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उ.प्र.: चुनावी संग्राम में ‘मुद्दों का तड़का’

 संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश में चुनाव का शोर सब तरफ सुनाई देने लगा है। अपने को पाक-साफ और दूसरे की टोपी उछालने के इस खेल में कोई उन्नीस नहीं दिख रहा है। किसकी राजनीति की खेती ज्यादा लहलहाएगी यह कोई नहीं जानता,मगर अपने को सभी श्रेष्ठ बताने में जुटे हैं। प्राय: सभी राजनैतिक पार्टियां अंदरूनी तौर पर नेताओं की आपसी गुटबाजी, टांग खिंचाई, आराम तलबी,दागी और दबंग नेताओं की कारगुजारी और प्रभावशाली नेतृत्व के अभाव जैसी तमाम समस्याओं से जूझ रहे हों लेकिन मुद्दों की कमी किसी के पास नहीं है।सभी राजनैतिक दल ‘चुनावी बिसात’ पर अपने-अपने हिसाब से ‘मुद्दों की गोटियां’ बिछा रहे हैं। सबके मुद्दे अलग-अलग है। भाजपा भ्रष्टाचार, महंगाई, कांग्रेस विकास और सपा जातीय आधार पर 2012 के विधान सभा चुनाव लड़ना चाहती है। बसपा को पूर्व की भांति ही ‘सर्वजन हिताय’ के फार्मूले पर भरोसा है लेकिन अमूमन सत्ता के खिलाफ जो नाराजगी जनता की रहती है,वह बसपा पर भारी पड़ सकती है।इस नाराजगी की वजह से 2-3 प्रतिशत वोट भी इधर-उधर हो गया तो बसपा के लिए सत्ता बचाना आसान नहीं होगा।वैसे बसपा सरकार से जनता की नाराजगी की वजह कम नहीं है।माया ने चुनाव से पहले गुंडों की छाती पर चढ़ने की बात कही थी,इसी लिए मुलायम के गुंडाराज से तंग जनता ने उन्हें सिर आंखों पर बैठाया था,लेकिन बसपा सरकार के ‘खाने के दांत और दिखाने के दांत और’ निकले। माया का अपने पूरे कार्यकाल के दौरान जनता से कटा रहना उनके और उनकी पार्टी के लिए भारी पड़ सकता है।

बात भाजपा से शुरू की जाए तो भाजपा की इस समय ‘दसों उंगलिया घी में’ लग रही हैं। उमा भारती और संघी संजय जोशी नेताओं की उत्तर प्रदेश में वापसी रंग दिखाने लगी है। गुटबाजी में उलझे भाजपा नेता अब एक मंच पर न केवल दिखने लगे है, बल्कि सरकार बनाने की भी बात कर रहे हैं। भाजपा के पास तो मुद्दों का पूरा पिटारा ही है। वह केन्द्र और प्रदेश दोनों ही सरकारों को निशाने पर लिए है।एक तरफ भ्रष्टाचार और मंहगाई के खिलाफ भाजपा अलख जलाए हुए है तो दूसरी तरफ बसपा-सपा और कांग्रेस को एक ही थाली का बैगान बताने से भी पीछे नहीं हट रही है। केन्द्र सरकार को सपा और बसपा दोनों का ही समर्थन मिलना भाजपा के लिए फायदे का सौदा साबित हो रहा है।भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया है।इस पर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही सफाई देते हुए कहते हैं,’ भाजपा किसी एक परिवार की पार्टी नहीं है। यहां जो भी फैसले होते हैं, वह मिलजुल कर लिए जाते हैं।’ वह भाजपा की परम्परा को याद दिलाना नहीं भूलते की 2007 के विधान सभा चुनावों के अलावा भाजपा ने कभी भी अपना मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं किया। भाजपा यहीं आकर नहीं रूकी वह यह भी जानती हैं कि दलितों और पिछड़ों को साथ लिए बिना सत्ता की सीढ़ियां चढ़ना मुश्किल हैं, इसलिए वह पिछड़ों में महा पिछड़ा और दलितों में महा दलितों की बात करने लगी है। उनके लिए सम्मेलन आयोजित किए जा रहे हैं, यात्राएं निकाली जा रही हैं। भाजपाई गांव-गांव भ्रमण कर रहे हैं।

बात कांग्रेस की कि जाए तो उसके लिए राह आसान नहीं लग रही। स ल भर पहले तक जो कांग्रेस काफी मजबूत स्थिति में लग रही थी,वही कांग्रेस इस समय एकदम से बैकफुट पर चली गई है,भ्रष्टाचार और मंहगाई डायन उन्हें खाई जा रही है। डरी सहमी कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी तो जैसे चौपाल लगाना ही भूल गए हैं।कांग्रेस का भरपूर प्रयास है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव भ्रष्टाचार या मंहगाई के मुद्दे की जगह विकास के मुद्दे पर लड़ा जाए,लेकिन भाजपा उसके इस सपने का पलीता लगाए हुए है,वह लगातार भ्रष्टाचार और मंहगाई को हवा दे रही है। जिस राहुल के सहारे कांग्रेस इतना बड़ा दांव खेलना चाहती है, उसकी योग्यता पर कुछ कांग्रेसियों को भी पूरा भरोसा नहीं है।उन्हें पता है कि राहुल कभी न कभी ऐसा कुछ बोल देते हैं जिससे मुंह छिपाने की नौबत आ जाती है।कांग्रेस के लिए अच्छी बात यह है कि अबकी बार उसके यहां भी टिकट मांगने वालों की संख्या में इजाफा हुआ है लेकिन अपनों को टिकट दिलाने के खेल में कांग्रेसी आपस में ही सिर फुटव्वल कर रहे हैं। कई नेता तो ऐसे भी हैं जो जितने की स्थिति में नहीं होने के बाद भी राहुल गांधी से करीबी का फायदा उठा कर टिकट हासिल करने का दावा कर रहे हैं। ‘जन लोकपाल बिल’ का भूत भी विधान सभा चुनाव के आसपास एक बार फिर से कांग्रेस के सामने मुश्किल खड़ी कर सकता है।अन्ना हजारे की टीम यही मान कर चल रही है कि जन लोकपाल बिल संसद के शीतकालीन सत्र तक पास हो जाएगा।अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह लोग फिर सड़क पर आ सकते हैं।यह वो समय होगा जब उत्तर प्रदेश में चुनावी संग्राम शीर्ष पर होगा।

उधर,अपने आप को बसपा का विकल्प बताने वाली समाजवादी पार्टी की नजर भी लक्ष्य की तरफ लगी है, लेकिन दमदार नेताओं की उसके आड़े आ रही है। अमर के दूर चले जाने के बाद बालीबुड का तड़का भी अबकी से सपा की चुनावी रैलियों में नहीं लग पाएगा।एक मात्र मुलायम के सहारे सपा को अपना बेड़ा करना होगा।सपा की चिंता यहीं खत्म नहीं हुई है, उसे चिंता चुनाव बाद गठबंधन की भी सता रही है।सपा का आंकड़ा अगर बहुमत से कुछ कम रहेगा तो उसे कांग्रेस सहित अन्य दलों की तरफ देखना होगा।केन्द्र में मनमोहन सरकार को समर्थन देने के कारण भी सपा, कांग्रेस के खिलाफ तेवर सख्त नहीं कर पा रही है,दूसरे वह तेवर सख्त करती भी है तो जनता इसे गम्भीरता से नहीं लेती। उसे पता है कि चुनाव बाद सत्ता पाने के लिए सपा-कांग्रेस से हाथ मिलाने में जरा भी परहेज नहीं करेगी।यही वजह है सपा जनता को मंहगाई और भ्रष्टाचार के बारे में जागरूक करने के बजाए जातीय समीकरणों पर ज्यादा उलझाएं रखना चाहती है।खासकर, एम-वाई(मुस्लिम-यादव)गठजोड़ को मजबूत करने के लिए सपा में सभी टोटके अपनाए जा रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज की तारीख में मुलायम के पास आजम खां के अलावा ऐसा कोई भी मुस्लिम नेता नहीं है जिसके पीछे मुसलमान विश्वास के साथ खड़ा हो सके। कल्याण के कारण मुसलमानों का विश्वास खो चुके मुलायम के लिए आजम क्या कुछ कर पाएंगें यह आने वाला समय बताएगा।वैसे सपा में ही ऐसे लोगों की कमी नहीं हैं जिन्हें आजम से चमत्कार की उम्मीद न के बराबर है। रही सही कसर पीस पार्टी पूरी कर सकती है। कहा यह भी जा रहा है कि प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने की कोशिशों के बीच मुलायम के राजनैतिक कैरियर का यह आखिरी चुनाव होगा ? 2012 के पश्चात होने वाले चुनावों(पांच साल तक अगली सरकार चली तो 2017 में होंगे विधान सभा चुनाव) तक मुलायम पर बढ़ती उम्र का प्रभाव हावी हो चुका होगा।रिटायर्ड होने के करीब आ पहुंचे मुलायम की दिला इच्छा है कि वह किसी तरह अपने पुत्र अखिेलश सिंह यादव को अपने पैरों पर खड़ा कर दें।अखिलेश का क्रांति रथ पर प्रदेश का भ्रमण करना इसी का हिस्सा है।मुलायम चाहते हैं कि कांवेंट में पढ़े-लिखे अखिलेश गांव-गांव और शहर-शहर जाकर जनता की नब्ज को पहचान कर अपनी राजनीतिक समझदारी को परिपक्त करें।सपा प्रमुख जानते हैं कि 2007 के बाद से सपा में काफी कुछ बदल गया है। कई कद्दावर नेता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं।अब पार्टी में अपवाद को छोड़कर कोई ऐसा नेता नहीं बचा है जो मुलायम की गैर-मौजूदगी में अखिलेश को सही राह दिखा पाए।इसी लिए अखिलेश के लिए मुलायम अधिक समय दे रहे हैं। का्रंति रथ पर घूम रहे अखिलेश को मुलायम से लगातर फीड बैंक मिल रहा है।

बात बसपा की कि जाए तो वह अपनी चूलें कसने में लगी है। अपने पसंदीदा अफसरों की महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती और दागियों को बाहर का रास्ता दिखाए जाने की मुहिम इसी का हिस्सा है।मुसलमानों को आरक्षण के लिए केन्द्र को पत्र लिखने, पूवर्ांचल-हरित प्रदेश और बुंदेलखंड को अगल राज्य बनाए जाने की वकालत करके माया अपना आधार बढ़ाना चाहती हैं।अगर उनका यह फार्मूला हिट रहा तो ठीक वैसा ही चमत्कार हो सकता है जैसा 2007 के विधान सभा चुनाव में ‘सर्वजन हिताए’ के नाम पर हुआ था,लेकिन सत्तारूढ़ दल के खिलाफ चलने वाली हवा उन्हें नुकसान भी पहुंचा सकती है।ब्राहमणों और क्षत्रियों का बसपा से मोह भंग होना शुभ संकेत नहीं है।उनकी भाईचारा कमेटियां निष्क्रिय पड़ी हैं। चुनाव की आहट ने माया को भी आस्थावान भी बना दिया है।वह मुहूर्त देखकर काम करने लगी हैं। पितृपक्ष के दौरान उन्होंने कोई नया काम नहीं किया और पितृपक्ष समाप्त होते ही नवरात्र के पहले दिन मुख्यमंत्री मायावती जिलों के दौरे पर निकल गईं।सबसे पहले उन्होंने पश्चिमी उप्र का दौरा किया।दरअसल, यह दौरा बसपा के चुनावी अभियान का श्रीगणेश है। चुनावी अभियान की शुरूआत के लिए उन्होंने पश्चिमी उप्र को अगर चुना तो इसका वजह भी है।2007 के विधानसभा चुनाव में यही से बसपा को बढ़त मिली थी,जिसे बसपा कायम रखना चाहती है।

पश्चिम उत्तर प्रदेश में साठ प्रतिशत विधानसभा क्षेत्रों पर बसपा का परचम लहरा रहा हैं। गौतमबुध्द नगर व बिजनौर जैसे कई जिले ऐसे भी हैं जहां पिछली बार विपक्ष का खता नही खुल सका था।माया यहां फिर यही इतिहास दोहराना चाहती है। पश्चिमी उप्र के जिलो के सियासी माहौल को बसपाई आज भी अपने लिए इसलिए माकूल मानते हैं क्योंकि यहां भाजपा को छोड़ अन्य दलों की स्थिति बेहतर नही मानी जाती है। अंतर्कलह में उलझी सपा के अलावा कांग्रेस का प्रदर्शन विस चुनाव में ही नहीं बल्कि 2009 के लोकसभा निर्वाचन में भी बेहद लचर रहा था। कांग्रेस सपा की कमजोरी का लाभ लेने को बसपा पश्चिमी की मस्लिम व एंटी भाजपा वोटों पर निगाहे लगाए हैं।उत्तर प्रदेश में पांचवें नम्बर की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल(रालोद)जिसका आधार पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित है, किसी भी राजनैतिक दल से चुनावी सहयोग न मिल पाने के कारण खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा है।माया ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश को लुभाने के लिए ही 2007 के विधानसभा चुनाव में शामली व हापुड को जिला बनाने का वादा पूरा किया। शामली को जिला बनाना रालोद की परेशानी का सबब बनेगा तो चंदौसी वालों के विरोध की परवाह किए बिना बदायूं के गुन्नौर को जोड़कर संभल को अलग जिला बनाकर मुख्यमंत्री ने सपा के लिए नई मुश्किल पैदा कर दी।जिलो के गठन का एलान करने हुए मुख्यमंत्री मायावती ने छोटे राज्यों के निर्माण की पैराकारी कर रालोद प्रमुख अजित सिंह को उसके ही गढ़ में चुनौती दी है।

कश्मीर पर निरर्थक बातें

पवन कुमार अरविंद

जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग और देश का सीमावर्ती राज्य है। इस राज्य पर पड़ोसी देशों ने 15 अगस्त 1947 के बाद पांच बार हमले किये हैं। इसमें चीन का एक हमला शामिल है। पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी समूह जम्मू-कश्मीर में अब भी घुसपैठ की फिराक में सदैव रहते हैं। पाकिस्तान से सटे जम्मू-कश्मीर की सीमा पर तैनात भारतीय सैन्य बलों द्वारा आतंकियों से निपटना अब उनकी नियमित दिनचर्या का एक हिस्सा बन गया है।

सुरक्षा की दृष्टि से जम्मू-कश्मीर ही नहीं बल्कि देश के किसी भी सीमावर्ती राज्य को सेना से मुक्त करना घातक है, साथ ही अव्यवहारिक भी। चाहे कश्मीर में पूरी तरह सामान्य स्थिति ही बहाल क्यों न हो जाये, अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए जम्मू-कश्मीर में सैन्य बल को सदैव तैनात रहना ही चाहिए। सामान्य स्थिति बहाल होने के बाद सेना अपनी बैरकों में वापस जा सकती है, लेकिन इस अवस्था को विसैन्यीकरण नहीं कहा जा सकता। जो लोग जम्मू-कश्मीर के विसैन्यीकरण की मांग कर रहे हैं, वे देश का अहित कर रहे हैं। ऐसे लोग देश विरोधी और पाकिस्तान समर्थक हैं।

पाकिस्तान क्यों नहीं चाहेगा कि उसके अधिकार क्षेत्र में भारतीय राज्य जम्मू-कश्मीर भी आ जाए। इसमें उसकी हानि क्या है? मुफ्त का चंदन घिस मेरे नन्दन। पंडित जवाहर लाल नेहरू की गलती के कारण जम्मू-कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में पहले से ही है। उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर के जम्मू क्षेत्र का लगभग 10 हजार वर्ग किमी. और कश्मीर क्षेत्र का लगभग 06 हजार वर्ग किमी. पाकिस्तान के कब्जे में है। चीन ने 1962 में आक्रमण करके लद्दाख के लगभग 36,500 वर्ग किमी. पर अवैध कब्जा कर लिया। बाद में पाकिस्तान ने भी चीन को 5500 वर्ग किमी. जमीन भेंटस्वरूप दे दी, ताकि बीजिंग उसका सदैव रक्षक बना रहे।

विगत दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान के स्थायी मिशन के काउंसलर ताहिर हुसैन अंदराबी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक बहस के दौरान कहा, “जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं है और न ही यह कभी रहा है।” इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के उप स्थायी प्रतिनिधि रजा बशीर तरार ने कहा, “दक्षिण एशिया में जम्मू-कश्मीर के लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार को सुरक्षा परिषद के कई प्रस्तावों में मंजूर किया गया है।”

यह सर्वविदित है कि जम्मू-कश्मीर, पाकिस्तान के जन्म से पहले से ही भारत का अभिन्न अंग है। जबकि 15 अगस्त 1947 के पहले पाकिस्तान का कहीं कोई अस्तित्व नहीं था। ऐसे में पाकिस्तानी अधिकारियों- हुसैन अंदराबी और रजा बशीर का कथन भ्रामक और झूठ का पुलिंदा तो है ही, हास्यास्पद भी है।

कश्मीर के संदर्भ में जहां तक जनमत-संग्रह का प्रश्न है, तो देश और विदेश में बहुत लोग ऐसे हैं जो यह मानते हैं कि कश्मीर समस्या के समाधान के रूप में जनतम-संग्रह की मांग एकदम व्यर्थ है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र के दो महासचिवों ने भी कहा था कि जनमत-संग्रह की मांग अब अप्रासंगिक हो गया है। पाकिस्तान के तत्कालीन तानाशाह जनरल परवेज मुशर्रफ ने भी जनमत-संग्रह की बात को खारिज करते हुए कश्मीर समस्या के समाधान के लिए एक अलग ही फॉर्मूला पेश किया था। हालांकि उनका फॉर्मूला भी विवादित ही था। लेकिन पाकिस्तानी खर्चे पर पलने वाले कश्मीरी अलगाववादी व उनके समर्थक अब भी जनमत-संग्रह और आत्म-निर्णय का राग अलाप रहे हैं, यह हास्यास्पद है।

सवाल कश्मीर में जनमत-संग्रह या आत्म-निर्णय का नहीं, बल्कि यह है कि क्या पाकिस्तान का निर्माण आत्मनिर्णय या जनमत-संग्रह के आधार पर हुआ था? यदि ऐसा हो तो कश्मीर में भी होना चाहिए। लेकिन यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि आज यदि पाकिस्तान में जनमत-संग्रह कराया जाये तो शांति के पक्षधर अधिकांश पाकिस्तानी भारत में मिलने के लिए अपना मत प्रकट करेंगे। यदि अखंड भारत में जनमत-संग्रह या आत्म-निर्णय के आधार पर पाकिस्तान निर्माण का फैसला हुआ होता तो आज पाकिस्तान का अस्तित्व ही नहीं होता। तो फिर कश्मीर के संदर्भ में जनमत-संग्रह या आत्म-निर्णय का प्रश्न कहां से खड़ा किया जा रहा है?

हिमालय की गोद में छिपा है सस्‍ती दवाओं का खजाना

स्‍टांजिंग कुंजांग आंग्‍मो

वनस्पति न सिर्फ इंसानी जीवन बल्कि पृथ्वी पर वास करने वाले समस्त जीव जंतु के जीवन चक्र का एक अहम हिस्सा है। एक तरफ जहां यह वातावरण को शुद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है वहीं दूसरी तरफ इसकी कई प्रजातियां दवा के रूप में भी काम आती हैं। वन संपदा की दृष्टिकोण से भारत काफी संपन्न है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इस क्षेत्र में भारत का विश्‍व में दसवां और एषिया में चौथा स्थान है। यहां अब तक लगभग छियालीस हजार से ज्यादा पेड़-पौधों की प्रजातियों का पता लगाया जा चुका है जो किसी न किसी रूप में हमारे काम आते हैं। पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र के अंतर्गत लद्दाख यूं तो अत्याधिक ठंड के लिए प्रसिद्ध है, इसके बावजूद यहां एक हजार से भी ज्यादा वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियां फल-फूल रही हैं, इनमें आधे ऐसे हैं जिनका उपयोग औषधि के रूप में किया जा सकता है।

समुद्र की सतह से करीब 11,500 फुट की उंचाई पर बसा लद्दाख अपनी अद्भुत संस्कृति, स्वर्णिम इतिहास और शांति के लिए विश्‍व प्रसिद्ध है। देश के सबसे बड़े जिले में एक लद्दाख की कुल आबादी 117637 है। उंचे क्षेत्र में स्थित होने तथा कम बारिश के कारण यहां का संपूर्ण जीवन कभी न समाप्त होने वाले ग्लेशियर पर निर्भर है। जो पिघलने पर कई छोटे बड़े नदी नाले को जन्म देती है। नवंबर से मार्च के बीच यहां का तापमान शून्य से भी 40 डिग्री नीचे चला जाता है। भारी बर्फबारी के कारण इसका संपर्क इस दौरान पूरी दुनिया से कट जाता है। यहां का 70 प्रतिशत क्षेत्र सालों भर बर्फ से ढ़का रहता है। इसी कारण इसे ठंडा रेगिस्तान के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन अगर आप करीब से इसका मुआयना करेंगे तो पता चलेगा कि यहां वनस्पतियों का एक संसार भी मौजूद है। दरअसल विशम भौगोलिक परिस्थिती ने यहां के लोगों को आत्मनिर्भर बना दिया है। ऐसे में क्षेत्र के निवासी अपने लिए आसपास उपलब्ध सामानों से ही जीवन को चलाने का माध्यम बनाते रहे हैं। यहां मुख्य रूप से गेहूं, जौ, मटर और आलु इत्यादि की खेती की जाती हैं, परंतु इसके बावजूद सब्जियां, दवाएं, ईंधन और जानवरों के लिए चारा जैसी बुनियादी आवश्‍यकताएं भी जंगली पौधों से ही प्राप्त की जाती हैं। जंगली पौधों पर इतने सालों तक निर्भरता ने ही इन्हें इसके फायदे का बखूबी अहसास करा दिया है।

विल्लो पोपलर (willow poplar) तथा सीबुक थ्रोन (seabuckthrone) यहां सबसे ज्यादा पाए जाने वाली वनस्पति है। उपचार की चिकित्सा पध्दति जिसे स्थानीय भाषा में स्वा रिग्पा (Sowa rigpa) अथवा आमची कहा जाता है, पूर्ण रूप से इन्हीं वनस्पतियों पर निर्भर है तथा यह वर्शों से स्थानीय निवासियों के लिए उपचार का साधन रहा है। मुख्यत: स्थानीय स्तर पर उपचार के लिए तैयार की जाने वाली औषधि इन्हीं विनस्पतियों के मिश्रण से बनाया जाता है। इस पद्धति के तहत हिमालयायी क्षेत्रों में मिलने वाली जड़ी बुटियों तथा खनिजों का प्रमुख रूप से इस्तेमाल किया जाता है। ट्रांस हिमालय में पाए जाने वाली वनस्पतियां आमची की अधिकतर दवाओं को तैयार करने में महत्वपूर्ण साबित होते हैं। आज भी लद्दाख में मिलने वाली दवाओं में इस्तेमाल किए जाने वाली जड़ी बुटियां द्रास, नुब्रा, चांगथान तथा सुरू घाटी में आसानी से प्राप्त किए जा सकते हैं।

लेह स्थित आमची मेडिसिन रिसर्च यूनिट (AMRUL) और फिल्ड रिसर्च लैब्रटॉरी (FRL) देश की दो ऐसी प्रयोगशालाएं हैं जहां ट्रांस हिमालय से प्राप्त वनस्पतियों का दवाओं में प्रयोग किए जाने के विभिन्न स्वरूप पर अध्ययन किया जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार लद्दाख और लाहोल स्फीति के ट्रांस हिमालय क्षेत्रों में मौजूद वनस्पतियों का दस से अधिक वर्षों से अध्ययन किया जा रहा है। इन अध्ययनों में कम से कम 1100 किस्मों को रिकार्ड किया गया है जिन में 525 किस्में ऐसी हैं जिन्हें भारतीय परंपरा में मौजूद कई दवाओं में इस्तेमाल किया जाता रहा है। इस संबंध में AMRUL तथा FRL कई स्तरों पर लोगों को जागरूक कर रही है। कई राष्‍ट्रीय तथा अंतरराष्‍ट्रीय सेमिनारों और वर्कशॉप के माध्यम से इन वनस्पतियों के फायदों के बारे में जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। दवाओं में प्रयोग होने वाले ये पौधे काफी स्वच्छ वातावरण में पनपते हैं, परंतु हाल के अध्ययनों से पता चला है कि इन पौधों की कुछ प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन के कारण नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है जिन्हें संरक्षण करने की सख्त जरूरत है।

बदलते परिदृश्‍य में बढ़ती जनसंख्या और दूशित वातावरण के कारण एक तरफ जहां इन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है वहीं इसे बाजार का रूप भी दिया जा रहा है। हालांकि व्यापारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए इन ट्रांस हिमालयीय पौधों को आधुनिक तकनीक के माध्यम से मैदानी इलाकों में भी उगाया जा सकता है। अगर इस क्षेत्र के प्राकृतिक संपदा का उचित उपयोग किया गया तो इनसे अच्छे हर्बल उत्पाद तैयार किए जा सकते हैं। जिससे ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को बेहतर रोजगार उपलब्ध हो सकते हैं। ऐसे में जरूरत है इनकी पैदावार बढ़ाने, इनका संरक्षण करने तथा इसके उचित उपयोग की। इसके लिए अंतरराष्‍ट्रीय संगठन तथा उद्योग जगत को आगे आने की आवश्‍यकता है। लेकिन इस बात पर विशेष ध्यान देने की भी आवश्‍यकता है कि इससे होने वाले फायदों में स्थानीय आबादी का भी प्रतिनिधित्व बराबर का हो।

विश्‍व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की तीन चौथाई आबादी आधुनिक तकनीक से तैयार दवाएं खरीदने में अक्षम है और उन्हें ऐसे ही पौधों से बनने वाली परंपरागत दवाओं पर निर्भर रहना पड़ता है। वर्षों से शोध और निष्‍कर्ष के बाद विश्‍व स्वास्थ्य संगठन इन्हीं जड़ी बुटियों से तैयार दवाओं को राश्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के प्रोग्राम के तहत बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि इसकी कीमत काफी कम होती है तथा यह सबकी पहुंच में भी है। (चरखा फीचर्स)

बिहार के बाढ़ ग्रसित क्षेत्रों में सरकार की स्‍वास्‍थ्‍य नीति

निशात खानम 

बिहार के बदलते परिदृश्‍य का समाज के सभी वर्गों ने स्वागत किया है। आशाओं और आंकाक्षाओं के अनुरूप राज्य सरकार ने जिन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा ध्यान दिया है उनमें स्वास्थ्य सेवा भी शामिल है। इनके लिए सरकार ने जमीनी स्तर से योजनाओं को अमल में लाना शुरू किया है। प्राथमिक चिकित्सालयों, जिला चिकित्सालयों और राज्य स्तरीय चिकित्सालयों का उन्नयन कर उन्हें आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित किया गया है। चिकित्सकों, नर्सों, दक्ष स्वास्थ्य कर्मियों और अस्पताल प्रबंधकों की नियुक्ति की गई है। पूरे राज्य में एम्बुलेंस सुविधा के साथ ही चलंत चिकित्सा वाहनों की व्यवस्था की गई है। मरीजों को फौरी राहत पहुंचाने के लिए आपातकालीन सेवा के तहत एम्बुलेंस की व्यवस्था की गई है। इसके लिए राज्य सरकार ने टॉल फ्री नबंर 102 और 108 शुरू किया है, जिससे संपर्क कर मरीजों को वक्त रहते अस्पताल पहुंचाया जा सके। इसके अलावा निजी भागीदारी के माध्यम से सरकारी अस्पतालों में एक्सरे यूनिट, पैथोलॉजी जांच केन्द्र, अस्पताल रख रखाव सेवाओं, ब्लड स्टोरेज सेन्टर, ब्लड बैंक और चिकित्सा इकाई की व्यवस्था की गई है।

 

ग्रामीण क्षेत्रों में भी सरकार की स्वास्थ्य नीति सराहनीय है। राज्य के पिछड़े ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा सुविधा का विस्तार और सुदृढ़ीकरण करने के कई सफल कार्यक्रम क्रियान्वित किए गए हैं। इसके लिए राज्य के सभी 534 प्रखंडों में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र स्थापित की गई है और उनमें से 480 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 24 घंटे सुविधा उपलब्ध कराया गया है। इसके साथ साथ विद्यालय स्वास्थ्य परीक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत विद्यालय में नामांकित प्रत्येक बच्चे का नियमित वार्शिक स्वास्थ्य परीक्षण करने के उद्देश्‍य से एजेंसी का चयन कर विद्यालय में स्वास्थ्य शिविर लगाकर बच्चों की स्वास्थ्य जांच प्रारंभ की गई है। स्वास्थ्य प्रक्षेत्र में गुणात्मक सुधार लाने के लिए बिहार सरकार ने राष्‍ट्रीय तथा अंतरराष्‍ट्रीय स्तर की कई गैर सरकारी स्वंयसेवी संस्थाओं के साथ समझौता भी किया है। सरकार के इन प्रयासों का ही नतीजा है कि सरकारी अस्पतालों में उपचार के लिए पहले जहां औसतन सिर्फ 39 रोगी प्रतिमाह उपस्थित होते थे, वहीं अब यह संख्या 5000 प्रतिमाह हो गई है। यह प्रमाण है कि अब सरकारी अस्पतालों में लोगों को बेहतर सुविधा मिल रही है।

 

स्वास्थ्य सुधार की दिशा में सरकार की पहल सराहनीय कही जा सकती है। परन्तु अब भी इसमें कई स्तरों पर खामियां हैं। पिछले 7-8 वर्षों के शासन के दौरान स्वास्थ्य मिशन नितीश सरकार की पहली प्राथमिकता जरूर है लेकिन कई जिलों में इसमें सुधार की रफ्तार काफी धीमी है। जिसके लिए सरकार को कमर कसने की जरूरत है। विशेषकर बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों में इसकी पारदर्शिता में कुछ खामियां दिखाई देती हैं। दरभंगा से लगभग 11 किलोमीटर दूर बहादुरपुर प्रखंड स्थित कमलपुर गांव इसका उदाहरण है। तीन हजार की आबादी वाला यह गांव डायरिया, मियादी बुखार अर्थात टाईफाइड और हैजा जैसी बीमारियों से ग्रसित हैं।

 

यह इलाका कमला, कोसी और गेहूंआ नदियों से प्रभावित है। बाढ़ पीड़ित क्षेत्र होने की वजह से ऐसी बीमारियां यहां के लिए आम बात है। गांव के 35 वर्षीय राधे यादव के अनुसार स्वास्थ्य केन्द्र में इलाज के लिए कोई विशेष सुविधा प्राप्त नहीं है। डॉक्टर की नियुक्ति अभी तक ठीक से नही हुई है। अलबता नर्स है, परंतु यदा-कदा ही उनका दर्शन होता है। सरकार के तय कार्यक्रमों के अनुसार सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों एवं जिलों के मुख्य अस्पतालों में फ्री दवा वितरण की व्यवस्था है लेकिन यहां के स्वास्थ्य केंद्र को ऐसी सुविधा नसीब नहीं है।

 

यह सच्चाई केवल एक कमलपूर गांव की नहीं है बल्कि बिहार के कई जिले और उसके अंतगर्त प्रखंड ऐसी समस्याओं से ग्रसित है, जहां सरकार द्वारा चलाया जा रहे कार्यक्रम का लाभ ग्रामीणों को नहीं मिल रहा है। ऐसा नहीं है कि सरकार द्वारा स्वास्थ्य की दिशा में उठाए जा रहे कदम में खामी है बल्कि कमी उस स्तर से षुरू होती है जहां से इन योजनाओं को लागू करना होता है। कभी देश के सबसे पिछड़े और बीमारू राज्य का दर्जा पाने वाला बिहार अब अपने इस छवि से बाहर आता नजर आ रहा है।

 

शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक राज्य के सभी क्षेत्रों में विकास की बयार बहती नजर आ रही है। यही कारण है कि एक तरफ जहां उसे साक्षरता के लिए दशक अवार्ड से सम्मानित किया जा रहा है तो दूसरी तरफ अन्य राज्य उसे अपना आदर्श मानकर विकास का स्वरूप तय करने लगे हैं। ऐसे में प्रश्‍न उठता है कि आखिर कौन है जो इनकी बदहाली का जिम्मेदार है? क्या कारण है कि राज्य सरकार द्वारा चलाए जा रहे विकास के लक्ष्य में चूक हो रही है? यहां सवाल सिर्फ स्वास्थ्य सेवाओं का नहीं है बल्कि उन वास्तविक हकदारों तक पहुंच की है, जो वर्षों से इसका इंतजार कर रहे हैं।(चरखा फीचर्स)

पंचायती व्‍यवस्‍था ने बदला कश्‍मीरी समाज का नजरिया

मो. अनीसुर्रहमान खान 

आंतकवाद से ग्रसित कश्‍मीर की फिज़ा में धीरे-धीरे बदलाव के संकेत आ रहे हैं। अवाम बदूंक की बजाए लोकतंत्र का समर्थन करने लगी है। इसका सबूत देने के लिए करीब तीन महीने पहले संपन्न हुए पंचायत चुनाव और उसके बाद के सामाजिक बदलाव ही काफी हैं। लगभग दस साल के लंबे अर्से बाद हुए इस चुनाव में बड़ी संख्या में लोग घरों से निकलकर वोट डालने आए थे। इसका एक प्रमुख कारण यह भी था कि कश्‍मीरियों का यह विश्‍वास हो चला है कि इसके माध्यम से उनकी समस्याओं का हल हो सकता है। खास बात यह रही कि घाटी के कुछ मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम उम्मीदवारों के बावजूद लोगों ने पंच और सरपंच जैसे महत्वपूर्ण पदों पर हिंदु उम्मीदवार को चुना। जो इस बात का संकेत था कि कश्‍मीरी भी बिना भेदभाव के अपने जन्नत नजीर का विकास चाहते हैं। शांतिपूर्ण और भारी मतदान कर घाटी के अवाम ने गेंद राज्य सरकार के पाले में डाल दिया। जो लगातार दावा कर रही थी कि ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान पंचायत में ही निहित है और अगर पंचायत चुनाव सफल हुए तो उन्हें अधिकार प्रदान किए जाएंगे। हालांकि चुनाव से पहले इस बात का जमकर दुश्प्रचार किया गया कि पंचायत अधिकारविहीन होगी और लोगों को मायूसी के अलावा कुछ हासिल नहीं होगा। लेकिन चुनाव के कुछ माह बाद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने पंचायत को अधिकार देने का वादा पूरा कर अपनी सरकार की मंशा साफ कर दिया।

 

बहरहाल पंचायत चुनाव के तीन महीने बाद हालात का जायजा लें तो कहीं न कहीं यह साफ होता जा रहा है कि कश्‍मीरी समाज को लोकतंत्र रास आने लगा है। उन्हें इस बात का अंदाजा होने लगा है कि हर मुद्दे का समाधान बंदूक और पत्थर में नहीं बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में है। वास्तव में पंचायत चुनाव ने कश्‍मीर के ग्रामीण क्षेत्रों की दशा और दिशा को बदल दिया है। इसके माध्यम से अब अपने अधिकार के प्रति उनमें जागरूकता आ चुकी है। पहले जहां लोग सरकारी कामों में कोई खास दिलचस्पी नहीं लेते थे। वहीं अब स्थानीय स्तर पर होने वाले कार्यों में उनकी भागीदारी देखी जा सकती है। आंगनबाड़ी, जनवितरण प्रणाली, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा स्कूली कामों में बढ़चढ़ कर भाग लेते हैं और अपने पंचायत प्रतिनिधि से हिसाब किताब भी मांगने में संकोच नहीं करते हैं। इसका एक ताजा उदाहरण कुपवाड़ा जिला अंतर्गत सलामतवाड़ी गांव है जहां कुछ दिनों पहले खबर आई थी कि गांव के एक चौकीदार की तत्परता से आंगनबाड़ी केंद्र में हो रहे घपले का पर्दाफाश हुआ। जो सुपरवाइजर की मिलीभगत से पिछले कई सालों से धड़ल्ले से चल रहा था। खास बात यह है कि अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होने के कारण इस छोटे से गांव के अंदर हो रहे घपले की तरफ पहले कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया था। इसी तरह दर्दपूरा जिसे अक्सर ”विधवाओं का गांव” के नाम से भी जाना जाता है, यहां बुनियादी सुविधाओं का भी घोर अभाव था। पाकिस्तानी सीमा से सटे इस आखिरी मानव बस्ती में न तो परिवहन का कोई साधन था और न ही गांव वाले जनवितरण प्रणाली का लाभ उठा पाते थे। लेकिन अब पंचायत चुनाव के बाद यहां का मंजर कुछ और हो चुका है। पंचायत के माध्यम से लोगों को सरकारी सुविधाओं का लाभ पहुंचने लगा है। विधवाओं को भत्ता तथा बुढ़ों को पेंशन मिलने लगी है जो पहले कभी मयस्सर नहीं था। इतना ही नहीं स्वंय गांव वाले न सिर्फ सरकारी स्कीमों का फायदा उठा रहे हैं बल्कि अपने अधिकारों के उपयोग के प्रति भी जागरूक हो चुके हैं। पंचायत की कोशिशों से पहली बार इस गांव से सीधे राजधानी श्रीनगर तक बस सर्विस षुरू हो गई तथा लोगों को जनवितरण प्रणाली का भरपूर लाभ भी मिलने लगा है।

 

वास्तव में पंचायत के गठन के बाद कश्‍मीर के ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहे बदलाव के पीछे अन्य कारणों में एक जो सबसे अहम है वह है युवाओं की भागीदारी। इस बार के पंचायत चुनाव में बड़ी संख्या में नौजवानों ने हिस्सा लिया और जीते। जिनकी आंखों में अपने क्षेत्र के विकास का सपना पलबढ़ रहा था। उनके इसी जोश और जज्बे ने राज्य में पंचायत को सशक्त बना दिया है। उदाहरण के तौर पर कुपवाड़ा जिला अंतर्गत सलामतवाड़ी से चुने गए पंच बषीर अहमद पीर और सरपंच अहमद मीर दोनों ही जनप्रतिनिधि 24-25 साल के युवा हैं। यही कारण है कि आज इस गांव के लोग सरकारी स्कीमों का भरपूर फायदा उठा रहे हैं। यहां तक कि गांव में होने वाले छोटे मोटे झगड़ों का निपटारा भी पुलिस थानों की बजाए पंचायत में ही कर लिया जाता है। इन नौजवान जनप्रतिनिधियों की कोषिषों की बदौलत मनरेगा के तहत लोगों को पहले से ज्यादा काम मिलने लगा है।

 

हालांकि पंचायतों को दिए जाने वाले अधिकारों को सीमित करने का राज्य सरकार पर विधायकों की तरफ से ही दबाब था जो अपने अधिकारों को उनके साथ बांटने के लिए तैयार नहीं थे। अधिकारों के इस विकेंद्रीयकरण के साथ उन्हें अपने क्षेत्र में अपना ही दबदबा खत्म होने का खतरा नजर आने लगा था। बहरहाल पंचायत को अधिकार प्रदान कर उमर अब्दुल्ला सरकार और जनता के बीच रिष्ते मजबूत हुए हैं। जनता के इसी विश्‍वास ने ही उन्हें अपनों और विपक्षों के बनाए चक्रव्यूह से बाहर निकाला है जो उन्हें राज्य का कमजोर और जनता का विश्‍वास खो देने वाला मुख्यमंत्री साबित करने के सारे अस्त्र इस्तेमाल कर चुके थे। लेकिन कुल मिलाकर एक बात सच साबित हुई है कि पंचायती व्यवस्था से कश्‍मीर की ग्रामीण जनता का जहां सरकार पर विश्‍वास बढ़ा है वहीं सरकारी अफसरों को भी अपने फर्ज का बखूबी अहसास हो चुका है। (चरखा फीचर्स)

गांधीजी के विचार और जलवायु परिवर्तन की चुनौती

नवनीत कुमार गुप्ता

राष्‍ट्रपिता महात्मा गांधी संसार के उन चंद महापुरूषों में से एक हैं जिनके विचार सदैव मानव सभ्यता के विकास में बहुमूल्य साबित होते रहे हैं। गांधी जी ने केवल सामाजिक और राजनीतिक ही नहीं बल्कि जीवन के सभी क्षेत्रों में अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया है। आज जबकि मानवीय मूल्यों और पर्यावरण में होते ह्रास के कारण पृथ्वी और यहां उपस्थित जीवन के खुशहाल भविष्य को लेकर चिंताएं होने लगी है, ऐसे समय में उनका विचार हमें इसका समाधान खोजने में काफी हद तक कारगर सिध्द हो सकता है। जलवायु परिवर्तन एवं इससे संबंधित विभिन्न समस्याओं जैसे प्रदूषित होता पर्यावरण, जीवों व वनस्पतियों की प्रजातियों का विलुप्त होना, उपजाऊ भूमि में होती कमी, खाद्यान्न संकट, तटवर्ती क्षेत्रों का क्षरण, ऊर्जा स्रोतों का कम होना और नयी-नयी बीमारियों का फैलना आदि संकटों से धरती को बचाने के लिए गांधीजी के विचार प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं।

वस्तुत: गांधीजी के विचारों का अनुकरण करने पर ही मानव और प्रकृति के साथ प्रेममयी संबंधा स्थापित करते हुए इस धरती की सुंदरता को बरकरार रखा जा सकता है। लाखों-करोड़ों वर्षों के दौरान धारती पर जीवन को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाने वाला पर्यावरण अब मानवीय गतिविधियों द्वारा प्रदूषित होने लगा है। उद्योगों व वाहनों से निकली जहरीली गैसों के कारण वायुमंडल के प्राकृतिक अनुपात में लगातार बदलाव हो रहा है। आज लगभग सभी नदियों का जल प्रदूषित हो चुका है। फैक्टरियों, संयंत्रों आदि से निकले दूषित जल एवं रसायनों के कारण नदियां जीवनदायनी का रूप खो चुकी हैं। अब इनमें स्वच्छ जल की जगह भारी धातुओं जैसे आर्सेनिक, पारा, कैडमियम आदि की मात्रा में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है, परिणास्वरूप विज्ञान को चुनौती देते विभिन्न प्रकार के रोग अपना पांव फैला रहे हैं। दूसरी तरफ हवा और पानी के साथ-साथ मिट्टी की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। जबकि पॉलीथीन का बढ़ता उपयोग पर्यावरण के लिए गंभीर चुनौती बनता जा रहा है। देखा जाए तो बढ़ती जनसंख्या, बढ़ती जरूरतें और इन सबसे अधिक बढ़ता लालच प्रदूषण रूपी इस समस्या का मुख्य कारण है। बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ उसकी आवश्यकता भी बढ़ जाती है। हमारी बढ़ती मांग का अर्थ, कृषि कार्य का बढ़ना है जिससे ऊर्वरकों, कीटनाशियों, आदि रासायनिक पदार्थों के साथ ही जल एवं ऊर्जा की खपत भी बढ़ती जा रही है।

ऐसे समय में पर्यावरण की शुध्दता को बनाए रखने के लिए हमें गांधीजी की बातों का स्मरण करना चाहिए। पर्यावरण को प्रदूषित करने वाली मानवीय गतिविधियों पर नियंत्रण कर हम इसमें काफी हद तक कमी ला सकते हैं। इसके लिए आधुनिक प्रौद्योगिकियों के साथ पर्यावरण मित्र यानी इको-फ्रैंडली जीवन शैली को अपनाना होगा, तभी प्रदूषण रूपी दानव पर काबू पाया जा सकेगा। गांधाीजी के विचारों के अनुसार सबकी भलाई में ही व्यक्ति की भलाई निहित होती है ऐसे में प्रकृति के साथ मेल बिठाने के लिए कम से कम प्रयोग और ज्यादा से ज्यादा त्याग किए जाएं। उनका मानना था कि सीमित संसाधानों के साथ जीवन बीताने और पर्यावरण संरक्षण के द्वारा ही भावी विनाश से बचा जा सकता है।

पृथ्वी जीवन के विविधा रंगों को संजोए हुए है। यहां पाए जाने वाली लाखों तरह की वनस्पतियां इसके प्राकृतिक सौंदर्य का एक अंग हैं। जहां इसकी वनस्पतियों में गुलाब जैसे सुंदर फूलदार पौधों, नागफनी जैसे रेगिस्तानी पौधों, सुगंधित चन्दन और वट जैसे विशालकाय वृक्ष शामिल हैं वहीं यहां जीव-जंतुओं की दुनिया भी अद्भुत विविधाता लिए हुए है। यहां हिरण, खरगोश जैसे सुंदर जीवों के साथ शेर एवं बाघ जैसे हिंसक जीव भी उपस्थित हैं जो पृथ्वी पर जीवन की विविधाता के परिचायक हैं। जबकि मोर, कबूतर और गौरेया जैसे हजारों पक्षी जीवन के रंग-बिरंगे रूप को प्रदर्शित करते हैं। जैव विविधाता मानव के लिए प्रकृति का अनुपम उपहार है। ऐसे में मनुश्यों द्वारा अपने स्वार्थ के लिए पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करने से जीवन के प्रत्येक रूप को प्रभावित हो रहे हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण जैव विविधाता में सर्वाधिक तेजी से परिवर्तन हो रहें हैं। इसके प्रभाव से अब तक अनेक जीव इस धारती से या तो पूरी तरह से विलुप्त हो चुके हैं या हो रहे हैं अथवा होने के कगार पर पहुंच गए हैं। बेलगाम प्रदूषण के कारण जीवन विनाश के स्तर पर पहुंच चुका है। वर्तमान में 30 प्रतिशत से अधिक उभयचर, 23 प्रतिशत स्तनधारी तथा 12 प्रतिशत पक्षियों की प्रजातियां संकटग्रस्त हैं। ऐसी कठिन परिस्थिती में जैव विविधता के संरक्षण के लिए गांधीजी का जीवन दर्षन हमें प्रेरणा दे सकता है। गांधीजी प्राणीमात्र को एक समान मानते थे। वह सभी जीवों के प्रति समान दया भाव रखते थे। उनका मानना था कि जो क्रूरता हम अपने ऊपर नहीं कर सकते वह हमें निम्न स्तर के जीवों के साथ भी नहीं करनी चाहिए। इस तरह की विचारधारा को अपनाने से ही वास्तव में धरती पर जैव विविधता बनी रह सकती है।

पर्यावरण के साथ आत्मीय रिश्ते जरूरी हैं और पर्यावरणीय दशाओं को समझने के लिए हमें प्रकृति के साथ मधुर संबंधा कायम करने होंगे। पर्यावरण संरक्षण के संबंध में गांधीजी की अवधारणा नई नहीं है अपुति भारत के प्राचीन सभ्यता में इसकी झलक मिलती है। वह छीन-झपट या झगड़े का तरीका नहीं, बल्कि त्याग यानी बिल्कुल छोड़ देने के तरीके पर अमल करते थे। यही कारण है कि उनकी विचारधारा केवल भारत ही नहीं, बल्कि समस्त मानव सभ्यता पर लागू होती है। जिसे हर युग में जीवन में उतार कर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया जा सकता है। इस समय गांधीजी के ”सादा जीवन उच्च विचार” वाली विचारधारा के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण में अमूल्य योगदान ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (चरखा फीचर्स)

युवा पीढी नही देश का भविष्य बिगड़ रहा है ?

आज हमारी युवा पीढी को न जाने क्या हो रहा है माँ बाप और टीचरों की जरा जरा सी बातो और डाट फटकार पर खुदकुशी और मारपीट की खबरें बहुत तेजी से सुनने को मिल रही हैं। अभी पिछले दिनों ही एक छात्र की करतूत ने गुरू शिष्य परंपरा को ही कलंकित कर के रख दिया। अध्यापक के जरा सा डांटने पर गुस्साए छात्र ने उन्हे चाकू मार कर लहूलुहान कर दिया। ये घटना 3 अक्तूबर 2011 की सहारनपुर के बड़गांव के आदर्श इंटर कालेज के कक्षा 11 में भौतिक विज्ञान के अध्यापक जगदेव के साथ स्कूल के पहले घंटे में ही घटित हुर्इ। दरअसल अध्यापक जगदेव जैसे ही क्लास में पहुंचे तो उन्होने देखा कि क्लास में कुछ कुर्सियां उल्टी सीधी पडी थी उन्होने छात्रों से क्लास की उल्टी कुर्सियों को सीधा करने को कहा किन्तु कुर्सियां सीधी करने छात्र सुमित ने अपनी तोहीन समझा और उसने ऐसा करने से मना कर दिया। अध्यापक जगदेव ने उसे जब डाटा तो वो चिढ़ गया और उसने जेब से चाकू निकालकर अध्यापक जगदेव पर हल्ला बोल दिया। ये कोर्इ अकेली घटना नहीं अपने सहपाठियों और अध्यापकों के साथ कम उम्र युवाओं द्वारा हिंसक घटनाओं की तादाद दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही हैं। आखिर ऐसा क्यो हो रहा है। एक ओर जहां इन घटनाओं से बच्चों के परिजन परेशान हैं वही ये घटनाएँ देश और समाज के लिये भी चिंता का विषय बनता जा है। दरअसल इन घटनाओं की वजह बहुत ही साफ और सच्ची है जो बच्चे ऐसी घटनाओ को अन्जाम दे रहे हैं उन के आदर्श फिल्मी हीरो, हिंसक वीडियो गेम, माता पिता द्वारा बच्चो को ऐश-ओ-आराम के साथ महत्वाकांशी दुनिया की तस्वीरों के अलावा जिन्दगी के वास्तविक यथार्थ बताएं और दिखाये नही जा रहे हैं। संघर्ष करना नही सिखाया जा रहा। हां सब कुछ हासिल करने का ख्वाब जरूर दिखाया जा रहा हैं। वह भी कोर्इ संघर्ष किये बिना। दरअसल जो बच्चे संघर्षशील जीवन जीते हैं उनकी संवेदनाएं मरती नहीं हैं वे कठिन परिस्थितियों में भी निराश नहीं होते और हर विपरीत परिस्थिति से लडने के लिये तैयार रहते हैं। कुछ घटनाओं के पीछे शिक्षा और परीक्षा का दबाव है तो कुछ के पीछे मात्र अभिभावकों और अध्यापकों की सामान्य सी डाट, अपने सहपाठियों की उपेक्षा अथवा अंग्रेजी भाषा में हाथ तंग होना। मामूली बातों पर गम्भीर फैसले ले लेने वाली इस युवा पीढी को ना तो अपनी जान की परवाह है और ना ही उन के इस कदम से परिवार पर पड़ने वाले असर की उन्हे कोर्इ चिंता है।

यदि हम थोड़ा पीछे देखे तो 9 फरवरी 2010 को कानपुर के चकेरी के स्कूल के आर एजुकेशन सेंटर के कक्षा 11 के छात्र अमन सिह और उस के सहपाठी विवेक में किसी बात को लेकर मामूली विवाद हो गया। मामला स्कूल के प्रिंसीपल तक पहुँचा और उन्होने दोनों बच्चो को डाट कर समझा दिया किन्तु अगले दिन अमन सिंह अपने चाचा की रिवाल्वर बस्ते में छुपाकर स्कूल ले आया और उसने क्लास में ही अपने सहपाठी विवेक को गोली मार दी। स्कूल या कालेज में इस प्रकार की घटना का ये पहला मामला नही है। 18 सितम्बर 2008 को दिल्ली के लाडो सराये में एक छात्र द्वारा एक छात्रा की हत्या गोली मार कर कर दी गर्इ थी, 18 सितम्बर 2008 को ही मध्य प्रदेश के सतपाडा में एक छात्रा को उसके ही सहपाठियों ने जिन्दा जला दिया था, 16 फरवरी 2008 को गाजियाबाद के मनतौरा स्थित कालेज में एक छात्र ने अपने सहपाठी को गोली मार दी थी, 11 फरवरी 2008 को दिल्ली ही के कैंट सिथत सेंट्रल स्कूल में एक छात्र द्वारा अपने सीनियर को मामूली कहासुनी पर चाकू मार दिया था। नवंबर 2009 में जम्मू कश्मीर के रियासी जिले में आठवीं क्लास की मासूम छात्रा के साथ लगभग 18 साल की उम्र के आसपास के 7 स्कूली बच्चों ने रेप किया सब के सब आरोपी युवा बिगडे रर्इसजादे थे। बच्चों और युवाओं में दिन प्रतिदिन हिंसक दुष्प्रवृति बढती ही जा रही हैं। अभिभावक हैरान परेशान हैं कि आखिर बच्चों की परवरिश में क्या कमी रह रही है। अपने लाडलो को समझाने बुझाने में कहा खोट है कहा चूक रहे हैं हम।

आज देशभर के शिक्षकों, मनोचिकित्सकों, और माता पिताओ के सामने बच्चो द्वारा की जा रही रोज रोज स्कूलो में हिंसक घटनाओं से नर्इ चुनौतियाँ आ खडी हुर्इ हैं। आज बाजार का सब से अधिक दबाव बच्चो और युवाओ पर है। दिशाहीन फिल्में युवाओ और बच्चो को ध्यान में रखकर बनार्इ जा रही हैं। जब से हालीवुड ने भारत का रूख किया है स्थिति और बद से बदतर हो गर्इ हैं। बे सिर पैर की एक्शन फिल्मे सुपरमैन, डै्रकूला, ट्रमीनेटार, हैरीपौटर जैसी ना जाने कितनी फिल्मे बच्चो के दिमाग में फितूर भर रही हैं। वहीं वान्टेड, दबंग, बाडीगार्ड, बाबर, अब तक छप्पन, वास्तव, आदि हिंसा प्रधान फिल्मे युवाओ की दिशा बदल रही हैं। आज का युवा खुद को सलमान खान, शाहरूख खान, अजय देवगन, रितिक रोशन, शाहिद कपूर, अक्षय कुमार की तरह समझता हैं और उन्ही की तरह एक्शन भी करता है। ये तमाम फिल्मे संघर्षशीलता का पाठ पढाने की बजाये यह कह रही हैं कि पैसे के बल पर सब कुछ हासिल किया जा सकता है, छल, कपट, घात प्रतिघात, धूर्तता, ठगी, छीना झपटी, कोर्इ अवगुण नही हैं इस पीढी पर फिल्मी ग्लैमर, कृत्रिम बाजार और नर्इ चहकती दुनिया, शारीरिक परिवर्तन, सैक्स की खुल्लम खुल्ला बाजार में उपलब्ध किताबें, ब्लू फिल्मो की सीडी डीवीडी व इन्टरनेट और मोबार्इल पर सेक्स की पूरी क्रियाओं सहित जानकारी हमारे किशोरों को बिगाडने में कही हद तक जिम्मेदार हैं। इस ओर किशोरों का बढता रूझान ऐसा आकर्षण पैदा कर रहा हैं जैसे भूखे को चंद रोटी की तरह नजर आता है।

गुजरे कुछ वर्षों मे हमारे घरो की तस्वीर तेजी से बदली हैं पिता को बच्चो से बात करने की, उनके पास बैठने और पढार्इ के बारे में पूछने की फुरसत नहीं। माँ भी किट्टी पार्टियों, शापिंग घरेलू कामो में उल्झी हैं। आज के टीचर को शिक्षा और छात्र से कोर्इ मतलब नही उसे तो बस अपने ट्यूशन से मतलब है। फिक्र है बडे बडे बैंच बनाने की एक एक पारी में पचास पचास बच्चो को ट्यूशन देने की। शिक्षा ने आज व्यापार का रूप ले लिया हैं। दादा दादी ज्यादातर घरों में हैं नही। बच्चा अकेलेपन, सन्नाटे, घुटन और उपेक्षा के बीच बडा होता है। बच्चे को ना तो अपने मिलते हैं और ना ही अपनापन। लेकिन उम्र तो अपना फर्ज निभाती हैं बडे होते बच्चो को जब प्यार और किसी के साथ, सहारे की जरूरत पडती हैं तब उस के पास मा बाप चाचा चाची दादा दादी या भार्इ बहन नही होते। होता है अकेलापन पागल कर देने वाली तनहाई या फिर उस के साथ उल्टी सीधी हरकते करने वाले घरेलू नौकर।

ऐसे में आज की युवा पीढी को टूटने से बचाने के लिये सही राह दिखाने के लिये जरूरी है कि हम लोग अपनी नैतिक जिम्मेदारी को समझे और समझे की हमारे बच्चे इतने खूंखार इतने हस्सास क्यो हो रहे हाइना। जरा जरा सी बात पर जान देने और लेने पर क्यो अमादा हो जाते हैं इन की रगो में खून की जगह गरम लावा किसने भर दिया है। इन सवालो के जवाब किसी सेमीनार, पत्र पत्रिकाओ या एनजीओ से हमे नही मिलेंगे। इन सवालो के जवाबो को हमे बच्चो के पास बैठकर उन्हे प्यार दुलार और समय देकर हासिल करने होंगे। वास्तव में घर को बच्चे का पहला स्कूल कहा जाता है। आज वो ही घर बच्चो की अपनी कब्रगाह बनते जा रहे हैं। फसल को हवा पानी खाद दिये बिना बढिया उपज की हमारी उम्मीद सरासर गलत है। बच्चो से हमारा व्यवहार हमारे बुढापे पर भी प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। आज पैसा कमाने की भागदौड में जो अपराध हम अपने बच्चो को समय न देकर कर रहे हैं वो हमारे घर परिवार ही नही देश और समाज के लिये बहुत ही घातक सिद्ध हो रहा है।

 

 

 

 

रावण के दर्द को समझिए

राजकुमार साहू

हर साल न जाने कितनी जगहों में रावण का दहन किया जाता है और खुशियां मनाते हुए पटाखे फोड़े जाते हैं, मगर रावण के दर्द को समझने की कोर्इ कोशिश नहीं करता। अभी कुछ दिनों पहले जब दशहरा मनाते हुए रावण को दंभी मानकर जलाया गया, उसके बाद रावण का दर्द पत्थर जैसे सीने को फाड़कर बाहर आ गया। रावण कहने लगा, उसकी एक गलती की सजा कब से भुगतनी पड़ रही है। गलती अब प्रथा बन गर्इ है और पुतले जलाकर मजे लिए जा रहे हैं। सतयुग में की गर्इ गलती से छुटकारा, कलयुग में भी नहीं मिल रहा है।

रावण ने अपना संस्मरण याद करते हुए कहा कि भगवान राम ने अपने बाण से उसका समूल नाश कर दिया था। सतयुग में जो हुआ, उसके बाद पूरी करनी पर, आज की तरह पर्दा पड़ जाना चाहिए था। जिस तरह देश में भ्रष्टाचार, सुरसा की तरह मुंह फैलाए बैठा है। महंगार्इ, जनता के लिए भस्मासुर साबित हो रही है। इन बातों पर कैसे सरकार पर्दा डाले जा रही है। ये अलग बात है कि लाख ओट लगाने के बाद भी तालाब में उपले की तरह बाहर कुछ न कुछ आ ही जा रहा है। दूसरी ओर रावण की एक करनी के बाद, कितनी मौत मरनी पड़ रही है। जगह-जगह वध होने के बाद रावण रूपी माया खत्म ही नहीं हो रही है, लेकिन देश को विपदाओं का दंश झेलने पर मजबूर करने वाली सरकार का वध क्यों नहीं हो रहा है। रावण का मर्म में समझ में आता है, लेकिन उसकी तरह जनता हामी भरे, तब ना।

रावण के पुतले को जलाने के बाद हमारी संतुषिट देखने लायक रहती है, जैसे हमने पूरे ब्रम्हाण्ड में फतह हासिल कर ली हो। जिस तरह रावण ने अपने तप से हर कहीं वर्चस्व स्थापित कर लिया था। वे चाहते तो हवा चलती थी, वो चाहतेे तो समय चक्र चलता था। इतना जरूर है कि लोगों के शुरूर के आगे रावण भी इस कलयुग में नतमस्तक नजर आ रहा है। यही कारण है कि वह अपने दर्द को छिपाए फिर रहा है। भला, अनगिनत जगहों पर हर बरस जलाने के बाद किसे दर्द नहीं होगा, किन्तु वे परम ज्ञानी हैं, इसलिए अपने दर्द को सीने में लादे बैठे हैं। रावण को दर्द सालता जरूर है और टीस से कराह पैदा होता है, लेकिन अब किया भी क्या जा सकता है ? मनमौजी लोगों के आगे उनकी कहां चलने वाली है। वे चाहें तो साल में नहीं, हर दिन रावण दहन कर दे, लेकिन केवल पुतले का। ऐसा हमारे राजनीतिक दल के नेता करते भी हैं, कुछ हुआ नहीं, ले आए किसी का पुतला बनाकर और दाग डाले। इस बात से कोर्इ इत्तेफाक नहीं रखता कि जैसे हम रावण के पुतले जलाते हैं, वैसे ही हम उन लोगों का समूल नाश करने की सोंचे, जो भ्रष्टाचार की जड़ मजबूत किए जा रहे हैं। ऐसे लोगों की सफेदपोश शखिसयत के आगे हम नतमस्तक नजर आते हैं, जैसे रावण के पुतले हमारे सामने। यही सब बात है, जिस दर्द का अहसास, रावण को हर पल होता है।

हमारे देश की सरकार थोड़ी न है, जिसे दर्द का अहसास ही नहीं। गरीब चाहे जितनी भी गर्त में चले जाएं, महंगार्इ जितनी चरम पर पहुंच जाए। भ्रष्टाचार से देश में जितना भी छेद पड़ जाए, इन बातों से हमारी सरकार कहां कराहने वाली है। ये सब महसूस करने के लिए देश में भूखे-नंगे गरीबों की जमात, जो है। गरीबों की किस्मत, रावण से कम नहीं है, रावण को एक गलती का खामियाजा न जाने कब तक भुगतना पड़ेगा, वैसे ही सरकारी कर्णधारों के रसूख के आगे बेचारी जनता की लाचारगी, वैसी ही है। पुतले के रूप में खड़ा रावण खुद को जलते हुए देखता है और जुबान भी नहीं खोल पाता और उफ भी नहीं कर पाता। यही कुछ हाल, गिने जा सकने वालों के आगे करोड़ों लोगों का है।

यही कहानी अनवरत चल रही है। सरकार, गरीबों का दर्द नहीं समझती और हम रावण का दर्द नहीं समझते। बस, बिना सोचे-समझे उसे हर साल जलाए जा रहे हैं। कोशिश हमारी यही होनी चाहिए, पहले मन के रावण को मारें, फिर देश के रावणों का नाश कर खुशियां मनाएं। इसके लिए हमारा सबसे बड़ा हथियार है, वो है हमारी वोट की ताकत। हमें पुतले पर नहीं, जीते-जागते सफेदपोशों पर चोट करनी चाहिए। तब देखें, ‘रावण की तरह ‘रीयल लाइफ के रावणों को दर्द होता है कि नहीं ?

श्रद्वांजलि:जगजीत सिंह

शादाब जफर ”शादाब

होठो से छू लो तुम…………………….

”होठे से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो…..” 1981 में रमन कुमार द्वारा निर्देशित हिन्दी फिल्म ”प्रेम गीत के इस गीत को अपने होठो से छूकर वास्तव में स्व: जगजीत सिह जी ने अमर बना दिया। आज भी जब जब ये नगमा लोगो के कानो में पडता है तो इस नगमे की कशिश खुद बे खुद लोगो को अपनी ओर खीच लेती है और आदमी दिन भर की थकान भूल इस नगमे में एक पल के लिये कहा खो जाता है उसे खुद भी पता नही चलता। कौन सोच सकता था कि 10 अक्तूबर 2011 का दिन ऐसा भी आयेगा जब सुबह करीब सवा आठ बजे गजल की दुनिया का ये बेताज बादशाह सदा के लिये अपनी आखे मूंद लेगा। न जाने कितनी गजलो को अपनी मखमली आवाज देकर अमर कर देने वाला शक्स खुद अमर हो जायेगा और सिर्फ रह जायेगी ना भुलार्इ जाने वाली उन की यादे। स्व: जगजीत सिह की आवाज के साथ ही उन का संगीत भी काफी मधुर होता था। खालिस उद्र्व जानने वालो की मिलिकयत समझी जाने वाली, मुशायरो, नवाबो और तवायफो की महफिलो में वाह वाह की दाद पर इतराती ग़ज़लो को मधुर संगीत की चाशनी में डूबो कर आम आदमी तक पहुंचाने का श्रेय अगर किसी को जाना चाहिये तो सब से पहले स्व: जगजीत सिह जी का नाम जुबा पर आता है। उन्होने ग़ज़ल सिर्फ नाम पैसा कमाने के लिये नही गार्इ बलिक उन की ग़ज़लो ने उद्र्व के कम जानकारो के बीच शेरो शायरी की समझ में भी इजाफा किया और ग़ालिब, फिराक, मीर, जोष, मजाज, गुलजार, निदा फाजली, बषीर बद्र, अटल विहारी वाजपर्इ और सुर्दषन फकिर जैसे कवि और शायरो का उन से परिचय भी कराया।

ग़ज़ल सम्राट स्व: जगजीत सिह जी का जन्म 8 फरवरी 1941 को राजस्थान के गंगानगर के एक सिख परिवार में हुआ था। जगजीत सिह का परिवार यू तो पंजाब के रोपड जिले के दल्ला गांव का रहने वाला था। इन की मा बच्चन कौर भी पंजाब के ही समरल्ला के उटटालन गांव की रहने वाली थी। इन के पिता सरदार अमर सिह धमानी केंद्र सरकार में सर्विस करते थे और नौकरी के कारण ही राजस्थान के गंगानगर में वो पंजाब से आकर बस गये थें। इन के माता पिता इन्हे बचपन में जीत कहकर बुलाते थे। जगजीत सिह के माता पिता क्योकि पंजाब के रहने वाले थे इस लिये अकसर इन के घर में गीत संगीत के आयोजन होते रहते थें। इन के पिता की आवाज बडी सुरीली थी इस कारण जगजीत सिह जी को संगीत बचपन में अपने माता से विरासत में मिला। पढार्इ के दौरान ही इन्होने राजस्थान गंगानगर में ही पंडित छगन लाल षर्मा जी से अपने शुरूआती दिनो में दो साल तक शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली। आगे चलकर इन्होने सैनिया घराने के उस्ताद जमाल खान साहब से ख्याल, ठुमरी और धुपद की बारीकिया सींखी। जगजीत की संगीत में इतनी ज्यादा रूचि देख इन के पिता को थोडी चिंता होने लगी थी। क्या की उन की ख्वाहिशथी कि उन का बेटा उन्ही की तरह भारत सरकार की सेवा करे। इन के पिता का ये भी सपना था की जगजीत भारतीय प्रषानिक सेवा (आर्इएएस) में जाए लेकिन जगजीत सिह जी पर गायक बनने की धुन सवार थी। इन की प्रारमिभक षिक्षा राजस्थान गंगानगर के खालसा स्कूल में हुर्इ और बाद में ये पढने क लिये जालंधर आ गये। और डीएवी कालेज जालंधर में इन्होने स्नातक तक षिक्षा प्राप्त करने के बाद कुरूक्षेत्र विश्वविधालय से इतिहास में पोस्ट ग्रेजुएशन किया। कुरूक्षेत्र विश्वविधालय में पढार्इ के दौरान संगीत में उन की दिलचस्पी देखकर विश्वविधालय के कुलपति प्रोफेसर सूरजभान जी ने जगजीत सिह जी को काफ़ी उत्साहित किया और जगजीत सिह जी उन की बात मानकर 1965 में मुंबर्इ आ गये। बस यही से वो दौर शुरू हुआ जिस में जगजीत सिह जी ने बहुत ज्यादा संघर्ष किया। छोटे मोटे विज्ञापन, जिंगल्स, शादी समारोह वगैरह में फिल्मी गायको के गाये गीत ग़ज़ले गाकर वो जैसे तैसे अपनी रोज़ी रोटी का जुगाड कर अपनी जिन्दगी की गाडी को खींचते रहे। मुबर्इ जैसे महंगे शहर में बतौर पेइंग गेस्ट किसी ने उन्हे सर छुपाने की जगह भी दे दी। इसी दौरान 1967 में जगजीत की मुलाकात चित्रा से हुर्इ वो भी उन दिनो फिल्मी दुनिया में स्थापित हाने के लिये संधर्ष कर रही थी। इस मुलाकात ने जगजीत की किस्मत बदल दी। चित्रा का साथ मिलते ही जगजीत सिह जी को काम मिलने लगा और दोनो 1969 में परिणय सूत्र में बंध गये।

जगजीत सिह अपने पहले प्यार को कभी नही भूला पाये। अक्सर अपने पहले प्यार को याद करते हुए अक्सर वो किसी खूबसूरत ख्वाब की तरह उस लडकी को याद किया करते थें जिस के साथ जालंधर में पढार्इ के दौरान सार्इकिल पर वो घर आते या कालेज जाते तो उस के घर के सामने अक्सर सार्इकिल की चैन ठीक करने बैठ जाते या फिर हवा निकलने का बहाना कर चुपके चुपके उस लडकी को देखा करते थे। जगजीत सिह जी का सपना था कि वो फिल्मी दुनिया में प्लेबैक सिंगर बने पर उस वक्त तलत महमूद, मौहम्मद रफी जैसे दिग्गजो की फिल्मी दुनिया में तूती बोलती थी। और गजल गायकी में में बेगम अख्तर, मुन्नी बेगम सुन्दर लाल सहगल , मेहन्दी हसन आदि गजल गायको की तूती बोलती थी। जगजीत सिह सघर्ष के दिनो बुरी तरह से टूट चुके थे। इनके गाये शास्त्रीय संगीत के गीतो पर पबिलक हुठ करती थी। इसी दौरान मशहूर कम्पनी एचएमवी को लाइट क्लासिकल्स ट्रेड पर टिके संगीत कर दरकार थी। जगजीत सिह जी को जब यह पता चला तो उन्होने अपनी किस्तम अजमाने के लिए एचएमवी से सम्पर्क किया और उनका पहला एलबम द अनफारगेटेबल्स 1976 हिट रहा उन दिनो इसी सिंगर को एल पी0 (लाग प्ले डिस्क) मिलना बहुत फर्क की बात हुआ करती थी। जोकि जगजीत सिह जी को अपनी पहली ही एलबम मे प्राप्त हो गयी थी। बहुत कम लोग जानते है कि यही से सरदार जगजीत सिह धीमान इसी एलबम के रिलीज पर अपने लम्बे बाल कटाकर सरदार जगजीत सिह बनने की राह पकड चुके थे जगजीत सिह ने इस एलबम की कामयाबी के बाद मुम्बर्इ मे अपना पहला फ्लैट खरीदा था।

जगजीत सिह पहले ऐसे गजल गायक थे जिन्होने गजलो को फिल्मी गानो के अंदाज में गाया। 1981 में प्रेमगीत और 1982 की फिल्म अर्थ के गीतो को लोग आज भी सुनकर वाह कर उठते है फिल्म अर्थ में जगजीत साहब ने संगीत भी दिया था। अर्थ फिल्म के गीत लोगो की जुबान पर आज भी चढे है प्रेमगीत का गाना ” होठो से से छू लो तुम ”खलनायक का ओ मा तूझे सलाम ”दुष्मन” का चिटठी न कोर्इ संदेष” ”जागर्स पार्क का बडी नाजुक है ये मंजिल ”साथ साथ का ये तेरा घर ये मेरा घर ”सरफरोश का होशवालो को खबर क्या” ट्रैफिक सिगनल का हाथ छूटे भी तो रिष्ते नही तोडा करते ”तरकीब का मेरी आखो ने चुना है तुझ का दुनिया देखकर आदि जगजीत साहब के ऐसे तमाम गजले और गीत है जिन्हे वो संगीत प्रेमियो के दिलो में हमेशा जिन्दा रखेगी। इस महान गजल गायक के यू अचानक चले जाने पर केवल इतना ही कहा जा सकता है ” बडे षौक से सुन रहा था जमाना, तुम्ही सो गये दास्ता कहते कहते।

 

मैं जागता रहा तो ग़ज़ल जागती रही

मैं सो गया तो साथ मेरे सो गयी ग़ज़ल

वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं के कारण, समस्याएं एवं समाधान

डां. रमेष प्रसाद द्विवेदी

इतिहास इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि प्राचीन काल में वृद्धों की सिथति अत्यंत उन्नत एवं सम्मानीय रही हैं। उन्हें समाज एवं परिवार में अलग वर्चस्व था। परिवार की समस्त बागडोर उनके हाथों हुआ करती थी। परिवार को कोर्इ फैसला उनकी सलाह व मसविरे के आधार पर होता था। उन्हीं की सत्ता एवं प्रभाव के कारण पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे, वे परिवार के सदस्यों को एक धागे में बांधें रखते थे, परंतु भौतिकवादी युग में वृद्धों की समस्याओं का बढ़ना एवं समाज में उनकी उपयोगिता कम और समस्याएं बढ़ती नजर आ रही है। बुढ़ापा जीवन का अंतिम पड़ाव है और इस पड़ाव में जीवन असक्त हो जा है। कार्य करने की क्षमता कमजोर हो जाती है। भरण-पोषण के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यही निर्भरता वृद्धों की समस्याओं की मूल हैं। शारीरिक एवं आर्थिक दृषिट से घुटन भरी जिन्दगी जीने को विवश हो जाती है। चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित क्यों न हो, इस अवस्था में उनकी गाड़ी चरमराने लगती है, वह युवा पीढ़ी से तालमेल नहीं बैठा पाते है, जिससे उनकी समस्याओं की वृद्धि हो जाती है। विश्व में समाज का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है कि जहां वृद्धावस्था में अब सामाजिक एवं आर्थिक असुरक्षा के कष्ट झेलते है। युवा वर्ग वृद्धों को कोर्इ महत्व नहीं देते हैं।

 वृद्ध पुरूषों के समस्या के कारण :

आज हमारे देश में समस्याओं को बढ़ने के अनेक कारण है जो समाज की देन है। भारतीय समाज ऐसा समाज है जहां आज भी देखा जाता है लेकिन जैसे-जैसे पशिचमीकरण, भैतिकवाद का विकास हुआ वैसे-वैसे वृद्धों को उपेक्षा का शिकार होकर समस्याओं में घिर गये है। आज इन वृद्धों की समस्याओं के बहुत से कारण है, जो इस प्रकार है:-

1. संयुक्त परिवार का विघटन : संयुक्त परिवारों का अशांत व घुटन भरा माहौल और नगरों की ओर तेजी प्रस्थान करती हुर्इ युवा पीढ़ी को अपने वृजुर्गों के प्रति उदासीनता ने आज हमारे समाज में गंभीर समस्या उत्पन्न कर दी है। यह वही देश है कि जहां की संस्कृति में परिवार के बुजुर्गों को भगवान के समान माना जाता है और आज की पीढ़ी ने प्रथम पढ़ी नहीं होगी अगर पढ़ी होगी तो भी क्या आज के हर क्षण के बदलते परिवेश में इस प्रकार की आपेक्षा की जा सकती है। आज की नर्इ युवा पीढ़ी न तो बड़ों के अनुशासन में रहना चाहती और न ही आदर सम्मान कारना चाहती है।

2. भौतिक सुख सुविधाओं की वृद्धि : भौतिक सुख सुविधाओं की वृद्धि होने के कारण औधोगीकरण व संस्कृतिकरण के फलस्वरूप आज की युवा पीढ़ी का रहन-सहन एवं जीवन शैली में बदलाव तेजी से देखा जा रहा है। इस युग में कोर्इ भी व्यकित अपने कार्यों में इतना व्यस्त हो रहे है कि उन्हें अपने परिवार के सदस्यों के साथ बैठना अब आवश्यकता ही नही समझते है, जिसकी सबसे बड़ी पीड़ा बृजुर्गों को ही झेलनी पड़ती है। परिवार की अवधारणा केवल पति-पत्नी एवं बच्चों तक ही सीमित होने लगा है और ये वृद्ध समाज एवं परिवार के क्षेत्र या सीमा से बाहर होते जा रहे है। आज की युवा पीढ़ी अपनी भौतिक सुख-सुविधाओं को अधिक महत्व देते है और वृद्धों पर कम। व्यकित को अपने आराम की हर वस्तु खरीदने के लिए पर्याप्त पैसा होता है लेकिन वृद्धों के बीमारियों के लिए पैसे नहीं। नर्इ पीढ़ी को अकेले रहने की ललक है और वे इन वृद्धों को भूल जाते है। जो पालन-पोषण के अनेकों कष्टों का सामना करते है और स्वप्न सजोते है कि यही बालक बुढ़ापे की लाठी बनेगा लेकिन वह तो निष्ठुरता, अनैतिकता, भौतिक सुख-सुविधा, पाश्चात्य सभ्यता की गोद में सो जाते है।

3. नर्इ-पुरानी पीढ़ी के बीच फासला : इसके संबंध में कुछ फासला हमेशा से रहा है जिसको पीढ़ी का अंतराल कहा जाता है। अगर विचार किया जाय तो यह पीढि़यों के आचार-विचार, जीवन शैली, सोच का अंतर ही है। हालांकि नर्इ पीढ़ी पुरानी पीढ़ी विरासत में न केवल जीवन शैली वरन जीवन दर्शन भी पाती है। अपने लिए सारे परिवर्तन या सशोधन भी उसी में से करती है। फिर भी न जाने क्यों पुरानी पीढ़ी उसे बोझ सी लगती है। इसका कारण है कि पुरानी पीढ़ी नर्इ पीढी से सहमत नहीं हे पती है।

4. धन का महत्व : आज के युग में धन का महत्व बढ़ने के कारण वह धन कमाने में वे इतना व्यस्त हैं कि उन्हे दूसरों को ध्यान देने का समय नहीं है। बच्चे बड़े होकर माता-पिता को तभी अपनाते है जब तक उनके पास धन होता है धन समाप्त होन के बाद उनके वृद्धों का कोर्इ महत्व नहीं बचता है और वे बोझ बन कर रह जाते है।

5. व्यकितवादिता या व्यकिगत स्वार्थ : आज के युग में नर्इ पीढ़ी स्वार्थी हो गर्इ है। वह अपना स्वार्थ देखकर ही कार्य करती है वह अपने परिवार के वृद्धों की देखभल तभी करते है जब वह समझते है कि उन्हे धन-दौलत, संपतित प्राप्त हो सकती है वह अपने स्वार्थों के प्रापित के लिए प्रेरित हो जाते है। उनके अंदर अपने बुजुर्गों के प्रतिसाद सेवा, दया एवं त्याग कम होता जा रहा है क्योंकि वह वृद्धों की सेवा व कर्तव्य को अपनी स्वतंत्रता में बाधक मानते है। इसलिए व अपने हित के लिए वृद्धों को अनदेखा कर देते है।

 

वृद्ध पुरूषों की समस्याएं :

वृद्धावस्था को जीवन का अंतिम पड़ाव एवं समस्या से घिरी हुर्इ अवस्था माना जाता है क्योंकि इस अवस्था में वृद्धों को अनेक समस्याएं घेर लेती है, जिसके परिणामस्वरूप दूसरों के साथ संबंध स्थापित करने में असमर्थ रहते है। समय की रफतार के साथ-साथ समाज में नये नये परिवर्तन होने लगे हैं। नर्इ पीढ़ी के लोग पुराने विचारों के लोगों को अपने जीवन में आने को उपयुक्त नही समझते है। इस कारण युवा पीढ़ी उनके अनुभवों एवं विचारों की उपेक्षा करते है। वद्धों की समस्याओं एवं उनकी उपयोगिता भी समाज में कम होती नजर आने लगी है, जो इस प्रकार है:-

1 शारीरिक समस्या : वृद्धावस्था उतरते या ढलते काल है। इस अवस्था में शरीर शिथिल होने लगते है। वृद्धावस्था में शरीर में बदलाव का परिणाम सामाजिक बदलाव पर होता है। इस अवस्था में अनेक समस्याएं निर्मित होती है। कोर्इ व्यकित 60 साल में भी जवान दिखार्इ देता है तो कोर्इ 40 साल में ही वृद्ध दिखने लगता है। वृद्धावस्था में व्यकित के शरीर में झुर्रिया, चिड़चिड़ापन जैसे अनेक लक्षण दिखार्इ देने लगते है।

2 मानसिक समस्या : शारीरिक बदलाव के अनुसार मानसिक परिवर्तन भी होता है। इस अवस्था के प्रवेश करते ही मानसिक तनाव की सिथति बनने लगती है तथा लोगों से संपर्क बनाना सहयोगी या मित्रों के निधन हो जाने से मानसिक तनाव एक महत्वपूर्ण कारण है। सर्व विदित है कि यदि पति या पत्नी में से किसी एक की मृत्यु हो जाने से हीन भावना की वृिद्ध होती है तथा आत्मविश्वास का अभाव दिखने लगता है जिससे मानसिक विकृत, अकेलापन आदि जैसे दोष निर्माण होते है। अत: समाज को अपना कुछ भी उपयोग नहीं होने से निरूपयोगिता की भावना का जन्म होने लगता है।

3 स्वास्थ्य की समस्या : शारीरिक बदलाव के अनुसार मानसिक परिवर्तन भी होता है। इस अवस्था के प्रवेश करते ही स्वास्थ्य की समस्या बनने लगती है तथा लोगों से संपर्क बनाना सहयोगी या मित्रों के निधन हो जाने से स्वास्थ्य की समस्या एक महत्वपूर्ण कारण है।

4 आर्थिक समस्या : यह समस्या वृद्धों की महत्वपूर्ण समस्या है। वृद्धों को आर्थिक समस्या का अभाव ज्ञात होने लगता है। कार्य क्षमता की कमी होती है जिससे दूसरों पर निर्भरता बढने लगती है और युवाओं द्वारा या परिवार के सदस्यों द्वारा उन्हें अकेला छोड़ दिया जाता हैं।

5 पारिवारिक एवं सामाजिक समस्या : सर्व विदित है कि इस अवस्था में शारीरिक एवं मानसिक रूप से कमजोर होने के कारण वे समूह एवं परिवार से अलग होने लगते है जिसके कारण सामाजिक व पारिवारिक संबंधों में बुरा असर होने लगता है। जहां तक मैने देखा है कि परिवार में सदस्यों के साथ मतभेद निमार्ण होने लगता है और नौकरी या व्यवसाय से मुक्त होने के कारण समाज एवं परिवार में उनका वर्चस्व, मान-सम्मान कम हाने लगता है, जिससे इन्हे अपना जीवन यापन करना कठिन हाने लगता है। प्राय: देखा जा रहा है कि आधुनिक युग में परिवार या समाज के युवओं की भावना एवं विचार में काफी बदलाव देखने को आता है, उनके सहन-सहन, व्यवहार आदि में अंतर हो जाता है।

6 अकेलापन की समस्या : परिवार से सामन्जस्य न कर पाना, अलगाव, पृथक्कीकरण की अनुभूति, युवा पढ़ी द्वारा वृद्ध के अनुभवों, विचारों, परामर्श को दुलक्षित करने के कारण उन्हे घर से अलग या वृद्धा आश्रमों में रखा जाना या घर से निकाल देने जैसी समस्याएं देखने को मिलती है, जिससे वृद्धों में अकेलापन की समस्या का निर्माण होता है।

7 घर व समाज में अनादर की समस्या : किसी भी वृद्ध को समाज व परिवार में मान-सम्मान की अपेक्षा होती है लेकिन आज के पष्चात्य संस्कृति के प्रवेष होने के कारण वृद्धों का अनादर देखने को मिलने लगा है, जिससे उन्हें घर में अपेक्षानुसार मान-सम्मान की जगह अनादर मिलने लगा है।

8 पराबलंबन की भावना की समस्या : वृद्धावस्था एक ऐसी अवस्था है जब उसे अपने परिवार व बच्चों पर निर्भरता ज्यादा होती है और इस समय पर उन्हें घर व परिवार से अलग करने की रणनीति आज के समाज के युवा बनाने लगते है, तब उन्हें पराबलंबन की भावना की समस्या निर्माण होने लगती है।

 निष्कर्ष व सुझाव

निष्कर्ष : इस अध्ययन से ज्ञात होता है कि नागपुर शहर की मलिन वसितयों में रहने वाले पुरूष वृद्धों की मध्य आयु 66 वर्ष है। वे हिन्दू या बौद्ध धर्म के है। अधिकतर मराठी भाषी है और वे अधिकतर पिछड़े वर्ग के है तथा वे साक्षर है। लेकिन वे व्यवसिथत नहीं हैं। 3 से 6 सदस्य के परिवार में रहने वाले इन वृद्धों को 3 से 4 संतानें है। अधिकांश वृद्धों को तंबखू व शराब दोनों का व्यसन है। आधे से अधिक और आधे से कुछ वृद्ध अभी भी जीवन यापन के लिए कमार्इ करते है जिसकी मासिक आय 2000 रूपये है एवं अधिकांष वृद्ध स्वयं के घर में रहते है।

वृद्धों को महसूस होने वाली प्रमुखतम शारीरिक समस्या है और अधिकांष वृद्धों को स्वास्थ्य सेवाओं में अभाव की समस्या से काफी तीव्रता से महसूस होती है। वृद्धों की सबसे बड़ी आर्थिक समस्या है। उनकी आवष्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें आर्थिक संसाधनों की कमी तीब्रता से महसूस होती है। तीसरी प्रमुखमत समस्या पराबलंबन की भावना, समाज एवं परिवार में अनादर, अकेलेपन की भावा, अनुपयोगिता की भावना इत्यादि अन्य समस्याएं हैं जो वृद्धों को महसूस होती है।

वृद्धों के मतानुसार वृद्ध लोग समाज के लिए बहुत उपयोगी हो सकते है लेकिन उनके अनुभवों का उपयोग समाज अच्छी तरह नहीं कर रहा है। अधिकांंश वृद्धों ने अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए यह सुझाव दिया कि बच्चों को समाज के लोगों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए जिससे वे वृद्धों का आदर करना सीखें। दूसरा मुख्य सुझाव आर्थिक सहायता का है।

सुझाव :

अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि शारीरिक समस्या वृद्धों की प्रमुखतम समस्या है और इस बजह से संषोधनकर्ताओं का सुझाव है कि मलिन वसितयों में वृद्धों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध कराया जाए एवं स्वास्थ्य षिक्षा के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाय। वृद्धों की आर्थिक समस्या कम करने के लिए और अकेलापन की भावना इत्यादि को कम करने के लिए वृद्धों के लिए स्वयं सहायता समूह विकसित किये जाए, जिससे उन्हें आर्थिक सहायता मिलेगी। उनका अनुभव विकसित होगा और अकेलेपन की भावना भी कम होगी। वसितयों में परिवार जीवन, षिक्षा के क्षेत्र में कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए, जिससे वृद्धों की देखभाल एवं उनकी उचित आदर से संबंधित बातें लागों को बताना चाहिए।

चालाक चीन पर चिंतन आवश्यक

सिद्धार्थ मिश्र “स्वतंत्र”

विश्व के सबसे बडे़ लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में मान्य भारतवर्ष चारों तरफ से विभिन्न पड़ोसी राष्ट्रों से जुडा है। पड़ोसी राष्ट्रों से सीमाएं लगी होने के कारण अक्सर विवाद जन्म लेते हैं। इन विवादों को जन्म देना और भारतीय सीमावर्ती क्षेत्रों पर आधिपत्य जमाना शुरू से ही चीन का प्रिय कार्य रहा है। अपनी विस्तारवादी नीतियों के चलते कभी अरुणाँचल तो कभी लददाख पर अपना हक जता कर चीन सदैव ही भारत के समक्ष कठिनार्इयां खड़ी करता रहा है। चीन में एक कहावत है गज में कब्जा करने से बेहतर है इंच में कब्जा करना” , अपनी इसी महत्वकांक्षा के कारण चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण भी किया। तब से आज तक भारत चीन संबंध कभी भी अच्छे नहीं कहे जा सकते। मगर फिर भी हमारे राजनेता चीन को अच्छा मित्र मानने की भूल अक्सर ही करते रहते हैं। इतिहास गवाह है जब हम हिन्दी चीनी भार्इ-भार्इ का नारा लगा रहे थे। ठीक उसी समय चीन हमारे विरुद्ध आक्रमण की योजना बना रहा था। अपनी उदारवादी नीतियों का खामियाजा हमें मान सरोवर खोकर चुकाना पड़ा। आज भी चीन की कब्जा करने की नीति बदस्तूर जारी है। हमें अब यह समझना होगा कि चीन के चिंतन पर बुद्ध या कन्फ्यूशियस का नहीं बलिक माओ -त्से -तुंग की कुटिल नीतियों का प्रभाव है। अन्यथा क्या औचित्य उठता है चीनी सैनिकों का भारतीय सीमा में सिथत चटटानों को लाल रंग से पोतने का? क्या औचित्य है चीन द्वारा अरुणाँचल के लिए पेपर वीजा देने का? ये सारी बातें इस ओर इशारा करती है कि लददाख पर कब्जा करने के बाद चीन की निगाहें अब भारत अधिकृत अरुणांचल पर कब्जा जमाने को लगी है। फिर ऐसे राष्ट्र के साथ एक पक्षीय मित्रवत संबंध बनाने की क्या आवश्यकता हैं। वेदों में भी वर्णित है :-

शठे शाठयम समाचरेत।।

वैशिवक स्तर पर भी चीन पाकिस्तान को खुला समर्थन देकर भारत के प्रति अपने मनोभाव स्पष्ट कर चुका है। पाक अधिकृत कश्मीर में चीन के दस हजार से अधिक सैनिक भारत विरोधी कायो में संलग्न रहते हैं। अब विश्व स्तर पर यह ज्ञात हो गया है कि पाक का परमाणु कार्यक्रम भी चीन के भरोसे ही चल रहा है। पाक ही क्यों चीन को अशांत बनाने वाले माओवादियों को भी हथियार उपलब्ध कराता है। चीन भारत के चारो तरफ किलेबंदी कर भारत को दबाव में लाना चाहता है। पाक के गिलिग्त व बालिटस्तान और तिब्बत के माध्यम से वह संपूर्ण दक्षिण एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है। स्थल सीमा ही क्यों हिन्द महासागर में चीन की बढती गतिविधियां भारत के लिए चिंता का सबक बन गर्इ हैं। अभी कुछ दिन पूर्व ही चीन ने दक्षिणी चीन सागर को अपना जल क्षेत्र बताते हुए, भारतीय युद्धपोत आर्इएनएस ऐरावत को वापस लौटने को कहा था। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि दक्षिणी चीन सागर भारत के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ वाणिजियक व राजनीतिक संबंधों के लिहाज से अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। इन परिसिथतियों में चीन का यह व्यवहार क्या मित्रवत माना जा सकता है? अब चीन को र्इट का जवाब पत्थर से देने का वक्त आ गया है। चीन को लेकर बनार्इ गर्इ नीति में परिवर्तन करने ही होंगे, क्योंकि वह हमारी सहनशीलता को हमारी कमजोरी मान बैठा है। ये बात अब आर्इने की तरह साफ हो चुकी है कि चीन पर अहिंसा का कोर्इ प्रभाव नहीं पडता है। अगर वह शांतिप्रिय राष्ट्र होता तो कब का दलार्इलामा की बातों को मानकर तिब्बत को स्वतंत्र राष्ट्र की मान्यता दे चुका होता।

सामरिक, राजनीतिक चोट के अतिरिक्त चीन हमें आर्थिक चोट भी पहुंचा रहा है। चीन में बने मोबार्इल से लेकर खिलौने तक भारतीय बाजार में धडल्ले से बिक रहे है। सस्ता होने के कारण चीनी उत्पाद भारतीय उपभोक्ताओं द्वारा पसंद किये जा रहे है। मगर घटिया गुणवत्ता वाले यह उत्पाद किसी भी नजरिए से हम भारतीयों के लिए उपयुक्त नहीं है। भारतीय बाजारों से प्राप्त पैंसों का उपयोग वह भारत के विरुद्ध ही करता आ रहा है। चीन निर्मित उत्पादों पर कर्इ देशों ने रोक लगा रखी है, क्योंकि ये वैशिवक पर्यावरण मानकों पर खरे नहीं उतरते। अब भारत सरकार को इस दिशा में सार्थक पहल करनी ही होगी। इन उत्पादों के भारतीय बाजारों में बिकने पर रोक लगाने से हमें परोक्ष व अपरोक्ष दोनों लाभ होंगे। इसका सबसे बडा लाभ यह है कि हमारे परंपरागत लघु उधोग फिर से पटरी पर आ जायेंगे और बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा। दूसरे तरीके से देखें तो भारतीय बाजार में चीनी उत्पादों की बिक्री पर रोक लगाने से चीन की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगेगा, और उसे भारत के प्रति अपनी कुटिल नीतियों पर दोबारा सोचने को विवश होना पड़ेगा।

अब सरकार को यह समझना होगा कि चीन हमारा मित्रनहीं है, अत: चीन की समस्या पर सजग चिंतन करना ही होगा। हम अपनी सेना को नवीनतम हथियारों व प्रौधोगिकी से लैस कर अपनी सीमाओं को सुरक्षित बनाना होगा। इसके अलावा जनता भी अपने स्तर पर चीनी उत्पादों का बहिष्कार कर राष्ट्र को सबल बना सकती है। क्योंकि सब कुछ गंवा के होश में आने का कोर्इ लाभ नहीं होता। हम सभी भारतवासियों का असितत्व भारतीय होने से है। अत: भारतीय बनिए, और भारतीय उत्पाद खरीदकर भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाइए।

 

बहती गंगा में हाथ धो लें, बुरा क्या है?

जगमोहन फुटेला

कुछ भी कहो, सयानी या चतुर, अन्ना टीम ने हिसार में इस बार प्रचार के हथियार से काफी समझदार तरीके से प्रहार किया है. हिसार में उस ने अपनी गोटी चली बहुत सही समय पर है. देखभाल और सोच विचार के. अधिकतम लाभ और न्यूनतम हानि का राजनीति गणित मिलान करने के बाद.

 

हिसार जिले के किसी भी गाँव के किसी भी खेत में काम कर रहे मजदूर से लेकर खुद सरकार के ख़ुफ़िया तंत्र तक सबको पता है कि कांग्रेस का हिसार में क्या हाल होने वाला है. अरविन्द केजरीवाल के पास हिसार में निश्चित ही इन दोनों से ज्यादा समझ वाले लोग होने चाहियें. उनकी फीडबैक दुरुस्त है. उन्हें लगा कि जो होना है वो होने जा ही रहा है तो क्यों न एक लात वो भी मार ही लें हिसार में ढहती हुई दीवार पर. कहने को आसान हो जाएगा कि उन्हें जन लोकपाल बिल पे जनता का फतवा मिल गया है. जन लोकपाल बिल से अपना कोई लम्बा चौड़ा सैधांतिक विरोध नहीं है. मगर ये मान लेना गलत होगा कि हिसार में चुनाव जन लोकपाल के मुद्दे पर हुआ या कि कांग्रेस अगर हारी तो वो सिविल सोसायटी की वजह से हारी. कांग्रेस को अगर हारना है तो उसकी वजह और कोई भी हो कम से कम हिसार में उसकी वजह जन लोकपाल बिल नहीं है. हिसार के चुनाव को प्रभावित करने वाले कारण और हैं, वे पहले से थे और सिविल सोसायटी को मालूम भी थे. तभी वो आई. मान के चलिए कि अगर एक परसेंट भी शक होता सिविल सोसायटी को कांग्रेस के जीत सकने का तब तो कतई न आती वो किसी भी तरह का प्रचार करने हिसार में. जीत जाने की हालत में अगर कहीं कांग्रेस ही कहने लगती कि चलो हो गया जन लोकपाल बिल पे जनमत संग्रह, चलो समेटो अब अपना आन्दोलन और अभियान तो लेने के देने पड़ जाते. सो, सिविल सोसायटी आई हिसार में प्रचार करने तो खूब सोच समझ कर आई. सोच के कि, बह ही रही है गंगा तो धो ले हाथ वो भी.

 

हिसार में जीत हार के कारणों में हो सकती है अन्ना की मुहीम भी एक वजह. लेकिन चुनावी राजनीति के हिसाब से जानकारों की समझ से असल कारण इस मुहीम के बहुत पहले से कुछ और ही हैं. मसलन पहले संगोत्र विवाह को लेकर खापों का सरकार से मतभेद और फिर आरक्षण को लेकर जाटों का आन्दोलन. ऊपर से मिर्चपुर काण्ड के बाद दलितों के रुख में आया बदलाव. इसके बाद काग्रेस के पास ले दे कर उसके परंपरागत वोटर रहे होंगे. कुछ जाटों समेत. तो यहाँ रही सही चौटाला ने पूरी कर दी. उन्होनें अपनी तरफ से अपनी पार्टी के सबसे मज़बूत कहे जा सकने वाले उम्मीदवार को उतारा. ये मान कर कि वो जीत गया तो बल्ले बल्ले और अगर कहीं हार भी गया तो भी कांग्रेस और उसमें मौजूदा मुख्यमंत्री की किरकिरी तो वो बड़े आराम से कर ही देगा.

भाजपा तो कुलदीप के साथ आई ही इस लिए थी कि भजन लाल के प्रति सहानुभूति वाले वोटरों को साथ ले वो हिसार में मतदाताओं के हो चुके ध्रुवीकरण का फायदा उठाएगी. देख पा रही थी वो कि दलित लान्ग्रे के साथ नहीं, जाट भी नाराज़. ऐसे में ‘वेव’ जो बनेगी उसका फायदा भी उसे मिलेगा ही. कुलदीप लड़ेंगे, ये सब को पता था. मगर इनेलो से अजय आ सकते हैं इसका अंदाजा कांग्रेस को नहीं था. दो कारणों से. एक कि अजय विधायक हैं और कल नहीं तो परसों मुख्यमंत्री पड़ के दावेदार और दुसरे पार्टी महासचिव होने के नाते उनका हार जाना इनेलो शायद बर्दाश्त नहीं करना चाहेगी. लेकिन चौटाला दूसरे तरीके से सोचते हैं. उनका अनुभव अलग है. उनके तो चौधरी देवी हुड्डा के गढ़ रोहतक में जा के हारते, फिर जीतते और देश के उप प्रधानमन्त्री भी हो जाते हैं. जनहित कांग्रेस और उसकी सहयोगी भाजपा के हिसार में कोई बहुत मज़बूत संगठन के न रहते उनके अजय के जीत सकने की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता. मगर वो हार भी जाते हैं तो कांग्रेस ये सीट, हुड्डा से मुख्यमंत्री की कुर्सी और प्रदेश से कांग्रेस की सरकार का चैन सुकून तो जा सकता है. कामनसेंस ये कहता है कि दिल्ली, यूपी, उत्तराखंड और पंजाब के चुनावों से ऐन पहले ये कांग्रेस की अच्छी खासी किरकिरी होगी और ऐसे में कांग्रेस के भीतर हड़बोंग और हुड्डा को हटाना ज़रूरी हो सकता है. हिसार में कभी न जीते अजय की हार से भी अगर इतना हो जाए तो सियासी नज़रिए से इसमें चौटाला का फायदा ही फायदा है.

 

हिसार में इस सब के साथ खुद कांग्रेसियों का रवैया भी कांग्रेस के संभावित परिणाम का एक बड़ा कारण होगा, सब को पता है. ओपी जिंदल और भजन लाल दोनों के न रहने के बाद हिसार पे अपना खूंटा हर कोई गाड़ना चाह रहा था. और अब वो हुड्डा के किसी बन्दे का गड़े ये कोई नहीं चाहता. ये पार्टी के भीतर राजनीति का प्रतिफल है. बिरेंदर को पिछले विधानसभा चुनाव में करवाई गई अपनी हार नहीं पची है और हिसार के इस लोकसभाई क्षेत्र में उनका उचाना भी है. उन्हें भी राजनीति करनी है. दलित महत्वपूर्ण हैं, इसके बावजूद शैलजा हिसार में झोली पसार के कहीं वोट मांगती दिखी नहीं हैं. चार बड़े राज्यों में चुनावों से पहले हिसार की इस जीत हार का एक महत्त्व होने के बावजूद दिल्ली से भी कोई नहीं आया. दिग्विजय ने तो कह ही दिया कि हिसार चुनाव का कोई राष्ट्रीय महत्त्व नहीं है. सब के सब पल्ला झाड़े बैठे हैं. ज़िम्मेवारी से भी. परिणाम से भी.

 

सो, सिविल सोसायटी ने दांव सही समय और सही सोच के साथ लगाया है. हांसी के सट्टेबाजों की तरह. उसे पता है कि जाना कुछ नहीं, जो है वो आना ही है. ऊपर से जो कहना है, वे कहते रहे. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें इसकी इजाज़त देती है. मगर भीतर से पता उन्हें भी है कि हिसार में होने क्या वाला था, होने क्या वाला है. जो होना ही है वो और जिसपे भी हो उनके लोकपाल बिल पे कोई फ़तवा नहीं है. अन्ना के आन्दोलन का श्रेय लेने का कोई अधिकार, बकौल केजरीवाल, अगर आर.एस.एस. को नहीं है तो फिर हिसार के परिणाम का कोई श्रेय, इसी सिद्धांत के तहद, सिविल सोसायटी को भी नहीं लेना चाहिए.