संजय सक्सेना
हिन्दुस्तान की जनता वर्षों से चुनाव प्रक्रिया में सुधार का सपना पाले हुए है। उसे इस बात का हमेशा रंज और गम रहता है कि हमारे राजनेताओं ने लोकतंत्र को लूटतंत्र बना कर रख दिया है। राजनेताओं की छवि जनमानस में कैसी है यह बात किसी से छिपी नहीं है,लेकिन हमारे नेताओं पर शायद इसका कोई फर्क ही नहीं पड़ता है, यही वजह है जो विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता चुनाव सुधार के किसी भी उपाय या विचार को अमलीजामा नहीं पहनने देते हैं। हमारे राज नेताओं द्वारा चुनाव सुधार के प्रयासों को भले ही झटका दिया जाता रहा हो लेकिन एक आम हिन्दुस्तानी के लिए खुशी की बात यह है कि चुनाव आयोग हमेशा चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए संघर्षरत् रहता है। चुनाव आयोग का ऐसा ही एक प्रयास पिछले दिनों लखनऊ में देखने को मिला। मौका था चुनाव सुधार संगोष्ठी का। संगोष्ठी में उत्तर प्रदेश और उत्तराचंल के मुख्यमंत्री सहित दोनों राज्यों के कई दिग्गज नेता भी शामिल हुए थे, लेकिन चुनाव सुधार के बारे में कोई साफ रास्ता नजर नहीं आया। चुनाव आयोग की मंशा का समर्थन करते हुए न बाहुबलियों को चुनावी मैदान से दूर रखने के लिए किसी ने हामी भरी न ही कोई राजनैतिक पार्टी चुनाव लड़ने का खर्च सरकार द्वारा उठाने (स्टेट फंडिंग) और पार्टी के खातों की जांच लेखा महा परीक्षक से अनुमोदित आडिटर से कराने की बात पर राजी हुआ। बात-बात पर एक-दूसरे की टांग खिंचाई करने वाले नेताओं को यहां एक सुर में बोलते देखना अचंभित करने वाला था।
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने का सपना मन में लिए चुनाव आयोग और देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री मायावती और उत्तराचंल के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल तथा अन्य दलों के नेता इतिफाक से अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के दिन जब लखनऊ में एक मंच पर बैठे तो उम्मीद इस बात की थी कि लोकतंत्र से बाहुबल और अन्य ‘बीमारियों’ को खत्म करने के लिए चुनाव सुधार कमेटी की ‘चुनाव सुधार संगोष्ठी’ में आयोग और राज्य सरकार के बीच एक राय बन जाएगी, लेकिन ऐसा हो नही पाया। संगोष्ठी में भाग लेने आए करीब-करीब सभी दलों के नेतागण वैचारिक रूप से अपनी अलग ‘ताल’ बजाते नजर आए। हालांकि सभी ने यह जरूर माना कि चुनाव सुधार के लिए कदम उठाना ही चाहिए। राजनीति में अपराधीकरण के मुद्दे पर वैचारिक भिन्नताएं नजर आई तो ‘स्टेट फंडिग’ पर भी कोई सही दिशा नहीं दिखी। आयोग चाहता था कि चार्जसीट के साथ ही चुनाव लड़ने पर रोक का प्रावधान हो। वहीं बसपा सुप्रीमों और प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने साफ-साफ कह दिया कि इसके लिए आयोग को नहीं पार्टियों को खुद अनुशासित बनना होगा। उनका मानना था कि जब तक किसी को सजा न हो जाए तब तक चुनाव लड़ने पर रोक नहीं लगना चाहिए।वहीं उतरांचल के मुख्यमंत्री पोखरियाल का कहना था कि देश के प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों का चुनाव भी सीधे जनता द्वारा होना चाहिए।एक तरफ राजनेता चुनाव सुधार के लिए कोई कदम उठाते नहीं दिखे तो दूसरी तरफ मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी आयोग को और अधिकार दिलाने की वकालत करते नजर आए।
यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार की प्रक्रिया की कोशिश पहली बार नहीं की थी। चुनावों में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को उम्मीदवारी खत्म करने और चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक दलों को सरकारी खजाने से आर्थिक सहायता के सवाल न जाने कितनी बार उठाए जा चुके हैं। फिर भी राजनीतिक दल अपराधी प्रवृति वाले लोगों और तरह-तरह के अपराधों के आरोपियों को टिकट देते ही रहते हैं, जो समाज की नजरों में भले ही पूरी तरह से गलत हो, लेकिन इसके लिए जाति-धर्म के नाम पर वोटिंग करने वालों को भी पाक-साफ करार नहीं दिया जा सकता है। यह राष्ट्रीय शर्म की बात है कि भारतीय रजानीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लागों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो समय-समय पर समाज में तो गंदगी फैलाते ही रहते हैं,अक्सर अपनी ही पार्टियों को भी शर्मसार करते है। अपराधियों को राजनीति से दूर रखने की जितनी कोशिश की जा रही है,उसके उल्ट अपराधियों की राजनीति में दखलंदाजी उतीन ही बढ़ती जा रही है। पिछले करीब 25 सालों का इतिहास खंगाला जाए तो पता चलता है कि 1985 में जहां मात्र 35 विधायकों पर आपराधिक मुकदमें थे,वहीं 2007 के विधान सभा चुनाव आपराधिक वारदातों वाले विधायकों की संख्या 155 पहुंच गई। आपराधिक प्रवृति वालों को टिकट देने में कोई भी दल पीछे नहीं है। मौजूदा समय में बसपा के 68 तो सपा के 47,भाजपा के 18,कांग्रेस के 09 विधायकों के दामन दागदार हैं।राजनैतिक दल सचेत न हुए तो 2012 के विधान सभा चुनाव में यह संख्या कुल विधायकों की आधी से अधिक तक पहुंच सकती है।
देश के कई मुख्य चुनाव आयुक्त, वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी की तरह ऐसी ही रट लगाते हुए सेवानिवृत भी हो चुके है। उम्मीद यही है कि कुरैशी के हाथ भी कुछ खास नहीं आएगा। यह दुर्भाग्य ही है कि देश के किसी राज्य का मुख्यमंत्री ऐसा नहीं है जो चुनाव सुधार की कोशिशों का खुले दिमाग से समर्थन करता हो और चुनाव आयोग के पास इतनी ताकत नहीं है कि वह कोई फैसला स्वयं ले पाए।
भारत में राजनीतिक दल वही होता है, जो कुर्सी पर काबिज होने में कामयाब हो जाए और नेता भी वही माना जाता है, जो हर हालत में चुनाव जीत लेै। ऐसे में यह कहना काफी मुश्किल होगा कि भारत में चुनाव सुधार के प्रयास कब शुरू होंगे। हालांकि केंद्र सरकार इस संबंध में संसद से एक कानून पारित करवाकर अपराधी तत्वों का राजनीति में प्रवेश बंद करवाने की बात कहती रही है, लेकिन इसके लिए ठोस कदम की रूपरेख तक नहीं बन पाई है। राज्यों की सरकारें भी पूरी तरह से निष्क्रिय हैं, ताकि उन्हें अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेने की जरूरत न पड़े।चुनाव प्रक्रिया में खामियों की वजह से ही देश में 25 प्रतिशत मतदाता चुनाव के दौरान अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते। आखिर इसके कारण पर गंभीरता से मंथन कब किया जाना चाहिए ?