आए कहाँ हैं आफ़ताब !
आए कहाँ हैं आफ़ताब, रोशनी लिए;रूहों की कोशिका के दिये, झिलमिले किए! मेघों की मंजु…
आए कहाँ हैं आफ़ताब, रोशनी लिए;रूहों की कोशिका के दिये, झिलमिले किए! मेघों की मंजु…
विश्वास में बसा है यहाँ, सारा सिलसिला; मिट जाता जो भी आता, जगती जड़ का ज़लज़ला! चैतन्य सत्ता सतत रहती, शून्य समाई; अवलोके लोक लुप्त भाव, ललित लुभाई! लावण्य हरेक गति में रहा, हर लय छाई; लोरी लिए ही लखते रहो, उनकी खुदाई! खेलो खिलाओ वाल सरिस, बुधि न लगाओ; कान्हा की श्यामा श्याम रंग,…
अब मैं आता हूँ मात्र अपनी, विश्व वाटिका को झाँकने; अतीत में आयोजित रोपित कल्पित,…
कितने कल्पों से संग रहा,कितने जीवन ग्रह छुड़वाया;रिश्ते नाते कितने सहसा,मोड़ा तोड़ा छोड़ा जोड़ा! परिवार…
झरने की हर झरती झलकी,पुलकी ललकी चहकी किलकी;थिरकी महकी कबहुक छलकी,क्षणिका की कूक सुनी कुहकी!…
कण कण में कृष्ण क्रीड़ा किए, हर क्षण रहते; कर्षण कराके घर्षण दे, कल्मष हरते!…
खुले हैं मन भी कहाँ, गुणे हैं ग्रंथ कहाँ; हुआ अनुभव भी कहाँ, हुई अनुभूति…
गुरु बिन न बुद्धि मिले,गुरु बिन न होए ज्ञान।गुरु बिन न पथ मिले,गुरु बिन न…
निर्गुण सगुण की सृष्टि लीला, ब्रह्म चक्र सुधा रही; संचर औ प्रतिसंचर विहर, आयाम कितने…
✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’
छुआछूत का खेल अब,फैला देश विदेशकोरोना मिल जाय कब, बदल बदल कर भेष। सन्नाटा पसरा…
बिन खोदे, कुरेदे औ कसे, वे ही तो रहे; आशा औ निराशा की फसल, वे ही थे बोए! हर सतह परत पर्दा किए, प्राण पखारे; प्रणिपात किए शून्य रखे, स्वर्णिम धारे! दहका औ महका अस्मिता की, डोर सँभाले; डर स्वान्त: सुशान्त किए, द्वारे निहारे! बीमारी कोई कहाँ रही, तयारी रही; मानव के मन की प्रीति श्रीति, खुमारी रही! ‘मधु’ वाद्य यंत्र तार तरासे औ तराजे; उर उसासों में वे थे रहे, राग रसाए! ✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’