गजल साहित्य आग बुझती जा रही है बस धुंआ सा रह गया July 20, 2017 / July 20, 2017 by कुलदीप प्रजापति | Leave a Comment आग बुझती जा रही है बस धुंआ सा रह गया राजनीती देख लगता, ये तमाशा रह गया, जात में बंटते दिखे, धर्मों के ठेकेदार सब आदमी उनकी जिरह में बस ठगा सा रह गया, एक बदली ने गिराई चंद बूंदे आस की, उस भरोसे की वजह से खेत प्यासा रह गया, हर […] Read more » आग बुझती जा रही है
गजल साहित्य मेरे लफ़्ज तुझसे यकीं माँगें May 8, 2017 by शालिनी तिवारी | Leave a Comment शालिनी तिवारी झुरमुट में दिखती परछाइयाँ घुँघुरू की मद्दिम आवाज लम्बे अर्से का अन्तराल तुझसे मिलने का इन्तजार चाँद की रोशन रातों में पल हरपल थमता जाए ऐसा लगता है मानो तुम मुझसे आलिंगन कर लोगी पर कुछ छण में परछाइयाँ नयनों से ओझल हो जायें दिन की घड़ी घड़ी में बस बस तेरी ही […] Read more » मेरे लफ़्ज तुझसे यकीं माँगें
गजल साहित्य उर के उफानों में ! April 10, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment सकल सिकुड़न गात अकड़न, छोड़ सब संकोच जाती; मानसिक परिधि परे जा, वृत्तियाँ मृदु मधुर होती ! Read more » उर के उफानों में !
गजल शख्सियत साहित्य मिर्जा ग़ालिब का जीवन व आगरा की हवेली January 3, 2017 by डा. राधेश्याम द्विवेदी | 1 Comment on मिर्जा ग़ालिब का जीवन व आगरा की हवेली डा. राधेश्याम द्विवेदी जन्म व परिवार :- मिर्जा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर सन् 1796 को आगरा के काला महल में हुई थी । गालिब ने अपनी जिंदगी का लंबा वक्त आगरा शहर के बाजार सीताराम की गली कासिम जान में बनी हवेली में गुजारा है। इस हवेली को संग्रहालय का रुप दे दिया गया […] Read more » मिर्जा गालिब
गजल साहित्य अब पहले वाली कोई बात न रही ! November 11, 2016 / November 11, 2016 by मनीष कुमार सिंह | Leave a Comment बस इतना इल्म कर लो अंधेरें के रहनुमाओं ! आफताब के आने पर कोई रात न रही !! ऐतबार किस पर करें इस शहर में हम 'मनीष' ! आदमी अब भरोसे वाली जात न रही !! Read more » अब पहले वाली कोई बात न रही !
गजल साहित्य मैं और मेरी जिंदगी.. October 28, 2016 / October 28, 2016 by अमन कौशिक | Leave a Comment मैं और मेरी जिंदगी.. Read more » मैं और मेरी जिंदगी..
गजल साहित्य चुपचाप सा सुनसान सा ! June 14, 2016 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment चुपचाप सा सुनसान सा ! चुपचाप सा सुनसान सा, मेरा जहान है लग रहा; ना कह कहे चुलबुला-पन, इतना नज़र आ पा रहा ! वाला कहाँ अठखेलियाँ, लाला कहाँ गुलडंडियाँ; उर उछलते पगडंडियाँ, मन विचरते कर डाँडिया ! सोचों बँधे मोचों रुँधे, रहमों करम पर हैं पले; आत्मा खुली पूरी कहाँ, वे समझ पाए रब […] Read more » अलहदा हो अलविदा कहना ! चुपचाप सा सुनसान सा ! त्रिलोकी का लोक चलना ! सुगबुगाहट झनझनाहट ! है गाँठ कोई पुरातन !
गजल साहित्य खो गया क्या वत्स मेरा ! June 1, 2016 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment खो गया क्या वत्स मेरा, विधि के व्यवधान में; आत्म के उत्थान में, या ध्यान के अभियान में ! उत्तरों की चाह में, प्रश्नों की या बौछार में; अनुभवों की अाग में, या भाव के व्यवहार में ! सहजता के शोध में, या अहंकारी मेघ में; व्याप्तता के बोध में, या शून्य के आरोह […] Read more » खो गया क्या वत्स मेरा !
गजल साहित्य हो मुक्त बुद्धि से, हुआ अनुरक्त आत्मा चल रहा ! May 14, 2016 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment हो मुक्त बुद्धि से, हुआ अनुरक्त आत्मा चल रहा; मैं युक्त हो संयुक्त पथ, परमात्म का रथ लख रहा ! मन को किए संयत नियत, नित प्रति नाता गढ़ रहा; चैतन्य की भव भव्यता में, चिर रचयिता चख रहा ! देही नहीं स्वामी रही, मोही नहीं ममता रही; चंचल कहाँ अब रति रही, गति अवाधित […] Read more » हुआ अनुरक्त आत्मा चल रहा हो मुक्त बुद्धि से
गजल साहित्य हमको सपने सजाना जरुरी लगा January 1, 2016 by मनोज यादव | Leave a Comment तुम मिली जब मुझे दुनिया की भीड़ में, अपनी सुध-बुध गवाना जरुरी लगा, आस जागने लगी प्रीत की शब तले, हमको सपने सजाना जरुरी लगा, नींद छिनी रात की दिन का चैन लूटा, हाल तुमको बताना जरुरी लगा, चाहत की गलियों में हाँ संग तेरे, प्रेम दीपक जलाना जरुरी लगा, तेरे पहलू में […] Read more » हमको सपने सजाना जरुरी लगा
गजल विविधा अपनों से भरी दुनियाँ August 3, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment (मधुगीति १५०८०१) अपनों से भरी दुनियाँ, मगर अपना यहाँ कोंन; सपनों में सभी फिरते, समझ हर किसी को गौण ! कितने रहे हैं कोंण, हरेक मन के द्रष्टिकोंण; ना पा सका है चैन, तके सृष्टि प्रलोभन ! अधरों पे धरा मौन, कभी निरख कर नयन; आया समझ में कोई कभी, जब थे सुने वैन ! […] Read more » अपनों से भरी दुनियाँ
गजल विविधा तरोताज़ा सुघड़ साजा July 19, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment तरोताज़ा सुघड़ साजा, सफ़र नित ज़िन्दगी होगा; जगत ना कभी गत होगा, बदलता रूप बस होगा ! जीव नव जन्म नित लेंगे, सीखते चल रहे होंगे; समझ कुछ जग चले होंगे, समझ कुछ जग गये होंगे ! चन्द्र तारे ज्योति धारे, धरा से लख रहे होंगे; अचेतन चेतना भर के, निहारे सृष्टि गण होंगे ! […] Read more » तरोताज़ा सुघड़ साजा