Category: शख्सियत

प्रसिद्ध व्यक्तित्व का परिचय

लेख शख्सियत समाज साक्षात्‍कार

स्वामी सत्यानंद ने साकार किया मानवता को योग की संस्कृति देने का स्वप्न

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(102वीं जयंती 25 दिसम्बर  पर  विशेष ) कुमार कृष्णन स्वामी सत्यानंद सरस्वती देश के ऐसे संत हुए, जिन्होंने न सिर्फ योग को पूरी दुनिया में फैलाया बल्कि सामाजिक चिंतन के जरिए विकास के मॉडल को पेश किया। वे विशुद्ध आत्मभाव से प्रेरित एवं ‘लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु’  के दिव्य भाव से संचालित थे।उनका वेदान्त शास्त्रीय अथवा किताबी नहीं , बिल्कुल व्यवहारिक, प्रयोगात्मक, उपयोगी एवं मानवतावादी है।उनका मानवतावाद आत्मभाव पर आधारित है।इसे उन्होंने आर्थिक, सामाजिक परिवर्तन की एक सशक्त विचारधारा, उत्तम साधन एवं सर्वोपयोगी उपकरण के रूप में प्रस्तुत किया।स्वामी सत्यानंद का योग जहां व्यक्तित्व के शोधन-शुद्धिकरण-परिष्कार, उन्नयन- उत्थान विकास तथा ईश्वरीकरण की दिशा निश्चित करता है,उनका क्रांति दर्शन सामाजिक- आर्थिक परिवर्तन के सिद्धांत का प्रतिपादन एवं उसके क्रियान्वयन का मार्ग प्रशस्त करता है। स्वामी सत्यानंद के अनुसार-‘ योग शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थय की एक सुव्यवस्थित प्रणाली है। योग दर्शन के अनुसार- मानव तीन आधारभूत तत्त्वों- जीवनी शक्ति, या प्राण, मानसिक चित्त शक्ति या चित्त और आध्यात्मिक शक्ति या आत्मा का सम्मिश्रण है।’ स्वामी सत्यानंदजी के जीवन प्रवाह में भी हम पाते हैं कि पढ़- लिख कर भरे-पूरे परिवार से आने वाला एक 20 वर्षीय युवक अध्यात्म की राह पर चल पड़ता है। वह गुरु सेवा में लीन होने के बाद नचिकेता का वैराग्य प्राप्त कर 12 वर्षों बाद एक परिव्राजक के रूप में देश दुनिया में योग के प्रसार में लग जाते हैं। याद करें 1960 के दशक में योग के यह भ्रामक धारणा प्रचलित थी कि यह साधु सन्यासियों का विषय है,गृहस्थों और महिलाओं को योग नहीं करना चाहिए। ऐसे समय में स्वामी सत्यानंद ने योग की उपयोगिता सिद्ध की।आज जहां मुंगेर में विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय है, वह स्थान कर्णचौरा के नाम से जाना जाता था। किंवदन्ती के अनुसार राजा कर्ण इसी चबूतरे पर बैठकर प्रतिदिन सवा मन सोना दान करता था।उसी चबूतरे पर कई बार शयनकर रातें काटीं थीं। उस चबूतरे पर स्वामी जी को कई दिब्य अनुभव हुए।उन्होंने यहीं पर बैठकर  संकल्प लिया कि जहां राजा कर्ण बैठकर सोना दान करता था, वहां  से मैं विश्व को शांति बांटूंगा और योग को भविष्य की संस्कृति के रूप में विकसित करूंगा। दुनिया के कई देशों में लाखों लोगों को भारत भूमि के प्राचीन योग विद्या से परिचित कराया, जिसका परिणाम है कि आज संयुक्त राष्ट्र ने योग को आधिकारिक मान्यता दी है। मुंगेर का गंगा दर्शन, पादुका दर्शन और देवघर के रिखियापीठ को देख यक्ष भाव मन में आता होगा कि परमहंस स्वामी सत्यानंद का जीवन वैभवपूर्ण रहा होगा, लेकिन स्वामी सत्यानंद ने अभावपूर्ण, कष्ट और विपन्नता का जीवन जीते हुए पुनः मानवता को योग की संस्कृति देने का स्वप्न साकार किया। पुनः 1988 में मुंगेर त्यागने के बाद रिखियापीठ में आकार 1991 से रिखिया के स्थानीय लोगों के शैक्षिक – सामाजिक -आर्थिक उत्थान के काम का बीड़ा उठाते है। एक ऐसी आर्थिक -सामाजिक व्यवस्था जो धारित विकास के मूल्यों का मॉडल विश्व के समक्ष प्रस्तुत करता हो। आत्मिक विकास के साथ -साथ आर्थिक स्बाबलंबन के उनके प्रयास को वैश्विक अर्थव्यवस्था और ग्लोबल विलेज के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा में 25 दिसंबर 1923 को जन्मे स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस शताब्दी के महानतम संतों में से एक हैं, जिन्होंने समाज के हर क्षेत्र में योग को समाविष्ट कर, सभी वर्गों, राष्ट्रों और धर्मों के लोगों का आध्यात्मिक उत्थान सुनिश्चित कर दिया। योग का तात्पर्य होता है जोड़ना. परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने योग का वैज्ञानिक रूप में पुनर्जीवन किया उस योग ने पूरी दुनिया को एक सूत्र में जोड़ कर रखा है।आज पूरब से लेकर पश्चिम तक जिस योगलहर में योगस्नान कर रहा है उसके मूल में स्वामी सत्यानंद सरस्वती का कर्म और उनके गुरु स्वामी शिवानंद सरस्वती का वह आदेश है जो उन्होंने सत्यानंद को दिया था। गुरु के आदेशानुसार उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था- योगविद्या का प्रचार-प्रसार, द्वारे-द्वारे तीरे-तीरे। दरअसल इस शताब्दी में योग की कहानी 1940 के दशक से आरंभ होती है। उस समय तक लोग योग से अनजान थे। योग का अस्तित्व तो था त्यागियों वैरागियों और साधु सन्यासियों के लिए 1943 में स्वामी शिवानंद सरस्वती ने ऋषिकेश में शिवानंद आश्रम की स्थापना की।उन्होंने दिव्य जीवन का ज्ञान और अनुभव प्रदान करने के लिए दो विधियों का उपयोग किया योग और वेदांत। स्वामी शिवानंद के साथ वे निरंतर रहे। परिव्राजक के रूप में बिहार यात्रा के क्रम में छपरा के बाद 1956 में पहली बार मुंगेर आये. यहां की प्राकृतिक छटा उन्हें आकर्षित करती थी।यहां उन्होंने चातुर्मास भी व्यतीत किया। यहीं उन्हें दिव्य दृष्टि से यह पता चला कि यह स्थान योग का अधिष्ठान बनेगा और योग विश्व की भावी संस्कृति बनेगी। 1961 में अंतरराष्ट्रीय योग मित्र मंडल की स्थापना की तब तक योग निंद्रा और प्राणायाम विज्ञान पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी। ‘लेशन आॅन योग’ का अनुवाद योग साधना भाग-एक व दो आ चुके थे। सत्यानंद पब्लिकेशन सोसायटी नंदग्राम से- सत्यम स्पीक्स, वर्डस ऑफ सत्यम, प्रैक्टिस ऑफ त्राटक, योग चूड़ामणि उपनिषद, योगाशक्ति स्पीक्स, स्पेट्स टू योगा, योगा इनिसिएशन पेपर्स, पवनमुक्त आसन (अंगरेजी)में, अमरसंगीत, सूर्य नमस्कार, योगासन मुद्रावंध आदि पुस्तकें प्रकाशित हुईं। 1963 से अंगरेजी में योगा और योगविद्या निकालना आरंभ किया। परिव्राजक जीवन की समाप्ति के बाद वसंत पंचमी के दिन 19 जनवरी 1964 को बिहार योग विद्यालय की स्थापना की। उन्होंने पूरी दुनिया में योग को लोगों के बीच पहुंचाया। दुनिया के 48 देशों की सघन यात्राएं कीं। अमरीका के बाहर यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, ग्रीस, कुवैत, ईरान, इराक से लेकर केन्या और घाना जैसे देशों में योग की आधारशिला रखी। फ्रांस, इंटली, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया में तो सत्यानंद योग के पर्याय ही हो गये। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा बोए गये योग बीज आज वटवृक्ष का रुप ले चुके हैं ,जिनकी छांव में समस्त विश्व का जनमानस स्वस्थ एवं शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है ।परमहंस जी ने योगरुपी ऐसी अनुपम भेंट दी है जिससे स्वस्थ जीवन के साथ आध्यात्मिक ऊंचाईयों तक पहुंचने का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है ।आज भारत ही नहीं समस्त विश्व में परमहंस जी की “योग-निद्रा “का डंका बज रहा है। अपने परमगुरुदेव के पदचिन्हों पर चलते हुए  परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने उनकी योगविद्या को नई ऊंचाईयां प्रदान की । प्रधानमंत्री जी द्वारा प्रदान किया गया योग पुरस्कार यह सिद्ध करता है कि “सत्यानंद योग” भारतवर्ष ही नहीं विश्व में सर्वश्रेष्ठ है ।  योग के माध्यम से विश्व विजय प्राप्त करने के बाद जब रिखिया वाले बाबा बने तो आसपास के ग्रामीणों की दयनीय दशा ने  सहज ही उनका ध्यान आकृष्ट किया।उनके अंदर के पूर्णतः जाग्रत ईश्वर ने उनसे कहा, ‘सत्यानंद,जो सुविधाएं मैंने तुम्हें प्रदान की,वे अपने पडो़सियों को भी उपलब्ध कराओ।’ इसी आदेश को पूरा करने के लिए सेवा, प्रेम और दान को व्यवहारिक रूप प्रदान करने के लिए देवघर के रिखिया में रिखियापीठ की स्थापना की। झारखंड के देवघर के निकट रिखिया नाम के इस गांव में योग गुरु सत्यानंद ने जो पर्णकुटीर बनाई थी, वह उनके तपोबल से इस पूरे क्षेत्र के कल्याण का माध्यम बन गई। सितंबर, 1989  जब सत्यानंद यहां पहुंचे तब चारों ओर घनघोर जंगल था। आस-पास थे आदिवासियों के बेहद पिछड़े गांव। न कोई सड़क थी और न बिजली। सत्यानंद दरअसल तप, साधना और सेवा के लिए इस दुर्गम स्थान में आए थे। स्वामी सत्यानंद सरस्वती के अनुग्रह, आशीर्वाद तथा परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती एवं स्वामी सत्यसंगानंद सरस्वती के मार्गदर्शन में संस्कार और मानव सेवा की तरंगों ने आश्रम के आसपास के इलाकों में बदलाव की बयार बहा दी। कभी गरीबी के कारण गांव के बच्चे पढ़ नहीं पाते थे। आज बालिकाओं को मुफ्त शिक्षा मिल रही है। परिवर्तन ऐसा हुआ कि इलाके की बच्चियां फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हैं। शास्त्रीय संगीत और भरतनाट्यम में पारंगत हैं। 1995 में स्वामी सत्यानंद ने रिखिया में सीता कल्याणम शंतचंडी महायज्ञ आरंभ किया। यहीं से इलाके में विकास की लौ जल उठी। आश्रम के सामने बने मिडिल स्कूल के बच्चों को किताब-कॉपी, जाड़े में गर्म कपड़े व जूते देने की शुरुआत हुई। हर पर्व पर गांव के बच्चों व महिलाओं को नये वस्त्र वितरित होते हैं। बेटियों के विवाह में आर्थिक सहयोग सहित उपहार स्वरूप गृहस्थी की जरूरतों का सामान आदि आश्रम की ओर से प्रदान किया जाता है। क्षेत्र की वृद्धाओं, विधवाओं को हर माह 1200 रुपये पेंशन आश्रम से मिलती है। उनका काम यही है कि वे आश्रम के कीर्तन में शामिल हों। पंचायत के गरीबों को आत्मनिर्भर  बनाने के लिए आश्रम की ओर से रिक्शा, ठेला जैसे साजोसामान बांटे जाते हैं। क्षेत्र की लगभग हर बालिका के पास साइकिल है, जो आश्रम की ओर से दी जाती है जिन बच्चों, बालिकाओं को कंप्यूटर में रुचि थी, उनको कंप्यूटर व लैपटॉप दिए गए। ताकि वे बिना रुके आगे बढ़ते जाएं। सबसे बड़ी बात, यह आश्रम दान नहीं लेता बल्कि देता है। इसीलिए इसे दातव्य आश्रम कहा जाता है गरीबों के कल्याण को जो राशि खर्च की जाती है, वह योग विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं से प्राप्त होती है। 5 दिसंबर 2009 को शिष्यों की उपस्थिति में महासमाधि में लीन हो गए। भले ही वह आज नहीं हैं, लेकिन उनके योग आंदोलन का ही नतीजा है कि योग वैश्विक धरातल पर छाया हुआ है।  कुमार कृष्णन

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कला-संस्कृति शख्सियत साक्षात्‍कार

श्रीदेवरसजी अस्पृश्यता प्रथा के घोर विरोधी थे

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11 दिसम्बर 2024 श्रीबालासाहेब देवरस की जयंती पर विशेष लेख  परम पूज्य श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक थे। आपका जन्म 11 दिसम्बर 1915 को श्री दत्तात्रेय कृष्णराव देवरस जी और श्रीमती पार्वती बाई जी के परिवार में हुआ था। आपने वर्ष 1938 में नागपुर के मॉरिस कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के उपरांत कॉलेज आफ लॉ, नागपुर विश्व विद्यालय से एलएलबी की डिग्री प्राप्त की। वर्ष 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉक्टर हेडगेवार जी द्वारा की गई थी एवं आप वर्ष 1927 में अपनी 12 वर्ष की अल्पायु में ही संघ के स्वयंसेवक बन गए थे एवं नागपुर में संघ की एक शाखा में नियमित रूप से जाने लगे तथा इस प्रकार अपना सम्पूर्ण जीवन ही मां भारती की सेवा हेतु संघ को समर्पित कर दिया था। आप अपने बाल्यकाल में कई बार दलित स्वयंसेवकों को अपने घर ले जाते थे और अपनी माता से उनका परिचय कराते हुए उन्हें अपने घर की रसोई में अपने साथ भोजन कराते थे। आपकी माता भी उनके इस कार्य में उनका उत्साह वर्धन करती थीं। कुशाग्र बुद्धि के कारण आपने शाखा की कार्य प्रणाली को बहुत शीघ्रता से आत्मसात कर लिया था। अल्पायु में ही आप क्रमशः गटनायक, गणशिक्षक, शाखा के मुख्य शिक्षक एवं कार्यवाह आदि के अनुभव प्राप्त करते गए। नागपुर की इतवारी शाखा उन दिनों सबसे कमजोर शाखा मानी जाती थी, किंतु जैसे ही आप उक्त शाखा के कार्यवाह बने, आपने एक वर्ष के अपने कार्यकाल में ही उक्त शाखा को नागपुर की सबसे अग्रणी शाखाओं में शामिल कर लिया था। शाखा में आप स्वयंसेवकों के बीच अनुशासन का पालन बहुत कड़ाई से करवाते थे। दण्ड योग अथवा संचलन में किसी स्वयंसेवक से थोड़ी सी भी गलती होने जाने पर उसे तुरंत पैरों में चपाटा लगता था। परंतु, साथ ही, आपका स्वभाव उतना ही स्नेहमयी भी था, जिसके कारण कोई भी स्वयंसेवक आपसे कभी भी रूष्ट नहीं होता था।  श्री देवरस जी द्वारा वसंत व्याख्यानमाला में दिए गए एक उद्भोधन को उनके सबसे प्रभावशाली उद्बोधनों में से एक माना जाता है, मई 1974 में पुणे में दिए गए इस उद्बोधन में आपने अस्पृश्यता प्रथा की घोर निंदा की थी और संघ के स्वयंसेवकों से इस प्रथा को समाप्त करने की अपील भी की थी। संघ ने हिंदू समाज के साथ मिलकर अनुसूचित जाति के सदस्यों के उत्थान के लिए समर्पित संगठन “सेवा भारती” के माध्यम से कई कार्य किए। इस सम्बंध में संघ के स्वयंसेवकों ने स्कूल भी प्रारम्भ किए जिनमें झुग्गीवासियों, दलितों, समाज के छोटे तबके के नागरिकों एवं गरीब वर्ग को हिंदू धर्म के गुण सिखाते हुए व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाए जाते रहे। आपने 9 नवम्बर 1985 को अपने एक उदबोधन में कहा था कि संघ का मुख्य उद्देश्य हिंदू एकता है और संगठन का मानना है कि भारत के सभी नागरिकों में हिंदू संस्कृति होनी चाहिए। श्री देवरस जी ने इस संदर्भ में श्री सावरकर जी की बात को दोहराते हुए कहा था कि हम एक संस्कृति और एक राष्ट्र (हिंदू राष्ट्र) में विश्वास करते हैं लेकिन हिंदू की हमारी परिभाषा किसी विशेष प्रकार के विश्वास तक सीमित नहीं है। हिंदू की हमारी परिभाषा में वे लोग शामिल हैं जो एक संस्कृति में विश्वास करते हैं और इस देश को एक राष्ट्र के रूप में देखते हैं। इस प्रकार, वे समस्त हिंदू इस महान राष्ट्र का हिस्सा माने जाने चाहिए। इसलिए, हिंदू से हमारा आशय किसी विशेष प्रकार की आस्था से नहीं है। हम हिंदू शब्द का उपयोग व्यापक अर्थ में करते हैं।   वर्ष 1973 में श्री देवरस जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बने। आपने अपने कार्यकाल के दौरान संघ को समाज के साथ जोड़ने में विशेष रूचि दिखाई थी और इसमें सफलता भी प्राप्त की थी। आपने श्री जयप्रकाश नारायण जी के साथ मिलकर भारत में लगाए गए आपातकाल एवं देश से भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए चलाए गए आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। आपातकाल के दौरान देश के कई राजनैतिक नेताओं के साथ ही संघ के कई स्वयंसेवकों को भी तत्कालीन केंद्र सरकार ने जेल में डाल दिया था। श्री देवरस जी को भी पुणे की जेल में डाला गया था। लम्बे समय तक चले संघर्ष के बाद, जब श्री देवरस जी को जेल से छोड़ा गया तो आपका पूरे देश में अभूतपूर्व स्वागत हुआ था। आपातकाल के दौरान अपने ऊपर एवं अन्य विभिन्न नेताओं पर हुए अन्याय एवं अत्याचार को लेकर देश के नागरिकों एवं स्वयंसेवकों के बीच किसी भी प्रकार की कटुता नहीं फैले इस दृष्टि से आपने उस समय पर समस्त स्वयंसेवकों को आग्रह किया था कि हमें इस सम्बंध में सब कुछ भूल जाना चाहिए और भूल करने वालों को क्षमा कर देना चाहिए। आपातकाल के दौरान संघ कार्य के सम्बंध में लिखते हुए द इंडियन रिव्यू पत्रिका के सम्पादक श्री एम सी सुब्रमण्यम ने लिखा है कि “आपातकाल के विरोध में जिन्होंने संघर्ष किया, उनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख है। इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि सत्याग्रह की योजना बनाना, सम्पूर्ण भारत में सम्पर्क बनाए रखना, चुपचाप आंदोलन के लिए धन एकत्रित करना, व्यवस्थित रीति से आदोलन के पत्रक सब दूर पहुंचाना, और बिना दलीय या धार्मिक भेदभाव के कारागृह में बंद लोगों के परिवारों की आर्थिक मदद करना, इस सम्बंध में संघ ने स्वामी विवेकानंद के उदगार सत्य कर दिखाए। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था कि देश में सामाजिक और राजनैतिक कार्य करने के लिए सर्वसंग परित्यागि सन्यासियों की आवश्यकता होती है।” आपातकाल के दौरान संघ के कार्यकर्ताओं के साथ कार्य करने वाले विभिन्न दलों के सहयोगियों ने ही नहीं बल्कि संघ से शत्रुता रखने वाले नेताओं ने भी संघ के स्वयंसेवकों के प्रति गौरव और आदर के उद्गार व्यक्त किए हैं। भारत को राजनैतिक स्वतंत्रता वर्ष 1947 में प्राप्त हो गई थी, परंतु, दादरा नगर हवेली एवं गोवा आदि कुछ हिस्से अभी भी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे क्योंकि यहां पुर्तगालियों का शासन यथावत बना रहा। ऐसे समय में कुछ संगठनों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दायित्ववान  स्वयंसेवकों से मुलाकात की और भारत के उक्त क्षेत्रों को भी स्वतंत्र कराने की योजना बनाई गई। संघ के हजारों स्वयंसेवक सिलवासा पहुंच गए एवं दादरा नगर हवेली को आजाद करा  लिया। संघ के स्वयंसेवकों ने 1955 से गोवा मुक्ति संग्राम में भाग लेना शुरू कर दिया था।इसके बाद गोवा को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से कर्नाटक से 3000 से अधिक संघ के स्वयंसेवक गोवा पहुंच गए, इनमें कई महिलाएं भी शामिल थीं। गोवा सरकार के खिलाफ आंदोलन प्रारम्भ हो गया। सरकार ने इन सत्याग्रहियों को गिरफ़्तार कर लिया गया एवं 10 साल की कठोर सजा सुनाई गई। इसके बाद तो इन स्वयंसेवकों की रिहाई कराने एवं गोवा को स्वतंत्र कराने की मांग पूरे देश में ही उठने लगी। देश की जनता के दबाव में भारत सरकार ने ऑपरेशन विजय चलाया। 18 दिसम्बर, 1961 को इस महत्वपूर्ण अभियान को प्रारम्भ किया गया, इस अभियान में भारतीय सेना के तीनों अंग शामिल हुए थे। यह अभियान 36 घंटे चला और इसके सफल होते ही गोवा को 450 वर्ष के पुर्तगाली शासन से आजादी प्राप्त हो गई। इस प्रकार संघ के स्वयंसेवकों के प्रारंभिक उद्घोष, सक्रियता, समर्पण, जज्बे और सेना के पराक्रम से अंतत: गोवा भारतीय गणराज्य का अंग बन गया। कुल मिलाकर गोवा को स्वतंत्र कराने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में संघ की ओर से श्री देवरस जी की भी महती भूमिका रही है।   श्री देवरस जी ने कई पुस्तकें भी लिखी थीं, जिनमें कुछ पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुईं हैं, जैसे वर्ष 1974 में “सामाजिक समानता और हिंदू सुदृढ़ीकरण” विषय पर लिखी गई पुस्तक; वर्ष 1984 में लिखित पुस्तक “पंजाब समस्या और उसका समाधान”; वर्ष 1997 में लिखित पुस्तक “हिंदू संगठन और सत्तावादी राजनीति” एवं वर्ष 1975 में अंग्रेजी भाषा में लिखी गई पुस्तक “राउज़: द पॉवर आफ गुड” ने भी बहुत ख्याति अर्जित की है।  श्री देवरस जी 17 जून 1996 को इस स्थूल काया का परित्याग कर प्रभु परमात्मा में लीन हो गए थे। आपकी इच्छा अनुसार आपका अंतिम संस्कार रेशमबाग के बजाय नागपुर के सामान्य नागरिकों के श्मशान घाट में किया गया था।   

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