दोहे कण कण में कृष्ण क्रीड़ा किए! August 12, 2020 / August 12, 2020 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment कण कण में कृष्ण क्रीड़ा किए, हर क्षण रहते; कर्षण कराके घर्षण दे, कल्मष हरते! हर राह विरह विरागों में, संग वे विचरते; हर हार विहारों की व्यथा, वे ही हैं सुधते! संस्कार हरेक करके वे क्षय, अक्षर करते; आलोक अपने घुमा फिरा, ऊर्द्ध्वित त्वरते! कारण प्रभाव हाव भाव, वे ही तो भरते; भावों अभावों […] Read more » कृष्ण क्रीड़ा
दोहे खुले हैं मन भी कहाँ! August 11, 2020 / August 11, 2020 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment खुले हैं मन भी कहाँ, गुणे हैं ग्रंथ कहाँ; हुआ अनुभव भी कहाँ, हुई अनुभूति कहाँ! पकड़े बस पथ हैं रहे, जकड़े कुछ कर्म रहे; बाल वत चल वे रहे, चोले में खुश हैं रहे! चराचर समझे कहाँ, प्राण को खोए कहाँ; ध्यान भी हुआ कहाँ, द्वैत भी गया कहाँ! गुरु को हैं जाने कहाँ, […] Read more » खुले हैं मन भी कहाँ
दोहे गुरु पूर्णिमा पर कुछ दोहे July 5, 2020 by आर के रस्तोगी | Leave a Comment गुरु बिन न बुद्धि मिले,गुरु बिन न होए ज्ञान।गुरु बिन न पथ मिले,गुरु बिन न मिटे अज्ञान।। गुरु तीनों देव है,इससे बड़ा जग में न कोय।जो इसकी शरण में जाए,उसका हित होय।। मां सबसे पहली गुरु है,जो सिखाती सब ज्ञान।उसकी पहले वंदना करो,जो रखे तुम्हारा ध्यान।। गुरु की महिमा सबसे बड़ी, जो है अम्प्रम पार।जो […] Read more » गुरु पूर्णिमा पर कुछ दोहे
दोहे निर्गुण सगुण की सृष्टि लीला! June 23, 2020 / June 23, 2020 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment निर्गुण सगुण की सृष्टि लीला, ब्रह्म चक्र सुधा रही; संचर औ प्रतिसंचर विहर, आयाम कितने छू रही! प्रकृति पुरुष संयोग कर, सत रज औ तामस सज सँवर; हो महत फिर वर अहं चित्त, भूमा मना छायी रही! जब चित्त तामस गुण गहा, आकाश तब उमड़ा गुहा; वायु बही अग्नि उगी, जल बहा औ पृथ्वी बनी! […] Read more » निर्गुण सगुण की सृष्टि लीला!
दोहे जागरण जो भी रहे! June 9, 2020 / June 9, 2020 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment जागरण जो भी रहे, जग बगिया, पुष्प जो भी थे खिले, मन डलिया; जन्मीं जो भी थीं रहीं, सुर कलियाँ; उर में जो भी थीं रमीं, स्वर ध्वनियाँ! प्रणेता रचयिता स्वयंभू थे, स्वयंवर रचे स्वयं वे ही थे; वेग संवेग त्वरण वे ही दिए, डाँटे डपटे कभी थे वे ही किए! राग रंग हमारे वे […] Read more » जागरण जो भी रहे!
दोहे 2020 की त्रासदी May 22, 2020 / May 22, 2020 by बीनू भटनागर | Leave a Comment छुआछूत का खेल अब,फैला देश विदेशकोरोना मिल जाय कब, बदल बदल कर भेष। सन्नाटा पसरा हुआ,कोरोना शैतान,खाये चमगादढ़ कोउ,जाय कोउ की जान। सन्नाटा गहरा हुआ , भीतर झंझावात। कोरोना का दायरा,उपजाये अवसाद,बेचैनी बढ़़ती रहीं,मैं ढूँढू आल्हाद। सन्नाटे की कैद में, शोर है गिरफ्तार,कोरोना ने रोक दी, जीवन की रफ़्तार। तब्लीगी आतंक का, वार बिना हथियार,यहाँ […] Read more » 2020 की त्रासदी Tragedy of 2020
दोहे बिन खोदे, कुरेदे औ कसे! May 19, 2020 / May 19, 2020 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment बिन खोदे, कुरेदे औ कसे, वे ही तो रहे; आशा औ निराशा की फसल, वे ही थे बोए! हर सतह परत पर्दा किए, प्राण पखारे; प्रणिपात किए शून्य रखे, स्वर्णिम धारे! दहका औ महका अस्मिता की, डोर सँभाले; डर स्वान्त: सुशान्त किए, द्वारे निहारे! बीमारी कोई कहाँ रही, तयारी रही; मानव के मन की प्रीति श्रीति, खुमारी रही! ‘मधु’ वाद्य यंत्र तार तरासे औ तराजे; उर उसासों में वे थे रहे, राग रसाए! ✍? गोपाल बघेल ‘मधु’ Read more » कुरेदे औ कसे! बिन खोदे
दोहे माँ की ममता माणिक-मुक्ता May 6, 2020 / May 6, 2020 by शकुन्तला बहादुर | 2 Comments on माँ की ममता माणिक-मुक्ता *मन-मंजूषा में मधुरिम सी, माँ की ममता माणिक-मुक्ता।मंज़िल तक मुझको पहुँचाती,अक्षय-निधि सी उसकी शिक्षा।।*माँ प्रभात की ज्योति-किरण थी,किया तमस को हमसे दूर।त्यागीं अपनी सुख-सुविधाएँ, मुझको प्यार दिया भरपूर ।।*वरद-हस्त मुझ पर रहता है, ईश्वर सा उसका है स्वरूप।मुझसे तो वह दूर नहीं है , मैं तो हूँ उसका ही रूप ।।*मिली चेतना मुझको उस से, […] Read more » poem on mothers day मातृ-दिवस
दोहे शिव सरिस नृत्य करत रहत, निर्भय योगी ! April 28, 2020 / April 28, 2020 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment शिव सरिस नृत्य करत रहत, निर्भय योगी; सद्-विप्र सहज जगत फुरत, पल पल भोगी ! भव प्रीति लखत नयन मेलि, मर्मर सुर फुर; प्राणन की बेलि प्रणति ढ़ालि, भाव वाण त्वर ! तारक कृपाण कर फुहारि, ताण्डव करवत; गल मुण्ड माल व्याघ्र खाल, नागमणि लसत ! ज्वाला के जाल सर्प राज, शहमत रहवत; गति त्रिशूलन […] Read more » निर्भय योगी ! शिव सरिस नृत्य करत रहत
दोहे सुनके ज़्यादा भी करोगे तुम क्या ! April 28, 2020 / April 28, 2020 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment (मधुगीति १८११२५ स) सुनके ज़्यादा भी करोगे तुम क्या, ध्वनि कितनी विचित्र सारे जहान; भला ना सुनना आवाज़ें सब ही, चहते विश्राम कर्ण-पट देही ! सुनाया सुन लिया बहुत कुछ ही, सुनो अब भूमा तरंग ॐ मही; उसमें पा जाओगे नाद सब ही, गौण होएँगे सभी स्वर तब ही ! राग भ्रमरा का समझ आएगा, […] Read more » सुनके ज़्यादा भी करोगे तुम क्या
दोहे तल रहे कितने अतल सृष्टि में ! April 27, 2020 / April 27, 2020 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment तल रहे कितने अतल सृष्टि में, कहाँ आ पाते सकल द्रष्टि में; मार्ग सब निकट रहे पट घट में, पहरे ताले थे रहे भ्रकुटि में ! खोले जो चक्र रहे जाना किए, राह हर सहज सूक्ष्म ताड़ा किए; देर जाने में कभी ना वे किए, ज़रूरी जहाँ हुआ पहुँचा किए ! जीव बंधन में रहे […] Read more » तल रहे कितने अतल सृष्टि में
दोहे ऊर्ध्व उठ देख हैं प्रचुर पाते April 27, 2020 / April 27, 2020 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment ऊर्ध्व उठ देख हैं प्रचुर पाते, झाँक आवागमन बीच लेते; तलों के नीचे पर न तक पाते, रहा क्या छत के परे ना लखते ! छूट भी बहुत कुछ है जग जाता, मिलना नज़दीक से न हो पाता; भीड़ से वास्ता न बहु होता, रहा टक्कर का डर भी ना होता ! देख पाते हैं […] Read more » ऊर्ध्व उठ देख हैं प्रचुर पाते