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एकलव्य प्रसंग : आधुनिक पुनर्पाठ

एक राजा का लड़का था जो इतने के बावजूद राजपूत नहीं था। चूँकि उसका पिता जन्म से क्षत्रप न होकर निशाद था अतः वह राजपूत होने की न्यूनतम अर्हता पूरी करके भी वांछनीयताओं में पिछड़ जाता था। तत्कालीन पूर्ण पक्के राज पुत्रों के समान उसने भी िक्षित होने का मन बनाया। हालांकि उसके पिता ने उसे समझाया कि शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार हम लोगों का नहीं है क्योंकि हम लोग पैर से जन्मे हैं, अब पैर और दिमाग के बीच में पूरे भारीर की दूरी तुम कई योनियों में कई बार जन्म लेकर के पार कर पाओगे और जब ऐसा कर लेना तब चले जाना गुरुजी के पास।’’ लेकिन बच्चा आज के किसी एक कवि की पंक्तियों से बहुत प्रभावित था, जिसके अनुसार ‘हार नहीं मानुंगा, रार नहीं ठानुंगा।’ उसने प्रण किया कि पॄाई तो करनी ही है, चाहे जो हो जाय। उस समय तक रूसो रविन्द्रनाथ टैगोर या जे0 कृश्णमूर्ति नहीं हुए थे जो बच्चे को समझाते कि ॔बेटा प्रकृति से सीखो। गुरु लोग सामाजिक और गुरुतापूर्ण हैं। सामाजिक होने के कारण वो सामाजिक सच्चाइयों जैसे जाति व वर्ग के आलोक में अद्वैती से द्वैती हो गए हैं। वो हर मनुश्य में परमात्मा और ईवर का दार्न तो करते हैं किन्तु पूजते हैं गोरे, दूधिए, स्वर्णाभूशण जड़ित, कमल व गुलाब की गमगम के माहौल में नित्य मगन रहने वाले देवों को। उनका चेला बनोगे तो खटाएंगे तुमको और एक्सिलेंस अवार्ड (या नौकरी) दे देंगे अपने सामाजिकों को। प्रकृति बेईमान नहीं है, वह तुम्हें मुफ्त में िक्षित करेगी और गुरुदक्षिणा भी नहीं लेगी।’ लेकिन लड़का जिद्दी था, ठान लिया था कि पूँगा तो गुरुजी से ही अतः एक दिन मातापिता की सलाह का उल्लंघन करके, चनाचबैना गठरी में पैक करके भोर में भागा और कई दिनों की यात्रा के बाद गुरु के सामने उपस्थित। अपने बॉयोडाटा के पर्सनल इनफार्मोन वाली सूचनाओं का खुलासा करते ही गुरु और गुरु के चेले भड़क उठे “हिम्मत देखो साले की, ……… पॄाईे करेगा, पॄने आया है, दिमाग उड़ने लगा है, …………. केवट का बेटा बराबरी करने चला है राजपूतों की………. ।’ उस समय तक लोकतंत्र और रिजर्वोन नहीं लागू हुआ था और न ही िक्षा का मूल अधिकार बनकर आया था। हालांकि आजकल के सवर्ण विद्यालयों ने इतने के बावजूद धनहीनों के लिए दोयम दर्जे की िक्षा उपलब्ध कराने के लिए अलग कक्षांए चलाने की वकालत की किन्तु लोकतंत्र ने ज्ञान के सूर्य पर पैसे के ग्रहण को नहीं लगने दिया और शिक्षास्ति्रयों तथा मानवाधिकार के पैरोकारों के कारण सवर्ण सरकारी और सवर्ण निजी विद्यालयों की गणित फेल हो गई। किन्तु उस समय तक इस गणित को काटने का लोकतंत्री फार्मूला विकसित नहीं हुआ था। िक्षा अगड़ों की रखैल थी अतः बच्चे को राजा से एन0ओ0सी0 (नो आब्जेकन सर्टिफिकेट) लाने को कहा गया। राजा मुर्ख थोड़े न था और लड़के में भी बुद्धि का उदय धीरेधीरे होने लगा था फिर भी वह राजा के दरवाजे पर पहुँचा तो देखा एक आदमी को वृक्ष से बांधकर पीटा जा रहा था। आसपास पूछने पर पता चला कि वह भाूद्र होकर भी वेद पॄने का प्रयास कर रहा था। लड़का फिर भागा और जाकर जंगल में रूका। घर जा नहीं सकता था क्योंकि घर से तो भागकर िक्षित होने आया था और िक्षा पानी ही थी, चाहे जो हो जाय। िक्षा भी ऐसी वैसी नहीं, पूरी राजपूतों वाली, भास्त्र िक्षा, क्योंकि था तो वह राजपूत ही। भास्त्रीय अर्थ में नहीं तो भाब्दिक अर्थ में ही सही। अब प्रकृति तो उदारता की िक्षा, सहनाीलता की िक्षा देती है किन्तु उसे तो लेना था बदला। खुद को अपमानित करने वाले राजपुत्रों से। अतः गुणागणित, टेक्निककौाल और भास्त्रसंचालन कुछ भी उनसे कमतर नही जानना था। इसलिए सीखना उसी से था जो उनको सिखा रहा है अतः लड़के ने मिट्टी का ांचा खड़ा किया जो किसी भी तरह से गोरा गुरु नहीं था, किन्तु फिर भी लड़के ने अपनी श्रद्घावा इस निर्जीव ांचे को भी सजीव गुरु सा स्वीकारा। उसने कड़ी मेहनत करके इस निर्जीव गुरु के ढांचे के सामने भास्त्र संचालन में निपुणता हासिल की और एक दिन जब वो सजीव गुरु अपने राजपुत्र िश्यों के साथ इस जंगल से गुजर रहा था तो एक दुर्घटना घटी। राजपुत्रों के विश्रामस्थल से उनका कुत्ता भटकता हुआ आया और इस काले लड़के को देखकर भौंकने लगा। अब तक वह भी राजपाु हो चुका था अतः उसमें भी रियाया से ईश्र्या करने वाले द्वेशाणु पनप चुके थे। लड़के ने सोचा कुत्ता भूखा होगा अतः उसके सामने जो कुछ अपने से बचा खुचा था वह डाल दिया लेकिन कुत्ते ने नहीं खाया। भायद उसने कलयुग की खबर को आधुनिक संतों की तरह इन्ट्यून से पहले ही जान लिया था कि ॔भाुद्र के घर की रोटी खाने वाला कुत्ता भी अछूत मान लिया जाता है।’ अतः उसने रोटी नहीं खाई और लड़के की इस गुस्ताखी के दंडस्वरूप लगातार भौंकना व उसे काटने का प्रयास जारी रखा। तब लड़के ने अपनी धनुर्विद्या द्वारा गुरु के चरणों में भाीा नवाकर कई बाणों को कटोरीनुमा रूप में इस प्रकार छोड़ा कि कुत्ते के भारीर से बिना रक्त की एक बूंद गिरे, उसका मुख बंद हो गया। अब कुत्ता गूंगा कर के रिरियाने लगा और पूंछ हिलाता हुआ अपने खेमे में पहुंचा। कुत्ते को देखते ही वहां भूचाल आ गया। गुरु द्वारा दुनिया का सर्वश्रेश्ठ धनुर्धर होने का आिर्वाद पाया राजपुत्र दातों तले उंगलियां दबा लिया। आपस में राजपुत्रों की मंत्रणा हुई और गुरु के पास गुरु के झूठे होने की खबर पहुंची। गुरु राजपुत्रों के रोश से विचलित हो गए। उन्हें अपनी नौकरी जाने और भूखों मरने की चिंता सताने लगी अतः राजपुत्रों के रोश को दूर करने के लिए गुरु उस स्थान पर पहुंचे जहां लड़का अभ्यासरत था। लड़के ने गुरु के चरणों में भाीश नवाने को पांव आगे ब़ाया कि गुरु पीछे हट गए। उन्हें एक अछूत से सस्पार अभिवादन लेने में खुद के धर्मभ्रश्ट हो जाने का खतरा महसूस हुआ अतः दूर से ही पूछा ॔किसके िश्य हो तुम।’ लड़के ने बोला ॔आपके गुरुजी।’ राजपुत्र गुरु से दूर हट कर हिराकत की नजर से देखने लगे। धनुर्धारी राजपुत्र ने मन में सोचा कि ये पैसा तो लेते हैं हमसे और सर्वश्रेश्ठ िक्षा हमें न देकर दे रहे हैं दूसरे को। हालांकी गुरु आधुनिक िक्षक नहीं थे, जो सरकार का वेतन लेकर कक्षा में नहीं पॄाते और व्यक्तिगत पैसों पर ट्यून पॄाते, हालांकि यहाँ उसके लिए भी कोई स्पो नहीं था क्योंकि ट्यून पॄने का इच्छुक श्रीहीन था फिर भी, गुरु की अपनी नौकरी जाने का खतरा महसूस हुआ। अब बचाव का एक ही रास्ता था कि राजपुत्रों को संतुश्ट किया जाय जिसके लिए लड़के की बलि आवयक थी। गुरु फ्रंट पर आये ॔मेरे िश्य हो तो गुरुदक्षिणा दोगे’ लड़का चूंकि पिछड़ा था अतः अगड़ों के छलप्रपंच, कौाल व भाईभतीजावाद से अनभिज्ञ था। वह सहशर आगे आया ॔जो चाहे मांग लें गुरुदेव, जान हाजिर है’ ॔जान नहीं अंगूठा दे दो’ गुरु ने धनुर्धारी राजपुत्र की तरफ देखा। धनुर्धारी को अब विवास हुआ कि गुरुजी ईमानदार हैं। ॔जिसका खाते हैं, उसी का गाते हैं।’ लड़के ने अंगूठा काटकर गुरु को भेंट कर दिया। अपनी सारी तपस्या, सारी निश्ठा, सारा परिश्रम गुरु के चरणों में भेंट कर दिया और उफ तक नहीं किया। गुरु ने धनुर्धारी को देखा और दोनों के होंठ हंसने को फैल गए। गुरु दोणाचार्य थे, लड़का एकलव्य और धनुर्धारी राजपुत्र अर्जुन।

 

भट्ट पर ‘‘निशंक’’ की पैनी नजरें!

निशंक सरकार ने अपनी सरकार की वाह वाही लूटने के लिए अटल खाद्यान्न योजना तो शुरू कर दी है लेकिन उसे सही ंग से धरातल पर क्रियान्त्रिवत कराने में इस सरकार को सर्दी के मौसम में भी पसीने छूट रहे है। गरीबों को सस्ता राशन देने की घोषणा के बाद लोगों को पहले ही माह में निर्धारित किये गये अनाज कई दुकानदारों से पूरा नहीं मिल पा रहा है। एपीएल व बीपीएल दोनों ही श्रेणी के लोगों को सस्ता राशन अनेक कार्ड धारकों को नहीं मिलने से विभागीय मंत्री के माथे पर भी चिन्ता की लकीरें पड़ना तो दूर वे विभाग के लापरवाह अफसरों पर भी लगाम नहीं लगा पा रहे है। खास बात यह है कि भले ही खाध्य विभाग के मंत्री दिवाकर भट्ट है लेकिन यह सस्ता राशन खाद्यान्न योजना गरीबों तक पहुंचने की योजना व घोषणा किया जाना स्वयं मुख्यमंत्री डॉ़ रमेश पोखरियाल निशंक के मास्तिष्क की उपज व उन्हीं की योजना है। मुख्यमंत्री डॉ़ निशंक ने इस अटल खाद्यान्न योजना का लाभ राज्य के एपीएल व बीपीएल कार्ड धारकों तक पहुंचाने के लिए बाकायदा दिल्ली द्रबार से अपनी पार्टी के सुप्रीमों नितिन गडकरी को राज्य में बुलाकर उनके हाथों से सस्ता राशन खाद्यान्न योजना का विधिवत रूप से उद्घाष्टन अथक शुभारंभ कराने में कामयाबी हासिल कर ली है परन्तु योजना के शुरू होने के बाद से इस मामले में पेंच ही पेंच आड़े आ रहे है। प्रथम माह ही कार्ड धारकों को इस चुनावी योजना का मात्र जाने वाला सस्ता राशन उपलब्ध होने में कैंची फिर रही है तो अगले माह मार्च में योजना का ‘‘हाल’’ क्या होगा? उसका स्वतः ही अनुमान लगाया जा सकता है। मुख्यबात यह है कि खाध्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री दिवाकर भट्ट के हाथों से यह नईनवेली सस्ता खाद्यान्न योजना कतई भी ठीक ंग से नहीं चल पा रही है। भाजपाई निशंक सरकार की यह योजना दिवाकर भट्ट से इसलिए सफलतापूर्वक संचालित नहीं हो पा रही है क्योंकि उनका अपने संबंधित विभाग पर अंकुश नहीं है। खाध्य विभाग के अधिकारी ही इस खाद्यान्न योजना के संचालन हेतु अपने ही मंत्री को पहाड़ा पॄाते रहते है? चुनावी दृष्टि से भाजपा सरकार द्वारा प्रारंभ की गई इस खाद्यान्न योजना को संचालित करने में जब मुख्यमंत्री डॉ़ निशंक को यह लगने लगा कि दिवाकर भट्ट के बस की बात योजना को संचालित करना नहीं है तो निशंक ने दिवाकर की कार्यशैली पर पैनी नजर रखकर यह पता लगाना प्रत्रांरभ कर दिया है कि आख्रि यह योजना संचालित करवाने में दिवाकर भट्ट ‘‘निशंक’’ सरकार की धाज्जियां एवं खिल्ली कहाकहा अथवा किसकिस मोचेर पर उड़वा रहे है? कहने का अभिप्राय यह है कि मुख्यमंत्री डॉ़ रमेश पोखरियाल निशंक इस बात को लेकर गहरी चिन्ता में है कि कहीं दिवाकर भट्ट उनकी सरकार की इस योजना को हास्यास्पद बनवा कर न रहे जाएं? क्योंकि स्वयं निशंक इस योजना को लेकर ही संभावतः आगामी विधानसभा चुनाव को सफलतापूर्वक भुनाना चाहते है। यदि सरकार की यह सस्ता अनाज खाद्यान्न योजना समय की यह सस्ता अनाज खाद्यान्न योजना समय से पूर्व ही दम तोड़ गयी तो आगामी चुनावी मिशन भी संभावतः फेल हो सकता है? चचार्एं तो अब सस्ता की कुछ टेबलकुसीर पर यह होने लग गयी है कि खाध्य मंत्री दिवाकर भट्ट से खाध्य विभाग वापस लेने की निशंक सरकार सोच रही है। क्योंकि मुख्यमंत्री चाह रहे है कि उनके द्वारा शुरू की गयी खाद्यान्न योजना कम से कम आगामी दिसंबर माह तो ठीकठाक ंग से परवान च़ी रहे है और इसके लिए अभी समय रहते अति आवश्यक कदम उठाना जरूरी समझा जा रहाह है। यह समझा जा रहा है कि डॉ़ निशंक खाध्यमंत्री दिवाकर भट्ट से दोचार दिन में यानि कि इसी माह के अंत तक खाध्य विभाग के मुद्दे व खाद्यान्न योजना को लेकर महत्वपूर्ण बातचीत करने वाले है। फिहहाल तो सस्ता राशन खाद्यान्न योजना को समय रहते दम न तोड़ने हेतु मुख्यमंत्री खुद ही योजना की मॉनिटरिंग कर हे है। अपने विशेष दूतों के जरिये डॉ़ निशंक खाध्य मंत्री दिवाकर भट्ट पर विशेष नजर भी रख्त्रो हुये है तथा प्रतिदिन मामले की रिपोर्ट लेकर उस पर एक्शन लेने की योजना बना रहे है। अब सवाल यही उठ रहा है कि क्या मुख्यमंत्री डॉ़ निशंक अपनी कैबिनेट के उक्रांद कोटे के इकलौते मंत्री दिवाकर भट्ट से खाध्य विभाग वापस लें लेंगे जिसकी काफी संभावनाएं बनती नजर आ रही है। यदि दिवाकर भट्ट से निशंक सरकार यह महत्वपूर्ण विभाग छीनती है तो तभी सीएम निशंक सीधे अपने स्तर से इस योजना को सही ंग से काफी हद तक संचालित भी करा सकते है और अफसर भी सुधर जाएंगे?

विकीलीक और अमेरिकी साम्राज्यवाद -1

अंग्रेजी लेखक लेखक जेफ्री आर्चर ने ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ को दिए एक साक्षात्कार में कहा है विकीलीक ने ‘समाचार’ को नए रूप में जन्म दिया है। यह समाचार के नए रूप की शुरूआत है। इस बयान में एक हद तक सच्चाई है .लेकिन विकीलीक के बारे में कोई भी समझ ‘नयी विश्व व्यवस्था’ के अमेरिकी फतवे को दरकिनार करके नहीं बनायी जा सकती। शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ अमेरिकी रणनीति क्या रही है और वह किन

लक्ष्यों को हासिल करने का प्रयास करता रहा है इसे जानने के लिए विकीलीक के दस्तावेज प्रामाणिक सामग्री मुहैय्या कराते हैं। यह समाचार का नया विचारधारात्मक पैराडाइम है।

अमेरिका ने नयी विश्व व्यवस्था में एकमात्र महाशक्ति के नाम पर किस नरक की सृष्टि की है वह सब विकीलीक ने उदघाटित किया है। अमेरिका का नयी विश्व व्यवस्था के संदर्भ में प्रधान लक्ष्य है यूरोप से लेकर एशिया तक,लैटिन अमेरिका से लेकर पूर्व सोवियत गुट के समाजवादी देशों तक किसी भी क्षेत्र में कोई भी महाशक्ति पैदा नहीं होनी चाहिए। सन् 1992 में कारनेगी इंडोवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के द्वारा जारी एक दस्तावेज में कहा गया है कि मानव अधिकारों की रक्षा के नाम पर अमेरिका और उसके सहयोगी राष्ट्रों को सैन्य हस्तक्षेप करना चाहिए। इसके लिए सबसे प्रभावी माध्यम है नाटो जिसका हमें इस्तेमाल करना चाहिए। नयी विश्वव्यवस्था का यही वह बुनियादी लक्ष्य है जिसके विध्वंसक स्वरूप का विकीलीक ने रहस्योदघाटन किया है।

विकीलीक का मामला इंटरनेट और मीडिया में अब ठंडा पड़ गया है। लेकिन उसने जिस तरह अकस्मात सबका ध्यान खींचा और अचानक क्षितिज से गायब हो गया इस पर हमें सोचना चाहिए। हम सब जानते हैं कि यह हाइपर रियलिटी का जमाना है और इसमें सच और झूठ में फर्क करना बेहद मुश्किल होता है। विकीलीक के रहस्योदघाटन ने भी यही स्थिति पैदा की है कि आप तय नहीं कर सकते कि सच क्या है और झूठ क्या है।

विकीलीक की प्रस्तुतियों का आधार है उपभोक्ता की कम जानकारी और सनसनी की भावना। दूसरी ओर लीक दस्तावेजों में सुसंगत विवेचन का अभाव है। ये दस्तावेज व्याख्या के बिना सीधे परोसे गए हैं। ये लीक मूलतः उत्तर आधुनिक प्रस्तुति हैं। यह हाइपररीयल प्रस्तुति है। इसमें अंशतः सत्य,अंशतः अमेरिकी राष्ट्रवाद,अंशतः अमेरिकी शैतानियां, अंशतःसीआईए की कारस्तानियां,अंशतः भारत की सच्चाई, अंशतः दुनिया के अनेक देशों की सच्चाईयां चली आई हैं। यानी सच्चाई का अंश ही इसकी धुरी है। समग्रता में लीक को पढ़ना संभव नहीं है। अंश में सच को कारपोरेट मीडिया भी पेश करता है और इंटरनेट पर विकीलीक ने भी यही काम किया है फलतः मीडिया फ्लो के उत्तर आधुनिक वातावरण का उसे अधिकांश देशों में सहारा मिला और कारपोरेट मीडिया ने उसे खूब प्रचारित किया।

विकीलीक के खुलासे का अमेरिकी साम्राज्यवाद को समझने के लिहाज से महत्व है। अमेरिकी अभिजन,अमीर,कारपोरेट घराने,सीआईए, पेंटागन,विदेश विभाग,राजनेता आदि की मनोदशा और विचारधारा में निहित अलोकतांत्रिक भावबोध को समझने में इससे मदद मिल सकती है। अमेरिकी तंत्र किस तरह के नायकों-खलनायकों और विचारों से चालित है यह भी विकीलीक से पता चलता है।29 नवम्बर 2010 को विकीलीक ने 251,287 अमरीकी दस्तावेज और केबल संदेशों को इंटरनेट पर जारी किया। इनमें केबल संदेश 1966 से लेकर फरवरी 2010 तक के हैं। इनमें 274 एम्बेसियों के गुप्त संदेश हैं। इसके अलावा अमरीका के गोपनीय 15,652 केबल संदेश भी हैं। इन संदेशों और दस्तावेजों में एक बात साफ है कि अमरीका विभिन्न देशों में जासूसी करता रहा है। खासकर मित्र देशों के यूएनओ मिशनों की जासूसी करता रहा है।

यह कानूनन गलत है। साथ ही इन संदेशों ने अमरीकी लोकतंत्र की नीतियों की पोल खोलकर रख दी है। जो अमरीका को आदर्श लोकतंत्र मानते हैं वे जरा इन दस्तावेजों के आइने में नए सिरे से अमरीका को परिभाषित करें ?

अमेरिका राजनयिक कामकाज की आड़ में किस तरह दूसरे देशों की संप्रभुता का अपहरण करता रहा है,जासूसी करता रहा है, हस्तक्षेप करता रहा है, और अमेरिकी संविधान में जो वायदे किए गए हैं उनका अमरीकी सत्ता पर बैठे लोग कैसे उल्लंघन करते रहे हैं, यह सब इससे साफ पता चलता है। यह भी पता चलता है कि अमेरिका दुनिया का भ्रष्टतम देश है।

तकरीबन 251,287 दस्तावेज जारी किए गए हैं जिनमें 261,276,536 अक्षर हैं। यानी इराक युद्ध के बारे में जितने दस्तावेज जारी किए थे उससे सातगुना ज्यादा । इसमें 274 दूतावासों और कॉसुलेट्स के केबल संदेश हैं। इसमें 15,652 सीक्रेट हैं,101,748 कॉन्फीडेंशियल और 133,887 अनक्लासीफाइड हैं। इनमें सबसे ज्यादा इराक पर चर्चा है। तकरीबन 15,385 केबल संदेशों में 6,677 केबल संदेश इराक के हैं।अंकारा,तुर्की से 7,918 केबल हैं।

अमरीका के स्टेट ऑफिस सचिव के 8017 केबल संदेश हैं। अमरीका के वर्गीकरण के अनुसार विदेशी राजनीतिक संबंधों पर 145,451 ,आंतरिक सरकारी कार्यव्यापार पर 122,898,मानवाधिकार पर 55,211, आर्थिकदशा पर 49.044,आतंकवाद और आतंकियों पर 28,801 और सुरक्षा परिषद पर 6,532 दस्तावेज हैं। मोटे तौर पर विकीलीक ने जुलाई 2010 में अफगानिस्तान से भेजी 92,000 सैन्यमोर्चे की लीक प्रकाशित कीं जिनमें बताया गया था कि अफगानिस्तान में 20 हजार निर्दोष नागरिक सैन्य हमलों में मारे गए हैं।

सन् 2010 के अक्टूबर में इराक के बारे में चार लाख दस्तावेज प्रकाशित किए गए जिनमें बताया गया कि अमेरिका और मित्रदेशों के हमलों में हजारों निर्दोष इराकी नागरिकों की मौत हुई है।साथ ही बड़े पैमाने पर यातनाशिविरों में भी इराकी नागरिकों का उत्पीड़न हो रहा है।

इस लीक के दो आयाम है पहला आयाम है सूचनाओं का उदघाटन और दूसरा आयाम है इंटरनेट नियंत्रण। पहले का संबंध सत्य की भूख से है ,दूसरे का संबंध सत्य के दमन से है। यह नए युग का बड़ा अन्तर्विरोध है जिसे हम सत्य की चाह और दमन के अन्तर्विरोध के रूप में जानते हैं। यह अमेरिका नियंत्रित नयी विश्व व्यवस्था का प्रधान अन्तर्विरोध है।

असल में विकीलीक के बहाने से अमरीकी प्रशासन इंटरनेट पर अंकुश लगाना चाहता है। वे इंटरनेट पर उन तमाम राजनीतिक खबरों को सेंसर करना चाहते हैं जो अमेरीकी प्रशासन को नागवार लगती हैं। स्थिति का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि ओबामा प्रशासन ने सभी सरकारी कर्मचारियों के नेट पर विकीलीक पढ़ने पर पाबंदी लगा दी है। कई कांग्रेस सदस्य और ज्यादा व्यापक पाबंदी की मांग कर रहे हैं,कुछ ने

विकीलीक के संस्थापक की गिरफ्तारी की मांग की है। लाइब्रेरी आफ कांग्रेस ने अपने सभी कम्प्यूटरों पर इस लीक को पढ़ने से रोक दिया है। यहां तक कि रीडिंग रूम में नहीं पढ़ सकते। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के डिप्लोमेटिक छात्रों को इस लीक को पढ़ने से वंचित कर दिया गया है,उनके पढ़ने पर पाबंदी लगा दी गयी है। उन्हें कहा गया है कि इस रिपोर्ट पर कोई टिप्पणी न करें। कई सीनेटरों ने ऐसे

कानून बनाने का आधिकारिक प्रस्ताव दिया है जिसके आधार पर गुप्त दस्तावेज प्रकाशित करना और पढ़ना अपराध घोषित हो जाएगा। अमरीकी कानून संरक्षकों ने कॉपीराइट के उल्लंघन का बहाना करके कुछ इंटरनेट डोमेन को बंद करा दिया है। ये सारी बातें अमरीका में अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडरा रहे खतरे की सूचना दे रही हैं।

विकीलीक के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस तरह के लीक अमरीका में होते रहते हैं, खासकर जो व्यक्ति कल तक विदेश विभाग में राजनयिक की नौकरी कर रहा था वह ज्योंही सेवामुक्त होता है अपने साथ ढ़ेर सारे गुप्त दस्तावेज ले जाता है और उनका रहस्योदघाटन करने लगता है। इसी प्रसंग में न्यूयार्क स्थित राजनीतिविज्ञानी प्रोफेसर डेविड मिशेल ने महत्वपूर्ण बात कही है। डेविड ने लिखा है कि इसमें रहस्योदघाटन जैसा कुछ भी नहीं है। विकीलीक के दस्तावेज महत्वपूर्ण है लेकिन उतने नहीं जितने कहे जा रहे हैं। ये पेंटागन के रूटिन दस्तावेज हैं। ये महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि इनमें अमरीकी सरकार की कथनी और करनी के भेद को साफ देखा जा सकता है। इस अंतर को ही ‘आकर्षक अमरीकी‘झूठ’ कहा जा सकता है।

विकीलीक की सूचनाएं सामान्य सूचनाएं नहीं है,यह महज गॉसिप नहीं है,यह एक्सपोजर मात्र नहीं है,यह कोई षडयंत्र भी नहीं है,बल्कि सोची-समझी रणनीति के तहत जारी की गयी राजनीतिक सूचनाएं हैं, कूटनीतिक सूचनाएं हैं। इनके गंभीर दूरगामी परिणाम होंगे। इसके बहुस्तरीय और अन्तर्विरोधी अर्थ हैं।

एक बात सामान्य रूप में कही जा सकती है कि विकीलीक के एक्सपोजर ने इंटरनेट स्वतंत्रता की परतें खोलकर रख दी हैं। इसने अमेरिका के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पाखण्ड को एकसिरे से नंगा कर दिया है। बुर्जुआ लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहीं तक है जहां तक आप राज्य की सत्ता और संप्रभुता को चुनौती नहीं देते।

विकीलीक का दूसरा महत्वपूर्ण संदेश यह है संचार क्रांति ने अपना दायरा सीमित करना आरंभ कर दिया है। तीसरा संदेश यह है उत्तर आधुनिकतावाद का अंत हो गया है। विकीलीक ने संचार क्रांति के साथ आरंभ हुए उत्तर आधुनिकतावाद को दफन कर दिया है। यह नव्य उदारतावाद के अवसान की सूचना भी है।

 

‘‘निशंक सरकार’’ पड़ सकती है कई सियासी मुसीबतों में

उत्तराखंड प्रदेश में निशंक सरकार की मुसीबतों में इजाफा होने लगा है जिसकी रफ्तार काफी तेज नजर आ रही है। मुख्यमंत्री डॉ़ रमेश पोखरियाल निशंक के लिए बड़ी परेशानी यह पैदा होने लग गयी है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी उन मामलों को खंगालने लगा है जो कि कुछ समय पहले घोटालों के रूप में उजागर हुए थे और विपक्षी दल ने उन घोटालों को महाघोटाले करार देते हुए सड़कों पर जमकर हंगामा किया । आगामी विधानसभा का जो सत्र अगले माह के द्वितीय सप्ताह से संभवतः होने जा रहा है उसमें सरकार के लिए बड़ी मुसीबते खड़ी हो सकने की पूरी संभावनाएं भी बन चुकी है। मुख्यमंत्री डॉ़ निशंक पर अब तक उनके कार्यकाल में करीब एक दर्जन ऐसे घोटालों के आरोप लग चुके है जिन्होंने सरकार की जमकर किरकिरी की है। इन घोटालों में विद्युत परियोजनाओं के घोटाले, कुंभ घोटाला, सैफ गेम्स घोटाला व अन्य घोटाले शामिल है। करोड़ों के इन घोटालों के आरोपों की परतें राज्य में खुलती भी प्रतीत हो रही है। निशंक सरकार पर कई घोटालों के और भी आरोप लगाने की रणनीतियां बन रही है। ऐसी चचार्एं है कि निशंक सरकार भी इन बन व पक रही रणनीतियों को जानने के लिए अपने दूतों को इशारे कर चुकी है। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार सचिवालय के अन्दर कुछ अधिकारी ऐसे है जो कि सरकार की किरकिरी करने की मुहिम में लगे हुए है। यह भी चचार है कि जो अफसर सरकार के खिलाफ तानाबाना बुन रहे है उनको भाजपा के ही कुछ नेताओं की पूरी शह मिली हुइ है? आज ऐसे ही माहौल को भांपते हुए राज्य के सचिवालय में कोई भी अधिकारी अपना मुंह नहीं खोल पा रहा है। यह भी खबरें प्रकाश में आ रही है कि कुछ पत्रकारों व अधिकारियों पर मुख्यमंत्री डॉ़ रमेश पोखरियाल निशंक की अपने मुखबिरों के माध्यम से विशेष नजरें टिकी हुई है। मुख्य बात यह है कि मुख्यमंत्री निशंक को जो खबरें लगातार अपने मुखबिर सूत्रों के हवालों से मिल रही है, उनका अध्ययन कर एवं सोचसमझकर वे उनके विरूद्ध कार्यवाही को भी अंजाम दे रहे है। हाल ही में कुछ पत्रकारों पर सरकार ने अपना नजला भी निकाला है। पत्रकारों के खिलाफ भाजपा सरकार के इस कदम ने जिस तरह से मीडिया जगत में भारीभरकम सनसनी फैला डाली है उससे कई पत्रकारों में निशंक सरकार के खिलाफ आक्रोश भी ब़नने लग गया है। मीडिया जगत के नुमाइंदों को मानहानि के नोटिस भी भेजे जाने के मामले सामने आ रहे है। यही कारण है कि कुछ पत्रकार संगठन सरकार के खिलाफ लामबंद हो रहे है। सरकार इन पत्रकार संगठनों से किस तरह से लड़ेगी अथवा उनके संघर्ष का जवाब वह किस रूप में देगी, यह तो सरकार ही भलीभांति जानती है, लेकिन इतना अवश्य है कि निशंक सरकार आगामी विधानसभा चुनाव के शुरू हो चुके चुनावी मौसम में बड़ी मुसीबत में पड़ सकती है। मीडिया के कुछ नुमाइंदों से चल रही सकरार की लड़ाई का प्रभाव सरकार की विकास उपलाब्धियों पर भी पड़ता नजर आ रहा है। भाजपा खेमे में भी यह चर्चा है कि मुख्यमंत्री डॉ़ रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा मीडिया के साथ जो कथित तरीका अपनाया जा रहा है उसे लेकर स्वयं सत्ता दल में हैरानी बनी हुई है। पूर्व की कांग्रेस सरकार के पूरे पांच वर्षीय कार्यकाल में मीडिया व सरकार के बीच सियासी घुसपैठ अवश्य हुई भी, भाजपा ने ही विपक्ष में रहकर कांग्रेस के समय में हुए घोटालों को उठाया था तब मुख्यमंत्री एनडी तिवारी यह कह कर मामले को तूल नहीं देते थे कि सरकार अपना काम कर रही है और मीडिया अपना कार्य कर रहा है। सरकार मीडिया के काम में हस्तक्षेप नही कर सकती, लेकिन मौजूदा प्रदेश सरकार ने जो फार्मूला व रणनीति मीडिया के साथ तालमेल व खिलाफ रूप में अपनाई हुई है वह वास्तव में किसी भी रणनीतिकार, राजनैतिक विशेषज्ञ के गले नहीं उतर पा रही है। कहने का अभिप्राय यह है कि निशंक सरकार यदि ऐसे ही विवादों में पड़ती रही है और नोटिसों को भेजने में अपना कीमती समय देती रही तो वह विकास के अपने गणित को सही ढंग से कैलकुलेट नहीं कर सकती।

पंचायत से बड़ी नौकरशाही – राजेन्द्र बंधु

पंचायत रात व्यशवस्थान के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में सत्ता1 और विकास के अधिकार पंचायत इकाईयों को सौप दिए गए हैं। किन्तुं ये अधिकार पंचायत नौकरशाही के हाथों में ही सिमट कर रह गए हैं। पंचायत स्ततर पर नौकरशाही इतनी शक्तिशाली हो गई है कि पंचायत प्रतिनिधियों के निर्देशों की अवहेलना आम बात हो गई है। हाल ही में देवास जिले की बागली जनपद पंचायत की अध्य क्ष द्वारा क्षेत्र में दौरा करने पर ग्राम पंचायत सचिवों द्वारा अपत्ति व्यकक्त‍ गई आैर उनके दौरे पर एक भी सचिव उपस्थित नहीं हुआ। ग्राम पंचायत सचिवों का कहना था कि हमोर इलाके मे जनपद अध्यथक्ष को दौरा करने की जरूरत नहीं है। उल्लेिखनीय है कि त्रिस्त रीय पंचायत राज अधिनियम के अंतर्गत मध्यदप्रदेश में ब्लाेक स्तहर की पंचायत को जनपद पंचायत कहा जाता है, जिसे पूरे ब्लाशक में विकास कार्यों को संचालित करने तथा उसके निरीक्षण का अधिकार भी है।

आखिर एक लोकतांत्रिक व्यनवस्थाी में जनप्रतिनिधियों के दौरे और निरीक्षण पर कर्मचारियों द्वारा पाबंदी कैसे लगाई जा सकती है। उल्लेंखनीय है कि जनपद पंचायत बागली में दलित समुदाय की महिला अध्य क्ष के पद पर है। वे विकास कार्यों के लिए सक्रिय है। पद संभालने के एक साल बाद उन्होंीने जनपद क्षेत्र की ग्राम पंचायतों का दौरा शुरू किया तो कई अनियमितता सामने आई। उनके दौरे से कई ग्राम पंचायतों के निर्माण कार्यों में अनियमितता उजागर हुई, वहीं कई विद्यालयों में मध्यायन्हप भोजन व्य्वस्थां भी नियमों के अनुरूप नहीं पाई गई। कई विद्यालयों में शिक्षक अनुपस्थित थे और उपस्थिति रजिस्टंर पर उनके एडवांस में हस्ता क्षर पाए गए। एक विद्यालय में तो बच्चों् का उपस्थिति रजिस्ट र ही रिक्त पाया गया।

गौरतलब है कि पंचायत राज अधिनियम में विकास कार्यों के संबंध में निर्णय लेने और उनका निरीक्षण करने का अधिकार जनपद अध्यकक्ष सहित पंचायत इकाईयों को सौपे गए हैं, जिनमें शिक्षा, स्वा स्य्का , क्रषि, राजस्वू आदि विभाग शामिल है। इन विभागों के प्रशासनिक तंत्र की यह जिम्मेषदारी है कि जनप्रतिनिधियों द्वारा लिए गए निर्णयों का क्रियान्वतयन करें। किन्तुम पंचायत राज की स्थायपना के बाद ग्राम पंचायत सचिव से लेकर जनपद पंचायत व जिला पंचायत के मुख्या कार्यपालन अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों के बीच टकराव की कई घटनाएं सामने आती रही है। बागली जनपद पंचायत की यह घटना अब तक की सबसे ताजा घटना है, जिसमें ग्राम पंचायत सचिवों ने जनपद अध्य क्ष के ही अधिकारों को मानने से इंकार कर दिया है।

यदि कानूनी प्रक्रियाओं और प्रावधानों को देखें तो ग्राम पंचायत सचिव से लेकर जनपद व जिला पंचायत के मुख्य् कार्यपालन अधिकारी संबंधित निर्वाचित सदन के सचिव होते हैं जिन्हेंय निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। उनकी जिम्मेंदारी निर्वाचित सदन द्वारा लिए गए निर्णयों को क्रियान्वित करने की होती है। किन्तु वास्त‍विकता कुछ और ही है। पंचायतों के ज्या्दातर फैसलों में नौकरशाही का अत्य धिक हस्तवक्षेप देखा गया है। यह स्थिति पंचायतों की स्वावयत्ताो को तो प्रभावित करती ही है, साथ ही य ह लोकतांत्रिक मूल्योंप के विपरीत है और विकास कार्यो में बाधा उत्प न्न करती है। इस संदर्भ में सरकार की नीतियों और नौकरशाही के मानस को गहराई से समझना होगा। दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में भारत ही ऐसा संघीय प्रजातंत्र है जो नौकरशही को संवैधानिक मान्याता देता है। जबकि अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया ऐसी मान्यहता नहीं देते। भारत में नौकरशाही की यह स्थिति औपनिवेशिक शासन की देन है। आजादी से पहले प्रत्येेक सरकारी कर्मचारी स्थाशई था और उसे कानूनी सुरक्षा प्राप्तज थीं। आजादी के बाद हमने नौकरशाही की इस स्थिति को बदलने पर विचार नहीं किया। इस दशा में जब पंचायत राज व्यीवस्थाि में ग्रामवासियों को सत्ताद और विकास के अधिकर सौपे जाते हैं तो उस पर नौकरशाही का हावी होना स्वांभाविक है। 73 वें संविधान संशोधन में पंचायतों की नौकरशाही को राज्य् सरकार का मुद्दा माना गया है है। अत: राज्यज सरकार द्वारा नियुक्ता नौकरशाही स्वसयं को पंचायतों से उपर समझती है।

यह माना गया है कि 73 वें संविधान संशोधन के बाद शासन के तीन स्तेर रहेंगे केन्द्र , राज्यत और पंचायत। किन्तुा सविधान के चौदहवें भाग के अनुसार केन्द्रक और राज्यत के अंतर्गत सरकार नौकरी के सिर्फ दो स्तंर रहेंगे। अत: पंचायतों को अपने कर्मचारी रखने के लिए तीसरा स्तीर जोड़ते हुए संविधान के चौदहवें भाग का विस्ताोर करना होगा, तभी कर्मचारी राज्यस सरकार के बजाय पंचायत राज संस्थााओं के प्रति उत्तनरदायी हो सकेगे। आज राज्यज सरकार ही पंचायत के कर्मचारियों के मुद्दे हल करती है, वो ही उनकी नियुक्ति प्रक्रिया तय करती है और उनका स्था्नांतरण करती है।

कर्मचारियों और अधिकारियों को अपना काम पंचायतों के अधीन करना होता है। विकास के फैसले लेने का अधिकार जनप्रतिनिधियों का है। किन्तुह उन पर नियंत्रण राज्य सरकार का है। यही कारण है कि पंचायतों में नियुक्त् नौकरशाही से दिक्करत होने पर निर्वाचित इकाई को उनकी शिकायत राज्य सरकार से करनी पड़ती है।

पंचायत राज को ज्याकद सक्षम बनाने के लिए पंचायतों को अपने कर्मचारी नियुक्तर करने का अधिकार होना चाहिए। यदि पंचायत के लिए यह संभव न हो तो पंचायत राज संस्था ओं में भेजे जाने वाले अधिकारी राज्यए सरकार द्वारा वहां प्रतिनियुक्ति पर भेजे जाने चाहिए और उनकी सेवाएं पंचायत इकाईयों को सौप देनी चाहिए। इस संदर्भ में कर्नाटक के उदाहरण पर गौर किया जाना जा सकता है, जहां सन 1987 में सकरार ने हजारों कर्मचारियों को प्रतिनियुक्ति पर पंचायत राज संस्थाहओं में भेजा था।

मौजूदा पंचायत राज अधिनियम में इस तरह का प्रावधान न होने से पंचायतों के कर्मचारी व अधिकारी राज्यम सरकार के नियंत्रण में काम करते हैं, न कि पंचायतों के। इससे नौकरशाही तथा जनप्रतिनिधियों के बीच भूमिका और हैसियत को लेकर टकराव की घटनाएं सामने आती रहती है। स्थाकनीय स्व शासन को लेकर सन 1985 में गठित जी़ वी के राज समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि गांवों की गरीबी दूर करने के लिए ऐसा कोई तरीका कारगर नहीं होगा जो मूल्यों पर आधारित न होकर नौकरशाही पर आधारित हो।

हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण है जब नौकरशाही से टकराव की दशा में पंचायत प्रतिनिधियों को राज्या शासन से शरण लेनी पड़ी। क्योंेकि पंचायत में कार्यरत नौकरशाही पर राज्यि शासन का आदेश ही प्रभावी होता है। पंचायत राज इकाईयां उन्हें आदेशित करने की स्थिति में ही नहीं है। इस दशा में पंचायतों की स्वारयत्तान सबसे ज्यािदा प्रभावित होती है जो पंचायत राज के मूल्यों और लांकतांत्रिक सिद्धांतों के विपरीत है। इस दशा में संविधान के चौदहवें भाग का विस्तायर करते हुए पंचायत इकाईयों में कार्यरत नौकरशाही की सेवाएं पंचायतों को सौपना ही एक उपयुक्तर रास्ताा दिखाई देता है।

 

– राजेन्द्र बंधु

संपादक : कम्युंनिटी मीडिया

163, अलकापुरी, मुसाखेड़ी इन्दौकर, मध्ययप्रदेश, पिन- 452001 फोन : 08889884676 एवं 09425636024

 

सोशल नेटवर्किंग पर १७ मार्च को संवाद

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा आगामी 17 मार्च को सोशल नेटवर्किंग पर सक्रिय कुछ विशेषज्ञों का एक संवाद आयोजित किया गया है। इसका शुभारंभ इसी दिन प्रातः 10 बजे होगा। दिन भर चलने वाले इस संवाद में सोशल नेटवर्किंग के तकनीकी और सामाजिक पहलुओं पर बातचीत होगी।
आयोजन की संयोजिका डा.पी.शशिकला ने बताया कि इस संवाद के माध्यम से आपसी अनुभवों की सहभागिता होगी और भविष्य के लिए कुछ कार्ययोजना बनाने का प्रयास किया जाएगा। नए मीडिया के प्रयोग से किस प्रकार का समाज बन रहा है और इसके लिए किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए इस पर विचार करने की आवश्यकता है। संवाद में भौगोलिक सीमाओं को तोड़कर बन रहे रिश्तों, उससे उपजी नई सोच और नई संवाद व समाज रचना पर भी चर्चा की जाएगी।

पांच भूलें और मार्क्सवाद का भविष्य

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की हवा बनाने में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी ) यानी माकपा की अपनी पांच भूलों की बड़ी भूमिका है। इन पांचों भूलों को तुरंत दुरूस्त किए जाने की जरूरत है। पहली भूल , पार्टी और प्रशासन के बीच में भेद की समाप्ति। इसके तहत प्रशासन की गतिविधियों को ठप्प करके पार्टी आदेशों को प्रशासन के आदेश बना दिया गया । जरूरी है प्रशासन और पार्टी को अलग किया जाए। दूसरी भूल ,माकपा कार्यकर्ताओं ने आम जनता के दैनंन्दिन-पारिवारिक -सामाजिक जीवन में व्यापक स्तर पर हस्तक्षेप किया है,और स्थानीयस्तर पर विभिन्न संस्थाओं और क्लबों के जरिए सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की है। यह हस्तक्षेप और नियंत्रण तुरंत बंद होना चाहिए,साथ ही दोषियों को पार्टी पदों से मुक्त किया जाए। तीसरी भूल , अनेक कमेटियों ने कामकाज के
 वैज्ञानिक तौर-तरीकों को तिलांजलि देकर तदर्थवाद अपना लिया है। अवैध ढ़ंग से जनता से धन वसूली का तंत्र स्थापित किया है। इस तंत्र को तोड़ने की जरूरत है और कम्युनिस्ट पार्टी के तौर तरीकों के आधार पर काम करने की परंपरा कायम की जाए। चौथी भूल ,बड़े पैमाने पर अयोग्य,अक्षम और कैरियरिस्ट किस्म के नेताओं के हाथों में विभिन्न स्तरों पर पार्टी का काम सौंप दिया गया है। मसलन् जिन
 व्यक्तियों के पास भाषा की तमीज नहीं है,मार्क्सवाद का ज्ञान नहीं है,पेशेवर लेखन कला में शून्य हैं ,बौद्धिकों में साख नहीं है,ऐसे लोग पार्टी के अखबार,पत्रिकाएं और टीवी चैनल चला रहे हैं। अलेखक-अबुद्धिजीवी किस्म के लोग लेखकसंघ-बुद्धिजीवीमंचों के नेता बने हुए हैं। जो व्यक्ति कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में सामान्य विचारधारात्मक ज्ञान नहीं रखता वह नेता है। जिस विधायक की
 साख में बट्टा लगा है वह पद पर बना हुआ है। ऐसे लोगों की तुरंत छुट्टी की जाए। पांचवी भूल, राज्य प्रशासन का मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति नकारात्मक रवैय्या रहा है। मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक सबके अंदर 'हम' और 'तुम' के आधार पर सोचने की प्रवृत्ति ने राज्य प्रशासन के प्रति सामान्य जनता की आस्थाएं घटा दी हैं। आम जनता से वाम मोर्चा वायदा करे कि मानवाधिकारों की रक्षा के मामले
 में वह अग्रणी भूमिका निभाएगा और पिछली भूलों के लिए खेद व्यक्त करे।  ये पांच भूलें पार्टी अपने तथाकथित शुद्धिकरण अभियान के तहत भी दुरूस्त नहीं कर पायी है। ऐसे में माकपा के पास एक ही विकल्प है जिसकी ओर लोकसभा पराजय के तत्काल बाद माकपा नेता विमान बसु ने ध्यान खींचा था कि पार्टी कार्यकर्ता अपनी गलतियों,भूलों और दुर्व्यवहार के लिए घर -घर जाकर माफी मांगें।
वाम मोर्चे का शक्तिशाली रहना गरीबों के हित में है। भारत में गरीबों के हितों की रक्षा का सवाल बड़ा सवाल है। इसके मातहत पार्टी नेताओं के अहंकार,अज्ञान,दादागिरी आदि को तिलांजलि दिए जाने की सख्त जरूरत है। माकपा को मैं करीब से जानता हूँ और इस दल में आज भी अपने को दुरूस्त करने और ,जनता का दिल जीतने की क्षमता है। ममता बनर्जी के लिए माकपा की उपरोक्त पांच भूलों ने जनाधार प्रदान
 किया है। दूसरी ओर यह भी सच है कि गरीबों के पक्ष में काम करने का वाम मोर्चा सरकार का शानदार रिकॉर्ड है। मसलन् शहरी गरीबी को दूर करने के मामले में वाम सरकारों की उपलब्धि की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ। निम्नलिखित आंकड़े देश के श्रेष्ठतम अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों ने पेश किए हैं। इनमें से किसी का भी वामदलों के साथ कोई रिश्ता नहीं है। भारत सरकार के 'मिनिस्ट्री ऑफ हाउसिंग
 एंड अर्बन पॉवर्टी एलीवेशन' मंत्रालय के द्वारा जारी 'अर्बन पॉवर्टी रिपोर्ट 2009' में दिए गए आंकड़े बताते हैं कि 1973-2005 के बीच में भारत में जिन राज्यों में शहरी गरीबी कम हुई है वे हैं -पंजाब,गुजरात,पश्चिम बंगाल,हरियाणा और दिल्ली। मसलन् पश्चिम बंगाल में 1983-84 में शहरी गरीबों की आबादी 32.32 प्रतिशत थी,1987-88 में 35.08 प्रतिशत,1993-94 में 22.41 प्रतिशत और 2004-05 में घटकर 14.80 प्रतिशत रह गयी है। यानी 18 फीसदी
 शहरी गरीबी कम हुई है।  वाम ने आखिर यह जादू कैसे किया ?
वाम की गरीबोन्मुख नीतियों के कारण बड़ी संख्या में शहरी गरीबों की आर्थिक दशा में सुधार आया है। इसके विपरीत इसी अवधि में जिन राज्यों में सबसे ज्यादा शहरी गरीब दर्ज किए गए वे हैं- उडीसा,मध्यप्रदेश,राजस्थान,कर्नाटक और महाराष्ट्र। उल्लेखनीय है वाम वर्चस्व वाले केरल में इसी अवधि में सबसे ज्यादा शहरी गरीबी कम हुई है। सारे देश में और विभिन्न राज्यों में प्रति व्यक्ति
 राज्य घरेलू उत्पाद(एसडीपी) के आंकड़ों के अनुसार पश्चिम बंगाल में 1983-4 -2004-5 के दौरान शहरी गरीबी में बड़े पैमाने पर कमी आयी है। सारे देश के राज्यों में पश्चिम बंगाल की प्रति व्यक्ति घरेलू उत्पाद के मामले में भूमिका प्रशंसनीय रही है और वह देश में शहरी गरीबी उन्मूलन के मामले में 11वें स्थान से उठकर तीसरे नम्बर पर पहुँच गया है। इसी तरह जिन राज्यों में सबसे ज्यादा शहरी साक्षरता
 दर्ज की गई है उनमें केरल सबसे ऊपर है,केरल में 91 प्रतिशत साक्षरता दर्ज की गई है। वहीं सारे देश में जिन राज्यों में शहरी साक्षरता दर श्रेष्ठतम है, वे हैं- केरल,महाराष्ट्र, गुजरात, असम, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल। शहरी साक्षरता दर का आय और प्रति व्यक्ति मासिक व्यय के साथ गहरा संबंध है। शहर में पैसा नहीं कमाने वाले पढ़ भी नहीं सकते। शहरी गरीबों में साक्षरता के बढ़ने का अर्थ है
 कि उनकी आमदनी भी बढ़ी है। जिन पांच राज्यों में शहरी गरीबों की साक्षरता दर बढ़ी है,शहर में खर्च करके रहने की क्षमता बड़ी है उनमें दो राज्य हैं केरल और पश्चिम बंगाल। ये आंकड़े सेशंस विभाग के द्वारा जारी किए गए हैं। वाम मोर्चे के शासन में पांच भूलों के बाबजूद शहरी गरीबी को बड़ी मात्रा में खत्म करने में सफलता मिली है। मसलन् शहर में पीने के साफ पानी की सप्लाई 1981 में 79.8 फीसदी
 जनता तक थी जो 2001 में बढ़कर 92.3 फीसदी जनता तक हो गयी है। इसके अलावा 56.7 फीसदी जनता के घरों में नल से पानी सप्लाई होता है। राज्य की 84.8 फीसद शहरी आबादी के पास नागरिक सेवाएं पहुँची हैं।

 

सूचना आयोगों द्वारा ब्यूरोक्रेसी को बचाने के चक्कर में अपीलों का बढता अम्बार?

कुछ समय पूर्व उत्तर प्रदेश में राज्य सूचना आयोग ने एक तरह से अपने हाथ खड़े करते हुए सार्वजनिक रूप से कहा कि ‘‘अब हम इन लोक सूचना अधिकारियों का कुछ नहीं कर सकते|’’ यह निराशापूर्ण हताशा उत्तर प्रदेश के सूचना आयुक्त वीरेन्द्र सक्सेना ने बनारस में सूचना अधिकार पर आधारित एक कार्यक्रम में व्यक्त की| उन्होंने कहा कि ‘‘उत्तर प्रदेश सूचना आयोग में हरेक आयुक्त 30 से लेकर 100 अपील रोज़ाना सुनता है, लेकिन इसके बावजूद लम्बित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती ही चली जा रही है|’’ उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि ‘‘राज्य में सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल करने वाले 90 प्रतिशत लोगों को राज्य सूचना आयोग में अपील दायर करनी पड़ती है| जिससे आयोग का काम लगातार बढ़ता जा रहा है|’’

 

अकेल उत्तर प्रदेश के सूचना आयोग की यह स्थिति नहीं है, बल्कि देश के सभी राज्यों और केन्द्रीय सूचना आयोग में भी यही हालात हैं, जहॉं पर प्रतिदिन अपीलों का अम्बार लगातार बढता ही जा रहा है| लेकिन दु:खद बात यह है कि अपीलों के इस बढते अम्बार के लिये सूचना आयोगों के आयुक्त अपील करने वाले आवेदकों को जिम्मेदार ठहराकर, असल बात से मीडिया एवं लोगों को भटकाने का प्रयास कर रहे हैं और अपनी कानूनी जिम्मेदारी से मुक्त होते हुए दिखने का प्रयास कर रहे हैं, जो अन्यायपूर्ण और अवैधानिक होने के साथ-साथ अवास्तविक स्थिति है| सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है|

 

सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर इन लोक सूचना अधिकारियों एवं प्रथम अपील अधिकारियों का इतना साहस कैसे बढ गया कि वे उपलब्ध एवं वांछित सूचना को आवेदकों को उपलब्ध नहीं करवा रहे हैं| जिसके कारण व्यथित होकर 90 प्रतिशत आवेदकों को सूचना आयोग के समक्ष अपील पेश करने को विवश होना पड़ रहा है| इन सबकी हिम्मत किसने बढ़ाई है? सूचना न देने वाले अधिकारियों और प्रथम अपील अधिकारियों की बदनीयत का पता लग जाने एवं जानबूझकर आवेदकों को उपलब्ध सूचना, उपलब्ध नहीं करवाने का अवैधानिक कृत्य प्रमाणित हो जाने के बाद भी उनके विरुद्ध सूचना आयोगों द्वारा जुर्माना न लगाना या नाम-मात्र का जुर्माना लगाना तथा जुर्माने की तत्काल वसूली को सुनिश्‍चित नहीं करना, क्या सूचना नहीं देने वाले अफसरों को, स्वयं सूचना आयोग द्वारा प्रोत्साहित करना नहीं है|

 

इसके अलावा अपील पेश करके और अपना किराया-भाड़ा खर्च करके सूचना आयोग के समक्ष उपस्थित होने वाले आवेदकों को स्वयं सूचना आयुक्तों द्वारा सार्वजनिक रूप से डांटना-डपटना क्या सूचना नहीं देने वाली ब्यूरोक्रसी को सूचना नहीं देने को प्रोत्साहित नहीं करता है? सूचना आयोग निर्धारित अधिकतम पच्चीस हजार रुपये के जुर्माने के स्थान पर मात्र दो से पॉंच हजार का जुर्माना अदा करने के आदेश करते हैं और जानबूझकर सूचना नहीं देना प्रमाणित होने के बाद भी सूचना अधिकारियों के विरुद्ध विभागीय अनुशासनिक कार्यवाही के बारे में सम्बद्ध विभाग को निर्देश नहीं देते हैं|

 

ऐसे हालात में अगर अपीलों का अम्बार बढ रहा है तो इसके लिये केवल और केवल सूचना आयोग ही जिम्मेदार हैं| उन्हें सूचना अधिकार कानून का उपयोग करने वाले लोगों पर जिम्मेदारी डालने के बजाय, स्वयं का आत्मालोचना करना होगा और अपनी वैधानिक जिम्मेदारी का कानून के अनुसार निर्वाह करना होगा| यदि सूचना उपलब्ध होने पर भी कोई अधिकारी निर्धारित तीस दिन की अवधि में सूचना नहीं देता है, तो उस पर अधिकतम आर्थिक दण्ड अधिरोपित करने के साथ-साथ ऐसे अफसरों के विरुद्ध तत्काल अनुशासनिक कार्यवाही करके दण्ड की सूचना प्राप्त कराने के लिये भी उनके विभाग को सूचना आयोग द्वारा निर्देशित करना होगा|

 

यदि सूचना आयोग अफसरशाही के प्रति इस प्रकार का रुख अपनाने लगें तो एक साल के अन्दर-अन्दर दूसरी अपीलों में 90 प्रतिशत कमी लायी जा सकती है| सच्चाई तो यह भी है कि यदि सूचना का अधिकार कानून के अनुसार सभी सूचनाओं को जनता के लिये सार्वजनिक कर दिया जावे तो सूचना चाहने वालों की संख्या में भी भारी कमी लायी जा सकती है|

 

लेख हरियाणा में जाटों का तांडव

हरियाणा में जाट एक समृद्ध जाति है, जिसके पास जमीन, शिक्षा तथा पैसा के साथ सत्ता भी है। हरियाणा में किसी अन्य व्यक्ति का काम भले ही रूक जाए परन्तु किसी जाट का काम, भले ही कानून के दायरों से बाहर हो, हो ही जाता है। वोटों की राजनीति के चलते जाटों की किसी भी सामूहिक बात का विरोध करने का साहस किसी भी नेता में नहीं है। हालफिलहाल यहां के जाटों ने आरक्षण के मुद्दे पर पूरे हरियाणा में रेल रोको आंदोलन शुरू किया हुआ है परन्तु यहां सत्ता में बैठे जाट मुख्यमंत्री का एक बार भी इस मुद्दे पर जाटों के विरोध में बयान तक नहीं आया। यहां तक कि मुख्य विपक्षी इनेलो के सुप्रीमो भी जाटों की इस मांग पर कुछ नहीं कह रहे। यदि वह समर्थन करते हैं तो पूरे राज्य की जाटों से इतर जातियां, जो कि सड़क तथा रेल मार्ग से कहीं आजा नहीं पा रहे तथा जाटों को आरक्षण देने से जिन्हें प्रत्यक्ष नुकसान है, की नाराजगी उन्हें झेलनी होगी। तथा यदि वह जाटों की इस मांग का विरोध कर देते हैं तो उनके ही जात वालों के वोट उन्हें नहीं मिलेंगे। कुल मिलाकर जाट अपने आंदोलन को लगातार तेज करते जा रहे हैं और सत्तापक्ष तथा विपक्ष के नेता चुप्पी मार कर बैठे हुए हैं। रोजाना करोड़ों का नुकसान हो रहा है। बीमार आदमी दिल्ली के अस्पताल के लिए रेफर किए जाते हैं परन्तु उन्हें दिल्ली नहीं पहुंचने दिया जा रहा। इससे पूर्व भी जाटों ने मिर्चपुर कांड में, जिसमें जाटों ने वाल्मिकियों के परिवार वालों को जिन्दा जला दिया था तथा उनके घर जला दिए थे, को लेकर जबरदस्त आंदोलन किया था और अपनी अनैतिक मांगों को मनवाने की बेवजह जिद्द की थी। प्रजातंत्र में किसी को भी अपनी मांगों को प्रशासन के सामने रखने का अधिकार है परन्तु देश व संविधान से ऊपर कोई भी नहीं हो सकता। जाटों ने अपनी संख्या तथा सत्ता बल के जरिए ऐसीऐसी मांगें प्रशासन के सामने रखी हैं, जो कहीं से भी नैतिक नहीं है। सोचने की बात वास्तव में है भी कि आखिर हर तरह से समर्थ हरियाणा के जाटों को आरक्षण किस लिए? परन्तु समस्या की जड़ में देखें तो यहां भी गलती वोट बटोरू नीतियों की ही है। वोट के लिए हमारे देश के नेता बहुत नीचे गिर सकते हैं। पूरे देश में यह हो रहा है। लालू ने बिहार में इस नीति के तहत बहुत सालों राज किया और बिहार को रसातल में पहुंचा दिया था। बहुत साल लगे बिहार को इस जातिगत राजनीति के नुकसान को समझने में। ममता बनर्जी भी ऐसी ही राजनीति को ब़ावा अब तक दे रही हैं। कांगे्रस सदैव से मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर चलती रही है। जिस किसी भी संसदीय अथवा विधानसभा क्षेत्र में अल्पसंख्यक पर्याप्त मात्रा में हैं, वहां की पूरी राजनीति जातिगत समीकरणों पर चलती है। इससे समाज का एक तबका अपनी नाजायज मांगों को मनवाने का साहस कर पाता है और यदि अपनी जाति के तुष्टिकरण के चलते वह तबका समर्थ हो जाता है तो अपनी असंवैधानिक तथा नाजायज मांगें मनवाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, जो कि आज हरियाणा के जाट कर रहे हैं। हम इतिहास पर जरा गौर करें। श्रीलंका में तमिल व सिंहलियों की समस्या भी एक वर्ग को अधिक सुविधाएं तथा दूसरे की उपेक्षा के कारण पनपी थीं, जिसने दसियों साल लिए और उस वर्ग के भी लाखों लोगों की हत्या करवा दी, जिसे दी जाने वाली सुविधाओं के कारण वंचित वर्ग में असंतोष तथा विद्रोह पनपा था। नक्सलवाद भी इसी सिद्घान्त पर पनपा जो कि आज दिशाहीन तथा उग्र विरोध का रूप ले चुका है। कहीं ऐसा न हो कि हरियाणा में जाटों को दी जाने वाली हर सुविधा गैरजाट जातियों को एकजुट होने पर मजबूर कर दे तथा केछिपे जो मामले सामने आ रहे हैं, नक्सलवाद यहां भी अपना प्रभुत्व जमा ले। यहां के समझदार लोगों ने तो अब खुले आम कहना भी शुरू कर दिया है कि अबकी बार गैरजाट को मुख्यमंत्री बनाना चाहिए वरना यहां पर जंगल राज हो जाएगा। क्या यह शुरूआत है उस विद्रोह की जो कि अन्ततः जाटों का ही नुकसान करेगा अथवा उससे पहले ही जाटों को भी समझ आ जाएगी? कुछ जाट नेता तो जाटों के आरक्षण का विरोध भी किए परन्तु जाटों ने उन्हें जाति से बाहर करने की धमकी दे दी। संपत सिंह इसका उदाहरण हैं। हालांकि संपतसिंह ने बहुत ही जायज बात की थी। बात अन्त में फिर नेताओं पर जा ठहरती है। वह क्या सोचते हैं? वह क्या करते हैं? वोटों के लिए किसी भी हद तक गिर जाने वाले नेता क्या समाज व देशहित की सोच पाएंगें? यदि ऐसा कर सकते तो आरक्षण का जिन्न इतना बलवान होता ही नहीं।

– सुरेश बरनवाल

सिरसा, हरियाणा

M. 9896561712

भारतीय बैंक संघ का अभियान स्वाभिमान करायेगा कितना अपमान

स्वाभिमान, जिसे भारतीय बैंक संघ सुनहरे कल का अभियान बना कर 2000 से अधिक जनसख्या वाले सभी 73000 बैंक रहित गांवो में बैंकिग सुविधाये पहुॅचाने का दावा कर रहा है। बैक संघ के अधिकारी जो भात प्रतित सामाजिक और ग्रामीण जनजीवन से अनभिज्ञ है भले ही सरकार से वाही वाही लूट ले पर ग्रामीणों के लिये ऐसी मुसीबत के बीज बो रहे हैं जिससे निजात पाना उनके लिये मुकिल होगा। बैंको का दावा है कि गॉव में ये सुविधा बैक साथी के माध्यम से देगें।लगता है सरकार और बैंक, भारत के गॉव गॉव में फैले दलालों के कारनामों से अन्जान है जो पोस्टकार्ड लिखने से मनीआर्डर तक में दलाली खाते है, विधवाओं, विकलांगो और वृद्घो की पोंन तक में बंदरबाट करलेते है वे गॉव में बैंकिग व्यवस्था को कैसे बेदाग छोड सकेंगे, अथवा जान बूझ कर कबूतर को बिल्ली के हाथों सौंप रहे है। जबसे आर्थिेक उदारवाद और बाजारवाद का दौर आया है और दो जननेताओं के बदले बैंक अधिकारियों के हवाले हो गया है। प्रधानमंत्री जैसा पद जो जनता की समझ रखने वाले नेताओं के लिये होना चाहिये उस पर बैंक के रिटायर्ड नौकराह विद्यमान है, योजना आयोग के अध्यक्ष जिनकी समझ समाज की अंतिम पंक्ति पर पडे दरिद्रनारायण पर होनी चाहिये,जो विव बैंक के पुराने नौकराह रहे हैं, केन्द्र राज्य सम्बन्धो सकल घरेलू उत्पाद, जी0डी0पी0 जैसी परिभाशाओं में दो की जनता को उलझाये हुए हैं, हद तो तब हो गई जब यू0पी0ए0 की चैयरपर्सन माननीया सोनिया गॉधी की भोजन की गांरटी योजना को रिजर्व बैंक के भूतपूर्व गवर्नर रंगराजन की कमेटी ने नकार दिया। लगता है भारत दो नहीं रिजर्व बैंक के अफसरों का दफतर बन कर रह गया है। किसी जमाने में बैंक समाज के सबसे सम्मानित और रूतबे वाले दफतर होते थे वे आज बैंक कर्मचारियों की दुर्गति का सामान बने हुए है, बैंक कर्मचारी निरीह बन कर रह गये है। दुनिया में एकमात्र बैंक ही ऐसी संस्था है जहॉ प्रत्येक काम ग्राहक के आदो पर या अफसरों के निर्दो पर होते हैं, वहॉ कोई निवेदन करने वाला नहीं है इसी मानसिकता के चलते ग्रामीण क्षेत्र की बैंको में तो आये दिन गाली गलौच और िकायतबाजी की घटनायें आम है। इसके लिये जहॉ बैंको के प्रबन्धन दोशी हैं उससे ज्यादा सरकार का दबाव काम करता है। जो बैंक कर्मियों के प्रति अपमानजनक व्यवहार का जनक होता है बैंको पर काम के बोझ की हालत का अंदाजा आप इसी से लगा सकते है कि रिजर्व बैंक आफ इंडिया जो बैंको के कानूनो का नियमन करता है उसने बैंको में काम के कम से कम चार घण्टे निर्धारित कर रखें है, इससे अधिक समय तक बैंक अपने ग्राहको को सेवा देना चाहता है तो उसे दूसरी पारी भाुरू करनी होती है, इसी के साथ साथ गोपोरिया कमेटी ने बैंको को इस चार घण्टे के निर्धारित समय के बाद नान कौ ट्राजकन करने की सिफारि की थी इसी के साथ बैंक कर्मचारियों की यूनियनों और भारतीय बैंक संघ ने किसी तथाकथित बाइपरटाइट में बैंको का कार्यसमय आधा घण्टे बाने की बात तय की थी लेकिन इससे अलग आज पूरे भारत में बैंक के कर्मचारियों को सुबह दस बजे से भाम के चार बजे तक ग्राहको की सेवा करने को बाध्य होना पड रहा है। किसी सरकारी या सहकारी बैंक को कर्मचारी मना करे भी तो कैसे अनेको बैंको ने तो मार्निग 8 से इवनिंग 8 तक के बोर्ड टांग रखें है।यूनियनों के कामरेड साल भर में एक बार ’संसद मार्च’ की काल या एक दिन की स्ट्रइक करवा कर सारे साल पॉच सितारो होटलो और हवाई यात्राओं क ेमजे लेते हैं।निर्धारित काम के घण्टे’ जैसे यूनियनों के स्लोगन बीते जमाने की बात बन कर रह गये है। विभिन्न सर्वेक्षण बताते है कि बैंक के सबसे बडे ग्राहक उसके कर्मचारी होते है जो हर महीने अपने वेतन को 75 प्रतित तक अपने कर्जो के बदले कटवाते हैं अब ऐसे में कल्पना करें कि उसका गुजारा कितना दुश्कर होगा। फिर भी आज तक बैंको में बेइमानी और रिवतखोरी जैसी बुराइया सिर्फ उॅचे ओहदो तक ही है निचले पायदान आज भी साफ सुथरे हैं या यूॅ कह सकते हैकि गुलाम वृत्ति के कारण बैंक के कर्मचारी भ्रश्टाचार की हिम्मत नहीं कर पाते और अपने बे काम के बोझ को इमानदारी का रिवार्ड बता कर संतोशकरने के प्रयास करते हैं। सरकार ग्रामीणों को बेहतर सेवा दे ये तो काबिले तारीफ है पर उसके घर जाकर सेवा करें ये दास वृत्ति है।ऐसे अभियान नागरिकों में स्वाभिमान नहीं अहंकार को बाने वाले ही हो सकते हैं आज दो में बैंको की साख गोपनीयता और धन की सुरक्षा के कारण है और जब ये ही आम हो जायेगा तो स्वाभिमान जैसे अभियान अंततः दो की बैंकिग व्यवस्था को ठप्प करने का माध्यम होंगे। बैको के महासंघ को सरकार के किसान मित्र, स्वास्थय सहायक, जैसी योजना की विफलताओं से कुछ तो सीखना चाहिये ।

– अनिल त्यागी,

बिजनौर उ0प्र0

लोकतांत्रिक पत्रकारिता का आईना है ‘कही अनकही’

उत्तर-पूर्व के राज्यों और पश्चिम बंगाल में हिन्दी पत्रकारिता में लोकप्रिय अखबार ‘सन्मार्ग’ की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह इस क्षेत्र का सबसे बड़ा अखबार है। इसका व्यापक पाठक समुदाय इसकी सबसे बड़ी ताकत है। अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी को जन-जन तक संचार की भाषा बनाए रखने में इस अखबार की बहुत बड़ी भूमिका है। यह भूमिका उस समय और भी बढ़ जाती है जब इन राज्यों में हिन्दी विरोधी आंधी चलती है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो ‘सन्मार्ग’ हिन्दीभाषियों की भाषायी और जातीय पहचान का आईना है। सामान्य नागरिक से लेकर सत्ता के गलियारों तक इस अखबार को बड़े चाव के साथ पढ़ा जाता है।

हाल ही में मुझे सन्मार्ग में सन् 2010 में प्रकाशित सम्पादकीय टिप्पणियों का एक संकलन ‘कही अनकही’ के नाम से देखने को मिला। देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि जब समाचारपत्रों में संपादक गायब हो गया हो,संपादक की पहचान प्रबंधक की रह गयी हो, ऐसी अवस्था में हिन्दी के एक दैनिक के सम्पादकीयों का पुस्तकाकार रूप में आना संपादक के गरिमामय पद की मौजूदगी का संकेत देता है। इन दिनों ‘सन्मार्ग’ के संपादक हरिराम पाण्डेय हैं। पाण्डेयजी विगत दो दशक से भी ज्यादा समय से इस अखबार के साथ जुड़े हुए हैं और इस अखबार को जनप्रिय बनाने में उनकी मेधा और कौशल की बड़ी भूमिका है।

कोलकाता से निकलने वाले समाचारपत्रों में ‘सन्मार्ग’ अकेला ऐसा अखबार है जिसने अपने पाठकों की संख्या में क्रमशः बढोतरी के साथ अपने सर्कुलेशन और विज्ञापनों से होने वाली आय में भी निरंतर इजाफा किया है। इस दौरान अन्य अनेक नए हिन्दी अखबारों ने अपने कोलकाता संस्करण प्रकाशित किए हैं। लेकिन ‘सन्मार्ग’ की लोकप्रियता के ग्राफ में इससे कोई कमी नहीं आयी है। इस समय कोलकाता से प्रभातखबर, दैनिक जागरण, नई दुनिया,राजस्थान पत्रिका,विश्वमित्र,जनसत्ता,छपते-छपते आदि अनेक दैनिक प्रकाशित हो रहे हैं। इससे कोलकाता के हिन्दी प्रेस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का विकास हुआ है।

‘कही अनकही’ संकलन में ‘सन्मार्ग’ में सन् 2010 में प्रकाशित सम्पादकीयों को संकलित किया गया है। इस संकलन की एक ही कमी है ,इसमें संपादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशन की तिथि नहीं दी गयी है। प्रकाशन तिथि दे दी जाती तो और भी सुंदर होता। इससे मीडिया पर रिसर्च करने वालों को काफी मदद मिलती। यह एक तरह की शोध स्रोत सामग्री है। सामान्यतौर पर संपादकीय टिप्पणियों के प्रति ‘लिखो और भूलो’ का भाव रहता है। लेकिन इस संकलन के प्रकाशन ने ‘लिखो और याद रखो’ की परंपरा में इन टिप्पणियों को पहुँचा दिया है। संपादकीय टिप्पणियों में जिस नजरिए का प्रतिपादन किया गया है उससे एक बात झलकती है कि सम्पादक अपने नजरिए को किसी एक खास विचारधारा में बांधकर नहीं रखता। इसके विपरीत विभिन्न किस्म के विचारधारात्मक नजरिए के साथ उसकी लीलाएं सामने आती हैं। इनमें बुनियादी बात है सम्पादकीय की लोकतंत्र के प्रति वचनवद्धता । लोकतांत्रिक नजरिए के आधार पर विभिन्न विषयों पर कलम चलाते हुए संपादक ने सतेत रूप से ‘सन्मार्ग’ को सबका अखबार बना दिया है।

समाचारपत्र के संपादकीय आमतौर पर अखबार की दृष्टि का आईना होते हैं। इनसे अखबार के नीतिगत रूझानों का उद्घाटन होता है । ‘कही अनकही’ में विभिन्न विचारधाराओं के सवालों पर संपादकीय अंतर्क्रियाओं ने संपादकीय को विचारधारात्मक बंधनों से खुला रखा है। इन टिप्पणियों में मुद्दाकेन्द्रित नजरिया व्यक्त हुआ है। इसके कारण संपादकीय की सीमाओं को भी प्रच्छन्नतः रेखांकित करने में मदद मिलती है। पत्रकारिता के पेशे के अनुसार संपादक किसी एक विचारधारा या दल विशेष के प्रति निष्ठावान नहीं हो सकता।लेकिन समाचारपत्र के संपादकों की अपनी विचारधारात्मक निष्ठाएं होती हैं,जिन्हें वे समय-समय पर व्यक्त करते रहते हैं।

संपादकीय टिप्पणियां संपादकमंडल की सामूहिक पहचान से जुडी होती हैं। वे किसी एक की नहीं होतीं। जिन टिप्पणियों के साथ नाम रहता है वे उस लेखक की मानी जाती हैं । लेकिन जिन संपादकीय टिप्पणियों को संपादकीय के रूप में अनाम छापा जाता है उन्हें अखबार की आवाज कहना समीचीन होगा। इसके बाबजूद इस अखबार के संपादक होने के नाते हरिराम पाण्डेय ही इन संपादकीय टिप्पणियों के प्रति जबाबदेह हैं और ये टिप्पणियां उनकी निजी पत्रकारीय समझ को भी सामने लाती हैं।

‘कही अनकही’ का महत्व यह है कि इसके बहाने पहलीबार भारत के किसी हिन्दी अखबार की सम्पादकीय टिप्पणियों को देखने का मुझे अवसर मिला है। हिन्दी संपादकों में संपादकीय टिप्पणियों को पुस्तकाकार रूप में छापने की परंपरा नहीं है। बेहतर होगा अन्य दैनिक अखबारों के संपादक इससे प्रेरणा लें।

 

सरकार में दृढ़ संकल्प का अभाव : नक्सलियों से निपटने की रणनीति अस्पष्ट

उड़ीसा के मलकानगिरि जिले के जिलाधिकारी आर विनित कृष्णा और कनिष्ठ अभियंता पवित्र मांझी को नक्सलियों ने अंततोगत्वा सशर्त रिहा कर दिया। फरवरी 2011 के आखिरी सप्ताह में इन दोनों की सशर्त रिहाई से नक्सलियों के हौसलें दुस्साहसिक वारदात करने के लिए और बुलन्द हो गए हैं। बासदारा डिविजनल कमेटी (स्थानीय नक्सली) प्रमुख आजाद द्वारा जारी पोस्टरों में कोरापुट क्षेत्र में मंत्रियों, नेताओं व बीजद नेताओं के प्रवेश पर सजा-ए-मौत देने की घोषणा की गयी है। कोरापुट क्षेत्र में नवरंगपुर, रायगड़ा, मलकानगीरी व कोरापुट जिले आते हैं। अतिवादी सशस्त्र हिंसक नक्सली आन्दोलन सन् 1967 में पं. बंगाल के दार्जिलिंग जिला स्थित नक्सलबाड़ी गाँव से पनपा था। आज यह भारत के 640 जिलों में से 20 राज्यों के 232 जिलों के तकरीबन 2000 थाना क्षेत्रों तक फैल चुका है, जो कि देश का लगभग 40 प्रतिशत है।

 

नक्सल उन्मूलक आपरेशन ग्रीन हंट तो पहले से ही सुरक्षा बलों के मरने का आपरेशन बनता जा रहा है। छत्तीसगढ़ जिले में 76 जवानों का नरसंहार इसका ज्वलंत उदाहरण है। परन्तु उड़ीसा के इन 4 जिलों में तो माओवादियों ने मंत्रियों, विधायकों व नेताओं के प्रवेश पर पाबंदी लगाकर समानांतर सरकार चलाने की पूरी तैयारी कर ली है। केन्द्र व प्रदेश सरकारों का नक्सलियों की इन चुनौतियों पर जमीनी रुप से कोई स्पष्ट और गंभीर रुख नहीं है। सिवाय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व गृहमंत्री पी चिदम्बरम के कई बार नक्सली हिंसा को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा एवं गंभीर खतरा बताने के। नक्सलियों से ग्रस्त राज्यों में यदि आंध्रप्रदेश में इसके नियंत्रित होने को छोड़ दिया जाय तो अन्य किसी राज्यों में ये नियंत्रण में नहीं है। उड़ीसा सरकार तो 9 दिनी बंधक संकट में नक्सलियों के सामने पूरी तरह नतमस्तक नजर आयी। छत्तीसगढ़ सरकार की नयी जंगल ट्रेनिंग एवं कैम्प जैसी ठोस रणनीति का जमीनी क्रियान्वयन होना अभी शेष है, साथ ही भ्रष्टाचार व आदिवासियों पर हो रहे जुल्मों को भी रोकने में सरकार लगातार अक्षम साबित होती जा रही है।

 

नक्सली समस्या का समाधान नहीं होने का प्रमुख कारण यह है कि सभी राजनीतिक दल नक्सलियों को आदिवासियों व मजदूरों का वास्तविक व सच्चा प्रतिनिधि मानते हैं और उन्हें डर है कि नक्सलियों पर कार्रवाई करने से उनका वोटबैंक कम हो जायेगा और वे चुनाव हारने लगेंगे। लेकिन वास्तविकता यह है कि नक्सलियों का गरीबों, आदिवासियों व मजदूरों की लड़ाई से कोई लेना-देना नहीं है और न ही इन तबकों में नक्सलियों की कोई गहरी पैठ है। यह तथ्य इस बात से प्रमाणित होता है कि नक्सली वर्तमान में प्रत्येक परिवार से एक बच्चे को जबरन अपने काडर में भर्ती कर रहे हैं।

 

वास्तव में नक्सली देश की सत्ता, माओ दर्शन, “सत्ता बंदूक की नली से मिलती है ” की विचारधारा पर चलकर हथियाना चाहते हैं। लेकिन नक्सली यह भूल जाते हैं कि भारत में लोकतंत्र की जड़े उनकी समझ से परे बहुत व्यापक रुप से गहरी हैं। पिछले 60 सालों में भारतीय लोकत्रंत ने चार युद्धों और सन् 1975 में गृहयुद्ध सरीखे आपातकाल का सफलतापूर्वक सामना किया है। नक्सलियों ने विदेशी हथियारों व मदद के बल पर पं. बंगाल से कर्नाटक तक एक “रेड़ कॉरिड़ोर” बनाया है। जिसमें पूर्वोत्तर के विकास न कर पाये अलगाववादी हिंसा से ग्रस्त राज्य शामिल नहीं हैं।

 

क्या नक्सली तथाकथित रेड कॉरिडोर के बाहर के पूर्वोत्तर के राज्यों के विकास से संतुष्ट हैं ? नहीं, लेकिन ऐसी बात नहीं है। उन्हें विकास नहीं बल्कि बंदूक के दम पर भारत की सत्ता चाहिए। यदि बंदूक की क्षमता से ही सत्ता का फैसला करना माओवादियों को हर हाल में मंजूर है तो सरकार की बंदूक माओवादियों से कई गुना अधिक क्षमतावान है, जो उनकी बंदूकों को अत्यल्प समय में खामोश कर देगी। माओवादियों को हिंसा का रास्ता छोड़ कर अविलम्ब सरकार से बातचीत करना ही होगा अन्यथा सरकार उनको समाप्त कर देगी।

 

विकास से नक्सलियों का कोई लेना-देना नहीं है इसलिए नक्सली विकास के सभी आधारों स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, पुल, सड़क तथा कानून व व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अपरिहार्य पुलिस थानों तक को बम से उड़ाकर के कैसा विकास चाहते है? दरअसल नक्सलग्रस्त राज्यों में यदि विकास हो गया ,पर्याप्त रोजगार, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल पुल व सड़क की सुविधा हो गयी तो नक्सली अपने काडर में किसकी भर्ती करेगें? इसलिए नक्सली विकास के सभी आधारों को नष्ट करके वंचित लोगों को दुःखी, जिल्लत, बेबस व लाचार बनाये रखने को कृतसंकल्पित हैं जिससे उन्हें लक्ष्य प्राप्ति तक मानव संसाधन पर्याप्त रुप से मिलता रहे।

 

गरीबों, आदिवासियों, मजदूरों, भूमिहीन ग्रामीणों के समर्थन का दम्भ भरने वाले नक्सली चुनावों में विजयी होकर, अपनी विचारधारा की सरकार बनाकर छत्तीसगढ़, झारखण्ड जैसे आदिवासी बहुल राज्यों का विकास क्यों नहीं करते? वास्तविकता व सच का सामना नक्सली चुनावों में इसलिए नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें भय है कि कहीं हमारी पोल न खुल जाय कि हमारी पैठ केवल बुलेट के भय से है, इंसानी दिलों में तो पैठ है ही नहीं। दूसरा कारण यह है कि एक किसी राज्य विशेष के चुनावों में करारी हार के बाद नक्सली उस राज्य में समाप्त ही हो जायेंगे।

 

नक्सली बौद्धिक रूप से दरिद्र प्रतीत हो रहे हैं क्योंकि श्रेष्ठतम उदात्त लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसके साधन भी श्रेष्ठ होने चाहिए, यह महात्मा गाँधी का कथन है। नक्सलियों को इस लोकतंत्र को कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए कि लोकतांत्रित शासन प्रणाली के कारण ही लोग उसके पक्ष में लेख लिखते हैं, धरना-प्रदर्शन करते हैं। माओ विचारधारा वाले चीनी शासन ने अपने शिनझियांग प्रांत के विद्रोह को जैसे कुचल डाला, वह नक्सलियों और भारत सरकार दोनों के लिए स्मरणीय है। सरकार के लिए इस कारण कि वह उसी तरह से नक्सलियों का सफाया कर दे और नक्सलियों के लिए इस कारण कि वह या तो हिंसा का रास्ता छोड़कर बातचीत करके राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो जाय या तो सुरक्षा बलों द्वारा कुचले जाने को तैयार रहें।

 

एक बात शीशे की तरह एकदम साफ है कि भारतीय लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। पिछले 60 वर्षों के लोकतांत्रिक इतिहास में भारत में एक भी सशस्त्र आन्दोलन सफल नहीं हुआ है। नक्सलियों को हिंसा का रास्ता छोड़ना ही होगा। भारत सरकार नक्सलियों के सामने घुटने टेकने से पूर्व भारतीय सेना का प्रयोग एक बार अवश्य करेगी जिसमें सारे नक्सली अवश्य ही मारे जायेंगे।

 

आज राजनीतिक दलों की रुचि “ग्रासरुट पॉलिटिक्स” में नहीं रही। किसी राजनीतिक दल के नेता और कार्यकर्ता अब सुदूर गाँवों, पिछड़े आदिवासी इलाकों में नहीं जाते। उनके बीच केवल नक्सली ही जाते हैं इसलिए बेरोजगार युवक नक्सली काडर बन रहे हैं। नक्सलियों की ताकत छुपी है वंचितों में, शोषितों में, गाँवों में, गरीबों में।  व्यवस्थागत अन्याय और भ्रष्टाचार उनकी असीम ऊर्जा के अजस्र स्रोत हैं। उनके रहनुमा अपने कामकाज, दृष्टि और विचारधारा में न केवल आज के नेता-नौकरशाह-सरकारी नौकर से अधिक स्पष्ट है बल्कि कट्टर-बर्बर-हिंसक भी हैं। वे जानते है कि उनकी ताकत है – गहराती, फैलती सामाजिक आर्थिक विषमता। पर नक्सली सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल कर रहे हैं कि वे भारतीय लोकतंत्र में हिंसा से बदलाव चाहते है। वर्तमान भारतीय परिदृश्य में यह एकदम असम्भव है।

 

यह सही है कि आज की व्यवस्था में भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं रहा, नैतिक सवाल नहीं रहा, यहाँ तक तो ठीक है परंतु भ्रष्टाचार आज की व्यवस्था में एक शिष्टाचार बनता जा रहा है, यह व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी है। पर दुनिया भर के विशेषज्ञ एक सुर में कह रहे हैं कि विकास के रास्ते में भ्रष्टाचार सबसे बड़ा रोड़ा है। झारखंड में भ्रष्टाचार की स्थिति अत्यंत स्तब्धकारी है। नक्सली इस नाजुक मुद्दे को उठाते हैं।

 

अगर नक्सलियों के खिलाफ सरकार वास्तव में निर्णायक अभियान चलाना चाहती है तो उसे अपनी सोच, नीति, कार्यान्वयन, चाल-चरित्र आदि में गुणात्मक परिवर्तन अवश्य करना होगा। दरअसल नक्सली समस्या से निपटने के लिए एक उत्कृष्ट लोकतांत्रिक राजनीति चाहिए, जो जनता के प्रति प्रतिबद्ध, नैतिक, पारदर्शी व ईमानदार हो। यह काम सरकार और राजनीतिक दल ही कर सकते हैं, परंतु वर्तमान टरकाउ-प्रधान कार्यप्रणाली से यह  कतई संभव नहीं लगता।