Category: कविता

कविता साहित्‍य

स्वच्छ सुन्दर पथ सँवारे !

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स्वच्छ सुन्दर पथ सँवारे, गा रही हिम रागिनी; छा रही आल्ह्वादिनी उर, छिटकती है चाँदनी ! वन तड़ागों बृक्ष ऊपर, राजती सज रजत सी; घास की शैया विराजी, लग रही है विदूषी ! रैन आए दिवस जाए, रूप ना वह बदलती; रूपसी पर धूप चखके, मन मसोसे पिघलती ! वारिशों में रिस रसा कर, धूलि से तन तरजती; त्राण को तैयार बैठी, प्राण को नित धारती ! धवलता से जग सजाए, सहजता प्रतिपालती; ‘मधु’ को मोहित किए वह, वारती मन योगिनी !         स्वर स्वप्न की गति को तके   स्वर स्वप्न की गति को तके, उर दहन की ज्वाला लखे; सुर हृदय की भाषा पढ़े, त्वर गति चले मन बढ़ चले !   लखके विपिन पृथ्वी नयन, ज्यों यान से भास्वर मनन; करि कल्पना निज अल्पना, हृद भाव से चखते सुमन ! जो गगन की वीरानगी, मधु मेघ की वह वानगी; स्वर दे चले प्रभु यामिनी, शुभ मन बसे ज्यों दामिनी !   जग स्वप्न को दे चाँदनी, पग हर तके सौदामिनी; हर कल्पना को रंग दे, हर अल्पना को ढंग दे ! बढती चले संकल्प ले, चढती चले सोपान ले; नभ की थिरन मन में रखे, ‘मधु’ विहग को नव पँख दे !           आज अद्भुत स्वप्न समझा ! आज अद्भुत स्वप्न समझा, […]

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कविता साहित्‍य

लहर ही ज़िन्दगी ले रही !

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लहर ही ज़िन्दगी ले रही, महर ही माधुरी दे रही; क़हर सारे वही ढल रही, पहलू उसके लिये जा रही ! पहल कर भी कहाँ पा रहा, हल सतह पर स्वत: आ रहा; शान्त स्वान्त: स्वयं हो रहा, उसका विनिमय मधुर लग रहा ! लग्न उसकी बनाई हुईं, समय लहरी पे सज आ रहीं; देहरी मेरी द्रष्टि बनी, सृष्टि दुल्हन को लख पा रही ! हरि के हाथों हरा जो गया, बनके हरियाली वह छा गया; आली मेरा जगत बन गया, ख़ालीपन था सभी भर गया ! अल्प अलसायी अँखियाँ मेरी, कल्प की कोख कोपल तकीं; क़ाफ़िले ‘मधु’ को ऐसे मिले, कुहक कोयल की हिय भा रही !

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कविता

अब मैं आता हूँ मात्र !

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अब मैं आता हूँ मात्र, अपनी विश्व वाटिका को झाँकने; अतीत में आयोजित रोपित कल्पित, भाव की डालियों की भंगिमा देखने ! उनके स्वरूपों की छटा निहारने, कलियों के आत्मीय अट्टहास की झलक पाने; प्राप्ति के आयामों से परे तरने, स्वप्निल वादियों की वहारों में विहरने ! अपना कोई उद्देश्य ध्येय अब कहाँ बचा, आत्म संतति की उमंगें तरंगें देखना; उनके वर्तमान की वेलों की लहर ताकना, कुछ न कहना चाहना पाना द्रष्टा बन रहना ! मेरे मन का जग जगमग हुए मग बन जाता है, जीवित रह जिजीविषा जाग्रत रखता है; पल पल बिखरता निखरता सँभलता चलता है, श्वाँस की भाँति काया में मेहमान बन रहता है ! मेरी सृष्टि मेरी द्रष्टि का अहसास लगती है, और मैं अपने सुमधुर सृष्टा का आश्वास; दोनों ‘मधु’ सम्बंधों में जकड़े, आत्म-अंक में मिले सिहरे समर्पण में सने ! रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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