गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने वाले देश के लगभग 6.52 करोड परिवारो को अब तीन रूपये किलो की दर से हर माह 35 किलो गेहूं और चावल पाने का हक होगा। इस कानून को कानूनी रूप प्रदान करने के लिये अधिकार प्राप्त मंत्रियो के समूह (जीओएम) की बैठक में आज यानि सोमवार 02 मई 2011 को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर विचारविमशर किया जायेगा जिस के मसौदे को पूरी तरह तौयार करने के लिये कुछ मंत्रियो की उच्चाधिकार प्राप्त समिति (ईजीओएम) ने 18 मार्च 2010 को मंजूरी भी दे दी थी। पर क्या सरकार कि ये योजना कामयाब हो पायेगी कितने फीसदी सरकार इस योजना में सफल रहेगी। क्या इस योजना को कामयाब करने के लिये सरकार ने उन तमाम भ्रष्ट कर्मचारियो, अफसरो की लिस्ट तैयार की है जो ऐसी तमाम योजनाओ को गरीबो तक पहुॅचने से पहले ही डकार जाते है।
आज देश में लगभग 5,03,070 उचित मूल्य की दुकानो द्वारा शहरो और गॉवो में सरकार द्वारा सब्सिडीकृत अनाज और मिटटी का तेल गरीबी रेखा से नीचे व गरीबी रेखा से ऊपर जीवन जी रहे देश के नागरिको को पहुॅचाया जाता है। परन्तु कई राज्यो में उचित ट्रांसपोर्ट व्यवस्था न होने की वजह से इन उचित मूल्य की दुकानो पर राशन समय पर नही पहुच पाता जिस कारण वितरण व्यवस्था का लाभ सरकार द्वारा चाह कर भी जरूरतमंदो तक अक्सर नही पहुॅच पा रहा है। ऐसे में भारत जैसे विशाल देश में गरीबो को सही और ईमानदारी के साथ अनाज पहॅुचाने का काम सरकार के लिये मुश्किल ही नही नामुम्किन है। हमारे देश कि 80 फीसदी आबादी ग्रामीण है। आज सामान्य राशन,मिटटी का तेल जिस प्रकार से राष्ट्रीय सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गॉवो और शहरो में वितरण के लिये पहुॅचता है वह प्रकि्रया केवल त्रृटिपूर्ण ही नही, भारतीय वितरण प्रणाली के संदर्भ में इसे पूरी तरह विफल कहा जा सकता है।
देश के सब से बडे राज्य उत्तर प्रदेश में फर्जी राशनकार्डोर के जरिये सरकार द्वारा जनवितरण प्रणाली के तहत बटने वाले गरीबो के राशन पर कुछ भ्रष्ट नेताओ सरकारी कर्मचारियो और कुछ रसूखदार लोगो ग्राम पंचायत, अधिकारी पंचायत, सचिव और ग्राम प्रधानो द्वारा डाका डाला जा रहा है। पिछले तीन वर्षो के दौरान आठ लाख से अधिक फर्जी राशनकार्डो को निरस्त किया जा चुका है जिन में ज्यादातर बीपीएल और अंत्योदय श्रेणी के कार्ड थे। अकेले प्रदेश की राजधानी में ही 96 हजार 369,व औघोगिक नगरी गाजियाबाद में करीब 20 हजार राशनकार्ड फर्जी पाये गये। यह कहने या बताने की जरूरत नही की इन सब घोटालो में जिला पूर्ति अधिकारी कितना लिप्त होगा। क्यो की जनवितरण प्रणाली कि आज अधिकतर दुकाने विधायको नगर पालिका सदस्यो तथा अन्य जनप्रतिनिधियो के तमाम रिश्तदारो को ही शासन द्वारा अवंटित होती है। वर्ष 2008 में जारी योजना आयोग की एक रिर्पोट के मुताबिक इस प्रणाली के तहत 42 प्रतिशत सब्सिडीकृत अनाज और मिटटी का तेल ही लक्षित वर्ग तक पहुॅता है। राजीव गॉधी के शब्दो में अगर इसे कहा जाये तो 58 प्रतिशत अनाज और मिटटी का तेल भ्रष्टाचार की भेट च जाता है। क्यो कि इस अनाज और मिटटी के तेल का वितरण जिला पूर्ति कार्यालयो से जिस प्रकार राशन डीलरो को किया जाता है। अधिकतर राशन डीलरो द्वारा सरकार द्वारा प्राप्त राशन का बंदरबाट कर राशन और मिटटी का तेल केवल कागजो में बाटा जाता है। सरकार द्वारा कैबिनेट में पारित खाघ सुरक्षा विधेयक को देश के बुद्विजीवियो द्वारा शंका की दृष्टि से देखना एकदम स्वाभाविक है।
यू तो हमारे देश की राष्ट्रीय सार्वजनिक वितरण प्रणाली विश्व की सब से बडी वितरण प्रणाली है। प्राप्त संसाधनो और सरकारी नीतियो के कारण जो देश चार दशक पूर्व तक खाघान्नो के मामलो में आत्मनिर्भर था, वह देश फिर पराधीनता की ओर ब रहा है देश की 70 फीसदी जनता 20 रूपये प्रतिदिन पर अपना जीवन यापन कर रही है। वही सरकार द्वारा गरीबो के लिये चलाई जा रही तमाम योजनाओ के बावजूद लगभग 20 करोड लोग आज भी देश में खाली पेट सोने को मजबूर है। आज भारत वैश्विक भूख सूचकांक में 88 देशो की सूची में 68वें स्थान पर है। देश के कुछ राज्य तो ऐसे है जहॉ भूख से होने वाली मौतो की संख्या सालो साल बती जा रही है। किसी राज्य में आकाल पडता है तो किसी राज्यो में अनाज इतना अधिक होता है की उस के संग्रहण की समुचित व्यवस्था न होने के कारण वो खुले आकाश के नीचे पडा पडा सडता गलता रहता है। ऐसे में सरकार द्वारा बनाये जा रहे गरीबो को अनाज का अधिकार देने वाले खाघ सुरक्षा विधेयक पर कितना यकीन किया जा सकता है। दूसरे अभी इस विधेयक की राह में कई प्रकार के रोडे हैं। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गॉधी के निर्देश पर मंत्रियो के अधिकार प्राप्त एक पूरे समूह ने 5 अप्रैल 2010 को विधेयक के कुछ खास पहलुओ पर दोबारा विचार विमशर किया। प्रस्तावित खाघ सुरक्षा कानून के तहत गरीब परिवारो को तीन रूपये किलो की दर से गेंहू अथवा चावल 25 किलो दिया जाये या 35 किलो तथा पात्रो तक और बेघर लोगो तक इसे कैसे पहुॅचाया जाये। इस विधेयक को कामयाब करने में सरकार के सामने सब से बडी जो समस्या आ रही है वो है बीपीएल परिवारो की संख्या। केंन्द्र सरकार अभी तक 6.8 करोड बीपीएल परिवारो को सस्ता अनाज मुहैय्या करा रही है। सरकार द्वारा कराई गई सुरेश तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट मानने पर भी यह आकंडा 7.4 करोड तक ही पहुॅचता है।
खाद्य मंत्रालय इस मसले पर एनएसी और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमइएर्सी) के अध्यक्ष सी रंगनाथन की रिर्पोट को बैठक में पेश करेगा। एनएसी के पडताल के लिये बनी रंगराजन कमेटी की राय यू तो एनएसी के सुझावो से एकदम अलग है। एनएसी का सुझाव है कि आबादी के 75 प्रतिशत लोगो को खाद्य संबंधी अधिकार मिले जब कि रंगराजन कमेटी ने इस पर चिंता जाहिर की है। पर मेरा मानना है कि इन सब बातो से पहले सरकार को ऐसी नीतिया व कडे कानून बनाने होगे जिस के डर से गरीबो का अनाज सरकारी गोदामो से निकलकर भ्रष्ट अफसरो, राजनेताओ के पेटो में न जाकर सीधा गरीबो के पेट में चला जायें। देखना यह भी है कि खाघ सुरक्षा विधेयक देश के 6.52 करोड गरीब लोगो को सत्ता व सरकारी तंत्र में बैठे भूखे गिद्वो से बचाकर गरीबो के इस अनाज को किस प्रकार खाघ सुरक्षा प्रदान कर पायेगा।
पहले वितरण प्रणाली सुधारे सरकार
लादेन, अमरीका और भारत का ढुलमुल रवैया?

आ मौत मुझे मार
जीहाँ कुछ ऐसा ही हो रहा है. जापान के परमाणु हादसे में हज़ारों लोग मर चुके हैं और लाखों के सर पर मौत का ख़तरा मंडरा रहा है. ११ मार्च के भूकंप व सुनामी के बाद फुकुशिमा के परमाणु रिएक्टरों में हुए विध्वंस से शुरू हुए विनाश पर काबू पाने में असफल होने के बाद अब जापान सरकार ने इन रिएक्टरों को सदा के लिए दफन करने का फैसला कर लिया है. मौत के इन दानवों को स्थापित करने के बाद अब इन्हें बंद करना कोई आसान काम नहीं. फुकुशिमा प्लांट को चलाने वाली कंपनी ‘ टोकियो इलेक्ट्रोनिक पावर’ के अनुसार इन्हें बंद करने ( Decommissioning ) पर लगभग १२ अरब डालर का खर्चा होगा और ३० साल लगेंगे . इन प्लांट्स को लगाने वाली कंपनी ‘हिताची जनरल इलेक्ट्रिकल’ ही इन्हें बंद करने का काम करेंगी. इस कार्य में ‘एक्सेलान’ और ‘बेकटेल’ भी काम करेंगी. इन परमाणु रिएक्टरों को ३० साल की मेहनत और १२ अरब डालर खर्च कर के बंद कर देने के बाद भी मुसीबत ख़त्म नहीं होगी, सैकड़ों नहीं हज़ारो, लाखों साल तक विकीर्ण का ख़तरा बना रहेगा.
पच्चीस वर्ष पूर्व सन १९८६ में युक्रेन के चेर्नोबिल परमाणु संयत्र में दुर्घटना हुई थी. ५५०० लोगों के मरने के बाद कितने विकीर्ण का शिकार बन कर मौत से भी बुरी यातना भोगते रहे, इसके आंकड़े उपलब्ध नहीं. कुल ६५००० से १०५,००० लोगों के मरने का अनुमान लगाया गया है. तब लेबल-७ आपात स्थिति घोषित की गयी थी. इसके बाद से पश्चिमी देशों ने परमाणु संयंत्र लगाने से तौबा कर ली है. तब से अमेरिका के लाखों करोड़ के पामाणु संयंत्र बेकार पड़े हैं. आर्थिक मंदी से मर रहे अमेरिका और उसके साथी देशों ने भारत की ( विदेशी हितों के लिए सदा काम करने वाली ) सरकार को काबू करके लाखों करोड़ रुपये का जंक भारत के माथे मढ़ने का प्रबंध कर लिया है. जिस दिन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने जनमत के विरोध की हवा निकालने के लिए ये कहा की ‘भारतीय परमाणू संस्थान’ को अधिक जवाबदेह बनाया जाएगा, उसके अगले दिन ही भारत के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डा. बलराम ( भारतीय विज्ञानं संस्थान, बेंगलूर के निदेशक ) ने नुक्लियर कार्यक्रमों पर रोक लगाने की मांग की जिसका समर्थन देश के ६० वैज्ञानिकों और प्रमुख बुद्धिजीवियों ने किया.
इन परिस्थितियों की पूरी तरह अनदेखी करते हुए भारत सरकार परमाणु संयंत्रों को देश में लगाने के लिए जी-जान से लगी हुई है. भारत सरकार बार-बार कह रही है की यह तकनीक पूरी सुरक्षित है. तो क्या हमारे पास जापान और अमेरिका से अधिक अनुभव और कुशलता है जो हमें विकीर्ण के खतरों का सामना नहीं करना पडेगा ? नज़र आ रहा है कि सरकार सच नहीं बोल रही, देश के नहीं किसी और के हित में बात और काम कर रही है. पामाणु ऊर्जा हेतु खरीद की जा रही सामग्री के बारे में प्राथमिक जानकारी से समझा जा सकता है कि यह कितना खतरनाक साबित होने वाला है और अव्यवहारिक भी है.
भारत के जैतापुर में जो ई.पी.आर. ( यूरोपीय प्रेशराज़ड रिएक्टर्ज ) तकनीक आयात की जा रही है, उसकी सुरक्षा के बारे में अनेक गंभीर आशंकाएं है. इस तकनीक के रिएक्टर अभीतक संसार में कहीं भी पूरी तरह न तो कहीं बने हैं और न ही चले हैं. दुनिया में अभीतक ई.पी.आर. निर्माण और प्रयोग कि अवस्था से गुजर रहा है. इस तकनीक को बेचने वाली कंपनी ‘अरेवा’ भारी वित्तीय संकट से जूझ रही है. इसने २००९ में फ़्रांस सरकार से ४ अरब डालर का बेलआउट पॅकेज मांगा था. अपनी आर्थिक दुर्दशा के सुधर के लिए उसे अपना जंक और खतरनाक तकनीक बेचनी है. अरेवा ने अपना पहला ई.पी.आर फिनलैंड को बेचा था जो आजतक नहीं लग पाया है. मुकदमेबाज़ी शुरू हो चुकी है और सयंत्र लगाने कि लागत ९०% तक बढ़ चुकी है.
दूसरा ई.पी.आर. फ्रास ने स्वयं अपने देश में लगाने का फैसला किया. २००७ में इसका निर्माण शुरू हुआ था जो आज तक पूरा नहीं हुआ और न आगे होने की आशा है. फ्रांस की ‘न्यूक्लियर सेफ्टी एजेंसी’ ने इस तकनीक के रिएक्टर में कई गंभीर कमियाँ पायी हैं. इस संयंत्र के विरोध में फ्रांस के अनेक नगरों में ज़बरदस्त विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए है. अब जापान की त्रासदी के बाद तो विरोध और भी तेज़ होना स्वाभाविक है. फ्रांस सरकार भी कोई भारत की सरकार तो है नहीं जो अपने देश की हितों को बेच कर विदेशियों के हित में काम करे.
आर्थिक बदहाली से जूझती अपने देश की कंपनियों के लिए बाज़ार तलाश करने का दबाव उस पर भी अमेरिका से कम तो है नहीं. अतः एक भारत ही है जहां वे अपने लाखों करोड़ के बेकार होरहे खतरनाक जंक को बेच सकता है. वही सब अब भारत में चल रहा है जिसके चलते सरकार परमाणु सौदे के लिए भरपूर समर्थन व सहयोग दे रही है. विरोधी दल भी जो चुप बैठे हैं तो समझ लें कि उनकी मिट्ठी भी ठीक से गर्म हो चुकी होगी. वरना वे खुलकर इस मुद्दे पर सरकार को घेरते. पर ऐसा कुछ न होना सारी कहानी कह रहा है. जनता इसे न देखे, समझें तो और बात है.
चीन ने भी दो ई.पी.आर खरीदने का ठेका दिया था जो जापान की दुर्घटना के बाद खटाई में पड़ना सुनिश्चित है.संयुक्त अरब अमीरात ने ई.पी.आर के हो रहे सौदे को अचानक ठुकरा दिया और दक्षिणी कोरिया को गैर ई.पी.आर प्लांट लगाने का ठेका दे दिया है. संसार की अनेक परमाणु सुरक्षा एजेंसियों ने इस तकनीक में अनेकों सुरक्षा और गुणवत्ता की कमियाँ बतलाई है. ई.पी.आर में इंधन अधिक जलता है और इसीलिये विकीर्ण भी अधिक होता है. सामान्य रिएक्टरों की तुलना में इसमें ७ गुणा अधिक रादियोधर्मी आयोडीन-१२९ निकलता है जो कि बड़ी खतरनाक स्थिति है. यह दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु रिएक्टर है .
चिंता की एक बात यह भी है कि भारत के परमाणु बिजलीघरों के रख-रखाव का इतिहास काफी खराब रहा है. परमाणु ऊर्जा विभाग की कार्यप्रणाली और क्षमता काफी निचले दर्जे की आंकी गई है. दुर्घटनाएं होती ही रहती हैं. करेला और नीम चढ़े वाली बात यह है कि इसके पास ई.पी.आर को चलाने का अनुभव है ही नहीं. अभीतक जिन रिएक्टरों को ये चला रहे हैं उनमें से अधिकाँश ई.पी.आर के मुकाबले लगभग ८ गुना कम क्षमता के हैं.
नाभिकीय ऊर्जा बनाते समय अनेक स्तरों पर रेडियोधर्मी कचरा निकलता है. युरेनियम की खुदाई से परिष्करण, संवर्धन, निर्माण, परिवहन व दहन तक हर समय रेडियोधर्मी विकीर्ण निकलता रहता है. एक औसत संयंत्र से एक वर्ष में २० से ३० टन विकीर्ण युक्त अपशिष्ट निकला है. इसकी आयु हज़ारों वर्ष से लेकर करोड़ों वर्ष तक है. प्लूटोनियम-२३६ नामक परमाणु इंधन की आधी आयु २४००० वर्ष है. एक और इंधन युरेनियम-२३५ की अर्ध आयु ७१ करोड़ वर्ष है. इसके अतिरिक्त इन परमाणु अपशिष्टों में युरेनियम-२३४, प्लूटोनियम-२३८, अमेरिसियम-२४१, स्टांन्शियम-९०, सीजियम-१३७, नेप्टुनियम-237 अदि होते हैं.
चेर्नोबिल के बाद जापान की भयावह दुर्घटना ने संसार के सभी परमाणु ऊर्जा संयंत्र चलाने वाले देशों की नीद हराम कर दी है. जापान की इस त्रासदी को हिरोशिमा व नागासाकी के विनाश के बराबर माना जा रहा है. जापान ने स्तर-७ की विकीर्ण खतरे की घोषणा कर दी है. आसपास के देश बाद में होने वाले विकीर्ण के खतरों से थर्राए हुए है. चल रहे परमाणु संयंत्रों को बंद कर देने पर सभी देश विचार करने पर बाध्य हो गए हैं. पर एक भारत है जो सभी खतरों की अनदेखी कर के विदेशी व्यापारियों के हित में देश के हितों को दाव पर लगा रहा है और परमाणु रिएक्टरों को स्थापित करने में लगा हुआ है. इसका विरोध न हो इसके लिए जनता को विदेशी शक्तियों द्वारा संचालित मीडिया की सहायता से मूर्ख बनाया जा रहा है, नहीं समझे ?
ज़रायाद करिए कि जब जापान इस शताब्दी की भयावह विपदा को भुगत रहा था तो हम भारतीय क्या कर रहे थे ? क्रिकेट में पाकिस्तान पर भारत की जीत की प्रबल इच्छा के साथ, बड़े उत्तेजित होकर टी.वी. से चिपके बैठे थे. उसके बाद जीत की खुशियों में सारे संसार को भुला बैठे थे, मानों पकिस्तान को समाप्त कर के लौटे हों. कौन जाने कि जापान की त्रासदी से हम भारतीयों का ध्यान हटाने के लिए क्रिकेट को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया हो. अपने अरबों रुपये के परमाणु जंक की बिक्री में कोई रुकावट पैदा न हो , इसके लिए कुछ करोड़ खर्च करके मैच फिक्स किया हो, भारत पाक की टाई को सुनिश्चित किया हो. बहुत बार हुआ है भारत पाक का क्रिकेट मैच पर इस बार की दीवानगी कुछ अलग, कुछ अधिक नहीं थी ? कहीं मीडिया ने हम सबकी भावनाओं को भडकाकर , हमें बहकाकर कोई खेल तो नहीं खेला ? कहीं हमारी संवेदनाये, हमारी सोच, हमारी बुद्धी अब मीडिया की गुलाम तो नहीं बन चुकी ? क्या वही हमारी समझ और जीवन को अपनी पसंद और ज़रूरत के अनुसार संचालित करता है ? वरना कोई कारण नहीं था कि जब जापान के लोग भयावह त्रासदी काशिकार बन कर बेमौत मर रहे थे तो हम संवेदनशील भारतीय क्रिकेट के पागलपन, दीवानगी में उन्हें भूल जाते ?
मीडिया के चलाये नहीं हमें अपने विवेक से चलना , देखना और समझना होगा जिसे कि हम भूलते जा रहे हैं. तभी बच पायेंगे इन अंतर्राष्ट्रीय लुटेरों के उस जाल से जो कि हर स्तर पर फैलाया जा रहा है. परमाणु समझौता भी उसी जाल का एक हिस्सा है. इसे स्वीकार करना ”आ मौत मुझे मार” कहने जैसा है.
क्या ममता को सत्ता में बिठाने के लिए पूर्लिया में हथियार गिरवाए थे?
किशोरावस्था में ही कहीं किसी से सुना था कि हरएक नवाचार या क्रांति का सूरज पहले पूर्व में यानि कि बंगाल मेंही उदित होता है,बाद में सारा भारत उस नव प्रभात कि रश्मियों से आप्लावित होता जाता है.
जिज्ञासा वश तत्कालीन उपलब्ध साहित्य में सेबंगाल के अधिकांश प्रभृति विभुतिजनों के हिंदी अनुवादों को
आद्द्योपंत पढने के बाद अपने व्यक्तित्व को अपने समकक्षों और समकालिकों से बेहतर परिष्कृत और प्रगत पाया. संस्कृत में एक सुप्रसिद्ध सुभाषितानि है:-
शैले शैले न मानिक्यम,मौक्तिकं न गजे-गजे!
साधवा न लोकेषु ,चन्दनं न वने -वने!!
भारत के हरेक प्रान्त और हर भाषा में शानदार साहित्यिक -सांस्कृतिक सृजन की विरासत विद्द्य्मान है किन्तु ’जेहिं कर मन रम जाहीं सौं ,तेहिं तेहीं सौं काम…’बंगाल के उद्भट विद्द्वानो ने व्यक्तिशः मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है अतः इस आलेख की पृष्ठभूमि में यह आत्म स्वीकारोक्ति प्रतिपादित करता हूँ कि काव्यानुभूति में गुरुदेव कवीन्द्र -रवीन्द्र से,धर्म-अध्यात्म में स्वामी विवेकानंद से और राजनीतिमें कामरेड ज्योति वसू से जो वर्गीय चेतना प्राप्त की हैउसको भारतीय वांग्मय में ही नहीं बल्कि संसार की सर्वोच्च सूची में भी शीर्ष पर अंकित किया जा चूका है.
अभी अप्रैल -२०११ में भारत के पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव संपन्न हुए है.इनके परिणाम आगामी १०-१५ दिनों में घोषित किये जायेंगे.तब तक देश और दुनिया के राजनीति विश्लेषक ’बैठा वानिया क्या करे?इधर का बाँट उधर करे!’की तर्ज पर इन राज्योंकेचुनाव परिणामों पर अपना अभिमत जाहिर करेंगे.उन्हें केरल और बंगालको छोड़कर बाकि केराज्योंमें कोई खास दिलचस्पी
नहीं है.इसके कई कारण हैं .मुख्य कारण यही है कि जब सारी दुनिया में ऐंसा संभव नहीं कि किसी देश की
केन्द्रीय सरकार पूंजीवादी या अमेरिका परस्त हो और राज्यों में धुर वामपंथी -कमुनिस्ट सरकार हो तो परिवर्तन की ख़बरों को गढ़ा भी जा सकता है और जन-मानस की खोपड़ी में मढ़ा भी जा सकता है.
वैसे आम जागरूक भारतीय जन-मानस को भली-भांति ज्ञात है की केरल में तो ६० के दशक में ही आम चुनाव के मार्फ़त साम्यवादियों की सरकार बन चुकी थी.वह पूरे विश्व की पहली निर्वाचित सरकार थी
जो प्रजातांत्रिक प्रणाली के तहत सत्ता में आयी थी.उससे पूर्व दुनिया के किसी भी देश मेंऐंसा नहीं हुआ था.
हालाकि रूस चीन ,क्यूबा,वियतनाम,हंगरी,पोलैंड,पूर्वी जर्मनी,युगोस्लाविया,रूमानिया तथा कोरिया इत्यादि में हिंसक तौर तरीकों से कम्युनिस्ट {मजदूरसरकार} स्थापित हो चुकींथी.शीत युद्ध के दरम्यान एक तिहाई
से ज्यादा दुनिया के देशों में मेहनतकश परस्त सरकारें आ चुकी थीं. जिस ब्रिटेन ने सारी दुनिया को पूंजीवादी प्रजातंत्र का पाठ पढाया,वहां भी लेबर पार्टी की सरकार चुनाव में जीत गई.अमेरिकी सरकार और पूंजीपतियों ने जन-विद्रोह के भय से ’कल्याणकारी राज्य’ का चोला बदला.जनता को भरमाने के अनेक धत्मरम अमेरिकी सरमायेदारों ने किये.कभी वियतनाम,कभी भारत बनाम चीन ,कभी भारत बनाम पकिस्तान,कभी ईरान बनाम ईराक ,कभी अर्ब बनाम इजरायल और कभी क्यूबा बनाम अमेरिका का फंडा लेकर सी आई ये ने सारी दुनिया में अपना जाल तो फैलाया और सफलता भी कई जगह मिली किन्तु क्यूबा,वियतनाम और भारत {बंगाल- केरल}में अमेरिका को अब तक सफलता नहीं मिली है.
अबकी बार अमेरिका ने भारत के मार्क्सवादियों को ठिकाने लगाने का पूरा इंतजाम कर रखा है.
यह तो जग जाहिर है कि सोवियत संघ में साम्यवाद के पतन से दुनिया अब एक ध्रुवीय हो चुकी है.भारत में जो भी सरकार १९८५ के बाद बनी {केंद्र में}वह अमेरिकी प्रभुत्व को स्वीकारने में अक्षम रही.यु पी ये प्रथम के उत्तर काल में जब वन -टू-थ्री एटमी करार पर साम्यवादी खुलकर अमिरीकी दादगिरी के खिलाफ हो गए तो अमेरिका कि भोंहें तन गईं और तब ,जबकि भारत में अमेरिका के पिठ्ठू नोटों में बिक रहे थे ,सांसद खरीदे जा रहे थे तब अमेरिका और उसकी सी आई ये इन भारतीय साम्यवादियों के गढ़ ध्वस्त करने का काम जिन्हें सौंप चुकी थी वे देश द्रोही आज-कल भारतीय मीडिया के केंद्र में ’नायक-नायिका’नकर सत्तासीन होने के करीब है.
डेनमार्क में बैठे पुरलिया हथियार कांड के मुख्य अभियुक्त किम डेवी और ब्रिटिश नागरिक पीटर ब्लीच ने खुलासा किया है कि बंगाल कि वाम मोर्चा सरकार को अस्थिर करने,वदनाम करने और उखड फेंकने कि साजिस में भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रा और ब्रिटिश एजेंसी एम् आई शामिल थी.सी बी आई ने तत्काल इस खुलासे का खंडन कैसे कर दिया जबकि यही सी बी आई विगत दो बरस में एक बच्ची -आयुषी तलवार के हत्यारों को चिन् हित कर पाने में विफल रही है.हमारी ख़ुफ़िया एजेंसियों को अरवो रूपये खर्च करने उपरान्त भी पता नहीं चल पता कि मुंबई में पाकिस्तानी आतंकवादी कब कहर बरपाने वाले हैं!ऐंसी महान एजेंसियों को मिनिटों में मालूम हो गया कि पुरलिया हथियार काण्ड में किसका हाथ नहीं है?अरे भाई इतने सजग हो तो ये तो बताओ कि उनका नहीं तो किनका हाथ था?
१८ दिसंबर १९९५ को पश्चिम बंगाल के पुरलिया जिले में विदेशी विमान से बड़ी संख्या में विदेशी आधुनिक हथ्यार गिराए गए थे,हथियार गिराने वाले क्रिश्चियन नील्सन उर्फ़ किम डेवी ने विगत २८ अप्रैल को खुलासा किया है किपश्चिम बंगाल कि विश्व भर में प्रसिद्ध ज्योति वसूके नेत्रत्व में चल रही मार्क्सवादी सरकार को गिराने कि बृहद योजना के तहत भारत स्थित विदेशी एजेंटों ने सप्लाई किये थे.सवाल उठता है कि इस गंभीर मसले पर तथाकथित राष्ट्रवादी अब मौन क्यों हैं?
किम डेवी ने टाइम्स नोंव नामक चेनल के समक्ष यह दावा भी किया कि पकडे जाने के बाद तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्रालय ने उसे नेपाल के रास्ते बाहर भागने में मदद भी कि थी.
हथियार गिराने में संलग्न एक अन्य अपराधी ब्रिटिश नागरिक पीटर ब्लीच ने भी स्वीकार किया कि वह तो हथियारों का लाईसेंस शुदा व्यापारी है ,ब्रिटिस ख़ुफ़िया एजेंसी ने जिसको जितने हथियारों का आदर दिया वो मेने पूरा किया.मुझे नाहक ही भारत में सजा कटनी पडी.
यह एकमात्र वाकया नहीं है.सब जानते हैं कि केरल में चर्च कि ताकत किसके इशारों पर एल दी ऍफ़ को हराने में जुटी है.बंगाल में ममता के पास अचानक अरबो रूपये कहाँ से आ रहे हैं?माओवादी ,त्रुन्मूली और अमेरिकी आका यदि सब मिलकर बंगाल कि जनता को भ्रमित कर सकें और ३५ साल से चल रही लोकप्रिय सरकार कि जगह अमेरिकी और माओवाद परस्त सरकार स्थापित करने में कामयाब हो भी जाएँ तो भी बंगाल कि ’जागृत’जना उस सरकार को शीघ्र ही उखड फेंकेगी और वाम पंथ को इस दौरान अपने आपको आत्मचिंतन -आत्म विश्लेषण का भरपूर अवसर मिलेगा ताकि पुनः न केवल केरल,बंगाल,या त्रिपुरा में अपितु केंद्र में भी सत्ता सँभालने कि हैसियत प्राप्त कर सके..
जानि सरद रितु खंजन आए
‘घर की मुर्गी दाल बराबर’- बाहर की मुर्गी मुर्ग मुसल्लम, अर्थात घर की मुर्गी दाल समान तुच्छ! मानव स्वभाव भी कितना विचित्र है! यह कहावत केवल मुर्गी पर ही नहीं, जोगी पर भी, ‘लॉन’ पर भी, ‘‘पड़ोसी की लॉन ज्यादा हरी होती है’’ और अनेकों पर लागू होती है। इसलिए जब एक चपल, सरस, सुगढ़ तथा सुंदर पंछी का नाम हो ‘मामूला खंजन’, तब मानव स्वभाव को विचित्र ही कहना पड़ता है।
जबकि इसी खंजन का एक चचेरा भाई है, इसकी 21 सेंमी0 लंबाई के विपरीत 18 सेंमी0 लंबा है, उसका नाम ‘धोबन’ है। धोबन नाम इसके पानी से गहरे संबंध का द्योतक है। पानी या जलाशय देखते ही हमारे मन में आनंद की लहरें उठने लगती हैं। अतएव ‘धोबन’ नाम ‘गांव की गोरी’ सा सुंदर है तो उचित ही है, और न भी हो तब भी ‘मामूला’ से तो विशिष्ट है और धोबन को मामूला खंजन की तुलना में वीआईपी- सा सम्मान तो दे ही देता है!
यदि ऐसे नामकरणों के कारण ज्ञात न हों तो उन्हें मानव-स्वभाव की विचित्रता कहकर ‘समझा’ दिया जा सकता है। पर यहां तो कारण स्पष्ट है। ‘धोबन’ पंछी ‘इंपोटैंड’ हैं, विदेशी हैं; पश्चिमी साइबेरिया से शीतकालीन प्रवास के लिए आते हैं। और ‘मामूला खंजन’ कश्मीर से कन्याकुमारी तक को रौनक देनेवाला, प्रफुल्लता देनेवाला बिचारा भारतीय है। विदेशियों का हमें आदर तो करना चाहिए। ‘इम्पोटैंड’ चीज विश िष्ट और बेहतर !, भारतीय चीज मामूली! अंग्रेजी भाषा विशेष रौबदार भाषा, तथा हिंदी अपढ़ लोगों की बोली!!
मामूला खंजन का नाम मैंने रखा है ‘सितोदर काला खंजन’, (लार्ज पाइड वैगटेल’, ‘मोता सिल्ला मदेदस पतेन्सिस’’); और धोबन का नाम रखा है ’भस्म/सित खंजन’ (‘व्हाइट वैगटेल’, ‘मोतासिल्ला अल्बा दुखुनिन्सिस’’)। मेरे दिये गए नाम के अनुसार ’धोबन’ के ऊपरी शरीर का रंग मुख्यतया भस्म या राख सरीखा, और नीचे का उदर सफेद। इसका मुंड तथा गला ग्रीष्म ऋतु में मुख्यतया काला होता है जो शीतकाल में सफेद ह� �� जाता है ‘‘किंतु माथा सदा सफेद ही रहता है’’। खंजन वंश के सारे पक्षी हमेशा ही अपनी पूंछ उपर-नीचे डुलाते हैं, इसलिए अंग्रेजी में इनके कुल के पक्षियों का पारिवारिक नाम ‘वैगटेल’ है। ऐसे नाम भ्रम पैदा करते हैं क्योंकि अनेक अन्य पक्षी हैं जो अपनी पूंछ डुलाते हैं, यथा: कत्थइ अश्वक (‘रॉक चैट’)। खंजन पंछी अपनी पूंछ कुतों की तरह नहीं हिलाते। वैसे भी ऐसे सुंदर पक्षी के लिए ’श्वेत पुच्छडो� ��’ (‘व्हाइट वैगटेल’) जैसा नाम उपयुक्त नहीं लगता। खैर।
गर्मियों में ये (’भस्म/सित खंजन’) पंछी बर्फीले साइबेरिया में तथा हिमालय में प्रजनन करते हैं; शावकों का लालन-पालन करते हैं। प्रजनन काल में अनेक पक्षी, विशेषकर नर, अपने सुंदर रूप में रहते हैं क्योंकि मादा जब नर का चुनाव करती है तब चपलता, उर्जा इत्यादि के साथ संभवत: सौंदर्य ( मुझे लगता है कि पक्षियों के शब्दकोश में सौन्दर्य का अर्थ पहचान और ’स्वास्थ्य’ अधिक होता है) भी एक गुण ह� ��ता है, जिसके आधार पर वह नर का चुनाव करती है। वास्तव में पक्षियों के विभिन्न कद, रूप तथा रंग जातियों की विभिन्नता दर्शाते हैं। एक ही जाति के पक्षियों के कद, रूप तथा रंग अत्यधिक समान होते हैं, इसलिए मादा नर का चुनाव वास्तव में चपलता, उर्जा, उड़ान आदि देखकर करती है। क्योंकि लगभग स्वस्थ नर एक समान ही सुंदर होते हैं। साइबेरिया में इन पक्षियों को अपेक्षाकृत कम खतरा रहता है, इसलिए मादा भी � ��पने मुंड पर भड़कदार काला रंग पसंद करती है, और श्रृंगार में अपने को, (सामान्यतया पक्षियों में नर मादा से अधिक सुंदर या आकर्षक होता है) , नर से कम नहीं आंकती। यह नाम जो भस्म/सित खंजन दिया गया है, वह इसकी अन्य पक्षियों विशेषकर खंजनों, से अलग पहचान दिखला देता है तथा हमें हमारी प्राचीन पक्षीप्रेम की ऋषि-परंपरा से जोड़ता है। पक्षियों के जो भी नाम मैंने गढ़े हैं वे वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण करते हैं।
सितोदर काला खंजन चूंकि प्रवासी नहीं है, भारत में ही रहता है, और ऋतुओं के अनुसार अपना रंग नहीं बदलता। इसकी मादा का काला रंग – प्रगाढ़ कत्थई-सा रहता है। काला रंग तो आज जबर्दस्त फैशन में है, वैसे भी काला रंग हमेशा, विशेषकर सफेद या पीले के साथ, एकदम विशिष्ट दिखता है। और आज के फ़ैशन के अनुसार तो सर्वाधिक सुंदर तथा आकर्षक! इस दृष्टि से सितोदर काला खंजन, भस्म/सित खंजन से कहीं अधिक सुंदर माना जाना चाहिए। किंतु भारतीय होने के नाते विदेशी के सामने उसे ‘मामूला खंजन’ का ही दर्जा दिया जाता है।
एक बात और दृष्टव्य है – भारत में प्रवासी (विदेशी) पक्षियों को सगुन-विचार तथा भविष्यवाणी के लिए उपयोगी मानते हैं। भारतीय पक्षियों को कम। क्या यह भी विदेशियों के प्रति पक्षपात है? नहीं ऐसा नहीं है। यह इसलिए कि प्रवासी पक्षी तो तभी भारत में आएंगे जब वे सुरक्षित महसूस करेंगे, उन्हें उचित भोजन प्राप्त होगा तथा उनका आवास स्थान, यथा: जलाशय, मैदान आदि, प्रदूषित नहीं होगा। वरना उन्हें � �्या, पंख फरफराकर कहीं और चले जाएंगे। इस तथ्य को हमारे ऋषियों ने हज़ारों वर्ष पहले कैसे देख लिया था, आश्चर्य होता है। उस समय तो जल, थल तथा वायु प्रदूषण नहीं ही होगा। ऋषियों ने, मनु स्मृति ने, याज्ञवल्क्य स्मृति ने, चाणक्य ने, सम्राट अशोक इत्यादि ने ‘‘पक्षियों के’’ शिकार के नियम बना दिए थे। ऋषियों की गहरी समझ उनके न केवल गहरे प्रकृतिप्रेम से उपजी होगी वरन पैने तथा गंभीर अवलोकन से भी � �पजी होगी। तभी तो संत तुलसी दास किष्किंधा कांड में प्रकृति का वर्णन करते समय कहते हैं,
‘‘ जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।।’’
प्रवासी खंजन तथा उनके चचेरे भाइयों – भस्मी शिखर पीलकिया (‘ब्लू हैटेड यलो वैगटेल, मोतासिला फलावा बीमा’) तथा कलकंठी पीलकिया (‘ग्रे वैगटेल, मोतासिला कास्पिका’) – का भारत में आगमन शरद ऋतु में होता है। किंतु तुलसीदास इस तथ्य के वर्णन के आगे जाकर कहते हैं कि शरद ऋतु में खंजन आए क्योंकि यह लंबी अवधि में किए गए हमारे पुण्यकर्मों का सुफल है।
पक्षियों की सुरक्षा, वनों का जीवंत होना तथा जलाशयों का प्रदूषण रहित होना – इनमें लंबे समय तक कार्य करना पड़ता है, तब कहीं ये सुफल देते हैं। इसका एक अर्थ यह भी होता है कि यदि हम ये वांछित पुण्यकर्म न करें, तब भी इनका ‘कुफल’ हमें देर से मिलेगा। जैसा भरतपुर के पक्षी अभयारण्य में ‘ललमुख सित क्रौंच’ (‘साइबेरियन क्रेन’, ग्रुस लेउको जैरानुस’) का साइबेरिया से आगमन पिछले 12, 15 वर्षों से कम ह� ��ता रहा और अब लगभग बंद ही हो गया है। एक तो, उनको अपने अफगानिस्तान पड़ाव में मानव शिकारियों से अत्यधिक क्षति होती है। दूसरे, भरतपुर की झील में पानी कम होता जा रहा है तथा गांव के ढोरडंगर अत्यधिक संख्या में अभयारण्य के मैदानों में चरने के लिए आ जाते हैं जो पक्षियों के जीवन में बाधा डालते हैं। ये मानव जाति के दीर्घकालीन पापकर्म हैं कि ललमुख सित क्रौंचों ने भारत में प्रवासन बंद कर दिया � ��ै।
जो भी व्यक्ति भारतीय साहित्य, ‘अंग्रेजी छोड़कर,’ से परिचित हैं वे खंजन से या कम से कम उसके नाम-गुणों से तो परिचित हैं। पहले तो इस पक्षी का नाम खंजन स्वयं काव्यमय है। खंजन का अर्थ है – आकाश में जन्म लेने वाला! यह कैसे? हमारे ऋषि हिमालय की पवित्र उंचाइयों पर रहने वाले थे। प्रकृति से उनका गहरा लगाव होता था तथा उसका पैना और गहरा अवलोकन भी उन्होंने किया। शरद ऋतु में भी वे रोज सुबह शाम प� �रकृति का आनंद लेते होंगे। तभी एक रूपहले दिन अचानक हिमालयी आकाश से हज़ारों की संख्या में ये प्रवासी पक्षी नीचे उतरते दिखे होंगे। ऋषियों ने इन सुंदर अतिथियों को नाम दे दिया ’खंजन!’ पक्षी-वैज्ञानिक कुछ वर्ष पूर्व तक यही मानते रहे कि साइबेरिया, रूस आदि से भारत आनेवाले प्रवासी पक्षी हिमालय की उंचाइयों को पार कर नहीं आ पाते होंगे, अतः वे हिमालय के दर्रों से ही आते होंगे। किंतु हमा� ��े ऋषि हिमालय की उंचाइयों ‘जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ, अमरनाथ आदि’ में रहनेवाले थे, दर्रों में रहनेवाले नहीं। किंतु जब एवरेस्ट पर चढ़नेवाले पर्वतारोहियों ने भी यह बतलाया तब पक्षी वैज्ञानिकों ने भी मान लिया कि ये प्रवासी पक्षी हिमालय के पार उड़कर आते हैं, मात्र दर्रों से नहीं।
ऋषियों ने, तथा ‘संस्कृत के’ कवियों ने इनका अवलोकन कर इन्हें बहुत उपयुक्त तथा सुंदर नाम दिए हैं। सितोदर काला खंजन का कंठ काला होने के कारण-‘कालकंठ’ तथा ‘नीलकंठ’, उपर काला होने के कारण ‘काकच्छदि खंजन’, घास के मैदानों में अद्भुत शोभामय चपलता से दौड़ने के कारण ‘कर्कराक्ष’, सुगढ़ शरीर होने के कारण ‘कर्करांग’ तथा पछली से भी अधिक सौंदर्यमय गति के कारण ‘मीनाम्रीण’ आदि नाम दिए हैं। भस्म/ सित खंजन पाकिस्तान से लेकर असम तक और समस्त दक्षिण भारत को शीतकालीन प्रवास में अपने सरस सौंदर्य के लालित्य की तथा नृत्यांगना चाल की -सी भव्यता प्रदान करते हैं। ‘सितोदर काला खंजन’ आवासी है, क्योंकि यह सारे भारत में प्रजनन करता है। यह खंजन उपर है तो काला, किंतु इसकी लंबी सुगढ़ भौंहें इसके नयनों को आकर्षक बनाती है। रामचरित मानस ‘‘तुलसी’’ में वनवास के समय जब ग्रामीण महिलाएं सीताजी स े पूछती हैं कि साथ के दो सुंदर सशक्त युवकों में से उनके पति कौन हैं, तब सीताजी रामचंद्र जी का न तो नाम लेकर और न हाथ से इशारा कर उतर देती हैं, वरन ’कहती’ हैं, ‘‘खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सैननि।’’ अपने खंजन के समान सुंदर नयनों से रामचंद्र जी की तरफ तिरछे देखते हुए मानो ’कह’ देती हैं कि यही हैं मेरे पति। ये लंबी सुगढ़ भौंहों वाले खंजन भारतीय, सर्वसुलभ सितो दर काले खंजन ही हैं।
जब तक मैंने खंजन पक्षी देखे-पहचाने नहीं थे, मैंने मान लिया था कि जब तुलसी सीताजी के सुंदर नेत्रों की उपमा खंजन से देते हैं तो निश्चित रूप से खंजन के नयन असाधारण सुंदर होंगे। किन्तु जब मैंने इन अति सुंदर चपल सरस खंजनों को देखा तब पता लगा कि खंजन के नयन अन्य पक्षियों के नयनों के समान ही साधारण होते हैं। तब यह उपमा कैसी? उअह मैने अनेक कवियों से पूछा, किन्तु कोई संतोषप्रद उनर न मिला। जब के0एन0 दवे की पुस्तक ‘बर्ड्स इन संस्कृत लिटरेचर’ ‘‘मोतीलाल बनारसी दास’’ हाथ लगी तब यह रहस्य समझ में आया।
खंजन बहुत ही चपल पक्षी है। अधिकतर पानी के पास दिखता है इसलिए सरस है। इसका शरीर छरहरा और सुगढ़। फिर इस ‘खंजन की दोनों जातियां सरस है। रंग केवल काले और सफेद। कल्पना, रचनाशीलता, पैना तथा गहरा अवलोकन का उत्तम उदाहरण देखना है तो यही उपमा या रूपक देखिये । यदि कोई चित्रकार दो खंजनों को आमने – सामने खड़ा करके उनका चित्र बनाए तो वे बहुत ही सुंदर आंखें लगेंगी। ‘एक बार जबलपुर विश्वविद्यालय � ��ें जब मैं खंजनों के विषय में यही बोल रहा था, तब श्रोताओं में बैठे प्रसिद्ध चित्रकार श्री राममनोहर सिन्हा ने अचानक आकर ब्लैक बोर्ड पर दो खंजनों का ऐसा ही सुंदर चित्र खींचा। श्रोताओं ने करतल ध्वनि से उनको धन्यवाद दिया।’’ इसलिए सुंदर स्त्री के सुंदर चपल सरस काले विशाल व सुगढ़ नयनों की उपमा ‘खंजन’ से देना न केवल बहुत उतम उपमा है वरन अद्भुत कवि-कल्पना की ओर इंगित करती है। आमरु शतक मे� �� गंगा नदी की उपमा एक मनोहर युवती से करते हुए उसके नयनों की तुलना खंजन के एक युगल से की है।
खंजन नैन, रूप रस माते,
उड़ि उड़ि जात निकट श्रवनन के,
उलटि-पुलटि ताटंक फंदाते।
ये रूपरस के प्यासे नयन खंजन के समान चपल हैं, कान तक उड़-उड़ जाते हैं, और कान के आभूषण तक को फलांग जाते हैं।
उत्तर भारत में सितोदर काला खंजन का प्रजनन-काल मार्च-जून है क्योंकि शावकों की अमिट भूख मिटाने के लिए वर्षाकाल उपयुक्त है। और दक्षिण भारत में दिसंबर से जून तक है क्योंकि दक्षिण में, विशेषकर तमिलनाडु तथा आंध्र तट पर वर्ष में दो बार वर्षा होती है। इनका घोंसला एक कटोरे के आकार का होता है जो सूखी टहनियों, जड़ों, घास आदि के चबूतरे के बीचोंबीच गढ़ा जाता है। इस कटोरे को आरामदेह बनाने के लि� � उसमें उन, बाल आदि का अस्तर बिछाया जाता है।
इनका प्रणयगान तथा प्रणयनृत्य बहुत ही भावनापूर्ण होता है। नर आवेगमय गान के साथ, अपने परों को फुलाकर, अपनी सुंदरता में शक्ति का पुट देते हुए, धीरे-धीरे उड़ते हुए ‘धीरे उड़ना पक्षियों में तथा तेज विमानों में बहुत विशेष योग्यता का परिचायक होता है।’ गर्व से मादा के सामने जमीन पर उतरता है; फिर वक्ष के परों को फुलाकर, दोनों पंखों को पूरा फ़ैलाकर, उन्हें पीछे ले जाता है, फिर उन पंखों के छोरो� � के थिरकते तीव्र कंपन के साथ अपनी प्रिया के निकट शान से आता है। यह तीव्र कंपन खंजन का अपने पंखों पर अत्यंत कुशल नियंत्रण का परिचायक है। उसकी प्रिया, मोहित होने पर उस प्रणयनृत्य की युगलनृत्य में पदोन्नति कर देती है। कहा जा सकता है कि एक से दो नृत्य करने वाले हो गए, किंतु शायद अधिक सच यह है कि दो हदय एक हो गए। वह प्रेमवश थोड़ा-सा झुकती है, पंखों को कंधे तक खोलती है और उन पंखों के छोर ऐसे � �र-थर कांपते हैं जैसे उसका तेजी से धड़कता ह्दय। इसके बाद मैथुन होता है जिसमें नर का गान गुंजित होता रहता है। इसलिए इन खंजनों ‘सितोदर काला’ का एक नाम रतनिधि अर्थात रति की निधि भी है। मादा एक खेप में 3-5 अंडे तक देती है। नीड़निर्माण तथा शावक का पालन-पोषण नर-मादा मिलकर करते हैं। भृंग की एक जाति का ‘त्रिदाक्ताइलिनी भृंग’ न केवल चपल होता है वरन रेत में लुक-छिपकर भागता भी है। ऐसे में दोनों द� ��्पति इस भृंग का पीछा करते हैं। फिर रेत की एक धार-सी उड़ती नजर आती है और दूसरे ही क्षण वह भृंग एक खंजन की चोंच में। भृंगों के अतिरिक्त ये खंजन टिड्डी, चिड्डे, घोंघे, छोटे बीज भी खाते हैं।
सितोदर काला खंजन की मादा अपना घोंसला तो आरामदेह ‘दोनों मिलकर’ बनाती है, किंतु उस स्थल का चुनाव बहुत सावधानी से करती है। वह पानी के पास होता है, सुरक्षित स्ािान में होता है जैसे पुल के नीचे, वृक्ष के कोटर, दीवार के छेद आदि। मादा एक खेप में 3-5 अंडे देती है। भस्मी अंडों पर भूरे चित्ते होते हैं जो घोंसले से समरूपता रखते हैं तथा सरलता से दिखते नहीं हैं।
‘सितोदर काला खंजन’ जबकि लगभग सारे भारत में सारे वर्स पूंछ डुलाता और नृत्य करता है, भस्म/सित खंजन केवल शीत ऋतु में। हां, इस प्रवासी की यह शीत ऋतु सितंबर या अक्टूबर से अप्रैल या मई तक लंबी होती है। यह इसके भारत-प्रेम को दर्शाती है। भस्म/सित खंजन-सारे भारत में नृत्य तो करता है किंतु भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अपनी भिन्न-भिन्न पांच उपजातियों के रूप में। वैसे सारे खंजन जलप्रिय हैं, किं� ��ु यह भस्म/सित खंजन अधिकांशतया पानी के पास ही दौड़ता-नाचता, पूंछ डुलाता मिलेगा। इसलिए इसका ‘धोबन’ नाम भी बहुत उपयुक्त है। किंतु इस नाम से इसकी पहचान करना थोड़ कठिन है। प्रवास काल में ‘भारत में’ ये अधिकांशतया अकेले ही भोजन की खोज करते दिखते हैं। किंतु प्रजनन काल में नर अपने क्षेत्र की रक्षा डअकर करता है, वागा -पाकिस्तान-हिंदुस्तान’ सीमा पर सैनिकों की ही भांतिये परेड करते हैं, किंत� � इनके लिए यह मात्र नाटक नहीं। जरा भी घुसपैठ का संदेह हाने पर, दूसरा उस पर उड़कर आक्रमण कर देता है तथा पहले को अपना बचाव करना पड़ता है। अंततः घुसपैठियों को हार मानकर पीछे हटना ही पड़ता है।
प्रवासी पक्षियों के प्रवास-व्यवहार का अध्ययन करने के लिए विशेस स्थानों पर उन्हें धातु की हल्की पतली अंगूठी पहनाई जाती है जिसमें उस स्ािान का नाम तथा तिथि अंकित कर देते हैं। 16 तथा 17 मार्च 1961 में दो भस्म/सित खंजनों को कच्छ में प्रवास के पश्चात लौटते समय अंगूठियां पहनाई गई थी। उनमें से एक को जून 1961में ‘किरोब’ ’रूस’ में तथा दूसरे को जुलाई 1961 में वोल्गाग्राद ‘रूस’ में पहचाना गया। ये दो नों स्थान कच्छ से क्रमशः 4200 तथा 3600 किमी दूर हैं। इससे यह व्यवहार सामने सामने आता है कि भारत में प्रवास हेतु आनेवाले खंजन कुल के पक्षी न केवल हिमालयी प्रजनन क्षेत्र से आते हैं वरन साइबेरिया, रूस, मंगोलिया, कैस्पियन आदि क्षेत्रों से भी आते हैं।
खंजन वंश ‘मोतासिला जीनस’ की तीन और जातियां हैं जो भारत में गर्व से नृत्य प्रदर्शन करती हैं। इन तीनों जातियों को खंजन नाम न देकर पीलकिया नाम दिया गया है क्योंकि खंजन के धवल या रजत के स्ािान पर इनमें नींबुई पीला रंग होता है। संस्कृत में इनका एक नाम इसीलिए हरिद्रव ‘हल्दी-सा पीला’ है। एक जाति है ‘कलकंठी मेघा पीलकिया’ ‘‘ग्रे वैगटेल, मोतासिला कास्पिका’’ जिसके प्रजननकालीन ‘पक्षियो� �� के रंगों के विवरण मैंने हमेशा नर से प्रजननकालीन रंगों के दिए हैं, अन्यथा स्थिति स्पस्ट कर दी गई है। ग्रहणकाल के रंगों से पंछियों की पहचान करना कठिन होता है।’ नर का कंठ काला होता है, शरीर उपर मेघ समान या सलेटी तथा नीचे सुनहरा होता है। इसकी भौंहें भी स्पस्ट सफेद होती हैं, साथ ही इसके काले कंठ तथा मेघी आंखों के बीच सफेद रेखा होती है। केवल ‘ग्रे वैगटेल’ कहने से स्पस्ट पहचान नहीं बनती क्योंकि भस्म/सित खंजन भी उपर उपर भस्मी या ‘ग्रे’ होता है। हम भारतीय चाहे पीलकिया की तुलना में खंजन को अधिक सम्मान दें, पर जिस गर्व से यह कलकंठी मेघा पीलकिया पूंछ मटकाती नृत्य करती है, चलती है, लगता है कि इसे भस्म/सित खंजन के रजत के स्थान पर अपने स्वर्ण का अधिक मान है। ये ‘कलकंठी मेघा पीलकिया’ प्रजनन बलूचिस्तान तथा हिमालय क्षेत्र में करते हैं, तथा प्रवास सारे भारतीय उपमहाद्वीप मे� ��। एस बार में नामदाफा के जंगलों में जंगली-सड़क पर जिप्सी कार से घूम रहा था। वृक्ष पर बैठी इस पीलकिया को मैंने निहारा, और आश्चर्य कि वह पीलकिया उड़ा और मेरी जिप्सी के आगे-आगे उड़ने लगा। मेरे साथी बोल उठे, ‘‘हमारे एयर मार्शल की जिप्सी के सामने बाकायदा एक पायलट ‘मोटर साइकिल सवार सैनिक जो वीआईपी के वाहनों के सामने चलते हैं-पायलट कहलाते हैं’ चल रहा है। उसने लगभग डेढ़ या दो किमी तक हमारी पाय लटिंग की। उसके बाद शायद उसका ‘क्षेत्र समाप्त हो गया होगा। पर उसने ऐसा क्यों किया? या फिर उसने पायलटिंग नहीं की, बस वह अपनी उड़ान भर रहा था, और यह संयोग है कि मैं उसके पीछे-पीछे चल रहा था?
कलकंठी मेघा पीलकिया बलूचिस्तान, पाकिस्तान, हिमालय ‘पाकिस्तान से लेकर भूटान तक’, यूरोप, कैस्पियन क्षेत्र ‘इसलिए इसके लातिन नाम में कास्पिका है’, साइबेरिया, मंगोलिया, चीन आदि में प्रजनन करती हैं। इनका प्रजननकाल अप्रैलांत से जुलाई अंत तक है।
खंजन वंश के पक्षियों की गिनती विश्व में सर्वाधिक लंबी पूंछ ‘शरीर के अनुपात में 50 प्रतिशत,’ वाले दस पक्षियों में की जाती है। उस पर, कलकंठी मेघा पीलकिया की पूंछ खंजन कुल की जातियों में सर्वाधिक लंबी ‘शरीर के अनुपात में’ है।
दूसरी जाति की पीलकिया है ‘जैतूनी पीलकिया’ ‘यलो वैगटेल’, ‘मोतासिला फलावा’ जिसकी सात उपजातियां सारे भारत के विभिन्न भागों को आबाद करती हैं। सभी पीलकियां पीली होती हैं, अतएव ‘यलो’ कहने से कुछ विशेस जानकारी नहीं मिलती। इन उपजातियों के पीठ के रंग तो जैतून की विभिन्न आभाओं वाले होते हैं, सिर के रंग भिन्न होते हैं जिनके आधार पर ये पहचानी जाती हैं। इनके उदर के रंग तो सभी पीलकियों के स पीले ही हैं। यह कश्मीर, लद्दाख तथा साइबेरिया में प्रजनन करती हैं, पानी के आसपास कीड़े तो इसके आहार हैं ही। यह चरते ढ़ोरों के पास भी ‘गो-पिंगला’ की तरह सरकसी उड़ानों से कीड़ों को पकड़ते देखी जा सकती है। ‘इसीलिए संस्कृत में इसका एक नाम गोप या गोपुत्र है।’ तीसरी जाति की पीलकिया है ‘स्वर्णमुंड पीलकिया’ ‘सिट्रीन वैगटेल’, ‘मोतासिला सित्रिओला’ जिसकी तीन उपजातियां भारत के विभिन्न जलसमद्ध भागों की शोभा बढ़ाती हैं। ये भी प्रजनन बलूचिस्तान, पाकिस्तान तथा हिमालयी क्षेत्रों में करती हैं।
प्रवासी पीलकियों का संस्कृत में एक नाम ‘गूढ़नीड़’ भी है, अर्थात जिसका नीड़ या तो बिल्कुल गुप्त है अथवा है ही नहीं। प्रवासी पीलकियां ‘या अन्य पक्षी’ प्रवास क्षेत्र में घोंसल के लालन-पालन हेतु बनाते हैं, अपने आराम या बचाव के लिए नहीं। वैसे अधिकांश आवासी पंछी हैं जो साल-भर घांेसलों में रहते हैं। संस्कृत में पीलकियों को गोपृत्र, खंजरीट ‘खंजन नहीं’, मुनिपुत्र या ऋसिपुत्र भी कहते हैं। ऋसिपुत्र या मुनिपुत्र नाम तो सम्मानजनक है, परंतु क्यों? खंजन ऋसियों को, कवियों को अतिप्रिय रहे हैं। जब उन्होंने इस पक्षी को खंजन अर्थात आकाश में जन्म लेनेवाला नाम दे दिया तब इसे ऋसिपुत्र कहना एक कदम आगे ही जाना कहलाएगा। यह पक्षी ऋसिपुत्र केवल इसलिए नहीं कहलाए गए होंगे कि वे ऋसियों के आश्रयों की भूमि पर विचरते हों, खंजन गामिनियों की तरह उत्साहपूर्वक चलते होंगे, नृत्य करते होंगे , जलक्रीड़ा करते होंगे, वरन् इसलिए भी कि उनकी भूमि पर इनका शुभागमन उस समय होता था जब अगस्त्य तारा ‘केनोपस’ का क्षितिज पर उदय होता था, अतएव इनका नाम अगस्त्य-पुत्र या ऋसिपुत्र उचित ही है। ब्रह्ााण्ड की एकता, अन्तर्संबंध तथा प्रकृति-संरक्षण का यह एक उतम उदाहरण है।
खंजन कुल ‘मोतासिला’ की छइी जाति है ‘दुकंठी खंजनिका’ ‘मोतासिला इंदिका’। यह न तो खंजनों के समान काले-धवल रंग की है और न पीलकिया के समान सोनल है। इसकी पीठ का प्रमुख रंग जैतूनी हरा है जिसपर हल्की-सी जामुनी रंग की आभा होती है। पंख के पिछले भाग में ‘काले पर सफेद पट्टियां होती हैं। निचले सफेद शरीर में दो काली मालाएं खंजनों में इसकी स्पस्ट पहचान बनाती हैं। इसीलिए इसका नाम मैंने ‘दुकंठ� � खंजनिका’ ‘फॉरेस्ट वैगटेल’, ‘मोतासिला इंदिका’ बनाया है। नर मादा एक समान होते हैं। यह पंछी सितोदर काला खंजन के समान प्रमुखतः भारतीय हैं। यह असम के कछार जिले में मई माह में प्रजनन करता है तथा श्रीलंका सहित सारे भारत में शीतकालीन प्रवास करता है।
यद्यपि अंग्रेजी में इसे ‘फॉरेस्ट वैगटेल’- अर्थात वन में रहनेवाला पूंछ मटकानेवाला पंछी कहते हैं। इस उपकुल के अन्य ‘वैगटेल अपनी पूंछ उपर-नीचे डुलाते हैं, ‘इसलिए संस्कृत में खंजन कुल के पक्षियों का एक नाम डुलिका भी है।’ उनके विपरीत यह अपनी पूंछ दाएं-बाएं हिलाती है। जलाशयों या नदियों से इसका प्रेम नहीं है, यह तो आरण्यकों के समान अरण्यप्रेमी हैं। इसकी चाल में चपल सोडशी के समान उत्ह नक होकर, वयस्कों के समान गंभीरता है। चपल सुंदर सोडशियों की चाल को ‘खंजनगामिनी’ भी कहते हैं।
पीलकिया खंजरीट यूथप्रिय हैं। सभी पीलकिया बहनें भी साथ-साथ किसी विशाल सौभाग्यशाली नरकुल पर हज़ारों की संख्या में वास करती हैं। जब उसाकाल में वे अपने आहार की खोज में एक साथ उड्डयन करती हैं तब आकाश और सुनहला हो जाता है, और संध्या समय जब वे लौटती हैं तब पुनः आकाश में सुनहलेपन में चमक आ जाती है। यदि जमीन पर हम दोनों उसा तथा संध्या को गोधूलि बेला बोलते हैं, तब ऐसे आकाश में इन दोनों बेला� ��ं को हम पीलकिया स्वर्णबेला कह सकते हैं।
‘भारत स्वाभिमान’ का कड़वा सच!

जब श्री दीक्षित जी बाबा रामदेव के मंच से आँकड़ों सहित यह जानकारी देते तो लोगों का तालियों के रूप में अपार समर्थन मिलता था| लेकिन ये क्या जो बाबा रामदेव लाखों लोगों के हृदय रोग का सफलतापूर्वक उपचार करने का दावा करते रहते हैं, उन्हीं का अनुयाई, उन्हीं का एक मजबूत साथी पचास साल की आयु पूर्ण करने से पहले ही हृदयाघात के चलते असमय काल के गाल में समा गया| जिसका दाह संस्कार करने में साथ जाने वालों का आरोप है कि मृतक को हृदयाघात नहीं हुआ, बल्कि उसे कथित रूप से जहर दिया गया था, क्योंकि उसका शव नीला पड़ गया था!
कौन था यह इंसान? जो बाबा रामदेव का इतना करीबी होते हुए भी हृदयाघात का शिकार हो गया और जिसका शव नीला पड़ जाने पर भी, जिसका पोस्टमार्टम तक नहीं करवाया गया? वो दुर्भाग्यशाली व्यक्ति राजीव दीक्षित ही था| जो बाबा के अभियान के लिये रातदिन एक करके तथ्य और आँकड़े जुटा कर बाबा के लिये राजनैतिक भूमि तैयार कर रहा था, जिसे कथित रूप से इस बात का इनाम मिला कि वह बाबा के मंच से बाबा से अधिक पापूलर (लोकप्रिय) होता जा रहा था| बाबा से ज्यादा लोग राजीव दीक्षित को सुनना पसन्द करने लगे थे| राजीव दीक्षित के चले जाने के बाद अनेक कथित हिन्दू सन्तों का आरोप है कि राजीव दीक्षित की मौत नहीं हुई, बल्कि उसकी हत्या करवाई गयी| जिसमें बाबा रामदेव सहित, उनके कुछ बेहद करीबी लोगों पर सन्देह है! इस प्रकार बाबा रामदेव का आन्दोलन योग से, स्वदेशी और राजीव दीक्षित के अवसान के रास्ते चलता हुआ ‘‘भारत स्वाभिमान’’ की यात्रा पर निकल पड़ा है|
देशभर में अनेकों लोगों द्वारा बाबा पर बार-बार आरोप लगाये जाते रहे हैं कि उनका असली या छुपा हुआ ऐजेण्डा हिन्दुत्वादी ताकतों और संघ सहित भाजपा को लाभ पहुँचाना है, लेकिन बाबा की ओर से इन बातों का बार-बार खण्डन किया जाता रहा है| यद्यपि सूचना अधिकार कानून के जरिये यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि देश के लोगों से राष्ट्र के उत्थान के नाम पर लिए गए चंदे में से बाबा के ट्रस्ट से भारतीय जनता पार्टी को चुनावी खर्चे के लिये लाखों रुपये तो चैक से ही दिये गये| बिना चैक नगद कितने दिये गये होंगे, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है! इस प्रकार बाबा का असली ‘‘संघी’’ चेहरा जनता के सामने आने लगा है|
‘‘भारत स्वाभिमान’’ के समर्थकों की ओर से जनता को बेशक बेवकूफ बनाया जाता हो कि बाबा का संघ या भाजपा या नरेन्द्र मोदी के मकसदों को पूरा करने से कोई वास्ता नहीं है, लेकिन कथित राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व के प्रखर समर्थक लेखक श्री सुरेश चिपलूनकर जी, जो अनेक मंचों पर संघ, हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद, संस्कृति, रामदेव और भारत स्वाभिमान के बारे में अधिकारपूर्वक लम्बे समय से लिखते रहे हैं| जिनके बारे में कहा जाता है कि वे तथ्यों और सबूतों के आधार पर ही अपनी बात कहना पसन्द करते हैं| यही नहीं, इनके लिखे का आर एस एस, विश्व हिन्दू परिषद् और भाजपा से जुड़े हुए तथा कथित राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व और भारतीय संस्कृति के समर्थक लेखक, विचारक तथा टिप्पणीकार आँख बंद करके समर्थन भी करते रहे हैं| ऐसे विद्वान समझे जाने वाले संघ, नरेन्द्र मोदी, भाजपा और बाबा रामदेव के पक्के समर्थक लेखक श्री सुरेश चिपलूनकर ‘‘रामदेव बनाम अण्णा = भगवा बनाम गॉंधीटोपी सेकुलरिज़्म?? (भाग-२)’’ शीर्षक से लिखे गए और प्रवक्ता डोट कॉम पर २७ अप्रेल, ११ को प्रकाशित अपने एक लेख में साफ शब्दों में लिखते हैं कि-
‘‘……बाबा रामदेव देश भर में घूम-घूमकर कांग्रेस, सोनिया और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ माहौल तैयार कर रहे थे, सभाएं ले रहे थे, भारत स्वाभिमान नामक संगठन बनाकर, मजबूती से राजनैतिक अखाड़े में संविधान के तहत चुनाव लड़ने के लिये कमर कस रहे थे, मीडिया लगातार २जी और कलमाडी की खबरें दिखा रहा था, देश में कांग्रेस के खिलाफ़ जोरदार माहौल तैयार हो रहा था, जिसका नेतृत्व एक भगवा वस्त्रधारी (बाबा रामेदव) कर रहा था, आगे चलकर इस अभियान में नरेन्द्र मोदी और संघ का भी जुड़ना अवश्यंभावी था| और अब पिछले १५-२० दिनों में माहौल ने कैसी पलटी खाई है नेतृत्व और मीडिया कवरेज अचानक एक गॉंधी टोपीधारी व्यक्ति (अन्ना हजारे) के पास चला गया है, उसे घेरे हुए जो टोली (भूषण, हेगड़े, केजड़ीवाल आदि) काम कर रही है, वह धुर हिन्दुत्व विरोधी एवं नरेन्द्र मोदी से घृणा करने वालों से भरी हुई है….’’
इसी लेख में अपनी मनसा को जाहिर करते हुए उक्त लेखक लिखते हैं कि-
‘‘………..मुख्य बात तो यह है कि जनता को क्या चाहिये- १) एक फ़र्जी और कठपुतली टाइप का जन-लोकपाल देश के अधिक हित में है, जिसके लिये अण्णा मण्डली काम कर रही है अथवा २) कांग्रेस जैसी पार्टी को कम से कम १०-१५ साल के लिये सत्ता से बेदखल कर देना, जिसके लिये नरेन्द्र मोदी, रामदेव, सुब्रह्मण्यम स्वामी, गोविन्दाचार्य जैसे लोग काम कर रहे हैं? कम से कम मैं तो दूसरा विकल्प चुनना ही पसन्द करूंगा….’’
इसी लेख के अंत में निष्कर्ष के रूप में अपने इरादों को जाहिर करते हुए उक्त लेखक श्री सुरेश चिपलूणकर जी लिखते हैं कि-
‘‘….हम जैसे अनसिविलाइज़्ड आम आदमी की सोसायटी का भी एक लक्ष्य है, देश में सनातन धर्म की विजय पताका पुनः फ़हराना, सेकुलर कीट-पतंगों एवं भारतीय संस्कृति के विरोधियों को परास्त करना रामदेव बाबा-नरेन्द्र मोदी सरीखे लोगों को उच्चतम स्तर पर ले जाना, और इनसे भी अधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य है, कांग्रेस जैसी पार्टी को नेस्तनाबूद करना|’’
श्री सुरेश चिपलूनकर जी द्वारा लिखे गए उपरोक्त विवरण से इस देश के लोगों को बाबा रामदेव के असल मकसद को समझने में किसी प्रकार का शक-सुबहा नहीं होना चाहिए|
उपरोक्त लेख में चाहे-अनचाहे प्रकट जानकारी से यह तो साफ़ हो ही गया है कि ‘‘भारत स्वाभिमान’’ के नाम से बाबा रामदेव के मार्फ़त नरेन्द्र मोदी, संघ और अनार्यों तथा गैर-हिन्दुओं के विरुद्ध षड़यंत्र रचने में माहिर लोगों द्वारा अध्यात्मवाद, राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर चलाया जा रहा नाटकीय अभियान ‘‘भारत स्वाभिमान’’ हिन्दूअनार्यों को हिन्दुत्व की एकता और अस्मिता की रक्षा के मोहपाश में फंसाकर, हिन्दुअनार्यों और गैर हिन्दुओं को फिर से मूल आर्यों की क्रूरता के शिकंजे में फंसाने हेतु संचालित किया जा रहा है|
लेकिन सुखद अनुभव करने वाली बात यह है कि इस देश के अनार्यों को ही नहीं, बल्कि आर्य स्त्रियों और आर्य आम लोगों (ब्राह्मण-बनिया को भी) तथा अनार्य क्षत्रियों को अब क्रूर मूल आर्य मानसिकता से ग्रस्त, घृणित-अमानवीय लोगों के मुखौटों के पीछे छिपी असली और षड़यन्त्रकारी आपराधिक चेहरे दिखने लगे हैं और अब बहुत कुछ समझ में भी आने लगा है|
अब चोरी भी बिजनिस हो गया है
हरिया ने जब सुना कि देश में घोटालों को लेकर सब तरफ उगली उठ रही है । लेकिन असली घोटाले बाज कौन है ं किसके जिम्मे है यह देश ,और इसकी जनता । किसे इसकी रक्षा करनी चाहिये थी । जिसे देखों इसे लुटने में लगा है ।
खैर हरिया की सठियायी हुई बुद्धि में समाधान के अलावा तनाव की स्थिति अधिक बनने लगी तो हरिया हडबडा कर उठा और रसोई घर की और देखने लगा कि गृह स्वामिनी कुछ खाने को दे तो ,बुद्धि और पेट का आपस में तारतम्य बैठे । तभी चितवन ने घर का दरवाजा खटखटाया । चितवन के आते ही हरिया बोला ’’चचा कैसे हो’’ ।
चितवन बोला ’’बस ठीक हूॅ । चोर चोर का खेल खेल कर आया हॅू। हरिया बोला इस उमर में चोर चोर का खेल ,समझा नही ? चितवन बोला हां असली का चोर चोर का खेल तो इसी उम्र में आकर ही तो खेला जाता है । हरिया बोला चचा तुम्हारी ये राजनीति भरी सांप सी जैसी बातें मेरी समझ में कम ही आती है और उस समय तो बिलकुल ही नही जब पेट खाली हो । चितवन हो हो करके हंसा । चितवन हंसते समय किसी घाघ राजनेता की तरह लग रहा था । जिसका प्रत्येक भाव द्विअर्थी हो ।
हरिया को कुछ बोलता नही देख कर चितवन बोला ’’हरिया हमारे यहां पर सभी चोर चोर का ही तो खेल खेल रहे है। जो बाहर होते है वे अन्दर वालों को चोर बताते है और जब मोका मिलते ही बाहर वाले अन्दर आ जाते है तो वे बाहर होने वाले अन्दर वालों को चोर बताने लग जाते है । यह क्रम वर्षो से चल रहा है । इनमें कौन साहुकार है और कौन चोर है इसका आज तक तो किसी को पता नही चला और आगे भी ायद ही किसी को कुछ पता चले ।
हरिया हमारे यहां पर प्रजातन्त्र चुनाव के दिन सिर्फ वोट के डालने तक ही होता है उसके बाद प्रजा दूर खडी ताकती रहती है ओर तन्त्र के महीन तन्तु जनता के खून की शिराओं में इस कदर प्रवेश कर जाते है कि उसे मालूम ही नही चलता कि उसका कितना कुछ लुटा जा रहा या लूट लिया गया है । हमारे यहां जो भी घोटाले हुए या भ्रष्टाचार की वारदाते हुई है । वे सब सत्ता में बैठे लोगों द्वारा हुई है और उसका विरोध सत्ता से बाहर के लोगों ने किया है । इसलिये नही कि घोटाले बाज या भ्रष्टाचार करने वाला व्यक्ति पकडा जावे । इसलिये कि उसके चिल्लाने से सत्ता का सुख भोग रहा व्यक्ति किसी भी प्रकार से स्थान या कुर्सी छोड कर बाहर आ जावे और उसे अन्दर जाने का मौका मिल जावे ,ताकि वह भी सत्ता सुख भोग का लाभ उठा कर अपनी आने वाली पीडियों के लिये कुछ कर सके । इसके अलावा ओर कुछ भी नही है ।
जिसे जनता की नजरों में गलत बताया जाता है उस पर आयोग बैठा दिया जाता है ताकि जनता को लगे चोर को पकडने के लिये कमर कस ली गई है हकिकत में यह आयोग चलते कम सरकते ज्यादा है । सरकते भी इस प्रकार है कि सरकारें आ कर चली जाती है । हरिया ये आयोग जब तक मंजिल पकडते है तब तक स्थिति बदल चुकि होती है । जनता के लिये कुछ हो ना हो पर कई प्रकार के मुझ जैसे निठल्ले लोगों को काम मिल जाता है । तभी बाहर चोर चोर के नारों की आवाज आई ,तो चितवन उठ कर चलते हुए बोले हरिया विपक्ष वाले सत्ता पक्ष वालों के खिलाफ रैली निकाल रहे है । तुम भी आओं तुम्हें भी कुछ प्रसाद स्वरूप मिल जावेगा । यह कहते हुए चचा चितवन बाहर चले गये । हरिया की पेट की भूख ने चितवन की वैचारिक सोच को आगे नही बने दिया और वह यह विचार करता हुआ रसोई की ओर ताकने लगा कि पहले सब मिल कर चोर को हडकाते थे और उसके पकडे जाने तक एक रहते थे। अब सब चोर मिल कर साहुकार को हडकाते नजर आ रहे है । चोरी भी एक बिजनिस हो गया है । जो इस काम में जितना ज्यादा लगा हुआ है वह उतना ही बडा कहलाता है, सम्मान पाता है। जो इस काम को गलत बताते है वे नालायकों की श्रेणी में खडे नजर आ रहे है । कहा भी जाता है प्रजातन्त्र में बहुमत का राज होता है आज सब तरफ इन्ही का बहुमत नजर आता है । अब फकीर भी फकीरी को छोड कर अमीरी का राग अलापने लगे है ।
‘नाली के कीडे’
बहुतों को इस लेख का शीर्षक देख कर आश्चर्य होगा,पर मेरी अपनी मजबूरी है.
मैंने वर्षों पहले एक कविता लिखी थी. उस कविता का भी शीर्षक था,नाली के कीडे.( यह कविता प्रवक्त के दो अप्रैल के अंक में प़्रकाशित हुई हैऔर लेखक के लिये प्रवक्त द्वारा बनाये गये आर्काइव में भी उपलब्ध है). यह करीब करीब उन दिनों की बात है,जब जनता पार्टी का प्रयोग असफल हो गया था और वह विभिन्न घटकों में बँट गयी थी.मैनें उसमे दिखाया था कि नाली के कीडों को स्वच्छ जल में रख देने से वे तडप तडप कर मर गये थे.उस समय मैनें विचार व्यक्त किया था कि हम वही नाली के कीडे तो नहीं जो हर तरह की गंदगी में जीवन-यापन कर रहे हैं,तन की गंदगी,मन की गंदगी और हमारा पूर्ण वातावरण हमारी करतूतों से दुर्गंध पूर्ण है. फिर भी हम प्रसन्न हैं और इसमें परिवर्तन के लिये कोई चेष्टा नहीं कर रहे हैं,बल्कि अपने विभिन्न करतूतों से परिवर्तन में रुकावट बन रहे हैं.
जेपी आन्दोलन का एक तरह से मैं भी एक हिस्सा था. मुझमें इतना साहस तो नहीं था कि मैं नौकरी को लात मार कर इस आन्दोलन में कूद पडता,पर एक सिपाही की तरह प्रच्छन रूप से उससे जुडा हुआ अवश्य था. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन गुजरात से आरम्भ हुआ था और बाद में जय प्रकाश नारायण से अपने हाथों में उसकी बागडोर लेने की प्रार्थना की गयी थी,जिसको उन्होंने एक तरह से आनाकानी से ही स्वीकार किया था.पर यह तो बाद की बात है.उससे पहले ही जब राजनारायण इंदिरा गाँधी के विरुद्ध चुनाव लड रहे थे,तब मैनें किसी जानकार से पूछा था कि राज नारायण तो इतने लोकप्रिय हैं कि वे कहीं से चुनाव जीत सकते हैं.यह भी सत्य है कि वे इंदिरा गाँधी के विरुद्ध तो नहीं ही जीत सकते,तो आखिर वे वहाँ से चुनाव क्यों लड रहे हैं. मुझे बताया गया था कि वे जीतने के लिये चुनाव नहीं लड रहे हैं.वे जानते हैं कि चुनाव में धांधली होगी और वे प्रमाण एकत्रित कर मुकदमा करने के लिये चुनाव लड रहे हैं.मेरा माथा ठनका.लगा कि कुछ न कुछ अवश्य होगा,पर मैं भ्रष्टाचार से अपने को इतना त्रस्त महसूस करता था कि मैने सोचा जो होगा अच्छा ही होगा. उसके बाद चुनाव में इन्दिरा गाँधी की जीत और युद्ध में भारत की पाकिस्तान पर विजय .इन्दिरा गाँधी की लोकप्रियता पराकाष्ठा पर पहुँच गयी,जिसका नतीजा 1972 के राज्यों के चुनाव में साफ साफ दिखा.फिर भी 1971 के चुनाव और पाकिस्तान पर विजय के दो वर्षों के अंदर ही यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन आरम्भ हो गया. इन्दिरा गाँधी पर चुनाव में हुए धांधली को लेकर मुकदमा तो 1971 के चुनाव के बाद हीं दायर हो चुका था.
फिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने जोर पकडा और इन्दिरा गाँधी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनाव संबंधी मुकदमा भी हार गयीं. उसकी परिणति हुई आपात काल में. हो सकता है आपलोगों को आश्चर्य हो ,पर आपातकाल के आरम्भिक दिनों में जब सर्वत्र शान्ति छा गयी और सबकुछ अनुशासित दिखने लगा तो मेरे जैसे कुछ अनुशासन प्रिय लोग खुश हो गये थे.मेरे स्थानीय स्टेशन से एक पैसेंजर ट्रेन गुजरती थी.बचपन से मैं उसका समय 10.30 जानता था.यह आपातकाल में ही पता चला कि उसका मेरे स्थानीय स्टेशन पर पहुँचने का समय 9.30 है.विनोबा भावे ने जब कहा था कि आपातकाल अनुशासन पर्व है तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ था.लोगों ने विनोबा जी को बहुत बुरा भला कहा था.पर मैं तो विनोबा जी के विचारों का ऐसे भी भक्त था और उन्होनें जो कहा था वे तो मेरे मन के भी विचार थे.मैं विनोबा भावे को उनके व्यक्तिगत साधना ओर कर्तव्य परायणता के लिये महात्मा गाँधी से कम दर्जा नहीं देता. मैंनें विनोबा साहित्य का भी अध्ययन किया है और मैं उनका वह बचन भी नहीं भूला हूँ कि सर्वोदय और भूदान नहीं भी सफल हो तो विश्व के सामने कम से कम एक विचारधारा तो रहेगा,जिसपर आगे की कोई भी पीढी आदर्श के रूप में प्रयोग में ला सकती है.
हाँ तो मैं बात कर रहा था, आपातकाल और जनता पार्टी के उद्भव की.आपातकाल का अनुशासन चंद दिनों का मेहमान साबित हुआ, क्योंकि हम तो आखिर हम हैं.फिर जारी हुआ दमन का चक्र,जिसने मुझसे बडे लोगों को 1942 की याद दिला दी.नेता लोग तो पहले ही बंद थे.इसके बाद भी कौन पकडा जायेगा इसका कोई ठिकाना नहीं.रिश्वत का बाजार भी जो कुछ दिनों के लिये एकदम शांत हो गया था,बडे जोरों से गर्म हो गया.जो काम पहले सैकडों में होता था वह अब हजारों में होने लगा, क्योंकि रिश्वत लेने वIलों के अनुसार रिस्क ज़यादा हो गया था.किसी को भी छोटी छोटी बातों के लिये तंग करना प्रशासन का दैनिक कार्यक्रम बन गया.नागरिक अधिकारों का हनन तो आपातकाल की घोषणा के साथ ही हो चुका था,पर उसका दुष्परिणाम भी छः महीने के अंदर द्ऋष्टिगोचर होने लगा था.आपातकल में सबसे ज्यादा हनन हुआ था अख़बारों की स्वतंत्रता का.बहुतों ने तो सम्पादकीय लिखना ही बंद कर दिया था.नतीजा हुआ एक पन्ने के बुलेटीन का प्राईवेट वितरण.आलम यह था कि उसको पढते हुए पकडे जाने पर भी जेल की हवा खानी पड सकती थी.फिर भी वह वितरीत होता ही था और लोग छिपकर पढ भी लेते थे. ऐसे भी इन्दिरा गाँधी तो आखिर उस वातावरण की देन थी जो आजादी के माहौल का जन्मदाता था,वह जन्मजात ताना शाह तो थी नहीं.अंततः उन्होनें चुनाव करा हीं डाली और तब जन्म हुआ जनता पार्टी का.
यहाँ वैसे मैं जनता पार्टी का इतिहास दुहराने नहीं बैठा हूँ,पर हमारे नेताओं की पद लोलुपता और स्वार्थ ही मेरे विचार से उसके विघटन का कारण बना.जय प्रकाश जी का मोरारजी देसाई के प्रधान मंत्री बनने में सहयोग देना उनकी दुर्दर्शिता का प्रमाण था. जय प्रकाश नारायण जानते थे कि मोरारजी देसाई ही सबसे कद्दावर और इमानदार नेता हैं.ऐसे मोरारजी देसाई की इमानदारी बहुतों को रास नहीं आती थी.तुर्रा यह कि वे समाजवादी विचारधारा से कभी भी सहमत नहीं हुए.वे अपनी नीतियों से समझौता करने वाले भी नहीं थे.मैनें अन्यत्र भी लिखा है कि मेरे विचारानुसार स्वतंत्र भारत का स्वर्णिम काल जनता पार्टी का पहले दो वर्ष का शासन है.उस समय का माहौल ऐसा था कि लगता था कि किसी को भी खाने का मौका नही मिल रहा है.चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम की महत्वाकांक्षाएँ अलग सर उठा रहीं थीं,मोरारजी देसाई का बहुमत खत्म हुआ और संजय गाँधी की क्ऋपा से चरण सिंह सिंहासन पर विराजमान हुए.चरण सिंह का प्रधान मंत्री बनने पर पहले भाषण के प्रारम्भिक अंश मुझे आज भी याद हैं.उन्होनें कहा था.”मेरे जीवन की तमन्ना पूरी हुई.”फिर सम्भल कर बोले थे,”यह तो हर नेता की तमन्ना होती है”. जय प्रकाश नारायण की जिन्दगी के वे सबसे दुखद दिन थे और जेल की यातना से ज्यादा यह मानसिक पीडा उनके तत्काल मौत का कारण बनी.
संजय गाँधी ने इन पदलोलुप महत्वाकांक्षी नेताओं को किस तरह उंगलियों पर नचाया था,इसका पूर्ण विवरण शायद इंडिया टूडे में उस समय निकला था.संजय गाँधी के लिये भी यह एक चुनौती थी क्योंकि वह अपने को माँ के राजनैतिक जीवन के पतन का कारण समझता था.वह अपना कर्तव्य समझता था कि माँ को वह पुनः स्थापित कर दे और विधि का विधान ऐसा रहा कि माँ को गद्दी दिलाने के बाद हीं वह सबको अलविदा कह कर चल दिया.
नीतियाँ बनती रही और बिगडती रही.इन्दिरा गाँधीकी मौत हुई और राजीव गाँधी प्रधान मंत्री बने.फिर आये विश्वनाथ सिंह जिन्होने अपने ढंग से भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेडा.अंत में वे भी धराशाई हुए और चन्द्रशेखर इत्यादि के शासन काल से गुजरते हुए हम नरसिंहा राव और बाजपेई के शासन तक पहुँचे.भ्रष्टाचार पर बातेंचलती रही.शायद भ्रष्टाचार कम करने के लिये प्रयत्न भी होते रहे,पर परिणाम यह हुआ कि भ्रष्टाचार कम होने के बजाये बढता ही गया.शायर के शब्दों में,
मर्ज बढता ही गया,ज्यों ज्यों दवा की.
जेपी के आंदोलन में एक बडी कमी थी. उस आंदोलन ने इस बारे में कोई दिशा निर्देश नही दिया था कि भ्रष्टाचार पर लगाम कैसे लगाया जाए.आंदोलन के संचालक शायद यह सोचते थे कि सत्ता परिवर्तन से भ्रष्टाचार अपने आप खत्म हो जाएगा,पर उन्होनें यह नहीं सोचा कि सत्ता परिवर्तन एक बात है,भारतीयों के स्वभाव को, जिसमे भ्रष्टाचार कूट कूट कर भरा है, बदलना एकदम दूसरी बात है. कानूनी लगाम और सत्ताधारियों के ऊपर कानूनी शिकंजे के अभाव में उस समय सत्ता में आये लोगों ने भी कुछ समय बाद वही करना आरम्भ किया जो उनके पहले वाले कर रहे थे. एक बात और थी राजनैतिक सत्ता पलट हुआ था,सत्ता का असली संचालक यानि बाबू समुदाय तो नहीं बदला था. बाद में तो हालात कुछ ऐसे बदले कि नये लोग तो कुछ मामलों में पुरानों से भी ज्यादा भ्रष्ट साबित हुए.
यूपीए शासन के प्रथम अवतार में कुछ ऐसी अनहोनी घटना नहीं घटी,जिससे लोगों का ध्यान भ्रष्टाचार की ओर आक्ऋष्ट होता.महगांई अवश्य बढती रही और लोग उसके विरुद्ध आवाज भी उठाते रहे.बीजेपी भी सत्ता से अभी अभी बाहर हुअI था और अपनी हार से अच्छी तरह उबर भी नहीं पाया था .फिर आया परमाणु संधि,जिसने अन्य मुद्दाओं को गौड कर दिया. यूपीए चुनाव जीत कर फिर सत्तारूढ हो गयी. इस बार तो कुछ ही समय बीता था कि न जाने क्या हो गया? एक से बढ कर एक घोटाले सामने आने लगे.विदेशों में जमा काला धन तो हमेशा चर्चा का विषय रहा है,पर इसी बीच उसने भी जोर पकडा.सबकुछ सम्मिलित होकर माहौल कुछ इस तरह का हो गया कि भ्रष्टाचार का मुद्दा पूरे जोर शोर से सामने आ गया.भ्रष्टाचार खत्म करने और विदेशों से काले धन की वापसी पर सबसे ज्यादा मुखर हुए बावा रामदेव. वे योग गुरु के रूप में तो प्रसिद्धि पा हीं चुके थे.अतः उन्होनें अपनी लोकप्रियता का लाभ उठाते हुए इस दिशा में भी अपने कदम बढा दिये. भ्रष्टाचार और बढती महंगाई से तो सब त्रस्त थे अतः उनको तो सार्वजनिक सहयोग तो मिलना ही था.व्यक्तिगत रूप से जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध थे ,वे भी उनके साथ हो लिये,पर लोगों ने शायद ही यह सोचा हो कि इनके आंदोलन का भी वही हस्र क्यों नही हो सकता जो जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का हुआ था.
बाद की घटनाओं को देखते हुए मुझे अब लग रहा है कि कुछ लोग अवश्य इस दिशा में सक्रिय थे,क्योंकि उन्हें शायद लग रहा था कि जब तक कानून में संशोधन नहीं हो तब तक केवल सत्ता परिवर्तन कारगर नहीं होगा.मेरे विचरानुसार अन्ना हजारे का मंच पर अवतरण अचानक नहीं था और न यह कुछ हीं दिनों का प्लान था.यह बहुत सोच समझ कर तैयार की हुई योजना थी.पहले जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करना और फिर उसको लागू करवाने के लिये अन्ना हजारे को आगे बढाना यह एक योजना बद्ध कार्यक्रम का हिस्सा था.तुर्रा यह कि वे ही लोग जो बावा रामदेव के साथ पहली पंक्ति में दिख रहे थे अब अन्ना हजIरे के साथ भी दिखे,पर थोडा फेर बदल के साथ.तथाकथित सिविल सोसायटी के लोगों को शायद लग रहा था कि इस माहौल में बावा रामदेव की सफलता संदिग्ध है. अगर सफल हो भी गये तो परिणाम जेपी आंदोलन के बाद वाला भी तो हो सकताहै. उन्हें शायद लगा कि वर्तमान व्यवस्था में बावा रामदेव भी शायद ही कुछ कर पायें.ऐसे भी लोकपाल बिल तो हमेशा चर्चा में रहता हीं था.लोकपIलों की कहीं कहीं बहाली भी हुई थी,पर वे नख दंत विहिन पशु की तरह थे.जन लोकपाल बिलके मसौदे को सामने लाना और उसको कानूनी जामा पहनाने के लिये आंदोलन उस प़्रक्रिया को अमल में लाने केलिये था, जो भ्रष्टाचार पर अधिक से अधिक रोक लगा सके.यह तो तय हैकि वर्तमान व्यवस्था से लाभांवित होने वाला समुदाय यानि शासक वर्ग चाहे वह राजनीतिज्ञ हो या नौकर शाह कभी इसको कानूनी जामा पहनाने में सहयोग नहीं करेगा. अगर ऐसा होना होता तो इस तरह का लोकपाल बिल बहुत पहले आ गया होता.ऐसे यह तो एक तरह से इस दिशा में पहला कदम था.जन लोकपाल बिल राम बाण तो नहीं है,पर सही दिशा में उठाया गया कदम अवश्य है. पर यह भी पारित होगा कि नहीं यह भी तो अभी भविश्य के गर्भ में है.
यह तो हुआ जन लोकपाल बिल और फिर उसको लागू करने के लिये सत्याग्रह. पर उसके बाद जो हुआ या हो रहा है,वह हमारे असली चरित्र को दुनिया के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है.हम वास्तव में क्या हैं,यह जग जाहिर हो जाता है, सत्याग्रह के बाद के आरोपों प्रत्यारोपों में.इन सब में सच पूछिये तो हमारा राष्ट्रीय चरित्र सामने आा जाता है.यहाँ जो सबसे बडी बात उभर कर सामने आयी है,वह दर्शाती है कि हम अपनी नीचता का बखान करने में भी अपनी बहादुरी ही समझते हैं. मैं बेईमान हूँ तो अन्ना जी या उनके आस पास के लोग भी इमानदार नहीं हैं.मैं तो बेईमान हूं हीं,पर मैं यह प्रामाणित कर सकता हूँ कि आपभी बेईमान हैं. जन लोक पाल बिल का मसौदा किसी खास व्यक्ति के लिये कुछ नहीं कहता और न उस मसौदे को तैयार करने वाले उससे कुछ लाभ उठाने की स्थिति में हैं. क्या वे कमीटी में शामिल हो जायेंगे तो उनको कोई विशेषाधिकार प्राप्त हो जायेगा, जिसका जायज या नाजायज लाभ वे उस समय या बाद में उठा सकें? तो फिर उनको नीचा दिखाने के लिये इतना हो हल्ला क्यों?जन लोकपाल बिल के मार्ग में इतनी अडचने डालने का क्या अर्थ?क्यों हम एक से एक बढकर इस बात पर कम कि जन लोकपाल बिल से लाभ होगा कि नहीं,पर इस बात पर अधिक जोर दे रहे हैं कि जनलोकपाल बिल तैयार करने का उनलोगों को कोई अधिकार ही नहीं,जो इस काम के लिये मनोनीत किये गये हैं.होना तो यह चIहिये था कि जन लोकपाल बिल के मसौदे के एक एक पहलु पर बिस्त्ऋत बहस होता.लोग अपने अपने ढंग से इस पर विचार प्रकट करते .मसौदा सबके सामने है और मेरे विचार से अभी उसमें खामियाँ भी हैं,जो हो सकता है कि कमिटी द़वारा दूर भी कर दी जाये,पर हम भी उस पर अपना विचार तो दे हीं सकते हैं और तब इसमे हमारी सकारात्मक भूमिका होती.जो लोग इसको और प्रभावशाली बनाने की दिशा में निर्देश दे सकतेहैं,उनको सामने आना चाहिये था. पर मेरे विचारानुसार लोग साधारण रूप से दो खेमों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं या यों कहिये कि साधारणतः दो खेमों में बँटे हुए हैं. एक खेमा तो यह प्रमाणित करने में लगा हुआ है कि जो लोग जन लोकपाल बिल तैयार करने वाली कमिटी में हैं,वे हमलोगों से कम बेईमान नहीं हैं.कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि बईमानी में मेरा और उनका करीब करीब बराबर का साझा है. दूसरा खेमा इस बात पर जोर दे रहा है कि जन लोकपाल बिल लोकपाल को सर्व शक्तिमान बना देगा.बाहर से तो दोनो खेमे अलग अलग दिखाई दे रहे हैं,पर तह में जाईयेगा तो पता चलेगा कि दोनो खेमों का उद़देश्य एक है और वह है,जन लोकपाल बिल को किसी तरह रोकना,पर ऐसा क्यो? तो फिर मैं उसी पुरानी बात पर आ जाता हूं कि हम जी रहे है सडन में,दुर्गंध में.मौत हमारी भी तो नहीं हो जायेगी जब हम बढेंगे स्वच्छता की ओर,सादगी और सत्यता की ओर.और तब मुझे कहना पडता है कि मेरे विचार से इस लेख का कोई अन्य शीर्षक हो ही नहीं सकता था.
भारतीय अफसरशाही की दशा और दिशा
कोषपूर्वा: सर्वारम्भाः। तस्मात पूर्वं कोषमवेक्षेत। कौटिल्य अर्थशास्त्रमःअघ्याय 8 प्रकरण 24 श्लोक 1
(सभी कार्य कोष पर निर्भर है। इसलिये राजा को चाहिये कि सबसे पहले कोष पर ध्यान दे।)
सभ्यता के प्रारंभ से ही मानवों ने पहले समाज एंव फिर एक सामाजिक सत्ता की आवश्यकता महसूस कर ली थी। शक्ति आधारित राजतंत्रीय ब्यवस्था मे प्रारंभिक प्रशासनिक ढांचे खड़े हुये और व्यवस्था और स्वंय के खर्च हेतु राजकोष बने। भगवान श्री राम और रावण के राज्यों के वर्णनों में आमात्य, सेनापति, युवराज, गुप्तचर आदि का उल्लेख आता है। कौटिल्य अर्थशास्त्रम नामक ग्रन्थ, आचार्य चाणक्य रचित होने की मान्यता है। इसमे एक विस्तृत विवरण प्राप्त होता है । जिसमे आंतरिक व्यवस्था से विदेश संबध तक के संबंध मे विस्तृत निर्देश है। साथ ही साथ ब्यूरोक्रेसी के स्वरुप का भी विशद विवरण है। इनमे आमत्य, मंत्री परिषद, पुरोहित, सेनापति, युवराज, द्वौवारिक(राजप्रसाद का प्रमुख अधिकारी), अंतर्वंशिक(राजवंश के गृह कार्यों का प्रधान अधिकारी),प्रशास्तृ या प्रशास्ता ( कारागरों का प्रधान अधिकारी), समाहर्ता (माल विभाग का मंत्री), सन्निधाता (राजकोष का मंत्री), दुर्गपाल, नायक, कार्मातिक (खानों और कारखानों का प्रधान अधिकारी), गणिकाघ्यक्ष, रसाध्यक्ष, अश्वशालाध्यक्ष, सभ्य( मंत्री परिषद का अध्यक्ष), दण्डपाल आदि। इस प्रकार हमारे देश का प्रशासनिक ॉचा सदियो पहले वजूद मे आ गया था। राजा के कोष संचालक थे,, सलाह देने के लिये मंत्री परिषद ,रक्षा के लिये सेना और दंड के लिये कारावास थे। आदिकाल से ही राज्य के प्रबंध व्यय एंव राजतंत्र का खर्च प्रजा के सर रहा है। हमारा इतिहास साक्षी है कि तत्कालीन अधिकारी जानते थे कि उन्हे यह धन किसी भी प्रकार से जनता से जुटाना है । राजतंत्रीय काल मे बनी ,गुलामी के दौर मे पल्लवित हुई यह परिपाटी मजबूती के साथ आज भी कायम है । कौटिल्य अर्थशास्त्रम मे साफतौर से कहा गया कि सरकारी कर्मचारी चोरी करेगा ही ,राजा को उस पर नजर रखनी चाहिए। 2000 हजार से पहले चाणक्य के सूत्र आज भी अक्षरशः सत्य है । चाणक्य ने जो कहा था आज भी राजकर्मचारी वही करते साफ नजर आ रहे है। कौटिल्य अर्थशास्त्रम के प्रकरण 24 अघ्याय 8 का शीर्षक ही है भ समुदस्य युक्तापह्नतस्य प्रत्यानयनम(अध्यक्षों द्वारा गबन किये गये धन की पुनः प्राप्ति)। इसमे गबन के 40 तरीके है यथा भ तेषां हरणोपायाश्र चत्वारिंशत पूर्वं सिद्धं पश्रचादवतारितम, पश्चातसिद्धं पूर्वमावातारितम, साध्यं न सिद्धम्, असाध्यं सिद्धम (पहली फसल मे प्राप्त द्रब्य को दूसरी फसल आने पर रजिस्टर मे च़ना, दूसरी फसल की आमदनी का कुछ हिस्सा पहली फसल के रजिस्टर मे च़ा देना। राजकर को रिश्वत ले कर छोड़ देना आदि) और वो सभी तरीके जो ऊपरी आमदनी के लिए ,आज के नौकर शाह अपनाये हुये है। चाणक्य ने स्पष्ट रुप से कहा है कि , राजा को अपने अधीनस्थो की खोज खबर लेते रहना चाहिए जिससे वे पदभ्रष्ट न हो सके । हमारे शासको को भी कभी कभी अपने अफसरो की कारस्तानी को जॉचना, परखना चाहिए जिससे व्यवस्थागत खामिया और नौकरशाही मे व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके।
मघ्य युग छोटी रियासतों और विदेशी आक्रमणों को झोलती भारत भूमि मे राजशाही, मुगल सल्तनत, जमींदारी और कारिंदों के जाल से कोष का संग्रहण करती रही और उनकी अफसरशाही तत्कालीन सिंहासनारु़ या तख़्तनशीन की मर्जी और सनक के अनुसार धन की ब्यस्था अपने और उनके लिये करती रही थी। मुगल शासन ने इसमे मध्य एशिया की प्रचलित ब्यवस्था का पुट दिया लेकिन मूल काम जनता से अपने और अपने आकाओं के लिये धन एकत्र करना ही रहा।
वर्तमान नौकरशाही वर्तमान नौकरशाही को ब्रिटिश शासकों ने अपनी वफादारी सुनिश्चित करने के लिये यूरोपियन माडल के अनुरुप ाला था। लेकिन लक्ष्य वही रहा आकाओं के लिये कोष एकत्र करना, उनके खिलाफ कोई आवाज न उठे इसका ध्यान रखना, उठती आवाज़ों का गला घोंट के रख देना। सोने की चिड़िया की लूट इस नौकरशाही के ही हाथों होती रही। लूट इगंलैण्ड जाती रही या फारस, लूटने वाले हाथ अफसरशाही के रहे है। यही नौकरशाही आजादी के बाद बंटवारे की विभिषिका झेल रहे रक्त और स्वेद से लथपथ देश ने भी अपना ली थी। लेकिन इसकी हकीकत लोगों ने जल्द ही भांप ली। 1952 के पहले चुनाव के दो साल के अंदर जोश मलीहाबादी की कलम ने मातमे आजादी मे लिख दिया कि,
बर्तानिया के ख़ास ग़ुलामने ख़ानाजाद (दास), देते थे लाठियों से हुब्बे वतन(देश प्रेम) की दाद
एक एक ज़र्ब (चोट) जिनकी है अब तक सिरों को याद, वो आई0सी0एस0 अब भी हैं ख़ुशबख़्तो बामुराद
शौतान एक रात मे इन्सान बन गये, जितने नमक हराम थे कप्तान बन गये।
यह अफसरशाही केवल अपने लिये जवाबदेह है। सदियों से अपने आकाओं के लिये कुछ भी करने के लिये तैयार। लेकिन हमेशा अपना ध्यान पहले रखने वाली ब्यूरोक्रेसी आजाद भारत की जनता को आज भी अपना शासक नही मानतीै। 26/01/1950 से 26/01/2011 तक संविधान की प्रस्तावना ही अभी तक इनकों समझ नही आई है। आका खुश और जनता बेहाल। वही चाल बे़ंगी, जो पहले थी वो अब भी है। ये जनता से कोष वसूलते है। ये जनता को कर अदा करने लायक बनाते है। कर देने लायक कल्याणकारी काम करते है। जीवित रखने के जिये प्रयास करते है। जिंदा रखते हैं और टैक्स वसूलते है। रिश्वत लेते हैं और देश भक्त कहलाते है। ये अपने आकाओं की जूतियां पोंछते हैं और जनता पर लाठियां बरसाते है । पूरे देश का परिदृश्य गवाह है कि आज बेइमानी , बदनीयती का पलडा इतना भारी है कि ईमानदारी खो गयी है । पर कम ही सही मानवीय मूल्य और कत्तर्व्यपरायणता भी कही न कही जिन्दा है । इसमे कोई शक नही है कि आज यदा कदा जब प्रशासनिक नेकी सामने आती है तो हमारी छाती चौड़ी हो जाती है । पर अगले क्षण बदी का कारवॉ हमारी भावनाओ को रौदते गुजर जाता है । हमारा अतीत ऐसी मिसालो का खजाना है और हमारा वर्तमान इसका खुला सबूत है ।
2011 के पहले महिने मे नसिक के एडिशनल क्लेक्टर यशवंत सोंनावने को तेल माफिया द्घारा जिन्दा जलाने की घटना की चर्चा पूरे देश मे हुई । स्व0 सोनावने कत्तर्व्य की बेदी पर शहीद हुए थे । जिसने प्रशासनिक अधिकारियो का सर देश भर मे ऊचा कर दिया था । अभी उसकी स्याही सूखी भी नही थी कि ,फरवरी 2011 को मुबंई मे पदस्थ डिप्टी क्लेक्टर नीतिश ठाकुर 500 करोड़ कमाने के आरोप मे एंटी करप्शन ब्यूरो ने गिरफतार करके जेल भेज दिया । आरोपो के पाश मे बंधे नीतीश ठाकुर ने न्याय के लिये मुबंई उच्च न्यायालय मे अर्जी दाखिल कर दी है । स्व0 यशवंत सोनावने और नीतीश ठाकुर हमारी प्रशासनिक व्यवस्था के दो चेहरे है । पहला चेहरा उज्जवल दूसरा चेहरा धूमिल है । पहला चेहरा मुबंई आतंकी घटना मे शहीद हुए स्व0 हेमंत करकरे का है और दूसरा चेहरा राष्ट्रमंडलीय खेल के लिये कम और उसमे हुए भ्रष्टाचार के लिये अधिक चर्चित सुरेश कलमाड़ी , आदशर सोसायटी घोटाला मे नामजद महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चाव्हाण जैसो का है । पर पहला चेहरा बहुत कम नजर आता है । और दूसरा चेहरा पूरे देश के गली मुहल्ले मे दिखते है । इनकी फेरहिस्त बहुत लंबी है । पिछले साल फरवरी 2010 को मघ्यप्रदेश के आई पी एस अफसर अरविंद जोशी और उनकी पत्नी टीनू जोशी सचिव महिला बाल विकास के यहां इन्कम टेक्स के छापे मे 300 करोड़ रुपये की बेहिसाब संचति बरामद हुई थी , फरवरी 2010 मे ही छत्तीसग़ के सचिव बाबूलाल अग्रवाल के यहां से आयकर विभाग ने 40करोड की संपति और 220 बैक खातो का पता लगाया है । इनसे भी आगे एम सी आई के पुर्व अघ्यक्ष केतन देसाई है जिन्हे पंजाब के एक मेडिकल कालेज के लिये दो करोड रुपये रिश्वत लेने के आरोप मे पकडा गया था के पास से 1801.5 करोड रुपये नगद और डे टन सोना बरामद हुआ है । यह वह धनराशिया है जो बरामद हुई है केतन देसाई , अरविंद जोशी ,बाबूलाल अग्रवाल , नीतीश ठाकुर जैसे लोगो ने कितना नगद खर्च , अपने ऐशो आराम , दान , उपहार ओर थैलिया भेट करने पर खर्च कर दिया है उसका कोई हिसाब किताब नही है । न ही इसकी जांच की जाती है । निजि विदेश यात्राओ के खर्चे यदाकदा जोड लिये जाते है पर ज्यदातर खर्चीली यात्राए प्रायोजित ही होती है । आज देश के पैमाने पर छोटे बडे हजारो कर्मचारी अधिकारी है जिनके खिलाफ आर्थिक अपराध के मामले दर्ज है । छत्तीसग़ मे जलसंसाधन उपसचिव दीवान के पास से 5.5 करोड की काली कमाई मिली है । कोरिया जिला मुख्यालय बैकुंठपुर के सीएमओ गंभीर सिंह के पास पकडी गयी चार करोड़ से अधिक की काली संपति चर्चा मे है । ऐसे नख से शिख तक , हजारो प्रकरण उजागर हो चुके है । देख जाये तो हमारे देश को संचालित करने वाले तीनो अंग कही न कही से भ्रष्टाचार की महामारी के शिकार है ।
देश मे भ्रष्टाचार रोकने के लिये एक से बकर एक कानून गे़ गये है , पर जितने उपाय हुए है आर्थिक अपराध उसी पैमाने पर ब़ा है । भ्रष्टाचार के अंत के लिये , सरकारी स्तर से हटकर भी कई पहल हुई है । न्यायलय ने इस दिशा मे अग्रणी भूमिका निभायी है न्यायलय के संज्ञान मे आने के बाद हालिया स्पेक्ट्रम जैसे घोटाले उजागर हुए है और इस तरह के मामलो मे कईयो को जांच एजेन्सिी का सामना करना पडा है तो कइयो को पुर्व केन्द्रीय मंत्री ए.राजा की तरह जेल की हवा भी खानी पडी है । पर इसका एक पहलू यह भी है कि अधिकांश आरोपी सजा से बच निकलते है । मिडिया के स्टिग आपरेशनो की धूम रही है कई सांसदो ,मंत्रियो , व्यापारियो ,आला अफसरो के नाम सामने लाने मे मिडिया के स्टिग आपरेशनो की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । पर इन पर भी कानुन की नकेल कस दी गयी है । कुछ स्टिग आपरेशन करने वालो का कहना है कि उन पर कई तरह का दबाब बनाया गया । जागरुक नागरिको द्घारा भी समय समय पर कम पहल नही हुई है । 2006 मे आई ए एस लाबी ने खुद होकर भ्रष्ट अधिकारियो का नाम उजागर करने की पहल की थी इंडिया रिजुवनेशन इनसिएटिव ( आई आर आई ) नाम की संस्था से कई बडे नाम जुडे थे सर्वोच्च न्यायलय के पूर्व मुख्य न्यायधीश आर सी लोहाटी ,पुर्व चुनाव आयुक्त जे एम लिंगदोह ,मुबंई के पुर्व पुलिस कमिश्नर जूलियस रिबैरो , वायुसेना के पुर्व प्रमुख एस कृण्णास्वामी पुर्व महालेखा परीक्षक वी के शुगलू , बी एस एफ के पुर्व मुखिया प्रकाशसिंह जैसे ख्यातिनाम लोग थे । देखने मे आया है कि , हर स्तर पर आम नागरिक या उसके संगठन की मोर्चेबंदी भ्रष्टाचार के खिलाफ है ,पर भ्रष्टाचार का तिलिस्म नही टूटा है । आज हमारे देश का शुमार दुनिया के भ्रष्टतम देश मे होता है । आई आर आई ने साफ तौर माना है कि अधिकांश आथीर्क अपराधियो को सजा इसलिये नही मिल पाती है कि न्यायिक अधिकारी स्वंय प्रतिदिन के भ्रष्टाचार मे लिप्त है और इसके बाद प्रख्यात वकील शांतिभूषण ने सर्वोच्च न्यायलय के आठ मुख्य न्यायधीशो के आचरण पर खुले आम उगली उठायी और इसका खामियाजा भी भुगता । सर्वोच्च न्यायलय पूर्व मुख्य न्यायधीश के.बालकृण्णन ने अपने कार्यकाल के दौरान न्यायधीशो की संपति जगजाहिर करने पर काफी आपित्त की थी जिसको लेकर समाज मे यह भ्रान्ति फेल गयी कि न्यायधीशो मे कुछ कमी है जिसके चलते वे संपति का खुलासा करने से हिचक रहे है । हाल मे ही उनके पारिवारिक सदस्य पर कमाई से ज्यादा संपति बटोरने के सवाल उठे है ? यह आम आदमी भी जानता है कि , छोटी अदालतो मे पेशी लगाने , जल्दी नकल निकलवाने , रिहाई के आदेश लेने के लिये पैसे वसूले जाते है । पर न्याय व्यवस्था की रुचि घर मे सुधार के बजाये दूसरो का घर सुधारने मे ज्यादा है । जबकि न्याय का तकाजा है कि इस मसले पर उसकी दृष्टि सम हो और सत्य यह है कि ऐसा नही है इसलिये अपनी पूरी कोशिश् के बाबजूद न्यायालय शिकंजा काने मे पूरी तरह कामयाब नही है ।यही हाल कार्यपालिका का भी है कार्यपालिका अपने पराये से मुक्त नही है वहां कमजोर मजबूत का अपना वर्गीकरण समीकरण और व्याख्या है । न्याय कहता है बेहगुनाह को सजा न मिले पर कामकाजी व्यवहारिकता के चलते यह ध्यान रखा जाता है कि किसी मजबूत का अहित न हो , भले ही इसके एवज मे लाखो कमजोरो के अरमान मर जाये ।
काला धन आज चर्चाओ मे है । बहुमत की इच्छा है विदेशो से जमा काला धन देश मे आना चाहिए और देश मे फेले काले धन को जब्त किया जाना चाहिए और इस विपूल राशि को सार्वजनिक हित मे खर्च किया जाना चाहिए मांग नैतिक है और तार्किक भी है पर यह अभिलाषा हमारी उस सोच का भी खुलासा करता है जो हम दूसरो से आपेक्षित करते है और इसी सोच के चलते भ्रष्टाचार का रावण मरता नही है क्योकि हमारा निशाना रावण की नाभि नही है हमारा लक्ष्य सोने की लंका को लूटना है । भ्रष्टाचार का दानव तभी मरेगा जब हम निर्मल बनेगे । हमे भी ईमानदारी से अपने आप को टटोलना होगा कि इसके लिये हम खुद कितने तैयार है ?
वह
जब मैं सोकर उठता हूँ प्रातः तडके.
अलार्म की आवाज सुनकर.
पहला ध्यान जाता है इस ओर.
वह आयेगी या नही?
मैं जल्दी जल्दी तैयार होता हूँ,
नित्य क्रिया से निपट कर.
दाढी बनाकर,चेहरे का साबुन पोंछ कर,
देखता हूँ आइने में.
पर ध्यान तो वही लगा रहता है,
वह आयेगी या नहीं.
इसके बाद मैं दूध लेने जाऊं,
या देखता रहूँ घडी की ओर अखबार पढते पढते.
समय सुनिश्चित है स्नान के लिये औरनाश्ता करने की.
पर ध्यान तो वहीं लगा रहता है.
वह आयेगी या नही?
करके नाश्ता और पहन कर जूते,
मैं निकल पडता हूं घर से.
निगाह अवश्य उठती है पत्नी की ओर,
जब वह बंद करती है दरवाजा,
पर ध्यान तो वहीं लगा रहता है.
वह आयेगी या नही?
घर से जल्दी जल्दी निकल कर.
उठते निगाहों से अनजान.
मैं चल पडता हूँ अपने गन्तव्य की ओर.
राह में मिलते लोगों के अभिवादनों को भी
देखा अनदेखा करते हुए
जब मैं आगे बढता हूँ,
ध्यान वहीं लगा रहता है,
वह आयेगी या नहीं.
जब मैं घर से थोडी दूर,
आकर खडा होता हूं तिराहे पर.
उठती है निगाह झिझकते झिझकते.
मन प्रफुल्लित हो जाता है ,
इब दिख जाती है वह सामने.
कभी कभी एैसा भी होता है.
तरस जाता हूँ,उसकी एक झलक के लिये.
फिर हो जाता है,सब कुछ उल्टा पुल्टा.
तन से लिपटा चीथडा है पेट से पत्थर बधॉ,,,,,,
आज इस कम्प्यूटर युग में मजदूर को मजदूरी के लाले पडे है। ऐसे में 1 मई को मजदूर दिवस मनाये तो कौन मनाये। कल तक बडी बडी मिले थी, कल कारखाने थे, कल कारखानो एंव औधोगिक इकाईयो में मशीनो का शोर मचा रहता था मजदूर इन मशीनो के शोर में मस्त मौला होकर कभी गीत गाता तो कभी छन्द दोहे गुनगुनाता था। पर आज ये सारी मिले कल कारखाने मजदूरो की सूनी ऑखो और बुझे चूल्हो की तरह वीरान पडे है। जिन यूनियने के लिये मजदूरो ने सडको पर अपना लहू पानी की तरह बहाया था उन सारी यूनियने के झन्डे मजदूरो के बच्चो के कपडो की तरह तार तार हो चूके है। फिर भी 1 मई को हम लोग अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर ॔॔मजदूर दिवस ’’ का आयोजन करते है। इस दिन केन्द्र और राज्य सरकारो द्वारा मजदूरो के कल्याणार्थ अनेक योजनाये शुरू की जाती है पर आजादी के 62 साल बाद भी ये सारी योजनाये गरीब मजदूर को एक वक्त पेट भर रोटी नही दे सकी।
मई दिवस का इतिहास यू तो बहुत पुराना है, संघषो की बहुत लम्बी कहानी है दरअसल अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर मई दिवस की शुरूआत अमेरिका में हुई थी। एक दिन में आठ घन्टे काम करने का श्रमिक आन्दोलन अमेरिका में गृहयुद्व के तुरन्त बाद शुरू हो गया था। अमेरिकी नेशनल लेबर यूनियन ने अगस्त 1866 में अपने अधिवेशन में यह मॉग रखी की मिल व कारखनो के मालिक मजदूरो से एक दिन में आठ घन्टे का काम ले। चूकि मालिक मजदूरो से लगातार कडी मेहनत गुलामो की तरह करवाते है जो गलत है, निरंतर काम करने से प्रायः ऐसा हो रहा है की मजदूर थकान और कमजोरी के कारण कल कारखानो में अकसर बेहोश होकर गिर जाते है। अमेरिकी नेशनल लेबर यूनियन की इस घोषणा से दबे कुचले गुलामो की जिन्दगी जी रहे मजदूरो को बल मिला और देखते ही देखते यह आन्दोलन पूरे अमेरिका में फैल गया तथा मजदूरो के संगठित होने के कारण शक्तिशाली होता चला गया।
उन्नीसवी शताब्दी के 9वे दशक में अमेरिका के लगभग सभी प्रमुख ओधौगिक शहरो में मजदूर आठ घन्टे के कार्य दिवस को अपनी मॉग प्रमुखता से उठाने लगे। मजदूरो के प्रर्दशन और आन्दोलन बते चले गये। अमेरिका के शिकागो शहर में 03 मई 1886 को लगभग 40 हजार मजदूर अपनी मांगे सरकार से मनवाने के लिये सडको पर उतर आये। मजदूरो के नारो से पूरा शिकागो शहर गूंज उठा देखते ही देखते प्रर्दशन उग्र हो गया। पुलिस ने बडी बेरहमी से भूखे प्यासे निहत्थे मजदूरो पर गोलिया बरसा दी इस गोलीकाण्ड में घटना स्थल पर 6 मजदूर मारे गये और 40 के लगभग घायल हुए। निर्दोश निहत्थे भूखे प्यासे मासूम मजदूरो का खून जब धरती पर बहा तो प्रदशर्नकारियो में दुगनी ताकत भर गया मजदूरो ने खून से सने अपने साथियो के कपडे उठाये और उन कपडो को परचम बना कर आसमान की तरफ लहरा दिया। तभी से खून से रंगा ये लाल झन्डा मजदूरो के संघर्ष का प्रतीक बन गया।
पुलिस द्वारा निहत्थे बेगुनाह मजदूरो पर की गई इस बर्बर कार्यवाही के मद्दे नजर 04 मई को शिकागो में मजदूरो के साथ साथ शहर की जनता ने भी एक जुलूस निकाला जुलूस के पीछे पीछे चल रही पुलिस की टुक्डी पर किसी शरारती तत्व ने देसी बम फैक दिया जिस के कारण एक पुलिसकर्मी की मौत हो गई और पॉच पुलिसकर्मी घायल हो गये। इस के बाद पुलिस ने प्रदशर्नकारियो पर अंधाधुंध गोली चला दी आन्दोलन चला रहे नेताओ को पकड पकड कर फॉसी पर लटका दिया गया। इस दमनचक्र के बाद भी मजदूरो का संघर्ष जारी रहा और 1 मई 1890 में इन महान बलिदानीयो की स्मृति में पूरे विश्व में ॔॔स्मरण दिवस’’ मनाने का आहवान किया गया और बाद में यह “मजदूर दिवस’’ के रूप में मनाया जाने लगा।
मजदूरो के प्रदशर्न और आन्दोलनो को देखते हुए अमेरिकी काग्रेस ने आठ घन्टे के कार्य दिवस का कानून 25 जून 1886 लगभग बीस साल मजदूरो और अमेरिकी नेशनल लेबर यूनियन द्वारा चलाये आन्दोलन के बाद संसद में पारित किया। आठ घन्टे कार्य दिवस का कानून 6 अमेरिकी राज्य विधान मंडलो में भी बनाये गये पर शुरू शुरू में मालिको पर इस का कोई प्रभाव नही पडा और न ही मजदूरो को काम के घन्टो में छूट दी गई,लेकिन मजदूर एक दिन में आठ घन्टे कार्य के लिये संघर्ष करते रहे।
आज हम दफतरो ,कारखानो ,दुकानो , प्राईवेट प्रतिष्ठानो, घरो, भट्टो पर आज हम लोग आराम से आठ घन्टे छः घन्टे की डयूटी अन्जाम देते है। बाकी आराम या ओवर टाईम करते है। ये सही है कि इन्सान मेहनत करता है तो एक तय सीमा के बाद उस का शरीर थकने लगता है उस के काम करने की क्षमता में गिरावट आने लगती है इस के लिये ये जरूरी है कि वो थोडा आराम करे ताकि अगले दिन फिर से कार्य करने के लिये वो तरोताजा हो सके। ये ॔॔श्रमिक दिवस’’ अथवा ॔॔मजदूर दिवस’’ आखिर क्यो मनाया जाता है। इस का अर्थ आज भी असॅख्य मजदूर नही जानता ये दिवस कितनी कुर्बानियो के बाद हासिल हुआ इस का एहसास तक नही है हमे।
आज इस कम्प्यूटर युग ने मशीनो की रफतार तो तेज कर दी परन्तु कल कारखानो और औधोगिक इकाईयो की रौनक छीन ली मजदूरो से भरी रहने वाली ये मिले कारखाने कम्प्यूटरीकृत होने से एक ओर जहॉ मजदूर बेरोजगार हो गया वही ये इकाईया बेरौनक हो गई। या यू कहा जाये की मजदूर के बगैर बिल्कुल विधवा सी लगती है। मजदूर आज भी मजदूर है चाहे कल उसने ताज महल बनाया हो ताज होटल बनाया हो या फिर संसद भवन,उसे आज भी सुबह उठने पर सब से पहले अपने बच्चो के लिये शाम की रोटी की फिक्र होती है।
देश की नय्या को ये खेता हमारे देश में
हर बशर इस का लहू पीता हमारे देश में
तन से लिपटा चीथडा है पेट से पत्थर बधॉ
इस तरहा मजदूर जीता है हमारे देश में
ताज इस का है अजन्ता और एलौरा इस की है
फिर भी ये फुटपाथ पर सोता हमारे देश में।
मजदूरों के लिए क्या आजादी और क्या गुलामी!
एक दिन बाद यानी 1 मई को देशभर में बड़ी-बड़ी सभाएं होगी, बड़े-बड़े सेमीनार आयोजित किए जाएंगे, जिनमें मजदूरों के हितों की बड़ी-बड़ी योजनाएं भी बनेगी और ढ़ेर सारे लुभावने वायदे किए जाएंगे, जिन्हें सुनकर एक बार तो यही लगेगा कि मजदूरों के लिए अब कोई समस्या ही बाकी नहीं रहेगी। इन खोखली घोषणाओं पर लोग तालियां पीटकर अपने घर लौट जाएंगे, किन्तु अगले ही दिन मजदूरों को पुनः उसी माहौल से रूबरू होना प� �ेगा, फिर वही शोषण, अपमान व जिल्लत भरी गुलामी जैसा जीवन जीने के लिए अभिशप्त होना पड़ेगा, जिसे दूर करने के नेताओं ने मजदूर दिवस के दिन बड़े-बड़े दावे किए थे। वास्तविकता तो यह है कि मई दिवस अब महज औपचारिकता रह गया है।
दरअसल, उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में श्रमिकों में अपने हक को लेकर जागरूकता पैदा हुई। मजदूरों ने शिकागो में रैलियों, आमसभाओं आदि के माध्यम से अपने अधिकारों, पारिश्रमिक के लिए आग्रह करना आरंभ किया। धीरे-धीरे इन प्रयासों का असर बढ़ा और 1886 से 1889 तक आसपास के देशों में भी मजदूर और कर्मचारियों में अपने हक के लिए जागरूकता आई। मजदूरों का शिकागो विरोध काफी प्रसिध्द हुआ और 1890 में जब 1 मई � �ो इसकी पहली वर्षगांठ मनाई गई, तभी से मई दिवस मनाने का चलन शुरू हुआ। कमोबेश उस समय मजदूरों का अलग-अलग वर्ग नहीं था। अपने हक के लिए सभी मजदूर एक साथ लड़ते थे, लेकिन चापलूस श्रमिक नेताओं की वजह से आज मजदूर, संगठित और असंगठित वर्ग में बंटकर रह गए हैं। संगठित क्षेत्र के मजदूर जहाँ अपने अधिकारों आदि के बारे में जागरूक है और शोषण करने वालों के खिलाफ आवाज बुलंद कर मोर्चा खोलने में सक्षम है, � ��हीं असंगठित क्षेत्र के मजदूरों में लगभग 90 फीसदी को विश्व मजदूर दिवस’ के बारे में भी पता भी नहीं है। बहुत से स्थानों पर तो ‘मजदूर दिवस’ पर भी मजदूरों को ‘कोल्हू के बैल’ की तरह 14 से 16 घंटे तक काम करते देखा जा सकता है। यानी जो दिन पूरी तरह से उन्हीं के नाम कर दिया गया है, उस दिन भी उन्हें दो पल का चैन नहीं। देश का शायद ही ऐसा कोई हिस्सा हो, जहां मजदूरों का खुलेआम शोषण न होता हो। आज भी स्वतं त्र भारत में बंधुआ मजदूरों की बहुत बड़ी तादाद है। कोई ऐसे ही बधुआ मजदूरों से पूछकर देखे कि उनके लिए देश की आजादी के क्या मायने हैं, जिन्हें अपनी मर्जी से अपना जीवन जीने का ही अधिकार न हो, जो दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी अपने परिवार का पेट भरने में सक्षम न हो पाते हो, उनके लिए क्या आजादी और क्या गुलामी? इससे ज्यादा बदतर स्थिति तो बाल एवं महिला श्रमिकों की है। महिला श्रमिकों का आर्थ� �क रूप से तो शोषण होता ही है, उनका शारीरिक रूप से भी जमकर शोषण किया जाता है, लेकिन अपना व बच्चों का पेट भरने के लिए चुपचाप सब कुछ सहते रहना इन महिला मजदूरों की जैसे नियति ही बन गई है। ऐसे में इस 1 मई यानी विश्व मजदूर दिवस’ का क्या औचित्य रह जाता है? आज खासकर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का जमकर शोषण किया जा रहा है और इस काम में राजनीतिज्ञ, उद्योगपति, पूंजीपति, ठेकेदार और बाहुबली आदि सब मि हुए है। श्रमिकों की सप्लाई कच्चे माल की तरह हो रही है। सरकार के तमाम कानूनों को ठेंगा दिखाकर ठेकेदार ही मजदूरों के माई-बाप बन गए है, जो रूपए का लालच देकर मजदूरों को कहीं भी ले जाते है, मगर यह जानते हुए भी सरकार व सरकारी तंत्र उन ठेकेदारों के खिलाफ कुछ कार्रवाई नहीं कर पाती। विड़म्बना की बात यह भी है कि देश की स्वाधीनता के छह दशक बाद भी अनेक श्रम कानूनों को अस्तित्व में लाने के बावज� ��द हम आज तक ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं कर पाए हैं, जो मजदूरों को उनके श्रम का उचित मूल्य दिला सके। भले ही इस संबंध में कुछ कानून बने हैं पर वे सिर्फ कागजों तक ही सीमित हैं। एक सच यह भी है कि अधिकांश मजदूर या तो अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ हैं या फिर वे अपने अधिकारों के लिए इस वजह से आवाज नहीं उठा पाते कि कहीं इससे नाराज होकर उनका मालिक उन्हें काम से ही निकाल दे और उनके परिवार के समक्ष भूखे मरने की नौबत आ जाए। जहां तक मजदूर संगठनों के नेताओं द्वारा मजदूरों के हित में आवाज उठाने की बात है तो आज के दौर में अधिकांश ट्रेड यूनियनों के नेता भी भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र का हिस्सा बन चुके हैं, जो विभिन्न मंचों पर श्रमिकों के हितों के नाम पर बात करते तो नजर आते हैं, लेकिन अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए कारखानों के मालिकों से सांठगांठ कर अपने ही मजदूर भाईयों के हितों प र कुल्हाड़ी चलाने में संकोच नहीं करते। देश में हर वर्ष श्रमिकों को उनके श्रम के वाजिब मूल्य, उनकी सुविधाओं आदि के संबंध में दिशा-निर्देश जारी करने की परम्परा सी बन चुकी है। समय-समय पर मजदूरों के लिए नए सिरे से मापदंड निर्धारित किए जाते हैं, लेकिन इनका क्रियान्वयन हो पाता है या नहीं, इसे देखने वाला भी कोई नहीं है। इससे भी कहीं ज्यादा अफसोस का विषय यह है कि देशभर में करीब 36 करोड़ श्रमि कों में से 34 करोड़ से अधिक को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिल पा रही है, तो ऐसे मजदूर दिवस मनाने से आखिर फायदा ही क्या है।