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स्वजनहाराओं का क्रंदन और गूंगा मुख्यमंत्री

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

लालगढ़ में स्वजनहाराओं का क्रंदन और बर्बरता चरम पर पहुँच गए हैं। राज्य में स्वजनहाराओं की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। लगता है इसबार का चुनाव स्वजनहाराओं के क्रंदन के प्रतिवाद में लड़ा जाएगा। खबरों के अनुसार लालगढ़ में 7 मार्च को बड़े पैमाने पर हिंसा हुई है। इसमें अब तक 7 लोग मारे गए हैं और 18 घायल हुए हैं। यह सर्वहारा संरक्षकों की पराजय का संकेत है। लज्जा की बात है कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को लालगढ़ की 7 मार्च की हिंसा ने उद्वेलित नहीं किया है। वे 24 घंटे बाद बोले ‘ निंदा’ करता हूँ। उनकी ‘निंदा’ में वह जोर और आक्रोश नहीं था जो एक मुख्यमत्री की भाषा में होना चाहिए। लगता है उन्हें हिंसा में मारे गए लोगों की खबरें बेचैन नहीं करतीं ? यदि बैचैनी होती और स्वजनहाराओं की पीड़ा का उन्हें एहसास होता तो वे खबर सुनकर दौड़कर लालगढ़ क्यों नहीं गए ? लालगढ़ की हिंसा की खबर सुनकर ममता जा सकती है, कांग्रेस के नेता जा सकते हैं,मुख्यमंत्री क्यों नहीं गए ? मुख्यमंत्री घायलों से मिलने कोलकाता में अस्पताल भी नहीं गए ? मुख्यमंत्री अच्छी तरह जानते हैं जिन पर गोली चलाई गई और जो मारे गए हैं वे माकपा के हमदर्द हैं जबकि मारने वाले माकपा के हथियारबंद कॉमरेड हैं। कम से कम माकपा के स्वजनों के नाते तो मुख्यमंत्री को कठोर भाषा बोलना चाहिए। माकपा को यह सोचना चाहिए कि यह कैसी पार्टी तैयार हुई है जो अपने ही कॉमरेडों और हमदर्दों को गोलियों से भून रही है। यह कैसा माओवाद के खिलाफ राजनीतिक प्रतिवाद है जिसमें गांव वालों को प्रति परिवार एक बच्चा हथियारबंद प्रशिक्षण के लिए देने के लिए कहा जा रहा है। क्या यह वही माकपा है जो एक जमाने में हथियारबंद जंग का रास्ता छोड़ चुकी थी। लालगढ़ में 7 मार्च को हुआ हत्याकांड भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन की महान त्रासद और अपमानजनक घटना है। माकपा को जान लेना चाहिए सशस्त्र जंग का मार्ग उन्हें संसद की गलियों से निकालकर जंगली बीहड़ों में ले जाएगा। माकपा को पहल करके उन अपराधियों को पुलिस को सौंपना चाहिए जो इस हत्याकांड में शामिल हैं। साथ ही उन्हें पार्टी से भी निकाला जाना चाहिए। माकपा ने अपनी इमेज रक्षा के लिए पीसीपीए के एक नेता दिलीप हांसदा का बयान माकपा नियंत्रित चैनलों ’24 घंटा ’और ‘आकाश’ पर शनिवार को दिखाया जिसमें पीसीपीए ने 7 मार्च की हिंसा की जिम्मेदारी ली है। यह नकली बयान है।

मुख्यमंत्री जानते हैं इस तरह की हिंसा होने पर पीडितों को आर्थिक और मेडीकल मदद देना राज्य की संवैधानिक जिम्मेदारी है। उल्लेखनीय है नंदीग्राम की घटना के बाद राज्य सरकार को राष्ट्रीय मानवाधिकार कमीशन ने पीडितों को सहायता राशि देने का आदेश दिया था। लालगढ़ की ताजा घटना के प्रसंग में भी यही किया जाना चाहिए।

सवाल उठता है मुख्यमंत्री इतने हृदयहीन कैसे हो गए ? हिंसा की वे दो टूक ढ़ंग से निंदा क्यों नहीं कर पाते ? असल में,मन में विभाजन रखकर ,विचारधाराओं में बांटकर , तेरे-मेरे में बांटकर वाममोर्चे ने पश्चिम बंगाल में जो राजनीति की है उसका दुष्परिणाम है कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य हिंसा में मारे गए लोगों के प्रति समानभाव से अपनी सामान्य भाषा में निंदा का भावबोध भी खो चुके हैं।

असल में मुख्यमंत्री की हृदयहीनता का स्रोत है ‘इलाकादखल’ की राजनीति। ‘इलाका दखल’ की राजनीति का मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है,लोकतंत्र से कोई संबंध नहीं है, यह विशुद्ध रूप से फासिस्ट राजनीति है। लालगढ़ के जितने भी एपीसोड अभी तक टीवी पर आए हैं वे एक ही संदेश देते हैं कि लालगढ़ में इलाका दखल का पागलपन थमा नहीं है। इसके आतंक ने लालगढ़ की समूची जनता को घेर लिया है। माओवादी बर्बरता से बचाने के नाम पर जनता माकपा की बर्बरता में घिर चुकी है। लालगढ़ के समूचे मसले का संबंध न तो जमीन से है और न सुरक्षा से है और न औद्योगिकीकरण से है बल्कि इसका संबंध इलाकादखल से है। यह स्वजनों के खिलाफ अपराधियों की खुली जंग है। यह माकपा के अंदर पैदा हुए कुलीन अहंकारी मार्क्सवाद की पराजय और बर्बरता की अभिव्यक्ति हैं। माकपा के कुलीन अहंकारी जानते हैं कि मार्क्सवाद शॉर्टकट नहीं है। इसे बयानों ,आदेशों,जनतांत्रिक संरचनाओं और आम जनता के दिल को तोड़कर लागू नहीं किया जा सकता। मार्क्सवाद दखल करने का शास्त्र नहीं है। यह दिल जीतने और सामाजिक परिवर्तन का विज्ञान है। माकपा वाले जितना दखल करेंगे उतने बर्बर बनेंगे। अमानवीय बनेंगे। दखलतंत्र का लोकतंत्र ,मार्क्सवाद,उदारतावाद से कोई संबंध नहीं है। दखल करना बर्बरता है। इसे चाहे जो भी करे।

शक्ति प्रदर्शन और जनतंत्र के नाम पर ”इलाका दखल” का रास्ता अहर्निश वाचिक-कायिक हिंसा का रास्ता है। ”इलाका दखल” के लिए हिंसाचार और दादागिरी जरूरी है। इसके विरोधी और समर्थक दोनों एक ही साथ नायक -खलनायक हैं।

‘इलाका दखल’ असल में भय की राजनीति है। भय की राजनीति जनतांत्रिक नहीं होती। भय में स्वाधीनताबोध संभव नहीं है। भय को समर्पण और पलायन की जरूरत होती है। भय में रहना चाहते हैं तो समर्पण कीजिए और भय से मुक्त रहना चाहते हैं तो पलायन कीजिए अथवा भय का सामना कीजिए, अपने को गोलबंद कीजिए। लालगढ़ में आज जो एकता सतह पर दिखाई दे रही है वह भयजनित एकता है। भयजनित एकता टिकाऊ नहीं होती। गरीबों के बीच में राजनीति करने के लिए सिर्फ हंगामे से काम चलने वाला नहीं है। गरीब आरंभ में यदि हंगामे को पहचान नहीं पाया है तो इसका यह निष्कर्ष नहीं निकालना चहिए कि वह आगे भी नहीं पहचानेगा। गरीब को अपने दोस्त और दुश्मन की मध्यवर्गीय नेताओं से ज्यादा गहरी पहचान होती है।

इस्लामी शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में सलमान तासीर की हत्या

तनवीर जाफ़री

पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर,पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं प्रसिद्ध उद्योगपति सलमान तासीर को गत् 4 जनवरी को उन्हीं के एक अंगरक्षक ने बेरहमी से गोलियों से भून डाला। मुमताज़ क़ादरी नामक इस हत्यारे ने हत्या के पश्चात अपना अपराध कुबूल करते हुए सलमान तासीर की मौत पर खुशी ज़ाहिर की तथा यह कहा कि वे चूंकि पाकिस्तान में लागू ईश निंदा क़ानून के विरोधी थे इसलिए वह अल्लाह,कुरान व इस्लाम के भी दुश्मन थे। हत्यारे क़ादरी को मौक-ए-वारदात पर फौरन गिरफतार कर लिया गया। उस समय उसके चेहरे पर किसी तरह की चिंता,िफक्र या अफसोस की नहीं बल्कि चैन और ़ाुशी की लकीरें खिंची साफ नज़र आ रही थीं। सलमान तासीर की हत्या के बाद एक बार फिर यह बहस छिड़ गई है कि आिखर किस का इस्लाम सच्चा है और कौन वास्तविक इस्लाम की शिक्षाओं का अनुसरण कर रहा है। सलमान तासीर जैसे उदारवादी एवं प्रगतिशील विचारधारा रखने वाले सहिष्णुशील मुस्लिम समाज के लोग या फिर मुमताज़ कादरी जैसे तालिबानी, कट्टरपंथी, अतिवादी तथा कठ्मुल्लाओं द्वारा बताए जाने वाले इस्लाम के रास्ते पर चलने वाले मुसलमान?

पाकिस्तान में कट्टरपंथी एवं अतिवादी इस्लाम का परचम जनरल जि़या-उल-हक के समय में बुलंद हुआ था। कहा जा सकता है कि हत्या जैसे एक आरोप को बहाना बना कर जनरल जि़या ने उदारवादी इस्लाम एवं मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले ज़ुल्िफकार अली भुट्टो को फांसी के त ़ते पर चढ़ा दिया। उसी दौर से पाकिस्तान में कट्टरपंथी,अहिष्णुशील एवं आतंकी प्रवृति के तथाकथित इस्लाम की बेल परवान चढऩी शुरु हो गई। और आज के समय में उसी पाकिस्तान को जि़या-उल-हक द्वारा हमवार की गई इस्लामी राह पर चलते हुए अपनी प्रतिष्ठा को लेकर क्या कीमत चुकानी पड़ रही है यह पूरी दुनिया देख रही है। आज पाकिस्तान का उदारवादी मुसलमान मजबूर, असहाय, लाचार, सहमा हुआ तथा पाकिस्तान की पूरी दुनिया में हो रही बदनामी को देखने के लिए बेबस व मजबूर है।

अब सलमान तासीर की हत्या को ही इन आतंकवादी प्रवृति के बदनामशुदा तथाकथित मुसलमानों के इस्लामी मापदंडों से ही तोलने की कोशिश की जाए और देखा जाए कि तथाकथित इस्लामपरस्तों द्वारा की गई

तनवीर जाफरी लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं संपर्क tjafri1@gmail.कॉम tanveerjafriamb@gmail.

हत्या क्या इस्लामी नज़रिए से की जाने वाली हत्या कही जा सकती है? पहला सवाल तो यह है कि जिस नज़रिए को लेकर हत्यारे ने सलमान की हत्या की क्या इस्लामी तारीख में हज़रत मोह मद, हज़रत अली या उनके परिवार के किसी जि़ मेदार सदस्य द्वारा इन परिस्थितियों में किसी की हत्या की गई या करवाई गई? ईश निंदा करने वाले को सज़ा-ए-मौत दिए जाने का फरमान क्या पैगंबर हज़रत मोह मद या उनके परिवार के किसी सदस्य द्वारा बनाया गया है? और इन सब से बड़ा सवाल यह है कि क्या यही इस्लामी शिक्षाओं का तक़ाज़ा है कि जिस व्यक्ति की जान की सुरक्षा के लिए आपको तैनात किया गया है आप उसी की हत्या कर डालें और वह भी धर्म के नाम पर? हकीकत में इससे बड़ा अधार्मिक,अमानवीय और गैर इस्लामी काम तो कुछ हो ही नहीं सकता कि आप किसी की पीठ में छुरा घोंपे। जिस व्यक्ति की रक्षा में आपको तैनात किया गया है उसी की नौकरी तथा उसी आय से आप अपने परिवार व बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। ऐसे में नमक हरामी की इससे बड़ी मिसाल और दूसरी क्या हो सकती है कि आप अपने उसी मालिक को कत्ल कर दें जिसकी रक्षा के लिए आपको तैनात किया गया है। इतना ही नहीं बल्कि अपनी सेवा के दौरान उसकी हिफाज़त करने की आपने कसम भी खाई हुई है।

सलमान तासीर का गुनाह आखिर था क्या? यही कि वह एक ईसाई महिला आसिया बीबी नामक अबला नारी को ईश निंदा कानून के तहत दी गई आजीवन कारावास की सज़ा का विरोध कर रहे थे। जबकि कट्टरपंथी ताकतें उस महिला को फांसी पर लटकाने की पक्षधर हैं। यहां यह बात काबिलेगौर है कि जिस महिला पर ईश निंदा किए जाने का आरोप है वही महिला स्वयं अपने ऊपर लगे आरोपों को नकार रही है तथा इन आरोपों को अपने विरुद्ध एक सुनियोजित साजि़श बता रही है। ऐसे में ईश निंदा करने के आरोपों के खंडन के बावजूद भी उसे आजीवन कारावास की सज़ा सुनाया जाना न्यायसंगत हरगिज़ नहीं प्रतीत होता। हां इसे तालिबानी फरमान या राक्षसी कृत्य ज़रूर माना जा सकता है। मेरे विचार से उस महिला के पक्ष में खड़ा होना, उसकी पैरवी करना तथा उसके प्रति हमदर्दी दिखाना ज़रूर इस्लामी शिक्षाओं से मिलने वाली उस प्रेरणा का हिस्सा कहा जा सकता है जो हमें सहिष्णुता,सद्भाव प्रेम,शंति जैसी सीख देती हैं। इस्लामी इतिहास में औरत को बेपर्दा करना,उसकी गिरफ्तारी करना तथा दरबदर घुमाने व अपमानित करने जैसा काम तो केवल करबला के मैदान में यज़ीद जैसे तथाकथित मुस्लिम दुराचारी शासक द्वारा ही किया गया था। और यदि आज भी उसी सोच की पुनरावृति या अनुसरण होता है तो नि:संदेह यह भी यज़ीदी ताकतों का ही खेल कहा जाएगा न कि इस्लामी शिक्षाओं का परिणाम।

सलमान तासीर के कत्ल के बाद एक बार फिर यह पहलू भी उजागर हुआ है कि इस्लाम में वैचारिक टकराव का कारण यही है कि इस्लाम धर्म को सत्ता, शासन, राजाओं, बादशाहों व शासकों के नज़रिए से देखा जाने लगा है। जबकि वास्तविक इस्लाम व इस्लामी शिक्षाएं दुनिया को सांप्रदायिकता, कट्टरपंथ तथा सीमित सोच का संदेश नहीं बल्कि समाजिक सद्भाव व समानता का संदेश देती हैं। पैग़ंबर मोहम्मद साहब तथा उनके परिजनों द्वारा दिखाई गई राह दुनिया के मुसलमानों को त्याग, कुर्बानी, परमार्थ तथा सहयोग की सीख देती है। हज़रत मोहम्मद साहब का इस्लाम तो यह सिखाता है कि खुद भूखे रह कर दूसरों को खाना कैसे खिलाया जाता है। खुद को दु:ख व संकट में डालकर दूसरों को आराम, सुकून व संतोष पहुंचाना ही इस्लामी शिक्षाओं का प्रमुख भाग है। वफादारी, जिम्मेदारी, नमक हलाली जैसी बातें इस्लाम का आभूषण हैं। ऐसे में इस बात की कहां कोई गुंजाईश नजऱ नहीं आती कि किसी अबला नारी को धर्म के नाम पर आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी जाए तथा इस प्रकार का काला कानून बताने का साहस करने वालों को उन लोगों द्वारा मौत के घाट उतार दिया जाए जोकि स्वयं मरने वाले का अंगरक्षक हो और अपने चेहरे पर खुदा का नूर बताने वाली दाढ़ी रखी हुई हो?

वास्तव में राजाओं व शहनशाहों के तथा पैगम्बरों, इमामों व फकीरों के अपने-अपने इस्लाम परिभाषित हो रहे हैं और इसे इस्लाम धर्म का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस्लाम धर्म में व्याप्त यह दो विपरीत विचारधाराएं आज से नहीं बल्कि इस्लाम धर्म के उदय के समय से ही जारी हैं। बहुत से ऐसे लोग जो इस्लामी विचारधाराओं की आलोचना करते हैं उनका यह मानना है कि दुनिया में इस्लाम धर्म के तेज़ी से फैलने की वजह ही यही थी कि इस धर्म को मुस्लिम शासकों, राजाओं, आक्रांताओं तथा लुटेरों द्वारा तलवार के ज़ोर पर दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैलाने की कोशिश की गई। परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। इस्लाम धर्म का सबसे तेज़ी से विकास तथा इसका प्रभाव हज़रत मोहम्मद साहब की प्रेम व सद्भावपूर्ण शिक्षाओं के परिणामस्वरूप हुआ। जिसका प्रमाण यह है कि हज़रत मोह मद की पैगम्बरी के मात्र 23 वर्ष के संक्षिप्त काल में ही इस्लाम पूरे अरब महाद्वीप में पूरी तरह फैल गया। जबकि 1400 वर्ष पूर्व संचार एवं समाचार के कोई आधुनिक साधन नहीं थे। अब ठीक इसके विपरीत यदि हम शहंशाहों, राजाओं व लुटेरों के इस्लाम की बात करें तो उदाहरण के तौर पर केवल भारत में ही लगभग 900 वर्षों तक मुस्लिम राजाओं ने देश के विभिन्न भागों पर शासन किया। परंतु इन मुस्लिम शासकों की तलवारें भारत जैसे देश में समाज में वैमनस्य फैलाने के काम तो ज़रूर आईं परंतु पूरे देश को मुसलमान धर्म अपनाए जाने पर बाध्य नहीं कर सकीं। इसका कारण केवल यही है कि यह वह इस्लाम नहीं था जो हज़रत मोहम्मद एक सामाजिक व्यवस्था एवं सामाजिक प्रबंधन के रूप में फैलाना चाहते थे बल्कि यह वही इस्लाम था जो करबला में भी नजऱ आया था। भारत में भी दिखाई दिया और आज पाकिस्तान और अफगानिस्तान में भी साफ दिखाई दे रहा है। यानी सत्ताधीशों का इस्लाम, तालिबानों, कट्टरपंथियों व कठ्मुल्लाओं का इस्लाम। ऐसे में इस निषकर्ष पर आसानी से पहुंचा जा सकता है कि सलमान तासीर की हत्या करने वाला शख्स वास्तव मे कौन से इस्लाम की विचारधारा से प्रभावित था? तथा शहीद होने वाले सलमान तासीर वास्तव में खुदापरस्त मुसलमान थे या हत्यारा कादरी?

भेड़ों की दहाड़ से सहमा सिंह

हिमांशु द्विवेदी

चिड़ियाघर के पिंजरे में बंद सिंह के सामने बच्चे भी आंख दिखा लेते हैं और जंजीरों में बंधे गजराज के आगे चूहे भी कूल्हे मटका लेते हैं। हैरत तो तब होती है जब शेर अपनी मांद में महज इसलिए दुबक जाये, क्योंकि बाहर भेडें बेखौफ दहाड़ रही हैं। जंगल में यह अचरज भरा दृश्य भले ही न दिखता हो लेकिन इस देश के राजनीतिक बियावन में हम अब ऐसे ही दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रमों को देखने के आदी हो गए है।

क्या अजब हालात हैं। साठ साल से संकल्प समूचा काश्मीर हासिल करने का बना हुआ है और जमीनी असलियत यह है कि अपना घर भी दुश्मन के कब्जे में आता जा रहा है। लाहौर में तिरंगा फहराने के नारे थे और हकीकत यह है कि श्रीनगर में ही राष्ट्रध्वज फहराने में पतलून ढीली हो जा रही है। पाकिस्तान के पालतू हमारे घर में घुसकर गुर्रा रहे हैं, और हमारे पहरेदार हंटर जेब में रख उन्हें शांति के बयानों की बोटियां परोस कर अपने आप को धन्य मान रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि घर का मालिक सब कुछ जान कर भी पक्षाघात का शिकार बना टुकुर-टुकुर बस निहार रहा है। रगों में बह रहे बारह दलों के खून से जिंदा लकवाग्रस्त सरकार से इससे ज्यदा की उम्मीद भी क्या की जाये?

मामला जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस पर ध्वजारोहण का है। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के प्रमुख यासीन मलिक का खुले आम ऐलान है कि जिसमें दम हो वो यहां ‘तिरंगा’ फहराकर दिखलाये।

भारतीय जनता युवा मोर्चा का संकल्प है कि हर हाल तिरंगा फहराया जायेगा।

इस परिदृश्य में बतौर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला मिमिया रहे हैं कि ‘‘अमन बनाये रखने की खातिर तिरंगा न फहराया जाये।’’ आश्चर्य उमर के बयान पर नहीं है, क्योंकि इस तरीके की अवसरवादिता उनकी खानदानी परंपरा रही है।

आक्रोश तो अनेक बैसाखियों के सहारे घिसट रही केन्द्र सरकार के प्रति है और अफसोस है देश के अवाम् की इस खामोशी पर, जिसके अंदर राष्ट के प्रति जज्बा शायद कहीं सो सा गया है।

उमर अब्दुल्ला के इस कदर गैर जिम्मेदाराना बयान को आये अड़तालीस घंटे से भी अधिक समय होने आया है और विरोध में कहीं से कोई दहाड़ तो दूर चूं तक नहीं हुई। अपने देश के सम्मान और अस्तित्व के प्रति हम इतने बेपरवाह-बेखबर हो चले हैं। हजारों जवान अर्से से कश्मीर की सरहद पर अपनी जवानियों को इस दिन को देखने के लिए बर्बाद होने दिये कि देश के भीतर ही अपना राष्ट्रध्वज फहराने के लाले पड़ जायें। क्या इस कीमत पर ‘अमन’ या ‘शांति’ के ख्वाहिशमंद हैं हम। आज तिरंगा न फहराना ‘शांति’ की गारंटी है कल उमर कह सकते हैं कि घाटी में शांति बनाये रखने के लिए मुख्यमंत्री पद की शपथ ‘पाकिस्तानी संविधान’ के तहत लिया जाना जरूरी है। तब भी सरकार और हम ऐसे ही खामोश बने रहेंगे? अंग्रेजी हुकूमत के दौर में हमारे पूर्वजों ने तिरंगा फहराने की कीमत ‘जेल’ और ‘फांसी’ के रूप में क्या इसी दौर को देखने के लिए चुकाई थी। गुलाम भारत में ध्वजारोहण एक चुनौती होना समझ में आता है, लेकिन स्वाधीन भारत में भी इसे ‘नापाक’ करार दिया जाना तो हर देशभक्त के लिए धिक्कार है। तिरेसठ साल की आजादी में ही क्या ‘स्वाराज’

की अकाल मौत हम सुनिश्चित कर चुके हैं? किस दौर में आ गया है देश।

अराजकता, आतंक, अशांति! यह ख्वाहिश तो हमारी भी कभी नहीं रही। लेकिन, क्या शांति हम देश का सम्मान और संप्रभुता को खोकर हासिल करना चाहते हैं?

यदि यही तय कर लिया है तो सरहदों से सेनायें वापिस बुला ली जायें। लद्दाख चीन को और घाटी पाकिस्तान के चरणों में बतौर चढ़ाव चढ़ा दी जाये, क्योंकि अशांति और आतंक के बीज तो वहीं से हमारी मिट्टी में अर्से से फैंके जा रहे हैं। और सत्ता की खातिर हमारे ही अवसरवादी राजनीतिज्ञ ‘अधिक स्वायतता’ जैसे बयानों की खाद-पानी देकर उसे सींचते आ रहे हैं।

अवसाद के इस दौर में अरुंधति और अग्निवेश जैसों की खामोशी खूब याद आती है। आम आदमी की आजादी के यह स्वयंभू पैरोकार ऐसे समय पर अपने मुंह में दही जमाये कहां छिप जाते हैं। जब देश ही आजाद नहीं रहेगा तो नागरिक की आजादी कहां रहेगी। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की एक-एक इंच भूमि हमारे राष्ट्रध्वज के ससम्मान फहराने के लिए उपलब्ध रहे, यह किसी एक राजनैतिक दल या नेता का दायित्व न होकर इस देश के हर नागरिक का पावन कर्तव्य है।

बेहतर होगा कि दिल्ली की हुकूमत आदेश जारी कर उमर अब्दुल्ला को निर्देशित करें कि वह अशांति की आशंकाओं को खारिज कर हर कश्मीरी से लाल चौक पर ‘तिरंगा’ फहराने का आह्वान करें। क्योंकि घाटी में शांति की कीमत देश के अपमान के रूप में हरगिज नहीं चुकाई जा सकती।

भाजपा का आह्वान लाल चौक पर ‘भगवा’ फहराने का नहीं ‘तिरंगा’ लहराने का है। वह तिरंगा जो हमारे राष्ट्र के गौरव और समर्पण का सर्वोच्च प्रतीक है।

वक्त की नजाकत का तकाजा तो यह है कि आह्वान को एक दल के दायरे से बाहर निकालकर सर्वदलीय बनाया जाये और 26 जनवरी का मुख्य समारोह दिल्ली का ‘राजपथ’ न होकर श्रीनगर का ‘लाल चौक’ बनाया जाये। भारत को विश्व की महाशक्ति बनाने का दंभ भर रहे देश के हमारे हुकमरान कम से कम इतना तो ‘साहस’ दिखायें।

(लेखक हरिभूमि के प्रबंध संपादक हैं)

पाकिस्तान को थमाया जा रहा देश के खिलाफ प्रचार का हथियार

रीता जायसवाल

हिंदुस्तान के हिंदुओं का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि विभाजन के 63 वर्षों बाद भी उन्हें अपना हिंदू राष्ट्र नहीं मिल सका। तकरीबन सौ साल की कुर्बानी भरे संघर्षों के बाद मिला भी तो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र। विश्व के हर देश के पास अपनी भाषा, अपनी सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप उनकी पहचान है लेकिन विश्वभर में फैले करीब एक करोड़ हिंदुओं का अपना कोई मुल्क नहीं है। अब हिंदु संगठनों के साथ आतंकवादी शब्द जोड़ कर हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को समाप्त करने की गहरी साजिश रची जा रही है। भारत के इतिहास, संस्कृति, संस्कार से अनभिज्ञ कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व और उसके नैसिखिए राजनीतिक मां-बेटे की पार्टी को सबसे बफादार साबित करने में देश के अस्तित्व को ही संकट में डालने का काम कर रहे हैं।

वाराणसी प्रवास के दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता व सांसद डॉ. मुरली मनोहर जोशी की यह चिंता काबिले गौर है कि कांग्रेस के बबुआ और बचवा वोट बैंक के खेल में पाकिस्तान को भारत के खिलाफ प्रचार का हथियार थमा रहें है। उनके इस राजनीतिक खेल पर अंकुश नहीं लगा अथवा लगाया गया तो देश को एक और विभाजन का दंश झेलना पड़ सकता है। उनका यह दुःख भी जायज ही है कि देश में बहस समस्याओं के समाधान पर होनी चाहिए न कि समस्या पैदा करने की लेकिन कांग्रेस उल्टी गंगा बहा रही है। भय, भूख, भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं के समाधान तो कर नहीं पा रही है उल्टे हिंदू संगठनों को लश्करे तैयबा से ज्यादा खतरनाक बता कर देश के अस्तित्व को ही खतरे में डालने का काम कर रही है। भाजपा के वयोवृद्ध नेता की यह चिंता मौजूदा राजनीतिक परिदृष्य में राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक एकता के सामने सवालिया निशान खड़ा करता है। अधिक नहीं बीते एक दशक के राजनीतिक बदलाव की समीक्षा की जाए तो समझ में आ जाता है कि वोट बैंक की अंधी दौड़ में राजनीतिक तुष्टीकरण के कई दंश देश और समाज को झेलने पड़े हैं। इतना ही नहीं हिंदू सभ्यता-संस्कृति को समाप्त कर पश्चिम की मजहबी संस्कृति को देश पर थोपने जैसे प्रयास किये जा रहे हैं। हालात तो यहां तक आ पहुंचे हैं कि हिंदुस्तान में किसी संगठन के आगे हिंदु लिखना अब बड़े अपराध की श्रेणी में ला खड़ा करता है। हिंदुस्तान में ही मुसलमान, ईसाई, पारसी सभी को अपने धर्म-संप्रदाय के अनुरूप जीने-खाने और उसके प्रचार-प्रसार का अधिकार है लेकिन हिंदू संगठनों को इसका अधिकार नहीं है। जाहिर है हिंदुत्व कमजोर होगा तो पूरा विश्व संकट में आ जाएगा। क्योंकि विश्व समाज में अनादिकाल से सत्य-असत्य और धर्म-अर्धम के बीच संघर्ष होता रहा है और अंत में जीत सत्य व धर्म की हुई है। सच तो यह है कि हिंदू विश्व के जिस कोने में गए वहां शांति, सद्भभाव और अहिंसा का ही संदेश दिया। हिंदुत्व का आचरण व्यापक, विश्व कल्याण व शांति का संदेश देने वाला ही रहा है। कुल मिलाकर हिदू चिंतन किसी के विरोध में नहीं बल्कि सर्वे भवंतु सुखिनः की ही कामना करता है। देखा जा रहा है कि इन दिनों देश में दो धाराएं चल रही है। वोटबैंक को राष्ट्रीय राजनीति से जुड़ा एक तबका हिंदुत्व को संकुचित व सांप्रदायिक मानता हैं वहीं दूसरी धारा हिंदू समाज व हिंदुत्व के चिंतन को सशक्त बनाने में क्रियाशील है। यहां हिंदू समाज के चिंतन से अनभिज्ञ राजनितिक तबके को याद दिलाना जरूरी है कि यह वही हिंदू समाज है जिसने इस देश में मुस्लिम, पारसी, ईसाई धर्म से जुड़े लोगों को उसी तरह स्वीकार किया जिस तरह सागर विभिन्न नदियों को बिना किसी भेद के स्वीकार कर लेता है।

यह सच है कि स्वतंत्रता के बाद संविधान में भारत को धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया गया लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि देश में हिंदुत्व चिंतन पर रोक लगा दिया गया हो। बल्कि देश में किसी जाति-धर्म का भेदभाव न करते हुए उन्हें अपनी जाति-धर्म के अनुरूप जीवनयापन की आजादी देना है। मुसलमान, ईसाई जब भारत आए तो यहां पहले से न मस्जिद थी और ना ही गिरजाघर। हिंदुस्तान के हिंदुओं की विश्व बंधुत्व का ही तकाजा है कि उन्हें इबादत करने के लिए खुले दिल से जगह मिली। वहीं आज हिंदुस्तान में अपनी ही सरजमी पर राममंदिर बनाने जब हिंदू निकलता है तो उसे आतंकवादी ठहराया जा रहा है। राष्ट्रहित की सोचने वाले इंद्रेश कुमार सरीखों पर कीचड़ उछाला जा रहा है। दुःख इस बात का है कि कीचड़ फेकने का काम ऐसे लोग कर रहे हैं जिन्हें सिमी व संघ में कोई फर्क नजर नहीं आता। अंग्रेजी हुकूमत की नीति फूट करो, राज करो को आजाद हिंदुस्तान में अमल में लाकर तुष्टीकरण की जो नीति अपनी जा रही है उसकी कीमत यह देश अशिक्षा, भुखमरी, बेरोजगारी, हिंसा, दंगा, नक्सलवाद, आतंकवादी, जातिवाद के रूप में भुगत रहा है। राजनीति को समाज सेवा से हटा कर खानदानी व्यापार की शक्ल दी जा रही है। दुर्भाग्य यह भी है कि धीरे-धीरे राष्ट्रीय राजनीति ही इसी ढर्रे पर चल पड़ी है। ऐसे में देश के बारे में सोचने की फुर्सत किसी के पास है। यह एक बड़े सवाल के रूम में देश के सामने आ खड़ा हुआ है। बहस इस पर चलाने की जरूरत है।

देश की समस्या और भारतीय नेता

– पंकज

देश में नक्सलियों, माओवादियों और अलगाववादियों की समस्या से दो चार हो रहे देश के लिए पडोसी चीन और आतंकवाद के लिए स्वर्ग माने जाने वाले पाकिस्तान के बीच कथित सांठगांठ चिंता का विषय बन गयी है लेकिन हमारे देश के रहनुमाओं को इस बात की तनिक भी चिंता नहीं है कि इन खतरों से कैसे निपटा जाये। उन्हें चिंता केवल वोट बैंक की है। वह चाहे देश और मातृभूमि की कीमत पर ही क्यों न हो।

आम लोगों के समक्ष सबसे बडी समस्या जो मुंह बाये खडी है वह महंगाई है। इस पर अंकुश कैसे लगाया जाएगा इस पर नेताओं के बीच कोई चर्चा नहीं होती। इस मुददे पर आरोप प्रत्यारोप के सिवा कोई विचार नहीं किया जाता। देश की जड. को दीमक की तरह चाट कर खोखला करने वाले नक्सलवाद की समस्या से कैसे निपटा जाए इस पर कोई मंथन नहीं होता।

सीमा पर से प्रायोजित अथवा देश के भीतर पनप रहे आतंकवाद से कैसे पार पाना है इसका जिक्र तक नहीं होता है। ऐसा होता भी है तो केवल कागजों में। मीडिया में। कभी हिंदू आतंकवाद, तो कभी भगवा आतंकवाद और कभी इस्लामिक आतंकवाद कह कर सनसनी फैला दिया जाता है। आम लोग आपस में लड. मरते हैं और इन रक्तरंजित शवों के साथ नेता जी की तस्वीर छप जाती है और उनका काम पूरा हो जाता है।

देश के ये रहनुमा किसके लिए नीतियां गढते हैं यह अभी स्पष्ट नहीं हो पाया है। मेरे समझ से यह परे है कि जिस देश के चारों तरफ से हमला करने के लिए दुश्मन तैयार बैठा है उस देश के नेताओं को अपने वेतन बढोत्तरी की चिंता अधिक है। वह अपने लिए नौकरशाहों से सिर्फ एक रुपया अधिक की मांग करते हैं और अव्वल तो ये कि संसद में बिना किसी चर्चा के बेतन और भत्ते का विधेयक पारित कर दिया जाता है।

इन बेशर्म रहनुमाओं को यह जवाब देना चाहिए कि सडक पर और फलाइओवरों के नीचे जन्म लेने वाले बच्चों के लिए उनके पास कौन सी नीति है। उन बच्चों की माताओं के लिए वह क्या करते हैं। वातानुकूलित कमरों में बैठ कर मोटा वेतन लेने के लिए जिद करने वाले इन नेताओं के पास चैराहों पर रात गुजारने वाले बच्चों, महिलाओं और अन्य लोगों के लिए क्या व्यवस्था है।

पाक अधिकृत कश्मीर का गिलगित जो कभी हमारा हिस्सा था, पाक सरकार ने भारत के खिलाफ साजिश रचते हुए उसे चीन को दे दिया है। चीन वहां अपनी सेनायें तैनात कर रहा है। अपनी छावनी बना रहा है। चीन और पाक के नापाक इरादों को जान कर भी अंजान बनने की कोशिश की जा रही है। इस बारे में अमेरिका की रिपोर्ट आ रही है और सरकार चुप बैठी है।

देश के आंतरिक हिस्से में भी आतंकवाद है। नक्सलवाद, अलगाववाद, माओवाद और न जाने कौन कौन से वाद। इन सब समस्याओं से जूझते देश को बचाने के लिए इनके पास चर्चा करने का समय नहीं है लेकिन दिल्ली के पाश इलाकों में चौड़ी चौड़ी सडकों के किनारे बने सुविधा संपन्न सरकारी कोठियों में रहने वाले ये नेता अपने परिजनों को मुफत विमान यात्रा कराने पर मेहनत करते रहे हैं।

भारत संघ के सामने इतनी बडी बडी समस्यायें मुंह खोले बैठी है और यहां के नेता एक दूसरे पर आक्षेप करने से नहीं चूकते। सत्ता में आने के लिए ये किसी भी हद तक चले जाने से नहीं चूकत। कुछ लोग बाबरी मस्जिद और राम मंदिर का मुददा उठा कर सत्ता में आने की कवायद करते हैं तो कुछ लोग अनर्गल बयानबाजी कर ऐसा करते हैं।

सबसे अधिक राजनीति राम मंदिर, बाबरी मस्जिद और अयोध्या पर हो रही है। क्या इस देश में मंदिर और मस्जिद इतना जरूरी हो गया है कि उसके पीछे तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के लिए हर मुददे को भुलाया जा रहा है। इस देश में क्या अब मंदिर और मस्जिद बनाने का ही काम लोगों के पास रह गया है।

देश में पहले से ही कई समस्यायें हैं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए कभी चर्चा नहीं की गयी। बहस सिर्फ वेतन बढाने और माननीयों के संबंधियों को मुफ्त विमान यात्रा कराने पर होती रही है। बाबा रामदेव ने एक बार दिल्ली में कहा था कि कैसे चलेगा यह देश। कैसे नेता हैं यहां के जो कभी रिटायर ही नहीं होते। नौकरी करने वाले लोग एक समय में रिटायर हो जाते हैं लेकिन हमारे मुल्क के माननीय चल नहीं पाने की स्थिति में भी रिटायर नहीं होना चाहते हैं। जनसेवा का ऐसा जज्बा किसी भी मुल्क के नेताओं में नहीं जो व्हील चेयर पर बैठ कर और वैशाखी के सहारे चलते हुए भी लोगों की सेवा के लिए तत्पर रहने का दावा करते हैं।

अनाज का भंडार भरा हुआ है। देश में करोडों लोग रात को भूखे पेट सो रहे हैं लेकिन सरकार और सरकार के ओहदेदार तथा रहनुमा कभी जागने को तैयार ही नहीं हैं। उच्चतम न्यायालय ने जगाने की चेष्टा की तो सरकार के मुखिया ने कह दिया कि हमें मत जगाओ हम पहले से जागे हुए हैं।

कैसी विडंबना है कि उच्चतम न्यायालय के आदेशों के बावजूद सरकार भूखों में अन्न बांटने के लिए तैयार नहीं है। बयानबाजी में माहिर पूर्व गृह मंत्री की तरह बयानबाजी करते हुए केंद्रीय कृषि मंत्री ने भी कह दिया था कि इतने बडे देश में लोगों को मुफ्त में अनाज बांटना संभव नहीं है।

देश की समस्याओं से निजात पाने के लिए भी इन रहनुमाओं को एक न एक बार अपने स्वार्थ से उपर उठ कर एक मंच पर आना होगा और उन्हें चीन, पाकिस्तान और आंतरिक आतंकवाद, अलगाववाद, नक्सलवाद, माओवाद की समस्या पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के लिए सही दिशा मे प्रयत्न करना होगा तभी देश बचेगा।

पाकिस्तान की मंशा से सभी वाकिफ हैं और चीन की उस मंशा को कभी भुलाया नहीं जा सकता, जिसमें उसके एक रक्षा विशेषज्ञ ने कहा था, भारत से आगे बढने के लिए पडोसी मुल्क को 26 टुकडों में बांटना होगा।

हमें इन बातों को नहीं भूलना चाहिए और आने वाली पीढी को ध्यान में रख कर उनके लिए काम करना चाहिए ताकि हम उन्हें सुरक्षित भारत और बेहतर भविष्य दें सकें।

इतने लंबे समय से नेता भगवा आतंकवाद, केसरिया आतंकवाद, हिंदू आतंकवाद और इस्लामिक आतंकवाद कहते आ रहे थे। मुसलमानों के साथ हमेशा धोखा करने वाली एक पार्टी के महासचिव ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए और उनका वोट बटोरने के लिए यह कह कर हंगामा खडा करा दिया कि देश को आतकंवादी संगठन लश्कर ए तोयबा से नहीं बल्कि हिंदुओं से खतरा है।

क्या करना है इस आरोप प्रत्यारोप का। लोगों को स्वयं ही समझना होगा। ऐसे भी लोग आरोप प्रत्यारोप की बजाए केवल विकास चाहते हैं। चाहे वह किसी भी वर्ग के लोग क्यों न हों। सभी शांति पूर्वक रहना चाहते हैं। हिंसा कोई नहीं चाहता।

आखिर में एक बात कहना चाहूंगा कि एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने एक बार कहा था कि भारतीय राजनीति में राजनेता कोढ के समान है। इस पर बडी प्रतिक्रिया हुई थी। आज यह बात चरितार्थ हो रही है।

मूर्ख चिंतन

संतोष कुमार

अरे भाई चौंकिए मत, मूर्ख भी चिंतन करते है इसके कुछ उदाहरण आपको आगे मिल जायेंगें। पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं एक मूर्ख हूँ, इसका प्राथमिक प्रमाण यह है कि भाषा, शब्द, व्याकरण और विषय का समुचित ज्ञान ना होने के बावजूद मैंने लिखने की कोशिश की, और शत प्रतिशत आशान्वित भी हूँ कि संजीव जी मेरे मूर्खत्वपूर्ण लेख को प्रवक्ता में स्थान देंगे।

मैं हमेशा अपने काम, गृहस्थी, परिवार के भारी बोझ तले दबा रहने के बावजूद मौका मिलते ही थोडा चिंतन कर लेता हूँ। आप मेरी तुलना मेरे दूर के भाई गदर्भ-राज से कर सकते हैं, जिनको बोझ उठाते और चिंतन करते हुए सबने देखा होगा।

मेरे ताजा चिंतन की शुरुआत इस बात से होती है कि देश में कितने प्रधानमंत्री हैं। मुख्य प्रधानमंत्री, सुपर प्रधानमंत्री, कार्यकारी प्रधानमंत्री, और प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री आदि के होते हुए भी इस देश की जनता ऐसी पीड़ा में डूबी है कि उसे अब यह भी महसूस होना बंद हो गया है कि दर्द कहाँ ज्यादा है और कहाँ कम। कभी लगता है कि मंहगाई की पीड़ा असह्य है, कभी लगता है कि भ्रष्टाचार का नासूर कैंसर बन जायेगा, कभी आतंकवाद / अलगाववाद का नश्तर आत्मा को छलनी कर देता है तो कभी अपने ही भविष्य की गहरी चिंता से सरदर्द होने लगता है।

चिंतन करते-करते मैं मूरख इस नतीजे पर पहुंचा कि सत्ता शिखर पर बैठे लोगों की सबसे बड़ी चिंता शिखर पर बने रहने की ही होनी चाहिए, क्योंकि यदि एक बार जनता सचेत हो गयी तो बेचारों का बंटाधार हो जायेगा। इसीलिए इन्होंने दिग्गी राजा जैसों को जनता का ध्यान वास्तविक पीडाओं से हटाने के लिए नियुक्त कर रखा है। जब भी देश की सरकार पर कोई गंभीर प्रश्न उठता है तभी ये साहब मीडिया के सामने अपनी ढपली बजाना शुरू कर देते हैं। इनकी टाइमिंग इतनी गजब की होती है कि मुझ जैसे मूर्ख को भी इनका मतलब समझ में आ जाता है।

एक दिन सुबह-सुबह मैं भ्रष्टाचार पर चिंतन करने लगा तो ऐसा डूबा कि शाम को बीबी ने सिर पर दो बाल्टी पानी डाल कर मेरी चेतना लौटाई। मैं तो यह सोच कर पागल होने वाला था कि कांग्रेसी भाई लोग किस मुह से सोनिया – मनमोहन की ईमानदारी की कसमे खा रहे हैं, मेरे मूर्ख दिमाग की सोच तो यह कहती है कि इनकी छत्रछाया और आशीर्वाद से ही हर तरफ लूट का नंगा नाच हुआ है और अब सबको बचाने की पूरी तैयारी है। कुछ बिन्दुओं पर विचार करके यह बात और भी स्पष्ट हो जाएगी —–

* इन लोगों ने गड़बड़ी की बात तभी स्वीकार जब इनके पास स्वीकार करने के सिवा कोई और रास्ता नहीं बचा , तब तक भाई लोगों ने सारे सुबूतों को ठिकाने लगाने का काम पूरी कुशलता , कर्मठता और ईमानदारी से पूरा कर लिया होगा।

* सभी घोटालों की जाँच सीबीआई से ही कराना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि कांग्रेस के पास छुपाने के लिए बहुत कुछ है, क्योंकि सभी जानते हैं कि सरकार ने सीबीआई को पालतू, रीढविहीन संस्था बना दिया है ,और वह सरकार के इच्छानुसार ही काम करेगी। बेफोर्स , दिल्ली दंगा ,मायावती-मुलायम जैसे मामलों में सीबीआई अपनी स्वामिभक्ति सिद्ध कर चुकी है। मुझ जैसे मूर्ख को यह बात अभी तक याद है कि क्वात्रोची के बैंक खातों को खुलवाने में सीबीआई ने कितनी मेहनत की थी।

इसके अलावा न्यायपालिका भी कई बार सीबीआई की मंशा पर सवाल उठा चुकी है।

* एक आरोपी व्यक्ति को हठपूर्वक CVC की महत्त्वपूर्ण पद पर बिठाने से मुझ जैसे मूर्ख को भी सरकार की मंशा स्पष्ट रूप से दिख जाती है।

एक और विशालकाय मंत्रालय के भारी-भरकम मंत्री का नाम आते ही मेरा चिंतन भाग जाता है और चिंता घेर लेती है। पता नहीं ये कब और क्यों अपना मुंह खोल दें और तुरंत हमारी जेब में सेंध लग जाती है। इनके ताजा कथनानुसार प्याज का उत्पादन कम हुआ है, लेकिन साहब से कोई पूछे की आपको कब पता चला? निश्चित ही बेचारे को पहले नहीं पता चला होगा नहीं तो कुछ कदम जरूर उठाते, कम से कम निर्यात तो रोक ही लेते। अब अगर मुझ मूर्ख को इसमें भी घोटाला नजर आता है तो इससे मेरा मूर्खत्व प्रमाणित होता है। चीनी, दाल, आटा, सब्जी, प्याज, लहसुन ,के बाद पता नहीं किसकी बारी है, लेकिन मैं इस बात से खुश हूँ कि नमक इनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है, कम से कम हम नमक-रोटी खाकर जिन्दा तो रह ही सकते हैं।

कभी- कभी मैं कुछ और नेताओं की विद्वता पर भी चिंतन कर लेता हूँ, इनकी विद्वता का अकाट्य प्रमाण यह है कि ये कभी भी गलत नहीं हो सकते, चाहे वो सरेआम देश को लूटें / लुटवाएं, जनता को लड़वायें,जमाखोरों मुनाफाखोरों रिश्वतखोरों की मदद करें, विदेशियों को देश की आन्तरिक सूचनाएं दें आदि आदि। आखिर नेतागिरी का सवाल जो है यदि एक बार गलती मान ली तो पता नहीं अपने साथ साथ कितने सगे-सम्बन्धियों, आकाओं,चमचों का कितना नुकसान हो जायेगा। कुर्सी प्राप्त करने के लिए बेचारों को पता नहीं कितने पूंजी पतिओं, पत्रकारों ,लाबिस्टों के दर पर माथा टेकना पड़ता होगा, इसका अंदाजा लगाना मुझ मूर्ख के बस की बात नहीं है।

मेरे मूर्ख दिमाग को लगता है कि गाँधी परिवार को सरदार मनमोहन सिंह के रूप में एक और बलि का बकरा मिल गया है जिन्हें जरूरत पड़ने पर संजय गाँधी और नरसिंघाराव के क्लब में शामिल कर उन्हें सभी गलतिओं का जिम्मेदार बता दिया जायेगा, और युवराज की विदेशी शिक्षा प्राप्त सेना देश को नए सपने दिखाने लगेगी।

कई मंत्रालयों पर चिंतन करना तो मुझ मूर्ख को भी मूर्खता लगती है। पर्यावरण मंत्री हर मामले पर कम से कम दो – तीन राय जरूर रखते हैं, पता नहीं कब किसका इस्तेमाल करना पड़ जाय। रेल कौन, कहाँ से और कैसे चला रहा है? कुछ पता नहीं।एक मंत्री जी को मिस्टर १५ परसेंट के रूप में ख्याति मिलनी शुरू हो गयी है, आशा है और तरक्की करेंगे। एक बडबोले वकील मंत्री जिनको अभी-अभी काजल की कोठरी का जिम्मा भी दिया गया है , वो तो सारे हिंदुस्तान को ही मूर्ख समझने की गलत फहमी पाले हुए है, और ये समझाने में लगे हैं कि घोटाला तो हुआ ही नहीं है। पहली बार मुझे अपने मूर्खत्व से ज्यादा उनकी विद्वता पर शर्म आयी।

कभी-कभी विपक्षी दलों पर भी चिंतन कर लेता हूँ लेकिन उनका उल्लेख करने से लेख ज्यादा लम्बा हो जायेगा, संक्षेप में कहें तो उजाला कहीं भी नहीं दिखता, लेकिन मैं अपने संस्कारों, मूल्यों, दर्शन, विश्वास, आस्था और निजी मूर्खत्व के आधार पर यह जरूर कहूँगा कि इस काली रात के बाद भी सुबह जरूर होगी।

सियासत और सेक्स की कॉकटेल-कथा

देश के तीन माननीय विधायक आरोपों के घेरे में हैं। एक यौन शोषण की तोहमत ङोलते हुए जान से हाथ धो बैठे, दूसरे बता रहे हैं-मैं नपुंसक हूं, रेप कैसे करूंगा और तीसरे पर लगा है किडनैपिंग का चार्ज। दुहाई है-दुहाई है..

– चण्डीदत्त शुक्ल

ये महामहिम हैं, माननीय विधायक जी हैं, इनके दम से ही लोकतंत्र ज़िंदा है। पचास बरस से भी ज्यादा बूढ़ी हो चुकी मुल्क की आज़ादी ने हमें यही बात सिखाई है, लेकिन हाय रे राम, दुहाई है-दुहाई है..लोकतंत्र के रखवालों पर यह कैसी शामत आई है?दो दिन पहले बिहार में भाजपा विधायक राज किशोरी केसरी को एक महिला टीचर ने चाकू मारकर हलाल कर डाला, तो बुधवार को यूपी के एक एमएलए दुहाई देते नज़र आए। प्रेसवालों से कहने लगे—साहब, मैं तो नपुंसक हूं। भला रेप कैसे कर सकता हूं? बात यहीं खत्म नहीं होती। लोकतंत्र के रखवाले तमाम हैं, उनके किस्से भी हज़ार हैं। ऐसे-कैसे ख़त्म हो जाएं। बुधवार को ही सुल्तानपुर के एमएलए अनूप संडा पर आरोप लगा है कि उन्होंने अपनी प्रेमिका की बेटी को किडनैप करा लिया है..। वाह रे एमएलए साहब, आपको तो पब्लिक ने चुना था इसलिए, ताकि आप सड़कें बनवाएं, पुल बनवाएं, इन्क्रोचमेंट हटवाएं, बिजली-पानी मुहैया कराएं और यह तो आपका क्या हाल हो रहा है? आरोपों की सफ़ाई देते-देते हलकान हो रहे हैं..ये क्या हो रहा है आपके साथ?चलिए, सुन लेते हैं सियासत और सेक्स के कॉकटेल की ताज़ातरीन टॉप थ्री स्टोरीज़—पहले बात दिवंगत भाजपा विधायक राज किशोरी केसरी की। दो दिन पहले पूर्णिया के एक स्कूल की प्रिंसिपल रुपम पाठक ने चाकू मारकर उनकी जान ले ली थी। उसका आरोप था कि विधायक जी यौन शोषण कर रहे थे और शिकायत करने पर पुलिस कोई सुनवाई नहीं कर रही है। अब लालूप्रसाद जैसे बड़े नेता इस हत्याकांड की उच्चस्तरीय जांच की मांग कर रहे हैं। पूर्णिया के पुलिस उप महानिरीक्षक अमित कुमार कह रहे हैं कि आरोपी का कैरेक्टर संदिग्ध था। ..और विधायक जी तो अब रहे नहीं, लेकिन उनके चरित्र पर जाते-जाते जितने धब्बे लग चुके हैं, उनकी सफाई कौन देगा? बिहार के भाजपा विधायक के बाद अब यूपी में बांदा के बीएसपी विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी की बात। उन पर एक नाबालिग लड़की को बंधक बनाकर रेप करने का आरोप लगा है। फिलहाल, द्विवेदी जी कह रहे हैं कि वो नपुंसक हैं। उनका दावा है—मेरे ऊपर दुष्कर्म का आरोप आधारहीन है। मैं बलात्कार करने में समर्थ नहीं हूं। उन्होंने तो ये भी कह डाला है कि जो मैं ये बात साबित करने के लिए किसी भी मेडिकल स्पेशलिस्ट से जांच कराने के लिए तैयार हूं। और चलते-चलते सुन लीजिए सुल्तानपुर (यूपी) के सदर विधायक अनूप संडा जी से। संडा पर उन्हीं के शहर की एक महिला समरीन ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था और विधायक ने उस पर ब्लैकमेलिंग का। दोनों के खिलाफ मुकदम चल रहे हैं। समरीन जेल भी काट चुकी है। चंद रोज पहले उसके ब्यूटी पार्लर पर कुछ लोगों ने हमला किया था। इससे पहले समरीन ने भी विधायक के पेट्रोल पंप पर तोड़-फोड़ की थी और अब बुधवार को समरीन की ओर से आरोप लगाया गया है कि उसकी मासूम बेटी को विधायक के इशारे पर अगवा कर लिया गया है। इन सब विधायकों (केसरी तो रहे नहीं, सो उनके समर्थकों) का कहना है कि आरोप राजनीति से प्रेरित हैं। सच क्या है, न्यायपालिका तय करेगी। हम तो यही कहेंगे—सियासत और सेक्स के इस कॉकटेल में कुछ तो काला है और वो इतना काला है कि लोकतंत्र की अस्मिता पर, उसके चेहरे पर शर्म की कालिख पुतती ही जा रही है।

आंकड़ों में उलझा 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला

सतीश सिंह

पेशे से वकील और निवर्तमान दूरसंचार मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने जिस तरह से नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) के रिर्पोट को सिरे से खारिज किया है, वह निश्चित रुप से पूरे मामले पर लीपा-पोती करने के समान है। श्री सिब्बल ने आंकडों की बाजीगरी में अपने अदालती अनुभव का इस्तेमाल करते हुए कैग के रिर्पोट में बताए गए 1.76 लाख करोड़ के सरकारी खजाने को चूना लगाने वाले दावे को खारिज करते हुए कहा कि सरकारी खजाने को एक पैसे का नुकसान नहीं हुआ है।

ज्ञातव्य है कि कैग ने अपनी पड़ताल में मूल रुप से 3 जी स्पेक्ट्रम के नीलामी के दौरान जिन दरों पर दूरसंचार कंपनियों को लाइसेंस दिए गए थे, उनको आधार मानते हुए सरकारी खजाने को 1.76 लाख करोड़ का चूना लगाने की बात कही थी।

1.76 लाख करोड में से 1,02,490 करोड़ का नुकसान 2008 में हुआ था। जब पूर्व दूरसंचार मंत्री श्री ए राजा ने नियमों की अनदेखी करते हुए 122 नई दूरसंचार कंपनियों को 2001 की दरों पर 2 जी स्पेक्ट्रम के लिए लाइसेंस दिया था।

2008 में ही आरकॉम और टाटा को 2001 की दर पर डुअल टेक लाइसेंस दिया गया, जिससे पुनष्च: सरकार को 37,154 करोड़ का नुकसान हुआ।

2008 में ही पुन: सारे नियमों को ताख पर रखते हुए जीएसएम ऑपरेटरों को 6.2 मेगाहट्र्ज से अधिक स्पेक्ट्रम मुहैया करवाने के कारण सरकार को 36,993 करोड़ का घाटा उठाना पड़ा।

श्री सिब्बल के अनुसार 2 जी एयरवेव की तुलना 3 जी एयरवेव से करना मुनासिब नहीं है। 3 जी एयरवेव ज्यादा सक्षम और गुणवता से युक्त है। लिहाजा दोनों के बीच तुलना करके सरकार को नुकसान होने की बात कहना बेमानी है।

इस मुद्दे पर श्री सिब्बल की आपत्ति इसलिए भी है, क्योंकि कैग 6.2 मेगाहट्र्ज की दर से एयरवेव नई दूरसंचार कंपनियों को बेचने की बात कह रहा है, जबकि हकीकत में नई दूरसंचार कंपनियो को 4.4 मेगाहट्र्ज की दर से एयरवेव बेचा गया।

अगर 4.4 मेगाहर्ट्ज की दर से एयरवेव बेचने की गणना की जाती है तो कैग द्वारा बताया जा रहा घाटा 1,02,490 करोड़ से घटकर 72000 करोड़ हो जाता है।

पुनष्च: आरकॉम और टाटा को डुअल टेक लाइसेंस देने के क्रम में भी 4.5 मेगाहर्ट्ज की दर से एयरवेव बेचा गया, लेकिन कैग ने दर की गणना 6.2 मेगाहर्ट्ज के हिसाब से किया। 4.5 मेगाहट्र्ज की दर से एयरवेव की गणना करने पर सरकार को हुआ नुकसान घटकर 37,154 करोड़ से 26,367 करोड़ हो जाता है।

श्री सिब्बल यह भी कहते हैं कि जीएसएम दूरसंचार कंपनियों को 6.2 मेगाहट्र्ज से अधिक स्पेक्ट्रम मुहैया करवाने के कारण सरकार को हुए 36,993 करोड़ के घाटे को 1.76 लाख करोड के नुकसान के साथ जोड़कर नहीं देखना चाहिए, क्योंकि इस आवंटन में किसी तरह की अनियमतता नहीं बरती गई है।

इसी संदर्भ के आलोक में श्री सिब्बल बताते हैं कि दूरसंचार मंत्रालय के नियमों के अनुसार मोबाईल के लिए 2 जी स्पेक्ट्रम का एयरवेव देने के साथ 4.4 मेगाहर्ट्ज का स्टार्ट-अप एयरवेव मुफ्त देने का प्रावधान है, इसलिए कैग के द्वारा 17,755 करोड़ से सरकारी खजाने को नुकसान होने की बात कहना गलत है।

उपर्युक्त आंकड़ों और जिरह के दम पर श्री सिब्बल आज की तारीख में ठसक से कह रहे हैं कि सरकार को 2 जी स्पेक्ट्रम की नीलामी से किसी तरह का नुकसान नहीं हुआ है।

इसमें दो मत नहीं है कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जाँच कैग के द्वारा 2010 में की गई, पर श्री सिब्बल का सरकारी एजेंसी के बारे में यह कहना कि उसने अपनी जाँच में 2008 में बँटे दूरसंचार कंपनियों के बीच 2 जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस के लिए दरों की गणना 2010 की प्राइसिंग के आधार पर की है, पूर्ण से हास्याप्रद है।

श्री सिब्बल का कैग पर यह आरोप भी लगाना गलत है कि कैग ने ज्यादा मेगाहट्र्ज के दर से गणना करके सरकारी खजाने को लूटने का ए राजा को आरोपी माना है।

पर यहाँ पर यह सवाल उठता कि क्या कैग की जानकारी और तकनीक को दोयम दर्जा का माना जाना चाहिए? श्री सिब्बल का यह मानना भी वेबुनियाद है कि कैग ने अपनी पड़ताल के क्रम में 2 जी स्पेक्ट्रम की तुलना 3 जी स्पेक्ट्रम से करके सरकार को नुकसान होने की बात को सही माना है।

श्री सिब्बल सिर्फ इतना मानने के लिए तैयार हैं कि 2008 में ए राजा ने टेलीकॉम लाइसेंस और स्पेक्ट्रम आवंटित करने के दौरान दूरसंचार मंत्रालय के नियमों की अनदेखी की। श्री ए राजा की वजह से सरकार को हुए किसी भी तरह के नुकसान की बात को स्वीकार करने के मूड में श्री सिब्बल नहीं है।

उल्लेखनीय है कि श्री ए राजा को पाक-साफ बताने के साथ-साथ श्री सिब्बल एनडीए पर यह आरोप भी लगाने से नहीं चूक रहे हैं कि एनडीए शासन में दूरसंचार मंत्रालय के नियमों की अनदेखी करने और एयरवेव के आवंटन में भारी अनियमतता बरतने के कारण देश के खजाने को 1.5 लाख करोड़ का नुकसान हुआ था।

गौरतलब है कि हाल ही में श्री सिब्बल ने स्वीकार किया था कि पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा द्वारा 122 दूरसंचार कंपनियों को आवंटित लाइसेंस में से 85 दूरसंचार कंपनियों को फर्जी दस्तावेजों के आधार पर लाइसेंस बाँटे गए थे।

यूनिनॉर, वीडियोकॉन, लूप टेलीकॉम, एस टेल, एतिसलत और अलायंज जैसे नामी-गिरामी कंपनियों ने भी गलत तरीके से लाइसेंस हासिल किया था। लाइसेंस हासिल करने के लिए जमकर फर्जीवाड़ा किया गया था। कई लाइसेंसधारियों के पास पहले के तारीखों के डिमांड ड्राफ्ट थे, जिसके सहारे वे पिछले दरवाजे से लाइसेंस प्राप्त कर सके।

लाइसेंसधारकों में से एक कंपनी स्वान, रिलायंस टेलीकॉम की फ्रंट कंपनी थी। उल्लेखनीय है कि स्वान पर 2 जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस को हासिल करने के लिए आवेदन देने के दौरान कंपनी के मालिकाना हक से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी छुपाने का आरोप है।

2 जी स्पेक्ट्रम की स्टोरी में रतन टाटा और सुनील मित्ताल की भूमिका देश के कॉरपोरेट घरानों का सरकार पर हमेशा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव रहने के तथ्य को उजागर करता है। इससे यह साबित होता है कि कहने के लिए तो हमारा देश लोकतांत्रिक है, लेकिन सच्चाई में हमारे देश में कॉरपोरेट घरानों का राज चल रहा है, वे जब चाहते हैं अपने हिसाब से देश के नियम-कानून को तोड़-मरोड़ कर अपना काम करवा लेते हैं।

2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बरक्स में जेपीसी की मांग को लेकर जिस तरह से संसद को भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने हालिया दिनों में चलने नहीं दिया है, उससे यूपीए सरकार और खास करके कांग्रेस पार्टी दबाव में थी। इस दबाव को कम करने के साथ-साथ आम जनता व विपक्ष का ध्यान घोटाले से हटाने की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने श्री सिब्बल को सौंपी थी।

अब श्री सिब्बल आज्ञाकारी सिपहसालार की तरह कैग की पड़ताल को आधारहीन बता रहे हैं। उनका कहना है कैग ने 1.76 लाख करोड़ का चूना देश के खजाने को लगाने की बात कह करके पूरे देश में सनसनी फैला दी। जबकि कैग द्वारा प्रस्तुत आंकड़ा पूर्ण से गलत और झूठ का पुलिंदा है। कैग ने जिन तरीकों का इस्तेमाल करके आंकड़ें निकाले हैं वह खामियों से भरा हुआ है। वे कैग द्वारा अपनाए गए तकनीकों की पुरजोर निंदा करते हैं।

2 जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में घोटाला हुआ भी था कि नहीं, इस मुद्दे पर ही अब श्री सिब्बल ने प्रष्नचिन्ह लगा दिया है। आंकड़ों की बाजीगिरी से श्री सिब्बल ने कैग की रिर्पोट को आधारहीन व गलत साबित करने का प्रयास किया है।

सच जो भी हो, पर श्री सिब्बल के इस ताजा बयान से देश की साख को जरुर गहरा धक्का लगा है। साथ ही इस पूरे मामले से देश की जनता भी आहत है, क्योंकि सरकार यह पूरा खेल देश के नागरिकों के खून-पसीने की कमाई से खेल रही है। इस खेल में यूपीए और एनडीए दोनों दोनों के दामन दागदार हैं।

असफल रैनेसां का प्रतीक हैं गालियां

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हिन्दी में रैनेसां का शोर मचाने वाले नहीं जानते कि हिन्दी में रैनेसां असफल क्यों हुआ ? रैनेसां सफल रहता तो हिन्दी समाज गालियों का धडल्ले से प्रयोग नहीं करता। बांग्ला ,मराठी ,तमिल,गुजराती में रैनेसां हुआ था और वहां जीवन और साहित्य से गालियां गायब हो गयीं। लेकिन हिन्दी में गालियां फलफूल रही हैं और यह हिन्दी जाति के पतन की निशानी है। गालियां असभ्यता की सूचक हैं। जिस साहित्य और समाज में अभिव्यक्ति का औजार गाली हों वह समाज पिछडा माना जाएगा। गालियां इस बात का संकेत हैं कि हमारे समाज में सभ्यता का विकास धीमी गति से हो रहा है। यथार्थ की भाषिक चमक यदि गाली के रास्ते होकर आती है तो यह सांस्कृतिक पतन की सूचना है। गालियां हमारे आदिम जीवन की निशानी हैं।

हिन्दी में अनेक लेखक हैं जो साहित्य में गालियों का प्रयोग करते रहे हैं। अकविता से लेकर काशीनाथ सिंह तक साहित्य में गालियां सम्मान पा रही हैं। गाली अभिव्यक्ति नहीं है। यथार्थ कभी गालियों के जरिए व्यक्त नहीं होता। अधिकांश बड़े साहित्यकारों ने यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए कभी गालियों का प्रयोग नहीं किया। गालियां हमारे जीवन में असभ्यता की निशानी हैं। गालियों का किसी भी तर्क के आधार पर महिमामंडन करना गलत है। हिन्दी में कई लेखक हैं जो अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए गालियों का प्रयोग करना जरूरी समझते हैं। युवाओं में गालियों का सहज प्रयोग मिलता है। इन दिनों इलैक्ट्रोनिक मीडिया में भी गालियों का प्रयोग बढ़ गया है।खासकर फिल्मों, रियलिटी टीवी शो और टॉक शो में इसकी झलक मिलती है। हिन्दी में गालियों का बचे रहना इस बात का संकेत है कि हिन्दी अभी आदिम अभिव्यक्ति के रूपों से मुक्त होकर आधुनिक सभ्य भाषा नहीं बन पायी है। समाज में एक बड़ा हिस्सा है जो धडल्ले से गालियां देता है।

सवाल उठता है हिन्दी समाज इतना गाली क्यों देता है ? क्या हम गालियों से मुक्त समाज नहीं बना सकते ? वे कौन सी सांस्कृतिक बाधाएं हैं जो हमें गालियों से मुक्त नहीं होने देतीं ? प्रेमचंद ने लिखा है ‘हर जाति का बोलचाल का ढ़ंग उसकी नैतिक स्थिति का पता देता है। अगर इस दृष्टि से देखा जाए तो हिन्दुस्तान सारी दुनिया की तमाम जातियों में सबसे नीचे नजर आएगा। बोलचाल की गंभीरता और सुथरापन जाति की महानता और उसकी नैतिक पवित्रता को व्यक्त करती है और बदजवानी नैतिक अंधकार और जाति के पतन का पक्का प्रमाण है। जितने गन्दे शब्द हमारी जबान से निकलते हैं शायद ही किसी सभ्य जाति की ज़बान से निकलते हों।’

आम तौर पर हिन्दी में पढ़े लिखे लोगों से लेकर अनपढ़ लोगों तक गालियों का खूब चलन है। कुछ के लिए आदत है। कुछ के लिए धाक जमाने,रौब गांठने का औजार हैं गालियां। पुलिस वाले तो सरेआम गालियों में ही संप्रेषित करते हैं। गालियों के इस असभ्य संसार को हम तरह-तरह से वैध बनाने की कोशिश भी करते हैं। कायदे से हमें अश्लील भाषा के खिलाफ दृढ़ और अनवरत संघर्ष आरंभ करना चाहिए। यह काम सौंदर्यबोध के साथ -साथ शैक्षिक दृष्टि से भी जरूरी है। इससे हम भावी पीढ़ी को बचा सकेंगे। गालियों के प्रयोग के खिलाफ हमें खुली निर्मम बहस चलानी चाहिए। बगैर बहस के गालियां पीछा छोड़ने वाली नहीं हैं। बहस से ही दिमागी परतों की धुलाई होती है।

गालियां मिथ्या साहस की अभिव्यक्ति हैं। गालियां एक सस्ती,घृणित और नीच अश्लीलता है। गालियां महज यांत्रिक आघात नहीं करतीं। इनसे न तो सेक्सी बिम्ब उभरते हैं और न कामुक अनुभूतियां ही पैदा होती हैं। सेक्सी गालियां हमारी अरूचिकर और अस्वास्थ्यकर संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति हैं। अश्लील गालियां और अश्लील मजाक के जरिए परपीड़न होता है। गंदे किस्से,चुटकुले,चालू अश्लील शब्द मानवीय सौंदर्य की गरिमा को कम करते हैं। मानव इतिहास आदिम शरीरक्रियात्मक मानकों को कूड़े के ढ़ेर पर फेंक चुका है। लेकिन अभी भी हमारे अनेक मित्र गालियों की हिमायत कर रहे हैं। इस प्रसंग में प्रसिद्ध रूसी शिक्षाशास्त्री अन्तोन माकारेंको याद आ रहे हैं उन्होंने लिखा है- ‘पुराने जमाने में शायद गाली-गलौज की गंदी भाषा कमजोर शब्दावली तथा मूक-निरक्षरता के लिए सहायक की तरह अपने ही ढ़ंग से काम आती थी। स्टैंडर्ड गाली की सहायता से आदिम- भावों को अभिव्यक्त किया जा सकता था, जैसे क्रोध,प्रसन्नता, आश्चर्य, निंदा और ईर्ष्या । लेकिन अधिकांशतः यह किसी भी भावना को व्यक्त नहीं करती थी, बल्कि असम्बद्ध ,मुहावरों और विचारों को जोड़ने के साधन का काम देती थी।’

हमें इस सवाल पर भी सोचना चाहिए कि हिन्दी में गालियां कहां से आ रही हैं। गालियों के मामले में हम लोकल और ग्लोबल एक ही साथ होते जा रहे हैं। जाने-अनजाने असभ्यता का विनिमय कर रहे हैं। कुछ लोग भाषा को उग्र या आक्रामक बनाने के लिए गालियों का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि हमारी जनता उग्र और आक्रामक भाषा पसंद नहीं करती। वह इसे असभ्यता मानती है। गालियों से अभिव्यक्ति में पैनापन नहीं आता बल्कि असभ्यता का संचार होता है। तीक्ष्णता और अभद्रता में हमें अंतर करना चाहिए। हमें बहस-मुबाहिसों में असभ्यता से बचना चाहिए। बहस मुबाहिसे में यदि असभ्यता आ जाती है तो फिर गालियां स्वतः ही चली आती हैं। हिन्दी में स्थिति इतनी बदतर है कि एक नामी साहित्यिक पत्रिका के संपादक आए दिन अपने संपादकीय तेवरों को आक्रामक बनाने के लिए असभ्य भाषा का प्रयोग करते हैं। वे भाषा में तीक्ष्णता पैदा करने के लिए ऐसा करते हैं लेकिन यह मूलतः असभ्यता है। हमें अभिव्यक्ति के लिए तीक्ष्णता का इस्तेमाल करना चाहिए ,असभ्य भाषिक प्रयोगों का नहीं। इन जनाब के संपादकीय अनेक मामलों में अधकचरी विद्वता और अक्षम तर्कपूर्ण शैली से भरे होते हैं।

हमें विचारों की तीक्ष्णता और साहित्यिक अभिव्यंजना की अभद्रता के बीच अंतर करना चाहिए। लेखन में गाली का प्रयोग एक ही साथ गलत और सही दिखता है। एक जमाने में महान रूसी लेखक पुश्किन ने तीक्ष्णता और अभद्रता के अंतर का विवेचन करते हुए लिखा था, ‘ गाली कभी-कभी ,निश्चय ही,बिल्कुल अनुचित है। जैसे कि आपको नहीं लिखना चाहिएः ‘‘यह हांफता हुआ बूढ़ा,चश्मा लगाए हुए एक बकरा है,एक कमीना झूठा है,बदकार है,बदजात है।’’- ये व्यक्ति को दी गयी गालियां हैं। किन्तु अगर आप चाहें ,तो लिख और छाप सकते हैं कि ‘‘यह साहित्यिक पुराना उपासक(अपने लेखों में) एक निरर्थक बकवासी है,हमेशा दुर्बल,हमेशा उकताने वाला,कष्टकर और बिल्कुल अहमक़ तक है।’’क्योंकि यहां पर कोई व्यक्ति नहीं एक लेखक है।’

इसी प्रसंग में अन्तोन माकारेंको ने लिखा है, ‘हमारे देश में गाली-गलौज के शब्दों का ‘‘तकनीकी’’ महत्व खत्म हो गया है, लेकिन भाषा में वे अभी भी मौजूद हैं। अब वे मिथ्या साहस को, ‘‘लौह चरित्र’’ को,निर्णायकत्व,सरलता ,सुरूचि के प्रति तिरस्कार को अभिव्यक्त करते हैं। अब वे एक किस्म के ऐसे नखरे हैं,जिनका मकसद सुनने को खुश करना ,उनको जीवन के प्रति सुनानेवाले के साहसिक रवैय्ये और पूर्वाग्रहहीनता को दर्शाना है।’

साहित्य में गाली के पक्षधरों का मानना है पात्र यदि गाली देते हैं तो हमारे लिए उससे बचना संभव नहीं है। इस प्रसंग में यही कहना है कि गालियां साहित्य नहीं हैं। गालियां जीवन का यथार्थ भी नहीं हैं। गालियां महिलाओं का अपमान हैं और बच्चों के लिए हानिकारक हैं। गालियों के प्रति हमें लापरवाह नहीं होना चाहिए। गालियों को साहित्य में रखकर हम उन्हें दीर्घजीवी बना रहे हैं। उन्हें मूल्यबोध प्रदान कर रहे हैं। विरासत के रूप में गालियां हमारे समाज और संस्कृति की गंभीर क्षति कर रही हैं। प्रेमचंद ने लिखा है ‘ गाली हमारा जातीय स्वभाव हो गयी है।’ ‘गालियों का असर हमारे आचरण पर बहुत खराब पड़ता है। गालियाँ हमारी बुरी भावनाओं को उभारती है और स्वाभिमान व लाज-संकोच की चेतना को दिलों से कम करती हैं जो दूसरी क़ौमों की निगाहों में ऊँचा उठाने के लिए जरूरी है।’

जब कोई व्यक्ति गालियों का इस्तेमाल करता है तो पढ़ने या सुनने वाला किसी सापेक्ष शब्द को नहीं सुनता बल्कि वह गाली के जरिए उसमें अन्तर्निहित सेक्स के अर्थ तक पहुँचता है। इस दुर्भाग्य का मूल सार यह नहीं है कि सेक्स का राज पाठक या श्रोता के सामने खुल जाता है, बल्कि यह कि वह राज अपने सबसे ज्यादा कुरूप,मानवद्वेषी तथा अनैतिक रूप में उदघाटित होता है। ऐसे शब्दों का बारम्बार होने वाला उच्चारण या लिखित प्रयोग पाठक या श्रोता को सेक्सी मामलों पर अत्यधिक ध्यान देने की,विरूपित दिवास्वप्न देखने की आदत पैदा करता है। इससे लोगों में अस्वास्थ्यकर रूचियों का विकास होता है।

अधिकांश गालियां स्त्रीकेन्द्रित हैं और उनके गुप्तांगों को लेकर हैं या उसके विद्रूपों को लेकर हैं। इससे सामाजिक हिंसा में बढ़ोतरी होती है। साथ ही यह भावना पैदा होती है कि औरत इस्तेमाल की चीज है। अपमानित है। मादा है। आश्चर्यजनक बात है कि हमारे स्कूली पाठ्यक्रमों से लेकर बड़ी कक्षाओं तक गालियों के खिलाफ कोई पाठ नहीं है। सारे देश के बुद्धिजीवी आराम से आए दिन सिलेबस बनाते हैं और पढ़ाते हैं। लेकिन गालियों के बारे में कभी क्लास नहीं लेते। कभी बोलते नहीं हैं। उलटे यह देखा गया है कि जिस बच्चे को डांटना होता है उस पर गालियों की बौछार कर देते हैं।

गालियों का प्रयोग सत्य को स्थगित कर देता है। हम जब गाली देते हैं या गाली लिखते हैं तो उस समय हमारी नजर गाली पर होती है सत्य पर नहीं,हम गाली में उलझे होते हैं। गालियों के प्रयोग से वर्तमान साफ नजर नहीं आता। गालियों का प्रयोग विचारों और यथार्थ को एक नई भंगिमा में तब्दील कर देता है। एक विलक्षण किस्म के पाठ की सृष्टि करता है। वह अवधारणाओं के अर्थ और यथार्थ के अर्थ को संकुचित करता है। अर्थ संकुचन गालियों की पूर्वशर्त है। यह य़थार्थ को उसके स्रोत से काट देता है । जबकि लेखक यही दावा करता है कि वह वास्तविकता दरशाने के लिए गालियों का प्रयोग कर रहा है। गालियों के साहित्यिक प्रयोग को स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में ही पेश किया जाता है। जबकि सच इसके एकदम विपरीत है।

गालियों का प्रयोग अर्थविस्तार नहीं करता उलटे अर्थसंकोच करता है। जब कोई लेखक यथार्थ को गालियों में खींच लाता है तो वह यथार्थ के साथ जुड़े बुनियादी तर्कों से उसे अलग कर देता है। यथार्थ के सत्य और असत्य विकल्पों की संभावनाएं खत्म कर देता है। गालियों का प्रयोग यथार्थ की बहस को वर्तमान काल में ले आता है। अब उसके लिए वर्तमान का जीवंत यथार्थ बेमानी होता है। गालियों का प्रयोग वर्तमान यथार्थ को शरणार्थी बना देता है।

वैसे अधिकांश रचनाओं में एकाधिक अर्थ की संभावनाएं होती हैं लेकिन गाली के प्रयोग वाले अंशों में एक ही अर्थ होता है। एकाधिक अर्थ या भिन्न अर्थ की संभावनाओं को गालियां नष्ट कर देती हैं। गालियों का प्रयोग सामाजिक गैर बराबरी को बनाए रखता है। सामाजिक हायरार्की को आप इसके प्रयोगों के जरिए अपदस्थ नहीं कर सकते। गालियों में परिवर्द्धन और सम्बर्द्धन संभव नहीं है वे जैसी बनी थीं वैसी ही चली आ रही हैं। यह सिलसिला सैंकड़ों सालों से चला आ रहा है। गालियों के जरिए युगीन विचारों को नहीं पकड़ सकते। हिन्दी में जिसे दिल्लगी कहते हैं वह भी गालियाँ है। प्रेमचंद ने दिल्लगी को गालियों से कुछ कम घृणित माना है। गालियों को उन्होंने ‘जातीय कमीनेपन’ और ‘नामर्दी’ का सबूत कहा है। साथ ही इसे ‘जातीय पतन की देन’ माना है। उनके ही शब्दों में ‘ जातीयपतन दिलों की इज़्ज़त और स्वाभिमान की चेतना को मिटाकर लोगों को बेग़ैरत और बेशर्म बना देती है।’ गालियां अनुभूति की शक्ति मिटा देती हैं।

सुमित शर्मा से प्रेरणा लें आईएएस अधिकारी

लिमटी खरे

कहते हैं देश को चलाने वाले भारतीय प्रशासिनक सेवा (आईएएस) अधिकारी होते हैं, इन नौकरशाहों के आगे राजनेताओं के साथ ही साथ अन्य अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी बौने ही साबित होते हैं। आईएएस जब किसी जिले का जिलाधिकारी यानी कलेक्टर बनकर पदस्थ होता है, तब उसका रूतबा कुछ और होता है। वह जिले का अघोषित मालिक होता है। जिलाधिकारी जिले में जिला दण्डाधिकारी के बतौर भी काम करता है।

सत्तर के दशक तक की समाप्ति तक अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को बड़े ही सम्मान के साथ देखा जाता था। उस वक्त अधिकारियों को भय होता था कि अगर उन्होंने किसी से भी रिश्वत ली तो समाज उन्हें हेय दृष्टि से देखेगा। शनैः शनैः नौकरशाह, मीडिया और राजनेताओं के गठजोड़ ने समूची व्यवस्था को ही पंगु बना डाला है।

पिछले तीन दशकों में देश में अखिल भारतीय स्तर के चुनिंदा अधिकारी ही हैं, जिनके नाम पर आज भी लोग गर्व करते हैं। आज भी इन नौकरशाहों के साथ काम करने वाले सेवानिवृत या सेवानिवृति की कगार पर पहुंचने वाले बाबुओं को अपने संस्मरण सुनाने में काफी हर्ष महसूस होता है।

याद पड़ता है मध्य प्रदेश में भी एक आईएएस अधिकारी हुए हैं, जिनका नाम था, मोहम्मद पाशा राजन। एम.पी.राजन के बारे में कहा जाता था कि वे शासन की सेवा के एवज में महज एक रूपए ही वेतन लिया करते थे। उनकी ईमानदारी की कस्में खाई जातीं थीं, किन्तु जब वे सेवानिवृति के मुहाने पर पहुंचे तो उनका दामन इतना दागदार निकला कि कसमें खाने वालों के मुंह का स्वाद ही कसैला हो गया।

राजस्थान संवर्ग के युवा आईएएस अधिकारी डॉ.सुमित शर्मा ने इस भ्रष्टाचारी जमाने में एक मिसाल कायम की है। शर्मा ने जता दिया है कि कलेक्टर वाकई जिले का मालक नहीं पालक होता है। सच है कि अगर जिले का कोई आला अधिकारी पूरी ईमानदारी, कार्यकुशलता, संवेदनशीलता, मेहनत और लगन के साथ काम करे तो वह जिले का कायापलट कर सकता है।

अमूमन देखा गया है कि जब भी कोई आला अधिकारी किसी जिले में पदस्थ होता है, तो वह दिखावे के लिए स्वांग रच लेता है कि उस जिले के निवासी उसके परिवार का हिस्सा है। दरअसल वह अधिकारी उस जिले में जाकर अपनी तैनाती के समय को सफलता के साथ काटना चाहता है। वह नहीं चाहता कि किसी भी तरह का कोई पंगा हो जिसकी आंच उसके गोपनीय प्रतिवेदन (सीआर) पर पड़े। यही कारण है कि आज जिलों में पदस्थ अधिकारी अपने काम को ईमानदारी के साथ करने के बजाए समय काटने में ही ज्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं। अनेक एसे भी अधिकारी हैं, जो दूसरी या तीसरी बार उस जिले में पदस्थ होते हैं, उन अधिकारियों का अवश्य ही जिले के साथ लगाव समझा जा सकता है, वे जिले के विकास के प्रति कुछ ज्यादा फिकरमंद हुआ करते हैं।

होता यह है कि अगर कोई अधिकारी कर्मठता का परिचय देना आरंभ करता है तो स्थानीय राजनेता, विधायक, सांसद उसे सही रास्ते पर चलने नहीं देते। जरा जरा सी बात पर शिकायतों के माध्यम से उस अधिकारी के सर पर निलंबन या स्थानांतरण की तलवार लटकना आम बात है। अगर किसी अफसर ने जनसेवक की सही गलत बात नहीं मानी बस हो जाती हैं उनकी नजरें तिरछी। यही कारण है कि अफसरों ने भी अपने आप को राजनेताओं की मंशा के अनुरूप ही ढालने में भलाई समझी है।

बहरहाल राजस्थान के नागौर जिले में जो भी घटित हुआ है, वह निस्संदेह ही देश के सवा छः सौ जिलों के मालिकों के लिए नजीर बन सकता है। नागौर के जिला कलेक्टर डॉ.सुमित शर्मा का तबादला कर दिया गया, फिर क्या था जिले की जनता सड़कों पर उतर आई। कहा जा रहा है कि उन्होंने एक पहुंच संपन्न इंडस्ट्रीयलिस्ट का शराब कारखाना बंद करवा दिया था, जिसका भोगमान उन्हें भुगतना पड़ा। डॉ.शर्मा के साथ यह पहली मर्तबा नहीं हुआ, इसके पहले जब वे चित्तोड़गढ़ में पदस्थ थे, तब भी उनके स्थानांतरण पर जनता ने सड़कों को थाम लिया था। अमूमन इस तरह की बातें या दृश्य हिन्दुस्तानी सिनेमा में ही देखने को मिला करते हैं, वास्तविकता में यह देखने को नहीं मिलता है। पेशे से पशु चिकित्सक रहे डॉ. शर्मा ने अपने कर्तव्यों के साथ ही साथ जिले में रहते हुए नियमित जनसुनवाई को संपादित किया जिससे वे जनता के दिलों के काफी करीब आ गए।

बताते हैं कि डॉ.शर्मा पुराने राजाओं की तरह भेस बदलकर जिले का भ्रमण कर रियाया का हाल चाल दुख दर्द जाना करते थे, बाद में उसे दूर करने की दिशा में प्रयास किया करते थे। नागौर के हर कार्यालय में ‘‘रिश्वत न देने‘‘ संबंधी जुमलों के साथ बोर्ड लगे हुए हैं। एसा नहीं कि ये बोर्ड हाथी कि मंहगे दांतों की तरह हों, इन पर बाकायदा उन्होंने कार्यवाही भी की है। नागौर की जनता को कलयुग के इस काल में राम राज्य की कुछ तो अनुभूति हुई ही होगी। पहले भी अनेक जिलों के जिलाधीशों ने इस तरह का दिखावा करने का प्रयास किया किन्तु वे बाद में जनता के सामने एक्सपोज हो गए। देश के हर प्रांत की सीमाओं पर परिवहन, सेल टेक्स, मण्डी, आदि की जांच चौकियां आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी हैं, यहां से हर माह लाखों रूपए ‘चौथ‘ के तौर पर राजनैतिक दलों, राजनेताओं, पत्रकारों और अधिकारियों को जाता है। सब कुछ देखने सुनने जानने के बाद भी जिला कलेक्टरों की खामोशी उनकी कार्यप्रणाली की ओर इशारा करने के लिए पर्याप्त मानी जा सकती है।

कुछ सालों पूर्व महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले में एक जिला कलेक्टर द्वारा एकल खिड़की प्रणाली आरंभ की थी। वह प्रणाली इतनी सफल हुई कि अनेक सूबों में ‘अहमदनगर प्रणाली‘ के नाम से हर जिलों में काउंटर खोल दिए गए थे। जिला कलेक्टरों की अनदेखी के चलते इस व्यवस्था ने अहमदनगर सहित समस्त जिलों में दम ही तोड़ दिया।

हमारी निजी राय में तो डॉ.सुमित शर्मा के बतौर कलेक्टर कार्यकाल को एक नजीर मानकर आईएएस के प्रशिक्षण में इसे शामिल करना चाहिए, ताकि देश के जिलों को चलाने वाले जिलाधीशों को कम से कम इस बारे में तो जानकारी मिल सके कि जिस मिशन जिस उद्देश के तहत उनके कांधों पर जिलों की कमान सौंपी जा रही है, वह मुकाम वे कैसे पा सकते हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज अनेक सूबों में जिलों में कलेक्टरी तक की बोली लगने लगी है। डॉ.सुमित शर्मा द्वारा किए गए अनूठे, अद्भुत, जनकल्याणकारी प्रयासों के लिए वे बधाई के पात्र हैं, किन्तु यह वाकई उनकी कार्यप्रणाली का हिस्सा ही रहे तो बेहतर होगा, कहीं एसा न हो कि आने वाले समय में उनके बारे में भी कोई कहानी सुनने को मिल जाए।

वेब पत्रकारिता : चुनौतियां व संभावनाएं- अनुराग ढेंगुला


विषय विस्तार के लिए दो प्रसंगों का उल्लेख करना समीचीन होगा। प्रथम हिंदी फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन का इंटरनेट की संपर्क करने और ज्ञान प्रदाता के रूप में असीम क्षमताओं को देखते हुए सार्वजनिक रूप से ‘नेटवर्किंग जी’ का अभिवादन करना और द्वितीय प्रसंग है जूलियन असांजे की रहस्योद्धाटन करनेवाली वेबसाइट ‘विकीलीक्स’ का समाज के प्रत्येक क्षेत्र एवं हर तबके पर होनेवाला प्रभाव। यह दोनों प्रसंग वेब पत्रकारिता की संभावनाएं, जो कि निश्चित ही मनुष्य की सोच (Beyond the thinking) से आगे है, की धारणा को पुष्टि प्रदान करती है।

अमिताभ बच्चन ने देश, समाज और विश्व को भी उस समय से देखा, समझा और जिया है, जब तकनीक अपने प्रारंभिक रूप में जरूर थीं, मगर इनका प्रभाव मानवीय जीवन और समाज पर प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता था और वह व्यक्ति डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू (WWW) यानी वर्ल्ड वाईड वेब से प्रभावित होकर कहता है कि -‘नेटवर्किंग जी! मैं तुम्हें सलाम करता हूं। आदमी ने तुम्हें ईजाद किया और यह मनुष्यता ही है जो तुम्हें गति देती है। दुनिया में ऐसी जगह और कहां है जहां हम इस तरह मिल सकें। आप हमें विवश करते हैं अपनी राय और टिप्पणी देने के लिए भी। और सबसे बड़ी बात है कि आप गलत निर्णयों और मूल्यों को बदलने की ताकत रखते हैं। उनके आगे के शब्द ‘वेब पत्रकारिता के लिए निश्चित ही उत्साहवर्धक होंगे।’ यह नेटवर्किंग इतनी बड़ी शक्ति है कि इसकी कल्पना भी कभी की नहीं गई थी। यह एक अनंत संपदा है। इससे प्रेम और भाईचारा परवान चढ़ता है। यह संबंधों को प्रगाढ़ता देता है, इंसानियत को और भी सजग बनाता है।” मुझे लगता है कि पत्रकारिता के उद्देश्य भी अमिताभ के इन्हीं शब्दों में तलाशे जा सकते हैं। अमिताभ महज फिल्मी महानायक नहीं हैं, वे टि्वटर पर लाखों चाहने वालों का जिस तरह मार्गदर्शन करते हैं, हौसला अफजाई करते हैं, उससे साबित होता है कि वे लोकजीवन के, नई पीढ़ी के भी महानायक हैं।

नई दुनिया समाचार पत्र के इंटरनेट संस्करण ‘वेब दुनिया’ को प्रथम औपचारिक प्रकाशन माना जा सकता है वेब पत्रकारिता का। लगभग 15 वर्ष पहले जब यह प्रारंभ किया था, तब इसे कोई खास तव्वजों नहीं दी गई थी और ‘एक विशेष वर्ग’ को लक्षित करके ही इसे निकाला जा रहा है, ऐसा भी बोला गया। बोलने के कारण भी साफ थे, कंप्यूटर और इंटरनेट गिने-चुने थे, इनका उपयोग भी काफी महंगा था और उपयोगकर्ता भी कम ही थे। दरअसल इंटरनेट को जन-जन तक पहुंचाने और उसकी गति बढ़ाने के लिए जो अधोसंरचना थी, हमारा देश उसके लिए संसाधन बढ़ाने में जुटा हुआ था, लेकिन बीते वर्षों में भारत में इंटरनेट और कंप्यूटर उपयोगकर्ताओं की वृध्दि अप्रत्याशित रूप से हुई है और दूरस्थ अंचलों में सामान्य जन तक इसकी पहुंच बनी है। इसी संदर्भ में, उल्लेखनीय है कि चैन्नई के ‘द हिंदु’ समाचार पत्र ने अपने इंटरनेट संस्करण की शुरूआत 1995 में की थी और ऐसा करनेवाला यह देश का पहला समाचार पत्र था। अब आप देखिए ‘द हिंदु’ समाचार-पत्र ने सर्वप्रथम अपने स्वयं के हवाई जहाज पदार्पित किए थे, समाचार-पत्रों को देश के सभी शहरों में एक साथ पहुंचाने के लिए। जब कंप्यूटर के माध्यम से सभी शहरों के संस्मरण एक साथ निकालना संभव नहीं था। लेकिन वायुयान की भी अपनी सीमाएं होती है, मगर इंटरनेट के बारे में आपका क्या ख्याल है? इसके माध्यम से प्रसारित होने वाली सामग्री को आप किन सीमाओं में बांधोगे? तो समय और दूरी के बंधन से मुक्ति दिलाकर वेब ने हमें जीते जी ज्ञान और सूचना रूपी मोक्ष प्रदान किया कि नहीं? जूलियन असांजे ने वेब-पत्रकारिता की इसी असीमित शक्ति को भांपकर बिना किसी पते ठिकाने के ‘विकीलीकस’ को आधार बनाया देश-दुनिया में सूचनाएं प्रसारित करने के लिए जूलियन के इस कार्य को नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी पर परखना हमारा विषय नहीं है, मगर उन्होंने जो माध्यम अपनाया है, उस पर हमें जरूर गौर करना होगा। क्या सिर्फ एक समाचार-पत्र, एक रेडियो चैनल, एक टेलीविजन चैनल या मीडिया के अन्य किसी परंपरागत माध्यम से लगातार ऐसा करना संभव होता? इस प्रश्न के उत्तर हममें से अधिकांश की यही राय होती कि वह सतत् रखने में असफल होते और इतने कम समय में सवाल ही नहीं होता। तकनीक के सहारे तो वह जगह बदलकर अपने अभियान को जारी रखे हुए हैं। यद्यपि कई देश की सरकारों ने ‘विकीलीक्स’ द्वारा प्रसारित सूचनाओं को रोकने के लिए भी तकनीकी का ही सहारा लिया है, मगर इसमें भी वह आंशिक रूप से ही सफल हुए हैं।

बीच में हम वेब-पत्रकारिता की चुनौतियों पर भी बात करते हैं। जब हमारे देश में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का आगमन हुआ तो मीडिया-विशेषज्ञों के मध्य बहस का सबसे चर्चित विषय यही होता था कि क्या इससे प्रिंट मीडिया की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। इस विषय पर समाचार-पत्रों, विश्वविद्यालयों, गोष्ठियों में बहुतेरा विचार-विमर्श हुआ, जिसमें से यह भी निकल कर आया कि जब सूचनाएं तत्काल और एक बटन दबाने पर ही उपलब्ध होगीं, तो बासी खबरों के लिए समाचार-पत्र पढ़ने की जहमत कौन उठाएगा? पक्ष-विपक्ष में इसी से मिलते-जुलते प्रश्न निकलते थे। कुछ समय पश्चात् ही इस प्रश्न का जवाब सभी लोगों को मिल गया और वर्तमान में तो यह प्रश्न ही विलोपित हो गया, क्योंकि इसकी प्रासंगिकता ही नहीं रही। प्रासंगिकता क्यों नहीं रही यह प्रश्न जरूर विचारणीय हो सकता है, मगर प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जरूर प्रासंगिक बने हुए हैं और अपनी-अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। वेब-पत्रकारिता के पोर्टल द्वारा ‘वैकल्पिक मीडिया’ शब्द का प्रयोग करने का मैं पक्षधर नहीं हूं, बल्कि मैं इसे ‘पूरक मीडिया’ कहना ज्यादा श्रेयस्कर समझता हूं। वह इसलिए क्योंकि आप किस मीडिया का पूर्णरूपेण विकल्प बनना चाहते हैं? क्या वास्तविकता में ऐसा होना संभव है? हां, ‘सहयोगी’ शब्द का प्रयोग मुझ जैसी सोच वालों को और ज्यादा खुशी दे सकता है। आज लगभग सभी छोटे-बड़े समाचार-पत्रों, टेलीविजन चैनलों की सूचनाएं प्रसारित करने के अपने ‘वेब-पोर्टल’ हैं, ई-पेपर संस्करण हैं। इनको संभालने के लिए कुछ लोगों की नियुक्ति भी कर रखी है, मगर सामग्री (content) थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ वही रहती है, जो उनके सभी संस्करणों में दिख जाएगी। आज वेब-पोर्टल की सनसनीखेज एवं महत्वपूर्ण खबरें समाचार-पत्रों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रमुखता से प्रसारित होती हैं और इसका विपरीत यानी कि समाचार-पत्रों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरें वेब-पोर्टल में भी स्थान पाती है। आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चयन का विस्तार उपलब्ध है, व्यक्ति अपनी पसंद से उनका आनंद लेता है। यह तो मनुष्य का स्वाभाविक गुण है कि वह सभी उपलब्ध-अनुपलब्ध वस्तुओं का स्वाद लेना चाहता है, उन्हें कम से कम एक बार जरूर चखना चाहता है, तो फिर मीडिया पर भी यही सिध्दांत लागू होगा। आज उनके पास मीडिया के कई प्रकार उपलब्ध हैं, उन्हें सभी प्रकारों का मजा लेने दो। वह समाचार-पत्र पढ़ने के बाद दोपहर में अपने कार्यस्थल पर पोर्टल देखें और सायं का टेलीविजन में सूचनाओं का आनंद ले। दिक्कत कहां है? तो फिर क्या वेब-पत्रकारिता के लिए कोई चुनौती ही नहीं बची? सर्वप्रथम वेब-पत्रकारिता का चुनौती तो स्वयं से ही है। तमाम पोर्टलों के बीच विश्वसनीयता बनाए रखने की चुनौती, पत्रकारित शब्द की गरिमा बनाए रखने की चुनौती, अपनी असीमित क्षमताओं का दुरूपयोग न करने की चुनौती। आप उन सूचनाओं विचारों को प्रसारित-प्रचारित करें जो समाज-हित में हों। बिना प्रमाण के कोई सूचना न दें। ऐसे कई मूलभूत सिध्दांत हैं, जिनका लिखना आवश्यक नहीं मगर एक जिम्मेदार नागरिक खासकर पत्रकार उन्हें बखूबी समझता है, अत: वेब-पत्रकारिता के पोर्टल का संचालन एक जिम्मेदार पत्रकार के हाथ में होना अनिवार्य है।

भारत में बहुत कम व्यक्तियों द्वारा इंटरनेट-उपयोगी (Net User) होना भी वेब-पत्रकारिता के विस्तार के लिए एक बड़ी चुनौती है। जिस देश में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ाने के लिए सरकारी और गैर सरकारी संगठन जुटे हुए हैं, उस देश में कंप्यूटर को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना निश्चित ही एक बड़ा कार्य है। मगर इसमें भी सुधार आ रहा है, मगर गंभीर प्रयासों की अभी भी जरूरत है।

आंकड़ों के हिसाब से देखें तो 1998 में सिर्फ 48 समाचार-पत्रों के इंटरनेट संस्करण थे, जबकि रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपरर्स फॉर इंडिया के कार्यालय में उस समय पंजीकृत समाचार-पत्रों की संख्या 4719 थी। इन 48 इंटरनेट संस्करणों को अगर हम भाषाई-वर्गीकरण में बांटे तो स्थिति इस प्रकार होगी-अंग्रेजी 19 (338), हिंदी 5 (2,118), मलयालम 5 (209), गुजराती 4 (99), बंगाली 3 (93), कन्नड़ 3 (279), तमिल 3 (341), तेलगु 3 (126), उर्दू 2 (495) तथा मराठी 1 (283) कोष्ठक के अंदर कुल प्रकाशन की संख्या तथा बाहर इंटरनेट संस्करणों की संख्या दी है। यह सर्वेक्षण पुणे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर श्री किरण ठाकुर ने प्रस्तुत किया था, जिसमें उन्होंने असमी, मणिपुरी, पंजाबी, उड़िया, संस्कृत, सिंधी तथा शेष भारतीय भाषाओं के आंकड़े शामिल नहीं किए थे। 1998 के मुकाबले आज की स्थिति वेब-पत्रकारिता की सुदृढ़ता को स्वत: ही बयान करती है। सभी प्रमुख साप्ताहिक एवं प्रतिदिन प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र, स्थापित पत्रिकाएं, टेलीविजन चैनल्स के वेब-संस्करण ही ऑनलाइन समाचार वितरित नहीं करते हैं, बल्कि कई समाचार-पोर्टल एमएसएन ढेराेंं ऐस नाम भी इसमें शामिल हैं। आप इस क्षेत्र का विस्तार तो देखिए, क्लिक करते ही सूचनाएं पटल पर हाजिर हैं। अब यदि यह सूचनाएं अधकचरी और भ्रमित करनेवाली हैं तो आपका स्वविवेक ही इनसे आपको बचा सकता है।

लेकिन हिंदुस्तान में वेब-पत्रकारिता की प्रसारित-सामग्री (content) को अधिकांश मीडिया विशेषज्ञ गंभीर एवं संतुलित श्रेणी में रखते हैं। इस संबंध में इंटरनेट के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करनेवाले पत्रकार रमेश मेनन कहते हैं कि वेब-पत्रकारिता ऐसी ताजी हवा के झोकें की तरह है, जो हमे भारतीय टेलीविजन पर प्रसारित होनेवाले समाचारों के पागलपन से बचाकर तरोताजा रखती है। श्री मेनन आगे लिखते हैं कि अधिकांश टेलीविजन चैनल तथाकथित ‘ब्रेकिंग न्यूज’ के प्रोमो में भूत, तंत्र, मंत्र, सर्प आदि की खबरें इस अंदाज में प्रस्तुत करते हैं कि सामान्य जन को छोड़िए, पढ़े-पढ़ाए समझदार लोग भी टकटकी लगाकर देखते हैं और भ्रमित होकर समाज में विभिन्न प्रकार की अफवाहें फेलाने का काम नि:संकोच करते हैं। टेलीविजन चैनल्स तो यह कार्य ‘टीआरपी’ के दौड़ में बने रहने के लिए करते हैं, मगर इन सब कार्यों में पत्रकारिता के सिध्दांत और नैतिकता का जो नुकसान करते हैं, उसकी भरपाई कौन करेगा? भरपाई करने के इस समाज हितैषी कार्य में वेब-पत्रकारिता एक पहल करती दिखाई दे रही है। वह बताते हैं कि वेब पर खबर ‘बोल्ड’ होती है, यह खबर त्वरित होती है, इसकी अपनी स्वतंत्र पहचान होती है, खोजपरक होने के साथ-साथ त्वरित संवाद (interactive) करती है। कुल मिलाकर वर्तमान में खबरों के मारा-मारी युग में वेब खबरें सुकुन के साथ संतुष्टि प्रदान करती है। वेब-पत्रकारिता ने बीड़ा उठाया है पत्रकारिता में सकारात्मक परिवर्तन का। आज का पत्रकार भी नई-नई तकनीक से युक्त होकर पाठकों को ज्ञानवर्धक सामग्री मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं और पाठक मनवांछित ग्रहण कर त्वरित टिप्पणी भी दे रहे हैं। पाठक वेब-पत्रकारिता के माध्यम से प्रसारित खबरों से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है और देश-विदेश के भिन्न-भिन्न विषय-विशेषज्ञों के विचारों से एक जगह बैठकर, एक ही स्क्रीन पर परिचित होता रहता है।

आलोच्य विषय में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी, क्योंकि वेब-पत्रकारिता से जुड़े व्यक्तियों को अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है। वह शनै:-शनै: ही इस क्षेत्र में व्याप्त चुनौतियों से निपटकर वेब-पत्रकारिता की संभावनाओं को बलवती कर पाएंगे। परन्तु यह तय है कि वर्तमान और भविष्य दोनों सुनहरे हैं, हां लेकिन इसे अपनी गरिमा का ख्याल रखना होगा। क्योंकि सिध्दांतों के साथ गरिमा बनाए रखने से लोकतंत्र और सामाजिक ढांचे का मजबूती प्रदान होगी, इससे पत्रकारिता के धर्म का पालन स्वत: ही होगा, अन्ततोगत्वा भला सबका होगा। तो वेब के रथ पर सवार होकर पत्रकारिता का ध्वज संभालने के इच्छुक गणमान्य सारथी और सवारी दोनों आप ही हैं, ध्वज को भी हाथ से न छूटने दीजिए, जिससे पताका लहराती रहे और युध्द की मारा-मारी में अपनी जगह बनाते हुए, पड़ाव-दर-पड़ाव तय करते हुए, मंजिल को अपने समीप लाइए।

संपर्क : 307, विज्ञान नगर (राजेंद्र नगर), इन्दौर-452012

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे….

गिरीश पंकज

किसी भी राष्ट्र की अस्मिता का प्रतीक है उसका ध्वज, उसकी भाषा, उसका राष्ट्र-गान. दुनिया में भारत ही वह अनोखा उदारवादी देश है जहाँ दिन दहाड़े संविधान जला दिया जाता है. ध्वज का अपमान होता है. बेचारी राष्ट्र भाषा की हालत क्या है, ये सब जानते है. अपने यहाँ तो कोई भी देशविरोधी बातें कर देता है और उस पर कार्रवाई नहीं होती. इसी उदारता का दुष्परिणाम यह हो रहा है कि कश्मीर में देश विरोधी लोग तिरंगा न फहराने की घोषणा कर देते है. इसलिये अगर कुछ लोगों ने २६ जनवरी को कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने की ठान ली है तो उनकास्वागत होनाचाहिए. यह पहल केवल भारतीय जनता पार्टी के युवा लोग कर रहे है. जबकि यह सर्वदलीय अभियान होना चाहिए. इसमे देश भर के युवको को शामिल होना चाहिए. राष्ट्र ध्वज केवल भाजपा का नहीं है. यह कांग्रेस का भी है औ दूसरे दलों का भी. लेकिन देश का यही दुर्भाग्य है कि यहाँ देश की अस्मिता का सवाल भी घटिया और टुच्ची राजनीति का शिकार हो जाता है. होनातो यह चाहिए था कि २६ जनवरी को एक सर्वदलीय मोर्चा बनाता और सारे राजनीतिक दल के लोग मिलजुल कर लाल चौक पर तिरंगा फहराते. पता नहीं हमारा देश राष्ट्रीयता के सवाल पर कब एकजुट होगा. मै भाजपा कार्यकर्त्ता नहीं हूँ. न कभी हो सकता हूँ. मगर लाल चौक पर तिरंगा फहराने के अभियान का मैं खुल कर उनका समर्थन करता हूँ. मैं वहाँ नहीं जा पाऊँगा. लेकिन मेरी भावनाए वहां जायेंगी. मैंने २६ जनवरी के लिये एक अभियान-गीत लिखा है. यह गीत उस भावना को समर्पित है, जो देश की शान के लिये अपनी जान लुटाने का भी संकल्प लेती है. उम्मीद है यह गीत केवल दल विशेष का गीत नहीं बनेगा वरन हर देशवासी इसे दिल से गायेगा. क्योंकि केवल कश्मीर ही अमर नहीं है. इस देश का चप्पा-चप्पा हमारा है. हम कहीं भी जा कर तिरंगा फहरा सकते है. हमें कोई नहीं रोक सकता. जो रोकेगा मतलब वह देशद्रोही है. जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर का यह बयान कितना हास्यास्पद है कि लाल चौक पर तिरंगा फहराने से कश्मीरी नाराज हो जंगे और वे भड़केंगे. अलगाववादी नेता यासीन मालिक ने भी चुनौती दी है, कि हम देखते है,कि लाल चौक पर कैसे फहराता है तिरंगा. हद है इस मानसिकता की. इस मानसिकता को चुनौती देने जो लोग निकल रहे है,. उनकाखुल कर स्वागत करनाचाहिये देश विरोधी लोगों से निपटना हमारा परमपुनीत कर्तव्य है. क्योंकि सवाल है देश का..किसी पार्टी का नहीं. प्रस्तुत है वन्दे मातरम के जय घोष के साथ यह अभियान-गीत—-

अभियान-गीत

युवा- शक्ति ने ठान लिया है, आगे कदम बढ़ाएंगे.

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

नहीं डरेंगे गोली से हम, लाठी-पत्थर खाएंगे,

वीरों के जो वंशज है वे, कभी नहीं घबराएंगे.

है कश्मीर हमारा सुंदर, इसको नहीं गवाएंगे.

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

बहुत हो चुका अब न सहेगे, गद्दारों की बातें.

भारत में रह कर जो करते, देशविरोधी घातें.

देशद्रोहियों को जा कर हम, अब तो सबक सिखायेंगे…

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे..

युवा- शक्ति ने ठान लिया है, आगे कदम बढ़ाएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

हम उदार है इसका मतलब, हमें न कायर जानो.

हम है कट्टर देशभक्त बस, तुम हमको पहचानो.

जिन्हें मुल्क से प्यार नहीं हैं, वे न यहाँ टिक पाएंगे..

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

युवा- शक्ति ने ठान लिया है, आगे कदम बढ़ाएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

बढ़ो-बढ़ो ओ वीर सपूतों, यह कश्मीर हमारा है.

चप्पा-चप्पा इस भारत का, हमें जान से प्यारा है.

देश हमारा, धरती अपनी, हम परचम लहरायेंगे..

युवा- शक्ति ने ठान लिया है, आगे कदम बढ़ाएंगे.

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

जय-जय भारत वर्ष हमारा, अमर शान है तेरी.

तेरे लिये अगर जाती है, धन्य जान है मेरी.

बढ़े कदम माँ की खातिर अब, पीछे नहीं हटायेंगे.

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

युवा- शक्ति ने ठान लिया है, आगे कदम बढ़ाएंगे.

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम..