कविता साहित्य सपने बेचना June 17, 2013 by मिलन सिन्हा | Leave a Comment वे सपने बेच रहे हैं एक अरसे से बेच रहे हैं भोर के नहीं दोपहर के सपने बेच रहे हैं तरह तरह के रंग बिरंगे सपने बेच रहे हैं खूब बेच रहे हैं मनमाने भाव में बेच रहे हैं अपनी अपनी दुकानों से बेच रहे हैं मालामाल हो रहे हैं निरंकुश हो रहे हैं होते […] Read more » सपने बेचना
कविता हास्य व्यंग्य कविता : परेशान ‘मेल’ June 13, 2013 / June 13, 2013 by मिलन सिन्हा | Leave a Comment मिलन सिन्हा मैनेजर ने बड़े बाबू से पूछा, ये क्या हाल बना रक्खा है, टेबुल पर फाइलों का अंबार लगा रक्खा है ? क्या बात है, कुछ कहते क्यों नहीं ? सर, कहने से क्या लाभ हमीं अब बदल रहें है अपना स्टाइल, अपना स्वभाव ! सर, हम जो मर्द हैं न, अर्थात […] Read more » परेशान 'मेल' हास्य व्यंग्य कविता
कविता साहित्य वसुधा कैसे मुस्कुराये ! June 12, 2013 / June 12, 2013 by बीनू भटनागर | 1 Comment on वसुधा कैसे मुस्कुराये ! वसुधा कैसे मुस्कुराये ! एक सौ बाईस करोड़ का बोझ, कैसे उठा पाये ! बाग़ बग़ीचे खेत खलिहान सिमटे, फसल कोई कैसे सींचे । सबको खाना कैसे खिलाये ! वसुधा कैसे मुस्कुराये ! सूखते जल-स्त्रोत जायें, प्रदूषण ना रोक पायें, धरा के नीचे का पानी, और नीचे होता जाये, प्यास सबकी कैसे बुझाये! वसुधा […] Read more » वसुधा कैसे मुस्कुराये !
कविता साहित्य रोटी June 11, 2013 / June 11, 2013 by मोतीलाल | Leave a Comment ये वही हाथ है जिन्होंने आन्दोलन चलाया था अंग्रेजों के विरुद्ध हमनें उतारा था यूनियन जैक और लहराया था अपना प्यारा तिरंगा । ये वही हाथ है जिन्होंने पैदा किया देश के लिए हरित क्रांति और बुलन्द किया था जय जवान, जय किसान का नारा । ये वही हाथ है जिसने नाम बुलन्द […] Read more » रोटी
कविता साहित्य कैसा यह चलन June 11, 2013 by मिलन सिन्हा | Leave a Comment कैसा है यह चलन हर तरफ जलन ही जलन पद से बढ़ा रहें हैं लोग अपना अपना कद हो रही है खूब आमद और खूब खुशामद रहते हैं पूरा लक – दक पद का ऐसा है मद नहीं मानते आजकल कोई भी हद भले ही बीच में क्यों न पिट जाए भद ज्ञानी जन कहते […] Read more » कैसा यह चलन
कविता कांच के टुकड़े June 10, 2013 / June 10, 2013 by विजय निकोर | 2 Comments on कांच के टुकड़े कांच के टूटने की आवाज़ बहुत बार सुनी थी, पर “वह” एक बार मेरे अन्दर जब चटाक से कुछ टूटा वह तुमको खो देने की आवाज़, वह कुछ और ही थी ! केवल एक चटक से इतने टुकड़े ? इतने महीन ? यूँ अटके रहे तब से कल्पना में मेरी, चुभते रहे हैं तुम्हारी हर याद में मुझे। अब हर सोच तुम्हारी वह कांच लिए, कुछ भी करूँ, […] Read more » poem by vijay nikor कांच के टुकड़े
कविता आज जब बादल छाए June 10, 2013 / June 10, 2013 by प्रवीण गुगनानी | 1 Comment on आज जब बादल छाए कैसे होगा बादल कभी और नीचे और बरस जायेगा , फुहारों और छोटी बड़ी बूंदों के बीच मैं याद करूँगा तुम्हे और तुम भी बरस जाना . .(२)…………………………………………….. कुछ बूंदों पर लिखी थी तुम्हारी यादें जो अब बरस रही है , सहेज कर रखी इन बूंदों पर से नहीं धुली तुम्हारी स्मृतियाँ न ही नमी […] Read more » आज जब बादल छाए
कविता चाँदनी June 10, 2013 / June 10, 2013 by बीनू भटनागर | 1 Comment on चाँदनी धूँधट हटाकर बादलों का चाँद ने, धरती को देखा तो लगी वो झूमने, खिले हैं फूल और छिटकी हुई है चाँदनी, पवन के वेग से उड़ती हुई है औढ़नी। सुरीली तान छेड़ी बाँसुरी पर, सजे सपने पलक पालकी पर, झंकार वीणा की मधुर है रागिनी, ढोल की थाप पर है लय बाँधनी। […] Read more » poem by binu bhatnagar ji चाँदनी
कविता साहित्य चक्रव्यूह June 8, 2013 by मिलन सिन्हा | Leave a Comment दुनिया तो है एक मेला पर, देखिये इस मेले में आदमी कितना है अकेला . घिरा है भीड़ से पर, कैसे खोजें अपनों को अजनबियों के बीच से . भीड़ समस्याओं की भी लगी है चारों ओर . हर तरफ है शोर ही शोर . समस्याओं के एक चक्रव्यूह से निकलते ही , दूसरे में […] Read more » चक्रव्यूह
कविता साहित्य श्रंगार रस के कवि June 8, 2013 / June 8, 2013 by बीनू भटनागर | 3 Comments on श्रंगार रस के कवि मित्र एक कविता लिखें, चित्र भी संग चिपकायें, चित्र देख कविता लिखें, या लिखकर गूगल पर जायें। शब्द जाल ऐसा बिछायें, हम उलझ उलझ रह जायें। श्रँगार मिलन की वेला मे हवा मे ख़ुशबू उड़ायें। सूखे पत्तो से भी , कवि उनकी आहट पाँयें। दूजे मित्र कविता लिखें, समय के घाव बतायें, विरह की […] Read more » श्रंगार रस के कवि
कविता साहित्य मंदिर जाता भेड़िया June 6, 2013 / June 6, 2013 by श्यामल सुमन | Leave a Comment शेर पूछता आजकल, दिया कौन यह घाव। लगता है वन में सुमन, होगा पुनः चुनाव।। गलबाँही अब देखिये, साँप नेवले बीच। गद्दी पाने को सुमन, कौन ऊँच औ नीच।। मंदिर जाता भेड़िया, देख हिरण में जोश। साधु चीता अब सुमन, फुदक रहा खरगोश।। पीता है श्रृंगाल अब, देख सुराही नीर। थाली में खाये सुमन, कैसे […] Read more » मंदिर जाता भेड़िया
कविता साहित्य सोना हो चाहत अगर June 5, 2013 by श्यामल सुमन | 1 Comment on सोना हो चाहत अगर सोना हो चाहत अगर, सोना हुआ मुहाल। दोनो सोना कब मिले, पूछे सुमन सवाल।। खर्च करोगे कुछ सुमन, घटे सदा परिमाण। ज्ञान, प्रेम बढ़ते सदा, बाँटो, देख प्रमाण।। अलग प्रेम से कुछ नहीं, प्रेम जगत आधार। देख सुमन ये क्या हुआ, बना प्रेम बाजार। प्रेम त्याग अपनत्व से, जीवन हो अभिराम। बनने से पहले लगे, […] Read more » सोना हो चाहत अगर