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राजनेता नहीं चाहते चुनाव सुधार!

संजय सक्सेना

हिन्दुस्तान की जनता वर्षों से चुनाव प्रक्रिया में सुधार का सपना पाले हुए है। उसे इस बात का हमेशा रंज और गम रहता है कि हमारे राजनेताओं ने लोकतंत्र को लूटतंत्र बना कर रख दिया है। राजनेताओं की छवि जनमानस में कैसी है यह बात किसी से छिपी नहीं है,लेकिन हमारे नेताओं पर शायद इसका कोई फर्क ही नहीं पड़ता है, यही वजह है जो विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता चुनाव सुधार के किसी भी उपाय या विचार को अमलीजामा नहीं पहनने देते हैं। हमारे राज नेताओं द्वारा चुनाव सुधार के प्रयासों को भले ही झटका दिया जाता रहा हो लेकिन एक आम हिन्दुस्तानी के लिए खुशी की बात यह है कि चुनाव आयोग हमेशा चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए संघर्षरत् रहता है। चुनाव आयोग का ऐसा ही एक प्रयास पिछले दिनों लखनऊ में देखने को मिला। मौका था चुनाव सुधार संगोष्ठी का। संगोष्ठी में उत्तर प्रदेश और उत्तराचंल के मुख्यमंत्री सहित दोनों राज्यों के कई दिग्गज नेता भी शामिल हुए थे, लेकिन चुनाव सुधार के बारे में कोई साफ रास्ता नजर नहीं आया। चुनाव आयोग की मंशा का समर्थन करते हुए न बाहुबलियों को चुनावी मैदान से दूर रखने के लिए किसी ने हामी भरी न ही कोई राजनैतिक पार्टी चुनाव लड़ने का खर्च सरकार द्वारा उठाने (स्टेट फंडिंग) और पार्टी के खातों की जांच लेखा महा परीक्षक से अनुमोदित आडिटर से कराने की बात पर राजी हुआ। बात-बात पर एक-दूसरे की टांग खिंचाई करने वाले नेताओं को यहां एक सुर में बोलते देखना अचंभित करने वाला था।

भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने का सपना मन में लिए चुनाव आयोग और देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री मायावती और उत्तराचंल के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल तथा अन्य दलों के नेता इतिफाक से अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के दिन जब लखनऊ में एक मंच पर बैठे तो उम्मीद इस बात की थी कि लोकतंत्र से बाहुबल और अन्य ‘बीमारियों’ को खत्म करने के लिए चुनाव सुधार कमेटी की ‘चुनाव सुधार संगोष्ठी’ में आयोग और राज्य सरकार के बीच एक राय बन जाएगी, लेकिन ऐसा हो नही पाया। संगोष्ठी में भाग लेने आए करीब-करीब सभी दलों के नेतागण वैचारिक रूप से अपनी अलग ‘ताल’ बजाते नजर आए। हालांकि सभी ने यह जरूर माना कि चुनाव सुधार के लिए कदम उठाना ही चाहिए। राजनीति में अपराधीकरण के मुद्दे पर वैचारिक भिन्नताएं नजर आई तो ‘स्टेट फंडिग’ पर भी कोई सही दिशा नहीं दिखी। आयोग चाहता था कि चार्जसीट के साथ ही चुनाव लड़ने पर रोक का प्रावधान हो। वहीं बसपा सुप्रीमों और प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने साफ-साफ कह दिया कि इसके लिए आयोग को नहीं पार्टियों को खुद अनुशासित बनना होगा। उनका मानना था कि जब तक किसी को सजा न हो जाए तब तक चुनाव लड़ने पर रोक नहीं लगना चाहिए।वहीं उतरांचल के मुख्यमंत्री पोखरियाल का कहना था कि देश के प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों का चुनाव भी सीधे जनता द्वारा होना चाहिए।एक तरफ राजनेता चुनाव सुधार के लिए कोई कदम उठाते नहीं दिखे तो दूसरी तरफ मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी आयोग को और अधिकार दिलाने की वकालत करते नजर आए।

यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार की प्रक्रिया की कोशिश पहली बार नहीं की थी। चुनावों में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को उम्मीदवारी खत्म करने और चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक दलों को सरकारी खजाने से आर्थिक सहायता के सवाल न जाने कितनी बार उठाए जा चुके हैं। फिर भी राजनीतिक दल अपराधी प्रवृति वाले लोगों और तरह-तरह के अपराधों के आरोपियों को टिकट देते ही रहते हैं, जो समाज की नजरों में भले ही पूरी तरह से गलत हो, लेकिन इसके लिए जाति-धर्म के नाम पर वोटिंग करने वालों को भी पाक-साफ करार नहीं दिया जा सकता है। यह राष्ट्रीय शर्म की बात है कि भारतीय रजानीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लागों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो समय-समय पर समाज में तो गंदगी फैलाते ही रहते हैं,अक्सर अपनी ही पार्टियों को भी शर्मसार करते है। अपराधियों को राजनीति से दूर रखने की जितनी कोशिश की जा रही है,उसके उल्ट अपराधियों की राजनीति में दखलंदाजी उतीन ही बढ़ती जा रही है। पिछले करीब 25 सालों का इतिहास खंगाला जाए तो पता चलता है कि 1985 में जहां मात्र 35 विधायकों पर आपराधिक मुकदमें थे,वहीं 2007 के विधान सभा चुनाव आपराधिक वारदातों वाले विधायकों की संख्या 155 पहुंच गई। आपराधिक प्रवृति वालों को टिकट देने में कोई भी दल पीछे नहीं है। मौजूदा समय में बसपा के 68 तो सपा के 47,भाजपा के 18,कांग्रेस के 09 विधायकों के दामन दागदार हैं।राजनैतिक दल सचेत न हुए तो 2012 के विधान सभा चुनाव में यह संख्या कुल विधायकों की आधी से अधिक तक पहुंच सकती है।

देश के कई मुख्य चुनाव आयुक्त, वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी की तरह ऐसी ही रट लगाते हुए सेवानिवृत भी हो चुके है। उम्मीद यही है कि कुरैशी के हाथ भी कुछ खास नहीं आएगा। यह दुर्भाग्य ही है कि देश के किसी राज्य का मुख्यमंत्री ऐसा नहीं है जो चुनाव सुधार की कोशिशों का खुले दिमाग से समर्थन करता हो और चुनाव आयोग के पास इतनी ताकत नहीं है कि वह कोई फैसला स्वयं ले पाए।

भारत में राजनीतिक दल वही होता है, जो कुर्सी पर काबिज होने में कामयाब हो जाए और नेता भी वही माना जाता है, जो हर हालत में चुनाव जीत लेै। ऐसे में यह कहना काफी मुश्किल होगा कि भारत में चुनाव सुधार के प्रयास कब शुरू होंगे। हालांकि केंद्र सरकार इस संबंध में संसद से एक कानून पारित करवाकर अपराधी तत्वों का राजनीति में प्रवेश बंद करवाने की बात कहती रही है, लेकिन इसके लिए ठोस कदम की रूपरेख तक नहीं बन पाई है। राज्यों की सरकारें भी पूरी तरह से निष्क्रिय हैं, ताकि उन्हें अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेने की जरूरत न पड़े।चुनाव प्रक्रिया में खामियों की वजह से ही देश में 25 प्रतिशत मतदाता चुनाव के दौरान अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते। आखिर इसके कारण पर गंभीरता से मंथन कब किया जाना चाहिए ?

नशामुक्ति की दिशा में छग सरकार के बढ़ते कदम

अशोक बजाज

मुख्यमंत्री डा.रमन सिंह की अध्यक्षता में दिनांक 28.01.2011 को छत्तीसगढ़ कैबिनेट ने दो हजार की जनसंख्या वाले गांवों की 250 शराब दुकानों को 1 अप्रेल 2011 से बंद करने तथा शराब की अवैध बिक्री रोकने आबकारी एक्ट में कड़े प्रावधान करने का ऐतिहासिक फैसला लिया है .इस निर्णय से शासन को एक सौ करोड़ रुपए की प्रति वर्ष राजस्व की हानि होगी .

सरकार का यह नशामुक्ति की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम है . सरकार शराबियों ,शराब-निर्माताओं तथा शराब विक्रेताओं के खिलाफ कड़े कानून बना कर कार्यवाही करना चाहती है इसीलिए सरकारी राजस्व की हानि की परवाह किये बगैर मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने यह साहसिक फैसला लिया है . हालाँकि हम यह भी जानते है कि सरकार के कानून से नशा खोरी को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता .सरकार केवल शराब के उत्पादन वितरण और खपत को ही नियंत्रित कर सकती है लेकिन उसके सेवन को नियंत्रित करना समाज का काम है .वर्तमान में नशाखोरी की बढ़ती प्रवृति इतनी बढ़ गई है कि उसके प्रवाह को रोक पाना संभव नहीं है , कम से कम सरकार के लिए तो यह असंभव है . इसके लिए समाज में जन जागरण जरुरी है , जन-जागरण के अलावा और कोई बेहतर विकल्प नहीं है . क्योकि सरकार तो शराब दुकानें बंद कर देगीं लेकिन पीने के शौकीन लोग कहीं ना कहीं से अपना इंतजाम कर ही लेंगे , यदि शराब नहीं मिली तो क्या हुआ ,बाजार में अन्य नशीले पदार्थों की भरमार है . कुछ नशीले पदार्थ तो शराब से भी ज्यादा खतरनाक है जो बाजार में आसानी से उपलब्ध हो जाते है . अतः बेहतर तो यही होगा कि हम नई पीढ़ी को इस जहर से दूर ही रहने दें .हमने इसीलिये कुछ वर्षों से जन-जागरण करके अनेक लोंगों को नशापान से मुक्त कराया .इसके लिए जो नारा दिया गया – ” नशा हे ख़राब- झन पीहू शराब ” यह गाँव गाँव में काफी प्रसिद्ध हुआ है . प्रदेश में अनेक धार्मिक ,सामाजिक एवं स्व-सेवी संस्थाएं भी इस काम में जुटी है . इन सबको अपना प्रयास और तेज करना होगा क्योकि अब सरकार का समर्थन भी इनके साथ जुड़ गया है .सरकार एवं समाज दोनों मिलकर समाज को पूरी तरह नशामुक्त कर सकते है . नशामुक्ति की दिशा में सरकार का वर्तमान कदम सराहनीय है . मुख्यमंत्री डा.रमन सिंह एवं उनकी सरकार इसके लिए साधुवाद की पात्र है .

कविता/ तलाश

पाकिस्तान व चीन का हर बड़ा शहर अब हमारी

तरकश की मार की पहुंच में है

हमारे देश में हर साल उग आते हैं अनेकों अरबपति

सासंदों की आय हो जाती है हर साल दोगुना

एक अम्बानी अपनी पत्‍नी को उसके जन्म दिन पर

भेंट दे देता है एक उड़नखटोला……..

चन्द्रमा पर पानी की गम्भीर खोज में व्यस्त हैं हम

भारत के युवा अपनी मेधा से दुनिया में लोहा मनवा रहे हैं

लेकिन फिर भी 40 करोड़ से अधिक लोगों के चेहरे उदास क्यों हैं

क्यों कोई अग्नि, कोई त्रिशूल, या पृथ्वी भेद नहीं पा रही है

भ्रष्टाचार , गरीबी व कुपोषण को,,,,,,,,,,,

क्यों बहुमंजिली कोठियों के आगे झोपड़ियों की लम्बी कतारे हैं

क्यों सड़कों, रेलवे लाइनों पर मजदूरी करती माता-बहिनों के

झुण्ड के झुण्ड दिखाई देते हैं,,,,,,,,,

हम कब समझेंगे कि मां बहिनों व बच्चों के चेहरे पर मुस्कराहट

विश्‍व गुरु भारत की पूर्व शर्त है

बहिनें विज्ञान , आई.टी. व ,व्यवसाय में जौहर दिखाएं

कल्पना चावला, सुनिता विलियम व किरण बेदी बन

बुलंदियां छूएं इसमें हमारी शान है

लेकिन मजबूरीवश किसी के आगे हाथ फैलाएं

महाशक्ति भारत का यह अपमान है

हमें सोचना होगा…….

क्यों प्रतिवर्ष लाखों धरती पुत्र कर लेते जीने से तौबा

क्यों करोड़ों वनवासी बन्धु जीवन की मूलभूत

जरुरतों के लिए जूझते और

निहारते रहते हैं राजभवन की ओर

क्यों विकास व समृद्धि की गंगा शहरों में घूमते घूमते

गांवों का रास्ता भूल जाती है …….

क्यों हर साल हजारों निर्दोष नागरिक खो देते हैं

अपना बहुमुल्य जीवन आतंकवादियों के हाथ

क्यों देशवासियों के चेहरे पर हर हमारी उपलब्धि की बात सुन

फैल जाती है असहाय व ब्यंग्यात्मक मुस्कराहट

देश को तलाश है फिर किसी डा. हेडगेवार, नेताजी सुभाष या

किसी लाल बहादुर शास्त्री की

जो देश के दर्द में बेचैन हो कर कर दे न्यौछावर स्वयं को…

क्या वह तलाश हम पर आकर समाप्त हो सकती है ?


-विजय कुमार नड्डा

मिस्र के जनांदोलन की बदलती तस्वीर

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

मिस्र के जनांदोलन की तस्वीर और भी ज्यादा जटिल रूप ग्रहण करती जा रही है और राष्ट्रपति हुसैनी मुबारक की राजनीतिक चालें पिटती चली जा रही हैं। सेना और प्रतिवादियों में मुठभेड़ को टालने के लिए लिहाज से मुबारक ने अपने समर्थकों को मैदान में उतारा ,जगह-जगह उनके समर्थकों ने रैलियां की और मुबारक विरोधियों से मुठभेडें कीं, जिनमें आठ लोग मारे गए और सैंकड़ों घायल हुए हैं।

जब बृहत्तर जनसमूह मुबारक के खिलाफ मैदान में था और सेना ने सीधे कार्रवाई से मना कर दिया तो ऐसे में मुबारक समर्थकों का रैलियां आत्मघाती कदम ही कहलाएगा। इस एक्शन के गलत परिणाम निकले है और कल मिस्र के प्रधानमंत्री ने इन मुठभेड़ों के लिए माफी मांगी है।

नवनियुक्त प्रधानमंत्री अहमद शफ़ीक़ ने देश में हुई घटनाओं के लिए माफ़ी मांगी है.उल्लेखनीय है राष्ट्रपति समर्थक और विरोधी गुटों की बीच झड़पों में आठ लोग मारे गए हैं और सैकड़ों लोग घायल हुए हैं. उन्होंने हिंसा की जाँच का वादा किया है.

प्रधानमंत्री ने कहा, “मैं इस घटना के लिए सबके सामने खुलकर माफ़ी माँगता हूँ इसलिए नहीं कि यह मेरी ग़लती थी या किसी और की. मैं तो इस बात से दुखी हूँ कि मिस्र के ही लोग इस तरह आपस में लड़ रहे हैं. फूट तो परिवारों में भी होते हैं लेकिन कल जो हुआ वह किसी योजना का हिस्सा नहीं था, मैं उम्मीद करता हूँ कि इंशा अल्लाह सब ठीक हो जाएगा।”

जनांदोलन का ही दबाब है कि मिस्र के शासनाध्यक्ष संविधान में जरूरी परिवर्तन की बात कह रहे हैं। उपराष्ट्रपति ने टेलीविजन से प्रसारित अपने संदेश में कहा, “हम संवैधानिक और विधायिका संबंधी सुधार लागू करेंगे और हर मुद्दे के अध्ययन के लिए एक समिति का गठन करेंगे. इसके बाद हम इसकी भी जाँच करेंगे कि ऐसी घटनाएँ क्यों हुई.।”

मुश्किल यह है कि जनता लोकतंत्र की मांग कर रही है और लोकतंत्र का संविधान में प्रावधान ही नहीं है। लोकतंत्र से कम पर वह कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है। मुबारक को हटाने की मांग उनकी पहली मांग है लेकिन असल मांग है मिस्र में लोकतंत्र की स्थापना की जाए। मुबारक और उनके समर्थक यदि संविधान संशोधन करके लोकतंत्र की स्थापना का संकल्प व्यक्त करते हैं तो उसका कुछ असर भी होगा।

मुबारक और अमेरिका की रणनीति है कि किसी तरह आंदोलनकारी जनता को शांत किया जाए और उन्हें तहरीर स्क्वेयर से वापस घर भेजा जाए। लेकिन आंदोलनकारी वापस जाने को तैयार नहीं दिख रहे हैं। आंदोलनकारियों को शांत करने के लिहाज से अमेरिका ने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अल बरदाई,उपराष्ट्रपति सामी अनान,सेना के मुखियाओं की मदद लेने का फैसला किया है साथ ही कैमिस्ट्री में नोबेल पुरस्कार प्राप्त अहमद जुएल की भी मदद ली जा रही है लेकिन अभी तक कोई अनुकूल परिणाम नहीं मिले हैं। इसका प्रधान कारण है अलबरदाई और अहमद जुएल का मिस्र में आंदोलनकारियों में कोई जनाधार नही है।

तहरीर चौक पर सेना और टैंकों की घेराबंदी बनी हुई है। चौक पर आंदोलनकारी जमे हुए हैं। आंदोलन के दबाब में मुबारक ने पुराने मंत्रीमंडल को भंग करके जो नया मंत्रीमंडल बनाया है उसमें बड़े पैमाने पर सेना के बड़े अफसरों को रखा गया है इससे एक बात तो यह निकलती है कि अमेरिका मिस्र में आने वाले समय में जनता का शासन नहीं चाहता बल्कि नग्न सैन्यशासन चाहता है क्योंकि ये सारे परिवर्तन अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के इशारे पर हो रहे हैं।

मुबारक और उनके साथी यह हौव्वा खड़ा कर रहे हैं कि मिस्र में ब्रदरहुड नामक फंडामेंटलिस्ट संगठन के सत्ता में आ जाने का खतरा है अतः सेना की मदद बेहद जरूरी है। असल में मिस्र के मौजूदा प्रतिवाद को संगठित किया है लोकतांत्रिक शक्तियों ने,इसमें बड़े पैमाने पर मजदूरों संगठनों की भी भूमिका है। यह सच है मुस्लिम ब्रदरहुड संगठन मिस्र का सबसे बड़ा मुबारक विरोधी संगठन है और वह इस प्रतिवाद में शामिल है लेकिन जनता के और भी तबके शामिल हैं प्रतिवाद में।

मुबारक विरोधियों की मांग है कि सबसे पहले राष्ट्रपति इस्तीफा दें और उसके बाद एक सभी गुटों को मिलाकर एक राष्ट्रीय सरकार का गठन किया जाए और आंदोलनकारियों की मांगों पर विचार किया जाए।

मिस्र के प्रतिवादी आंदोलन में आम जनता पर व्यापक हमले हुए हैं साथ ही मीडिया पर भी हमले हुए हैं। यहां तक कि विदेशी पत्रकारों को गिरफ्तार और उत्पीडित किया गया है।अब तक24 पत्रकार गिरफ्तार किए गए हैं और 21 पत्रकारों पर हमले हुए हैं। पांच मामलों में पत्रकारों के उपकरण सेना ने जब्त कर लिए हैं। मुबारक प्रशासन का सबसे ज्यादा गुस्सा अल जजीरा टीनी चैनल पर है सेना ने उसके 3 पत्रकारों को बंद कर दिया है,चार पर हमला हुआ है और एक पत्रकार लापता है। अलजजीरा के अनुसार सेना ने दर्जनों पत्रकारों के कैमरा और दूसरे संचार उपकरण छीनकर नष्ट कर दिए गए हैं।

आखिर कब तक होगा धर्मांतरण द्वारा भारत की आत्मा से खिलवाड

विनोद बंसल

भारतीय गणतंत्र की 61वीं वर्षगांठ के ठीक एक दिन पूर्व हमारी सर्वोच्च न्यायालय ने मात्र चार दिन पूर्व स्वयं द्वारा सुनाए गए एक ऐतिहासिक निर्णय में बदलाव कर न सिर्फ अपने ही नियमों को नजरंदाज किया है बल्कि धर्मांतरण के संबंध में एक नई बहस का बीजा-रोपण भी किया है। संभवत यह अभूतपूर्व ही है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने किसी मुकदमे में अपने ही निर्णय को स्वेच्छा से संशोधित किया हो और उसका कोई कारण नहीं बताया गया हो।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने बाईस जनवरी 1999 को उडीसा के मनोहर पुर गांव में आस्ट्रेलियन मिशनरी ग्राहम स्टैन्स व उसके दो बच्चों को जिन्दा जलाए जाने के आरोप में रविन्द्र कुमार पाल (दारा सिंह) व महेन्द्र हम्ब्रम को आजीवन कारावास की सजा सुनाते हुए 21 जनवरी 2011 को कहा था कि फांसी की सजा दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में दी जाती है। और यह प्रत्येक मामले में तथ्यों और हालात पर निर्भर करती है। मौजूदा मामले में जुर्म भले ही कड़ी भर्त्सना के योग्य है। फिर भी यह दुर्लभतम मामले की श्रेणी में नहीं आता है। अत इसमें फांसी नहीं दी जा सकती। विद्वान न्यायाधीश जस्टिस पी सतशिवम और जस्टिस बी एस चौहान की बेंच ने अपने फैसले में यह भी कहा कि लोग ग्राहम स्टेंस को सबक सिखाना चाहते थे, क्योंकि वह उनके क्षेत्र में मतांतरण के काम में जुटा हुआ था। न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी भी व्यक्ति की आस्था और उसके विश्वास में हस्तक्षेप करना और इसके लिए बल, उत्तोजना या लालच का प्रयोग करना या किसी को यह झूठा विश्वास दिलाना कि उनका धर्म दूसरे से अच्छा है और ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करते हुए किसी व्यक्ति का मतांतरण करना (धर्म बदल देना) किसी भी आधार पर न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार के धर्मांतरण से हमारे समाज की उस संरचना पर चोट होती है, जिसकी रचना संविधान निर्माताओं ने की थी। किसी की आस्था को चोट पहुंचा कर जबरदस्ती धर्म बदलना या फिर यह दलील देना कि एक धर्म दूसरे से बेहतर है, उचित नहीं है।

उपरोक्त पंक्तियों को बदलते हुए न्यायालय ने कहा कि इन पक्तियों को इस प्रकार पढा जाए-”घटना को घटे बारह साल से अधिक समय बीत गया, हमारी राय और तत्थों के आलोक में उच्च न्यायालय द्वारा दी गई सजा को बढाने की कोई आवश्यकता नहीं है।” आगे के वाक्य को बदलते हुए माननीय न्यायालय ने कहा कि ”किसी भी व्यक्ति के धार्मिक विश्वास में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करना न्यायोचित नहीं है।”

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चार दिन के भीतर ही अपने निर्णय में स्वत संशोधन करते हुए निर्णय की कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियों को हटा लिए जाने से कई प्रश्न उठ खडे हुए हैं। एक ओर जहां चर्च व तथा कथित सैक्यूलरवादियों का प्रभाव भारत की सर्वोच्च संस्थाओं पर स्पष्ट दिख रहा है। वहीं, भारत का गरीब बहुसंख्यक जन-जातीय समाज अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। मामले से संबन्धित पक्षकारों में से किसी भी पक्षकार के आग्रह के विना किये गए संशोधन को विधिवेत्ताा उच्चतम न्यायालय नियम 1966 के नियम 3 के आदेश संख्या 13 का उल्लंघन मानते हैं। साथ ही वे कहते हैं कि इससे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 362 का भी उल्लंघन होता है।

इस निर्णय ने एक बार फिर चर्च की काली करतूतों की कलई खोल कर रख दी है। विश्व में कौन नहीं जानता कि भारत की भोली-भाली जनता को जबरदस्ती अथवा बरगला कर उसका धर्म परिवर्तन कराने का कार्य ईसाई मिशनरी एक लम्बे समय से करते आ रहे हैं।

अभी हाल के दिनों की सिर्फ दो घटनाओं पर ही गौर करें तो भी हमें चर्च द्वारा प्रायोजित मतांतरण के पीछे छिपा वीभत्स सत्य का पता चल जाएगा । सन् 2008 में कर्नाटक के कुछ गिरजाघरों में हुईं तोड़-फोड़ की घटनाओं में ”सेकूलर” दलों और मीडिया ने संघ परिवार और भाजपा की नवनिर्वाचित प्रदेश सरकार को दोषी ठहराने का भरसक प्रयास किया था। किन्तु, न्यायाधीश सोम शेखर की अध्यक्षता में गठित न्यायिक अधिकरण्ा द्वारा अभी हाल ही में सौंपी रिपोर्ट स्पष्ट कहती है कि ये घटनाएं इसलिए घटीं, क्योंकि ईसाई मत के कुछ संप्रदायों ने हिंदू देवी-देवताओं के संदर्भ में अपमानजनक साहित्य वितरण किया था। तथा इस भड़काऊ साहित्य का मकसद हिंदुओं में अपने धर्म के प्रति विरक्ति पैदा करना था। मध्य प्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की शिकायतों को देखते हुए 14 अप्रैल, 1955 को तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पूर्व न्यायाधीश डॉ. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति की प्रमुख संस्तुति में मतांतरण के उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकालना और उन पर पाबंदी लगाने की बात प्रमुख थी। बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुचित श्रध्दा, अनुभव हीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए न हो। बाद में देश के कई अन्य भागों में गठित समितियों ने भी नियोगी आयोग की संस्तुतियों को उचित ठहराया। जस्टिस नियोगी आयोग की रिपोर्ट, डीपी वाधवा आयोग की रिपोर्ट तथा कंधमाल में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद बनाए गए जस्टिस एससी महापात्रा आयोग की रिपोर्ट के साथ और कितने ही प्रमाण चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं कि इस आर्यवर्त को अनार्य बनाने में चर्च किस प्रकार संलग्न है।

इस प्रकार, विविध न्यायालयों व समय समय पर गठित अनेक जांच आयोगों व न्यायाधिकरणों ने स्पष्ट कहा है कि अनाप- सनाप आ रहे विदेशी धन के बल-बूते पर चर्च दलितों-वचितों व आदिवासियों के बीच छल-फरेब से ईसाइयत के प्रचार-प्रसार में संलग्न है। उनकी इस अनुचित कार्यशैली पर जब-जब भी प्रश्न खडे किए जाते हैं, चर्च और उसके समर्थक सेकुलरबादी उपासना की स्वतंत्रता का शोर मचाने लगते हैं। आखिर उपासना के अधिकार के नाम पर लालच और धोखे से किसी को धर्म परिवर्तन की छूट कैसे दी जा सकती है। यदि देह व्यापार अनैतिक है तो आत्मा का व्यापार तो और भी घृणित तथा सर्वथा निंदनीय है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाधी तथा डॉ. भीमराव अंबेडकर सहित अनेक महापुरुषों ने धर्मांतरण को समाज के लिए एक अभिशाप माना है। गांधीजी ने तो बाल्यावस्था में ही स्कूलों के बाहर मिशनरियों को हिंदू देवी-देवताओं को गालियां देते सुना था। उन्होंने चर्च के मतप्रचार पर प्रश्न खड़ा करते हुए कहा था- श्श्यदि वे पूरी तरह से मानवीय कार्य और गरीबों की सेवा करने के बजाय डॉक्टरी सहायता व शिक्षा आदि के द्वारा धर्म परिवर्तन करेंगे तो मैं उन्हें निश्चय ही चले जाने को कहूंगा। प्रत्येक राष्ट्र का धर्म अन्य किसी राष्ट्र के धर्म के समान ही श्रेष्ठ है। निश्चय ही भारत का धर्म यहां के लोगों के लिए पर्याप्त है। हमें धर्म परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है।श्श् एक अन्य प्रश्न के उत्तार में गांधी जी ने कहा था कि श्श्अगर सत्ताा मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मैं मतांतरण का यह सारा खेल ही बंद करा दूं। मिशनरियों के प्रवेश से उन हिंदू परिवारों में, जहां मिशनरी पैठ है, वेशभूषा, रीति-रिवाज और खानपान तक में अंतर आ गया है।श्श् इस संदर्भ में डॉ. अंबेडकर ने कहा था, श्श्यह एक भयानक सत्य है कि ईसाई बनने से अराष्ट्रीय होते हैं। साथ ही यह भी तथ्य है कि ईसाइयत, मतांतरण के बाद भी जातिवाद नहीं मिटा सकती।श्श् स्वामी विवेकानद ने मतांतरण पर चेताते हुए कहा था श्श्जब हिंदू समाज का एक सदस्य मतांतरण करता है तो समाज की एक संख्या कम नहीं होती, बल्कि हिंदू समाज का एक शत्रु बढ़ जाता है।श् यह भी सत्य है कि जहां-जहां इनकी संख्या बढी, उपद्रव प्रारंभ हो गये। पूर्वोत्तार के राज्य इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वर्ष 2008 में उडीसा के कंधमाल में हुई स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की हत्या, तथा आज मणिपुर, नागालैंड, असम आदि राज्यों में मिशनरियों द्वारा अपना संख्याबल बढ़ाने के नाम पर जो खूनी खेल खेला जा रहा है वह सब इस बात का प्रत्यक्ष गवाह है कि भारत की आत्मा को बदलने का कार्य कितनी तेजी के साथ हो रहा है।

यदि हम आंकडों पर गौर करें तो पायेंगे कि उडीसा के सुन्दरगढ, क्योंझार व मयूरभंज जिलों की ईसाई आबादी वर्ष 1961 की जनगणना के आकडों के अनुसार क्रमशरू 106300, 820 व 870 थी जो वर्ष 2001 में बढ कर 308476, 6144 व 9120 हो गई। यदि इसी क्षेत्र की जनसंख्या ब्रध्दि दर की बात करें तो पाएंगे कि वर्ष 1961 की तुलना में जहां ईसाई जनसंख्या तीन से दस गुनी तक बढी है वहीं हिन्दु बाहुल्य इन तीन जिलों में हिन्दुओं की जनसंख्या गत चालीस वर्षों में मात्र कहीं दुगुनी तो कहीं तिगुनी ही हुई है। क्या ये आंकडे किसी भी जागरूक नागरिक की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त नहीं हैं? आज चर्च का पूरा जोर अपना साम्राज्यवाद बढ़ाने पर लगा हुआ है। इस कारण देश के कई राज्यों में ईसाइयों एवं बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। मतांतरण की गतिविधियों के चलते करोड़ों अनुसूचित जाति से ईसाई बने बन्धुओं का जीवन चर्च के अंदर ही नर्क बन गया है। चर्च लगातार यह दावा भी करता आ रहा है कि वह देश में लाखों सेवा कार्य चला रहा है, लेकिन उसे इसका भी उत्तार ढूंढ़ना होगा कि सेवा कार्य चलाने के बावजूद भारतीयों के एक बड़े हिस्से में उसके प्रति इतनी नफरत क्यों है कि 30 सालों तक सेवा कार्य का दाबा करने वाले ग्राहम स्टेंस को एक भीड़ जिंदा जला देती है और उसके पंथ-प्रचारकों के साथ भी अक्सर टकराव होता रहता है। ऐसा क्यों हो रहा है? इसका उत्तार तो चर्च को ही ढूंढ़ना होगा। क्या छलकपट और फरेब के बल पर मत परिर्वतन की अनुमति देकर कोई समाज अपने आप को नैतिक और सभ्य कहला सकता है?

किन्तु अब एक अहम प्रश्न यह है कि आखिर कब तक हम, हमारी सरकारें और मजबूत लोकतंत्र के अन्य प्रहरी धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण की ओर बढते इस षढयंत्र पूर्वक चालाए जा रहे अभियान को यूं ही चलने देंगे और अपनी आत्मा के साथ खिलवाड को सहन करते रहेंगे। वर्तमान परिपेक्ष में किसी राजनेता से तो इस सम्बन्ध में आशा करना बेमानी सी बात लगती है। हां, न्याय की देवी के आंखों की पट्टी यदि खुल जाए तो शायद मेरे भोले भाले वनवासी, गिरिवासी व गरीब भरतवंशी का भाग्योदय संभव है।

धर्म बनाम धर्मनिरपेक्षता

विजय सोनी

धर्म की परिभाषा या व्याख्या करने का अधिकार या कर्तव्य केवल ऋषि मुनियों का ही है, मैं ये दुस्साहस बिलकुल भी नहीं कर सकता केवल एक सामान्य व्यक्ति की सामान्य सोच से ,मैं तो केवल याद दिलाऊंगा की-इस सत्य को तो विज्ञान भी मानता है की आज हम जिस धरती पर जी रहे हैं ,वो सूर्य जो आग का एक गोला था का ही एक भाग है,लेकिन समय ने अपना धर्म निभाया धीरे धीरे ये आग का गोला पानी-हवा के”धर्म”से ही शांत हुवा,फिर धीरे धीरे पेड पौधे -व जीव जंतुओं ने जनम की प्रक्रिया को प्राकृत रूप से सामान्य धर्म को ग्राह्य कर जन्म दिया ,आदम-हौवा की संतान प्रजनन की प्रक्रिया भी “प्रजनन धर्म-संसार रचना धर्म” को मान कर प्रारंभ हुवी और यहीं से आहिस्ता आहिस्ता हमने ये समझा की ब्रह्माण्ड,सम्पूर्ण सौर्यमंडल,पृथ्वी,आकाश और जीव जंतु सहित फल फूल और जीव जंतुओं तक का कुदरत ने धर्म तय किया है फिर मानुष इससे कैसे वंचित रह सकता है या यों कहें की सबका अपना अपना धर्म होता है, तो गलत नहीं होगा,सितारे अपना धर्म ,पृथ्वी अपना धर्म,जीव जंतु सभी अपना अपना धर्म पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निभाते हैं तभी ये संसार कायम है ,अन्यथा ज्ञान- विज्ञान सब धरा का धरा रह जाएगा मनुष्य उस विनाश की कल्पना तक नहीं कर सकता की स्थिति कितनी विकट होगी,समझना उसके बस का भी नहीं है किन्तु मानव स्वाभाव के वशीभूत होकर हम कई कार्य केवल अपने अंधे स्वार्थ और लालच के लिए अनावश्यक करतें हैं,अपनी इसी आदत के वशीभूत होकर हम अनेक प्रकार की व्याख्या करतें हैं उसी में एक शब्द जिसे अंग्रेजी में”सेकुलेर”जिसका अर्थ होता है”संसारी धर्म से सम्बन्ध ना रखने वाला”और इसी को”इज्म”जोड़ कर”सेकुलरिजम”अर्थात “धर्म निरपेक्षता ” कहा जाने लगा भारत में सरकारें धर्म को लेकर घबराने लगीं कहीं कहीं तो ऐसा लगने लगा है की ये लोग धर्म निरपेक्षता की आड़ लेकर अधार्मिक और अप्राकृतिक हो गए हैं ,हम भूल गए हैं की ,भारतवर्ष तो एक ऐसा देश है जिसने सारी दुनिया में अपने धार्मिक-संस्कारिक मान्यताओं के बल पर अपना लोहा मनवाया है ,पता नहीं ७ पीढी तक के मुग़ल शाशन और २०० वर्षों की अंगरेजी गुलामी की चाही अनचाही छाप से हम कब मुक्त होंगें ,चाँद सितारों के धर्म की ना सोचते हुवे भी यदि हम देखें तो स्पष्ट दिखाई देता है की दुनिया में कोई भी देश बिना धार्मिक मान्यताओं के नहीं चल रहा है ,पश्चिमीदेशों सहित पृथ्वी का उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्ध का बड़ा भाग जहाँ ईसाई धर्म के अनुयाई हैं तो खाड़ी सहित विश्व एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम धर्म का पालक है,अन्य धर्मावलम्बी लोगों के साथ वहां किस प्रकार का आचरण व् व्यवहार होता है ये भी हम जानते और समझतें हैं -धर्म निरपेक्षता शब्द का हो हल्ला केवल है तो केवल भारतवर्ष में होता है जहाँ “धर्मनिरपेक्षता ” शब्द की दुहाई दे दे कांग्रेसी सरकार अपनी राजनितिक रोटियां सेक कर हिन्दुओं को कट्टरवादी -आतंकवादी और ना जाने क्या क्या कह कर की “हिन्दू आतंकवादी ” हैं,हिन्दुओं की तुलना सिम्मी जैसे उग्र मानव विरोधी गुटों तक से कर इसे बदनाम करने की कोशिश सत्ता लोलुप लोगों द्वारा केवल”फूट डालो राज करो”के सिधान्त को सर्वोपरी मान कर की जा रही है किन्तु देर है अंधेर नहीं समय का पहिया घूम कर फिर अपने यथा स्थान ज़रूर पहुंचता है इसके लिए किसी सहारे की ज़रूरत नहीं है कुदरत के नियम बदलना इंसान चाहे जितना भी दंभ भर-चाहे जितनी ताक़त लगा ले उसके बस का नहीं है ,यदि धर्म नहीं तो कुछ भी नहीं इसे हमें देर सवेर सब को मानना और अपनाना ही होगा तभी विश्व में शान्ति समृद्धि और एकता कायम होगी।

बसपा के दो ‘दिग्गज’ आमने-सामने

संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड इलाका आजकल बसपा के दो दिग्गजों के बीच वर्चस्व का अखाड़ा बना हुआ है। एक-दूसरे को नीचा दिखाने की मुहिम में लगे इन नेताओं के कारण बसपा को यहां हर तरह से नुकसान उठाना पड़ रहा है। कभी यहां कांग्रेस का परचम लहराता था,इसके बाद सपा ने यहां खूब छूम मचाई,लेकिन 2007 के विधान सभा चुनाव में यहां बसपा का डंका बजा। बसपा ने यहां परचम लहराया तो सबसे पहले उसने इस इलाके को दस्यु से मुक्त करने का बीड़ा उठा लिया। बुंदेलखंडवासियों ने बसपा को वोट देकर जिताया तो माया सरकार ने बुंदेलखंड के एक-दो नहीं सात विधायकों को मंत्रिपरिषद में जगह देने में देर नहीं की।इसमें कैबिनेट का दर्जा प्राप्त और बसपा के दिग्गज नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी,बाबू सिंह कुशवाहा ,बादशाह सिंह, द्ददू प्रसाद और राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार रतन लाल अहिरवार, भगवती प्रसाद सागर के अलावा राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त हरिओम शामिल है। उम्मीद यह थी माया मंत्रिपरिषद में बुंदेलखंड से इतने मंत्रियों का नाम आने से यहां विकास की गंगा बहने लगेगी, लेकिन इसके उल्ट यह मंत्री मुसीबत का पिटारा बन गए। माया के मंत्रियों में टकराव होने लगा, जिसके कारण कई ऐसे मुद्दों को हवा मिल गई जिस पर समय रहते अंकुश लग जाता तो न माया सरकार की बदनामी होती, न हीं विपक्ष को मौका मिलता। कहा तो यहां तक जाता है कि हाल में ही बांदा के एक बसपा विधायक पर रेप केस का मामला और कुछ माह पूर्व एक किसान की जमीन पर माया के सबसे वफादार मंत्री के कब्जे की कोशिश का मामला भी बसपा के नंबर दो समझे जाने वाले दो दिग्गज नेताओं की एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृति के चलते खूब हवा में उछला। इसे भी इतिफाक ही कहा जाएगा कि माया सरकार में अपने आप को बहनजी का सबसे वफादार और नंबर दो समझने वाले यह दोनों नेता बुदेलखंड के एक ही जिले बांदा से ताल्लुक रखते हैं और फिलहाल दोनों ही विधान परिषद के रास्ते से राजनीति के मैदान में जमे हुए हैं।

बुंदेलखंड और उसमें भी खासकर बांदा की बसपा राजनीति इन्ही दोनों नेताओं के इर्दगिर्द घूमती रहती है। यहां के बसपाई दो गुटों में बंटे हैं। कोई सिद्दीकी गुट तो कोई बाबू सिंह कुशवाहा खेमें में रहकर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंक रहा है। ऊपर से तो दोनों नेताओं को देखने से ऐसा कुछ नहीं लगता है कि इनमें कहीं कोई मतभेद वाली बात होगी, लेकिन भीतरखाने यह नेता एक-दूसरे को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। बुंदेलखंड की राजनीति को करीब से जानने वाले जानते हैं कि इन दोनों नोताओं के बीच क्या पकता रहता है। दोनों ने ही खूब सत्ता सुख उठा रहे है।जमीन से जुड़े होने का दावा करने वाले इन दोनों नेताओं का जमीन के प्रति लगाव देखते ही बनता है। बांदा से लेकर लखनऊ और न जाने कहॉ तक यह ‘जमीन’ से जुड़े हुए हैं।

नसीमुद्दीन सिद्दीकी बसपा में मुस्लिम चेहरा होने के साथ मायावती के लॉयल हैं। वफादारी के मामले में नसीमुद्दीन को माया का ‘हनुमान’ समझा जा सकता है। सिद्दीकी के कंधों पर आबकारी, लोक निर्माण, सिंचाई, आवास, शहरी नियोजन, गन्ना विकास, चीनी उद्योग तथा कृषि विभाग जैसे महत्वपूर्ण विभाग के अलावा बसपा के लिए फंड जुटाने की भी जिम्मेदारी रहती है। इस काम को वह बखूबी अंजाम देते हैं। सिद्दीकी पार्टी के लिए इधर-उधर से जो भी ‘पुष्प पत्र’ एकत्रित करते हैं,वह बहनजी के चरणों में समर्थित कर देते है। एक भी फूल या पत्ती पर वह निगाह खराब नहीं डालते। चीनी के धंधे में अपना नाम रोशन करने की कोशिश में लगे उत्तर भारत के एक बड़े वाइन किंग फोंटी चङ्ढा से नसीमुद्दीन की काफी निकटता है,जिसके कारण कई बार आबकारी नीति में ऐसे-ऐसे बदलाव किए गए जिससे एक व्यक्ति विशेष को फायदा पहुंचा॥

बाबू सिंह कुशवाहा भी स्दिदीकी की तरह बसपा के पुराने वफादारों में शामिल है और बहनजी के संघर्ष के दिनों के साथी हैं। कुशवाहा के पास भूतत्व और खन्न, सहकारिता, परिवार कल्याण आदि कुछ और विभागों के अतिरिक्त संस्थागत वित्त एवं स्टाम्प और न्यायालय शुल्क विभाग की कमान है। परिवार कल्याण विभाग कुशवाहा को देने के लिए माया ने स्वास्थ्य विभाग के दो टुकड़े करने में भी संकोच नहीं किया।परिवार कल्याण विभाग को काफी कमाऊ विभाग माना जाता है। सरकारी दवा की खरीददारी से लेकर डाक्टरों की तैनाती तक का काम बाबू सिंह कुशवाहा ही करते हैं।इस विभाग की महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ माह पूर्व लखनऊ में एक सीएमओ की हत्या हुई तो उसे भी इसी से जोड़कर देखा गया था। सीएमओ की हत्या का मामला पूरी तरह से टं्रासर्फर पोस्टिंग और दवाओ की खरीद का नजर आ रहा था लेकिन पुलिस ने अपने हिसाब से आधी-अधूरी जांच करके फैजाबाद के माफिया सिंह को आरोपी बनाकर जेल भेज दिया, लेकिन दबी जुबान लोग यह कहने से कतराते नहीं कि अभय को मोहरा बनाया गया है, दरअसल असली गुनहागार तो सफेदपोश थे, जिनपर आंच भी नहीं आई। वह आज भी खुले आम घूम रहे है। बात खन्न कार्यो की कि जाए तो इसमें रंजमात्र भी संदेह नहीं हैं कि भूतल का दोहन बाबू जी ही करते हैं। बाबू सिंह कुशवाहा को यह बात कभी बर्दाश्त नहीं होती है कि उनके कामों में कोई दखलंदाजी करे। उनके काम करने की अपनी स्टाइल है। बाबू के करीबी लोगो की बुंदेलखंड में खन्न कार्यो में अच्छी खासी दखलंदाजी है।देवरिया के एक विधायक जी बाबू सिंह कुशवाहा के ‘भक्त’ बनकर उनकी मंशा को अंजाम देने में लगे रहते हैं,बाबू सिंह कुशवाहा के रूतबे का आलम यह है कि जो इनका सहारा ले लेता है उसके बिगड़े काम भी बन जाते हैं।

हाल में ही खबर आई कि नसीमुद्दीन के करीबी फोंटी चङ्ढा भी खन्न के क्षेत्र में कूद पड़े। इसका पता चलते ही बाबू सिंह कुशवाहा खेमें की त्योरियां चढ़ गई। कुशवाहा सूत्रों ने पता किया तो इसमें लखनऊ के ‘पंचम तल’ पर बैठने वाले एक वरिष्ठ नौकरशाह के हाथ होने की भी बात सामने आई,जिसके पास कई महत्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारी थी। इस नौकरशाह को नसीमुद्दीन खेमें का माना जाता था। बाबू सिंह कुशवाहा अपनी फरियाद लेकर बसपा की ‘सुपर पॉवर’ लेडी के पास पहुंच गए। कहा जाता है कि इसके बाद ही उक्त नौकरशाह को लगभग पैदल कर दिया गया।कुशवाहा खेमें की इस तेजी से सिद्दीकी खेमा न केवल हाथ मलते रह गया,बल्कि सत्ता के गलियारे में उसकी फजीहत भी हुई। इससे पहले बांदा एक किसान की भूमि जबरन हथियाने के आरोप में भी नसीमुद्दीन गुट की किरकिरी हो चुकी थी।लगातार दो बार मात खा चुका सिद्दीकी गुट इसके बाद बाबू सिंह कुशवाहा गुट को नीचा दिखाने के लिए झटपटाने लगा।उसे यह मौका जल्द मिल गया।तभी बांदा का शीलू रेप प्रकरण सामने आ गया। इसमें आरोपी नरैनी के विधायक को बाबू सिंह कुशवाहा का करीबी माना जाता था,बस फिर क्या था बाबू सिंह कुशवाहा का विरोधी गुट सक्रिय हो गया। अपनी पत्नी को विधायक बना चुके सिद्दीकी यहां से अपने बेटे को चुनाव लड़ाना चाहते थे। इस लिए उनके गुट को समझते देर नहीं लगी कि अगर यह मामला कायदे से उछल गया तो एक तीर से दो निशाने हो जाएंगे। बांदा में तैनात पुलिस अधीक्षक की यहां तैनाती कराने में नसीमुद्दीन का विशेष योगदान रहा था,यही वजह थी एसपी साहब ने भी सिद्दकी के पक्ष में वफादारी की कीमत चुकाने में देरी नहीं की।विधायक के खिलाफ की घटना को ऐसा उलझाया गया कि विपक्ष और मीडिया से लेकर कोर्ट तक आरोपी विधायक के खिलाफ थू-थू करने लगी।इस तरह से सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। इस मामले को इतनी हवा मिली की बहनजी को आरोपी विधायक के खिलाफ कड़े कदम उठाते हुए उनका टिकट काटने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। वहीं जेल में जाकर भुक्तभोगी युवती को बयान बदलने के लिए दबाव डालने वाले एसपी साहब का बाल भी बांका नहीं हुआ। पिछले दिनों आरोपी विधायक की पत्नी ने लखनऊ में धरना देकर यहां तक आरोप लगा दिए कि पार्टी के भीतर ही उनके पति को फंसाने की साजिश रची जा रही है। उनका इशारा बसपा के मुस्लिम चेहरे नसीमुद्दीन सिद्दीकी और उनकी लॉबी की तरफ था।

बहरहाल, माया ने समय रहते पार्टी के अंदर चल रही वर्चस्व की लड़ाई को तुरंत विराम नहीं लगाया तो आने वाले समय में माया को बदनामी के कई और दाग सहने के अलावा इसकी आग कई और जिलों में फैलती दिख सकती है। हरदोई, फरूखाबाद,कानपुर आदि कई जिलों में वर्चस्व को लेकर बसपा नेता सिरफुटव्वल कर रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि चुनाव करीब आते-आते बंद कमरों से शुरू हुई यह लड़ाई सड़क पर भी आ सकती है। ऐसे में माया के लिए जरूरी है कि जिस तरह से वह अपने नौकरशाहों पर नकेल डालने की कोशिश कर रही हैं, उसी तरह से वह अपनी पार्टी के नेताओं की भी लगाम कसे रहें।

वस्तानवी साहब और दारूल उल उलूम देवबन्द की परम्पराएं

अनिल त्यागी

गुलाम मोहम्मद वस्तानवी के दारूल उल उलूम देवबन्द के मोहतमिम चुने गये तो उनकी तारीफ में ढेरो बयान और बाते आई। मजलिसे शूरा ने जिस यकीन और एतबार से वुस्तानवी साहब की चुनाव किया था उस पर वो खरे नहीं उतर पाये। अब इसे चाहे लोग इस संस्था की अन्दरूनी सियासत का नाम दे या कुछ और, पर कुल मिला कर जो हालात पैदा हो गये है उन सब के लिये वुस्तानवी साहब अपने आप जिम्मेवार है। अब चाहे वे उर्दू मीडिया को कोसे या अपनी समझ को,

दारूल-उल-उलूम देवबन्द जिसे वहॉ के आम लोग अरबी मदरसा के नाम से जानते कभी उत्तेजित होकर बयानबाजीयों और बहसों में नहीं उलझता क्योंकि यह इसका काम नहीं है।हजारों तालिबिल यहॉ पढते है सबके सब उस उम्र के शैतानीयों की उमर होती है पर देवबन्द में आज तक इनकी शैतानियों या अनुशासनहीनता की कोई मिसाल लोगों के सामने नहीं आई।आप कल्पना नहीं कर सकते इस इदारे और इसके बगली दूसरे इदारे दोनों में लगभग छ: हजार छात्र हैं लेकिन इस इलाके मे कोई आधुनिक रेस्टोरेंट या फास्ट फूड का स्टाल नहीं है आस पास ले देकर दो चार ढाबे और चाय की दुकानें है। इससे साफ है कि यहॉ पढने वालो के लिये इनके इदारे में बेहतर खान पान के इंतजाम है।हालांकि इसमे पढने वाले देश विदेश के रईस खानदान के भी है।

वुस्तानवी साहब से पहले किसी भी मोहतमिम ने मीडिया सेंटर स्थापित करने की बात नहीं कही और वुस्तानवी जी ने तो आते ही मीडिया को महत्ता देनी शुरू कर दी अब बबूल का पेड बोया है तो आम तो मिलेंगे नहीं जिस मीडिया से जरिये उन्होनें पैठ बढाने की कोशिश की उसी में दिये बयानों के जाल में फंस गये, अब भले ही वो कहते रहें कि मैने ऐसा नहीं वैसा कहा था, पर सवाल तो ये है कि कुछ तो कहा था, और जो कहा था उसे सुनने वाले आजाद है कि वे उसका क्या मतलब लगाये,अब घर घर जाकर वुस्तानवी साहब अपने बयान को समझा तो नहीं सकते। उनके पूर्व के किसी मोहतमिम ने कभी अखबारी सुर्खीयों में जगह बनाने की कोशिश नहीं की ये ही वहॉ की रवायत बन गया अब वुस्तानवी साहब इन परम्पराओं को दरकिनार करना चाहे तो ऐसा मुमकिन नहीं, बयानबाजी और बहसबाजी दारूल उल उलूम की परम्परा नहीं है वुस्तानवी साहब को इससे बचना चाहिये था बच नहीं पाये और अब भी बच नहीं पा रहे है।

हालाकि वुस्तानवी साहब यहॉ से अपने इस्तीफे की घोषणा कर कर गये थे पर गुजरात पहुॅचते ही उनके बयान बदले बदले नजर आ रहे है और अगले ही दिन एक टी वी चैनल पर अपनी सफाई देते नजर आये जिसमें उन्होने लगभग माफी मांगने की कोशिश की, यहॉ भी वस्तानवी साहब याद नहीं रख पाये कि आम तौर पर दीनी मुसलमान टी0वी0 देखना अच्छा नहीं मानते। उर्दू मीडिया से लडाई के लिये हिन्दी मीडिया का सहारा यानि बुराई की एक लकीर को खत्म करने के लिये दूसरी बडी बुराई की लकीर को खींचने की कोशिश कर रहे हैं वस्तानवी साहब। मुझे तो लगता है कि मजलिशे शूरा की होने वाली बैठक इसे हल्के में नहीं लेगी और वस्तानवी साहब को जाना ही होगा।

दारूल उल उलूम देवबन्द का मूल सिलेबस दीनी तालीम का है दुनियावी फसादात का इससे कोई लेना देना नहीं, यह दीनी तालीम का इदारा दुनियादारी की बातो पर खामोश भले ही रहता हो पर उन पर पैनी निगाहबानी का काम करता है। हालांकि पिछले कुछ समय से हर बात पर फतवे को लेकर इसकी आलोचना भी होती आई है पर इसने कभी जवाब नहीं दिया अब ये बात समझने वाले समझ कर अपने आप समझाने लगे कि जब दुनिया मे मसलो में इजाफा है तो उन पर फतवो में इजाफा होना लाजिमी है।

अनुशासन और तालीम यहॉ के छात्रों को इससे ज्यादा और कुछ नहीं चाहिये और इससे ज्यादा और कुछ यहॉ उन्हें दिया भी नहीं जाता। और जहॉ तक इस तालीम के फायदे और रोजगार की बात है तो लोग भले ही न जानते हो पर लाखो की संख्या में देश में मदरसे है और उनमें पढाने वाले मौलवी साहब इस सिलेबस और शिक्षा की ही देन है तो आप स्वय अनुमान लगा लें कि जब मदरसे लाखो है तो उनमें पढाने वाल कितने लाख लोगो को इस दीनी तालीम ने रोजगार दिया है शायद अलीगढ और जामिया से भी ज्यादा लोगो को रोजगार दारूल उल उलूम और इससे जुडे मदरसो ने दिया है और दे रहा है जो काम सर्व शिक्षा अभियान और वर्ल्ड बैंक के बडे बडे बजट के प्रोग्राम नहीं कर पाये उन्हे यहॉ आकर शोध करने चाहिये कि ऐसा कैसे हो सकता है। जहॉ तक मदरसा एजूकेशन से फायदे की बात है इतना तो मै दावे से कह सकता हूं कि देश के करोडो मुस्लिमों को इस शिक्षा ने स्कालर भले ही न बनाया हो साक्षर बनाने में इसका अहम रोल है। और मुझे तो आज दारूल उल उलूम से शिक्षा पा कर निकलने वाला बेरोजगार नजर नहीं आया। वुस्तानवी साहब इससे आगे की सोच के एम.बी.ए है उनके जैसे विद्वान की यहॉ खपत होना आसान नजर नहीं आता।आधुनिक शिक्षा के लिये तो न जाने कितने स्कूल कालिज और यूनिवर्सिटीयां मौजूद है ऐसे में दारूल उल उलूम का किरदार बदलने की बेमानी कोशिश करने की परमीशन शायद ही मजलिसे शूरा और इस्लामी जगत को मंजूर हो।

जनाब मुस्तानवी साहब ने आई0बी0एन07 पर अपनी बातचीत में दिल की गहराइयों से कहा कि उन्होने मोदी को कोई क्लीन चिट नहीं दी उन्होने टाइम्स आफ इंडिया का हवाला देते हुए कहा कि उस में छपा है कि वुस्तानवी डीड नॉट गीव क्लीन चिट टू मोदी उन्होने बताया कि बयान गुजराती में दिया था जो अंग्रेजी में छपा और उर्दू मीडिया ने उसे तोड मरोड कर पेश किया।हो सकता है उनकी बात सही हो पर ये बात समझ से परे है कि मोदी के बारे में कोई क्लीन या डट्री चिट चिपकाने की जरूरत वस्तानवी साहब को क्यों आन पडी वे मोहतमिम दारूल उल उलूम देवबन्द के बनाये गये हैं गुजरात की किसी सरकारी संस्था के नहीं जो वे वहॉ के मुसलमानों और सरकार के सरोकार का गुणनान करें। इससे पहले ऐसे मसलो पर किसी मोहतमिम ने इस तरह विचार रखे भी नहीं। यदि वस्तानवी साहब को अपनी बातो पर कोई अफसोस जाहिर करना ही था तो उन्हे ये बात मुस्लिम विद्वानों और संस्थान से जुडे लोगों से करनी चाहिये थी किसी टी0वी0चैनल के माध्यम से नहीं। ये तो घर के अन्दर की बात आम करना ही हुआ और कोई पढा लिखा आदमी इस कोशिश को मंजूरी देने से परहेज ही करेगा।

दारूल उल उलूम देवबन्द में जहॉ स्थित है वहॉ जाने के लिये कोई चौडी 100 फुटा सडके नहीं है और न ही बिजली की बत्तियों से चकाचौंध होती सीनरियां है ले देकर पन्द्रह बीस फीट चौडे रास्तों से होकर ही इसके मुख्य द्वार तक पहुॅचा जा सकता है ये सडके ऐसी नहीं कि इन पर चला न जा सकता हो या कोई मोटर गाडी न चल सकती हो आराम से आना जाना होता है पर सरपट यानि की नये जमाने की चाल से दौडना मुश्किल होगा, ऐसे में वस्तानवी साहब को समझना होगा कि यहॉ लगभग एक सौ तीस साल पुराने दारूल उल उलूम की परम्पराओं को नये जमाने के चलन मे ढालना नामुमकिन होगा। ऐतिहासिक खासियत को बदलना कोई मजबूरी भी नहीं।

सभी धर्मो का मूल है साधन की पवित्रता ही साध्य प्राप्ति का साधन है, नेक नीयत मंजिल आसान,जैसे कथन दुनिया में न कभी बेमानी हुए और न ही कभी होंगे,वस्तानवी साहब को सोचना होगा कि जिस मोदी के बारे में उन्होने बात की, भले ही आज बेहतर काम कर रहा हो पर उनके सत्ता प्राप्ति के साधन क्या थे, कैसे धार्मिक उन्माद को उन्होने बोट मे बदल कर सत्ता पाई।दारूल उल उलूम देवबन्द ने भी हमेशा नेक नीयत को ही प्राथमिकता दी है। जिन्ना को,मुस्लिम लीग को सबसे पहले खारिज करने वाले यहीं के उलेमा थे। 2008 में आंतकवाद के खिलाफ जो मजबूती दारूल उल उलूम ने दिखायी उसी का नतीजा है कि देश के अधिंकाश मुस्लिम आतंकवादियों से कोई हमदर्दी नहीं रखते।

इस बात की भी चर्चा है कि मौलाना वस्तानवी 6फरवरी को देवबन्द लौटेंगे जहॉ उनका स्वागत करने वालो का हूजूम उमडेगा। वस्तानवी साहब हो सकता है कि देवबन्द के लोग अपनी सियासी मजबूरीयों से या सीधे सीधे कहें कि मदनी परिवार के विरोध के लिये आपके सम्मान को आये पर इससे कोई हल निकनले वाला नहीं है क्योंकि आपको तो मतलब होना चाहिये दारूल उल उलूम से वहॉ के छात्रों से मजलिसे शूरा से जनता से स्वागत करवा कर रूतबा जमाना अजीब सा लगता है। एक सवाल यह भी उछल रहा है कि वस्तानवी साहब जब किसी अन्य संस्था के प्रबन्धक है तो वे कैसे दूसरी संस्था के वाइस चांसलर हो सकते हैं।ये तो खैर वहॉ के बाईलाज ही जाने की नियमानुसार क्या है।

अन्त में एक बात और कहना चाहूंगा कि देवबन्द की सबसे खास चीज है वहॉ के मीठे बेर शायद ही दुनिया में इससे मीठा बेर कही और पैदा होता हो, और बेर के पेड पर कॉटे बहुत ही ज्यादा नुकीले होते हैं होशियार बागवान वहीं है जो मीठे बेरो को कांटेदार पेड़ों से सही सलामत बचा सके।

लाल चौक ही क्यों, मुजफ्फराबाद में क्यों न फहराएं तिरंगा?

तनवीर जाफ़री

राष्ट्रीयध्वज के स्वाभिमान की आड़ में भारतीय जनता पार्टी द्वारा गत् दिनों एक बार फिर भारतवासियों की भावनाओं को झकझोरने का राजनैतिक प्रयास किया गया जो पूरी तरह न केवल असफल बल्कि हास्यास्पद भी रहा। कहने को तो भाजपा द्वारा निकाली गई राष्ट्रीय एकता नामक यह यात्रा कोलकाता से लेकर जम्मू-कश्मीर की सीमा तक 12 राज्यों से होकर गुज़री। परंतु यात्रा के पूरे मार्ग में यह देखा गया कि आम देशवासियों की इस यात्रा के प्रति कोई दिलचस्पी नज़र नहीं आई। हां इस यात्रा के बहाने अपना राजनैतिक भविष्य संवारने की होड़ में लगे शीर्ष नेताओं से लेकर पार्टी के छोटे कार्यकर्ताओं तक ने इसे अपना समर्थन अवश्य दिया। भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपना राजनैतिक जनाधार तलाश करने के लिए पहले भी इस प्रकार की कई ‘भावनात्मक यात्राएं निकाली जा चुकी हैं। लिहाज़ा जनता भी अब इन्हें पेशेवर यात्रा संचालक दल के रूप में ही देखती है। फिर भी भाजपा ने अपने कुछ कार्यकर्ताओं के बल पर निकाली गई इस यात्रा को जम्मू-कश्मीर व पंजाब राज्यों की सीमा अर्थात् लखनपुर बार्डर पर जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा रोके जाने को इस प्रकार प्रचारित करने की कोशिश की गोया पार्टी के नेताओं ने राष्ट्रीयध्वज के लिए बहुत बड़ा बलिदान कर दिया हो अथवा इसकी आन-बान व शान के लिए अपनी शहादत पेश कर दी हो।

परंतु राजनैतिक विशेषक इस यात्रा को न तो ज़रूरी यात्रा के रूप में देख रहे थे न ही इसे भाजपा के चंद नेताओं की राष्ट्रभक्ति के रूप में देखा जा रहा था। बजाए इसके तिरंगा यात्रा अथवा राष्ट्रीय एकता यात्रा को भारतीय जनता पार्टी के भीतरी सत्ता संघर्ष के रूप में देखा जा रहा था। तमाम विशेषकों का मानना है कि भाजपा में नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव से भयभीत सुषमा स्वराज तथा अरुण जेटली जैसे बिना जनाधार वाले नेताओं ने स्वयं को मोदी से आगे ले जाने की गरज़ से इस यात्रा को अपना नेतृत्व प्रदान किया। जबकि कुछ का मत है कि इस सच्चाई के अलावा इस यात्रा से जुड़ी एक सच्चाई यह भी थी कि हिमाचल प्रदेश के मु यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के पुत्र एवं सांसद अनुराग ठाकुर भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष होने के बाद स्वयं को राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने की बुनियाद डालना चाह रहे थे। अत: तिरंगा यात्रा की आड़ में देशवासियों की भावनाओं को भड़काने तथा अपने नाम का राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार करने का इससे ‘बढिय़ा अवसर और क्या हो सकता था। यदि यह यात्रा भाजपा नेताओं की आपसी होड़ का परिणाम न होती तो पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह महात्मा गांधी की समाधि पर 26 जनवरी को जाकर धरने पर क्यों बैठते। भाजपा का अथवा भाजपा नेताओं का महात्मा गांधी या उनकी नीतियों से वैसे भी क्या लेना-देना।

परंतु भाजपा नेता अरुण जेटली व सुषमा स्वराज तथा नीरा राडिया टेप प्रकरण में चर्चा में आने वाले अनंत कुमार बार-बार देश को मीडिया के माध्यम से यह बताने की कोशिश करते रहे कि हमें लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोका गया। इनका आरोप है कि जम्मू-कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार ने केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के इशारे पर हमें श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोका है। इन नेताओं द्वारा यह भी कहा जा रहा है कि लाल चौक पर हमें झंडा फहराने से रोककर कश्मीर की उमर सरकार व केंद्र सरकार दोनों ही ने कश्मीर के अलगाववादियों तथा वहां सक्रिय आतंकवादियों के समक्ष अपने घुटने टेक दिए हैं। बड़ी अजीब सी बात है कि यह बात उस पार्टी के नेताओं द्वारा की जा रही है जिसके नेता जसवंत सिंह ने कंधार विमान अपहरण कांड के दौरान पूरी दुनिया के सामने तीन खूंखार आतंकवादियों को भारतीय जेलों से रिहा करवा कर कंधार ले जाकर तालिबानों की देख-रेख में आतंकवादियों के आगे घुटने टेकते हुए उन्हें आतंकियों के हवाले कर दिया। जिनके शासन काल में ही देश की अब तक की सबसे बड़ी आतंकी घुसपैठ कारगिल घुसपैठ के रूप में हुई। देश के इतिहास में पहली बार हुआ संसद पर आतंकी हमला इन्हीं के शासन में हुआ। परंतु अब भी यह स्वयं को राष्ट्र का सबसे बड़ा पुरोधा व राष्ट्रभक्त बताने से नहीं हिचकिचाते।

जिस उमर अब्दुल्ला की राष्ट्रभक्ति पर आज यह संदेह जता रहे हैं वही अब्दुल्ला परिवार जब इनके साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का सहयोगी दल हो तो वही परिवार राष्ट्रभक्त हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे कि 24 अप्रैल 1984 को भारतीय संविधान को फाड़ कर फेंकने वाले प्रकाश सिंह बादल आज इनकी नज़रों में सबसे बड़े राष्ट्रभक्त बने हुए हैं। जैसे कि उत्तर भारतीयों को मुंबई से भगाने का बीड़ा उठाने वाले बाल ठाकरे जैसे अलगाववादी प्रवृति के राजनीतिज्ञ इनके परम सहयोगी बने हुए हैं। मु यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भाजपा की तिरंगा यात्रा को लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोकने का प्रयास इसलिए किया था कि उनके अनुसार वे नहीं चाहते थे कि भाजपा की इस यात्रा से प्रदेश के हालात बिगड़ जाएं। अभी ज़्यादा दिन नहीं बीते हैं जबकि लगभग पूरी कश्मीर घाटी कश्मीरी अलगाववादी ताकतों की चपेट में आकर पत्थरबाज़ी का शिकार हो रही थी। इस घटना में सैकड़ों कश्मीरी तथा कई सुरक्षाकर्मी आहत भी हुए। इससे पूर्व अमरनाथ यात्रा को ज़मीन आबंटित किए जाने के मामले को लेकर जम्मू में जिस प्रकार तनाव फैला था तथा पूरी घाटी शेष भारत से कई दिनों तक कट गई थी यह भी पूरे देश ने देखा था। ऐसे में एक ओर भाजपा ने जि़द की शक्ल अि तयार करते हुए जहां श्रीनगर के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराने की घोषणा की थी वहीं कुछ अलगाववादी नेताओं ने भी यह चुनौती दे डाली था कि भाजपा नेताओं में यदि हि मत है तो वे लाल चौक पर तिरंगा फहराकर दिखाएं। ऐसे में पार्टी के कई शीर्ष नेताओं सहित भाजपा की यात्रा में शामिल सभी कार्यकर्ताओं की सुरक्षा की जि़ मेदारी भी राज्य सरकार की हो जाती है। लिहाज़ा यदि राज्य के वातावरण को सामान्य रखने तथा भाजपा नेताओं की सुरक्षा के मद्देनज़र उनकी जि़द पूरी नहीं की गई तो इसमें स्वयं को अधिक राष्ट्रभक्त व राष्ट्रीय ध्वज का प्रेमी बताना तथा दूसरे को राष्ट्रद्रोही या तिरंगे को अपमानित करने वाला प्रचारित करना भी राजनैतिक स्टंट मात्र ही है।

हम भारतवासी होने के नाते बेशक यह मानते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। परंतु यह भी एक कड़वा सच है कि हमारा यह कथन न तो पाकिस्तान के गले से नीचे उतरता है न ही पाकिस्तान से नैतिक,राजनैतिक तथा पिछले दरवाज़े से अन्य कई प्रकार का समर्थन पाने वाले कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के गले से। यदि मसल-ए-कश्मीर इतना ही आसान मसला होता तो हम आम भारतीयों की ही तरह भाजपा नेता व पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी यही कहा होता कि कश्मीर का मसला भारतीय संविधान के दायरे के अंतर्गत ही हल होना चाहिए। परंतु इसके बजाए उन्होंने भी यही कहना उचित समझा कि कश्मीर समस्या का समाधान इंसानियत के दायरे में किया जाना चाहिए। लिहाज़ा वर्तमान समय में इंसानियत का तक़ाज़ा यही था कि कश्मीर घाटी में बामुश्किल कायम हुई शांति को बरकरार रहने दिया जाए तथा उन कश्मीरी अवाम का दिल जीतने का प्रयास किया जाए जो मु_ीभर अलगाववादी नेताओं के बहकावे में आकर कभी हथियार उठा लेते हैं तो कभी पत्थरबाज़ी करने लग जाते हैं। बजाए इसके कि 2014 के संभावित लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र स्वयं को राष्ट्रभक्त,शहीद तथा देशप्रेमी प्रचारित करने के लिए लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने की जि़द को पूरा किया जाए।

गौरतलब है कि आज ज मु-कश्मीर राज्य के सभी जि़ला मु यालयों पर भारतीय तिरंगा स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस के अवसर पर प्रत्येक वर्ष फहराया जाता है। राज्य के सभी सेना,पुलिस एवं सरकारी मु यालयों पर तिरंगा फहराया जाता है। हां यदि हम ज मु-कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानते हैं तो समूचा कश्मीर भारतीय मानचित्र की परिधि में ही आता है। यही कारण है कि जिस कश्मीर को हम पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं पाकिस्तान कश्मीर के उसी भाग को आज़ाद कश्मीर के नाम से पुकार कर दुनिया को गुमराह करता है। कितना बेहतर हो कि केवल भाजपा ही नहीं बल्कि देश के सभी राजनैतिक दल, देश में विशेषकर जम्मू-कश्मीर राज्य में ऐसा वातावरण पैदा करें कि जम्मू-कश्मीर की अवाम स्वयं अपने हाथों में भारतीय राष्ट्रीय ध्वज लेकर मुजफराबाद की ओर कूच करें तथा मुज़फराबाद पर झंडा लहराने जैसे दूरगामी एवं अति आवश्यक मिशन पर कार्य करें। परंतु लाल चौक पर तिरंगा लहराने की जि़द पूरी करने के पहले तो भाजपा को नक्सल,आतंकवाद तथा अलगाववाद से प्रभावित तमाम ऐसे इलाकों की फिक्र करनी चाहिए जहां तिरंगा फहराना तो दूर की बात है भारतीय शासन या व्यवस्था को ही स्वीकार नहीं किया जाता।

जानने का अधिकार तो दे दिया पर जानने न दिया

पूजा श्रीवास्तव

जी हां, मैं बात कर रही हूं भारत की तीसरी क्रांति के रूप में पहचाने जाने वाले सूचना के अधिकार कानून की स्थिति की……सन् 2005 में सूचना के अधिकार कानून का बनना सुशासन के इतिहास में भले ही एक अहम पन्ना जोडता है पर अगर ये कहा जाए कि ये कानून सफल रहा तो मुझे डॉ. अंबेडकर का ये कथन याद आता है कि केवल संविधान या कानून बना देना ही काफी नहीं है बल्कि उसका सख्ती से पालन करना भी जरूरी है।

ठीक इसी प्रकार सिर्फ आरटीआई कानून नाम के इस उन्नत किस्म के बीज बो देने से हमें फल नहीं मिलने वाला, इसके लिए जरूरी है सरकार के सही रवैये रूपी खाद की। 5 साल में लाखों की तादाद में आई याचिकाओं से ही इस कानून की पारदर्षिता साबित नहीं होती, पारदर्षिता साबित होती है कानून के क्रियान्वयन से, कानून के पालन से……

कानून लागू हुए 5 वर्ष बीत गए पर 15 फीसदी मामलों में ही लोकसूचना अधिकारी तय समय सीमा में जवाब दे पाते हैं। ये कैसा सूचना का अधिकार है और कैसी पारदर्शिता, जब इसे बनाने वाले ही इसकी अग्नि परीक्षा देने में न नुकुर करते है। ये कैसा सूचना का अधिकार है जहां एक आवेदक सुभाष चंद अग्रवाल को पी एम ओ से सूचना देने की मनाही कर दी जाती है। ये कैसा सूचना का अधिकार है जहां इस कानून को बनाने और सख्ती से पालन करने का निर्देश देने वाली न्यायपालिका के ठेकेदार अपनी संपत्ति का ब्यौरा न देने का कानूनी बहाना करते है।

जो लोग सूचना के अधिकार कानून में पारदर्शिता की बात करते है उन्हें ये जानकर गहरा आघात पहुंच सकता है कि इस सूचना के अधिकार कानून की सूचना देने में हमारी सरकार ने 2005 से 2009 तक मात्र 2 लाख रू ही खर्च किए है, जबकि जनता ने 2 लाख 80 हजार रू सूचना मांगने में लगा दिए।

आंकडें खुद बयां कर रहे है कि मंत्रियों के जन्मदिन व उपलब्धियों के प्रचार में करोडों फूंकने वाली सरकार के पास इस कानून के प्रचार करने के लिए बजट ही नहीं है।

और एक बात जिस पर मैं ध्यानाकर्षण चाहूंगी कि जिन अरूणा राय व अरविन्द केजरीवाल को मेरे विपक्षी वक्ता इस कानून से संबंधित आदर्श मानते है उन्हीं के द्वारा इस कानून की पारदर्षिता पर कई प्रश्‍न खडे किए गए है। प्लेटो का एक स्टेटमेंट है देर से मिलने वाला न्याय, अन्याय होता है । पर राज्य के सूचना आयोग इस बात को सिरे से नकारने की कवायद में जुटा हुआ है। तभी तो सूचना देने में 180 दिन की मांग कर रहा है। ये आंकडें बताते है कि इस कानून से जुडे लोग खुद प्रषासन में पारदर्षिता नहीं चाहते। और जो इस तरफ अपने कदम बढाता है उसे अपनी जान से भी हाथ धोना पड सकता है। गुजरात के अमित जेटवा, पुणे के सतीश शेट्टी मुंबई की नैना कठपालिया का बलिदान इस बात की चीख चीख कर गवाही देता है कि ये कानून पारदर्शी नहीं है। आलम तो इस कदर हो चुका है कि सच कहने को जी तो करता है, पर क्या करें हौसला नहीं होता……….

हकीकत हम सभी के सामने है…आर टी आइ के कुछ उदाहरणों को छोड दे तो ये तस्वीर नजर आती है कि ये सरकार का जनता को धोखे में रखकर अपना उल्लू सीधा करने का तरीका है। अब अगर हम इस सच्चाई से मुंह फेरना चाहे तो वो बात अलग है।

(देश की संस्कृति, भाषा और सभ्यता से जुड़े मुद्दों पर लिखना पसंद करने वाली पूजा माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रिकारिता विश्विद्यालय में एम जे 3rd सेमेस्टर की छात्रा है. )

व्यक्ति – चित्र/ पाकिस्तान के उदारवादी चेहरे की मौत

सलमान तासीर के व्यक्तित्व पर एक आलेख

प्रमोद कुमार बर्णवाल

१९४७ में पाकिस्तान के निर्माण के बाद से अब तक सिन्धू नदी मे बहुत सारा पानी बह चुका है लेकिन आम आदमी के विकास के बजाय वहा पर धर्मान्धता और कट्टरता बढती गयी है , जिसका शिकार अभी – अभी वहां के पन्जाब प्रान्त के गवर्नर सलमान तासीर को बनना पडा है । पाकिस्तान निर्माण के बाद वहा की सन्सद में  मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष होगा । जाहिर सी बात है कि जिस पाकिस्तान के निर्माण की नीव एक मुस्लिम रास्ट्र के रूप में डाली गई थी , और जिसने इसे बनाने में एक सशक्त भूमिका निभाई थी ;अगर वही सख्स इस तरह की बाते करे तो वहा खलबली मचेगी ही । खलबली मची । पाकिस्तान के मुल्ला – मौलवियों ने इसका विरोध किया। लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना उस समय पाकिस्तान के सबसे बडे नेता थे, कायदे आजम थे । इसलिए कट्टरपन्थियों को चुप रह जाना पडा । लेकिन वे अन्दर ही अन्दर सुलगते रहे । बाद मे जब जिन्ना शारीरिक रूप से अशक्त हो गये और उनका निधन हो गया तो कट्टरपन्थियो ने सिर उठाना शुरू किया।

बाद में आए नेताओ का कद जिन्ना जितना बडा नही था । वे जनता में इतने लोकप्रिय भी नही थे कि मुल्ला–मौलवियों का विरोध कर अपनी सत्ता बनाए रखने में कामयाब रह सके , इसलिए उन्होंने कट्टरपन्थियो को हवा देना शुरू किया। जुलफिकार अली भुट्टो हो , नवाज शरीफ , बेनज़ीर भुट्टो , परवेज मुशर्रफ जो भी सत्ता में रहे उन्होने अपनी सरकार को बनाए रखने के लिए दो तरह की नीतियां अपनाई । वर्तमान रास्ट्रपति आसिफ अली जरदारी भी इससे अछूते नहीं है । पहला , भारत का विरोध करते रहने की नीति ताकि पाकिस्तानी अवाम का ध्यान सरकर की नाकामियो पर ना जाये । और दूसरा , कट्टरपन्थियों के विरुद्ध तटस्थता की नीति ।

अगर पाकिस्तान में सत्ता बनाये रखनी है तो आपको कट्टर पन्थियों के सुर मे सुर मिलाना पडेगा । यह बात जिनकी समझ मे आ जाये वे ही पाकिस्तान मे रह सकते है । और यह बात अभी फिर साबित हुई , जब पाकिस्तान के पन्जाब प्रान्त के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या उसके अन्गरक्षक ने ही कर दी ।

१५ मई २००८ से ४ जनवरी २०११ तक पाकिस्तान के पन्जाब प्रान्त के गवर्नर रहे सलमान तासीर का जन्म ३१ मई , १९४४ को तत्कालीन ब्रिटिश इन्डिया में पन्जाब प्रान्त के शिमला मे हुआ था । उनके पिता का नाम मुहम्मद दीन तासीर था । जिन्होंने इन्गलैन्ड से अन्ग्रेजी साहित्य मे पीएचडी किया था । शायर अल्लामा इकबाल, मुहम्मद दीन तासीर के मित्र थे । सलमान तासीर की मां बिल्किस एक अन्ग्रेज महिला थी , जो कि उर्दू के प्रसिद्ध शायर फैज अहमद फैज की विधवा थी । सलमान तासीर की प्रारम्भिक पढाई लाहौर के सैन्ट एन्थोनी स्कूल मे हुई । जहां पर नवाज शरीफ उनके क्लासमेट हुआ करते थे । उच्च अध्ययन के लिए सलमान तासीर भी अपने पिता की तरह इन्गलैन्ड गए । लेकिन उन्होंने पिता की तरह साहित्य पढने की बजाय चार्टर एकाउटेन्ट का कोर्स किया ।

सलमान तासीर ने एक साथ कारोबार और राजनीति दोनो ही क्षेत्रों मे अपना कैरियर बनाया । वे जुल्फीकार अली भुट्टो की पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) से छात्र जीवन मे ही १९६० मे जुड गए थे । उस समय वे १६ वर्ष के थे । जब जुल्फीकार अली भुट्टो को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया और उन्हें फासी की सजा सुना दी गई तो इसके खिलाफ हुए आन्दोलन मे सलमान तासीर ने सक्रिय भूमिका निभाई । जुल्फीकार अली भुट्टो पर उन्होंने एक किताब भी लिखी जो इस आन्दोलन के बीस वर्स बाद १९८० में    “ भुट्टो : ए पोलिटिकल बायोग्राफी “नाम से प्रकाशित हुई ।

सलमान तासीर बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे।बहुत पढे – लिखे । खूबसूरत । दिलचस्प । हंसमुंख । मजाकिया। बहुत तड़क – भड़क में रहने वाले । सलमान तासीर ने तीन शादिया की । पहली पत्नी से उन्हें  सारा , शान और सनम नामक तीन बच्चे हुए । फिर उन्होने आमना से विवाह किया । जिसके साथ वे लाहौर में रह रहे थे । आमना तासीर से उन्हें शाहबाज , शहरयार , शहरबानो तीन बच्चे हुए । मार्च १९८० में सलमान तासीर एक पुस्तक के प्रमोशन के सिलसिले मे भारत आए। वही उनकी मुलाकात भारतीय पत्रकार तवलीन सिंह से हुई । उनका अफेयर एक सप्ताह तक चला । तवलीन से उन्हे आतिश नामक पुत्र हुआ । आतिश अभी यू० के० में स्वतन्त्र पत्रकार के रूप मे कार्य कर रहे है । हाल ही में आतिश ने एक पुस्तक लिखी है , जिसका नाम है : – स्ट्रेन्जर टू हिस्टरी : अ सन्स जर्नी थ्रू इस्लामिक लैन्ड्स ।

सलमान तासीर ने अपने राजनीतिक जीवन में  उतार चढाव दोनों  देखे । १९८८ मे वे लाहौर से पन्जाब विधानसभा के लिए चुने गये । बाद में १९९० , १९९३ और १९९७ के चुनावों में उन्हें पराजय झेलनी पडी । पीपीपी मे वे बेनज़ीर भुट्टो के करीबी लोगो में शुमार हो गये थे । उस समय बेनज़ीर भुट्टो अपनी पार्टी की सबसे शक्तिशाली नेता थी । और तब जाहिर सी बात है कि पार्टी के अन्य सदस्य अपने शक्तिशाली नेता की जी – हुजूरी करके ज्यादा – से – ज्यादा लाभ कमाने की फिराक मे रहते । लेकिन सलमान तासीर इसके विपरीत स्वभाव के थे । वे एकसाथ कदम से कदम मिलाकर काम करना तो जानते थे , लेकिन अगर कोई काम ठीक ना लगे तो वे कह दिया करते थे । उन्हे गुलामी पसन्द नही थी ।

ऐसे नेता अगर जल्द ही जी – हुजूरी करने वालो से घिरी सबसे बडी नेता की आखो मे खटकने लगे तो कोई बडी बात नही । बेनज़ीर भुट्टो के पहले कर्यकाल की बात है । किसी बात को लेकर उनकी आपस में  खटपट हो गई और उन्हे पार्टी से निकाल दिया गया। पार्टी से निकाल दिये जाने के बाद उन्होने पीपीपी से सम्बन्धक सुधारने की कोशिश की । साथ ही अन्य पार्टियों से भी सम्बन्ध जोडने की कोशिश की । और इस दौरान अपने कारोबार पर भी ध्यान दिया । ताकि पैसे की तन्गी ना झेलनी पडे ।

२००७ मे रास्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के कार्यकाल मे प्रधानमन्त्री मोहम्मद मिया सूमरो के मन्त्रिमण्डल मे उन्हे उद्योग , उत्पादन , और विशेस उपक्रम विभाग का मन्त्री बनाया गया । फिर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अनुरोध पर रास्ट्रपति मुशर्रफ के द्वारा लेफ्टिनेन्ट जनरल खालिद मकबूल की जगह पर पन्जाब के गवर्नर बनाए गए ।

पाकिस्तान के अनेक नेताओं का नाम विभिन्न घोटालों से जुडा । पाकिस्तान के परवेज मुशर्रफ , नवाज शरीफ़ , आसिफ अली जरदारी , बेनज़ीर भुट्टो शायद ही पाकिस्तान का कोई नेता हो , जिसने अवैध रूप से सम्पति ना जमा किया हो । शायद ही कोई नेता हो जिसके नाम से कोई केस अदालत में विचाराधीन ना हो , ऐसे समय मे सलमान तासीर पाकिस्तान का एक ऐसा सख्स था , जिसके खिलाफ अदालत मे भ्रष्‍ट्राचार का कोई भी मामला नही था । वे दु्स्साहसी थे और जोखिम उठाने से नहीं डरते थे । व्यवसाय बिना जोखिम के किया ही नही जा सकता है । उन्होंने प्रकाशन के क्षेत्र मे पैसे लगाये । और सफल हुए । मैनेजमेन्ट कन्सल्टेन्सी और पून्जी निवेश से उन्होंने धन कमाया । अपने फायदे के लिए किसी की चापलूसी करना उन्हें गंवारा नही था । जिसके कारण उन्हें कई बार विरोध का सामना करना पडता । नवाज शरीफ बन्धुओ से उनका मतभेद था । जिया – उल – हक़ और नवाज़ शरीफ के कार्यकाल में उन्हे जेल जाना पडा । एक बार उन्हें बुरी तरह पीटा गया । अस्पताल मे भर्ती होना पडा । पीपीपी के वरिष्‍ठ नेता होने के बावजूद उन्हे बेनज़ीर भुट्टो से मतभेद के कारण पार्टी से निकाल दिया गया था । इसके बावजूद उन्होंने कभी समझौता नहीं  किया । अगर उन्हे कोई बात गलत लगती तो वे उसका विरोध करते । असहिष्‍णु हो रहे पाकिस्तान मे अल्पसन्ख्यकों के अधिकारों की बात करने और सियासत मे मजहब के बेजा इस्तेमाल पर एतराज जताने का क्या अन्जाम हो सकता है इसका अन्दाजा उन्हें भलीभांति था। बल्कि उन्होंने एक बार कहा भी था कि अगर पाकिस्तान की सडको पर गवर्नर महफूज नही है तो कौन महफूज है । मुल्लाओ से भिडने से परेशानी उत्पन्न होगी यह उन्हे पता था , तब भी उन्होने अपनी परवाह नही की । इस्लाम तथा पैगम्बर मोहम्मद की निन्दा करने के कारण जब पाकिस्तान की ४५ वर्सीया ईसाई महिला आसिया बीबी को ईशनिन्दा कनून के तहत सजा सुना दी गई तो यह सलमान तासीर को नागवार गुजरा। उन्होने इसका विरोध किया। पाकिस्तान में जनरल जिया-उल-हक़ के शासन काल में  १९७९ मे ईशनिन्दा कानून लाया गया था। परवेज मुशर्रफ के शासन काल मे इसमें कुछ सन्शोधन किए गये थे । धारा २९५ सी ईशनिन्दा कानून के तहत यह उल्लेख है कि “जो कोई शब्द , मौखिक या लिखित या दिखने वाले माध्यम या किसी भी रूप में  प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पैगम्बर मोहम्मद (सलललाहो अलैहे वसल्लम ) के पवित्र नाम को अपवित्र करता है उसे मौत या उम्र कैद की सजा दी जाएगी । और जुर्माना भी भरना होगा । “ ईशनिन्दा कानून के तहत आसिया बीबी को नवम्बर २०१० मे ईशनिन्दा का दोसी मानते हुए मौत की सजा सुनाई गयी । हालान्की उच्च न्यायालय मे फैसले के खिलाफ अपील किया जा सकता है । इसके पहले भी पाकिस्तान मे कई लोगों को इस ईशनिन्दा कानून के तहत सजा दी जा चुकी है , लेकिन मौत की सजा किसी को नहीं दी गई है । जून २००८ मे मोहम्मद शफ़ीक नामक एक युवक को भी मौत की सजा दी गई , जिसके खिलाफ़ वह उच्च अदालत मे अपील कर सकता है । अन्य मुस्लिम रास्ट्रो मे भी ईशनिन्दा जैसे कानून है लेकिन पाकिस्तान जैसी हालत और कही नही है । पाकिस्तान मे कट्टरता का आलम यह है कि जब कुछ लोगो पर ईशनिन्दा कानून के तहत मुकदमा चलाया गया , तो अदालत तो उन्हे बाद मे सजा देती ; उससे पहले ही कट्टरपन्थियों द्वारा उनकी हत्या कर दी गयी । पाकिस्तान मे ईशनिन्दा कानून के तहत प्रतिबन्धित कर प्रेस की आजादी का गला घोटने की कोशिश की गई । पाकिस्तान में कट्टरता कितनी बडी खतरा बन गई है इसे इसी से समझा जा सकता है कि एक बार जब न्यायाधीश इकबाल हुसैन भट्टी ने अपनी अदालत मे ईशनिन्दा कानून के तहत मुकदमा चल रहे दो अभियुक्तो को रिहा कर दिया तो १९ अक्टूबर १९९७ को उन्हें गोली मार दी गई । इसलिए पाकिस्तान मे जब कभी किसी व्यक्ति पर ईशनिन्दा कानून के तहत मुक़दमा चलता है , तो अभियुक्त तो भयभीत रहता ही रहता है । वकील और न्यायाधीश भी भयभीत रहते है । ऐसे माहौल मे भी अपनी कोई प्रवाह ना करते हुए सलमान तासीर ने ईशनिन्दा कानून का विरोध किया। वे पन्जाब प्रान्त के गवर्नर थे और केन्द्र मे भी उन्ही की पार्टी पीपीपी की सत्ता थी । किन्तु जब उन्होंने राष्‍ट्रपति आसिफ़ अली जरदारी से ईशनिन्दा कानून के खिलाफ़ कहा । तो देश मे व्याप्त कट्टरता से भयभीत राष्‍ट्रपति ने भी उनका साथ नही दिया ।

और फिर वही हुआ , जिससे कि भयभीत होकर पाकिस्तान के रास्ट्रपति तक ने सलमान तासीर का साथ देने से इन्कार कर दिया था । इस्लामाबाद के कोहसर बाजार मे सलमान तासीर को उसके अन्गरक्षक कादरी ने गोलियों से भून दिया । सलमान तासीर को पता था कि कट्टरपन्थियो के खिलाफ़ जुबान खोलने पर हमेशा के लिए ख़ामोश कर दिये जाने का डर है तब भी उसने आवाज उठाने से परहेज नहीं किया । महात्मा गान्धी को जब तिरसठ साल पहले एक कट्टरपन्थी ने गोली मार दी थी तो जिन्ना ने जो बात कही थी वही बात मै सलमान तासीर के बारे मे कहना चाहून्गा : “ सलमान तासीर की मौत एक शानदार मौत थी । “ जब भी कोई व्यक्ति झूठ की खिलाफ़त करे । सच का साथ दे । कट्टरपन्थियों के खिलाफ आवाज उठाए । और अगर उसे गोली मार दी जाये तो यह उस योद्धा का सबसे बडा इनाम है क्योकि उसे गोली मार देना यह सिद्ध करता है कि वह सच कह रहा था । तिरसठ साल पहले गान्धी को भी जनवरी के महीने मे ही गोली मारी गई थी और फिर उसी महीने मे गोली खाकर सलमान तासीर ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह बिल्कुल सही था ।

वर्तमान हालात और मीडिया की जिम्मेदारी

श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’

लोकतंत्र के तीन मुख्य स्तम्भ है विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका और लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में सर्वमान्य तरीके से प्रेस या मीडिया को स्वीकार किया गया है। वर्तमान में अगर हम सारी व्यवस्था पर नजर डालें तो पता चलता है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तमभ ने बाकी तीनों स्तम्भों पर हावी होने की कोशिश की है। वर्तमान में मीडिया अपना जो चेहरा पेश कर रहा है वह अब अपने खतरनाक रूप में सामने आ रहा है। मीडिया अपनी भूमिका को ज्यादा आंक कर एक ऐसी तस्वीर पेश कर रहा है कि लोकतंत्र के बाकी तीनों स्तम्भों की कार्यप्रणाली पर इसका प्रभाव पड़ने लगा है।

वास्तव में मीडिया का कार्य है कि वह जनता के सामने सच की तस्वीर लाए और सरकार का जो तंत्र है उसको जनता के सामने प्रस्तुत करें चाहे वह अच्छा हो या बुरा और इसी तरह मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह सरकार के सामने जनता के सही हालात प्रस्तुत करें ताकि तंत्र में बैठा हूक्मरान यह भूले नहीं कि उसकी कुर्सी लोक के जिम्मे ही है और वह उसी भीड़ का नुमाइन्दा है जो आज उसके सामने खड़ी है। वास्तव में मीडिया निष्पक्ष व निर्भीक तरीके से कार्य करें न कि निर्णायक तरीके से। आज के परिदृष्य में हो यह रहा है कि मीडिया अपनी निर्णायक भूमिका में नजर आ रहा है। हर किसी भी प्रकरण में मीडिया तथ्यों को इस तरीके से पेष करता है कि जैसे मीडिया, मीडिया न होकर कोई अदालत हो। मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह तथ्य प्रस्तुत कर दे न कि उन तथ्यों पर निर्णय करे। मीडिया निर्णायक भूमिका में रहे यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि लोकतंत्र बैलेंस का तंत्र है जहॉं विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका परस्पर मैन टू मैन चेैकिंग का भी काम करते हैं और इस भूमिका में मीडिया की यह जिम्मेदारी है कि वह इस चैंकिग का हिस्सा बने न कि इन सब पर हंटर लेकर खड़ा हो जाए। मीडिया तीसरी ऑंख है समाज का दर्पण है, यह मीडिया के लोगों को हमेषा याद रखना चाहिए। वर्तमान में मीडिया के कारण एक जन दबाब बनता है और इस जन दबाब में सही निर्णय नहीं हो पाते। आज न्यायपालिका, विधायिका सब के सब मीडिया का दबाब महसूस कर रहे हैं। इस दबाब के कारण कार्यपालिका कार्य नहीं कर पाती और न्यायपालिका निर्णय नहीं कर पाती। मीडिया की क्या और कैसी भूमिका हो यह तौलने का समय है।

वर्तमान समय में यह जरूरी है कि मीडिया दादागिरी न करे सहयोगी रहे । मीडिया की दादागिरी के कारण मीडियाकर्मी भी अपने आप को पत्रकार न समझकर न्यायाधीष समझने की भूल कर रहे हैं। मीडियाकर्मी किसी भी सरकारी या गैर सरकारी तंत्र में जाकर अपने आप को विषिष्ट अंदाज में पेष करता है और उसके दिमाग में यह बात रहती है कि मैं इन सब की खैर खबर लेने के लिए ही हूं। वास्तव में एक पत्रकार समाज सुधारक की भूमिका में नजर आए व अपनी कार्यप्रणाली को समाज के सुधारने की दिषा में ले जाए तभी यह संभव है कि मीडिया का वास्तविक फायदा समाज व राष्ट्र को मिलेगा। मीडिया की दादागिरी का परिणाम यह हो रहा है कि आज मीडियाकर्मी भी अपने इस पेषे को भ्रष्टाचार में डूबाने का काम कर रहे हैं। हाल ही में टूजी स्पेक्ट्रम के मामले में यह बात खुल कर सामने आई है कि मीडिया में कितने स्तर तक भ्रष्टाचार आ चुका है। कहने का मतलब यह है कि लोकतंत्र का यह चौथा स्तम्भ अपने सही व वास्तविक रूप को प्रकट करें न एक ऐसा चेहरा बनाए जो लोकतंत्र के बाकी स्तम्भों से मिलता जुलता नजर आए।

और यहॉं मैं यह कहना चाहूँगा कि इस मामले में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने कुछ कदम ज्यादा ही काम किया है। वर्तमान में टी.वी. चेनल्स की खबरों का आमजन पर सीधा असर पड़ता है। जल्दी से जल्दी और ज्यादा से ज्यादा खबर देने की चाहत ने मीडिया की विषलेषणात्मक शक्ति को समाप्त सा कर दिया है। जो चीज जब जहॉं और जिस रूप में दिखाई दे रही है उसको उसी रूप में तुरन्त पेष कर देने से आज टीवी चेनल्स बेताब नजर आते हैं, वे उन तथ्यों की तरफ गौर नहीं कर रहे कि इस दिखाई देने वाले तथ्य के पीछे सच्चाई क्या है। जरूरत है कि खबरों का विषलेषण हो, उसकी सत्यता की जॉंच हो और फिर खबर आम जन के सामने एक रिपोर्ट की तरह पेष आए एक फैसले की तरह नहीं। मीडिया की भूमिका समाज सुधारक व समाज के पथ प्रदर्षक की हो ताकि लोगों को सही और गलत का अंदेषा हो जाए और यह निर्णय आम जन पर ही छोड़ दिया जाए कि वो कौनसा रास्ता चुनना चाहता है। मीडिया में काम करने वालों को यह बात अच्छी तरह से मालूम होती है कि आमजन की समझ कैसी है और किसी भी मुद्दे पर आम लोगों का क्या नजरिया और प्रतिक्रिया रहेगी तो ऐसी स्थिति में मीडिया की जिम्मेदारी है वह समाज में शान्ति, सद्भावना व एकता कायम करने का माहौल बनाए और अपने सकारात्मक रूख को पेष करें और जब वर्तमान में सारी तरफ अव्यवस्था, अषांति और अराजकता का माहौल है तो मीडिया की जिम्मेदारी और ज्यादा हो जाती है।