कुरआन ए पाक में सच्चे मुसलमान के लिए हज यात्रा का विशेष महत्तव वर्णित है. हज यात्रा केवल अपनी कमाई में से या फिर निकट सम्बन्धी से प्राप्त धन राशी से ही हलाल मानी जाती है. इसी लिए किसी भी मुस्लिम देश में हज यात्रियों के लिए सरकारी सब्सिडी नहीं दी जाती क्योंकि यह शरियत की हिदायतों के खिलाफ है. बहुत से इस्लामिक विद्वान सरकारी सब्सिडी पर हज यात्रा को ‘हराम’ मानते हैं . फिर भी हमारे सेकुलर हुक्मरान १८० मिलियन मुस्लिम बिरादरी को खुश करने के लिए हज यात्रा के लिए सब्सिडी निरंतर बढाते चले जा रहे हैं . इस वर्ष केंद्र ने हज सब्सिडी के लिए फिर से ८०० करोड़ की भारी भरकम राशि मंजूर की है. १९९४ में यह राशी १०.५७ करोड़ रूपए थी जो २००८ आते आते ८२६ करोड़ हो गई.
प्रति हज यात्री खर्च भी १२०० रूपए से , २००९ आते आते बढ़ कर ५१,६१० रूपए हो गया. हर वर्ष लगभग १.६४ लाख मुसलमान हज यात्रा को जाते हैं जिनमें से १.१५ लाख सरकारी सब्सिडी पर यात्रा करते हैं जिनका चयन हज कमेटी कुर्रह -अर्थात लाटरी से करती है. २००२ में हज कमेटी ने ७०,२९८ यात्री भेजे थे और २००८ आते आते यह संख्या १२,६९५ हो गई.
ऐसे ही केरल और आंध्र प्रदेश में ईसाई यात्रिओं को भी सरकारी सब्सिडी दी जाती है. हमारे सेकुलर हुक्मरानों को शायद खुद को सेकुलर दिखाने के लिए या फिर अल्पसंख्यक वोट बैंक को मजबूत करने के लिए ‘भारतीय जनता के खून पसीने की कमाई के ‘कर’ को लुटाने में मज़ा आता है.
सेकुलर छवि बनाए रखने के लिए यह भी जरूरी है कि यह सुविधा बहुसंख्यक ‘हिन्दुओं’ को हरगिज़ न दी जाए. हर साल ९६० हिन्दू यात्री पवित्र मानसरोवर यात्रा को जाते हैं. इस यात्रा के लिए उन्हें कुमाऊ मंडल विकास निगम को २४,५०० रूपए अदा करने पड़ते हैं जिसमें ५०००/- सिक्योर्टी जो वापिस नहीं होती, भी शामिल है.इसके अतिरिक्त २१५०/- और ७०० डालर (३१५००/-) अलग से देने होते हैं जो चीन सरकार को जाते हैं.यात्रा पर होने वाले अन्य खर्चे अलग से. इस प्रकार प्रतीयेक हिन्दू यात्री को ५८.१५०/- तो यात्रा शुल्क और कर के रूप में ही सरकार को देने होते हैं. इस प्रकार हर वर्ष कैलाश मानसरोवर यात्रा पर हिन्दू यात्री अपनी सेब से ५.५६२४ करोड़ रूपए खर्च करते हैं और हमारी सेकुलर सरकार अपने हिन्दू यात्रियों को १% भी सरकारी सब्सिडी देना मुनासिफ नहीं समझती.
आज़ादी के ६४ बरस बाद भी हम अपनी जनता को स्वच्छ पीने का पानी तक मुहैय्या नहीं कर पाए . हर १५ सैकंड के बाद एक बच्चा जल जनित रोग से मर जाता है. हमारे बंगाली बाबू ने इस साल नदियों के जल को साफ़ करने के लिए, महज़ २०० करोड़ रूपए अपने बज़ट में अलग से रख छोड़े हैं. वोट बैंक सब्सिडी का चौथा हिस्सा ! ठीक ही है भई बच्चे कब वोट डालते हैं.
निरंतर अल्पसंख्यक तुष्टिकरं और आसमान छूती हज सब्सिडी को देखते हुए एक प्रशन हर भारतीय के मन में अपने आप ‘विकिलीक के खुलासों की माफिक उजागर हो उठता है. क्या गाँधी नेहरु का भारत आज भी मुग़ल कालीन ‘इस्लामिक राज्य ‘ तो नहीं ?
निठारी काण्ड के बाद दुनिया का शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने बच्चो के साथ हुए इस घिनौने यौन अपराध और हत्याकाण्ड के विरूद्व आवाज न उठाई हो और इस पर सख्त कानून बनाने के लिये सरकार से आग्रह न किया हो। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ( एनएसी ) की अध्यक्ष सोनिया गॉधी की पहल पर सकि्रय हुए महिला और बाल विकास मंत्रालय ने पिछले वर्ष बच्चो के खिलाफ यौन अपराधो की रोकथाम करने वाले विधेयक का मसौदा तैयार कर लिया था। देश में दिन प्रतिदिन बच्चो के यौन शोषण के मामलो को गम्भीरता से लेते हुए केन्द्रीय कैबिनेट ने 3 मार्च 2011 को बाल यौन अपराध पर रोक लगाने के उद्देश्य से सख्त प्रावधानो वाले प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन एगेंस्ट सेक्सुअल ऑफेंसेंस बिल 2011 को मंजूरी दे दी। जिस में बाल यौन अपराध के लिये आरोपी को सात साल कैद तक की सजा का प्रावधान किया गया है। साथ ही दोषी पर 50 हजार रूपये का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। इस नये विधेयक के अनुसार यदि बच्चो का यौन शोषण किसी न्यास, अधिकरण, सुरक्षा बलो, पुलिस एवं सरकारी अधिकारी, बाल सुधार गृह, अस्पताल और शिक्षण संस्थानो के प्रबंधको अथवा कर्मचारियो ने किया हो तो इसे गम्भीर अपराध माना जायेगा। तथा यौन उत्पीड़न के समय बच्चे की उम्र 12 वर्ष से कम होने या उस के मानसिक अथवा शारीरिक रूप से विकलांग होने की स्थिति में यौन शोषण का मामला और भी गम्भीर श्रेणी में आएगा। यदि यौन उत्पीड़न का शिकार बच्चा गम्भीर रूप से जख्मी हो जाये अथवा उस के दिमाग पर गहरा असर पडता है तब भी दोषी सजा दी जायेगी। साथ ही बच्चे के साथ गलत व्यवहार काने वाले आरोपी के लिये इस विधेयक में कम से कम तीन साल की कैद का प्रावधान है। कैबनेट द्वारा पारित इस नये विधेयक में 9 अध्याय और 44 धाराए शामिल है। धारा सात के अनुसार 16 से 18 वर्ष की आयु वाले युवक युवती से जुडे मामले में यदि दोनो की सहमति मिलती है तब आरोपी को कोई सजा नही होगी। बाल यौन अपराध पर रोक लगाने के उद्देश्य से सख्त प्रावधानो वाले प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन एगेंस्ट सेक्सुअल ऑफेंसेंस बिल 2011 में मुख्य रूप से बच्चो के खिलाफ यौन अपराधो की रोकथाम पर जोर दिया गया है। इस विधेयक में इस बात का भी पूरा ध्यान रखा गया कि जॉच प्रकि्रया के दौरान बच्चा किसी तरह के मानसिक तनाव या दबाव में नही आ पाये। इस नये कानून के तहत कोई भी बच्चा विशोष तौर पर गठित बाल पुलिस इकाई अथवा स्थानीय पुलिस के पास यौन अपराध की शिकायत दर्ज करा सकता है। रिर्पोट लिखते वक्त पुलिस को आसान भाषा का इस्तेमाल करना होगा ताकि बच्चा समझ सके। दिक्कत आने पर पीड़ित बच्चे को दुभाषिए की सुविधा भी सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जायेगी। ऐसे तमाम मामलो की रिर्पोट 24 घांटे क अन्दर अन्दर पीडित बच्चे अथवा बच्ची के माता पिता को थाने में दर्ज करानी होगी और पुलिस को दर्ज करनी जरूरी होगी। पीडित बच्चे का ब्यान माता पिता अथवा अभिभावक की मौजूदगी में दर्ज करना होगां। ब्यान दर्ज करने वाला पुलिसकर्मी वर्दी नही पहन सकेगा जब कि जॉच करने वाले अधिकारी को यह सुनिश्चित करना होगा की किसी भी मौके पर आरोपी और बच्चे का आमनासामना न हो सके। मामले की के त्वरित निपटारे के लिये विशोष अदालतो में सुनवाई होगी, वह भी कैमरे के सामने। साथ ही अदालत चाहे तो ताबडतोड सुनवाई से बच्चे को राहत भी दे सतिी है। इस नये कानून में पीडित बच्चे के साथ न तो पुलिसकर्मी को आक्रामक लहजे में बात करने की इजाजत है और न ऐसे प्रशन पूछने की जिस से बच्चे का चरित्र हनन होता हो। यौन उत्पीडन के शिकार बच्चे अथवा उस के मॉ बाप की सहमति के बगैर उस की पहचान को सार्वजनिक नही किया जा सकेगा। इस नये कानून में विशोष अदालत की ओर से मामले का संज्ञान लेने के एक माह के भीतर बच्चे की गवाही रिकॉर्ड करानी पडेगी और संबंधित कोर्ट को एक साल के अन्दर बाल यौन उत्पीडन मामले का निपटारा भी रिना होगा। बच्चे को पोर्नोग्राफी से बचाने के लिये इस नये विधेयक में विशोष प्रावधान है। मीडिया, स्टूडियो और फोटोग्राफी से जुडे लोगो पर ऐसे माूलो की तत्काल रिर्पोट का जिम्मा डाला गया है। अपनी जिम्मेदारी पूरा नही करने वाले दण्ड के भागी होगे। कानून बनने पर मीडिया में ऐसी घटनाओ की रिर्पोटिग के दौरान पीडित बच्चे या उस के परिजनो की पहचान सार्वजनिक नही की जा सकेगी। सवाल ये उठता है कि क्या केवल कानून बनने से हमारे बच्चे सुरक्षित हो गये यदि कुछ लोग ये सोचते है तो उनका सोचना एकदम गलत है। हालाकि ऐसी हरकते करने वालो की हमारे समाज में संख्या उगंलियो पर गिनी जा सकती है। पर पूरे पुरूष समाज पर किसी एक पुरूष द्वारा ये घिनौना दुष्कृत्य करने के बाद एक बदनुमा दाग तो लग ही जाता है। हमारे आस पास खास कर घरो के अन्दर किसी अपने के द्वारा ही हमारे मासूम बच्चो के साथ यौन उत्पीडन की निरंतर बती घटनाओ से ये तो स्पष्ट है कि आज हमारे बच्चे अपने ही घरो में हमारे पडौसियो के यहा और स्कूल कैब, स्कूल वैनो और स्कूलो में सुरक्षित नही है। जिन टीचरो को हम बच्चो की जिन्दगी सवारने की जिम्मेदारी देते आज उन में से कुछ टीचर बच्चो का यौन शोषण कर उन्हे जीवन भर कलंकित जीवन जीने के लिये मजबूर कर रहे है। बच्चो के साथ दिन प्रतिदिन बती यौन उत्पीडन की घटनाओ ये तो साफ साफ है की आज हम लोग पाश्चात्य सभ्यता में पूरे पूरे रच बस गये है क्यो की ऐसी घटनाए हमे पिश्चमी देशो में ही सुनने को मिलती थी। पर ये सब कुछ अब हमारे देश में भी सुनने को मिलने लगा है। हमे सोचना चाहिये और अपने घरो में आसपास और अपने खास मिलने चिलने वाले लोगो और घरेलू नौकरो पर कडी निगाह रखनी होगी। कानून अपना काम करे और हम अपने प्रति और अपने समाज के प्रति गम्भीर रहे तो काफी हद तक हम इस बुराई से अपने आप को और अपने मासूम बच्चो को सुरक्षित रख सकते है।
13 साल की लम्बी लडाई के बाद आखिर पिछले दिनो लोक सभा के शीतकालीन सत्र में महिला उत्पीड़न रक्षा विधेयक 2010 पेश हुआ जो केंद्रीय मंत्री मंडल की मंजूरी के बाद लोकसभा की स्थाई समिति के पास जा चुका है। लेकिन अभी इस में कई खामिया है ऐसा कहना है देश के कई महिला संगठनो का। आखिर यौन उत्पीड़न कानून बनाने की जरूरत क्यो पेश आई इस के पीछे भी एक बहुत ही दिलचस्प घटना है। लगभग दस साल पहले पंजाब राज्य के सरकारी कार्यालयो में यौन उत्पीड़न संबंधी घटना एक दैनिक अखबार की सुख्रियां बनी। पंजाब राज्य समाज कल्याण विभाग का एक उच्च अधिकारी काम के सिल सिले में अपने अधीन महिला कर्मचारियो को अपने केबिन में बुलाता और कहता आओ बैठो, नाडा खोलो इतना सुन महिला कर्मचारियो का शर्म से फक पीला चेहरा देखकर ये चालाक अधिकारी बात बदल कर मुस्कुराते हुए कहता ओह कुडिये अपना नही फाईल दा नाडा खोल। नाडे से अधिकारी का मतलब फाईल का टैग होता था। इस समाचार ने केवल पंजाब ही नही पूरे हिन्दोस्तान में तूफान मचा दिया। कुछ शरीफ लोगो ने अपनी अपनी इज्जत की खातिर पत्नीयो से रिजाईन दिला दिया। वही कुछ अपनी पत्नीयो के चरित्र पर शंक करने लगे। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की इस घटना ने देश के तमाम घरो में बवाल मचा दिया। अधिकांश महिलाओ और युवतियो के माता पिता और पतियो ने उन्हे फौरन नौकरी छोडने के लिये कह दिया था। इस नये विधेयक की सब से बडी कमजोरी यह है कि ये कानून घरेलू कामगार महिलाओ पर लागू नही होगा। जिन महिलाओ को इस नये कानून से सब से ज्यादा सुरक्षा मिलनी चाहिये उन तमाम घरेलू कामगार महिलाओ को इस नये कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। हम सभी लोग ये बात बखूबी जानते है कि हमारे देश में घरेलू कामगार महिलाओ का सब से ज्यादा यौन शोषण होता है हर रोज कही न कही से अपनी घरेलू नौकरानी के साथ मालिक या घर के बिगडे शहजादो द्वारा दुराचार या बुरी नीयत से पकडने की खबरे आती रहती है पिछले दिनो अपनी नौकरानी के साथ शारीरिक संबध बनाने के संबध में एक फिल्म स्टार शाहीनी आहूजा को जेल भी हुई थी। ये महज एक उदाहरण है। पैसे के बल पर आज न जाने कितनी महिलाओ की आबरू से खेला जाता है और फिर चाणक्य नीति साम, दाम, दण्ड, भेद अपने हुए ये अमीर लोग बेचारी इन गरीब महिलाओ का मुॅह पैसे से बन्द कर देते है। अगर आज इन्हे ही इस नये विधेयक में छोड दिया गया तो फिर इस विधेयक का उद्देश्य ही खत्म हो गया। देश के तमाम महिला संगठनो का ये सब कहना और इस विधेयक पर उगली उठाना जायज लगता है। दरअसल सरकार द्वारा घरेलू कामगार महिलाओ को इस विधेयक में न लेना और उन्हे इस विधेयक से दूर रखने के पीछे शायद ये मंशा हो सकती है कि इनके द्वारा इस विधेयक का दुरपयोग हो सकता है। क्यो की देश में लाखो करोडो की तादाद में घरेलू कामगार महिलाए है। नौकर मालिक में जरा सी खटपट सरकार का सिर दर्द बा सकती है। वजह बिल्कुल साफ है आज देश की हर एक अदालत में मुकदमो का अम्बार लगा हुआ है। सरकारी आंकडो और विधि मंत्रालय के पास ताजा मौजूद आंकडो के मुताबिक देश भर के विभिन्न उच्च न्यायालय में लगभग 265 न्यायाधीशो की आज भी कमी है। और इस कमी के चलते लंबित मुकदमो की संख्या लगभग 39 लाख हो गई है वही देश की विभिन्न अदालतो में लगभग 3.128 करोड लंबित मामले चल रहे है। एक अनुमान के अनुसार यदि इसी प्रकार से अदालतो में न्याय प्रकि्रया चलती रही तो इन्हे निपटाने में लगभग 320 साल लगेगे। आज इन्सान की उम्र औसतन 60 से 65 साल के बीच हो रही है ऐसे में जब इन मुकदमो में अदालत का फैसला आने में 320 साल का वक्त लगेगा तो आखिर कितनी पी एक मुकदमे को लडेगी कितनी तारीखे लगेगी। कब फैसला होगा किस के हक में होगा कौन बचेगा कौन मरेगा भगवान जाने। कई वर्ष पहले राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस विधेयक पर काम कर महिला संगठनो और वकीलो से व्यापक विचारविमशर कर इस के कई प्रारूप तैयार किये पर राष्ट्रीय महिला आयोग का आज यह कहना है कि उस प्रारूप की जरा सी झलक भी इस नये विधेयक में दूर दूर तक भी दिखाई नही दे रही। सब से पहले हमारा ये जनना बेहद जरूरी है कि आखिर कार्य स्थल पर यौन उत्पीडन विधेयक में क्या क्या रखा गया है इस नये कानून में किसी भी पुरूष साथी द्वारा कार्य स्थल पर अपनी महिला साथी के साथ अप्रिय यौन आचरण, अश्लील मौखिक टिप्पणी, शारीरिक संपर्क, यौन अग्रिम, द्विअर्थी बाते, छेडछाड, सूक्ष्म यौन इशारे, अश्लील मजाक,चुटकुले, महिला को अश्लील साहित्य दिखाना (शाब्दिक, इलेक्ट्रॉनिक, ग्राफ्सि), यौन अहसान की मांग या अनुरोध, अन्य कोई अप्रिय शारीरिक, मौखिक या गैर मौखिक कि्रया ये सब इस नये महिला यौन उत्पीडन के तहत आते है। कार्य स्थल या घरेलू कामगार यौन उत्पीडन की शिकार अधिकांश युवतिया ही होती है जिन में अधिकांश लडकिया नाबालिग होती है जो अपने साथ हुए इस कुकृत्य से इतना डर जाती है सहम जाती है कि किसी को बतलाने के लिये तैयार भी नही होती क्यो की हमारा पुरूष प्रधान सामाजिक ाचा ऐसे दुष्कृत्य करने वाले पुरूष पर तो ऑच आने नही देता वही बलात्कार की शिकार युवती या महिला को समाज तमाशा बना देता है जिस में महिलाए ही सब से आगे होती है। कही कही तो खुद बीमारी से ग्रस्त पत्नी अपने पति को नौकरानी से या दफ्तर में उस के अधीन काम करने वाली महिला साथी से संबंध बनाने के लिये मदद करती है। क्यो की वो खुद पति के साथ सेक्स संबंध बनाने में सक्षम नही होती अतः पति की भावनाओ और सौतन के आने के डर से वो पति की तमाम बुरी आदतो को नजर अंदाज कर देती है बाजार में वेश्याओ के पास जाने से एड्रस होने के साथ साथ बहुत ज्यादा पैसा खर्च होता है इस लिये कुछ बडे बडे घरो में घरेलू नौकरानी को कुछ रकम देकर पटा लिया जाता है। जो गरीबी और भूख के कारण अपना मुॅह नही खोल पाती और यौन उत्पीडन का शिकार होती रहती है। कही कही हम लोगो में ये भ्रांति है कि अगर यौन रोगो से ग्रस्त कोई पुरूष अक्षत यौवना कुवॉरी या कम उम्र लडकी से शारीरिक संबंध बना ले तो उस के सारे यौन रोग ठीक हो जाते है। जब की ये बात बिल्कुल बेबुनियाद है। परंतु इस भ्रांति के कारण भी कुछ लोग अपनी कुवॉरी बेटियो पर भी कुदृष्टि डालते ह और कही कही कुछ बहुत ही गिरे हुए लोग अपनी इस योजना में कामयाब भी हो जाते है। आज जब बेटिया अपने घरो में ही सुरक्षित नही तब हम उन्हे कार्य स्थलो पर किस प्रकार सुरक्षित समझ सकते है। अपना घर बेटियो के लिये दुनिया में सब से सुरक्षित जगह है जहॉ वो खुद को ज्यादा महफूज समझ सकती है पर पिछले कुछ सालो से ऐसे समाचार आये दिन समाचार पत्रो में पने और सुनने को मिल रहे है की सिर शर्म से झुक जाता है पिछले दिनो अखबारो और न्यूज चैनलो पर दिखाई गई एक खबर ने बाप बेटी के रिश्तो को जिस प्रकार तार तार किया वो दुनिया में अब तक की सब से बडी मिसाल है। खबर थी आस्ट्रिया की जहॉ एक पिता ने अपनी सगी बेटी को करीब 24 सालो तक घर में बने तहखाने में बंधक बना कर यौन शोषण किया और इस दुराचारी पिता ने बेटी को सात बच्चो को जन्म देने पर मजबूर भी किया। दरअसल बाप बेटी का रिश्ता एक ऐसा रिश्ता है जिसे किसी जाति, किसी मजहब, किसी देश, किसी भी सभ्यता में बदला नही जा सकता और इस की पाकीजगी कम नही होती हर जगह इसे इज्जत की नजरो से देखा जाता है। इस नये कानून में जहॉ कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की झूठी और दुर्भावना से की गई शिकायतो को शिकायत करने वाली महिला के लिये दंडनीय बनाया गया है। वही इस नये विधेयक में ऐसा कानून भी होना चाहिये की यौन उत्पीडन की शिकार महिला को ऐसा वातावरण दिया जाये की वो भयमुक्त होकर अपनी शिकायत दर्ज करा सके।
ब्रिटेन में २१ मार्च को विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में भारतीय उच्चायोग, भारत भवन, ऑल्डविच लन्दन में एक समारोह का आयोजन किया गया. इस समारोह में भारतीय उच्चायोग ,लन्दन द्वारा घोषित हिंदी सेवा सम्मान योजना के अंतर्गत भारतीय उच्चायुक्त महामहिम नलिन सूरी ने वर्ष २०१० के हिंदी साहित्य सेवा सम्मान प्रदान किये.
कार्यक्रम में ख्यातिप्राप्त साहित्यकार उषाराजे सक्सेना को हरिवंशराय बच्च्न सम्मान, प्रसिद्द साहित्यकार स्वर्गीय महावीर शर्मा जी को हजारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान (पत्रकारिता- मरणोपरांत) एवं ऐश्वर्या कुमार को जॉन गिलक्रिस्ट सम्मान (अध्यापक), कथा यू के को फ्रेड्रिक पिन्कॉट सम्मान तथा अरुण सब्बरवाल(कविता) एवं शिखा वार्ष्णेय (संस्मरण) को डॉ लक्ष्मी मल्ल सिंघवी हिंदी साहित्य प्रकाशन अनुदान ससम्मान प्रदान किए गए.
आयोजन में लन्दन में भारतीय उच्चायुक्त श्री नलिन सूरी सहित उप-उच्चायुक्त श्री प्रसाद, संस्कृति मंत्री श्रीमती मोनिका मोहता उपस्थित रहे. उच्चायुक्त श्री नलिन सूरी ने पुरस्कार वितरण किये और अपने बहुमूल्य शब्दों से संबोधित किया. आयोजन का सञ्चालन उच्चायोग के हिंदी अताशे श्री आनंद कुमार ने किया, तदुपरांत श्रीमती पद्मजा जी ने धन्यवाद ज्ञापन के साथ समारोह का समापन किया .
विशिष्ट व्यक्तियों में मेयर लन्दन, काउंसलर जे एस ग्रेवाल, काउंसलर जाकिया जुबेरी, काउंसलर सुनील चोपड़ा, पूर्व अंजना पटेल, तेजेंद्र शर्मा और गौतम सचदेव के अतिरिक्त लन्दन में हिंदी साहित्य के कई गणमान्य व्यक्ति एवं मीडिया कर्मी उपस्थित थे.
(१) किसी वृक्ष का, विकास रोकने का, सरल उपाय, क्या है? माना जाता है, कि वह उपाय है, उस के मूल काटकर उसे एक छोटी कुंडी (गमले) में लगा देना। जडे जितनी छोटी होंगी, वृक्ष उतना ही नाटा होगा, ठिंगना होगा। जापानी बॉन्साइ पौधे ऐसे ही उगाए जाते हैं। कटी हुयी, छोटी जडें, छोटे छोटे पौधे पैदा कर देती है। वे पौधे कभी ऊंचे नहीं होते, जीवनभर पौधे नाटे ही रहते हैं। पौधों को पता तक नहीं होता, कि उनकी वास्तव में नियति क्या थी?
(२ ) कहते हैं कि धूर्त ठग भी, ऐसे ही ठगता है, आप ठगे जाते हैं, ऐसे कि, आपको मरते दम तक, (और मरने के बाद तो पता कैसे चलें?) कभी ”ठगे गए थे ” ऐसी अनुभूति क्या, शंका तक, नहीं होती। किंतु जब , ठगोंके प्रति, अनेक देश बांधवों को, जब ”अहोभाव” से भी अभिभूत पाता हूं, तो लगता है, कि, ठग बहुत ही चालाक था। सैद्धांतिक रीतिसे, हर विपत्तिसे कुछ लाभ अवश्य होता ही है, यह लाभ कालानुक्रम से हर कोई राष्ट्रको होता है, और इस लाभ को उपलब्ध कराने में इस परतंत्रता का भी कुछ योगदान मानता हूं।
पर ऐसा लाभ तो जैसे जैसे विज्ञान विश्वमें आगे बढते गया, हर एक देश को, प्राप्त होता गया। वैसे विज्ञान को आगे बढाने में भी हिंदु अंक गणित का योगदान माना गया है।==”जिस के बिना कोई भी वैज्ञानिक आविष्कार संभव ही न था,”== ऐसा मत, ट्रॉय स्थित, रेनसेलर इन्स्टिट्यूट के स्ट्रक्चरल इंजिनीयरिंग के प्रोफ़ेसर किन्नी (जो भारतीय नहीं है) मानते हैं। { विषय, किसी दूसरे लेख में विस्तार से लिखूंगा}
पर वैसे, अंग्रेज़ बहुत चालाक और धूर्त था, उसने हमारी मानसिक जडें काटी। और हम, अपनी गौरवशाली परंपराएं भूलकर, झूठे इतिहासकी पट्टी पढ पढ कर, तोताराम बन गये।
(३) कुछ संदर्भों के आधारपर अब प्रकाशमें आ रहा है, कि, अप्रैल-१०-१८६६ के दिन रॉयल एशियाटिक सोसायटी की गुप्त बैठक (मिटींग) उनके लंदन स्थित कार्यालय में हुयी थी। इसके कुछ प्रमाण भी उपलब्ध हुए हैं। { धीरे धीरे और भी कुछ उपलब्ध होता रहेगा } इस मिटींग में भारत की बुद्धि भ्रमित करने के लिए षड्यंत्र रचे गए थे। उसका एक भाग आर्यन इन्वेजन थियरी ( भारत में सारे भारतीय बाहरसे घुसे हुए हैं।)था। जिस के परिणाम स्वरूप कोई भारतीय {जो स्वतः बाहरसे आया होने से} यह ना कह सके, कि अंग्रेज़ परदेशी है, पराया है।
एक ”एडवर्ड थॉमस” नामक धूर्त पादरी ने थियरी के घटक-अंग प्रस्तुत किए, और कोई -”लॉर्ड स्ट्रेंगफोर्ड” अध्यक्षता भी कर रहा था। भारतको ब्रेन वाश करने का षडयंत्र भी उसीका भाग था। वैसे संसार भरमें अतुल्य संस्कृति की धरोहर वाले भारत को, गुलामी में दीर्घ काल तक बांधे रखना, कितना कठिन है, यह बात, अंग्रेज़ को १८५७ के स्वतंत्रता के युद्ध के कडवे अनुभव के परिणामों से पता चली थी। मैं मानत ा हूं, कि, इस लिए यह ”ब्रेन वॉशिंग” का षड्यंत्र आवश्यक था।
(४) दुर्भाग्यसे, स्वतंत्र होकर ६३ वर्ष बीत चुके, पर अब भी हमारा सामान्य नागरिक, उस अतीत की परतंत्रता से प्रभावित, मानसिक दासता, गुलामी, और उस से जनित हीनता (Inferiority Complex) ग्रंथि से पीडित हैं। पहले अंग्रेज़ राज करते थे, अब अंग्रेज़ी राज करती है, अंग्रेज़ियत राज करती है। गोरे अंग्रेज़ राज करते थे, अब काले अंग्रेज़ राज करते हैं। गुलामी की मानसिकता से पीडित समाज, ”लघुता ग्रंथि” को ही ऐसे संभाले रहा है, जैसे वही सबसे बडी मूल्यवान वस्तु हो।
(५) आत्म विश्वास का खोना, पुरूषार्थ बिना का जीवन, पराक्रम में विश्वास खोना, इत्यादि उसीके लक्षण है। साथमें बिना काम किए, बिना योगदान दिए, भ्रष्टाचार द्वारा एक रातमें धनी हो जानेकी इच्छा रखना भी उसीका परिणाम है। यह तो कपट पूर्ण व्यापार है।
(६) स्वतंत्रता को अंग्रेज़ीमे Independence कहते हैं। जो दूसरोंपर Dependent {निर्भर) नहीं है, वही Independent {स्वतंत्र} है। हमें तो हर इज़्म; {कम्युनिज़्म, सोशियलिज़्म, मायनोरिटिज़्म,—-इत्यादि} शासन पर ही (Dependent), निर्भर बना कर पंगु बना देते हैं।
पर हम यह नहीं सोचते, कि, Dependent फिर Independent कैसे हुआ?
(७) अपने लोगों के प्रति, द्वेष-या मत्सर की अभिव्यक्ति, अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूपसे उसी का निदर्शक है। एक घटना, हमारे गुलामी की प्रस्तुत है।
मेरे एक रसायन शास्त्र के प्रोफेसर (जो मिलीयन डॉलरों की ग्राण्ट वॉशिंग्टन से पाते हैं।) मित्रनें, सुनाया हुआ घटा हुआ, अनुभव है।
एक लब्ध प्रतिष्ठ भारतीय शोध कर्ता भारत, वहां युनिवर्सीटियों में, एक प्रयोग (Demonstration) दिखाने के लिए अपने सहायक गोरे, टेक्निशीयन के साथ जाता है।दिल्ली, हवाई अड्डे पर स्वागत के लिए, कुछ कर्मचारी हार और फूलोंका गुच्छ लेकर भेजे जाते हैं। किंतु, जब वे देखते हैं, कि, एक गोरा भी आया है, तो उसे ही प्रोफेसर मान हार उसे ही पहना देते हैं, और सच्चे प्रोफेसर को गुच्छ अर्पण किया जाता है। गोरा मना करने पर, वे उसकी शालीनता मान लेते हैं, शायद उसके उच्चारण भी समझ नहीं पाते।
(८) परायों के अंध-अनुकरण (लाभहीन अनुकरण) से पीडित समाज तीन प्रकारकी मानसिकता धारण करता है।
(क) वह अपना आत्म विश्वास खो देता है, और कोई दूसरा ही हमारा उद्धार करेगा, ऐसी धारणा बना लेता है।
(ख) कोई अवतार हमारी सारी समस्याएं सुलझा जायगा, यह धारणा बना लेता है।
(ग) निष्क्रीय हो कर, शासन ही सब कुछ कर देगा ऐसा विश्वास भी उसी की देन हैं।
(९) निम्न –॥प्रश्न मालिका॥ –मानसिकता या वैचारिकता से अधिक, संबंध रखते हैं।
लाभकारी सुविधा ओं से नहीं, पर लाभहीन अनुकरण से अधिक जुडे हुए हैं।
लाभ कारी विचारों के विषयमें तो हमारे पुरखें बहुत उदार थे।
ज्ञान प्राप्त कहींसे भी करने के लिए हमारे पूरखोंने तो सूक्तियां भी रची थी। ऋग्वेद (१-८९-१) -में कहा था, ”आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः॥” -अर्थात : उदात्त विचार हर दिशासे हमारी ओर आने दीजिए। पर, हमारा मस्तिष्क हमने ऐसा खुला रखा कि, उस खुले मस्तिष्क में , लोगोंने कूडा, कचरा ही फेंक दिया। आज उस कूडे ने ही हमें गुलाम रखा हुआ है।
निम्न प्रश्न आप की मानसिकता से अधिक जुडे हुए हैं। कुछ अध्ययन और अनुभव के आधार पर चुने गए हैं।
ध्यान रहे: कि, दो चार प्रश्नों के उत्तरोंपर निष्कर्ष नहीं निकल पाएगा। हज़ारों वर्षों की गुलामी के कारण कुछ गुलामी का प्रभाव हर कोई पर हुआ है। मैं भी इसका अपवाद नहीं हूं, पर अच्छे संग के कारण टिक पाया हूं।
समग्र रूपसे यह देखा जाए। लेखक की दृष्टिसे सही उत्तर हर प्रश्नके अंतमें कंस में दिया गया है।
== जन तंत्र में जनता, पढी लिखी, जागृत, चौकन्नी, जानकार, और स्वावलंबी (स्वतंत्र= अपने तंत्र से चलने वाली )होती है।
प्रामणिकता से उत्तर देने पर आप को उन्नति की दिशा का निर्देश देने के सिवा, और कोई उद्देश्य नहीं। सही उत्तर कंस में दिए हैं।
(१) क्या आपको अपनी संस्कृति/देश के प्रति (सक्रिय, कुछ करते रहते हैं, ऐसा) गौरव अनुभव होता है?—>[ हां ]
(२) या, आपको मालिक (अंग्रेज) की रीति, शैली, के प्रति गौरव है?—–>[ ना ]
(३)क्या आपके मित्र आपको देश के प्रति निष्ठावान मानते हैं?—->[ हां ]
(४) क्या आप काले/सांवले रंग को हीन मानते हैं?-> [ ना ]
(५) क्या आप गोरी चमडी से ही( यह ’ही’ महत्वका है) सुंदरता की कल्पना कर सकते हैं? —->[ ना ]
(६) क्या आप अपनी भाषा (हिंदी या प्रादेशिक) में व्यवहार करने में हीनता का अनुभव करते हैं?—>[ ना ]
(७) क्या आप आपकी अपनी प्रादेशिक भाषा में और/या (हिंदी) में गलती होनेपर शर्म अनुभव करते हैं?—> [हां ]
(८) अंग्रेजीमें गलती करनेपर गहरी शर्म अनुभव होती है?(ना) {”गहरी” महत्वका है} —->[ ना ]
(९)क्या, आपको अपने धर्म/संस्कृति के विषय में जानकारी है, ऐसा आपके मित्र मानते हैं।—> [ हां ]
(१०) और उस विषयमें आप कुछ अध्ययन करते रहते हैं? —>[ हां ]
(११) आपसे अगर आपका देशबंधु या मित्र, आगे निकल जाए, तो आपका मत्सर, जागृत होता है?—>[ ना ]
(१२) आप अपनी (गुजराती, तमिल, हिंदी, उर्दू, संस्कृत….. इत्यादि) भाषाकी पुस्तकें पढते रहते हैं ? —>[ हां ]
(१४) आप उसे जानने में गौरव लेते हैं?—-> [ हां ]
(१५) कोई आपसे प्रश्न हिंदी (या आपकी ) भाषामें पूछे, तो आप उत्तर अंग्रेज़ीमें देते हैं ? —-> [ ना ]
(१६) आप सोश्यलिज़म, कम्युनिज़म, ह्युमनीज़म, फलाना-इज़म, — इत्यादि अंगेज़ी शब्दोंके प्रयोग करते हैं, {ना}
(१७) समाजवाद, साम्यवाद ऐसे शब्द प्रयोग करते है ? [ हां]
(१८) आप प्रमुख्तः हमेशा –बोम्बे, — डेली,– बनारस,– इंडिया, इत्यादि अंग्रेज़ प्रायोजित शब्दों का प्रयोग करते हैं? —[ ना ]
(१९) आपको मौसा, मामा, चाचा कहने/कहानेमें लाज आती है, पर अंकल ही अच्छा लगता है?[ ना ]
(२०) महिलाओंके लिए, मौसी, मामी, चाची इत्यादि के बदले आंटी सुनने में आदर प्रतीत होता है?—->[ ना ]
(२१) क्या आपको गीता, रामायण, या कुरान, धम्मपद, इत्यादि की कुछ जानकारी है, –>[हां]
(२२) उनका मनन या पठन इत्यादि होते रहता है? कुछ मालूम भी है?—–>[हां ]
सूचना: इसे जानकर आप अपनी मानसिकता बदल सकते हैं। किसीका अवमान करने का उद्देश्य नहीं है।
॔॔तख्ती पे तख्ती, तख्ती पे दाना कल की छुटटी परसो को आना’’ पकर आज न जाने कितने लोग अपने बचपन में खो गये होगे। अब से लगभग तीन दशक पहले ज्यादातर बच्चे प्रारम्भिक शिक्षा सरकारी बेसिक प्राईमरी स्कूल में ही ग्रहण करते थे। मैने भी प्राईमरी शिक्षा सरकारी बेसिक प्राईमरी स्कूल में ही ग्रहण की तब तख्ती का चलन था। स्कूल जाते वक्त घर में सिला पुरानी पेंट का थैला कंधे पर डाल, हाथ में लकडी की तख्ती लहराते किसी राजकुमार की तरह अपने सहपाठियो संग स्कूल पहुॅचते थे। कभी कभी आपसी लडाई में तख्ती बहुत काम आती थी तख्ती से लडाई लडने का एक अपना अलग ही मजा था। स्कूल हाफ टाईम में तख्ती का इस्तेमाल बल्ले के रूप में कि्रकेट खेलने के लिये भी किया जाता था। आज हमारे बच्चे तख्ती क्या होती है नही जानते। स्कूल से आकर सब से पहले तख्ती को धोना और फिर उसे सुखाना हम नही भूलते थे। मुल्तानी मिट्टी डिब्बे में भीगो कर रखी जाती थी मुल्तानी मिट्टी से तख्ती पोतकर उसके चारो ओर अंगुली से हाशिया बनाने में बडा मजा आता था वही अगर खेल कूद में तख्ती पोतना भूल जाते थे तो रात भर नींद नही आती थी। और रात भर मास्टर साहब की मार याद आती रहती थी। बरसात के दिनो में शाम को तख्ती चूल्हे के पास रखकर सुखाते थे कभी तख्ती ज्यादा गरम होकर या चूल्हे में गिरकर जल भी जाती थी। तब मास्टर साहब की पिटाई से पहले मॉ की पिटाई खानी पडती थी। कभी कभी तख्ती जल्दी सुखाने के लिये हाथ में लेकर जोर जोर से गीत गाकर हम लोग तख्ती सुखाते थे। दो पैसे में रोशनाई की एक पुडिया मिलती थी जिसे हम लोग घन्टो धूप में बैठकर तरह तरह के गीत ॔॔पतली पतली सूख जा गाी गाी रह जा’’ गुनगुनाकर गाी करते थे। मास्टर साहब द्वारा पेंसिल से बनाये गये नक्शो पर कच्ची रोशनाई का प्रयोग कर लकडी के कलम से लिखते थे तख्ती लिखते वक्त रोश्नाई से बडी प्यारी खुशबू निकलती थी जिस में मस्त होनो के बाद हमे अपने कपडो का भी ध्यान नही रहता था की कितनी जगह रोशनाई के धब्बे लग चुके है। दरअसल पुराने दौर में शुद्व लेखन और सुंदर लेखन पर बहुत ज्यादा जोर दिया जाता था। सौ तक गिनती और बीस तक पहाडे सुर के साथ पाये और याद कराये जाते थे। एक इकाई, दो इकाई, तीन इकाई सिखाने के लिये लकडी का बहुत बडा इकाई बोर्ड होता था जिस में गोल गोल लट्टू लोहे की सीखो में पडे होते थे मास्टर साहब के आदेश पर कोई एक लडका एक लट्टू पकड कर एक इकाई जोर से बोलता था उस के साथ कक्षा के सब बच्चे जोर से एक इकाई दोहराते थे। पव्वा, पौन, अद्वा, सवैया, डयौडा, जबानी याद कराये जाते थे। पर अब ये सब गुजरे जमाने की बात हो गई है। आज इंग्लिश मीडियम के बच्चे पिच्छतर और डे रूपये को नही जानते पव्वा, पौन, अद्वा, सवैया, को क्या जानेगे। इसी लिये आज सुलेख की विद्या भी बीते दिनो की बात हो चुकी है। आज बुनियादी और प्राईमरी शिक्षा का स्तर बने के बजाये घट रहा है पर लोगो की सोच शिक्षा के प्रति जरूर बी है। आज मजदूरी का पेशा करने वाला व्यक्ति भी अपने बच्चो को अच्छे से अच्छे स्कूल में पाना चाहता है। उस के लिये चाहे उसे अलग से श्रम क्यो न करना पडे। आज सरकारी बेसिक स्कूलो में लोग अपने बच्चो को पाना नही चाहते वजह सरकारी स्कुलो में इस समय बुनियादी शिक्षा काफी कमजोर है हाल यें है की स्कूल भवन जर्जर और टूटे फूटे, बच्चे के बैठने के लिये टाट पिट्टया नदारद, स्कूल परिसरो में गंदगी के अम्बार, बरसात में टपकती छते, आज अधिकतर सरकारी स्कूलो में बुनियादी सुविधाये आधी अधूरी या कही कही लगभग खत्म है। अध्यापक ना की बराबर आज भी उत्तर प्रदेश में 17000 गॉव ऐसे है जहॉ एक किलोमीटर के दायरे में कोई स्कूल नही है उत्तर प्रदेश में एक शिक्षक पर औसतन 51 बच्चे है जब की यही आकड़ा राष्ट्रीय स्तर पर एक शिक्षक पर 31 छात्र का है। आज कम्प्यूटर युग में शिक्षा में तेजी से आये बदलाव के चलते अब न शिक्षको के पास इतना समय है कि वे तख्ती पर पेंसिल से नक्श्ो बनाकर उन पर बच्चो से लिखवाये, बच्चो का लेख सुन्दर बनाने के लिये उनसे सुलेख पुस्तिका पर अभ्यास कराएं। आज के टीचर को शिक्षा और छात्र से कोई मतलब नही उसे तो बस अपने टुयूश्न से मतलब है। फिक्र है बडे बडे बैच बनाने की एक एक पारी में पचास पचास बच्चो को टुयूशन देने की। चाहे बच्चे पे या न पे उसे हर महीने अपने घर से टयूशन फीस लाकर दे दे। शिक्षा ने आज व्यापार का रूप ले लिया है। एक वो समय था जब गुरू को पिता से भी बकर सम्मान दिया जाता था। और गुरू भी शिष्य को अपनी सन्तान से अधिक मानता था एक एक बच्चे पर मेहनत की जाती थी। दूसरी कक्षा में सुन्दर लेखन के लिये सुलेख अभ्यास कराया जाता था। आज कल स्कूलो में शुरू से ही बच्चो को बाल पेन द्वारा कापियो पर लिखवाया जाता है जिस कारण न तो उनका राइटिंग बयि होता है और न ही इमला शुद्व हो पाता है। आज के बच्चे लकडी की तख्ती और कलम दवात से केवल त तख्ती और द दवात तक ही परिचित है। पिछले दिनो उत्तर प्रदेश के औचक निरीक्षण के दौरान मुख्यसचिव और मुख्यमंत्री मायावती जी ने बेसिक प्राईमरी स्कूलो का निरीक्षण किया। प्राईमरी स्कूल प्रबंधन ने मुख्यसचिव और मुख्यमंत्री के इन दौरो के मद्देनजर कली चुना कराकर बच्चो के बाल कटाकर, कही कही दूसरे अच्छे स्कूलो से बच्चो को बुला कर निरीक्षण के लिये चयनित स्कूलो में सब कुछ ठीक ठाक कर लिया। निरीक्षण के दौरान बच्चो से पहाडे सुने गये तो कही उन से ब्लैकबोर्ड पर लिखवाकर देखा गया। इतना गडबडझाला होने के बावजूद मुख्यसचिव ये देख कर चौक गये की कक्षा पॉच और छः के बच्चे अपनी पुस्तक का नाम प और अपना नाम भी ठीक से नही लिख पा रहे थे। इन बच्चो की टीचरो से जब ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिखवाया गया तो मैडम की राईटिग ऐसी के माने किसी बच्चे ने लिखा हो। आज हमे ये तो मानना ही पडेगा की शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की तमाम योजनाओ के बावजूद प्राईवेट पब्लिक स्कूल और गा्रमीण प्राईमरी स्कूलो के बच्चे में एक बहुत बडी और बहुत ही गहरी खाई पैदा हो गई है। बच्चो की बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में पिछड रहे भारत देश के छः से चौदह साल के सभी बच्चो को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दिये जाने का मौलिक अधिकार बनाया जाना वास्तव में शिक्षा के क्षेत्र में एक नया सवेरा है किन्तु शिक्षा के मौलिक अधिकार कानून से पहले राज्य और केन्द्र सरकार को इस ओर भी ध्यान देना चाहिये की आज शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र में और अधिक भ्रष्टाचार न फैले वही अब तक फैल चुके इस भ्रष्टाचार पर किस तरह अंकुश लगे इस पर भी गम्भीरता से हमारी सरकार को सोचना चाहिये। प्राथमिक शिक्षा में ही अमीर गरीब व जात पात की एक ऐसी खाई जो आगे चलकर देश को नुकसान पहुॅचा सकती है उसे जल्द से जल्द पाटना चाहिये। यदि जीवन की नींव के स्तर पर ही बच्चो की शिक्षा में इस प्रकार का भेदभाव बरता जायेगा तो आज भारत के ये कर्णधार कल भारत को किस और ले जायेगे ये सोचा जा सकता है। सारे संसाधन होने के बावजूद पहले के मुकाबले आज की बुनियादी शिक्षा काफी कमजोर होने के साथ ही बहुत कमजोर है। अब स्कूलो में निरीक्षण की कोई व्यवस्था नही है। हमारे वक्त में हर स्कूल में डिप्टी साहब का दौरा होता था। अब ऐसा कुछ नही होता कोई कहने सुनने वाला है नही बेचारा अभिभावक जाये तो जाये कहा। ये ही बजह है की गली गली मौहल्लो मौहल्लो कुकरमुत्तो की तरह प्राईवेट पब्लिक स्कूल खुलते चले जा रहे है। शिक्षा का धंधा कर ये प्राईवेट पब्लिक स्कूल टीचर के नाम पर आठवी दसवी पास 300 से 500रू प्रतिमाह के हिसाब से अन्टेन्ड टीचर रखकर बच्चे की बुनियादी शिक्षा और भविष्य से भी खिडवाड़ कर रहे है।
भारतीय जनमानस पर जितना प्रभाव गांधी का है उतना ही भगत सिंह का भी रहा है। अन्याय और दोहन के खिलाफ प्रतिक्रियावाद के प्रतीक के रूप में भगत सिंह की क्रांतिकारिता कभी ओज तो कभी उत्सर्ग की प्रेरणा देती है। उपनिवेशवादियों से देश की आजादी के लिए फांसी के फंदे को एक ही दिन चूमने वाले भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव पर चली अदालती कार्यवाही-कार्रवाई और फिर उन्हें फांसी दिए जाने तक का घटनावृत्त रहस्य और रोमांच पैदा करता रहा है।
आज पूरा देश शहीद-ए-आजम भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों राजगुरु और सुखदेव की शहादत को याद कर रहा है वहीं दूसरी तरफ शहादत के 80 साल और स्वतंत्रता के करीब 63 साल बाद भी शहीद-ए-आजम भगत सिंह को आतंकवादी कहा जा रहा है। विश्वास तो नहीं होता है, लेकिन आगरा से प्रकाशित एक पुस्तक में भगतसिंह,राजगुरु और सुखदेव को क्रांतिकारी शहीद का दर्जा नहीं दिया गया है,बल्कि साफ शब्दों में आतंकवादी लिखा जा रहा है। यह पुस्तक है माडर्न इंडिया और इसके लेखक हैं केएल खुराना। पुस्तक में लिखा है कि… उनमें से बहुतों ने हिंसा का मार्ग अपना लिया और वे आतंकवाद के जरिये भारत को स्वतंत्रता दिलाना चाहते थे। पंजाब,महाराष्ट्र और बंगाल आतंकवादियों के गढ़ थे और भूपेन्द्र नाथ दत्त,गणेश सावरकर,सरदार अजित सिंह, लाला हरदयाल,भगत सिंह,राजगुरु,सुखदेव,चन्द्रशेखर आजाद इत्यादि आतंकवादियों के प्रमुख सरगना थे…
महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पुस्तक का बड़ी संख्या में उपयोग बीए,एमए के विद्यार्थियों के अलावा प्रशासनिक सेवा परीक्षा में बैठने वाले करते हैं। भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में 23 मार्च 1931 का दिन काफी महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि इसी दिन शाम 7 बजे शहीद-ए-आजम भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों राजगुरु और सुखदेव को अंग्रेज हुकूमत ने फांसी दे दी थी। उस वक्त और भी क्रांतिकारी थे,जो हिंसा का मार्ग अपना कर देश को स्वतंत्रता दिलाने का प्रयास कर रहे थे। तब भी उन्हें लोग क्रांतिकारी कहते थे न कि आतंकवादी,लेकिन आगरा से पिछले वर्ष प्रकाशित 11वें संस्करण में भी माडर्न इंडिया उन्हें आतंकवादी लिख रही है और कॉलेज छात्र इसे पिछले 16 वर्षो से पढ़ रहे हैं।
शहीद को आतंकवादी लिखने वाली इस पुस्तक को हर साल लाखों छात्र पढ़ते हैं और हजारों शिक्षक पढ़ाते हैं, लेकिन न कभी पढऩे वालों ने सोचा और न ही पढ़ाने वालों ने। इतना ही नहीं पुस्तक के लेखक, प्रकाशक, मुद्रक और यहां तक कि प्रूफ रीडर ने भी 11 संस्करणों में सुधार की जरूरत नहीं समझी। जबलपुर के निष्काम श्रीवास्तव, जो कि इंडियन लॉ रिपोर्ट के एक्स असिस्टेंट एडीटर रह चुके हैं ने मामले को उठाते हुए बताया कि जब उन्होंने इस पुस्तक में शहीद को आतंकवादी के रूप में पढ़ा तो उन्हें काफी अफसोस हुआ कि स्वतंत्रता के 63 साल बाद भी इस गलती को सुधारा नहीं जा सका है। उन्होंने आशा व्यक्त की है कि अगले संस्करण में प्रकाशक इस गलती को सुधार लेंगे।
गांधीवादी विचारधारा के पत्रकार अभिशेख अज्ञानी कहते हैं कि ब्रिटिश लेबर सरकार ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों के लिए, भारत के तीन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों-भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के प्राणों की आहुति ले ली। आर. मैकडोनाल्ड के नेतृत्व में ब्रिटिश लेबर सरकार द्वारा किया गया यह अब तक का सबसे जघन्यतम कार्य है। तीनों भारतीय क्रान्तिकारियों को दी गई फांसी,लेबर सरकार के आदेश पर की गई जान-बूझकर,सोची समझी राजनीतिक साजिश का नतीजा है,जो दर्शाता है कि मैकडोनाल्ड सरकार ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा के लिए किस हद तक गिर सकती है। उन्होंने मांग की है कि सरकार को इस पुस्तक के लेखक और प्रकाशक के खिलाफ कार्यवाई करनी चाहिए।
उल्लेखनीय है कि भगत सिंह की देशभक्ति का हर कोई कायल था। 12 अक्टूबर 1930 को अपने भाषण में पं.जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि..चाहे मैं उनसे सहमत हूं या नहीं, मेरा हृदय भगत सिंह के शौर्य और आत्म बलिदान पर पूर्ण रूप से मुग्ध होकर उनकी स्तुति करता है। भगत सिंह का साहस अत्यधिक विरल किस्म का है। यदि वायसराय सोचता है कि हमें इस अद्भुत शौर्य और उसके पीछे कार्य कर रहे महानतम ध्येय की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए,तो यह सरासर गलत है।
शहीद ए आज़म भगत सिंह सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के लोगों और बुद्धिजीवियों के बीच भी काफी लोकप्रिय हैं। भारत की तरह ही पाकिस्तान में भी भगत सिंह की लोकप्रियता का आलम यह है कि कराची की जानी मानी लेखिका ज़ाहिदा हिना ने अपने एक लेख में उन्हें पाकिस्तान का सबसे महान शहीद करार दिया है। भगत सिंह के जन्म स्थल लायलपुर (अब पाकिस्तान का फैसलाबाद) के गांव बांगा चक नंबर 105 को जाने वाली सड़क का नाम भगत सिंह रोड है। इस सड़क का नामकरण फरहान खान ने किया था जो सेवानिवत्त तहसीलदार हैं और वह अब 82 साल के हो गए हैं। लाहौर में भगत सिंह के गांव के लिए जहां से सड़क मुड़ती है वहां भगत सिंह की एक विशाल तस्वीर लगी है। पाकिस्तान के कई बुद्धिजीवी लोग एक वेबसाइट चलाते हैं जिस पर भगत सिंह के पूरे जीवन के बारे में दिया गया है। पाकिस्तानी कवि और लेखक अहमद सिंह ने पंजाबी भाषा में केड़ी मां ने जन्म्या भगत सिंह नामक पुस्तक लिखी है। पाकिस्तान के जाने माने कवि शेख़ अय्याज़ ने भी अपने लेखों और कविताओं में शहीद ए आज़म को अत्यंत सम्मान दिया है। हिना ने लिखा है कि यदि शहीदों की बात की जाए तो शहीद ए आज़म भगत सिंह का नाम पाकिस्तान के सबसे महान शहीद के रूप में उभर कर सामने आता है। गुलामी के दिनों में पूरा भारत एक था और देश का बंटवारा नहीं हुआ था। देश को आज़ादी मिलने के साथ ही 1947 में देश का बंटवारा हुआ और अलग पाकिस्तान बन गया लेकिन वहां के लोगों के दिलों में भगत सिंह जैसी हस्तियों के लिए सम्मान में जऱा भी कमी देखने को नहीं मिलती।
वहीं शहीद-ए-आजम भगतसिंह को अपना बताने वाले भारत में ही उनकी शहादत को आतंकवाद का नाम दिया जा रहा है। यहीं नहीं शहीद-ए-आजम भगत सिंह के परिजन अपने एक रिश्तेदार को न्याय दिलाने के लिए पिछले 21 साल से कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था उस दौरान पुलिस ने उनके रिश्तेदार की हत्या कर दी थी। वह 1989 से ही लापता हैं। भगत सिंह की भांजी सुरजीत कौर के परिवार को उम्मीद है कि वे 45 साल के कुलजीत सिंह दहत के लिए न्याय हासिल कर सकेंगी। अम्बाला के जत्तन गांव के रहने वाले कुलजीत 1989 में रहस्यमय ढंग से गायब हो गए थे।
सुरजीत कौर, भगत सिंह की छोटी बहन प्रकाश कौर की बेटी हैं। वह कहती हैं कि उनके नजदीकी रिश्तेदार कुलजीत को 1989 में होशियारपुर के गरही गांव से पंजाब पुलिस ने पकड़ा था। उन दिनों (1981-95) पंजाब में सिख आतंकवाद चरम पर था। इसी सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट को मामला समाप्त करने के दिशा-निर्देश दिए हैं और होशियारपुर के सेशन कोर्ट को इस साल के मार्च तक मामले में सुनवाई पूरी करने के लिए कहा है। जिसके बाद से सुरजीत को न्याय मिलने की उम्मीद जगी है। सुरजीत का परिवार 1989 से ही कुलजीत की रिहाई के लिए प्रयासरत था। बाद में पुलिस ने कहा कि जब कुलजीत को हथियारों की पहचान के लिए ब्यास नदी के नजदीक ले जाया गया था तो वह उसकी गिरफ्त से निकलकर भाग गया था।
प्रकाश कौर ने सितंबर 1989 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग गठित किया। आयोग ने अक्टूबर 1993 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में पंजाब पुलिस अधिकारियों की ओर इशारा किया गया और कहा गया कि पुलिस की कुलजीत के भागने की कहानी काल्पनिक है। अगर शहीदों के साथ इस देश में ऐसे ही सलूक होते रहे तो कौन मां अपने बेटे को शहीद-ए-आजम भगतसिंह राजगुरु,सुखदेव,भूपेन्द्र नाथ दत्त,गणेश सावरकर,सरदार अजित सिंह, लाला हरदयाल और चन्द्रशेखर आजाद इत्यादि से प्ररणा लेने को कहेगी।
भोपाल, 22 मार्च। देश में उर्दू पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत के नवनिर्माण में उर्दू के पत्रकारों एवं उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। आज जबकि देश की तमाम भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता प्रगति कर रही है और अपने पाठक वर्ग का निरंतर विस्तार कर रही है किंतु उर्दू पत्रकारिता इस दौड़ में पिछड़ती दिख रही है। नए जमाने की चुनौतियों और अपनी उपयोगिता के हिसाब से ही भाषाएं अपनी जगह बनाती हैं। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता के सामने क्या चुनौतियां हैं, वह किस तरह स्वयं को संभालकर आज के समय को संबोधित करते हुए जनाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकती है- इन प्रश्नों पर बातचीत बहुत प्रासंगिक है। पिछले पांच सालों से सतत प्रकाशित देश की चर्चित मीडिया पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ अपना अगला अंक ‘उर्दू पत्रकारिता का भविष्य’ पर केंद्रित कर रही है। इस अंक के अतिथि संपादक प्रख्यात उर्दू पत्रकार एवं लेखक श्री तहसीन मुनव्वर होगें। उम्मीद है इस बहाने हम उर्दू पत्रकारिता के भविष्य और वर्तमान को सही तरीके से रेखांकित किया जा सकेगा। इस अंक के लिए लेखक अपनी रचनाएं 15 अप्रैल,2011 तक भेज सकते हैं। अंक से संबंधित किसी जानकारी के लिए पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी के फोन नंबर-09893598888 अथवा उनके ई-मेल 123dwivedi@gmail.com पर बातचीत की जा सकती है।
कांग्रेस पार्टी और मनमोहन सिंह सरकार के लिए विकीलीक के भारतीय केबल राजनीतिक सिरदर्द बनते जा रहे हैं। इन केबलों का जनता पर कितना असर होगा यह कहना मुश्किल है । क्योंकि आम जनता में विदेश नीति कभी प्रौपेगैण्डा का बड़ा विषय नहीं रही है। यहां तक मासमीडिया में भी विदेश नीति बहुत ही सीमित दायरे में रही है। जो लोग विदेश नीति में दिलचस्पी लेते रहे हैं उनके लिए तो विकीलीक के विदेशनीति संबंधी केबल नवजागरण का काम करेंगे । इसके अलावा राजनीतिक दलों में विदेश नीति को लेकर सतर्कता बढ़ेगी। राजनयिक गलियारों में बातें करते समय भारतीय राजनयिक सतर्कता का पालन करेंगे।
लेकिन इस सबके अलावा जो चीज सबसे ज्यादा परेशान करने वाली है वह है मनमोहन सरकार में अमेरिकी घुसपैठ। विदेशनीति से लेकर अर्थनीति तक सभी मामलों में अमेरिका की गहरी दिलचस्पी है।यह हस्तक्षेप है। यह हमारी सार्वभौम संप्रभुता का अपमान है। आश्चर्य की बात है कि जो लोग भारत के संविधान और सार्वभौम संप्रभुता की शपथ खाकर सत्ता में बैठे हैं वे ही अमेरिकी गुलामी कर रहे हैं। अमेरिका के इशारों पर नाच रहे हैं।
विकीलीक केबल बताते हैं कि अमेरिकी प्रशासन हमारे देश की सामान्य से लेकर विशिष्ट सभी किस्म की राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यप्रणाली और नीति निर्धारण को कौशलपूर्ण ढ़ंग से प्रभावित करता रहा है। साथ ही पूरी केबीनेट में अमेरिकापरस्तों को सुचिंतित भाव से बिठाने का पर्दे के पीछे से अमेरिकी खेल चलता रहा है।
अंग्रेजी दैनिक हिन्दू ने विकीलीक से एक समझौते के तहत केबल हासिल किए हैं। भारत संबंधी केबल की संख्या 5100 है। इनमें से पहले मात्र 40 केबल पहले विभिन्न अखबारों में छपे हैं। बाकी सभी केबलों पर हिन्दू अपने विशेषज्ञ-पत्रकारों के जरिए व्याख्याएं लिखवाकर प्रकाशित कर रहा है।
हिन्दू के संपादक ने विकीलीक केबल हासिल करने की प्रक्रिया पर लिखा, “Hopes of getting our hands on the entire India Cache rose in the second half of December when Julian Assange spoke, in a newspaper interview, of “the incredible potential of the Indian media” in a context of “a lot of corruption” (waiting to be exposed), a rising middle class, and growing access to the internet – and specifically mentioned and praised The Hindu.
To cut the story short, our active contacts with WikiLeaks resumed in mid-February 2011. A breakthrough was achieved without any fuss, resulting in a detailed understanding on the terms and modus of publication, including redacting (where, and only where, necessary) and compliance with a security protocol for protecting and handling the sensitive material – and we had the whole cache of the India Cables in our hands in early March.
Unlike the experience of the five western newspapers, which were involved in a prolonged and complex collaborative venture even while making independent publication choices (described in two books published by The Guardian and The New York Times), The Hindu’s receipt, processing, and publication of the cables is a standalone arrangement with WikiLeaks, which, as in the case of the five newspapers, has no say in the content of stories we publish based on the cables.”
विकीलीक केबल में जिन अमेरिकी राजनयिकों की टिप्पणियां प्रकाशित हुई हैं वे कई रोचक चीजों पर रोशनी डालती हैं। पहली चीज यह कि अमेरिकी दूतावास भारत की दैनंदिन राजनीति में सीमा से ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है। दूसरा ,भारत में किसी भी राजनेता को शासनारूढ़ करने के पहले अमेरिकी नजरिए पर पहले ध्यान दिया जाता है। मसलन किस आदमी को वित्तमंत्री बनाया जाए यह इस बात से तय होगा कि उसका अमेरिका के प्रति अनुकूल नजरिया है या नहीं ? कोई सक्षम है यही बड़ा आधार नहीं है वित्तमंत्री बनने का। बल्कि वित्तमंत्री बनने का मूलाधार है अमेरिका के प्रति उस सांसद की भक्तिभावना। तीसरा ,अमेरिकी राजनयिक अव्वल दर्जे के जनसंपर्क अधिकारी होते हैं और वे जनसंपर्क की कलाओं के जरिए नेताओं-राजनयिकों की राय को बदलने का काम करते हैं। चौथा ,अमेरिकी राजनयिकों को भारत की जमीनी राजनीतिक हकीकत का उतना ही ज्ञान है जितना वे मीडिया में पढ़ते हैं या विशेषज्ञों से सुन लेते हैं। वे अपनी कूटनीतिक चालों के जरिए सर्वज्ञ होने का दावा करते हैं लेकिन वे भारत की जमीनी वास्तविकता को कम से कम जानते हैं।
मसलन भारत के चुनावों में विदेशनीति और मध्यपूर्व नीति को लेकर कभी न तो वोट पड़े हैं और न जनता ने,खासकर मुसलमानों ने मध्यपू्र्व नीति को ध्यान में रखकर कभी वोट नहीं दिया। अतः मध्यपूर्व नीति के साथ स्थानीय मुसलमानों की नाराजगी को जोड़कर देखने का अमेरिकी राजनयिकों का नजरिया वास्तविकता से कोसों दूर है। असल में अमेरिकी राजनयिक न तो भारत को जानते हैं और न यहां के मुसलमानों को जानते हैं। वे अपने केबलों में अमेरिकी मुस्लिम स्टीरियोटाइप के आधार पर यहां मुसलमानों को देख रहे हैं।
भारत में मुसलमानों को जिस तरह सुचिंतित ढ़ंग से हाशिए पर डाला गया है उसने मुसलमानों के सामने अस्तित्व के सवालों को प्रमुख बनाया है । उनके लिए मध्यपूर्व, फिलीस्तीन, मिस्र, ईरान,इराक,अफगानिस्तान में मुसलमानों की दशा-दुर्दशा के सवाल प्रमुख तो छोड़ो हाशिए के सवाल भी नहीं हैं। भारत के मुसलमान ‘विश्व के मुसलमानों एक हो’ नारे में यकीन रही रखते।
विकीलीक के भारत संबंधी केबल एक तथ्य को बार-बार सामने ला रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी और मनमोहन सरकार का अमेरिका से गहरा याराना है। अमेरिका के इशारों पर मनमोहन सरकार काम करती रही है। यह मनमोहन सिंह और कांग्रेस के लिए शर्मिंदगी की बात है। साथ ही यह तथ्य भी सामने आया है कि भाजपा को अमेरिकी राजनयिक दोगले स्टैंड वाली पार्टी के रूप में देखते हैं।
सरकार को अदालती आदेश एक लोकतांत्रिक देश की निकम्मी कार्र्यपालिया पर न्यायपालिका का तमाचा से कम नहीं।
धोके से राजनीति में आने की बात कहने वाले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कभी सपने में भी नहीं सोचे होंगे कि वे एक दिन भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे। इसे भाग्य का खेल कहें या महज संयोग। साल 2004 में यूपीए वन ने एनडीए की शाइनिंग इंडिया की हवा निकालकर अप्रत्याशित जीत दर्ज की। इस के बाद प्रधानमंत्री के तौर पर सबसे पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का नाम सामने आया। इस बार सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने पर विदेशी मूल का मुद्दा उछालने और फिर कांग्रेस पार्टी से विद्रोह कर अपनी अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाकर राजनीतिक बवंडर मचाने वाले शरद पवार भी उनके समर्थन में खुलकर सामने आए, लेकिन पूर्ण बहुमत होने के बाद भी सोनिया गांधी ने विदेशी मूल के मुद्दे पर भाजपा और संघ नेताओं के विरोध प्रदर्शन की धमकी के बीच विरोधियों को राजनीतिक पटखनी देते हुए पीएम के पद को ठुकरा दिया। इसके बाद पार्टी व देश में सोनिया और मजबूत नेता के तौर पर उभरी। सोनिया को गोविंदा सरीखे कुछ नेताओं ने राष्ट्र माता का खिताब भी दे डाला था।
इसके बाद बारी आई पीएम के चुनाव की । इस दौरान अर्जुन सिंह और प्रणब मुखर्जी जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं पर सबकी निगाहें टिकी थी, लेकिन सोनिया को एक ऐसे प्रधानमंत्री की तलाश थी, जो उनकी सुपर प्रधानमंत्री की भूमिका को कभी खारिज नहीं कर पाए। लिहाजा काफी माथा पच्ची के बाद जो नाम कांग्रेस पार्टी आला कमान की तरफ से सामने आया, वह था एक कुशल वित्त नियंत्रक और देश में उदारीकरण व विकास की गंगा बहाने वाले पूर्व वित्त मंत्री मनमोहन सिंह का। डॉ. सिंह का नाम सामने आते ही ये आवाज उठने लगी कि सुपर प्रधानमंत्री तो सोनिया गांधी ही रहेंगी। मनमोहन सिंह तो रबड़ स्टैंप प्रधानमंत्री होंगे। इन आरोपों के बाद मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री की जो संज्ञा मिली, उसने कभी इनका पीछा नहीं छोड़ा। 15वीं लोकसभा चुनाव में तो कमजोर प्रधानमंत्री का मुद्दा इस कद्र गरमाया कि ये कमजोर प्रधानमंत्री बनाम लौह पुरुष के बीच का अखाड़ा बन गया। भाजपा के वरिष्ठ नेता और एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने तो मनमोहन सिंह को अमेरिकी तर्ज पर खुली बहस की चुनौती तक दे डाली, जिसे कांग्रेस पार्टी ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि भारत में इस तरह की परिपाटी नहीं रही है। अपने बचाव में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी कहा था कि किसी व्यक्ति का कमजोर या मजबूत होना इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि कौन कितना बोलता है, बल्कि इसका संबंध काम से है कि कौन कितना काम करता है। आडवाणी अपने इस मुहिम में विफल साबित हुए और यूपीए को दुबारा से बुहमत दिलाकर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए-टू फिर से सत्ता में काबिज होगई। इसके बाद लगा कि अब ये मुद्दा हवा हो चुका है, क्योंकि जनता ने मनमोहन सिंह की नेत्ृत्व वाले गठबंधन यूपीए-टू को जिता कर ये साबित कर दिया था कि मनमोहन सिंह कमजोर नहीं एक मजबूत प्रधानमंत्री हैं।
कुछ दिनों तक ये मुद्दा शांत भी रहा, लेकिन वर्ष 2010 में जिस तरह एक के बाद एक घपलों और घोटालों की बाढ़ आने लगी और प्रधानमंत्री इन शिकायतों पर कार्रवाई करने के बजाए बेबस हाथ पर हाथ डाले बैठे दिखाई दिए। इसने अब ये साबित कर दिया कि वाकई मनमोहन सिंह एक कमजोर ही नहीं, बल्कि लाचार प्रधानमंत्री भी हंै। अपने ऊपर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोप के बाद प्रधानमंत्री ने टीवी पत्रकारों के साथ वार्ता के जरिए इस मुद्दे पर देश की जनता से सीधी बात की और अपनी मजबूरीयां गिनाईं। प्रधानमंत्री ने खासकर टू-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में 1.76 लाख करोड़ के घोटाले का जिक्र करते हुए इसे गठबंधन की मजबूरी बताकर अपना दामन पाक-साफ दिखाने का प्रयास किया, लेकिन प्रधानमंत्री का बयान विपक्ष को एक और मुद्दा थमा गया। भाजपा ने यह तर्क दिया कि प्रधानमंत्री गठबंधन सरकार का बहाना बनाकर नहीं बच सकते। आखिर 70 हजार करोड़ के घपलेबाज ओलंपिक आयोजन समीति के अध्यक्ष किस गठबंधन दल से है? आदर्श सोसायटी छोटाले के मुख्य सुत्रधार और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वान भी क्या किसी सहयोगी दल के हैं, लेकिन इसका कांग्रेस पार्टी के पास कोई जवाब नहीं था। सिवाए भूमि घोटाले से घिरे कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री येदुयुरप्पा के गुनाहों को गिनवाने के। यानी एक गुनहगार की आड़ में दूसरे गुनहगारों को बचाने का खेल बखूबी खेला गया। इस दौरान एक बात जो प्रधानमंत्री ने कही वह यह कि मैं नौकरी कर रहा हूं। इससे ये साफ जाहिर होता है कि डॉ. सिंह को अपने पद की पॉवर और गरिमा का एहसास ही नहीं है, बल्कि वह अपने पद को किसी मल्टी नेशनल कंपनी के सीईओ के पद से आंक रहे हैं। इससे तो पता चलता है कि प्रधानमंत्री रिजर्व बैंक के गवर्नर और योजना आयोग के उपाध्यक्ष के पद से ज्यादा के काबिल नहीं हैं। यही वजह है कि कई शिकायतों के बाद भी पीएम ने संचार मंत्री डी. राजा, ओलंपिक आयोजन समीति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी और सीवीसी पीजे थॉमस के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर पाए। यहां तक कि मनमोहन सिंह की सरकार गोदामों में सड़ रहे अनाजों को बांटने का निर्णय तक नहीं ले पाई। जो भी कार्रवाई हुई वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुई। यूपीए सरकार के कर्ता-धर्ता अब तक काले धन के मुद्दे पर राजनीति कर रहे भाजपाइयों को एनडीए के छ: साल के शासनकाल में इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाने की बात कहकर बाोलती बंद करते रहे हैं, लेकिन अब यूपीए सरका को सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर लताड़ लगाई है कि काला धन वापस लाने हेतू क्यों नहीं एसआईटी का गठन किया जा सकता है।
इसे देखकर ऐसा लगता है कि भारत में पाकिस्तान जैसे हालात निर्मित हो रहे हैं। जहां सरकार के निकम्मा होने पर हर मामले में सुप्रीम कोर्ट अपने चाबुक के दम पर सरकार को कुछ कड़े फैसले लेने पर मजबूर करती है। अब यहीं नजारा भारत में भी आम होता जा रहा है, जिसे देखकर ऐसा लगता है, मानो सरकार मनमोहन सिंह नहीं, सुप्राम कोर्ट चला रहा हो। कोर्ट के इस फैसले से भले ही लोगों को राहत मिलती हो, लेकिन अदालती आदेश एक लोकतांत्रिक देश की निकम्मी कार्र्यपालिया पर न्यायपालिका का तमाचा से कम नहीं है।