ईसाइयों को हिंदू बनाने की तैयारी चल रही है। जॉन दयाल ऑल इंडिया कैथोलिक यूनियन” के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। उन्होंने कुंभ के आयोजको पर बेबुनियाद आरोप लगाया है कि कई ईसाई परिवारों में जाकर वनवासियों पर वापस हिंदू बनने के लिए दबाव डाल रहे है। ईसाई समाज की प्रार्थना सभाओं में बाधा डालने की कोशिश की जा रही है।

वास्तव में हकीकत यह है कि मण्डला में बीते वर्षो में ईसाई मिशनरियों ने धर्मातरण का जाल तेजी से फैलाया है। माँ नर्मदा सामाजिक कुंभ का उद्देश्य आदिवासियों की संस्कृति, उनकी पहचान और जीवन शैली ही नहीं बल्कि उनके आराध्य बड़ा देव या बूढ़ा देव के प्रति उनकी आस्था पर होने वाले आघात से उन्हें सुरक्षित करना है।

एक ओर जहाँ मंडला मध्य प्रदेश के इसाई और मुस्लिम परिवारों ने भी इस कुंभ का स्वागत किया है वहीँ जॉन दयाल का इस तरह का बयान देश कि एकता और अखंडता के लिए खतरा है। जॉन दयाल जैसे लोगो के खिलाफ शासन को कठोर कार्यवाही करनी चाहिए।

छत्तीसगढ़ को लग रहा है पुलिसिया ग्रहण?

गिरीश पंकज

देश के अनेक शहरों की तरह छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में भी इन दिनों पुलिसिया ग्रहण-सा लग गया है. एक पुलिस अधिकारी कोहराम मचा कर जाता है और दूसरा आता है, तो वह भी कम गुल नहीं खिलाता. शहर कोई भी हो, पुलिस की दबंगई (गुंडई का कुछ सौम्य शब्द-रूप है दबंगई) की खबरों का सिलसिला जारी रहता है. लोग भूले नहीं है, कि गत वर्ष बिलासपुर में एसपी के सामने ही सिपाहियों ने सिनेमाहाल के गेटकीपर की हत्या कर दी थी. गेटकीपर की गलती हो गई थी, कि वह सादे ड्रेस में ‘दबंग’ फिल्म देखने गए एसपी को (अपने अंतर्ज्ञाननेत्र से) पहचान नहीं पाया और उसे रोक दिया था. बस, एसपी के अनुचर पिल पड़े और गेटकीपर को इतनापीटा, कि बेचारा जान से गया. इसी तरह के अनेक हादसे होते है जिसमे पुलिस को कोई रोके या टोके तो यह बदतमीजी हो जायेगी. अभी हाल ही में बिलाइगढ़ की बात है. एक युवक सर्कस देखने गया. पुलिसवालों ने उसे रोक दिया युवक के पास टिकट था. फिर भी उसके साथ दुर्व्यवहार किया. उसे थाने ले जाया गया. बाद में लोगो का गुस्सा देख कर उसे छोड़ दिया गया.

इधर बिलासपुर की ताज़ा घटना फिर पुलिस के बर्बर चरित्र को बेनकाब करने के लिये पर्याप्त है. पुलिस ऐसा बता रही है, कि एक युवक ने पुलिस को तमाचा मार दिया लेकिन फिर उसके साथ पुलिस ने जो किया वह सबके सामने है. पुलिस ने उस युवक की जान भर नहीं ली, मगर उसे इतना मारा कि वह ठीक से चला नहीं पा रहा था. निसंदेह पुलिस के अधिकारी ने इतनी बदतमीजी की होगी कि युवक बर्दाश्त नहीं कर पाया होगा. और हो सकता है, उसका हाथ भी उठा गया हो. यह मानवीय प्रवृति है. लेकिन एक तमाचे की इतनी बड़ी ”अवैधानिक सज़ा” कि युवक की जान पर ही बन आये? ये कहाँ का न्याय है? न्याय करना न्यायालय का काम है. पुलिस अगर इसी तरह तालिबानी-न्याय करती रही तो लोकतंत्र का मतलब ही क्या रह जाएगा? युवक ने पुलिस पर हाथ उठा, उसे कोर्ट में पेश करो, जेल भेज दो. ये कौन-सा न्याय है कि उसकी बेदम पिटाई करो. युवक की पिटाई के बाद वहाँ के एसपी ने कहा, ”किसी खाकी वर्दी पर हमलाकर दुर्व्यवहार किया जाता है तो वह एसपी पर हमला है. पुलिस के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ है. ऐसे मामले में मै समझौता नहीं कर सकता.” अब जनता भी तो यह कह सकती है, कि उस यवक की निर्मम पिटाई लोकतंत्र की निर्मम पिटाई है, यह लोकतंत्र का अपमान है. और लोकतंत्र से समझैता नहीं हो सकता” तो फिर क्या होगा?

इस देश में अभी लोकतंत्र है. हालत ऐसे दीख रहे है, कि कई बार लगता है, कि पुलिस का बस चले तो वह लोकतंत्र की ह्त्या ही कर दे. आये दिन होने वाली पुलिसिया घटनाये लोकतंत्र का गौरव नहीं लोकतंत्र की गरिमा खत्मकर रही है. पुलिस को जिस तरीके से स्वतंत्र कर दिया गया है, यह खेदजनक है. सबसे शर्मनाक बात यही लगाती है, कि जो कुरसी पर बैठता है, वह अपने बने रहने के लिये पुलिस को अभयदान-सा दे देता है. छत्तीसगढ़ में (शायद अनजाने में )यही हो रहा है. सत्ता की शह पा कर पुलिस लगातार निरंकुश होती जा रही है. हालत यह है, कि उसे इस बात की भी चिंता नहीं रहती कि जिसे वह पीट रही है, वह व्यक्ति सत्ता-पक्ष से सम्बंधित है. पुलिस को पता है, कि उसे कुछ नहीं होगा. पुलिस की ऐसी निर्भयता खतरनाक है. पुलिस के मन में सत्ता का डर बना रहना चाहिए. अगर ऐसा नहीं हो सका तो पुलिस को भस्मासुर होने से कोई नहीं रोक सकेगा. लोकतंत्र में पुलिस जनसेवा और जनसुरक्षा के लिये होती है, जन के दमन के लिये नहीं. एक तो आप जनता से हद दर्जे की बदतमीजी करे, और जनता का कोई प्रतिनिधि हिम्मत करके प्रतिकार करे तो उसकी जान लेने पर ही आमदा हो जाये? यह कैसा लोकतंत्र है? पुलिस और जनता के बीच आत्मीय रिश्ता बनना चाहिए. पुलिस को देख कर जनता के मन में सम्मान का भाव जागे, घृणा का नहीं. अभी केवल घृणा का भाव ही जगता है. क्योंकि कदम-कदम पर पुलिस केवल दुर्व्यवहार करती नज़र आती है. और फिर वह यह अपेक्षा भी करे कि लोग पुलिस के खिलाफ खड़े भी न हो, यह केवल मुर्दों के देश में हो सकता है. इस लिये अब समय आ गया है, कि पुलिस जनता को धौंसियाने की बजाय खुद में अपेक्षित सुधार लाए और लोकतंत्र का आदर करे. उसे हर घड़ी याद रहना चाहिए कि देश आज़ाद है और वह इस देश की जनता की सेवक है, उसकी मालिक नहीं.

बिलासपुर की ताज़ा घटना इस बात का सबूत है, कि पुलिस ने अपने को जनता से ऊपर समझ लिया है. जनता के दामन की अनेक घटनाये लगातार बढ़ रही है. फिर चाहे वह दुर्ग, रायपुर में हो, कांकेर में हों या बिलासपुर में. सरकार को पुलिस की निरंकुशता के लिये चेतावनी देनी ही चाहिए. वरना भविष्य में अनेक दुखद हादसे होते रहेंगे. सर्वाधिक हैरत तो विपक्ष को देख कर होती है. पुलिस अत्याचारों के विरुद्ध उसका व्यापक प्रतिकार नज़र ही नहीं आता? कारण क्या है, यह लोग समझ नहीं पा रहे है. बहरहाल, छत्तीसगढ़ शांति का टापू है. इसे शांति का टापू बनाये रखने में पुलिस ही कारगर हो सकती है.

नाजुक, कोमल माओवादी !

– विश्वरंजन

नक्सली माओवादियों के गुप्त शहरी संगठनों में आपको बड़े तादाद में ऐसे माओवादी मिल जाएँगे, जिन्हें हम नाजुक, कोमल माओवादी कह सकते हैं। उन्हें सुकुमार माओवादी भी कहा जा सकता है। यदि आप उनका चेहरा-मोहरा, कद-काठी देखें तो आप जल्दी मानने को तैयार नहीं होंगे कि यह नाजुक सा- कोमल सा लगने वाला व्यक्ति एक ऐसे संगठन को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहायता कर रहा है, जो बुनियादी तौर पर सत्ता एक हिंसात्मक युद्घ के जरिए हासिल करना चाहता है और ऐसा करके भारत में माओवादी तानाशाही को स्थापित करने की कोशिश कर रहा है।

अमूमन ऐसे नाजुक कोमल माओवादी आम जनता, बुद्घिजीवियों,न्यायविदों को गफलत तथा ऊहापोह की स्थिति में ला देता है-अरे यह तो अच्छा आदमी दिखता है, कोमल, नाजुक और सुकुमार ! यह कैसेमाओवादी हो सकता है? पर माओवादी गोपनीय दस्तावेजों पर जाएँ तो ऐसे ही व्यक्तियों की उन्हें अपने “अरबन” या शहरी कामों के लिए जरूरत होती है। यह भी जाहिर है कि ज्यादातर ये कोमल-नाजुक शहरी माओवादी बीहड़ जंगलों में बंदूक उठाकर नहीं चल सकते, परंतु वे वह सब काम करेंगे जिससे गुप्त माओवादी गिरोह धीरे-धीरे जंगल क्षेत्र, ग्रामीण क्षेत्र और शहरी क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत करते जाएँ और ऐसा करने के लिए उन्हें छोटे-छोटे हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। बस !

मसलन कि माओवादी हिंसा पर अमूमन उनका मुँह बंद ही रहेगा। यदि हिंसा इतनी घिनौनी है कि मुँह बंद करना मुश्किल हो जाए तो एक पंक्ति में अपना विरोध जताने के बाद इस बात को समझाने के लिए कि आखिर माओवादी इस तरह की घिनौनी हिंसा करने पर क्यों बाध्य हुए वे पृष्ठ रंग देंगे? माओवादियों के हिंसात्मक गतिविधियों को रोकने के लिए जो कृतसंकल्प है, उन्हें बार-बार न्यायालयों में खींच कर तब तक ले जाने का उपक्रम ये नाजुक कोमल माओवादी करते रहेंगे। जब तक पुलिस के अफसर तंग आ कर लड़ना न छोड़ दें और माओवादी धीरे-धीरे भारत के गणतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर सत्ता पर काबिज न हो जाएँ । नाजुक-कोमल माओवादियों ने दूर देखती रूमानी आँखों और कोमलता से लबरेज चेहरा-मोहरा के बूते पर लोगों को तो गफलत में डाल रखा है।आम व्यक्ति सोचता है, ठीक ही बोल रहे होंगे ये लोग। इतने नाजुक,कोमल और सुकुमार दिखने वाले लोग गलत कैसे हो सकते हैं?

पर एक समस्या और भी है। यदि आपने गलती से उंगली उठा दी एक नाजुक, कोमल और सुकुमार माओवादी पर तो उनके कोमल, नाजुक और सुकुमार माओवादी दोस्त न कोमल, न नाजुक, न सुकुमार रह जाएँगे और असभ्यता की हदें पार कर गाली-गलौच पर उतर आएँगे, मिथ्या प्रचार पर उतर आएँगे और यह वे साइबर-स्पेस के जरिए करेंगे, धरना-प्रदर्शन देकरकरेंगे। यदि आप गूगल में मेरे नाम पर क्लिक करेंगे तो पाएँगे कि मेरे फोटो को विकृत कर छापा गया है, मुझे गालियाँ दी गई हैं।

मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता पर बहुतों पर असभ्य गाली-गलौच का असर होता है। खास कर यदि साइबर-स्पेस के माध्यम से वह पूरे विश्व में फैलाया जा रहा हो। चुप ही रहना अच्छा है। नाजुक, कोमल माओवादी के साथ सुर मिलाना और भी श्रेयस्कर है और माओवादियों को चाहिए ही क्या? “भूल गलती बैठी है जिरह-बख्तर पहन कर तख्त पर दिल के/ चमकते हैं खड़े हथियार उसके/ आँखें चिलकती हैं सुनहरी तेज पत्थर सी..! है सब खामोश/ इब्ने सिन्ना, अलबरूनी दढ़ियल सिपहसलार सब ही खामोश हैं। बुद्घिजीवी, न्यायविद, अंग्रेजी मीडिया के लोग सभी तो हैं खामोश।” या फिर सुकुमार, कोमल, नाजुक माओवादी के साथ तो साहब जैसा मुक्तिबोध ने लिखा है हम अक्सर खुदगर्ज समझौते कर लेते हैं और माओवाद को पनपने देते हैं, अपने देश के गणतांत्रिक शरीर में विष की तरह । साथ ही आवाज में आवाज मिलाने लगते हैं। माओवादी शहरी संगठन के साथ एक और समस्या भी है। यह एक खगोलशास्त्रीय “ब्लैक होल” की तरह होता है । खगोलशास्त्र के अनुसार आप “ब्लैक होल”को देख नहीं सकते। उसमें से रोशनी ही बाहर नहीं निकलती। हाँ “ब्लैक होल” के आसपास होती हुई गतिविधियों से हम भाँप जाते हैं कि अमुक जगह”ब्लैक होल” है। मसलन कि डायरेक्ट “साक्ष्य” नहीं होता, इनडायरेक्ट या “सरकम्सटैन्शियक” साक्ष्य का ही सहारा लेना पड़ता है। वैसे भी गोपनीय माओवादी दस्तावेज इन लोगों के विषय में कहता है कि ये वो लोग होते हैं जो “दुश्मन” (राज्य) के सामने उघारे नहीं गए हों। यानी कि यह लोग कभी नहीं कहेंगे कि ये माओवादी हैं…।

जरा सोचिए कि यदि माओवादी तानाशाही भारत में स्थापित हो गया तो क्या होगा? हो सकता है आपका लड़का पूरी जन्म जेल में यातनाएँ झेलता रहे और कहीं कोई सुनवाई न हो। चीन का राष्ट्रपति लियोशाओ ची जब माओ का विरोध करने लगा तो उसके बाल नोचे गए और यातनाएँ देकर उसे मारा डाला गया। उसकी पत्नी वांग को पीटा गया, यातनाएँ दी गईं। यह आपके साथ भी हो सकता है एक माओवादी भारत में । जुंग चैंग के पिता माओ के दोस्त थे, परंतु जब माओ से उनका मतभेद हुआ तो न सिर्फ उन्हें यातनाएँ देकर मारा डाला गया परंतु उनके पूरे परिवार को यातनाएँ दी गई। एक अन्य चीनी लेखिका की माँ को यातनाएँ दी गई और उसके बाल नोच डाले गए जब उसने माओ से असहमति दिखाई ।

मासूम और कोमल दिखने वाले माओवादी के साथ खड़े बुद्घिजीवियों,न्यायविदों तथा अन्य लोगों को यह समझना चाहिए कि एक माओवादी भारत में उनके साथ भी वैसा ही सलूक हो सकता है, जैसा चीन के लोगोंके साथ माओ के जमाने में झेला । मुश्किल यह है कि कोमल, नाजुक,सुकुमार तथा मासूम सा दिखता माओवादी भोली सूरत बना कर कहता रहेगा, वह माओवादी नहीं है और हम ऊहापोह, गफलत और बेचारगी का चश्मा लगा या तो कुछ नहीं करेंगे या उन्हें ही गाली देने लगेंगे जो भारत में गणतांत्रिक व्यवस्था को बचाये रखने के लिए जान पर खेल रहे हैं ।

(लेखक छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक हैं)

मीडिया का गॉसिपतंत्र और असहाय माकपा

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

मीडिया में व्यक्तित्वहनन एक बड़ा फिनोमिना है। यह मीडिया का चूरन है। गॉसिप है। कुछ लोग इसे चरित्रहनन और अपमान भी कहते हैं। लेकिन यह न तो अपमान है और न निंदाचार है बल्कि गॉसिप है। यह संबंधित व्यक्ति की सार्वजनिक पहचान का कैरीकेचर है। मीडिया यह सब उनके साथ ज्यादा करता है जो चर्चित , सैलीब्रिटी , मंत्री, नेता ,सांसद,विधायक हैं। व्यक्तित्वहनन मीडिया का संक्रामक रोग है। यह पढ़ा खूब जाता है लेकिन टिकाऊ नहीं है। हाल ही में पश्चिम बंगाल से माकपा की एक भू.पू. सांसद के यहां आयकर के छापों के बाद बांग्ला मीडिया में गॉसिप की बाढ़ आ गई। इसका असर हिन्दी मीडिया पर भी पड़ा। इस चक्कर में मीडिया वाले व्यक्तित्वहनन और आर्थिक अपराध में अंतर भूल गए।

आर्थिक अपराध में जो लोग शामिल हैं उन पर तथ्यपूर्ण और खोजी खबरों का मीडिया में महत्व है लेकिन गॉसिप और तथाकथित गुमनाम व्यक्ति के हवाले से लिखे को खबर नहीं गॉसिप कहते हैं। उसका प्रचार से ज्यादा कोई महत्व नहीं है। इस तरह की खबरें गॉसिप हैं और तथाकथित सूत्रों के हवाले से तब तक चलती हैं जब तक इन खबरों के संचालक ठंडे नहीं पड़ जाते। मीडिया में पहले गॉसिप फिल्मी पत्रिकाओं में छपा करता था। लेकिन अब गॉसिप ने मीडिया की सभी विधाओं को घेर लिया है। खासकर खबर को गॉसिप ने हजम कर लिया है। यह मीडिया भ्रष्टाचार है जो राजनीतिक भ्रष्टाचार से भी ज्यादा खतरनाक है। गॉसिप को खबर बनाने के कारण ही आज कोई भी पत्रकार प्रमाणों के बिना कुछ भी लिखने के लिए स्वतंत्र है । इसका राजनीति पर भी असर हो रहा है नेताओं पर दबाब पड़ रहा है कि वे बोलें।एक्शन लें। उल्लेखनीय है कोलकाता में जब भू.पू.सांसद के घर आयकर विभाग का छापा पड़ा तो आयकर विभाग के अधिकारियों ने मीडिया को कुछ नहीं बताया। सारी सूचनाएं कयास, अनुमान और ‘सूत्रों’ के हवाले से गॉसिप फार्मेट में लिखी गयीं। इसे मीडिया की भाषा में फेकखबर कहते हैं।

किसी भी खबर को लिखने के पहले संवाददाता को यह सोचना चाहिए कि यह खबर कब तक पूरी शक्ल लेगी ? आयकर छापे की खबर आर्थिक अपराध की कोटि में आती है यह खबर छापे से आरंभ होती है लेकिन इसे खत्म होने में काफी समय लगता है। संवाददाता के पास इतना धैर्य नहीं होता कि वह इंतजार करे और वह ताबड़तोड़ ढ़ंग से सूत्रों के हवाले से कल्पना की उडानें भरना आरंभ कर देता है। आयकर छापे की खबर में गॉसिप या अनुमान से ज्यादा सत्य का महत्व होता है। सत्य सिर्फ आयकर विभाग के अधिकारी जानते हैं। वे जब नहीं बोलते तो सुत्रों के हवाले से मीडिया गॉसिप फेंकता है। सांसद और उसके रिश्तेदारों के यहां आयकर विभाग के छापे पड़े और कितने स्थानों पर छापे पड़े यह आयकर अधिकारियों ने मीडिया को बताया है। इसके अलावा आयकर छापे के बारे मे जो कुछ छपा है वह काल्पनिक है। आयकर विभाग जब नहीं बता रहा है तो वैसी स्थिति में छापे के बारे में छपी सारी खबरें बोगस हैं।

मीडिया में ‘सूत्र’ के हवाले से जब भी खबर लिखी जाती है तो वह अप्रामाणिक होती है। गॉसिप होती है। इस तरह की रिपोर्टिंग के अपने फायदे और नुकसान दोनों हैं। इस तरह की रिपोर्टिंग पूरी तरह पकायी होती है और व्यापकस्तर पर मीडिया की साख नष्ट करती है। कुछ लोग सोचते हैं इससे संबंधित व्यक्ति का चरित्रहनन हो जाएगा। वह बर्बाद हो जाएगा। चरित्रहनन का आधार यदि सच है तो साख पर असर होगा । लेकिन चरित्रहहन का आधार गॉसिप है तो संबंधित व्यक्ति को इसका लाभ मिल सकता है। बांग्ला मीडिया इस खेल में लंबे समय से अव्वल रहा है और उसने ज्योति बसु को लांछित करने के लिए उनके पुत्र के बारे में तरह-तरह की मनगढ़ंत कहानियां बड़े पैमाने पर छापीं लेकिन ज्योति बाबू की साख पर कोई आंच नहीं आयी। क्योंकि वे मनगढ़ंत कहानियां तथाकथित सूत्रों के हवाले से लिखी गयी थीं। इसी तरह छापे में मिली चीजें जरूरी नहीं है अवैध हों ,वे वैध भी हो सकती हैं। कौन चीज वैध है ,अवैध है इसका फैसला आयकर विभाग अपनी जांच-पड़ताल के बाद ही कर सकता है ।ऐसी स्थिति में मीडिया को मूल्यनिर्णय से बचना चाहिए।

सवाल उठता है मीडिया में इस तरह की गॉसिप आती कहां से है ? इसका स्रोत क्या है ? इस तरह की गॉसिप का कोई राजनीतिक-सामाजिक महत्व है ? क्या इससे समाज प्रभावित होता है ? यह असल में पीत पत्रकारिता है। इस तरह की खबरें संक्रामक होती हैं। वे जल्दी फैलती हैं। यदि किसी के घर पुलिस आयी है ,पुलिस ने जांच के लिए थाने बुलाया है,आयकर विभाग का नोटिस आया है, या आयकर छापा पड़ा है या अदालत से सम्मन आने का अर्थ अपराधी होना नहीं है। यह महज जांच है और जांच को अपराध नहीं कहते।

खबरों का गॉसिप में रूपान्तरण मीडिया की विश्वसनीयता खत्म करता है।इससे सर्कुलेशन बढ़ता है,रेटिंग बढ़ती है, विज्ञापन मिलते हैं, लेकिन न्यूज और मीडिया की साख खत्म हो जाती है। यह पीतपत्रकारिता है। उल्लेखनीय है आय से ज्यादा संपत्ति रखने के मामले में किसी भी दल ने आज तक किसी भी व्यक्ति को दल से नहीं निकाला है । इससे भी बड़ा सवाल है आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में किस कानून का पालन किया जाएगा ? गॉसिप मंडली का या आयकर विभाग का ? कायदे से मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य अपने सभी मंत्रियों ,सांसदों-विधायकों आदि की विगत 35 साल की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करें ? उल्लेखनीय है एनडीए ने अपने नेताओं को निजी संपत्ति घोषित करने के लिए कहा है, क्या भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) अपने सांसदों, विधायकों, भू.पू.सांसदों-विधायकों, उनके रिश्तेदारों, पार्टी सचिव और सक्रिय सदस्यों की संपत्ति का संपूर्ण ब्यौरा सार्वजनिक करने का जोखिम उठाने को तैयार है ? माकपा नेतृत्व जानता है कि वे इस संबंध में असहाय हैं‍ ,क्योंकि नौकरीपेशा कॉमरेड के बिना कोई अपनी सही आमदनी नहीं बताता,कोई संपत्ति का ब्यौरा नहीं देता। आय का संबंध देश से है पार्टी से नहीं इसलिए आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में आयकर विभाग के फैसलों का पालन होना चाहिए,पार्टी नेताओं की मनमानी का नहीं।

ये महाघोटालों का मौसम है

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

अब तक राजा था, अब महाराजा है। ए राजा ने अपनी चहेती कंपनियों को लाइसेंस दिए और देश के पौने दो लाख करोड़ रुपए का नुकसान किया, लेकिन सरकारी संगठन ‘इसरो’ ने देवास मल्टीमीडिया को एस-बेंड की लीज दी और पूरे दो लाख करोड़ रुपए का नुकसान कर दिया। राजा ने अपनी रेवड़ियां दर्जनों कंपनियों को बांटीं, जबकि ‘इसरो’ ने अकेली एक ही कंपनी को निहाल कर दिया। वह थी सौ सुनार की और यह है एक लुहार की!

इतना बड़ा घोटाला हुआ कैसे? ‘द हिंदू’ द्वारा किए गए रहस्योद्घाटन से पता चला है कि इस घोटाले के सूत्रधार हमारे नौकरशाह हैं। ‘इसरो’ यानी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन। बेंगलुरू स्थित इस संगठन के एक पूर्व सचिव डॉ चंद्रशेखर ने 2004 में एक कंपनी बनाई, देवास मल्टीमीडिया और उसने ‘इसरो’ से एक समझौते के तहत अंतरिक्ष में दो उपग्रह छोड़ने का समझौता किया। 2005 में हुए समझौते के अनुसार ‘देवास’ को एस-बेंड स्पेक्ट्रम की 70 मेगाहट्र्ज तरंगों के इस्तेमाल का अधिकार अपने आप मिल गया। यह ‘लीज’ 20 वर्ष के लिए थी। इसके बदले ‘देवास’ ने ‘इसरो’ को 1000 करोड़ रुपए देना तय किया।

अब जरा हम यह देखें कि ‘देवास’ जैसी निजी कंपनी के मुकाबले सरकारी कंपनियों – बीएसएनएल और एमटीएनएल – को ये ही तरंगें किस भाव बेची गई हैं। उन्हें सिर्फ 20 मेगाहट्र्ज के लिए 12,487 करोड़ रुपए देने होंगे। पिछले साल सरकार ने इन्हीं तरंगों की नीलामी की तो सिर्फ 15 मेगाहट्र्ज पर उसे 67,719 करोड़ रुपए मिले। यदि यह नीलामी 70 मेगाहट्र्ज की होती तो उसे कितने करोड़ मिलते? ढाई-तीन लाख करोड़ से कम क्या मिलते यानी ‘इसरो’ और ‘देवास’ ने मिलकर देश को दो लाख करोड़ से भी ज्यादा का चूना लगा दिया। इतना ही नहीं, ‘इसरो’ के पूर्व सचिव और देवास के वर्तमान चेयरमैन चंद्रशेखर ने समझौता कुछ इस ढंग से लिखवाया कि वह 20 साल की ‘लीज’ कभी खत्म ही न होने पाए। यानी भारत के संसाधनों की लूट अनंत काल तक चलती रहे।

राजा ने 2जी स्पेक्ट्रम की जो तरंगें बांटी थीं, उसके मुकाबले ए-बेंड की ये तरंगें कहीं अधिक शक्तिशाली हैं। अंतरिक्ष विज्ञान में आगे बढ़े हुए दुनिया के प्रगत राष्ट्र अपने इंटरनेट, मोबाइल फोनों तथा अन्य दूरसंचार सुविधाओं के लिए इन्हीं तरंगों का इस्तेमाल करते हैं। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत काफी आगे बढ़ चुका है। यदि अपनी इस तरंग-क्षमता को वह विविध जरूरतमंद देशों को बेचने लगे तो अरबों रुपए कमा सकता है, लेकिन यदि हमारे अपने नागरिक अपनी ही संस्थाओं को लूटने में लग जाएं तो देश का अल्लाह ही मालिक है।

डॉ चंद्रशेखर का कहना है कि 2005 में उन्होंने जब यह समझौता किया तो ठेकों की नीलामी की प्रथा थी ही नहीं। उनके अलावा किसी ने एस-बेंड के लिए आवेदन किया ही नहीं। इसीलिए यदि उन्हें यह ठेका मिल गया तो इसमें गलत क्या है? मोटे तौर पर चंद्रशेखर की बात ठीक मालूम पड़ती है, लेकिन क्या यह सत्य नहीं है कि उन्होंने ‘इसरो’ के अंदरूनी आदमी होने का लाभ उठाया? यदि वे ‘इसरो’ के वैज्ञानिक सचिव नहीं रहे होते तो क्या उन्हें पता होता कि एस-बेंड के फायदे क्या-क्या हो सकते हैं और उन्हें 2005 में ही कैसे भुनाया जा सकता है? यदि वे ‘इसरो’ के उच्च पद पर नहीं रहे होते तो क्या ‘इसरो’ के अफसरों से ऐसे पक्षपातपूर्ण समझौते पर दस्तखत करवा सकते थे? उनके सेवानिवृत्त होने के बाद जो अफसर ‘इसरो’ में उच्च-पदों पर नियुक्त हुए होंगे, क्या उनमें से कई उनके मातहत नहीं रहे होंगे? यदि उस समझौते पर दस्तखत करते समय उनके आंख-कान खुले रहे होंगे तो उन्हें पता रहा होगा कि एस-बेंड की महत्ता क्या है और दुनिया में उसकी कीमत कितनी है?

2009 में इसी बेंड को नीलाम करने पर दुनिया के कई देशों ने अरबों डॉलर कमाए हैं। ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देश इन्हीं तरंगों को खरीदने के लिए लालायित हैं। जब चंद्रशेखर ने ये तरंगें खरीदने का सौदा किया, तब उनकी कंपनी की हैसियत क्या थी? 2007 तक भी शेयर होल्डरों की राशि सिर्फ 67.5 करोड़ थी, लेकिन 2010 में वही कूदकर 8 गुना यानी 578 करोड़ रुपए हो गई। यदि यह सौदा रद्द नहीं हुआ तो कुछ ही वर्षो में ‘देवास’ दुनिया की बड़ी कंपनियों में गिनी जाने लगेगी। ‘इसरो’ के साथ सौदा होते ही इस कंपनी में चार चांद लग गए।

यह ठीक है कि चंद्रशेखर ने कोई गैरकानूनी काम नहीं किया है और अपनी तरफ से उन्होंने भारत सरकार को धोखा भी नहीं दिया है, लेकिन क्या ‘इसरो’ को हम निदरेष मान सकते हैं? यह भी संभव है कि 2जी स्पेक्ट्रम सौदे की तरह एस-बेंड सौदे में कोई रिश्वतखोरी नहीं हुई हो, लेकिन क्या यह शुद्ध लापरवाही का मामला नहीं है? देश की संपत्ति और देश की आमदनी के प्रति लापरवाही का मामला! जैसे ही चंद्रशेखर ने अपनी तिकड़म भिड़ाई, ‘इसरो’ के अधिकारियों ने प्रधानमंत्री कार्यालय को सतर्क क्यों नहीं किया और जैसे ही बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय को इसका पता चला, उसने इसके विरुद्ध सीधी कार्रवाई क्यों नहीं की? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? जिम्मेदारी किसके माथे पर डाली जाए?

विरोधी दल प्रधानमंत्री से जवाब मांग रहे हैं, क्योंकि ‘इसरो’ सीधे प्रधानमंत्री के मातहत है। यहां यह कल्पना करना भी कठिन है कि डॉ मनमोहन सिंह जैसा सीधा-सच्चा और भोला-भाला व्यक्ति नौकरशाहों की सांठ-गांठ में शामिल हो सकता है। यह भी संभव है कि उन्हें इस सौदे की भनक ही न लगी हो। खबर है कि सरकार इस सौदे की समीक्षा कर रही है और महालेखा परीक्षक इसकी जांच कर रहे हैं। समीक्षा और जांच तो होती रहेगी, लेकिन सौदे को रद्द करने में सरकार जितनी देर लगाएगी, उसकी प्रतिष्ठा उतनी ही तेजी से पेंदे में बैठती चली जाएगी। आदर्श सोसायटी, राष्ट्रकुल खेल और राजा घोटालों के मुकाबले ये महाराजा घोटाला है। इस घोटाले के तार किसी मंत्री या मुख्यमंत्री से नहीं, सीधे प्रधानमंत्री से जोड़ने की कोशिश की जा रही है।

राष्ट्रहित में बाधक काला धन

अमल कुमार श्रीवास्तव

आम जनता काले धन से जितना आर्थिक रूप से चिंतित है उससे कहीं अधिक सफेदपोशों द्वारा विदेशों में जमा किए जा रहें लाखों करोड़ों रूपए के काले धन के आकड़े सुनकर और इसे रोकने में नीति नियंताओं की लापरवाही देखकर मानसिक रूप से पीड़ीत हो रही है। दिनोंदिन काले धन पर जनता का आक्रोश बढ़ता जा रहा है। हांलाकि विदेशों में जमा इस काले धन को देश में लाए जाने की लड़ाई में कई राजनीतिक दल और बुध्दिजीवी शामिल हो चुके हैं। अभी हाल ही में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने विदेशों में जमा देश के काले धन पर टिप्पणी करते हुए बताया कि अभी इसकी मात्रा पर अलग-अलग अनुमान लगाए जा रहें हैं परन्तु यह काला धन 25 लाख करोड़ रूपए से 75 लाख करोड़ रूपए होने की संभावना जताई जा रही है। इसमें मुख्य रूप से चिंताजनक बात वह है जो हर आम आदमी को सोचने पर विवश करता है कि आखिर इस काले धन की उत्पत्ति कैसे होती है? यह विदेशी बैंकों तक कैसे पहुँचता है? विदेशों में इसे किस व्यवस्था के अनुरूप व्यवस्थित रूप से जमा किया जाता है?

काले धन की उत्पत्ति कई प्रकार से होती है,जिनमें मुख्य रूप से आपराधिक स्त्रोतों से प्राप्त किया जाने वाला धन है। जैसे ड्रग्स,आतंकवाद,फिरौतीयों की रकम और तस्करी आदि से प्राप्त धन।एक मोटे अनुमान के अनुसार विदेशों में भेजे गए धन का 13 से 15 प्रतिशत काला धन आपराधिक जगत के माध्यम से पैदा होता है और इस आपराधिक जगत को कुछ सत्ताधारी राजनेताओं व भ्रष्ट नौकरशाहों का संरक्षण प्राप्त होता है,जिस कारण यह खुले सांड़ की तरह विचरण करते है और इनके खिलाफ पुलिस द्वारा कोई उचित कार्रवाई नहीं हो पाती है। इनके अतिरिक्त उन सफेदपोश अपराधियों द्वारा 60 से 65 प्रतिशत धन पैदा किया जाता है जो सत्ता में रहते हुए अपने पदों का दुरूपयोग करते हैं और इस काले धन की उत्पत्ति में अपना संपूर्ण योगदान करते हैं। एक अन्य प्रकार के काले धन को कुछ व्यावसायिक लोगों अथवा उनकी कम्पनियों द्वारा कर की चोरी करके एकत्र किया जाता है। यह धन विशुद्ध रूप से नकदी होने के कारण बेनामी जमीनें, प्रापर्टी खरीदने में प्रयोग होता है।इस धन का कुछ भाग देश के बाहर हवाला के माध्यम से भी भेजा जाता है।

यदि हम आंकलन मात्र के लिए भारत का विदेशों में जमा काले धन काले धन का निचला स्तर देखें अर्थात् 25 लाख करोड़ रूपए को भी लें तो 4 से 5 लाख करोड़ रूपए का काला धन आपराधिक जगत से संबंधित है जबकि 15 लाख करोड़ रूपए भ्रष्टाचार और रिश्वत के माध्यम से देश के बाहर भेजे गए हैं।चूंकि कुल काले धन का 80 प्रतिशत से अधिक का हिस्सा आपराधिक और अवैध स्त्रोतों से आता है। इसलिए यह देश के लिए सर्वाधिक घातक है।

आखिर क्या है काला धन?

कर सुधारों के लिए बनायी गई राजा चेलैया समिति के अनुसार किसी अर्थव्यवस्था में काला धन वह रकम है जिसका लेन-देन परिवारों और कारोबारियों द्वारा जानबूझकर खाताबहियों से दूर रखा जाता है। जिससे सरकार को इस लेन देन की जानकारी नहीं मिल पाती है।इससे राजस्व को भारी क्षति पहुॅचता है।

436 अरब डॉलर : ग्लोबल फाइनेंसियल इंटीग्रिटी के अनुसार वर्तमान में देश से बाहर जाने वाला गैरकानूनी अर्थात काला धन.

500-1400 अरब डॉलर : भाजपा द्वारा गठित टास्कफोर्स के अनुसार कुल काला धन.

13 गुना : देश पर कुल विदेशी कर्ज से काले धन की अधिकता.

इस सम्पूर्ण काले धन में 11.5 प्रतिशत की सालाना वृध्दि हो रही है.

इस काले धन को देश में लाकर अगर जनकल्याण योजनाओं में प्रयोग किया जाये तो देश का जो कायाकल्प परिवर्तित होगा वह इस प्रकार से है-

. इस पैसे से हमारा रक्षा बजट 14 गुना बढ़ सकता है।

. काले धन के उपयोग से देश में 2.8 लाख किमी. लंबे राजमार्गों का निर्माण किया जा सकता है।

. काले धन को देश में लाने से 1500 मेगावॉट के 280 पावर प्लांट लगाए जा सकते हैं।

. सालाना 40,100 करोड़ रूपए खर्च किए जाने वाले मनरेगा कार्यक्रम को अगले 50 वर्षों तक चलाया जा सकता है।

. कुछ ही घंटों के अन्दर देश का सारा कर्ज चुकता किया जा सकता है।इसके अतिरिक्त जो धन बचेगा उस पर मिलने वाले ब्याज का पैसा ही देश के कुल बजट से अधिक होगा।

ऐसी स्थिति में अगर देशवासियों पर लगाए गए सभी कर हटा लिए जाएंगे तो भी सरकार बड़े आराम से अपने सारे कार्य कर सकती है।सरकार को किसी वितीय संकट का सामना नहीं करना पड़ेगा।

इस मामले पर आम जन की चुप्पी तो समझ में आती हैं किन्तु सरकार और प्रशासन की खामोशी समझ से परे है,जबकि अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह खोखली करने वाली इस गैर संपदा को जब्त करने के मामले पर देश की सर्वोच्च न्यायपालिका ने भी सरकार को कई बार फटकार लगाया है। अब हर आम आदमी सरकार की ओर अपनी पैनी नजरें गढ़ाए बैठा है कि कब जागेगी यह सरकार ? और कब बदलेगा देश का कायाकल्प ?

भ्रष्‍टाचार से जर्जर होता भारत

ए एन शिबली

भारत में घपले और घोटाले कोई नई बात नहीं हैं। दुनिया के दूसरे देशों में भी घपले होते हैं मगर भारत में जिस पैमाने पर भ्रष्‍टाचार हो रहे हैं उससे इसकी छवि को जबरदस्‍त नुकसान पहुंचा है। समय-समय पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी टिप्पणी में देश में फैले भ्रष्टाचार पर नाराज़गी का इज्हार किया है मगर इस से किसी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। हाल ही में विदेशी बैंकों में जमा काले धन पर पूरी जानकारी देने में सरकार की हिच्किचाहट पर नाखुशी जताते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि भारतीय संपत्ति को विदेशों में रखना देश को ‘लूटने’ के बराबर है। सबसे खास बात जो इस देश में है वह यह कि आप ईमानदार समझें तो किसे समझें और अगर कहीं गलत हो रहा है तो आप इंसाफ की उम्मीद कहाँ से और किस से करें। इस देश के हमाम में हर कोई नंगा है। किसी की शिकायत करनी है तो पुलिस के पास जाएंगे जो खुद ही बेईमानी में नंबर वन है। अदालत का दरवाज़ा खटखटाएं तो वहां भी बेईमानों की कमी नहीं है। देश के पूर्व मुख्य न्यानधीश जस्टिस एस पी भरूचा ने एक बार कहा था कि उच न्यायपालिका में 20 प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में कुछ ऐसे जज हैं जिनकी ईमानदारी पर उन्हें पूरा शक है। इस बयान को वापस लेने के लिए जब याचिका डाली गयी तो जस्टिस काटजू ने कहा कि वो अपने फैसले पर क़ायम हैं और जानते हैं कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में कोन क्या कर रहा है। न्यायपालिका में वैसे तो बहुत से लोगों के दामन पर दाग़ लग चुका है लेकिन इन में जस्टिस वी रामास्वामी, जस्टिस शमित मुखर्जी, जस्टिस पी डी दिनाकरण, जस्टिस निर्मल यादव और जस्टिस सौमित्र सेन के नाम उल्लेखनीय हैं। रामास्वामी ने पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए बड़े पैमाने पर पैसे बनाए। उनके घर पर छापेमारी में सीबीआई ने काफी रक़म भी बरामद की। मुखर्जी ने 2003 में रिश्वत लेकर एक रेस्टुराँ मालिक के हक़ में फैसला दिया। दीनाकरण पर कारेड़ों रूपये की सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने का आरोप है। निर्मल यादव पर 2008 में 15 लाख रूपये की रिश्वत लेने का ठोस आरोप लगा मगर अभी भी नौकरी में बनी हुई हैं। सेन साहब पर वकालत के दौरान लगभग 30 लाख रूपये की हेरा फेरी का आरोप लगा।

वैसे तो यहाँ कई बड़े बड़े घोटाले हुये हैं मगर साल 2010 में तो हद ही हो गयी। इस वर्ष भारतीय इतिहास के कई बड़े घोटाले हुए। यह एक संयोग है कि इस वर्ष अधिकतर घोटालों में यू पी ए या फिर कांग्रेस का ही कोई न कोई व्यक्ति संलिप्त पाया गया। मगर ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के लोग ही बेईमान हैं और बाक़ी की दूसरी पार्टियां दूध की धुली हुई हैं। इस हमाम में सभी नंगे हैं बस अंतर सिर्फ इतना है कि किसी का घोटाला सामने आ गया और किसी का अब तक सामने नहीं आया है। अफसोस की बात यह है कि राजनेता जनता के और देश के पैसे को हर तरह से लूटते हैं मगर इस से ज्यादा अफसोस की बात यह है कि घपले और घोटालों के सामने आने के बाद भी इस देश में अधिकतर मामलों में दोषियों को सज़ा नहीं मिल पाती और यही कारण है कि लाखों करोड़ों का घोटाला करने के बावजूद लोग बड़ी बेशर्मी से मुसकुराते रहते हैं और उन्हें इस बात का ज़रा सा भी एहसास नहीं होता कि उन्हों ने जो काम किया है उस पर उन्हें हंसने की नहीं बल्कि शर्म से डूब मरने की ज़रूरत है। ए राजा, लालू प्रसाद यादव, सुखराम, अशोक चौहान, बी एस येदिउरप्पा, सुरेश कलमाडी, बंगारू लक्ष्मण, जयललिता, हर्षद मेहता, केतन परिख, रामलिंगम राजू, अबदुर रहीम टेलगी और पी वी नरसिम्हा राव वो बड़े नाम हैं जो किसी न किसी घोटाले में शामिल रहे। इन के अलावा भी एक दो नहीं बल्कि ढेरों ऐसे नेता हैं या बड़े अफसर हैं जिन की छवि दाग़दार है मगर उन्हें इसका अफसोस नहीं है बल्कि उन्हें बेईमानी करने में संकोच नहीं होता। ऊपर कुछ जीवित और कुछ मर चुके लोगां या नेताओं के नाम का वर्णन इसलिए किया गया है कि क्योंकि यह लोग देश के बड़े घोटालों में शामिल रहे।

आंकड़े बताते हैं कि गत 25 सालों में दस बड़े घोटाले में ही घोटालेबाजों ने लगभग तीन लाख करोड़ रूपए का घोटाला कर दिया। वैसे तो देश में घोटाले होते ही रहे हैं और होते ही रहेंगे मगर अब तक जो घोटाले हुए हैं उन में सबसे पहले नंबर पर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को रखा जा सकता है। इसके बाद देश में पैसों के हिसाब से जो बड़े बड़े घोटाले हुये हैं उनमें हर्षद मेहता मामला, बोफोर्स, हवाला कांड, केतन परिख मामला, लालू का चारा घोटाला, रामलिंगम राजू का सत्यम घोटाला, तेलगी का स्टम्प घोटाला, उत्तर प्रदेश का खगन्न घोटाला, सुरेश कलमाडी एंड कंपनी का राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में घोटाला, ताज कोरीडोर मामला, मधु कोड़ा की लूट, रेल्वे भर्ती घोटाला, पुलिस भर्ती घोटाला, बराक मिसाइल घोटाला शामिल है। यह सब वो घोटाले हैं जिस ने देश को हिला कर रख दिया। इन के अलावा सैकड़ों की संख्या में घोटाले हमारे देश का मुकद्दर बन चुके हैं। सबसे पहले बात करते हैं घोटाले का वर्ष 2010 बड़े घोटालों की। देश का अब तक सबसे बड़ा घोटाला 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला इसी वर्ष सामने आया। पूर्व संचार मंत्री ए राजा ने 2008 में मोबाइल कंपनियों को 2जी फ्रीक्वेन्सी सस्ते दामों में बेच दी। कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा की राजा ने प्रधान मंत्री के आदेशों को भी नज़रअंदाज़ किया और उनकी इस हरकत से देश को इतना बड़ा नुकसान हुआ। वैसे तो राजा शुरू में यह कहते रहे कि मैंने कोई गलती नहीं की है और मैं इस्तीफा भी नहीं दुंगा मगर जब उन पर दबाव पड़ा तो पहले हठधर्मी के बाद राजा को अंतत: जाना पड़ा। वैसे राजा के मामले में यह देखने में आया है कि हर कोई उसे बचाने की कोशिश करता रहा। गिरफ्तार होने के बावजूद राजा का बाद में किया होगा यह तो समय ही बताएगा।

2010 का दूसरा बड़ा घोटाला आदर्श हाउसिंग घोटाला की शक्ल में सामने आया। मुंबई में शहीद के परिवारों के लिए बने फ्लैट को बेईमान नेताओं ओर बिल्डरों ने मिलकर उनको दे दिया जो उनके लिए नहीं था। बेईमानी से यह फ्लैट नेताओं के रिश्तेदारों और सेना के बड़े अफसरों को बाँट दिये गये। इस पूरे मामले में लगभग 1000 करोड़ रूपए का घोटाला हुआ और चूंकि राज्य सरकार की खामियां खुल कर सामने आईं इस लिए राज्य के मुख्यमंत्री अशोक चौहान को अपने पद से हाथ धोना पड़ा। इस घोटाले की ताज़ा स्तिथि यह है कि पर्यावरण मंत्रालय ने आदर्श आवासीय सोसाईटी की 21 मंजिला इमारत को अनाधिकृत करार देते हुए जहां उसे तीन महीने के भीतर गिरा देने की सिफारिश की है वहीं कांग्रेस ने अब यह कहना शुरू कर दिया है कि यह मामला केंद्र और राज्य सरकार के बीच का है और उसे इस से कोई मतलब नहीं है। 2010 के तीसरे बड़े घोटाले में भी सरकार का ही एक व्यक्ति सुरेश कलमाडी शामिल रहा। यह तो अभी पूरी तरह से साबित नहीं हुआ है मगर इतना तय है की कलमाडी एंड कंपनी ने खेल के आयोजन पर बड़े पैमाने पर घोटाला किया। यह सही है कि इतने बड़े खेल का शानदार आयोजन कर के भारत ने पूरे विश्व में अपनी शान बढ़ाई मगर इस आयोजन में जो बड़े पैमाने पर घोटाला हुआ उस से भारत की विदेशों में भी नाक कटी। कलमाडी और उनके चेलों के घर पर छापे भी पड़े कई गिरफ्तार भी किए गए मगर किसी को अब तक उचित सज़ा नहीं हुई है। जब तक इन्हें जेल न भेजा जाए सजा उचित कैसे कही जाएगी।

2010 का चौथा बड़ा घोटाला कर्नाटक में हुआ। इस घोटाले में मुख्यमंत्री बी एस येदिउरप्पा के रिश्तेदारों ने लगभग 300 एकड़ ज़मीन को कौड़ी के दाम में खरीदा। हर तरफ से उन्हें हटाने की मांग हुयी मगर काफी ड्रामे और हंगामे के बाद भी वो अपने पद पर बने हुए हैं। यह वो घोटाले थे जो काफी बड़े थे और संयोग से सब के सब 2010 में ही सामने आए। मगर जहां तक घपलों और घोटालों की बात है तो वो तो इस देश के मुकद्दर में लिखा है और यही कारण है की नए नए घोटाले सामने आते रहते हैं। अब तो इस हद तक घोटाले सामने आने लगे हैं कि कभी कभी नए घोटालों के सामने आने पर जनता चौंकती भी नहीं। एक तो जनता को यह लगता है कि इस देश में घोटाला कोई नई बात नहीं है और दूसरे उसे यह लगता है कि यह घोटालेबाज़ भी दूसरे कई घोटालेबाज़ों की तरह न सिर्फ बच जाएगा बल्कि बड़ी बेशर्मी से अपनी बेईमानी और हरामखोरी जारी भी रखेगा।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव 950 करोड़ रूपए के चारा घोटाला में फंसे, कई बार जेल भी गए, कुर्सी भी गंवाई, आमदनी से अधिक संपत्ति के मामले में भी फंसे मगर अब भी सीना चौड़ा कर के घूमते हैं। ऐसा लगता ही नहीं कि यही वह व्यक्ति है जो जानवरों का चारा खा गया है और कई बार जेल की हवा भी खा चुका है। बोलते ऐसे हैं जैसे सबसे बड़े ईमानदार यही हैं दूसरों से ऐसे बात करते हैं जैसे इनके अलावा सब उल्लू हैं।

एक साहब हैं सुखराम। जैसा नाम वैसी ही हरकत सुख से रहने के चक्कर में ऐसे तैसे करके खूब पैसे बनाए। 1996 में सी बी आई ने छापेमारी करके उन के घर से लगभग 4 करोड़ रूपए बरामद किए। फरवरी 2009 में कोर्ट ने सुखराम को तीन साल की सज़ा सुनाई। अपने देश में राजनीति में आई महिलाओं के भी खूब जलवे हैं। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती पर पैसों की बरसात को कौन नहीं जानता। अपने जन्म दिन पर वो करोड़ों रूपए के हार पहनती हैं। कहती हैं कि उन्हें उनके चाहने वालों ने यह पैसे दिये। कोई मायावती का कुछ नहीं बिगाड़ पाता। 2002 में ताज कोरीडोर का मामला सामने आया। इस परियोजना में मायवती पर बड़ी मात्रा में धन की हेरा फेरी का आरोप लगा। मामला अभी भी सी बी आई देख रही है और मायावती का जलवा हमेशा की तरह अब भी बरक़रार है। देश की अधिकतर जनता को यही लगता है कि ताज महल की शक्त बिगड़ने की कोशिश करने वाली मायावती का कुछ नहीं बिगडेग़ा।

एक दूसरी महिला हैं जयललिता। जयललिता जब तामिलनाडू की मुख्य मंत्री बनी थी तो उनके पास 2.61 करोड़ रूपए की दौलत थी और मुख्य मंत्री रहते रहते उनकी दौलत लगभग 70 करोड़ रूपए हो गयी। जयललिता कई घोटालों में तो शामिल रही हैं जब उनके घर की तलाशी ली गई तो लाखों रूपए की साड़ी और 28 किलो सोने भी मिले। फिलहाल जयललिता मुख्य मंत्री नहीं हैं मगर पहले जैसी ऐश की ज़िंदगी वह अब भी गुज़ार रही हैं।

झारखंड से अक्सर घपलों के समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। वहाँ के एक मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पर सरकार के 4000 करोड़ रूपए की हेरा फेरी का आरोप लगा। वो भी दूसरे हठधर्मियों की तरह यही कहते रहे कि उन्हों ने कोई गलती नहीं की।

मौजूदा सरकार के कई मंत्रियों या फिर नेताओं के कई घोटालों में फंसे होने की वजह से उछल रही बी जे पी का दामन भी साफ नहीं है। तहलका ने यह साबित किया था कि एक सरकारी ठेका दिलाने के लिए उस समय के पार्टी अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण ने एक लाख रूपए की रिश्वत ली। लक्ष्मण अब अपने पद पर नहीं हैं और उनका केस दिल्ली हाई कोर्ट में चल रहा है मगर बंगारू जी का कुछ बिगड़ेगा ऐसी उम्मीद कम ही लगती है। अब इस दुनिया में नहीं रहे पूर्व प्रधान मंत्री पी वी नरसिम्हा राव कई घोटलों में शामिल रहे। इंग्लैंड में रहने वाले भारतीय वायपारी लखुभाई पाठक ने उनपर धोखा करने का आरोप लगाया। उनपर एक विदेशी बैंक में 21 मिलियन अमेरिकी डॉलर जमा करने के भी आरोप लगे। सरकार बचाने के लिए उन के द्वारा झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों के 395 करोड़ रूपए देने के आरोप भी लगे। वैसे तो नरसिम्हा राव पर यह सारे आरोप साबित नहीं हो पाये मगर हर कोई जानता है कि सच्चाई वो नहीं है जो दुनिया के सामने आई। सेना के बारे में आम खयाल यह किया है कि वहाँ बड़े ईमानदार लोग रहते हैं। ऐसी आम राय है कि जो लोग देश की सेवा करने का जज्बा रखते हैं वहीं सेना में जाते हैं इसलिए सेना में जाने वालों से बेईमानी की उम्मीद नहीं की जा सकती मगर इतिहास गवाह है कि सेना में भी घपले हुए। सेना में कुछ घपले और घोटाले तो ऐसे हुये कि उन पर जितना भी शर्म किया जाए कम है। देश में सेना से संबंधित जो खास घोटाले सामने आए उनमें हथियारों की खरीदारी में घोटाला (बोफोर्स, बराक मिजाईल), वर्दी घोटाला, अंडा घोटाला, दूध घोटाला, जूता घोटाला, ताबूत घोटाला, सुखना ज़मीन घोटाला और ज़मीन की खरीद में घोटाला शामिल हैं।

पूंजीवाद से बेहतर है साम्यवाद -रूमानियाई रिफ्रेंडम का सार …

श्रीराम तिवारी

वैश्विक आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप जनांदोलनों की दावाग्नि वैसे तो सारी धरती को अंदर से धधका रही है. आधुनिकतम सूचना एवं संचार माध्यमों की भी जन-हितकारी भूमिका अधिकांश मौकों पर द्रष्टव्य रही है. इस आर्थिक संकट की चिंगारी का मूल स्त्रोत पूर्वी यूरोप और सोवियत साम्यवाद के पराभव में सन्निहित है.

दुनिया भर में और खास तौर से पूर्वी यूरोप में ’बाज़ार व्यवस्था ’के अंतर्गत जीवन का जो अनुभव आम जनता को हो रहा है ;उससे उनको बेहद आत्मग्लानि का बोध होने लगा है जिन्होंने तत्कालीन प्रतिक्रान्ति में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था. वे अपने देशों में छिपे हुए पूंजीवादी साम्राजवादी -सी आई ए के एजेंटों को पहचानने में भी असफल रहे. उन देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी शायद यह समझ था कि सर्वहारा की तानाशाही का अंतिम सत्य यही है.अब वर्तमान सर्वनाशी ,सर्वग्रासी ,सर्वव्यापी पूंजीवादी आर्थिक संकट से चकरघिन्नी हो रहे ये पूर्ववर्ती साम्यवादी और वर्तमान में भयानक आर्थिक संकट से जूझते राष्ट्रों की जनता स्वयम आर्तनाद करते हुए छाती पीट रही है -काश.इतिहास को पलटा न गया होता ,काश साम्यवाद को ध्वस्त न किया होता..

हाल ही में रूमानिया के २०१० के सी एस ओ पी /आई आई सी एम् ई आर सर्वे के सम्बन्ध में विशेषकर यह तथ्य उल्लेखनीय है कि जैसे- जैसे इस पतनशील बाजारीकरण -उधारीकरण और धरती के बंध्याकरण की व्यवस्था की असफलता का साक्षात्कार होने लगा वैसे -वैसे पूर्ववर्ती साम्यवादी व्यवस्था के प्रति सकारत्मक जिज्ञासा परवान चढ़ने लगी है.इस सर्वे में अपनी राय जाहिर करने वालों में से अधिकांश ने कहा है कि उनके देश में जब कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में थी -तो उस समय उनका जीवन ,आज की पूंजीवादी व्यवस्था के सापेक्ष कई गुना बेहतर था.६०%जनता ने साम्यवादी व्यवस्था के पक्ष में अपनी राय जाहिर की है.चार साल पहले भी ऐसा ही सर्वेक्षण हुआ था उसके मुकाबले इस दफे चमत्कारिक रूप से वृद्धि उन लोगों की हुई जो साम्यवाद को पूंजीवाद से बेहतर मानते है.

यह रोचक तथ्य है कि सर्वेक्षण कराने वाले संगठन सी एस ओ पी द्वारा किये गए सर्वे में पता चला की जिस रूमानियाई अंतिम साम्यवादी शासक निकोलाई च्सेस्कू को उसी के देशवासी पांच साल पहले तक जो खलनायक मानते आये थे वे भी दबी जुबान से कहते हैं कि इससे {वर्तमान बेतहाशा महंगाई -बेरोजगारी -भृष्टाचार की पूंजीवादी व्यवस्था से } तो चासेश्कू का शासन भी अच्छा था.सर्वेक्षण के प्रायोजकों को सबसे ज्यदा निराशा उस सवाल के जबाब से हुई; जिसमें सर्वे में शामिल लोगों से पूछा जा रहा था कि क्या उन्हें या उनके परिवारों को तत्कालीन कम्युनिस्ट व्यवस्था में कोई तकलीफ झेलनी पड़ी थी? उत्तर देने वालों में सिर्फ ७% लोगों ने साम्यवादी शासन में तकलीफ स्वीकारी ,६% अन्य लोगों ने माना कि उन्हें स्वयम तो नहीं किन्तु उनके सप्रिजनों में से किसी एक आध को तत्कालीन साम्यवादी शासन में तकलीफ दरपेश हुई थी. सर्वे में नगण्य लोग ऐसे भी पाए गए जिनका अभिमत था कि ”पता नहीं” अब और तब में क्या फर्क है ?`६२ % लोग आज एक पैर पर साम्यवादी शासन की पुन: अगवानी के लिए लालालियत हैं.

इस सर्वे का प्रयोजन एक पूंजीवादी कुटिल चाल के रूप में किया गया था, रूमानिया के अमेरिकी सलाहकारों और ”इंस्टिट्यूट फार इंवेस्टिगेसन- द क्राइम्स आफ कम्युनिज्म एंड मेमोरी आफ रुमानियन एक्साइल्स ”ने कम्युनिज्म को गए-गुजरे जमाने की कालातीत व्यवस्था साबित करने के लिए भारी मशक्कत की थी. प्रतिगामी विचारों की स्वार्थी ताकतों ने इस सर्वेक्षण के लिए वित्तीय मदद की थी. कम्युनिज्म के खिलाफ वातावरण स्थायी रूप से बनाए रखने की कोशिश में सर मुड़ाते ही ओले पड़े, जनता के बहुमत ने फिर से कम्युनिज्म की व्यवस्था को सिरमौर बताकर और वर्तमान नव-उदारवादी निगमीकरण की पतनशील व्यवस्था को दुत्कारकर सर्वे करने वालों को भौंचक्का कर दिया है. अब तो सर्वेक्षण के आंकड़ों ने सारी स्थिति को भी साफ़ करके रख दिया है.

तत्कालीन कम्युनिस्ट व्यवस्था से तकलीफ किनको थी ? यह भी उजागर होने लगा है. चूँकि साम्यवादी शासन में निजी संपत्ति की एक निश्चित अधिकतम और अपेक्षित सीमा निर्धारण करना जरुरी होता है. ऐसा किये बिना उनका उद्धार नहीं किया जा सकता जिनके पास रोटी-कपडा-मकान-आजीविका और सुरक्षा की गारंटी नहीं होती.

अतएव न केवल रोमानिया बल्कि तत्कालीन सोवियत संघ समेत समस्त साम्यवादी राष्ट्रों में यह सिद्धांत लिया गया की एक सीमा से ज्यादा जिनके पास है वो राष्ट्रीकरण के माध्यम से या तो सार्वजनिक सिस्टम से या न्यूनतम सीमा पर निजीतौर से उन लोगों तक पहुँचाया जाये जिनके पास वो नहीं है.तब उन लोगों को जो कमुनिस्ट शासन में खुशहाल थे ,कोई कमी भी उन्हें नहीं थी किन्तु उनकी अतिशेष जमीनों या संपत्तियों को राज्य के स्वामित्व में चले जाने से वे भू-स्वामी और कारखानों के मालिक साम्यवादी शासन और साम्यवादी विचारधारा से अंदरूनी अलगाव रखते थे.वर्तमान सर्वेक्षणों के नतीजों की समीक्षा में आई आई सी एम् ई आर ने यह दर्ज किया है कि २० वीं सदी के कम्युनिज्म का आमतौर पर धनात्मक आकलन करने वाले अकेले रूमानियाई ही नहीं हैं.२००९ में अमेरिका-आधारित प्यु रिसर्च सेंटर ने मध्य-पूर्वी यूरोप के क ई देशों में जो सर्वे किया था उसमें पता चला था कि पूर्ववर्ती समाजवादी या साम्यवादी देशों कि आबादी में ऐसे लोगों का अनुपात तेजी से बढ़ रहा है जो यह मानते हैं कि आज की वर्तमान पूंजीवादी-मुनाफाखोरी और वैयक्तिक लूट कि लालसा से लबरेज व्यवस्था की बनिस्बत साम्यवादी शासन कहीं बेहतर था.

भ्रष्टाचार से कलुषित भारत और गुजरात का उदाहरण

लालकृष्ण आडवाणी

प्रत्येक वर्ष गणतंत्र दिवस पर, राजपथ की परेड को देखने के बाद मैं अपने निवास पर भी झण्डावादन का छोटा कार्यक्रम आयोजित करता हूं। इसमें अधिकांश वे सुरक्षाकर्मी भाग लेते हैं जो वहां पर तैनात हैं: इस वर्ष मेरी सुपुत्री प्रतिभा ने उनके लिए एक घंटे के वृत चित्र ‘वंदेमातरम‘ का शो प्रदर्शित किया।

उस अवसर पर उपस्थित मीडियाकर्मियों को मैंने कहा कि गणतंत्र दिवस एक ऐसा दिन है जब प्रत्येक भारतीय को इस पर गर्व होना चाहिए कि वह एक ऐसे महान देश से जुड़ा है जिसका सम्मान दुनिया भर में होता है।

इससे शायद ही कोई इंकार कर सकता है कि हाल ही में समाप्त हुए वर्ष ने हमारे देश के नागरिकों को न केवल अत्यंत निराशा और ठेस पहुचांई न केवल इसलिए खाद्य स्फीति और पेट्रोल, डीजल इत्यादि की कीमतों से आम आदमी के परिवार का बजट गड़बड़ा गया अपितु इसलिए भी कि पूरी दुनिया में हमारा देश दुनिया के सर्वाधिक भ्रष्ट देशों में जाना जाने लगा है।

इस अवसर पर, मैं कुछ महीने पहले दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों का स्मरण कराना चाहूंगा। विदेश सहित दुनियाभर के अपने मित्रों तथा परिचितों से बातचीत में खेलों का मुद्दा अवश्य आता था और उसमें हमें पता चला कि विदेशी टीवी चैनलों पर नई दिल्ली के खेलों के नाम पर केवल घोटालों और घपलों सम्बन्धी समाचार ही दिखाए जाते थे। इसलिए मुझे ‘आउटलुक‘ वेबसाइट पर इस शीर्षक के अंर्तगत प्रकाशित ताजा रिपोर्ट देखकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ : ”ट्रांसपरेंसी करप्शन इंडेक्स में भारत 87वें क्रम पर लुढ़का।”

रिपोर्ट कहती है :

भ्रष्टाचार के स्तर के कारण ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के ‘कॅरप्शन प्रीसेप्शन इंडेक्स‘ के नवीनतम रैंकिंग में भारत 87वें क्रम पर लुढ़क गया, क्योंकि ग्लोबल वॉच डॉग वैश्विक प्रहरी की अवधारणा के अनुसार घपलों से भरे राष्ट्रमंडल खेलों के परिप्रेक्ष्य में देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है।

ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के ‘ट्रांसपरेंसी करप्शन इंडेक्स‘ की रिपोर्ट जो 178 देशों के सार्वजनिक उपक्रमों को जांचती है, दर्शाती है कि सन् 2009 में भारत 84वें से तीन दर्जा नीचे गिरा है।

3.3 ईमानदारी प्राप्तांक (Integrity score) के साथ भ्रष्टाचार के संदर्भ में भारत अब दुनिया में 87वें क्रम पर है। पड़ोसी चीन 3.5 ईमानदारी स्कोर लेकर 78वें क्रम के साथ भारत से उपर है। सन् 2009 में वह 79वें क्रम पर था।

ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल इण्डिया के चेयरमैन पी.एस.बाबा ने कहा कि ”रैंकिंग और ईमानदारी स्कोर के साथ भारत का नीचे जाना चिंता और खेद का विषय है। ऐसा लगता है कि कुशल प्रशासकों के बावजूद भारत में शासन का स्तर सुधर नहीं रहा है।”

0 से 10 के पैमाने पर रैंकिंग अन्य कसौटियों के साथ-साथ भ्रष्टाचार की व्यापकता और प्रत्येक सरकार द्वारा भ्रष्ट गतिविधियों को रोकने और दण्डित करने की योग्यता पर आधारित होती है।शून्य का स्कोर सर्वाधिक भ्रष्ट जबकि 10 स्कोर भ्रष्टाचार के न्यूनतम स्तर को दर्शाता है।

रिपोर्ट के मुताबिक ”भारत में भ्रष्ट्राचार के बारे में धारणा लगता है, हाल ही में सम्पन्न हुए राष्ट्रमंडल खेलों में कथित भ्रष्टाचार के चलते मुख्य रुप से बढ़ी है।”

कम से कम चार जांच एजेंसियां – केन्द्रीय सर्तकता आयोग(सी.वी.सी), प्रर्वतन निदेशालय(एर्न्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट), आयकर विभाग (इन्कम टैक्स डिर्पाटमेंट) और नियंत्रक एवं महालेखाकार(सी ए जी) – गत् वर्ष समाप्त हुए राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजकों के विरुध्द भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रही है।

ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल द्वारा दुनिया में सर्वाधिक न्यूनतम भ्रष्टाचार वाले देशों में डेनमार्क, न्यूजीलैंड और सिंगापुर को शामिल किया गया है।

9.3 स्कोर के चलते डेनमार्क रिपोर्ट में पहले क्रम पर है जबकि न्यूजीलैण्ड और सिंगापुर समान स्कोर के साथ क्रमश: दूसरे और तीसरे क्रम पर है।

5.7 ईमानदारी स्कोर के साथ दक्षिण एशिया में भूटान सर्वोतम कार्यनिष्पादनता के चलते 37वें क्रम पर है।

यह रिपोर्ट विश्व बैंक, यूरोपीय यूनियन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और फ्रीडम हाऊस फाऊण्डेशन सहित विभिन्न अतंरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा वर्षभर में किए गए 13 सर्वेक्षणों पर आधारित है।

राष्ट्रीय स्तर पर दृश्य वास्तव में निराशाजनक है। इसकी तुलना में हाल ही में गुजरात से मिलने वाले समाचारों पर कोई भी गर्व कर सकता है।

सन् 2003 से प्रत्येक दो वर्ष पर गुजरात Vibrant Gujarat कार्यक्रम आयोजित करता है। अब तक चार कार्यक्रम – 2003, 2005, 2007 एवं 2009 – हो चुके हैं। इस वर्ष के कार्यक्रम में 101 देशों और लगभग 1400 विदेशी प्रतिनिधियों ने भाग लिया। मोटे तौर पर 462 बिलियन अमेरिकी डॉलर राशि जोकि भारत के जी डी पी का एक तिहाई है, के समझौता पत्रों (एम ओ यू) पर मात्र दो दिन में हस्ताक्षर किए गए।

मई 2010 में मैंने मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा आयोजित अद्वितीय स्वर्णिम गुजरात समारोह (गुजरात के स्थापना की स्वर्ण जयंती) के बारे में लिखा था। उस अवसर पर राजधानी गांधीनगर में एक नए प्रकल्प महात्मा मंदिर की घोषणा की गई थी। यह भी घोषित किया गया था कि 2011 में आयोजित Vibrant Gujarat कार्यक्रम महात्मा मंदिर में ही किया जाएगा। प्रकल्प इतना महत्वाकांक्षी था अनेकों को आशंका थी कि क्या यह इतनी जल्दी यह पूरा हो पाएगा। लेकिन इसका श्रेय नरेन्द्रभाई को देना पड़ेगा कि 34 एकड़ भूमि में इस ऐतिहासिक आश्चर्य का निर्माण 182 दिनों में पूरा कर दिखाया।

बगैर स्तम्भों वाले इस बहुउद्देश्यीय वातानुकूलित मुख्य कन्वेंशन हॉल जहां Vibrant Gujarat कार्यक्रम सम्पन्न हुआ में 500 लोग बैठ सकते हैं और आवश्यकतानुसार स्थान बढ़ाने-घटाने की काफी संभावना है। इसके अलावा निर्मित बिज़नेस सेंटर में एक ही समय पर 1500 लोग बैठ सकते हैं।

गुजरात में इन उपलब्धियों के पीछे नरेन्द्रभाई द्वारा राज्य प्रशासन से प्रभावी ढंग से लेटलतीफी और भ्रष्टाचार को समाप्त करने में उनकी विस्मयकारी सफलता है। और यही सफलता भारत तथा विदेशों से उद्योगपतियों को स्वाभाविक रूप से गुजरात की ओर आकर्षित करती है।