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सदमें में दिग्विजय सिंह

लोकेन्‍द्र सिंह राजपूत

पिछले दस सालों से आतंक का सबसे बड़ा चेहरा ओसामा बिन लादेन मारा गया। यह खबर मिलते ही करोड़ों लोगों का प्रसन्नता हुई होगी। वे दिल से अपने-अपने भगवान और अमेरिका को धन्यवाद ज्ञापित कर रहे होंगे। लेकिन, कांग्रेस के सिपहेसलार दिग्विजय सिंह को बहुत ही गहरा सदमा पहुंचा है। उनका विलाप देखकर मालूम होता है कि लादेन दिग्विजय सिंह का करीबी रिश्तेदार रहा होगा। दिग्विजय को दु:ख है कि उसे समुद्र में क्यों बहा दिया गया। जिस बात पर कुछेक कट्टरपंथी मुस्लिमों को छोड़कर किसी को आपत्ति नहीं उस पर इन महाशय को गहरा क्षोभ है। दरअसल दिग्विजय की मंशा थी कि उसके नाम से मजार या फिर आलीशान मस्जिद बनती। जिसकी देखरेख कांग्रेस कमेटी करती और दिग्विजय उसमें मौलाना की भूमिका निभाते। जैसे भारत में क्रूर आक्रांता बाबर की तथाकथित मस्जिद बनी हुई थी। भारत के जनमानस और न्यायपालिका ने जिसे अवैध ठहरा दिया है। ओसामा बिन लादेन अमेरिका का घोर शत्रु था। जिसे अमेरिका पिछले दस सालों से तलाश रहा था। उसे पाकिस्तान में मारने के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति सोच रहे थे कि इसका अंतिम क्रियाकर्म कैसे की जाए। तब उन्होंने सोचा अगर इसे जमीन में दफन किया तो निश्चित तौर पर यह पूजा जाएगा। तथाकथित सेक्युलर जमात के द्वारा, कट्टरपंथी मुस्लिम वर्ग के द्वारा भविष्य में उसकी याद में उस स्थान पर आलीशान मकबरा, मजार या मस्जिद बनाई जा सकती थी। इन्हीं बातों को ध्यान में रख अमेरिका ने उसे समुद्र में डुबा दिया। इस बात से कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता दिग्विजय अथाह दुख पहुंचा है। वे उस बात को भूल बैठे हैं कि आतंक का कोई धर्म या मजहब नहीं होता। फिर ओसामा बिन लादेन का क्योंकर मुस्लिम विधि से अंतिम संस्कार किया जाए। दुनिया के सबसे बड़े आतंकी को मुस्लिम धर्म से जोड़कर आखिर दिग्विजय सिंह क्या जताना चाहते हैं? इसके अलावा कुछ मुस्लिम विद्वान भी हैं जो उसके लिए सिर पीट रहे हैं।

वैसे दिग्विजय देर-सबेरे यह बयान भी जारी कर सकते हैं कि अब तो लादेन सुधर गया था, वह धर्म-पुण्य कार्य में जुटा था। उसे अमेरिका ने धोखे से मारा है। उसे प्राश्चित का मौका भी नहीं दिया।

आतंकवाद से युद्ध

विजय कुमार

सरकार लगातार हो रही आतंकी घटनाओं से बहुत दुखी थी। रेल हो या बस, मंदिर हो या मस्जिद, विद्यालय हो या बाजार, दिन हो या रात, आतंकवादी जब चाहें, जहां चाहें, विस्फोट कर उसकी नाक में दम कर रहे थे। विधानसभा चुनाव का खतरा सिर पर था। सरकार को लगा कि यदि इस बारे में कुछ न किया गया, तो जनता कहीं उन्हें वर्तमान से भूतपूर्व न कर दे। अतः इस विषय पर एक बैठक करने का निर्णय लिया गया।

बैठक का एजेंडा चूंकि काफी गंभीर था, इसलिए श्री दिगम्बरम्, चिग्विजय सिंह, आजाद नबी गुलाम, अहमक पटेल, बाबुल पांधी आदि कई बड़े नेता वहां आये थे। आना तो श्री मगनमोहन सिंह को भी था; पर वे इन दिनों खुद पर लग रहे आरोपों से बहुत दुखी थे। उन्हें अपनी पगड़ी के साफ होने पर गर्व था; पर अब उसके अंदर के खटमल बाहर निकलने लगे थे। हर दिन हो रही छीछालेदर से उनका मूड काफी खराब था। वे कठपुतली की तरह नाचते हुए थक चुके थे। अतः उन्होंने बुखार के बहाने आने से मना कर दिया।

इसके अतिरिक्त पुलिस, प्रशासन और सेना के कुछ बड़े अधिकारी भी आये थे। चाय-नाश्ते के बाद बैठक प्रारम्भ हुई। श्री दिगम्बरम् ने प्रस्तावना में कहा कि आतंकवादी घटनाओं से पूरी दुनिया में हमारी छवि खराब हो रही है। जनता हमसे कुछ परिणाम चाहती है। अतः जैसे भी हो, हमें देश के सामने कुछ करके दिखाना होगा।

उत्तर प्रदेश से आये शर्मा जी काफी कड़क पुलिस अधिकारी माने जाते थे। उन्होंने कहा – सर, आतंकवाद को मिटाने के लिए उसकी जड़ पर प्रहार करना होगा। हमारे यहां आजमगढ़ को आतंकवाद की नर्सरी माना जाता है। उसके साथ ही देवबंद और अलीगढ़ पर भी हमें कुछ अधिक ध्यान देना होगा।

– तो इसमें परेशानी क्या है ? श्री दिगम्बरम् ने पूछा।

– सर, मैं क्या कहूं; इस पर न लखनऊ सहमत है और न दिल्ली।

वे कहना तो और भी कुछ चाहते थे; पर इस बात से चिग्विजय सिंह के चेहरे के भाव बदलने लगे। इसलिए उन्होंने अधिक बोलना उचित नहीं समझा।

बिग्रेडियर वर्मा तीस साल से सेना में थे। उनका अधिकांश समय सीमावर्ती क्षेत्रों में ही बीता था। वे बोले – पाकिस्तान से घुसपैठियों का आना लगातार जारी है। वे हथियार भी लाते हैं और पैसा भी। इससे ही कश्मीर घाटी में आतंकवाद फैल रहा है। यदि कश्मीर दो साल के लिए सेना के हवाले कर दें, तो हम इस पर काबू पा लेंगे।

इससे आजाद नबी गुलाम के माथे पर पसीना छलकने लगा; पर वर्मा जी ने बोलना जारी रखा – आतंकियों से बात करने से सेना का मनोबल गिरता है। अनुशासन के कारण सैनिक बोलते तो नहीं है; पर अंदर ही अंदर वे सुलग रहे हैं। वे कब तक गाली, गोली और पत्थर खाएंगे ? सरकारी वार्ताकार आतंकियों से तो मिल रहे हैं; पर क्या वे देशभक्तों और सेना के लोगों की बात भी सुनेंगे ?

सिन्हा साहब को प्रशासन का अच्छा अनुभव था। उन्होंने संसद पर हमले के अपराधी मोहम्मद अफजल को अब तक फांसी न देने का मुद्दा उठाते हुए कहा कि गिलानी और अरुन्धति जैसे देशद्रोही राजधानी में सरकार की नाक के नीचे आकर बकवास कर जाते हैं; पर उनका कुछ नहीं बिगड़ता। इससे जनता में सरकार की साख मिट्टी हो रही है।

इससे सुपर सरकार के सलाहकार अहमक पटेल का पारा चढ़ गया – आपको राजधानी देखनी है और हमें पूरा देश। यदि उसे फांसी दे देंगे, तो देश में दंगा हो जाएगा। तब कानून व्यवस्था कौन संभालेगा ? आज यदि अफजल को फांसी दे देंगे, तो जनता कल कसाब को फांसी देेने की मांग करेगी। ऐसे में तो हमें एक फांसी मंत्रालय ही बनाना पड़ेगा। हमारे पास फांसी से भी अधिक महत्वपूर्ण कई काम हैं।

बाबुल पांधी सब सुन रहे थे। जब श्री दिगम्बरम् ने उनसे बोलने की प्रार्थना की, तो उन्होंने चिग्विजय सिंह की ओर संकेत कर दिया। इस पर चिग्विजय सिंह ने एक कहानी सुनाई – मैदान में कुछ युवक निशानेबाजी का अभ्यास कर रहे थे। एक बुजुर्ग ने देखा कि अधिकांश की गोलियां बोर्ड पर बने गोलाकार चिõों के आसपास लगी हैं; पर एक के निशाने गोलों के ठीक बीच लगे थे। उन्होंने उस प्रतिभाशाली युवक से इस सौ प्रतिशत सफलता का रहस्य पूछा। युवक ने कहा, यह तो बड़ा आसान है। बाकी लोग पहले गोला बनाकर फिर गोली मारते हैं। मैं जहां गोली लगती है, वहां गोला बना देता हूं।

यह कहानी सुनाकर चिग्विजय सिंह ने सबकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा – क्या समझे ?

सबको चुप देखकर वे फिर बोले – आतंकवादियों को ढूंढकर पकड़ना बहुत कठिन है; पर कुछ लोगों को पकड़कर उन्हें आतंकवादी घोषित करना तो आसान है। हमें चुनाव में मुसलमान वोट पाने के लिए किसी भी तरह हिन्दुओं को आतंकवादी घोषित करना है। इसीलिए हमने कुछ हिन्दुओं को पकड़ा है। कुछ और को भी घेरने और उनके माथे पर आतंकी हमलों का ठीकरा फोड़ने का प्रयास जारी है। सी.बी.आई और ए.टी.एस को भी हमने इस काम में लगाया है। मीडिया का एक बड़ा समूह भी हमारे साथ है। भगवा आतंकवाद की बात जितनी जोर पकड़ेगी, हमारे वोट उतने पक्के होंगे। हमारा काम चुनाव लड़ना है, आतंक से लड़ना नहीं; पर चुनाव जीतने के लिए यह आवश्यक है कि हम आतंक से लड़ते हुए नजर आयें।

अब श्री दिगम्बरम् के पास भी कहने को कुछ शेष नहीं बचा था। अतः बैठक समाप्त घोषित कर दी गयी।

चमत्कारी संत : सत्यसाईं बाबा

विजय कुमार

भारत देवी, देवताओं और अवतारों की भूमि है। यहां समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लेकर मानवता के कल्याण के लिए अपना जीवन अर्पण किया है। ऐसे ही एक श्रेष्ठ संत थे श्री सत्य साईं बाबा।

बाबा का जन्म 23 नवम्बर, 1926 को ग्राम पुट्टपर्थी (आंध्र प्रदेश) के एक निर्धन मजदूर पेंडवेकप्पा राजू और माता ईश्वरम्मा के घर में हुआ था। उनका बचपन का नाम सत्यनारायण राजू था। बचपन में उनकी रुचि अध्यात्म और कथा-कीर्तन में अधिक थी। कहते हैं कि 14 वर्ष की अवस्था में उन्हें एक बिच्छू ने काट लिया। इसके बाद उनके मुंह से स्वतः संस्कृत के श्लोक निकलने लगे, जबकि उन्होंने संस्कृत कभी पढ़ी भी नहीं थी। इसके कुछ समय बाद उन्होंने स्वयं को पूर्ववर्ती शिरडी वाले साईं बाबा का अवतार घोषित कर दिया और कहा कि वे भटकी हुई दुनिया को सही मार्ग दिखाने आये हैं।

शिरडी वाले साईं बाबा के बारे में कहते हैं कि उन्होंने 1918 में अपनी मृत्यु से पहले भक्तों से कहा था कि आठ साल बाद वे मद्रास क्षेत्र में फिर जन्म लेंगे। अतः लोग सत्यनारायण राजू को उनका अवतार मानने लगे। क्रमशः उनकी मान्यता बढ़ती गयी और पुट्टपर्थी एक पावन धाम बन गया। बाबा का लम्बा भगवा चोगा और बड़े-बड़े बाल उनकी पहचान बन गये। वे भक्तों को हाथ घुमाकर हवा में से ही भभूत, चेन, अंगूठी आदि निकालकर देते थे। यद्यपि इन चमत्कारों को कई लोगों ने चुनौती देकर उनकी आलोचना भी की।

बाबा ने पुट्टपर्थी में पहले एक मंदिर और फिर अपने मुख्यालय ‘प्रशांति निलयम्’ की स्थापना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने बंगलौर तथा तमिलनाडु के कोडैकनाल में भी आश्रम बनाये। बाबा भक्तों को सनातन हिन्दू धर्म पर डटे रहने का उपदेश देते थे। इससे धर्मान्तरण में सक्रिय मुल्ला-मौलवियों और ईसाई मिशनरियों के काम की गति अवरुद्ध हो गयी।

बाबा का रुझान सेवा की ओर भी था। वे शिक्षा को व्यक्ति की उन्नति का एक प्रमुख साधन मानते थे। अतः उन्होंने निःशुल्क सेवा देने वाले हजारों विद्यालय, चिकित्सा केन्द्र और दो बहुत बड़े चिकित्सालय स्थापित किये। इनमें देश-विदेश के सैकड़ों विशेषज्ञ चिकित्सक एक-दो महीने की छुट्टी लेकर निःशुल्क अपनी सेवा देते हैं। उन्होंने पुट्टपर्थी में एक स्टेडियम, विश्वविद्यालय तथा हवाई अड्डा भी बनवाया। विदेशों में भी उन्होंने सामान्य शिक्षा के साथ ही वैदिक हिन्दू संस्कार देने वाले अनेक विद्यालय स्थापित किये।

आंध्र प्रदेश में सूखे से पीड़ित अनंतपुर जिले के पानी में फ्लोराइड की अधिकता से लोग बीमार पड़ जाते थे। इससे फसल भी नष्ट हो जाती थी। बाबा ने 200 करोड़ रु0 के व्यय से वर्षा जल को संग्रहित कर पाइप लाइन द्वारा पूरे जिले में पहुंचाकर इस समस्या का स्थायी समाधान किया। इस उपलक्ष्य में डाक व तार विभाग ने एक डाक टिकट भी जारी किया।

पूरी दुनिया में बाबा के करोड़ों भक्त हैं। नेता हो या अभिनेता, खिलाड़ी हो या व्यापारी, निर्धन हो या धनवान,..सब वहां आकर सिर झुकाते थे। सैकड़ों प्राध्यापक, न्यायाधीश, उद्योगपति तथा शासन-प्रशासन के अधिकारी बाबा के आश्रम, चिकित्सालय तथा अन्य जनसेवी संस्थाओं की देखभाल करते हैं।

हिन्दू धर्म के रक्षक श्री सत्य साईं बाबा 24 अपै्रल, 2011 को दिवंगत हुए। उन्हें पुट्टपर्थी के आश्रम में ही समाधि दी गयी। उनके भक्तों को विश्वास है कि वे शीघ्र ही पुनर्जन्म लेकर फिर मानवता की सेवा में लग जाएंगे।

आखिरकार आतंकवाद की जन्मस्थली में मारा गया ओसामा बिन लादेन

नीरज कुमार दुबे

 

आखिरकार दुनिया के नंबर एक आतंकवादी अल कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को दुनिया के नंबर एक देश ने मार गिराया। अपने को बहुत बड़ा बहादुर बताने और समझने वाला ओसामा कितना बहादुर था यह दुनिया ने तब देख ही लिया जब वह डर के मारे एक गुफा से दूसरी गुफा में छिपता फिर रहा था। शायद ओसामा ने अपने हिसाब वाले कोई सदकर्म ही किये होंगे जो वह आतंकवाद की जन्मस्थली पाकिस्तान में मारा गया। ओसामा का मारा जाना आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में एक बहुत बड़ी कामयाबी है तो है ही साथ ही यह आतंकवाद के प्रतीक पर सबसे बड़ा हमला भी है। जिस तरह भले राजा बूढ़ा हो लेकिन उसके मारे जाने पर भी प्रजा को गुलाम बनना ही पड़ता है उसी तरह आतंकवाद के सबसे बड़े सरगना के मारे जाने पर निश्चित रूप से आतंकवादियों और आतंकवाद के समर्थकों का मनोबल गिरेगा। हालांकि संभावना यह भी है कि वह अपना हौसला पस्त नहीं होने का सुबूत देते हुए विश्व में कहीं भी आतंकवादी वारदात को अंजाम दें। अल कायदा, तालिबान और लश्कर ए तैयबा जैसे आतंकवादी संगठनों के स्लीपर सेलों की बातें समय समय पर खुफिया एजेंसियां सामने लाती रही हैं। संभव है कि इन्हीं स्लीपर सेलों के माध्यम से किसी वारदात को अंजाम दिया जाए। हमें हाल ही में उजागर हुई अल कायदा की उस चेतावनी को नहीं भूलना चाहिए जिसमें उसने अल कायदा प्रमुख के मारे जाने पर पश्चिम तथा यूरोप पर परमाणु बम हमले की धमकी दी थी। लादेन के मारे जाने से निश्चित रूप से अमेरिका विरोध की भावना अब आतंकवादियों के मन में प्रबल होगी और अमेरिकी नागरिक, अमेरिकी प्रतिष्ठान आदि को सतर्कता बरते जाने की जरूरत है, शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए अमेरिका ने विश्व भर में अपने नागरिकों के लिये यात्रा परामर्श जारी किया है।

 

लादेन का पाकिस्तान में पकड़ा जाना और मारा जाना पाकिस्तान सरकार के उन दावों को भी झूठा साबित करता है कि लादेन पाकिस्तान में नहीं है या फिर लादेन मारा जा चुका है। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और सरकार समय समय पर यही बात दोहराते रहे हैं कि लादेन पाकिस्तान में नहीं है। यही नहीं पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ और वर्तमान राष्ट्रपति तो यहां तक कह चुके हैं कि उन्हें लगता है कि लादेन मर चुका है। लादेन की अनुपस्थिति और उसके मारे जाने की झूठी बात को बार बार कह कर पाकिस्तान ने इसे सच बनाने की कोशिश की लेकिन आखिरकार पाकिस्तान का असली चेहरा सबके सामने आ ही गया। यह तो बहुत ही अच्छा हुआ कि अमेरिका ने लादेन पर कार्रवाई की बात पाकिस्तान सरकार के साथ साझा नहीं की वरना वह उसे वहां से भगा देती। गौरतलब है कि लादेन के मारे जाने के बाद ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जरदारी को इस बारे में जानकारी दी। आईएसआई प्रमुख शुजा पाशा ने भी हाल ही में अपने अमेरिकी दौरे के समय इस बात के भरसक प्रयास किये कि अमेरिका पाक में ड्रोन हमलों को रोक दे लेकिन अमेरिका जानता था कि पाकिस्तान यह निवेदन क्यों कर रहा है।

 

अब अमेरिका को यह बात समझनी चाहिए कि कैसे पाकिस्तान उसे कई वर्षों से ओसामा की मौजूदगी के बारे में गुमराह करता रहा जबकि पाकिस्तान से उसे सुरक्षित तरीके से छिपा रखा था। ओसामा जहां मिला वह स्थान पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के पास है और वह ऐसा इलाका है जहां सामान्य तौर पर सेना के शीर्ष सेवानिवृत्त अधिकारी रहते हैं। अब दुनिया के सामने पाकिस्तान का वह झूठ भी सामने आ गया है जिसमें वह दाऊद इब्राहिम और मुंबई हमले के कुछ आरोपियों की अपने यहां उपस्थिति की बात से इंकार करता रहा है।

 

दुनिया के सामने पाकिस्तान का सच सामने आने के बाद अब यह भारत के लिए सही समय है कि वह मुंबई हमले के दोषियों को उसे (भारत को) सौंपने के लिए दबाव बनाये और सीमा पर मौजूद आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाये या फिर खुद ही कार्रवाई कर इन आतंकी प्रशिक्षण शिविरों को ध्वस्त कर दे क्योंकि गर्मियां शुरू हो चुकी हैं और अब पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ के प्रयास शुरू होंगे। भारत सरकार को पाकिस्तान से वार्ता शुरू करने की बजाय दीर्घकालीन दृष्टि से सोचना चाहिए और पाकिस्तान में मौजूद अपने लिए खतरों को खत्म करने के लिए तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए।

 

हमें अमेरिका से यह बात सीखनी चाहिए कि वह अपने नागरिकों पर हमलों की बात को भूलता नहीं है और उसका बदल ले कर रहता है। 9/11 को भले दस साल हो गये हों लेकिन अमेरिकी सरकार के लिए उसके जख्म हमेशा ताजा रहे और उसने आखिरकार ओसामा को मार कर बदला ले लिया जिसके बाद ओबामा ने बयान दिया कि अमेरिका ने न्याय कर दिया है। हमारे यहां तो यदि किसी को मृत्युदंड सुना भी दिया जाता है तो भी उसे जिंदा रखा जाता है कि कहीं वोट बैंक प्रभावित न हो जाए। भारत दुनिया में आतंकवाद से सर्वाधिक पीडि़त रहा है लेकिन आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई में नगण्य रहा है। आज भी अफजल और अजमल कसाब को जिंदा रखा गया है। यदि उन्हें सजा सुनाए जाने के तत्काल बाद मौत के घाट उतार दिया गया होता तो आतंकवाद पीडि़तों को बड़ी राहत पहुंचती। हमारे यहां तो माओवादियों अथवा नक्सलियों के खिलाफ भी यदि सैन्य बल कोई कार्रवाई कर देते हैं तो मानवाधिकार कार्यकर्ता उसे मुद्दा बना देते हैं।

 

बहरहाल, हमें आतंकवाद के खिलाफ सबसे बड़ी कार्रवाई के लिए अमेरिका की सराहना तो करनी ही चाहिए साथ ही सतर्कता भी बरतनी चाहिए। हमें चाहिए कि बाजार, पर्यटन स्थलों और धर्म स्थलों पर अत्यधिक सतर्कता बरतें क्योंकि आतंकवादी तथा उन्मादी अपनी ताकत दिखाने के लिए किसी भी हिंसक वारदात को अंजाम दे सकते हैं। हमें सुरक्षा एजेंसियों की जांच के दौरान भी सहयोग देना चाहिए।

 

दूसरी ओर, आतंकवाद के खिलाफ मिली यह सबसे बड़ी सफलता बराक ओबामा के लिए सबसे ज्यादा राहत लेकर आई है। वह घरेलू मोर्चे पर काफी चुनौतियों से जूझ रहे थे और अगले वर्ष होने वाले राष्ट्रपति चुनावों में भी उन्हें कड़ी टक्कर मिलने की उम्मीद की जा रही थी क्योंकि विभिन्न सर्वेक्षणों में उनकी लोकप्रियता में कमी आने की बात कही गई थी। लेकिन अब ओबामा के मारे जाने के बाद ओसामा के लिए पुनः निर्वाचन की राह आसान हो गई है। हालांकि उन्हें इस सफलता का श्रेय कुछ हद तक पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश को भी देना चाहिए क्योंकि उन्हीं के कार्यकाल में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों में अमेरिकी सेना के नेतृत्व में नाटो बलों की तैनाती हुई। बुश ने आतंकवाद के खिलाफ जो आपरेशन चलाया उसे अंजाम तक ओबामा ने पहुंचाया। बुश को जहां अपने कार्यकाल में सद्दाम हुसैन मामले में सफलता मिली वहीं ओबामा को ओसामा को मारने में सफलता मिली। लेकिन इन दोनों सफलताओं में एक बहुत बड़ा फर्क यह है कि जहां आधी से ज्यादा दुनिया सद्दाम को मारे जाने की विरोधी थी वहीं समूची दुनिया ओसामा के मारे जाने से खुश है।

जय हिंद, जय हिंदी

भ्रष्टाचार, क्रांति और साहित्य

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

 

राजनीति में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है लेकिन साहित्य में यह कभी मुद्दा ही नहीं रहा। यहां तक संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय नागार्जुन ने भ्रष्टाचार पर नहीं संपूर्ण क्रांति पर लिखा,इन्दिरा गांधी पर लिखा। जबकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्या वजह है लेखकों को भ्रष्टाचार विषय नहीं लगता। जबकि हास्य-व्यंग्य के मंचीय कवियों ने भ्रष्टाचार पर जमकर लिखा है। साहित्य में भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति इस बात का संकेत है कि लेखक इसे मसला नहीं मानते। दूसरा बड़ा कारण साहित्य का मासकल्चर के सामने आत्म समर्पण और उसके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश करना है। साहित्य में मूल्य,नैतिकता,परिवार और राजनीतिक भ्रष्टाचार पर खूब लिखा गया है लेकिन आर्थिक भ्रष्टाचार पर नहीं लिखा गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार सभी किस्म के भ्रष्टाचरण की धुरी है। यह प्रतिवाद को खत्म करता है। उत्तर आधुनिक अवस्था का यह प्रधान लक्षण है। इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार। इसके साथ नेताओं में संपदा संचय की प्रवृत्ति बढ़ी है। अबाधित पूंजीवादी विकास हुआ है। उपभोक्तावाद की लंबी छलांग लगी है और संचार क्रांति हुई है। इन लक्षणों के कारण सोवियत अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी। सोवियत संघ और उसके अनुयायी समाजवादी गुट का पराभव हुआ। फ्रेडरिक जेम्सन के शब्दों में यह ‘आधुनिकीकरण की छलयोजना’ है। अस्सी के दशक से सारी दुनिया में सत्ताधारी वर्गों और उनसे जुड़े शासकों में पूंजी एकत्रित करने,येन-केन प्रकारेण दौलत जमा करने की लालसा देखी गयी। इसे सारी दुनिया में व्यवस्थागत भ्रष्टाचार कहा जाता है और देखते ही देखते सारी दुनिया उसकी चपेट में आ गयी। आज व्यवस्थागत भ्रष्टाचार सारी दुनिया में सबसे बड़ी समस्या है। पश्चिम वाले जिसे रीगनवाद,थैचरवाद आदि के नाम से सुशोभित करते हैं यह मूलतः ‘आधुनिकीकरण की छलयोजना’ है , इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार।रीगनवाद-थैचरवाद को हम नव्य आर्थिक उदारतावाद के नाम से जानते हैं । भारत में इसके जनक हैं नरसिंहाराव-मनमोहन । यह मनमोहन अर्थशास्त्र है। भ्रष्टाचार को राजनीतिक मसला बनाने से हमेशा फासीवादी ताकतों को लाभ मिला है। यही वजह है लेखकों ने आर्थिक भ्रष्टाचार को कभी साहित्य में नहीं उठाया। भ्रष्टाचार वस्तुतः नव्य उदार आर्थिक नीतियों से जुड़ा है। आप भ्रष्टाचार को परास्त तब तक नहीं कर सकते जबतक नव्य उदार नीतियों का कोई विकल्प सामने नहीं आता।

 

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रतीकात्मक प्रतिवादी आंदोलन रहे हैं। इन आंदोलनों को सैलीब्रिटी प्रतीक पुरूष चलाते रहे हैं। ये मूलतःमीडिया इवेंट हैं। ये जनांदोलन नहीं हैं। प्रतीक पुरूष इसमें प्रमुख होता है। जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से लेकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल आंदोलन तक इसे साफ तौर पर देख सकते हैं। मीडिया पुरूष हैं। इवेंट पुरूष हैं। इनकी अपनी वर्गीय सीमाएं हैं और वर्गीय भूमिकाएं हैं। प्रतीक पुरूषों के संघर्ष सत्ता सम्बोधित होते हैं जनता उनमें दर्शक होती है। टेलीविजन क्रांति के बाद पैदा हुई मीडिया आंदोलनकारियों की इस विशाल पीढ़ी का योगदान है कि इसने जन समस्याओं को मीडिया टॉक शो की समस्याएं बनाया है। अब जनता की समस्याएं जनता में कम टीवी टॉक शो में ज्यादा देखी -सुनी जाती हैं। इनमें जनता दर्शक होती है। इन प्रतीक पुरूषों के पीछे कारपोरेट मीडिया का पूरा नैतिक समर्थन है।

 

उल्लेखनीय है भारत को महमूद गजनवी ने जितना लूटा था उससे सैंकड़ों गुना ज्यादा की लूट नेताओं की मिलीभगत से हुई है। नव्य उदार नीतियों का इस लूट से गहरा संबंध है। चीन और रूस में इसका असर हुआ है चीन में अरबपतियों में ज्यादातर वे हैं जो पार्टी मेंम्बर हैं या हमदर्द हैं,इनके रिश्तेदारसत्ता में सर्वोच्च पदों पर बैठे हैं। यही हाल सोवियत संघ का हुआ।

 

भारत में नव्य उदारतावादी नीतियां लागू किए जाने के बाद नेताओं की सकल संपत्ति में तेजी से वृद्धि हुई है। सोवियत संघ में सीधे पार्टी नेताओं ने सरकारी संपत्ति की लूट की और रातों-रात अरबपति बन गए। सरकारी संसाधनों को अपने नाम करा लिया। यही फिनोमिना चीन में भी देखा गया। उत्तर आधुनिकतावाद पर जो फिदा हैं वे नहीं जानते कि वे व्यवस्थागत भ्रष्टाचार और नेताओं के द्वारा मचायी जा रही लूट में वे मददगार बन रहे हैं। मसलन गोर्बाचोव के नाम से जो संस्थान चलता है उसे अरबों-खरबों के फंड देकर गोर्बाचोव को रातों-रात अरबपति बना दिया गया। ये जनाव पैरेस्त्रोइका के कर्णधार थे। रीगन से लेकर क्लिंटन तक और गोर्बाचोब से लेकर चीनी राष्ट्रपति के दामाद तक पैदा हुई अरबपतियों की पीढ़ी की तुलना जरा हमारे देश के सांसदों-विधायकों की संपदा से करें। भारत में सांसदों-विधायकों के पास नव्य आर्थिक उदारतावाद के जमाने में जितनी तेजगति से व्यक्तिगत संपत्ति जमा हुई है वैसी पहले कभी जमा नहीं हुई थी। अरबपतियों-करोड़पतियों का बिहार की विधानसभा से लेकर लोकसभा तक जमघट लगा हुआ है। केन्द्रीयमंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों तक सबकी दौलत दिन -दूनी रात चौगुनी बढ़ी है। नेताओं के पास यह दौलत किसी कारोबार के जरिए कमाकर जमा नहीं हुई है बल्कि यह अनुत्पादक संपदा है जो विभिन्न किस्म के व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के जरिए जमा हुई है। कॉमनवेल्थ भ्रष्टाचार, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला आदि तो उसकी सिर्फ झांकियां हैं। अमेरिका मे भयानक आर्थिकमंदी के बाबजूद नेताओं की परिसंपत्तियों में कोई गिरावट नहीं आयी है। कारपोरेट मुनाफों में गिरावट नहीं आयी है। भारत में भी यही हाल है।

 

इसी संदर्भ में फ्रेडरिक जेम्सन ने मौजूदा दौर में मार्क्सवाद की चौथी थीसिस में लिखा है इस संरचनात्मक भ्रष्टाचार का नैतिक मूल्यों के संदर्भ में कार्य-कारण संबंध के रूप में व्याख्या करना भ्रामक होगा क्योंकि यह समाज के शीर्ष वर्गों में अनुत्पादक ढंग से धन संग्रह की बिलकुल भौतिक सामाजिक प्रक्रिया में उत्पन्न होती है। इस बात पर बल देना अनिवार्य है कि कार्य-कुशलता, उत्पादकता और वित्तीय संपन्नता जैसे संवर्ग तुलनात्मक हैं। अभिप्राय यह है कि उनके परिणामों की भूमिका उस क्षेत्र में आती है जिसमें अनेक असमान परिघटनाएं प्रतिस्पर्धा कर रही हों। अधिक कार्यकुशल और उत्पादक तकनीकी पुरानी मशीनरी और पुराने संयंत्र को तभी विस्थापित करती हैं, जब पुरानी मशीनरी और संयंत्र अधिक कार्यकुशल तथा आधुनिक तकनीकी के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करते हैं और उनके साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं।

 

 

इसी बात को सोवियत संघ के संदर्भ में आगे बढ़ाते हुए जेम्सन ने लिखा सोवियत संघ अकुशल हो गया और जब इसने अपने को ‘विश्व-तंत्र’ के साथ एकीकृत करने का प्रयास किया, तो यह विघटित हो गया क्योंकि विश्व-तंत्र आधुनिकता से उत्तरआधुनिकता की ओर अग्रसर था। यह एक ऐसा तंत्र था जो संचालन के नए नियमों के हिसाब से उत्पादकता की अतुलनीय द्रुत गति से दौड़ रहा था। वहीं सोवियत संघ में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसकी इससे तुलना की जा सके। सांस्कृतिक अभिप्रेरकों (उपभोक्तावाद, नई सूचना प्रौद्योगिकी आदि) द्वारा प्रेरित, सुविचारित सामरिक-तकनीकी प्रतिस्पर्धा में आकृष्ट होकर, ऋण तथा तीव्र होते वाणिज्यिक सह-अस्तित्व के रूपों के प्रलोभन में आकर रूस एक ऐसे तत्व में प्रवेश कर गया जहां इसका अस्तित्व समाप्त हो गया। यह दावा किया जा सकता है कि सोवियत संघ और इसके अनुषंगी देश, जो अब तक अपने ही विशिष्ट दबाव क्षेत्र में अलग-अलग थे मानो किसी विचारधारात्मक सामाजिक, आर्थिक, भूगणितीय उभार (गुंबज) के नीचे दबे हों,इसने अविवेकपूर्ण ढंग से बिना अंतरिक्ष-पोशाक तैयार किए ही वायुबंध खोलना आरंभ कर दिया और इस प्रकार स्वयं को और अपने संस्थानों को बाह्य विश्व के तीव्र और अपरिमेय दबाव के हवाले कर दिया। इसके परिणाम की तुलना हम प्रथम परमाणु बम के विस्फोट से हुई उन तुच्छ ढांचों की हालत से कर सकते हैं जो इस बम विस्फोट के स्थल के सबसे नजदीक थे, या फिर उन असुरक्षित जीवों की हालत से कर सकते हैं जो समुद्र तल पर उपस्थित थे जब जल में उत्पन्न विकृत दबाव का भार उन पर पड़ा होगा, खासकर जब यह दबाव से ऊपर की ओर उठ रहा होगा। यह परिणाम वॉलरस्टीन की दूरदर्शितापूर्ण चेतावनी की पुष्टि करता है। उन्होंने कहा था कि सोवियत ब्लॉक ने अपनी महत्ता के बावजूद पूंजीवादी तंत्र के विकल्प के रूप में किसी तंत्र का निर्माण नहीं किया। बल्कि इसके भीतर एक तंत्र-विरोधी क्षेत्र या स्थान बनाया, जो अब स्पष्टतया समाप्त हो गया है। यदि शेष कुछ बचे हैं तो वे कुछ पॉकेट्स हैं जिनमें आज भी विविध समाजवादी प्रयोग किए जा रहे हैं।

 

उत्तर आधुनिकतावाद के दौर में क्रांति पर सबसे तेज हमले हुए हैं। इन हमलों के आंतरिक और बाह्य दोनों ही किस्म के रूप हैं। क्योंकि उत्तर आधुनिकता के दौर पर क्रांति की अवधारणा के खिलाफ जितना लिखा गया है उतना अन्य किसी अवधारणा के बारे में नहीं लिखा गया है। क्रांति संबंधी बहस का बृहत्तर रूप में गहरा संबंध सिद्धांत और व्यवहार की एकता के साथ है। इस प्रसंग में पहली बात यह कि क्रांति का वास्तव अर्थ इन दिनों विकृत हुआ है। उसका अवमूल्यन हुआ है। क्रांति का अर्थ परिवर्तन मान लिया गया है और प्रत्येक परिवर्तन को क्रांति कहने का रिवाज चल निकला है। क्रांति के अर्थ का यह विकृतिकरण है। क्रांति का अर्थ है बुनियादी या आमूल-चूल परिवर्तन। क्रांति पर बहस करते हुए आमतौर पर कुछ इमेजों,कुछ आख्यानों, कुछ देशों ,कुछ खास क्षण विशेष आदि का जिक्र किया जाता है। क्रांति पर बात करने के लिए उसे साम्यवादी और साम्यवादविरोधी विचारकों और प्रचार सामग्री के द्वारा निर्मित इमेजों से बाहर आकर देखने की जरूरत है।

 

क्रांति अनंत क्षण में नहीं बल्कि समकालिक क्षण में घटित होती है। इसमें प्रत्येक चीज एक-दूसरे जुड़ी होती है। क्रांति का मतलब राजतंत्र या समाजतंत्र का ‘सुधार’ या ‘अल्प सुधार’ नहीं है क्रांति का मतलब किसी काल्पनिक मानसिक जगत में परिवर्तन से नहीं है। बल्कि इसका संबंध आमूल-चूल परिवर्तन से है। ये परिवर्तन एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं। क्रांति कोई बनी- बनायी परंपरा का निर्माण नहीं है। बल्कि मूलभूत परिवर्तनों का पुनरान्वेषण है। क्रांति कोई तयशुदा तर्कसंघर्ष नहीं है । इसी प्रसंग में प्रसिद्ध मार्क्सवादी फ्रेडरिक जेम्सन ने तीसरी थीसिस में लिखा है ,सामाजिक क्रांति अनंत समय का एक क्षण मात्र नहीं है। प्रत्युत समकालिक तंत्र में परिवर्तन की आवश्यकता की पुष्टि है, जिसमें हर चीज एक साथ है और एक दूसरे से अंतर्संबधित है। इस प्रकार का तंत्र संपूर्ण तंत्रगत परिवर्तन की मांग करता है, न कि अल्प ‘सुधार’, जिसे निंदात्मक अर्थ में ‘मनोराज्य विषयक’ कहा जाता है, जो भ्रामक है, व्यवहार्य नहीं। अभिप्राय यह है कि यह तंत्र वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर एक रैडिकल सामाजिक विकल्प की विचारधारात्मक दृष्टि की मांग करता है, ऐसा कुछ जिसे वर्तमान तर्कमूलक संघर्ष के अंतर्गत दिया हुआ या विरासत में मिला नहीं माना जाए, बल्कि जो पुनरान्वेषण की मांग करे। धार्मिक रूढ़िवाद (चाहे वह इसलामी, ईसाई, या हिंदू रूढ़िवाद हो) जो उपभोक्तावाद या ‘अमरीकी जीवन शैली’ का रैडिकल विकल्प देने का दावा करता है, तभी महत्वपूर्ण अस्तित्व प्राप्त करता है जब पारंपरिक वाम विकल्प खासकर मार्क्सवाद और साम्यवाद की महान क्रांतिकारी परंपराएं अचानक अनुपलब्ध प्रतीत होने लगती हैं। क्रांति एक प्रक्रिया है और समकालिक परवर्ती पूंजीवादी तंत्र का अवसान भी है। लेकिन इसका प्रस्थान बिंदु राष्ट्रीय सप्रभुता की रक्षा के सवालों से आरंभ होता है। परवर्ती पूंजीवाद के जमाने में राष्ट्रीय संप्रभुता ही दांव पर लगी है। किसी भी देश को स्वतंत्र रूप से अपनी नीतियां बनाने और विकास करने का हक नहीं है। क्रांतिकारी ताकतों का यह विश्व एजेण्डा है।क्रांतिकारी ताकतों का आंतरिक एजेण्डा है हाशिए के लोगों को उनकी जनवादी मांगों के इर्दगिर्द एकजुट करना। समाज में प्रत्येक व्यक्ति को संघर्ष की अवस्था में इस या उसके साथ खड़े होने,प्रतिबद्ध होने के लिए तैयार करना। परवर्ती पूंजीवाद ने गैर प्रतिबद्धता की हवा चला दी है,इस हवा को जनवादी प्रतिबद्धता के आधार पर ही चुनौती दी जा सकती है। आम लोगों को जनवादी विचारों के प्रति प्रतिबद्ध बनाना,हाशिए के लोगों की जनवादी मांगों के आधार पर एकजुट करना, उनके संगठनों और संघर्षों को आयोजित करना वास्तव अर्थों में क्रांति के मार्ग पर ही चलना है।

न्यू मीडिया ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को विश्वस्तरीय पहचान दी

तीन मई विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर विशेष

सरमन नगेले

 

विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस (तीन मई) सत्ता के दुरूपयोग, भ्रष्टाचार का पता लगाने और प्रमुख मुद्दों के बारे में नागरिकों को जानकारियां देने की चुनौतियों के क्षेत्र में मीडिया द्वारा निभाई जा रही अहम भूमिका को बयां करता है।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन और ईरान जैसे देशों पर यह आरोप लगाया है कि वे इंटरनेट और मोबाइल फोन जैसे संचार के माध्यमों पर पूर्ण पहुंच को सीमित कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम कर रहे हैं।

ओबामा का मानना है कि जब लोग इंटरनेट, मोबाइल फोन और अन्य माध्यमों के जरिए पहले से कहीं अधिक सूचना पा रहे हैं, चीन, इथोपिया, ईरान और वेनेजुएला ने इन प्रौद्योगीकियों तक पूरी तरह से पहुंच और इनके इस्तेमाल पर रोक लगा रखी है।

बहरहाल, न्यू मीडिया ने परंपरागत मीडिया की निर्भरता से निजात दिलाई है। अब देश-दुनिया के लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्रों एवं चैनलों के पत्रकार आजकल अपना पक्ष न्यू मीडिया पर बेहिचक रख रहे हैं।

काबिलेगौर है कि न्यू मीडिया ने ही बीते वर्ष कई बड़े खुलासे किये हैं। दुनिया के कई देशों को हिला देने वाले विकीलीक्स के संपादक जूलियन असांजे पत्रकारिता को ही न्यू मीडिया के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रोत्साहित कर रहे हैं।

कुल मिलाकर सोशल मीडिया ने दुनिया को एक गांव के रूप में तब्दील कर दिया है। स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को निशुल्क मौका देकर इसने मीडिया को पंख लगा दिये हैं, यह पत्रकारिता को प्रोत्साहित करता है, यही एक ऐसा मीडिया है जिसने अमीर, गरीब और मध्यम वर्ग के अंतर को समाप्त कर दिया है। कुल मिलाकर मीडिया के सोशल मीडिया ने सारे मायने ही बदल दिये हैं।’’

दुनिया में पिछले एक दशक के दौरान सूचना प्रौद्योगिकी और संचार के जरिए अनेक परिवर्तन हुए हैं। ये वे परिवर्तन है जो सोशल मीडिया के जनक हैं। यह मीडिया आम जीवन का एक अनिवार्य अंग जैसा बन गया है।

जहां तक सवाल मीडिया का है तो वह पांच प्रकार का है। पहला प्रिंट, दूसरा रेडियो, तीसरा दूरदर्शन, आकाशवाणी और सरकारी पत्र-पत्रिकाएं, चौथा इलेक्ट्रानिक यानि टीवी चैनल, और अब पांचवा सोशल मीडिया।

मुख्य रूप से वेबसाइट, न्यूज पोर्टल, सिटीजन जर्नलिज्म आधारित वेबसाईट, ईमेल, सोशलनेटवर्किंग वेबसाइटस, फेसबुक, माइक्रो ब्लागिंग साइट टिवटर, ब्लागस, फॉरम, चैट सोशल मीडिया का हिस्सा है।

लगभग प्रतिदिन समाचार पत्रों के पन्नों पर सोशल मीडिया से उठाई गई खबर या उससे जुड़ी हुई खबर रहती है। फकत, यही मीडिया है जो पत्रकारिता को प्रोत्साहित कर रहा है।

गौरतलब है कि पोर्टल व न्यूज बेवसाइट्स ने छपाई, ढुलाई और कागज का खर्च बचाया तो ब्लॉग ने शेष खर्च भी समाप्त कर दिए। ब्लॉग पर तो कमोबेस सभी प्रकार की जानकारी और सामग्री वीडियो छायाचित्र तथा तथ्यों का प्रसारण निशुल्क है साथ में संग्रह की भी सुविधा है।

सोशल मीडिया का संबंध सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक और सूचना टेक्नॉलाजी व इंटरनेट से नहीं है बल्कि यह व्यवस्था के सुधारों को साकार करने का एक शानदार अवसर भी उपलब्ध कराता है।

तीन मई विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है, यह दिन प्रेस की स्वतंत्रता के बारे में बातें करने के लिए मुकर्रर है, ऐसा नहीं है कि इस दिन किसी देश में प्रेस को स्वतंत्रता मिल गई थी या उसकी स्वतंत्रता छिन गई थी.

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1993 में तय किया कि अगर प्रेस की आजादी के बारे में तीन मई को हर वर्ष पूरी दुनिया में बात की जाए तो अच्छा रहेगा, दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में प्रेस को चौथा खंभा माना जाता है, कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को जनता से जोड़ने वाला खंभा.पत्रकारों को कई सुविधाएँ मिलती हैं जैसे कई अतिविशिष्ट स्थानों पर आने-जाने की आजादी, कार्यक्रमों में बेहतर कुर्सी, रेल के आक्षरण के लिए अलग खिड़की, रेल यात्रा में 50 फीसदी रियायत की सुविधा ताकि वे अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह ठीक से कर सकें।

दरअसल, जिन लोगों की जिम्मेदारी दूसरों के कामकाज की निगरानी, टीका-टिप्पणी और उस पर फैसला सुनाने की होती है उनकी जवाबदेही कहीं और ज्यादा हो जाती है. न्यायपालिका और मीडिया इसी श्रेणी में आते हैं. पत्रकारों और जजों की गैर-जिम्मेदारी पर चर्चा बहुत कम होती है लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि उनकी गलतियों और उनके अपराधों की गंभीरता कम है।

पत्रकार भी समाज का ही हिस्सा हैं, समाज में भ्रष्टाचार, बेईमानी और सत्ता के दुरुपयोग की जितनी बीमारियाँ हैं उनसे पत्रकारों के बचे रहने की उम्मीद करना नासमझी है. मीडिया की ताकत को बनाए रखना मीडिया के हाथ में है और विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर बात होनी चाहिए कि प्रेस की सच्ची स्वतंत्रता हमेशा कैसे बनी रहे।

(लेखक- न्यूज पोर्टल एमपीपोस्ट डॉट ओआरजी के संपादक हैं।)

व्यंग्य – टेक्नालॉजी का फसाना

राजकुमार साहू

 

सबसे पहले आपको बता दूं कि औरों की तरह मैं भी तकनीक की टेढ़ी नजर से दूर नहीं हूं। तकनीक के फायदे कई हैं तो नुकसान तथा फजीहत भी मुफ्त में मिलती हैं। वैसे मेरे पास न तो विरासत में मिली संपत्ति है और न ही मैंने इतनी अकूत संपत्ति जुटाई है, जिससे जिंदगी बड़े आराम से गुजरे। मेरा तो ऐसा हाल है, जैसे बिना सिर खपाए कुछ बनता ही नहीं, मगर पिछले दिनों से इस बात को लेकर चिंतित हूं कि मैं रातों-रात लखपति क्या, करोड़पति से अरबपति बनते जा रहा हूं। दरअसल, मैंने सोचा कि जब बड़े शहरों में तकनीक की खुमारी छाई हुई है तो क्यों न, मैं भी बहती गंगा में डूबकी लगा लूं। सो, मैंने अपनी एक ई-मेल आईडी बना ली। जब से मेरी ई-मेल आईडी बनी है, उसके बाद तो जैसे मेरे सामने धन कमाने का द्वार खुल गया है तथा कुबेर देव साक्षात् आ गए हैं। ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब मैं लखपति व करोड़पति नहीं बनता। हर समय कोई न कोई जैकपॉट मुझे मिला ही रहता है। ऐसा लगता है, जैसे भाग्य मेरे सिर पर आकर टिक गया है।

मैं भी गदगद हूं कि चलो तकनीक से जुड़ने का कुछ तो फायदा मिल रहा है। ठीक है, मेरे मन में अकूत धन जुटाने की ललक है, मगर मुझे यह भी मालूम है कि जब तक मैं कहीं किसी योजना में हाथ साफ नहीं करूंगा, किसी उंचे पद पर काबिज नहीं होउंगा, सत्ता की धन जुटाउ चाबी का लाभ नहीं उठाउंगा, तब तक नहीं लगता कि मैं फूटी कौड़ी जुटा सकता हूं ? अमीर बनने का सपना तो हर पल मन में समाया रहता है और मैं अपनी ओर से दो-चार पैसे जोड़कर अपनी ख्वाहिश पूरी करने की कोशिश भी करता हूं। हां, इतना जरूर लगता है कि अब मेरे भाग्य का बंद कपाट खुल गया है, क्योंकि इन दिनों रोज ही लखपति से करोड़पति बनने का सुनहरा मौका जो मिल रहा है।

एक बात बता दूं, मेरे पास कोई अथाह संपत्ति नहीं है, लेकिन इतना जरूर है कि ई-मेल आईडी बनाने तथा तकनीक से जुड़ने का मुझे भरपूर फायदा मिल रहा है। मुझे एक बात समझ में आती है कि यदि मैं जीवन भर पाई-पाई भी जोड़ूं तो भी कभी करोड़पति बनने का नहीं सोच सकता ? मगर अब मुझे अपनी मानसिकता बदलनी पड़ रही है, क्योंकि मैं जैसे ही अपना मेल खोलता हूं तो मेरे चेहरे खिल जाते हैं। मन अमीरी दुनिया में गोता लगाने लगता है, पल भर में दुनिया की मनचाही सुविधा हाथ में नजर आती है। यह स्वाभाविक भी लगता है कि जब किसी को जैकपॉट लगेगा तो वह उछलेगा, नाचेगा जरूर ? मेरी भी हालत कुछ ऐसी ही हो गई है। मेल पर ईनामी जानकारी मिलते ही मेरा अनमना मन आनंद से भर जाता है। जब कोई दो रूपये भी ईनाम में जीतता है या फिर कोई चीज, किसी सामान के साथ गिफ्ट में मिलता है। इस समय ऐसा लगता है, जैसे सारे जहां की संपत्ति हाथ आ गई है ? यह बात सोचकर हैरत में पड़ने से परे नहीं रह पाता कि मैं हर दिन करोड़ों का कृपा पात्र बनता हूं ? और तकनीक के फसाने का पूरा लुत्फ उठाने की कोशिश कर रहा हूं, किन्तु कुछ हाथ आए तो मजा आए ?

फिलहाल मैं देखते ही देखते करोड़पति तो बन गया हूं, किन्तु जेब में कंगाली छाई हुई है। तकनीक से जुड़कर अमीर बनने के सपने ऐसे पूरे होते हैं, यह जानकर मैं सोच रहा हूं कि इंटरनेट पर ऐसा कौन महान दानदाता बैठा है, जो समाज सेवा कर रहा है ? इनके सामने तो बफेट व बिल गेट्स जैसे व्यक्ति भी फेल खाते नजर आ रहे हैं ? मुझे इस बात से संतुष्टि है कि नोटों की गड्डी बटोरने के मेरे सपने, किसी तरह पूरे होते दिख रहे हैं, लेकिन मुझे यह भी सोचकर जलन होने लगी कि मुझ जैसे अन्य लोगों पर भी तकनीक पूरी तरह मेहरबान है और वे भी हर दिन लखपति-करोड़पति बन रहे हैं। कहीं आप भी इस कतार में तो नहीं है ? यदि हैं तो संभल जाइए…

कश्मीर में नरम पड़ते कट्टरपंथी

प्रमोद भार्गव

क्या वाकई कश्मीर में कट्टरपंथी नरम व सद्भाव का आचरण प्रदर्शन करने वाले हैं ? हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी गुट के अध्यक्ष सैय्यद अली शाह गिलानी का कश्मीर में विस्थापित पंडितों को आमंत्रण देने संबंधी बयान से तो यही संकेत मिलता है। गिलानी ने केंद्र व राज्य सरकार के उस सुझाव को भी दरकिनार किया है, जिसमें विस्थापति कश्मीरी पंडितों के लिए अलग से सुरक्षित क्षेत्र बनाने की पहल की गई है। यही नहीं गिलानी ने अपने अंतर्मन की पीड़ा को शब्द देते हुए यहां तक कहा, कि पंडितों को वादी में अलग आवासीय बस्ती बनाकर देने से तो यह अर्थ निकलेगा कि सरकार दोनों समुदायों को गुटों में बांटकर राजनीतिक खेल खेलना चाहती है। ऐसा होता है तो इससे कटुता के पैगाम का विस्तार होगा। हम चाहते हैं पंडित भाई दो दशक पहले की तरह समरसता और समभाव के माहौल में रहें। वे अपने उन्हीं गांवों, कस्बों और शहरें मे ंरहें, जहां के वे पुश्तैनी बासिंदे हैं। गिलानी के मुताबिक आप भले ही घाटी में अल्पसंख्यक हैं, लेकिन आप हमारे बंधु हैं। लेकिन इस बयान को तबजजो देते हुए क्या उमर अब्दुल्ला सरकार विस्थापित पंडितों को कश्मीर में बसाने की रूचि लेते हुए उनके पुनर्वास की सकारात्मक पहल करेगी, इसमें थोड़ा अंदेशा है ?

पंडितों के विस्थापन के दो दशक बाद किसी कट्टरपंथी गुट के मुखिया का शायद यह पहला बयान है जिसने पंडितों से कश्मीर में वापिसी की मार्मिक अपील की है। अन्यथा अब तक नासूर खत्म करने के जितने भी उपाय सामने आए हैं उनमें अलगाववाद को पुष्ट करने, कश्मीर को और अधिक स्वायत्ताता देने और पंडितों के लिए केंद्र शासित अलग से ‘पनुन कश्मीर’ राज्य बना देने के प्रावधान ही सामने आए हैं। एक संप्रभुता वाले राष्ट्र-राज्य की संकल्पना वाले नागरिक समाज में न तो ऐसे प्रस्तावों से पंडितों की समस्याएं हल होने वाली हैं और न ही कश्मीर का धर्मनिरपेक्ष चरित्र बहाल होने वाला है, जो भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा है।

1990 में शुरू हुए पाक प्रायोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने की सुनियोजित साजिश रची गई थी। इस्लामी कट्टरपंथियों का मूल मकसद घाटी को हिन्दुओं से विहीन कर देना था, इस मंशापूर्ति में वे सफल भी रहे देखते-देखते वादी से हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। पूरे जम्मू-कश्मीर में करीब 45 लाख कश्मीरी पंडित हैं, जिनमें से 7 लाख से भी ज्यादा विस्थापन का दंश झेल रहे हैं।

कश्मीर की महिला शासक कोटा रानी पर लिखे मदन मोहन शर्मा ‘शाही’ के प्रसिध्द ऐतिहासिक उपन्यास ‘कोटा रानी’ पर गौर करें तो बिना किसी अतिरिक्त आहट के शांति और सद्भाव का वातावरण विकसित हुआ। प्राचीन काल में कश्मीर संस्कृत, सनातन धर्म और बौध्द शिक्षा का उत्कृष्ठ केंद्र था। ‘नीलमत पुराण’ और कल्हण रचित ‘राजतरंगिनी’ में कश्मीर के उद्भव के भी किस्से हैं। कश्यप ऋषि ने इस सुंदर वादी की खोज कर मानव बसाहटों का सिलसिला शुरू किया था। कश्यप पुत्र नील इस प्रांत के पहले राजा थे। कश्मीर में यहीं से अनुशासित शासन व्यवस्था की बुनियाद पड़ी। 14 वीं सदी तक यहां शैव और बौध्द मतों ने प्रभाव बनाए रखा। इस समय तक कश्मीर को काशी, नालंदा और पाटली पुत्र के बाद विद्या व ज्ञान का प्रमुख केंद्र माना जाता था। कश्मीरी पंडितों में ऋषि परंपरा और सूफी संप्रदाय साथ-साथ परवान चढ़े। लेकिन यही वह समय था जब इस्लाम कश्मीर का प्रमुख धर्म बन गया।

सिंध पर सातवीं शताबदी में अरबियों ने हमला कर और उसे कब्जा लिया। सिंध के राजा दाहिर के पुत्र जयसिंह ने भागकर कश्मीर में शरण ली। तब यहां की शासिका रानी कोटा थीं। कोटा रानी के आत्म-बलिदान के बाद पार्शिया से आए इस्लाम के प्रचारक शाह मीर ने कश्मीर का राजकाज संभाला। यहीं से जबरन धर्म परिवर्तन करते हुए कश्मीर का इस्लामीकरण शुरू हुआ। जिस पर आज तक स्थायी विराम नहीं लगा है। विस्थापित पंडितों के घरों पर स्थानीय मुसलमानों का कब्जा है। इन्हें निष्कासित किए बिना भी पंडितों की वापिसी मुश्किल है।

कश्मीर घाटी में लाखों विस्थापितों का संगठन हिन्दुओं के लिए अलग से पनुन कश्मीर राज्य बनाने की मांग उठाता चला आ रहा है। हालांकि पनुन कश्मीर के संयोजक डॉ. अग्नि शेखर पृथक राज्य की बजाय घाटी के विस्थापित समुदाय की सुरक्षित वापिसी की मांग अर्से से कर रहा है। जायज भी यही है। गिलानी ने भी इसी सुर में सुर मिलाया है। हाल ही में नौकरी के बहाने तकरीबन 350 युवक व युवतियों की घाटी में वापिसी भी हुई है। यदि उमर अब्दुल्ला सरकार इनका पुश्तैनी घरों में पुनर्वास करने की मंशा जताती है तो वाकई कश्मीर के अभिन्न अंग विस्थापित हिन्दुओं के लौटने की उम्मीद बढ़ सकती है। उमर सरकार को गिलानी के मत से सहमति जताने की जरूरत है।

लेकिन दुर्भाग्य से उमर सरकार जब से कश्मीर में वजूद में आई है तब से वह ऐसी काई राजनीतिक इच्छा-शक्ति जताती नहीं दिखी, जिससे विस्थापितों के पुनार्वास का मार्ग सरल होता। केंद्र सरकार द्वारा 25 अप्रैल 2008 को हिन्दुओं के पुनर्वास और रोजगार हेतु 1618.40 करोड़ रूपए मंजूर किए गये थे, किंतु राज्य सरकार ने इस राशि का कतई उपयोग नहीं किया। इस राशि को खर्च न किए जाने के सिलसिले में उमर अब्दुल्ला का बहाना है कि अमरनाथ यात्रा के लिए जो भूमि आंदोलन चला था, उस वजह से आवास और रोजगार के कार्यों को आगे नहीं बढ़ाया जा सका। लेकिन अब कश्मीर में कमोबेश शांति है और कट्टरपंथी भी नरमी दिखा रहे हैं। यह एक ऐसा सुनहरा अवसर है जिसका लाभ उठाकर उमर यदि हिन्दुओं के पुनर्वास की पहल करते हैं तो घाटी में समरसता का वातावरण बनेगा और अपने ही राज्य में विस्थापितों की अलग बस्ती बना देने के कलंक से भी राज्य सरकार बची रहेगी।

भारत का मेडिकल टूरिज्म और ओबामा की चिन्ता

डॉ0 मनोज मिश्र

यह मात्र संयोग नहीं है कि भारत के विरूध्द सुपर बग तथा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की अमेरिकियों के सस्ते इलाज के लिए भारत या मैक्सिकों जाने की चिन्ता हो, दोनो ही मामलों में भारत के विरूध्द कुप्रकार की गन्ध तो मिलती ही है और साथ ही भारत की धीरे-धीरे बढ़ती ताकत का एहसास भी पूरी दुनियॉ महसूस कर रही है। ज्ञान के युग में जिस सर्वाधिक संसााधन की आवश्यकता होती है वह मानव संसाधन है, जिसकी पूंजी भारत की झोली में नैसर्गिक तौर पर है। उदारीकरण के बाद आई टी की धूम ने भारतीय मेधा की पहचान अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार कराई। आई टी के साथ-साथ दवा उद्योग, वाहन उद्योग सहित कई उद्योगों ने अन्तर्राष्ट्रीय पहचान इन बीते 20 वर्षों में देश की मेधा ने बनाई। इन सारे उद्योगों या इनके इतर अन्य मामलों में भारत की वैश्विक बढ़त का मुख्य कारण भारतीय मेधा ही थी। अमेरिका सहित सारे विकसित देश इस उभरती भारतीय क्षमता को हतोत्साहित करने का प्रयास नये-नये तरीकों से करते रहते है। अमेरिका द्वारा आऊट सोर्सिंग पर प्रतिबन्ध या आऊट सोर्स कराने वाली कम्पनियों पर कर वृध्दि का मामला, एच1बी बीजा को आठ गुना महॅगा करने का विषय, सुपर बग का कुप्रचार या अमेरिकी नागरिकों का भारत में इलाज के लिए आने का मसला हो, हर तरह से अपनी श्रेष्ठता से पीड़ित अमेरिका और अमेरिकी राष्ट्रपति भारत को घेरने की हर संभव कोशिश करते दिखते है और भारत को बदनाम कर उसकी व्यवसायिक क्षमता की धार को कुन्द करने का प्रयास करते है।

अभी आल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बर्जीनिया के एक कार्यक्रम में कहा कि मेरी प्राथमिकता होगी कि अमेरिकी जनता सस्ते इलाज के लिए मैक्सिकों या भारत न जायें। भारतीय स्वास्थ्य जगत में जबर्दश्त प्रतिक्रिया स्वाभाविक तौर पर हुई जिसकी अपेक्षा इस खुली और तथाकथित बराबर के मौकों वाली वैश्विक अर्थव्यवस्था में होनी चाहिए थी। प्रतिस्पर्धा के लिए समतल मैदान की बाते तथा मुक्त अर्थव्यस्था का पैरोकार अमेरिका लगातार अपने देश की कृषि तथा उद्योगों को अतिरिक्त संरक्षण दे रहा है तथा दूसरे अन्य संभावना वाले देशों की राह में रूकावट पैदा कर रहा है। यह सच है कि अमेरिका की स्वास्थ्य सेवायें भारत की स्वास्थ्य सेवाओं के मुकाबले कई गुना मंहगी है। अमेरिकी राष्ट्रपति अपने यहॉ ‘हेल्थ केयर रिफार्म पैकेज’ से काफी उम्मीदें लगाये बैठे है जिसके अनुसार अमेरिका में इलाज आम आदमी की पहुॅच के अन्दर आ जायेगा। अमेरिका के स्वास्थ्य सेवायें निजी हाथों में है तथा यह काफी महॅगी है। जो आम जनता की पहुॅच से काफी बाहर है। अमेरिका में भारत के सापेक्ष इलाज 10 से 15 गुना तक महॅगा है। अमेरिकन मेडिकल एशोसियेशन के एक अनुमान के मुताबिक अमेरिका में भारत के मुकाबले हार्ट बाईपास 13 गुना, हार्ट वाल्व बदलना 16 गुना, एन्जियोप्लास्टी 5 गुना, कूल्हा प्रत्यारोपण 5 गुना, घुटना प्रत्यारोपण 5 गुना तथा स्पाइनल फ्यूजन लगभग 11 गुना महॅगा है। अमेरिका में स्वास्थ्य बीमा महॅगे होने के कारण लगभग 4 करोड़ लोग बिना बीमा के जीवन यापन कर रहे है। पूरे देश में महॅगी स्वास्थ सेवाओं के कारण अमेरिकी राष्ट्रपति सवालो के घेरे में है। अत खर्चों में कटौती की बात कर स्वास्थ्य सेवाओं को सस्ता करने का प्रयास भारत की किफायती और उच्चस्तरीय स्वास्थ्य सेवाओं को लांक्षित करके नहीं किया जा सकता है।

भारत में स्वास्थ्य सेवायें निजी क्षेत्र में आधुनिक और उच्च स्तरीय होती जा रही है तथा भारत की छवि ‘मेडिकल टूरिज्म’ के क्षेत्र में उत्तरोत्तर सुधरती जा रही है। पिछले वर्ष भारत में लगभग 6 लाख विदेशी अपने इलाज के लिए भारत आये थे तथा इस वर्ष इस आकड़े में और वृध्दि की संभावना है। अपने देश में एक तरफ इलाज स्तरहीन तथा अनुपलब्ध है। वहीं दूसरी ओर निजी क्षेत्र के अस्तपताल ‘मेडिकल टूरिज्म’ की संभावना को ध्यान में रखकर अपना स्तर तथा उपलब्धता बढ़ाते ही जा रहें है। पिछले वर्ष अपोलों अस्तपताल में अकेले 60,000 के आसपास विदेशी मरीज अपने इलाज के लिए आये थे जिनमें अमेरिका और यूरोप के लगभग 20 प्रतिशत मरीज थे। मैक्स अस्पताल तथा फोर्टिंस अस्पताल में भी क्रमश: 20,000 तथा 6,000 विदेशी मरीज अपने-अपने इलाज के लिए यहॉ आये थे जिसमें लगभग 20 प्रतिशत मरीज अमेरिका और यूरोप से आये थे। देश में विदेशी मरीजों के कारण्ा लगभग 4,500 करोड रूपये की आय हुई थी। देश के सभी निजी अस्पताल इन विदेशी मरीजो की संभावनाओं के कारण अपना वैश्विक विस्तार कर रहे है, उच्च स्तरीय सुविधायें मुहैया करा रहे है, दूसरे देशों के प्रमुख अस्तपतालों के सहयोग का अनुबन्ध कर रहे है, सूचना/सुविधा केन्द्र खोल रहे है तथा इन्टरनेट का भरपूर इस्तेमाल कर रहें हैं। इस तरह भारत में किफायती और अच्छा इलाज उपलब्ध होने की संभावनाये वैश्विक स्तर पर धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। अत: स्वाभविक ही है कि अच्छा और किफायती इलाज दुनियॉ में जहॉ भी उपलब्ध होगा ‘ग्लोबल विलेज’ का नागरिक उस ओर ही रूख करेगा। ‘मेडिकल टूरिज्म’ की बढने के साथ ही देश के लोगों की नौकरियॉ और व्यवसाय की संभावनाये भी बढ़ती जायेगी। इस समय सूचना केन्द्र/सुविधा केन्द्र का व्यवसाय, टेलिमेडिसन का व्यवसाय, विदेश मरीजों के लिए गेस्ट हाउस, दुभाषियों के सुनहरे मौके, अस्पताओं का विस्तार और दवा उद्योग का विस्तार, दवा के दुकानदारों की वृध्दि, हर देश के नागरिक की रूचि के अनुसार भोजन का व्यवसाय तथा मेडिकल इन्श्योरेन्स के व्यवसाय की वृध्दि लाजिमी है। भारत का निजी क्षेत्र इस संभावना का दोहन वैश्विक स्तर पर कर लेना चाहता है। इस समय मेडिकल टूरिज्म के मालमे में अकेले भारत ही नहीं बल्कि थाईलैण्ड, मलेशिया, ब्राजील और सिंगापुर भी बड़ी संख्या में अपने यहॉ विदेशी मरीजों को आकर्षित कर रहे है, अत: इस क्षेत्र में भी जबर्दश्त प्रतिस्पर्धा चल रही है।

इस समय एक ओर तो मेडिकल टूरिज्म की वृध्दि हो रही है वही दूसरी ओर निजी स्वास्थ्य सेवायें देश के गरीबों की पहुॅच से बाहर होती जा रही है। अमेरिका के अन्दर भी बुरे हालात परिणाम तक पहुॅच चुके है। भारत के समक्ष भी खतरा हो सकता है। क्योंकि देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाये नाकाफी और नकारा साबित होती जा रही है। एक अरब इक्कीस करोड़ की आबादी के हिसाब से स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता तथा स्तरहीनता चिन्ता का विषय है। सरकार और निजी क्षेत्र को आपस में सहयोग कर एक ऐसा मॉडल तैयार करना चाहिए जिसमें देश की स्वास्थ्य सेवायें आम आदमी की पहुॅच के अन्दर रहे तथा दूसरी तरफ विदेशी मरीजों को उच्चस्तरीय सुविधायें उचित दामों पर उपलब्ध हों। भारत की आबादी का यह विरोधाभास चुनौती भी है और ताकत भी है। हमें युवा आबादी के इस चुनौती को देश की ताकत के रूप में परिवर्तित करना है।

इस मेडिकल टूरिज्म के कारण भारत की निजी स्वास्थ्य सेवायें की भी उच्चस्तरीय एवं वैश्विक स्तर की होने की आवश्यकता बढ़ रही है। इस क्षेत्र में जबर्दश्त प्रतिस्पर्धा में बढ़त के लिए भारत सरकार को भी आगे आना होगा। अभी तक की सारी सफलतायें निजी क्षेत्र के प्रयासो के कारण है जिसमें सरकार की भूमिका नगण्य है। सरकार को मेडिकल टूरिज्म के मार्ग में आने वाली बाधाओं को जल्द से जल्द समाप्त करने के प्रयास करने होगें। पूरी दुनियॉ में महॅगी होती स्वास्थ्य सेवाये जहॉ उन देशों की चिन्ता का कारण है वहीं हमारे लिए संभावनाओं का मैदान भी है। अत: हमें इन संभावनाओं का हर संभव दोहन कर भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करनी चाहिए। अमेरिका सहित लगभग सभी विकसित देश महॅगी स्वास्थ्य सेवाओं को आसानी से सस्ता नहीं कर पायेगें। अत: अमेरिकी राष्ट्रपति की चिन्ता उनके लिए समस्या है भारत के लिए तो संभावना है। भारत में भी एक चिन्ता हो रही है कि बीमा आधारित स्वास्थ्य सेवाओं का माडल अमेरिका में असफल होता जा रहा है। अत: इस तरह की स्वास्थ्य सेवा भारत में तो निश्चित तौर पर असफल हो जायेगी क्योंकि यहॉ की आबादी अमेरिका की आबादी का लगभग 4 गुना है। अत: स्वास्थ और शिक्षा के क्षेत्र में किसी विदेशी मॉडल की बजाय अपने देश के हिसाब से मॉडल बनाकर हर वर्ग को समाहित करने का प्रयास करना चाहिए।

इसरो की साख कायम

डॉ0 मनोज मिश्र

दूर सम्बेदी उपग्रह रिसोर्ट सेट-2 के पृथ्वी की कक्षा में सफलतापूर्वक प्रक्षेपण के साथ ही ‘इसरो’ के वैज्ञानिकों तथा अधिकारियों ने राहत की सांस ली। पिछले वर्ष जी0एस0एल0वी0डी-3 तथा जी0एस0एल0वी0एफ-06 के असफल प्रक्षेपणों के बाद तथा ‘इसरो’ की व्यापारिक इकाई एन्ट्रिक्स का निजी व्यावसायिक कम्पनी ‘देवास’ के साथ करार के घोटाले की खबरों से भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन ‘इसरो’ की प्रतिष्ठा धूमिल हुई थी। देश से सबसे भरोसे मन्द प्रक्षेपण यान पी0एस0एल0वी0सी0-16 ने एक साथ तीन उपग्रहों को सफलता पूर्वक प्रक्षेपित कर सिध्द कर दिया कि देश को जी0एस0एल0वी0 यान प्रक्षेपण क्षमता में भले ही सन्देह हो परन्तु पी0एस0एल0वी0 प्रक्षेपण्ा यान केवल भरोसेमन्द ही नहीं बल्कि किफायती भी है। इस बार एक साथ तीन रिसोर्स सेट-2, भारत-रूप के सहयोग से बने यूथसेट तथा सिंगापुर के नानयाग टेक्निकल वि0वि के ‘एक्स सेट’ उपग्रह अंतरिक्ष में पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किये गये। इन तीनों का बजन क्रमश: 1206 किग्रा0, 93 किग्रा0 तथा 106 किग्रा0 हैं इन सफल प्रक्षेपण से भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन के विभिन्न आयामों की चर्चा स्वाभाविक तौर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अन्तरिक्ष जगत में होने लगी है।

इस बार प्रक्षेपित किये गये दूर संवेदी उपग्रह ‘रिसोर्ससेट-2’ के साथ ही लगभग 8000 करोड़ के वैश्विक प्रक्षेपण बाजार में भारत की विश्वसनीयता और धमक भी बढ़ी है। भारत के पास दूर संवेदी उपग्रहों की दुनियॉ में सबसे बड़ा समूह है तथा यह दूर संवेदी उपग्रह ‘रिसोर्स सेट-1’ का स्थान लेगा जिसे सन् 2003 में प्रक्षेतिप किया गया था। भारत के दूर सम्बेदी उपग्रह की तस्वीरें पूरी दुनियॉ में अपनी श्रेष्ठता के लिए जानी जाती है क्योंकि इन उपग्रहों में लगे कैमरे 1 मीटर के रिजोल्यूशन से 500 मीटर रिजोल्यूशन तक के होते है। प्रेक्षेपित दूर सम्बेदी उपग्रह ‘रिसोर्ससेट-2’ भारत की कृषि, पर्यावरण, पहाड़ों पर ढकी बर्फ तथा ग्लेशियर के पिघलने के बारे में जानकरी देगा। इस उपग्रह की विश्ेष बात यह है कि इसमें लगे तीनों कैमरे पूरी दुनियॉ के देशों की मिट्टी आदि के ऑकड़े एकत्र करेगा तथा इस उपग्रह द्वारा भेजी गई तस्वीरें पूरी दुनिया के देशों को उपलब्ध कराई जायेगी। इसीलिए इस ‘रिसोर्ससेट-2’ उपग्रह को विश्वस्तरीय उपग्रह कहा जा रहा है। भारत विश्व बाजर में इस तरह के ऑकड़ों का बड़ा बिक्रेता है क्योंकि अकेले ‘रिसोर्ससेट-1’ के ऑकड़ों का उपयोग दुनियॉ के 15 देश कर रहे है। ‘रिसोर्ससेट-2’ का उपयोग देश की जरूरतों के हिसाब से काफी ज्यादा है। फसलों की पैदावार, पर्वत शिखरों पर बर्फ तथा ज्यादा या कम बर्फ पिघलने से नदियों के अन्दर पानी की अधिकता या कमी की जानकारी, समुद्री किनारों पर पर्यावरणीय परिवर्तन तथा देश की जमीन की जानकारी जिसमे धरती के अन्दर जल की मात्रा की जानकारी, ग्रामीण क्षेत्र में सड़कों के सम्पर्क का मानचित्र तथा वनों की कटाई या कमी की देखभाल करना जैसे महत्वपूर्ण विषय शामिल है। इस दूर सम्बेदी उपग्रह ‘रिसोर्ससेट-2’ के द्वारा पूरी दुनियॉ के डाटा जुटाये जा सकते है अत: जुटाये गये ऑकड़ो की पूरी दुनियॉ को जरूरत पड़ेगी जिससे दूर सम्बेदी उपग्रह प्रक्षेपण क्षेत्र के वैश्विक बाजार में देश धमक के साथ व्यापारिक बढ़त भी बनेगी।

पी0एस0एल0वी0 सी-16 द्वारा भारत-रूस के सहयोग से बने उपग्रह ‘यूथसेट’ की उपयोगिता भी सौर ऊर्जा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण साबित होगी। इस उपग्रह के द्वारा ‘सौर एक्स रे’ तथा ‘सौर गामा रे’ का अध्ययन किया जा सकेगा। इन अध्ययनों से सूर्य के अन्दर चल रही हलचलों का पृथ्वी के वातावरण के ऊपरी बाहरी सतह पर असर भी चल सकेगा। तीसरा महत्वपूर्ण प्रक्षेपण सिंगापुर के तकनीकी विश्वविद्यालय द्वारा तैयार ‘एक्स सेट’ उपग्रह है। जिसका उपयोग सिंगापुर के घरेलू प्रयोगों के लिए किया जायेगा। यह उपग्रह भी दूर सम्बेदी उपग्रह है। जिसकी विशेषता यह है कि इसके द्वारा लिये गये चित्र बहुत ही स्पष्ट तथा सन्देशपरक होगें। यह ‘एक्ससेट’ उपग्रह सिगांपुर का पहला छोटा उपग्रह है जिसे अंतरिक्ष की कक्षा में प्रक्षेपित किया गया है। यह उपग्रह अपने 3 वर्षीय जीवन काल में सिंगापुर के लिए वरदान साबित होगा, ऐसा सिंगापुर के लोगो का आकंलन है।

इन तीनों उपग्रहों के एक साथ प्रक्षेपण से भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन ‘इसरो’ वैश्विक प्रक्षेपण बाजार में एक बार फिर अपनी साख स्थापित करने में कामयाब हो गया है। यह सच है कि जहॉ एक ओर पी0एस0एल0वी0 प्रक्षेपण यान के मामले में भारत ने विशेषज्ञता हासिल कर ली है वहीं दूसरी ओर जी0एस0एल0वी0 यान के मामलें अभी ‘इसरो’ को काफी दूरी तय करनी है। ‘क्रायोजविक इन्जन’ के सफल परीक्षण के बाद भी जी0एस0एल0वी के द्वारा दो असफल प्रक्षेपणों ने भारत का आत्म विश्वास कुछ कम जरूर कर दिया है। अत भविष्य में ‘जी सेट-8’ का प्रक्षेपण ‘कोरू’ के फ्रेन्च गुयाना से मई माह में प्रस्तावित है। पी0एस0एल0वी0 सी-17 तथा सी-18 के द्वारा क्रमश: ‘जी सेट-12’ तथा भारत फ्रान्स के सहयोग से ‘मेधा-ट्राफिक’ उपग्रहों प्रक्षेपण अगले कुछ महीनो में किया जाना है तथा इसी वर्ष पी0एस0एल0वी0 सी-19 द्वारा ‘राइसेट’ (RISAT) का प्रक्षेपण भी होगा। अत: अगले कुछ महीनों में भारत का अन्तरिक्ष अनुसन्धान क्षेत्र व्यस्त कार्यक्रमों के लिए चर्चा का विषय रहेगें। इस सफलता से उत्साहित होकर ‘इसरो’ अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेन्सी ‘नासा’ के सहयोग से ‘मिशन मून’ पर विचार कर रही है। भारत का महत्वाकांक्षी ‘चन्द्रयान-2’ मिशन सन् 2013 प्रक्षेपित किया जाना है। जिसकी अनुमानित कीमत 462 करोड़ रूपये है। ‘इसरो’ के भविष्य के इन कार्यक्रमों से देश की अन्तरिक्ष जगत में बढ़त की ओर इशारा कर रहे है। कृषि क्षेत्र, वैज्ञानिक शोध, मनोरंजन का क्षेत्र या चन्द्रमा पर उपलब्ध खनिजों का पता लगाकर उनका उपयोग करने का ममला हो, उपग्रहों की आवश्यकता बढ़ती ही जायेगी और हमें हर हाल में अपनी क्षमता विकसित कर बढ़ानी ही पड़ेगी। आधुनिक युग विज्ञान, टेक्नोलॉजी, पर्यावरण, मनोरंजन, हेल्थ टूरिज्म तथा कृषि के आधुनिकीकरण का युग होगा जिसमें विभिन्न प्रकार के उपग्रहों की आवश्यकता पड़ेगी। जैसे-जैसे हम विकसित होते जायेंगें वैसे-वैसे हमारी आवश्यकताऐं बढ़ती जायेगीं और प्राकृतिक संसाधन कम होते जायेगें। इन उपग्रहों के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों का उचित दोहन तथा पर्यावरण संरक्षण के साधन विकसित होते जायेगें। भविष्य में वहीं देश पूरी दुनियॉ पर वर्चश्व कायम करेगा जिसका अंतरिक्ष क्षेत्र में दबदबा होगा।

कैकई का राष्ट्रहित

“कोशलोनाम मुदित, स्फीतो जनपदो महान।

निविश्टः सरयू तीरे, प्रभूत धनधान्यवान ॥”

प्राचीन काल में कोशल जनपद की महत्ता का वर्णन वाल्मीकि रामायण के उक्त श्लोक से स्वतः सिद्ध हो जाती है। ऐसे महान जनपद में राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखने वाली महान समरांगणी एवं अद्वितीय बुद्धिमती माता कैकेयी ने आसन्न महासंकट का अनुभव करते हुए जो अप्रत्याशित निर्णय लिया वह माता कैकेयी के जीवन को कलंकित करते हुए भी कोशल जनपद की मर्यादा एवं यशोगाथा को उस स्तर पर ले जाने में समर्थ हो गयी जिसे आज भारतीय जनमानस ही नहीं अन्तर्राश्ट्रीय हिन्दू जनमानस आत्मविभोर होकर श्रवण एवं ग्रहण करती है।

लंकापति रावण के विश्वविजय की कामना एवं विस्तार को देखते हुए किसी भी राष्ट्र के लिए चिन्तित होना स्वाभाविक था। दक्षिणी भारत में अपनी औपनिवेशिक सत्ता को बनाने में सफल लंका की उत्तरी औपनिवेशिक सीमा कौशल प्रदो की दक्षिणी सीमा को छूने लगी थी। रक्ष संस्कृति का व्यापक प्रचार प्रसार आर्य संस्कृति को निरन्तर हानि पहुंचा रहा था। ऐसे में आर्य संस्कृति के समस्त ऋिश मुनियों की आस्था कोशल राज्य के प्रति समर्पित होने लगी, जो कि स्वाभाविक थी। पिचमोत्तर सीमा पर अवस्थित कैकेय प्रदो से कैकेयी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर महाराजा दारथ पिचमी सीमा को मजबूत कर चुके थे। सौमित्रदो से सुमित्रा को अपनी पत्नी बनाकर उस मजबूती को और भी सुदृ़ बना दिया था। राजा जनक एवं अंगराज की पुत्रियो से राम, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न के विवाह से पूर्वी सीमा भी अनुरक्षित हो गयी। अब दक्षिण की तरफ प्रयाण करने का उपयुक्त अवसर था।

परन्तु प्रनथा, माहाराजा दाशरथ के वृद्घावस्था को देखते हुए प्रथमतः राज्याभिशक हेतु ज्येश्ठ पुत्र रामचन्द्र जी का राजतिलक किया जाये तत्पचात युद्ध हेतु रणनीति तैयार की जाये।

राजतिलक की तैयारी प्रारम्भ होती है परन्तु दूरदाीर एवं रणनीति की कुाल पुरोधा ने मन्थरा की मन्त्रणा से यह निचत किया कि यदि रामचन्द्र जी राज्य संचालन के चक्र में फंस जायेंगे तो अपनी सम्पूर्ण भाक्ति से लंकापति रावण के साम्राज्य को विनश्ट करने में संभवतः सक्षम न हों। विवमित्र के साथ वनगमन के समय रास्ते में विवामित्र ने बला और अतिबला नामक प्रसिद्ध मंत्र समुदाय को श्रीराम एवं लक्ष्मण को प्रदान किया था जैसा कि वाल्मीकि रामायण के 23वें सर्ग का 13 वां भलोक है

“मन्त्र ग्रामं गृहाण त्वं बलामतिबलां तथा ’’

ताड़का वध के पश्चात प्रसन्न होकर विवामित्र ने प्रसन्नतापूर्वक सभी प्रकार के अस्त्र श्री राम लक्ष्मण को प्रदान किये थे, जैसा कि वाल्मीकि रामायण में उल्लिखित है

“परितुस्टोस्मि भद्रं ते राजपुत्र महायाः ।

प्रीत्या परमया युक्तो ददाम्यस्राणि सर्वाः ॥ “

ये प्रदत्त दिव्य अस्त्र हैं दण्डचक्र, धर्मचक्र कालचक्र, विश्णुचक्र, एैन्द्रचक्र, वज्रास्व, त्रिूल, ब्रह्मसिर, ऐशीकास्त्र, ब्रह्मास्त्र, मोदकी, िखरी गदा, धर्मपा, कालपा, वरूणपा, आनि, पिनाक, नारायणास्त्र, अग्नेयास्त्र, कायव्यास्र, हयिरा, क्रौंचअस्त्र, कंकाल, घोरभूल, कपाल, किंकसी, नन्दनअस्त्र, सम्मोहन अस्त्र, प्रस्वापन, प्रामन, सौम्य अस्त्र, वर्पण, शोशण, संतापन, विलापन, मादन, मानवास्त्र, मोहनास्त्र, तामस, महावली, सौशन, संवर्त, दुर्जय, मौसल, सत्य, मायामय अस्त्र, तेजःप्रभ अस्त्र, िरअस्त्र, दारूण अस्त्र, भयंकर अस्त्र, शीतेशु अस्त्र, सत्यवान, सत्यकीर्ति, घृश्ट, रभस, प्रतिहारतर, प्रांगमुख, अवांगमुख, लक्ष्य, अलक्ष्य, दृ़नाभ, सुनाभ, दाक्ष, शत्वक्त्र, दाीशर्, भातोदर, पद्मनाभः, महानाभ, दुदुनाभ, स्वनाभ, ज्योतिश, शकुन, नैरास्य, विमल, यौगंधर, विनिद, भाुचिबाहु, महाबाहु, निश्कलि, विरूच, सार्चिमाली, धृतिमाली, वृत्तिमान, रूचिर, पित्र्य, सौमनस, विधूत, मकर, परवीर, रति, धन, धान्य, कामरूप, कामरूचि, मोह, आवरण, जृम्भक, सर्पनाभ, पन्थान, और वरूण।

राज्य तिलक से एक दिवस पूर्व तक आनन्द से आपूरित कैकेयी अचानक राष्ट्रहित के चिन्तन में डूबती हैं और मंथरा से एक लम्बी मंत्रणा, ह्रदय एवं मस्तिश्क के परस्पर द्वन्द के पश्चात कैकेयी इस निर्णय को लेने में दृ़ प्रतिज्ञ हो जाती हैं कि राष्ट्र के लिए व्यक्तिगत जीवन में कलंक लेना कहीं अधिक श्रेयस्कर है। कैकेयी पिचमोत्तर सीमा के उस प्रदो की पुत्री थी जो सदैव आक्रान्ताओं से भयभीत रहा है और जहां सैन्यनीति एवं कूटनीति सदैव अंग रही है। यही कारण है कि देवासुर संग्राम में रानी कैकेयी को राजा दारथ के साथ उनकी रक्षा करते हुए हम पाते हैं। कैकेयी को यह स्पश्ट था सभी अस्त्रों शस्त्रों का महान ज्ञाता रावण को आसानी से रणभूमि में परास्त नहीं किया जा सकता है। वाल्मीकि रामायण में बीसवें सर्ग के 22 वें भलोक में स्पश्ट है

“देवदानव गन्धर्वो यथा पतगपन्नगः

न शक्ता रावणं सोदुंकिं पुनर्भावना युधि ’’

युद्ध में रावण का वेग तो देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, गरूण और नाग भी नहीं हरा सकते फिर मनुश्यों की तो बात ही क्या है ?

कैकेयी को यह भी स्पश्ट था कि भरत और शत्रुघ्न को उन भाक्तियों एवं विद्याओं का ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ है जो रावण को परास्त करने में सक्षम हो सके। विवामित्र द्वारा श्री राम लक्ष्मण को अपने साथ ले जाकर उन्हें अनेकानेक विद्या एवं अस्त्रों से परिपूर्ण कर ताड़का का वध करवाना, मारीच पर भाीतेशु मानवास्त्र का आक्रमण कराना, सुबाहु पर अग्नेयास्त्र का प्रयोग कर उसका प्राणान्त करवाने का लाघव वह देख चुकी थीं। रावण की मजबूत सैन्य व्यवस्था एवं औपनिवोिक विस्तार को देखकर कैकेयी ने मन्थरा की मंत्रणा से अपूर्व रणनीति का खाका तैयार कर लिया।

महाराजा दारथ श्रीराम के प्रेम में विह्वल रहते हैं एवं राज्याभिशोक के लिए तत्पर हैं। यदि मात्र रणकौशल के आधार पर राज्याभिशोक न करने का कथन किया गया तो निचत रूप से कोई भी स्वीकार न करेंगे। दक्षिणापथ के दुर्गम एवं वनाच्छादित क्षेत्र में जब तक गुप्त रूप से रहकर वहां के निवासियों के ह्रदय में स्थान न बना लिया जाये एवं क्षेत्र की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर ली जाये तथा वहां के सैन्य महारथियां को जब तक साथ में न ले लिया जाये तब तक रावण पर विजयश्री प्राप्त करना संभव नहीं है। यदि राम को राज्याभिशोक कराकर सीधेसीधे युद्ध संचालन की कार्यवाही की जाये तो रावण जैसे महान योद्घा से युद्ध में जनधन की महान हानि के उपरान्त भी विजयश्री प्राप्त कर पाना निचत नहीं है। खर, दूशण, त्रिसिरा (सेनापति) एवं सूर्पणखा जो रूप बदलने में पारंगत हैं, दण्डकराण्य में रह रही हैं तथा जो अपनी सेना के साथ पूरे दण्डकराण्य में उत्पात मचाये हुए हैं।

भरत एवं शत्रुघ्न चूंकि विवामित्र के साथ वनगमन को नहीं गये थे जिस कारण उन्हें उन सैन्य कलाओं का ज्ञान नहीं है जो विवामित्र के पास हैं। ऐसी स्थिति में सदा राम को सबसे अधिक प्यार करने वाली माता कैकेयी अप्रिय निर्णय लेकर कुमाता हो गयी परन्तु इस राष्ट्र की नारी राष्ट्र की अस्मिता के लिए अपनी अस्मिता को दांव पर लगाने के लिए सदैव तत्पर रहती है जो परम्परा आज भी भारत राष्ट्र की गौरव है। कैकेयी ने देवासुर संग्राम के दोनों देय वरदानों में बहुत चातुर्यपूर्ण तरीके से जो वर मांगा वह सर्वविदित है

(1) भरत का राज्याभिशोक। (2) श्रीराम को चौदह वशर का वनवास।

भरत का राज्याभिशोक मांगना क्या आवयक था ? जी हां आवयक था। श्री राम का राज्याभिशोक घोशित हो चुका था, दारथ अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर थे। राजगद्दी को लम्बे समय तक रिक्त रखना राजहित में नहीं था। कैकेयी यदि केवल श्री राम के वनगमन का वरदान मांगती तो प्रन उठता आखिर श्री राम को वन भेजने के पीछे कैकेयी की मां क्या थी ? यदि कैकेयी का कोई स्वार्थ नहीं है तो श्री राम को वनवास क्यों ? ऐसे में कुटिल स्वार्थी जैसे कलंक को लेना ही कैकेयी को सर्वथा उचित जान पड़ा और सबसे पहले भरत का राज्याभिशोक मांगा तत्पचात श्री राम को वनवास क्योंकि मात्र राज्याभिशोक की मांग से कैकयी का उद्देय कदापि न पूर्ण होता जो कोशल राष्ट्र का भविश्य सुरक्षित करता। श्री राम का वनवास राजा रूप में नहीं मांगा गया क्योंकि गुप्त रूप से रहकर ही उस दक्षिण प्रदो की भौगोलिक स्थिति को समझा जा सकता था तथा वहां के लोगों में अपने मृदुभाव से उन्हें अपने पक्ष में खड़ा किया जा सकता है। यही कारण है कि जब कैकेयी वरदान मांगती हैं तो कहती हैं

“सुनहु प्रानप्रिय भावत जीका, देहु एक वर भरतहिं टीका

मांगहु दूसर वर कर जोरी, पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी

तापस वेश विसेश उदासी, चौदह वरसु राम वनवासी ”

– श्री रामचरित मानस

अर्थात तपस्वी के वेश में उदासी के साथ श्री राम चौदह वर्ष वनवास में रहे। अपने ऊपर समस्त लांछन को लेते हुए, अपने प्रिय के मृत्यु का आघात सहते हुए, वैधव्य का कलंक लेते हुए, राष्ट्रहित की चिन्ता करते हुए कैकयी ने इतिहास रचना का वह दुश्कर कार्य कर दिखाया जो तत्समय में संभव नहीं दिख रहा था। धन्य है ऐसे दो की मातायें जो व्यक्तिगत जीवन को कलंकित कर राष्ट्र एवं कुल की मर्यादा को अक्षुण्य रखती हैं। धन्य है ऐसा राष्ट्र जो ऐसे वीरांगनाओं को जन्म देती है और धन्य हैं, कि ऐसे राष्ट्र की मिट्टी में उत्पन्न होने का हमें सौभाग्य मिला।

– जगदम्बा प्रसाद गुप्ता

तुरुप का पत्ता

भारतीय राजनीति में गरीब का किरदार बडा अहम होता है और कांग्रेस के लिए तो यह तुरुप का पत्ता है। तभी तो इन्डिया शाईनिन्ग कि सारी शाईनिंग कान्ग्रेस का हांथ गरीब के साथ कह कर शाईनिंग को धुमिल किया और सत्ता पे काबिज हो गई। सत्ता पाने के बाद गरीबों से इन्का मोह तुरंत हि चला जाता है,क्योंकि इन्हें अपना भविष्य गरीबों के साथ के बजाए कारपोरेट नाम कि भरोसेमंद जमात के साथ नजर आता है। जिसके साथ चलने पर न तो विपक्ष को परेशानि होगी न हि मिडिया वाले इन मुद्दों को उछालेंगे। क्योंकि कारपोरेट जगत तो म्युचुवल रिलेशनशिप वाली व्यवस्था है।तो भला गरीब का क्यों साथ दें वहां तो वन वे है। अब आप सोंच रहे होंगे अखिर पछ विपछ राजनीति दोनो का कारपोरेट जगत से क्या सम्बन्ध होगा। चंदा जिसके दम पर चुनाव होता है। अब जरा इनकी सादगी तो देखिए hहर साल सरकार बजट परित करती है।बजट पारित होने के बाद मीडिया का काम है गरीब को तो मिला लेकिन कम मध्यवर्गीय को तो कोई लाभ ही नहीं मिला इतना कहकर इनकी खोजी पत्रकारिता का द इण्ड हो जाता है। अब विपक्ष पार्टियां कांव कांव करना करना शूरु करती है और बजट को महगाई बढाने वाला व देश के विकास में औरोधक बता कर अपनी जिम्मेदारी पुरी कर लेता है।कोई इस बजट में आखिर किया था विस्तार से पढने कि जहमत नहीं करता,कारण भोग विलासिता से फुर्सत  नहीं और देश के पक्ष विपक्ष के सहयोग से एक मोटी रकम कारपोरेट घराने को बतौर सौगात के रुप में दे दी जाती है।

आपको जानकर हैरत होगा कि मनमोहन सरकार ने साल 2005-2006 से 31-03-2010-2011 तक कारपोरेट घराने को इनकम टैक्स एक्साइज और कस्टम ड्यूटी में 21लाख 25हजार 23 करोड़ का फायदा पहुंचाया है।सिर्फ साल 2010-2011 में हि कारपोरेट घराने को 4लाख 60हजार 9सौ बहत्तर करोड़ रुपये की छुट दी गई है।इनमें इनकम टैक्स 88263 करोड़,एक्साईज ड्यूटी 198291 करोड़ और कस्टम ड्यूटी 174418 करोड़ रुपया है। सत्ता रुढ सरकार द्वारा हर साल इतनी बडी छूट देने का परिणाम हि है के देश के कुछ अमीर और ज्यादा अमीर,गरीब और ज्यादा गरीब होते जा रहें हैं।मनमोहन सरकार जितनी रकम का फायदा कारपोरेट जगत को देती है उतनी रकम यदि गरीबों पर खर्च करती तो शायद गरीबों कि मौत भूख से न होती गरीबों को दूषित पानी न पीना पडता, ईलाज के अभाव में अकारण मौत का दंश नहीं झेलना पडता और किसानो के देश में कर्ज न चुकाने कि हालत में किसानो को आत्मह्त्या न करना पडता। सत्ता रुढ पार्टी के इस कारपोरेट प्रेम पर कोई सवाल नहीं उठाता कारण साफ है सबको कारपोरेट जगत से फायदा होता है क्या पक्ष क्या विपक्ष? अगर ऐसा नहि होता तो जो विपक्ष कथित रुप से पौने दो लाख के घोटाले पर पार्लियामेन्ट का शीतकालीन सत्र नहीं चलने देती, वहि विपक्ष कारपोरेट घराने को 460972 करोड इतनी बडा टेक्स में छुट पर क्यों मौन साध लेती है।जबकी यह रकम टू जी स्पेक्ट्र्म घोटाले की रकम से कहीं ज्यादा है। दरअसल यही राजनीति है । आम जनता में खूद को जिम्मेदार विपक्षी पार्टी साबित करने के लिए उन मुद्दों को तो विपक्ष उठाती है जिनसे उनका नुकसान न हो और आम जनता को बेवकूफ बनाया जा सके,लेकिन उन मुद्दों को कभी नहि उठाती जिनसे आम गरीब जनता का भला हो।स्वास्थ ,शिक्षा,बेरोजगारी,जैसी ज्वलंत मुद्दों पे मौन रह्कर सरकार को कैसे गिराया जाए या बदनाम किया जाए इस प्रकार के विचारों का ताना बाना बुनने में विपक्ष अपना समय गवांता है।कोई रचनात्मक कार्य ये करना हि नहीं चाहते। यदि विपक्ष सकारात्मक रोल अदा करती तो यकीनन विपक्ष आम जनता कि नजर में अपने को साबित कर पाती और सरकार को इतना घोटाला करने का मौका न देती।

बे लाग लपेट कि बात

क्या कोई सांसद या विधायक अपने क्षेत्र का विकास करना चाह्ता हो भले हि वह विपक्ष पार्टी का ही क्यों न हो, विकास का कार्य नहीं कर सकता है? यकीनन कर सकता है बस इसके लिए इच्छा शक्त्ति व जमींर का जिन्दा रहना जरुरी है।