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कला-संस्कृति

संगम धरा पर लगाइये आस्था की महाकुंभ डुबकी!

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डा श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट प्रयागराज महाकुंभ के मीडिया सेंटर का उदघाटन हाल ही में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किया है।उन्होंने महाकुंभ की विशेषताओं का वर्णन करते हुए महाकुंभ में डेढ़ लाख टॉयलेट,70 हजार बिजली के खम्बे,बेहिसाब लाइटिंग,800 बसों का संचालन और मां की रसोई में मात्र 9 रुपये में शुद्ध सात्विक भरपेट खाने जैसे व्यवस्था गिनाई है।उत्तर प्रदेश सूचना एवं लोकसंपर्क विभाग ने  महाकुंभ 2025 की भव्य लाइव कवरेज के लिए यहां एक ऐसा दिव्य मीडिया सेंटर बनाया है जो न सिर्फ पूरी तरह से सुसज्जित है बल्कि देश विदेश से आने वाले मीडियाकर्मियों के लिए सुव्यवस्थित समाचार प्रेषण तकनीकी सुविधा उपलब्ध कराई गई है।  महाकुंभ को अलौकिक, दिव्य व भव्य बताते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने माना कि  सुरक्षित कुंभ हम सबके लिए एक चुनौती है।इस कुंभ में श्रद्धालुओं को शानदार सड़के,धर्म और आस्था से ओतप्रोत कलाकृतियां, विभिन्न वेशभूषाओं से सुसज्जित सन्तो के अखाड़े,संगम में दूर तक फैले रेगिस्तान पर योग साधना के बड़े बड़े वातानुकूलित कक्ष, प्रेरक उपदेश व प्रवचनों की श्रंखला को दिव्यता का रूप दे रही है। हिंदू धर्म का यह एक महत्वपूर्ण धार्मिक पर्व है। जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ का स्नान करने और अपनी आस्था लेकर आ रहे है।   प्रयागराज, हरिद्वार,उज्जैन और नासिक में जब भी महाकुम्भ या कुंभ होता है, श्रद्धालु बड़ी संख्या कुंभ स्नान करते हैं। इन पांचो मे से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष महाकुम्भ का आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयागराज में दो महाकुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है।प्रयागराज में इससे पूर्व सन 2013 में महाकुम्भ में हुआ था।फिर सन 2019 में प्रयागराज में अर्धकुंभ हुआ था और अब महाकुंभ की छटा हम सबको लुभा रही है। यह महाकुम्भ मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है।क्योंकि उस समय  सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशी में और वृहस्पति, मेष राशी में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के इस योग को “महाकुम्भ स्नान-योग” भी कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलिक पर्व माना जाता है। कहा जाता है कि पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन ही खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है।  महाकुंभ के आयोजन को लेकर कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र ‘जयंत’ अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के निर्देश पर दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ लिया। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा।इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक पर कलश से छलक कर अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया। चूंकि अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। इस कारण कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है,ऐसा माना जाता है। जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की  राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय महाकुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ महाकुंभ होता है। 600 ई पू के बौद्ध लेखों में नदी मेलों का उल्लेख मिलता है।400 ई पू के सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी दूत ने एक मेले को प्रतिवेदित किया ,ऐसा कहा जाता है।  विभिन्न पुराणों और अन्य प्राचीन मौखिक परम्पराओं पर आधारित पाठों में पृथ्वी पर चार विभिन्न स्थानों पर अमृत गिरने का उल्लेख हुआ है।  महाकुम्भ मे अखाड़ो के स्नान का भी विशेष महत्वहै।सर्व प्रथम आगम अखाड़े की स्थापना हुई कालांतर मे विखंडन होकर अन्य अखाड़े बने। 547 ईसवी में अभान नामक सबसे प्रारम्भिक अखाड़े का लिखित प्रतिवेदन हुआ था।600 ईसवी में चीनी यात्री ह्यान-सेंग ने प्रयाग में सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित महाकुम्भ में स्नान किया था।904 ईसवी मे निरन्जनी अखाड़े का गठन हुआ था जबकि 1146 ईसवी मे जूना अखाड़े का गठन हुआ। 1398 ईसवी मे  तैमूर, हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की सहिष्णुता के  विरुद्ध दिल्ली को ध्वस्त करता है और फिर हरिद्वार मेले की ओर कूच करता है और हजा़रों श्रद्धालुओं का नरसंहार करता है। जिसके तहत  1398 ईसवी मे हरिद्वार महाकुम्भ नरसंहार को आज भी याद किया जाता है।1565 ईसवी  मे मधुसूदन सरस्वती द्वारा दसनामी व्यवस्था की गई और लड़ाका इकाइयों का गठन किया गया । 1678 ईसवी मे प्रणामी संप्रदायके प्रवर्तक श्री प्राणनाथजी को विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक घोषित किया गया ।1684 ईसवी मे  फ़्रांसीसी यात्री तवेर्निए नें भारत में 12 लाख हिन्दू साधुओं के होने का अनुमान लगाया था।1690 ईसवी मे नासिक में शैव और वैष्णव साम्प्रदायों में संघर्ष की कहानी आज भी रोंगटे खड़े करती है, जिसमे60 हजार लोग मरे थेे।1760 ईसवी मे शैवों और वैष्णवों के बीच हरिद्वार मेलें में संघर्ष के तहत 18 सौ लोगो के मरने का इतिहास है।1780 ईसवी मे ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था की स्थापना हुई।सन 1820 मे हरिद्वार मेले में हुई भगदड़ से 430 लोग मारे गए जबकि 1906 मे ब्रिटिश कलवारी ने साधुओं के बीच मेला में हुई लड़ाई में बीचबचाव किया ओर अनेको की जान बचाई।1954 मे चालीस लाख लोगों अर्थात भारत की उस समय की एक प्रतिशत जनसंख्या ने प्रयागराज में आयोजित महाकुम्भ में भागीदारी की थी।उस समय वहां हुई भगदड़ में कई सौ लोग मरे थे।सन1989 मे गिनिज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने 6 फ़रवरी के प्रयागराज मेले में डेढ़ करोड़ लोगों की मौजूदगी प्रमाणित की थी, जो कि उस समय तक किसी एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी।जबकि सन 1995 मे  इलाहाबाद के “अर्धकुम्भ” के दौरान 30 जनवरी के स्नान दिवस में 2 करोड़ लोगों की उपस्थिति बताई गई थी।सन 1998 मे हरिद्वार महाकुम्भ में 5 करोड़ से अधिक श्रद्धालु चार महीनों के दौरान पधारे थे। 14 अप्रैल के दिन  एक करोड़ लोगो की उपस्थिति ने सबको चौंका दिया था ।सन 2001मे इलाहाबाद के मेले में छः सप्ताहों के दौरान 7 करोड़ श्रद्धालु आने का दावा किया गया था। 24 जनवरी 2001 के  दिन 3 करोड़ लोग के महाकुंभ में पहुंचने की बात की गई थी।सन 2003 मे नासिक मेले में मुख्य स्नान दिवस पर 60 लाख लोगो की उपस्थिति महाकुम्भ के प्रति व्यापक जनआस्था का प्रमाण है। महाकुंभ में अलौकिकता का बोध लौकिक सुंदरता को देखकर सहज ही हो जाता है,तो आप भी आइए और लगा लीजिए इस महाकुंभ में आस्था की डुबकी । डा श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

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कला-संस्कृति धर्म-अध्यात्म

प्रयागराज में आयोजित हो रहे महाकुम्भ मेले का आध्यात्मिक एवं आर्थिक महत्व

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हिंदू सनातन संस्कृति के अनुसार कुंभ मेला एक धार्मिक महाआयोजन है जो 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है। कुंभ मेले का भौगोलिक स्थान भारत में चार स्थानों पर फैला हुआ है और मेला स्थल चार पवित्र नदियों पर स्थित चार तीर्थस्थलों में से एक के बीच घूमता रहता है, यथा, (1) हरिद्वार, उत्तराखंड में, गंगा के तट पर; (2) मध्य प्रदेश के उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर; (3) नासिक, महाराष्ट्र में गोदावरी के तट पर; एवं (4) उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में गंगा, यमुना और पौराणिक अदृश्य सरस्वती के संगम पर।  प्रत्येक स्थल का उत्सव, सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति की ज्योतिषीय स्थितियों के एक अलग सेट पर आधारित है। उत्सव ठीक उसी समय होता है जब ये स्थितियां पूरी तरह से व्याप्त होती हैं, क्योंकि इसे हिंदू धर्म में सबसे पवित्र समय माना जाता है। कुंभ मेला एक ऐसा आयोजन है जो आंतरिक रूप से खगोल विज्ञान, ज्योतिष, आध्यात्मिकता, अनुष्ठानिक परंपराओं और सामाजिक-सांस्कृतिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं के विज्ञान को समाहित करता है, जिससे यह ज्ञान में बेहद समृद्ध हो जाता है। कुम्भ मूल शब्द कुम्भक (अमृत का पवित्र घड़ा) से आया है। ऋग्वेद में कुम्भ और उससे जुड़े स्नान अष्ठान का उल्लेख है। इसमें इस अवधि के दौरान संगम में स्नान करने से लाभ, नकारात्मक प्रभावों के उन्मूलन तथा मन और आत्मा के कायाकल्प की बात कही गई है। अथर्ववेद और यजुर्वेद में भी कुम्भ के लिए प्रार्थना लिखी गई है। इसमें बताया गया है कि कैसे देवताओं और राक्षसों के बीच समुद्र मंथन से निकले अमृत के पवित्र घड़े (कुम्भ) को लेकर युद्ध हुआ। ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर कुम्भ को लालची राक्षसों के चंगुल से छुड़ाया था। जब वह इस स्वर्ग की ओर लेकर भागे तो अमृत की कुछ बूंदे चार पवित्र स्थलों पर गिरीं जिन्हें हम आज हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज के नाम से जानते हैं। इन्हीं चार स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष पर बारी बारी से कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।    कुम्भ मेला दुनिया में कहीं भी होने वाला सबसे बड़ा सार्वजनिक समागम और आस्था का सामूहिक आयोजन है। लगभग 45 दिनों तक चलने वाले इस मेले में करोड़ों श्रद्धालु गंगा, यमुना और रहस्यमयी सरस्वती के पवित्र संगम पर स्नान करने के लिए आते हैं। मुख्य रूप से इस समागन में तपस्वी, संत, साधु, साध्वियां, कल्पवासी और सभी क्षेत्रों के तीर्थयात्री शामिल होते हैं।  कुंभ मेले में सभी धर्मों के लोग आते हैं, जिनमें साधु और नागा साधु शामिल हैं, जो साधना करते हैं और आध्यात्मिक अनुशासन के कठोर मार्ग का अनुसरण करते हैं, संन्यासी जो अपना एकांतवास छोड़कर केवल कुंभ मेले के दौरान ही सभ्यता का भ्रमण करने आते हैं, अध्यात्म के साधक और हिंदू धर्म का पालन करने वाले आम लोग भी शामिल हैं। कुंभ मेले के दौरान अनेक समारोह आयोजित होते हैं; हाथी, घोड़े और रथों पर अखाड़ों का पारंपरिक जुलूस, जिसे ‘पेशवाई’ कहा जाता है, ‘शाही स्नान’ के दौरान चमचमाती तलवारें और नागा साधुओं की रस्में, तथा अनेक अन्य सांस्कृतिक गतिविधियां, जो लाखों तीर्थयात्रियों को कुंभ मेले में भाग लेने के लिए आकर्षित करती हैं। महाकुंभ मेला 2025 प्रयागराज में 13 जनवरी, 2025 से 26 फरवरी, 2025 तक आयोजित होने जा रहा है। यह एक हिंदू त्यौहार है, जो मानवता का एक स्थान पर एकत्र होना भी है। 2019 में प्रयागराज में अर्ध कुंभ मेले में दुनिया भर से 15 करोड़ पर्यटक आए थे। यह संख्या 100 देशों की संयुक्त आबादी से भी अधिक है। यह वास्तव में यूनेस्को द्वारा अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में सूचीबद्ध है। कुंभ मेला कई शताब्दियों से मनाया जाता है।प्रयागराज कुंभ मेले का सबसे पहला उल्लेख वर्ष 1600 ई. में मिलता है और अन्य स्थानों पर, कुंभ मेला 14वीं शताब्दी की शुरुआत में आयोजित किया गया था। कुंभ मेला बेहद पवित्र और धार्मिक मेला है और भारत के साधुओं और संतों के लिए विशेष महत्व रखता है। वे वास्तव में पवित्र नदी के जल में स्नान करने वाले पहले व्यक्ति होते हैं। अन्य लोग इन साधुओं के शाही स्नान के बाद ही नदी में स्नान कर सकते हैं। वे अखाड़ों से संबंधित हैं और कुंभ मेले के दौरान बड़ी संख्या में आते हैं। घाटों की ओर जाते समय जब वे भजन, प्रार्थना और मंत्र गाते हैं, तो उनका जुलूस देखने लायक होता है। कुंभ मेला प्रयागराज 2025 पौष पूर्णिमा के दिन शुरू होता है, जो 13 जनवरी 2025 को है और 26 फरवरी 2025 को समाप्त होगा। यह पर्यटकों के लिए भी जीवन में एक बार आने वाला अनुभव है। टेंट और कैंप में रहना आपको एक गर्मजोशी भरा एहसास देता है और रात में तारों से भरे आसमान को देखना अपने आप में एक अलग ही अनुभव है। कुंभ मेले में सत्संग, प्रार्थना, आध्यात्मिक व्याख्यान, लंगर भोजन का आनंद सभी उठा सकते हैं। महाकुंभ मेला 2025 में गंगा नदी में पवित्र स्नान, नागा साधु और उनके अखाड़े से मिलें। बेशक, यह कुंभ मेले का नंबर एक आकर्षण है। कुंभ मेले के दौरान अन्य आकर्षण प्रयागराज में घूमने लायक जगहें हैं जैसे संगम, हनुमान मंदिर, प्रयागराज किला, अक्षयवट और कई अन्य। वाराणसी भी प्रयागराज के करीब है और हर पर्यटक के यात्रा कार्यक्रम में वाराणसी जाना भी शामिल है। महाकुम्भ 2025 में आयोजित होने वाले कुछ मुख्य स्नान पर्व निम्न प्रकार हैं –  मुख्य स्नान पर्व  13.01.2025  मकर संक्रान्ति  14.01.2025  मौनी अमावस्या  29.01.2025  बसंत पंचमी  03.02.2025  माघी पूर्णिमा  12.02.2025  महाशिवरात्रि  26.02.2025 प्रयागराज का अपना एक एतिहासिक महत्व रहा है। 600 ईसा पूर्व में एक राज्य था और वर्तमान प्रयागराज जिला भी इस राज्य का एक हिस्सा था। उस राज्य को वत्स के नाम से जाना जाता था और उसकी राजधानी कौशाम्बी थी, जिसके अवशेष आज भी प्रयागराज के दक्षिण पश्चिम में स्थित है। गौतम बुद्ध ने भी अपनी तीन यात्राओं से इस शहर को सम्मानित किया था। इसके बाद, यह क्षेत्र मौर्य शासन के अधीन आ गया और कौशाम्बी को सम्राट अशोक के एक प्रांत का मुख्यालय बनाया गया। उनके निर्देश पर कौशाम्बी में दो अखंड स्तम्भ बनाए गए जिनमें से एक को बाद में प्रयागराज में स्थानांतरित कर दिया गया। प्रयागराज राजनीति और शिक्षा का केंद्र रहा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय को पूरब का ऑक्सफोर्ड कहा जाता था। इस शहर ने देश को तीन प्रधानमंत्रियों सहित कई राजनौतिक हस्तियां दी हैं। यह शहर साहित्य और कला के केंद्र के साथ साथ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का भी केंद्र रहा है। प्रयागराज में आयोजित हो रहे महाकुम्भ का आध्यात्मिक महत्व तो है ही, साथ ही, आज के परिप्रेक्ष्य में इस महाकुम्भ का आर्थिक महत्व भी है। प्रत्येक 3 वर्षों के अंतराल पर आयोजित होने वाले कुम्भ के मेले में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु ईश्वर की पूजा अर्चना हेतु प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक एवं उज्जैन में पहुंचते हैं। प्रयग्राज में आयोजित तो रहे महाकुम्भ की 44 दिनों की इस इस पूरी अवधि में प्रतिदिन एक करोड़ श्रद्धालुओं के भारत एवं अन्य देशों से प्रयागराज पहुंचने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है, इस प्रकार, कुल मिलाकर लगभग 45 करोड़ से अधिक श्रद्धालुगण उक्त 44 दिनों की अवधि में प्रयागराज पहुंचेंगे। करोड़ों की संख्या में पहुंचने वाले इन श्रद्धालुगणों द्वारा इन तीर्थस्थलों पर अच्छी खासी मात्रा में खर्च भी किये जाने की सम्भावना है। जिससे विशेष रूप से स्थानीय अर्थव्यवस्था को तो बल मिलेगा ही, साथ ही करोड़ों की संख्या में देश में रोजगार के नए अवसर भी निर्मित होंगे एवं होटल उद्योग, यातायात उद्योग, पर्यटन से जुड़े व्यवसाय, स्थानीय स्तर के छोटे छोटे उद्योग एवं विभिन्न उत्पादों के क्षेत्र में कार्य कर रहे व्यापारियों के व्यवसाय में भी अतुलनीय वृद्धि होगी। इस प्रकार, देश की अर्थव्यवस्था को भी, महाकुम्भ मेले के आयोजन से बल मिलने की भरपूर सम्भावना है।   (केंद्र सरकार एवं उत्तरप्रदेश सरकार की महाकुम्भ मेले से सम्बंधित वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी का उपयोग इस लेख में किया गया है।)   प्रहलाद सबनानी

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