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चुनाव पूर्व घमासान से रूबरू उत्तर प्रदेश

निर्मल रानी

ऐसा माना जाता है कि केंद्र की राजनीति की दिशा व दशा का निर्धारण उत्तर प्रदेश की राजनीति ही करती है। इसका सीधा सा कारण यही है कि 404 विधानसभाओं वाला यह राज्‍य देश का ऐसा सबसे बड़ा राज्‍य है जहां लोकसभा की सर्वाधिक 80 सीटें हैं। कभी कांग्रेस पार्टी का गढ़ माने जाने वाले इस विशाल राज्‍य में आज कांग्रेस की दशा अन्य राजनैतिक दलों की तुलना में सबसे कमज़ोर है। इसका कारण यह है कि कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक समझे जाने वाले मुस्लिम समुदाय के वोट पर जहां समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी ने अपना अधिकार जमा लिया वहीं प्रदेश के दलित मतदाता लगभग पूरी तरह से बहुजन समाज पार्टी की झोली में जा गिरे। और 2007 के विधान सभा चुनावों से पूर्व मायावती ने राज्‍य के स्वर्ण विशेषकर ब्राहमण मतों को अपनी ओर आकर्षित करने का एक ऐसा सफल कार्ड खेला जिसने बसपा को राज्‍य में पूर्ण बहुमत दिला दिया। 2007 में गठित हुई विधान सभा का कार्यकाल 2012 में पूरा होने को है और राज्‍य में 2012 के प्रस्तावित चुनावों को लेकर राजनैतिक शतरंज की बिसातें बिछनी शुरू हो चुकी हैं। इस बात की भी संभावना व्यक्त की जा रही है कि बहुजन समाज पार्टी प्रमुख एवं राज्‍य की मुख्‍यमंत्री मायावती निर्धारित समय से पूर्व किसी भी समय विधान सभा भंग कर सकती हैं तथा समय पूर्व चुनाव के लिए रास्ता सांफ कर सकती हैं।

उत्तर प्रदेश में वैसे तो बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस पार्टी मुख्‍य रूप से सक्रिय व स्थापित राजनैतिक दल माने जाने जाते हैं। परंतु इनके अतिरिक्त चौधरी अजीत सिंह के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकदल का भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छा जनाधार है। लिहाज़ा उत्तर प्रदेश में उनकी राजनैतिक उपस्थिति को भी कोई भी राजनैतिक दल फरामोश नहीं कर सकता। कांग्रेस पार्टी भी राज्‍य में अपने खोए अस्तित्व को वापस लाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तथा पार्टी महासचिव राहुल गांधी ने जितने अधिक दौरे केवल उत्तर प्रदेश राज्‍य के किए हैं उतने दौरे किसी अन्य राज्‍य के नहीं किए। यही वजह थी कि गत लोकसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस पार्टी को अपेक्षा से अधिक सफलता प्राप्त हुई। पार्टी आश्चर्यजनक ढंग से 2009 में 22 संसदीय सीटें जीतने में कामयाब रही। कांग्रेस पार्टी के उत्तर प्रदेश में इस बढ़ते कदम ने अन्य सभी दलों को सचेत कर दिया तथा वे सभी 2012 के संभावित विधान सभा चुनाव के मद्देनार अपनी रणनीति पर काम करने लगे। परिणामस्वरूप सभी गैर कांग्रेसी दलों ने कांग्रेस पर भ्रष्टाचार, 2जी स्पेकट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्‍स में हुए भ्रष्टाचार, बोफोर्स तोप दलाली में क्वात्रोचि की भूमिका तथा कमरतोड़ महंगाई जैसे हथियारों से प्रहार करना शुरू कर दिया है। तो दूसरी ओर 2009 में ही बाबरी विध्वंस के गुनहगार समझे जाने वाले कल्याण सिंह से दोस्ती कर जबरदस्त नुंकसान उठाने वाले समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने मुस्लिम समुदाय से अपनी गलतियों के लिए मांफी मांगने तथा अपने वंफादार मुस्लिम नेता आजमखान को पार्टी में वापस लेने की भी राजनैतिक चाल चली है।

चुनाव पूर्व कांग्रेस पार्टी ने भी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं पर अपना प्रभाव छोड़ने के लिए जहां समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में आए वरिष्ठ समाजवादी नेता बेनी प्रसाद वर्मा को केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान देकर प्रदेश के मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की है वहीं इसी रणनीति के मद्देनजर राज्‍य मंत्री रहे श्रीप्रकाश जयसवाल को भी कैबिनेट मंत्री का दर्जादिया गया है। इसके अतिरिक्त राहुल गांधी दलितों, गरीबों व अल्पसंख्‍यक समुदाय के लोगों के मध्य बराबर जाते रहे हैं। मनरेगा का भी राज्‍य में अच्छा प्रभाव पड़ा है। हां, गत दिनों राहुल गांधी की इलाहाबाद व लखनऊ की यात्रा के दौरान उन राजनैतिक दलों द्वारा उन्हें काले झंडे दिखाए जाने की कोशिश की गई जो राहुल गांधी तथा कांग्रेस पार्टी को अपने लिए फिर एक खतरा समझ रहे हैं। परंतु राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं से ऐसे विरोध प्रदर्शनों की परवाह किए बिना एकजुट रहने तथा सत्तारूढ़ बसपा के विरूद्ध संघर्ष करने का आहवान किया है। कांग्रेस ने अपनी एक सोची समझी रणनीति के तहत वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह को पार्टी का प्रभारी बनाया है। दिग्विजय सिंह राज्‍य के अल्पसंख्‍यक मतदाताओं को पार्टी के साथ जोड़ने के लिए क्या कुछ प्रयास कर रहे हैं यह पूरा देश गौर से देख रहा है। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति आक्रामक होने जैसे किसी भी अवसर को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते। साथ-साथ वे अल्पसंख्‍यक मतों को अपनी ओर आकर्षित करने के किसी अवसर को भी अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते। शायद यही वजह है कि बिहार चुनावों में कांग्रेस की हुई ताजातरीन दुर्गति के बावजूद दिग्विजय सिंह बड़े आत्मविश्वास के साथ अब भी यह कहते हुए दिखाई दे रहेहैं कि उत्तर प्रदेशविधान सभा चुनावों के परिणाम चौंकाने वाले होंगे।

उधर भारतीय जना पार्टी अपने चिरपरिचित फायरब्रांड रास्ते पर चलते हुए वरूण गांधी को पेश पेश रख रही है। वरूण गांधी को सामने रखकर भाजपा एक तीर से तीन शिकार खेलना चाह रही है।एक तो वरूण गांधी, नेहरु-गांधी परिवार के ही सदस्य होने के नाते राहुल गांधी का बेहतर जवाब हो सकते हैं। दूसरा यह कि युवा एवं तेजस्वी व्यक्तित्व होने के कारण राज्‍य के युवा व छात्र मतदाता उनकी ओर आकर्षित हो सकते हैं। और तीसरे यह कि गांधी परिवार का पहला फ़ायरब्रांड सांप्रदायिकतावादी चेहरा देखने के लिए जनसभाओं में कुछ न कुछ भीड़ वरुण के नाम पर अवश्य इकट्ठी हो जाएगी। अब यह तो समय ही बता सकेगा कि भाजपा का यह अनुमान कितना उचित है और कितना अनुचित। इस बात की भी संभावना व्यक्त की जा रही है कि भारतीय जनता पार्टी वरुण गांधी को पार्टी की ओर से राज्‍य का संभावित मुख्‍यमंत्री घोषित कर सकती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी भाजपा की राज्‍य में सहायता करने का पूरा प्रयास कर रहा है। यही वजह है कि संघ ने गत दिनों अपने ऊपर लगने वाले आतंकवाद के आरोपों के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले अपने धरने के अंतर्गत लखनऊ में जो धरना आयोजित किया उसमें संघ प्रमुख मोहन भागवत स्वयं उपस्थित हुए।

बहरहाल इन सभी राजनैतिक दलों की राजनैतिक चालों व रणनीतियों से अलग बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती इस बात की है कि वे किस प्रकार अपनी सत्ता बरंकरार रखें। चुनाव का समय नजदीक आने के साथ-साथ राज्‍य की मायावती सरकार तथा बहुजन समाज पार्टी पर भी विद्रोह तथा संकट के बादल मंडराते दिखाई दे रहे हैं। खबर है कि मायावती ने प्रदेश की अधिकांश विधानसभा सीटों पर अपने उन उम्‍मीदवारों की घोषणा कर दी है जिन्हें पार्टी अपना उम्‍मीदवार बनाने का मन बना चुकी है। जाहिर है इनमें जहां तमाम उ मीदवार ऐसे हैं जो दूसरी या तीसरी बार चुनाव मैदान में जाकर अपना भाग्य आजमाएंगे वहीं कुछ विधायक व मंत्री ऐसे भी हैं जिन्हें मायावती ने पार्टी का टिकट देने से सांफ इंकार कर दिया है। ऐसे में कई नेता पार्टी से विद्रोह कर दूसरे उन दलों की राह अख्तियार कर सकते हैं जहां उन्हें अपना भविष्य उज्‍ज्‍वल नजर आता होगा। ऐसे ही एक ताजातरीन फैसले के अंतर्गत मायावती ने अपने भूमि विकास एवं जन संसाधन मंत्री अशोक कुमार दोहरे को गत् दिनों मंत्रिमंडल से बंर्खास्त किए जाने की सिफारिश राज्‍यपाल बी एल जोशी से की जिसे उन्होंने तत्काल स्वीकार करते हुए दोहरे को पदमुक्त कर दिया। उन्हें बसपा की प्राथमिक सदस्यता से भी निष्कासित कर दिया गया है। खबर है कि उनके निर्वाचन क्षेत्र औरय्या से पार्टी ने आलोक वर्मा को बसपा प्रत्याशी बनाए जाने की घोषणा की थी जिससे दोहरे के समर्थक काफी नाराज थे। यह नाराजगी पार्टी में बग़ावत का रूप धारण कर रही थी। इससे पूर्व ही मायावती ने दोहरे को बाहर का रास्ता दिखा दिया। दोहरे काशीराम के करीबी तथा बामसेंफ के संस्थापक सदस्यों में गिने जाते थे।

मायावती की तानाशाही पूर्ण कार्यशैली भी आगामी चुनावों से पूर्व उन्हें काफी नुकसान पहुंचा सकती है। पार्टी में तमाम नेताओं का यह मानना है कि उन्हें अपनी बात, गिला-शिकवा अथवा सलाह आदि देने की न तो सार्वजनिक मंच अथवा मीडिया के सामने कोई छूट है न ही पार्टी के किसी फ़ोरम में। यह भी माना जाता है कि बी एस पी को स्थापित करने वाले लोगों में तमाम वे दलित आई ए एस अधिकारी व उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं जिन्होंने काशीराम व बसपा के दलित उत्थान के दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए शुरु से ही उनका साथ दिया था। परंतु मायावती के स्वभाव व कार्यशैली के कारण ऐसे कई लोग अब बसपा में अपने को घुटा-घुटा सा महसूस कर रहे हैं। पिछले दिनों दलित समुदाय के एक पूर्व वरिष्ठ आई ए एस अधिकारी जे एन चैंबर की पुत्री दिशा चैंबर ने इन्हीं कारणों के चलते पार्टी छोड़ने की घोषणा कर दी। दिशा की इस घोषणा के बाद पार्टी की ओर से उन्हें बंर्खास्त किए जाने की विज्ञप्ति भी जारी की गई। उधर बांदा जिले के नरैनी विधानसभा क्षेत्र से विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी द्वारा शीलू निषाद नामक एक लड़की से बलात्कार करने का मामला भी मायावती के लिए सिरदर्द साबित हो रहा है। हालांकि उस बलात्कारी विधायक को बर्खास्त कर तथा उसकी गिरफ्तारी करवा कर मायावती ने अपने सख्‍त प्रशासन का संदेश देने की कोशिश की है। परंतु इसके बावजूद जनता मायावती से यह सवाल जरूर पूछना चाह रही है कि आखिर विधायक की गिरफ्तारी में इतनी देरी का कारण क्या था? इस प्रकरण में शीलू निषाद को चोरी के झूठे इलाम में जेल भेजे जाने पर भी मायावती ने राजनीति करते हुए अपने जन्मदिन के अवसर पर उसे रिहा किए जाने का आदेश तो दिया परंतु इसके जवाब में स्वयं शीलू निषाद ने अगले ही दिन यह कहा कि वह मायावती के कहने से नहीं बल्कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर रिहा हुई है। इस घटनाक्रम में बसपा की अंदरूनी गुटबाजी की भी भूमिका होने का समाचार है। माना जा रहा है कि मायावती सरकार में सबसे शक्तिशाली लोक निर्माण मंत्री इस समय नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी हैं जबकि विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी उनके विरोधी गुट से संबध्द हैं।

बहरहाल मायावती को ‘डा0 अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन संग्रहालय’ के नाम से बनाए जाने वाले नौएडा स्थित पार्क के मामले में जहां सुप्रीम कोर्ट ने राहत दी है वहीं राज्‍य में उजागर हुआ खाद्यान्न घोटाला जिसकी रकम लगभग दो हजार करोड़ तक बताई जा रही है, माया सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है। हालांकि मुख्‍यमंत्री की ओर से यह विश्वास दिलाया गया है कि उनकी सरकार दोषियों के विरुध्द कार्रवाई करेगी। इस सिलसिले में समस्त एजेंसियों ने अब तक 19 जिलों में 244 मुकद्दमे दर्ज कराए हैं। यह मुंकद्दमे 64 करोड़ रुपये की कीमत के अनाज को लेकर दर्ज कराए गए हैं। इसके अतिरिक्त आगामी चुनावों के मद्देनार ही मायावती ने पिछले दिनों लखनऊ में आयोजित अपने जन्मदिन के अवसर पर तमाम लोक हितकारी एवं लोकलुभावनी योजनाओं की घोषणा कर अपने आधार को बरंकरार रखने का प्रयास किया है। अब देखना यह है कि राज्‍य की जनता गत वर्ष 15 मार्च को पार्टी के 25 वर्ष पूरे होने तथा स्वर्गीय काशीराम के जन्म दिन के अवसर पर आयोजित हुई उस महारैली को याद रखती है जिसमें कि 2 सौ करोड़ रुपये खर्च किए गए थे तथा इस रैली में मायावती ने एक हजार रुपये के नोटों की बेशंकीमती माला को अपने गले में धारण किया था। या फिर उनकी ताजातरीन लोक हितकारी एवं लोकलुभावनी घोषणाओं को।

सपा की सोच में खोट

संजय सक्सेना

लगता है, उत्तर प्रदेश के नेताओं को वर्ष 2011 को बेसब्री से इंतजार था। नया साल शुरू होते ही प्रदेश में राजनैतिक सरगर्मियां एकदम तेज हो गई हैं। छोटे-बड़े सभी दलों में मैराथन बैठकों का दौर चल पड़ा है। चार साल तक ‘आराम’ करने के बाद अचानक विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं को जनता की सुधि आई तो मतदाता भी मौके की नजाकत भांप कर नखरने दिखाने लग गया। जनता से करीबी दिखने के लिए गॉव की चौपाल से लेकर शहर की नुक्ड़कों तक पर नेताओं के चेहरे देखे जा सकते हैं। चेहरा नहीं तो पोस्टर से ही काम चलाने वालों की भी कमी नहीं है,लेकिन नेताओं और मतदाताओं के बीच विश्वास की जो खाई पिछले कई सालों से गहरा रही थी,वह कम होने के बजाए चौड़ी ही होती जा रही है।

नेताओ की तेजी के संद्रर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि अगर शहर से लेकर गांव तक में नेताओं के बैनर-पोस्टर लगाने पर टैक्स लगा दिया जाए तो निश्चित ही सरकार का राजस्व मालामाल हो जाएगा। अपने-अपने हिसाब से जनता को लुभाने या कहा जाए बेवकूफ बनाने का खेल जो शुरू हो गया है। भाजपा जहां अयोध्या से आगे निकल कर मंहगाई, आकंवाद और भ्रष्टाचार के बहाने केन्द्र और प्रदेश की माया सरकार को घेरने में लगी है, वहीं कांग्रेस के पास प्रदेश सरकार की आलोचना करने का कोई ठोस मुद्दा नहीं है। प्रदेश कांग्रेस के नेताओं को पता है कि भले ही केन्द्र में कांग्रेस गठबंधन सरकार हो लेकिन उसके कारनामों की चर्चा आगामी विधान सभा चुनाव में हो गई तो जितनी सीट आने की उम्मीद हैं उसकी आधी हो जाएंगी।बिहार चुनाव के बाद कांग्रेसियों को अपने चमत्कारी युवराज पर भी ज्यादा भरोसा नहीं रह गया है।

भाजपा और कांग्रेस तो राष्ट्रीय दल हैं,उनकी उत्तर प्रदेश में भले ही सरकार न हो लेकिन देश के अन्य राज्यों में तो उनका राज चल ही रहा है,लेकिन समाजवादी पार्टी के लिए तो उत्तर प्रदेश से ही सहारा है। अगर बहत्तर वर्षीय मुलायम को अबकी सत्ता हासिल नहीं हुई तो उनके लिए आगे कुछ करने को शायद ही बचे। एक तरफ उम्र का तकाजा और दूसरी तरफ पुराने संगी-साथियों का सपा से किनारा कर लेना यह दो ऐसे मुद्दे हैं जो मुलायम के लिए 2012 में ‘भारी’ साबित हो सकते हैं। आज स्थिति यह है कि उनकी पार्टी परिवार तक ही सीमित होकर रह गई है। पार्टी में करीब-करीब सभी महत्वपूर्ण पदों पर उनके परिवार के लोग ही बैठे हैं। मुलायम अपने को पिछड़ों और मुसलमानों का नेता समझते थे लेकिन इस समय वह दावे से यह नहीं कह सकते हैं कि उनके साथ कौन खड़ा है।

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव 2012 के बारें में एक बात खुलकर कही जा रही है कि अबकी बार के विधान सभा चुनावों में कुछ सीटों को छोड़कर कहीं भी जातिपात का कार्ड नहीं चलेगा। फैसला माया सरकार के काम करने के तौर तरीकों पर होगा। बात विकास की भी चलेगी और भ्रष्टाचार का मुद्दा भी उठेगा, लेकिन मुलायम हैं कि मंदिर-मस्जिद की राजनीति से ऊपर ही नहीं उठ पा रहे हैं। उनके ऊपर तो मानों मुल्ला मुलामय बनने का भूत सवार हो। सत्ता की दूरी ने उनका विवेक हर लिया है। लखनऊ से लेकर दिल्ली तक एक ही राग में अलापने से उनकों करीब से जानने समझने वाले भी काफी हैरान हैं। मुसलमानों को लुभाने के लिए वह ऐसे-ऐसे मुद्दों को हवा दे रहें हैं जिसकी जरूरत मुसलमान भी नहीं समझता हैं। मुलायम का अयोध्या कांड से काफी करीबी नाता रहा है। इस विवादित मुद्दों को हवा देने का काम जितना कांग्रेस-भाजपा ने किया उससे कम हाथ मुलायम का भी नहीं रहा। इस मसले पर वह कभी अदालत के फैसले का सम्मान करने की बात कहते तो कभी इसे मुसलमानों में भय पैदा करने वाला बता देते। हद तो तब हो गई जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया। हिन्दू-मुस्लमान दोनों ने ही इसे सहजता से यह सोच कर स्वीकार कर लिया कि जो पक्ष संतुष्ट नहीं होगा,उसके लिए सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता है,लेकिन मुलायम ने अदालत के आदेश ठेंगा दिखाते हुए कह दिया कि इस फैसले से देश का मुसलमान ठगा रह गया। मुलायम को उम्मीद थी कि उनके इस बयान से मुसलमान उनके साथ हो जाएगा लेकिन हुआ इसके उल्ट। उल्टे मुसलमान ही पूछने लगे कि वह अमन-चैन क्यों बिगाड़ना चाहते हैं।मुलायम को समझते देर नहीं लगी कि पासा उल्टा पड़ गया है,इसलिए उन्होनें तुरंत चुप्पी का लबादा ओड़ लिया। इससे पहले मुलायम कल्याण को साथ लेने के लिए मुसलमानो से माफी मांग कर चर्चा बटोर चुके थे।

मुलायम के लिए परेशानी की बात यह है कि माया सरकार ऐसा कुछ नहीं कर रही है जिसके आधार पर वह मुसलमानों के हमदर्द बन सके। आजम की वापसी भी इसी लिए हुई थी,लेकिन यह तीर भी निशाने पर नहीं बैठा।अब जबकि उनके हत्थे कुछ नहीं आया तो वह दिल्ली के जंगपुरा स्थित नूर मस्जिद को ध्वस्त करने के मामले को हवा देने में लग गए जिसे अदालती आदेश के बाद गिराया गया था। मस्जिद दिल्ली मे गिरी लेकिन मुलायम ने आश्चर्यजनक रूप से प्रेस कांफे्रस लखनऊ में करके इसका विरोध जताया। इतना ही नहीं उन्होंने इस घटना को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस से जोड़ दिया।शायद उन्हें इस बात का अहसास था कि नूर मस्जिद भले ही दिल्ली में गिरी हो लेकिन इसका विरोध अगर वह दिल्ली की बजाए लखनऊ में करेगें तो उसका असर मुस्लिम समाज पर ज्यादा पड़ेगा।नूर मस्जिद विवादित थी,इसी लिए गिराई गई थी। इस मस्जिद की तरह पहले भी हिन्दू-मुसलमानों-सिख-इसाइयों के धार्मिक स्थलों को किसी न किसी वजह से गिराया जाता रहा ह। भारत ऐसा कोई अकेला देश नहीं है। अरब देशों के साथ-साथ करीब-करीब सभी देशों की सरकारें अपने विकास के एजेंडे को पूरा करने के लिए इस तरह के फैसले लेती रहती हैं,लेकिन इतनी सी बात मुलायम के समझ में नहीं आती। उनका यह कहना कि नूर मस्जिद गिरा कर दिल्ली सरकार ने भारतीय संविधान मे मुसलमानो के अपनी संस्कूति और भाषा को सुरक्षित रखने के मौलिक अधिकार का हनन किया है ,न केवल गैरजिम्मेदाराना है बल्कि उकसाने वाला भी है।

समय आ गया है कि मुलायम अपने राजनैतिक चश्में का नंबर बदलें,ताकि उनको जमीनी हकीकत का पता चल सके। लगता ऐसा है कि ‘धरती पुत्र’ मुलायम का जमीनी राजनीति से नाता टूट गया हैं।उनकी ‘हल्ला बोल’ स्टाइल की धमक अब कहीं सुनाई और दिखाई नहीं देती। प्रेस नोट के सहारे राजनीति करने वाली भाजपा का हश्र देखने के बाद भी अगर किसी नेता या दल की आंखे न खुले तो इसका मतलब यही लगाना चाहिए कि उसके लिए भी आगे की राजनीतिक राह आसान नही होगी।माया सरकार की कई विफलताओं ने प्रदेश की जनता का जीना मुहाल कर रखा है,लेकिन उन मुद्दों को उछालने के बजाए मुलायम ‘मुल्ला मुलायम’ बनकर शार्टकट से सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने का सपना देख रहें हैं जो पूरा होने वाला नहीं लगता है। यूपी विधान सभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर रही है, लेकिन प्रत्याशियों के चयन का तरीका घिसा-पिटा जातिगत समीकरणों वाला ही है।माया जहां सर्वसमाज की बात कर रही हैं,वहीं मुलायम एक वर्ग विशेष तक ही सिमटे हुए हैं। मुलायम को अगर मजबूती के साथ 2012 के विधान सभा चुनाव में दस्तक देना हैं तो उन्हें ध्यान रखना होगा कि वह वो गलतियां न दोहराएं जिसके चलते उनकी सत्ता चली गई थी।

मुलायम शासनकाल की याद आते ही एक ऐसा नक्शा उभर कर आता है,जहां बाहुबलियों और अराजक तत्वों का बोलबाला था और मुलायम प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष रूप से उनके संरक्षणदाता बने हुए थे। यही वजह थी कई मोर्चो पर अच्छा काम करने के बाद भी प्रदेश की जनता ने कानून-व्यवस्था के बिगड़े हालात के चलते उनसे तौबा कर ली थी।माया ने भले ही 2007 में सत्ता तक पहुंचने के लिए कई दागियों का सहारा लिया था,लेकिन एक बार मजबूत स्थिति में आने के बाद उन्होंने अपनी छवि सुधारने में देर नहीं लगाई। बसपा के दागी नेताओं से या तो उन्होंने किनारा कर लिया या फिर उनके जेल में डाल दिया।तमाम कानूनी-कायदों की धज्जियां उड़ाने के बाद भी मायावती अपने शाासनकाल में लगातार जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल रहीं कि प्रदेश में कानून से ऊपर कोई नहीं है। मात्र चार-पांच बसपा नेताओं को उनकी आपराधिक गतिविधियों के खिलाफ जेल की सलाखों के पीछे भेजकर माया न केवल प्रदेश की जनता बल्कि मीडिया को भी लुभाने में सफल रहीं।

बात कानून व्यवस्था के बाद सबसे जवलंत मुद्दे मंहगाई की कि जाए तो, इसके कोई संदेह नहीं हैं कि मंहगाई ऐसा मुद्दा है जिसके लिए केन्द्र और राज्य सरकार बराबर की दोषी होती हैं,लेकिन बसपा सरकार ने ऐसा चक्र चलाया कि मंहगाई का सारा ठीकरा केन्द्र के सिर पर फूट गया और माया सरकार पाक-साफ निकल गई।जबकि माया सरकार चाहती तो जमाखोरों और कालाबाजारियों के खिलाफ अभियान चला कर न केवल मंहगाई के मुद्दे पर केन्द्र की मदद कर सकती थी, प्रदेश की जनता को भी इससे राहत मिलती लेकिन इस मुद्दे पर एक बार भी समाजवादी पार्टी ने बसपा सरकार को घेरने की कोशिश नहीं की। हो सकता है कि यह उनकी राजनैतिक मजबूरी हो लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक मुकाम हासिल करने के लिए कुछ कड़वे घूंट भी दवा समझ कर पीने पड़ते हैं।

मंत्री और अधिकारियों की फांस में शिवराज

विनोद उपाध्‍याय

विकास…विकास…बस विकास यह मूल मंत्र है मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह सरकार का। पिछले पांच सालों से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और वरिष्ठ अधिकारी इसी अवधारणा पर काम कर रहे हैं या यूं भी कह सकते हैं कि काम करने का दावा कर रहे हैं, लेकिन विकास है कि दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। आए भी तो कैसे…? हमारे मुख्यमंत्री नाम से ही नहीं स्वभाव से भी ठहरे भोले भंडारी। जिसका फायदा उठाकर उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने की शपथ लेने वाले मंत्री और विभागों के प्रमुख सचिव ‘शिव’ बाबा को हवाई किले बनाने का ख्वाब दिखाकर अपना उल्लू साध रहे हैं। ऐसे में विकास का संकल्प अगर अधूरा रहता है तो कोई बड़ी बात नहीं है।

मंत्री होने का मतलब मुख्यमंत्री के सहयोगी होने के अलावा किसी विभाग के मुखिया होने का भी है, जो अपने विभाग की नीतियों, कार्यक्रमों के निर्माण के साथ-साथ इनका क्रियान्वयन भी कराता है लेकिन मध्यप्रदेश में भाजपा के इस आठ साल और इसमें से शिवराज सिंह चौहान के पांच साल के शासन काल का विश्लेषण करने पर हम यही पाते हैं कि मंत्री और अधिकारी अपनी ढपली अपना राग की राह पर काम कर रहे हैं। सबका एक मात्र लक्ष्य यही है कि किसी तरह समीक्षा, मंथन के दौरान अच्छे से अच्छा प्रजेंटेशन देना।

शिवराज सरकार में मुख्यमंत्री के अलावा 19 कैबिनेट, 3 राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और 9 राज्यमंत्री हैं। इनमें से कुछ मंत्री ऐसे हैं जो संगठन में बैठे अपने आकाओं के बल पर मुख्यमंत्री को तव्वजों नहीं दे रहे हैं वहीं कुछ ऐसे हैं जो अपनी बड़ी राजनैतिक हैसियत के कारण किसी की सुन नहीं रहे हैं। शिवराज मंत्रिमंडल में सबसे वरिष्ठ और अनुभवी मंत्री नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री बाबूलाल गौर हैं। शिवराज से पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने वाले गौर को इस सरकार का सबसे दबंग मंत्री माना जाता है और वे अपने हिसाब से मंत्रिपरिषद की बैठकों सहित अन्य बैठकों और आयोजनों में जाया करते हैं। बाबूलाल गौर आज भले ही मुख्यमंत्री नहीं हैं लेकिन उनका रुतबा मुख्यमंत्री से कम नहीं है। अपने विभाग की कार्ययोजना वे अपने चहेते अधिकारियों के साथ अपने घर पर बनाते है और इस योजना का क्रियान्वयन किस तरह किया जाए उसका फैसला भी वे ही करते हैं। प्रदेश में सबसे अधिक विकास योजनाओं की घोषणा करके वाहवाही लूटने वाले गौर साहब की कई योजनाएं आज भी फाइलों में दम तोड़ रही हैं। सूत्र बताते हैं कि गौर साहब सबसे अधिक उन्हीं योजनाओं पर जोर देते हैं जिसमें अधिक कमाई की गुंजाईस रहती है। उनके विभाग के पूर्व प्रमुख सचिव राघव चंद्रा और उनकी ऐसी पटती थी कि अन्य मंत्री भी ऐसे ही अधिकारी की कामना करते थे। बाबूलाल गौर हमेशा अपने विभाग में अपने चहेते अधिकारियों को ही रखते हैं लेकिन इन दिनों उनकी हालत कुछ खराब है, क्योंकि मुख्यमंत्री सचिवालय से आए एसपीएस परिहार इन दिनों उनके विभाग के प्रमुख सचिव हैं। सूत्र बताते हैं कि परिहार ने आते ही कुछ योजनाओं पर उंगली उठानी शुरू की ही थी लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी बाबूलाल गौर ने उन्हें भी कुछ हद तक अपने सांचे में उतार ही लिया है। हालांकि गौर के व्यवहार में भी इन दिनों बदलाव देखा जा रहा है। अब तक मुख्यमंत्री से मिलने उनके कक्ष में जाने से बचने वाले गौर साहब अब आए दिन मंत्रालय की पांचवीं मंजिल पर स्थित मुख्यमंत्री के कक्ष में आते-जाते देखे जाते हैं। हालांकि दूसरे कैबिनेट मंत्रियों की तुलना में वे अभी भी बेहतर स्थिति में हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री ने अब तक उनके विभाग के कामकाज में सीधे हस्तक्षेप शुरू नहीं किया है।

सरकार के दूसरे सबसे वरिष्ठ नेता राघव जी के पास वित्त, योजना एवं आर्थिक सांख्यिकीय, बीस सूत्रीय क्रियान्वयन और वाणिज्य कर विभाग हैं। इस विभाग के प्रमुख सचिव जीपी सिंघल हैं जो मुख्यमंत्री के प्रिय अधिकारियों में से एक हैं और राघव जी भी इन्हें खूब पसंद करते हैं। मुख्यमंत्री के साथ इनकी पटरी इसलिए बैठी हुई है कि ये विभाग काफी बड़े होते हुए भी इनमें बहुत ज्यादा गुंजाइश नहीं है। वित्त विभाग साल भर बजट बनाने और बांटने में लगा रहता है। योजना एवं आर्थिक सांख्यिकीय तथा बीस सूत्रीय क्रियान्वयन बेदम विभाग है और वाणिज्यिक कर विभाग तय फारमेट में काम करता है। इसलिए मुख्यमंत्री और उनके सचिवालय ने इन विभागों को राघवजी के भरोसे ही छोड़ रखा है। वही इनकी कभी-कभार समीक्षा कर लेते हैं। हालांकि इन विभागों में से वित्त और वाणिज्यिक विभाग के अधिकारी सीधे मुख्यमंत्री और उनके सचिवालय के संपर्क में रहते हैं, इसलिए कई मामलों में इन्हें भी मंत्री जी की जरूरत नहीं होती।

इस सरकार के सबसे दबंग और तेजतर्रार मंत्री माने जाने वाले वाणिज्य, उद्योग एवं रोजगार, सूचना प्रौद्योगिकी, विज्ञान और टेक्नालॉजी, सार्वजनिक उपक्रम, उद्यानिकी एवं खाद्य प्रशंसकरण, ग्रामोद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय कभी शिवराज सिंह चौहान का दाहिना हाथ हुआ करते थे लेकिन मुख्यमंत्री को शिवराज भाई कहकर संबोधित करने वाले विजयवर्गीय अब पलट गए है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि प्रदेश में उनकी समानान्तर सरकार चल रही है। हिंदुत्व की लाठी के सहारे लोकप्रियता बटोरने वाले कैलाश भाई को संघ का भी वरदहस्त प्राप्त है। कैलाश विजयवर्गीय के सामने मुख्यमंत्री का कद भी छोटा दिखता है। ऐसे में अधिकारियों की क्या मजाल की वे कैलाश भाई के खिलाफ कदम उठा सकें। इसलिए मंत्री महोदय के विभागों के जितने प्रमुख सचिव हैं वे उनके इशारे पर ही काम करते हैं। हालांकि विजयवर्गीय के पास सभी मालदार विभाग है, लेकिन उद्योग विभाग उनके लिए दुधारू साबित हो रहा है। सरकार की फजीहत भी इसी विभाग ने सबसे अधिक कराई है। प्रदेश में उद्योगों की स्थापना के लिए विभागीय मंत्री और अपर मुख्य सचिव सत्यप्रकाश द्वारा बनाई गई योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए मुख्यमंत्री दलबल के साथ विदेशों का भ्रमण कर आए और प्रदेश में कई इन्वेटर्स मीट का आयोजन कर डाला लेकिन सरकार के हाथ में सिफर ही आया। इस विभाग की अनुशंसा पर ही प्रदेश भर में उद्योगपतियों को जमीनें आवंटित की जा रही हैं, लेकिन एक भी बड़ा उद्योग यहां स्थापित नहीं हो सका है। मंत्री और प्रमुख सचिव सरकार और आवाम को उद्योगों का दिवास्वप्न दिखा रहे हैं इसके लिए अरबों रुपए खर्च किए जा चुके हैं। प्रदेश में अगर सबसे अधिक किसी विभाग की बात लगी है तो वह है उद्योग विभाग। आलम यह है कि उद्योग के नाम पर उद्योगपति प्रदेश में केवल जमीनें लेने आते हैं।

पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव को मुख्यमंत्री का सबसे विश्वस्त माना जाता है। इसलिए उन्हें उनके विभाग में कामकाज के पूरी तरह से छूट मिली हुई है। इस विभाग में करीब आधा दर्जन आईएएस अधिकारियों की टीम है, लेकिन ये टीम अपने मंत्री को साइट लाइन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। मुख्यमंत्री आवास मिशन, रोजगार गारंटी योजना और मुख्यमंत्री ग्रामीण सड़क योजना जैसे प्रमुख योजनाओं का जिम्मा इसी विभाग पर है, लेकिन इसके बावजूद मुख्यमंत्री भार्गव के कामकाज में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करते। विभाग में योजनाओं के क्रियान्वयन की स्थिति क्या है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अकेले रीवा में रोजगार गारंटी योजना के तहत एक लाख लोगों को लाभान्वित करने का दावा किया जा रहा है ऐसे में अगर आंकड़ों की बाजीगरी की जाए तो सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि प्रदेश में कितने लोग लाभान्वित हुए होंगे। विभाग की समीक्षा बैठकें भी बिना मंत्री के नहीं होती। भार्गव ने मुख्यमंत्री को साध रखा है और वे उनकी गुड लिस्ट में हैं और इसका फायदा उठाकर मंत्री महादेय अपनी झोली भरने में लगे हुए हैं। प्रदेश में ग्रामीण सड़कों की क्या स्थिति है यह किसी से छिपी नहीं है। विभाग के प्रमुख सचिव आर परशुराम मंत्रीजी के कदमों का अनुसरण करते हैं। सूत्र बताते हैं कि भार्गव के रुतबे के आगे प्रमुख सचिव कुछ अधिक नहीं कर पाते हैं। अपने विभाग के संदर्भ मे श्री भार्गव कहते हैं कि यहां तो राम राज्य है मुझे कुछ ज्यादा नहीं करना पड़ता है। वे आगे कहते हैं कि भाई छह सात आईएएस अधिकारियों को झेल रहा हूं यह क्या कम है। इन अधिकारियों को एसी कमरे में रहने की आदत है उन्हें गांव देहात के बारे में क्या जानकारी। विभाग के बारे में जो भी निर्णय लेना होता है वह मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव बैठक कर ले लेते हैं।

मंत्री के रूप में विफल रहने के बाद जयंत मलैया के पास इन दिनों जल संसाधन और आवास एवं पर्यावरण विभाग है। मलैया को मुख्यमंत्री की तरफ से फ्री हैण्ड मिला हुआ है। मुख्यमंत्री इन पर बहुत विश्वास करते हैं लेकिन पिछले कुछ महीनों के अंदर इंदौर सहित प्रदेशभर में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जिससे मलैया की छवि दागदार हुई है। सैकड़ों इंजीनियरों वाले जल संसाधन विभाग में इंजीनियरों के ट्रांसफर-पोस्टिंग फिलहाल मंत्री जी के इशारों पर ही हो रहे हैं। आवास एवं पर्यावरण विभाग जैसे विभाग को भी मलैया ही पूरी तरह डील कर रहे हैं और इसमें उनको मुख्यमंत्री सचिवालय का पूरा सहयोग मिल रहा है। इस तरह की डील की कीमत क्या होती है यह हर कोई जानता है। हालांकि मंत्री महोदय को आवास एवं पर्यावरण विभाग के प्रमुख सचिव के रूप में आलोक श्रीवास्तव जैसा ईमानदार प्रमुख सचिव तो जल संसाधन विभाग में राधेश्याम जुलानिया जैसा अक्खड़ प्रमुख सचिव मिला है लेकिन अधिकारियों को साधने की कला में माहिर मंत्रीजी अपना उल्लू सीधा कर ही लेते हैं।

भाजपा के वरिष्ठ नेता और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे सरताज सिंह को भी मुख्यमंत्री ने सम्मान दे रखा है। वन विभाग की कमान उनके हाथ में है और ज्यादातर काम वे अपने हिसाब से करते हैं। मप्र के वनों में अवैध रूप से कटाई जोरों पर है जब कभी एक-दो मामले जब सामने आते हैं तो मंत्री जी इसे कोई बड़ी घटना नहीं मानते हैं। वन विभाग में दागदार अधिकारियों की भरमार है और श्री सिंह ने पदभार ग्रहण करने के साथ ही कहा था कि विभाग में ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी लेकिन आज तक जांच ही चल रही है।

कभी शिवराज सिंह चौहान को फूटी आंख नहीं सुहाने वाले संसदीय कार्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा को आवास विभाग का जिम्मा देकर मुख्यमंत्री ने उनकी उपयोगिता बढ़ा दी है। आज नरोत्तम मुख्यमंत्री के नाक-कान हो गए हैं। वैसे उनके दोनों विभागों में ज्यादा करने के लिए कुछ नहीं है, लेकिन नरोत्तम की वफादारी को देखते हुए सरकार में उन्हें तवज्जो मिल रही है। प्रवक्ता होने के नाते सभी विभागों को आदेश जारी कर कहा गया कि वे जो जानकारी मांगें उन्हें तुरंत उपलब्ध कराई जाए। इस सीमित भूमिका में भी वे खुद मुख्यमंत्री के सामने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाह रहे हैं, ताकि आगे चलकर उन्हें अच्छे विभाग के साथ फ्री हैण्ड भी मिल सके।

आदिम जाति कल्याण और अनुसूचित कल्याण मंत्री कुंवर विजयशाह शिवराज मंत्रीमंडल के सबसे बदनाम मंत्रियों में गिने जाते हैं। वैसे तो यह विभाग प्रदेश सरकार में हाशिये पर हैं, लेकिन केंद्र से मिलने वाला करोड़ों का बजट और राज्य का बजट मिलाकर यह विभाग मलाईदार हो गया है। जिससे यह विभाग भ्रष्टाचार की खान बनकर रह गया है। जैसे को तैसे की तर्ज पर इस विभाग और मंत्री महोदय को देवराज बिरदी जैसा प्रमुख सचिव भी मिल गया है। आदिवासियों और दलितों को मिलने वाले पैसे को किस तरह हजम किया जाए बस यही काम इस विभाग के पास है।

सरकार में मुख्यमंत्री के बाद गृह मंत्री को दूसरा सबसे ताकतवर माना जाता है, लेकिन गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता इस सरकार में बहुत कुछ होते हुए कुछ भी नहीं हैं। वे अपने विभाग में सिर्फ नाम के मंत्री हैं। गृह विभाग में उनके कहने और चाहने पर कुछ भी नहीं होता। इस विभाग को पूरी तरह से मुख्यमंत्री और उनके अधिकारियों ने अपने नियंत्रण में ले रखा है। आईपीएस अधिकारियों के तबादलों और प्रमोशन में मंत्री की रत्ती भर भी नहीं चलती। इस विभाग में मंत्री के साथ ही प्रमुख सचिव भी सिर्फ नाम के हैं। हाल ही में विभाग के प्रमुख सचिव राजन एस. कटोच इन्हीं सब परिस्थितियों के चलते केंद्र में जा चुके हैं। उनकी जगह खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग के प्रमुख सचिव अशोक दास को प्रमुख सचिव बनाकर सरकार ने सबको चौंका दिया है। दास को शांत और सौम्य व्यवहार का अफसर माना जाता है, जबकि गृह विभाग ऐसे अफसरों के बस की बात नहीं है। सूत्र बताते हैं कि मंत्री महोदय को खुश करने के लिए कुछ छोटे-मोटे तबादले उनके हिस्से में दे दिया जाता है।

प्रदेश सरकार के मालदार विभागों में से एक लोक निर्माण विभाग नागौद के राजपरिवार से आने वाले नागेंद्र सिंह के पास है। शिवराज सरकार की दुर्दशा कराने में इस विभाग का सबसे बड़ा हाथ है। जिस सड़क के मुद्दे पर 2003 भाजपा सरकार सत्ता में आई थी आज वह सड़कों की दशा सुधारने में पूरी तरह असफल रही है। सड़कों के निर्माण का ऐतिहासिक रिकार्ड परोसने वाले इस विभाग की स्थिति का आंकलन इससे ही किया जा सकता है कि यहां उद्योग स्थापित करने की इच्छा लेकर आने वाले उद्योगपति यह कहते सुने गए हैं कि जब तक प्रदेश की सड़कें ठीक नहीं होंगी यहां कोई उद्योग स्थापित करना संभव नहीं है। विभाग के तात्कालीन सचिव मो. सुलेमान ने सड़कों के मामले में इस विभाग को कहीं का नहीं छोड़ा और अब वो प्रदेश के ऊर्जावान अधिकारियों में गिने जाते हैं और वर्तमान में वह ऊर्जा का ही प्रभार देख रहे हैं। नागेंद्र सिंह पढ़े-लिखे और तेजतर्रार मंत्री हैं और उन्हें केके सिंह जैसा प्रमुख सचिव भी मिल गया है। दोनों की जोड़ी राम मिलाई जोड़ी है, परंतु विभाग तो भ्रष्टाचार की आकंठ में पूरी तरह डूबा हुआ है। ऐसे में भला मंत्री और प्रमुख सचिव अपने इंजीनियरों के सामने बौने साबित हो रहे हैं और पैसा पानी की तरह बर्बाद हो रहा है। अभी हाल ही में कुछ अधिकारियों के घर आयकर एवं लोकायुक्त के छापे पड़े हैं और कईयों के मामले जांच में लंबित है।

हाउंसिंग सोसायटियों के घपले में सरकार की किरकिरी कराने वाले सहकारिता एवं लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के मंत्री गौरीशंकर बिसेन अपने विभागों में अपने हिसाब से काम कर रहे हैं। उन्हें इस सरकार का खुशकिस्मत मंत्री कहा जा सकता है, जिनके मामले में न तो मुख्यमंत्री और न ही उनके अधिकारी ज्यादा दखल देते हैं। हाउंसिंग सोसायटी के घपलों के मामलों में जरूर मुख्यमंत्री ने सहकारिता विभाग के अफसरों को तलब किया, लेकिन इसमें भी मंत्री को पूरी तवज्जो दी गई। इस विभाग के दम पर ही मुख्यमंत्री ने किसानों को 3 प्रतिशत ब्याज पर लोन देने की घोषणा की थी लेकिन साल बीत जाने के बाद भी यह योजना परवान नहीं चढ़ी। मंत्री जी के कार्यकाल में दो मामले ऐसे सामने आए जिसने सरकार को दागदार बना दिया। पहला मामला था अपेक्स बैंक द्वारा एक्सिस बैंक में एफडी का और दूसरा मामला था किसानों की जमीन विदेश में गिरवी रखने का। मंत्री महोदय की सबसे बड़ी खुशफहमी यह है कि उन्हें एमएम उपाध्याय जैसा कमाऊ प्रमुख सचिव (सहकारिता) मिला है। जिनके बारे में कहा जाता है कि वे जिस विभाग में रहे हैं उस विभाग के मंत्री को अपने सांचे में ढाल लेते हैं। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग में आलम यह है कई पेयजल की परियोजनाएं अधर में लटकी हुई हैं। मुख्यमंत्री ने इस विभाग की दो बार समीक्षा की है लेकिन योजनाओं के क्रियान्वयन ने गति नहीं पकड़ी है। मुख्यमंत्री पेयजल कर स्थिति बद से बदत्तर है। भोपाल में नर्मदा जल लाने की योजना में बाधाएं बढ़ती ही जा रही हैं जबकि मंत्री जी कहते हैं कि इस विभाग के कुल बजट का 82 फीसदी तीन क्वाटर में खर्च कर दिया गया है।

प्रदेश के कृषि मंत्री डॉ. रामकृष्ण कुसमरिया ने जैविक खेती को बढ़ावा देने का अभियान चलाकर जहां एक तरफ वाह वाही लूटी वहीं किसानों की आत्महत्या के मामने लगातार सामने आने से उनकी तथा सरकार की जमकर किरकिरी हो रही है। ऐसे मामलों के बीच डॉ. कुसमरिया ने यह कह कर सनसनी फैला दी है कि किसान अपना पाप ढो रहे हैं। उन्होंने जिस तरह जमीन में केमिकलयुक्त दवाओं का उपयोग किया है, उससे जमीन तो खराब हुई ही है फसलों को भी नुकसान हो रहा है इसलिए ये घटनाएं हो रहीं हैं। प्रदेश में एक माह में अब तक सात किसान अपनी जीवनलीला समाप्त कर चुके हैं, वहीं प्रदेश के नेता इनकी तकलीफें दूर करने की बजाए एक दूसरे पर दोष मढऩे पर आमादा है।

महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार रंजना बघेल कहने को तो पूरी तरह से मुख्यमंत्री के रहमो करम हैं लेकिन इस विभाग का जितना दोहन इन्होंने किया है शायद ही किसी और मंत्री ने किया हो। विभाग की पूर्व प्रमुख सचिव टीनू जोशी और इनकी जुगलबंदी ऐसी थी की प्रदेश में एक तरफ कुपोषण से बच्चों की मौत हो रही थी और दूसरी तरफ ये लोग कागजी योजनाएं बनाकर पैसा खर्च करने में लगे हुए थे। सीएजी ने मप्र सरकार की सबसे पॉपुलर लाड़ली लक्ष्मी योजना के नाम पर मची लूट को भी रेखांकित किया था। सीएजी अपनी रिपोर्ट में योजना में गंभीर वित्तीय अनियमितताओं सहित अपात्र हितग्राहियों को मदद पहुंचाने का खुलासा कर चुका है। रिपोर्ट के अनुसार बच्ची की जन्मतिथि में हेराफेरी सहित परिवार नियोजन सुनिश्चित किए बगैर करीब एक करोड़ आठ लाख रुपए का भुगतान कर दिया गया। बात निकलकर दूर तक गई तो आयकर विभाग ने टीनू जोशी के घर छापा डाल हकीकत सबके सामने ला दिया। टीनू जोशी के निलंबन के बाद लवलीन कक्कड़ प्रमुख सचिव बनी लेकिन मंत्री महोदया के सांचे में नहीं ढल पाने के कारण उन्हें विभाग छोडऩा पड़ा। अब इस कमाऊ विभाग के प्रमुख सचिव की कुर्सी पर बीआर नायडू विराजमान हैं

खनिज एवं ऊर्जा राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) राजेंद्र शुक्ला के पास कहने को तो खनिज और ऊर्जा जैसे अहम विभाग हैं, लेकिन भाई साहब केवल खनिज में ही उलझ कर रह गए हैं। जबकि ऊर्जा विभाग सचिव मो. सुलेमान के हवाले कर दिया है। सूत्र बताते हैं कि मंत्री महोदय वे ऊर्जा जैसे विभाग के मंत्री भी हैं। प्रदेश में बिजली कटौती को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। बिजली की कटौती से परेशान किसान राजधानी की सांसे रोक कर कोहराम मचा देते हैं लेकिन मंत्री पूरे परिदृश्य में कहीं नजर नहीं आते हैं।

प्रदेश के सबसे दागदार विभाग के मुखिया रहे अजय विश्रोई इस समय पशुपालन, मछली पालन, पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक कल्याण और अपरम्परागत उर्जा विभाग की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। परंतु यहां पर उनकी अधिकारियों से नहीं पट रही है। कारण मंत्रीजी अपने विभाग को बहुत तेजी से चलाना जानते हैं और उनकी चाल से शायद ही कोई मंत्रालय का सचिव या प्रमुख सचिव चल पाए। मालदार विभाग में रहने के कारण पैसा कमाने के आदि मंत्री जी यहां भी इसी में लगे रहते हैं। इनको मंत्रीमंडल से बर्खास्त करने के बाद अरुण जेटली की अनुशंसा पर पुन: मंत्री बनाया है।

स्कूल शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनीस विभाग में अपने अंदाज में काम करती हैं, लेकिन सर्वशिक्षा अभियान और माध्यमिक शिक्षा अभियान जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के कारण मुख्यमंत्री विभाग की समीक्षा कभी-कभी खुद भी कर लेते हैं। शिक्षकों और अध्यापकों की लंबी फौज वाले इस विभाग में वैसे मंत्री को फ्री हैण्ड है, लेकिन इसके लिए उन्हें भी मुख्यमंत्री को विश्वास में लेना पड़ा। प्रदेश में शिक्षा का स्तर सुधारने के बड़े- बड़े दावे करने वाली खुद अध्यापक रही मंत्री महोदया अधिकतर समय इंदौर और खंडवा में ही गुजारती हैं ऐसे मे विभाग की स्थिति सुधर सकती है उसका अनुमान लगाना भी बेमानी साबित होगा।प्रदेश के राजस्व एवं पुनर्वास मंत्री करण सिंह वर्मा अपने बड़बोलेपन के कारण अधिक जाने जाते हैं। वे जहां भी जाते हैं कुछ न कुछ ऐसा बयान दे आते हैं कि उससे सरकार की किरकिरी होती है। वैसे तो ईमानदारी का पाठ पढ़ाने वाले मंत्री महोदय अपने प्रमुख सचिव से बहुत परेशान है उसका कारण है प्रमुख सचिव कोई निर्णय नहीं लेते हैं।

जेल एवं परिवहन मंत्री, जगदीश देवड़ा, श्रम मंत्री जगन्नाथ सिंह और खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार पारस चंद्र जैन सिर्फ नाम के मंत्री हैं। देवड़ा का परिवहन विभाग सीधे भाजपा संगठन और मुख्यमंत्री संभालते हैं और जेल की तरफ कोई देखना नहीं चाहता। यही हाल श्रम विभाग का है, इसलिए मंत्री लालबत्ती में बैठकर खुश हो लेते हैं। नागरिक आपूर्ति विभाग पर मुख्यमंत्री सचिवालय का सीधा नियंत्रण है, पारस चंद्र जैन भी राजधानी में कम ही दिखाई देते हैं। सरकार के 9 राज्यमंत्रियों में लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री महेंद्र हार्डिया की लॉटरी लगी हुई है। वे एकमात्र ऐसे राज्यमंत्री हैं, जिनके पास करने के लिए कुछ काम है। अनूप मिश्रा के इस्तीफे के बाद मुख्यमंत्री ने इस विभाग में किसी कैबिनेट मंत्री की नियुक्ति करने की बजाए इसे अपने पास रखा। हार्डिया राज्यमंत्री होने के नाते फिलहाल अधिकांश काम संभाल रहे हैं।

ऐसे में जन विश्वास की कसौटी पर खरे उतरने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को कुछ ज्यादा ही सचेत होना पड़ेगा। सत्ता के चाल, चरित्र और चेहरे को और साफ सुथरी छवि प्रदान करने के लिए शिवराज को सबसे पहले अपने मंत्रियों की एक विश्वसनीय टीम बनानी होगी। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि मुख्यमंत्री की ईमानदार छवि के कारण ही भाजपा राज्य में दुबारा सत्ता में लौटी है और इसी विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए उनमें जनहित की नीतियों एवं कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाने के लिए समुचित बदलाव लाने का संकल्प साफ झलकता है। उक्त मुहिम इसी की परिचायक है लेकिन सवाल यही है कि क्या उनके पास ऐसे मंत्रियों एवं अफसरों की टीम मौजूद है जिनमें भी ऐसी ही ईमानदारी और संकल्पबद्धता हो। फिलहाल तो नौकरशाही की जो तस्वीर नजर आती है, वह प्रशासनिक दृष्टिï से ज्यादा उत्साहजनक नहीं है। अफसरों एवं प्रशासनिक अमले में फैला भ्रष्टाचार ऐसा रोग है जो राज्य को सेहत को बेहतर बनाने तथा इसे खुशहाली का टानिक देने की सरकार की तमाम कोशिशों को निगल रहा है और इसके बावजूद सरकारी आंकड़ेबाजी से सरकार को भ्रमित किया जा रहा है। समीक्षा बैठक भर से काम चलने वाला नहीं है बल्कि जब तक ईमानदार अफसरों को पुरस्कृत करने तथा बेईमान अफसरों को दंडित करने का अभियान नहीं चलेगा तब तक राज्य की प्रगति में बेईमान अफसरशाही रोड़ा बनी रहेगी। प्रशासन से सरकार के कार्यक्रमों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित कराने के लिए मंत्रियों में प्रशासनिक क्षमता तथा ईमानदारी का होना पहली शर्त है। यदि मंत्रालय में मंत्रियों की उपस्थिति पर नजर डाली जाए तो यह बात साफ हो जाती है कि अधिकांश मंत्री तो इस प्रशासनिक मुख्यालय में तभी आते हैं जब उनके किसी परिचित, रिश्तेदार या राजनीतिक साथी, सहयोगी की फाइलें निपटानी होती हैं। फिर वे आला अफसरों पर नियंत्रण कैसे करेंगे। इतना ही नहीं, कई बार तो मंत्रियों एवं आला अफसरों में भ्रष्टाचार के मामले में मिलीभगत होती है। कौन नहीं जानता कि कई मंत्रियों पर पिछले वर्षों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग चुके हैं और उनमें से अधिकांश आज मंत्रिमंडल में हैं। क्या सरकार एवं सत्तारूढ़ पार्टी ऐसे मंत्रियों पर नकेल कसने के लिए तैयार है ताकि जनता के प्रति जवाबदेह ईमानदार शासन -प्रशासन का मार्ग प्रशस्त हो सके।

जीती रहे ‘विकीलीक्स’

पंकज कुमार साव

खोजी पत्रकारिता के लिए आदर्श बन चुके अमेरिकी वेबसाइट ‘विकीलीक्स’ के खुलासों से जब अमेरिकी प्रशासन के माथे पर बल पड़ने शुरू हुए थे, तभी से यह लगने लगा था कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के भ्रष्टाचार भी अब सार्वजनिक हो पाएंगे, जो किसी न किसी दबाव में सामने नहीं आ पा रहे थे। यह उन लोगों के लिए आशा की किरण की तरह है जो सत्य के लिए जीते हैं और कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। यह खोजी वेबसाइट जो अगला धमाका करने वाली है, वह है स्विस बैंकों में दुनियाभर के पूँजीपतियों और राजनीतिज्ञों के अकूत धन वाले गोपनीय खातों का भंडाफोड़। खबर है कि इन खातों की दो सीडी विकीलीक्स को मिल गई हैं। ये सीडी स्विस बैंकों में काम कर चुके पूर्व अधिकारी रूडोल्फ एल्मर ने विकीलीक्स को दी है।

एल्मर की मानें तो दोनों सीडी में दो हजार लोगों के नाम हैं। जाहिर है, इसमें भारत के भी कई राजनेताओं व पूँजीपतियों के नाम होंगे जिनका खुलासा होने पर कई ऐसे चेहरे भी बेनकाब होंगे जो अब तक अपने देश के लोगों की पसीने की कमाई को काला धन के रूप में स्विस बैंक में जमा कर आश्वश्त थे। स्विस बैंकों द्वारा दशकों से कायम गोपनीयता की यह परिपाटी के ध्वस्त होने की संभावनाओं से इन राजनेताओं के दिल की धड़कनें बढ़ गई हैं। इधर सर्वोच्च न्यायालय के तेवर भी काले धन के मामले में सख्त हो गए हैं। इस पूरे मामले में काँग्रेस का रवैया कुछ ज्यादा ही संदिग्ध है। न्यायालय ने इसे राष्ट्रीय संपत्ति का चोरी का मामला करार देते हुए चकरा देने वाली करतूत करार दिया है जिसपर केंद्र सरकार में खलबली मचना स्वाभाविक ही है। ऐसा लगता है कि विदेशी बैंकों में काला धन जमाकर रखने वालों में सबसे ज्यादा कांग्रेसी नेता ही हैं वरना नाम सार्वजनिक करने से इतना गुरेज क्यों है। सुप्रीम कोर्ट ने यह आशंका भी जताई है कि काले धन का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों में हो सकता है।

दूसरी तरफ प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की इस मामले में जो भी प्रतिक्रिया आ रही है, वह अप्रत्याशित नहीं है। हाल के आम चुनावों में पार्टी ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया था। ये अलग बात है कि चुनावों के बाद इस मुद्दे पर विशेष बहस नहीं हो सकी। फिर भी, देश के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक दल का इस मामले में आत्मविश्वास वाकई काबिले तारीफ है वरना कौन जानता है कि नाम सार्वजनिक होने पर इस खेमें के भी कोई नेता बेनकाब हो जाएँ। राजनीतिक बयानबाजियों को नजरअंदाज भी करें तो जनता को इस बात के लिए खुश होना चाहिए कि जिस धन को लेकर लंबे समय से बहस चल रही थी और निराशा का अंत दिखाई नहीं दे रहा था, अब विकीलीक्स के बहाने ही सही फिर से आस जग गई है। अपने लोगों ने न सही, अगर इस विदेशी वेबसाइट ने ही नामों का खुलासा कर दिया तो अपना भी भला होने वाला है। वैसे इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इससे भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार की पोल दुनिया के सामने खुल जाएगी। इस बेइज्जती के लिए भी वो हमारे कर्णधार ही जिम्मेदार होंगे। जो भी हो, जूलियन असांजे और विकीलीक्स के लिए दुआ करना ही दीर्घकाल में सबके हित में है।

प्रणाली नहीं बदली तो खंडित होगा देश

सूर्यकांत बाली

आज जो खंडित जनादेश आ रहे हैं, उसका कारण स्पष्ट है। आज हमारा समाज इतना अधिक खंडित हो चुका है कि वह एक देश और एक समाज के रूप में सोच नहीं पाता। समाज का हर छोटा खंड अपने स्वार्थ में इतना अधिक तल्लीन रहता है कि वह अपने लिए वोट देता है, देश् के लिए नहीं।

एक राज्य अपने पूरे राज्य के लिए वोट नहीं देता। जाति, संप्रदाय आदि वर्ग अपने लिए वोट देते हैं, इसलिए ये खंडित जनादेश आ रहे हैं।

जनादेश खंडित न हो और स्पष्ट जनादेश आए, इसके लिए राजनीतिक दल भी कुछ प्रयास नहीं कर रहे। बल्कि उनकी कोशिश समाज के इस विखंडन को और बढ़ावा देने की ही है। इसलिए इस खंडित जनादेश् का कोई समाधान तुरंत निकलेगा, ऐसा मुझे नहीं लगता। ऐसी स्थिति में संवैधानिक उपाय अपनाए जाने जरूरी हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि समाज अपने आप आदर्श को अपना ले।

जब समाज अपनी दिशा खुद तय न कर सके और राजनीति दिशाविहिन हो जाए तो समाज के प्रबुध्द वर्ग जो राजनीति में, अर्थ जगत में, समाज में, अध्यात्म में प्रबुध्द लोग हैं, उनको आगे आना चाहिए और संवैधानिक उपायों के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इसका कोई उदाहरण नहीं है। हमारे पास उदाहरण भी हैं।

भारत ही भांति अमरीका भी कई राज्यों के एक संघ जैसा ही है। परंतु अमरीका में वे समस्याएं कभी नहीं आतीं जो हमारे यहां आती हैं। हमने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली अपनाया। परंतु ब्रिटेन में यह प्रणाली इसलिए सफल थी क्योंकि ब्रिटेन काफी छोटा देश् है। भारत जैसे बड़े देश में ब्रिटेन जैसे छोटे देश की प्रणाली चलनी मुश्किल थी, परंतु नेहरू आदि तत्कालीन भारतीय नेतागण ब्रिटेन को दुनिया का सबसे महान देश मानते थे। इसीलिए उन्होंने वहां की प्रणाली अपना ली।

हमारे लिए यह प्रणाली ठीक नहीं है। इस प्रणाली को अपने अनुकूल बनाने के लिए इसमें गुणात्मक परिवर्तन करना ही होगा। चाहे इसके लिए देश के संविधान में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़े परंतु हमें यह सुनिश्चित करना ही होगा कि देश के एक सर्वोच्च पद, उसे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति कुछ भी कहें, उसे पूरे देश का जनादेश मिलना ही चाहिए। वह सांसदों के भरोसे काम करे और राज्य का मुख्यमंत्री विधायकों के भरोसे चलता रहे तो सांसदों और विधायकों के क्षुद्र स्वार्थों के कारण वे ठीक से काम नहीं कर पाएंगें और इस खंडित जनादेश के दुष्परिणाम और भी बढ़ते चले जाएंगे।

इसलिए एक आमूलचूल परिवर्तन करके इस संसदीय प्रजातंत्र की प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रपति प्रणाली लानी ही होगी, अन्यथा यह देश खंडित हो जाएगा। देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री पूरे देश का जनादेश लेकर आए और एक बार चुने जाने पर निश्चित अवधि तक काम करे, परिणाम दे और परिणाम के आधार पर पुन: चुना जाए या जनता द्वारा पदच्युत कर दिया जाए।

यही प्रणाली राज्यों में भी होनी चाहिए। सांसदों और विधायकों की भूमिका को नए रूप में परिभाषित किया जा सकता है परंतु उनके हाथ में सरकार के अधिकार देना खतरनाक हो सकता है। और राज्यपाल की अलग समस्या है। बार-बार एक बात उठती है कि राज्यपाल को गैर राजनीतिक होना चाहिए, एक मिथ्यालाप है। राज्यपाल यदि राजनीतिक व्यक्ति नहीं होगा तो क्या आध्यात्मिक व्यक्ति होगा। यह पद ही राजनीतिक है तो इस पर नियुक्त होने वाला व्यक्ति राजनीतिक न भी हो तो नियुक्त होने के बाद बन जाएगा।

इस प्रकार यह निश्चित हो चुका है कि भारत जैसे विशाल देश में ब्रिटेन जैसे छोटे देश का तंत्र असफल रहा है परंतु क्षुद्र स्वार्थों में लिप्त हमारे नेता इस पर सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। यदि हमें एक ठीक राजनीतिक तंत्र चाहिए जो देश के विकास के लिए जरूरी है, तो संविधान में आमूलचूल परिवर्तन करके ब्रिटिश संसदीय प्रणाली से अपना मोह तोड़ना होगा। ब्रिटेन हमारा आदर्श नहीं हो सकता।

हमार आदर्श अमरीका भी नहीं हो सकता। परंतु इन दोनों में हमारे नजदीकी आदर्श व्यवस्था कोई है तो वह अमरीका का है। अपने देश की जरूरतों और परिस्थितियों के अनुसार इसको एक भारतीय स्वरूप प्रदान करके, हमें इसे स्वीकारने की दिशा में सोचना चाहिए। इसके सिवा और कोई विकल्प नहीं है। अक्सर ऐसा होता है कि जब संसद में ऐसी कोई समस्या आती है तो हम इस पर विचार करना शुरू करते हैं परंतु समस्या हल हो जाने के बाद इस पर विचार करना बंद कर देते हैं।

यह देश का दुर्भाग्य है कि देश के राजनीतिक चिंतक और कार्यकर्ता तात्कालिक सोच रखते हैं, उनमें दूरगामी सोच नहीं रखते। देश के दूरगामी विकास राजनीति की सुस्थिरता और देश के सशक्तिकरण् के लिए हमें एक नए तंत्र पर विचार करना होगा जिसमें एक बार चुनाव होने के बाद पांच वर्ष या निश्चित अवधि के लिए सरकार काम करे, परिणाम दे। इसमें जनता की कोई सीधी भूमिका नहीं है।

वास्तव में जनता कुछ संगठनों के माध्यम से कार्य करती है। आज भी देश में देश के बारे में ईमानदारी और निष्ठा से सोचने वाले संगठन हैं। वे भले ही चुनावी राजनीति में सीधे भाग न लेते हों परंतु उनका कर्तव्य है कि देश को दिशा देने के लिए एक सोच के साथ सामने आएं।

चुनाव के समय वे राजनीतिक दलों पर दबाव बनाएं कि वे संविधान और तंत्र को ठीक करने के लिए प्रतिबध्द बनें। ऐसे सामाजिक संगठनों की राजनीतिक शक्ति विकसित होनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो लोगों का उन पर विश्वास भी बनेगा और इससे समाधान भी निकलेगा। लालू यादव सरीखे नेता कभी भी एक जाति विशेष की राजनीति से बारह नहीं निकलना चाहेंगे।

इसलिए देश के बारे में समग्रता से विचार करने वालों को ऐसे नेताओं पर दबाव बनाना होगा कि वे भी समग्रता से विचार करे। राजनीतिक स्थिरता और अनुकूल प्रणाली लाने के लिए देश में आवश्यक वातावरण बने, इसके लिए आज एक जनआंदोलन की आवश्यकता है।

(भारतीय पक्ष द्वारा आयोजित परिचर्चा -क्या भारत में संसदीय लोकतंत्र असफल सिद्ध हो रहा है- के संदर्भ में)

किसान आत्महत्या: त्रासदी कहीं नियति न बन जाए

के. एन. गोविन्दाचार्य

दिनांक 14 अक्टूबर, 2006 की दोपहर मैं ‘विदर्भ’ में कारेजा के निकट मनोरा तहसील के ‘इंजोरी’ गांव में गया। इस गांव के एक किसान ने आत्महत्या की थी। उसके परिवार से मिलना, सांत्वना देना मेरा मकसद था।

शिवसेना के नेता श्री दिवाकर मेरे साथ थे। संत गजानन भी हमारे साथ चल रहे थे। हम गांव पहुंचकर आत्महत्या कर चुके किसान की पत्नी, उसकी तीन बच्चियों और उसके बूढ़े पिता से मिले। तीस हजार रू. का चैक मुआवजे के रूप में इस परिवार को मिला था। डेढ़ एकड़ जमीन के मालिकाना हक वाले इस परिवार में कमाने वाला अब कोई नहीं बचा था। 6600 रू. बैंक का कर्ज था। साहूकारों के कर्ज का हिसाब किसी को मालूम नहीं। जिंदगी चलाने का कोई जरिया जब किसान के पास नहीं बचा तो उसे अपनी जीवनलीला समाप्त करना ही सबसे आसान लगा।

किसान आत्महत्या करेगा, एक दिन पहले तक इसका भान न परिवार को था, न दोस्तों को, न गांव के किसी अन्य व्यक्ति को था। सभी अवाक थे। वह किसान जिस जाति का था, उसमें पुनर्विवाह स्वीकार्य नहीं है। उसकी जवान पत्नी का क्या होगा? उस किसान के बूढ़े बाप की जगह अपने को रखकर जब मैंने देखा तो मेरी आत्मा कांप गई। बूढ़े बाप की दीनता मेरे लिए असह्य हो रही थी। 200 घरों वाले उस गांव में हर कोई अकेला है। जिन्दगी से जूझ रहा है। पूरा गांव अगली आत्महत्या की प्रतीक्षा में था।

यह कहानी एक गांव की नहीं थी। यवत्माल जिले में श्री किशोर तिवारी के साथ मंगी कोलामपुर, हिवरा बारसा, मुडगवान और दुभाटी आदि कई अन्य गांवों में भी मैं गया। यहां एक और बात देखने में आई। 20 एकड़ जमीन के मालिक किसानों को बीज के लिए बैंक कर्ज देने के लिए तैयार नहीं क्योंकि, कानून के तहत उस जमीन को बेचा नहीं जा सकता है। लेकिन, वही बैंक उसी गांव में मोटरसाइकिल खरीदने के लिए धड़ल्ले से कर्ज बांटते दिखे । खेती पर कर्ज देकर बैंक जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं। बैंको से निराश किसानों को मजबूरन जुताई-बुवाई के लिए सूदखोर साहूकारों की शरण में जाना पड़ा जो प्रतिमास 20 प्रतिशत ब्याज की दर से पैसा दे रहे थे।

बेहिसाब कर्ज चढ़ने और आपसदारी न रहने से हर किसान अकेले ही जिन्दगी से जूझता दिखा। विदर्भ के किसानों में परिवार से, गांव से बाहर जाकर काम करने की आदत नहीं है। कृषि और वह भी नकदी फसलों की खेती पर पूर्णतया आश्रित वहां के किसानों के पास पूरक आमदनी का कोई जरिया नहीं है। पशुपालन, बागवानी एवं विभिन्न प्रकार के पारंपरिक ग्रामीण काम-धंधों से वह लगभग कट चुका है। पशुपालन की यहां क्या स्थिति है, इसका अनुमान मनुष्य-मवेशी अनुपात के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। दो सौ वर्ष पहले यहां एक मनुष्य के पीछे दो मवेशी होते थे, सौ वर्ष पहले यह घटकर एक मनुष्य पर एक मवेशी हो गया, जबकि वर्ष 2000 के आंकड़े बताते हैं कि इस क्षेत्र में चार मनुष्यों पर एक ही मवेशी रह गया था।

पिछले कई वर्षों से किसानों को हरित क्रांति के नाम पर जिस रास्ते पर धकेला गया, उसके परिणाम अब दिख रहे हैं। किसान कर्ज रूपी ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया है जहां से बाहर जाने का उसे एक ही मार्ग दिखता है, वह है आत्महत्या। किसान करे भी तो क्या करे! फसल खराब होने की बात तो छोड़िए,फसल अच्छी होने पर भी उसकी समस्याएं खत्म नहीं होतीं। घर के खर्चे और साहूकारों के कर्ज उसे अपनी फसल को औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर कर देते हैं। जिस कपास की वहां किसान प्रमुख रूप से खेती करता हैं, उसे बिचौलिए 2100 रू. क्विंटल के भाव से बेचते हैं। किंतु, किसानों को वे 1400 रुपए क्विंटल में ही अपनी कपास बेचने के लिए मजबूर कर देते हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री द्वारा कपास के लिए 2700 रू. क्विंटल की कीमत देने का वायदा किसानों के साथ एक छलावा ही साबित हुआ है। हद तो तब हो गई जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने किसानों की कोई मदद करने की बजाय उन्हें अपनी समस्याओं से निपटने के लिए योग करने की सलाह दे डाली।

सरकारों ने शराब से अपनी आमदनी बढ़ाने के चक्कर में गांवों में भी शराब की ढेर सारी दुकानें खोल दीं। समाज के प्रति उसकी क्या जिम्मेदारी है, इसकी उसे कोई परवाह नहीं है। अब यही सरकार किसानों की आत्महत्या के लिए शराबखोरी को जिम्मेदार ठहरती है।

विदर्भ के जिस भी गांव में मैं गया, सभी जगह मुर्दनी छाई हुई थी। लगा जैसे- गांव के गांव मौत की प्रतीक्षा में हैं। ऐसी लाचारी, ऐसी बेबसी मैंने कभी नहीं देखी थी। इतनी निराशा का अनुभव मुझे कभी नहीं हुआ था। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये गांव उसी देश में हैं जिसमें दिल्ली और मुम्बई जैसे शहर हैं। पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल जैसी सुविधाओं से कोसों दूर जीवन जीने के लिए संघर्ष कर रहे विदर्भ के किसानों को देखकर यह कोई भी आसानी से महसूस कर सकता है कि आजाद भारत के नागरिकों के बीच की खाईं कितनी चौड़ी हो चुकी है।

ऐसा नहीं है कि किसानों की स्थिति केवल विदर्भ में ही खराब है। हरित क्रांति के झंडाबरदार राज्य हरियाणा और पंजाब के किसान भी हताश हैं। आंध्रप्रदेश में किसानों की दयनीय स्थिति किसी से छिपी नहीं है। आत्महत्या की काली साया बांदा, हमीरपुर तक पहुंच गई है। उत्तरप्रदेश, बिहार के किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति इसलिए जोर नहीं पकड़ रही है क्योंकि, वहां के छोटे-बड़े सभी किसानों ने शहरों में जाकर वैकल्पिक आय के साधन ढूंढ लिए हैं। लेकिन जहां भी वैकल्पिक आय नहीं है, वहां किसान आत्महत्या के कगार पर हैं।

किसान पूरे देश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि, केन्द्रीय कृषि मंत्री इसे कोई बड़ी समस्या ही नहीं मानते। उनका मानना है कि इतने बड़े देश में कुछ किसानों की आत्महत्या से घबराने की जरूरत नहीं है। सरकार की उपेक्षा तो किसान सह सकते हैं लेकिन, सरकार की उन नीतियों से लड़ने में वे स्वयं को अक्षम पा रहे हैं, जो उन्हें आत्महत्या करने को मजबूर कर रही हैं। सरकारी नीतियों का ही परिणाम है कि आज जमीन बीमार हो चुकी है। जलस्तर नीचे भाग रहा है। फसलें जहरीली हो चुकी हैं और पशुधन नाममात्र को बचा है।

विगत दस वर्षों से कृषि उपज लगभग स्थिर बने हुए हैं। 65 प्रतिशत किसानों का सकल घरेलू उत्पाद में केवल 24 प्रतिशत हिस्सा रह गया है। उद्योग क्षेत्र में तो कर्जमाफी के नए-नए उपचार हुए पर कृषि के बारे में बहाने बनाए गए। कोढ़ में खाज की स्थिति तब हो गई जब विश्व व्यापार संगठन की शह पर सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया। आज विदेशी शोषकों की एक नई फौज खड़ी हो गई है। गावों का खेती-किसानी से नाता टूट रहा है। जमीन, जल, जंगल, जगत, जानवर बेजान होते जा रहे हैं। रक्षक ही भक्षक है तो किससे फरियाद करें! इसी उलझन में किसान आज स्वयं को पा रहा है।

ऐसा हुआ क्यों! कबसे ऐसी स्थितियां बननें लगीं? क्या कारण थे? इन सब पहलुओं पर विचार जरूरी है। जब हमें सही कारण मालूम होंगे तो हम सही समाधान भी ढूंढ सकेंगे।

क्यों हुआ, कैसे हुआ?

कभी सोने की चिड़िया कही जाने वाली भारत की सामर्थ्य और समृद्धि का आधार स्तम्भ यहां की कृषि व्यवस्था थी। कृषि, गौपालन और वाणिज्य के त्रिकोण के कारण भारत में कभी दूध-दही की नदियां बहा करती थीं।

विशेष भौगोलिक स्थिति और अपार जैव विविधता वाले इस देश में सही वितरण और संयमित उपभोग, विकास का अभौतिक आयाम और मूल्यबोध, सत्ता और संस्कार का उचित समन्वय, समृद्धि और संस्कृति का मेल एवम् ममता और मुदिता की दृष्टि हुआ करती थी। इसी सबसे भारत की चमक पूरे विश्व में फैलती थी। यहां जल, जंगल, जमीन और जानवर का मेल अन्योन्याश्रित था। और इसी मेल के आधार पर समाज जीवन की रचना होती थी।

समृद्ध और समर्थ भारत की व्यवस्था को 1500 वर्षों के विदेशी हमलों में उतना नुकसान नहीं पहुंचा जितना पिछले 500 वर्षों में पहुंचा। इसमें भी पिछले 250 वर्षों में जितना नुक्सान हुआ करीब उतना ही हमने पिछले 50 वर्षों में गंवाया है।

1781-93 तक के जमीन बन्दोबस्ती कानूनों के कारण गांवों के सामुदायिक जीवन और पारस्परिक आत्मनिर्भरता पर आघात हुआ। अंग्रेजों द्वारा थोपे गए विदेशी माल के कारण यहां के कारीगर, दस्तकार बेरोजगार हो गये और खेती को अपना पेशा बनाने लगे। एक तरफ गोरों के जमीन बन्दोबस्ती कानूनों (स्थायी बन्दोबस्त, रैयतवाड़ी, महालवाड़ी) की वजह से आम किसान कर्ज के बोझ से दबने लगा। दूसरी तरफ कारीगर और दस्तकार खेती करने लगे। पहले जहां देश की 33 प्रतिशत जनसंख्या ही कृषि पर आश्रित थी, वहीं 1950 में 75 प्रतिशत भारतीय कृषि पर आश्रित हो गए। खेती पर दबाव बढ़ा। खेती योग्य जमीन कम पड़ने लगी। जंगल साफ कर खेत बनाए जाने लगे और कारीगरी-दस्तकारी के धंधे कमजोर पड़ने लगे।

अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए गांवों में जमीनों के मालिकाना हक की व्यवस्था में भारी फेरबदल किया। जहां जमीन पहले समुदाय की हुआ करती थी, वहीं अंग्रेजों ने कानून बनाकर जमीन को निजी हाथों में दे दिया। इससे लगान वसूलने और जमीन हथियाने में आसानी हुई और ‘साहूकार-महाजन व्यवस्था’ को बढ़ावा मिला।

1800 से 1900 तक गोहत्या में बेतहाशा वृद्धि हुई क्योंकि, अंग्रेजों का मुख्य भोजन गोमांस था। इससे मनुष्य-मवेशी अनुपात असंतुलित हो गया। फलत: 1900 से पारम्परिक खेती बिगड़ने लगी और उत्पादकता घटती गई। कारखानिया माल के पक्ष में और खेतिया माल के खिलाफ नीतियां बनीं। ऐसा अंग्रेजों के हित में था। वे कृषि उपज को कच्चे माल के तौर पर सस्ते में खरीदते और फिर अपने कारखानिया माल को महंगे दामों में भारत की जनता को बेचते। भारत का कारखानियां माल इंग्लैण्ड में न बिक सके, इसके लिए कई उपाय किए गए। इस सबसे किसानों की हालत और बिगड़ी, शहरीकरण बढ़ा तथा शहर-गांव के बीच की दूरी भी बढ़ी।

1947 में अंग्रेज तो चले गए पर उनकी बनाई गई व्यवस्था के खतरों को हमारे नेता या तो समझ नहीं पाए या फिर जानबूझ कर अनजान बने रहे। जमीन, जंगल, जल और जानवर की सुध नहीं ली गई। पारम्परिक खेती के ज्ञान की उपेक्षा की गई। देशी व्यवस्थाओं को सुधारने-संवारने की बजाए उसके बारे में हीन भावना को बढ़ाया गया। आजादी के बाद किसानों और गांवों के देश में पंचवर्षीय योजनाओं का मुख्य लक्ष्य ‘भारी औद्योगीकरण’ रखा गया। इसके लिए नेहरू जी की महानता का गुणगान किया गया। कृषि में लागत बढ़ने लगी, दाम कम मिलने लगे। कृषि एक अप्रतिष्ठित आजीविका बन गई। पढ़े-लिखे लोग खेती से हटने लगे। हरित क्रान्ति के नाम पर गेहूं क्रान्ति हुई। सब्सिडी और सरकारी खरीद पर निर्भरता बढ़ी। रासायनिक खाद और कीटनाशकों का धुआंधार प्रयोग होने लगा।

एक आम किसान को अब खेती करना अलाभप्रद लगने लगा। केवल खेती से किसान को अपनी आजीविका चलाने में मुश्किलें आने लगी। स्वाभाविक रूप से किसान को जंगल और जानवरों से अपनी पूरक आमदनी की व्यवस्था करनी चाहिए थी। लेकिन, इसकी उपेक्षा करके उसे दूसरे व्यवसायों की ओर मोड़ा गया। गांव का किसान धीरे-धीरे शहर का मजदूर बन गया। फलत: शहरों पर दबाव बढ़ा, प्रदूषण बढ़ा, बेरोजगारी बढ़ी। जो किसान अभी भी गांवों में रह गये उनका झुकाव नकदी फसलों की ओर हुआ। इससे लागत मूल्य और बढ़ा तथा खेती और मंहगी हो गई। खेती न तो पारम्परिक रही और न ही औद्योगिक हो पाई।

नए दौर में जेनेटिक बीजों को बढ़ावा दिया जा रहा है। पिछले वर्षों में किसानों की इस पर निर्भरता तेजी से बढ़ी है। आयात-निर्यात नीति भी किसानों के खिलाफ हो गई है। कृषि उपज तो बढ़ी लेकिन किसान घाटे में ही रहे। अब किसान मंहगी खेती के लिए कर्ज लेने लगा। इस बाजारवादी व्यवस्था में निचले पायदान पर पहुंच चुके किसान के हाथों में मानसून और बाजार पर नियंत्रण तो है नहीं। इसलिए उसकी उपज या तो मानसून की कमी के कारण चौपट हो जाती है या जब ठीक होती है तो सही दाम नहीं मिलते। कर्ज लेकर भारी लागत वाली खेती कर रहा किसान एक ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया जहां सत्ता राजनीति उसके खिलाफ खड़ी है।

भारत में पिछले 15 वर्षों में हुए उदारीकरण-वैश्वीकरण-निजीकरण ने किसानों की कब्र पर कई ईंटें और जोड़ दी है। वैश्वीकरण के इस दौर में डब्ल्यू.टी.ओ. के पैरोकार कृषि क्षेत्र में समरूपता चाहते हैं जो कभी भी सम्भव नहीं है। कृषि अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरह की है। उसका अर्थशास्त्र भी अलग-अलग तरह का है। भूमि-कृषि अनुपात, भूमि-किसान अनुपात, जैव विविधता, उपज के प्रकार, खान-पान की आदतें, पर्यावरण, मौसम सभी अलग-अलग हैं। फिर भी डब्ल्यू.टी.ओ. में कृषि को लेकर पूरे विश्व के लिए एक नियम बनाने की कोशिश की जा रही है। निहित स्वार्थों के चलते हमारे नेता उनका समर्थन करने में लगे हैं।

वर्षों से विपरीत परिस्थितियों को झेल रहे किसान जहां एक ओर थक रहे हैं, वहीं उनके लिए कठिनाइयां और बढ़ती जा रही हैं। 1980 के दशक से किसानों द्वारा बड़ी संख्या में ‘आत्महत्या’ का दौर शुरू हुआ। आंध्रप्रदेश और पंजाब में ‘आत्महत्या’ की घटनाएं सबसे पहले दिखीं। कर्ज वसूली, कुर्की और अपमान आत्महत्या के मुख्य कारण बन गए।

2000 आते-आते समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया। बाजार के दबाव में नीतियां किसानों के खिलाफ बनीं और सत्ता संवेदनहीन होती गई। गोपाल के इस देश में गौ और किसान हाशिए पर चले गये। एक की हत्या बढ़ी और दूसरे की आत्महत्या। जंगल, जानवर और घरेलू उद्योगों से पूरक आमदनी का रास्ता गंवा चुके किसान को कर्ज और भुखमरी से मुक्ति पाने का अब एक ही रास्ता दिखायी देता है ‘आत्महत्या’। यह ‘आत्महत्या’ महामारी का रूप ले रही है। पंजाब, आन्ध्रप्रदेश के बाद विदर्भ ही नहीं केरल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान भी उसी राह पर चल पड़े है।

जहां लोग खेती छोड़ ज्यादा से ज्यादा संख्या में रोजगार तलाशने के लिए शहरों की ओर भागे वहां अभाव में आत्महत्या की घटनाएं कम दिख रही हैं। जहां परम्परागत खेती से किसान जुड़े रहे, जमीन, जल, जंगल, जानवर, का संतुलन बना रहा, कर्ज कम लिया गया, मशीनी-रासायनिक खेती की ओर झुकाव कम हुआ वहां भी ‘आत्महत्या’ का संकट कम है।

आज विदर्भ की आत्महत्याओं ने सभी को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। एक आम किसान की ‘आत्महत्या’ मौजूदा कृषि व्यवस्था और इसकी नीतियों के विरोध में किए गए रक्तिम हस्ताक्षर हैं। घातक नीतियों के शिकार हो चुके किसान के विरोध करने का यह एक लाचार तरीका है।

क्या होना चाहिए?

हर समस्या का कोई न कोई समाधान होता है, निदान का अपना तरीका होता है। लेकिन, जब किसान अपनी समस्या का समाधान ‘आत्महत्या’ को मान ले तो समझ लेना चाहिए कि संकट अति गंभीर है। वास्तव में किसानों की आत्महत्या सिर्फ किसानों की समस्या नहीं है, बल्कि यह पूरे देश की समस्या है। देश की संपूर्ण सज्जन शक्ति को इस समस्या का समाधान ढूंढना होगा।

जिस व्यवस्था में किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर है, उससे हम कोई उम्मीद नहीं कर सकते। बिना समस्या को समझे किसी पैकेज की घोषणा से किसानों को कोई राहत नहीं मिलेगी। आज जरूरत है एक वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी करने की। इस वैकल्पिक व्यवस्था में तात्कालिक, मध्यकालिक और दीर्घकालिक लक्ष्य बनाकर देश, काल और परिस्थिति के हिसाब से समस्या के समाधान के लिए बहुआयामी प्रयास करने होंगे। ये प्रयास रचनात्मक और संघर्षात्मक दोनों होंगे। तभी स्थायी समाधान निकालने में सफलता मिलेगी।

तात्कालिक उपाय :

सजिन परिवारों में आत्महत्या हो चुकी है, उन सैकड़ों परिवारों में रोटी, कपड़ा, मकान, पढ़ाई-दवाई का इंतजाम तुरन्त किया जाए। गांव और स्थानीय समाज की पहल पर सभी जिम्मेदार नागरिक समूह और सेवाभावी संगठन अपने स्तर से सहयोग करें। इन सामूहिक प्रयासों में शिक्षा और चिकित्सा से सम्बन्धित संस्थाओं को भी सहभागी बनाया जाए।

मध्यकालिक उपाय :

समध्यकालिक समाधान में संघर्षात्मक पहलू महत्वपूर्ण है। गाय, खेती, गांव, किसान से जुड़ी विभिन्न प्रतिकूल नीतियों में बदलाव के लिए एक मांगपत्र बनाया जाए और उसकी पूर्ति के लिए देशव्यापी ‘किसान हित रक्षा आन्दोलन’ चलाया जाए। यह समय की मांग है कि कृषि उपज के मूल्य निर्धारण का सही ढांचा बनाने के लिए सरकार पर दबाव डाला जाए। विशेष तौर पर सब्सिडी, कृषि उपज के मूल्य निर्धारण के मुद्दे पर विश्व व्यापार संगठन और खेतिया और कारखानिया माल के दामों में विसंगति के पहलू भी ‘किसान हित रक्षा आन्दोलन’ द्वारा प्रमुखता से उठाए जाएं। जमीन, जल, जैव विविधता और गौ-संवर्धन को लेकर किसानों के हित में पारदर्शी नीति बननी चाहिए।

दीर्घकालिक उपाय :

दीर्घकालिक योजनाओं पर काम किए जाने के लिए रचनात्मक और संघर्षात्मक पहलू निम्न हैं-

1.मनुष्य-मवेशी अनुपात ठीक किया जाए।

2.जमीन, जल, जंगल, जानवर का संपोषण हो।

3.खेती, गाय, गांव, किसान के अन्तर्सम्बंधों को दृढ़ बनाया जाए। कम पूंजी-कम लागत की बहुफसली कृषि पद्धति पर जोर दिया जाए।

सपरिवार, गांव, समाज के स्तर पर आपसदारी, आत्मीयता और संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर विशेष प्रयास हो।

सशिक्षा को संस्कार और जीवन से जोड़ा जाए।

सविकेन्द्रित, स्वावलम्बी, स्वयंपूर्ण ग्राम समूहों को पुष्ट किया जाए। इस हेतु सभी तरह के किसान संगठन सही तरीके से जमीन, जल, जंगल, जानवर, पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन में लगें। लोगों, समूहों और संस्थाओं को जुटाया जाए। गांव, जिला, प्रदेश और अखिल भारतीय स्तर पर संवाद, सहमति और सहकार की कार्यनीति के आधार पर इन्हें संगठित किया जाए। इससे आम लोगों में मुद्दों की समझ और संवेदना बढ़ेगी।

1.किसानों की समस्याओं को केन्द्र में रखकर एक मांगपत्र तैयार हो। इस दस्तावेजीकरण में किसान, असंगठित मजदूर, महिला, कृषि वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री एवं विधिवेत्ताओं की भी भागीदारी सुनिश्चित की जाए।

2.राजनीति और अर्थनीति को उपरोक्त उद्देश्यों के लिए स्वदेशी व विकेन्द्रीकरण की कसौटी पर कसा जाए।

3.अधिक उत्पादन सही वितरण, संयमित उपभोग, गरीब के प्रति ममता और धनिक के प्रति मुदिता की भाव भूमि पर समाज की जीवन रचना को अधिष्ठापित किया जाए।

इस सारे काम के लिए रचनात्मक और आन्दोलनात्मक तरीके से धर्म-सत्ता, समाज सत्ता, राजसत्ता एवं अर्थसत्ता को नियोजित करने में पहल होनी चाहिए। इसमें संत शक्ति और मातृशक्ति को विशेष रूप से सहभागी बनाया जाना चाहिए।

किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या इस मानव-समाज की मानवीयता पर कलंक है। समाज की एक जिम्मेदार इकाई के रूप में हम सब का यह नैतिक कर्तव्य है कि अपने सामने तिल-तिल खत्म होती आदि-सभ्यता की मनुष्यता को बचाएं, भारत की धूमिल पड़ती चमक को बचाएं। यह तभी संभव है जब हम एक किसान के समर्थन में हर मंच से अपनी आवाज बुलन्द करें।

परतंत्र भारत में इस सुजला-सुफला वसुन्धरा की रक्षा के लिए हजारों-लाखों जवानों, किसानों, मजदूरों ने अपनी जान दी है। आज स्वतंत्र भारत में इनका अस्तित्व संकट में है और इन्हें बचाने की बारी हमारी है।

स्रोत विच्छिन्न जीवन

चैतन्य प्रकाश

शाम के धुंधलके में घोंसले की ओर लौटते पंछियों की व्यग्रता, भीतर से उठती उदासी और पत्तों की हल्की-हल्की सरसराहट के बीच फलक पर कभी इन्द्रधनुष दिख जाता है तो आत्मा के तल पर एक नैसर्गिक आनंद की अनुभूति होती है।

रंगों का प्राकृतिक वैविध्य सौन्दर्य रचता है। संसार को रंगमंच कहकर पुकारा गया है। दिल और दिमागों के खूबसूरत ख्वाबों से रंगीन होती जाती दुनिया की चमक से हमारी आंखें सर्वथा परिचित हैं। प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों की अभिव्यक्तियों में रंगों की भूमिका लाजवाब है। नीला आकाश काले सफेद बादलों को जिस तरह अपने विराट अंक में आंख-मिचौली खेलने की आजादी देता है, ठीक वैसे ही गहरी नीलिमा से भरा सागर लहरों के धवल फेनों को भरपूर मचलने का मौका देता है।

सपाट मैदानों में बिछी हरी घास की खूबसूरत चादरें सुंदरता के प्रतिमान रचती हैं, वहीं पहाड़ की तलहटियों में पत्थर और चट्टानों की संगति में खिलखिलाते छोटे-बड़े फूलों की रूप ज्योति आंखों को पल भर ठहर कर रूप रस पान करने का सहसा न्यौता देती है। प्रकृति के सौन्दर्य में गहराई और सहजता दोनों हैं। शायद, इसीलिए प्राकृतिक सौन्दर्य अनुपम और अद्भुत होते हुए भी चित्त को शांत करता है।

प्रवृत्ति जनित सौन्दर्य राहों, चौराहों और बाजारों के अलावा दीवारों और रूपहले पर्दों पर अनेकविध तकनीकों के जरिए रात-दिन प्रदर्शित, प्रसारित और विज्ञापित किया जाता है। कला और विज्ञान में कोई एक समान बिंदु खोजा जाए तो वह शायद ‘प्रदर्शन’ होगा। अब तो अर्थव्यवस्था, राजनीति और सामाजिकता तीनों के प्राण भी प्रदर्शन रूपी तोते में ही अटके नजर आते हैं।

दुनिया भर के खेलों के उत्साह और उन्माद में भी प्रदर्शन एक सर्वोपरि प्रेरक शक्ति की तरह समाया प्रतीत होता है। अगर संसार रंगमंच है तो प्रदर्शन तो होगा ही, फिर प्रदर्शन से परहेज क्यों? प्रदर्शन की निंदा क्यों? नीति, मूल्यों और आदर्शों के पैरोकार प्रकृति की अभिव्यक्ति (प्राकृतिक सौंदर्य) से रोमांचित होते हैं मगर प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति (प्रवृत्तिजनित सौन्दर्य) पर नाराज नजर आते हैं। अश्लीलता कहकर वे उसकी निन्दा करते हैं। आखिर वह प्रदर्शन के सिवा और क्या है?

आखिर आंखों को रूचिकर लगने वाले नैसर्गिक दृश्यों की तरह सांसारिक दृश्यों की दृग-रोचकता भी स्वीकार की जानी चाहिए। पुरूष और स्त्री की देह का सौंदर्य भी तो निसर्ग प्रदत्त है जैसे-वृक्षों, पौधें, घास, फूल-पत्तों, आकाश और सागर का सौंदर्य निसर्गजनित है। शायद इसीलिए भारतीय कला और संस्कृति का मूल भाव शारीरिक सौंदर्य के प्रति सहजता एवं स्वीकार्यतापरक है।

अध्यात्म के उदात्त साधक भी इस सौंदर्य के प्रति नकार और निंदा का भाव नहीं रखते बल्कि, मिट्टी के पात्रों के मोहक सौंदर्य की तरह देह रूपी मिट्टी के सौंदर्य के क्षण-भंगुर होने के सत्य की वे घोषणा जरूर करते हैं। चर्च के शुद्धतावादी दर्शन और शाही सल्तनत के हरमों में पर्दापरस्ती का बड़ा जोर रहा है। विक्टोरियन युग के लंबे लटकते हुए नारी पहनावे और बेगमों, रानियों की पोशाकों में एक मनोवृत्तिगत समानता है जो आधुनिक बाजारवादी व्यवस्था तक गहरे में पैठी नजर आती है।

यह मनुष्य देह को वस्तु की तरह जानने, मानने की मनोवृत्ति है। साम्राज्यवादी एवं एकाधिकारवादी व्यवस्थाओं में दार्शनिक और चिंतकों ने दास प्रथा को सैद्धांतिक मान्यता भी दी थी। उन व्यवस्थाओं में पुरूषों का दासत्त्व घोषित, औपचारिक और मान्यता प्राप्त था। किन्तु, स्त्री दासता अघोषित एवं अनौपचारिक थी। औपचारिक और घोषित दासत्व समाप्त हो गया लेकिन अघोषित दासत्व ‘प्रदर्शन’ के बहाने इक्कीसवीं सदी के बाजारों की शोभा बना हुआ है।

प्रकृति अपनी स्वतंत्रता से खिलती है। अपनी मर्यादा से सजती है। मगर सदा अपने स्रोत से अविच्छिन्न रहती है। प्राकृतिक सौंदर्य सहज है। प्रायोजन और आयोजन से परे है। प्रवृत्तिजनित सौन्दर्य स्वार्थमूलक है, शोषणमूलक है, सतही है। प्रायोजन एवं आयोजन के दबावों से घिरा और दबा है। इसीलिए वह असहज है, अभिनयपरक है।

प्राकृतिक सौंदर्य शांतिदायी है, वहीं प्रवृत्तिजनित सौंदर्य मोहक, मादक, उत्तेजक और अशांतिपरक है। फूल को तोड़कर बाजार में बेचने से वह सुषमा एवं सुगंध दोनों खो बैठता है, वैसे ही बाजारों में बिकने को तैयार सौंदर्य अपनी सुषमा और सुगंध बीत जाने के खतरों से आक्रांत है। आखिर स्रोतों से विच्छिन्न जीवन कब तक खिला रह सकता है?

आज मां ने फिर याद किया

भूली बिसरी चितराई सी

कुछ यादें बाकी हैं अब भी

जाने कब मां को देखा था

जाने उसे कब महसूस किया

पर , हां आज मां ने फिर याद किया ।।।

बचपन में वो मां जैसी लगती थी

मैं कहता था पर वो न समझती थी

वो कहती की तू बच्चा है

जीवन को नहीं समझता है

ये जिंदगी पैसों से चलती है

तेरे लिए ये न रूकती है

मुझे तुझकों बडा बनाना है

सबसे आगे ले जाना है

पर मैं तो प्यार का भूखा था

पैसे की बात न सुनता था

वो कहता थी मैं लडता था

वो जाती थी मैं रोता था

मैं बडा हुआ और चेहरा भूल गया

मां की आंखों से दूर गया

सुनने को उसकी आवाज मै तरस गया

जाने क्यूं उसने मुझको अपने से दूर किया

पर, हां आज मां फिर ने याद किया ।।।

मैं बडा हुआ पैसे लाया

पर मां को पास न मैने पाया

सोचा पैसे से जिंदगी चलती है

वो मां के बिना न रूकती है

पर प्यार नहीं मैंने पाया

पैसे से जीवन न चला पाया

मैंने बोला मां को , अब तू साथ मेरे ही चल

पैसे के अपने जीवन को , थोडा मेरे लिए बदल

मैंने सोचा , अब बचपन का प्यार मुझे मिल जायेगा

पर मां तो मां जैसी ही थी

वो कैसे बदल ही सकती थी

उसको अब भी मेरी चिंता थी

उसने फिर से वही जवाब दिया

की तू अब भी बच्चा है

जीवन को नहीं समझता है

ये जिंदगी पैसों से चलती है

तेरे लिए ये न रूकती है

सोचा कि मैंने अब तो मां को खो ही दिया

पर, हां आज मां ने फिर याद किया ।।।

-अंकुर विजयवर्गीय

पांच मंत्रालयों पर भुखमरी और कुपोषण से लड़ने की जिम्मेदारी

संजय स्वदेश

देश की जनता को भुखमरी और कुपोषण से बचाने के लिए सरकार नौ तरह की योजनाएं चला रही है। पर बहुसंख्यक गरीबों को इन योजनाओं के बारे में पता नहीं है। गरीब ही क्यों पढ़े-लिखों को भी पता नहीं होगा कि पांच मंत्रालयों पर देश की भुखमरी और कुपोषण से लड़ने की अलग-अलग जिम्मेदारी है। हर साल हजारों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। इसके जो भी परिणाम आ रहे हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं। जिस सरकार की एजेंसियां इन योजनाओं को चला रही है, उसी सरकार की अन्य एजेसियां इसे धत्ता साबित करती है। निजी एजेंसियां तो हमेशा साबित करती रही हैं।

पिछले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ कि देश के करीब 46 प्रतिशत नौनिहाल कुपोषण की चपेट में हैं। 49 प्रतिशत माताएं खून की कमी से जूझ रही है। इसके अलावा अन्य कई एजेंसियों के सर्वेक्षणों से आए आंकड़ों ने साबित किया कि सरकार देश की जनता को भुखमरी और नौनिहालों को कुपोषण से बचाने के लिए जो प्रयास कर रही है, वह नाकाफी है। मतलब सरकार पूरी तरह से असफल है। आखिर सरकार की पांच मंत्रालयों की नौ योजनाएं कहां चल रही हैं। मीडिया की तमाम खबरों के बाद भी विभिन्न योजनाएं भुखमरी और कुपोषण का मुकाबला करने के बजाय मुंह की खा रही हैं।

वर्ष 2001 में उच्चतम न्यायालय ने भूख और कुपोषण से लड़ाई के लिए 60 दिशा-निर्देश दिये थे। इस निर्देश के एक दशक पूरे होने वाले हैं, पर सब धरे-के धरे रह गये। सरकार न्यायालय के दिशा-निर्देशों को पालन करने में नाकाम रही है। कमजोर आदमी न्यायालय की अवमानना किया होता तो जेल में होता। लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश होकर तल्ख टिप्पणियों से खीझ निकालती है। कम आश्चर्य की बात नहीं कि सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायाल की तिखी टिप्पणी के बाद भी सरकार बेसुध है। जनता तो बेसुध है ही। नहीं तो सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी एक राष्ट्रव्यापी जनआंदोलन को उकसाने के लिए प्रयाप्त थी। गोदामों में हजारो क्विंटल अनाज सड़ने की खबर फिर आ रही है। भूख से बेसुध रियाया को सरकार पर भरोसा भी नहीं है। इस रियाया ने कई आंदोलन और विरोध की गति देखी है। उसे मालूम है कि आंदोलित होने तक उसके पेट में सड़ा अनाज भी नहीं मिलने वाला।

कुछ दिन पहले एक मामले में महिला बाल कल्याण विकास विभाग ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि देश में करीब 59 प्रतिशत बच्चे 11 लाख आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषाहार प्राप्त कर रहे हैं। जबकि मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के करीब अस्सी प्रतिशत हिस्सों के नौनिहालों को आंगनबाड़ी केंद्रों का लाभ मिल रहा है। महज 20 प्रतिशत बच्चे ही इस सुविधा से वंचित है।

सरकारी और अन्य एजेंसियों के आंकड़ों के खेल में ऐसे अंतर भी सामान्य हो चुके हैं। सर्वे के आंकड़े हमेशा ही यथार्थ के धरातल पर झूठे साबित हो चुके हैं। मध्यप्रदेश के एक सर्वे में यह बात सामने आई कि एक वर्ष में 130 दिन बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं बिहार में असम में 180 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की बात कही गई। उड़ीसा में तो एक वर्ष में 240 और 242 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने का दावा किया गया। जबकि सरकार वर्ष में आवश्यक रूप से 300 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता जताती है। हकीकत यह है कि पोषाहार की योजना में नियमित अन्यों की आपूर्ति ही नहीं होती है। किसी जिले में कर्मचारियों की कमी की बात कही जाती है तो कहीं से पोषाहार के कच्चे वस्तुओं की आपूर्ति नहीं होने की बात कह जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है। जब पोषाहार की सामग्री आती है तो नौनिहालों में वितरण कर इतिश्री कर लिया जाता है। सप्ताह भर के पोषाहार की आपूर्ति एक दिन में नहीं की जा सकती है। नियमित संतुलित भोजन से ही नौनिहाल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे। पढ़ाई में मन लगेगा।

असम, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के दूर-दराज के क्षेत्रों में कुपोषण और भुखमरी से होने वाली मौतों की खबर तो कई बार मीडिया में आ ही नहीं पाती। जो खबरें आ रही हैं उसे पढ़ते-देखते संवेदनशील मन भी सहज हो चुका है। ऐसी खबरे अब इतनी समान्य हो गई कि बस मन में चंद पल के लिए टिस जरूर उठती है। मुंह से सरकार के विरोध में दो-चार भले बुरे शब्द निकलते हैं। फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। सब भूल जाते हैं। कहां-क्यों हो रहा है, कोई मतलब नहीं रहता। यह और भी गंभीर चिंता की बात है। फिलहाल सरकारी आंकड़ों के बीच एक हकीकत यह भी है कि आंगनवाड़ी केंद्रों से मिलने वाले भोजन कागजों पर ही ज्यादा पोष्टिक होते हैं। जिनके मन में तनिक भी संवदेनशीलता है, उन्हें हकीकत जानकर यह चिंता होती है कि सूखी रोटी, पतली दाल खाकर गुदड़ी के लालों का कल कैसा होगा?

असंवेदनशीलता के मायने…?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश

जब-जब भी देश में बम विस्फोट होते हैं या फिदायीन हमले होते हैं तो सभी वर्गों द्वारा आतंकवाद की बढचढकर आलोचना की जाती है। कठोर से कठोर कानून बनाकर आतंकवाद से निजात दिलाने के लिये सरकार से मांग की जाती हैं। सरकार की ओर से भी हर-सम्भव कार्यवाही का पूर्ण आश्वासन भी दिया जाता है, लेकिन जैसे ही मरने वालों की आग ठण्डी होती है, आतंकवाद के खिलाफ लोगों का गुस्सा भी ठण्डा होने लगता है। यदि आतंवादी लगातार घटनाओं को जन्म नहीं दें तो आम व्यक्ति आतंकवाद के खिलाफ बोलने या आतंकवाद का विरोध करने के बारे में उसी प्रकार से चुप्पी साध ले, जिस प्रकार से भ्रष्टाचार के मामले में साथ रखी है।

इससे यह प्रमाणित होता है कि अपराधियों, राजनेताओं और उच्च पदों पर आसीन लोक सेवकों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी संवेदना-शून्य होता जा रहा है। जिसके चलते अपने सामने घटित क्रूर घटनाओं पर भी आम व्यक्ति चुप्पी साध लेता है और आशा करने लगता है कि सरकार एवं प्रशासन उसके लिये हमेशा उपलब्ध रहें! यह कैसे सम्भव है कि यदि हम अपने पडौसी के सुख-दु:ख में भागीदार नहीं हो सकते तो वेतन लेकर सेवा करने वाले लोक सेवक, जिनका हमसे किसी भी प्रकार का आत्मीय या सामाजिक सम्बन्ध नहीं है, हमारे प्रति संवेदनशील रहेंगे।

दिनप्रतिदिन घटती इस संवेदनहीनता का खामियाजा हमें हर दिन किसी न किसी किसी क्षेत्र में, किसी न किसी जगह पर भुगतना पड रहा है। आज जितने भी अपराध और दुराचार हो रहे हैं, उसके लिये हमारी यही असंवेदनशील सोच भी जिम्मेदार है। जिसके चलते भ्रष्ट लोक सेवकों, अपराधियों और गुण्डा तत्वों के होंसले लगातार बढते जा रहे हैं और पुलिस, सामान्य प्रशासन एवं सरकार हमारी परवाह नहीं पालते हैं।

इसलिये यदि हमें अपने आपको तथा आनेवाली पीढियों को बचाना है तो अपने-आपके साथ-साथ, अपने आसपडौस के लोगों के प्रति भी संवेदनशील होना सीखना होगा। अन्यथा दूसरों से संवेदनशील रहने की और मानव अधिकारों की रक्षा की उम्मीद करना छोडना होगा।

आजाद भारत के सबसे बेबस प्रधानमंत्री साबित हुए मनमोहन

लिमटी खरे

भारत गणराज्य भ्रष्टाचार, अनाचार, दुराचार की आग में जल रहा है, उधर कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी और वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह नीरो के मानिंद चैन की बंसी बजा रहे हैं। कांग्रेस के युवराज ने कुछ दिन पहले गठबंधन की मजबूरियों पर प्रकाश डाला था। देशवासियों के जेहन में एक बात कौंध रही है कि बजट सत्र के ठीक पहले हुए इस फेरबदल और विस्तार के जरिए कांग्रेस क्या संदेश देना चाह रही है? संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की दूसरी पारी में जितने घपले घोटाले सामने आए हैं, वे अब तक का रिकार्ड कहे जा सकते हैं। मंत्रियों, अफसरशाही की जुगलबंदी के चलते लालफीताशाही के बेलगाम घोड़े ठुमक ठुमक कर देशवासियों के सीने पर दली मूंग के मंगौड़े तल रहे हैं। महंगाई आसमान छू रही है, आम आदमी मरा जा रहा है, प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि वे ज्यांतिषी नहीं हैं कि बता सकें कि आखिर कब महंगाई कम होगी। मनमोहन भूल जाते हैं कि वे भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री हैं। भारत के संविधान में भले ही महामहिम राष्ट्रपति को सर्वोच्च माना गया हो किन्तु ताकतवर तो प्रधानमंत्री ही होता है। अगर मनमोहन सिंह चाहें तो देश में मंहगाई, घपले घोटाले, भ्रष्टाचार पलक झपकते ही समाप्त हो सकता है, किन्तु इसके लिए मजबूत इच्छा शक्ति की आवश्यक्ता है, जिसकी कमी डॉ.मनमोहन सिंह में साफ तौर पर परिलक्षित हो रही है।

उन्नीस माह पुरानी मनमोहन सरकार में पिछले लगभग अठ्ठारह माह से ही फेरबदल की सुगबुगाहट चल रही थी। तीन नए मंत्रियों को शामिल करने, तीन को पदोन्नति देने और चंद मंत्रियों के विभागों में फेरबदल के अलावा मनमोहन सिंह ने आखिर किया क्या है? हमारी नितांत निजी राय में यह मनमोहनी डमरू है, जो देश की मौजूदा समस्याओं, घपलों, घोटालों, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, अलगाववाद, आतंकवाद की चिंघाड़ से देशवासियों का ध्यान बंटाने का असफल प्रयास कर रहा है। संप्रग दो में असफल और अक्षम मंत्रियों को बाहर का रास्ता न दिखाकर प्रधानमंत्री ने साबित कर दिया है कि वे दस जनपथ (श्रीमती सोनिया गांधी के सरकारी आवास) की कठपुतली से ज्यादा और कुछ नहीं हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे मंत्रियों को बाहर करके मनमोहन सिंह अपनी और सरकार की गिरती साख को बचाने की पहल कर सकते थे, वस्तुतः उन्होंने एसा किया नहीं है। आज देश प्रधानमंत्री से यह प्रश्न पूछ रहा है कि जो मंत्री अपने विभाग में अक्षम, अयोग्य या भ्रष्टाचार कर रहा था, वह दूसरे विभाग में जाकर भला कैसे ईमानदार, योग्य और सक्षम हो जाएगा? साथ ही साथ प्रधानमंत्री को जनता को बताना ही होगा कि आखिर वे कौन सी वजह हैं जिनके चलते मंत्रियों के विभागों को महज उन्नीस माह में ही बदल दिया गया है। क्या वजह है कि सीपीजोशी को ग्रामीण विकास से हटाकर भूतल परिवहन मंत्रालय दिया गया है?

दरअसल विपक्ष द्वारा शीत सत्र ठप्प किए जाने के बाद अब बजट सत्र में अपनी खाल बचाने के लिए मंत्रियों के विभागों को आपस में बदलकर देश के साथ ही साथ विपक्ष को संदेश देना चाह रही है कि अब भ्रष्ट मंत्रियों की नकेल कस दी गई है। वैसे कांग्रेस की नजरों में भविष्य के प्रधानमंत्री और युवराज राहुल गांधी की युवा तरूणाई को इस मंत्रीमण्डल में स्थान न देकर कांग्रेस ने एक संदेश और दिया है कि आने वाले फेरबदल में भ्रष्टों को स्थान नहीं दिया जाएगा, बजट सत्र के बाद जो फेरबदल होगा वह राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने का रोडमेप हो सकता है। इसी बीच इन तीन चार माहों में भ्रष्ट और नाकारा मंत्रियों को भी अपना चाल चलन सुधारने का मौका दिया जा रहा है, किन्तु मोटी खाल वाले मंत्रियों पर इसका असर शायद ही पड़ सके। इसी बीच मंहगाई पर काबू पाने के लिए भी कुछ प्रयास होने की उम्मीद दिख रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की जो छवि है, वह भी बचाकर रखने के लिए कांग्रेस के प्रबंधकों ने देशी छोड़ विदेशी मीडिया को साधना आरंभ कर दिया है। कांग्रेस के प्रबंधक जानते हैं कि देश में मीडिया को साधना उतना आसान नहीं है, क्योंकि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बाद अघोषित चौथे स्तंभ ‘‘मीडिया‘‘ के पथभ्रष्ट होने के उपरांत ‘ब्लाग‘ ने पांचवे स्तंभ के बतौर अपने आप को स्थापित करना आरंभ कर दिया है।

इस फेरबदल में वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी, कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को भारी मशक्कत करनी पड़ी है। एक दूसरे के बीच लगातार संवाद कराने में कांग्रेस अध्यक्ष के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल की महती भूमिका रही। किसी को इस फेरबदल का लाभ हुआ हो अथवा नहीं किन्तु इसका सीधा सीधा लाभ अहमद पटेल को होता दिख रहा है, जिन्होंने एक बार फिर कांग्रेस सुप्रीमो की नजर में अपनी स्थिति को मजबूत बना लिया है। दस जनपथ और सात रेसकोर्स के बीच अहमद पटेल ने सेतु का काम ही किया है। बताते हैं कि फेरबदल में मंत्रियों को बाहर का रास्ता न दिखाने का सुझाव अहमद पटेल का ही था। पटेल ने कांग्रेस अध्यक्ष को मशविरा दिया कि अगर मंत्रियों को हटाया गया तो वे पार्टी के अंदर असंतोष को हवा देंगे, तब बजट सत्र में टू जी स्पेक्ट्रम, विदेशों में जमा काला धन वापस लाना, नामों के खुलासे, महंगाई, सीवीसी की नियुक्ति आदि संवेदनशील मुद्दों पर पार्टीजनों को संभालना बड़ी चुनौती बनकर सामने आएगा। भले ही कांग्रेस प्रबंधकों ने यह सोचा होगा कि टीम मनमोहन से आक्रोश को शांत किया जा सकता है, किन्तु अभी भी पार्टी के अंदर लावा उबल ही रहा है।

मनमोहन ने देश की वर्तमान चुनौतियों को दरकिनार कर गठबंधन का धर्म ही निभाया है। भारत में गठबंधन सरकार का श्रीगणेश सत्तर के दशक में हुआ था। आपातकाल के उपरांत 1977 में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था, उस समय मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली गठबंधन सरकार केंद्र पर काबिज हुई थी। इसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, नरसिंम्हाराव, अटल बिहारी बाजपेयी, एच.डी.देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल पुनः अटल बिहारी बाजपेयी के बाद डॉ.मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा दो बार गठबंधन के जरिए केंद्र पर राज किया है। इक्कीसवीं सदी में सरकार में शामिल सहयोगी दलों द्वारा जब तब कांग्रेस या भाजपा की कालर पकड़कर उसे झझकोरा है। बिना रीढ़ के प्रधानमंत्रियों ने सहयोगी दलों के इस रवैए को भी बरदाश्त किया है। बहरहाल जो भी हो गठबंधन धर्म निभाते हुए कांग्रेस हो या भाजपा दोनों ही ने सत्ता की मलाई का रस्वादन अवश्य किया है पर गठबंधन के दो पाटों के बीच में पिसी तो आखिर देश की जनता ही है।

स्वामी विवेकानंद का मानवतावाद

डॉ. मनोज चतुर्वेदी

स्वामी विवेकानंद भारतीय चेतना एवं चिंतन के आधार स्तंभ थे। उनका संपूर्ण जीवन मानव जाति के सेवार्थ में व्यतीत हुआ। लेकिन उन्होंने सेवा का यह संकल्प स्वामी रामकृष्ण के श्री चरणों में बैठकर प्राप्त किया था। स्वामी जी के मन में भारत का भूत, वर्तमान तथा भविष्य तो था ही, पर वे योग की तरफ बढ़ते जा रहे थे। स्वामी जी की उक्त प्रस्थान के तरफ रामकृष्ण परमहंस का ध्यान ज्यों हीं गया। उन्होंने कहा, नरेंद्र (विवेकानंद) एक वटवृक्ष बनेगा। जिसके नीचे हजारों पक्षी घोसलों का निर्माण करेंगे। विवेकानंद का व्यक्तित्व तथा कृतित्व मूलत: आध्यात्मिक था तथा उस अध्यात्मिकता के माध्यम से जो कार्य उन्होंने किया वो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक के साथ-साथ पूर्ण रूपेण भारतीय जीवन-मूल्यों से आप्लवित था। दैवी भक्ति से प्रेरित होकर मानवजाति के हितार्थ जो कार्य उन्होंने किया वो अपने आप में मिसाल ही है। मुझे याद आ रही है जब मैं सर्वप्रथम स्वामी जी ‘समर नीति’ पुस्तक को पढ़ रहे थे। स्वामी विवेकानंद जी के संदर्भ में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था ”यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो स्वामी विवेकानंद का अध्ययन कीजिए। उनमें सबकुछ विधेयात्मक या भावात्मक कुछ भी नहीं ।” आज जब मैं 20 वर्षों के बाद स्वामी विवेकानंद, वर्तमान भारत पर विचार करती हूँ तो मुझे लगता है कि स्वामी जी एक अवतारी पुरुष थे। भारतीय संस्कृति तथा रामकृष्ण देव के संदेशों के प्रचारार्थ शून्य डिग्री तापमान पर भी विचलित नहीं हुए।

स्वामी जी की एक बात को हमें ध्यान रखने की जरूरत है कि जब उनको निम्न या नीच कहा गया तो उन्होंने कहा मैं ”यदि मैं अत्यंत नीच तथा चांडाल होता, तो मुझे और अधिक आनंद आता, क्योंकि मैं उस महापुरुष का शिष्य हूँ जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण तथा सन्यासी होते हुए भी उस रात उस चांडाल का पैखाना हीं नही साफ किया, अपितु उसकी सेवा शुशुषा की। ताकि वे अपने को सबका दास बना सकें मैं उन्हीं महापुरुष के श्री चरणों को अपने मस्तक पर धारण किए हुए हूँ। वे ही मेरे आदर्श हैं। मैं उन्हीं आदर्श पुरुष के जीवन का अनुकरण करने की चेष्टा करूंगा। सबका सेवक बनकर ही एक हिंदू अपने को उन्नत करने की चेष्टा करता है।, स्वामी जी का यही मानवतावादी पक्ष है। जिसके बल पर संपूर्ण भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के दिलों पर वे राज कर रहे हैं।

भारत की संत परंपरा का एकमात्र लक्ष्य सामाजिक परिवर्तन एकाएक नहीं हो सकता। यह धीरे-धीरे ही संभव है। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य तथा मध्वाचार्य से चलकर रामानंद की परंपरा तक यह आंदोलन चला। समाज एकाएक नहीं बदलता उसमें कुछ रूढ़ियां, कुछ परंपराएं तथा कुछ सामाजिक मूल्य एवं मानदंड जो सामाजिक परिवर्तन में बाधक होते हैं। समाज सुधारक एवं समाजसेवी निंदा में समय नहीं व्यतीत करते। वे यह नहीं कहते कि जो कुछ तुम्हारे पास है वो सभी फेंक दो तथा वह गलत है। स्वामी जी ने इन्हीं विचारों को आत्मसात किया था। स्वामी जी उस समय के जातिवादी व्यवस्था से सुपरिचित थे। आपका मानना था कि ब्राह्मण सात्विक प्रकृति के होते हैं। इसलिए वे आदर्श के पात्र हैं। वह आध्यात्मिक साधना में लिप्त एवं त्याग की मूर्ति होते हैं। ब्राह्मण के अंदर स्वार्थ नाम की कोई चीज नहीं होती। यदि हम राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के शब्दों में कहें – ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, वही पूज्य प्राणी है। क्षत्रिय भी वही, जिसमें भरी हो निर्भयता की आग सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।

स्वामी जी का भी यही मानना था कि मेरा आदेश है – चुपचाप बैठे रहने से काम न होगा। निरंतर उन्नति के लिए चेष्टा करते रहना होगा। ऊंची से ऊंची जाति से लेकर नीची से नीची जाति के लोगों को भी ब्राह्मण होने की चेष्टा करनी होगी।

आज जहां चारों तरफ नारी स्वतंत्रता की बात हो रही है वहां आज से 80-90 वर्षों पूर्व स्वामी जी ने नारी मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त किया। स्वामी जी स्त्री शिक्षा के कट्टर समर्थक थे। आपका माना था कि गृहस्थी रूपी गाड़ी के नियमित सुव्यवस्थित तथा सुदृढ़ जीवन के लिए स्त्री-शिक्षा परमावश्यक है। इसमें शिल्प, विज्ञान, गृहकार्य, स्वास्थ्य के साथ सैन्य विज्ञान एवं राजनीति में शिक्षा के साथ प्रत्यक्ष कार्य के बिना संभव नहीं है। आपका मानना था कि स्त्री को इतनी शिक्षा दे दी जाए कि वो स्वयं अपने जीवन का निर्माण कर सकें। वस्तुत: यह शिक्षा ही है जो आत्म-रक्षा और आत्मबल को उत्पन्न कर सकती है। स्वामी जी ने कहा – हम चाहते हैं कि भारतीय स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दी जाए, जिससे वे निर्भय होकर भारत के प्रति अपने कर्तव्य को भलीभांति निभा सके और संघमित्रा, अहिल्याबाई और मीराबाई आदि भारत की महान देवियों द्वारा चलायी गयी परंपरा को आगे बढ़ा सकें एवं वीर प्रसू बन सकें।

कुल मिलाकर यदि यह कहा जाये कि स्वामी जी आधुनिक भारत के निर्माता थे, तो उसमें भी अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। यह इसलिए कि स्वामी जी ने भारतीय स्वतंत्रता हेतु जो माहौल निर्माण किया उस पर अमिट छाप पड़ी। विचारों से ही प्रभावित होकर बंगाल के क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता का बिगुल फुंका तथा भारत माता स्वाधीन हुई। आज जब चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। ऐसे समय में स्वामी जी के मानवतावाद के रास्ते पर चलकर ही भारत एवं विश्व का कल्याण हो सकता है। वे बराबर युवाओं से कहा करते थे कि हमें ऐसे युवकों और युवतियों की जरूरत है जिनके अंदर ब्राह्मणों का तेज तथा क्षत्रियों का वीर्य हो। ऐसे पांच मिल जाये तो हम समाज को बदल डालें। युवा मित्रों! विवेकानंद को पढ़ने के साथ ही गुनने की जरूरत है। यह इसलिए कि वे हमें बुला रहे हैं कि आओ – आगे अपनी भारतमाता को देखो।