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विधानसभा चुनाव परिणाम : हिन्दुओं के लिये निराशाजनक चित्र तथा भाजपा के लिये सबक…(विस्तारित विश्लेषण)……

सुरेश चिपलूनकर

पश्चिम बंगाल :- ममता बनर्जी की आँधी में वामपक्ष उड़ गया, धुल गया, साफ़ हो गया… यह देश के साथ-साथ हिन्दुत्व के लिये क्षीण सी खुशखबरी कही जा सकती है। “क्षीण सी” इसलिये कहा, क्योंकि ममता बैनर्जी भी पूरी तरह से माओवादियों एवं इस्लामिक ताकतों (बांग्लादेशी शरणार्थियों) के समर्थन से ही मुख्यमंत्री बनी हैं… अतः पश्चिम बंगाल में हिन्दुओं की दुर्दशा वैसी ही जारी रहेगी, जैसी अब तक होती आई है। (नतीजा : वामपंथ 5 साल के लिये बाहर = +1)

असम :- इस राज्य में कांग्रेस से अधिक निराश किया है भाजपा ने… दस साल के गोगोई शासन, मूल असमियों पर बांग्लादेशी गुण्डों द्वारा अत्याचार, कांग्रेसियों द्वारा खुलेआम बदरुद्दीन अजमल का समर्थन करने और अपना मुस्लिम वोट बैंक पक्का बनाये रखने का फ़ायदा कांग्रेस को मिला…। भाजपा यहाँ भी फ़िसड्डी साबित हुई। असम में धीरे-धीरे अल्पसंख्यक बनने की ओर अग्रसर हिन्दुओं के लिये अब उम्मीद कम ही बची है। (नतीजा : राजमाता के दरबार में दिग्गी राजा के कद में बढ़ोतरी और असम में हिन्दुओं की लतखोरी में बढ़ोतरी = (-) 1)

तमिलनाडु :- भाजपा तो कभी यहाँ थी ही नहीं, अब भी कोई प्रगति नहीं की। जयललिता की जीत से करुणानिधि कुनबा बाहर हुआ है, लेकिन अब जयललिता और शशिकला मिलकर तमिलनाडु को लूटेंगे…। चर्च की सत्ता वैसे ही बरकरार रहेगी, क्योंकि “सेकुलरिज़्म” के मामले में जयललिता का रिकॉर्ड भी उतना ही बदतर है, जितना करुणानिधि का। (नतीजा : कांग्रेस यहाँ एकदम गर्त में चली गई है… (+1)]

केरल :- नतीजे लगभग टाई ही रहे और जो भी सरकार बनेगी अस्थिर होने की सम्भावना है। कांग्रेस की सरकार बनी तो मुस्लिम लीग और PFI का आतंक मजबूत होगा। भाजपा को 2-3 सीटों की उम्मीद थी, लेकिन वह धूल में मिल गई…।

सकारात्मक पक्ष देखें तो – (अ) बंगाल से वामपंथी साफ़ हुए, जबकि केरल में भी झटका खाये हैं… (ब) तमिलनाडु से कांग्रेस पूरी तरह खत्म हो गई है…

समूचे परिदृश्य को समग्र रूप में देखें तो – (अ) दक्षिण और बंगाल में “हिन्दुत्व” की विचारधारा में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है, (ब) भाजपा का प्रदर्शन बेहद निराश करने वाला रहा है…, (स) इन राज्यों में हि्न्दुओं की दुर्दशा में और वृद्धि होगी…। कुल मिलाकर निराशाजनक चित्र उभरा है। भाजपा निराश करती है, और कोई विकल्प है नहीं, जात-पाँत में बँटे हुए लतखोर हिन्दुओं ने शायद “नियति” को स्वीकार कर लिया है…।

एक नमूना पेश है, गौर कीजियेगा –

1) केरल की 140 सीटों में से 36 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं। (मुस्लिम लीग-20, सीपीएम-8, कांग्रेस-7 और RSP-1)

2) केरल में 20% ईसाई हैं, 25% मुस्लिम हैं और 30% कमीनिस्ट (यानी अ-हिन्दू सेकुलर)… यह 75% लोग मिलकर भाजपा को इतनी आसानी से जगह बनाने नहीं देंगे।

3) केरल कांग्रेस (जैकब गुट) नाम की “ईसाई सेकुलर” पार्टी ने 10 सीटें जीतीं, “सुपर-सेकुलर मुस्लिम लीग” ने 20 सीटें जीतीं, “हिन्दू सेकुलरों” ने वामपंथियों और कांग्रेस को विभाजित होकर वोट दिये… नतीजा – दोनों ही प्रमुख दलों को बहुमत नहीं मिला। अब अगले पाँच साल तक केरल कांग्रेस (ईसाई) और मुस्लिम लीग दोनों मिलकर अपना “एजेण्डा” चलाएंगे और कांग्रेस को जमकर चूसेंगे (कांग्रेस को इसमें कोई आपत्ति भी नहीं है)। मंत्रिमण्डल बनने में अभी समय है, लेकिन मुस्लिम लीग और जैकब कांग्रेस ने शिक्षा, राजस्व, उद्योग और गृह मंत्रालय पर अपना दावा ठोंक दिया है… (आगे-आगे देखिये होता है क्या…)

4) मुस्लिम बहुल इलाकों से मुस्लिम जीता, ईसाई बहुल इलाकों से ईसाई उम्मीदवार जीता… हिन्दू बहुल इलाके से, या तो वामपंथी जीता या बाकी दोनों में से एक… (मूर्ख हिन्दुओं के लिये तथा धोबी का कुत्ता उर्फ़ “सेकुलर भाजपा” के लिये भी एक सबक)…

सकारात्मक पक्ष :- पिछले 5 साल में संघ कार्यकर्ताओं की ज़मीनी मेहनत का नतीजा यह रहा है कि केरल में पहली बार भाजपा का वोट प्रतिशत 6% तक पहुँचा, 19 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपाईयों को 10,000 से 15,000 वोट मिले, और तीन विधानसभा सीटों पर भाजपा दूसरे नम्बर पर रही। लेकिन यहाँ भी एक पेंच है – ईसाई और मुस्लिम वोटरों ने योजनाबद्ध तरीके से वोटिंग करके यह सुनिश्चित किया कि भाजपा का उम्मीदवार न जीते… कांग्रेस या वामपंथी में से जो मजबूत दिखा उसे जिताया… (मूर्ख हिन्दुओं के लिये एक और सबक) (यदि सीखना चाहें तो…)

असम में भाजपा की सीटें 10 से घटकर 4 हो गईं, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में कोई उपस्थिति दर्ज नहीं हुई…। हालांकि मेरी कोई औकात नहीं है फ़िर भी, भाजपा की इस वर्तमान दुर्दशा के बाद चन्द सुझाव इस प्रकार हैं –

1) भाजपा को सबसे पहला सबक ममता बनर्जी से सीखना चाहिये, विगत 20 साल में उस अकेली औरत ने वामपंथियों के खिलाफ़ लगातार सड़कों पर संघर्ष किया है, पुलिस से लड़ी, प्रशासन के नाकों चने चबवाए, हड़तालें की, बन्द आयोजित किये, हिंसाप्रेमी वामपंथियों को जरुरत पड़ने पर “उन्हीं की भाषा” में जवाब भी दिया। भाजपा “संकोच” छोड़े और कांग्रेसियों से “अन्दरूनी मधुर सम्बन्ध” खत्म करके संघर्ष का रास्ता अपनाये। हिन्दुओं, हिन्दू धर्म, मन्दिरों के अधिग्रहण, गौ-रक्षा, नकली सेकुलरिज़्म जैसे मुद्दों पर जब तक सीधी और आरपार की लड़ाई नहीं लड़ेंगे, तब तक भाजपा के ग्राफ़ में गिरावट आती ही जायेगी… वरना जल्दी ही एक समय आयेगा कि कोई “तीसरी पार्टी” इस “क्षुब्ध वोट बैंक” पर कब्जा कर लेगी। मायावती, ममता बनर्जी, जयललिता चाहे जैसी भी हों, लेकिन भाजपा नेताओं को इन तीनों का कम से कम एक गुण तो अवश्य अपनाना ही चाहिये… वह है “लगातार संघर्ष और हार न मानने की प्रवृत्ति”।

2) ज़मीनी और संघर्षवान नेताओं को पार्टी में प्रमुख पद देना होगा, चाहे इसके लिये उनका कितना भी तुष्टिकरण करना पड़े… कल्याण सिंह, उमा भारती, वरुण गांधी जैसे मैदानी नेताओं के बिना उत्तरप्रदेश के चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने की बात भूल ही जाएं…

3) तमिलनाडु और केरल में मिशनरी धर्मान्तरण और बंगाल व असम में जेहादी मनोवृत्ति और बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे पर गुवाहाटी-कोलकाता से लेकर दिल्ली तक “तीव्र जमीनी संघर्ष” होना चाहिये…

4) जो उम्मीदवार अभी चुनाव हार गये हैं, वे अगले पाँच साल लगातार अपने विधानसभा क्षेत्र में बने रहें, सड़कों पर, खबरों में दिखाई दें, जनता से जीवंत सम्पर्क रखें। जो उम्मीदवार बहुत ही कम अन्तर से हारे हैं, वे एक बार फ़िर से अपने पूरे विधानसभा क्षेत्र का “पैदल” दौरा करें और “हिन्दुओं” को समझाएं कि अब अगले पाँच साल में उनके साथ क्या होने वाला है।

5) सबसे महत्वपूर्ण सुझाव यह है कि भाजपा को “सेकुलर” दिखने की “भौण्डी कोशिश” छोड़ देना चाहिये। मीडिया के दुष्प्रचार की रत्ती भर भी परवाह किये बिना पूरी तरह से “हिन्दू हित” के लिये समर्पण दर्शाना चाहिये, क्योंकि भड़ैती मीडिया के सामने चाहे भाजपा “शीर्षासन” भी कर ले, तब भी वे उसे “हिन्दू पार्टी” कहकर बदनाम करते ही रहेंगे। यह तो भाजपा को तय करना है कि “बद अच्छा, बदनाम बुरा” वाली कहावत सही है या नहीं। इसी प्रकार यही “शीर्षासन” मुस्लिमों एवं ईसाईयों के सामने नग्न होकर भी किया जाए, तब भी वे भाजपा को “थोक में” वोट देने वाले नहीं हैं, तब क्यों अपनी ऊर्जा उधर बरबाद करना? इसकी बजाय, इस ऊर्जा का उपयोग “सेकुलर हिन्दुओं” को समझाइश देने में किया जाये।

दिक्कत यह है कि सत्ता में आने के बाद जो “कीटाणु” अमूमन घुस जाते हैं वह भाजपा में कुछ ज्यादा ही बड़े पैमाने पर घुस गये हैं। राम जन्मभूमि आंदोलन के वक्त की भाजपा का जमीनी और सड़क का संघर्ष, उसके कार्यकर्ताओं की तड़प और आज देश की भीषण परिस्थितियों में भाजपाईयों का “अखबारी और ड्राइंगरूमी संघर्ष” देखकर लगता ही नहीं, कि क्या यह वही पार्टी है? क्या यह वही पार्टी और उसी पार्टी के नेता हैं जिन्हें 1989 में जब मीडिया “हिन्दूवादी नेता” कहता था, तो नेताओं और कार्यकर्ताओं सभी का सीना चौड़ा होता था, जबकि आज 20 साल बाद वही मीडिया भाजपा के किसी नेता को “हिन्दूवादी” कहता है, तो वह नेता इधर-उधर मुँह छिपाने लगता है, उल्टे-सीधे तर्क देकर खुद को “सेकुलर” साबित करने की कोशिश करने लगता है…। यह “संकोचग्रस्त गिरावट” ही भाजपा के “धोबी का कुत्ता” बनने का असली कारण है। समझना और अमल में लाना चाहते हों तो अभी भी समय है, वरना 2012 में महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश में, जहाँ अभी पार्टी “गर्त” में है, वहीं टिकी रहेगी… जरा भी ऊपर नहीं उठेगी।

रही हिन्दुओं की बात… तो पिछले 60 साल में वामपंथियों और सेकुलरों ने इन्हें ऐसा “इतिहास और पुस्तकें” पढ़ाई हैं कि “भारतीय संस्कृति पर गौरव” करना क्या होता है यह एकदम भूल चुके हैं। सेकुलरिज़्म(?) के गुणगान और “एक परिवार की गुलामी” में मूर्ख हिन्दू ऐसे “मस्त और पस्त” हुए पड़े हैं कि इन्हें यह भी नहीं पता कि उनके चारों ओर कैसे “खतरनाक जाल” बुना जा रहा है…

दिल्ली के रंगमंच पर आज बुश पर पड़ेगा जूता

संजय कुमार

‘द लास्ट सैल्यूट’ नाटक के नयी दिल्ली में मंचन के जरिये भारतीय रंगमंच कल, 14 मई को इतिहास रचने जा रहा है। बुश पर जूते की दास्तान पर आधारित ‘द लास्ट सैल्यूट’ नाटक के निर्माता हैं चर्चित फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट। निर्देशन अरविंद गौड़ का है और पटकथा लिखी है लेखक-रंगकर्मी राजेश कुमार ने। ‘द लास्ट सैल्यूट’ नाटक को देखने के लिए फिल्म जगत की कई जानी-मानी हस्तियां कल दिल्‍ली के श्रीराम सेंटर पहुंचने वाली हैं।

14 दिसंबर, 2008 को अमेरिकी नीति के खिलाफ तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर बगदादिया टीवी के पत्रकार मुंतजिर अल जैदी ने जब जूता फेंका था, तो विश्व भर में हलचल मच गयी थी। जैदी ने जूता फेंक कर अमेरिकी तानाशाही के खिलाफ विरोध प्रकट किया था। सद्दाम हुसैन की तानाशाही और उसके बाद वहां अमेरिकी नीतियों को लेकर नाराज पत्रकार जैदी ने अपनी वैचारिक नाराजगी जूता फेंक कर व्यक्त की थी। सजा के तौर पर एक साल तक जेल में जैदी को डाल दिया गया, लेकिन अच्छे बर्ताव को लेकर 15 सितंबर, 2009 को जैदी रिहा कर दिये गये। वे आजकल लेबनान टीवी से जुड़े हैं।

लगभग ढाई साल पूर्व जूता फेंक कर, जैदी मीडिया की सुर्खियों में आये थे। आज एक बार फिर, वे मीडिया की सुर्खियों में आये हैं। इस बार चर्चा हिंदुस्तान की धरती पर है। बुश पर जूते की दास्तान को भारतीय मंच पर पेश करने जा रहा है। ‘द लास्ट सैल्यूट’ नाटक का मंचन 14 मई को दिल्ली के श्रीराम सेंटर में होना है। पत्रकार मुंतजिर अल जैदी द्वारा बुश पर जूता फेंकने के प्रकरण को लेकर संभवतः पहली बार मंच पर नाटक होने जा रहा है।

महेश भट्ट ने जैदी के गुस्से को जायजा ठहराया है। वे कहते है, जैदी जैसे आम आदमी ने दुनिया के महाशक्ति से जो सीधा टक्कर लिया, वह कोई मामूली बात नहीं है। महेश भट्ट मानते हैं कि इस प्रक्ररण को लेकर फिल्म बनाना ममुकिन नहीं था। ऐसे में बात को जनता तक पहुंचाने के लिए रंगमंच को जरिया बनाया है।

नाटक की पटकथा लिखने वाले रंगकर्मी और लेखक राजेश कुमार कहते हैं कि इसमें एक पत्रकार द्वारा जूता मारने की घटना के साथ-साथ इसमें अमेरिका की तानाशाही-साम्राज्यवादी नीति को दिखाया गया है, जो प्रजातंत्र के बहाने मध्य पूर्व देशों में घुसपैठ कर अपनी तानाशाही को साजिश के तहत फैलाता रहता है। यह नाटक अमेरिका की दोहन नीति को सामने लाता है। राजेश कुमार कहते हें कि नाटक का मूल स्वर प्रतिरोध का है। जहां इराक में सत्ता के विरोध में कोई नहीं बोल रहा था, वहां जैदी का विरोध काफी महत्वपूर्ण है। सबसे बड़ी बात है अमेरिका की मनमानी, जो आज भी बरकरार है। इसका किसी न किसी रूप में विरोध होना ही चाहिए। विरोध का स्वर इस बार रंगमंच लेकर आया है।

 

पटकथा में जैदी की लिखी किताब ‘द लास्ट सैल्यूट टू प्रेसीडेंट बुश’ के साथ-साथ दुनिया भर से सामग्री जुटायी गयी है। नाटक के निर्देशक रंगकर्मी अरविंद गौड़ का मानना है कि नाटक वैचारिक द्वंद्व को लेकर सामने आया है, जो अमेरिका की पूंजीवादी व्यवस्था और तानाशाही रवैये का पर्दाफाश करती है। नाटक में जैबी की भूमिका रंगकर्मी अभिनेता इमरान जाहिद कर रहे हैं।

देवर्षि नारद के सवालों में हैं सुशासन के मंत्र

नारद जयंती (19 मई) पर विशेष

आज की राजनीति की प्रेरणा बन सकता है यह संवाद

-प्रो.बृज किशोर कुठियाला

महाराजा युधिष्ठिर की अद्वितीय सभा में देवर्षि नारद धरमराज की जय-जयकार करते हुए पधारे। उचित स्वागत व सम्मान करके धर्मराज युधिष्ठिर ने नारद को आसन ग्रहण करवाया। प्रसन्न मन से नारद ने युधिष्ठिर को धर्म-अर्थ-काम का उपदेश दिया। यह उपदेश प्रश्नों के रूप में है और किसी भी राजा या शासक के कर्तव्यों की एक विस्तृत सूची है। नारद ने कुल 123 प्रश्न किये, जो अपने आप में एक पूर्ण व समृद्ध प्रशासनिक आचार संहिता है। यह प्रश्न जितने प्रासांगिक महाभारत काल में थे उतने या उससे भी अधिक आज भी हैं। महात्मा गांधी ने जिस रामराज्य की कल्पना की थी उसका व्यवहारिक प्रारूप इन प्रश्नों से स्पष्ट झलकता है। स्वभाविक है कि महाभारत और रामायणकाल की उत्कृष्ठ भारतीय संस्कृति में हर व्यक्ति के कर्तव्यों का दिशा बोध हो। यह कर्तव्य केवल ऐसे निर्देश नहीं थे जिनको करना नैतिक या वैधानिक रूप से अनिवार्य था परन्तु यह ऐसा मार्गदर्शन था जिससे व्यक्ति भौतिक और सांसारिक विकास के साथ आध्यात्मिक विकास की ओर भी अग्रसर होता है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ‘गुड गवर्नेंस’ अर्थात सुशासन की चर्चाएं स्वाभाविक रूप से आवश्यक है। क्योंकि प्रशासन की जो भी व्यवस्थाएं प्रचलित हैं वे सब असुरी प्रवृत्तियों की द्योतक हैं। प्रजातंत्र को भी संख्याओं का ऐसा खेल बना दिया गया है जो श्रेष्ठवान और गुणवान के पक्ष में न होकर कुटिलता और चातुर्य के स्तंभों पर खड़ा है। नौबत यहां तक आ गई है कि व्यवहार की शुचिता लुप्त हो गई और शासन करना एक व्यापार हो गया। स्वाधीनता के 60 वर्ष के बाद देश में व्यापक समस्याओं के लिए विदेशी ताकतों को दोष देना उचित नहीं है। आज हम जैसे हैं, जो हैं उसके लिए हम स्वयं जिम्मेवार हैं।

वे क्या कारण हैं कि अंग्रेजी हुकूमत को हटाकर उनकी अधीनता समाप्त करके स्वाधीनता तो ली परंतु उनके तंत्रों को ही अपनाकर न तो हमने गणतंत्र बनाया और न ही हम स्व-तंत्र के निर्माता हो सके। प्रजातंत्र के नाम पर हमने अपने राजाओं के चुनाव की ऐसी प्रणाली बनाई जो श्रेष्ठता, गुणवत्ता, निष्ठा व श्रद्धा की अवहेलना करती है और अधर्म, भेद, छल, प्रपंच व असत्य पर आधारित है। एक बीमार राजनीतिक व्यवस्था तो हमने बना ली परंतु प्रशासनिक व्यवस्थाएं ज्यों-की-त्यों अपना ली। आईसीएस की जगह आईएएस हो गया परंतु भाव वही रहा। क्या कारण हैं कि जिले का वरिष्ठतम ‘पब्लिक सर्वेंट’ अधीक्षक कहलाता है। अंग्रेजी में तो इस पद का नाम और भी व्याधि का द्योतक है। जिले का सर्वोत्तम अधिकारी या तो कलेक्टर कहलाता है या फिर डिप्टी कमिश्नर। कलेक्टर अर्थात येन-प्रकेण धन और संपदा एकत्रित करना। कमिश्नर शब्द को यदि कमीशन से जोड़े तो भ्रष्टाचार तंत्र की आत्मा हो जाता है। इसका एक अर्थ दलाली और आढ़त भी है और दूसरा अर्थ अधिकृत अधिकारी है। कहीं भी शब्द में विकास, उत्थान, सेवा आदि की खुशबू नहीं है। शिक्षा की व्यवस्था देखने वाला व्यक्ति शिक्षा अधिकारी है। आचार्य या प्राचार्य गुरू या गुरू नहीं है। इसी तरह से न्यायपालिका का पूरा तंत्र वैसा ही है जैसा अंग्रेजों ने देश को गुलाम बनाये रखने के लिए बनाया। ऐसी व्यवस्थाएं पूर्ण रूप से स्थापित हैं जो एक पूरे देश को पराधीन और दास के रूप में रखने के लिए बनी थी। उन्हीं तंत्रों से सुशासन की अपेक्षा करना शेखचिल्ली की सोच हो सकती है। समझदार और विवेकशील की नहीं। यदि यह सोचकर चलेंगे कि अंग्रेजी और अंग्रेजियत ही उचित है तो भारत देश में सुशासन नहीं हो सकता।

स्वाधीनता के बाद नयी व्यवस्थाओं के बनाने की अनिवार्यता तो सब ने मानी परंतु नये का आधार तत्कालीन व्यवस्थाओं में ही स्तरीय परिवर्तन करके किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में भारतीय समाज के प्राचीन अनुभव और ज्ञान को ध्यान में रखा गया होता तो शायद आज देश की यह स्थिति न होती। लगभग हर प्राचीन भारतीय ग्रंथ में व्यक्ति, परिवार, समुदाय, समाज, प्रशासक, अधिकारी आदि के कर्तव्यों की व्याख्याएं हैं। यह व्याख्याएं केवल सैद्धांतिक हों ऐसा भी नहीं है। कृष्ण की द्वारका की व्यवस्थाएं, धर्मराज युधिष्ठिर का राज हो या राम का प्रशासन सैद्धांतिक पक्ष का व्यवहारिक पक्ष भी इन ग्रंथों में पर्याप्त मात्रा में प्रदर्शित है।

व्यास ने नारद के मुख से युधिष्ठिर से जो प्रश्न करवाये उनमें से हर एक अपने आप में सुशासन का एक व्यावहारिक सिद्धांत है। 123 से अधिक प्रश्नों को व्यास ने बिना किसी विराम के पूछवाया। कौतुहल का विषय यह भी है कि युधिष्ठिर ने इन प्रश्नों का उत्तर एक-एक करके नहीं दिया परंतु कुल मिलाकर यह कहा कि वे ऋषि नारद के उपदेशों के अनुसार ही कार्य करते आ रहे हैं और यह आश्वासन भी दिया कि वह इसी मार्गदर्शन के अनुसार भविष्य में भी कार्य करेंगे। देवर्षि नारद द्वारा पूछे गये प्रश्नों की कुछ व्याख्या प्रासांगिक होनी चाहिए।

हालांकि नारद द्वारा पूछा गया हर प्रश्न अपने आप में सुशासन का एक नियम है। परंतु समझने की सहजता के लिए उन्हें पांच वर्गों में बांटा जा सकता है। प्रश्नों का पहला वर्ग चार पुरूषार्थों अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से संबंधित है। पहले ही प्रश्न में नारद पूछते हैं ‘‘हे महाराज! अर्थ चिंतन के साथ आप धर्म चिंतन भी करते हैं? अर्थ चिंतन ने आपके धर्म चिंतन को दबा तो नहीं दिया? आगे के प्रश्नों में जहां नारद यह तो पूछते ही हैं कि धन वैभव का लोभ आपके धर्मोपार्जन की राह में रूकावट तो नहीं डालता परन्तु साथ में यह भी कहते हैं कि धर्म के ध्यान में लगे रहने से धन की आमदनी में बाधा तो नहीं पड़ती? साथ ही पूछते हैं कि कही काम की लालसा में लिप्त होकर धर्म और अर्थ के उपार्जन को आपने छोड तो नहीं दिया है? सभी प्रश्नों का मुख्य प्रश्न करते हुए पूछते हैं कि-आप ठीक समय पर धर्म, अर्थ और काम का सेवन करते रहते हैं न?

दूसरे वर्ग के प्रश्न राजा के सामाजिक विकास के कार्यों से संबंधित हैं। नारद ने आठ राज कार्य बताये और युधिष्ठिर से पूछा की क्या वह इन कार्यों को अच्छी तरह करते हैं? आठ राज कार्य-कृषि, वाणिज्य, किलों की मरम्मत, पुल बनवाना, पशुओं को चारे की सुविधा की दृष्टि से कई स्थानों में रखना, सोने तथा रत्नों की खानों से कर वसूल करना और नई बस्तियां बनाना था। नारद महाराज से यह भी पूछते हैं कि आपके राज्य के किसान तो सुखी और सम्पन्न हैं न? राज्य में स्थान-स्थान पर जल से भरे पडे तालाब व झीलें खुदी हुई हैं न? खेती तो केवल वर्षा के सहारे पर नहीं होती, किसानों को बीज और अन्न की कमी तो नहीं है? आवश्यकता होने पर आप किसानों को साधारण सूद पर ऋण देते रहते हैं न? इन प्रश्नों को सुनकर वर्तमान में किस भारतवासी के मन में घण्टियां नहीं बजेगी और ध्यान उन किसानों की तरफ नहीं जाएगा, जिन्होंने प्रशासनिक सहारा न मिलने के कारण से आत्महत्या की।

प्रश्नों का तीसरा वर्ग राजा के मंत्रियों और अधिकारियों के संबंध में है। नारद ने पूछा कि क्या शुद्ध स्वभाव वाले समझाने में समृद्ध और अच्छी परंपराओं में उत्पन्न और अनुगत व्यक्तियों को ही आप मंत्री बनाते हैं न? विश्वासी, अलोभी, प्रबंधकीय काम के जानने वाले कर्मचारियों से ही आप प्रबंध करवाते हों न? हजार मूर्खों के बदले एक पंडित को अपने यहां रखते हैं या नहीं? आप कार्य के स्तर के आधार पर व्यक्तियों को नियुक्त करते हैं न? शासन करने वाले मंत्री आपको हीन दृष्टि से तो नहीं देखते? कोई अच्छा काम या उपकार करता है तो आप उसे अच्छी तरह पुरस्कार और सम्मान देते हैं न? आपके भरोसे के और ईमानदार व्यक्ति ही कोष, भंडार, वाहन, द्वार, शस्त्रशाला और आमदानी की देखभाल और रक्षा करते हैं न? नारद एक कदम और आगे जाकर पूछते हैं कि कही आप कार्य करने में चतुर, आपके राज के हित को चाहने वाले प्रिय कर्मचारियों को बिना अपराध के पद से अलग तो नहीं कर देते? उत्तम, मध्ययम, अधम पुरूर्षो की जांच करके आप उन्हें वैसे ही कर्मों में लगाते हैं न?

इसी तरह से अनेक प्रश्न प्रजा की स्थिति से संबंधित हैं। प्रजा के कल्याण से संबंधित हैं। नारद पूछते हैं कि हे पृथ्वीनाथ! माता और पिता के समान राज की सब प्रजा को आप स्नेहपूर्ण एक दृष्टि से देखते हैं न? कोई आपसे शंकित तो नहीं रहता है न? क्या तुम स्त्रियों को ढांढस देकर तुम उनकी रक्षा करते हो न? हे धर्मराज! अंधे, गूंगे, लूले, देहफूटे, दीन बंधु और संन्नयासियों को उनके पिता की भांति बन कर पालते तो हो न?

भ्रष्टाचार से ग्रसित आज की राजनेतिक व्यवस्था से प्रासंगिक एक प्रश्न नारद ने पूछा कि समझबूझ कर किसी सचमुच चोरी करने वाले दुष्ट चोर को चुराये माल सहित पकड़कर उस माल के लोभ में छोड़ तो नहीं देते? क्या तुम्हारे मंत्री लोभ में पड़कर धनी और दरिद्र के झगड़े में अनुचित विचार तो नहीं करते?

इसी प्रकार अनेक प्रश्न राजा के व्यक्तिगत आचार, विचार व व्यवहार के विषय में हैं जैसे-आप ठीक समय पर उठा करते हैं? पिछले पहर जागकर आप चिंतन करते हैं? आप अकेले या बहुत लोगों के साथ कभी सलाह तो नहीं करते? आपकी गुप्त मंत्रणा प्रकट होकर राज में फैल तो नहीं जाती? हे महाराज! आपके लिए मरने वाले और विपत्ति में पड़ने वाले लोगों के पुत्र, स्त्री आदि परिवार का भरण-पोषण आप करते रहते हैं न? शरण में आये शत्रु की रक्षा आप पुत्र की तरह करते हैं न? आगे नारद फिर पूछते हैं कि राजा तुम एकाग्र होकर धर्म-अर्थ का ठीक ज्ञान रखने वाले ज्ञानी पुरूषों के उपदेश सुनते रहते हो न? निंद्रा, आलस, भय, क्रोध, ढिलाई और दीर्घ शत्रुता करने वाले इन छः दोषों को तुमने दूर कर दिया है न?

नारद ने अनेकों प्रश्न राज्य की सुरक्षा, जासूसी और शत्रु पर आक्रमण की तैयारी व रणनीति से संबंधी भी किये। ऐसा लगता है कि व्यास ने इन प्रश्नों के माध्यम से न केवल राजाओं या प्रशासकों को उनके कर्तव्यों का बोध कराया परंतु उन्होंने आम प्रजा का भी जाग्रित किया कि उन्हें प्रशासकों से किस प्रकार की अपेक्षाएं करनी चाहिए। वर्तमान में यदि हम सुशासन के लिए कोई कार्य योजना बनाना चाहते हैं तो नारद के प्रश्नों के संदर्भ सुन्दर मार्गदर्शन की क्षमता रखते हैं। एक-एक प्रश्न की विस्तृत विवेचना की आवश्यकता है।

775 साल का लेडी पावर

लिमटी खरे

आजादी के पहले महिलाओं को कमतर ही आंका जाता रहा है। महिलाओं को चूल्हा चैका संभालने और बच्चे पैदा करने की मशीन ही समझते थे सभ्य समाज में पुरूष वर्ग के लोग। अस्सी के दशक के उपरांत यह मिथक शनैः शनैः टूटने लगा। लोग मानते थे कि महिलाओं को अगर घर की दहलीज से बाहर निकलने दिया गया तो कयामत आ जाएगी, समाज के चतुर सुजान इन महिलाओं का शोषण कर लेंगे, यही कारण है कि रूपहला पर्दा हो या फिर सियासत, सदा ही महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है। कालांतर में महिलाओं को जब भी मौका दिया गया उन्होंने साबित कर ही दिया कि वे पुरूषों से कम कतई नहीं हैं।

भारत सदा से ही पुरूष प्रधान देश माना जाता रहा है। हिन्दुस्तान के सभ्य समाज में महिलाओं का स्थान काफी नीचे ही माना जाता रहा है। यह उतना ही सच है जितना कि दिन और रात कि भारतीय पुरूषों ने महिलाओं के वर्चस्व को कभी भी स्वीकार नहीं किया है। इतिहास में चंद उदहारण एसे हैं जिनमें महिलाओं द्वारा शासन किए जाने के किस्से सुनने को मिलते हैं। इक्कीसवीं सदी में भारत की महिला ने घर की चैखट लांघ दी है, अब वह पुरूषों के कांधों से कांधा मिलाकर चल रही है।

भारत मंे महिलाओं को जब भी अपने हुनर को प्रदर्शित करने का मौका मिला है, उन्होंने बखूबी अपने इस फन को साबित किया है। मैदान ए जंग से लेकर सियासी गलियारों तक में भारतीय महिलाओं ने अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। 1755 के आसपास अमेरिका में भी अविवाहित महिलाओं को ही मत देने का अधिकार था। न्यूजीलेण्ड में महिलाओं के वोट देने और चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं था, बाद में 1893 में उन्हें मत देने तो 1919 में चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त हुआ।

दुनिया की पहली महिला सांसद फिनलैण्ड में 1907 में चुनी गई थी। दुनिया के चैधरी अमेरिका लगभग एक दशक (80 साल) की लड़ाई के बाद 1920 में यह हक मिल सका। साउदी अरब अमीरात में आज भी महिलाओं को चुनाव लड़ने दिया जाए या नहीं इस बात पर बहस जारी है। अफगानिस्तान में 1970, बंग्लादेश में 1972, इराक में 1980 तो कतर में 1998 में बदलाव की बयार बही।

भारत देश में महिलाओं ने अनेक वर्जनाओं को तोड़ा है। मुगल शासक रजिया सुल्तान दुनिया भर में संभवतः पहली महिला शासक थीं जिन्होंने सल्तनत संभाली हो। जांबाज योद्धा और न्यायप्रिय शासक रजिया सुल्तान अपने पिता इल्तुतमिश की सबसे लाड़ली थी। रजिया सुल्तान ने 1236 में दिल्ली की गद्दी संभाली। उस वक्त लोगों को लग रहा था, कि दिल्ली जैसी बड़ी रियासत को संभाल पाएंगी कि नहीं, किन्तु रजिया ने इस अवधारणा को गलत साबित कर दिया। रजिया सुल्तान ने मजबूत और बुलंद इरादों के साथ शासन संचालित किया, उस वक्त बगावत के सर उठाने वालांे का सर कुचल दिया गया।

1524 में पेदा हुई गौंड शासिका रानी दुर्गावती ने अपने पति राजा दलपत शाह की लाड़ली थीं, दलपत शाह के निधन के उपरांत रानी दुर्गावती ने अपने पुत्र वीर नारायण के छोटे रहने के कारण शासन संभाला। गढ़ मंडला दुर्ग पर कब्जे के लिए बादशाह अकबर की नीयत डोली और उन्होंने दुर्गावती को महिला और कमजोर समझकर अपने अधीन आने की पेशकश की। रानी दुर्गावती ने अकबर की इस बात को ठुकरा दिया और वीरता के साथ युद्ध किया, जंग में ही रानी दुर्गावती वीरगति को प्राप्त हुईं।

1725 में जन्मी अहिल्या बाई ने अपने पति खांडेराव होल्कर की मौत के उपरांत 1854 में होल्कर रियासत की जवाबदारी संभाली। इसके 52 वर्षों के उपरांत 1795 में उनका निधन हुआ। दक्षिण में रानी चेनम्मा को सिंहनी कहा जाता था। कर्नाटक के कित्तूर की रानी चेनममा ने गोरे ब्रितानियों के आदेश को मानने से इंकार कर दिया था। ब्रितानियो के साथ जमकर जंग लड़ी रानी चेनम्मा ने, बाद में उन्हें एक किले में नजर बंद कर दिया गया था, जहां उनका देहावसान हो गया था।

सुप्रसिद्ध कवियत्रि सुभद्रा कुमारी चैहान की बात किए बिना महिलाओं के पावर की बात अधूरी ही रह जाएगी। सुभद्रा कुमारी चैहान का जिक्र इसलिए क्योंकि उनके द्वारा झांसी की रानी का कविता के रूप में बखान इतना मीठा और जीवंत है कि आज भी बच्चे, युवा, प्रोढ़ या उमर दराज लोग -‘‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।‘‘ या ‘‘घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार।‘‘ जैसी पंक्तियां गुनगुनाते मिल ही जाते हैं। रानी लक्ष्मी बाई के सम्मान में मध्य प्रदेश सहित अनेक सूबों में महारानी लक्ष्मी बाई शाला (एमएलबी) की चेन स्थापित की गई है। 1834 मंे जन्मी लक्ष्मी बाई ने गंगाधर राव की मौत के बाद गद्दी संभाली थी। ब्रितानियों ने इनके गोद लिए बेटे को वारिस मानने से इंकार कर दिया था। रानी लक्ष्मी बाई ने अंगे्रजों का डटकर मुकाबला किया और आजादी की पहली लड़ाई में वीर गति को प्राप्त हुईं।

आजाद भारत में प्रियदर्शनी श्रीमति इंदिरा गांधी ने जिस उंचाई को छुआ उसे पाना शायद ही किसी के बस की बात हो। अपने पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू के अवसान के बाद इंदिरा गांधी ने देश और कांग्रेस दोनों ही की कमान संभाली। इसके उपरांत न्यूक्लियर पावर बनाने, विदेश नीति, संगठनात्मक एकता, निर्भीक शासन आदि की अद्भुत मिसाल पेश की इंदिरा गांधी ने। महिलाओं को आगे आने से रोकने के लिए कांग्रेस पर आरोप लगते रहे हैं, यही कारण है कि आज भी महिला आरक्षण बिल परवान नहीं चढ़ सका है।

कांग्रेस में श्रीमति सोनिया गांधी सर्वोच्च पद पर पहुंची जिनके हाथ में अघोषित तौर पर देश की बागडोर रहने के आरोप लगते रहे हैं। बाद में देश को 2007 में पहली महिला महामहिम राष्ट्रपति के तौर पर प्रतिभा देवी सिंह पाटिल मिलीं। इसके उपरांत लोकसभा में पहली महिला अध्यक्ष के तौर पर मीरा कुमार भी मिल गईं। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष भी श्रीमति सुषमा स्वराज हैं। स्वतंत्र भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री साठ के दशक में सुचिता कृपलानी थीं। इसके बाद उड़ीसा में नंदिनी सत्पथी मुख्यमंत्री बनीं। मध्य प्रदेश में उमा भारती भी मुख्यमंत्री रहीं। सत्तर के दशक में महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी की शशिकला काकोडकर ने केंद्र शासित प्रदेश गोवा में मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला। अस्सी के दशक मंे अनवरा तैमूर मुख्यमंत्री बनीं तो इसी दौर में तमिलनाडू में एम.जी. रामचंद्रन की पत्नि जानकी रामचंद्रन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। सुषमा स्वराज दिल्ली, राबड़ी देवी बिहार, वसुंधरा राजे राजस्थान तो राजिन्दर कौर भट्टल पंजाब में सफल मुख्यमंत्री रह चुकी हैं।

वर्तमान में दिल्ली की गद्दी श्रीमति शीला दीक्षित, उत्तर प्रदेश की निजाम मायावती हैं। अब आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी तो तमिलनाडू मंे जयललिता मुख्यमंत्री बन महिला शक्ति को साबित करने वाली हैं। 2004 के बाद यह दूसरा मौका होगा जब देश के चार सूबों में महिला मुख्यमंत्री आसीन होंगी। इसक पूर्व 2004 में एमपी में उमा भारती, राजस्थान में वसुंधरा राजे, दिल्ली में शीला दीक्षित तो तमिलनाडू में जयललिता मुख्यमंत्री थीं। 1236 में रजिया सुल्तान की ताजपोशी से आरंभ हुआ लेडी पावर का सिलसिला 775 सालों बाद 2011 में भी बरकरार है। आने वाले साल दर साल यह और जमकर उछाल मारेगा इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। एसी मातृ शक्ति को समूचा भारत वर्ष नमन करता है।

युवा पत्रकार चंडीदत्त होंगे “राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड” से सम्मानित

चर्चित युवा पत्रकार और प्रवक्‍ता डॉट कॉम के रेग्‍युलर कंट्रीब्‍यूटर चंडीदत्त शुक्ल को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से प्रकाशित “सीमापुरी टाइम्स” हिंदी समाचार पत्रिका की ओर से “राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड-२०११” से सम्मानित किये जाने की घोषणा की गयी है. समाज में विभिन्न क्षेत्रो में किये गए उत्कृष्ट कार्यों हेतु सीमापुरी टाईम्स की ओर से हर वर्ग के लोगो को सम्मानित किया जाता है. चौराहा डॉट इन के संपादक शुक्ल को न्यू मीडिया, पत्रकारिता, साहित्य लेखन में महत्वपूर्ण योगदान के लिए सम्मानित किया जा रहा है.

चंडीदत्त शुक्ल के अलावा आयोजन में डॉ. ओ.पी.सिंह (पूर्व महानिदेशक स्वास्थ्य उ.प्र.),डॉ.संजय महाजन,सुश्री अलका लाम्बा (समाज सेवा),डॉ.जगदीश गाँधी,श्री ओ.एस.यादव (शिक्षा), तन्मय चतुर्वेदी-सा-रे-गा-मा-पा लिटिल चैम्प (टैलेंट हंट), श्री अमलेंदु उपाध्याय,श्री फज़ल इमाम मलिक (प्रिंट मीडिया), सुश्री श्वेता रश्मि (इलेक्ट्रानिक मीडिया) ,श्री अमिताभ ठाकुर (आईपीएस),श्री बालेन्दु शर्मा दाधीच (टेक्नोलाजी),श्री पंकज चतुर्वेदी (लेखन), श्री ललित गाँधी (रियल स्टेट), श्री सुनील सरदार (सामाजिक परिवर्तन),श्री राकेश राजपूत (अभिनय),श्री एम.के.चौबे (बेस्ट मैनेजमेंट),श्री कमल कान्त तिवारी (बाल सेवा),श्री बिमलेश त्रिपाठी (साहित्य) को भी सम्मानित किया जा रहा है.

कार्यक्रम का आयोजन स्पीकर हॉल कंस्टीट्यूशन क्लब वी.पी.हाउस रफ़ी मार्ग,नई दिल्ली में जून के प्रथम सप्ताह में प्रस्तावित है. अवार्ड के लिए लोगो का विभिन्न क्षेत्रो से चयन किया गया है.यह अवार्ड श्रीप्रकाश जायसवाल केंद्रीय कोयला मंत्री,भारत सरकार एवं अन्य मंत्री गणों द्वारा प्रदान किया जायेगा.

‘भारतीय‘ होने पर शर्मसार युवराज

लिमटी खरे

‘‘उत्तर प्रदेश में यमुना एक्सपे्रस हाईवे के लिए भूमि अधिग्रहण के मामले में तबियत से सियासत की जा रही है। सारे राजनैतिक दल इस मामले के गर्म तवे पर रोटियां सेंकने पर आमदा हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने ‘सूबे सुरक्षा एजेंसी‘ को चकमा देकर किसानों के बीच खुद को पहुंचाकर मीडिया में अपना महिमा मण्डन करवा लिया है। यक्ष प्रश्न तो यह है कि जब इलाका सील हो और परिंदा भी वहां पर न मार सकता हो, तब राहुल गांधी जैसा नामचीन चेहरा आखिर इस चक्रव्यूह को भेदकर अंदर कैसे पहुंचा। क्या एसपीजी आंखों में पट्टी बांधकर बैठी थी? क्या यह कांग्रेस और बसपा की मिली भगत है? चाहे जो भी हो डर तो इस बात का है कि कहीं सियासी लड़ाई में किसानों का मुद्दा गौड़ न हो जाए। राहुल का बड़बोलापन पहली बार झलका है जब उन्होंने व्यवस्था पर शर्म करने के बजाए खुद को भारतीय होने पर शर्म की बात कही है। क्या इसे उनकी मा सोनिया गांधी के पीहर से जोड़कर देखा जाए!‘‘

 

देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाले और कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी तथा युवराज राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्रों को अपने आंचल में सहेजने वाले उत्तर प्रदेश सूबे में यमुना एक्सपे्रस हाईवे का निर्माण किया जा रहा है। तर्क दिया गया है कि इसके बनने से सूबे के विकास में चार चांद लग जाएंगे, इसके बनने से आम आदमी को जमकर फायदा होने की उम्मीद जताई जा रही है। यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है कि इस तरह के मार्ग बनने से फायदा किसे होने वाला है? यदि यह मार्ग बना भी तो इसका उपयोग वही कर सकेंगे जिनके पास मोटर कार, ट्रक एवं परिवहन के अन्य साधन हैं। गरीब गुरबों के लिए तो यात्री बस ही सहारा होगी। कोई भी तीव्रगामी मार्ग जब बनता है तो गरीब की साईकल, बैलगाड़ी, तिपहिया और छोटे वाहनों का उस पर चलना प्रतिबंधित कर दिया जाता है। इस रफ्तार में उनको प्रवेश नहीं है जिनके हितों की दुहाई देकर इसका निर्माण कराया जाता है। जिस देश में आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही हो उनके लिए इस तरह के मार्ग का क्या ओचित्य?

देश की राजनैतिक राजधानी से सटे ग्रेटर नोएडा में भट्टा पारसौल गांव में भूमि के अधिग्रहण को लेकर मारकाट मची हुई है। हर एक सियासी दल इसका लाभ लेने की जुगाड़ में है, तो भला कांग्रेस कैसे पीछे रहने वाली। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने उत्तर प्रदेश के चुनावों को देखकर अपने भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी को दौड़ा दिया भट्टा पारसौल गांव। राहुल गांधी के अंदर यह गुण है कि वे अपनी अभिजात छवि को तोड़कर आम आदमी के साथ सीधा रिश्ता बनाते हुए दिखाई पड़ ही जाते हैं। चाहे दलित के घर रात बितानी हो या फिर मुंबई में लोकल ट्रेन का सफर या एटीएम से पैसे निकालना, वे हर बार आम जनता से सीधा संवाद करते नजर आए हैं। कांग्रेस चाहती है कि वह राहुल की साफ छवि के साथ वैतरिणी पार कर ले किन्तु इसके लिए कांग्रेस को अपना चेहरा भी बदलना होगा।

कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी द्वारा मायावती सरकार के सारे नियम कायदों को धता बताते हुए उनके चक्रव्यूह को तोड़कर बुधवार को अलह सुब्बह ग्रेटर नोएडा जा पहुंचे। राहुल का वहां जाना अनेक सवालों को जन्म दे गया है। अगर राहुल गांधी प्रदेश सरकार के नियम कायदों को तोड़ रहे थे तब उनकी सुरक्षा में लगे स्पेशल प्रोटेक्शन गु्रप के जवान क्या मूक दर्शक बनकर उन्हें कानून तोड़ने दे रहे थे? एसपीजी भारत सरकार के दिशा निर्देश पर काम करती है या फिर वह भी राहुल गांधी की ‘लौंडी‘ बनकर रह गई है। हालात देखकर लगता है मानो राहुल गांधी को सुरक्षा की दृष्टि से भारत सरकार द्वारा एसपीजी नहीं वरन् राहुल गांधी ने खुद ही किसी निजी सिक्यूरिटी एजेंसी से भाड़े पर सुरक्षा कर्मी ले रखे हों।

वैसे तो यहां किसानों द्वारा 17 जनवरी से आंदोलन किया जा रहा है, किन्तु तब इसे हवा नहीं मिल सकी। सियासी दलों की नजर लगने के बाद भट्टा पारसौल आग में झुलस रहा है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। पुलिस और किसानों के बीच हुए द्वंद के बाद अब जो जमीन तैयार हुई है उसे देखकर लगने लगा है कि मिशन यूपी 2012 की जमीन पूरी तरह तैयार हो चुकी है। राजनैतिक दल अपना अपना हित साध रहे होंगे किन्तु उन्हंे इस बात पर भी मंथन अवश्य ही करना चाहिए कि बार बार विकास, सड़क या औद्योगिक परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के बाद किसान हर बार ठगा सा महसूस क्यों करता है? देशवासियों के बीच बनने वाली यह धारणा बेमानी नहीं है कि ‘सरकार अब बड़े औद्योगिक घरानों के एजेंट के तौर पर काम कर रही है।‘

आखिर क्या कारण है कि अंग्रेजों के जमाने 1894 में बने जमीन अधिग्रहण कानून को भारत सरकार अब तक तब्दील नहीं कर पाई है? 1894 में बने इस कानून में 1998 में कुछ सुधार किया गया है, जो सरकार को सार्वजनिक मकसद के लिए अपनी कीमत पर जमीन खरीदने का हक देता है। इस बारे में कानून विदों की राय में जमीन की वाजिब कीमत क्या होगी और सार्वजनिक मकसद किसे कहा जाएगा? अब तक स्पष्ट नहीं है। 2009 में लोकसभा में बिल लाया गया किन्तु पारित न हो सका।

देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसानों की जमीनों के अधिग्रहण की खिलाफ धधकती असंतोष की आग बरास्ता दादरी, नंदीग्राम, सिंगूर, जगतसिंहपुर, जैतापुर, नियामगिरी होती हुई अब ग्रेटर नोएडा पहुंच ही गई। 1985 में नर्मदा घाटी परियोजना में बनने वाले बाधों के विरोध में बाबा आम्टे और मेघा पटेकर ने आंदोलन किया था। टिहरी बांध में उत्तराखण्ड में तो उड़ीसा में नियामगिरी में वेदांता परियोजना, में भी कमोबेश यही आलम रहा।

पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में नवंबर 2007 में इंडोनेशिया की एक कंपनी सालिम ग्रप के एसईजेड के लिए जमीन अधिग्रहण में पुलिस के साथ विवाद में 14 तो बंगाल के ही सिंगूर में टाटा के नैनो कार प्लांट के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले किसानों में से 14 को पुलिस की गोली का शिकार होकर जान गंवानी पड़ी थी। 2008 में अमरनाथ श्राईन बोर्ड को 99 एकड़ जमीन दने के विरोध में हुए प्रदर्शन में सात लोग मरे, तो यूपी के गाजियाबाद के दादरी में 2004 में अनिल अंबानी के स्वामित्व वाले रिलायंस गु्रप के लिए 2500 एकड़ के अधिग्रहण में भी विवाद हुआ।

पिछले साल अलीगढ़ में टप्पल में हुई हिंसा में तीन किसान और एक पुलिस कर्मी की मौत हुई। जगतसिंहपुर जिले में दक्षिण कोरिया की एक स्टील कंपनी ‘पास्को‘ की परियोजना का भी पुरजोर विरोध किया गया, इसके बाद अब ग्रटर नोएडा के भट्टा पारसौल गांव में हिंसा फैली। दिल्ली से आगरा को जोड़ने वाले 165 किलोमीटर लंबे इस मार्ग के लिए 43 हजार हेक्टेयर भूमि की आवश्यक्ता है। आंकड़ों पर अगर गौर फरमाया जाए तो आजादी के बाद से अब तक देश में एक ओर जहां कृषि योग्य भूमि का प्रतिशत तेजी से गिरा है तो दूसरी ओर सिंचित भूमि का प्रतिशत कम मात्रा में ही बढ़ा है।

किसानों के रिसते घावों पर युवराज राहुल गांधी घटनास्थल पर अवश्य गए। राजनैतिक तौर पर अपरिपक्व राहुल वहां पहुंचे तो मंझे हुई राजनीतिक हस्ती कांग्रेस महासचिव राजा दिग्विजय सिंह की बैसाखी के सहारे। क्या राहुल गांधी को पीएसी के उन जवानों से कोई सरोकार होगा जिन्हें वहशी तरीके से पीट पीट कर मौत के घाट उतार डाला। कांधे पर हल रखकर चलने वाला किसान क्या बंदूकों के माध्यम से आंदोलन छेड़ता है? अगर उत्तर प्रदेश मंे मायावती ‘लोकतंत्र‘ के स्थान पर ‘हिटलरशाही‘ चला रही हैं तो राहुल और कांग्रेस तो क्या हर सियासी दल को इसका प्रतिकार करने का पूरा अधिकार है, पर लोकतांत्रिक तरीके से, न कि खून से रंगे हाथों की तरफदारी कर सियासी रोटियां सेंकने की तरह से। इस बात पर भी बहस होना चाहिए कि पुलिस वालों की हत्या करने वाले क्या वाकई किसान थे या फिर जमीनों के दलाल। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पा चुके ‘मोगली‘ की कर्मभूमि है देश के हृदय प्रदेश का सिवनी जिला, इस जिले में पिछले एक दशक में जमीन के दलालों ने सरकारी नुमाईंदों के साथ मिलकर सरकारी और निजी जमीनों को बेच दिया है। सूबे की सरकार सोई पड़ी है, विधायक और सांसद अपने निहित स्वार्थों में व्यस्त हैं। बंदरबांट जारी है जिसके हिस्से जो लग रहा है, वह लेकर चंपत हो रहा है।

बहरहाल, एक समाचार एजेंसी के अनुसार राहुल गांधी ने खुद के भारतीय होने पर शर्म महसूस करने वाली बात कही है, जिसकी सिर्फ निंदा से काम चलने वाला नहीं है। राहुल गांधी का किसानों की व्यथा देखकर दुखी होना (बशर्ते वे दुखी होने का प्रहसन न कर रहे हों) लाजिमी है, किन्तु उन्हें इस पर खुद के भारतीय होने पर शर्माना कैसा? क्या राहुल गांधी के राजनैतिक प्रशिक्षकों ने उन्हें यह बात नहीं बतलाई है कि उनके परदादा पंडित जवाहर लाल नेहरू, दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी इस देश के वजीरे आजम रहे हैं, जिन्होंने साल दर साल देश पर राज किया है। देश के कानून कायदे उन्हीं के द्वारा बनाए गए हैं। आपकी माता जी अवश्य ही इटली मूल की हैं, पर आपके पिता और पितामह सभी खालिस हिन्दुस्तानी हैं, आप इस तरह की बयानबाजी कर विरोधियों को बोलने का मौका दे रहे हैं। बहरहाल राहुल गांधी के भारतीय होने पर शर्म करने की बात गले नहीं उतरती। राहुल गांधी को चाहिए था कि वे इस देश की या उत्तर प्रदेश की व्यवस्था पर शर्म जताते, वस्तुतः एसा उन्होंने किया नहीं।

आतंकवाद के खात्मे के लिए जेहादी विचारधारा का अंत जरूरी

बृजनन्दन यादव

आतंकवाद एक संगठित विचारधारा है। एक निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किये गये हिंसात्मक तथा अनैतिक कार्यों द्वारा सरकार पर दबाव डालना अतंकवाद है। यह एक ऐसा सैद्धान्तिक तरीका है जिसके द्वारा कोई संगठित गिरोह अपने घोषित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हिंसा का योजनाबध्द ढंग़ से इस्तेमाल करता है। आतंकवादी समूह समाज में डर एवं दहशत का माहौल पैदा कर सरकार से अपनी मांगे मनवाते हैं।

आतंकवाद आज अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है। यह किसी एक देश से सम्बन्धित नहीं है। विश्व के लगभग 62 देश आतंकवाद से ग्रस्त हैं। लेकिन आतंकवाद की कीमत भारत को ही सबसे ज्यादा चुकानी पड़ी है। मोस्ट वांटेड आतंकी ओसामा बिन लादेन के मारे जाने पर पूरे विश्व के लोग राहत की सांस ले रहे हैं। लेकिन वास्तविकता यह नहीं है। उसके मारे जाने मात्र से आतंकी गतिविधियों में कोई कमी आने वाली नहीं हैं। क्योंकि आतंकवाद कुछ लोगों का मिशन बन चुका है और इनका संगठनात्मक ढांचा आज भी मौजूद है इसलिए संगठनात्मक ढांचे को ध्वस्त किये बिना आतंकवाद पर लगाम लगाना सम्भव नहीं है। वे दारूल हरब को दारूल इस्लाम में परिवर्तित करना चाहते हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति में वे लगे हैं। आज एक लादेन मारा गया है और रोज सैकड़ों ओसामा पैदा हो रहे हैं तो इन लादेनों से निजात कैसे मिल सकती है। भारत में तो लादेनों की कमी नहीं है। हर गली एवं शहर में आपको एक लादेन मिल जायेगा। इसके लिए जरूरी है कि इसके मूल में जाना होगा और आतंकवादी विचारधारा को खत्म करना होगा। अन्यथा जब तक इस विचारधारा पर चोट नहीं की जायेगी तब तक ओसामा बिन लादेन जैसे ख्रूखांर आतंकवादी पैदा होकर विश्व समुदाय के समक्ष एक चुनौती के रूप में सामने आते रहेंगे। इसके खात्मे के लिए पूरे विश्व को एक साथ खुलेमन से पहल करनी होगी। अमेरिका को भी अपना रवैया स्पष्ट करना होगा। वह पूरे विश्व में केवल अपनी दादागीरी चलाना चाहता है। वह दूसरे देशों को अस्त्र, शस्त्र एवं कठोर कानून निर्माण एवं प्रयोग से रोकता है और शान्ति का पाठ पढ़ता है उल्टे वह इसके विपरीत आचरण करता है। वह जानता है कि अमेरिका से दी जाने वाली रकम पाक आतंकी गतिविधियों को रोकने के बजाए उसको बढ़ाने में मद्द करता है, लेकिन फिर भी अमेरिका इस को रोकने के बजाए इसमें इजाफा ही करता जा रहा है। वैसे ओसामा के मारे जाने से उसको दी जाने वाली सहायता राशि रोकने की बातें उसके ही देश में उठने लगी हैं।

ओसामा बिन लादेन पाक की मिलिट्री अकादमी की नाक के नीचे मारे जाने से उसका सच एक बार फिर सामने आ गया है। वैसे भारत बार-बार अमेरिका से यह बात उठाता रहा है कि पाक अपने यहाँ आतंकी कैम्पों को बन्द नहीं कर रहा है और अमेरिका से प्राप्त धनराशि को भारत के खिलाफ प्रयोग करता है लेकिन अमेरिका इस बात हमेशा को नजरन्दाज करता रहा है। इस समय पाक किंकर्तव्‍यविमूढ़ की स्थित में है। एक तरफ उसको मुस्लिम कट्टरपंथियों का दबाव झेलना पड़ रहा है तो दूसरी ओर विश्व समुदाय का आक्रोश। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और पाकिस्तानी सेना का आतंकवादियों से सांठगांठ जगजाहिर है। 1947 में पाकिस्तान ने नारा लगााया था कि ‘कश्मीर के बिना पाकिस्तान अधूरा है’ एवं हंस के लिया है पाकिस्तान लड़कर लेंगे हिन्दुस्तान’। इस मंसूबे को अंजाम देने के लिए उसने 1947 में कबाइलियों के वेश में भारत पर हमला कर दिया। लेकिन उनको शिकस्त खानी पड़ी। फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के चलते पाकिस्तान भारत की 80 हजार वर्ग कि.मी. भूमि पर जिसे आज पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं। जो कि जम्मू कश्मीर की कुल भूमि का 40 प्रतिशत बनता है। कब्जा करने में सफल रहा। 1965 में फिर पाकिस्तान ने हमला किया लेकिन उस समय भी हमारी सेनाओं ने पाकिस्तान को लाहौर तक खदेड़ दिया था। 1971 में फिर पाकिस्तान ने प्रयास किया, भारत ने पाकिस्तान को तोड़ कर बंग्लादेश बना दिया। उस युध्द में पाकिस्तान की 93000 हजार सेना को आत्मसमर्पण करना पड़ा था। तब पाक के ध्यान में आया कि प्रत्यक्ष युद्व मे भारत को हराना संभव नहीं है। तब पाकिस्तान के तत्कालीन अध्यक्ष जनरल जिया और विश्व के अनेक नेता तथा अनेक कट्टरपंथी मूवमेंट के नेता एकत्रित हुए और उन्होंने आई.एस.आई. चीफ के नेतृत्व में ‘आपरेशन टोपेक’ को जन्म दिया। जिसको प्रारम्भ में प्राक्सीवार कहा गया। भारत के सन्दर्भ में इसके दो स्लोगन थे। एक था कश्मीर तो बहाना है लाल किला निशाना है’ और दूसरा था ‘Let India should be braken to piece.’ आई.एस. आई. चीफ ने कहा हम भारत में इस प्रकार के आतंक की खेती करेंगे कि पूरा भारत हजारों से अधिक स्थानों से एक साथ रक्तस्राव कर रहा होगा। भयग्रस्त होगा, किंकर्तव्‍यविमूढ़ होगा और आपस में लड़ रहा होगा। इसलिए आपरेशन टोपेक के अन्तर्गत 1972 में इस आतंकवाद को उसने नाम दिया जिहादी आतंकवाद और इसके लिए उसने विभिन्न नामों से आतंकी संगठन खड़े किये गये। आज देश में जिहादी आतंकवाद के 90 गिरोह काम कर रहे हैं। इनका उद्देश्य किसी न किसी तरीके से भारत को कमजोर करना, दिशाहीन करना प्रमुख है।

जेहादी आतंकवाद से आज पूरा विश्व ग्रसित है। इस्लाम का पूरा इतिहास रक्तरंजित है। मुसलमानों ने विशष रूप से जो आक्रामक युध्द क्षमता प्राप्त की उसे जेहाद कहा गया। जब तक जमात ए इस्लामी जिहाद को गैर इस्लामी घोषित नहीं करती तब तक इस्लाम की तुलना आतंक के पर्याय के रूप में की जाती रहेगी। अल्लाह के नाम पर लडाई लडने को जिहाद कहते हैं। मदरसों में जिहाद एवं युद्व की शिक्षा दी जाती है। इस विचारधारा का उदय ही घृणा, हिंसा और छल कपट के लिए ही हुआ है। शाब्दिक अर्थ में जिहाद का अर्थ है- प्रयास इस्लाम ने जिहाद की अवधारणा को अल्लाह के उद्देश्य की पूर्ति के लिए मुस्लिमों के बीच धर्मयुद्व के रुप में प्रस्तुत किया। जिहाद का वास्तविक अर्थ कुरान के शब्दों में इस प्रकार हैर् उनसे युद्व करो जो अल्लाह और कयामत के दिन में विश्वास नही करते जो उस पन्थ को स्वीकार नही करते जो सच का पन्थ है और जो उन लोगों का पन्थ है जिन्हें कुरान दी गई है और तब तक युद्व करो जब तक वह उपहार न दे दें और दीनहीन न बना दिये जायें पूर्णता झुका न दिये जायें’। सूरा 9 आयत 5 , गैर मुस्लिमों के विरुद्व युद्व ही जिहाद है। इस्लाम के अनुसार जिहाद अल्लाह की सेवा के लिए लडा जाता है। इस्लामी शब्दकोश में मुहम्मद साहब के उपदेश में जिनका विश्वास नही है उनके विरुद्व धर्मयुद्व ही जिहाद है। सूरा -2 आयत 193 में कुरान कहता है ‘उनके विरुद्व तब तक युद्ध करो जब तक मूर्ति पूजा पूर्णता: बन्द न हो जाय और अल्लाह के पंथ की विजय सर्वसम्पन्न न हो जाय।

पाकिस्तान हमारी एक तिहाई भूमि पर अवैद्य कब्जा किये हुए है और उसी भूमि पर आतंकी शिविर लगा कर उन्हें जिहाद का प्रशिक्षण देकर भारत के खिलाब प्रयोग करता है। यह सब भारत सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव एवं आतंक के खिलाफ ढ़िलाई को प्रदर्शित करता है। अन्यथा देश मे इतने बडे- बडे हमले हुए फिर भी भारत सरकार चेतावनी एवं अल्टीमेटम के सिवा कुछ नहीं कर पाई। जब भी भारत में कोई भी बड़ा हमला होता है तो भारत हमेशा अमेरिका की तरफ ताकता है। अमेरिका हमें न्याय दिलायेगा? प्रधानमंत्री विरोध जताते हैं, वार्ता नहीं करेंगे ढोंग करते हैं उल्टे फिर वार्ता की पेशकश करते हैं। यह भारतीय प्रधानमंत्री की कमजोरी ही कही जायेगी। भारत सरकार को तो पाक से स्पष्ट रूप से कह देना चाहिए कि अगर वार्ता होगी तो सिर्फ गुलाम कश्मीर पर इससे कम कुछ भी मान्य नहीं है। यही उचित समय है पाक के ऊपर दबाव बनाने का। ‘जग नहीं सुनता कभी दुर्बल जनों का शान्ति प्रवचन’ यह नियति की रीति है कि दुर्बल हमेशा सताये जाते हैं। नियम कानून उन पर लागू नहीं होते हैं। इसलिए अगर शान्ति की ही चर्चा करते रहोगे तो शेष बचा कश्मीर भी हमारे हाथ से निकल जायेगा और भारत का भविष्य भी अधर में पड़ जायेगा। जैये 1962 में हमारे प्रधानमंत्री पंडित नेहरू पंचशाील के सिद्धान्त और हिन्दी चीनी भाई- भाई का राग अलापते रहे और चीन ने भारत पर आक्रमण कर हजारों वर्ग कि.मी. भूमि पर कब्जा कर लिया। संसद भवन, अक्षरधाम वाराणसी में संकटमोचन हनुमान मंदिर अयोध्या में श्री रामजन्मभूमि पर हमला एवं मुम्बई के ताज होटल पर हमला हुआ लेकिन भारत लगातार वार्ता प्रक्रिया को बढ़ा रहा है। अमेरिका से निवेदन कर रहा है। पाक को सबूतों एवं आतंकियों की सूची थमा रहा है फिर भी पाक मानने को तैयार नहीं हो रहा है। भारत को इसके लिए निर्णायक युद्व छेड़ने की आवश्यकता है। पाक से साफ- साफ कहना चाहिए कि गुलाम कश्मीर खाली करो, सारे आतंकवादियों को भारत के हवाले करो अन्यथा हम अपनी शक्ति के बल पर जो भी आवश्यक होगा वह सब करने के लिए बाध्य होंगे।

कृषि भूमि का अमानवीय अधिग्रहण

राघवेन्द्र सिंह

जब गरीब को लगता है, उसके हिस्से की रोटी बड़ी-बड़ी गाड़ियों वाले ले जा रहे हैं। उनके छोटे-छोटे खेत हवेलियों के हवाले किये जा रहे हैं, तो ऐसा ज्वालामुखी फूटना लाजमी है। ऐसी आग तभी धधकती है जब शांत स्वभाव वाले वर्ग को लगता है कि उसका तथा उसके परिवार के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगने जा रहा है। किसानों के खेत औन-पौने दामों में छीन उन्हें झूठे आश्वासनों तथा अल्प मुआवजे की लम्बी कतार में खड़ा करने का प्रयास हो रहा है। यह बात तय है कि यह संघर्ष अचानक नहीं प्रारम्भ हुआ, दावानल एकाएक नहीं भड़का। इसकी जमीन वर्षों से केन्द्र तथा प्रदेश की सरकारों की उनके प्रति उपेक्षा तथा बेरुखी धीरे-धीरे तैयार हो रही थी। हम चीन को लें, वहाँ 62 हजार किलोमीटर हाई वे का निर्माण हो चुका है। एक भी किसान की गोली से हत्या नहीं हुई। सिर्फ उत्तर प्रदेश में नोएडा से मथुरा तक बेहतर मुआवजे की माँग को लेकर 15 लोग पिछले साढ़े तीन वर्षों में मारे जा चुके हैं। चीन में केवल 6-7 स्पेशल इकोनॉमिक जोन बने हैं, जब कि भारत में 1000 से ज्यादा सेज के प्रस्ताव स्वीकृत किये जा चुके हैं। चीन में कृषि जमीन हमसे कम है। वहाँ बेहतर सरकारी व्यवस्था के द्वारा अनाज का उत्पादन 51 करोड़ टन के आस-पास पहुँच चुका है। लेकिन हमारे यहाँ भारत में 21 करोड़ टन के लगभग ही होता है। चीन में वहाँ की सरकार ने स्वयं जिम्मेदारी सम्भाली हुई है। जब कि हमारी सरकार डब्लूटीओ की शर्तों पर चल रही है।

आज देश की सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन करने का विचार कर रही है। जिसका प्रारूप वर्ष 2007 में तैयार भी हो चुका है। लेकिन उसकी सोच में सुधार इतना रक्त बहने के बाद भी नहीं हुआ लगता है। क्योंकि पुराने उक्त कानून में जनहित के जिन बिन्दुओं पर गाँव तथा शहरों का विकास, प्राकृतिक आपदा ग्रस्त क्षेत्रों में रहने वाले भूमिहीनों के लिए जमीन की व्यवस्था विकास परियोजना से प्रभावित लोगों के लिए पुनर्वास आदि की चर्चा थी। उन्हें बदल कर जनहित के मुद्दों और आधारभूत संरचना के विकास की परिधि में खड़ा कर देने का दूषित प्रयास हो रहा है। इसके अतिरिक्त कार्पोरेट सेक्टर को जमीन लेने के मामले में बिल्कुल मुक्त करने का भी खतरनाक यत्न है। उपरोक्त संशोधित विधेयक में।

आज पुराने भूमि अधिग्रहण कानून में व्यापक परिवर्तन की गुन्जाइश है। पूर्व में किसानों के अधिकारों तथा उनके हितों से अधिक राज्य तथा ताकतवर समूहों की रक्षा के लिए भूमि अधिग्रहण कानून बनाया गया था।

पहले तो इसके नाम से ही तानाशाही झलकती है। इसका नाम भूमि अधिग्रहण तथा पुनर्वास अधिनियम या इस जैसा ही होना चाहिए। जिसमें भूमि अधिग्रहण से अधिक पुनर्वास पर बल देना चाहिए। पुनर्वास का अर्थ पहले से अधिक आमदनी तथा बेहतर जीवन होना चाहिए। प्रथम तो कृषक को भूमि के बदले भूमि देने का प्रावधान होना चाहिए। भूमि अधिग्रहण में वास्तविक मांग पर विशेष ध्यान रखना चाहिए, उसे प्रोजेक्ट में कितनी भूमि की आवश्यकता है उसके अनुसार अधिग्रहण की व्यवस्था होनी चाहिए। उक्त अधिनियम 1894 के खण्ड 7 के अनुसार कम्पनियों के लिए भूमि अधिग्रहण प्रावधान समाप्त होने चाहिए। उसके अनुसार कम्पनियों भूमि अधिग्रहण के अधिकार मिले हुए हैं। अधिग्रहण से पहले उसके स्वामी को सूचित कर उसका पक्ष सुनने तथा आपत्तियों का मौका देना चाहिए। भूमि को बाजारू कीमत के आधार पर अधिग्रहित करना चाहिए, तथा वर्तमान बाजार की अधिकतम कीमत उसे मिलनी चाहिए। भूमि अधिग्रहण की एक पारदर्शी तथा समयबध्द योजना बनाई जाय। जिसमें उसकी भूमि की कीमत जल्द से जल्द तथा एक ही भाग में दी जाय जिससे वे उक्त धन का उपयोग बेहतर तरीके से कहीं अन्यत्र कर सकें। भूमि अधिग्रहण मुआवजा वाद कृषि भूमि का अमानवीय अधिग्रहण तथा शिकायतों की सुनवाई एक अलग स्वतंत्र डिवीजन के माध्यम से की जाय। जिसमें उसके निर्णय की समय सीमा निर्धारित हो तथा उसे लम्बे मंहगे तथा अन्तहीन मुकदमेबाजी के मार्ग से न गुजरना पड़े। एवं उसकी शिकायतों का तेजी से निपटारा हो सके। जिसके लिए भूमि अधिग्रहित की जाय उसका उपयोग सिर्फ उसी योजना में किया जाय। किसी अन्य में नहीं। यदि कोई अधिग्रहित भूमि एक निश्चित अवधि तक उपयोग में न लाई गई हो तो उसे पुन: उसके पूर्व स्वामी को या उसके वारिसों को वापस लौटा दी जाय।

भूमि अधिग्रहण से पहले सरकार को किसानों के मानवीय पहलुओं पर विचार कर देखना चाहिए कि किसान का अपनी जमीन से क्या रिश्ता होता है। वह भूमि उसके लिए कर्मभूमि होती है। जो उसका सम्मान तथा मर्यादा भी होती है। वह उसे किसी भी कीमत पर बेच नहीं सकता, उससे उसका सम्मान तथा मर्यादा छीनने का हक भी किसी को नहीं है। यदि उसकी मर्यादा से छेड़-छाड़ होगी तो संघर्ष भी होगा। जिस देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि आधारित है वहाँ उसकी बिना इच्छा के जबरन उससे जमीन छीनना एक दुर्भाग्य तथा यह दर्शाती हैं कि राज्यीय तथा केन्दीय सरकारें किसानों के प्रति कितनी संजीदा हैं।

यदि प्रस्तावित जमुना एक्सप्रेस वे या गंगा एक्सप्रेस वे बनता है तो निश्चित ही कांस्ट्रक्शन कम्पनी के वारे-न्यारे होंगे। इलाके का विकास भी होगा तथा राज्यों की कमाई भी बढ़ेगी। अकेले उत्तर प्रदेश में 14 लाख लोग बेघर होंगे। सिर्फ उसे मिलेगा मुट्ठीभर पैसा जिसका एक भाग उसे उक्त अपनी जमीन के मुवाजे को उठाने के चक्कर में चढ़ावे की भेंट चढ़ जायेगा। जिसके लिए उसे करना होगा एक लम्बा इन्तजार। सिर्फ उत्तर प्रदेश में लगभग डेढ़ लाख हेक्टेअर उपजाऊ जमीन जमुना एक्सप्रेस वे तथा गंगा एक्सप्रेस वे के नाम पर ली जा रही है। वह भी निजी कम्पनियों द्वारा जो 35-40 वर्षों तक टोल टैक्स की वसूली करेंगी। मतलब इतने वर्षों तक दीर्घ कालीन मुआवजे की पक्की गारंटी। यदि हम विचार करें, गंगा एक्सप्रेस वे और जमुना एक्सप्रेस वे में जिस जमीन को अधिग्रहित कर सरकार सड़क बनाना चाहती है उस कृषि भूमि पर होनेवाली खेती कहीं अन्यत्र नहीं हो सकती। सरकार को ऐसी सीमित भूमि को अधिग्रहित करने के पूर्व सौ बार विचार करना चाहिए।

देश का किसान अपनी कृषि भूमि को बचाने के लिए सड़कों पर है। खूनी संघर्ष हो रहे हैं, क्या यह अधिग्रहण है या लूट ?गाजियाबाद की ट्रॉनिका सिटी में लगभग 200 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से किसानों से ली गई जमीन लगभग 20 हजार रुपये प्रतिवर्ग मीटर की दर से बेची गई। यह क्या है ?क्या सरकारी व्यवस्था की आड़ में डकैती नहीं लगती? 1950 के दशक में पश्चिमी बंगाल सरकार ने हुगली जिले में जीटी रोड व मेन ईस्टर्न लाइन के मध्य 750 एकड़ जमीन बिड़ला गु्रप को अधिग्रहित की थी परन्तु आज तक मात्र 300 एकड़ ही प्रयोग की गई। शेष 450 एकड़ भूमि अभी भी बेकार पड़ी है। क्या उपरोक्त अधिग्रहण उचित था? आज तामिलनाडु सरकार 50 लाख एकड़ सरकारी जमीन बहुराष्ट्रीय व निजी कम्पनियों को सौंप चुकी है। किसानों की जमीन हड़पने की तैयारियाँ राज्य तथा केन्द्रीय सरकारों के स्तर पर कीं जा रही हैं। माडल सिटी के नाम पर जेपी समूह 5 गाँवों के किसानों की जमीन का मात्र 446 रुपये प्रतिवर्ग मीटर की दर से मुआवजा दे रहे हैं तथा उसे 5,500 रुपये की दर से बेचा जा रहा है। इसी प्रकार 880 रुपये प्रतिवर्ग मीटर की दर से लेकर 6,200 रुपये वर्ग मीटर की दर से बेचने का प्रयास हो रहा है।

18वीं शताब्दी के आस-पास इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति हुई। फिरंगियों ने भारत में 1894 में पहला भूमि अधिग्रहण कानून बनाया। विडम्बना देखिये वही कानून हमारे देश में 100 वर्षों तक बिना किसी बड़े परिवर्तन के शासन करता रहा। उपरोक्त वर्षों में जनसंख्या में बेतहासा वृध्दि के कारण वर्तमान उपरोक्त कानून बिल्कुल ही गैर मानवीय हैं। वैसे भी अंग्रेजों ने उपरोक्त कानून जनपक्षीय न बनाकर स्वयं तथा औद्योगिक घरानों के हित में तैयार किये थे। केन्द्र की कांग्रेस सरकान ने अपनी प्रथम पारी के वर्ष 2007 में सोनिया गाँधी की अध्यक्षता में नया संशोधित विधेयक तैयार किया था। लेकिन उत्तर प्रदेश में लगातार खूनी संघर्ष हो रहा है। निश्चित ही परोक्ष रूप से खूनी संघर्ष के विषय में उनकी भी जिम्मेदारी बनती है। बिडम्बना देखिये केन्द्र की सरकार जिस भूमि अधिग्रहण विधेयक को वर्षों से लटकाये है उसी के नुमाइन्दे तथा युवराज राहुल गाँधी नोएडा जाकर अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंक उत्तर प्रदेश 2012 विधान सभा चुनाव की जमीन तलाश रहे हैं। उत्तर प्रदेश से पूर्व पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश सहित अन्य प्रदेशों में अधिग्रहण के विरोध में हिंसक प्रदर्शन किये। लेकिन केन्द्र की सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगना सिर्फ इस बात की तरफ इंगित करता है कि भारत का ‘कृषि प्रधान स्वरूप’ सरकारी एजेंडे में किस पायदान पर है।

भूमि अधिग्रहण कानून जिसके अनुसार आज जनहित के नाम पर सरकार जब चाहे जिसकी चाहे जबरन जमीन ले सकती है। जन हित के मानक क्या हैं ?उसके पैमाने क्या हैं? क्या लाखों परिवारों को बेघर कर सिर्फ सर्किल रेट पर जमीन की कीमत जबरदस्ती दे देना जनहित की श्रेणी में आता है, विचारणीय है? गाँव की कृषि भूमि का सर्किल रेट वर्तमान बाजारू मूल्य से कई गुना कम होता है जो जनहित के नाम पर जबरन छीन ली जाती है। केन्द्र की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने वर्ष 2002 में उस पुराने अधिग्रहण कानून को परिवर्तित कर दिया था जिसके माध्यम से कोई भी विदेशी कम्पनी भारत में खेती की जमीन खरीद कर अथवा ठेके पर ले, खेती कर सकती है। लेकिन आज केन्द्र में सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली सरकार जो संशोधिक विधेयक ला रही है। उसमें बहुत सी सिफारशें अनुचित प्रतीत होती हैं जैसे कोई संगठन, ढाँचा, कम्पनी सार्वजनिक उद्देश्य के तहत कोई परियोजना प्रारम्भ करना चाहती है तो उसे मात्र 70 प्रतिशत भूमि क्रय करनी होगी। शेष 30 प्रतिशत की व्यवस्था अधिग्रहण के माध्यम से राज्य सरकार करेगी। उक्त में आकस्मिक अधिग्रहण के मुआवजों को विशेष प्रावधान में रखा गया है। परन्तु आकस्मिक अनिवार्यता को परिभाषित नहीं किया गया है। कुल मिलाकर नया भूमि अधिग्रहण संशोधित विधेयक वर्ष 2007 भी जन सामान्य या किसानों के हित में न जाकर पुन: 1894 के अंग्रेजों के बने भूमि अधिग्रहण कानून की तरह ही प्रतीत हो रहा है।

आज उत्तर प्रदेश में ही नहीं देश के अन्य भागों में भी किसानों की जमीन की अंधाधुन्ध लूट हो रही है, जैसे सरकारें यह मान बैठी हैं कि कमी पड़ने पर भूमि भी अन्य उत्पादनों की तरह फैक्ट्री में तैयार कर ली जायेगी। कुछ प्रबुध्द जनों की राय के अनुसार कृषि भूमि का बेहतर उपयोग विकास के लिए होना चाहिए। ऐसा लगता है जैसे वह आवश्यकता पड़ने पर ‘मालों’ या लम्बी-लम्बी सड़कों पर खेती करने लगेंगे। आज कृषि भूमि का जबरन सरकारी ओट में छीना जाना सिर्फ कृषक का ही विषय नहीं रहा। बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज का विषय हो गया है। यदि ऐसा चलता रहा तो निश्चित ही मानव सभ्यता खतरे में पड़ जायेगी। बचेंगी सिर्फ कंक्रीट की सड़कें तथा उसके घने जंगल।

भू-अधिग्रहण पर ब्रिटिश कानून का साया

राजेन्द्र राठौर

भारत में तेजी से बढ़ते औद्योगीकरण के कारण घटती कृषि भूमि को लेकर अकेले उत्तरप्रदेश ही नहीं, बल्कि देश के कई राज्यों के किसानों में भारी आक्रोश है। भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर उत्तरप्रदेश के नोएडा से भड़की चिंगारी आज अन्य क्षेत्रों में भी तेजी फैल रही है। इस सारे फसाद की जड़ 100 वर्ष से भी पुराना ब्रिटिशकालीन भूमि अधिग्रहण कानून है। ब्रिटिशकालीन कानून को संशोधित करने के आश्वासन के बाद भी कांग्रेसनीत यूपीए सरकार अपने कदम आगे नहीं बढ़ा पा रही है, लेकिन इस मसले को लेकर प्रमुख पार्टियों के नेता राजनीति जरूर कर रहे हैं।

औद्योगीकरण के लिए जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया उत्तर प्रदेश ही नहीं, कई राज्यों की सरकार ने जब से शुरू कराई है, तभी से बखेड़ा शुरू हुआ है। हालात ऐसे हैं कि सभी राज्यों के किसान अपनी जमीन की अधिक कीमत मांग रहे हैं, इसके अलावा उन्हें औद्योगिक विकास में अधिक से अधिक हिस्सेदारी भी चाहिए। उत्तरप्रदेश राज्य की बात करें तो वर्तमान में यहां कई बड़ी परियोजनाएं चल रही हैं, जिनके लिए भूमि अधिगà ��रहण किया जाना है, लेकिन सरकार व उद्योगपतियों द्वारा किसानों की मांग को बिल्कुल अनदेखा किया जा रहा है। जबकि यह कोई ऐसा मसला नहीं है, जिसे सुलझाया न जा सकता हो। औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमि अधिग्रहण को लेकर आज कई राज्यों में ऐसी स्थितियां हैं, जहां के किसान अपने हक के लिए आए दिन आंदोलन कर रहे है। इसी वर्ष जनवरी में छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के किसानों ने हैदराबाद की कंपनी केए सके द्वारा स्थापित किए जा रहे महानदी पावर प्लांट को कम कीमत पर जमीन देने से इंकार करते हुए करीब डेढ़ माह तक आंदोलन किया था। किसान किसी भी स्थिति में राजी होने को तैयार नहीं थे, अलबत्ता जिला प्रशासन को मध्यस्थ बनकर पावर कंपनी व किसानों के बीच समझौता कराना पड़ा। इसके ठीक दो माह बाद ही यानी मार्च में गुजरात के वड़ोदरा क्षेत्र के सौ से अधिक गांवों के किसानों ने भूमि अधिग्रहण को लेकर रा�¤ �्य सरकार की वर्तमान नीति का जबरदस्त विरोध किया था। जमीन अधिग्रहण के प्रश्न पर महाराष्ट्र के जैतापुर, आंध्र प्रदेश और ओडिशा से लेकर हिमाचल प्रदेश तक लगभग पूरे देश में आज विरोध और विद्रोह के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। एक तरह से औद्योगीकीकरण से घटती कृषि भूमि को लेकर अमूमन सभी राज्यों के किसान सड़क पर उतर आए है, वे अपनी मातृभूमि को बचाने जान तक देने को तैयार है, जबकि उन राज्यों में किसान ों के दम पर ही चुनी गई सरकारें उनके विरोध में नजर आ रही है। हालांकि राजनैतिक मंचों में नेता अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किसानों के पक्ष में लंबी चौड़ी बातें जरूर करते देखे व सुने जाते हैं, लेकिन जहां पूंजीपतियों व उद्योगपतियों के हित की बात आती है, वहां सरकार व नेता आंखे मूंदकर किसानों की गर्दन मरोड़ने में बिल्कुल भी परहेज नहीं कर रहे हैं। मसलन वर्तमान में हालात ऐसे बन गए है कि व ैश्वीकरण के इस दौर में भारत ही नहीं, चीन के किसानों को भी अपने हक के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। चौकाने वाली बात यह है कि पिछले एक दशक में भूमि मामले को लेकर चीन में 70 हजार से अधिक आंदोलन हुए हैं।

पिछले शनिवार को उत्तरप्रदेश के ग्रेटर नोएडा के भट्टा पारसौल गांव में किसानों और पुलिस के बीच जो खूनी जंग शुरू हुई थी, वह अब बुलंदशहर, अलीगढ़ और आगरा यानी पूरे यमुना एक्सप्रेस-वे तक फैल चुकी है। भट्टा पारसौल में किसान व पुलिस के बीच जो कुछ भी हुआ, उसे उत्तरप्रदेश सरकार की अदूरदर्शिता का नतीजा ही कहा जा सकता है। यहां के किसान सरकार व प्रशासन से नाराज थे, लेकिन वे सरकार के समक्ष अपना प क्ष रखना भी चाहते थे। मगर कुछ कथित किसान नेताओं ने किसानों को भड़काकर आग में घी छिडकने का काम कर दिया। इस मामले में प्रशासन से भी गलती हुई। प्रशासन ने आंदोलन के शुरुआत में तत्परता दिखाई, लेकिन बाद में वह भी सुस्त पड़ गया। एक तरह से देखा जाए तो किसानों के आंदोलन के लिए सौ वर्ष पुराना ब्रिटिशकालीन भूमि अधिग्रहण कानून ही पूरी तरह से जिम्मेदार है। भूमि अधिग्रहण कानून भारत को अंग्रेजोà �‚ से विरासत में मिला हुआ है, जिसे ब्रिटिश सरकार ने 1894 में लागू किया था। जिसके अनुसार, सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए किसी की भी भूमि अधिग्रहित की जा सकती है। ब्रिटिश सरकार ने 19 वीं सदी में देश की भूमि बंदोबस्त व्यवस्था में जबरदस्त ढंग से फेरबदल किया, जिसका जमकर विरोध भी हुआ, लेकिन कानून में फेरबदल करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। भारत आज अंग्रेजों की गुलामी से भले ही आजाद हो गया है, लेक�¤ �न यहां के किसान व आम लोग अब भी अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए सौ साल पुराने भू अधिग्रहण कानून के चक्कर में पिस रहे हैं। गौर करने वाली बात यह है कि, इस पूरे विवाद की जड़ सौ साल पुराने ब्रिटिशकाल भूमि अधिग्रहण अधिनियम को बताना, न केवल बचकाना है, बल्कि राज्य सरकारों, नौकरशाहों और राजनीतिक दलों द्वारा अपनी जिम्मेदारियों से बच निकलने के बहाने जैसा भी है। आखिर इस कानून को बदलने से किसने र�¥ �का है? हालांकि इस कानून को बदलने यूपीए सरकार के प्रथम कार्यकाल में एक संशोधित विधेयक 2009 में लाया गया, लेकिन यह विधेयक किन्ही कारणों से पारित नहीं हो सका। भूमि अधिग्रहण के मामले में एक अहम बात यह भी है कि सभी राज्यों के अपने-अपने अधिग्रहण विधेयक हैं, इन विधेयकों या कानूनों में एकरूपता नहीं है। इस वजह से भी किसान व आम जनता को अपनी भूमि का वाजिब दाम नहीं मिल पा रहा हैं। देश में हरियाणà �¾ ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां समझौते के आधार पर किसानों की भूमि अधिग्रहित की जा रही है। ऐसे में हरियाणा का मॉडल रखते हुए अन्य राज्यों के किसान केन्द्र सरकार से वहां की भूमि अधिग्रहण नीति को देश भर में लागू किए जाने की मांग कर रहे हैं।

भूमि अधिग्रहण विधेयक को कानून की शक्ल देने की राह में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार, 8 माह पहले आश्वासन देने के बाद भी अपने कदम ज्यादा आगे नहीं बढ़ा पाई है। इस वजह से मायावती सरकार को कोसने वाली कांग्रेस पार्टी के नेता, आंदोलित किसानों के पास जाकर अपनी बात रखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे थे। पार्टी के महासचिव राहुल गांधी किसानों का समर्थन करने जिस तरह से मुंह अंधेरे उत्तरप्रदेश पहु�¤ �चे, यह बात किसी आश्चर्य से कम नहीं है। पुलिस व किसानों के संघर्ष के बाद, विकास के द्वंद्व से गुजर रहे भट्टा पारसौल में जिस तरह राजनीतिक सरगर्मी बढ़ी है, उसने उत्तर प्रदेश में आगामी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव की जमीन तैयार कर दी है। किसानों के आंदोलन को समर्थन करने भट्टा पारसौल पहुंचने वालों में राहुल गांधी अकेले नहीं हैं, बल्कि समतापार्टी, भारतीय जनता पार्टी, लोक दल से लेकर जनà ��ा दल यूनाईटेड सहित छोटी-बड़ी तमाम पार्टियों के नेता भट्टा पारसौल पहुंच रहे हैं या पहुंचने की रणनीति बना रहे हैं, जिन्हें किसान आंदोलन के बहाने केवल अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने से मतलब है। हालांकि माया सरकार ने इस बात से ही इनकार कर दिया है कि वहां किसानों के मुआवजे का कोई मसला भी है। किसानों के आंदोलन को समर्थन देने के बहाने भट्टा पारसौल में जिस तरह का राजनीतिक दबाव बन रहा है, उससे प्रदेश सरकार के लिए आने वाले दिन कठिन हो सकते हैं। एक अहम् बात यह भी जब कभी औद्योगिक परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहित की जाती है, तब किसान ठगा महसूस क्यों करता है? इसकी वजह यह है कि सियासी टकराव की वजह से हर बार किसानों के असली मुद्दे किनारे रह जाते हैं। कमोबेश उत्तरप्रदेश ही नहीं, बल्कि कई राज्यों के किसान व लोगों के बीच यह आम धारणा बन चुकी है कि राज्य सरकारें, उद्योगपतियों के एजे ंट की तरह काम कर रही है।

इधर देश के कई राज्यों में बढ़ते किसान आंदोलन से चिंतित केन्द्र सरकार, अब बरसों से लटके भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक तथा राहत और पुनर्वास विधेयक को संसद के अगले सत्र में पेश करने की बात कह रही है, जिससे स्थिति में कुछ सुधार होने की गुंजाईश है। बहरहाल, औद्योगिक विकास के समर्थक यह मान बैठे हैं कि किसानों से जब चाहे, जमीन ली जा सकती है। यदि किसान आसानी से अपनी जमीन देने तैयार न हो तो उनकीजमीन नियम-कायदों के तहत् जबरिया हड़पी भी जा सकती है। यही वजह है कि जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश नही, बल्कि भारत के कई राज्य सुलग रहे हैं।

मधुमेह (डायबेटिज)

आर. सिंह

सर्वप्रथम मैं यह बतलाना चाहूँगा कि मधुमेह एक भयंकर रोग है और इसका नियंत्रण पीडि़त व्यक्ति के इच्छाशक्ति पर निर्भर है.

मधुमेह के बारे मे यहाँ जो जानकारी दी जा रही है, वह एक सामान्य जानकारी है और मधुमेह के रोगियों को एक दिशा निर्देश देने के लिये है.अतः आगे कुछ भी लिखने के पहले मैं यह बताना अपना कर्तव्य समझता हूँ कि मधुमेह से यहाँ उस बीमारी को समझा जाये जिसे मधुमेह के द्वितीय श्रेणी में गिना जाता है जिससे साधारणतः व्यस्क पीडित होते हैं और जिसकी रफ्तार दिनों दिन बढती जा रही है.

मधुमेह की बीमारी मे दवा से ज्यादा नियन्त्रित आहार और व्यायाम का महत्व है.नियन्त्रित आहार मधुमेह चिकित्सा का एक महत्व पूर्ण अंग है. मधुमेह के नियंत्रण के लिये नियन्त्रित आहार या तो अकेले या आवश्यकतानुसार दवाओं के साथ व्यवहार में लाया जाता है. यह प्रायः देखा गया है कि जिन लोगों ने मधुमेह की प्रारंभिक अवस्था में नियंत्रित आहार और उचित व्यायाम पर ध्यान दिया उन्हें वर्षों तक दवाओं का सेवन नहीं करना पडा और वे स्वस्थ जीवन बिताने में कामयाब रहे.उनलोगों को एक अतिरिक्त लाभ यह हुआ कि वे सामान्यतः अन्य रोगों से भी पीडित नहीं हुए,इसलिये उन्हें किसी भी प्रकार की दवा का यदा कदा ही सेवन करना पडा. इसके विपरीत मधुमेह के जिन रोगियों ने आरम्भ से ही इस बीमारी को गम्भीरता से नहीं लिया उन्हें बहुत परेशानियाँ उठानी पडी.

मधुमेह के रोगियों के लिये नियंत्रित आहार के मामले में कुछ बातें महत्व पूर्ण हैं;

1.क्या खाना है और क्या नहीं खाना है?

2.कब खाना है?

3.कितना खाना है?

इसमें यह भी जोडा जा सकता है कि कहाँ खाना है?

उपरोक्त बातें ऐसे तो सबके लिए महत्व पूर्ण हैं,पर मधुमेह नियंत्रण में इनका बहुत ज्यादा महत्व है.एक खास बात यह है कि मधुमेह से कभी भी छुटकारा नहीं पाया जा सकता है,पर इसे नियंत्रित कर एक स्वस्थ जीवन जिया जा सकता है.

मधुमेह का आहार निर्धारित करते समय पहले ध़यान रखना है,शक्ति की आवश्यकता का(Calorie requirement),दूसरा ध्यान रखना है कि कितना कIर्बोहाइड्रेट,कितना प्रोटीन,कितना फाइवर भोजन में होना चाहिए. नियंत्रित आहार के लिए इनकी निश्चित मात्रा निर्धारित करना आवशयक है.

मधुमेह के साथ या उससे पहले भी अन्य उलझने भी पैदा हो जाती हैं,जैसे मोटापा,उच्च रक्त चाप इत्यादि.इन सबके लिये खास ध्यान आवश्यक है.

मधुमेह के रोगियों के लिए कुछ खाद्य पदार्थ वर्जित हैं.कुछ खाद्य पदार्थ ऐसे हैं,जिन्हें सीमित मात्रा में लिया जा सकता है और कुछ खाद्य पदार्थ ऐसे हैं जिन्हें असीमित मात्रा में लेने में भी कोई हानि नहीं है.

A.वर्जित खाद्य पदार्थ

1.जमीन के अंदर पैदा होने वाली कोई भी सब्जी जैसे आलू, शकरकंद,जिमीकंद इत्यादि,पर मूली,प्याज और गाजर अपवाद हैं.ये तीनों बिना रोक टोक के खाये जाने वाले पदार्थों में गिने जाते हैं. आलू और शकरकंद को चावल या रोटी के बदले खाया जा सकता है.ऐसे तो नवीनतम शोध के अनुसार शकरकंद(sweet potato) को भी मधुमेह के रोगियों के द्वारा सीमित मात्रा में लिए जाने वाले पदार्थों में गिना जाने लगा है, पर अभी यह सर्वमान्य नहीं है.

2.केला,आम,चिक्कू,शरीफा,अनानाश,अंगूर,तरबूजे(पहले यह वर्जित फल नहीं था,पर इसमें ग्लूकोज के सघनता के कारण इसे अब वर्जित फल की श्रेणी में कर दिया गया है)इत्यादि.

3.चीनी,गुड या इनसे बनी हुई कोई भी मीठी चीज यानि विभिन्न प्रकार की मिठाइयाँ,शहद,क्रीम बिस्कुट,ओवल्टीन,हारलिक्स,मलाई वाला दूध इत्यादि.

4. कोई भी तला या छना हुआ पदार्थ चाहे वह नमकीन हो या मीठा.इस श्रेणी में पुए,पूडी,कचौडी,भटूरे इत्यादि आएंगे.

B.सीमित मात्रा में खाए जाने वाले पदार्थः

1.रोटी,चावल,ब्रेड,चिउडा,दलिया इत्यादि.

2.ताजे फल–सेव,नासपाती,अमरूद,पपीता(कच्चा या पका),संतरा,बडा नींबू( Grape Fruit),खरबूजे

3.सूखे फल–बादाम, अखरोट.

4. बिना मलाई का दूध, दही, पनीर.

5.मीठा या नमकीन बिस्कुट (क्रीम बिस्कुट नहीं)

6. 6.मछली,मुर्गा,अंडा

7.सब तरह की दालें.

8.तेल और घी(बहुत सीमित मात्रा में).

C.बिना रोक टोक के खाये या पीये जाने वाले पदार्थः

1.पानी या नींबू पानी,छाछ(सादा या नमकीन)

2.बिना चीनी और दूध की चाय

3.विभिन्न प्रकार के मसाले (स्वादानुसार)

4.सब हरी सब्जियाँ जैसे सब प्रकार के साग(पालक ,सरसो,बथुआ,चौलाई इत्यादि),ब्रौकली,घीया,कद्दू,तोरी,पेठा,परवल,बीन,सेम,ककदी,खीरा,करेला,फूल गोभी,पत्ता गोभी,गाँठ गोभी,प्याज,टमाटर,मूली,गाजर,हरी मिर्च,शिमला मिर्च,बैगन इत्यादि.

5.फलों में,जामुन

उपर्युक्त सूची उदाहरण के तौर पर तैयार की गयी है.इसमें श्रेणी अनुसार अन्य चीजें भी जोडी जा सकती हैं.

ये तो रहा कि क्या खाना है और क्या नहीं खाना है.अब प्रश्न उठता है कि कब खाना है और कितना खाना है?

जहाँ तक कब खाने का प्रश्न है तो यह ध्यान रखना है कि मधुमेह के रोगियों को भूख और प्यास ज्यादा लगती है.अतः खाने पीने के मामले में मधुमेह के रोगी बषुत तत्पर दिखाई देते हैं.जहाँ तक पीने का प्रश्ना है मधुमेह के रोगी के लिये शराब इत्यादि पर तो पूर्ण प्रतिवंध है हीं, उनके लिये किसी तरह का साफ्ट पेय भी हानिकारक है.मधुमेह का रोगी असीमित मात्रा में पानी,नींबू पानी, बिना दूध और चीनी का चाय और सादा या नमकीन छाछ पी सकता है.खाने में उबली हुई हरी सब्जियाँ और साग,कच्चे खीरा और ककडी असीमित मात्रा में ले सकता है. पर केवल ऐसा करने से आहार का संतुलन नहीं बनेगा और न आवश्यक शक्ति ही मिल पायेगी.अतः अन्य भोजन भी आवशयक है.इसमें दो बातों का ध्यान रखना है,एक तो आहार सीमित मात्रा में होना चाहिए,दूसरा उसके बीच का अंतराल ( Interval) भी ज्यादा नहीं होना चाहिए.सीमित मात्रा में कम अंतराल में भोजन करने से और नियमित रूप से व्यायाम करने से खून में चीनी की मात्रा का संतुलन बना रहता है.ऐसे तो अधेड या अधिक उम्र वाले रोगियों के लिए दिनभर में साधारणतः 1400 से 1600 किलो कैलोरी का भोजन होना चाहिए,पर इसकी सीमा निर्धारण डाक्टरों का काम है,अतः इस पूरे प्रोग्राम को अपने डाक्टर को दिखा कर हीं व्यवहार में लाना चाहिए.

संतुलित शाकाहारी भोजन का एक उदाहरण.

(सुबह से शाम तक)

सुबह नाश्ते से पहले (6 बजे से 7 बजे)-एक या दो कप चाय बिना चीनी और थोडे दूध के साथ या 1 कप बिना मलाई वाला दूध.

सुबह का नाश्ता(8 बजे);- 2 चपाती या 2 ब्रेड,1कप हरी सब्जी,1 कप दही.

अगर आवश्यकता महसूस हो तो बिना चीनी के चाय या काफी पी जा सकती है.पानी या नींबू पानी प्यासानुसार असीमित मात्रा में लिया जा सकता है.अगर भूख न मिटे तो बिना रोक टोक खाये या पिये जाने वाले श्रेणी से कुछ भी लिया जा सकता है.

दोपहर के भोजन से पहले(10 से 10.30 के बीच); 1कप पका पपीता,या 1 कप खरबूजा,एक सेव या एक अमरूद या नासपाती या अन्य मौसमी फल इसी अनुपात में

दोपहर का भोजन(12 से 1 बजे के बीच);

2 चपाती या 1कप चावल.

1कप बैगन,फूल गोभी या बंद गोभी की सब्जी

1 कप साग,भिंडी या इसी तरह की कोइि अन्य सब्जी.

किसी भी सब्जी को बनाने में ध्यान यह रखना है कि तेल बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल किया जाये पर स्वाद के अनुसार कम या ज्यादा मसालों का इस्तेमाल किया जा सकता है.

1 कप दाल.

टमाटर,खीरा,ककडी ,मूली या अन्य सब्जियाँ सल्लाद के रूप में असीमित मात्रा में

शाम का नाश्ता(4 से 5 बजे);

1 कप कटा हुआ फल( खरबूजे पपीताया अन्य मौसमी फल),पोहा या अन्य कोई कम कैलोरी वाली चीज.

बिना चीनी के चाय.

शाम का भोजन(रात्रि 8 बजे); करीब करीब उसी तरह का भोजन जिस तरह दोपहर का.सब्जियों की मात्रा बढाई जा सकती है.पेट नहीं भरे तो ज्यादा मात्रा में सलाद लिया जा सकता है.

सोने के समय(रात्रि 10 बजे);1 कप मलाई रहित दूध ,बिना चीनी के.

उपर्युक्त तालिका एक सांकेतिक तालिका है.इसमें सीमा के अंदर रह कर बदलाव किया जा सकता है.ध्या रखने की बात यही है कि रोटी या चावल की मात्रा सीमित रखनी है.अगर आलू,शकरकंद इत्यादि खाने का मन करे तो रोटी या चावल के बदले उसी अनुपात में उनको लिया जा सकता है.

भोजन हमेशा एक ही समय लेने की कोशीश करनी चाहिए. आहार इस तरह का हो कि उसमें प्रत्येक पौष्टिक तत्व निर्धारित मात्रा में मौजूद हो.रोटी या चावल की मात्रा सीमित रखनी है.दाल,सब्जी,दूध या दही की मात़रा में थोडा फेर बदल किया जा सकता है.छाछ या सत़तू का पतला घोल ज्यादा से ज्यादा लिया जा सकता है.पानी या नींबू पानी पीने पर कोई रोक टोक नहीं है.

एक बात और.मधुमेह के रोगियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हुए भी यह मधुमेह की चिकित्सा और नियंत्रित भोजन से अलग है. वह है मेथी दाना ( fenugreek seeds) और दालचीनी( cinnamon) का नियमित प्रयोग.मेथी खाने का एक अच्छा तरीका यह है कि चाय के चम्मच से पाँच या छः चम्मच ( करीब 25 या 30 ग्राम) मेथी को रात में पानी में भिंगो दिया जाए,फिर उसमें से आधा भाग दोपहर के भोजन के 10 मिनट पहले खा लिया जाए.बचा हुआ आधा मेथी उसी तरह रात्रि भोजन के दस मिनट पहले खा लिया जाए.पानी अंदाज से इस तरह लेना चाहिए कि मेथी के फूलने के लिए काफी हो.ऐसे भी मेथी के साथ अगर पानी भी पी लिया जाए तो लाभकरी ही होगा. दूसरी वस्तु है दालचीनी. पीसा हुआ दालचीनी एक चाय के चम्मच(4 या 5 ग्राम) सुबह में खाली पेट या नाश्ते के साथ लेना लाभदायक होता है

नियमित व्यायाम और दवा का सेवन भी आवश्यक है .मधुमेह के रोगियों के लिए नियमित व्यायाम उतना ही आवश्यक है जितना नियंत्रित भोजन.व्यायाम के लिए दिन में कम से कम तीन किलोमीटर तीव्र गति से चलना आवश्यक है.टहलने का काम सुबह या शाम कभी भी किया जा सकता है,नियमितता आवश्यक है.प्रति दिन के कार्यक्रम में नियमितता आने से दवा की आवश्यकता कम हो सकती है,अतः उसकी मात्रा चिकित्सक से परामर्श के बाद कम या ज्यादा की जा सकती है.

इंसाफ के लिए लड़ रहे जैन को न्याय कब मिलेगा ?

बेटे-बेटी और मां को खो चुके मध्यप्रदेश के एक नागरिक की दिल दहला देनी वाली कहानी

देवाशीष मिश्रा

भारतीयों ने जब अंग्रेजों से भारत छोड़ने को कहा तो उसके पीछे कई कारण थे, जिसमें क प्रमुख बात थी, भारतीयों को न्याय न मिल पाना।अंग्रेजी सरकार व न्यायपालिका भारतीय जनता के साथ न्यायसंगत व्यवहार नहीं कर रही थी। इन्हीं मूलभूत मुद्दों को लेकर हमने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की। आज देश को आजाद हुए लगभग 63 साल हो गये हैं, लेकिन मध्यप्रदेश के दमोह जिले के निर्मल जैन के प्रकरण को देखकर लगता है कि हम आज भी अंग्रेजी शासन व्यवस्था की बुराईयों से उबर नही पाए हैं। ऐसा नहीं है कि सरकारें या न्यायपालिका पूरी तरह भ्रष्ट हैं, लेकिन इसी लोकत्रांतिक व्यवस्था में निर्मल जैन जैसे लोग भी हैं जिनको न्याय नहीं मिल पा रहा है।

 

1975 में आपातकाल के विरोध में एक साल से ज्यादा मीसा के तहत दमोह जिले के जेल में रहने के बाद से जैन की जिन्दगी तबाह हो गयी। जेल जाने से पूर्व वह दमोह जिले के केंद्रीय सहकारी बैंक की बिजौरी ग्राम सेवा सहकारी समिति में प्रबंधक थे।जैन के अनुसार आपातकाल का विरोध करने के कारण तत्कालीन बैंक अध्यक्ष ने उन पर 4816.40 रू. के झूठे गबन का आरोप लगाकर 1978 में नौकरी से निकाल दिया। उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 409 के तहत एफआईआर भी दर्ज करा दी। 1978 से 1993 के बीच 16 सालों तक निचली अदालत में चले मुकदमें में अभियोजन पक्ष उनके गबन संबंधी सबूत पेश न कर सका। परिणामस्वरूप निचली अदालत ने जहाँ एक ओर निर्मल जैन को इस प्रकरण से बरी किया, वहीं दूसरी तरफ उनके खिलाफ बनाए गए झूठे गबन के आरोप के लिए बैंक प्रबंधक के विरूध्द आईपीसी की दफा 406 के तहत मुकदमा भी दर्ज किया। बैंक प्रबंधक ने इस फैसले के खिलाफ पहले सत्र न्यायालय और फिर हाईकोर्ट में अपील की। लेकिन दोनों जगहों पर उनकी अपील खारिज हुई। सोलह सालों तक चले इस मुकदमें के फैसले के बाद निर्मल जैन ने राहत की सांस ली। लेकिन उन्हें क्या पता था कि इंसाफ की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है।

भारतीय सरकारी तंत्र की कार्यशैली का एक दूसरा भयावह रूप अभी दिखना बाकी था। 25 जनवरी 1993 को न्यायालय से दोषमुक्त सिध्द होने के बाद कानूनी रूप से निर्मल जैन को तुरन्त प्रभावी रूप से नौकरी में बहाल किया जाना चाहिए था। इसके साथ ही पिछले 16 सालों के दौरान उनके समकक्षों को मिले क्रमोन्नोति, भत्ते आदि की समस्त राशि के साथ पूरा वेतन मिलना चाहिए था। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। न्यायालय से दोषमुक्त सिध्द होने के बाद भी उन्हे अपना पूर्व पद प्राप्त नहीं हुआ। पिछले 16 सालों से मुकदमा लड़ रहे जैन की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो चुकी थी कि वे न्यायालय कादरवाजा नहीं खटखटा सके। उन्होने तत्कालीन राज्यपाल भाई महावीर से मुलाकात की तथा अपनी स्थिति से अवगत कराया। राज्यपाल ने उनकी बात को गम्भीरता से लेते हुए उन्हें मुख्यमंत्री के पास भेज दिया। इस तरह न्यायालय से दोष मुक्त सिध्द होने के बाद भी जैन लगातार उच्च शासकीय पदों पर आसीन लोगों के भटकते रहे। जैन ने राष्ट्रीय तथा राज्य मानवाधिकार आयोग के सामने भी न्याय की गुहार लगाई। उनकी व्यथा सुनकर देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश व्यंकट चलैया ने मुख्यमंत्री को व्यक्तिगत पत्र लिखकर जल्द से जल्द न्याय दिलाने की बात कही थी। इन सब दबावों के बाद भी उन्हे कोर्ट से दोषमुक्त सिध्द होने के 9 साल बाद और सेवा से बर्खास्त होने के 25 साल बाद सन् 2002 में पूर्व पद समिति प्रबंधक का वापस मिला।

जिन्दगी के पचीस साल का संघर्ष बिना किसी अपराध के झेलने वाले निर्मल जैन ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि न्याय की लड़ाई अभी बाकी है। मानवाधिकारों की तिलांजलि देते हुए बैंक प्रबंधक ने उन्हे तीन हजार रू का मासिक वेतन देने का निर्णय किया। 25 साल की लड़ाई लड़ने के बाद यह घटना किसी सदमे से कम नहीं थी, और वह भी तब जब उनके समकक्ष अधिकारी 12 हजार या इससे ज्यादा पा रहे थे। इसके साथ ही उन्हे सेवानिवृत्ति की आयु से दो साल पहले ही हटा दिया गया। पूरे सेवाकाल के दौरान बन रहे भत्ते, ग्रेच्यूटी आदि की समस्त धनराशि जो करीब 17 लाख के आस पास थी उसके जगह सहकारी बैंक ने उन्हें दिये मात्र 1.46 लाख रू। नर्क सी बन गई जिन्दगी का यह मात्र एक पहलू है। इसके अलावा आपातकाल के दौरान एक वर्ष से ज्यादा समय दमोह जिले के जेल में काटने के बाद, आज तक उन्हे लोकनायक जयप्रकाश सम्मान से वंचित रखा गया है। जिसके तहत 6 हजार रू महीना आजीवन सम्मान निधि दी जाती है। निर्मल जैन के पक्ष में दमोह के कलेक्टर तथा लोकतंत्र रक्षक मीसाबंदी संघ भी सिफारिश कर चुके हैं लेकिन वे अभी भी इस सम्मान तथा धनराशि से वंचित होकर अनाज बेचने का फुटकर काम कर रहे हैं। अपने जीवन की परवाह किये बिना जिस व्यक्ति ने लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक वर्ष से ज्यादा का समय जेल में बिताया, वह आज दर-दर की ठोकरे खाने के लिए मजबूर है। 34 सालों से लड़ी जा रही यह दु:खद दास्ताँ यहाँ भी खत्म नहीं होती है। नौकरी चले जाने और मुकदमे के खर्चे के कारण घर की माली हालत बहुत खराब हो गई थी। जिसके कारण परिवार चलाना बहुत मुश्किल हो गया था। आर्थिक तंगी के कारण मकान भी बेचना पड़ गया। पूरा परिवार ने धर्मशाला में जाकर शरण ली। इस दौरान बीत रही मानसिक प्रताड़ना के कारण जैन के इकलौते पुत्र और एक पुत्री ने आत्महत्या कर ली।जैन की माँ क्षय रोग से पीड़ित होने के बाद इलाज की कमी के कारण भोपाल के गांधी नगर आश्रम में तड़प- तड़प कर मर गई। पत्नी पिछले 25 सालों से भयंकर पेट दर्द से पीड़ित है, तथा इस दु:ख और प्रताड़ना के कारण अपना मानसिक संतुलन खो चुकी है।

आखिर क्या कारण हैं कि स्वतंत्र लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने वाले निर्मल जैन को लोकतंत्र की रक्षा के लिए आपातकाल का विरोध करने के कारण इतना कष्ट झेलना पड़ा? आपातकाल से शुरू हुई उनकी लड़ाई दो बच्चे वा माँ को खोने के बाद आज भी जारी है। 34 सालों से न्याय की आसमें निर्मल ने जो मानसिक, शारीरिक, आर्थिक प्रताड़ना झेली आखिर उसकी भरपाई कौन करेगा? इस प्रकरण के विषय में जब निर्मल जैन से बात की तो उन्होंनेस्थानीय विधायक से लेकर राज्य सरकार तक फैले भ्रष्टाचार को अपनी बर्बादी का सबसे बड़ा कारण बताया। विकास की नई से नई मिसालें पेश करने वाली सरकारें आखिर निर्मल जैन जैसे प्रकरण सामने आने के बाद आँखे क्यों मूंद लेती हैं? उभरते, चमकते भारत की तस्वीर पेश करने वाली ये सरकारें आखिर एक आदमी की सुध क्यों नहीं ले रहीं हैं? अपना सबकुछ गवां चुके जैन की आँखों में अभी भी आशा है न्याय पाने की। लेकिन अब बड़ा सवाल यह है कि न्याय की कसौटी क्या होगी? निर्मल जैन और उनके परिवार पर इन 34 सालों के दौरान हुई मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक क्षति की भरपाई की बात तो फिलहाल छोड़ ही दीजिए क्योंकि निर्मल जैन की तंत्र से लड़ाई की कहानी तो अभी भी जारी है। श्री जैन को न्याय दिलाने के लिए क्या कोई जनसंगठन आगे आएगा। श्री निर्मल कुमार जैन का फोन नंबर है- 09329117290 और उनका पता है निर्मल कुमार जैन,द्वारा हिंदुस्तान ट्रेडर्स, मोदी केमिस्ट, नया बाजार नंबर-2, दमोह (मप्र)

भ्रष्टाचार के खिलाफ एबीवीपी का शंखनाद

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को तेज करते हुए एक यूथ फोरम की घोषणा की है. नई दिल्ली में एबीवीपी द्वारा आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में ‘यूथ अगेंस्ट करप्शन’ नाम के इस मंच की घोषणा की गई. ये मंच पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ने और जनजागरण का काम करेगा.

यूथ अगेंस्ट करप्शन भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए समाधान की दिशा में कोशिश करेगा और जनादेश तैयार करने के लिए देश भर में अलग-अलग प्रकार के कार्यक्रम, धरना, प्रदर्शन, सेमिनार और संगोष्ठी आयोजित करेगा.

विदेश में स्थित बैंकों से भारतीय धन वापस लाने हेतु नए कानून बनाने की पहल भी ये मंच कर रहा है. आज हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में एक ड्राफ्ट बिल भी प्रस्तावित किया गया. इसे देश की सबसे बड़ी पंचायत में पेश करने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाया जाएगा.

इस फोरम की राष्ट्रीय टीम और प्रांतीय संयोजकों की घोषणा एबीवीपी के राष्ट्रीय महामंत्री उमेश दत्त ने आज की. फोरम के राष्ट्रीय संयोजक सुनील बंसल (दिल्ली) तथा सह-संयोजक के रूप में विष्णुदत्त शर्मा (भोपाल), डॉ. रश्मि सिंह (दिल्ली), एन रविकुमार (बेंगलुरु) को बनाया गया है. इस पहल को समाज के विभिन्न प्रबुद्धजनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का समर्थन प्राप्त है. केंद्रीय टीम में अशोक भगत (रांची) और के जे अलफांस (केरल) मार्गदर्शक के रूप में रहेंगे तथा अन्य सदस्यों में आनंद कुमार (पटना), आर. सुब्रमनियम (बेंगलुरु), गोपाल अग्रवाल (दिल्ली), विनीत चौहान (राजस्थान) शामिल है.

एबीवीपी 15 से 30 मई के बीच प्रांत और जिला केंद्रों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रदर्शन और अन्य प्रकार की गतिविधियां आयोजित करेगी.

इस अभियान से विचारकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों को जोड़ने की भी तैयारी है.

गुरूवार को आयोजित सम्मेलन में अशोक भगत, आर बालसुब्रमनियम, के जे अल्फांस, विनीत चौहान ने सहभागिता की.

अशोक भगत ने आपातकाल आंदोलन में हिस्सा लिया और आजकल झारखंड के जनजातीय क्षेत्रों में काम कर रहे हैं. आर बालसुब्रमनियम कर्नाटक में आरटीआई कार्यकर्ता हैं जो विवेकानंद यूथ मूवमेंट नाम के संगठन के माध्यम से समाज के पिछड़े वर्ग के लिए काम कर रहे हैं.

के जे अल्फांस 1992-2000 तक डीडीए के कमिश्नर रह रहे जिसके तहत उह्नोंने 15000 से अधिक अवैध इमारतें गिराईं. 2006 में आईएएस सेवा छोड़ी और सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हुए.

राजस्थान से नाता रखने वाले राष्ट्रवादी कवि विनीत चौहान ने अपनी कविताओं से भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़ा होने के लिए युवा शक्ति का आवाहन किया.

कार्यक्रम में मंच की भूमिका एबीवीपी के राष्ट्रीय संगठन मंत्री सुनील आम्बेकर ने रखी जबकि भ्रष्ट कुलपतियों की सूची एबीवीपी के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री विष्णु दत्त शर्मा ने जारी की.

यूथ अंगेस्ट करप्शन और एबीवीपी द्वारा भविष्य के कार्यक्रमों की योजना एबीवीपी के राष्ट्रीय सहसंगठन मंत्री सुनील बंसल ने रखी.

इस मौके पर सह संयोजक डॉ. रश्मि सिंह ने युवाओं से इस मुहिम में भारी से भारी संख्या में जुड़ने का आवाहन किया.

दिन भर के इस सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में भारतीय नीति प्रतिष्ठान के निदेशक राकेश सिन्हा ने भ्रष्टाचार के सामाजिक-आर्थिक पहलू की विस्तार से चर्चा की. राष्ट्रीय संगठन मंत्री सुनील आम्बेकर ने आंदोलन की भूमिका पर प्रकाश डाला जबकि सह संगठन मंत्री सुनील बंसल ने सम्मलेन में भ्रष्टाचार की समस्या और उसके समाधान पर देश भर से आए प्रतिनिधियों से चर्चा की.

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एबीवीपी ने जारी की भ्रष्ट कुलपतियों की लिस्ट

नई दिल्ली में एबीवीपी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में आज देश के भ्रष्ट कुलपतियों की एक सूची जारी की है. इस सूची में कुल 25 भ्रष्ट कुलपति शामिल है. भविष्य में भी परिषद की तरफ से ऐसी सूची जारी की जाएगी. उच्चशिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए ये एबीवीपी की अनूठी पहल है.

सूची में दिए गए 25 कुलपतियों द्वारा की गई अनियमितताओं संबंधी सारी जानकारी एबीवीपी के पास मौजूद है.

इस सूची में मध्य प्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय के वीसी कमलाकर सिंह का नाम सबसे ऊपर है जिनके ऊपर भारतीय दंड संहिता के तहत तमाम मुकदमे दर्ज किए गए हैं. एबीवीपी का कहना है कि स्वयं कुलपति की नियुक्ति में गड़बड़ी की गई थी. उनकी नियुक्ति के समय ही विरोध किया गया था लेकिन कमलाकर सिंह को कुलपति बनाया गया. बाद में एबीवीपी के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री विष्णुदत्त शर्मा की याचिका पर उच्च न्यायालय ने उनकी नियुक्ति को खारिज कर दिया. उनकी एलएलबी की डिग्री भी फर्जी पाई गई है.

मगध विश्वविद्यालय के कुलपति अरविंद कुमार का मामला भी ध्यान देने योग्य है. पटना उच्च न्यायालय ने उनकी नियुक्ति को अवैध घोषित कर रखा है हालांकि अरविंद कुमार अभी फरार हैं.

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परिवर्तन का इतिहास बनाएगा ‘यूथ अंगेस्ट करप्शन’ – सुनील आम्बेकर

एबीवीपी के राष्ट्रीय संगठन मंत्री सुनील आम्बेकर ने कहा है कि भ्रष्टाचार में संलग्न लोगों को कड़ी सजा होना जरूरी है लेकिन देश में प्रशासन, पुलिस तथा न्यायालय जैसी कई व्यवस्थाओं में होने वाली देरी से सामान्य व्यक्ति को भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ता है. सुनील आम्बेकर एबीवीपी द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में बोल रहे थे. उन्होंने कहा कि ऐसी व्यवस्थाओं में कानूनी बदलाव की जरूरत है.

इस सम्मेलन के दौरान ही एबीवीपी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को तेज करते हुए यूथ अगेंस्ट करप्शन नामक एक नए फोरम की घोषणा भी की. ये फोरम भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमत खड़ा करने का काम करेगा.

सम्मेलन में देश भर से आए प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए सुनील आम्बेकर ने कहा कि सामाजिक कल्याण और विकास की कई योजनाओं के आर्थिक व्यवहार एवं परिणामों की कठोर समीक्षा करते हुए उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को प्राथमिकता से दूर करने की जरूरत है. यूथ अंगेस्ट करप्शन नाम का ये आंदोलन परिवर्तन का इतिहास बनाएगा.

इस मौके पर एबीवीपी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए जाने वाले आंदोलन का एजेंडा भी सार्वजनिक किया. 13 सूत्रीय इस एजेंडे में विदेश से काले धन की वापसी, भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानून की बात को प्रमुखता से रखा है. साथ ही चुनाव सुधार, विकेंद्रीकरण और ई-गवर्नेंस की वकालत भी एबीवीपी के इस एजेंडे में प्रमुखता से रखी गई हैं.