कविता साहित्य चलो, दिवाली आज मनाएं October 20, 2017 by बलवन्त | Leave a Comment हर आँगन में उजियारा हो तिमिर मिटे संसार का। चलो, दिवाली आज मनाएं दीया जलाकर प्यार का। सपने हो मन में अनंत के हो अनंत की अभिलाषा। मन अनंत का ही भूखा हो मन अनंत का हो प्यासा। कोई भी उपयोग नहीं सूने वीणा के तार का । चलो, दिवाली आज मनाएं दीया जलाकर प्यार का। इन दीयों से दूर न […] Read more » दिवाली
कविता ‘वेबलेंथ’ का खेल October 15, 2017 by अलकनंदा सिंह | Leave a Comment भावों के विशाल पर्वत पर, उगती खिलती आकाश बेल चढ़ती- कुछ हकीकतें और कुछ आस्था, का मेल होती है मित्रता। तय परिधियों के अरण्य में ब्रह्म कमल सी एक बार खिलती मन-सुगंध को अपनी नाभि में समेटने का खेल होती है मित्रता। स्त्री- पुरुष, पुरुष -स्त्री, स्त्री-स्त्री, पुरुष- पुरुष, के सारे विभेद नापती, अविश्वास से […] Read more » Featured वेबलेंथ
कविता साहित्य जब नींद नहीं आँखों में October 13, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment बेवजह रात को जब भी मुझे नींद नहीं आती है करवटें बदल बदल कर रात गुज़र जाती है। चादर की हर सिलवट तब, कोई कहानी अपनी, यों ही कह जाती है। जब घर में आँगन होता था और नींद नहीं आती थी चँदा से बाते होती थीं, तारों को गिनने में वो रात गुज़र जाती थी। हल्की सी बयार का झोंका जब तन को छूकर जाता था, उसकी हल्की सी थपकी, नींद बुला लाती थी। अब बंद कमरों मे जब नींद नहीं आँखों में यादों के झरोखे से अब रात के तीसरे पहर में नींद के बादल आते हैं जो मुझे सुला जाते हैं। Read more » जब नींद नहीं आँखों में
कविता साहित्य यान ही यान हैं यहाँ रमते ! October 8, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment यान ही यान हैं यहाँ रमते ! शिकागो के गगन से यान ही यान हैं यहाँ रमते, तरा ऊपर तलों में वे उड़ते; धरणि नीचे वे देख हैं लेते, साये आकाश के वे छू लेते ! कोई आते कोई चले जाते, पट्टियों पर कोई उतर चलते; कोई उन पट्टियों से उड़ जाते, उड़ते […] Read more » शिकागो के गगन से
कविता साहित्य कभी कुछ भी नज़र नहीं आए ! October 8, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment कभी कुछ भी नज़र नहीं आए ! शिकागो के गगन से कभी कुछ भी नज़र नहीं आए, धुँधलका आसमान में छा जाए; श्वेत बादल बिछे से नभ पाएँ, व्योम में धूप सी नज़र आए ! ज्योति सम-रस सी रमी मन भाये, मेघ लीला किए यों भरमाएँ; धरा से देख यह कहाँ पायें, रुचिर […] Read more » कभी कुछ भी नज़र नहीं आए !
कविता साहित्य ज्वालामुखी October 6, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment हर आदमी आज यहाँ, ज्वालामुखी बन चुका है। क्रोध कुंठा ईर्ष्या की आग भीतर ही भीतर सुलग रही है। कोई फटने को तैयार बैठा हैं, कोई आग को दबाये बैठा है, किसी के मन की भीतरी परत में, चिंगारियां लग चुकी हैं। कोई ज्वालामुखी सुप्त है, कोई कब फट पड़े कोई नहीं जानता। समाज की विद्रूपताओं का सामना करने वाले या उनको बदलने वाले अब नहीं रहे क्योंकि सब जल रहे हैं भीतर से और बाहर से. क्योंकि वो ज्वालामुखी बन चुके हैं। ज्वालामुखी का पूरा समूह फटता है , तो कई निर्दोष मरते है, जब बम फटते है, नाइन इलैवन या ट्वैनटी सिक्स इलैवन होता है। किसी बड़े ज्वालामुखी के फटने से प्रद्युम्न मरते है या निर्भया, गुड़िया,या किसी मीना की इज्जत पर डाके पड़ते है, फिर हाल बेहाल, वो कही सड़क पर कहीं फेंक चलते है। कभी कार मे छोटी सी खरोंच आनेपर चाकू छुरी या देसी कट्टे चलतेहैं क्योंकि वो आदमी नहीं है ज्वालामुखी बन चुके हैं क्रोध कहीं से लिया और कहीं दाग़ दिया क्रोध कुँठा से ही ज्वालामुख बनते हैं औरों के साथ ख़ुद के लियें भी ,ख़तरा बनते हैं। कुछ ज्वालामुखी भीतर ही भीतर धदकते है ये भड़कर फटते भी नहीं हैं, अपनी ही जान लेते हैं। कोई गरीबी में जलता है, कोई प्रेम त्रिकोण में फंसता है कोई परीक्षा में असफल है, कोई उपेक्षित महसूस करता है या फिर अवसाद रोग से जलता रहा है कुछ कह नहीं रहा…,.,……. किसी की प्रेमिका ने किसी और के संग करली है सगाई……….. ये सब ज्वालामुखी धधक रहे हैं शायद ही किसी की आग कोई बुझा सके तो अच्छा हो, वरना ये ज्वालामुखी, अन्दर ही फटते है कोई पंखे पे लटक गया कोई नवीं, मंजिल से कूदा है इन ज्वालामुखियों के फटने से रोज खून इतना बहता है कि अखबार के चार पन्ने लाल होते हैं यहाँ हर आदमी ज्वालामुखी बन चुका है अब, हम जी तो रह है, पर डर के साये में, कौन कब फटे बस यही किसी को नहीं पता! Read more » Featured ज्वालामुखी
कविता साहित्य तुम्हारी हर ख्वाहिशें October 5, 2017 by अर्पण जैन "अविचल" | Leave a Comment अर्पण जैन ‘अविचल’ हर ख्वाब तेरे सिरहाने रख दुँ, जैसे चांद के पास सारी चांदनी बिखरते हुए अशकार समेट लूं, जैसे शायरी से मिलकर बनती है गजल कुछ खिलौनों-सी जिद है जिन्दगी, जैसे बचपन की गुड़िया की रसोई फर्श पर फिसलते मेरे इश्तेहार जैसे स्याही के बिखरने से बिगड़ता कागज […] Read more » तुम्हारी हर ख्वाहिशें
कविता साहित्य भारत के वे “लाल” यशस्वी,सचमुच बड़े “बहादुर” थे । September 28, 2017 by शकुन्तला बहादुर | 4 Comments on भारत के वे “लाल” यशस्वी,सचमुच बड़े “बहादुर” थे । भारत के यशस्वी पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी को * सादर समर्पित श्रद्धा-सुमन ********* भारत के वे “लाल” यशस्वी,सचमुच बड़े “बहादुर” थे । क़द छोटा, इंसान बड़े थे , देश-प्रेम हित आतुर थे ।। पले अभावों में थे लेकिन,मन से बड़े उदारमना । कर्त्तव्यों में निष्ठा थी,निज कष्टों को नहीं गिना ।। काशी विद्यापीठ […] Read more » सादर समर्पित श्रद्धा-सुमन स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी
कविता साहित्य कुचल दो कुयाशा की शाखाएँ ! September 18, 2017 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment कुचल दो कुयाशा की शाखाएँ, कुहक ले चल पड़ो कृष्ण चाहे; कृपा पा जाओगे राह आए, कुटिल भागेंगे भक्ति रस पाए ! भयंकर रूप जो रहे छाए, भाग वे जाएँगे वक़्त आए; छटेंगे बादलों की भाँति गगन, आँधियाँ ज्यों ही विश्व प्रभु लाएँ ! देखलो क्या रहा था उनके मन, जान लो कहाँ […] Read more » कुचल दो कुयाशा की शाखाएँ !
कविता हरसिंगार September 17, 2017 / September 18, 2017 by बीनू भटनागर | Leave a Comment हरसिंगार की ख़ुशबू कितनी ही निराली हो चाहें रात खिले और सुबह झड़ गये बस इतनी ज़िन्दगानी है। जीवन छोटा सा हो या हो लम्बा, ये बात ज़रा बेमानी है, ख़ुशबू बिखेर कर चले गये या घुट घुट के जीलें चाहें जितना। जो देकर ही कुछ चले गये उनकी ही बनती कहानी है। प्राजक्ता कहलो या पारितोष कहो केसरिया डंडी श्वेत फूल की चादर बिछी पेड़ के नीचे वर्षा रितु कीबिदाई है शरद रितु की अगवानी है। अब शाम सुबह सुहानी हैं। Read more » हरसिंगार
कविता मैं भी तो आगे बढ़ नहीं पायी September 17, 2017 / September 18, 2017 by अनुप्रिया अंशुमान | 5 Comments on मैं भी तो आगे बढ़ नहीं पायी जब गुजरती हूँ उन राहों से, मेरी तेज धड़कने आज भी तेरे होने का एहसास करा जाती है । जब गुज़रती हूँ उन गलियों से, मेरे खामोश कदमों से भी आहट तुम्हारी आती है । देखो… देखो …. उन सीढ़ियों पर बैठकर, तुम आज भी मेरा हाथ थाम लेते हो; देखो …. […] Read more » आगे बढ़ नहीं पायी
कविता साहित्य जिन आँखों के तारे थे हम उन आँखों में पानी है ! September 8, 2017 by राकेश कुमार सिंह | Leave a Comment जिन आँखों के तारे थे हम उन आँखों में पानी है ! सुलगते हुये रिस्तो की सच्ची यही कहानी है ! जरा सी चोट लगी जब हमको माँ कितना रोई थी ! सूखे में हमें सुलाया खुद गीले में सोई थी ! ऐसी माँ की क़द्र ना करना क्या बात नहीं बेईमानी है ! सुबह […] Read more » आँखों के तारे