डॉ. मधुसूदन
सूचना: संदर्भ के लिए इसके पूर्व के प्रोटो इण्डो युरोपीयन भाषा पर लिखे आलेख का पठन आवश्यक है.
(एक)
हीन् ग्रंथि साहेबों का आक्रामक पैंतरा
कभी आप बार बार ऊंची टांग रखनेवाले लोगों के मन में प्रवेश करें तो आपको हीन ग्रंथि के दर्शन होने की संभावना है. ऐसा आक्रामक पैतरा, हीन ग्रंथि का, गुरुता का दिखावी चोला होता है. अपनी हीनता छिपाने के लिए ऐसी करनी करनी पडती है. लघुता को, वास्तव में, सच, स्वीकारने का साहस होना चाहिए.युरोपीयन मिशनरी और शासकों की समस्या यही थी. वें वेतन पाते थे धर्मान्तरण के लिए. प्रतिवर्ष वर्ष के अंत तक जितने धर्मान्तरण करने में मिशनरी सफल होता था; उस संख्या के अनुपात में मिशनरी का आय-व्ययक (बजट) सुनिश्चित होता था.{ संदर्भ कास्ट्स ऑफ माइन्ड–डॉ. निकोलस डर्क्स } और शासक शासन के लिए वेतन पाते थे. पर शासकों की निष्ठा भी इसाइयत में ही थी. ऐसी यंत्रणा और मानसिकता गवर्नरों तक फैली थी. इस जाल में मिशनरी, शासक और प्राच्यविद तक सारे कुछ न कुछ मात्रा में लिप्त थे. शायद पदोन्नति (?) भी इसी उपलब्धि पर निर्भर होती थी.
(दो)
प्रोटो इण्डो युरोपीयन भाषा का मनगढन्त ढाँचा
इस लिए, आक्रामक पैंतरा लेकर ही उन्हों ने प्रोटो इण्डो युरोपीयन भाषा का मनगढन्त इतिहास खडा किया. {इसके पूर्व का आलेख इसी विषय को उजागर करता है.}
इतिहास शब्द भी ==> इति + ह+ आस ==> ऐसा+सचमुच+था, का अर्थ रखता है. तो प्रोटो इण्डो युरोपीयन जिसका नाम तक कल्पित है, उसे इतिहास कैसे स्वीकारा जा सकता था? साथ साथ संस्कृत, ग्रीक और लातिनी को एक पंक्तिमें खडा कर उन्हें परस्पर तुलनीय मानना . यह दूसरी अतर्क्य बात थी.
पर फिर इस हीन मानी गयी संस्कृत की पाण्डु लिपियाँ चुराने का षड्यंत्र एशियाटिक सोसायटी स्थाप कर और उसके तीसों सदस्य भी युरोपीयन रखकर बडी कुशलता से किया गया. आज लाखों में हमारी पाण्डु लिपियाँ ऑक्सफर्ड. केंब्रिज, बर्लिन इत्यादि विश्व विद्यालयों के अधिकार में पहुँच चुकी है.
(तीन)
मिशनरियों की आक्रामक गुरु-ग्रंथि
एक ओर थी मिशनरियों की आक्रामक गुरु-ग्रंथि और सामने थी हमारी दास्यता-युक्त मानसिकता पोषित हीन-ग्रथि और फिर उस हीनताजनित शरणागति की मानसिकता जिसके चलते किसी भारतीय विद्वान ने प्रश्न उठाया ही नहीं. जिन्हों ने उठाया होगा, उसका हमारे इतिहास ने भी विशेष विवरण मिलता नहीं. वास्तव में हमारे विद्वान भी पारतंत्र्य के कारण हीनता का अनुभव करते होंगे.
(चार) क्या किसी अन्य अमेरिका वा युरोपवासी विद्वान ने हमारी सांस्कृतिक श्रेष्ठता स्वीकारी थी?
पर्याप्त अमरिका और युरोपवासी विद्वानों ने अपना स्वतंत्र और विपरित मत व्यक्त किया था. जिसका इतिहास भी मिलता है. वास्तव् में ऐसे बहु संख्य अपवाद ऐतिहासिक दृष्टि से अतीव महत्वपूर्ण होते हैं. उनके कुछ उदाहरण देखते हैं.
पहले संयुक्त राष्ट्र अमरिका के दार्शनिक विल ड्युराण्ट ने जो कहा था, मुझे अति महत्वपूर्ण लगता है.
(क) संयुक्त राष्ट्र अमरिका के दार्शनिक विल ड्युराण्ट (१८८५-१९८१) ने कहा था:
’भारत हमारी संस्कृति, और जाति के विकास एवं यूरोप की सभी भाषाओं की जननी है, हमने अरबों द्वारा जो गणित और दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया, वह भारत से ही वहाँ पहुँचा था. हमने बुद्ध से सच्चे धर्म का ज्ञान प्राप्त किया और उसी बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ ईसाई धर्म में भी (स्वीकारी गई) हैं. हमने भारत के ग्राम राज्यों से स्वराज और लोकतंत्र का ज्ञान प्राप्त किया. हमारी संस्कृति पर भारत के अनेक उपकार हैं.’
-विल ड्युराण्ट
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(ख) थिओडॉर बेन्फी (१८०९ -१८८१) संस्कृत के जर्मन विद्वान { ए कॉन्साइज़ एन्सायक्लोपेडिया ऑफ हिन्दुइजम}
थिओडॉर बेन्फी (१८०९ -१८८१) संस्कृत के जर्मन विद्वान और तुलनात्मक भाषाविज्ञान के निष्णात थे. उन्होंने पंचतंत्र का अनुवाद किया था. इनका महत्वपूर्ण ग्रंथ है; ’भाषा वैज्ञानिकी शोधों का इतिहास (१८६९)’. उनका कहना था:
’भारत ही प्राचीन संस्कृति का मूल स्रोत है. (भारत से) यहीं से ही भाषा एवं धार्मिक कथाओं सहित संस्कृति यूरोप में फैली. व्यापारी मार्गों से होकर मध्य-पूर्व (मिडल इस्ट) से यह संस्कृति छनकर फैल गई. प्राचीन ऐतिहासिक समय में ऐसा हुआ.’ –थिओडॉर बेन्फी
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(पाँच)
परिवार सदस्यों के नामों से पुष्टि:
(ग) कुछ अलग प्रकार की प्रत्यक्ष पुष्टि भी देखी जा सकती है.
जो हमारी परिवार संस्था का प्रभाव दर्शाती है.
हमारी प्रायः ४०-४५ रिश्तों की संस्कृत में पाई जानेवाली व्याख्याओं में से केवल १०-१२ ही लातिनी और ग्रीक में पहुंच पाई हैं, जो अंत में छनकर अंग्रेज़ी में फादर, मदर, डॉटर, सन, विडो, विडोअर ऐसी संख्या में मर्यादित हो जाती हैं. ध्यान रहे, कि, जब ऐसा प्रभाव फैलता है, तो अपने मार्ग के देशों से बढते बढते कुछ घिस -पिटकर घटता जाता है.
(छः) अंग्रेज़ी में संस्कृत शब्दों की विभक्तियाँ
(घ) उसी प्रकार अंग्रेज़ी में संस्कृत शब्दों की विभक्तियों का होना दिखाता है, कि, संस्कृत ही मूल होगा. यदि शब्द ही समान होते तो ऐसा कहा नहीं जा सकता था.
पर संस्कृत के शब्द उसके व्याकरण के साथ विभक्तियाँ भी लेकर अंग्रेज़ी में पहुँचे हैं, तो सुनिश्चित रीति से कहा जा सकता है, कि, संस्कृत ही इन लातिनी ग्रीक में पहुँची थी. और फिर छनकर अंग्रेज़ी में पहुँच गई हैं.
विभक्तियों के उदाहरण:
(च) अहं (मैं) आवां (हम दो) वयं (हम सारे) इन तीनों में से वयं को देखिए और फिर वईं (प्राकृत) और फिर अंग्रेज़ी का *वुई* देख लीजिए.
यह वुई हमारे वयं का अपभ्रंशित रूप है. हमारी ही प्राकृतो में ही वयं का वईं हो गया था जो लातिनी से अंग्रेज़ी में पहुँचते पहुँचते वईं से वुई हो गया.
ये व्याकरण की प्रक्रिया के पश्चात हुआ है; अतः यह संस्कृत से ही निश्चित पहुँचा हुआ है. और कोई संभावना नहीं हो सकती.
(छ) उसी प्रकार, अंग्रेज़ी का यु हमारे यूयं से ही पहुँचा हुआ लगता है. उसका बहुवचन में होना भी हमारे ही मूल स्रोत की साक्षी है.
त्वं (तू), युवां (तुम दोनो), यूयं (आप या आप सभी) ऐसा व्याकरण चलेगा. तो अंग्रेज़ी का यु संस्कृत के यूयं से ही गया प्रमाणित होता है.
(ज)
अब अंग्रेज़ी का ’दे’ देखिए. और हमारे उसी अर्थ के शब्द का (ते) से तुलना कीजिए. हमारा व्याकरण सः(वह) तौ (वें दोनो) ते (वें) ऐसे चलेगा. अंग्रेज़ी में इस ते का दे हो गया है.
(झ)
स्तभ (रुको) स्तभते. और फिर इसी का भूतकाल स्त्तब्ध का (अंग्रेज़ी -स्टॉप्ड) बताता है, कि, स्टॉप्ड भी संस्कृत के स्तब्ध से ही लिया गया है.
(ट)
शब्द जब इस प्रकार यूरोप में पहुँचा होगा, तो बीच मार्ग से अनेक देशों से होकर गया होगा. इस लिए घिसते पिटते ही पहुँचा होगा. यदि बीच की भाषाओं का अध्ययन किया जाए, तो, और भी इसी प्रकार के और भी काफी प्रमाण उपलब्ध होने की शक्यता नकारी नहीं जा सकती.
हमारे भाषा विज्ञान के परा-स्नातक संशोधकों को इस काम में लगाया जाए.
इस के पहले भी गत ७ वर्षॊं के आलेखों में, अनेक धातुओं का अपभ्रंशित होकर अंग्रेज़ी में पहुँचने के ६-७ आलेखों में उदाहरण सहित दे चुका हूँ.
उदाहरणार्थ:
(१) स्तभ [स्टॉप](२) स्था- तिष्ठति [ स्टॅण्ड ] (३) जन -जायते [जनरेट] (४) ज्ञा [अंग्रेज़ी क्नो] (५) बंध बध्नाति [बॉन्ड](६) युज से [अंग्रेज़ी युज़] (६) कृ- करोति [क्रिएट] (७) हन्त [अंग्रेज़ी हन्ट]. इन आलेखों को आप प्रवक्ता में हीं देख सकते हैं.
आ. मधु भाई,
आपके द्वारा अत्यन्त परिश्रम से किये गये शोधपूर्ण सप्रमाण तथ्यों की मान्यता तो होनी ही चाहिये। पहिले
भी आपके प्रायः सभी आलेख मैंने प्रवक्ता मेंं पढ़े हैं,जो इनकी पुष्टि में पूर्णरुपेण समर्थ हैं।
हाँ , दास्य मानसिकता वाले हठधर्मियों के लिये कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। सत्य तो सत्य ही रहेगा।
सादर,
शकुन बहन
केन जी, कुछ आलेख के विषय पर टिप्पणी दीजिए.
Viewers may use this English to Sanskrit dictionary
Sanskrit Grammar Transliteration English
प्रयोग m. prayoga use
विनियोग m. viniyoga use
प्रचलित n. pracalita use
भुनक्ति verb 7 tr. bhunakti { bhuj } use
सफलयति verb denom. saphalayati { saphalay } use
प्रत्युक्त adj. pratyukta used
धिक् indecl. dhik Fie! [Used as an interjection of reproach]……..and so on
विराम m. virAma stop
शमन n. zamana stop
नियच्छति verb 1 niyacchati { ni- yam } stop
स्थापयति verb caus. sthApayati { sthA } stop
निरामयति verb caus. nirAmayati { ni- ram } stop
स्तभायति verb caus. stabhAyati { stambh } stop
निवारयति verb caus. nivArayati { ni- vR } stop
स्तम्भित adj. stambhita stopped
स्थगित adj. sthagita stoppe
ताः f. pl. tAH they
ते m. pl. te they
तानि n. pl. tAni they
वर्तन्ते verb 1 vartante { vRt } they are
तौ उभौ phrase tau ubhau they both
आसन् verb Asan they were
https://spokensanskrit.org/index.php?mode=3&script=hk&tran_input=use&direct=es
केन जी, आप की टिप्पणी आलेख के किस विधान से संबंध रखती है?
डॉ. मधुसूदन
डॉ. मधुसूदन जी, इन महाशय की टिप्पणी लेख के किसी विधान से संबंध नहीं रखती लेकिन यहाँ हिंदी भाषियों की भीड़ देख कोई प्रवक्ता.कॉम पर अपना इश्तिहार लगा जाए तो सोचिये क्या प्रहरी सो रहे हैं?