– ललित गर्ग –
केरल भारत का पहला राज्य बन गया है जिसने वरिष्ठ नागरिकों के लिए आयोग स्थापित करने के लिए एक कानून पारित किया है। यह एक सराहनीय एवं स्वागत योग्य पहल होने के बावजूद एक बड़ा सवाल भी खड़ा करती है कि आखिर भारत के बुजुर्ग इतने उपेक्षित एवं प्रताड़ित क्यों है? केरल जैसे शिक्षित राज्य में ही इस आयोग को बनाने की जरूरत क्यों सामने आयी? केरल में क्यों सामाजिक सुरक्षा, स्नेह, सुरक्षा की वह छांव लुप्त होती जा रही है, जिसमें बुजुर्ग खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें। क्यों केरल में ही बुजुर्ग सर्वाधिक अकेलेपन एवं एकाकीपन का संत्रास झेलने को विवश हो रहे है? केरल में कई बुजुर्ग लोगों को युवा पीढ़ी के हाथों गरीबी और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ रहा है। इस प्रांत में कई गांव ऐसे हैं जहां केवल बुजुर्ग ही बचे हैं, प्रश्न है कि ऐसा क्यों हो रहा है? यूं तो समूचे देश में बुजुर्गों की लगभग यही स्थिति बन रही है, जो सामाजिक व्यवस्था पर एक बदनुमा दाग है।
केरल योजना बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार, दक्षिणी राज्य पूरे भारत की तुलना में अधिक तेजी से वृद्ध हो रहा है। 1961 में, केरल में 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की संख्या कुल जनसंख्या का 5.1 प्रतिशत थी, जो राष्ट्रीय औसत 5.6 प्रतिशत से थोड़ा कम थी। हालांकि, 1980 के दशक तक, राज्य ने बाकी राज्यों को पीछे छोड़ दिया। 2001 तक यह हिस्सा बढ़कर 10.5 प्रतिशत हो गया, जबकि राष्ट्रीय औसत 7.5 प्रतिशत था। 2011 में यह 12.6 प्रतिशत था, जबकि राष्ट्रीय औसत 8.6 प्रतिशत था। केरल के योजना बोर्ड के अनुसार, 2015 में यह बढ़कर 13.1 प्रतिशत हो गया, जबकि राष्ट्रीय औसत 8.3 प्रतिशत था। अब, दक्षिणी राज्य में 60 वर्ष और उससे अधिक आयु के लगभग 4.8 मिलियन लोग हैं। इसके अलावा, बुज़ुर्ग समूह का 15 प्रतिशत 80 वर्ष से अधिक आयु का है, जो इसे बुज़ुर्ग लोगों के बीच सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला आयु समूह बनाता है। 60 से अधिक आयु वर्ग में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या अधिक है और उनमें से अधिकांश विधवाएं हैं। मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने बुधवार को पारित इस कानून की सराहना करते हुए कहा कि यह नया आयोग बुजुर्गों के अधिकारों, कल्याण और पुनर्वास पर ध्यान केंद्रित करेगा।
देश में बुजुर्गों की हालत दिन-ब-दिन जटिल होती जा रही है। केरल देश के सबसे शिक्षित राज्यों में शुमार होता है तो बुजुर्गों के प्रति बरती जा रही उपेक्षा, उदासीनता एवं प्रताड़ना में भी सबसे आगे है। लगभग 94 फीसदी साक्षरता वाले इस राज्य में बुजुर्ग शिक्षित युवाओं के पलायन का संत्रास झेल रहे हैं। राज्य के करीब 21 लाख घरों में युवाओं के पलायन करने के कारण सिर्फ बुजुर्ग बचे हैं। गांव के गांव पलायन का दंश झेलते हुए वीरान हो चुके हैं। लाखों घरों में सिर्फ ताले लटके नजर आते हैं। खाड़ी के देशों में जाकर सुनहरा भविष्य तलाशने की होड़ में इसी प्रांत के सर्वाधिक युवा है। भले ही इस प्रांत ने सर्वाधिक शिक्षा से प्रगतिशील सोच दी है, लेकिन अंतहीन भौतिक लिप्साओं को भी जगाया है, जिससे ही बुजुर्गों की उपेक्षा या उनको उनके हाल पर छोड़ देने की विकृत मानसिकता एवं त्रासदी उभरी है। वृर्द्धों की उपेक्षा देशभर में देखने को मिल रही है, हाल के वर्षों में केरल के बाद पंजाब-हरियाणा में भी नजर आ रही है। वैसे तो यह हमारे नीति-नियंताओं की नाकामी का भी परिणाम है कि हम युवाओं को उनकी योग्यता-आकांक्षाओं के अनुरूप रोजगार देश में नहीं दे पाए। उन्हें न अपनी जन्मभूमि का सम्मोहन रोकता है और न ही यह फिक्र कि उनके जाने के बाद बुजुर्ग माता-पिता का क्या होगा? एकाकीपन का त्रास झेलते केरल के इन गांवों में बुजुर्गों के पास पैसा तो है मगर समाधान नहीं है। कुछ वृद्धों के पास तो धन का अभाव भी इस समस्या को विकराल रूप दे रहा है। राज्य में वृद्ध लोगों की संख्या बढ़ने के साथ ही बुजुर्गों के अधिकारों पर लगातार हमले हो रहे हैं।
भारत में बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार, उपेक्षा एवं उदासीनता एक बढ़ती चिंता का विषय है, उनका एकाकीपन एवं अकेलापन उससे बड़ी समस्या है। केरल के वृद्ध-संकट को महसूस करते हुए वहां की सरकार ने वरिष्ठ नागरिक आयोग बनाया है, जो एक सूझबूझभरा कदम है। लेकिन यह वक्त बताएगा कि भ्रष्ट अफसरशाही व घुन लगी व्यवस्था में ये आयोग कितना कारगर होगा? लेकिन फिर भी जिस राज्य में हर पांचवें घर से एक व्यक्ति विदेश चला गया है, वहां ऐसा आयोग एक सीमा तक तो समस्या के समाधान की दिशा में रोशनी बनेगा। जरूरत है सरकारी अधिकारी संवेदनशीलता एवं इंसानियत से बुजुर्गों की समस्याओं का समाधान करने के लिये आगे आये। केरल की सामाजिक न्याय मंत्री आर. बिंदु के अनुसार आयोग समृद्ध और निम्न आय वाले दोनों ही परिवारों के वृद्ध व्यक्तियों के शोषण की समस्या का महत्वपूर्ण समाधान करेगा। जो वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल, उनकी गरिमा, कल्याण और जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ लोगों को अक्सर स्वास्थ्य में गिरावट, अकेलेपन और वित्तीय असुरक्षा जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आवश्यक सहायता प्रदान करने से अधिक समावेशी और दयालु समाज बनाने में मदद मिलती है।
निस्संदेह, बुजुर्गों की आवश्यकताएं सीमित होती हैं। लेकिन उनका मनोबल बढ़ाने की जरूरत है। सबसे ज्यादा जरूरी उनकी स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं दूर करना है। बेहतर चिकित्सा सेवा व घर-घर उपचार की सहज उपलब्धता समस्या का समाधान दे सकती है। वैसे अकेले रह रहे बुजुर्गों को भी इस दिशा में पहल करनी होगी। सामाजिक सक्रियता एवं मनोबल इसमें सहायक बनेगा। नीति-नियंताओं को सोचना होगा कि अगले दशकों में देश युवा भारत से बुजुर्गों का भारत बनने वाला है। वर्ष 2050 तक भारत में साठ साल से अधिक उम्र के 34.7 करोड़ बुजुर्ग होंगे। क्या इस चुनौती से निपटने को हम तैयार हैं? क्या केरल की तरह अन्य राज्यों की सरकारें एवं केन्द्र सरकार लगातार बुजुर्गों से जुड़ी समस्याओं के लिये ठोस कदम उठायेगी? वसुधैव कुटुम्बकम् की बात करने वाला देश एवं उसकी नवपीढ़ी आज एक व्यक्ति, एक परिवार यानी एकल परिवार की तरफ बढ़ रहे हैं, वे अपने निकटतम परिजनों एवं माता-पिता को भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं, उनके साथ नहीं रह पा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी गतदिनों हाईकोर्ट के अनेक फैसलों को पलटते हुए सराहनीय पहल की है। जिनमें अब बुजुर्ग माता-पिता से प्रॉपर्टी अपने नाम कराने या फिर उनसे गिफ्ट हासिल करने के बाद उन्हें यूं ही छोड़ देने, वृद्धाश्रम के हवाले कर देने, उनके जीवनयापन में सहयोगी न बनने की बढ़ती सोच पर विराम लगेगा, क्योंकि यह आधुनिक समाज का एक विकृत चेहरा है।
संयुक्त परिवारों के विघटन और एकल परिवारांे के बढ़ते चलन ने वृद्धों के जीवन को नरक बनाया है। बच्चे अपने माता-पिता के साथ बिल्कुल नहीं रहना चाहते। ऐसे बच्चों के लिए सावधान होने का वक्त आ गया है, सुप्रीम कोर्ट ने इसको लेकर एक ऐतिहासिक फैसला में कहा है कि अगर बच्चे माता-पिता की देखभाल नहीं करते हैं, तो माता-पिता की ओर से बच्चों के नाम पर की गई संपत्ति की गिफ्ट डीड को रद्द किया जा सकता है। यह फैसला माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम के तहत दिया गया है, जिससे वृद्धों की उपेक्षा एवं दुर्व्यवहार के इस गलत प्रवाह को रोकने में सहयोग मिलेगा। नये विश्व की उन्नत एवं आदर्श संरचना बिना वृद्धों की सम्मानजनक स्थिति के संभव नहीं है। वर्किंग बहुओं के ताने, बच्चों को टहलाने-घुमाने की जिम्मेदारी की फिक्र में प्रायः जहां पुरुष वृद्धों की सुबह-शाम खप जाती है, वहीं वृद्ध महिला एक नौकरानी से अधिक हैसियत नहीं रखती। यदि इस तरह परिवार के वृद्ध कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं, रुग्णावस्था में बिस्तर पर पड़े कराह रहे हैं, भरण-पोषण को तरस रहे हैं तो यह हमारे लिए वास्तव में लज्जा एवं शर्म का विषय है। ऐसे शर्म को धोने के लिये ही केरल सरकार का वरिष्ठ नागरिकों के लिए आयोग बनाना एवं सुप्रीम कोर्ट का संवेदनशील होना एक उजाला बना है, जिससे जीवन की संध्या को कष्टपूर्ण होने से निजात मिलने की उम्मीदें जगी है।
बेहाल वृद्धों के लिये आयोग बनना एक सराहनीय कदम
कला सशक्त माध्यम है दुनिया को खूबसूरत बनाने का
विश्व कला दिवस-15 अप्रैल, 2025
– ललित गर्ग –
कला जीवन को रचनात्मक, सृजनात्मक, नवीन और आनंदमय बनाने की साधना है। कला के बिना जीवन का आनंद फीका अधूरा है। कला केवल एक भौतिक वस्तु नहीं है जिसे कोई बनाता है बल्कि यह एक भावना है जो कलाकारों और उन लोगों को खुशी और आनंद देती है जो इसकी गहराई को समझते हैं। कला अति सूक्ष्म, संवेदनशील और कोमल है, जो अपनी गति के साथ मस्तिष्क को भी कोमल और सूक्ष्म बना देती है। हम जो कुछ भी करते हैं उसके पीछे एक कला छिपी होती है। कला का हर किसी के जीवन में बहुत महत्व है। इसी महत्व के लिये विश्व कला दिवस विभिन्न कलाओं का एक अंतरराष्ट्रीय उत्सव है, जिसे दुनिया भर में रचनात्मक गतिविधि के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कला संघ (आईएए) द्वारा घोषित किया गया था। अंतर्राष्ट्रीय कला संघ की 17वीं आम सभा में 15 अप्रैल को इस दिवस को घोषित करने का प्रस्ताव रखा गया, जिसका पहला समारोह 2012 में आयोजित किया गया था। इस प्रस्ताव को तुर्की के बेदरी बैकम ने प्रायोजित किया और मैक्सिको की रोजा मारिया बुरीलो वेलास्को, फ्रांस की ऐनी पौरनी, चीन के लियू दावेई, साइप्रस के क्रिस्टोस सिमेयोनिडेस, स्वीडन के एंडर्स लिडेन, जापान के कान इरी, स्लोवाकिया के पावेल क्राल, मॉरीशस के देव चूरामुन और नॉर्वे की हिल्डे रोगनस्कॉग ने सह -हस्ताक्षर किए।
विश्व कला दिवस की 2025 की थीम है ‘अभिव्यक्ति का उद्यानः कला के माध्यम से समुदाय का विकास करना‘। इस थीम का उद्देश्य कला के माध्यम से सामुदायिक विकास को बढ़ावा देना है। दुनिया भर के कलाकारों के लिए यह एक महत्वपूर्ण दिन है, जिसका मुख्य उद्देश्य कलाकारों और उनकी कला को सुरक्षित, संरक्षित एवं सवंर्धित करना और उन्हें अपनी बुद्धिमत्ता, रचनात्मकता और नवाचार को प्रदर्शित करने के लिए एक मंच प्रदान करना है। कला दिवस विश्व में विभिन्न संस्कृतियों को जोड़ने का एक सशक्त माध्यम है। कलाकार कविता, पेंटिंग, मूर्तिकला, नृत्य, संगीत जैसे विभिन्न भौतिक साधनों के माध्यम से अपने विचारों, रचनात्मकता, ज्ञान, भावनाओं और कल्पना का आदान-प्रदान करते हैं। यह दिन हमें अपने आस-पास की प्रकृति में गोता लगाने, उसकी सुंदरता का निरीक्षण करने और अपने आस-पास की छोटी-छोटी चीजों पर ध्यान देने को प्रेरित करता है। इसके माध्यम से जीवन की खूबसूरती को उकेरने एवं मोहक दुनिया का सृजन करने का प्रयत्न किया जाता है।
विश्व कला दिवस की तिथि लियोनार्डाे दा विंची के जन्मदिन के सम्मान में तय की गई थी, जो इटली के महान चित्रकार, मूर्तिकार, वास्तुशिल्पी, संगीतज्ञ, कुशल यांत्रिक, इंजीनियर और वैज्ञानिक थे। लिओनार्दाे अपनी कला की वजह से दुनिया भर में मशहूर थे, दा विंची को विश्व शांति, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सहिष्णुता, भाईचारे और बहुसंस्कृतिवाद के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में कला के महत्व के प्रतीक के रूप में चुना गया था। कला और कलाकारों की कलात्मक सोच को सम्मानित और आत्मसात करने के उद्देश्य से ही हर साल यह दिवस मनाया जाता है। रंगों और आकृतियों के माध्यम से भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए, कला जीवन के सार को पकड़ती है, भावनाओं को जगाती है और शब्दों के बिना भी संबंध को बढ़ावा देती है। विंची एक महान कलाकार थे। उन्होंने कई ऐसी पेंटिंग बनाई हैं, जो विश्वभर में प्रसिद्ध हुई हैं। इन सब में ‘मोना लिसा की पेंटिंग’ के बारे में बच्चे-बच्चे को पता है। लेकिन, विंची ने मोना लिसा के अलावा भी कई विख्यात पेंटिंग बनाई हैं, जिनमें से कुछ हैं – लास्ट सपर, सेल्फ पोट्रेट, द वर्जिन ऑफ द रॉक्स, हेड ऑफ अ वुमेन आदि। उनकी बनाई गई पेंटिंग्स आज भी दुनियाभर के म्यूजियम में रखी हुईं हैं, जिन्हें देखने हर साल कई लाख लोग आते हैं।
दुनिया में कला के विविध रंग बिखरे हैं, कई अद्भुत आर्ट फॉर्म्स प्रचलित है। पॉप आर्ट एक खास तरह का आर्ट फॉर्म है, जो सदियों से लोगों का पसंदीदा रहा है। इस तरह के आर्ट फॉर्म में पेंटिंग को एक कल्पना के तहत बनाया जाता है। इसमें पेंटिंग्स के पारंपरिक तरीकों का प्रयोग किया जाता है। कंटेम्पर्री आर्ट का सीधा मतलब है, ऐसा आर्ट जो हाल के समय में बनाया गया हो। इस तरह के आर्ट में हाल में हुई घटनाओं पर फोकस किया जाता है। कई लोग मानते हैं कि कंटेम्पर्री आर्ट और मॉडर्न आर्ट एक ही हैं। मगर ऐसा नहीं है, कंटेम्पर्री आर्ट के उलट मॉडर्न आर्ट के पेंटिंग्स में पारंपरिक तरीकों को फॉलो नहीं किया जाता है। इस तरह के आर्ट फॉर्म में पेंटर्स को छूट होती है, अपनी कल्पना के तहत पेंटिंग्स बनाने की। एब्सट्रैक्ट आर्ट की पेंटिंग्स बनाना एक बहुत मुश्किल और उलझा हुआ काम है। इस तरह के आर्ट में रंगों और अलग-अलग तरह की आकृतियों का इस्तेमाल किया जाता है, जो एक दूसरे में घुली-मिली-सी होती हैं। एब्सट्रैक्ट आर्ट में कलर्स का इस्तेमाल खासतौर पर भावनाओं को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। स्पिरिचुअल आर्ट में अध्यात्म और भक्ति से जुड़ी हुई पेंटिंग्स बनाई जाती हैं। कई बार कलाकार पूरी तरह से भक्ति और अध्यात्म में डूबकर ही इस तरह की पेंटिंग्स को पूरा कर पाते हैं। हर देश में वहां के कल्चर, अध्यात्म, आस्था और भगवान के अनुसार स्पिरिचुअल आर्ट्स बनाए जाते हैं।
संगीत भी कला का माध्यम है जो शांति, सुकून एवं आनन्द प्रदत्त कर सकता है। संगीत अमूर्त कला है पर उसमें निहित शांति, सौन्दर्य एवं संतुलन की अनुभूति विरल है। संगीत अशांति के अंधेरों में शांति का उजाला है। यह अंतर्मन की संवेदनाओं में स्वरों का ओज है। शादी में ढोलक-शहनाई, भजन-मंडली में ढोल-मंजीरा, शास्त्रीय संगीत में तानपूरा, तबला, सरोद, सारंगी का हम सब भरपूर आनंद उठाते हैं, ये कला के बेजोड़ नमूने है। भारत में संगीत का हजारों वर्षों का इतिहास है, शास्त्रीय संगीत आदि काल से है। संगीत के आदि स्रोत भगवान शंकर हैं। उनके डमरू से तथा श्रीकृष्ण की बांसुरी से संगीत के सुर निकले हैं। किंवदन्ति है कि संगीत की रचना ब्रह्माजी ने की थी। सूरदास की पदावली, तुलसीदास की चौपाई, मीरा के भजन, कबीर के दोहे, संत नामदेव की सिखानियाँ, संगीत सम्राट तानसेन, बैजु बाबरा, कवि रहीम, संत रैदास भक्ति संगीत एवं साहित्य विलक्षण उदाहरण हैं।
कठपुतली भी कला का ही एक नमूना है, लकड़ी अर्थात काष्ठ से इन पात्रों को निर्मित किये जाने के कारण अर्थात् काष्ठ से बनी पुतली का नाम कठपुतली पड़ा। पुतली कला कई कलाओं का मिश्रण है, जिसमें-लेखन, नाट्य कला, चित्रकला, वेशभूषा, मूर्तिकला, काष्ठकला, वस्त्र-निर्माण कला, रूप-सज्जा, संगीत, नृत्य आदि। भारत में यह कला प्राचीन समय से प्रचलित है, जिसमें पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं। भारत में प्राचीन समय से नृत्य की समृद्ध परम्परा चली आ रही है। नृत्य के अनेक प्रकारों में कथकली प्रमुख है, मोहिनीअट्टम नृत्य भी केरल राज्य का है। मोहिनीअट्टम नृत्य कलाकार का भगवान के प्रति अपने प्यार व समर्पण को दर्शाता है। ओडिसी ओडिशा राज्य का प्रमुख नृत्य है। यह नृत्य भगवान कृष्ण के प्रति अपनी आराधना व प्रेम दर्शाने वाला है। कुचिपुड़ी नृत्य की उत्पत्ति आंध्रप्रदेश में हुई, इस नृत्य को भगवान मेला नटकम नाम से भी जाना जाता है। भारत के विभिन्न नृत्यकलाओं में निपुण अनेक नर्तकों एवं नृत्यांगनाओं ने पूरी दुनिया में भारतीय नृत्य कलाओं का नाम रोशन कर रहे हैं। जिनमें सोनल मानसिंह, यामिनी कृष्णामूर्ति, केलुचरण महापात्रा आदि चर्चित नाम है।
सब लोग किसी न किसी कला में उस्ताद ज़रूर होते हैं। जैसेकि लेखक, कवि, नाटककार, संगीतज्ञ, गीतकार, नृत्यकार आदि। आज के युवा बहुत-सी कलाओं को दुनिया के सामने ला रहे हैं, जो सबको अचंभे में डाल देती है। दुनिया भर की इन्हीं कलाओं को बढ़ावा देने और जो लोग कला का महत्व नहीं समझते, उन्हें कला के अलग-अलग रूपों से मिलवाने के लिए ही विश्व कला दिवस मनाया जाता है। लेकिन, जब हम कला दिवस की बात करते हैं तो यहां कला का अर्थ है पेंटिंग्स।
दलों , दलितों और देश के अंबेडकर
डॉ० घनश्याम बादल
अंबेडकर का राजनीतिक दर्शन भारतीय राजनीति और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाला रहा है। उनका दर्शन सामाजिक न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित था।
अंबेडकर का मानना था कि जब तक समाज में छुआछूत, जातिवाद और असमानता बनी रहेगी, तब तक लोकतंत्र केवल एक दिखावा होगा। उन्होंने सामाजिक समानता को राजनीतिक स्वतंत्रता से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण माना।
संविधान के शिल्पकार अंबेडकर भारतीय संविधान के शिल्पकार ने संविधान में नागरिकों को समान अधिकार, स्वतंत्रता, शिक्षा, रोजगार और न्याय की गारंटी प्रदान करवाई। उनका विश्वास था कि संविधान के जरिए सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है।
अंबेडकर ने लोकतंत्र को केवल राजनीतिक प्रणाली ही नहीं, बल्कि सामाजिक जीवन का तरीका माना। उनके अनुसार, लोकतंत्र का अर्थ जीने का वह तरीका है जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को आत्मसात करता है।
अंबेडकर राज्य को समाज में सकारात्मक हस्तक्षेप करने वाला मानते थे। उनका मानना था कि राज्य को शोषित वर्गों के उत्थान के लिए आरक्षण, शिक्षा और सामाजिक सुधार जैसे मुद्दों पर सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए ।
अंबेडकर के लिए धर्म व्यक्तिगत आस्था रही लेकिन सामाजिक न्याय के विरोध में खड़े धर्म का वें विरोध करते थे। उन्होंने अंततः बौद्ध धर्म को अपनाया, जो उनके राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से मेल खाता था।
उनका अंतिम लक्ष्य ऐसा भारत था जहाँ जाति के आधार पर कोई भेदभाव न हो और हर व्यक्ति को समान अवसर मिले
आज भी अंबेडकर का नाम दलित वोटों को किसी चुंबक की तरह खींचता है और दलित, दमित वर्ग वोट बैंक पर कब्जा करने का एक अमोघ अस्त्र है । अंबेडकर के बाद कितने ही दलित नेता आए लेकिन अंबेडकर जैसा तिलिस्म कोई नहीं खड़ा कर पाया. न जगजीवन राम और न काशीराम या रामविलास पासवान और न ही मायावती स्वयं को अंबेडकर में बदल पाए।
अंबेडकर जयंती मनाने व उनकी जयंती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित कर देने से से दलित वर्ग भले ही खुश हो मगर अंबेडकर के साथ जीते जी जो व्यवहार हुआ और मृत्यु के पश्चात भी उन पर जिस तरह उंगलियां उठाई गई, उससे अंबेडकर के प्रति राजनीतिक दलों एवं सरकारों के रवैया एवं उनकी कथनी करनी के अंतर का साफ पता चलता है ।
गरीब दलित परिवार में पैदा हो, फर्श से अर्श का सफर तय करने वाले अंबेडकर भारतीय संविधान के जनक तो हैं ही आज भी सोशल इंजीनियरिंग की धुरी हैं ।
भीमराव अम्बेडकर के चिंतन पर भी बहस की पर्याप्त गुंजाइश है । अंबेडकर की उंगली उठाए हुए लगाई गई प्रतिमाएं जहां समाज एवं सरकारों की मंशा पर उंगली उठा रही लगती हैं, वहीं स्वयं उन पर भी आजीवन उंगलियां उठती रही । तब भी जब अंबेडकर का चुनाव संविधान सभा के अघ्यक्ष के रूप में किया जा रहा था और तब भी जब उनके बनाए कानूनों को दुनिया अचरज भरी नज़र से देख रही थी और तब भी जब उन्हे देश में आरक्षण के नाम पर चल रहे दंगों के लिए सबसे बड़ा गुनहगार बताया जा रहा था और तब भी जब उन्हे देश के दलित वर्ग का ‘मसीहा’ कहा जा रहा था और तब भी जब उन्हे ‘पैर की जूती’ कह लांछित किए जाने वाले दलित वर्ग को सर माथे पर बिठाने का दोषी माना जा रहा था । इतना ही नहीं, जब उन्होंने हिंदू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म स्वीकार किया, तब भी उनके इस निर्णय पर बहुत पैनी एवं कठोर मुद्रा वाली उंगलियां उठीं थी।
दलितों के मसीहा भीमराव, आज़ाद हिंदुस्तान के गरीब, वंचित व दलित समाज के श्रद्धापात्र ‘भीम’ भारत के साथ ऐसे जुड़े हैं कि भीम और भारत को अलग करना संभव ही नहीं लगता है ।
आज अंबेड़कर और उनके चिंतन पर सवाल उठते हैं, राजनीतिक रूप से उनके गढ़े संविधान पर भी प्रश्नचिह्न खड़े किए जाते हैं । अब यें सवाल कितने सही, गलत हैं यह तो अलग बात है मगर यह सच है कि आज भी अंबेडकर लाखों दिलों में बसे हैं ।
भीमराव सिर्फ दलित समस्याओं पर नहीं सोचते थे अपितु ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते थे जिसमें सभी को न्याय मिले । आज चिंतन की आवश्यकता है कि अंबेड़कर को हम केवल दलितों तक ही सीमित रखकर उनका स्थान तय न करें क्योंकि अम्बेडकर ऐसे भारत के बारे में सोचते थे जिसमें जातिगत व आर्थिक तथा सामाजिक विषमताएं न हों ।
अंबेडकर सामाजिक एकरूपता के पक्षधर थे और वर्गभेद व जाति तथा संप्रदाय रहित भारत के सपने देखते थे । भीम भारत को जडों तक जानते थे । अंतिम समय में उन्होने जातिगत आरक्षण का विरोध भी किया था । वे मानते थे एक बार आरक्षण की बैसाखी पर चलने की आदत होने पर दलित व पिछड़ा समाज हमेशा के लिए उसका आदी हो जाएगा और उसकी उन्नति की जमीन चालाक वर्ग हथिया लेगा और आज ऐसा ही हो रहा है । भीमराव ने बहुत पहले ही ताड़ लिया था कि राजनैतिक दल आरक्षण से वोट बैंक बनाने का लाभ लेंगें और भारतीय समाज और भी ज्यादा टूटन का शिकार हो जाएगा. इसीलिए उन्होंने आरक्षण की अवधि केवल 15 वर्ष रखी थी लेकिन यह 15 वर्ष आने वाले अगले 15 वर्षों में भी पूरे होते नहीं दिखते.
आज डा० अम्बेडकर के नाम से वोटों की फसल काटने वाले तो बहुत हैं पर उनके दिखाए रास्ते पर कम ही चलते हैं। इसी वजह से अंबेड़कर का दलित-पिछड़ों के समन्वय का अंबेडर का सपना आज भी अधूरा है । दलित अभी भी त्रस्त हैं और जब तक उन्हे गरीबी की रेखा से ऊपर नही लाया जाता, उनके लिए समाज के दूसरे वर्गों में सम्मान व बराबरी का भाव नहीं आ जाता तब तक अंबेडकर का ‘मिशन बराबरी’ का स्वप्न पूरा नहीं होगा ।
डॉ० घनश्याम बादल
पुरुषों सत्ता पर नारी का एकछत्र साम्राज्य
आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
दुनिया भर के धुरन्धर ज्ञानियों-ध्यानियों, धर्मज्ञ, तत्ववेत्ताओं के होते हुये इस समाज में मुझ जैसा महामूर्ख भी है जो नर और नारी के बीच उनकी छुपी हुई प्रतिभाओं-कलाओं से हटकर नर में छिपी नारी को देखता है। पुरुषों में नारी पुरुषोत्तमा है जो अणिमा,लघिमा सिद्धिया है, प्रकृति में संध्या, ऊषा, रजनी, पृथ्वी है, नदिया में गंगा,यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी है, भाषाओं में हिन्दी, अंग्रेजी, कश्मीरी, पंजाबी, सिंधी, मैथिली, आदि हैं, गृहस्थों व साधकों में गीता, भक्ति, आराधना, साधना, कामना, भावना, माया, काया, जाया, वीणा, वाणी, लक्ष्मी, सुधा-माधुरी है तो कवियों के लिये माॅ के रूप में वीणापाणी शारदा, कविता, कहानी, रचना, शायरी, डायरी, पोथी नारी प्रधान है, उद्योगों में मशीन, जनता में महंगाई आदि अनेक तुलनायें नारी से की जाकर नारी की श्रेष्ठता को सिद्ध किया गया है। अब आज के परिवेश में नारी की महिमा इन नारी सूचक शब्दों में लिखिए जिसमें कोई भी नेता या दल की तुलना करने से पहले उसकी ‘पार्टी ‘और उसकी ‘‘राजनीति‘‘ के लिये उगाहे जाने वाला ‘‘चन्दा ‘‘ ये तीनों भी नारीसूचक है। देश प्रदेश के राजनेता ही नहीं अपितु सरकारे भी नारियों को लुभाने के लिये मामा बनकर बहनों के लिये भाजियों के लिये लालच का जाल फैलाकर नारी महात्म्य के गुणगान कर नारी पर राजनीति कर रहे है।
शिव का एक स्वरूप अर्द्धनारीश्वर का है, जिसमें आधे शरीर में शिव नर रूप में स्वयं है और आधे स्वरूप में नारी रूप में पार्वती है, इसलिये सभ्य समाज नर और नारी में किये गये इस लिंग भेद के अंतर की जिज्ञासाओं से भरा है और जन्म से लेकर मृत्यु तक शरीर के भेद का पार नहीं पा सकते हैं। नर को नारायण कहा है और नारी को नारायणी। नारायणी वह है जो नारायण सहित सम्पूर्ण प्रकृति-सृष्टि की संरक्षिका है, आधार है इसलिये वह नर की अधिष्ठात्री है, यानी इस जगत में नारी सत्ता से ही नर की पहचान है और नर में नारी और नारी में नर का एकछत्र राज्य दिखाई देता है।
नर और नारी में लिंगभेद है जिसे बचपन में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, लिंग आदि व्याकरण पढ़ते समय मन में एक सवाल उठता रहा है और मन खुद से झगड़ता है कि भैईये जब नर और नारी का लिंगभेद स्पष्ट है तो यह तीसरा नपुसंकलिंग त्रिलिंग वृहंगला समाज दुनिया में अलग थलग क्यों हैं? लिंगभेद के इस झगड़े में संज्ञा, सर्वनाम के अतिरिक्त क्रिया, विशेषण, आदि सभी की निर्विवाद सत्ता है, पर आप विशेषण और क्रियाविशेषण के मेरे तर्क से पिण्ड छुड़ाना चाहेेंगे और मेरे इस विषय को लेकर बाल की खाल निकालने जुट जायेंगे, आप अपना काम करें, मैं अपना काम करता हॅू, मैंने काम ठान लिया है कि इन तीनों लिंगों में नर, नारी अर्द्धनारी-नर से हटकर एक तीसरा ही समलैंिगकों का समाज ऊग आया, इन सबके निर्विकार सत्य आप तक पहुॅचाने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं अपनी बात की शुरूआत में एक उदाहरण देना चाहता हॅू कि जिस प्रकार मनुष्य के किसी भी अंग की वृद्धि से उसके शरीर की उन्नति नहीं समझी जाती, प्रत्युत उसकी वकृतावस्था ही समझी जाती है और यदि मनुष्य का प्रत्येग अंग पुष्ट हो जाये तो वह अत्यन्त सुन्दर, आकर्षक व दर्शनीय हो जाता है। शरीर के अंगों के साथ उसके चित्त-बुद्धि की उन्नतियाॅ भी महत्व रखती है, पर हमारा लक्ष्य नर में नारी और नारी में नर है इसलिये इन दोनों के अंगों के नाम को लेकर विचार रख रहा हॅू जिसमें नारी का फौलादी यर्थात और शब्दलालित्य आप सभी पाठकों को गुदगुदा सकें। इस जगत में देखा जाये तो नर यानि पुरूष के अंगों में नारी भी अपनी सत्ता का जलवा बिखेरती है, वहीं नारी के शरीर के अंगों में पुरूषवाचक संज्ञायें उसका पीछा नहीं छोड़ती है, तो दूसरी ओर दोनों के अंगों को एक ही संज्ञासूचक से पहचाना जाता है।
पुरूष के पांव से सिर तक नारीसूचक शब्दों का महाजाल है जिसमें अगर आप पांव से देखें तो पहले एढ़ी, पिंडली, नाभि,कोहनी, ठुडडी,हड्डी, पसली, चमड़ी, छाती, पलक, नाडी, कलाई, पीठ, धमनी, नाक, आंख, मुठटी, तर्जनी,जीभ और धमनी आदि है। धरती से लेकर आकाश तक, नीचाई से लेकर ऊॅचाई तक और चैड़ाई से लेकर लम्बाई तक इंच-इंच में नारीवाचक शब्दों का महाजाल बिछा दिखाई देता है। लौकिक तुलनाओं में नर शरीर के अंगों में नारी की श्रेष्ठता सिद्ध है। अब पुरूषलिंग सूचक शब्दों में घुटना है, जो घुटने टेकने को विवश कर देता है, कंधा और हाथ है जो हर जगह भिखारियों की तरह झुकने को तैयार रहता है, ओंठ है जो सिले होते है या दाॅतों से काॅटे जाते है, कान हमेशा उमेढ़ने या कान पकड़कर उठा-बैठक के लिये होते है।
लिंगभेद की उलझन मेरे मतिष्क को चकरघिन्नी किये है, कि लिंगभेद में स्त्री पुरूष की व्याख्या के बाद नपुसंकलिंग को हम तीसरा जेन्डर मानकर जड़ के रूप में अपने समाज में स्थान दिये है, क्या वह भूल अथवा हमारी अल्पज्ञता नहीं है। नपुसंकलिंग में जड़ वस्तुयें है तो उसमें मानव समाज का वह तीसरा व्यक्ति भी शामिल किया है जो न नर है और न ही नारी, लेकिन वह इंसान तो है, फिर इंसान जड़ कैसे हो सकता है, वह उतना ही संवेदनशील, भावप्रदान है जितना स्त्री और पुरूष होते है। सौन्दर्य की प्रतिमा अर्थात सुन्दरता के प्रतिबिम्ब स्त्री-पुरूष पर लिखना कठिन है, पर मैं यह रिस्क ले चुका हॅॅू, पर एक नवीन समस्या देश में उत्पन्न हो गयी जिससे अंजान रह पाना में उचित न मानते हुये नर,नारी के साम्राज्य को चुनौती देने समलैंगिकों का आना और अनैतिकता सबंधों को मान्यता देने की माॅग करना हिन्दुस्थान के एक खतरनाक बीमारी है जिससे पूरा देश परेशान है।
बीमारी कहना, बीमारी का अपमान होगा, असल में सृष्टि के पालनकर्ता का प्रकोप कहना ठीक होगा, जो उन्होंने भारत में जीते जी बिगडैल युवाओं केे लिये अपनी बनाये नारी सौन्दर्य से वंचित करते समलैंगिक यौन सम्बन्धों के मोहजाल में फॅसाकर घोर नर्क की व्यवस्था कर दी है। लज्जित होने को तैयार ये लड़के-लड़कों से और लड़की लड़की से समलैंिगक विवाह की मान्यता पर अड़े है, जो सृष्टि के विधान के विपरीत है। जहाॅ सारी प्रकृति, सृष्टि नर और नारी के जोड़े के रूप में सहचर्य द्वारा अपनी वंशवृद्धि करती है, यह प्रकृति का एक अटूट नियम है। इस कलिकाल में ऐसी नस्ल का आना सृष्टि की वृद्धि में नर-नारी से होने वाली संतति पर विराम लगाकर उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करेगा वही समाज को शर्मसार भी करेगां। विचार कीजिये भारत जैसे संस्कारप्रदान देश में सदियों से चली आ रही ं सनातन परम्परा एवं गुरूकुल परम्परा तथा प्राकृतिक व्यवस्था के तहत नर नारी के जोड़े को नकार कर नर का नर से और नारी का नारी से जोड़ा बनाकर अप्राकृतिक, असामान्य यौन सम्बन्ध स्थापित करने के लिये समलैंगिक शादी की मान्यता देने तथा इन समलैंगिक सम्बन्धों को कानून कीं धारा 377 को अपराध की श्रेणी से बाहर किये जाने की माॅग मानना कहीं अधर्म, अनीति, अत्याचार नही।
तीसरे लिंग में वृहंगलायें है वे प्रकृति द्वारा उन्हें दिये स्वरूप के बाद भी पूरे सम्मान के साथ भारत में इन अप्राकृतिक विचारों में नहीं, पर आज सभ्य, सुशिक्षित कहे जाने वाले युवा जो अपनी ऊर्जा से जगत में विकास की क्रांति के अध्याय लिख सकते है, वे कामुकता के अधूरेपन में समान-सेक्स में विवाह का भविष्य तलाश रहे है। भारत जैसे देश में समानलिंगी जोड़ोें कोे कोई भी परिवार-समाज अपने साथ रखने की गारंटी लेकर सुरक्षा देगा, यह संभव नहीं है, क्योंकि कोई भी नही ंचाहेगा कि इनके साथ रहने से उनकी संतानों पर बुरा असर पड़ेगा। व्याकरण की प्रमुखता में संज्ञा शब्द की पहचान के रूप में लिंग तीन प्रकार के बताये है पुर्लिंग जिसमें पुरूषों का बोध होता है और स्त्रीलिंग जिसमें स्त्री का बोध होता है तथा नपुसंकलिंग जिसमें जड़ का बोध होता है। कुछेक का अभिमत रहा है कि नर ही नारी की खान है और नर से ही नारी है।
नर नारी ही नहीं अपितु चराचर जगत के सौन्दर्य की उपमा ‘‘सुन्दर‘‘ शब्द से की जाती है। इन हालातों में यहां ‘‘सुन्दर‘‘ शब्द अपने को अभागा मानता होगा । आ सोचेंगे ‘‘सुन्दर‘‘ शब्द अभागा क्यों है? कारण जब समस्त जगत-सृष्टि के साथ नर-नारी अपने आप में सुन्दर होते हुए ‘‘ ऐसे हतभागी बन जाये जो समलैंगिकता जैसी अनैतिकता को स्वीकारें तब सौन्दर्य की रोचकता घातक परिणामदायक होगी। सौन्दर्य जिस साधारण तृप्ति का नाम है उनमें परस्पर एक दूसरे के उद्वेग का स्पर्श, मन, हृदय और प्राणों में भावनात्मक, काल्पनिक वैचारिकता, उदात्त वेदना का संचार द्वारा स्फूर्ति, सृजन और शांति की अभिव्यंजना है। नर-नारी के शरीर से पृथक नर के इस अभिव्यंजित देह को स्त्री मूल की पहचान मिलना, नर के अंगों में स्त्रीवाचक शब्दों की संज्ञा और सर्वनाम से पहचान होना सौन्दर्य की जननी नारायणी की उत्पत्ति जिन 52 मातृकाओं से हुई है, वह विचार इस जगत के निर्माता ने नर में नारी और नारी में नर का साम्राज्य स्थापित कर उनके जीवन में एक अपूर्व सौन्दर्य के साथ विभिन्न गुणों-भावों से पूर्ण किया है।
आत्माराम यादव पीव
राम भक्त हनुमान सिखाते हैं जीवन जीने की कला
(हनुमान जयंती विशेष, 12 अप्रैल 2025)
संदीप सृजन
हनुमान जी भारतीय संस्कृति और धर्म में एक अद्वितीय स्थान रखते हैं। रामायण के इस महान पात्र को न केवल एक शक्तिशाली योद्धा और भक्त के रूप में जाना जाता है, बल्कि वे एक ऐसे प्रेरक व्यक्तित्व भी हैं जो हमें जीवन जीने की कला सिखाते हैं। उनकी कहानियाँ, उनके गुण और उनका चरित्र हमें यह समझाते हैं कि जीवन की चुनौतियों का सामना कैसे करना चाहिए, अपने कर्तव्यों को कैसे निभाना चाहिए और एक संतुलित, सार्थक जीवन कैसे जीना चाहिए। हनुमान जी के जीवन से हमें जो शिक्षाएँ मिलती हैं, वे आज के आधुनिक युग में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी प्राचीन काल में थीं।
*निष्ठा और समर्पण*
हनुमान जी का सबसे प्रमुख गुण है उनकी भगवान राम के प्रति अटूट निष्ठा और समर्पण। रामायण में हनुमान जी का हर कार्य इस बात का प्रमाण है कि वे अपने स्वामी की सेवा में पूर्णतः समर्पित थे। चाहे वह लंका में सीता माता की खोज हो, संजीवनी बूटी लाने का कठिन कार्य हो, या रावण की सेना से युद्ध करना हो, हनुमान जी ने कभी अपने कर्तव्य से मुँह नहीं मोड़ा। यह हमें सिखाता है कि जीवन में सफलता और संतुष्टि तभी मिलती है जब हम अपने लक्ष्यों, परिवार, और समाज के प्रति निष्ठावान रहते हैं।
आज के समय में, जहाँ लोग अक्सर स्वार्थ और तात्कालिक सुखों के पीछे भागते हैं, हनुमान जी का यह गुण हमें याद दिलाता है कि असली शक्ति और आनंद अपने कर्तव्यों को निभाने में है। उदाहरण के लिए, एक छात्र जो अपने अध्ययन के प्रति समर्पित रहता है, एक कर्मचारी जो अपने काम के प्रति निष्ठा रखता है, या एक माता-पिता जो अपने बच्चों की परवरिश में पूरी मेहनत करते हैं—ये सभी हनुमान जी की निष्ठा से प्रेरणा ले सकते हैं। जीवन में जब हम किसी उद्देश्य के प्रति समर्पित होते हैं, तो वह हमें एक दिशा देता है और हमारे कार्यों को सार्थक बनाता है।
*विनम्रता के साथ शक्ति*
हनुमान जी की शक्ति का कोई मुकाबला नहीं था। वे पहाड़ उठा सकते थे, समुद्र लाँघ सकते थे, और राक्षसों की विशाल सेनाओं को परास्त कर सकते थे। लेकिन उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे अपनी शक्ति का कभी अहंकार नहीं करते थे। वे हमेशा नम्र बने रहे और अपनी शक्ति का उपयोग केवल दूसरों की भलाई के लिए किया। सुंदरकांड में जब वे लंका पहुँचते हैं, तो वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के बजाय पहले स्थिति को समझते हैं और फिर उचित कदम उठाते हैं।
यह हमें सिखाता है कि शक्ति तभी सार्थक है जब वह नम्रता के साथ हो। आज के समाज में लोग अक्सर अपनी सफलता, धन, या प्रभाव का दिखावा करते हैं, लेकिन हनुमान जी हमें बताते हैं कि असली ताकत वह है जो दूसरों की मदद के लिए इस्तेमाल की जाए। उदाहरण के तौर पर, एक नेता जो अपनी शक्ति का उपयोग जनता की सेवा के लिए करता है, या एक शिक्षक जो अपने ज्ञान को नम्रता से छात्रों तक पहुँचाता है, वे हनुमान जी के इस गुण को अपनाते हैं। हमारे जीवन में भी, चाहे हम कितने ही सफल क्यों न हों, नम्रता हमें जमीन से जोड़े रखती है और हमारे रिश्तों को मजबूत बनाती है।
*साहस और आत्मविश्वास*
हनुमान जी का जीवन साहस और आत्मविश्वास की मिसाल है। जब उन्हें लंका जाने का कार्य सौंपा गया, तो शुरू में वे संकोच में थे। लेकिन जामवंत के प्रोत्साहन से उन्होंने अपनी शक्ति को पहचाना और समुद्र को लाँघ कर लंका पहुँच गए। यह घटना हमें सिखाती है कि हमारे अंदर भी अपार संभावनाएँ छिपी हैं, बस हमें अपने आप पर विश्वास करने की जरूरत है। हनुमान जी ने यह भी दिखाया कि साहस का मतलब सिर्फ शारीरिक बल नहीं, बल्कि मन की दृढ़ता भी है।
आधुनिक जीवन में कई बार हम मुश्किलों से घबरा जाते हैं, चाहे वह नौकरी में असफलता हो, पारिवारिक समस्याएँ हों, या व्यक्तिगत चुनौतियाँ। हनुमान जी हमें प्रेरणा देते हैं कि हमें अपने डर को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना चाहिए। उदाहरण के लिए, एक युवा जो नई नौकरी शुरू करने से डरता है, या एक उद्यमी जो व्यवसाय शुरू करने में हिचकिचाता है, वे हनुमान जी के साहस से सीख सकते हैं। आत्मविश्वास और साहस हमें न केवल मुश्किलों से लड़ने की ताकत देता है बल्कि हमें बेहतर इंसान भी बनाता है।
*निस्वार्थ सेवा*
हनुमान जी का जीवन निस्वार्थ सेवा का प्रतीक है। उन्होंने कभी भी अपने लिए कुछ नहीं माँगा। चाहे वह सीता माता को ढूंढना हो, लक्ष्मण के लिए संजीवनी लाना हो, या राम की सेना की मदद करना हो, हनुमान जी ने हमेशा दूसरों की भलाई को प्राथमिकता दी। उनकी यह निस्वार्थता हमें सिखाती है कि जीवन का असली सुख दूसरों की मदद करने में है।
आज के स्वार्थी युग में यह गुण और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। हम अक्सर अपने लाभ के बारे में सोचते हैं लेकिन हनुमान जी हमें याद दिलाते हैं कि जब हम दूसरों के लिए कुछ करते हैं, तो वह न केवल समाज को बेहतर बनाता है, बल्कि हमें भी आंतरिक शांति देता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति जो जरूरतमंदों की मदद करता है, या एक स्वयंसेवक जो अपने समय को समाज सेवा में लगाता है, वह हनुमान जी की इस शिक्षा को जीता है। हमारे छोटे-छोटे प्रयास, थोड़ी प्रोत्साहित करना, किसी की सहायता करना भी निस्वार्थ सेवा का हिस्सा बन सकते हैं।
*बुद्धिमत्ता और विवेक*
हनुमान जी केवल शक्तिशाली ही नहीं बल्कि अत्यंत बुद्धिमान और विवेकशील भी थे। लंका में उन्होंने अपनी बुद्धि का परिचय तब दिया जब वे सीता माता से मिले और उन्हें राम का संदेश पहुँचाया। उन्होंने स्थिति को भाँपकर सही समय पर सही कदम उठाया। रावण के दरबार में भी उनकी बुद्धिमत्ता और वाक्पटुता देखने लायक थी।
यह हमें सिखाता है कि जीवन में केवल शक्ति या साहस ही काफी नहीं, बल्कि बुद्धि और विवेक का होना भी जरूरी है। आज के समय में, जहाँ हमें हर दिन कई निर्णय लेने पड़ते हैं, हनुमान जी का यह गुण हमें सही और गलत के बीच चयन करने में मदद कर सकता है। उदाहरण के तौर पर, एक व्यवसायी को अपने व्यापार में जोखिम और लाभ का आकलन करने के लिए विवेक चाहिए, या एक छात्र को अपनी पढ़ाई के लिए सही दिशा चुनने के लिए बुद्धि की जरूरत होती है। हनुमान जी हमें सिखाते हैं कि भावनाओं में बहने के बजाय सोच-समझकर कदम उठाना चाहिए।
हनुमान जी के जीवन की ये शिक्षाएँ केवल धार्मिक या आध्यात्मिक संदर्भ तक सीमित नहीं हैं। आज के व्यस्त और तनावपूर्ण जीवन में ये हमें एक संतुलित और सकारात्मक दृष्टिकोण देती हैं। निष्ठा हमें अपने लक्ष्यों पर केंद्रित रखती है, नम्रता हमें अहंकार से बचाती है, साहस हमें चुनौतियों से लड़ने की ताकत देता है, निस्वार्थता हमें दूसरों के प्रति संवेदनशील बनाती है, और बुद्धि हमें सही मार्ग दिखाती है।
हनुमान जी का जीवन हमें यह भी सिखाता है कि हमें अपने अंदर की शक्ति को पहचानना चाहिए। जैसे जामवंत ने हनुमान जी को उनकी शक्ति का अहसास कराया, वैसे ही हमें भी अपने आसपास के लोगों और परिस्थितियों से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ना चाहिए। चाहे वह व्यक्तिगत जीवन हो, सामाजिक जिम्मेदारियाँ हों, या कैरियर की चुनौतियाँ—हनुमान जी की शिक्षाएँ हर क्षेत्र में हमारा मार्गदर्शन कर सकती हैं। हनुमान जी एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जो हमें जीवन जीने की कला सिखाते हैं। उनकी निष्ठा, नम्रता, साहस, निस्वार्थता और बुद्धि हमें यह समझाती है कि एक सार्थक जीवन कैसे जिया जा सकता है। वे हमें बताते हैं कि शक्ति का असली मतलब दूसरों की भलाई में है, और साहस का मतलब अपने डर को हराने में है। आज के समय में, जब हम तनाव, प्रतिस्पर्धा और अनिश्चितता से घिरे हैं, हनुमान जी का जीवन और उनकी शिक्षाएँ एक प्रकाश स्तंभ की तरह हमें सही रास्ता दिखाती हैं। यदि हम उनके इन गुणों को अपने जीवन में अपनाएँ, तो न केवल हमारा जीवन बेहतर होगा, बल्कि हम अपने आसपास के लोगों के लिए भी प्रेरणा बन सकते हैं। हनुमान जी का आशीर्वाद हमें हमेशा प्राप्त हो और हम उनके दिखाए मार्ग पर चलकर एक संपूर्ण जीवन जी सकें।
संदीप सृजन
आंजन धाम : हनुमान जी की जन्मस्थली
हनुमान जयंती विशेष, 12 अप्रैल 2025)
कुमार कृष्णन
हनुमान भारत वर्ष के लोकदेवता हैं। चंडी, गणपति और शिवलिंग की तरह वे भी उस भारतीयता के प्रसव क्षणों में उदित हुए हैं जो आर्य एवं आर्येतर अर्थात आदि निषाद किरात, द्रविड़ और आर्य के चतुरंग समन्वय से उत्पन्न हुई हैं। अपने विकसित रूप में यह भारतीय लोकाश्रयी और वेदाश्रयी दोनों हैं परंतु इसकी पृष्ठभूमि है आदिम लोक संस्कृति ही। हनुमान एक ऐसे लोक देवता हैं जो भारतीय धर्म साधना के प्रस्थान बिंदु पर खड़े हैं और वहां से प्रारंभ करके उसके चरम बिंदु वैष्णव धर्म तक वे विकसित होते गए हैं। अपने आदिम रूप में वे महावीर अर्थात बड़का बरम बाबा और प्रेतराज हैं जबकि भारत का आदि निषाद वीर पूजा पूजा तथा प्रेत पूजा का विश्वासी था । अपने चरम रूप में वे विष्णु की दुर्धर्ष शक्ति और बल के प्रतीक हैं तथा एक ही साथ वराह, नृसिंह ताक्षर्य एवं हयग्रीव तत्वों को अपने भीतर समाविष्ट करके वे अपराजिता एवं अपराजेय वैष्णवी शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हैं। साथ ही साथ दुर्गा स्कंध और गणपति की तरह वे रुद्र तत्व अग्नि के प्रतीक हैं और पार्थिव मंडल एवं मूलाधार चक्र के देवता भी हैं । देह के भीतर वे मरुत अर्थात पांच प्राणों के प्रतीक हैं और वायु पुत्र होने कारण वे मरुत शक्ति भी हैं।
उनके जन्म की कथा स्कंद जन्म के समरूप हैं और एक ही कथारूढ़ि ‘शुक्र का स्थानांतरण’ का दोनों में प्रयोग हुआ है । अतः महाकव्य उन्हें मां का वैष्णवी शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं तो पुराण रुद्र शक्ति के रूप में । पुराणों में स्कंद और हनुमान दोनों की जन्म कथाएं एक ही कथा रूढ़ि का प्रयोग करती हैं और दोनों का जनक रुद्र या माहेश्वर हैं। यद्यपि स्कंद जन्मकथा का स्रोत निषाद किरात लगता है हनुमान जन्म कथा का निषाद द्रविड़। पुराण इन सारी परंपराओं के लिए व्यापक एवं संयुक्त भूमि प्रस्तुत करते हैं । महाकाव्यों ने, हनुमान के चरित्र में वैदिक सुपर्ण का आवेश स्थापित किया है और उनका समुद्र मंथन भी सीतन्वेषण, वैदिक सुपर्ण द्वारा सोम का आहरण एवं अमृत कलश के अनुसंधान के समरूप है । कहने का तात्पर्य हनुमान केवल राम कथा के पात्र नहीं । वे एक वृहत्तर व्यक्तित्व वाले देवता हैं जिनसे आदिम, लोकायत, वैदिक, पौराणिक आदि अनेक अनेक परंपराएं जुड़ी हुई हैं । विष्णुऔर शिव तथा दुर्गा के समानांतर वे लोक और वेद, दोनों का बल लेकर प्रतिष्ठित हैं और उनकी जड़े इतिहास के पाताल तक गई हैं।
भगवान हनुमान के जन्म का इतिहास गुमला जिले के उत्तरी क्षेत्र में अवस्थित आंजनग्राम से जुड़ा हुआ है। यहीं माता अंजनी ने हनुमान को जन्म दिया था। माता अंजनी के नाम से इस गांव का नाम आंजन पड़ा। यह गांव जिला मुख्यालय से लगभग 22 किमी की दूरी पर है। हनुमान जी की जन्मस्थली के कारण यह अब आंजनधाम के रूप में विख्यात है। यह धाम प्राचीन धार्मिक स्थलों में से एक है। साथ ही देश के अंदर यह ऐसा पहला मंदिर है, जिसमें भगवान हनुमान बाल अवस्था में माता अंजनी की गोद में बैठे हैं। रामनवमी के दिन प्रति वर्ष यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। हनुमान जयंती पर विशेष पूजा होती है। माता अंजनी पहाड़ की चोटी पर स्थित गुफा में रहती थीं। यह गुफा गांव से दो किमी दूर पहाड़ की चोटी पर है। इसी गुफा में माता अंजनी ने बालक हनुमान को जन्म दिया था। आज भी यह गुफा आंजन धाम में मौजूद है।
हनुमानजी के जन्म स्थान को लेकर कई प्रकार की भ्रांतियां प्रचलित हैं। रामायण में भी इनके जन्मस्थान को लेकर कोई खास जिक्र नहीं है। कोई नागपुर में इनका जन्मस्थान मानता है तो कोई कहता है कि बजरंगबली कर्नाटक में जन्मे थे। वाबजूद इसके रामभक्त हनुमान के जन्मस्थल के रूप में जो स्थान सबसे ज्यादा चर्चित है वह झारखंड के गुमला जिले में स्थित है। गुमला जिले के आंजन धाम में हनुमानजी का जन्म हुआ था और मां अंजनी के नाम पर ही इस इलाके का नामकरण किया गया।
धार्मिक मान्यताओं की मानें तो भगवान शिव ने हनुमान का अवतार लिया था। हम में से बहुत कम लोग इस बात को लोग जानते हैं कि भगवान शिव ने कुल 12 अवतार लिए हैं जिनमें से एक अवतार उनका हनुमान का भी है।
हनुमान जी की पूजा हर मंगलवार और शनिवार को बड़े ही श्रद्धापूर्वक की जाती है। कहा यह भी जाता हैं कि जो भक्त हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं, उनके जीवन में सभी कष्टों का निवारण हनुमान जी करते है।
मान्यताओं की मानें तो हनुमान जी का जन्म झारखंड के गुमला जिला मुख्यालय से करीब 21 किलोमीटर दूर आंजन गांव की एक गुफा में हुआ था। इसी वजह से इस जगह का नाम आंजन धाम है। इतना ही नहीं माता अंजनी का निवास स्थान होने की वजह से इस स्थान को आंजनेय के नाम से भी जाना जाता है। जानकारी के लिए बता दें कि इन पवित्र पहाड़ों में एक ऐसी भी गुफा है जिसका संबंध सीधा-सीधा रामायण काल से जुड़ा है। माता अंजनी इस स्थान पर हर रोज भगवान शिव की आराधना करने आती थीं और इसी कारण से यहां 360 शिवलिंग स्थापित हैं।
यहां एक रहस्यमयी गुफा है जिसे गुस्से में आकर एक बार मां अंजनी ने बंद कर दिया था। पहाड़ों के बीच स्थित आंजन धाम के दर्शन करने भक्त दूर-दूर से आते हैं। यहां पालकोट में सुग्रीव गुफा भी है। मां अंजनी के बारे में मान्यता है कि साल के हर दिन अलग-अलग तालाब में स्नान करती थी। स्नान के बाद वह हर रोज शिवलिंग के दर्शन करती थीं।यहां के स्थानीय निवासी बताते हैं कि मां अंजनी को प्रसन्न करने के लिए आदिवासियों ने एक बार बकरे की बलि दे दी लेकिन मां उनके इस कार्य से नाराज हो गईं। तब से मां ने गुफा के द्वार को सदा के लिए बंद कर दिया जहां हनुमान जी का जन्म हुआ था। तब से यह गुफा आज भी बंद है।
कर्नाटक के कोप्पल और बेल्लारी में भी एक स्थान है जिसे अंजनी पर्वत के नाम से जाना जाता है। इस स्थान को किष्किन्धा भी बोला जाता है। मान्यता है कि यहां मां अंजनी ने घोर तपस्या की थी।
कुमार कृष्णन
वर्तमान वैश्विक पटल पर भारत के लिए आपदा में अवसर हैं
अमेरिका ने अन्य देशों से अमेरिका में होने वाली आयातित उत्पादों पर भारी भरकम टैरिफ लगाकर विश्व के लगभग समस्त देशों के विरुद्द एक तरह से व्यापार युद्ध छेड़ दिया है। इससे यह आभास हो रहा है आगे आने वाले समय में विभिन्न देशों के बीच सापेक्ष युद्ध न होकर व्यापार युद्ध होने लगेगा। चीन से अमेरिका को होने वाले विभिन्न उत्पादों के निर्यात पर तो अमेरिका ने 145 प्रतिशत का टैरिफ लगा दिया है। एक तरह से अमेरिका की ओर से चीन को यह खुली चुनौती है कि अब अपने उत्पादों को अमेरिका में निर्यात कर के बताए। 145 प्रतिशत के आयात कर पर कौन सा देश अमेरिका को अपने उत्पादों का निर्यात कर पाएगा, यह लगभग असम्भव है। इससे चीन की अर्थव्यस्था छिन्न भिन्न हो सकती है, यदि चीन, अमेरिका के स्थान पर विश्व के अन्य देशों को अपने उत्पादों का निर्यात नहीं बढ़ा पाया। बगैर प्रत्यक्ष युद्ध किए, अमेरिका ने चीन पर एक तरह से विजय ही प्राप्त कर ली है और चीन की अर्थव्यवस्था को भारी नुक्सान करने के रास्ते खोल दिए हैं, हालांकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी विपरीत रूप से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगी। परंतु, ट्रम्प प्रशासन ने विश्व के 75 देशों पर लागू किए गए टैरिफ को 90 दिनों के लिए स्थगित कर दिया है। इससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर अन्यथा होने वाले विपरीत प्रभाव को बहुत बड़ी हद्द तक कम कर लिए गया है। अमेरिका संभवत चाहता है कि आर्थिक मोर्चे पर चीन पर इतना दबाव बढ़ाया जाए कि चीन की जनता चीन के वर्तमान सत्ताधरियों के विरुद्ध उठ खड़ी हो और चीन एक तरह से टूट जाए। अमेरिका ने लगभग इसी प्रकार का दबाव बनाकर सोवियत रूस को भी तोड़ दिया था।
कुल मिलाकर पूरे विश्व में विभिन्न देशों के बीच अब नए समीकरण बनते हुए दिखाई दे रहे हैं। यूरोपीयन यूनियन के समस्त सदस्य देश आपस में मिलकर अब अपनी सुरक्षा स्वयं करना चाहते हैं। अभी तक ये देश अमेरिका के सखा देश होने के चलते अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका पर निर्भर रहते थे। परंतु, वैश्विक स्तर पर बदली हुई परिस्थितियों के बीच इन देशों का अमेरिका पर विश्वास कम हुआ है एवं यह देश आपस में मिलकर अपनी स्वयं की सुरक्षा व्यवस्था खड़ी करना चाहते हैं। आगे आने वाले समय में यूरोपीयन यूनियन के समस्त देश अपने सुरक्षा बजट में भारी भरकम वृद्धि कर सकते हैं। यहां, भारत के लिए अवसर निर्मित हो सकते हैं क्योंकि भारत में हाल ही के समय में सुरक्षा के क्षेत्र में उत्पादों की नई एवं भारी मात्रा में उत्पादन क्षमता निर्मित हुई है। भारत आज सुरक्षा के क्षेत्र में तेजी से न केवल आत्म निर्भर हो रहा है बल्कि भारी मात्रा में उत्पादों का निर्यात भी करने लगा है। आज सिंगापुर जैसे विकसित देश भी भारत से सुरक्षा उत्पाद खरीदने हेतु करार करने की ओर आगे बढ़ रहे हैं। यदि यूरोपीयन देशों के साथ भारत की पटरी ठीक बैठ जाती है तो सुरक्षा के क्षेत्र में भारत के लिए अपार सम्भावनाएं मौजूद है। भारत, यूरोपीयन देशों के साथ सामूहिक तौर पर द्विपक्षीय व्यापार समझौता करने के प्रयास भी कर रहा है।
इसी प्रकार, आगे आने वाले समय में यदि चीन के निर्यात अमेरिका को कम होते हैं तो चीन से विनिर्माण इकाईयों का पलायन तेजी से प्रारम्भ होगा। संभवत इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र, टेक्स्टायल क्षेत्र, फार्मा क्षेत्र, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र, प्रेशस मेटल के क्षेत्र में भारत के लिए अपार सम्भावनाएं बनती हुई दिखाई दे रही है, क्योंकि, उक्त समस्त क्षेत्रों से चीन, अमेरिका को भारी मात्रा में निर्यात करता है। अब 145 प्रतिशत के टैरिफ की दर पर चीन में निर्मित उत्पाद अमेरिका में नहीं बिक पाएंगे। अतः भारत के लिए इन समस्त क्षेत्रों में अपार सम्भावनाएं बनती हुई दिखाई दे रही हैं। टेक्स्टायल के क्षेत्र में तो वर्तमान में भारत के पास बहुत भारी मात्रा में उत्पादन क्षमता भी उपलब्ध है। टेक्स्टायल के क्षेत्र में भारत के पड़ौसी देश ही अधिक प्रतिस्पर्धी बने हुए हैं, जैसे बंगलादेश, पाकिस्तान, चीन, वियतनाम आदि। इस समस्त देशों पर अमेरिका द्वारा लगाई गई टैरिफ की दर, भारत की तुलना में कहीं अधिक है। अतः टेक्स्टायल के क्षेत्र में भारत में निर्मित विभिन्न उत्पाद तुलनात्मक रूप से अधिक प्रतिस्पर्धी बन गए हैं। इसका सीधा सीधा लाभ भारतीय टेक्स्टायल उद्योग द्वारा उठाया जा सकता है। इसी प्रकार, मोबाइल फोन का उत्पादन करने वाली विश्व की सबसे बड़ी कम्पनियों में से सैमसंग एवं ऐपल नामक कम्पनियां भारत में अपनी उत्पादन क्षमता में भारी भरकम वृद्धि करने के बारे में विचार कर रही हैं। वर्ष 2024 में भारत से 2040 करोड़ अमेरिकी डॉलर के मोबाइल फोन का निर्यात विभिन्न देशों को हुआ हैं, यह वर्ष 2023 में हुए निर्यात की राशि से 44 प्रतिशत अधिक है। और, मोबाइल फोन के निर्यात में हुई इस भारी भरकम वृद्धि में ऐपल एवं सैमसंग कम्पनियों का योगदान सबसे अधिक रहा है। केंद्र सरकार द्वारा लागू की गई उत्पादन प्रोत्साहन योजना का लाभ भी भारत में मोबाइल निर्माता कम्पनियों ने भारी मात्रा में उठाया है। भारत आज स्मार्ट मोबाइल के उत्पादन के क्षेत्र में पूरे विश्व में दूसरे स्थान पर पहुंच गया है। यदि वैश्विक स्तर पर परिस्थितियां इसी प्रकार बनी रहती हैं तो शीघ्र ही भारत मोबाइल उत्पादन के क्षेत्र में पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर आ जाएगा।
अन्य क्षेत्रों में उत्पादन करने वाली बहुराष्ट्रीय बड़ी बड़ी कम्पनियां भी अपनी विनिर्माण इकाईयों को चीन से स्थानांतरित कर भारत में स्थापित कर सकती हैं। कोविड महामारी के खंडकाल के समय भी यह उम्मीद की जा रही थी और चीन+1 नीति का अनुपालन करने के सम्बंध में कई कम्पनियों ने घोषणा की थी परंतु उस समय पर कई कम्पनियां अपनी विनिर्माण इकाईयों को ताईवान, वियतनाम, एवं थाईलैंड, आदि जैसे छोटे छोटे देशों में ले गईं थी और इसका लाभ भारत को बहुत कम मिला था। परंतु, आज परिस्थितियां बहुत बदली हुई हैं। छोटे छोटे देशों में बहुत भारी मात्रा में उत्पादन करने वाली विनिर्माण इकाईयां स्थापित करने की बहुत सीमाएं हैं। इन देशों में श्रमबल की उपलब्धता सीमित मात्रा में है। जबकि भारत में इस दौरान आधारिक संरचना एवं मूलभूत सुविधाओं में अतुलनीय सुधार हुआ है और भारत में श्रमबल भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।
आज जापान, इजराईल, ताईवान, रूस, जर्मनी, फ्रान्स, आस्ट्रेलिया आदि विकसित देश श्रमबल की कमी से जूझ रहे हैं। कई विकसित देशों में जनसंख्या वृद्धि दर लगभग शून्य के स्तर पर आ गई है। बल्कि, कुछ देशों में तो जनसंख्या में कमी होती हुई दिखाई दे रही है। दूसरे, इन देशों में प्रौढ़ नागरिकों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है और इन प्रौढ़ नागरिकों की देखभाल के लिए भी युवा नागरिकों की आवश्यकता है। अब कुछ देशों जैसे जापान, इजराईल, ताईवान आदि ने भारत सरकार से भारतीय नागरिकों के इन देशों में बसाने के बारे में विचार करने को कहा है। इजराईल सरकार ने लगभग 1 लाख भारतीयों की मांग भारत सरकार से की है, जापान सरकार ने भी लगभग 2 लाख भारतीयों की मांग की है एवं ताईवान सरकार ने भी लगभग 1 लाख भारतीयों की मांग की है। भारत आज विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे युवा देश है। अतः भारत आज इस स्थिति में है कि अपने नागरिकों को इन देशों में बसाने के लिए भेज सके। वैसे भी विश्व के कई देशों में आज लगभग 4 करोड़ भारतीय मूल के नागरिक निवास कर रहे हैं एवं इन देशों की अर्थव्यवथा में शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मजबूत भागीदारी सुनिश्चित कर रहे हैं। भारतीय नागरिक वैसे भी हिंदू सनातन संस्कृति का अनुपालन करते हैं एवं इन देशों में शांतिपूर्ण तरीके से जीवन यापन करते हैं। इतिहास गवाह है कि भारत ने कभी भी किसी भी देश पर अपनी ओर से आक्रमण नहीं किया है। भारतीय नागरिक “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना में विश्वास रखते हैं अतः किसी भी देश में वहां के स्थानीय नागरिकों के साथ तुरंत घुलमिल जाते हैं। अतः भारत के लिए विभिन्न देशों को श्रमबल उपलब्ध कराने के क्षेत्र में भी अपार सम्भावनाएं बनती हुई दिखाई दे रही है।
कुल मिलाकर भारत सरकार ने भी विभिन्न देशों के साथ अपने द्विपक्षीय व्यापार समझौतों को शीघ्रता के साथ अंतिम रूप देना प्रारम्भ कर दिया है क्योंकि आगे आने वाले समय में विश्व व्यापार संगठन की उपयोगिता लगभग समाप्त हो जाएगी और आगे आने वाले समय में विदेशी व्यापार के क्षेत्र में दो देशों के बीच आपस में किए गए द्विपक्षीय व्यापार समझौते ही अपनी विशेष भूमिका निभाते हुए नजर आएंगे। अतः भारत सरकार को इन देशों से होने वाले द्विपक्षीय समझौतों में भारत के हितों की रक्षा करने पर विशेष ध्यान देना होगा। बहुत सम्भव है कि भारत का अमेरिका के साथ भी द्विपक्षीय व्यापार समझौता आगामी 6 माह के अंदर सम्पन्न हो जाए और फिर भारत से अमेरिका को होने वाले विभिन्न उत्पादों के निर्यात के लिए एक नया रास्ता खुल जाए।
प्रहलाद सबनानी
राणा के बहाने पाकिस्तान का पूरा आतंकी सच उजागर हो
– ललित गर्ग –
मुंबई में भीषण, खौफनाक एवं दर्दनाक आतंकी हमले की साजिश रचने और उसे अंजाम देने में सक्रिय रूप से शामिल रहने वाले पाकिस्तान मूल के कनाडाई नागरिक तहव्वुर हुसैन राणा को अमेरिका से भारत लाया जाना किसी उपलब्धि से कम नहीं है, यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कूटनीतिक जीत एवं भारत की कानून की बड़ी सफलता है। लगभग 170 लोगों की दर्दनाक मौत, क्रूरता एवं अमानवीयता का डरावना मंजर एवं देशवासियों की आंखों को गमगीन करने वाले इस आतंकी हमले के मास्टरमाइंड राणा का अमेरिका से प्रत्यर्पण भारत के लिये एक उजली किरण बनकर प्रस्तुत हुई है। 26-11-2008 एक ऐसी डरावनी तारीख है जिसे याद करके देशवासी सिहर जाते हैं। दहशत की तस्वीरें आंखों के सामने आ जाती हैं। यह तारीख मुम्बई के पुराने घाव को न केवल कुरेदती है बल्कि टीस भी पैदा करती है कि 150 करोड़ का यह देश अब तक क्यों नहीं राणा का प्रत्यर्पण कराकर उसे दर्दनाक सजा दे पाया। अब राणा के भारत के शिकंजे में आ जाने से 26-11 के घावों पर कुछ मरहम लगेगा क्योंकि मुम्बई एवं देश आज भी जख्मों का हिसाब मांगती है।
देर आये दुरस्त आये की कहावत को चरितार्थ करते हुए अब देश का खतरनाक दुश्मन हाथ आ गया है तो उसे ऐसी सजा दी जाये कि न केवल पाकिस्तान, पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन एवं दुनिया में आतंक फैलाने वाले सहम जाये कि भविष्य में ऐसी घटना करने का दुस्साहस न कर सके। यह तो तय है कि राणा से पूछताछ में कई राज खुलेंगे, लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या उसे फांसी की सजा देना संभव होगा? भारत सरकार को ऐसे कूटनीतिक एवं साहसिक प्रयत्न करने होंगे, जिससे उसे फांसी की सजा देना संभव हो सके और वह भी कम से कम समय में। मुंबई हमले के दौरान पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब को सजा देने में चार साल लग गए थे। इतनी देरी राणा के मामले में नहीं होनी चाहिए। यह ऐसा मामला है, जिस पर देश के साथ दुनिया की भी निगाह होगी। राणा की सजा से ही भारत के न्यायतंत्र की त्वरता एवं तत्परता सामने आयेगी। क्योंकि खूंखार आतंकियों को सजा देने में देरी से आतंक से लड़ने की प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिह्न टंकते है।
17 साल बाद आज भी महानगर मुम्बई की वह काली रात एवं गोलियों की गंूज से सब दहल उठते है, सहम जाते हैं। उस दिन पाक प्रशिक्षित लश्कर-ए-तैयबा के 10 आतंकवादियों ने एक साथ कई जगहों पर हमला किया। लियो पोर्ल्ड कैफे और छत्रपति शिवाजी टर्मिनल से शुरू हुआ मौत का दर्दनाक तांडव ताजमहल होटल में जाकर खत्म हुआ। जिसमें आतंकवाद निरोधक दस्ते यानि एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, मुम्बई पुलिस के अतिरिक्त आयुक्त अशोक कामटे और पुलिस इंस्पैक्टर विजय सालस्कर शहीद हुए। आतंकवादी कसाब को जिन्दा पकड़ने वाले साहसी सब इंस्पैक्टर तुकाराम को कौन भुला सकता है, जो एक दूसरे आतंकवादी की गोलियों का शिकार होकर भी, जान की बाजी लगाकर कसाब को पकड़ने में सफलता पायी, भले ही इस एकमात्र पाकिस्तानी आतंकवादी कसाब को सजा-ए-मौत दी गई लेकिन इस हमले ने क्रूरता के जो निशान छोड़े वे आज भी मुम्बई में मौजूद हैं, भारत के जन-जन के हृदय पटल पर अंकित है।
कौन नहीं जानता कि तहव्वुर राणा ने दाऊद सईद गिलानी यानि डेविड कोलमैन हेडली के साथ मिलकर हमले की साजिश रची थी। डेविड हेडली ने अपनी पहचान छिपाने के लिए मुम्बई में फर्स्ट वर्ल्ड इमीग्रेशन सर्विसिज के नाम से एक कम्पनी का कार्यालय खोला और खुद को बिजनेसमैन के रूप में पेश किया। धीरे-धीरे उसने फिल्म जगत में नामी-गिरामी हस्तियों से जान-पहचान बढ़ाई। भारत यात्रा के दौरान उसने मुम्बई एवं देश के अन्य हिस्सों की रेकी की जहां पर हमला किया जाना था। पाकिस्तानी पिता और अमरीकी माँ की औलाद हेडली अमरीका में एक समय रंगीन ज़िन्दगी गुज़ार चुका था जिसके दौरान ड्रग्स की तस्करी के लिए उसे जेल भी हुई थी। भारत ने हेडली के प्रत्यर्पण के लिए भी अनुरोध किया था, लेकिन अमेरिकी अधिकारियों ने उसे छोड़ने से इनकार कर दिया, क्योंकि कई मामलों और डेनमार्क में एक हमले की नाकाम साजिश सहित 12 आतंकवाद से संबंधित आरोपों में दोषी होने की बात स्वीकार की थी। उसने लश्कर, आईएसआई और अलकायदा के राज अमेरिका को बताए तब से ही हेडली अमेरिका की सम्पत्ति बन गया है। फिलहाल हेडली का अमेरिका में सुरक्षित रहना बड़े सवाल खड़े करता है। इस बीच भारत ने राणा को मोस्ट वॉन्टेड घोषित कर दिया और 28 अगस्त 2018 भारत के खिलाफ आतंकी साजिश रचने, युद्ध छेड़ने, हत्या, जालसाजी और आतंकवादी हमले के आरोपों पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया। अब सवाल यह है कि अमेरिका ने राणा को तो भारत के हवाले कर दिया लेकिन वह डेविड हेडली के मामले में क्यों खामोश है?
राणा को भारत लाया जाना, भारत के शिकंजे में आना भारत की बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत है। राणा पाकिस्तानी सेना का पूर्व अधिकारी है। चूंकि उसने आतंकी संगठन लश्कर एवं पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ से मिलकर मुंबई हमले की साजिश रची थी, इसलिए उससे गहन पूछताछ करके पाकिस्तान को नए सिरे से न केवल बेनकाब करना होगा, बल्कि उस पर इसके लिए दबाव भी बनाना होगा कि वह मुंबई हमले के अन्य गुनहगारों को भी दंडित करे। इस हमले के गुनहगार पाकिस्तान में खुले घूम रहे हैं। अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्यर्पण संधि के तहत राणा को भारत भेजने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। हालांकि राणा ने कई हथकंडे अपनाए लेकिन अमेरिकी अदालतों में उसकी सारी याचिकाएं ठुकरा दी गईं। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत की यह आज तक की सबसे बड़ी जीत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल इसके लिए कूटनीतिक प्रयास करते रहे हैं। सर्वविदित है कि भारत विश्व के सर्वाधिक पाकिस्तान पोषित आतंकवाद प्रभावित देशों में से एक है। 26-11 के मुंबई हमलों के अलावा 2008 में ही जयपुर विस्फोट, काबुल में भारतीय दूतावास के अलावा अहमदाबाद, दिल्ली और असम के विस्फोट भी शामिल थे। यह संतोषजनक तो है कि अमेरिका ने देर से सही, राणा को भारत को सौंप दिया। यदि ट्रंप फिर से अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं बनते तो शायद राणा को भारत लाना और मुश्किल होता। जो भी हो, भारत को केवल इतने से ही संतोष नहीं करना चाहिए कि अंततः एक बड़ा आतंकी उसके हाथ लग गया। भारत को देश के अन्य शत्रुओं एवं आतंकियों को भी दंडित करने-कराने के प्रति प्रतिबद्ध रहना होगा। उन्हें और पाकिस्तान सरीखे उनके आकाओं को यह संदेश नए सिरे से देना होगा कि भारत अपने दुश्मनों को न तो भूलता है और न माफ करता है।
तहव्वुर राणा का प्रत्यर्पण आतंकवाद के खिलाफ भारत की एक बड़ी जीत है, लेकिन इसे आतंकवाद के खिलाफ एक छोटा पडाव मानते हुए अभी कई मोर्चें पर आतंकवाद के खिलाफ कमर कसनी होगी, अब भारतीय सुरक्षा एजेंसियों का असली बड़ा काम यहां से शुरू हुआ है। मुंबई सहित देश के अन्य हिस्सों और विशेषतः जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमले की पूरी प्लानिंग के पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई व उसकी जमीन पर सक्रिय आतंकवादी संगठनों का हाथ न केवल था, बल्कि आर्थिक एवं अन्य तरह का सहयोग भी शामिल है। राणा के बहाने पाकिस्तान के मनसंूबों को बेनकाब करना ज्यादा जरूरी है, इससे कई राज खुलने और जांच को नई दिशा मिलने की उम्मीद है। तमाम सबूत होने के बाद भी पाकिस्तान इस हमले के पीछे अपनी कोई भूमिका होने से इनकार करता रहा है। हालांकि वह आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के प्रमुख हाफिज सईद और जकी-उर-रहमान लखवी जैसे आतंकवादी सरगनाओं को बचाता भी रहा है। राणा के माध्यम पाकिस्तान का पूरा सच देश भी जाने एवं दुनिया भी समझे, तभी राणा का भारत आना सफल एवं सार्थक होगा।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राज्यपाल विधेयकों को नहीं रोकेगें?
रामस्वरूप रावतसरे
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन की बेंच ने तमिलनाडु सरकार बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल (आर एन रवि) मामले में यह फैसला दिया है। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल के पास राज्य विधानसभा की तरफ से भेजे गए विधेयकों पर वीटो का अधिकार नहीं है। वे किसी बिल को अनिश्चितकाल के लिए रोक नहीं सकते। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास कोई विवेकाधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर अनिवार्य रूप से कार्य करना होता है। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा था कि राज्यपाल सहमति को रोककर ‘पूर्ण वीटो’ या ‘आंशिक वीटो’ (पॉकेट वीटो) की अवधारणा को नहीं अपना सकते।
शीर्ष अदालत के अनुसार राज्य विधानसभा द्वारा विधेयक को पुनः पारित किए जाने के बाद उसे पेश किए जाने पर राज्यपाल को एक महीने की अवधि में विधेयकों को मंजूरी देनी होगी। राज्यपाल के पास कोई विवेकाधिकार नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा अपने कार्य निर्वहन के लिए कोई स्पष्ट समय सीमा निर्धारित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पास किए गए 10 लंबित विधेयकों को राज्यपाल द्वारा मंजूर मान लिया है। कोर्ट ने भविष्य के सभी विधेयकों पर कार्रवाई के लिए समय सीमा भी तय कर दी है। संविधान के अनुच्छेद 200 में यह प्रावधान नहीं था।
जानकारी के अनुसार तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के बीच काफी समय से विवाद चल रहा था। राज्यपाल विधानसभा द्वारा पास किए गए विधेयकों को मंजूरी देने में देरी कर रहे थे। कुछ बिल तो 2020 से ही लंबित थे। ज़्यादातर बिलों में राज्यपाल को विश्वविद्यालयों के चांसलर के तौर पर मिलने वाले अधिकारों को कम करने की बात थी। इससे राज्यपाल और सरकार के बीच टकराव बढ़ गया था। आरोप लगाया जाता है कि राज्यपाल जानबूझकर विधायी प्रक्रिया को रोकने की कोशिश करते हैं। तमिलनाडु ही नहीं, छत्तीसगढ़, हरियाणा, बंगाल और केरल जैसे राज्यों में भी राज्यपालों के साथ ऐसे ही विवाद हुए। पुडुचेरी में भी एलजी (लेफ्टिनेंट गवर्नर) और सरकार के बीच मतभेद थे। तेलंगाना, पंजाब और केरल के राज्यपाल भी लंबित विधेयकों को पास नहीं करने के कारण कोर्ट में गए।
संविधान के अनुच्छेद 153 में हर राज्य के लिए एक राज्यपाल का प्रावधान है। अनुच्छेद 154 के तहत कार्यकारी शक्तियां राज्यपाल के पास होती हैं लेकिन संविधान में उनकी भूमिका और शक्ति सीमित है। अनुच्छेद 163(1) के अनुसार, राज्यपाल को अपने मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करना होता है। संविधान में राज्यपाल को कुछ मामलों में अपने विवेक से काम करने की शक्ति दी गई है लेकिन, यह शक्ति भी सीमित है। सुप्रीम कोर्ट ने 1974 में शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में फैसला दिया था कि राज्यपाल सिर्फ एक संवैधानिक प्रमुख हैं। राज्य की कार्यकारी शक्तियां वास्तव में मंत्रिपरिषद द्वारा इस्तेमाल की जाती हैं।
अनुच्छेद 200 के मुताबिक विधानसभा द्वारा पास किए गए सभी विधेयकों को राज्यपाल की मंजूरी चाहिए होती है। राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं- विधेयक को मंजूरी देना, मंजूरी रोकना, विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखना या विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानसभा को वापस भेजना। यह अनुच्छेद भारत सरकार अधिनियम, 1935 की धारा 75 पर आधारित है। इसमें इन विकल्पों का इस्तेमाल करने के लिए कोई समय सीमा नहीं दी गई है।
सरकारिया आयोग (1987), राष्ट्रीय संविधान समीक्षा आयोग (2002) जिसके अध्यक्ष जस्टिस वेंकटचलैया थे, और जस्टिस एम.एम. पुंछी आयोग (2010) ने सिफारिश की थी कि राज्यपालों को विधेयकों पर फैसला लेने के लिए एक समय सीमा तय की जानी चाहिए। कर्नाटक विधि आयोग की 22वीं रिपोर्ट ’’विधेयकों पर सहमति-देरी की समस्याएं (भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और 201)’’ में जस्टिस वी.एस. मलीमठ ने कहा था कि यह अजीब होगा कि राज्य के प्रमुख को एक विधेयक पर सहमति देने में उतना ही समय लगे जितना कि विधानसभा को उसे पास करने में लगता है। यह अच्छी तरह से स्थापित है कि हर राज्य कार्रवाई उचित होनी चाहिए। शक्ति का उचित प्रयोग एक उचित समय के भीतर किया जाना चाहिए। ऐसा न करना अनुचित होगा।
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार राज्यपाल किसी भी बिल को हमेशा के लिए नहीं रोक सकते। उन्हें बिल पर फैसला लेना ही होगा। कोर्ट ने तमिलनाडु को कहा कि उन्हें बिलों को जल्दी पास करना चाहिए। कई राज्यों में राज्यपाल और सरकार के बीच झगड़ा चल रहा है। राज्यपाल बिलों को पास करने में देरी करते हैं जिससे सरकार का काम रुक जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने अब इस पर लगाम लगा दी है। संविधान में लिखा है कि राज्यपाल को सरकार की सलाह पर काम करना चाहिए लेकिन, कई बार राज्यपाल अपनी मनमानी करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह गलत है। राज्यपाल को संविधान के हिसाब से चलना चाहिए। आयोगों ने भी कहा है कि राज्यपाल को बिलों पर फैसला लेने के लिए एक समय सीमा होनी चाहिए। इससे सरकार का काम आसानी से चलेगा।
पिछले 40 वर्षों (1985 से 2025 तक) में भारत में कई राज्यपाल ऐसे रहे हैं जिनके कार्यों ने राज्यों के साथ विवादों को जन्म दिया। ये विवाद अक्सर विधायी देरी, राज्य सरकारों के साथ टकराव, या संवैधानिक सीमाओं के कथित उल्लंघन से जुड़े रहे। नीचे कुछ प्रमुख राज्यपालों की सूची दी गई है जिन्हें उनके कार्यकाल के दौरान विवादों के लिए जाना गया।
केरल के राज्यपाल और सरकार के बीच मनमुटाव का मामला काफी विवादों में रहा था। केरल के तत्कालीन राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने कहा था कि केरल सरकार कई ऐसे काम करती है जो कानून के मुताबिक नहीं होते। दरअसल एपीजे अब्दुल कलाम प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (केटीयू) के कुलपति का चयन करने के लिए कुलाधिपति के नामित व्यक्ति के बिना चयन समिति बनाने को लेकर आरिफ मोहम्मद नाराज थे। उन्होंने कहा था कि सरकार पर निर्भर करता है कि वे क्या करना चाहते हैं। वे कई ऐसे काम कर रहे हैं जो कि कानून के मुताबिक नहीं हैं। राज्य के विश्वविद्यालयों में कुलपतियों सहित नियुक्तियों के मुद्दे पर आरिफ मोहम्मद खान और केरल सरकार लंबे अरसे तक आमने-सामने थे।
इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी के एक विवादित निर्णय से जुड़ा है, जो 1998 में हुआ था। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने मध्यरात्रि में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को पद से हटा दिया और जगदंबिका पाल को नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिला दी। सुप्रीम कोर्ट ने बाद में राज्यपाल के निर्णय को अवैध घोषित किया और कल्याण सिंह को बहाल कर दिया। इस घटना ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बड़ा विवाद पैदा कर दिया और राज्यपाल की शक्तियों पर प्रश्नचिन्ह उठाया।
ऐसा ही मामला बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह के इस्तीफे से जुड़ा है, जो 2005 में बिहार विधानसभा के विघटन से संबंधित एक मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा फटकार लगाए जाने के बाद हुआ था। 2005 में बिहार विधानसभा को भंग कर दिया गया था, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया। राज्यपाल बूटा सिंह पर आरोप लगा कि उन्होंने केंद्र सरकार को गलत जानकारी दी, जिसके आधार पर विधानसभा को भंग किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने बूटा सिंह की भूमिका की आलोचना की और कहा कि उन्होंने केंद्र सरकार को गलत जानकारी दी।
हंसराज भारद्वाज के राज्यपाल कार्यकाल के दौरान कई विवाद हुए जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं। केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के एक निर्देश को सही ठहराया जिसमें राज्यपाल ने विधानसभा अध्यक्ष केजी बोपय्या को निर्देश दिए थे। इस निर्देश के बारे में कुछ लोगों ने सवाल उठाए थे।
कमला बेनीवाल राज्यपाल विवाद 2009-2014 के बीच हुआ, जब उन्होंने गुजरात, त्रिपुरा और मिजोरम के राज्यपाल के रूप में कार्य किया। इस दौरान, उनका तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ कई मुद्दों पर टकराव हुआ। कमला बेनीवाल ने राज्यपाल रहते हुए आरए मेहता को लोकायुक्त नियुक्त किया जिसे गुजरात सरकार ने विवादित माना। उनका नरेंद्र मोदी के साथ कई मुद्दों पर टकराव हुआ जो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रहा।
बंगाल में सीएम ममता और राज्यपाल जगदीप धनखड़ के बीच विवाद काफी चर्चा में रहा है। दोनों कई मुद्दों पर टकराते रहे हैं। जगदीप धनखड़ जब बंगाल के राज्यपाल थे तब बंगाल की सीएम ममता बनर्जी धनखड़ पर केंद्र के आदेश थोपने का आरोप लगाती रही हैं तो वहीं, राज्यपाल कहते रहे हैं कि वह जो भी कार्य करते हैं वह संविधान के मुताबिक होता है। चाहे बात विधानसभा का सत्र बुलाने की हो या किसी नए विधायक को शपथ दिलाने की, बंगाल में तकरीबन हर मामले पर सीएम गवर्नर के बीच सियासी विवाद पैदा हो जाता था। चुनाव के बाद राज्य में हुई हिंसा को लेकर भी सीएम और राज्यपाल में टकराव हुआ था। हालांकि, सीवी आनंद बोस का पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनकर आना भी सीएम ममता बनर्जी को रास नहीं आ रहा है। राज्यपाल सीवी आनंद बोस और ममता सरकार में शुरू से जंग लगातार जारी है।
2021 में पंजाब के राज्यपाल बने बनवारी लाल पुरोहित का कार्यकाल काफी विवादित था। पंजाब में उनका कार्यकाल आम आदमी पार्टी सरकार के साथ लगातार टकराव भरा रहा। खासकर पंजाब राजभवन द्वारा विभिन्न विधेयकों को मंजूरी नहीं मिलने के मुद्दे पर। हर बार जब भी राज्यपाल पुरोहित ने चिंता जताई या स्पष्टीकरण मांगा, तो मुख्यमंत्री, कैबिनेट मंत्री और आधिकारिक प्रवक्ता सहित आम आदमी पार्टी ने कड़ा जवाब दिया। उन्होंने अक्सर पुरोहित पर भाजपा से प्रभावित होने और उनकी सरकार के खिलाफ साजिश रचने का आरोप लगाया।
प्रायः यह देखा गया है कि राज्यपाल की नियुक्ति केन्द्र सरकार करती है। केन्द्र चाहता है कि राज्य का शासन उसकी रीतिनीति के अनुसार चले। ऐसे में राज्य में विपक्ष की सरकार होने के कारण अक्सर टकराव रहता ही है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद संभव है इसमें कमी आयेगी और आपसी सकारात्मकता की भावना से जनहित के मामले जल्दी निस्तारित होगें।
रामस्वरूप रावतसरे
तहव्वुर राणा का प्रत्यर्पण: भारत की एक बड़ी सफलता
सुनील कुमार महला
आतंकवाद भारत ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए आज भी एक नासूर है और हाल ही में इस नासूर पर लगाम लगाने के क्रम में मुंबई धमाकों 2008 के साजिशकर्ता तहव्वुर राणा को अमेरिका से भारत लाया गया है। कहना ग़लत नहीं होगा कि यह भारत की आतंकवाद के खिलाफ एक बड़ी जीत है। सच तो यह है कि यह भारत सरकार के अथक रणनीतिक प्रयासों का ही परिणाम है कि तहव्वुर राणा को भारत लाया जा सका है। पाठकों को बताता चलूं कि मुंबई आतंकवादी हमले में सैकड़ों लोग मारे गए थे जिनमें 26 विदेशी नागरिक भी थे और इस हमले की विश्वव्यापी निंदा हुई थी। वास्तव में भारत का यह कदम आतंकवादी संगठनों, विशेषकर पाकिस्तान के लिए एक सशक्त/सख्त संदेश है कि किसी एक देश का आतंकवादी किसी अन्य देश में बेफिक्र होकर नहीं घूम सकता।
पाठक अच्छी तरह से जानते होंगे कि आतंकवाद का मतलब है, किसी राजनीतिक, धार्मिक, या वैचारिक मकसद को पूरा करने के लिए हिंसा या धमकी का इस्तेमाल करना। वास्तव में आतंकवाद का मकसद, सरकार को किसी न किसी प्रकार से प्रभावित करना या लोगों को डराना होता है। वास्तव में सच तो यह है कि आतंकवाद को एक तरह की हिंसात्मक गतिविधि माना जाता है। संक्षेप में कहें तो यह मानवता के विरूद्ध एक गंभीर अपराध है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि इस कदम से अमेरिका का आतंकवाद के प्रति दृष्टिकोण भी और अधिक स्पष्ट हो गया है। सच तो यह है कि आतंकवाद व आतंकवादी किसी भी राष्ट्र के मित्र नहीं हो सकते हैं। यदि हम यहां पर आतंकवाद की खास बातों पर विचार करें तो यह व्यक्तियों के बीच की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह तो एक प्रकार से सामाजिक समूहों और राजनीतिक शक्तियों के बीच संघर्ष है। वास्तव में सच तो यह है कि आतंकवादियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली रणनीति, असीमित युद्ध का एक रूप ही तो है।
कहना ग़लत नहीं होगा कि आतंकवाद को संरक्षण देने वाले देश स्वयं इसके दुष्परिणामों से अछूते नहीं रह सके हैं और विशेषकर पाकिस्तान इसका जीता-जागता उदाहरण है।आतंकवाद बहुत ही घृणित और विनाशकारी अपराध है। गौरतलब है कि तहव्वुर राणा का प्रत्यर्पण आतंकवाद के प्रति वैश्विक परिप्रेक्ष्य में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है। साथ ही, भारत सरकार ने आतंकवाद के प्रति अपनी जीरो टोलरेंस(शून्य सहनशीलता) नीति को भी वैश्विक स्तर पर दृढ़ता से प्रमाणित किया है। अब सरकार से यह अपेक्षा की जा सकती है कि भविष्य में भी इसी प्रकार से अन्य आतंकवादियों और आर्थिक अपराधियों के प्रत्यर्पण को भी सुनिश्चित किया जाएगा। बहरहाल, पाठकों को यह याद होगा कि कुछ समय पहले ही व्हाइट हाउस में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में तहव्वुर राणा को भारतीय कानून का सामना करने के लिए भारत भेजने पर सहमति व्यक्त की थी। उपलब्ध जानकारी के अनुसार राणा पेशे से चिकित्सक है, जिसका जन्म पाकिस्तान में हुआ था तथा बाद में वह कनाडा चला गया था और वहां का नागरिक बन गया।
मुंबई आतंकवादी हमले के मुख्य साजिशकर्ताओं में एक अमेरिकी नागरिक डेविड कोलमैन हेडली उर्फ दाउद गिलानी का राणा करीबी सहयोगी रहा है। उल्लेखनीय है कि हेडली ने मुंबई हमले की रेकी की थी और इस साजिश को साकार करने में राणा ने उसकी मदद की थी। पाठकों को बताता चलूं कि उस समय मुंबई के ताज होटल, सीएसटी और कामा अस्पताल समेत कई जगहों पर हमला हुआ था। इस दौरान पुलिस व सेना की जवाबी कार्रवाई में आतंकी अजमल कसाब जीवित पकड़ा गया था तथा उसे कानूनी प्रक्रिया में दोषी पाये जाने के बाद वर्ष 2012 में उसे 21 नवंबर 2012 में फांसी दे दी गई। गौरतलब है कि कसाब के विरुद्ध दायर चार्जशीट में राणा, हेडली के नामों का भी उल्लेख किया गया है।आरोप है कि राणा ने पाकिस्तानी आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और हरकत-उल-जिहादी इस्लामी के आतंकवादियों के साथ मिल कर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर हमले की साजिश रची थी।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफबीआई ने वर्ष 2020 में राणा को गिरफ्तार किया था। दरअसल, उसकी गिरफ्तारी भारत के कूटनीतिक दबाव के कारण हुई थी। बाद में जांच एजेंसियों की पूछताछ में यह सामने आया कि मुंबई आतंकी हमले में राणा का भी हाथ रहा है। हाल फिलहाल, एनआईए को तहव्वुर राणा की 18 दिन की रिमांड मिली है और इस संबंध में पटियाला हाउस कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया है।
उम्मीद की जा सकती है कि पूरी जांच के बाद मुंबई हमले में पाकिस्तान की भूमिका की भी पुख्ता जानकारी भारत को मिल सकेगी। हालांकि, यह बात अलग है कि यह पहले भी प्रमाणित हो चुका है कि इस हमले की साजिश पड़ौसी देश पाकिस्तान में ही रची गई थी। भारत के पास इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं, लेकिन पाकिस्तान यह कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। हालांकि, पाकिस्तान का चेहरा अब पूरी दुनिया के समक्ष एक्सपोज हो चुका है कि वह आतंकवाद और आतंकियों का असली गढ़ है। हाल फिलहाल, 26/11 के मुंबई आतंकी हमले के आरोपी तहव्वुर हुसैन राणा का अमरीका से भारत प्रत्यर्पण एक कानूनी सफलता भर नहीं है बल्कि यह हमारी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता का प्रमाण भी है कि हम आतंकवाद को किसी भी हाल और सूरत में स्वीकार करने वाले नहीं हैं। जैसा कि ऊपर भी यह कह चुका हूं कि यह भारत की आतंकवाद के प्रति ज़ीरो टोलरेंस की नीति को स्पष्टतया दिखाता है। यहां पाठकों को यह भी बताता चलूं कि भारत ने न केवल राणा की आतंकी हमले में संलिप्तता के ठोस प्रमाण प्रस्तुत किए बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि उसके साथ अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप व्यवहार किया जाएगा। इसके बाद, अमरीकी अदालतों में लंबी कानूनी प्रक्रिया चली। राणा ने भारत में निष्पक्ष सुनवाई न होने का तर्क देने के साथ अपनी जान को खतरा बताते हुए प्रत्यर्पण का विरोध भी किया था।
अंत में यही कहूंगा कि मुंबई हमला देश की आत्मा पर हुआ एक ऐसा घातक वार था जिसके जख्म आज भी हमारे मन में हरे हैं। वास्तव में तहव्वुर राणा का प्रत्यर्पण वैश्विक एकजुटता को भी दर्शाता है जो कि आतंकवाद के खिलाफ आवश्यक है। अमरीका के इस सहयोग से दोनों देशों(भारत-अमेरिका) के रणनीतिक संबंधों को भी गति मिल सकेगी और दोनों देशों का भरोसा भी इससे कहीं न कहीं मजबूत हो सकेगा। हाल फिलहाल तहव्वुर राणा भारत की न्यायिक प्रक्रिया के अधीन है, अतः यह आवश्यक है कि उसके खिलाफ मुकदमा पारदर्शिता और निष्पक्षता से चलाया जाए। यह भारत की न्याय प्रणाली के प्रति आमजन के विश्वास को और मजबूत करेगा। साथ ही, मुंबई हमले के उन पीड़ित परिवारों के लिए ढांढस बढ़ाएगा जिन्हें उस आतंकी हमले ने अपूरणीय क्षति पहुंचाई।
बदली वैश्विक परिस्थितियों में भारत की सधी चाल वैश्विक नेता बना सकती है
पंकज गांधी जायसवाल
वर्तमान में पूरी दुनिया में अमेरिकी टैरिफ के कारण जो उथल पुथल दिखाई दे रही है और वैश्विक शेयर बाज़ारों में जो हलचल देखने को मिल रही है, वह कई देशों के लिए चिंता का विषय हो सकती है लेकिन भारत के लिए यह एक सुनहरा अवसर बनकर उभर रहा है। पूरी दुनिया द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इकॉनमी के मामले में रिसेट मोड में आ गई है. अमेरिका अब अपनी बड़े भाई के रोल की जगह बराबर के साझेदार की भूमिका में आना चाहता है. दुनिया के कोतवाल से ज्यादा उसे अब अमेरिका फर्स्ट के तहत व्यापारिक सौदों में अमेरिका को अपने हितों का त्याग नहीं करना है. दुनिया के आर्थिक और राजनैतिक समीकरण तेजी से बदल रहें हैं. यदि भारत इस बदलते परिदृश्य में रणनीतिक सूझ-बूझ और संतुलित दृष्टिकोण अपनाता है तो वह निकट भविष्य में वैश्विक आर्थिक नेतृत्व की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठा सकता है। सुकून की बात है कि भारत ने कोई त्वरित और उतावलेपन वाली प्रतिक्रिया नहीं दी है. प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व और मार्गदर्शन में जयशंकर, निर्मला सीतारमण से लगायत पीयूष गोयल तक सब सधी हुई प्रतिक्रिया दे रहें हैं और इसी की दरकार है. एक आक्रामक प्रतिक्रिया माहौल को भारत के खिलाफ ले जा सकती है. अभी इस माहौल को भारत के हित के हिसाब से ले आना है. यह भारत के लिए एक अवसर भी हो सकता है.
नीचे कुछ प्रमुख कारण दिए गए हैं जो इस संभावना को सशक्त आधार प्रदान करते हैं. पहला चाइना वन पॉलिसी’ के तहत भारत एक रणनीतिक विकल्प के रूप में अपने आपको स्थापित कर सकता है. विश्व स्तर पर अमेरिका और चीन को लेकर अनेक देशों की नीतियां पुनः मूल्यांकन के दौर में हैं। ‘चाइना वन पॉलिसी’ के चलते कई देश वैकल्पिक आपूर्ति स्रोत की तलाश में हैं और भारत इस स्थिति में एक विश्वसनीय साझेदार बनकर उभर सकता है। उत्पादन, आपूर्ति श्रृंखला और राजनीतिक स्थिरता के लिहाज से भारत एक भरोसेमंद विकल्प बन सकता है।
मौजूदा टैरिफ वार से चीन के उत्पादों की लागत अमेरिका में बढ़ सकती है और यह भारत के लिए संभावनाओं का द्वार खोलती है. अमेरिका में चीन के उत्पादों पर टैरिफ, लॉजिस्टिक बाधाएं और राजनीतिक तनावों के कारण उनकी लागत में वृद्धि हो रही है। ऐसे में अमेरिकी कंपनियां भारत से आपूर्ति को प्राथमिकता दे सकती हैं। इससे भारतीय निर्यातकों के लिए एक नया द्वार खुल सकता है, विशेषकर मैन्युफैक्चरिंग, फार्मा और टेक सेक्टर में। इसके अलावा वैश्विक निवेशक भी चाइना के विकल्प में अपना मैन्युफैक्चरिंग बेस भारत शिफ्ट कर सकते हैं.
रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में कटौती और निवेश को प्रोत्साहन एक अच्छा कदम है. भारतीय रिज़र्व बैंक अगर ‘accommodative approach’ अपनाते हुए ब्याज दरों में कटौती करता है तो यह घरेलू निवेशकों के लिए एक सकारात्मक संकेत होगा। इससे बाजार में तरलता बढ़ेगी, छोटे उद्योगों को सहारा मिलेगा और उपभोक्ता खर्च में वृद्धि होगी जो समग्र आर्थिक विकास को गति देगा।
भारत में घरेलू मांग ज्यादा होना निर्यात के मुकाबले भारत की ताकत बन रहा है. बकौल वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भारत की अर्थव्यवस्था एक बड़ी उपभोक्ता अर्थव्यवस्था है। अधिकांश उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत का निर्यात पर कम निर्भर रहना एक ताकत है। जब वैश्विक मांग में सुस्ती हो, तब भी भारत की घरेलू मांग उसे स्थिर रख सकती है। इससे शेयर बाज़ार में स्थायित्व आने की संभावना है।
इस बार अच्छे मानसून की संभावना और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संबल भी भारत को संभाल रहा है. अच्छे मानसून की भविष्यवाणी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उम्मीद की किरण जगाई है। इससे कृषि उत्पादन बेहतर रहेगा, ग्रामीण मांग में वृद्धि होगी और उपभोक्ता सेंटीमेंट्स सकारात्मक बने रहेंगे। यह सभी तत्व भी शेयर बाजार को स्थायित्व देने में सहायक होंगे।
सरकार भी अमेरिका के साथ मजबूत द्विपक्षीय संबंधों को आकार दे रही है। इससे रणनीतिक साझेदारी, निवेश सहयोग, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और व्यापार के नए मार्ग खुल सकते हैं। यदि भारत इस अवसर का विवेकपूर्ण उपयोग करता है, तो वह अन्य विकासशील देशों की तुलना में एक मजबूत और अग्रणी स्थिति में आ सकता है।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकल कर आ रहा है कि बाजार में अनिश्चितता के इस दौर में जहां कई देश असमंजस की स्थिति में हैं, भारत के पास स्पष्ट रणनीति, घरेलू मांग, अंतरराष्ट्रीय विश्वास और सकारात्मक सेंटीमेंट्स जैसे मजबूत आधार मौजूद हैं। यदि नीति निर्माता सधी चाल चलते हैंब्याज दर, व्यापार नीति और वैश्विक संबंधों पर संतुलित दृष्टिकोण रखते हैं तो भारत न केवल खुद को सुरक्षित रख सकता है, बल्कि वैश्विक बाजार में नेतृत्व की भूमिका भी निभा सकता है।
अब समय है भारत के उठ खड़े होने का सधे कदम, संतुलित नीति और वैश्विक सोच के साथ।
पंकज गांधी जायसवाल
प्राइवेट सिस्टम का खेल: आम आदमी की जेब पर हमला
भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकार आज निजी संस्थानों के लिए मुनाफे का जरिया बन चुके हैं। प्राइवेट स्कूल सुविधाओं की आड़ में अभिभावकों से मनमाने शुल्क वसूलते हैं—ड्रेस, किताबें, यूनिफॉर्म, कोचिंग—सब कुछ महँगा और अनिवार्य बना दिया गया है। वहीं, प्राइवेट हॉस्पिटल डर और भ्रम का माहौल बनाकर मरीजों से मोटी रकम वसूलते हैं। सामान्य बीमारी को गंभीर बताकर महंगी जांच, दवाइयाँ और भर्ती का दबाव बनाया जाता है। इन संस्थानों के पीछे राजनीतिक संरक्षण है, जिस कारण कोई कठोर कार्रवाई नहीं होती। सबसे अधिक संकट में मध्यम वर्ग है, जिसे न सरकारी सेवाओं पर भरोसा है, न प्राइवेट सिस्टम से राहत। यह एक चेतावनी है कि यदि जनता ने अब भी आवाज़ नहीं उठाई, तो शिक्षा और स्वास्थ्य सिर्फ विशेषाधिकार बनकर रह जाएंगे।
-डॉ सत्यवान सौरभ
भारत एक ऐसा देश है जहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य को बुनियादी अधिकार माना जाता है। लेकिन जब यही अधिकार एक व्यापार का रूप ले लें, तो आम आदमी की जिंदगी में यह अधिकार बोझ बन जाते हैं। आज के दौर में प्राइवेट स्कूल और प्राइवेट हॉस्पिटल सुविधाओं के नाम पर ऐसी व्यवस्था खड़ी कर चुके हैं जो आम नागरिक की जेब पर सीधा हमला करती है। यह हमला सिर्फ आर्थिक नहीं, मानसिक और सामाजिक भी है।
शिक्षा या व्यापार?
प्राइवेट स्कूलों की बात करें तो अब ये शिक्षण संस्थान कम और फाइव स्टार होटल ज्यादा लगते हैं। स्कूल में दाखिले के लिए लाखों की डोनेशन, एडमिशन फीस, एनुअल चार्जेस, ड्रेस, किताबें, जूते, बस फीस – हर चीज में अलग-अलग मदों के नाम पर वसूली होती है। किताबें स्कूल के किसी ‘अधिकृत वेंडर’ से ही खरीदनी होती हैं, जिनका मूल्य बाज़ार दर से दोगुना होता है क्योंकि उसमें स्कूल का कमीशन जुड़ा होता है। स्कूल यूनिफॉर्म भी उन्हीं से लेनी पड़ती है, जो आम बाजार में मिलती ही नहीं।
यह सब इसलिए नहीं कि अभिभावक इन सुविधाओं की मांग करते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि स्कूलों ने इसे ‘अनिवार्य’ बना दिया है। पढ़ाई नाम की चीज अब कक्षा में कम और कोचिंग संस्थानों में ज्यादा होती है – और दिलचस्प बात ये है कि उन कोचिंग संस्थानों के मालिक भी कई बार उन्हीं स्कूल संचालकों से जुड़े होते हैं। बच्चा दिनभर स्कूल, फिर कोचिंग, फिर होमवर्क, और फिर ट्यूशन – खुद के लिए ना समय, ना सोच, ना बचपन।
इन सबका उद्देश्य एक ही होता है – ‘99% लाओ’। और जब ये नंबर नहीं आते, तो बच्चे हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं। अभिभावक दूसरों के बच्चों से तुलना करने लगते हैं, और ये पूरी प्रक्रिया मानसिक उत्पीड़न में बदल जाती है।
स्वास्थ्य का नाम, व्यापार का काम
अब अगर शिक्षा में ये स्थिति है, तो स्वास्थ्य क्षेत्र उससे भी भयावह है। प्राइवेट हॉस्पिटल्स का ढांचा अब इलाज से ज्यादा ‘कमाई’ पर केंद्रित हो गया है। अस्पताल में घुसते ही ‘पर्ची’ कटती है, फिर तरह-तरह की जाँचें, महंगी दवाइयाँ, ICU, और ‘एडवांस पेमेंट’ की माँग – और वो भी बिना यह बताए कि मरीज़ की स्थिति क्या है।
सामान्य सर्दी-खांसी या बुखार को भी डॉक्टर ऐसा बताते हैं मानो जीवन संकट में हो। डर दिखाकर लोगों को लंबी दवाओं और भर्ती की सलाह दी जाती है। मरीज़ ठीक भी हो जाए, तब भी बिल देखकर परिवार बीमार हो जाता है। जो दवा बाहर 10 रुपए में मिलती है, वही अस्पताल के बिल में 200 से 300 रुपए की होती है।
यहाँ तक कि मौत के बाद भी लाश को एक-दो दिन रोककर ‘मर्चुरी चार्जेस’, ‘फ्रीजर चार्जेस’ आदि के नाम पर अंतिम सांस तक पैसा वसूला जाता है। यह एक क्रूर मजाक है उस परिवार के साथ जो पहले ही अपनों को खो चुका होता है।
सरकार की चुप्पी – क्यों?
इस लूट का सबसे दुखद पहलू यह है कि यह सब किसी को छिपकर नहीं करना पड़ता – सब कुछ खुलेआम होता है। अखबार, सोशल मीडिया, न्यूज चैनल – हर जगह यह मुद्दा उठता है। हर साल प्राइवेट स्कूलों की फीस बढ़ोतरी और हॉस्पिटल बिलों पर शोर होता है, लेकिन हर बार यह शोर धीरे-धीरे दबा दिया जाता है।
क्यों? क्योंकि अधिकतर प्राइवेट स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल – इन सबके पीछे किसी ना किसी नेता का हाथ होता है। चाहे वह सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का – सिस्टम में बैठे अधिकतर लोग कहीं ना कहीं इस खेल में हिस्सेदार होते हैं। नियम-कानून बनते हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं होता।
आरटीई (शिक्षा का अधिकार कानून), सीजीएचएस (स्वास्थ्य सुविधा योजना), नैशनल मेडिकल काउंसिल – ये सब नाम भर हैं, जिनका प्रयोग प्रचार में होता है, न कि आम आदमी को राहत देने में।
मध्यम वर्ग की त्रासदी
गरीबों के लिए सरकार कभी-कभी योजनाएँ बना देती है, अमीरों को कोई चिंता नहीं, लेकिन सबसे ज्यादा पिसता है मध्यम वर्ग। न उसे सरकारी स्कूल में भेजना गवारा होता है, न सरकारी अस्पताल में जाना। मजबूरी में वह प्राइवेट विकल्प चुनता है, और फिर उसी जाल में फँस जाता है – एक ऐसा जाल जिसमें न कोई नियंत्रण है, न कोई जवाबदेही।
मध्यम वर्ग न तो सड़क पर उतरता है, न ही आंदोलन करता है। वह हर महीने अपनी जेब काटकर EMI देता है, स्कूल की फीस चुकाता है, हॉस्पिटल के बिल भरता है, और बस यही सोचता है – “और कोई रास्ता भी तो नहीं है।”
समाधान की संभावनाएँ
अगर वास्तव में इस समस्या से निपटना है, तो कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। निजी संस्थानों की पारदर्शिता – स्कूलों और अस्पतालों को अपने शुल्क और सेवाओं की जानकारी सार्वजनिक रूप से वेबसाइट और नोटिस बोर्ड पर लगानी चाहिए। एक स्वतंत्र नियामक संस्था होनी चाहिए जो फीस और सेवा की गुणवत्ता की निगरानी करे। एक ऐसी प्रणाली जहां आम नागरिक अपनी शिकायत दर्ज कर सके और उसका समाधान समयबद्ध तरीके से हो। यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी राजनीतिक व्यक्ति या उनके परिवार का हित इन संस्थानों से ना जुड़ा हो। जब तक आम जनता एकजुट होकर आवाज नहीं उठाएगी, तब तक यह लूट का सिलसिला चलता रहेगा।
शिक्षा और स्वास्थ्य कोई ‘सेवा’ नहीं रह गई है – यह अब एक ‘सर्विस’ है, जिसका मूल्य तय होता है आपकी जेब देखकर। यह स्थिति किसी भी संवेदनशील और लोकतांत्रिक समाज के लिए शर्मनाक है। जब तक हम खुद नहीं जागेंगे, आवाज नहीं उठाएंगे, और सिस्टम से जवाबदेही नहीं माँगेंगे – तब तक यह प्राइवेट सिस्टम हमें ऐसे ही लूटता रहेगा।
हमें यह समझना होगा कि दिखावे की दौड़ में शामिल होकर हम अपने बच्चों का बचपन, अपने परिवार की शांति, और अपने भविष्य की स्थिरता दाँव पर लगा रहे हैं। यह समय है सवाल पूछने का, व्यवस्था को आईना दिखाने का – वरना जेब तो जाएगी ही, आत्मसम्मान भी खो जाएगा।