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प्रमोशन और साहित्य का संकट

कोलकाता में एक दशक से हिन्दी सेमीनार के प्रमाणपत्र जुटाने की संक्रामक बीमारी कॉलेज शिक्षकों में फैल गयी है। सेमीनार में वे इसलिए सुनने जाते हैं जिससे उन्हें सेमीनार में भाग लेने का सर्टीफिकेट मिल जाए। यह साहित्य के चरम पतन की सूचना है। ये वे लोग हैं जो हिन्दी साहित्य से रोटी-रोजी कमा रहे हैं। ये लोग सेमीनार में बोले बिना सेमीनार में भाग लेने का प्रमाणपत्र पाकर अपने को धन्य कर रहे हैं। आयोजक यह कहकर शिक्षकों को बुलाते हैं कि प्रमोशन कराना है तो सेमीनार सर्टीफिकेट लगेगा, आ जाओ सुनने, सर्टीफिकेट मिल जाएगा। फलतः ज्यादातर शिक्षक सेमीनार को सुनने आते हैं। सेमीनार का सर्टीफिकेट पाने के लिए वे डेलीगेट फीस भी देते हैं। इस प्रक्रिया में दो किस्म का साहित्यिक भ्रष्टाचार हो रहा है. पहला नौकरी में प्रमोशन के स्तर पर हो रहा है। श्रोता के सर्टीफिकेट को वक्ता के सर्टीफिकेट के रूप में पेश करके तरक्की के पॉइण्ट प्राप्त किए जा रहे हैं। दूसरा , साहित्य विमर्श के नाम पर कूपमंडूकता बढ़ रही है। सेमीनारों में वक्ताओं के भाषण साधारण पाठक की चेतना से भी निचले स्तर के होते हैं और सेमीनार के बाद सभी लोग एक-दूसरे की पीठ ठोंकते हैं, गैर शिक्षक श्रोता फ्रस्टेट होते हैं,वे मन ही मन धिक्कारते हैं और कहते हैं और कहते हैं कि वे सुनने क्यों आए। वक्तागण आशीर्वाद देते हैं,पैर छुआते हैं। इस समूची प्रक्रिया में कई लोग तो इस कदर नशे में आ गए हैं कि उन्हें यह बीमारी हो गयी है कि शहर में कोई भी साहित्यिक कार्यक्रम हो उनको अध्यक्षता के लिए बुलाओ,ये लोग अध्यक्ष न बनाए जाने पर कार्यक्रम में जाते नहीं है। नहीं बुलाने पर नाराज हो जाते हैं। इन पंडितों का मानना है वे जिस सेमीनार में जाते हैं उस सेमीनार को सार्थक करके आते हैं। इस प्रसंग में मुझे कई लेखकों की रचनाएं याद आ रही हैं। इनमें सबसे पहले में मुक्तिबोध को उद्धृत करना चाहूँगा। बहुत पहले मुक्तिबोध ने हिन्दी के प्रोफेसरों के बारे में लिखा, ”बटनहोल में प्रति‍नि‍धि पुष्‍प लगाए एक प्रोफ़ेसर साहि‍त्‍यि‍क से रास्‍ते में मुलाकात होने पर पता चला कि हि‍न्‍दी का हर प्रोफेसर साहि‍त्‍यि‍क होता है। अपने इस अनुसन्‍धान पर मैं मन ही मन बड़ा खुश हुआ। खुश होने का पहला कारण था अध्‍यापक महोदय का पेशेवर सैद्धान्‍ति‍क आत्‍मवि‍श्‍वास। ऐसा आत्‍मवि‍श्‍वास महान् बुद्धि‍मानों का तेजस्‍वी लक्षण है या महान् मूर्खों का दैदीप्‍यमान प्रतीक ! मैं नि‍श्‍चय नहीं कर सका कि वे सज्‍जन बुद्धि‍मान हैं या मूर्ख ! अनुमान है कि वे बुद्धि‍मान तो नहीं, धूर्त और मूर्ख दोनों एक साथ हैं।”

मुक्‍ति‍बोध ने यह भी लि‍खा है ” चूँकि प्रोफेसर महोदय साहि‍त्‍यि‍क हैं इसलि‍ए शायद वे यह कुरबानी नहीं कर सकते। नाम- कमाई के काम में चुस्‍त होने के सबब वे उन सभी जगहों में जाएंगे जहॉं उन्‍हें फायदा हो-चाहे वह नरक ही क्‍यों न हो।”

कोलकाता के शिक्षकों की अवस्था इससे बेहतर नहीं बन पायी है। हिन्दी के इस तरह के आयोजनों में किस तरह के भाषण होते हैं और चेले-चेलियां किस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं इस पर कवि -कहानीकार उदयप्रकाश की बड़ी शानदार कविता है ‘पाँडेजी’ उसका अंश देखें-

“छोटी-सी काया पाँडेजी की/छोटी-छोटी इच्छाएँ/ छोटे-छोटे क्रोध/और छोटा दिमाग।

गोष्ठी में दिया भाषण,कहा- ‘नागार्जुन हिन्दी का जनकवि है ‘/फिर हँसे कि ‘ मैंने देखो

कितनी गोपनीय/चीज को खोल दिया यों।यह तीखी मेधा और/वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है। ‘/एक स-गोत्र शिष्य ने कहा-‘ भाषण लाजबाब था /अत्यन्त धीर-गंभीर/

तथ्यपरक और विश्लेषणात्मक/हिन्दी आलोचना के खच्चर/ अस्तबल में/आप ही हैं /एकमात्र/काबुली बछेड़े/ ‘तो गोल हुए पाँडे जी/मंदिर के ढ़ोल जैसे/ठुनुक -ठुनुक हँसे और/फिर बुलबुल हो गए/फूलकर मगन !”

मैं 20 सालों से कोलकाता में रह रहा हूँ और आए दिन हिन्दी सेमीनारों की दुर्दशापूर्ण अवस्था के किस्से अपने दोस्तों और विद्यार्थियों से सुनता रहा हूँ। मैं आमतौर पर इन सेमीनारों से दूर रहता हूँ। इसके कारण लोग यह मानने लगे हैं कि मैं साहित्य के बारे में नहीं जानता। कई मित्र हैं जो सेमीनार के कार्ड में वक्ता के रूप में मेरा नाम न देखकर दुखी होकर फोन करते हैं कि यहां तो आपको होना ही चाहिए था। मेरी स्थिति इस कदर खराब है कि एकबार कोलकाता की सबसे समर्थ साहित्यिक संस्था की कर्ताधर्ता साहित्यकार नेत्री ने चाय पर अपने घर बुलाया और कहा कि हम इतने कार्यक्रम करते हैं और आपस में बातें भी करते हैं कि स्थानीय स्तर पर कौन विद्वान हैं जिन्हें बुलाया जाए तो लोग आपका नाम कभी नहीं बताते, मैं स्वयं भी नहीं जानती कि आप विद्वान हैं। मैंने कहा मैं विद्वान नहीं हूँ। इसी प्रसंग में मैंने उन्हें त्रिलोचन की एक कविता ‘ प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है’ सुनायी, कविवर त्रिलोचन ने लिखा- ” प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है/उसमें कहीं त्रिलोचन का नाम नहीं था/आँख फाड़कर देखा/दोष नहीं था/पर आँखों का/सब कहते हैं कि प्रेस छली है/शुद्धिपत्र देखा ,उसमें नामों की माला छोटी न थी/ यहाँ भी देखा ,कहीं त्रिलोचन नहीं/तुम्हारा सुन सुनकर सपक्ष आलोचन कान पक गए थे/मैं ऐसा बैठा ठाला नहीं,तुम्हारी बकबक सुना करूँ/किसी जगह उल्लेख नहीं है,तुम्हीं एक हो,क्या अन्यत्र विवेक नहीं है/ तुम सागर लाँघोगे ? -डरते हो चहले से/बड़े-बड़े जो बात कहेंगे-सुनी जायगी/व्याख्याओं में उनकी व्याख्या चुनी जाएगी/”

कोलकाता हिन्दी के क्षयिष्णु वातावरण का एक अन्य पक्ष है हिन्दी के पठन-पाठन की ह्रासशील अवस्था। यह स्थिति कमोबेश पूरे राज्य में है। मसलन जो आज छात्र है वह कल शिक्षक होगा।जो विद्यार्थी एम.ए. में आते हैं उनमें अधिकांश ठीक से हिन्दी लिखना तक नहीं जानते । अब आप ही सोचिए कि जो विद्यार्थी एम.ए. तक आ गया वह हिन्दी लिखना नहीं जानता। इस तरह के विद्यार्थियों की संख्या हर साल बढ़ रही है। उच्च शिक्षाकी सुविधाओं का निचलेस्तर पर विस्तार हुआ है। बड़े पैमाने पर छात्र हिन्दी ऑनर्स कर रहे हैं , वे जब ठीक से हिन्दी लिखना नहीं जानते,ठीक से प्रश्नों का उत्तर तक नहीं देते तब वे कैसे एम.ए. तक अच्छे अंक प्राप्त करके आ जाते हैं, इसका रहस्य कोई भी आसानी से समझ सकता है कि कोलकाता में हिन्दी में अंक कैसे दिए जाते होंगे। हिन्दी प्रमोशन के नाम पर बड़े पैमाने पर ऐसे छात्रों की पीढ़ी तैयारहुई है जो येन-केन प्रकारेण अंक हासिल करके पास हुए हैं। पढ़ने,समझने और सीखने की आदत बहुत कम विद्यार्थियों में है। जिनमें यह आदत है उन्हें पग-पग पर छींटाकशी, अपमान और अकल्पनीय असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। कोलकाता में सारे विद्यार्थी जानते हैं कि हिन्दी में नौकरी पाने के नियम क्या हैं ? किसके हाथ में नौकरियां हैं ? किस नेता और प्रोफेसर को पटाना है और कैसे पटाना है । इस समस्या की जड़ें गहरी हैं,गहराई में जाकर देखें तो हिन्दी के शिक्षक नए से डरते हैं,विचारों का जोखिम उठाने से डरते हैं। अन्य से सीखने और स्वयं को उससे समृध्द करने में अपनी हेटी समझते हैं। साहित्य को अनुशासन के रूप में पढ़ने पढ़ाने में इनकी एकदम दिलचस्पी नहीं है।

आज वास्तविकता यह है कि ज्यादातर शिक्षक और समीक्षक आजीविका और थोथी प्रशंसा पाने लिए अपने पेशे में हैं।वे किसी भी चीज को लेकर बेचैन नहीं होते। उनके अंदर कोई सवाल पैदा नहीं होते। एक नागरिक के नाते उनके अंदर वर्तमान की विभीषिकाओं को देखकर उन्हें गहराई में जाकर जानने की इच्छा पैदा नहीं होती।वे पूरी तरह अतीत के रेतीले टीले में सिर गडाए बैठे हैं।

हिन्दी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षक और आलोचक अपने नियमित अभ्यास और ज्ञान विनिमय को अनुसंधान का जरिया नहीं बना पाए है। विद्यार्थियों में मासूमियत और अज्ञानता बनाए रखने में इस तरह के शिक्षकों की बड़ी भूमिका है।ये ऐसे शिक्षक हैं जो ज्ञान के आदान-प्रदान में एकदम विश्वास नहीं करते। कायदे से शिक्षक को पारदर्शी, निर्भीक और ज्ञानपिपासु होना चाहिए।किन्तु हिन्दी विभागों में मामला एकदम उल्टा है।हिन्दी के शिक्षक कम ज्ञान में संतुष्ट,आरामतलब,और दैनन्दिन जीवन की जोड़तोड़ में मशगूल रहते हैं।

इसके विपरीत यदि कोई शिक्षक निरंतर शोध करतााहै या निरंतर लिख रहा है तो उसका उपहास उडाने और केरीकेचर बनाने में हमारे शिक्षकगण सबसे आगे होते हैं। और कहते हैं कि बड़ा कचरा लिख रहे हैं।हल्का लिख रहे हैं। यानी हमारे शिक्षकों को निरंतर लिखने वाले से खास तरह की एलर्जी है।वे यह भी कहते हैं कि फलां का लिखा अभी तक इसलिए नहीं पढ़ा गया या विवेचित नहीं हुआ क्योंकि जब तक उनकी एक किताब पढकर खत्म भी नहीं हो पाती है तब तक दूसरी आ जाती है।इस तरह के अनपढों के तर्क उसी समाज में स्वीकार किए जाते हैं जहां लिखना अच्छा नहीं माना जाता। कहीं न कहीं गंभीर लेखन के प्रति एक खास तरह की एलर्जी या उपेक्षा जिस समाज में होती है वहीं पर ऐसी प्रतिक्रियाएं आती हैं। इस तरह की मनोदशा के प्रतिवादस्वरूप त्रिलोचन ने लिखा है- “शब्द/ मालूम है/व्यर्थ नहीं जाते हैं/पहले मैं सोचता था/उत्तर यदि नहीं मिले /तो फिर क्या लिखा जाय/किन्तु मेरे अन्तरनिवासी ने मुझसे कहा- लिखाकर/तेरा आत्म-विश्लेषण क्या जाने कभी तुझे/एक साथ सत्य शिव और सुंदर को दिखा जाय/अब मैं लिखा करता हूँ/अपने अन्तर की अनुभूति बिना रँगे चुने/कागज पर बस उतार देता हूँ/”

हिन्दी से जुड़े अधिकांश जटिल सवालों की हमारी समीक्षा ने उपेक्षा की है। वे किसी भी साहित्यिक और सांस्कृतिक बहस को मुकम्मल नहीं बना पाए हैं। हिन्दी में साहित्यिक बहसें विमर्श एवं संवाद के लिए नहीं होतीं,बल्कि यह तो एक तरह का दंगल है,जिसमें डब्ल्यू डब्ल्यू फाइट चलती रहती है।हमने संवाद,विवाद और आलोचना के भी इच्छित मानक बना लिए हैं। इसे भी हम अनुशासन के रूप में नहीं चलाते।

परंपरा का मूल्यांकन करते हुए हमने सरलीकरण से काम लिया है।परंपरा की इच्छित इमेज बनाई है।परंपरा की जटिलताओं को खोलने की बजाय परंपरा के वकील की तरह आलोचना का विकास किया है। परंपरा का मूल्यांकन करते हुए जो लेखक-शिक्षक परंपरा के पास गया वह परंपरा का ही होकर रह गया। परंपरा के बारे में हमारे यहां तीन तरह के नजरिए प्रचलन में हैं। पहला नजरिया परंपरावादियों का है जो परंपरा की पूजा करते हैं।परंपरा में सब कुछ को स्वीकार करते हैं। दूसरा नजरिया प्रगतिशील आलोचकों का है जो परंपरा में अपने अनुकूल की खोज करते हैं और बाकी पर पर्दा डालते हैं।तीसरा नजरिया आधुनिकतावादियों का है जो परंपरा को एकसिरे से खारिज करते हैं। इन तीनों ही दृष्टियों में अधूरापन है और स्टीरियोटाईप है।

परंपरा को इकहरे,एकरेखीय क्रम में नहीं पढ़ा जाना चाहिए।परंपरा का समग्रता में जटिलता के साथ मूल्यांकन किया जाना चाहिए।परंपरा में त्यागने और चुनने का भाव उत्तर आधुनिक भाव है। यह भाव प्रगतिशील आलोचकों में खूब पाया जाता है। परंपरा में किसी चीज को चुनकर आधुनिक नहीं बनाया जा सकता। नया नहीं बनाया जा सकता। परंपरा के पास हम इसलिए जाते हैं कि अपने वर्तमान को समझ सकें वर्तमान की पृष्ठभूमि को जान सकें।हम यहां तक कैसे पहुँचे यह जान सकें।परंपरा के पास हम परंपरा को जिन्दा करने के लिए नहीं जाते। परंपरा को यदि हम प्रासंगिक बनाएंगे तो परंपरा को जिन्दा कर रहे होंगे। परंपरा को प्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता।परंपरा के जो लक्षण हमें आज किसी भी चीज में दिखाई दे रहे हैं तो वे मूलत: आधुनिक के लक्षण हैं, नए के लक्षण हैं।नया तब ही पैदा होता है जब पुराना नष्ट हो जाता है। परंपरा में निरंतरता होती है जो वर्तमान में समाहित होकर प्रवाहित होती है वह आधुनिक का अंग है।

हिन्दी में सबसे ज्यादा अनुसंधान होते हैं।आजादी के बाद से लेकर अब तक कई लाख शोध प्रबंध हिन्दी में लिखे जा चुके हैं।सालाना 7 हजार से ज्यादा शोध प्रबंध हिन्दी में जमा होते हैं। लेकिन इनमें एक फीसद शोध प्रबंधों में भी सामयिक समाज की धड़कन सुनाई नहीं देगी। हमें विचार करना चाहिए कि रामविलास शर्मा, नगेन्द्र,नामवर सिंह,विद्यानिवास मिश्र, मैनेजर पांडेय,शिवकुमार मिश्र, कुंवरपाल सिंह , चन्द्रबलीसिंह ,परमानन्द श्रीवास्तव,नन्दकिशोर नवल आदि आलोचकों ने कितना वर्तमान पर लिखा और कितना अतीत पर लिखा है ? इसका यदि हिसाब फैलाया जाएगा तो अतीत का पलड़ा ही भारी नजर आएगा। ऐसे में हिन्दी के वर्तमान जगत की समस्याओं पर कौन गौर करेगा ? खासकर स्वातंत्र्योत्तर भारत की जटिलताओं का मूल्यांकन तो हमने कभी किया ही नहीं है।

प्रेम, दाढी और धडकनें

 आज रास्ते में रमेश मिला  था. चेहरे पर चार  इंच  की  उगी  झाड़ियों में से झांकते चेहरे को मैं नहीं  पहचान  पाया  किन्तु  मेरा  उन्नत  ललाट  उसकी  समझ  से दूर  नहीं  रहा. अचानक उसने मुझे पुकारा तब मैंने आवाज़ के आधार पर कद-काठी देखकर कयास लगाया कि यह तो रमेश होना चाहिए और वो रमेश ही निकला. कोई सफाचट गाल वाला यदि चेहरे पर अचानक दाढ़ी कि खेती करने लगे तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं- ‘या तो वह प्रेम में खुद को घायल रूप में प्रस्तुत कर रहा है या वो अचानक बौद्धिक उर्फ़ मार्क्सवादी में तब्दील हो गया है’.  मैंने कयास लगाया कि वो शहीद भगत सिंह कि उम्र से ज्यादा का हो चुका है मतलब उसकी साम्यवाद से प्रभावित होने कि उम्र जा चुकी है अतः हो न हो वह या तो प्रेम में घायल है या विरहपीडित.

उसने मुझसे पूछा ”कैसे हो”.

मैंने कहा ”मजे में”, लेकिन मैंने उससे नहीं पूछा कि ”तुम कैसे हो”. थोड़ी देर बाद वह कुलबुलाने लगा जिसका मतलब मैंने निकला कि वह मजे में नहीं है और यदि है भी तो दिखाना नहीं चाहता. मैंने सोचा पूछ लूँ कि दाढ़ी का राज क्या है नहीं तो कहीं चलते-चलते न पूछने कि गुस्ताखी के कारण मुझसे झगडा न कर ले. वैसे भी जब आदमी ”कैसे हो” पूछने पर उत्तर दे ”एकदम फिट” तो मतलब होता है कि वो मजे में है और यदि वो मुंह बिचकाकर ठंडी साँस छोड़ता हुआ उत्तर दे ”ठीक ही हूँ” तो इसमें का क्षेपक ”ही” इस बृहद अर्थ को दर्शाता है कि या तो वो ठीक नहीं है या खुद को बेठीक रूप में प्रस्तुत करना चाहता है. पूछने पर उसने कुछ नहीं बताया लेकिन अचानक उसकी मोबाइल के स्क्रीन पर एक अपरिचित जनाना तस्वीर देखकर मैंने कयास लगाया कि हो न हो यह लड़की इसके साथ पढ़ती होगी या कम से कम इसकी जानकार होगी. पहले यह रमेश कि नज़रों में आई होगी,फिर बातों में और फिर दिल व जिगर के विशाल भूभाग पर इसने कब्ज़ा जमा लिया होगा. इस कारण रमेश ने अपनी धडकनों को चुन-चुन के पकड़ा होगा और उन पर खुरच-खुरच के उसका नाम लिख दिया होगा. इसके बाद रमेश ने उसे इस सत्र के लिए सालाना प्रेम का प्रस्ताव दिया होगा जिसे उसने पहले से ही किसी और से ग्रहण  कर लिया होने के कारण रिजेक्ट कर दिया होगा. तब रमेश ने उसको इमोशनल बलैकमेली के फंदे में फंसाने के लिए दस दिन बाद उसको बकरे जैसी दाढ़ी के साथ अपना दीदार कराया होगा. इन दस दिनों में रमेश ने फास्टफूड और तली-भुनी चीजों को कम खाकर फल ज्यादा खाया होगा जिससे अब उसका वजन बैलेंस्ड था जिसे वो कुपोषण कि हद तक गिरा हुआ मान कर चल रहा था.

खैर, प्रेम में घायलों के प्रति मेरी श्रद्धा कभी नहीं रही क्योंकि एक तो मेरे घायल होने पर रोने वाला कोई नहीं था, दूसरे  मुझे एक पंडित जी ने बताया था कि हम नियति के हाथ के खिलौने हैं, वो ऊपर बैठा हम शतरंज कि मुहरों से खेल रहा है, भाग्य से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं मिल सकता. अतः मैं जान गया था कि गलती न रमेश की है न लड़की की. गलती नियती की है, ऊपर वाले की है, भाग्य की है और समय की है. जब नियती, ऊपर वाला, भाग्य और समय चरचरा के मेहरबान होते हैं तो बंदा राखी सावंत का स्वयंवर भी जीत सकता है, मल्लिका शेरावत का प्यार और ऐश्वर्या जैसी बीवी भी पा सकता है. नहीं तो यही अभिषेक बच्चन के शादी कि करिश्माई कवायदों के समय करिश्मा द्वारा रिजेक्ट किये जाने पर अमित जी को लगा कि अभिषेक कि शादी ही नहीं हो पायेगी, भोला-भाला बच्चा कुंवारा रह जायेगा, मधुशाला का वंश डूब जायेगा. तब अभिषेक कि शादी के लिए अभिषेक ने ही नहीं अमित जी ने भी दाढ़ी रखी जो चार इंच कि होती उससे पहले ही ऐश्वर्या देवी ने फील किया कि बच्चा दुखी है और सलमान कुछ ज्यादा खुश अतः आ गईं आंसू पोंछने. इस तर्क से मैंने अनुमान लगाया कि रमेश का दुःख बंटाने कई लड़कियां आगे आई होंगी किन्तु चूंकि वो अभिषेक बच्चन नहीं था, न अमिताभ बच्चन का कुलदीपक अतः लड़के ही आगे आये. बाद में साजिश का पता चला कि लड़कियां अब नारीवादियों के चक्कर में पड़कर, पुरुषों को सबक सिखाने के लिए, आपस में ही प्रेम कि पींगे बढाने लगी थीं.

उसने मुझसे कहा कि वो लड़की उसके दिल की धडकनें नहीं पढ़ पा रही है. मैंने उसे सांत्वना दी कि हो सकता है कि वो अभी निरक्षर हो या प्रेम का ककहरा सीख रही हो, तो वो तुम्हारे अदृश्य दिल की अदृश्य धडकनें कैसे पढ़ पाएगी? तब मुझे सूचना मिली कि वो अभी रोहित के दिल की धडकनें पढने में व्यस्त थी और रोहित की धडकनें पूरा रामायण-महाभारत थीं. वो पढ़ती जा रही थी और धडकनें ख़त्म ही नहीं हो रही थीं.

मैंने उसे सुझाया ”कहीं और ट्राई करो”.

वो गुर्राया ”दिल तो एक ही है…. आ गया जो किसी पे प्यार क्या कीजे”.

मैंने कहा ”एक ही है तो क्या साला एक ही नाम जपेगा और एक ही काम करेगा, उसे लोगों के नाम की धडकनें छापने के आलावा शरीर को खून पानी भी भेजना है कि नहीं?”

उसने कहा ”एक ही दिल है, इसकी धडकनों पर कैसे किसी और का नाम लिख दूँ”

मैंने उसे नजीर दी सैफ, सलमान, आमीर, अक्षय से लेकर प्रियंका चोपड़ा और करीना कपूर होते हुए सीमोन- द-बउआर तक की. अब उसे धीरे-धीरे विश्वास हो रहा था कि अभी दिल पूरी तरह नहीं टूटा है कि मधुशाला की राह ली जाय. अभी एकाध चांस और ट्राई किया जा सकता है.

उसने पूछा ”उसे कैसे भूलूं”

मैंने कहा ”दूसरी को पकड़ोगे तो पहली अपने आप भूल जाएगी”. मैंने उसे समझाया की ”प्रेम ट्रांस्फरेबुल होता है. जब अगाध प्रेम करने वाली ‘चित्रलेखा’ एक से अधिक से प्रेम की तो हम तुम तो तुच्छ जीव हैं. वास्तव में यह बहकाव नहीं बल्कि प्रेम की उदारता और उदात्तता है. मेरे गुरू ने ‘ढाई आखर प्रेम का, पढे सो पंडित होय’ को पकड़ा और ऐसा पकड़ा की आज तक पकडे हैं. जीते जी कबीर हो गए. प्रेम को उदारता की हद तक ले गए और सबको मनसा, वाचा, कर्मणा मुक्तहस्त और मुक्तकंठ प्रेम बांटा”. उसने मेरे गुरू के दर्शनों की इच्छा जताई.मैंने उनके प्रवासी होने की दुहाई देकर अपना पिंड छुड़ाया. जाते-जाते उसने मुझसे एक गंभीर मन्तोइन्ग टाइप का प्रश्न किया ”आपने क्या इसका पालन किया?”

मैंने उसे समझाया की ”जीवन में मैं जब तक पढ़ा, हर लड़की को एक नजर से देखा. नजरों में जिसके हेर-फेर हो जाये वो आदमी क्या. आदमी वही जो जुबान और नज पर कायम रहे….आज तक मैं जहाँ जिसके पास जाता हूँ उसे पहले प्रेम की नजर से देख लेता हूँ फिर सोचता हूँ की मैं यहाँ आया किस काम से था……सबको प्रेम बाँटने से प्यार बढ़ता है और इंडिया में प्यार की बड़ी कमी है..मेरे गुरूजी के आलावा सब इस मामले में कंजूस हैं और एक दिल की बात करते हैं… अरे प्रेम को एक गले, द्वार और खूंटे से मत बांधो.. इसे फैलने दो…”

अब वह मेरी बातों से पर्याप्त संतुष्ट था और दूसरे दिन के लिए एक दूसरी लड़की का नाम मेरे कान में बताकर नई धडकनें उगता चल दिया.

तो गंगा को राष्ट्रीय नाला घोषित कर दे सरकार

समझ में नहीं आता की केंद्र सरकार अब इस काम में इतनी देर क्यों कर रही है. बिना देर किये केंद्र सरकार को राज्य सरकारों को विश्वास में लेकर सदानीरा को राष्ट्रीय नाला घोषित कर देना चाहिए. गंगा की लगातार बिगड़ती सेहत और केंद्र सरकार के प्रयासों को देखते हुए आम जन को इस बात की पूरी उम्मीद है कि जल्द ही गंगा नदी नहीं रह जाएगी बल्कि मल जल ढ़ोने वाले एक नाले के स्वरुप में आ जाएगी.

गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक लगभग २५२५ किलोमीटर का सफ़र तय करने वाली गंगा अपने किनारों पर बसे करोड़ों लोगों को जीवन देती है. देव संस्कृति इसी के किनारे पुष्पित पल्लवित होती है तो दुनिया का सबसे पुराना और जीवंत शहर इसी के किनारे बसा है. माँ का स्थान रखने वाली गंगा भारतीय जनमानस के लिए अत्यन्त आवश्यक है. मोक्ष की अवधारणा में गंगा है. मृत्यु शैया पर पड़े जीव के मूंह में गंगा जल की दो बूंदे चली जाएँ तो उसको मोक्ष मिलना तय माना जाता है लेकिन अब यह अवधारणा बदलने का वक़्त आ गया है. सदानीरा अब अमृतमयी जल से नहीं घरों से निकलने वाले सीवर से प्रवाहमान है. जीवन मूल्यों की बलि चढ़ा कर होने वाले विकास का नतीजा टिहरी बाँध के बन जाने के बाद तो गंगा की धारा बिजली के तारों में चली गयी. अब गंगा का पानी ज़मीन पर नहीं टिहरी में बनने वाली बिजली में चला गया है.

गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के नाम पर इस देश के नौकरशाहों और राजनेताओं ने अपने बैंक एकाउंट में पैसे की गंगा बहा ली. कैग की रिपोर्ट के मुताबिक गंगा एक्शन प्लान के पहले चरण में लगभग एक हज़ार करोड़ से भी ज्यादा की धनराशि खर्च की गयी. लगभग २५० से अधिक परियोजनाएं पूरी हुयीं. गंगा एक्शन प्लान का पहला चरण अपने तय समय से सालों देर तक चला. अभी चल ही रहा था की गंगा एक्शन प्लान के दूसरे चरण की योजना बन गयी. अब गंगा एक्शन प्लान का दूसरा चरण चल रहा है. इसके लिए लगभग बाईस हज़ार करोड़ दिए गयें हैं. लेकिन गंगा पहले से और अधिक गन्दी हुयीं हैं यह एक अँधा भी बता सकता है.

हिन्दुओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं गंगा और बनारस भी. यहीं का उदाहरण ले लीजिये. बनारस में रोजाना लगभग २५ एमएलडी सीवेज निकलता है. गंगा एक्शन प्लान के पहले चरण में १००० करोड़ रूपये फूंकने के बाद भी इस शहर में महज १० एमएलडी सीवेज को ट्रीट करने का इंतज़ाम हो पाया है. यानी १५ एमएलडी सीवेज सरकारी रूप से सीधे गंगा में बहाया जा रहा है. इसके साथ आपको यह भी बता दूं की १० एम एल डी सीवेज को ट्रीट करने के लिए जो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगे हैं उनमें से अधिकतर बिजली न रहने पर नहीं चलते हैं यानी इस दौरान अगर प्लांट की टंकी ओवर फ्लो हुयी तो सीवेज गंगा में बहा दिया जायेगा. यह आंकड़ा महज एक शहर का है. इससे उन सभी शहरों का अनुमान लगा सकतें हैं जो गंगा के किनारे बसे हैं. लगे हाथ आपको कैग के दिए एक और आंकड़े के बारे में बता देते हैं. कैग की रिपोर्ट के मुताबिक आज भी लगभग छब्बीस सौ करोड़ लीटर सीवेज गंगा में बहाया जा रहा है.

राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के सदस्य प्रोफेसर बीडी त्रिपाठी की लैब में हुयी शोध बताती है की गंगा का पानी अब आचमन के लायक भी नहीं बचा है फिर स्नान की तो बात भूल जाइये. यह हाल तब है जब एक हज़ार करोड़ रुपये से ज्यादा की धनराशि और २५० से ज्यादा परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं. गंगा एक्शन प्लान का दूसरा चरण चल रहा है और इसके तहत लगभग ४५० परियोजनाएं चलनी है या चल रहीं हैं. केंद्र सरकार ने गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण बना कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली. गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर खाने कमाने का नया जुगाड़ बना लिया है. गंगा की सेहत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है. पानी का रंग या तो गहरा हरा हो गया है या काला पड़ गया है. प्रवाह नाम मात्र का भी नहीं है. ऐसे में तो केंद्र सरकार के लिए यही अच्छा होगा की वह गंगा को राष्ट्रीय नदी की जगह इसे राष्ट्रीय नाला घोषित कर दे.

राष्ट्रीय पुननिर्माण में संघ की भूमिका

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज अपरिचित नाम नहीं है। भारत में ही नहीं,विश्वभर में संघ के स्वयंसेवक फैले हुए हैं। भारत में लद्दाख से लेकर अंडमान निकोबार तक नियमित शाखायें हैं तथा वर्ष भर विभिन्न तरह केकार्यक्रम चलते रहते हैं। पूरे देश में आज 35, स्थानों (नगर व ग्रामों) में 5, शाखायें हैं तथा 95 साप्ताहिक मिलन व 85 मासिक मिलन चलते हैं। स्वयंसेवकों द्वारा समाज के उपेक्षित वर्ग के उत्थान के लिए, उनमें आत्मविश्वास व राष्ट्रीय भाव निर्माण करने हेतु ड़े लाख से अधिक सेवा कार्य चल रहे हैं। संघ के अनेक स्वयंसेवक समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समाज के विभिन्न बंधुओं से सहयोग से अनेक संगठन चला रहे हैं। राष्ट्र व समाज पर आने वाली हर विपदा में स्वयंसेवकों द्वारा सेवा के कीर्तिमान ख+डे किये गये हैं। संघ से बाहर के लोगों यहां तक कि विरोध करने वालों ने भी समयसमय पर इन सेवा कार्यों की भूरिभूरि प्रशंसा की है। नित्य राष्ट्र साधना (प्रतिदिन की शाखा) व समयसमय पर किये गये कार्यों व व्यक्त विचारों के कारण ही दुनिया की नजर में संघ राष्ट्रशक्ति बनकर उभरा है। ऐसे संगठन के बारे में तथ्यपूर्ण सही जानकारी होना आवश्यक है। रा. स्व. संघ का जन्म सं. 1982 विक्रमी (सन 1925) की विजयादशमी को हुआ। संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार थे।
डॉ. हेडगेवार के बारे में कहा जा सकता है कि वे जन्मजात देशभक्त थे। छोटी आयु में ही रानी विक्टोरिया के जन्मदिन पर स्कूल से मिलने वाला मिठाई का दोना उन्होंने कूडे में फेंक दिया था। भाई द्वारा पूछने पर उत्तर दिया॔॔हम पर जबर्दस्ती राज्य करने वाली रानी का जन्मदिन हम क्यों मनायें?’’ ऐसी अनेक घटनाओं से उनका जीवन भरा पड़ा है। इस वृत्ति के कारण जैसेजैसे वे बड़े हुए राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ते गये। वंदे मातरम कहने पर स्कूल से निकाल दिये गये। बाद में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में इसलिए प+ने गये कि उन दिनों कलकत्ता क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था।

वहां रहकर अनेक प्रमुख क्रांतिकारियों के साथ काम किया। लौटकर उस समय के प्रमुख नेताओं के साथ आजादी के आंदोलन से जुड़े रहे। 192 के नागपुर अधिवेशन की संपूर्ण व्यवस्थायें संभालते हुए पूर्ण स्वराज्य की मांग का आग्रह डॉ. साहब ने कांग्रेस नेताओं से किया। उनकी बात तब अस्वीकार कर दी गयी। बाद में 1929 के लाहौर अधिवेशन में जब कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया तो डॉ. हेडगेवार ने उस समय चलने वाली सभी संघ शाखाओं से धन्यवाद का पत्र लिखवाया, क्योंकि उनके मन में आजादी की कल्पना पूर्ण स्वराज्य के रूप में ही थी।
आजादी के आंदोलन में डॉ. हेडगेवार स्वयं दो बार जेल गये। उनके साथ और भी अनेकों स्वयंसेवक जेल गये। फिर भी आज तक यह झूठा प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि आजादी के आंदोलन में संघ कहां था? डॉ. हेडगेवार को देश की परतंत्रता अत्यंत पी+डा देती थी। इसीलिए उस समय स्वयंसेवकों द्वारा ली जाने वाली प्रतिज्ञा में यह शब्द बोले जाते थे॔ देश को आजाद कराने के लिए मै संघ का स्वयंसेवक बना हूं’’ डॉ. साहब को दूसरी सबसे ब+डी पी+डा यह थी कि इस देश क सबसे प्रचीन समाज यानि हिन्दू समाज राष्ट्रीय स्वाभिमान से शून्य प्रायरू आत्म विस्मृति में डूबा हुआ है, उसको “मैं अकेला क्या कर सकता हूं’’ की भावना ने ग्रसित कर लिया है। इस देश का बहुसंख्यक समाज यदि इस दशा में रहा तो कैसे यह देश खडा होगा? इतिहास गवाह है कि जबजब यह बिखरा रहा तबतब देश पराजित हुआ है। इसी सोच में से जन्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। इसी परिप्रेक्ष्य में संघ का उद्देश्य हिन्दू संगठन यानि इस देश के प्राचीन समाज में राष्ट्रीया स्वाभिमान, निरूस्वार्थ भावना व एकजुटता का भाव निर्माण करना बना। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित ही है कि डॉ. हेडगेवार का यह विचार सकारात्मक सोच का परिणाम था। किसी के विरोध में या किसी क्षणिक विषय की प्रतिक्रिया में से यह कार्य नहीं ख+डा हुआ। अतरू इस कार्य को मुस्लिम विरोधी या ईसाई विरोधी कहना संगठन की मूल भावना के ही विरूद्घ हो जायेगा।
हिन्दू संगठन शब्द सुनकर जिनके मन में इस प्रकार के पूर्वाग्रह बन गये हैं उन्हें संघ समझना कठिन ही होगा। तब उनके द्वारा संघ जैसे प्रखर राष्ट्रवादी संगठन को, राष्ट्र के लिए समर्पित संगठन को संकुचित, सांप्रदायिक आदि शब्द प्रयोग आश्चर्यजनक नहीं है। हिन्दू के मूल स्वभाव उदारता व सहिष्णुता के कारण दुनियां के सभी मतपंथों को भारत में प्रवेश व प्रश्रय मिला। वे यहां आये, बसे। कुछ मत यहां की संस्कृति में रचबस गये तथा कुछ अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ रहे। हिन्दू ने यह भी स्वीकार कर लिया क्योंकि उसके मन में बैठाया गया है रुचीनां वैचित्र्याद्जुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामपर्णव इव॥ अर्थजैसे विभिन्न नदियां भिन्नभिन्न स्रोतों से निकलकर समुदा्र में मिल जाती है, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्नभिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टे़मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में तुझमें (परमपिता परमेश्वर) आकर मिलते है। शिव महिमा स्त्रोत्तम, इस तरह भारत में अनेक मतपंथों के लोग रहने लगे। इसी स्थिति को कुछ लोग बहुलतावादी संस्कृति की संज्ञा देते हैं तथा केवल हिन्दू की बात को छोटा व संकीर्ण मानते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि भारत में सभी पंथों का सहज रहना यहां के प्राचीन समाज (हिन्दू) के स्वभाव के कारण है।
उस हिन्दुत्व के कारण है जिसे देश केसर्वोज्च न्यायालय ने भी जीवन पद्घति कहा है, केवल पूजा पद्घति नहीं।हिन्दू के इस स्वभाव के कारण ही देश बहुलतावादी है। यहां विचार करने का विषय है कि बहुलतावाद महत्वपूर्ण है या हिन्दुत्व महत्वपूर्ण है जिसके कारण बहुलतावाद चल रहा है। अतरू देश में जो लोग बहुलतावाद के समर्थक हैं उन्हें भी हिन्दुत्व के विचार को प्रबल बनाने की सोचना होगा। यहां हिन्दुत्व के अतिरिक्त कुछ भी प्रबल हुआ तो न तो भारत ॔भारत’ रह सकेगा न ही बहुलतावाद जैसे सिद्घांत रह सकेंगे। क्या पाकिस्तान में बहुलतावाद की कल्पना की जा सकती है? इस परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस देश की राष्ट्रीय आवश्यकता है। हिन्दू संगठन को नकारना, उसे संकुचित आदि कहना राष्ट्रीय आवश्यकता की अवहेलना करना ही है।
संघ के स्वयंसेवक हिन्दू संगठन करके अपने राष्ट्रीय कर्तव्य का पालन कर रहे हैं। संघ की प्रतिदिन लगने वाली शाखा व्यक्ति के शरीर, मन, बुदि्घ, आत्मा के विकास की व्यवस्था तथा उसका राष्ट्रीय मन बनाने का प्रयास होता है। ऐसे कार्य को अनर्गल बातें करके किसी भी तरह लांक्षित करना उचित नहीं। संघ की प्रार्थना, प्रतिज्ञा, एकात्मता स्त्रोत, एकात्मता मंत्र जिनको स्वयंसेवक प्रतिदिन ही दोहराते हैं, उन्हें पने के पश्चात संघ का विचार, संघ में क्या सिखाया जाता है, स्वयंसेवकों का मानस कैसा है यह समझा जा सकता है। प्रार्थना में मातृभूमि की वंदना, प्रभु का आशीर्वाद, संगठन के कार्य के लिए गुण, राष्ट्र के परंवैभव (सुख, शांति, समृदि्घ) की कल्पना की गई है। प्रार्थना में हिन्दुओं का परंवैभव नहीं कहा है, राष्ट्र का परंवैभव कहा है। स्वाभाविक ही सभी की सुख शांति की कामना की है। सभी के अंत में भारतमाता माता की जय कहा है। स्वाभाविक ही हर स्वयंसेवक के मन का एक ही भाव बनता है। हम भारत की जय के लिए कार्य कर रहे हैं। एकात्मता स्त्रोत व मंत्र में भी भारत की सभी पवित्र नदियों, पर्वतों, पुरियों सहित देश व समाज के लिए कार्य करने वाले प्रमुख व्यक्तियों (महर्षि वाल्मीकि, बुद्घ, महावीर, गुरूनानक, गांधी, रसखान, मीरा, अंबेडकर, महात्मा फुले सहित ऋषि, बलिदानी, समाज सुधारक वैज्ञानिक आदि) का वर्णन है तथा अंत में भारत माता की जय। इस सबका ही परिणाम है कि संघ के स्वयंसेवक के मन में जातिबिरादरी, प्रांतक्षेत्रवाद, ऊंचनीच, छूआछूत आदि क्षुद्रा विचार नहीं आ पाते। जब भी कभी ऐसे अवसर आये जहां सेवा की आवश्यकता पड़ी वहां स्वयंसेवक कथनीकरनी में खरे उतरे हैं।
जब सुनामी लहरों का कहर आया तब वहां स्वयंसेवकों ने जो सेवा कार्य किया उसकी प्रशंसा वहां के ईसाई व कम्युनिष्ट बंधुओं ने भी की है। अमेरिका के कैटरीना के भयंकर तूफान में भी वहां स्वयंसेवकों ने प्रशंसनीय सेवा की है। कुछ वर्ष पूर्व चरखी दादरी (हरियाणा) में दो हवाई जहाजों के टकरा जाने के परिणाम स्वरूप 3 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई। दुर्भाग्य से ये सभी मुस्लिम समाज के थे उनकी सहायता करने ॔सेक्यूलरिस्ट’ नहीं गये। सभी के लिए कफन, ताबूत आदि की व्यवस्था, उनके परिजनों को सूचना देने का काम, शव लेने आने वालों की भोजन, आवास आदि की व्यवस्था वहां के स्वयंसेवकों ने की। इस कारण वहां की मस्जिद में स्वयंसेवकों का अभिनंदन हुआ, मुस्लिम पत्रिका ॔रेडिएंस’ ने ॔शाबास 3.’ शीर्षक से लेख छापा। ऐसी अनेक घटनाओं से संघ का इतिहासभरापडा है। गुजरात, उ+डीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, अंडमाननिकोबार आदि भयंकर तूफानों में सेवा करने हेतु पूरे देश से स्वयंसेवक गये, बिना किसी भेद से सेवा, पूरे देश से राहत सामग्री व धन एकत्रित करके भेजा, मकान बनवाये। वहां चममकपज लोग स्वयंसेवकों के रिश्तेदार या जातिबिरादरी के थे क्या? बस मन में एक ही भावसभी भारत माता के पुत्र हैं इसलिए सभी भाईभाई है। अमेरिका, मॅरीशस आदि की सेवा में भी एक ही भाव “वसुधैव कुटुम्बकम्।’ शाखा पर जो संस्कार सीखे उसी का प्रकटीकरण है। प्रख्यात सर्वोदयी एस. एन. सुब्बाराव ने कहा आर एस एस मीन्स रेडी फॉर सेल्फलेस
सर्विस। दूसरा दृश्य भी देखेंजब राजनीतिज्ञों व तथाकथित समाज विरोधी तत्वों द्वारा विशेषकर हिन्दू समाज को विभाजित करने के प्रयास हो रहे हैं तब स्वयंसेवक समाज में सामाजिक समरसता निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं। महापुरूष पूरे समाज के लिए होते हैंउनका मार्ग दर्शन भी पूरे समाज के लिए होता है तब उनकी जयंती आदि भी जाति या वर्ग विशेष ही क्यों मनायें? पूरे समाज की ही सहभागिता उसमें होनी चाहिये। समरसता मंच केमाध्यम से स्वयंसेवकों ने ऐसा प्रयास प्रारम्भ किया है तथा समाज के सभी वर्गा को जोडने, निकट लाने में सफलता मिल रही है, वैमनस्यता कम हो रही है। दिखने में छोटा कार्य है किन्तु कुछ समय पश्चात यही बडे परिणाम लाने वाला कार्य सिद्घ होगा। मुस्लिम, ईसाई, मतावलम्बियों के साथ भी संघ अधिकारियों की बैठकें हुई हैं किन्तु कुछ लोगों को ऐसा बैठना रास नहीं आता। अतरू परिणाम निकलने से पूर्व ही ऐसे प्रयासों में विघ्नसंतोषी विघ्न डालने के प्रयास करते रहते हैं। गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोग, वनवासी, गिरिवासी, झुग्गीझोपडियों व मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों का दुरूखदर्द बांटने, उनमें आत्मविश्वास निर्माण करने, उनके शैक्षिक व आर्थिक स्तर को सुधारने के लिए भी सेवा भारती, सेवा प्रकल्प संस्थान,वनवासी कल्याण आश्रम व अन्य विभिन्न ट्रस्ट व संस्थायें गठित करके जुट गये हैं हजारों स्वयंसेवक। इनके प्रयासों का ब+डा ही अज्छा परिणाम भी आ रहा है। इस परिणाम को देखकर एक विद्वान व्यक्ति कह उठे आर एस एस यानिरिबोल्यूसन इन सोशल सर्विस। राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर भी स्वयंसेवक खरे उतरे हैं। सन 4748, 65, 71 के युद्घ के समय सेना को हर, प्रकार से नागरिक सहयोग प्रदान करने वालों की अंग्रिम पंक्ति में थे स्वयंसेवक। भोजन, दवा, रक्त जैसी भी आवश्यकता सेना को पड़ी तो स्वयंसेवकों ने उसकी पूर्ति की। यही स्थिति गत करगिल के युद्ध के समय हुई। इन मोर्चों पर कई स्वयंसेवक बलिदान भी हुए हैं। अनेकों घायल हुए हैं। इन्होंने न सरकार से मुआवजा लिया न ही मैडल। यही है निरूस्वार्थ देश सेवा। संघ का इतिहास त्याग, तपस्या, बलिदान, सेवा व समर्पण का इतिहास है, अन्य कुछ नहीं। सेना के एक अधिकारी ने कहा॔॔राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का रक्षक भुजदंड है।’’ राष्ट्रीय सुरक्षा का मोर्चा हो, दैवीय आपदा हो, दुर्घटना हो, समाज सुधार का कार्य हो, रूकुरीति से मुक्त समाज के निर्माण का कार्य हो, विभिन्न राष्ट्रीय व सामाजिक विषयों पर समाज के सकारात्मक प्रबोधन का विषय हो..और भी ऐसे अनेक मोर्चों पर संघ स्वयंसेवक जान की परवाह किये बिना हिम्मत और उत्साह के साथ डटे हैं तथा परिवर्तन लाने का प्रयास कर रहे हैं, परिवर्तन आ भी रहा है। इस अर्थ में विचार करेंगे तो स्वयंसेवक राष्ट्र की महत्वपूर्ण पूंजी है। काश! इस पूंजी का सदुपयोग, राष्ट्र के पुनर्निर्माण में ठीक से किया जाता तो अब तक शक्तिशाली व समृद्घ भारत का स्वरूप उभारने में अच्छी और सफलता मिल
सकती थी। अभी भी देर नहीं हुई है। विभिन्न दलों के राजनैतिक नेता, समाजशास्त्री, विचारक, ङ्क्षचतक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर ॔स्वयंसेवक’रूपी लगनशील, कर्मठ, अनुशासित, देशभक्ति व समाज सेवा की भावना से ओत प्रोत इस राष्ट्र शक्ति को पहचान कर राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में इसका संवर्धन व सहयोग करें तो निश्चित ही दुनिया में भारत शीघ्र समर्थ, स्वावलम्बी व सम्मानित राष्ट्र बन सकेगा। पिछले 85 वर्षों से स्वयंसेवकोंका एक ही स्वप्न हैभारतमाता की जय।

क्रिकेट महायुद्ध के बहाने

समूचे देश में विद्यालय और विश्वविद्यालयों की परीक्षायें चल रही है। विद्यालयों में प्रवेश का क्रम भी शुरू हो चुका है और इस बीच विश्व कप का जुनून सिर चकर बोल रहा है। क्रिकेट के चलते अनेक छात्र पाई की जगह क्रिकेट के ही जय पराजय में गोते लगा रहे हैं बिना यह सोचे समझे कि क्रिकेट का नशा उनके भविष्य पर भारी पड़ सकता है। जब से यह तंय हुआ है कि मोहाली में आगामी 30 मार्च को विश्व कप का सेमीफाइनल मुकाबला भारत और पाकिस्तान की टीमों के बीच खेला जायेगा दोनों देशों के क्रिकेट प्रेमी ही नही वरन सियासत करने वाले भी क्रिकेट के बाहर के मैदान में कूद पड़े हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी को भी न्यौता दे दिया कि वे मोहाली आकर क्रिकेट मैच का आनन्द उठाये। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लगता है कि शायद क्रिकेट मैच भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती का नया पैगाम लेकर आये। उनकी मंशा कितना सटीक उतरेगी यह तो नहीं पता किन्तु क्रिकेट मैदान से बाहर सियासी क्रिकेट का दौर शुरू हो चुका है।
इतिहास साक्षी है कि भारत और पाकिस्तान की क्रिकेट टीमे जबजब मैदान पर होती है तो ऐसा लगता है कि दोनों देशो के बीच युद्ध जैसा वातावरण हो। भारत के क्रिकेट प्रेमी चाहते हैं कि भारत की क्रिकेट टीम भले ही दुनियां के किसी भी टीम से हार जाय किन्तु पाकिस्तान के साथ पराजय उन्हें स्वीकार नही है। कमोवेश इसी प्रकार की मानसिकता पाकिस्तान पर भी लागू होती है। क्रिकेट खेल न होकर दोनों देशों के बीच एक निर्णायक संघर्ष जैसा होता है। करो या मरो की मानसिकता के बीच दोनों देशों के खिलाड़ी जहां योद्घा के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं वहीं क्रिकेट टीमों के समर्थक मंदिर, मस्जिद और देवालयों का चक्कर लगाने से नहीं चूकते।
मोहाली में कौन सी टीम जीतेगी यह तो भविष्य के गर्भ में है किन्तु दोनों टीमों के खिलाड़ी अभी से हर हाल में जीतना है के दबाव की मानसिकता से जूझ रहें हैं। यह भाव और भाव भूमि अकारण नही है। भारत के अधिकांश जन मानस को लगता है कि पाकिस्तान उनकी देश की सुरक्षा और विकास के रास्ते में रोडा बना हुआ है। पाकिस्तान कभी आतंकवादी भेजकर तबाही मचवाता है तो आये दिन जाली नोट और मादक पदार्थ भारत में भेजकर भारत के सुख में खलल डालता ही रहता है। पाकिस्तान की जनता के मन में सियासतदानों ने यह मानसिकता विभाजन के बाद से ही भर दिया है कि भारत ही उनका प्रबल शत्रु है। इन भावों को व्यक्त करने का जब सहज अवसर नहीं मिल पाता तो दोनों देशों की जनता को प्रतीक्षा रहती है क्रिकेट मैंच की। इसी बहाने दोनों देशो की जनता अपनेअपने स्वभावगत भावों को अभिव्यक्ति देती है। अब मोहाली में केवल भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच मात्र नही होगा वरन उससे जुड़ेंगी खट्टीमीठी अनगिनत यादें। अनेक घाव रहरहकर उभरकर सामने आयेंगे। कभी कारगिल का धोखा तो कभी मुम्बई पर आतंकी हमला और न जाने कितने युद्घो से लहूलुहान दोनों देश क्रिकेट के बहाने अपने अतीत को जीवन्त करेंगे।
दोनों देशों के सियासी लोग मोहाली से बहुत उम्मीद लगाये हुये हैं। खिलाड़ी दबाव में हैं। बेहतर यही होगा कि दो देशो के क्रिकेट टीम से भारतपाकिस्तान की भावनाओं से सियासत को न जोड़ा जाय। खेल को खेल ही रहने दिया जाय तो बेहतर होगा। मैच में दोनों टीमें कभी नहीं जीतती। एक को तो पराजय का मुंह देखना ही होगा। माध्यम जगत जिस रूप में भारतपाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैंच को परोस रहा है उसे सुखद तो कदापि नही कहा जा सकता। मैल से मैल को नहीं धोया जा सकता। बेहतर हो कि क्रिकेट के बहाने दोनों देशों के बीच संवेदनहीनता और अविश्वास की दीवारे कमजोर हो। रिश्तों के हिमालय की बर्फ कुछ पिघले और फिज़ा में ऐसी बयार बहे कि हम नफरतों की दीवार को गिराकर कुछ कदम विश्वास के साथ चल सके।

क्यों पढ़ें हम श्रीकृष्ण का संदेश – गीता ?

यह ५००० हजार वर्ष पुराना ज्ञान किसी‌ युग में चाहे कितना भी‌ उपयोगी रहा हो , आज के त्वरित ब्रह्माण्ड में, जो स्वयं तेजी से बदल रहा है, और जब हमारा ज्ञान दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है, तब इसका ऐतिहासिक महत्व हो सकता है, किन्तु आज के जीवन के लिये यह अधिक प्रासंगिक नहीं हो सकता। आज तो हमें अंग्रेज़ी में लिखी पुस्तक ’अरबपति कैसे बनें ’ अवश्य ही पढ़ना चाहिये!

ज़माना कितनी तेज़ी से बदल रहा है, यह विचारणीय तो है, किन्तु यह सोचने के पहले हमें‌ यह अवश्य सोचना चाहिये कि ज़माना कैसा बदल रहा है। ज़माने में विज्ञान और प्रौद्योगिकी जो परिवर्तन ला रही है, उसमें भौतिक या वस्तुओं में परिवर्तन बहुत तीव्र है, यथा कारें, फ़ोन, टी वी, कम्प्यूटर, चिकित्सा विज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी, नैनो प्रौद्योगिकी तथा अन्य बहुल उत्पादन की मशीनें, बहुल विनाश के आयुध आदि आि में तेजी से नए माडल आ रहे हैं। किन्तु जो सोच में परिवर्तन है वह और भी अधिक मह्त्वपूर्ण है।

मात्र लाभ के लिये बढ़ाए गए बहुल उत्पादन से असंख्य भोग की वस्तुओं का विक्रय उद्योगपति के लाभ के लिये आवश्यक हो गया है। इसलिये सभी मनुष्यों को रंगीन माध्यम तथा सैक्सी माडलों की‌ मदद से अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक सिद्ध कर खरीदने के लिये बाध्य किया जाता है, कुल मिलाकर सुख का सपना दिखाकर भोगवादी बनाया जा रहा है, और वे मधुर स्वप्न दु:स्वप्न बन रहे हैं। किन्तु नोबेल पुरस्कृत अमेरिकी मोवैज्ञानिक डैनी कानमैन ने लम्बे अनुसंधान बाद घोषित किया है, ’ पिछले ५० वर्षों में सुविधाएं, साधन तथा समृद्धि तो बहुत बढ़े हैं, किन्तु सुख नहीं‌ के बराबर बढ़े हैं !’ और हम यह तो देख ही रहे हैं कि अपराध और उनकी नृशंसता, तथा कमजोरों का, चाहे वह कमजोर महिला हो या पुरुष, बालक हो या वृद्ध, शोषण बढा है। मिट्टी, जल और वायु का प्रदूषण, पर्यावरण का विनाश, जलवायु का विचलन और वैश्विक तापन आदि दु� �दरूप से बढ़ रहे हैं। किन्तु टीवी और रंगीन माध्यम ने जैसे हमारी सोच पर कब्जा कर लिया है, और हमें इन महत्वपूर्ण विषयों की चिन्ता न कर हम क्षुद्र विषयों की चिन्ता करते हैं कि किसने कितने छक्के मारे या किस एक्टर का किस एक्टर से क्या चल रहा है। अत: आज इन समस्याओं के जितने भी हल सुझाए जा रहे हैं वे मूल में‌ न जाकर सतही ही हैं, तब इसमें‌ क्या आश्चर्य कि गर्वीले और समुन्नत विज्ञान और प्रौद्य ोगिकी के रहते हुए भी स्थिति बद से बदतर होती‌ जा रही है। समस्या के मूल में मनुष्य और प्रकृति का अंधाधुंध शोषण है। और इसके मूल में भोगवाद अर्थात अपने लिये अधिक से अधिक भोग करने की‌ होड़ है। आपको आश्चर्य होगा कि इन समस्याओं के हल हमें इन ५००० वर्षों से अधिक पुराने ग्रन्थों – उपनिषदों, रामायण तथा श्री‌मद्भगवद्गीता – में मिलते हैं।

श्रीकृष्ण के उपदेश से युद्ध से विमुख हो रहे अर्जुन युद्ध के लिये तैयार हो जाते हैं।और अलीपुर जेल में श्री अरबिन्द श्रीकृष्ण की प्रेरणा से सशस्त्र क्रान्ति के क्षेत्र को छोडकर योगक्षेत्र में आ जाते हैं। एक ही गीता से दो उल्टे परिणाम! यह विरोधाभास कैसा!

अर्जुन युद्ध के विरोध में कितनी ऊँची बात कह रह था – वह अपने श्रद्धेय पितामह, गुरु आदि की हत्या नहीं करना चाहता, वह युद्धजनित लाखों हत्याएं आदि से उत्पन्न विभीषिका के दुष्परिणाम नहीं चाहता और असंख्य निर्दोष मनुष्यों को मारकर पाप नहीं करना चाहता। कृष्ण ने अर्जुन को पहिले उसके क्षत्रिय धर्म का स्मरण कराया कि अन्याय के विरुद्ध लड़ना उसका कर्तव्य है, क्योंकि सभी शान्तिपूर्ण विधयां असफ़ल हो चुकी‌ थीं। – ”स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि युद्धात् श्रेय: अन्यद्क्षत्रियस्य न विद्यते।” (३१, २)

उसे मानसिक दु:ख तथा हत्याके अपराध से बचने के लिये वे उसे समझा चुके हैं कि आत्मा तो अमर है, यह शरीर ही जन्ममरणशील है, अत: युद्ध से उसे नहीं‌ डरना चाहिये –

”न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।

अजो नित्यं शाश्वतो अयं न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।” (२०,२)

फ़िर वे (३२,२) उसे स्वर्ग का लाभ दिखलाते हैं। अपने आप ही क्षत्रियों के लिये यह स्वर्ग का द्वार खुल गया है, अत: सुखपूर्वक लाभ उठाना चाहिये – ”यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।”

फ़िर वे उसे युद्ध न करने से उत्पन्न पाप का ही डर दिखलाते हैं। यदि तुम यह धर्म युद्ध नहीं करोगे तब यश और अपना धर्म खोकर पाप को प्राप्त होगे –

”अथ चेत्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।” (३३,२)

फ़िर वे उसके पाप के डर का निवारण करते हैं. सुख और दु:ख, लाभ और हानि तथा जय और पराजय को समान मानकर युद्ध करो, तब तुऩ्हें पाप नहीं पड़ेगा –

सुख दु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि। (३८,२)

जब इतने पर भी अर्जुन का मोह नष्ट नहीं होता तब वे इस श्लोक के अर्थ को बुद्धियोग के द्वारा स्पष्ट करते हैं कि सुख दु:ख, लाभ हानि और जय अजय इन सभी को एक कैसे समझें। इसके लिये वे पहले (४२ -४५, २) वेदों की लुभावनी वाणी के द्वारा भोगों की अनुशंसा का विरोध करते हैं क्योंकि भोग तो मनुष्य के चित्त को हर लेते हैं, अर्थात उनकी‌ बुद्धि ठीक से कार्य नहीं करती । आगे (४७,२) वे कहते हैं –

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन। मा कर्मफ़लहेतुर्भूर्मा ते संगस्तु अकर्मणि।।

मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने तक ही है, कर्म के फ़ल में नहीं‌ है। लाभ या हानि, जय या पराजय तथा सुख और दुख यह सभी कर्मों के फ़ल हैं, अत: इन पर उसका अधिकार नहीं है। अत: उसे इन सभी फ़लों की चिन्ता किये बगैर कर्म तो करना ही हैं। और उसे समत्व योग में स्थित रहते हुए कर्म करना है अर्थात सिद्धि और असिद्धि को समान समझते हुए ही कर्म करना है। सिद्धि और असिद्धि को समान समझते हुए कर्म करने से वही कर्म एक ’योग’ बन जाता है – समत्व योग। इसी समत्व योग में स्थित होकर और बिना आसक्त हुए कर्म करना है क्योंकि यह योग कर्म बन्धनों से अर्थात पाप से मुक्त करता है –

योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।सिद्ध्यसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।(४८,२)

दृष्टव्य है कि अब कृष्ण युद्ध की प्रेरणा न देकर कर्म करने की या कहें कर्तव्य करने की प्रेरणा दे रहे हैं, क्योंकि वे समझ गए हैं कि अर्जुन को युद्ध की आवश्यकता, सतही रूप से नहीं‌, वरन जीवन के उद्देश्यों और मूल्यों के मूल में‌ जाकर समझाना है। और इसके बाद वे अर्जुन से युद्ध करने के लिये गीता के अंत में‌ ही कहते हैं, जब उसके सारे संशय नष्ट हो जाते हैं। अब दूसरी तरफ़ देखें, श्री अरविन्द जो क्रान्तिकारी के समान स्वतंत्रता युद्ध में रत थे, कृष्ण ने उनके कारावास के समय उनके सारे संशय दूरकर उऩ्हें क्रान्तिकारी क्षेत्र से हटाकर योग में प्रवृत्त कर दिया। यह क्या रह्स्य है? यही तो गीता की महिमा है कि वह प्रत्येक समस्या के अनुकूल व्यक्ति को सही हल की प्रेरणा देती है और वह स्वयं ही बुद्धियोग में स्थित होकर, मोह से मुक्त होकर सही निर्णय लेता है। यह बुद्धियोग या समत्व योग म� ��ं स्थित होना कैसे होता है? इसमें स्थित होकर कर अर्थात सुख और दु:ख, लाभ और हानि तथा जय और पराजय को समान मानकर कर्म करने से पाप नहीं पड़ता (३८,२)- सुख दु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि। यह जादू कैसे?

पहले पाप समझ लें। पाप के अनेक अर्थ हैं, यहां जो अर्थ उपयुक्त है वह है जो कर्म पैदा करे, सच्चे सुख से दूर ले जाए वह पापकर्म है। कर्म कैसे दुख देता है? हम जब कर्म करते हैं तब लाभ, जय या सुख आदि की प्राप्ति के लिये करते हैं। जब हमें कर्म करते समय कर्मफ़ल कर्म के लिये प्रेरित करते हैं तब वे कर्म के लिये प्रेरणा तो देते हैं किन्तु साथ ही चिन्ता और तनाव भी देते हैं। क्योंकि उसका परिणाम हमारे प ूरे नियंत्रण में नहीं होता। कोई विद्यार्थी स्वर्ण पदक के लिये अच्छी मिहनत तो कर सकता है किन्तु इसकी कोई गारंटी नहीं कि उसे स्वर्ण पदक मिल ही जाएगा। इस कारण से कभी उसके मन में आशंकाएं उत्पन्न होती हैं, वह गैस पेपर खोजने दौ.ड सकता है, या गैसपेपर स्वयं बना सकता है, या स्मरण शक्ति बढ़ाने की दवा खोज सकता है। कौन शिक्षक उस पेपर को बना रहा है, तब उसका अनुमान लगाकर वैसी तैयारी कर सकता है। रा� � रात भर पढ़ने की कोशिश कर सकता है, इत्यादि। गारंटी न होने के अनेक कारण हो सकते हैं। एक कारण तो यह कि अनेक विद्यार्थी उस पदक के लिये परिश्रम करते हैं। दूसरा परीक्षक की जाँच भी पूरी तरह वस्तुपरक न होकर हृदयपरक या कहें कि मूड पर निर्भर करती है। किन्तु उन स्वर्णपदक प्रतियोगी विद्यार्थियों के मन में तो परिणाम के आने तक हलचल मची रहती है, तनाव बना रहता है। ऐसा नहीं है कि केवल परीक्षा का पर िणाम ही चिन्ता देता है, वरन इसके पहले भी, कर्म के पूरे समय यह तनाव बना रहता है कि प्रश्नपत्र कैसा आएगा, अनेक विद्यार्थियों को परीक्षा- बुखार हो जाता है; लिखते समय तनाव बना रहता है कि कहीं गलती‌ न हो जाए, कि सारे उत्तर उस कम समय में देना है इत्यादि। और जब नहीं मिला तब दुख होगा। फ़िर स्वर्ण पदक न मिलने के तरह तरह के कारण खोजे जाएंगे कि वह तो उस शिक्षक का चापलूस विद्यार्थी था, या उसने परीक् षक तक पहुँच लगा ली, आदि व्यर्थ की बातों में, अशान्ति में, समय बीतेगा। और यदि स्वर्ण पदक मिल गया तब तो लम्बे समय तक उसका अर्थात उसकी विजय की खुशी का तनाव बना रहता है, दुंदुभि पीटी जाती है, जो व्यर्थ का अहंकार पैदा करती है। वैसे भी, स्वर्ण पदक का यह अर्थ तो नहीं कि जीवन के अन्य कार्यों में भी उस व्यक्ति का कौशल सर्वश्रेष्ठ हो- अत: बात बात में घोषित किया जाता है कि ”मैं साधारण व्यक्ति नहं हूं, स्वर्ण पदक विजेता हूं।” पढ़ाई का उद्देश्य स्वर्ण पदक नहीं वरन ज्ञान प्राप्त करना होना चाहिये और सारे प्रयत्न उसी दिशा में होना चाहिये, इसमें किसी से प्रतियोगिता नहीं, वरन ज्ञान का आनन्द ही‌ आनन्द है। इसी‌बात को समझाने के लिये मैं आज क्रिकैट का उदाहरण देना चाहता हूं। क्रिकैट खेलने का उद्देश्य अच्छी क्रिकैट खेलना होना चाहिये, पैसा कमाना नहीं। यदि पैसा ध्येय हो गया तब ’ फ़िक्सिंग’ तो होगी‌ ही।

दृष्टव्य यह है कि कर्मफ़ल की चिन्ता किये बिना, अर्थात उस कर्म में आसक्ति के बिना कार्य पूरी क्षमता तथा योग्यता से करना है। इसके भी‌ बाद यदि कार्य में असफ़ल हो गए तो कोई गम नहीं क्योंकि जितना भी अच्छा किया जा सकता था वह कर्म किया गया था, उससे अधिक तो नहीं किया जा सकता था तब अफ़सोस किस बात का! अब उस असफ़लता से सीख़ लेकर आगे बढ़ना है, और उसे भूल जाना है। कर्मफ़लों के लिये काम करना और उऩ्हें याद � �खना यही तो कर्म बन्धन हैं। स्वर्ण पदक मिल गया तो उससे बँध गए और नहीं मिला तो भी बँध गए, यही एक सच्चे अर्थ में‌ पाप है क्योंकि वह दुख देगा ही। वैसे एक बात यहां स्पष्ट हो रही होगी कि सुख भी बंधन है जैसा कि स्वर्ण पदक का मिलना भी बन्धन है। बन्धन ही तो पाप है। यदि किसी ने एक वर्ष एक करोड़ रुपया कमाया और बहुत खुश हुआ, किन्तु अब वह दूसरे वर्ष सवा करोड़ चाहेगा, और इस तरह वह उस के चक्कर में और तद्ज� ��ित तनावों में फ़ँस जाएगा, यही सुख का बन्धन है और इसलिये पाप है। जिस तरह सुख और दु:ख दोनों‌ ही पाप हैं, उसी तरह पाप और पुण्य दोनों‌ ही आपको कर्म बन्धन में‌ बाँधते हैं। पुण्य कर्म अच्छे कर्म तो होते हैं, किन्तु चूँकि आपने उऩ्हें ’पुण्य कमाने हेतु किया है वे आपको बांध लेंगे और अशान्ति देंगे।

य़ह कहकर कि चूंकि प्रत्येक कर्म के साथ सुख या दुख लगा है, कर्म ही‌ नहीं करना है, गलत होगा क्योंकि बिना कर्म किये तो व्यक्ति जीवित ही नहीं‌ रह सकता। तब करना क्या है? पुण्य कर्म तभी करिये कि जब आपको लगे कि वे तो आपके कर्तव्य हैं, जैसे कि गरीबों की सेवा इसलिये नहीं करना है कि पुण्य मिलेगा वरन इसलिये कि एक मानव होने के नाते वह आपका कर्तव्य है, उसमें आपकी‌ इच्छा यश कमाने की‌ भी नहीं है। यह � �ुख या दुख कर्म के साथ नहीं जुड़ा है, वरन आपकी उस कर्मफ़ल की इच्छा या आसक्ति के साथ जुड़ा है। यह कर्म फ़ल की आसक्ति छोड़ना है, वह कैसे? कर्मफ़ल के लिये कर्म न कर अपने कर्तव्यों के लिये कर्म करना है। विद्यार्थी का कर्तव्य है कि वह ज्ञानार्जन करे – यथा संभव यथा योग्य। गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह परिवार का पालन पोषण करे यथा संभव यथा योग्य। इसके लिये परिवार की आवश्यकताओं, अपनी योग्यताओं और सम� ��ज में उपलब्ध संभावनाओं को समझना आवश्यक है। जिसके लिये बुद्धि के विकास की आवश्यकता है। उसी कार्य के लिये विद्यार्थी जीवन है, इसे व्यर्थ के आकर्षण में‌ फ़ँसकर नहीं गवाँ देना है। वैसे बुद्धि का विकास सारे जीवन ही आवश्यक होता है, अत: गृहस्थ जीवन में भी बुद्धि लाभ करते रहना है, टी वी आदि जैसे व्यर्थ काम ही नही वरन हानिकारक कर्म में समय नहीं गँवाना है। टी वी मुख्यतया आपके समय पर कब्जा क आपकी जेब खाली करता है, आपको सोचने और ज्ञान प्राप्त करने के लिये समय नहीं देता है, आपको व्यर्थ की‌ जानकारियों में फ़ँसाता है कि आप भ्रम में रहें कि आपको और आपके बच्चों को बहुत ज्ञान है। टी वी आपको निष्क्रिय बनाकर अपना गुलाम बनाता है, आपको बीमारियां तो बोनस में मिलेंगी; आपके घर में फ़ूट डालता है। यह मैं इसलिये बतला रहा हूं कि जब आप टीवी देखना बन्द कर देंगे तब ही आपको गीता या ऐसे उदात्� � ग्रन्थों के पारायण का समय मिलेगा और आपकी बुद्धि का विकास होगा। निरासक्ति को समझाने के लिये गीता बार बार उसकी चर्चा करती‌ है।गीता (१०, 5) में निरासक्ति का वर्णन है, “ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति य:। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।”

जो व्यक्ति ब्रह्म में स्थित होकर और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है वह जल में स्थित कमलपत्र की तरह पाप से लिप्त नहीं होता। आप कर्म कर रहे हैं, पूरी‌ क्षमता तथा योग्यता से किन्तु वह कर्म आप पर सवार नहीं है, जैसे कमलपत्र के ऊपर स्थित बिन्दु पूरी तरह से उस पर रहते हुए भी पूर्ण स्वतंत्र रहती है, वैसे ही आप भी कर्मबन्धन अर्थात कर्मफ़ल के बन्धन से अर्थात पाप से मुक्त हैं!! इसमें‌ जो शान्ति है, यद्यपि उसकी भी कामना नहीं की गई थी, वह कामनापूर्ति पर होने वाला अर्थात बाँधने वाला सुख नहीं है वरन मुक्ति की शान्ति है, आपके हृदयाकाश के निर्मल होने की शान्ति है। सच्चिदानन्द की दिशा में ले जाने वाली शान्ति है। मात्र होने की चेतना के आनन्द की ही तो प्राप्ति करना है, वही शान्ति तो सच्चा सुख है जिसकी ओर हमें चलना है।

श्री अरबिन्द समझ गए थे कि बिना आत्मज्ञान हुए भारत को जो स्वतंत्रता मिलेगी न केवल वह अपूर्ण होगी क्योंकि उसमें भारतीय संस्कृति का प्रभाव भी अधूरा होगा, वरन वह अस्थाई भी‌ हो सकती है। सच्ची स्वतंत्रता तो तभी होगी जब हम स्वयं अपने शरीर के बन्धनों से अर्थात भोगवाद से मुक्त होंगे और त्यागमय भोग पर आधारित जीवन जियेंगे। उस स्थिति में व्यक्ति केवल भला करता है, जैसा श्री अरबिन्द ने किय। श्री अरबिन्द को जेल में इस सत्य का दर्शन श्रीकृष्ण ने करा दिया था। इसीलिये वे सशस्त्र क्रान्ति को छोड़ कर योग की दिशा में चल दिये थे। वे जानते थे कि भारत की सच्ची स्वतंत्रता का अर्थ है मानव की स्वतंत्रता, संपूर्ण विश्व के मानवों की स्वतंत्रता जिसमें दुखों से मुक्ति भी सम्मिलित है। लोग कहते हैं कि गीता युद्ध की अनुशंसा करती है, किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता के संदेश पर यदि कार्य किय ा जाए तो विश्व में‌ युद्ध ही‌ न हों और शान्ति का साम्राज्य छा जाए ।

अप्रैल फूल की पौराणिक धरोहर

अप्रैल फूल नामक त्योहार दुनिया का एक मात्र धर्मनिरपेक्ष,वर्गनिरपेक्ष,क्षेत्रनिरपेक्ष और अघोषित छुट्टीवाला एक ऐसा ग्लोबल त्योहार है,जिस दिन नुकसानरहित मज़ाक के जरिए एक-दूसरे को सार्वजनिकरूप से मूर्ख बनाने का संवैधानिक अधिकार हर आदमी को फोकट में मिल जाता है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इस दिन के अलावा आदमी आदमी को मूर्ख बनाता ही नहीं है। मगर इस दिन जिस भक्ति भाव से आदमी वॉलेंटियरली मूर्ख बनने को उत्साहपूर्वक राजी हो जाता है,उसके इसी मूढ़ उल्लास ने अप्रैल फूल के पावन पर्व को दुनिया का नंबर एक त्योहार बना दिया है। आखिर आदमी इस दिन मूर्ख बनने को इतना उत्साहित रहता क्यों है,इसका जवाब मेरे अलावा दुनिया के किसी समझदार आदमी के पास नहीं है। विश्वकल्याण की उत्सवधर्मी भावुकता से ओतप्रोत होकर जिसे मैं जनहित में आज सार्वजनिक कर रहा हूं। शर्त ये है कि इसे आप अप्रैल फूल का मज़ाक कतई न समझें। तो ध्यान से सनिए- यह त्योहार उस महान शैतान के प्रति आदमजात के अखंड एहसानों के इजहार का त्योहार है,जिस दिन उसने स्वर्ग के इकलौते आदमी और औरत को वर्जित सेव खिलानें का धार्मिक कार्य किया था। वह एक अप्रैल का ऐतिहासिक दिन था। जब सेव का मज़ा चखने के जुर्म में इस जोड़े को तड़ीपार के गैरवपूर्ण अपमान से सम्मानित करके ईश्वर ने दुनिया में धकेल दिया था। न शैतान सेव खिलाता न दुनिया बसती। मनुष्य जाति को बेवकूफ बनाने के धारावाहिक सीरियल का ये सबसे पहला एपीसोड था। आज भी धारावाहिकों के जरिए आदमी को बेवकूफ बनाने का ललित लाघव पूरी शान से जारी है। सारी दुनिया उस शैतान की एहसानमंद है जिसके एक ज़रा से मजाक ने सदियों से वीरान पड़ी दुनिया बसा दी। ज़रा सोचिए अगर ये दुनिया नहीं बसती तो आजके प्रॉपर्टी डीलरों की मौलिक प्रजाति तो अप्रकाशित ही रह जाती। इसीलिए शैतान और शैतानी को जितने पवित्र मन से यह लोग सम्मानित करते हैं,दुनिया में और कोई नहीं करता। ये दुनिया एक शैतान की शैतानी का दिलचस्प कारनामा है। जहां चोर है,सिपाही है। मुहब्बत है,लड़ाई है। बजट है,मंहगाई है। इश्क है,रुसवाई है।नेता है,झंडे हैं। मंदिर हैं,पंडे हैं। तिजोरी है,माल है। ये सब अप्रैल फूल का कमाल है। दुनिया वो भी इतनी हसीन और नमकीन कि देवता भी स्वर्ग से एल.टी.ए.लेकर धरती पर पिकनिक मनाने की जुगत भिड़ाते हैं। और अपनी लीलाओं से मानवों को अप्रैल फूल बनाते हैं,कभी-कभी खु़द भी बन जाते हैं। विद्वानों का तो यहां तक मानना है कि देवता इस धरती पर आते ही लोगों को अप्रैल फूल बनाने के लिए हैं,क्योंकि स्वर्ग में इसका दस्तूर है ही नहीं। यह तो पृथ्वीवासियों की ही सांस्कृतिक लग्जरी है। जो शैतान के सेव की सेवा से आदम जात को हासिल हुई है। देवता इसे मनाने के लिए अलग-अलग डिजायन के बहुरूपिया रूप धरते हैं। वामन का रूप धर के तीन पगों में तीन लोकों को नापकर राजा बली को बली का बकरा मिस्टर विष्णु ने पहली अप्रैल को ही बनाया था। अप्रैल फूल बनाने का चस्का फिर तो इन महाशयजी को ऐसा लगा कि अगले साल मोहनीरूप धर के भस्मासुर नाम के किसी शरीफ माफिया का बैंड बजा आए। तो किसी साल शेर और आदमी का टू-इन-वन मेकअप करके हरिण्यकश्यपु नामक अभूतपूर्व डॉन को भूतपूर्व बना आए। अप्रैल फूल की विष्णुजी की इस सनसनाती मस्ती को देखकर अपने जी स्पेक्ट्रमवाले राजा नहीं,सचमुच के स्वर्ग के, सच्चीमुच्ची के राजा इंद्र का भी मन ललचा उठा। इंद्रासन छोड़कर,सारे बंधन तोड़कर पहुंच गए मुर्गा बनकर गौतम ऋषि के आश्रम पर। ऐसी कुंकड़ूं-कूं करी कि भरी रात में ही अपने अंडर गारमेंट्स लिए बाबा गौतम पहुंच गए नदी पर नहाने। वहां आदमी-ना-आदमी की जात। समझ गए कि किसी ने अप्रैल फूल बना दिया है। मुंह फुलाए घर पहुंचे तो अपने डमी-डुप्लीकेट को बेडरूम से खिसकते पाया। अप्रैल फूल बनने की खुंदक शाप देकर वाइफ पर उतारी। शिला बन गई बेचारी। जब दैत्यों को भनक लगी कि स्वर्ग से आकर देवता अप्रैल फूल- अप्रैल फूल खेल रहे हैं तो उन्होंने भी देवताओं को अप्रैल फूल बनाने की ठान ली। सोने का हिरण बनकर,अपने पीछे दौड़ाकर जहां मारीचि ने श्रीयुत रामचंद्र रघुवंशीजी को अप्रैल फूल बना दिया,वहीं रावण ने साधु का वेश धारण कर सीताजी को लक्ष्मण-रेखा लंघवाकर हस्बैंड-वाइफ दोनों को अप्रैल फूल बना डाला। ये त्योहार है ही ऐसा। देवता और दैत्य सब एक-दूसरे से मज़ाक कर लेते हैं। फर्श ऐसा लगे जैसे पानी का सरोवर। महाभारत काल में ऐसे ही स्पेशल डिजायन के महल में दुर्योधन को बुलाकर द्रौपदी ने उसे अप्रैल फूल बनाया था। मगर दुर्योधन हाई-ब्ल्ड-प्रेशर का मरीज था।मज़ाक में भी खुंदक खा गया। और उसने अगले साल चीर हरण के सांस्कृतिक कार्यक्रम के जरिए द्रौपदी को अप्रैल फूल बनाने की रोमांचक प्रतिज्ञा कर डाली। मगर द्रौपदी के बाल सखा मथुरावासी श्रीकृष्ण यादवजी को भनक लग गई। ऐन टाइम पर साड़ी का ओवर टाइम उत्पादन कर के उन्होंने कौरवों की पूरी फेमिली को ही अप्रैल फूल बना दिया। मज़ाक को मजाक की तरह ही लेना चाहिए। अब हमारे नेताओं को ही लीजिए। पूरे पांच साल तक जनता को अप्रैल फूल बनाते हैं। कभी मूड में आकर कहते हैं कि हम भ्रष्टाचार मिटा देंगे। जनता तारीफ करती है। कि नेताजी का क्या गजब का सेंस ऑफ ह्यूमर है। फिर नेताजी भ्रष्टाचार,घोटाले में फंस जाते हैं। जनता हंसती है- अब नेताजी कुछ दिन सीबीआई-सीबीआई खेलेंगे। हाईकमान ने तो क्लीनचिट देने के बाद ही घोटाला करवाया है,नेताजी से। सब अप्रैल फूल का मामला है। इसका अंदाज ही निराला है। पूरा जी स्पैक्ट्रमवाला है। कसम,कॉमनवेल्थ गेम की। हम सब भारतवासी खेल के नाम पर भी खेल कर जाने वाले खिलाड़ियों के खेल को भी खेल भावना से ही लेते हैं। अप्रैल फूल त्योहार की अपनी अलग कूटभाषा है। जिसने बना दिया वो सिकंदर जो बन गया वो तमाशा है। अप्रैल फूल,मूर्ख बनाने का मुबारक जलसा, जो भारत से ही दुनिया के दूसरे देशों में एक्सपोर्ट हुआ है। हमारे आगे टिकने की किसमें दम है। न्यूजीलैंड,इंग्लैंड,आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका में दोपहर के 12 बजे तक ही अप्रैल फूल का मजाक चलता है। फ्रांस,अमेरिका,आयरलैंड,इटली,दक्षिण कोरिया.जापान,रूस,कनाडा और जर्मनी में यह पूरे दिन चलता है। मगर हमारे देश में यह मज़ाक जीवन पर्यंत चलता है। अप्रैल फूल के मजाक को याद करके हम भारतवासी मरणोपरांत भी हंसते रहते हैं। और जबतक ज़िंदा रहते हैं नमक और मिर्च को बांहों में-बांहें डाले अपने ही जख्म के रेंप पर डांस करता देखकर बिलबिलाकर उनके साथ भरतनाट्यम करते हुए अप्रैल फूल –जैसे प्राचीन पर्व की आन-बान-शान को हम ही बरकरार रखते हैं। अप्रैल फूल त्योहार का कच्चा माल हम भारतीय ही हैं। अप्रैल फूल मनाने का ग्लोबल कॉपीराइट भारतीयों के ही पास है।क्योंकि सबसे पहले अप्रैल फूल बननेवाले इस दुनिया में ही नहीं जन्नत में भी हम भारतीय ही थे। शैतान के सेव के सनातन सेवक। वसुधैव कुटुंबकम..सारी दुनिया हमारी ही फेमली है। और अप्रैल फूल हमारा ही फेमिली फेस्टिवल है।

इस हमाम में सब नंगे है……

संसद का शीतकालीन सत्र बर्बाद करने वाले टू जी स्पेक्ट्रम से लेकर सीवीसी थॉमस की नियिुक्त जैसे मामलो पर भी विपक्ष ने प्रधानमंत्री का इस्तीफा माँगने से परहेज किया। लेकिन “नोट के बदले वोट’’ का जिन्न विकिलीक्स के खुलासे के बाद एक बार फिर बोतल से बाहर आकर सरकार के सिर पर मंडराने लग गया है। परमाणु करार पर 14वी लोकसभा में यूपीए सरकार से मात खा चुके विपक्ष को अब 15वी लोकसभा में उसे घेरने का यह अच्छा मुद्दा मिला है जिसे वो हाथ से जाने नही देना चाहता है। विकिलीक्स के खुलासे के बाद विपक्ष ने पूरी एकजुटता के साथ लोकसभा और राज्यसभा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिॅह के ब्यान और इस्तीफे की मांग की। दरअसल जुलाई 2008 में एटमी करार के मुद्दे पर लेफ्ट के सर्मथन खीचने के बाद अल्पमत में यूपीए सरकार के लिये राष्ट्रीय लोकदल के सांसदो में से हर एक को दस दस करोड़ रूपये बतौर रिश्वत देकर सरकार द्वारा बहुमत जुटाने की कोशिश के विकिलीक्स के खुलासे के बाद देश में एक बार फिर सियासी हल्खो में बवंडर खडा हो गया। इस प्रकार सांसदो की खरीद फरोक्त से बहुमत हासिल कर सरकार को बचाने और चलाने से एक ओर जहॉ पूरे विश्व में भारत की छवि खराब हुई है वही दूसरी ओर भारतीय लोकतंत्र भी कलंकित हुआ है।

यू तो इस फार्मूले को हर दौर में सरकार के गठन के लिये अपनाया गया है। कभी पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव पर भी सांसदो की खरीदफरोख्त के आरोप लगे थे। मधु कोडा़, अशोक चव्हाण, ए राजा, सुरेश मलमाडी, पृथ्वी राज चव्हाण सब अपने अपने क्षेत्र के माहिर है। भ्रष्टचार के तमाम आरोपो के बावजूद इनके माथे पर शिकन तक नही आ रही आखिर क्यो। इस की एक वजह हमारा लचीला कानून और दूसरा कारण ये तमाम लोग राजनीति में इतने रच बस गये है कि इन्हे सॉप सीढ़ी  के खेल की तरह हर खाने में चलना और बचना आ गया है। ये लोग तमाम दॉव पेंच से पूरी तरह वाकिफ है या यू भी कह सकते है की राजनीति के इस हम्माम में सारे नंगे है जिस का फायदा ऐसे कुछ लोग उठा रहे है। आजादी के बाद दो तीन दशक तक तो सब कुछ ठीक ठाक चलता रहा पर इस के बाद धीरे धीरे राजनीति और राजनेताओ के चुनने में आम आदमी भटकने लगा। नतीजा राजतंत्र लूटतंत्र में बदल गया राजनेता संसद भवन पहुचने के लिये साम, दाम, दण्ड, भेद वाली चाणक्य नीति अपनाने लगे। चोर लुटेरो ने खद्दर पहननी शुरू कर दी और देश में लूटपाट का बाजार गर्म हो गया। रक्षक भक्षक हो गये संसदीय लोकतंत्र की आड़ लेकर कुछ नेताओ ने देश को लूट कर अन्दर ही अन्दर खोखला कर दिया आर्थिक तरक्की के मामले में नए मुकाम बननाने का दावा करने वाला भारत आज भ्रष्टाचार, घोटालो, और काले धन के मामले में नित नये नये कीर्तिमान बना रहा है। आज माननीय उच्च न्यायालय, हमारी सरकार, देश के वरिष्ठ अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, सरकारी नुमाईन्दे व विपक्ष सहित पूरा भारत काले धन की समस्या से चिंतित है कि आखिर किस प्रकार इस समस्या से निबटा जाये साथ ही सरकार द्वारा इस मसले पर भी जोर आजमाईश की जा रही है की आखिर सरकार उन लोगो के नामो को किस प्रकार सार्वजनिक करे जिन भारतीयो के नाम विदेशी बैंको में कुबेर का खजाना जमा है। पर इस सब के साथ ही सरकार के सामने इक बडी चिंता ये भी आ रही है कि भारत का सकल घरेलू उत्पाद ब रहा है, देश भी संपन्न हो रहा है पर देश का एक बडा वर्ग निरंतर गरीब होता जा रहा है दाने दाने को मोहताज होता जा रहा है। कल कारखानो में कर्मचारियो की छटनी हो रही है देश के कर्णधार नौजवान डिग्री लिये एक आफिस से दूसरे आफिस नौकरी के लिये चक्कर काट रहे है हर जगह नोवेकंसी का बोर्ड लगा है। देश में संसाधन बे है हम मजबूत हुए है फिर भी ऐसा आखिर ऐसा क्यो हो रहा है। देश के बडे बडे अर्थशास्त्री सोच सोचकर परेशान है। दरअसल इस मुद्दे पर देश के कुछ प्रभावशाली अर्थशास्त्रीयो का ये मानना है कि देश के कुछ प्रभावशाली और भष्ट लोगो ने देश का एक बडा धन विदेशी बैंको में जमा करा रखा है। जिस पैसे से भारत तरक्की करता, कल कारखाने तरक्की के गीत गाते, जिस पैसे से स्वास्थ्य सेवाए देशवासियो को मिलती, ग्रामीण इलाको में सडको का जाल बुना जाता आज वो पैसा स्विस बैंक की कालकोठरी में बंद है और सरकार चुप है। राष्ट्र संघ में इस मुद्दे पर वर्षो चर्चा हुई पर नतीजा कुछ नही।

विकिलीक्स के खुलासे के बाद 18 मार्च 2011 को लोकसभा को दिये अपने ब्यान पर दोनो सदनो में हुई चर्चा का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिॅह ने कहा कि उन की सरकार इन आरोपो को पूरी तरह खारिज करती है। प्रधानमंत्री ने कहा कि नोट के बदले वोट मामले की जॉच लोकसभा की एक समिति ने की थी और उसकी सिफारिश के आधार पर ये मामला आगे जॉच के लिये दिल्ली पुलिस और अपराध शाखा को सौपा गया था जिस की जॉच जारी है। लेकिन अब तक संसदीय समिति को ऐसा कोई ठोस सबूत नही मिला जिस के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि कोई रिश्वत ली या दी गई है। प्रधानमंत्री के दोनो सदनो में दिये इस ब्यान के बाद खूब हंगामा हुआ शोर शराबा हुआ और सच हमेशा के लिये दफन हो गया। क्यो कि संसद के दोनो सदनो में सांसद खरीद फरोख्त कांड की पुष्टि करने वाले विकिलीक्स खुलासे पर लम्बी बहस और तर्क और वितर्क के बावजूद भी यह उजागर नही हो सका कि 22 जुलाई 2008 में लोकसभा में मनमोहन सरकार द्वारा रखे गये विश्वास प्रस्ताव को 545 सदस्यो की इस सभा में 275 मत किस प्रकार मिले जबकि सदन में यूपीए1 सदस्यो की संख्या केवल 231 थी और उसे घोषित रूप से सर्मथन देने वाले समाजवादी पार्टी सांसदो की संख्या 36 थी इस के अलावा 8 सदस्यो वाले वामपंथी मोर्च द्वारा अमेरिका से परमाणु करार के मुद्दे पर सर्मथन वापस लेने से यूपीए1 स्पष्ट रूप से अल्पमत में आ गई थी। यूपीए1 की गठबंधन सरकार के हर सहयोगी ने सर्मथन के नाम पर सरकार से जमकर ब्लैकमेलिंग की और मलाईदार मंत्रालय की मलाई खाई। हमारे देश के भोले भाले प्रधानमंत्री जी चाहे कितनी सफाई दे पर ये तो मानना ही पेगा कि यूपीए1 और यूपीए2 में फैले तमाम भ्रष्टाचार में उनका दामन साफ नही

कन्या भ्रूणहत्या देश और समाज के लिये अभिशाप।

आज इस कलयुग में जहॉ कुछ लोग बेटी के जन्म को मुसीबत मानने लगे है और कन्या भ्रूण हत्या का प्रचलन तेजी से बता चला जा रहा है। बेटी के पैदा होने पर घरो में मातम छा जाता है।

 साझे चूल्हे और संयुक्त परिवार लगभग खत्म होते जा रहे है। हर एक रिश्ता सिर्फ और सिर्फ मतलब का रिश्ता बनता चला जा रहा है। वही आज कन्या भ्रूणहत्या रोकने के लिये राम के इस देश भारत में एक जिला ऐसा भी है जिस में बसने वाले लोग खासकर युवा वर्ग आज जिस युग में जी रहे है उसे रामराज कहना ही उचित होगा। सोनभद्र जिले के राबर्टगंज ब्लाक के छोटे छोटे तीन गॉव मझुवी, भवानीपुर और गडईग के 60 युवाओ ने एक मण्डली तौयार की है। मण्डली अपने गॉव में होने वाली किसी भी धर्म और जाति की कन्या की शादी में टेंट,तम्बू से लेकर बर्तन भान्डे का काम खुद सभालती है।ं इस समूह ने बडे बडे दानियो से दान लेकर नही बल्कि खुद अपने संसाधनो से शादी ब्याह में काम आने वाले तमाम छोटे बडे साजो सामान जुटा लिये है। संगठन से जुडे युवा लडकी के घर वालो को आर्थिक मदद देने के साथ साथ मिनटो में हर सामान की व्यवस्था कर देते है।इस युवा समूह के सदस्य शादी ब्याह के वक्त लडके वालो की आवभगत और खाने पीने की व्यवस्था भी खुद ही देखते है। सन 2002 में बने इस संगठन के द्वारा लाभान्वित कई ग्रामिणो का कहना है कि उन्हे बेटी की शादी में कोई भी परेशानी या भाग दौड नही करनी पडती है।
पिछले वर्ष 2009 के राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आकडो के अनुसार कन्या भ्रूण हत्या के मामलो में पिछले कई वर्ष से आज भी पंजाब की हालत सब से ज्यादा खराब है। पिछले तीन सालो में देश भर में दर्ज हुए कुल 294 मामलो में 81 मामले अकेले पंजाब में भ्रूण हत्या के थे। हालाकि हम सब जानते है कि ये आंकडे वास्तविक आंकडो से बहुत कम है वास्तविक आकडे इस से कही ज्यादा होते है क्यो कि इन आंकडो से छनकर आती सच्चाई यह है कि आज देशभर में लाखो कि तादाद में अल्ट्रासाउड केन्द्र कुकरमुत्तो की तरह खुले है आज डाक्टर बिना किसी डर खौफ के भ्रूण परिक्षण करते है जिस कारण आज सामाजिक संरचना में अनेक विकृतिया आ रही हैं ऐसा नही है कि इस प्रवृति को रोकने के लिये कोशिश नही कि जा रही है।लेकिन भ्रूणहत्या का यह रक्तबीज ऐसा है कि एक जिले में सफाये के बावजूद दूसरे जिले में प्रकट हो जाता है।वर्ष 1991 की जनगणना में पंजाब में 1000 पुरूषो में 882 स्ति्रया थी ,2001 में ये सॅख्या घटकर 874 हो गई जबकि पुरूषो के मुकाबले स्ति्रयो कि यह संख्या देश में प्रति 1000 से 927 से बकर 933 हो गई। आज देशभर में भ्रूणहत्या के आंकडे यह कहते है कि जो परिवार ज्यादा संपन्न और पढ़े  लिखे है वो लोग ही इस अपराध में ज्यादा डूबे हूए है, जो कि आज देश और समाज के लिये सब से बडी चिन्ता का विषय है। इस पर देश का दुर्भाग्य यह है हमारे देश के धार्मिक नेता धर्म बचाए रखने की अपील करते रहते है पर कन्या भ्रूणहत्या रोकने की अपील अपने अपने समाज से नही करते। क्या केवल सरकार के प्रयासो से ही कन्या भ्रूणहत्या करने वाले और करवाने वाले राक्षसो पर नकेल कसी जा सकती है। शायद ये सम्भव नही है,इस के लिये धार्मिक,सामाजिक और प्रशासनिक ,सारे स्तरो पर हमे मिलकर काम करना होगा।
यू तो बेटी का विवाह एक सामाजिक परम्परा है। लेकिन अगर ऐसी ही एक सोसायटी हम सब लोग भी मिलकर बना ले और आपस में एक दूसरे का हाथ बटाने लगे तो बेटियो की शादी हम लोग और अच्छे  से कर सकते है। इन युवाओ की पहल और इन के इस जज्बे को पूरे देश को सलाम करना चाहिये और अपनाना चाहिये आज इस दौर की जरूरत इस अच्छी और आपसी प्रेम और भाईचारे को बनाने वाली इस परम्परा को। किन्तु आज हम लोग जिस समाज का हिस्सा बन रहे है उस में हिन्दी मराठी बिहारी के झगडे है,तो कही मन्दिर मस्जिद के झगडे है प्रेम का रिश्ता, अपनापन, छोटे बडे का आदर, मॉबाप का सम्मान, राष्ट्रप्रेम और कुर्बानी का जज्बा, बिल्कुल दिखाई नही दे रहा। दिखाई दे रहा है। झूट कपट, घात प्रतिघात, भाई भाई में नफरत, घरो में फूट, हिँसा, बेहयाई।
क्यो आज हम अपनी सभ्यता अपने आर्दशो और अपनी अपनी उन मजहबी किताबो के उन रास्तो से भटकने लगे है जो हमे इन्सान बनाती है और अच्छे और सच्चे रास्तो पर चलना सिखाती है। इन्सान से मौहब्बत करना सिखाती है। शायद पैसे का लालच, समाज में मान सम्मान पाने का जुनून, अपने बच्चो के लिये राजसी सुख सुविधाओ का ख्वाब या फिर आज हमारे समाज में विकराल रूप धारण कर चुके दहेज के दानव के कारण हम कन्याओ को जन्म दिलाने से डरने लगे है जो कि कन्या भ्रूणहत्या का मुख्य कारण है। किन्तु आज हम इन्सान, इन्सान बनना क्यो भूलते जा रहे है ये हम सब को सोचने की जरूरत है क्यो कि इत्तेफाक से हम सब इन्सान है। बेटियो से घर आंगन में रौनक है। ममता, प्रेम, त्याग, रक्षा बन्धन और ना जाने कितनी परम्पराये जीवित है। कन्या भ्रूणहत्या पाप ही नही देश और समाज के लिये अभिशाप है।

ऑनर किलिंग॔ से कुदरत को बडा खतरा

आज देश में ऑनर किलिंग का फैशन चल निकला है। बेगुनाह और बेकसूर लडके लडकियो को कही इज्जत के नाम पर कही बडी बडी मूॅछो के नाम पर कही खानदान के रिति रिवाजो के नाम पर मारा जा रहा है। झूठे मान सम्मान के नाम पर फूल से मासूम बच्चो की हत्याओ का दौर अनवरत जारी है। आरोपियो को सजा न होने का नतीजा यह है कि दिन प्रतिदिन ऑनर किलिंग के मामले देश में बढ़ते ही जा रहे है। खाप पंचायते संगोत्र शादिया करने वाले लडके और लडकियो की जान की दुश्मन हो गई है। इन खाप पंचायतो के पंचो का मानना है कि एक गोत्र में शादी करने का मतलब भाई बहन की शादी। इन सिर फिरे मान सम्मान के  ठेकेदारो को कौन समझाए कि एक गोत्र में लाखो लोग होते है जो दुनिया में हर जगह फैले होते है। ये एक दूसरे को जानते तक नही इन में खून का रिश्ता भी नही होता। खानदान एक नही, परिवारिक रिश्ता नही फिर भाई बहन कैसे हो गये। आखिर ये कैसी संकीण मानसिक्ता है। देश के जिम्मेदार लोग भी इस मसले पर खामोश है, नेताओ का तो कहना ही क्या उन्हे तो चुप रहना ही है क्यो की उन्हे तो वोट चाहिये, चाहे देश के भविष्य के गले पर छुरी चले या सीने में गोली लगे, या फिर उसे जिन्दा आग के हवाले कर दिया जाये। इन को इस बात की चिंता नही। कन्या भ्रूणहत्या, दहेज हत्याओ के कारण पहले ही देश में पुरूषो के मुकाबले स्त्री अनुपात काफी कम होता जा रहा है यदि ये ऑनर किलिंग का शौतान समय रहते न रूका तो देश में लडकियो का एक बडा संकट पैदा हो जायेगां
इन खाप पंचायतो ने गोत्र के मान सम्मान की दुहाई दे देकर इंडिया शाईनिंग के इस दौर में आज जो कत्ले आम मचाया हुआ है उस सब से देश तो दुॅखी है ही साथ ही हमारे पूर्वज, महान समाज सुधारक राजा राम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विघा सागर, ज्योतिबा फुले महात्मा गॉधी जैसे महापुरूषो की आत्माए आज बडी बैचेन हो रही होगी। वही ओम प्रकाश चौटाला जैसे देश के जिम्मेदार लोग ऑनर किलिंग को सही बताने से भी नही चूक रहे है। खुले तौर पर न्यूज चैनलो पर भविष्य में ऐसी और हत्याए करने का लोग बिना किसी कानूनी खौफ के ऐलान कर रहे है। पर सवाल ये उठता है की बेगुनाह बच्चो को अल्प आयु में मौत की नींद सुला रहे ये यमराज के वंशज क्या आज अपने बुर्जुगो के पद चिन्हो पर चल रहे है। अपने खानदान या अपने बुर्जुगो कों उतना मान सम्मान दे रहे है जितना देना चाहिये। हम जी तो रहे है इक्कीसवी सदी में और बाते करते है 14वी सदी की आज जिस प्रकार का समाज हम लोगो ने बनाया हुआ है क्या उस समाज में ये हत्याए, बेबुनियाद, बेवजह, बेतुकी, समाज में पाप और घृणा नही फैला रही। हमे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम नही कर रही, आखिर तालिबानी सोच और हमारी सोच में क्या अन्तर रह गया। क्या हम कट्टरपंथी नही हो गये,रूीवादी नही हो गये ?।
एक तरफ देश में महिलाओ को बराबरी देने की बात की जा रही है संसद में महिला विधेयक पास हो चुका है। महिलाओ के उत्थान के लिये सरकार नई नई योजनाये बना रही है। आज सह शिक्षा और टीवी चैनलो इन्टरनेट आदि के जरिये स्त्रीपुरूष के सम्बन्धो में जितना खुलापन आया है क्या वो लोगो को नजर नही आ रहा। जात पात का को आज कहा है। गॉव और कस्बो को छोड दे तो बडे शहरो में जो लोग बाहर से आकर बसे है वो किस जाती के है कहा के है उन का खानदान कैसा था क्या किसी को पता रहता है। इसी समाज से ताल्लुक रखने वाले अमीर, पे लिखे सामथ्र्यवान लोगो में ऐसे मामले देखने को अधिक मिलते है जिन्होने जातपात, कट्टरपंथी ,रूीवादी तमाम नियमो से ऊपर उठकर अधिक सॅख्या में प्रेम विवाह ही किये है और सफल रहे है। कारण पे लिखे खुले विचार वाले तरक्की पसन्द लोगो पर सामाजिक दबाव काम नही करता। गॉव और कस्बो में सामान्यतः अधिकतर लडके लडकिया अपनी जाति और पारिवारिक सोच और अपने परिवार को विश्वास में लेकर शादिया करते है। पर प्रगति की ओर अग्रसर समाज को देखते हुए गॉव और कस्बो में भी समय के साथ साथ लडके लडकियो का सामाजिक दायरा ब रहा है। सोच बदल रही है युवा अपनी पसन्द को लेकर मुखर हो रहे है। जो आज कट्टरपंथी ,रूीवादी लोगो के गले नही उतर रही है। ये लोग आज भी चौदाह सौ बरस पहले कि उसी रूयिो, मान्यताओ और नैतिकता के दौर में जी रहे है, जिन में इन के दादा परदादा रहा करते थे।
ये ऑनर किलिंग शौतान आया कहा से क्या किसी ने इस ओर कभी सोचा। ॔आनर ’यानी इज्जत। ये शब्द पूरा का पूरा विदेशी है उन्नीसवी सदी में स्पेन और इटली में इस का पहली बार प्रयोग हुआ। जॉर्डन में यदि पति अपनी पत्नी या किसी अन्य रिश्तेदार को बदचलनी करते हुए पाये तो वह उन की हत्या कर सकता है यानी ऑनर किलिंग पर उसे कोई दंड नही मिलेगा। दंड सहिता की धारा 340 उसे इस अपराध से मुक्त करती है। गाजा पट्टी, फिलिस्तीन और पिश्चमी किनारा में भी जॉर्डन के कानून को ही मान्यता मिली हुई है। यहा भी हर माह 34 महिलाओ की ऑनर किलिंग होती है। सीरिया में दंड सहिता की धारा 548 के तहत बदचलन पत्नी या महिला रिश्तेदार की हत्या सामान्यता अपराध नही है। इस इस में आरोपी को बहुत कम सजा देने का प्रावधान है। मोरक्को यहा महिलाओ की ऑनर किलिंग पर लगभग न की बराबर सजा का प्रावधान है। मिस्र में महिलाओ की ऑनर किलिंग पर दंड संहिता की धारा 17 न के बराबर सजा का प्रावधान है। चेचेन्या में ऑनर किलिंग पूरी तरह वैध है। पाकिस्तान यहा महिलाओ की ऑनर किलिंग को ॔॔कारो कारी’’ कहा जाता है। यहा पुलिस ऐसे तमाम केसो को नजर अन्दाज करती है। ऐसे ऑनर किलिंग के केसो को वहा आज भी अपराध नही माना जाता है। पाकिस्तान में वर्ष 2003 में ऑनर किलिंग के नाम पर लगभग 1261 महिलाओ को मौत के घाट उतारा गया था। आखिर जात पात और सभ्यता की दुहाई देने वालो से कोई क्यो नही पूछता कि हमारे देश को ये ऑनर किलिंग का को कब और क्यो और किसने लगाया।
क्यो आज हम अपनी कट्टरपंथी ,रूीवादी सभ्यता अपने आर्दशो, झूठे मान सम्मान की खातिर अपने जिगर के टुक्डो के टुक्डे करने लगे है। जिन बच्चो के पॉव में अगर कांटा भी लग जाये तो हम लोग तडप जाते है आज हम उन्ही बच्चो के गले पर छुरिया चले रहे है। झूटे मान सम्मान की खातिर उन्हे जिन्दा जला रहे है। खाप, गोत्र व खानदान की इज्जत का खौफ दिखा कर देश की प्रगति और देश के भविष्य की यू बलि चाकर हम अपना और अपने परिवार का खुद नुकसान कर रहे है। क्या भगवान ने हमे गुप्ता, अग्रवाल, वैश्य, पंडित, हरिजन जुलाहा, नाई, बनाकर संसार में भेजा है भगवान ने संसार की रचना कैसे की एक औरत और एक मर्द को धरती पर भेजा हम सब उसी की संतान है। यू भी हम एक भगवान की संताने है। आज हम अपनी मजहबी किताबो के उन रास्तो से क्यो भटकने लगे है जो हमे इन्सान बनाती है और अच्छे और सच्चे रास्तो पर चलना सिखाती है। इन्सान से मौहब्बत करना सिखाती है। शायद पैसे का लालच, समाज में झूठा मान सम्मान पाने का जुनून, या फिर आज हमारे समाज में विकराल रूप धारण कर चुके दहेज के दानव के कारण हम लडकियो को मौत की नींद सुलाने लगे है। कन्याओ को जन्म दिलाने से डरने लगे है। पर ऑनर किलिंग करते वक्त शायद हम ये भूल जाते है कि बेटियो से घर आंगन में रौनक है। ममता, प्रेम, त्याग, रक्षा बन्धन और इस संसार का वजूद कायम है।

प्यार करे तो इजहार भी करे

में उस से प्यार करने का अलग अन्दाज रखता हॅू।
लबो को बन्द रखता हूॅ नजर से बात करता हॅू॥

प्यार कब, क्यो और कैसे होता है ठीक ठीक आज तक कोई नही बता सका। प्यार अन्धॉ होता है, प्यार दिवाना होता है, प्यार पागल होता है बरसो से सुनते चले आये है। दरअसल प्यार एक बहुत ही प्यारा बहुत ही धीमा जहर है। यू तो प्यार ऑखो के रास्ते दिल में उतरता है पर कई बार ये परवान चढ़ने में थोडा वक्त लेता है। प्यार का इजहार पहले कौन करे महीनो इसी में बीत जाते है। दो प्यार करने वाले सामने वाले की ओर से पहल का इन्तेजार करते रहते है। दिलो में प्यार होने के बावजूद पहले आप पहले आप में कोई तीसरा बाजी मार ले जाता है। शर्म, झिझक और संकोच के कारण कभी कभी प्यार जुबा पर नही आ पाता। और ऐसा प्यार दिल ही दिल में दम तोड देता है।
आज प्यार का इजहार करने के कई साधन है मोबाईल, ग्रीटिग कार्ड, इन्टरनेट चेटिग, रेस्टोरेन्ट, पिकनिक पाईंट आदि। पुराने जमाने में प्यार करने वालो पर किस कदर पहरे, सख्ती थी आज प्यार करने वालो को प्यार करने की खुली आजादी है। पुराने दौर में ज्यादातर हिन्दी फिल्मो में दिल ही दिल में प्यार करने वाली और हीरो के प्यार का इजहार करने पर शर्मा कर मुॅह में ऊगली के संग रूपट्टा दबाती हीरोईन दूर पेड की आड में छुपी हुई हीरो को देखकर मद मद मुस्कुराती भला कौन भूल पाया है। आज कल की फिल्मो में मारधाड नंगेपन के अलावा कुछ नजर नही आता। एक वो दौर था जब प्रेम पर आधारित फिल्मे बनती थी। लैला मजनू,हीर राझा,सोनी महीवाल,मुगले आजम ,अनारकली,पाकिजा, पे्रमरोग, बाबी, ताज महल, लव स्टोरी, एक दूजे के लिए,बरसात की एक रात, बहू बेगम, साहब बीवी और गुलाम, मेरे महबूब, मेरे हुजूर, पालकी, आरजू, कभी कभी, आदि बेशुर फिल्मो ने हमारे दिलो में पाक मौहब्बत का जज्बा पैदा किया। प्यार क्या होता है क्यो होता है इन फिल्मो ने सच्चे प्यार करने वालो को एक बहुत ही अच्छी गाईड लाईन दी। सच्ची और पाक मौहब्बत की नींव हमारे समाज में डाली।
लेकिन आज भी प्यार का इजहार करने शादी का प्रस्ताव रखने के लिये आमतौर पर युवको को ही क्यो पहल करनी पडती है। समाज से लडने के लिये प्यार का इजहार करने के लिये युवतिया आगे क्यो नही आ पाती,प्यार का इजहार करने और शादी का प्रस्ताव रखने में क्यो हिचकिचाती है। शायद युवतिया में ये हीन भावना रहती है की कही उन के पहले पहले प्यार को कोई ठुकरा न दे। लडकिया अपने मनपसन्द सपनो के राजकुमार को प्रपोज करने से यू भी हिचकिचाती है की यदि उस की एक ना ने उसके सारे सपने चूर चूर कर दिये तो क्या होगा। इस से ये ही अच्छा है की वो उस के द्वारा प्रपोज किये जाने का इन्तेजार करे। यदि ये सोचकर युवतिया प्यार का इजहार करने का विशोषाधिकार युवको को देती है तो ये निहायत ही बेवकूफी भरी बात है। किसी लडकी का किसी लडके को प्यार में पहले प्रपोज करना यह दिखाता है की उस के अन्दर आत्मविश्वास की कोई कमी नही है और वो परिणाम की चिन्ता किये बगैर अपने दिल की बात कह सकती है। अपनी जिन्दगी से सम्बन्धित फैसले करने की उस में हिम्मत है। क्यो कि सदियो पहले राजकुमारिया स्वयंवर के जरिये अपनी पसंद का राजकुमार चुनती थी यानी युवतियो को पहले प्रपोज करना चाहिये आखिर उन्हे भी तो हक है अपनी पसन्द का राजकुमार चुनने का बताने का, देखने का।
एक बात यहा यह भी जरूरी है कि प्यार की बुनियाद कभी भी झूठ पर नही रखनी चाहिये। विवाह और प्यार दोनो ही बडे पवित्र और नाजुक रिश्ते है विवाह जैसे स्थाई जन्म जन्मान्तर के रिश्ते की नीव यदि आप झूठ पर रखेगे तो रिश्ता बहुत जल्द टूट जायेगा। प्यार में ये बिल्कुल नही होना चाहिये तू नही और सही, और नही और सही। आप का दिल जिस पर आ गया उस को पाने के लिये थोडा इन्तेजार थोडा दर्द थोडी तडप तो सहन करनी ही चाहिये। उस प्यार का मजा ही क्या जिस में तडप जुदाई बैचेनी इन्तेजार ना हो। लेकिन ये इन्तेजार इतना लम्बा भी नही होना चाहिये की आप उस की हा सुनने के लिये उस के प्यार के इजहार के इन्तेजार में राहो पर पल्के बिछाये रहे और पोंस्टमैन आप को उस की शादी का कार्ड दे जाये। इस लिये अपने प्यार को प्रपोज करने में देर न करे जब मौका मिले आई पी एल मैच में युवराज की तरह छक्का जड दे और अपने सपनो के राजकुमार या राजकुमारी से कहे “क्या आप मुझ से शादी करोगे?”

वो भोली गांवली

जलती हुई दीप बुझने को ब्याकुल है

लालिमा कुछ मद्धम सी पड़ गई है

आँखों में अँधेरा सा छाने लगा है

उनकी मीठी हंसी गुनगुनाने की आवाज

बंद कमरे में कुछ प्रश्न लिए

लांघना चाहती है कुछ बोलना चाहती है

संम्भावना ! एक नव स्वपन की मन में संजोये

अंधेरे को चीरते हुए , मन की ब्याकुलता को कहने की कोशिश में

मद्धम -मद्धम जल ही रही है

””””””””वो भोली गांवली ””””’सु -सुन्दर सखी

आँखों में जीवन की तरल कौंध , सपनों की भारहीनता लिए

बरसों से एक आशा भरे जीवन बंद कमरे में गुजार रही है

दूर से निहारती , अतीत से ख़ुशी तलाशती

अपनो के साथ भी षड्यंत्र भरी जीवन जी रही है

छोटी सी उम्र में बिखर गई सपने

फिर -भी एक अनगढ़ आशा लिए

नये तराने गुनगुना रही है

सांसों की धुकनी , आँखों की आंसू

अब भी बसंत की लम्हों को

संजोकर ”’साहिल ”” एक नया सबेरा ढूंढ़ रही है

मन में उपजे असंख्य सवालों की एक नई पहेली ढूंढ़ रही है

बंद कमरे में अपनी ब्याकुलता लिय

एक साथी -सहेली की तालाश लिए

मद भरी आँखों से आंसू बार -बार पोंछ रही है

वो भोली सी नन्ही परी

हर -पल , हर लम्हा

जीवन की परिभाषा ढूंढ़ रही है ”””’